Bhaarat ke teej tyohar by goverdhan yadav

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कौमद ु ी महोत्सव (हमारे पर्व और त्योहार)

गोवर्धन यादव http://rachanakar.org की प्रस्ततु त

1 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


कौमुदी महोत्सव ( हमारे पवध एवं त्योहार.)

हमारे पवध एवं त्योहार अनक्र ु म

पष्ृ ठ क्र. 1 2 3 4 5 6 7. 8 9 10 11 12. 13 14. 16 17. 19 20 21 22

अष्टससद्धि नवतनधर् के दाता=श्री हनम ु ानजी

5

सिवरात्रि

15

आ गई महासिवरात्रि पर्ारो िंकरजी

सिव पज ू न के प्रतीक द्वादिज्योततसलिंग

आज के पररप्रेक्ष में ककतने प्रासंधगक हैं श्रीराम

ईश्वरीय सत्ता का सातनंध्य पाने के सलए भगवत्गीता कमधयोगी श्रीकृष्ण

काततधक मास का महत्व कौमद ु ी महोत्सव

गणगौररया लाखा री बर्ाइयां गोवर्धन पज ू ा का महत्व

नददयों में नहाने से समलती है प्रसन्नता

मनोभावों को पररमार्जधत करने के सलए भग्वतगीता ऋद्धि पंचमी नागपंचमी

सभन्न-सभन्न भािाओं में रामायण श्रावणमास में पर्ू जत सिव सावन के झल ू े पडॆ

भारतीय संस्कृतत एवं दहन्द ू र्मध के रक्षख झूलेलाल(उदरोलाल) राजस्थान के सती दादी महोत्सव

10 18 27 30 32 35 40 41 43 48 53 54 58 61 65 67 72 74 2 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


23 24 25 26 27 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39

वक्रतण् ु डं महाकाय

78

मैं खखन्न मन से त्रबदा ले रहा हू​ूँ राजस्थान के लोकदे वता

81 84

द्धवराट िर्तत के प्रतीक वीर हनम ु ान

86

महालक्ष्मी व्रत

91

गोपाष्टमी

96

बंर्न राखी का

98

श्रीराम जन्मोत्सव होलीकोत्सव सय ध ष्ठी ू ि

102 105

महोत्सव

108

पवनपि ु श्री हनम ु ानजी

113

होली के रं ग दे ि से परदे ि तक

118

श्रीमद्भगवत गीता तथा अन्य गीताएं

121

आददवाससयों के अनठ ू े त्योहार (जंगल में मंगल)

124

या दे वी सवधभत े ु द्धवद्यारूपेण संर्स्थता ू ि

131

श्रीनाथद्वारा में श्रीनाथजी के ददव्य दिधन.

135

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3 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


परिचय *नाम--गोवर्धन यादव *पपता-. स्व.श्री.सभतकुलाल यादव *जन्म स्थान -मुलताई.(जजला) बैतुल.म.प्र. * जन्म ततथथ- 17-7-1944 *सिक्षा - स्नातक *तीन दिक पव ू ध कद्धवताऒ ं के माध्यम से सादहत्य-जगत में प्रवेि *दे ि की स्तरीय पि-पत्रिकाओं में रचनाओं का अनवरत प्रकािन *आकािवाणी से रचनाओं का प्रकािन *करीब पच्चीस कृततयों पर समीक्षाएं

कृततया​ाँ

* महुआ के वक्ष ृ ( कहानी संग्रह ) सतलुज प्रकािन पंचकुला(हररयाणा) *तीस बरस घाटी

(कहानी संग्रह,) वैभव प्रकािन रायपरु (छ,ग.)

* अपना-अपना आसमान (कहानी संग्रह) िीघ्र प्रकाश्य. *एक लघक ु था संग्रह, िीघ्र प्रकाश्य.

सम्मान *म.प्र.दहन्दी सादहत्य सम्मेलन तछंन्दवाडा द्वारा”सारस्वत सम्मान” *राष्रीय राजभािापीठ इलाहाबाद द्वारा “भारती रत्न “

4 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


*सादहत्य ससमतत मल ु ताई द्वारा” सारस्वत सम्मान” *सज ु था गौरव सम्मान” ृ न सम्मान रायपरु (छ.ग.)द्वारा” लघक *सुरसभ सादहत्य संस्कृतत अकादमी खण्डवा द्वारा कमल सरोवर दष्ु यंतकुमार सम्मान *अखखल भारतीय बालसादहत्य संगोष्टी भीलवाडा(राज.) द्वारा”सज ृ न सम्मान” *बालप्रहरी अलमोडा(उत्तरांचल)द्वारा सज ृ न श्री सम्मान *सादहर्त्यक-सांस्कृततक कला संगम अकादमी पररयावां(प्रतापगघ्ह)द्वारा “द्धविावचस्पतत स. *सादहत्य मंडल श्रीनाथद्वारा(राज.)द्वारा “दहन्दी भािा भूिण”सम्मान *राष्रभािा प्रचार ससमतत वर्ाध(महाराष्र)द्वारा”द्धवसिष्ठ दहन्दी सेवी सम्मान *सिव संकल्प सादहत्य पररिद नमधदापरु म होिंगाबाद द्वारा”कथा ककरीट”सम्मान

*तत ृ ीय अंतराष्रीय दहन्दी सम्मेलन बैंकाक(थाईलैण्ड) में “सज ृ न सम्मान. *पव ू ोत्तर दहन्दी अकादमी सिलांग(मेघालय) द्वारा”डा.महाराज जैन कृष्ण स्मतृ त सम्मान. * मारीिस यािा(23-29 मई 2014) कला एवं संस्कृतत मंिी श्री मख ु ेश्वर मख ु ी द्वारा सम्मानीत

* सादहत्यकार सम्मान समारोह बैतल ू में सज ू -२०१४ ृ न-साक्षी सम्मान ( जन * द्धववेकानन्द िैक्षखणक, सांस्कृततक एवं क्रीडा संस्थान दे वघर(झारखण्ड) द्वारा राष्रीय

सिखर सम्मान.

* तुलसी सादहत्य अकादमी भोपाल द्वारा सम्मानीत-०३-०८-२०१

पवशेष उपलजधिया​ाँ:-औिोधगक नीतत और संवर्धन द्धवभाग के सरकारी कामकाज में दहन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबधं र्त द्धवियों तथा गह ृ मंिालय,राजभािा द्धवभाग द्वारा तनर्ाधररत नीतत में सलाह दे ने के सलए वाखणज्य और उिोग मंिालय,उिोग भवन नयी ददल्ली में “सदस्य” नामांककत

(2)केन्रीय दहन्दी तनदे िालय( मानव संसार्न द्धवकास मंिालय) नयी ददल्ली द्वारा_कहानी

संप्रतत

संग्रह”महुआ के वक्ष ृ ” तथा “तीस बरस घाटी” की खरीद की गई.

सेवातनवत ृ पोस्टमास्टर(एच.एस.जी.1* संयोजक राष्र भािा प्रचार ससमतत र्जला इकाई तछं.

फ़ोन.नम्बर—07162-246651 (चसलत) 09424356400 Email= yadav.goverdhan@rediffmail.com (2) goverdhanyadav44@gmail.com

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१...हनम ु ानजी जयंती पर द्धविेि आलेख

अष्ठ ससद्धि नवतनधर् के दाता

5 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


अतसु लतबलर्ामं हे मिैलाभदे हं, दानज ु वनकृिानुं ज्ञातननामाग्रगण्यम सकलगण ु तनर्ानं वानरानामर्ीिं,रघप ु तत द्धप्रय भततं वातजातं नमामी

----------------------------------------------------------------अततबलिाली, पवधताकारदे ह, दानव-वन को ध्वंस करने वाले, ज्ञातनयों में अग्रणी, सकलगण ु ों के र्ाम,,वानर ं के स्वामी, श्री रघन ु ाथजी के द्धप्रय भतत,पवनसत ु श्री हनम ु ानजी को मैं प्रणाम करता हू​ूँ बडा ही रोचक

प्रसंग है .भगवान सय ू ध के वरदान से र्जसका स्वरुप सव ु णधमय हो गया है,ऎसा एक सम ु ेरु नाम से प्रससि पवधत है ,जहाूँ श्री केसरी राज्य करते हैं. उनकी अंजना नाम से सद्धु वख्यात द्धप्रयतमा पर्त्न के गभध से श्री हनम ु ानजी का जन्म हुआ.

सय य त्तविस्वर्यः सम ू द ु ेरुनायम पवयतः*यत्र िाज्यं प्रशास्त्यस्य केसिी नाम वै पपता तस्य भायाय बभव ू ेष्टा

अजंनेतत परिश्रुता*जनयामास तस्यां वायिु ात्मजमत्ु तमम (वार्ल्मक.रा.उत्तर.पंचत्रि​िंसगध.श्लोक.१९-२०) एक ददन माता अजंना फ़ल लाने के सलए आश्रम से तनकलीं और गहन वन में चली गयीं. बालक हनम ु ान को भख ध े व उददत होते ददखायी ददये. उन्होंने उसे ू लगी. तभी उन्हें जपाकुसम ु के समान लाल रं गवाले सय ू द कोई फ़ल समझा और वे झल ध े व पर ग्रहण लगाना ू े से फ़ल के लोभ में उछल पडॆ. उसी ददन राहु सय ू द चाहता था. हनम ु ानजी ने सय ू ध के रथ के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पिध ककया तो राहु वहां से भाग खडा हुआ और इन्र से जाकर सिकायत करने लगा. हनम ु ानजी ने सय ू ध को तनगल सलया. संपण ू ध संसार में अन्र्कार का साम्राज्य छा गया. क्रोधर्त इन्र ने अपने वर स से हनम ु ान पर प्रहार ककया. इन्र के व्रज के प्रहार से अचेत हनम ु ान नीचे की ओर धगरने लगे. द्धपता पवनदे व ने उन्हें संभाला और घर ले आए.

क्रोधर्त पवनदे व ने अपनी गतत समेट ली, र्जससे समस्त प्राखणयों की साूँसे बंद होने लगी. दे खते ही

दे खते सारे संसार का चक्र त्रबगड गया. घबराए इन्र ने ब्रह्माजी की िरण ली और इससे बचने का उपाय खोजने की प्राथधना की.

तत्पश्चात चतम ु ख ुध ब्रह्माजी ने समस्त दे वत्ताओं, गन्र्वों, ॠद्धियों, यक्षों सदहत वहाूँ पहुूँचकर वायद ु े वता के गोद में सोये हुए पि ु को दे खा और सि​िु पर हाथ फ़ेरा. तत्काल बालक के िरीर में हलचल होने लगी. उन्होंने उस बालक से अनरु ोर् ककया कक वह अपना मख ध े व को छ ड दें . बालक के मूँह ु खोलकर सय ू द ु

खुलते ही सय ध े व आकािमण्डल पर कफ़र चमचमाने लगे. संसार कफ़र अपनी गतत पर चलने लगा. कफ़र ू द ब्रह्माजी ने समस्त दे वताओं से कहा;_ “ इस बालक के द्वारा भद्धवष्य में आप लोगों के बहुत-से कायध ससि होंगे, अतःवायद ु े वता की प्रसन्न्ता के सलए आप इसे वर दें .

6 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


इन्र ने अपने गले में पडी कमल के फ़ूलों की माला डालते हुए कहा:- मेरे हाथ से छूटॆ हुए व्रज के द्वारा इस बालक की “हन”ु (ठुड्डी) टूट गयी थी, इससलए इस कद्धपश्रेष्ठ का नाम “हनम ु ान” होगा. इसके अलावा मैं दस ू रा वर यह दे ता हू​ूँ कक आज से यह मेरे वर स के द्वारा भी नहीं मारा जा सकेगा.

सय ध े व ने वर दे ते हुए कहा:-“मैं इसे अपने तेज का सौवाूँ भाग दे ता हू​ूँ. इसके अलावा जब इसमें ू द िास्िाध्ययन करने की िर्तत आ जायगी, तब मैं इसे िास्तों का ज्ञान प्रदान करुूँ गा, र्जससे यह अच्छा वतता होगा. िास्िज्ञान में कोई भी इसकी समानता करने वाला न होगा.”

वरुण दे वता ने वर दे ते हुए कहा:-“दस लाख विॊं की आयु हो जाने पर भी मेरे पाि और जल से इस बालक की मत्ृ यु नहीं होगी”. यमराज ने वर दे ते हुए कहा;-“ यह मेरे दण्ड से अवध्य और नीरोग होगा.”. कुबेर ने वर दे ते हुए कहा:-“मैं संतष्ु ट होकर यह वर दे ता हू​ूँ कक यि ु में कभी इसे द्धविाद नहीं होगा तथा मेरी यह गदा संग्राम में इसका वर् न कर सकेगी”. भगवान िंकर ने वर दे ते हुए कहा:_” यह मेरे और मेरे आयर् ु ों के द्वारा भी अवध्य रहे गा. सिर्ल्पयों में श्रेष्ठ परम बद्धु िमान द्धवश्वकमाध ने बालसय ू ध के समान अरुण कार्न्तवाले उस सि​िु को वर ददया “मेरे बनाए हुए र्जतने भी ददव्य अस्ि-िस्ि हैं,उनसे अवध्य होकर यह बालक धचरं जीवी होगा.”

चतम ु ख ुध ब्रह्मा ने वर दे ते हुए कहा:-“यह दीघाधय,ु महात्मा तथा सब प्रकार से ब्रहदण्ड ं से अवध्य होगा तथा ि​िओ ु ं के सलए भयंकर और समिों के सलए अभयदाता होगा. यि ु में कोई इसे जीत नहीं सकेगा. यह इच्छानस ु ार रूप र्ारण कर सकेगा, जहाूँ जाना चाहे जा सकेगा. इसकी गतत इच्छा के अनस ु ार तीव्र या

मन्द होगी तथा वह कहीं भी रुक नहीं सकेगी. यह कद्धपश्रेष्ठ बडा यिस्वी होगा. यह यि ु स्थल में रावण का संहार करने और भगवान श्रीरामचन्रजी के प्रसन्न्ता का सम्पादन करने वाले अनेक अद्भत ु एवं रोमांचकारी कमध करे गा. ( वार्ल्मक रामा.श्लोक ११ से २५)

इस ् प्रकार से हनम ु ानजी बहुत-से वर पाकर वरदानजतनत िर्तत से सम्पन्न और तनभधय हो ऋद्धि-मतु नयों के आश्रमों में जाकर उपरव करने लगे. कभी वे यज्ञोपयोगी पाि फ़ोड दे त,े उनके वत्कलों को चीर-फ़ाड दे त.े इनकी िर्तत से पररधचत ऋद्धिगण चुपचाप सारे अपरार् सह लेत.े भग ृ ु और अंधगरा के वंि से

उत्पन्न हुए महद्धिध कुद्धपत हो उठे और उन्हें िाप ददया कक वे अपनी समस्त िर्ततयाूँ भल ू जाएंगे और जब कोई उन्हें उनकी िर्ततयों का स्मरण ददलाएंग,े तभी इसका बल बढे गा. समर े और जाम्बवान ु तट पर नल- नील- अंगद, गज, गवाक्ष, गवय,िरभ, गन्र्मादन, मैन्द, द्द्धवद्धवद, सि ु ण बैठे द्धवचार कर रहे थे कक इस सौ योजन समर ु को कैसे पार ककया जाए?. सभी अपनी-अपनी सीसमत

िर्ततयों का बखान कर रहे थे और समर ु से उस पार जाने में अपने आपको असमथध बतला रहे थे. इस समय हनम ु ान एक दरू ी बनाकर चुपचाप बैठे थे. तब वानरों और भालओ ू ं के वीर यथ ू पतत जाम्बवान ने

7 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


वानरश्रेष्ठ हनम ु ानजी से कहा कक वे दरू तक की छलांग लगाने में सवधश्रेष्ठ हैं. उन्होंने द्धवस्तार के साथ

द्धपछली सारी घटनाओं की जानकारी उन्हें दी. अपनी िर्ततयों का स्मरण आते ही वीर उठ खडॆ हुए और अपने साधथयों को आश्वस्त ककया कक वे सीताजी का पता लगाकर तनश्चय ही लौटें गे. एवमक् ु तवा तु हनम ु ान वानिो वानिोत्तमः उत्पपाताथ वेगेन वेगवानपवचाियन सप ु र्यममव चात्मानं मेने स कपपकंु जिः (वाल्मीक रामा.सन्ु दरकाण्ड सगध १-४३-४४) ऎसा कहकर वेगिाली वानरप्रवर श्री हनम ु ानजी ने ककसी भी द्धवघ्नबार्ाओं का ध्यान न करके, बडॆ वेग से छलांग मारी और आकाि में उड चले.

सभी इस बात से भली-भांतत पररधचत ही हैं कक श्री हनम ु ानजी ने ककस तरह रास्ते में पडने वाली समस्त बार्ाओं को अपने बल और बद्धु ि के बल पर पार ककया और लंका जा पहुूँचे. वहाूँ उन्होंने कौन-कौन से अद्भत ु ानजी को माूँ सीताजी ने ु पराक्रम ककए, इसे सभी पाठक भली-भांतत जानते हैं .ग्यारवें रुर श्री हनम अमरता का वरदान दे ते हुए कहा था...

अष्ट मसपि नवतनथि के दाता* अस वि ददन्ह जानकी माता. वे अष्ट ससद्धियाूँ और नौ तनधर्याूँ तया हैं,इसके बारे में संक्षक्षप्त में जानकाररयाूँ लेते चलें

अष्ट मसपिया​ाँ इस प्रकाि हैं---अणर्मा, मदहमा, गरिमा, लतिमा, प्राजतत, प्राकाम्य, ईमशता तथा वमशता. अणर्मा मसपि= इससे ससिपरु ु ि छोटे -से छोटा रुप र्ारण कर सकता है लतिमा मसपि= सार्क अपने िरीर का चाहे र्जतना द्धवस्तार कर सकता है . मदहमा मसिी= कोई भी कदठन काम आसानी से कर सकता है गरिमा= = इस ससद्धि में गरु ु त्व की प्रार्प्त होती है .सार्क र्जतना चाहे वजन बढा सकता है . प्राजतत= हर कायध को अकेला ही कर सकता है .. प्राकाम्य= इसमें सार्क की सभी मनोकामनाएं पण ू ध होती हैं. वमशत्व= सार्क सभी को अपने वि में कर सकता है . इमशत्व सार्क को ऎश्वयध और ईश्वरत्व प्राप्त होता है . हनम ु ानजी को ऎश्वयध और ईश्वरत्व प्राप्त है , यही वजह है कक छोटे से छोटे गाूँव से लेकर महानगरों तक उनके मर्न्दर दे खे जा सकते हैं.जहाूँ असंख्य

संख्या में भततगण श्री हनम ु ानजी की पज ू ा-अचधना करते हैं और अपने कष्ट ं के तनवारण के प्राथधना करते हैं और दःु खों से छुटकारा पाते हैं

नौ तनथिया​ाँ= शंख, मकि, कच्छ, मक ु ंु द, कंु द, नील, पद्म औि महापद्म 8 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


महद्धिध वार्ल्मक ने श्रीरामभतत हनम ु ान के बल और पराक्रम को लेकर सन् ु दरकाण्ड की रचना की. इन्होंने अडसठ सगों तथा र्जसमें दो हजार आठ सौ बासठ श्लोकों हैं

भतत सिरोमणी श्री तल ु सीदासजी ने सन् ु दरकाण्ड मे एक श्लोक,,साठ दोहे,ततहत्तर चौपाइयां और छः छं द की रचना की. सन् ु दरकाण्ड अन्य काण्ड ं से सन्ु दर इससलए कहा गया है कक इसमें वीर सिरोमणी श्री

हनम ु ानजी के अतसु लत पराक्रम, िौयध, बद्धु िमता आदद का बडा ही रोचक वणधन ककया गया है . संत श्री तल ु सीदासजी ने तनम्न सलखखत ग्रंथ ं की रचनाएूँ की. वे इस प्रकार

हैं. श्रीिामचरितमानस/िामललानहछू/वैिाग्यसंदीपनी/बिवैिामायर्/पावयतीमंगल/जानकीमंगल/िामाज्ञाप्रश्न/दोहाव ली/कपवतावली/गीतावली/श्रीकृष्र्-गीतावली/पवनय-पत्रत्रका/सतसई/छं दावली िामायर्/पवनय

पत्रत्रका//सतसई/छं दावली िामायर्/कंु डमलया िामायर्/िाम शलाका/संकट मोचन/किवा िामायर्/िोला

िामायर्/झूलना/छतपय िामायर्/कपवत्त िामायर्/कमलिमायिमय तनरूपर् तथा हनम ु ान चालीसा आदद ग्रंथ की रचनाकर श्रीरामजी सदहत हनम ु ानजी की अमरगाथा को जन-जन तक पहुूँचाया.

हम सभी भली-भांतत जानते हैं कक ककस तरह अपनी पर्त्न का उलाहना सन ु कर तल ु सीदास जी श्रीराम के दास बने और उन्होंने अपना संपण ू ध जीवन उन्हें समद्धपधत कर ददया. कािी में रहते हुए उनके भीतर कद्धवत्व-िर्तत का प्रस्फ़ुरण हुआ और वे संस्कृत में काव्य-रचना करने लगे वे जो भी रचना सलखते रात्रि में सब लप्ु त हो जाती थी. यह क्रम सात ददनों तक चलता रहा. आठवें ददन स्वयं भगवान सिवजी –

पावधतीजी के सदहत आकर तल ु सीदासजी के स्वपन में आदे ि ददया कक तम ु अयोध्या में जाकर रह और अपनी भािा में काव्य रचना करो. मेरे आिीवाधद से तम् ु हारी कद्धवता सामवेद के समान फ़लवती होगी.

िायद आप लोग ने अनभ ु व ककया अथवा नहीं यह मैं नहीं जानता लेककन इतना दावे के साथ तो कह ही सकता हू​ूँ कक रामायण की अनेक चौपाइयाूँ, हनम ु ान चालीसा की अनेक पंर्ततयाूँ िाबर मंिों की तरह चमत्कारी है तथा इनके द्धवधर्द्धवर्ान से जाप करने पर तत्काल फ़ल की प्रार्प्त होती है ,तयोंकक श्री

हनम ु ानजी एकमाि ऎसे दे वता हैं जो अपने भततों पर सदहत ही प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी सभी

कामनाओं क परू ा करते हैं. यदद ककसी को भत ू -द्धपिाच का डर सताता हो तो वह * भत ू द्धपिाच तनकट

नहीं आवै* महाबीर जब नाम सन ु ावै“”,रोगों से मर्ु तत पाने के सलए “नासै रोग हरै सब पीरा* जपत तनंतर

हनम ु त बीरा, संकट से उबरने के सलए “संकट ते हनम ु ान छुडावै*मन क्रम बचन ध्यान जो लावै””संकट कटै समटै सब पीरा*जो ससु मरै हनम ु त बलबीरा, “कौन सो संकट मोर गरीब को,*जो तम ु सों नदहं जात है

टारो*बेधग हरो हनम ु ान महाप्रभ,ु जो कछु संकट होय हमारो”,भत ू प्रेत द्धपिाच तनिाचर*अर्ग्न बेताल काल मारी मर*इन्हें मारु तोदह िपथ राम की*राखु नाथ मरजाद नाम की”, आदद-आदद

इसी तरह श्रीरामिलाका प्रश्नावली के अनस ु ार आप अपने मन में उमड-घम ु ड रही िंकाओं का तत्काल

तनदान सकते हैं. वैसे तो संपण ू ध रामायण ही अद्भत ु है , इसकी हर चौपाई िाबर मंिों की तरह काम करती हैं तथा तत्काल सारे सकल मनोरथ पण ू ध करने करती है . यही कारण है कक भारत के घर-घर में तनत्य रामायण का पाठ होता है , ककन्ही-ककन्ही घरों में अखण्ड पाठ भी चलता रहता है .

9 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


श्रीरामचन्रजी से प्रथम भेंट के बाद से लेकर रामराज्य की स्थापना और बाद के अनेकानेक प्रसंगों को

पढ-सन ु कर हृदय में अपार प्रसन्नता तो होती ही है, साथ में हमें सदकमों को करने की प्रेरणा भी समलती है . श्रीमदहनम ु ानजी की र्जतनी भी स्ततु त की जाए, कम ही प्रतीत होती है . श्री हनम ु ानजी के व्यर्ततत्व

को पहचानने के सलए यह भी आवश्यक है कक हम उनके चररि की मानवी भसू मका के महत्व को समझें. यदद हम यह द्धवश्वास करते हों कक श्रीराम के रुप में स्वयं भगवान श्री द्धवष्णु और मरुत्पि ु के रुप में

स्वयं सिव अवताररत हुए थे, तब भी हमको यह समझना चादहए कक दै वी-िर्ततयाूँ दो उद्देश्य से अवतररत होती हैं. इन उद्देश्यों की सच ू ना गीता द्वारा भी हमें प्राप्त होती है . इन उद्देश्यों मे पहला उद्देश्य है-

र्मधसस् ं थापना और दस ू रा है दष्ु टसंहार. इनमें भी ध्यान दे ने की बात यह है कक दष्ू टसंहार को पहला स्थान प्राप्त नहीं है . पहला स्थान र्मधसस् ं थापन को ददया गया है . र्मधसस् ं थापन के सलए जब भगवान और दे वता मनष्ु य समाज में अवतररत होते हैं, तब ठीक वैसा ही आचरण करते हैं,जो र्माधकूल और मनष्ु यों जैसा ही

हो. भगवान श्रीराम और रामसेवक हनम ु ान यावज्जीवन संहारकमध के ही व्यस्त नहीं रहें . वे समाज के र्मध संस्थापन के कायध में अग्रणी बनकर, जीवन भर उसका नेतत्ृ व करते रहे और जब आवश्यक हो गया, तभी उन्होंने िस्िों का उपयोग ककया. इससलए यह आवश्यक है कक हम हनम ु च्चररि की मानवीय भसू मका को

अपने जीवन में उतारें और यग ं थाना के कायों में सहयोगी बनें एवं भारत का नाम ु -यग ु में व्याप्त र्मधसस् रौिन करें .

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आ गई महासिवरात्रि पर्ारो िंकरजी २. सर्ृ ष्ट की रचना का श्रेय ब्रह्माजी को, वहीं उसके पालनहार का श्रेय श्री द्धवष्णज ु ी को और संहारक के रुप में भगवान िंकर को माना गया है . इस तरह प्रकृतत का संतल ु न बना रहता है . श्री द्धवष्णु और श्री ब्रह्माजी अपने-अपने लोक में बडॆ ही वैभव के साथ रहते हैं ,जबकक सिव श्मसान में घन ू ी रमाये रहते है . वस्ि के नाम पर उनके िरीर से व्याघांबर होता है . परू े िरीर पर भस्म लपेटे रहते हैं. और गले में सपों

10 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


की माला डली रहती है . उनके चारों ओर भत ू -द्धपिाचों का जमावडा रहता है . वे पद्मासन लगाये पलप्रततपल राम के नाम का जाप करते रहते हैं. भययत ु त वातावरण में रहने के बावजद ू भी उनके भततों की संख्याूँ कम नहीं है . दे वों के दे व महादे व अपने भततों पर असीम कृपा बरसाने वाले दे व हैं. वे जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले दे वता और अपने भततों को मनचाहा वरदान दे ने के सलए जगप्रससि हैं. महासिवरात्रि का व्रत करने से उनकी कृपा और भी सघन रुप से उनके भततों पर बरसती रहती है . सिवरात्रि का अथध वह िात्रत्र है जजसका मशवतत्व के साथ ितनष्ठ सम्बन्ि है .या यह कहें कक मशवजी को जो िात्रत्र अततपप्रय है उसे “मशविात्रत्र” कहा गया है . रात्रि ही तयों ? भगवान िंकर संहारिर्तत और तमोगण ु के अधर्ष्ठाता हैं, अतः तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह(लगाव) होना स्वाभाद्धवक है . रात्रि संहारकाल की प्रतततनधर् है . उसका आगमन होते ही सवधप्रथम प्रकाि का संहार, जीवों की दै तनक कमधचेष्टाओं का संहार और अन्त में तनरा द्वारा चेतना का ही संहार होकर सम्पण ू ध द्धवश्व संहाररणी रात्रि की गोद में धगर जाता है . ऎसी दिा में प्राकृततक दृर्ष्ट से सिव का रात्रिद्धप्रय होना सहज ही हृदयंगम हो जाता है . यही कारण है कक भगवान िंकर की आरार्ना न केवल इस रात्रि में ही वरन सदै व प्रदोि (रात्रि के प्राम्भ होने) के समय में की जाती है एक बार पावधतीजी ने र्जज्ञासावि भगवान सिव से प्रश्न ककया कक “सिवरात्रि” तया होती है , उस ददन सिवारार्ना से ककस फ़ल की प्रार्प्त होती है और उसके करने का तया द्धवर्ान है ? भगवान आित ु ोि ने उत्तर दे ते हुए कहा फ़ाल्गन ु े कृष्र्पक्षस्य या ततथथ स्याच्चतद ु य शी तास्यां या तामसी िात्रत्रः सोच्यते मशविात्रत्रका तत्रोपवासं कुवायर्ः प्रसादयतत मां ध्रुवम न स्नानेन न वस्त्रेर् न िप ू ेन न चाचयया तष्ु यामम न तथा पष्ु पैयथ य ा तन्नोपवासतः अथाधत-फ़ाल्गन ु कृष्णपक्ष की चतद ु धिी “सिवरात्रि” कहलाती है . जो उस ददन उपवास करता है , वह मझ ु े प्रसन्न कर लेता है . मैं असभिेक, वस्ि, घप ू , अचधन तथा पष्ु पाददसमपधण से उतना प्रसन्न नहीं होता र्जतना कक व्रतोपवास से.

11 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


ईिानसंदहता में बतलाया गया है कक फ़ाल्गन ु कृष्ण चतद ु ध िी की रात्रि को आदददे व भगवान श्रीसिव करोड ं सय ू ों के समान प्रभाव वाले सलंगरुप में प्रकट हुए. मशविात्रत्र व्रत की वैज्ञातनकता तथा आध्याजत्मकता ज्योतति िास्ि के आनस ु ार फ़ाल्गन ु कृष्ण चतद ु ध िी ततधथ में चन्रमा सय ू ध के समीप होता है . अतः वही जीवनरुपी चन्रमा का सिवरुपी सय ू ध के साथ योग-समलन होता है . अतः इस चतद ु ध िी को सिवपज ू ा करने से जीव को अभीष्टतम पदाथध की प्रार्प्त होती है. यही “सिवरात्रि” का रहस्य है . महासिवरात्रि का पवध परमात्मा सिव के ददव्य अवतरण का मंगलसच ू क है . उनके तनराकार से साकार रुप में अवतरण की रात्रि ही “ महासिवरात्रि” कहलाती है . वे हमें काम, क्रोर्, लोभ, मोह, मत्सरादद द्धवकारों से मत ु त करके परम सख ु , िार्न्त, ऎश्वयाधदद प्रदान करते हैं. ईशानसंदहता में एक आख्यान प्राप्त होता है –पद्मकप्ल के प्रारं भ में भगवान ब्रह्माजी ने जब अण्डज, द्धपण्डज, स्वेदज, उतद्भज्ज एवं दे वताओं आदद की सर्ृ ष्ट कर चुके, एक ददन द्धवचरण करते हुए क्षीरसागर जा पहुूँचे. उन्होंने दे खा कक भगवान श्री नारायण िभ्र ु , श्वेत सहस्िफ़णमौसल श्री िेिजी की िय्या पर िांत अर्लेटे हुए है . श्रीदे वी श्रीमहालक्ष्मीजी उनकी चरण-सेवा कर रही है . गरुड, नन्द, सन ु न्द, गन्र्वध, ककन्नर आदद द्धवनम्रभाव से हाथ जोडॆ खडॆ हैं. यह दे खकर ब्रह्माजी को अतत आश्चयध हुआ. ब्रह्माजी को गवध हो गया था कक कक वे ही इस सर्ृ ष्ट का मल ू कारण, सबका स्वामी, तनयन्ता तथा द्धपतामह हू​ूँ. वे मन ही मन सोचने लगे कक इन्होंने मझ ु े आया दे खकर न तो प्रणाम ककया और न ही असभवादन ककया. क्रोर् में वे तमतमा उठे . उन्होंने तनकट जाकर कहा:- “दे खते नहीं...तम् ु हारे सामने कौन खडा है ? मैं जगत का द्धपतामह हू​ूँ और तम् ु हारा रक्षक. तम ु को मेरा सम्मान करना चादहए” इस पर भगवान नारायण ने कहा:- सारा जगत मझ ु में र्स्थत है . कफ़र तम ु उसे अपना तयों कहते हो ? तम ु मेरी नासभ-कमल से पैदा हुए हो, अतः मेरे पि ु हो” दोनो में द्धववाद होने लगा. ब्रह्माजी ने “पािप ु त: और श्री द्धवष्णु ने “माहे श्वर” अस्ि उठा सलया. ददिाएूँ अस्िों के तेज से जलने लगीं, सर्ृ ष्ट में प्रलय की आिंका हो गयी. दे वगण भागते हुए कैलाि पवधत पर भगवान द्धवश्वनाथ के पास पहुूँचे. अन्तयाधमी सिवजी समझ गए. दे वताओं द्वारा स्ततु त करने पर प्रसन्न होते हुए उन्होंने कहा:-“मैं ब्रह्मा-द्धवष्णु के बीच चल रहे यि ु को जानता हू​ूँ. मैं उन्हें िांत कर दं ग ू ा. ऎसा कहकर भगवान िंकर दोनो के मध्य में अनादद, अनन्त-ज्योततमधय स्तम्भ के रुप में प्रकट हुए. “मशवमलंगत्योभ्दत्ू यः कोदटसय य मप्रभः” .माहे िर, पािप ू स ु त दोनों अस्ि िान्त होकर उसी ज्योततसलिंग में लीन हो गए.

12 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


यह सलंग तनष्फ़ल ब्रह्म, तनराकार ब्रह्म का प्रतीक है . श्री द्धवष्णु और ब्रह्मा ने उस सलंग की पज ू ा-अचधना की. यह सलंग फ़ाल्गन ु कृष्ण चतद ु ध िी को प्रकट हुआ तभी से सलंगपज ू ा आज तक तनरन्तर चली आ रही है . श्री द्धवष्णु और श्री ब्रह्माजी ने कहा_ हे प्रभु ! जब हम दोनों, सलंग के आदद-अन्त का पता न लगा सके तो आगे मानव आपकी पज ू ा कैसे करे गा ? इस पर कृपालु श्रीसिव द्वादिज्योततसलिंग में द्धवभतत हो गए. महासिवरात्रि का यही रहस्य है . (ईिानसंदहता) द्द्धवतीय आख्यान

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वाराणसी के वन में एक भील रहता था. उसका नाम गरु ु रहु था. उसका कुटुम्ब बडा था. अतः वह प्रततददन वन में जाक्रर मग ृ ों को मारता और वहीं रहकर नाना प्रकार की चोररयाूँ करता था. अपने माताद्धपता-पर्त्न और बच्च ं ने भख ू से पीडडत होकर उससे भोजन की याचना की. वह तरु ं त र्नि ु -बाण लेकर जंगल में तनकल पडा. सारे ददन जंगल में भटकता रहा,लेककन उस ददन कोई भी सिकार हाथ नहीं लगा. सय ू ध भी अस्त हो चुका था. अतः जंगली जानवरों के डर से बचने के सलए एक पेड पर चढ गया. पेड की िाख पर बैठकर वह सो भी नहीं सकता था. खाली बैठे-बैठे वह कर भी तया सकता था? अनायास ही वह पर्त्तयाूँ तोडते जाता और नीचे धगराता जाता था. वह कोई सार्ारण पेड नहीं था, बर्ल्क वह बेल का पेड था. संयोग से उस ददन महासिवरात्रि का ददन था और पेड के ठीक नीचे सिवसलंग स्थाद्धपत था. अनजाने में वह परू ी रात सिवजी की पज ू ा करता रहा था. श्री सिवजी प्रसन्न होकर उसके सामने प्रकट हो गए और उससे वर माूँगने को कहा.” मैंने सब पा सलया” कहते हुए भील उनके चरण ं में धगर पडा. सिवजी ने प्रसन्न होकर उसका नाम “गह ु ” रख ददया और वरदान ददया कक भगवान राम एक ददन अवश्य ही तम् ु हारे घर पर्ारें गे और तम् ु हारे साथ समिता करें गे. तम ु मोक्ष को प्राप्त होगे.वही व्यार् िग ंृ वेरपरु में तनिादराज “गह ु ” बना, र्जसने भगवान का आततथ्य ककया. सिवरात्रि पवध का संदेि भगवान िंकर में अनप ु म सामंजस्य, अद्भत ु समन्वय और उत्कृष्ट सद्भाव के दिधन होने से हमें उनसे सिक्षा ग्रहणकर द्धवश्व-कल्याण के महान कायध में प्रवत्ृ त होना चादहए-यही इस परम पावन पवध का मानवजातत के प्रतत ददव्य संदेि है . सिव अर्धनारीश्वर होकर भी कामद्धवजेता हैं, गह ृ स्थ होते हुए भी परम द्धवरतत हैं, हलाहल पान करने के कारण नीलकंठ होकर भी द्धवि से असलप्त हैं, ॠद्धि-ससद्धियों के स्वामी होकर भी उनसे द्धवलग हैं, उग्र होते हुए भी सौम्य हैं, अककं चन होते हुए भी सवेश्वर हैं, भयंकर द्धविर्रनाग और सौम्य चन्रमा दोनों ही उनके आभि ू ण हैं, मस्तक पर प्रलयकालीन अर्ग्न और ससर पर 13 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


िीतल गंगार्ारा उनका अनप ंृ ार है , उनके यहाूँ वि ु म िग ृ भ और ससंह का तथा तथा मयरू एवं सपध का सहज वैर भल ु ाकर साथ-साथ क्रीडा करना समस्त द्धवरोर्ी भावों के द्धवलक्षण समन्वय की सिक्षा दे ता है . इससे द्धवश्व को सह-अर्स्तत्व अपनाने की अद्भत ु सिक्षा समलती है इसी प्रकार उनका श्रीद्धवग्रह-सिवसलंग ब्रह्माण्ड एवं तनराकार ब्रह्म का प्रतीक होने के कारण सभी के सलए पज् ू यनीय है . र्जस प्रकार तनराकार ब्रह्म रुप, रं ग, आकार आदद से रदहत होता है उसी प्रकार सिवसलंग भी है . र्जस प्रकार गखणत में िन् ू य कुछ न होते हुए भी सब कुछ होता है , ककसी भी अंक के दादहने होकर र्जस प्रकार यह उस अंक का दस गण ु ा कर दे ता है , उसी प्रकार सिवसलंग की पज ू ा से सिव भी दादहने होकर (अनक ु ू ल होकर) मनष्ु य को अनन्त सख ु -समद्धृ ि प्रदान करते हैं. अतः मानव को उपयत ुध त सिक्षा ग्रहणकर उनके इस महान महासिवरात्रि-महोत्सव को बडॆ समारोहपव ध मनाना चादहए. ू क

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महासिवरात्रि-पवध

महासिवरात्रि का अथध वह रात्रि है र्जसका सिवतत्व के साथ घतनष्ट सम्बन्र् है . भगवान सिव कक अततद्धप्रय रात्रि को “सिवरात्रि” कहा गया है . सिवाचधन और जागरण ही इस व्रत की द्धविेिता है . इसमें रात्रि भर जागरण एवं सिवासभिेक का द्धवर्ान है . श्री पावधतीजी की र्जज्ञासा पर भगवान सिवजी ने बतलाया कक फ़ाल्गन ु कृष्णपक्ष की चतद ु ध िी सिवरात्रि कहलाती है . जो इस ददन उपवास करता है , वह मझ ु े प्रसन्न कर लेता है . मैं असभिेक, वस्ि, र्ूप, अचधन तथा पष्ु पाददसमापधण से उतना प्रसन्न नहीं होता र्जतना कक व्रतोपवास से. ईिानसंदहता में बतलाया गया है कक फ़ाल्गन ु कृष्ण चतद ु ध िी की रात्रि को आदददे व श्री सिव करोड ं सय ू ों के समान प्रभावाले सलंगरुप में प्रकट हुए. ज्योतति​िास्ि के अनस ु ार फ़ाल्गन ु कृष्ण चतद ु ध िी ततधथ में चन्रमा सय ू ध के समीप होता है . अतः यही समय जीवनरुपी चन्रमा का सिवरुपी सय ू ध के साथ योग-समलन होता है . अतः इस चतद ु धिी को सिवपज ू ा करने से अभीष्टतम पदाथध की प्रार्प्त होती है . यही सिवरात्रि का रहस्य है . महासिवरात्रि का पवध परमात्मा सिव के ददव्य अवतरण का मंगलसच ू क है . उनके तनराकार से साकाररुप में अवतरण की रात्रि ही “सिवरात्रि” कहलाती है . वे हमें काम, क्रोर्, लोभ, मोह, मत्सरादद द्धवकारों से मत ु त करके, परम सख ु , िांतत, ऎश्वयाधदद प्रदान करते हैं.

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चाि प्रहि पज ू ा का पविान चार प्रहर में चार बार पज ू ा का द्धवर्ान है . इसमें सिवजी को पंचामत ृ से स्नान कराकर चन्दन, पष्ु प, अक्षत, वस्िादद से श्रग ं ृ ार कर आरती करनी चादहए. रात्रि भर जागरण तथा पंचाक्षर-मंि का जप करना चादहए. रुरासभिेक, रुराष्टाध्यायी तथा रुरीपाठ का भी द्धवर्ान है . सिवरात्रि के महत्व को प्रततपाददत करने वाली दो कथाएं पढने को समलती है ,र्जसमें सिवरात्रि के रहस्य को जाना जा सकता है . ईिानसंदहता के अनस ु ार--सारी सर्ृ ष्ट का तनमाधण कर चक ु ने के बाद ब्रह्माजी को घमंड उत्पन्न हो गया और वे अपने को सवधश्रेष्ठ समझने लगे. वे चाहते थे कक कोई उनके इस कायध की प्रसंिा करे . घम ू ते-घम ू ते वे क्षीरसागर जा पहुूँचे जहाूँ भगवान द्धवष्णु द्धवश्राम कर रहे थे. उन्हे ब्रह्माजी के आगमन का पता ही नहीं चला. ब्रह्माजी को लगा कक द्धवष्णु जानबझ ू कर उनकी उपेक्षा कर रहे हैं. अब उनके क्रोर् का पारावार बढने लगा था. उन्होंने अत्यन्त क्रोधर्त होते हुए श्री द्धवष्णु के समीप जाकर कहा-“ उठ ...तम ु जानते नहीं कक मैं कौन हू​ूँ.....मैं सर्ृ ष्ट का तनमाधता ब्रह्मा तम् ु हारे सामने खडा हू​ूँ” श्रीद्धवष्णु ने जागते हुए उनसे बैठने का अनरु ोर् ककया, लेककन ब्रह्माजी तो क्रोर् में भरे हुए थे. झल्लाते हुए उन्होंने कहा-“मैं तम् ु हारा रक्षक, जगत का द्धपतामह हू​ूँ. तम ु को मेरा सम्मान करना चादहए.” बात छोटी सी थी लेककन वाकयि ु अब सचमच ु के यि ु में तबददल हो चुका था. ब्रह्माजी ने “पािप ु त” और श्री द्धवष्णु ने “माहे श्वर” अस्ि उठा सलया. ददिाएूँ अस्िों के तेजसे जलने लगी. सर्ृ ष्ट में प्रलय की आिंका हो गई. दे वगण भागते हुए कैलाि पवधत पर भगवान द्धवश्वनाथ के पास पहुूँचे और इस यद्द ु को रोकने के प्राथधना करने लगे. दे वताओं की प्राथधना सन ु ते ही भगवान सिव दोनो के मध्य में अनादद, अनन्त-ज्योततमधय स्तम्भ के रुप में प्रकट हुए. उनके प्रकट होते ही दोनो ददव्यास्ि िांत होकर उसी ज्योततसलिंग में लीन हो गए. तब जाकर ब्रह्माजी को अपनी गलती का अहसास हुआ. श्री द्धवष्णु और ब्रह्माजी ने उस ज्योततसलिंग की पज ू ा-अचधना की और अपने कृत्य के सलए क्षमा मांगी. यह सलंग तनष्कल ब्रह्म, तनराकार ब्रह्म का प्रतीक है . यह सलंग फ़ाल्गन ु कृष्ण चतद ु ध िी को प्रकट हुआ,तभी से आजतक सलंगपज ू ा तनरन्तर चली आ रही है सिवपरु ाण के अनस ु ार एक कथा आती हैगरु ु रहु नामक एक भील वाराणसी के वन में रहता था. वह अत्यन्त ही बलवान और क्रूर था. अतः प्रततददन वन में जाकर मग ृ ों को मारता. वहीं रहकर नाना प्रकार की चोररयां भी करता था.

प्रततददन की भांतत वह वन में जाकर अपने सिकार की तलाि कर रहा था.

लेककन दभ ु ाधग्य से उसे उस ददन एक भी सिकार नहीं समला. भटकते-भटकते वह काफ़ी दरू चला आया था.

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रात्रि भी तघर आयी थी. अतः उसने ककसी पॆड पर बैठकर रात्रि द्धवश्राम करना उधचत समझा. वह एक पेड पर जा चढा. संयोग से वह पेड “त्रबल्व-पि” का था. नींद कोसों दरू थी. पेड की डाल पर बैठे-बैठे वह पर्त्तयाूँ तोड-त डकर नीचे धगराने लगा. ऎसा करते हुए तीन प्रहर बीत गए. चौथे प्रहर में भी उसकी यह हरकत जारी रही. वह बेल-पि तोडता जाता और उसे नीचे धगराता जाता. रात भर सिकार की धचन्ता में व्यार् तनजधल, भोजनरदहत जागरण करता रहा था. वह यह नहीं जानता था कक उस त्रबल्व-पि वक्ष ृ के नीचे सिवसलंग स्थाद्धपत है . इस तरह उसकी चारों प्रहर की पज ू ा अनजाने में स्वतः ही हो गई. उस ददन महासिवरात्रि थी. भगवान सिव उसके सामने प्रकट हो गए और उससे वर मांगने को कहा. “मैंने सब कुछ पा सलया” यह कहते हुए वह व्यार् उनके चरण ं में धगर पडा. सिव ने प्रसन्न होकर उसका नाम “गह ु ” रख ददया और वरदान ददया कक भगवान राम एक ददन अवश्य ही तम् ु हारे घर पर्ारें गे और तम् ु हारे साथ समिता करें गे. तम ु मोक्ष प्राप्त करोगे, वही , िग्ंृ वेरपरु में तनिारराज “:गह ु ” बना, र्जसने भगवान राम का आततथ्य ककया. यह महासिवरात्रि “व्रतराज” के नाम से भी द्धवख्यात है . यह सिवरात्रि यमराज के िासन को समटानेवाली है और सिवलोक को दे ने वाली है . िास्िोतत द्धवधर् से जो इसका जागरणसदहत उपवास करते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्त होती है . इसके करने माि से सब पापों का क्षय हो जाता है .

17 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


सिवपज ू न के प्रतीक द्वादिज्योततसलिंग

४…..

भगवान सिव और िर्तत का समलन ही सर्ृ ष्ट की उत्पर्त्त का कारण बना. सिवपरु ाण में वणधण है कक अपने भततों के कल्याणाथध वे र्रती पर सलंग-रुप में तनवास करते हैं. र्जस-र्जस स्थान पर भततजन ं ने उनकी पज ू ा-अचधना,तपश्चयाध की ,वे उस-उस स्थान द्धविेि में आद्धवभत ूध हुए और ज्योततसलिंग के रुप मे सदा-सदा के सलए अवर्स्थत हो गए. वैसे तो परू े भारतविध में अनेकों पण् ु यस्थानों में वे अपने भततों के द्वारा पज ू े जाते रहे हैं,लेककन द्वादि ज्योततसलिंग को अधर्क प्रर्ानता प्रदान की गयी है . हम द्वादिज्योततसलिंग की द्धवस्तार से चचाध करने के पव ू ध संक्षेप में यह भी जान लें कक वस्तत ु ः सलंग तया है और इसका प्रथम प्रादभ ु ाधव कहाूँ से हुआ ?. सिव सलंग से ही प्रथम ज्योतत और प्रणव की उत्पर्त्त हुई. सलंगपरु ाण में वणधण आता है कक एक ददन बह्मा और द्धवष्णु के बीच यह द्धवमिध चल रहा था कक दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? चचाध चल ही रही थी कक अकस्मात उन्हें एक ज्योततसलिंग ददखायी ददया. उसके मल ू और पररणाम का पता लगाने के सलए ब्रम्हाजी ऊपर आकाि की ओर उड चले और द्धवष्णज ु ी नीचे पाताल की ओर. परन्तु उस आकृतत के ओर-छोर का पता नहीं लगा पाए .श्री द्धवष्णु ने वेद नाम के ऋद्धि का स्मरण ककया .वे प्रकट हुए और उन्होंने समझाया कक प्रणव में “अ” कार ब्रह्मा है “ ,उ” कार द्धवष्णु हैं और’ म ”कार श्री सिव हैं” .म”कार का बीज ही सलंगरुप मे सबका परम कारण है ”. सिवं च मोक्षे क्षेये च महादे वे सख ु े” इसका अथध हुआ कक आनन्द ,परम मंगल और परमकल्याण .र्जसे सब चाहते हैं और सब का कल्याण करने वाला है ,वही सिव है .

हम यहाूँ द्वादिज्योततसलिंग की संक्षेप में चचाध करने जा रहे है .भगवान भोलेनाथ

18 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


के स्मरण माि से सारे पाप क्षय हो जाते हैं. दहन्द ू र्मध में परु ाणों के अनस ु ार सिवजी जहाूँजहाूँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर र्स्थत सिवसलंगों को ज्योततसलिंगों के रूप में पज ू ा जाता है ।[1] ये संख्या में १२ है । सौराष्र प्रदे ि (कादठयावाक) में श्रीसोमनाथ, श्रीिैल पर श्रीमर्ल्लकाजन ुध ,उज्जतयनी (उज्जैनमें श्रीमहाकाल (, ॐकारे श्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाककनी नामक स्थान में श्रीभीमिङ्कर, सेतब ं पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में ु र् श्रीनागेश्वर, वाराणसी में श्री द्धवश्वनाथ (कािी), गौतमी म्बकेश्वरके तट पर श्री ेय (गोदावरी), दहमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और सिवालय में श्रीघश्ु मेश्वर।[क] दहंदओ ु ं में मान्यता है कक जो मनष्ु य प्रततददन प्रातकाल और संध्या के समय इन बारह ज्योततसलधङ्गों का न:ा​ाम लेता है , उसके सात जन्मों का ककया हुआ पाप इन सलंगों के स्मरण माि से समट जाता है ।[2]

1/- श्री सोमनाथ

यह ज्योततसलिंग सोमनाथ नामक द्धवश्व प्रससि मर्न्दर में स्थाद्धपत हैं. यह मार्न्दर गज ु रात

प्रान्त के कादठयावाड क्षेि में समर ु के ककनारे र्स्थत है . चन्रमा ने भगवान सिव को अपना

स्वामी मानकर यहाूँ तपस्या की थी.. यह क्षेि प्रभास क्षेि के नाम से भी जाना जाता है .यह वह क्षेि भी है जहाूँ श्रीकृष्णजी ने जरा नामक व्यार् के बाण को तनसमत्त बनाकर अपनी लीला का संवरण ककया था.

कथा-चन्रमा ने दक्षप्रजापतत की 27 पत्रु ियों के साथ अपना द्धववाह रचाया था लेककन वे

केवल रोदहणी से अत्यधर्क प्रेम करते थे. िेि 26 पर्त्नयों ने अपने व्यथा-कथा अपने द्धपता से कही.

उन्होंने चन्रमा को क्षय रोग से ग्रससत होने का िाप दे ददया .िाप से िाद्धपत चन्रमा ने सिव को

प्रसन्न करने के सलए कडा तप ककया. सिव ने प्रसन्न होकर चन्रमा को पन्रह ददनों तक घटते रहने और िेि ददन बढते रहने का वरदान ददया.

सिव के इस स्थान पर प्रकट होने एवं सोम अथाधत चन्रमा द्वारा पर्ू जत होने के कारन

इस स्थान का नाम सोमनाथ पडा.

“सोमसलंगं नरो दृष्​्वा सवधपापात प्रमच् ु यते !

लब्द्द्ध्वा फ़लंमनो​ो॓Sभीष्टं मत ृ ः स्वगिं समीदहते!! सोमनाथ महादे व के दिधनों से प्राखण सभी पापों से तर जाता है ,ऐसी मान्यता है .

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2/-श्री मर्ल्लकाजन ुध ज्योततसलिंग

श्री मर्ल्लकाजन ुध :- यह मरास ( अब चैन्नई) प्रान्त के कृष्णा नदी के तट पर श्रीिैल पवधत है ,र्जसे

दक्षक्षण का कैलाि कहते है ,पर अवर्स्थत है .

कथा- भगवान सिव के पि ु काततधकेय़ अपनी भावी पर्त्न की तलाि में द्धवश्वभ्रमण को तनकले.

जब वे लौटकर आए तो उन्होंने दे खा कक माता पावधती और द्धपता सिव अपने छोटे द्धप्रय पि ु श्री गणेि की िादी ररद्धि-ससद्धि से करने जा रहे हैं. नाराज होकर उन्होंने घर छोड ददया.और वे दक्षक्षण भारत के

क्रौंच पवधत र्जसे श्रीिैल भी कहा जाता है , जा पहुूँचे.माता-द्धपता अपने बेटॆ का द्धवछोह सहन नहीं कर सके

और वे भी उनके पीछे वहाूँ तक जा पहुूँचे.लेककन काततधकेय वहां से अन्यि जा चक ु े थे. अब बेटे की तलाि में प्रत्येक ित ु ल पक्ष तक तथा मां पावधती प्रत्येक पखू णधमा को वहां रहकर अपने नाराज पि ु के वद्धपस लौट आने की प्रतीक्षा करते थे.

र्जस स्थान पर सिवजी रुके थे वह स्थान “मर्ल्लकाजन ुध ”कहलाया. यहां पर सिवजी का द्धविाल

मर्न्दर है . ऐसा उल्लेखखत है कक “अतः परं प्रवक्ष्यासम मर्ल्लकाजन ुध सभंवम ! यं श्रुत्वा भर्ततमान श्रीमान सवधपापैःप्रमच् ु यते !!

अथाधत-मर्ल्लकाजुन के नाम का स्मरण करने माि से सारे पाप र्ुल जाते हैं.

३/-

श्री महाकालेश्वर

महाकालेश्वर’:- यह ज्योततसलिंग मध्यप्रदे ि के उज्जैन नगर मे र्स्थत है .. उज्जतयनी का एक नाम

अवर्न्तकापरु ी भी है . यह स्थान सप्तपरु रयों में से एक है .महाभारत व सिवपरु ाण में इसकी मदहमा गायी

गई है . महाकालेश्वर का प्रससि मर्न्दर क्षक्षप्रा नदी के तट पर अवर्स्थत है . यहां कुम्भ का मेला भी होता है

कथा-

आकािे तारकं सलंगं पाताले हाटकेस्श्वरम

मत्ृ यल ु ोके महाकालं सलंगियं नमोस्तत ु े

“स्वगधलोक में तारकसलंग,हाटकेश्वर और पथ् ृ वीलोक में महाकालेश्वर र्स्थत हैं.”

रत्नमाला पवधत पर एक भयंकर दानव रहता था,र्जसका नाम दि ू ण था. वह वेदों और

ब्राह्मण ं का घोर द्धवरोर्ी था और उन्हें आए ददन परे िान करता रहता था.

20 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


उज्जैन में एक द्धवद्वान ब्राह्मण के चार पि ु थे,जो सिव के प्रबल उपासक थे.एक ददन दि ू ण ने

उज्जैन नगरी पर अपनी द्धविाल सेना के साथ आक्रमण कर ददया. चारों भाईयों ने सिव कक आरार्ना की. सिव ने प्रकट होकर दिधन ददए. इन्होंने दि ू ण को सेना सदहत मार धगराने के सलए सिव से प्राथधणा की. सिव ने तत्काल ही दि ू ण को सेना सदहत मार डाला. चारो भाईयों ने सिव को ज्योततसलिंग रुप में वहां अवर्स्थत रहने की प्राथधणा की.

4/-श्री ओंकारे श्वर

ं श्वर-श्री अमलेश्वर;- यह ज्योततसलिंग भी मध्यप्रदे ि में पद्धवि नदी नमधदा के पावन तट पर श्री ऒकारे

र्स्थत है . ओंकारे श्वर सलंग मनष्ु य तनसमधत नहीं है . इसे स्वयं प्रकृतत ने इसका तनमाधण ककया है .इसके चारों

ओर हमेिा पनी भरा रहता है . इस स्थान पर नमधदा के दो भागों में द्धवभतत हो जाने से बीच में एक टापू सा बन गया है .इस टापू को मान्र्ाता या सिवपरु ी भी कहते हैं. नदी की एक र्ारा इस पवधत के उत्तर की ओर और दस ू री दक्षक्षण की ओर बहती है . दक्षक्षणवाली र्ारा मख् ु य र्ारा मानी जाती है . इसी मान्र्ाता पवधत पर श्री ओंकारे श्वर ज्योततसलिंग का मर्न्दर र्स्थत है . पव ू ध काल में महाराज मान्र्ाता ने अपनी तपस्या से भगवान सिव को प्रसन्न ककया था.

कथा-एक बार नारद मतु न द्धवध्ं याचंल पवधत पर सिव को प्रसन्न करने के सलए तप कर रहे थे.

उसी सम्य द्धवंध्य मनष्ु य रुप में उनके समक्ष प्रकट हुआ और कहने लगा कक उसके जैसा पवधत और कहीं नहीं है . नारदजी ने तत्काल उसका प्रत्यत्ु तर दे ते हुए कहा कक तम ु से बडा तो मेरु पवधत है . इस बात से

दख ु ी होकर उसने नमधदा के तट पर सिव की कडी तपस्या की. सिव ने प्रसन्न होकर उसे अपने दिधन दे ते हुए वर मांगने को कहा. पवधत ने सिव से कहा कक वे ज्योततसलंग के रुप में वहां द्धवराजमान हो जाएं. ओंकारे श्वर मर्न्दर नमधदाजी के पावन तट पर,जो मध्यप्रदे ि का मालवा क्षेि कहलाता है ,पर अवर्स्थत है .

यदभीष्टं फ़लं तश्च प्राप्नय ु ान्नि संियः

एतत्ते सवधमाख्यातमोंकार प्रभवे फ़लम !!

ओंकारे श्वर का नाम सन ु लेने माि से सारे इर्च्छत फ़लों की प्रार्प्त होती है .

५/श्री केदारनाथ

21 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


केदारनाथ;- यह ज्योततसलिंग पवधतराज दहमालय के केदार नामक चोटी पर अवर्स्थत है .यहां की प्राकृततक

िोभा दे खते ही बनती है . उत्तराखंड के दो तीथध प्रर्ानरुप से जाने जाते हैं.-केदारनाथ-और बरीनाथ. दोनो के दिधनों का बडा महत्व है . ऐसी मान्यता है कक जो व्यर्तत केदानाथ के दिधन ककए बगैर बदरीनाथ की यािा करता है ,उसकी यािा तनष्फ़ल जाती है .

कथा;-

र्मध के पि ु नर और नारायण ने बदरीनाथ नामक स्थान पर सिव की कडी आरार्ना की सिवजी ने प्रकट होकर अपने सलए वर मांगाने को कहा तो उन्होंने सिवजी से प्राथधना की कक हमें कुछ नहीं चादहए. आप

तो यहां सिवसलंग के रुप में अवर्स्थत हो जाएं,ताकक अन्य भतगण भी आपके दिधनों के सलए याहां आते रहे ,और पण् ु य लाभ कमाएं..केदारनाथजी का मर्न्दर दहमालय से प्रवादहत होती मन्दाककनी नदी के पावन तट पर अवर्स्थत है .

अकृत्वा दिधनं वैश्य केदारस्यार्नासिनः—यो ऋछे द तस्य यािा तनष्फ़लतां व्रजेत.. ६/-

श्री द्धवश्वेश्वर;-(द्धवश्वनाथ);यह ज्योततसलिंग उत्तर भारत की प्रससि नगरी कािी(बनारस) में र्स्थत है .कहा जाता है कक इस नगरी का लोप प्रलयकाल में भी नहीं होता,तयोंकक यह पद्धवि नगरी को र्स्िव अपने त्रि​िल ू पर र्ारण ककए हुए हैं. इसी स्थान पर सर्ृ ष्ट उतपन्न करने की कामना से भगवान द्धवष्णु ने तपस्या करके आित ु ोि को प्रसन्न ककया था. अगस्त्य मतु न ने भी इसी स्थान पर तपस्या कर सिव को प्रसन्न ककया था. .

कथा;- ऐसा कहा जाता है कक एक दम्पर्त्त ने अपने माता-द्धपता को नहीं दे खा था और वे उन्हें

दे खना चाहते थे. तभी आकािवाणी हुई कक वे इसके सलए कदठन तप करे . लेककन उधचत जगह न समलने के कारण वे तप नहीं कर पा रहे थे. तब सिव ने इस नगरी का तनमाधण ककया और स्वय़ं वहां अवर्स्थत हो गए.

“इत्येवं प्राधथधतस्तेन द्धवश्वनाथेन िंकरः....लोकानामप ु काराथिं तस्थौ तिाद्धप सवधराट”

ब्रह्माण्ड के सवधिर्ततिाली-भगवान सिव इसी कािी नगरी मे तनवास करते हुए अपने भततों के दख ु दरू करते हैं. “ द्धवियासततधचतोअद्धप व्यततर्म्रधततनधरः....इह क्षेिे मत े .” ु भधवत ृ ः सोअद्धप संसारे न पन

. इस पद्धवि नगरी की मदहमा है कक जो भी यहां प्राणी अपने प्राण त्यागता है ,उसे मोक्ष की

प्रार्प्त होती है

22 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


७/-श्री ेयम्बेकश्वर-

यह ज्योततसलिंग महाराष्र के नाससक जनपद में अवर्स्थत है .जो माहात्म्य उत्तर भारत में पापद्धवमोधचनी

गंगा का है ,वैसा दक्षक्षण में गोदावरी का है .जैसे इस र्रती पर गंगावतरण का श्रेय तपस्वी भगीरथ को है वैसे ही गोदावरी का प्रवाह ऋद्धिश्रेष्ठ

गौतम की घोर तपस्या का फ़ल है .इसी पण् ु यतमा गोदावरी के

उल्गम स्थल के समीप अवर्स्थत ेयम्बकेश्वर भगवान की भी बडी मदहमा है .गौतम ऋद्धि तथा गोदावरी के प्राथधनानस ु ार भोलेनाथ सिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और ेयम्बकेश्वर के नाम से

द्धवख्यात हुए. कथा;-सह्यारी जनपद में एक दयालु सार्ु गौतम अपनी पर्त्न अहल्या के साथ रहते थे. वहां

तनवास कर रहे अन्य लोग इनसे ईिाधभाव रखते थे और उस स्थान से तनकाल दे ना चाहते थे. एक ददन सभी ने एक यर्ु तत तनकाली और इन पर आरोप जड ददया कक इनके द्वारा ककसी गाय का वर् ककया गया है .इस पापाचार के सलए वे वहां से तनष्काससत

कर ददए गए. दख ु ी गौतम ने कदठन तपकर

सिव को प्रसन्न ककया. जब सिव ने वरदान मांगने को कहा तो

गौतम ने सभी को माफ़ करने एवं पास

ही एक नदी के प्रकट होने की बात सिव से की. सिव ने गोदावरी को वहां पकट होने को कहा तो उसने सिव से द्धवनती की कक आपको भी मेरे तट पर स्वयं द्धवरार्जत होना होगा. गोदावरी की प्राथधना सन ु कर र्स्िव वहां ज्योततसलिंग के रुप मे द्धवराजमान हो गए. मानवःक्षणात”

“अतः परं प्रवद्यासम माहात्म्यं ेयम्बकस्य च....यच्छुत्वा सवधपापेयोयो मच् ु यते

पाप र्ल ु जाते हैं.

अथाधत-ेयम्बकेश्वर महादे व के नाम स्मरण करने,उनकी लीलाएं सन ु ने से सारे

८/- श्री वैद्यनाथ

यह ज्योततसलिंग त्रबहार प्रान्त के सन्याल परगने में र्स्थत है .

कथा- एक बात राक्षसराज रावण ने दहमालय पर जाकर भगवान िंकर के दिधन प्राप्त करने के

कदठन तप ककया. उसने अपने नौ ससर एक-एक करके सिवसलंग पर चढा ददअ. जब वह अपना दसवां ससर काटकर चढाने के उद्दत हुआ ही था कक भगवान सिव अतत प्रसन्न हुए और उसके सामने प्रकट

23 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


हुए.उन्होंने उसके कटे हुए नौ ससर जोड ददए और वर मांगने को कहा.रावण ने वर के रुप में भगवान सिव से उस सलंग को अपनी राजर्ानी लंका में ले जाने की आज्ञा मांगी. सिव ने यह वरदान तो दे

ददया,लेककन एक ितध लगा दी. उन्होंने कहा,तम ु इसे ले जा सकते हो,ककन्तु रास्ते में तम ु इसे कहीं रख दोगे तो वह वहीं अचल हो जाएगा और कफ़र तम ु इसे उठा नहीं सकोगे. रावण ने बात को स्वीकार कर उस सलंग को उठाकर लंका की ओर चल पडा. चलते-चलते एक जगह रास्ते में उसे लघि ं ा करने की ु क

आवश्यकता महसस ू हुई.उस समय उसे एक अदहर गाएं चराता दद्दखाई ददया. उसने उसे प्रलोभन दे ते हुए कहा कक वह सिवसलंग को थोडी दे र के सलए थाम कर रखे. थोडी दे र तक तो वह अदहर उसे थामे रहा,लेककन भार अधर्क लगने पर उसे संभाल न सका और द्धववि होकर भसू म पर रख ददया. जब रावण लौटा तो वहां कोई नहीं था. कहते हैं स्वयं भगवान द्धवष्णु ने अदहर का रुप र्ारण कर सिव सलंग को

लंका जाने से रोकने का सफ़ल प्रयास ककया था,तयोंकक वे जानते थे कक यदद सिव लंका पहुंच गए तो कफ़र रावण और लंका अजेय हो जाएगी और राम-रावण के होने वाले यि ु मे राम उसे परार्जत नहीं कर पाएंगे.

जब सिवसलंग वहां एक बार स्थाद्धपत हो गया तो तनराि हो कर रावण लंका लौट आया,.तत्पश्चार

ब्र्हह्मा,द्धवष्णु आदद दे वताओं ने उस सलंग का पज ू न ककया और अपने र्ाम को लौट गए.

“अतः अरं प्रवक्ष्यासम वैिनाथेस्श्वरस्य दह...ज्योततसलिंगस्य माहात्म्यं श्रूयतां पापहारकम” वैिनाथ की पद्धवि कथा सन ु ने माि से ही पाद्धपयों के पास क्षय हो जाते हैं.

९/- श्री नागेश्वर

यह ज्योततसलिंग गज ु रात प्रान्त में द्वाररकापरु ी से लगभग 17 मील की दरू ी पर र्स्थत है . .

कथा:- ककसी समय सद्धु प्रय नामक वैश्य था,जो बडा र्माधत्मा,सदाचारी और सिवजी का भतत था. एक बार नौका पर सवार होकर वह कहीं जा रहा था. अकस्मात दारुक नामक राक्षस ने उसकी नौका पर आक्रमण कर ददया.उसने सद्धु प्रय सदहत सभी यात्रियों को अपने जेलखाने में डाल ददया. चुंकक वह सिवभतत था,सो जेल में भी सिवारार्ना करता रहा. जब इस बात की खबर दारुक को लगी तो उसने अपने सैतनकों को उसका वर् कर दे ने की आज्ञा दी. सिव वहां पकट हुए और उन्होंने अपना पािप ु तास्ि सद्धु प्रय को दे कर अंतध्याधन हो गए. उसने उसे ददव्यास्ि से सभी का वर् कर अपने सहयात्रियों को उस कारागार से मत ु त करवाया. 24 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भगवान सिव के आदे िानस ु ार ही इस सलंग का नाम नागेि पडा. “एतिश्श्रण ु ार्न्नत्यं नागेिोद्भवमादरात....सवाधन्कामातनयाध्दीमा महापातकनािनान” ृ य अथाधत- जो भी मनष्ु य इस कथा का श्रवण करे गा उसके सभी पाप नष्ट हो जाएंगे.

१०/- श्री भीमिंकर: -यह ज्योततसलिंग पन ू ा के उत्तर की ओर करीब 43 मील की दरू ी पर भीमा नदी के पावन ताट पर अवर्स्थत है . यहां “डाककनी”ग्राम का पता नहीं लगता. िंकजी यहां पर सह्यादर पवधत पर अवर्स्थत हैं. भगवान सिव ने यहां पर त्रिपरु ासरु का वर् करके द्धवश्राम ककया था. उस समय यहां अवर् का भीमक नामक एक सय ध ि ं ी राजा तपस्या करता था. िंकरजी ने प्रसन्न होकर उसे दिधन ददया. उसके ू व बाद से इस ज्योततसलिंग का नाम “श्रीभीमिंकर” पडा. कथा:- रावण के भाई कुम्भकरण के पि भीमासरु ने भगवान द्धवष्णु और अन्य दे वताओं से इस ु बदला लेने की ठानी कक उन्होने उसके पररवार और द्धप्रयजनों की हत्या का वर् ककया था. प्रततिोर् की आग में जलते भीमासरु ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के सलए कठोर तप ककया. ब्रह्मा ने प्रकट होकर उसे अतसु लत बलिाली होने का वरदान दे ददया. अब उसने वरदान पाकर दे वलोक से दे वताऒ ं को स्वगध छोड दे ने पर मजबरू कर ददया. अपनी द्धविाल सेना लेकर वह एक ददन कामरुप्रदे ि के राजा पर आक्रमण कर ददया जो संयोग से सिवभतत था. उसने राजा से सिवसलंग को उखाड फ़ेंकने को कहा. जब राजा ने इनकार कर ददया तो उसने अपनी तलवार तनकालकर सिवसलंग पर वार ककया. जैसे ही उसकी तलवर सिवसलंग से टकराई, सिव स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने उसे मार डाला.दानव भीमासरु का वर् करने के कारण इस ज्योततसलिंग का नाम भीमािंकर के नाम से जगप्रससि हुआ. “ अतः परं प्रवक्ष्यासम माहात्म्यं भैमिंकरम::यस्य श्रवणमािेण सवाधभीष्टं लभेन्नरः”

अथध;-इस चमत्कारी सिवसलंग की कथा सन ु ने माि से प्राखणयों की हर

मनोकामामनाएं परू ी होती है

25 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


११/- श्री सेतब ु न्र् रामेश्वरकथा-

सेतब ु न्र् रामेश्वर की कथा सारा संसार जानता है . रावण द्वारा माता जानकी

का हरण ककया जा चुका था. रावण की लंका समर ु से सौ योजन दरू थी.लंका पर आक्रमण करने से पव ू ध समर ु पर पल ु बनाया जाना आवश्यक था. राम ने यहां बालक ु ा से सिवसलंग बनाकर उनकी आरार्ना की थी और ददव्य िर्ततयां प्राप्त करते हुए समर ु को बाध्य ककया कक उन्हें रास्ता दे दे . समर ु ने मानवरुप मे प्रकट होकर उन्हें पल ु बनाने का उपाय बतलाया था. श्री राम द्वारा तनसमधत यह ज्योततसलिंग सेतब ं रामेश्वर के नाम से जाना जाता है . ु र् “ इतत समाख्यातं ज्योततसलिंगं सिवस्यत;ु ;रामेश्वरासमर्ं ददव्यं श्रण्ृ वतां पापहारकम” अथध;- इस ददव्य ज्योततसलिंग की कथा के श्रवणमाि से सारे पापों का क्षय हो जाता है .

१२/-श्री घश्ु मेश्वर यह बारहवां ज्योततसलिंग घश्ु मेश्वर के नाम से जाना जाता है . यह ज्योततसलिंग मराठवाडा के औरं गाबाद से करीब 12 मील दरू बेरुस गांव के पास यह अवर्स्थत है . कथा:- सर् ु माध नामक एक ब्राह्मण अपनी पर्त्न सद ु े हा के साथ दे वधगरर पवधत पर तनवास करता था. सद ु े हा इस बात को लेकर दख ु ी रहती थी कक उसके कोई संतान नहीं थी. संतान प्रार्प्त के सलए उसने अपने पतत से अपनी छोटी बहन घि ु मा से द्धववाह करने को कहा. घष्ु मा चुंकक सिवभतत थी.उसने कुछ ही ददनों बाद एक पि ु को जन्म ददया. बालक बडा हुआ. उसका द्धववाह बडी र्ूमर्ाम से हुआ. यह सब दे खकर सद ु े हा ने ईष्यावि उस का वर् कर ददया. इस समय उसकी माता घष्ु मा पाधथधव सिवसलंग बना कर पज ू ा कर रही थी. पज ू ा समार्प्त के बाद पाधथधव सिव सलंग को द्धवसर्जधत करने के सलए जब वह एक झील के पास पहुंची और उसने उसने जैसे ही सिवसलंग का द्धवसजधन ककया,उसका पि ु जीद्धवत अवस्था में झील में से प्रकट हो गया .पि ु के साथ स्वयं सिवजी भी थे. सिवजी ने सद ु े हा के बारे में सब बतलाते 26 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


हुए उसे सजा दे ने की बात की तो दयालु घष्ु मा ने अपनी बहन के कुकमों को माफ़ कर दे ने को कहा. “ घश्ु मेिाख्य्मसमदं सलंगसमत्थं जातं मन ु ीश्वराः ””तत्दृष्टवा पज ू तयत्वा हे सख ु ं संविधते सदा “ अथध;-घश्ु मेश्वर ज्योततसलिंग की पज ू ा करने से सख ु ं की प्रार्प्त होती है .

५……आज के पररप्रेक्ष्य में ककतने प्रासंधगक है श्रीराम आज सारे जगत के सलए सौभाग्य का ददन है तयोंकक अखखल द्धवश्वपतत सर्च्चदानन्दघन श्रीराम इसी ददन रावण जैसे दर् ु ाधन्त रावण के अत्याचार से पीडडत पथ् ु ी करने के सलए और सनातन र्मध की ृ वी को सख स्थापना के सलए मयाधदापरु ु िोत्तम के रुप में इस र्रा पर प्रगट हुए थे. श्रीराम केवल दहन्दओ ु ं के ही “राम” नही हैं, बर्ल्क वे अखखल द्धवश्व के प्राणाराम हैं. सारे ब्रह्माण्ड में

चराचर रुप से तनत्य रमण

करने वाले, सवधव्यापी श्रीराम ककसी एक दे ि या व्यर्तत की वस्तु कैसे हो सकते हैं ? वे तो सबके हैं, सबमें हैं, सबके साथ सदा संयत ु त हैं और सवधमय हैं. कोई भी जीव उनके उत्तम चररि का गान करता है , श्रवण करता है , अनस ु रण करता है , तनश्चय ही पद्धवि होकर परम सख ु की प्रार्प्त करता है . रामचररत मानस में गोस्वामी तल ु सीदासजी ने श्रीराम के व्यर्ततत्व पर प्रकाि डालते हुए सलखा कक उन्हें राज्यासभिेक की बात सन ु कर न तो प्रसन्नता होती है और न ही वनवास की सच ू ना पर दःु ख का अनभ ु व करते हैं. माूँ कौिल्या श्री रामजी से कहती हैं

27 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


“तात जाउूँ बसल वेधग नहाहू. जो मन भाव मर्ुर कछु खाहू द्धपतु समीप तब जाएहु भैया. भै बडड बार जाइ बसल

मैया.

हे पि ु ! िीघ्र ही स्नान करके जो भी इच्छा हो कुछ समष्ठान्न खालो. पीछे द्धपताजी के पास जाना, बडी दे र हो गई है . यहाूँ माता कौिल्या को पता ही नहीं चल पाया कक द्धवमाता कैकेई ने उन्हें वन सभजवाने का पतका प्रबंर् कर रखा है. श्रीराम इस बात को जान चक ु े थे. प्रसन्नवदन श्रीराम माूँ से कहते हैं द्धपता दीन्ह मोदह कानन राज.ू जहूँ सब भाूँतत मोर बड काजू र्मध की र्रु ी श्री रघन ु ाथजी ने र्मध की दिा को जाना और माता से अत्यन्त ही मद ृ ु िब्द्दों में कहा;द्धपताजी ने मझ ु े वन का राज्य ददया है , जहाूँ मेरा सब प्रकार से कायध ससि होगा. कफ़र कहते हैं आयसु दे दह मदु दत मान माता, जेदहं मद ु मंगल कानन जाता जतन सनेह बस डपसस भोरें . आनन्द ु अंब अनग्र ु ह तोरे . हे माता ! प्रसन्न मन से आज्ञा दीर्जए जो वन जाते प्रभु मझ ु े हिध और मंगलकारी हों, स्नेह के वि भल ू कर भी न डराना. हे माता ! आपके आिीवाधद से मझ ु े सब प्रकार का सख ु समलेगा. महद्धिध वाल्मीक इस प्रसंग को बडी ही कुिलता से सलखा कक द्धपता की दिा दे खकर श्रीराम दख ु ी हो जाते हैं .वे माता कैकेई से द्धवनम्रतापव ध उसका कारण जानना चाहते हैं. तब वे कहती हैं ू क “ति मे याधचतो राजा भरतस्यासभिेचनम* गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्दैव राघव.(”सगध १८/३३) राघव ! मैंने महाराज से यह याचना की है कक भरत का राज्यासभिेक हो और आज ही तम् ु हें दण्डकारण्य भेज ददया जाए. “तदद्धप्रयमसमिन्घो वचनं मरण पमम*श्रत्ु वा न द्धवव्यथे रामः कैकेई चेदमब्रवीत (सगध १९/१) “एवमस्तु गसमष्यासम वनं वस्तम ु हं र्त्वतः*जटाचीर राज्ञः प्रततज्ञामनप ु ालयन

(सगध १९/२)

“वह अद्धप्रय तथा मत्ृ यु के समान कष्टदायक वचन सन ु कर भी ि​िस ु द ू न श्री राम व्यधथत नहीं हुए. उन्होंने कैकेई से कहा”-माूँ ! बहुत अच्छा ! ऎसा ही हो. मैं महाराज की प्रततज्ञा का पालन करने के सलए जटा और चीर र्ारण करके वन में रहने के तनसमत्त अवश्य यहाूँ से चला जाऊूँगा.” श्रीरामजी का परू ा जीवन संघिध व झंझावतों से तघरा रहा कफ़र भी वे सन्मागध से कभी द्धवचसलत नहीं हुए. उनके सदगण ु और तनणधय आज के पररप्रेक्ष्य में अत्यन्त प्रासंधगक हैं,र्जनसे हमें सिक्षा लेने की 28 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


आवश्यकता है . दभ ु ाधग्य से आज चारों ओर मानवीय मल् ू यों का तेजी से द्धवघटन हो रहा है . पाररवाररक मल् ू यों की र्स्थतत यह है कक नयी पीढी अपने माता-द्धपता, र्जन्होंने उसे जन्म ही नहीं ददया, बर्ल्क लालन-पालन कर सिक्षा प्रदान की और स्वावलंबी भी बनाया, वे उन्हें घर के कोने तक ही सीसमत कर दे ती है या वि ृ ाश्रमों में-अनाथालयों में पहुूँचा दे ती है . हमारे यहाूँ मात ृ दे वी भव, द्धपतद ृ े वो भव माना जाता है . आज कौन द्धपता को दे वता और माता को दे वी मान रहा है . भाइयों और अन्य संबधं र्यों मे अलगाव, जलन,घण ृ ा और द्धवद्वेि के भाव ही सब जगह लक्षक्षत हो रहे हैं. दरअसल यहीं पर श्रीराम का चररि प्रासंधगक हो जाता है . मयाधददत परु ु िोत्तम श्रीरामजी ने सामार्जक मल् ू यों का तनवधहन आजीवन तनभाया. वे वास्तव में माता-द्धपता को दे वतल् ु य मानते थे. गोस्वामी तल ु सीदासजी ने सलखा है प्रातःकाल उदठ के रघन ु ाथा* गरु ु द्धपतम ु ातु नवावदहं माथा. वे अपने अनज ु ों से भी प्रगाढ प्रेम करते थे. उनके सभी भाई उन्हें प्राण ं से भी अधर्क द्धप्रय थे. तल ु सीदासजी सलखते हैं. “अनज ु सखा संग भोजन करहीं*मातु द्धपता अग्या अनस ु रहीं(बालकांड-२०४/२ “बेद परु ान सन ु दहं मन लाई* आपु कहदहं अनज ु न्ह समझ ु ाई.................. ३ “आयसु माधग करदहं काजा* दे खख चररत हरिै मन राजा......

.४

लक्ष्मणजी के प्रतत उनका स्नेह कुछ ज्यादा ही था. वाल्मीकजी सलखते हैं लक्ष्मण लक्ष्मसम्पन्नो बादहःप्राण इवापर* न च तेन द्धवना तनरां लभते परु ु िोत्तमः*मष्ु टमन्नमप ु ानीतमश्रातत न दह तं द्धवना...............बालकाण्ड..३० परु ु ि त्तम राम को लक्षमण के त्रबना नींद नहीं आती थी. यदद उनके पास उत्तम भोजन लाया जाता तो वे उसमें से लक्ष्मण को ददये त्रबना नहीं खाते थे. यह सवधद्धवददत ही है कक द्धपता के आदे ि माि पर उन्होंने राजससंहासन को त्याग करने का तनणधय ले सलया था.जब राज्यासभिेक की बात चली तो उन्होंने सोचा कक उनके रघक ु ु ल में बडॆ राजकुमार को ही राजा बनाने की रीतत दोिपण ू ध है . जब भरत को राजा बनाने की बात माूँ कैकेई ने की तो वे बडॆ प्रसन्न हुए थे. मेघनाथ के िर्तत प्रहार से मतु छध त लक्ष्मण को दे खकर वे फ़बक कर रो पडे थे और रोते-रोते उन्होंने यहाूँ तक कह ददया था कक यदद वे ऎसा जानते कक वन में भाई को खोना पडॆगा, तो वे अपने द्धपता की आज्ञा मानने से भी इनकार कर दे त.े आज र्स्थतत सवधथा प्रततकूल है . भाई, भाई का दश्ु मन है . संयत ु त पररवार खंड-खंड हो रहे हैं. आज समाज में मानवता का पतन, पररवारों में द्धवघटन और आपसी 29 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


बैर का बोलाबाला है . पररवार में अिांतत का जहर घल ु रहा है . लोभ-स्वाथध-नफ़रत-केवल और केवल र्न कमाने की सलप्सा ने आदमी को जकड रखा है . पास-पडौस के लोग कभी पररवार की तरह रहा करते थे, आज भागमभाग की र्जन्दगी में कौन पडौस में रह रहा है , यह जानने तक की फ़ुसधत नहीं है . इस संदभध में श्रीराम द्वारा प्रस्तत ु उदाहरण अनक ु रणीय है . उनके सलए छूत-अछूत, र्नी-दररर, ऊूँच-नीच के बीच कोई भेदभाव नहीं था. हमारे दे ि के कणधिार दसलत, अततदसलत,अनस ु धू चत जनजाततयों, वनवाससयों के कल्याण के सलए केवल द्धवकास का दढंढोरा पीटते हैं और उनके बीच वैमनस्यता के बीज बो रहे हैं. िबरी के जूठे बेरों को प्रेम से खाना, केवट तनिादराज को गले लगाना, वानर,भाल,ू रीछ जैसी जनजाततयों को प्यार-स्नेह दे कर उन्हें अपना बनाना और उनके जीवन में उत्साह का संचरण करना,कोई राम से सीखे. रामराज्य में ककसी को अकारण दर्ण्डत नहीं ककया जाता था और न ही लोगों के बीच पक्षपात व भेदभाव था. तया आज की नई पीढी श्रीराम के इस सदािय से कोई सिक्षा ग्रहण करे गी ?. श्रीराम के समान आदिध परु ु ि, आदिध र्माधत्मा, आदिध नरपतत, आदिध समि, आदिध भाई, आदिध पि ु , आदिध सिष्य, आदिध पतत, आदिध स्वामी, आदिध सेवक, आदिध वीर,,आदिध दयाल,ु आदिध िरणागतवत्सल, आदिध तपस्वी, आदिध सत्यव्रती, आदिध रढप्रततज्ञ तथा आदिध संयमी और कौन हुआ है ? जगत के इततहास में श्रीराम की तल ु ना में एक श्रीराम ही हैं. साक्षात परमपरु ु ि परमात्मा होने पर भी श्रीराम जीवों को सत्पथ पर आरुढ कराने के सलए ही आदिध लीलाएं की, र्जनका अनस ध ु रण सभी लोग सख ु पव ू क कर सकते हैं. आज हमारे श्रीरामजी का पण्ु य जन्मददवस चैि ित ु ल नवमी है . इस िभ ु अवसर पर सभी लोगों को खासकर उनको,जो श्रीरामजी को साक्षात भगवान और अपना आदिध मानते हैं,श्रीराम-जन्म का पण् ु योत्सव बडी र्ूमर्ाम से मनाना चादहए. श्रीराम को प्रसन्न करना और उनके आदिध गण ु ं को अपने जीवन में उतारकर श्रीराम-कृपा प्राप्त करने का अधर्कारी बनना चादहए.

ईश्वरीय सत्ता का सातनद्दय प्राप्त ् करने के सलए भगत्गीता

६…….

गीता अध्ययन करने की अनेक दृर्ष्टयां हैं. सरल मन के व्यर्तत के सामने ईश्वरीय सत्ता ककस प्रकार अपने आपको उदघादटत कर रही है .-गीता को समझने के सलए एक दृर्ष्ट यह भी हैभगवान श्रीकृष्ण गीता के उपदे ि के माध्यम से अजन ुध के सामने, अपने आपको र्ीरे -र्ीरे अनावत ृ कर रहे हैं. श्रीकृष्ण कहते हैं-अजन ुध ! जो ज्ञान आज मैं तम् ु हें दे रहा हू​ूँ, वही ज्ञान सर्ृ ष्ट के प्रारं भ में मैंने सय ू ध को 30 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


ददया था. अजन ुध को आश्चयध होता है - वह कहता है-“ हे भगवन ! यह कैसे संभव है ?.आप अत्यन्त ही अवाधचीन हैं,जबकक सय ू ध बहुत ही प्राचीण. तो श्रीकृष्ण कहते हैं-“ अजन ुध , मेरी सत्ता सनातन है . मैं हर समय रहता हू​ूँ. तम ु भी हर समय रहे हो ,परन्तु तम ु को उसका स्मरण नहीं है और मझ ु े सब याद है . वे कहते हैं-मैं ही प्रकाि हू​ूँ और मैं ही अन्र्कार. ज्ञान भी मैं ही हू​ूँ और अज्ञान भी. मैं ही संपण ू ध सर्ृ ष्ट का अध्यक्ष, रचतयता और तनयंता हू​ूँ. मझ ु से परे कुछ भी नहीं है . श्रीकृष्ण में अजन ुध का द्धवश्वास दृढतर होता जाता है और वह तनवेदन करता है कक प्रभ,ु मैं आपको द्धवराटता और द्धवभतू तयों के साथ दे खना चाहता हू​ूँ. श्रीकृष्ण कहते हैं-मेरे िरीर में संपण ू ध चराचर जगत को दे खो. ददव्य आभि ू ण ं और गंर्ों से यत ु त अनेक नेिों और मख ु ों वाले मझ ु सीमा रदहत को दे खो. अजन ुध को कुछ भी ददखलाई नहीं पडता. तब श्रीकृष्ण कहते हैं-

“इन सामान्य नेिों से तम ु मेरी द्धवराटता दे ख नहीं सकते. इसके सलए मैं तम् ु हें ददव्य प्रदान

करता हू​ूँ.” सचमच ु ्-ईश्वरीय सत्ता, ईश्वरीय द्धवराटता को भौततक नेिों से नहीं, ज्ञान के नेिों से ही दे खा जा सकता है . अजन ुध के सामने अपना द्धवराट स्वरुप प्रकट कर दे ने के बाद श्रीकृष्ण का अपने को उदघादटत करने का प्रयोजन पण ू ध हो जाता है . श्रीकृष्ण का द्धवराट रुप दे ख लेने के बाद अजन ुध के मन में श्रीकृष्ण के प्रतत स्वाभाद्धवक भर्तत जागत ु ः श्रीकृष्ण से तनकटता प्राप्त करना चाहता है ,परन्तु ृ होती है . अब वह वस्तत परमसत्ता की तनकटता प्राप्त करने के सलए कुछ प्रयत्न अपनी ओर से करना पडता है . ईश्वर का द्धप्रय बनने ले सलए हमें अपने व्यर्ततत्व में कुछ द्धविेिताएं र्ारण करनी पडती है . गीता के बारहवें अध्याय में श्लोक 13 से 20 तक उन मानवीय गण ु ं का वणधण है ,जो व्यर्तत को ईश्वरीय सत्ता का प्रेमपाि बना दे ते हैं. द्वेिभावनाहीन, मैिीपण ू ,ध दयाल,ु आसर्ततरदहत,अहं कारद्धवहीन,सख ु -दख ु में सम, पक्षपात रदहत, मानसम्मान-अपमान में सम, तनंदास्ततु त मे सम तथा र्स्थर बद्धु ि का होना आदद ऐसे गण ु हैं,र्जन्हें र्ारण करने वाला व्यर्तत

श्रीकृष्ण को द्धप्रय है . जो व्यर्ततर् हिध, िोक, ईष्याध, भय और उद्वेग से मत ु त

है ,वही परमात्मा की तनकटता प्राप्त कर सकता है . जो व्यर्तत अन्दर-बाहर से पद्धवि ् है , अपने कायध में प्रवीण है ,कोई भी जीव र्जससे व्यधथत नहीं होता और न ही वह कभी ककसी जीव से व्यधथत होता है , ऐसा व्यर्तत श्रीकृष्ण का प्रेमपाि बनता है . स्पष्टतः ये महान मानवीय गण ु है . श्रीकृष्ण ने इन गण ु , की सच ू ी में ककसी से द्वेि न करने को पहला स्थान ददय है . अद्वेष्टा सवधभत ू ानाम- अगर आप ककसी से द्वेि करते हैं तो पहला नक ु सान आप स्वयं अपने आप का करते हैं. आप बैठे-ठाले अपने मनोवैज्ञातनक उजाध का क्षरण कराते हैं. मन की िांतत नष्ट करते हैं तथा अपने स्वास्थ्य को खराब करते हैं. बरहवें अध्याय के बीसवें िोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कक जो व्यर्तत तनष्काम –प्रेमभाव से अनधु चन्तन करे गा, वह मझ ु े अततिय द्धप्रय ् होगा. 31 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


अतः श्रेष्ठ गण ु ं पर ध्यान एवं दृर्ष्ट रखने से वे गण ु व्यर्तत को प्राप्त हो जाते हैं. श्रेष्ठ लोगों के साथ रहने से आदमी की श्रेष्ठता की ओर बढता है . अच्छा सादहत्य व्यर्तत को अच्छा बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं. अतः श्रेष्ठ गण ु ं का धचंतन, श्रेष्ठ व्यर्ततयों का संग और श्रेष्ठ सादहत्य को ही पढना चादहए.

७…

कमधयोगी श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण का व्यर्ततत्व एकदम तनराला-अद्भत ू ा है . दे वताओं और अब ु और अनठ तक हुए अवतारों की परम्परा में वे अन्यतम व्यर्तत हैं. उन्होंने जीवन को गहराई से उतरकर, उसको समग्रता मे दे खा और र्जया. जहाूँ राम मयाधदापरु ु िोत्तम के रुप में जाने गए, बि ु करुणा के सागर कहलाए, लेककन उन्हें पण ू ाधवतार न कहकर अंिावतार ही कहा जाता है . तयोंकक वे अपनी-अपनी मयाधदाओं में बंर्े रहे ,जबकक श्रीकृष्ण ने ककसी बंर्न को स्वीकार नहीं ककया. इससलए वे पण ू ाधवतार कहलाए. उन्होंने मनष्ु य जीवन को भरपरू उत्साह के साथ र्जया. अतः वे कभी अप्रांसधगक नहीं हो सकते. श्रीकृष्ण ने जीवन को उसके समस्त यथाथध के रुप में दे खा और द्धवसभन्न पररर्स्थततयों से स्वयं गज ु रते हुए उसे हमारे सन्मख ु प्रस्तत ु ककया. दस ू री ओर इन्होंने कभी भी मौततक जीवन का न तो तनिेर् ककया और न ही बचने की बात की. कभी वे कासलयादह में उतरकर कासलया से जा सभडते हैं, तो कभी गोद्धपयों के ससर पर रखी दर् ू -दही-माखन की मटककयां को फ़ोड दे ते हैं और तो और वे अपने ही घर में , ऊूँचे सींकचें पर रखी माखन की मटकी उतार अपने ग्वाल-बाल समिों को खखलाते हैं. अखाडॆ में उतरकर अच्छे -अच्छे सरू माओं को र्ल ू चटाते हैं, तो कभी कंु ज-गसलयों में बांसरु ी बजाकर अपने से अधर्क 32 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


उमर की गोद्धपयों के संग रास रचाते हैं. जरुरत पडने पर उन्हीं के हाथों से तनकला सद ु िधनचक्र मानवता के ि​िओ ु ं की गदध न उतारने में दे र नहीं लगाता, तो कभी वे गोवर्धन पवधत उठाकर अभय का प्रततरुप बन जाते हैं, अपने भाई बलदाऊ के साथ वे तनिंक मथुरा में प्रवेि करते हैं और दष्ु ट कंस को यमलोक पहुूँचाते हैं और र्मध की स्थापना करते हैं. वे पाडव ं के िांततदत ू हैं,वहीं वे संघिध की प्रेरणा दे ने वाले कमधतनष्ठ भी हैं..बडॆ-से बडॆ संकट से तघर जाने जाने पाण्डवों के मन में र्ीरज बंर्ाते हैं, असभमन्य,ु घटोत्कच की मत्ृ यु पर वे र्जस सहानभ ु तू त और संवेदना का पररचय दे ते हैं और हतोत्सादहत पांडवों की मरु झाई चेतना में नया उत्साह-नया जोि भरते हैं..अपने बआ के लडके सि​िप ु ु ाल द्वारा उनका घोर द्धवरोर् करने और अपमातनत करते रहने पर भी, वे र्जस र्ैयध और अनि ु ासन का प्रदिधन करते है , यह हमें एक संदेि और सबक दे ता है . उस जमाने में सारथी को हे य दृर्ष्ट से दे खा जाता था, लेककन र्मध की संस्थापना के सलए उन्होंने अपने बाल सखा अजन ुध का सारथी बनने में ततनक दे र नहीं लगाई. उनके सलए लक्ष्य प्रार्प्त के मागध में अपमानजनक कुछ भी नहीं था. पांडव भी इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कक त्रबना कृष्ण के वे महाभारत जीत नहीं सकते. उन्होंने उनके द्धवश्वास को बनाए रखा और अपनी कूटनीतत की अनठ ू ी प्रततभा का पररचय दे ते हुए, उन्हें द्धवजयी बनाया. यि ु में िस्िरदहत रहने का वचन दे ते हैं तो वहीं दस ू री ओर वे िस्ि र्ारण करके अपनी प्रततज्ञा तो बेदहच तोड भी दे ते हैं. यि ु के पश्चात वे पांडवों द्वारा आयोर्जत राजसय ू यज्ञ में ककस तरह कुिल संयोजक की भसू मका का तनवधहन करते हैं, और स्वयं अपने सलए काम की तलाि करते हुए अततधथयों की जठ ु ी पत्तलें उठाने में ततनक भी संकोच नहीं करते. हम सभी जानते है . यही एक माि कारण है कक आज पांच हजार साल बीत जाने के बाद भी, वे हमारे जीवन के प्रतततनधर् बने हुए हैं और बने रहें गे. हम उनके द्वारा रची गई लीलाओं को केवल चमत्कार की श्रेणी में न रखते हुए, उसे अपने जीवन से जोडकर दे खें तो ज्ञात होता कक उनका जीवन अपने समय से बहुत आगे का था. उनके चररि की हर बात हमें अपने वतधमान का प्रतततनधर्त्व करती ददखलायी पडती है . बकासरु , कागासरु ,र्ेनक ु ासरु आदद का वर् करने के पीछे का प्रमख ु कारण यह था कक वे फ़सल, बाग-बगीचों पर अपना आधर्पत्य जमाए हुए थे और जनता का िोिण कर रहे थे. अतः इन आततातययों को मार धगराना जरुरी था. कसलया-मदध न के पीछे जो सि ू काम कर रहा था, वह यह था कक उसने यमन ु ा का सारा जल प्रदद्धु ित कर रखा था. आज ठीक इससे उलट हो रहा है . हम आज बडी ही बेिमी से सारा गंर्ा जल नददयों में प्रवादहत कर रहे हैं और प्रदि ू ण फ़ैला रहे हैं. हमें श्रीकृष्ण की इस लीला से सीख लेने की जरुरत है . गाय चराने वन में जाना, ग्वालबालों के साथ वनभोजन करना और बंसी बजाने के पीछे उस सत्य को खोजना होगा कक आखखर एक राजकुमार को यह सब करने की जरुरत ही तया थी? लेककन उन्होंने वह ककया और

33 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


हमें संदेि ददया कक गाय का महत्व एक माूँ से कम नहीं होता. उसका दर् ू पीकर, घी खाकर हम अच्छा स्वास्थ्य अर्जधत कर सकते हैं. उनसे प्राप्त गोबर की खाद बनाकर उन्नतवार खेती की जा सकती है . पर आज तया हो रहा है , यह ककसी से

तछपा नहीं है . पिर् ु न अब बच ू डखाने में भेजे जा रहे हैं. खेतों में अब

गोबरखाद की जगह यरू रया जैसी घातक खाद को प्रयोग में ला रहे हैं,जो खेत को बंजर बनाने का काम कर रही है . दर् ु ारु गाय के न रहने पर आज हमारे सि​िओ ु ं को नकली दर् ू पीना पड रहा है . गोवर्धन पवधत को र्ारण करने की कथा के द्वारा श्रीकृष्ण पयाधवरण संरक्षण का संदेि दे ते हैं. अपने बचपन के समि सद ु ामा के आने की खबर पाकर वे दौडे चले आते हैं उन्होंने उनका स्वागत-सत्कार ही नहीं ककया बर्ल्क .अपने ससंहासन पर बैठाया और बडॆ प्रेम से अपनी पर्त्नयों के साथ उनके चरण पखारते रहे थे.और त्रबदाई के समय उन्हें अकूत र्न-दौलत भी दी. तया हम और हमारे समिों के बीच इतने प्रगाढ संबर् ं सरु क्षक्षत बच पा रहे हैं? कंस के मारे जाने के बाद, महल में रह रही सोलह हजार कन्याओं के साथ उन्होंने द्धववाह रचाकर उन्हें ससम्मान समाज में जीवन यापन कर सकने का हक प्रदान ककया.

रौपदी

ने उन्हें रक्षासि ू बांर्ते हुए अपना भाई बनाया था. वह दृष्य तो आपको याद ही होगा कक जब दय ु ोर्न ने दि ु ासन को भरी सभा में तनवस्ि करने का आदे ि ददया था, तब उन्होंने अपनी बहन की लाज बचाने के सलए दौडकर आना पडा था. तया हो गया है आज के भाईयों को कक उनकी बहनों की इज्जत सरे आम लट ू ी जा रही है और वे एक ओर खडॆ तमािा दे ख रहे है .? महाभारत के यि ु की समार्प्त के बाद जब वे िोकसंतप्त र्त ृ राष्र और गांर्री को सांत्वना दे ने पहुूँचे तो गांर्ारी के श्राप से बच नहीं पाए थे और उन्होंने मस् ु कुराते हुए उसे स्वीकार ककया था. कभी ककसी ने उन्हें गोपाल कहकर पक ु ारा, ककसे ने माखनचोर कहा,ककसी ने घनश्याम.नन्दलाल, गोपीवल्लभ, गोपबंर्ु,रार्ावल्लभ तक कहा. वे सारे नाम- उपनाम को सहिध स्वीकारते हुए, सबके दल ु ारे , सबके चहे ते बने रहे . यही सारी खूत्रबयाूँ उन्हें पण ू ाधवतार का रुप दे ती है और लोक में अनश्वर बनाती है एवं असभनव समकालीनता प्रदान करती है . उनकी लोकचेतना को यदद हम अपने जीवन के साथ जोडकर दे खें तो पाते हैं कक वे त्रबल्कुल अकेले और अनोखे हैं. जब कमध ही ईश्वर है और मेहनत ही पज ू ा है तब पग-पग पर श्रीकृष्ण कमधयोगी सन्यासी की तरह यथाथध की कठोर र्रती पर परू ी दृढता के साथ खडॆ ददखाई दे ते हैं, त्रबना ककसी अलौकककता के साथ. हम आज चाहे र्जतने मर्न्दर बना लें,और उसमें अपने रार्ामोहन को प्रततर्ष्ठत कर सब ु ह-िाम घंटॆ-घडडयाल बजा-बजा कर उनकी पज ू ा अचधना करते रहें , तब भी बात कुछ बनती ददखाई नहीं दे ती,जब तक की हम उनकी खत्रू बयों को अपने चररि में उतारकर उसका अनस ु रण नहीं करते, तब तक उस द्धवराट व्यर्ततत्व के स्वामी की सच्ची सेवा नहीं हो सकती. 34 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


हम सब समलकर यह प्रततज्ञा करें कक हम उनके बतलाए हुए मागध पर चलते हुए अपने जीवन को र्न्य बनाएंगे. जै श्रीकृष्ण.

८.

काततधक मास का महत्व.

काततधकमास के कृष्णपक्ष की द्वादिी को “गोवत्सद्वादिी”, ेयोदिी को “र्नतेरस” तथा र्न्वन्तरर जन्मोत्सव, चतद ु धिी को नरकचतद ु ध िी तथा अमावस्या को दीपावली व्रत, दस ू रे ददन गोवर्धन पज ू ा एवं अन्नकूट मनाए जाने की परम्परा है . अतः यह कहा जा सकता है कक काततधक मास अन्य मासों से उत्तम है .स्कन्दपरु ाण (१/१४) में उल्लेखखत है कक---“मासानां काततधकः श्रेष्ठो दे वानां मर्ुसद ू नः**तीथिं नारायणाख्यं दह त्रितयं दल ध ं कलौ” अथाधत भगवान द्धवष्णु एवं द्धवष्णुतीथध के समान ही काततधकमास को ु भ श्रेष्ठ और दल ध कहा गया है . काततधक मास कल्याणकारी मास माना गया है . स्कान्दपरु ाण(३६-३७) के एक ु भ श्लोक १/३६-३७ के अनस ु ार-“न काततधकसमो मासो न कृतेन समं यग ु म* न वेदसदृिं िास्ि न तीथध गंगाया समम.” सामान्यरुप से तल ध ारायण के आते ही काततधक मास प्रारम्भ हो जाता है .इस मास ु ारासि पर सय ू न का महात्म पद्मपरु ाण तथा स्कान्दपरु ाण में बहुत द्धवस्तार से उपलब्द्र् है . गोवत्सद्वादिी के ददन गोमाता का पज ू न ककया जाता है .इस ददन ककसी पद्धवि नदी या सरोवर में स्नान करके व्रत का संकल्प करना होता है . इस व्रत में एक समय भोजन ककया जाता है , परन्तु भोजन में गाय के दर् ू या उससे बने पदाथध तथा तेल में पके पदाथध नहीं खाया जाना चादहए. सांयकाल गाएं जब चरकर वापस आएं तो बछडे सदहत गौ का गंर्, पष्ु प, अक्षत, दीप, उडद के बड ं के साथ पज ू न करना चादहए. एक कथा के अनस ु ार महद्धिध मग ृ ु के आश्रम में भगवान िंकर के दिधनों की असभलािा से करोड मतु नगण तपस्या कर रहे थे. भगवान प्रसन्न हुए और उन्होंने एक लीला रची. वे एक बढ ू े ब्राह्मण के रुप में , और मां भगवती गाय के प्रकट हुईं और भग ृ ु से कहा कक वे स्नान करके लौटें गे तब तक आप हमारी गाय की रक्षा करें . ऎसा कहकर वे चल ददए. थ डी दे र बाद वे एक व्याघ्र के रुप में प्रकट होकर गाय को 35 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


डराने लगे. सामने िेर दे खकर गाए कांपने लगी और जोरों से रं भाने लगी. मतु न ने ब्रह्मा से प्राप्त घंटॆ को बजाना िरु ु ककया,र्जससे व्याघ्र तो भाग गया और उसके स्थान पर स्वयं सिव प्रकट हो गए. ब्रह्मवादी ऋद्धि ने उनका पज ू न ककया. र्जस ददन सिव ने यह लीला की थी,उस ददन काततधकमास की कृष्णपक्ष की द्वादिी

थी, इसीसलए यह व्रत ”गोवत्सद्वादिी “ के रुप में मनाया जाने लगा. एक अन्य कथा के अनस ु ार राजा उत्तानपाद ने पथ् ृ वी पर इस व्रत को प्रचाररत

ककया. उनकी रानी सन ु ीतत इस व्रत को ककया करती थी, र्जसके प्रभाव से ध्रव ु उन्हें प्राप्त हुआ. ु जैसा पि आज भी माताएं पि ु -रक्षा और संतानसख ु के सलए इस व्रत को करती हैं. काततधक मास के कृष्णपक्ष की ियोदिी” र्नतेरस” कहलाती है . यह यमराज से सम्बन्र् रखने वाला व्रत भी है . ऎसी मान्यता है कक र्नतेरस के ददन जो दीपदान करता है ,उसकी असामतयक मत्ृ यु नहीं होती. इसी ेयोदिी ततधथ को र्न्वन्तरर का प्राक्य माना जाता है . क्षीरसागर का मन्थन करते समय भगवान र्न्वन्तरर संसार में समस्त रोगों की औिधर्यों को कलि मे भरकर प्रकट हुए थे. इस ददन उनका पज ू न करके लोग दीघध जीवन तथा आरोग्यलाभ के सलए मंगलकामना करते हैं. चतद ु ध िी को” नरकचतद ु ध िी” के नाम से भी जाना जाता है . एक कथा के अनस ु ार वामनावतार में भगवान श्रीहरर ने सम्पण ू ध पथ् ृ वी नाप ली. बसल के दान और भर्तत से प्रसन्न होकर वामनभगवान ने उनसे वर मांगने को कहा. उस समय बसल ने प्राथधना की कक काततधक कृष्ण ेयोदिी सदहत इन तीन ददनों में मेरे राज्य का जो भी व्यर्तत यमराज के उद्देश्य से दीपदान करे गा उसे यमयातना न हो और इन तीन ददनों में दीपावली मनानेवाले का घर लक्ष्मी कभी न छोडॆ. भगवान ने कहा-“एवमस्त”ु . जो मनष्ु य इन तीन ददनों में दीपोत्सव करे गा, उसे छोडकर मेरी द्धप्रया लक्ष्मी कहीं नहीं जाएगी.” जैसा कक आप जानते ही हैं कक अमावस्या को दीपावली के रुप में यह पवध अपने ही दे ि में नहीं वरन अन्य दे िों में भी र्ूमर्ाम से मनाया जाता है . इस पर द्धवस्तार से सलखने की आवश्यकता नहीं है . अन्नकूट-महोत्सव- काततधकमास के ित ु लपक्ष की प्रततपदा को अन्नकूटमहोत्सव मनाया जाता है . इस ददन गोवर्धन की पज ू ा-अचधना करने

की परम्परा है . प्रातःकाल घर के

द्वारदे ि माने आंगन में गौ के गोबर का गोवर्धन बनाकर,वक्ष ु त और पष्ु पों से सि ु ोसभत ृ ा-िाखादद से संयत कर पज ू ा की जाती है . अनेक स्थानों में इसे मनष्ु य के आकार का भी बनाते है .पज ू ा-अचधना के बाद यथासामथ्यध भोग लगाया जाता है .

इस महोत्सव की कथा इस प्रकार है - द्वापर में व्रज में

अन्नकूट के ददन इन्र की पज ू ा होती थी. श्रीकृष्ण ने गोप-ग्वालों को समझाया कक गाएं और गोवर्धन प्रत्यक्ष दे वता हैं, अतः तम् ु हें इनकी पज ू ा करनी चादहए,तयोंकक इन्र को कभी ददखाई ही नहीं दे ते और न

36 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


ही आप लोगों के द्वारा चढाया गया अन्न ही गह ृ न करते हैं. फ़लस्वरुप उनकी प्रेरणा से सभी व्रजवाससयों ने गोवर्धन का पज ू न ककया. स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन का रुप र्ारण कर उस पकवान को ग्रहण ककया.

जब इन्र को यह बात ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त क्रुि

होकर प्रलयकाल के सदृि मस ु लार्ार वर्ृ ष्ट करने लगे. यह दे खकर श्रीकृष्णजीने गोवर्धन पवधत को अपनी अंगल ु ी पर र्ारण ककया, उसके नीचे सब व्रजवासी, ग्वालबाल, गाएं, बछडॆ आदद आ गए. लगातार सात ददनों तक विाध होती रही, लेककन व्रज पर कोई प्रभाव नहीं पडा. ब्रह्माजी ने जब इन्र को श्रीकृष्ण के परमब्रह्म परमात्मा होने की बात बतायी तो लर्ज्जत इन्र ने व्रज आकर श्रीकृष्णजी से क्षमा मांगी. इस अवसर पर ऎरावत ने आकािगंगा के जल से और कामर्ेनु ने अपने दर् ू से भगवान का असभिेक ककया,र्जससे वे “गोद्धवन्द” कहे जाने लगे.

गगधसदं हता में इस बात का उल्लेख

समलता है . अवतार के समय भगवान ने रार्ा से साथ चलने को कहा. तो रार्ाजीने कहा कक वद ं ृ ावन, यमन ु ा और गोवर्धन के त्रबना मेरा मन पथ् ु श्रीकृष्णजी ने अपने ह्रदय की ओर ृ वी पर नहीं लगेगा. यह सन दृर्ष्ट डाली थी,र्जससे तत्क्षण एक सजल तेज तनकलकर “रासभसू म” पर जा धगरा था और वही पवधत के रुप में पररणत हो गया था. यह रत्नमय पवधत सन् ु दर झरनों, कदम्ब आदद वक्ष ु ोसभत ृ ों और कुओं से सि था. यह दे खकर रार्ाजी बहुत प्रसन्न हुईं.

इस संदभध में एक और कथा समलती है .

भगवान की प्रेरणा से िाल्मलीद्वीप मे रोणांचल की पर्त्न से गोवर्धन का जन्म हुआ. भगवान के जानु से वन्ृ दावन और उनके वामस्कन्र् से यमन ु ाजी प्रकट हुईं. गोवर्धन को भगवदरुप जानकर सम ु ेरु, दहमालय आदद पवधतों ने उसकी पज ू ा की और उसे धगररराज बना उसका स्तवन ककया. एक समय तीथधयािा के प्रसंग मे पल ु स्त्यजी वहां आए. गोवर्धन को दे खक्रर वे मग्ु र् हो उठे और रोण के पास जाकार उन्होंने कहा- “मैं कािीतनवासी हू​ूँ. एक याचना लेकर आपके पास आया हू​ूँ. आप अपने इस पि ु को मझ ु े दे दें . मैं इसे कािी मे स्थाद्धपत कर तप करुं गा. रोण उनके अनरु ोर् को ठुकरा नहीं पाए. तब गोवर्धन ने मतु न से कहा- “मैं दो योजन ऊूँचा और पांच योजन चौडा हू​ूँ. आप मझ ु े कैसे ले चल सकेंगे?” मतु न ने कहा कक मैं तम् ु हें अपने हाथ पर उठाए चला चलग ुं ा.

गोवर्धन ने कहा-“महाराज ! एक ितध है . यदद आप मागध

में मझ ु े कहीं रख दें गे तो कफ़र मैं उठ नहीं सकंू गा”. मतु न ने ितध स्वीकार कर सलया और उसे उठाकर कािी के सलए प्रस्थान करने लगे. मागध में व्रजभसू म समली, र्जस पर गोवर्धन की पव ध मतृ तयां जाग उठी. ू स् वह सोचने लगा कक भगवान श्रीकृष्ण रार्ाजी के साथ यहीं अवतीणध होकर बाल्य और कैिोर आदद की बहुत सी लीलाएं करें गे और मैं इस अद्भत ु और रसमयी लीला के बगैर रह न सकंू गा. मन में ऎसा द्धवचार आते ही उसने अपना भार बढाना िरु ं ा की प्रवर्ृ त्त हुई. उन्होंने उसे उसी ु कर ददया. इर्र मतु न को लघि ु क स्थान पर रख ददया और जब वाद्धपस लौटे तो वे उसे दहला भी न सके. इस बात पर मतु न को क्रोर् हो 37 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


आया और उन्होंने उसे श्राप दे ददया कक तम ु प्रततददन ततल-ततल घटते जाओगे. उसी िाप से धगररराज गोवर्धन आज भी ततल-ततल घटता ही जा रहा है . एक कथा और भी पढने को समलती है . एक ब्राह्मण अपना ऋण वसल ू ने के सलए मथरु ा आ रहा था. लौटते समय उसने एक गोल पत्थर उठाकर अपने झोले में रख सलया. मागध में एक राक्षस समला और उसे खाने दौडा. मरता तया न करता. उसने उस पत्थर से राक्षस पर प्रहार कर ददया. पत्थर लगते ही नीच योतन से उसे छुटकारा समल गया और उसकी काया ददव्य

हो उठी.

उसी समय आकाि से एक ददव्य द्धवमान आया और वह गोलोक में चला गया. यमद्द्धवततया(भैयादज ू )- काततधक मास के ित ु लपक्ष की द्द्धवततया”यमद्द्धवततया” या “भैयादज ू ” कहलाती है . इस ददन यमन ु ा-स्नान, यम पज ू न और बहन के घर भाई का भोजन करने का द्धवर्ान है और िास्िीय मतानस ु ार मत्ृ यु दे वता यमराज की पज ू ा होती है . कथा- यम और यमन ु ा भगवान सय ू ध की संतान है . दोनों भाई-बहनों मे अततिय प्रेम था. परं तु यमराज यमलोक की िासन-व्यवस्था में इतने व्यस्त रहते थे कक यमन ु ा के घर ही नहीं जा पाते थे. एक बार यमन ु ा यम से समलने आयीं. बहन को आया दे ख यमदे व बहुत प्रसन्न हुए और बोले-“ बहन मैं तम ु से बहुत प्रसन्न हू​ूँ, तम ु मझ ु से जो भी वरदान मांगना चाहो मांग लो. यमन ु ा ने कहा-“ भैया ! आज के ददन जो मझ ु में स्नान करे गा उसे यमलोक न जाना पडॆ.”.यमराज ने कहा-“ बहन ! ऎसा ही होगा.”. उस ददन काततधक मास की ित ु ल द्द्धवततया थी. इसीसलए इस ततधथ को यमन ु ास्नान का द्धविेि महत्व है .

काततधक मास की ित ु लपक्ष की द्द्धवततया ततधथ

को यमन ु ा ने अपने घर अपने भाई को भोजन कराया . इसीसलए इस ततधथ का नाम “यमद्द्धवततया” पडा. काततधक मास की ित ध ष्ठीु ल िष्ठी पर “सय ू ि महोत्सव”, ित ु ल अष्टमी को गोपाष्टमी-महोत्सव,, नवमी को अक्षयनवमी, ित ु ल एकादिी को दे वोत्थापनी एकादिी, तथा तल ु सी-द्धववाह, ित ु ल चतद ु ध िी को बैकुण्ठचतद ु धिी तथा पखू णधमा को काततधक-पखू णधमा के नाम से समारोहपव ध पवध मनाए जाने का महात्म्य पढने को समलता है . ू क समिों—दीपावली के पवध के बारे में आप सब कुछ जानते हैं और उसे भव्यता के साथ मनाते भी आ रहे हैं. उससे जड ु ी कथाएं भी आप जानते ही हैं,कफ़र भी यहां उद्दृत करने का आिय ससफ़ध इतना है कक आप उसमे तछपी बातों को गहराई से परखें -दे खें और समझे. उपरोतत बातों की गहराई में हम जब उतरते हैं तो पाते हैं उसमे गाय है , जंगल हैं, ऋद्धिमतु न हैं, जंगली जानवर है , नददयां है , पहाड है , और इन सबके बीच हम अपनी धचर-पररधचत संस्कृतत-र्मध आदद का तनवधहन करते हुए लोकजीवन भी हैं. लोकजीवन और लोक सादहत्य के माध्यम से हमारी 38 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


सांस्कृततक परम्पराओं की झांककया आज भी हमें दृर्ष्टगोचर होती है . इन परम्परागत लोक-जीवन प्रकक्रयाओं पर ही हमारी संस्कृतत दटकी हुई है . प्रारं भ में हमारी जीवन प्रकक्रया सरल-सहज थी. प्रकृतत की तरह तनश्छल और पद्धवि थी. आददम मनष्ु य के सलए कुदरत में चारों ओर सख ु की सर्ृ ष्ट थी. धचडडयों की चहचहाहट, फ़ूलों की मस् ु कान, बादलों की ररमखझम, नददयों की कल-कल, इन्रर्नि ु ी रं गों की छटा,कुलसमलाकर ये सब प्रकृतत को मनष्ु य से जोडते थे. इनमें आनन्द के सभी मल ू स्िोत थे--ध्वतन, रं ग, दृष्य त्रबंब, कक्रया और गततिीलता आदद सब कुछ. लेककन आज पररदृष्य बदल गया है . प्रकृतत की घोर उपेक्षा हो रही है . द्धवकास के नाम पर द्धवनाि परोसा जा रहा है और हम मक ू दिधक की तरह सब कुछ दे खने, सन ु ने और सहने के सलए द्धववि हैं. मोहनदास करमचंद गांर्ीजी ने कहाथा कक यदद भारत से गाय, गंगा और गांव हटा दें , तो कुछ भी नहीं बचता है . बात कुछ ज्यादा परु ानी नहीं हैं लेककन उस समय कहा गया आज सामने ददखलायी दे रहा है . गाय की रक्षा-सरु क्षा, मां मानकर की गई होती तो आज बच्चे कुपोिण का सिकार होने पर मजबरू न होते. गाय होती तो बेहतरीन खाद खेतों में पडती और स्वस्थ बीज हम आज खा रहे होते .फ़दटध लाइजर की जरुरत ही न पडती. घी तो आज पांच सौ रुपया दे ने के बाद भी असली समल पाएगा इसमें ,िक होता है .. छोटी-मोटी पहाडडयां तो कभी की द्धवकास के नाम पर बसल चढ गईं. अब द्धवकास के नाम पर जंगल काटकर सडके बनाई जा रही हैं, र्जससे वन्यजीवों के द्धवलप्ु त होने का खतरा मंडाराने लगा है . नददयां आज जरुरत से ज्यादा प्रदद्धु ित हो गई हैं. उनका पानी पीने योग्य नहीं बचा. फ़लस्वरुप बहुत सी ज्ञात – अज्ञात त्रबमाररयां ससर उठा रही है . यह सब दे खकर हमें कृष्ण याद आते हैं. और याद आना भी चादहए. केवल कृष्णजन्म मनाने और आरती उतारने से भला होने वाला नहीं है . हमें आज उनकी सीख को जीवन में उतारना होगा और उनके द्वारा बतलाए मागध का अनरु रण करना होगा. कृष्णजी ने खेल-खेल में उन गढ ू रहस्यों को हम सब पर काफ़ी पहले उजागर कर ददया था. उस पर द्धवस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं है बर्ल्क आज उन रास्तों पर चलने और आगे बढने का संकल्प लेना होगा. यदद हम ऎसा कर पाए तो स्वगध, र्रा पर उतरा पाएंगे.

39 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


९.

कौमद ु ी-महोत्सव कौमद ु ी-महोत्सव को रासोत्सव भी कहा जाता है . भगवान श्रीकृष्ण ने इसी ततधथ को रासलीला की

थी. इससलए व्रज में इस पवध को द्धविेि उत्साह के साथ मनाया जाता है . सात अतटूबर को परू े भारतविध में इस महोत्सव को द्धविेि उत्साह और उमंग के साथ मनाया गया था. अर्श्वनमास के ित ु लपक्ष को पडने वाली पखू णधमा, शित्पणू र्यमा कहलाती है . इस ददन रात्रि में चन्रमा की चाूँदनी में अमत ृ का तनवास रहता है , इससलए उसकी ककरण ं से अमत ृ त्व और आरोग्य की प्रार्प्त सल ु भ होती है . इस रात्रि में खीर से भरे पाि को खुली चाूँदनी में रखना चादहए. इसमें रात्रि के समय चन्रककरण ं के द्वारा अमत ू ध चन्रमा के मध्याकाि में र्स्थर होने पर उनका पज ू न ृ धगरता है . पण कर अध्यध प्रदान करना चादहए तथा भगवान को भोग लगाना चादहए. इस ददन दमा-स्वांस के मरीजों को द्धविेि जडी-बट ू ी समलाकर दवा दी जाती है . कुिल वैद्य त्रबना ककसी िल् ु क के हजारों मरीजों को दवा बांटते हैं. इसी पखू णधमा की रात्रि में भगवती महालक्ष्मीजी भ्रमण पर तनकलती हैं और यह दे खती है कक कौन जाग रहा है . जो जाग रहा होता है उसे वे र्न प्रदान करती है . महालक्षमीजी के “को जागतृ त” कहने के कारण इस व्रत को कोजागर अथवा कोजाधगरी भी कहा जाता है . इस संबर् ं में एक श्लोक है , वह इस प्रकार से है . तनशीथे विदा लक्षमीः को जागत ृ ीतत भापषर्ी जगतत

भ्रमते तस्यां

लोकचेष्टावलोककनी

तस्मै पवत्तं प्रयच्छामम यो जागततय महीतले. 40 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


कोजाधगरी व्रत को लेकर एक कथा भी पढने को समलती है . वह इस प्रकार है . मगर् दे ि में वसलत नामक एक अयाचक्रवती ब्राह्मण था. उसकी पर्त्न चण्डी अतत ककधिा थी. वह ब्राह्मण को रोज ताने दे ती कक मैं ककस दररर के घर त्रबहाई गई. वह तनत प्रतत अपने पतत की घोर तनंदा करती रहती. वह पाद्धपनी अपने पतत को राजा के महल में जाकर चोरी करने के सलए उकसाया करती थी. एक बार श्राध्द के समय उसने द्धपण्ड ं को उठाकर कुएूँ में फ़ेंक ददया. इससे अत्यन्त दख ु ी होकर ब्राह्मण जंगल में चला गया, जहाूँ उसे नागकन्याएूँ समलीं. उस ददन आर्श्वनमास की पखू णधमा थी. नागकन्याओं ने ब्राहमण को रात्रि जागरण कर लक्ष्मीजी को प्रसन्न करने वाला “कोजागि व्रत” करने को कहा. कोजागरव्रत के प्रभाव से ब्राह्मण के पास अतल ु र्न-सम्पर्त्त हो गयी. भगवती लक्ष्मी की कृपा से उसकी पर्त्न चण्डी की भी मतत तनमधल हो गयी और वे दम्पतत सख ध रहने लगे. ु पव ू क

गणगौररया लाखा री बर्ाई

१०

राजस्थान की प्रष्ृ ठभसू म परु ातनकाल से ही समि ृ रही है. यहाूँ की सांस्कृततक एवं सामार्जक परम्पराएूँ दे खते ही बनती है . इस भसू म को वीरप्रसद्धवनी भी कहा जाता है . यहाूँ के रणबाकूँु रों ने मातभ ृ सू म की रक्षा के सलए हं सते –हं सते अपने प्राण का उत्सगध ककया है . यहाूँ के समाज में अनेक व्रत एवं पवोत्सव प्रचसलत है , र्जसमें गणगौर-महोत्सव का महत्वपण ू ध स्थान है . वसन्त-ऋतु की वासन्ती बयार डोलने पर फ़ागन ु के सरस एवं मर्ुर होली-गीतों का अवसान भी नहीं हो पाता कक पखू णधमा के पश्चात नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में गणगौर व्रत रखने वाली सक ु ु माररयां एवं सर्वा यव ु ततयां के कण्ठों से गणगौर के मर्ुर गीतों की सररता बहने लगती है , र्जसमें श्रिा एवं प्रेम के साथ गणगौर पज ू न का सन् ु दर आव्हान उनके द्वारा ककया जाता है . खोल ए गणगौर माता, खोल ए ककं वाडी बारै

ऊभी

थारी

पज ू न

हाली

राई सी भौजाई दे , कान कूँवर सो वीरो.

41 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


नवयौवनाएूँ इस गीत में अपने सलए श्रीकृष्ण जैसा सन् ु दर, सलोना, वीर भाई तथा स्नेदहल भौजाई पाने की कामना करती हैं. कुमाररयाूँ नगर एवं ग्राम के बाहर र्स्थत मददरों में द्धवराजमान गण (ईश्वरसिव) तथा गौर (माता पावधती) की पज ू ा करती हैं और कामदे व-सा सन् ु दर मनभावन वर पाने की कामना करती है . कुमाररयों एवं नवद्धववादहताएूँ फ़ाल्गन ु पखू णधमा के पश्चात चैि कृष्णपक्षभर-ित ु लपक्ष प्रततपदा या तत ू न करती हैं. इस व्रत में होली की राख ृ ीया तक पन्रह ददन व्रती रहकर सिव-पावधती का प्रततददन पज से द्धपण्ड भी बनाए जाते हैं तथा जौ के अंकुरों के साथ इसका द्धवधर्वत पज ू न होता है . कुमाररयाूँ फ़ूलों एवं दव ू ाधपिों से कलि सजाकर मर्ुर गीत गाती हुई अपने घर ले जाती हैं. इस अवसर पर इन गीतों के माध्यम से उनके द्वारा चूडा और चूँ द ू डी की अक्षयता अथवा सौभाग्यसच ू क श्रंग ृ ार पाने की कामना की जाती है . इस अवसर पर वे गा उठती हैं“गणगौररया लाखा री बर्ाई ढोला मै मोया जी म्हारी कुण मनावै गणगौर .. माथा ने भवर गढाओ जी, रखडी रतन जडाओ जी गणगौररया लाखा री बर्ाई ढोला मै मोया जी म्हारी कुण मनावै गणगौर..” पावन प्रातः-वेला में पज ू नस्थल पर कुमाररयाूँ, सौभाग्यवती यव ु ततयाूँ पज ू ा सामग्री सदहत ससर पर तीन या सात पष्ु पसर्ज्जत कलि सलए हुए जब गणगौर का पज ू न करने के सलए जाती हैं तो उनके कण्ठ से यह मर्ुर गीत मख ु ररत होने लगता है . गौर-गौर गणपतत ईसर पज ू े पावधती पावधती का आला गीला, गौर का सोने का टीका. टीका टमका दे , राजा-रानी बरत करे करता-करता आस आयो, मास आयो खेरे खारे लाडु लायो लाडु मनै बीरा को ददयो बीरा न चूँ द ू ड दीनी, चूँ द ू ड मनै गौर को उढाई, गौर ने म्ही सह ु ाग ददयो....... सामान्यतः गणगौर व्रत एवं सिव-पावधती के रुप में ईसरजी और ईसरीजी की प्रततमाओं के पज ू न द्वारा सम्पन्न होता है . राजस्थान में ऎसी मान्यता है कक इस उत्सव का आरम्भ पावधतीजी के गौने या 42 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


द्धपता के घर पन ु ः लौटने और उनकी सखखयों द्वारा स्वागत-गान को लेकर आनन्दावस्था में हुआ था. इसी स्मतृ त में आज भी गणगौर की काष्ठप्रततमाएूँ सजाकर समटी ी की प्रततमाओं के साथ ककसी जलािय पर ले जायी जाती है और घम ू र-जैसे नत्ृ य तथा लोकगीतों की मर्ुर ध्वतन से समटी ी की प्रततमाओं का द्धवसजधन कर काष्ठप्रततमाओं को लाकर पन ु ः पज ू ाथध प्रततर्ष्ठत ककया जाता है . यह व्रत-उत्सव आज भी जोर्परु , जयपरु , उदयपरु , कोटा आदद संभागों में बडी र्म ू र्ाम से कुमाररयों एवं सर्वा यव ु ततयों द्वारा मनाया जाता है , र्जसमें स्वयं राज्य के राजा तथा राज्याधर्कारी कमधचारी सवारी के साथ सर्म्मसलत हुआ करते थे. कोटा में तो अनेक जाततयों की र्स्ियाूँ भी इसमें िासमल होती थीं तथा राजप्रासाद के प्रांगण में आकर घम ू र नत्ृ य ककया करती थीं. उदयपरु में मनाए जाने वाले गणगौर-पवध पर सवारी का कनधल टाड ने बडा ही रोचक वणधन ककया है , र्जसमें सभी जातत की र्स्ियाूँ, बच्चे और परु ु ि रं ग-रं गीले वस्िाभि ू ण ं से सर्ज्जत होकर अटी ासलकाओं पर बैठकर गणगौर की सवारी दे खते थे. यह सवारी तोप के र्माके से और नगाडॆ की ध्वतन से राजप्रासाद से आरम्भ होकर द्धपछौला झील के गणगौर-घाट तक बडी र्ूमर्ाम से पहुूँचती थी तथा नौकाद्धवहार एवं आततिबाजी के प्रदिधन के पश्चात समाप्त होती थी.

११…

गोवियन-पूजा का िहस्य

हमारे जीवन की सबसे बडी समस्या है , मन का अतनयंिण होना.. मनष्ु य द्वारा अपने मन और बद्धु ि को तनयंत्रित न करने पर ये इर्र-उर्र भटकते रहते हैं और जीवन में बडी-बडी उलझने पैदा खडी 43 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


कर लेते हैं. यदद इस अतनयंत्रित मन के ककसी कोने में अहं कार के बीज पड जाएं तो तो वह आदमी को पतन की गहराइयों की ओर घसीटता जाता है और उसे पता ही नहीं चल पाता. इसी क्रम में दे वताओं के राजा इन्र भी इस अहं कार की चपेट में आ गए थे. पररणाम यह हुआ कक उन्होंने अन्य लोगों को तच् ु छ समझना िरु ु कर ददया था. इस तरह दे वराज में असरु ता के बीज अहं कार का स्तर अत्यंत ही उग्र होता चला गया. भगवान श्रीकृष्ण ने इन्र के इस रोग की धचककत्सा करनी चाही. और दस ू री ओर गोवर्धनधगरर की “धचन्मयता” व्यतत कर दे ने की उनकी इच्छा हुई. उन्होंने नन्दबाबा से अनरु ोर् ककया कक हमें इन्र की पज ू ा करने के बजाय गोवर्धन की पज ू ा करनी चादहए,जो हमें अप्रत्यक्षरुप से मदद करते हैं, हमारे पिओ ु ं को वहां हरा भरा-चारा और नददयों के माध्यम से हमें पानी भी उपलब्द्र् कराते हैं. श्रीकृष्ण कक यह योजना आित ु ोि िंकरजी को बहुत अच्छी लगी और वे दल-बल के साथ इस धगररपज ू न में सर्म्मसलत हुए. गोवर्धन पज ू ा का यह औधचत्य राजद्धिधयों, ब्रह्मद्धिधयों, दे वताओ और ससिों से भी न तछपा था. वे भी बडी प्रसन्नता के साथ इस समारोह में उपर्स्थत हुए थे. दे वधगरर सम ु ेरु और नगाधर्राज दहमालय के सलए भी गोवर्धनधगरर कक “धचन्मयता” व्यतत की थी, इससलए उनमें जाततगत द्वेि नही जागा और वे भी बडी प्रसन्नता के साथ इस पज ू ा समारोह में उपर्स्थत हुए थे. पज ू न के समय स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने द्धविाल रुप र्ारण कर अपने को “गोवर्धन” घोद्धित ककया और इस तरह उन्होंने गोवर्धनधगरर से अपनी “असभन्नता” प्रकट की. दे वता ही नही वरन मनष्ु य भी इससे कम प्रसन्न नहीं हुए. उन्होंने फ़ूलों और खीलों की मत ु तहस्त विाध प्रारं भ कर दी. उर्र दे वरज इन्र का अहं कार का पदाध इतना घना हो चुका था कक वे धगररराज की भगवतरुपता ततनक भी नहीं आंक पाए. वे क्रोर् और द्वेि की आग में जलने लगे. उन्होंने प्रलयकारी मेघों को आज्ञा दी कक वे परू े व्रज को ध्वंस कर दें . इतना ही नहीं वे स्वयं अपने ऎरावत पर सवार होकर मरुद्गण ं की सहायता में आ डटे . िादह-िादह सी मच गई थी उस समय व्रज में . दे खते ही दे खते जलप्रलय ने लोगों के घर-बार उजाडने िरु ु दर ददया था. चारों तरफ़ अरफ़ा-तरफ़ी मची हुई थी. श्रीकृष्णजी ने तत्काल गोवर्धन-पवधत को एक हाथ में उठा सलया और लोगों को उसके नीचे आकर िरण लेने को कहा. इस तरह परू ा व्रज उस पवधत के नीचे आ इकठ्ठा हुआ. भगवान ने मन ही मन श्री िेिजी को और सद ु िधन को आज्ञा दी. वे तत्क्षण ही वहाूँ आ उपर्स्थत हुए. चक्र ने पवधत के ऊपर र्स्थत हो जलसम्पात पी सलया और नीचे कुण्डलाकार हो िेिजी ने सारा जलप्रवाह रोक सलया.. इन्र ने जब अपनी सारी िर्ततयाूँ झोंक दी, बावजूद इसके वे वहाूँ कुछ नहीं त्रबगाड पाए, तब

44 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


जाकर उनको वस्तर्ु स्थतत का बोर् हुआ और अहं कार जाता रहा. अब वे अपने आपको एक अपरार्ी की तरह महसस ू करने लेगे थे. केवल और केवल एक अर्न्तम द्धवकल्प बचा था उनके पास कक जाकर श्रीकृष्णजी से माफ़ी मांगी जाए. वे तत्काल र्रती पर आए और श्रीचरण ं में आकर धगर गए. उन्होंने अपने कृत्य के सलए क्षमा याचना की. श्रीभगवान ने उन्हें क्षमा कर ददया. इन्र ने आकाि-गंगा के जल से श्रीकृष्णजी का असभिेक ककया. इस प्रकार गोकुल की की गयी रक्षा से कामर्ेनु भी प्रसन हुईं और उसने अपनी दग्ु र्र्ारा से श्रीभगवान का असभिेक ककया. इन असभिेकों को दे खकर धगररराज गोवर्धन के हिध का दठकाना न रहा और वह रवीभत ू हो बह चला. तब श्रीभगवान ने प्रसन्न होकर अपना करकमल उस पर रखा, र्जसका धचन्ह आज भी दीखता है . यथा- “तध्दस्तथचन्हमद्दापप दृश्यते तदथगरि नप ृ ” श्री गोवर्धन की धचन्मयता का स्पष्टीकरण गगधसदं हता ( धगररखण्ड ४/१२) में हुआ है . अवतार के समय भगवान ने रार्ाजी से साथ चलने को कहा था. उस पर श्रीरार्ाजी ने कहा कक वद ं ृ ावन, यमन ु ा और गोवर्धन के त्रबना मेरा मन पथ् ु कर श्रीकृष्णजी ने अपने हृदय की ओर दृर्ष्ट ृ वी पर नहीं लगेगा. यह सन डाली, र्जससे एक सजल तेज तनकलकर “रासभसू म” पर आ धगरा था और वहीं पवधत के रुप में पररणत हो गया था. यह रत्नमय िग ंृ ों, सन् ु दर झरनों, कदम्ब आदद वक्ष ु ोसभत था. उसमें अन्य ृ ों एवं कंु जों से सि नाना प्रकार की ददव्य सामधग्रयाूँ उपर्स्थत थीं, र्जसे दे खकर रार्ाजी बहुत प्रसन्न हुईं. इस संदभध में एक कथा और है . भगवानश्री के प्रेरणा से िाल्मलीद्वीप में रोणाचल की पर्त्न से गोवर्धन का जन्म हुआ. भगवान की जानु से वन्ृ दावन और उनके वामस्कन्र् से यमन ु ा प्रकट हुईं. गोवर्धन को भगवदरुप जानकर ही सम ु ेरु, दहमालय आदद पवधतों ने उनकी पज ू ा की और धगररराज बना उसका स्तवन ककया. एक समय तीथध यािा के प्रसंग में पल ु स्त्यजी वहाूँ आए. वे धगररराज को दे खकर मग्ु र् हो उठे और रोण के पास जाकर उन्होंने कहा:-“मैं कािीवासी हू​ूँ. एक याचना लेकर आया हू​ूँ. आप अपने इस पि ु को मझ ु े दे दें . मैं इसे कािी में स्थाद्धपत कर वहीं तप करुूँ गा”. इस पर रोण पि ु के स्नेह से कातर हो उठे , पर वे ऋद्धि की मांग ठुकरा न सके. तब गोवर्धन ने मतु न से कहा:-“ मैं दो योजन ऊूँचा और पाूँच योजन चौडा हू​ूँ. आप मझ ु े कैसे ले चल सकेंगे?”. मतु न ने कहा:-“मैं तम् ु हें हाथ पर उठाए चला चलूँ ग ू ा.”. गोवर्धन ने कहा:-“ महाराज ! एक ितध है . यदद आप मझ ु े मागध में कहीं रख दें गे तो मैं उठाए उठ न सकूँू गा.” मतु न ने यह ितध स्वीकार कर ली. तत्पश्चात पल ु स्त्य मतु न ने हाथ पर गोवर्धन उठाकर कािी के सलए प्रस्थान ककया. मागध में व्रजभसू म समली, र्जस पर गोवर्धन की पव ध मतृ तयाूँ जाग उठीं. वह सोचने ू स् लगा कक भगवान श्रीकृष्ण रार्ा के साथ यहीं अवतीणध हो बाल्य और कैिोर आदद की मर्ुर लीला करें गे. उस अनप ु म रस के त्रबना मैं रह न सकूँू गा. ऎसे द्धवचार उत्पन्न होते ही वह भारी होने लगा, र्जससे मतु न 45 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


थक गए. इर्र लघि ं ा की भी प्रवर्ृ त्त हुई. उन्होंने पवधत को एक जगह रख ददया. लघि ं ा से तनवत्ृ त ु क ु क हो उन्होंने पन ु ः स्नान ककया और गोवर्धन को उठने लगे, लेककन वह टस से मस न हो सका. उसने बडॆ द्धवनीत भाव से मतु न को ितध की याद ददलाई. इस पर मतु न को क्रोर् आ गया और उन्होंने श्राप दे ददया कक तम ु ने मेरा मनोरथ परू ा नहीं ककया, इससलए तम ु प्रततददन ततल-ततल घटते जाओगे. उसी श्राप की वजह से गोवर्धन आज भी ततल-ततल घटता ही जा रहा है . इसी क्रम में एक कथा और है कक एक ब्राह्मण अपना ऋण वसल ू ने के सलए मथरु ा आया. लौटते समय उसने धगररराज का एक गोल पत्थर अपने साथ रख सलया. मागध में उसे एक भयंकर राक्षस ने घेर सलया. राक्षस को सामने दे ख वह कांप उठा. ब्राह्मण को तत्काल कुछ न सझ ु ाई ददया. उसने अपनी झोली में से उस पािाणखण्ड को तनकाला और राक्षस की तरफ़ उझाल ददया. उस पािाण के अद्भत ु प्रभाव से उस राक्षस को नीच योतन से छुटकारा समल गया और उसकी काया ददव्य हो गयी. उसी क्षण एक द्धवमान आकािमागध से उतरा, र्जस पर आरुढ होकर वह “गोलोक” चला गया. शास्त्रों मल उल्लेख ममलता है कक गन्िमादन की यात्रा अथवा नाना प्रकाि के पु यों एवं तपस्या

का जो फ़ल प्रातत होता है , उससे भी कोदटगर् ु अथिक फ़ल गोवियन के दशयन मात्र से होता है , काततधक ित ु ल प्रततपदा को मनाए जाने वाले इस पवध अथाधत गोवर्धन पज ू न के ददन पद्धवि होकर गोवर्धन तथा गोपेि भगवान श्री कृष्णजी का पज ू न करना चादहए. यदद आपके यहाूँ गौ और बैल हों तो उनको वस्िाभि ू ण ं तथा मालाओं से सजाना चादहए. पज ू न करते समय इस मंि का उच्चारण जरुर करें गोवियन ि​िाि​ि गोकुलत्रार्कािक/पवष्र्ुवाहकृतोच्छाय गवां कोदटप्रभो भव अथाधत :-पथ् ृ वी को र्ारण करने वले गोवर्धन ! आप गोकुल की रक्षक हैं. भगवान श्रीकृष्ण ने आपको अपनी भज ु ाओं पर उठाया था. आप मझ ु े करोड ं गौएूँ प्रदान करें ., दस ू री बात यह है कक इस समय तक िरद्कालीन उपज पररपतव होकर घरों में आ जाती है . भण्डार पररपण ू ध हो जाते हैं. अतः तनर्श्चंत होकर लोग नयी उपज के िस्यों से द्धवसभन्न प्रकार के पदाथध बनाकर श्रीमन्नारायण को समद्धपधत करते हैं. गव्य पदाथों को भी इस उत्सव में सजा-सूँवारकर तनवेददत ककया जाता है . गोमय का गोवर्धन अथाधत पवधत बनाकर उसकी पज ू ा की जाती है . अनन्तकाल से भारतीय आज भी अपने घरों में “गोवर्धन” की पज ू ा-अचधना करते हैं. और अपने और अपने पररवार की समद्द ृ ी के सलए प्राथधना कर अपने को र्न्य मानते हैं.

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(श्रीमती िकुन्तला यादव-- गोवर्धन की पज ू ा-अचधना करते हुए.)

इस अवसर पर गाए जाने वाले परम्परा गीत की बानगी दे खखए. -------------------------------------------------------------मैं तो गोवर्धन को जाउूँ , मेरो वीर नाय मानै मेरो मनवा नाय चदहये मोहे पार-पडौसन, इकली-दक ु ली र्ाऊूँ मेरो वीर सात कोस की दऊूँ परकम्मा,िान्तनु कंु ड में नहाऊूँ मेरो वीर चकलेसरु के दरसन कररके, मानसी गंगा नहाऊूँ मेरो वीर सात सेर की करी कढै या, संतन न्योत र्जमाऊूँ मेरो वीर धगरर गोवर्धन दे व हमारो, पल-पल सीस नवाऊूँ मेरो वीर प्रेम सदहत धगररराज पज ु ाऊूँ,मनवांतछत फ़ल पाऊूँ मेरो वीर. (२)

श्री गोवर्धन महाराज तेरे माथे

मक ु ुट

द्धवराज रहा

तोपे पान चढे , तोपे फ़ूल चढे और चढे दर् ू न की र्ार तोरे कानन कंु डल सोह रहे , तोरी ठोडी पे हीरा लाल तोरे गले में कंठा सोने को,तेरी झाूँकी बनी है द्धविाल तोरी सात कोस की श्री गोवर्धन महाराज,

परकम्मा

चकलेश्वर है

द्धवश्राम.

तोरे माथे मक ु ु ट द्धवराज रहा

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१२

नददयों में नहाने से समलती है प्रसन्नता

सय ू ोदय के होते ही उसकी ककरणें र्रती पर एक नया द्धवतान सा तान दे ती है . कसलयां खखलकर

पष्ु प में पररखणत हो जाती है , कमल खखल उठते हैं, और मर्ुप अपनी राग छे डने लगते हैं. मंद-मंद हवा के झोंके बहने लगते हैं. ऎसे ददव्य समय में गह ृ स्थ त्रबस्तर से उठ बैठता है और तनत्यकक्रयाकमध से

तनजात पाकर नहाने को उद्दत होता है . वह चाहे ककसी नदी में नहा होता है अथवा अपने स्नानघर में

,पानी से भरा लोटा ससर पर पडते ही उसके मख ु से यह श्लोक उच्चाररत होने लगता है . “गंगाश्च यमन ु ा गोदावरी...........

नहाते समय एक अद्भत ु आनन्द की प्रतीतत उसे होने लगती है और उसे लगता है लोटे में भरे जल में मां गंगा,यमन ु ा और सरस्वती का जल उसके लोटे में समा गया है और वह उसमें स्नान कर रहा है . इससे आप समझ सकते हैं कक इस दे ि के वासी नददयों को ककतना महत्व दे ते हैं. गंगा कफ़र

सार्ारण नदी नहीं है . वह तो साक्षात भोले िंकार की जटाओं से तनकलकर इस र्रा पर अवतररत होती

है . दहमालय से तनकलकर गंगा, र्जस-र्जस स्थान से बहती हुई तनकाली है ,उसके पावन तट पर श्रिालु उसकी आरती उतारते हैं. और समवेत स्वरों में गाने लगते हैं

जय गंगा मैया मां जय सिु सिी मैया। 48 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भवबारिथि उिारिर्ी अततदह सदृ ु ढ़ नैया।। हिी पद पदम प्रसत ू ा पवमल वारि​िािा। ब्रम्हदे व भागीिथी शथु च पु यगािा। आददगरु ु िंकराचायधजी मां गंगा की स्ततु त करते हुए कहते हैं

दॆ पव! सिु ॆ श्वरि! भगवतत! गङ्गॆ त्रत्रभव ु नतारिणर् तिलतिङ्गॆ । शङ्किमौमलपवहारिणर् पवमलॆ मम मततिास्तां तव पदकमलॆ ॥ 1 ॥

[हे दे वी ! सरु े श्वरी ! भगवती गंगे ! आप तीनो लोको को तारने वाली हो... आप ि​ि ु तरं गो से यत ु त हो... महादे व िंकर के मस्तक पर द्धवहार करने वाली हो... हे माूँ ! मेरा मन सदै व आपके चरण कमलो पर आधश्रत है ...

िॊगं शॊकं तापं पापं हि मॆ भगवतत कुमततकलापम ् । त्रत्रभव ु नसािॆ वसि ु ाहािॆ त्वममस गततमयम खलु संसािॆ ॥ 9 ॥ [ हे भगवती ! मेरे समस्त रोग, िोक, ताप, पाप और कुमतत को हर लो... आप त्रिभव ु न का सार हो और वसर् ु ा (पथ् ु े केवल आपका ही आश्रय है ... ृ वी) का हार हो... हे दे वी ! इस समस्त संसार में मझ सख ु दे वजी िाजा पिीक्षक्षतजी को कथा सन ु ाते हुए मां गंगाजी की मदहमा का बखान किते हुए कहते हैं

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िात:ु कम डलज ु लं तदरू्रममस्य, पादावनेजनपपवत्रतया निे न्र ।

स्वियन्यभन् ू नभमस सा पतती तनमाजष्टय , लोकत्रयं भगवतो पवशदे व कीततय: ।।

“ राजन ् ! वह ब्रह्माजी के कमण्डलक ु ा जल, त्रिद्धवक्रम (वामन) भगवान ् के चरणों को र्ोने से

पद्धवितम होकर गंगा रूप में पररणत हो गया। वे ही (भगवती) गंगा भगवान ् की र्वल कीततध के समान आकाि से (भगीरथी द्वारा) पथ् ृ वी पर आकर अब तक तीनों लोकों को पद्धवि कर रही है । ( श्रीमद्भा0 8।4।21)

िहती थीं.]

गंगावतिर् की कथा को पढने पि ज्ञात होता है कक गंगा ि​िती पि आने से पहले स्वगय मल

एक पौराखणक कथा के अनस ध रघक ु ार भगवान श्री रामचंर के पव ू ज ु ु ल के चक्रवती राजा भगीरथ ने

यहां एक पद्धवि सिलाखंड पर बैठकर भगवान िंकर की प्रचंड तपस्या की थी। इस पद्धवि सिलाखंड के

तनकट ही 18 वी िताब्द्दी में इस मंददर का तनमाधण ककया गया। ऐसी मान्यता है कक दे वी भागीरथी ने इसी स्थान पर र्रती का स्पिध ककया।

एक अन्य कथा के अनस ु ार पांडवो ने भी महाभारत के यि ु में मारे गये अपने पररजनो की

आर्त्मक िांतत के तनसमत इसी स्थान पर आकर एक महान दे व यज्ञ का अनष्ु ठान ककया था।

सिवसलंग के रूप में एक नैसधगधक चटी ान भागीरथी नदी में जलमग्न है । यह दृश्य अत्यधर्क

मनोहार एवं आकिधक है । इसके दे खने से दै वी िर्तत की प्रत्यक्ष अनभ ु तू त होती है। पौराखणक आख्यानो के अनस ु ार, भगवान सिव इस स्थान पर अपनी जटाओ को फैला कर बैठ गए और उन्होने गंगा माता को

अपनी घघ ुं राली जटाओ में लपेट ददया। िीतकाल के आरं भ में जब गंगा का स्तर काफी अधर्क नीचे चला जाता है तब उस अवसर पर ही उतत पद्धवि सिवसलंग के दिधन होते है ।

आप यह भी भली-भांतत जानते ही है कक भगवान िंकर दहमालय पवधत पर वास करते हैं. और

दहमालय की पि ु ी का नाम पावधती था. पवधतराज दहमालय की पि ु ी होने के नाते उनका नाम पावधती पडा. पावधतीजी ने कडी तपस्या कर भगवान िंकर को अपने पतत के रुप में पाना चाहा और इस तरह सिव और पारवतीजी का द्धववाह हुआ.

बाबा तल ु सीदास जी ने बालकाण्ड में मां पावधती के जन्म को लेकर सलखा है “सती मरत हरर सन बरु मांगा.जनम-जनम सिव पद अनरु ागा तेदह कारन दहमधगरर गह ृ जाईं.जनमी पारवती तनु पाई(दोहा ६४/३)

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बाबा तल ु सीदासजी ने यहां दहमाचल का महत्व प्रततपाददत करते हुए उसे ककतना सम्मान ददया है , पढकर जाना जा सकता है कक वह कोई सार्ारण पवधत नहीं है ,बर्ल्क मां भगवती का द्धपता है और भगवान सिव िंकर का श्वसरु भगवद्गीता में स्वयं श्री कृष्णजी अपने मख ु ाद्धवंद से अजन ुध को अपने ऎश्वयध के बारे में बतलाते हुए कहा है “रुराणां िंकरश्चार्स्म वेत्तेिो यक्षरक्ष्साम वसन ू ां पावकश्चार्स्म मेरुः सिखररणामहम (श्लोक२३) अथाधत-मैं समस्त रुरों में सिव हू​ूँ, यक्षों तथा राक्षसों में सम्पर्त्त का दे वता”कुबेर” हू​ूँ, वसओ ु ं में अर्ग्न हू​ूँ और समस्त पवधतों में ” मेरु” हू​ूँ.( दहमालय की एक चोटी का नाम सम ु ेरु है .) “महिीनां भग ृ रु हं धगरामस्म्येकमक्षरम* यज्ञानां जपयज्ञोsर्स्म स्थावराणां दहमालयः (श्लोक-२५) अथाधत;- मैं महद्धिधयों में भग ृ ु हू​ूँ ,वाणी में ददव्य ओंकार हू​ूँ, समस्त यज्ञों में पद्धवि नाम का कीतधन(जप) तथा समस्त अंचलों में “दहमालय” हू​ूँ. “पवनः पवतामर्स्म रामः िस्िभत ृ ामहम झिाणां मकरश्चर्स्म श्रोतसामर्स्म जान्ह्वी

(श्लोक-३१)

अथाधत ;- समस्त पद्धवि करने वालों में मैं वायु हू​ूँ, िस्िर्ाररयों में राम,मछसलयों में मगर तथा नददयों में “गंगा” हू​ूँ बाबा तल ु सीदासजी ने बालकाण्ड में गरु ु द्धवश्वासमि के मख ु ारद्धवंद से श्री राम को गंगा के अवतरण की बात बतलाते हुए सलखा है “चले राम लतछमन मतु न संगा* गए जहाूँ जग पावतन गंगा गाधर्सन ू ु सब कथा सन ु ाई* जेदह प्रकार सरु सरर मदह आई”(चौपाई-२१२/१) तब प्रभु ररद्धिन्ह समेत नहाए* त्रबत्रबर् दान मदहदे वर्न्ह पाए हरद्धि चले मतु न बद ं ृ सहाया* बेधग बेदेह नगर तनअराया( २१२/३)

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श्रीराम और लक्ष्मण मतु नवर द्धवश्वासमि के साथ आगे चले और वहाूँ जा पहुूँचे जहाूँ जगत का कल्याण करने वाली गंगा है . वहाूँ पहुूँचते ही गाधर्नन्दन द्धवश्वासमि ने गंगाजी की पद्धवि कथा सन ु ाई. र्जस भांतत वह पथ् ृ वी पर आई थीं. तब प्रभु ने ऋद्धियों के सदहत स्नान ककया. ब्राह्मण ं ने भांतत-भांतत के दान पाए. कफ़र मतु न भततों के साथ हद्धित ध हो चले और िीघ्र ही वे जनकपरु के समीप पहुूँच गए. वनगमन के समय प्रभु श्रीराम अपनी प्रजा के लोगो को नींद में सोता छ ड गंगाजी के तट पर सीत्ताजी के सदहत आते हैं. उनके साथ सधचव सम ं थे. ु त “सीता सधचव सदहत दोउ भाई * सग ं ृ बेरपरु पहुूँचे जाई उतरे राम दे वसरर दे खी * कीन्ह दं डवत हरिु द्धविेिी लखन सधचवं ससय ककए प्रणामा* सब कुख करनी हरतन सब मल ू ा कदह कदह कोदटन कथा प्रसंगा * रामु द्धवलोतकदहं गंग तरं गा सच्वदहं अनज ु दहं प्रयदह सन ु ाई * त्रबबर् ु नदी मदहमा अधर्काई मज्जन कीन्य पंथ श्रम गयऊ * सधु च जलु द्धपअत मदु दत मन भयऊ ससु मरत जादहं समटै श्रम भारु * तेदह श्रम यह लौककक ब्द्यवहारु (चौपाई ८६/१.२.३. लक्ष्मण, मंिी और सीताजी ने गंगाजी को प्रणाम ककया. रामजी ने सबके साथ सख ु पाया. गंगाजी आनन्द-मंगलों की जड है तथा सब सख ु ों के दे ने वाली और सब दख ु ों को हरने वाली है . करोड ं कथाप्रसंगो को कहकर श्रीराम गंगाजी की लहरों को दे खने लगे. उन्होंने मंिी, लक्ष्मण और सीताजी को भी श्रीगंगाजी कक महा मदहमा सन ु ाई. सबने स्नान ककया र्जससे मागध का श्रम दरू हो गया और पद्धवि जल पीते ही मन मदु दत हो गया. र्जसका स्मरण माि से भारी श्रम समट जाता है गंगाजी के उस पार जाने के सलए उन्होंने मल्लाह को बल ु ाया और उस पार उतर गए. गंगाजी के प्रतत आपार श्रिा और द्धवश्वास से भरी सीता ने मां गंगाजी को प्रणाम करते हुए कहा-हे माता ! मेरा मनोरथ पण ध लौट कर आपकी पज ू ध कीर्जए र्जससे कक मैं स्वामी और दे वर के साथ सकुिलपव ू क ू ा करुूँ . सीताजी की प्रेमरस में सनी द्धवनती सन ु ते ही गंगाजी के पद्धवि जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई;_ “ हे रामजी की द्धप्रये सीते ! सन ु ो, आपका प्रभाव संसार में ककसे द्धवददत नहीं है ? आपके दे खते ही लोग, लोकपाल हो जाते हैं. सब ससद्धियां हाथ जोडॆ हुए आपकी सेवा करती है . आपने मझ ु े जो बडी द्धवनती सन ु ाई है . सो वह कृपा करके मझ ु को बडाई दी है . तो भी दे द्धव !,” मैं अपनी वाणी सफ़ल हो के सलए आपको आिीि दं ग ू ी. आप अपने प्राणनाथ और दे वर के सदहत कुिलता से अयोध्या में लौट गी. आपकी सारी मनोकामनाएं सफ़ल होंगी और संसार में आपका िभ ु यि छा जाएगा.”(अयोध्याकांड चौपाई १०२) 52 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


प्रभु श्रीराम गंगा-यमन ु ा के संगम पर आते हैं. बाबा ने यहां का बडा ही मनोहारी धचिण ककया है .

१३.

मनोभावों को पररमार्जधत करने के सलए गीता

सामान्य मनष्ु य में प्रेम –दया-क्षमा-करुणा तथा सहानभ ु तू त जैसे सकारात्मक भाव कम आते हैं. ईष्याध, लोभ-मोह तथा क्रोर् जैसे नकारात्मक भाव अधर्क आते हैं. द्धवचारों की अपनी तरं गे होती है . इन तरं गों के माध्यम से द्धवचार एक स्थान से दस ू रे स्थान और एक व्यर्तत से दस ू रे तक पहुूँचते रहते हैं. यदद आप ककसी से समिवत व्यवहार करें गे तो वह आपका समि बन जाएगा. यदद आप ककसी के साथ ि​ित ु ा या ईष्याध का भाव रखें गे तो व्यर्तत तनर्श्चत ही आपका ि​िु बन जाएगा. मनष्ु य अपने भावों और द्धवचारों का द्धवककरण भी करता रहता है . ककसी समद ु ाय में एक प्रसन्नधचत व्यार्तत सबको प्रसन्नधचत बना दे ता है तथा दख ु ी व्यर्तत अपने दख ु को अन्य लोगों में भी संप्रेद्धित कर दे ता है .. नकारात्मक द्धवचार और भाव चारों ओर नकारात्मक उजाध का ही प्रसार करें गे, र्जससे परू ा वातावरण प्रततकूल रुप से प्रभाद्धवत होगा. नकारात्मक द्धवचार हमसे मल् ू य वसल ू ते हैं. मन इससे अिांत रहताही है .नकारात्मक भाव अथवा द्धवचार हमें सामार्जकरुप से अलोकद्धप्रय एवं असम्मातनत बनाते हैं. नकारात्मक भावों और द्धवचारों का पररमाजधन हर समझदार व्यर्तत की मनोवैज्ञातनक आवश्यकता है. इन मनोयोगों पर तनयंिण एक पेचीदा मसला है . आर्तु नक मनोवैज्ञान तथा श्रीमद्ग गीता में मनोभावों के पररष्कार के सलए पयाधप्त सामग्री उपलब्द्र् है . मनोद्धवज्ञान स्वतः अपररपतव अवस्था में है और इसने अनेकों बार अपनी मान्यताओं का खंडन ककया है .गीता पांच हजार साल से भी अधर्क विॊं से लोगों का मागधदिधन कर रही है और यह आर्तु नक मनोद्धवज्ञान की तल ु ना मे अधर्क भरोसेमद ं है . क्रोर् एक पचंड मनोयोग है . हर व्यर्तत कभी न कभी इसका सिकार अवश्य होता है . क्रोर् हमारा एक प्रमख ु ि​िु है . गीता में कई स्थानों पर क्रोि का उल्लेख हुआ है . गीता के दस ू रे अद्ध्याय के बासठवें और ततरसठवें श्लोक में श्रीकृष्णजी ने क्रोर् उतपन्न होने के कारण तथा उससे होने वाली हातन और क्रोर् को तनयंिण करने के उपाय पर प्रकाि डाला है . “ध्यायते द्धवियान पस ुं ः संग स्तेिप ू जायते संगात संजायते कामः कामात क्रोर्ोसभजायते. क्रोिात भवतत सम्मोह,सम्मोहात स्मतृ तद्धवभ्र

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स्मतृ तभ्रंिात बद्धु िनािो, बद्धु िनािात प्रणश्यतत” अथाधत द्धवष्यों का तनरन्तर ध्यान करते-करते व्यर्तत के मन मे द्धवियों के प्रतत रस उत्पन्न होता है . इस रस के कारण मनष्ु यों के मन में द्धवियों के प्रतत इच्छा जागती है . इच्छापतू तध न होने पर क्रोर् उत्पन्न होता है . क्रोि से स्मतृ त लप्ु त हो जाती है . स्मतृ त लोप से बद्धु ि का नाि हो जाता है . बद्धु ि नष्ट होने से मनष्ु य स्वमेव नष्ट हो जाता है . यदद आप क्रोर् से मत ु त होना चाहते हैं तो द्धवियों के प्रतत मन में उसे उत्पन्न ही न होने दें . यदद द्धवियों के प्रतत कुछ अनरु ाग उत्पन्न हो ही गया है तो उनकी इच्छा ही न उत्पन्न होने दें . इच्छापतू तध में में बार्ा से ही क्रोर् उत्पना होता है ,इच्छाओं का गखणत एक द्धवधचि प्रकार का गखणत है . इन्हें समल ू नष्ट करने के तथा मन को तनयंित करने के अनेक उपाय गीता मे बताए गए हैं. ध्यान करन, सार्त्वक आहर लेना, मन में सद्द्धवचारों को जागत ृ करना,परमात्मा का धचन्तन करना, तथा परमात्मा के प्रतत समपधण भाव रखना आदद ऎसे उपाय है ,जो मनोभावों को तनयंत्रित तथा ि​ि ु रखने में सहायक होते हैं. भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से एक से एक सरल उपाय बताए हैं. हमें अपनी रुधच और िर्तत के अनस ु ार उपाय का चन ु ाव करके उसका सतत अयोयास करना चादहए.

ऋद्धिपंचमी

१४…..

आज ऋद्धिपंचमी है . भारपक्ष की ित ु लपक्ष की पंचमी “ऋिीपंचमी” कहलाती है . इस व्रत के करने से ज्ञातअज्ञात पापों का िमन हो जाता है , अतः स्िी-परु ु ि इस व्रत को करते हैं. इस व्रत मे सप्तद्धिधयों सदहत अरुन्र्ती का पज ू न होता है , इसीसलए इसे “ऋद्धिपंचमी” कहते है . सददयों से चली आ रही कथा को इस ददन बडी ही भर्तत-भाव से श्रवण ककया जाता है . कथा इस प्रकार है . कथा:- सतयग ु में श्येनर्जत नामक एक राजा राज्य करता था. उसके राज्य में ससु मि नाम का एक ब्राह्मण रहता था जो वेदों का ज्ञाता था. उसकी पर्त्न जयश्री बडी सार्वी और पततव्रता स्िी थी. वह खेतों में अपने पतत को सहयोग दे ती थी. एक बार उसने अपने रजस्वला अवस्था में ,अनजाने में उसने घर का सारा कायध ककया और पतत का स्पिध कर सलया. दै वयोग से पतत-पर्त्न का िरीरान्त एक साथ हुआ. 54 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


रजस्वला अवस्था में स्पिाधस्पिध का द्धवचार न रखने के कारण स्िी को कुततया की योतन में तथा पतत को बैल के रुप में जन्म समला, परन्तु पव ू ध जन्म में ककए गए र्ासमधक कृत्यों के कारण उन्हें ज्ञान बना रहा. संयोग से इस जन्म में भी वे साथ-साथ, अपने ही घर में , अपने पि ु और पि ु वर्ू के साथ रह रहे थे. ब्राह्मण के पि ु का नाम सम ु तत था और वह भी अपने द्धपता की भांतत द्धवद्वान था. द्धपतप ृ क्ष में उसने अपने माता-द्धपता का श्राि करने के उद्देश्य से खीर बनवायी और ब्राह्मण ं क तनमंिण ददया. उर्र एक सपध ने आकर खीर को द्धविातत कर ददया. कुततया बनी ब्राह्मणी यह सब होता दे ख रही थी. उसने सोचा कक यदद इस खीर को ब्राह्मण खाएंगे तो द्धवि के प्रभाव से मर जाएंगे और सम ु तत को पाप लगेगा. ऎसा द्धवचार कर उसने खीर क छू ददया. इस पर सम ु तत की पर्त्न बहुत क्रोधर्त हुई और उसने चूल्हे से जलती लकडी से उसकी द्धपटाई कर दी और उस ददन उसे भोजन भी नहीं ददया. रात्रि में कुततया ने बैल से सारी घटना कह सन ु ायी. बैल ने कहा कक आज मझ ु े भी खाने को कुछ नहीं ददया गया, जबकक मैंने ददन भर खेतों में काम ककया है . सम ु तत हम दोनों के ही उद्देश्य से यह श्राि कर रहा है और हमें ही भख ू ों मार रहा है . इस तरह हम दोनों के भख ू े रह जाने से उसका श्राि करना व्यथध हुआ. सम ु तत द्वार पर लेटा बैल और कुततया की वाताध सन ु रहा था. वह पिओ ु ं की बोली भलीभांतत समझता था. उसे यह जानकर बडा दख ु हुआ कक मेरे माता-द्धपता इस तनकृष्ट योतनयों में पडॆ दख ु भोग रहे हैं. वह दौडता हुआ एक ऋद्धि के आश्रम में गया और अपने माता-द्धपता के पिय ु ोतन में पडने का कारण और मर्ु तत का उपाय पछ ू ा. ऋद्धि ने ध्यान और योगबल से सारा वत ु तत ृ ान्त जान सलया. उसने सम से कहा तम ु पतत-पर्त्न भारपद ित ु ल की पंचमी को “ऋद्धिपंचमी” का व्रत करो और उस ददन बैल के जोतने से उत्पन्न कोई भी अन्न न खाओ. इस ब्रत के प्रभाव से तम् ु हारे माता-द्धपता की मर्ु तत हो जाएगी. उसने उस व्रत को ककया और इस तरह उन दोनो को पिय ु ोतन से मर्ु तत समली. यह तो माि एक कथा है . इसमें ककतनी सच्चाई है , यह हम नहीं जानते लेककन भारत की र्मधप्राण जनता इस पर अपना द्धवश्वास कायम रखते हुए बडी ही भर्ततभाव से इस व्रत को करते चले आ रहे हैं.

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भारपद ित ु ल चतथ ु ी को चन्रदिधन-तनिेर् 55 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भारपद मास के ित ु ल पक्ष चतथ ु ी ससिद्धवनायक चतद ु धिी के नाम से द्धवख्यात है . इस ददन संपण ू ध भारतविध में श्रीगणेिजी की द्धवधर्वत स्थापना की जाती है . इसी ददन भगवान श्री गणेि का जन्म हुआ था. श्री गणेि दहन्दओ ु ं के प्रथम पज् ू य आराध्य दे वता हैं. अपने भततों के कष्ट दरू करने में श्रीगणेि सक्षम दे वता हैं. गजाननं भत ू गणाददसेद्धवतं

कद्धपत्थजम्बफ़ ू लचारुभक्षणं

उमासत ु ं िोकद्धवनािकारकं नमासम द्धवघ्नेश्वरपादपंकजमं इस ततधथ में ककया गया दान, स्नान, उपवास और पज ू न-अचधन श्रीगणेि की कृपा से सौ गन ु ा हो जाता है ., परन्तु इस ददन चन्रदिधन से समथ्या कलंक भी लगता है . अतः इस ततधथ में चन्रदिधन न हो, ऎसी सावर्ानी बरतनी चादहए. इसी ददन भगवान श्रीकृष्णजी ने भी अकस्मात चन्रदिधन कर सलए थे, इस चन्रदिधन के कारन उन पर चोरी का आरोप लगा था. इस कथा से जुडा हुआ आख्यान जरुर पढा जाना चादहए. द्वापर यग ं ी रहता था. वह सय ध े व का परम भतत ु में द्वाररकापरु ी में सिार्जत नामक एक यदव ु ि ू द था. उसकी कदठन भर्तत से प्रसन्न हो, सय ू ध ने उसे एक स्यमन्तक नामक मखण दी, जो सय ू ध के समान ही कार्न्तमान थी. वह मखण प्रततददन आठ भार सोना दे ती थी तथा उसके प्रभाव से सम्पण ू ध राष्र में रोग, अनावर्ृ ष्ट, सपध, अर्ग्न, चोर तथा दसु भधक्ष आदद का भय नहीं रहता था 56 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


एक ददन सिार्जत उस मखण को र्ारणकर राजा उरसेन की सभा में आया. उस समय मखण की कार्न्त से वह दस ू रे सय ू ध के समान ददखायी दे रहा था. भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा थी कक यदद वह ददव्य रत्न राजा उग्रसेन के पास रहता तो सारे राष्र का कल्याण होता. सिार्जत को इस बात का पता चल गया कक श्रीकृष्ण इस मखण को प्राप्त करना चाहते हैं. वह श्रीकृष्ण की िर्ततयों से भी पररधचत था. अतः डरकर उसने उस मखण को अपने भाई प्रसेन को दे दी. एक ददन प्रसेन घोडॆ पर सवार होकर आखेट के सलए वन में गया. तभी उसका सामना एक ससंह से हुआ. ससंह को मारने के बजाए वह स्वयं उसका सिकार हो गया. प्रसेन जब घर नहीं लौटा तो यादवों में कानाफ़ूसी होने लगी कक श्रीकृष्ण ने उसका वर् कर ददया है और मखण ले ली होगी. उर्र वन में , मूँह ु में मखण दबाए हुए ससंह को ऋक्षराज जाम्बवान ने दे खा तो उसने उस ससंह को मारकर स्वयं मखण ले ली और ले जाकर अपने पि ु को खेलने के सलए दे ददया. उर्र लोकापवाद के स्वर गली-कूचे में से होते हुए स्वयं श्रीकृष्णजी के कानों तक पहुूँचे. अपने ऊपर लगे चोरी के आरोपों से वे द्धवचलैत हो उठे . उन्होंने इस बात की चचाध राजा उरसेनजी से की और कुछ साधथयों को लेकर प्रसेन के घोडॆ के खुरों के धचन्हों को दे खते हुए वन में जा पहुूँचे. वहाूँ उन्होंने घोडॆ और प्रसेन को मत ृ अवस्था में पाया तथा पास ही में ससंह के चरणधचन्ह भी दे खे. उन धचन्हों का अनस ु रण करते हुए आगे जाने पर उन्हें ससंह भी मत ृ पडा समला. वहाूँ से ऋक्षराज जाम्बवान के पैरों के तनिान दे खते हुए वे उस गफ़ ु ा तक जा पहुूँचे, जहाूँ जाम्बवान का तनवास था. श्रीकृष्ण ने अपने साधथयों से कहा कक अब यह तो स्पष्ट हो चक ु ा है कक घोडे सदहत प्रसेन ससंह द्वारा मारा गया है , परं तु ससंह से भी कोई बलवान है , जो इस गफ़ ु ा में रहता है . मैं अपने पर लगे लोकापवाद को समटाने के सलए इस गफ़ ु ा में प्रवेि करता हू​ूँ और स्यमन्तकमखण लाने की चेष्टा करता हू​ूँ. यह कहकर वे उस गफ़ ु ा में घस ु गए. गफ़ ु ा गहन अन्र्कार में डूबी हुई थी. ककसी तरह कठोर चटी ानों से टकराते, अपने आपको बचाते हुए वे र्ीरे -र्ीरे आगे बढ रहे थे. काफ़ी अन्दर जाने पर उन्होंने दे खा कक गफ़ ु ा के अन्दर काफ़ी रौिनी फ़ैल रही थी. यह प्रकाि उस ददव्य मखण के द्वारा फ़ैल रहा था. और आगे बढते हुए उन्होंने ने दे खा कक एक नन्हा बालक उस ददव्य मखण से खेल रहा है . जैसे ही श्रीकृष्ण ने उस मखण को लेने का प्रयास ककया, पास ही बैठा ऋक्षराज उन पर टूट पड. दोनों के मध्य इतकीस ददन तक घोर यि ु होता रहा. अन्त में सिधथल अंगवाले जाम्बवान ने भगवान श्रीकृष्ण को पहचान सलया और प्राथधना करते हुए कहा:- “हे प्रभु 57 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


! आप तो मेरे स्वामी श्रीराम ही हैं. द्वापर में आपने मझ ु े इस रुप में दिधन ददया. आपको कोदट-कोदट प्रणाम है . हे नाथ ! मेरे अपरार् क्षमा करें . मैं अध्यधस्वरुप अपनी इस कन्या जाम्बवती सदहत इस ददव्य मखण भी आपको दे ता हू​ूँ, कृपया इन्हें ग्रहणकर मझ ु े कृताथध करें तथा मेरे अज्ञान को क्षमा करें ” श्रीकृष्णजी जाम्बवान से पर्ू जत हो स्यमन्तकमखण लेकर जाम्बवती के साथ द्वाररका आए. वहाूँ उनके साथ गए यादवगण बारह ददन बाद ही लौट आए थे. द्वाररका में यह बात बडी तेजी के फ़ैल गयी थी कक श्रीकृष्ण गफ़ ु ा में मारे गए हैं, ककं तु उन्हें आया दे ख संपण ू ध द्वाररका में प्रसन्नता की लहर दौड गयी. उन्होंने यादवों से भरी हुई सभा में वह मखण सिार्जत को दे दी. सिार्जत ने भी प्रायर्श्चतस्वरुप अपनी पि ु ी सत्यभामा का द्धववाह श्रीकृष्णजी से कर ददया. यदद दै वविात चन्रदिधन हो जाए तो इस दोि के िमन के सलए तनम्नसलखखत मंि का पाठ करना चादहए, ऎसा द्धवष्णुपरु ाण (4/13/42) में वखणधत है ससंहः प्रसेनमवर्ीर्त्संहो जाम्बवता हतः/ सक ु ु मारक मा रोदीस्तव ह्येि स्यमन्तकः -------------------------------------------------------------------------------------------------------

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नागपंचमी महोत्सव. ----------------------

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“अनन्तं वासकु क शेषं पद्मनाभं च कम्बलम शंखपालं िातयिाष्रं तक्षकं कामलयं तथा

58 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


एतातन नव नामातन नागानां च महात्मनाम सायंकाले पठे जन्नत्यं प्रातःकाले पवशेषतः तस्मै पवषभयं नाजस्त सवयत्र पवजयी भवेत”

दे वी भागवत मल –नौ नागों के होने का उल्लेख समलता है . उनके नाम इस प्रकार है . (१) अनन्तनाग (२)वासकु क (३) िेिनाग (४)पद्मनाभ. (५) कम्बलं (६) िंखमाल (७)र्ातधराष्र ( ८)तक्षक तथा (९) कासलयानाग. इन नौ नागों के बारे में कहा गया है कक कोई भी व्यर्तत िाम के समय, द्धविेिकर प्रातःकाल इनका स्मरण करता है , उसे द्धविबार्ा नहीं होती और वह सवधि द्धवजयी होता है .

उत्सवद्धप्रयता भारतीय जीवन की प्रमख ु द्धविेिता है . दे ि में समय-समय पर अनेक पवों एवं त्योहारों का भव्य आयोजनों का होना, इस बात का प्रमाण है . श्रावनमास के ित ु ल पक्ष की पंचमी ततधथ को नागपंचमी का त्योहार नागों को समद्धपधत है . इस त्योहार पर व्रतपव ध नागों का अचधन-पज ू क ू न ककया जाता है . इस ददन नागों का धचिांकन ककया जाता है अथवा मर्ृ त्तका से नाग बनाकर पष्ु प, गन्र्, घप ू -दीप एवं द्धवद्धवर् नैवेद्दों से नागों का पज ू न करने का द्धवर्ान है . पज ू न करते समय तनम्नसलखखत मंिों का उच्चारण करते हुए उन्हें प्रणाम ककया जाता है .

सवे नागाः प्रीयन्तां मल ये केथचत पथ् ृ वीतले ये च दे मलमिीथचस्था येSन्तिे ददपव संजस्थताः ये नदीषु महानागा ये सिस्वततगाममनः ये च वापीतडागेषु तेषु सवेषु वै नमः अथायत;- जो नाग पथ् ू ध की ककरण ,ं सरोवरों, वापी, कूप तथा तालाब आदद में तनवास ृ वी, आकाि, स्वगध, सय करते हैं, वे सब हम पर प्रसन्न हों, हम उनको बार-बार प्रणाम करते हैं

59 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


नागों का उद्गम महद्धिध कश्यप और उनकी पत्नी कर ू से माना गया है . नागों का मल ू स्थान “पाताललोक” प्रससि है . परु ाण ं में नागलोक की राजर्ानी “भोगवतीपिु ी” द्धवख्यात है . संस्कृत कथा सादहत्य में द्धविेिरुप से “कथासररत्सागर” नागलोक और वहाूँ के तनवाससयों की कथाओं से ओतप्रोत है . गरुडपरु ाण, भद्धवष्यपरु ाण, चरकसंदहता, सश्र ं ी द्धवद्धवर् द्धवियों ु त ु संदहता, भावप्रकाि आदद ग्रंथों में नाग संबर् का उल्लेख समलता है . परु ाण ं में यक्ष, ककन्नर और गंर्वों के वणधण के साथ नागों का भी वणधन समलता है . भगवान द्धवष्णु की िय्या िोभा नागराज िेि करते हैं. भगवान सिव और गणेि के अलंकरण में भी नागों की महत्वपण ू ध भसू मका है . योगराज ससद्धि के सलए कुण्डली िर्तत जाग्रत की जाती है , उसको सद्धपधणी कहा जाता है . परु ाण ं में भगवान सय ू ध के रथ में द्वादि नागों का उल्लेख समलता है , जो क्रमिः प्रत्येक मास में उनके रथ के वाहक बनते हैं. इस प्रकार अन्य दे वताओं ने भी नागों को र्ारण ककया है . नागदे वता भारतीय संस्कृतत में दे वरुप में स्वीकार ककए गए हैं.

कश्मीर के जाने-माने कद्धव कल्हण ने अपनी प्रससि पस् ु तक “ राजतरं धगणी” में कश्मीर की सम्पण ू ध भसू म को नागों का अवदान माना है . वहाूँ के प्रससि नगर “अनन्तनाग “का नामकरण इसका ऎततहाससक प्रमाण है . दे ि के पवधतीय प्रदे िों में नागपज ू ा बहुतायत से होती है . यहाूँ नागदे वता अत्यन्त पज् ू य माने गए हैं. हमारे दे ि के प्रत्येक ग्राम-नगर में

ग्रामदे वता और लोकदे वता के रुप में नागदे वताओं

के पज ू ास्थल हैं,. दे वी भागवत में प्रमख ु नागों का तनत्य स्मरण ककया गया है . हमारे ऋद्धि-मतु नयों ने नागोपासना में व्रत-पज ू न का द्धवर्ान ककया है . श्रावणमास की ित ु ल पक्ष की पंचमी, नागों को अत्यंत आनन्द दे ने वाली” नागानामानन्दकिी” भी कहा जाता है . नागपज ू ा में उनको गो-दग्ु र् से स्नान कराने का द्धवर्ान है . कहा जाता है कक एक बार मात-ृ िाप से नागलोक जलने लगा. इस दाह-पीडा की तनवर्ृ त्त के सलए गाय का दर् ू उन्हें िीतलता प्रदान करता है , वहीं भततों को सपधभय से मर्ु तत भी दे ता है . इनकी कथा श्रवण करने का बडा महत्व बतलाया गया है . इस कथा के प्रवतता सम ु न्त मतु न थे तथा श्रोता पाण्डवंि के राजा 60 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


ितानीक थे. कथा इस प्रकार से है ;- एक बार दे वताओं तथा असरु ों ने समर ु मंथन द्वारा चौदह रत्नों में उच्चैःश्रवा नामक अश्व-रत्न प्राप्त हुआ. यह अश्व अत्यंत श्वेतवणी था. उसे दे खकर कर ू नागमाता तथा द्धवमाता द्धवनता में अश्व के रं ग के संबर् ं में वाद-द्धववाद हुआ. कर ू ने कहा कक अश्व के केि श्यामवणध के हैं. यदद मैं अपने कथन में असत्य ससि होऊूँ तो तम् ु हारी दासी बनूँग ू ी अन्यथा तम ु मेरी दासी बनोगी. कर ू ने नागों को बालों के समान सक्ष् ू म बनाकर अश्व के िरीर में आवेर्ष्ठत होने का तनदे ि ददया, ककं तु नागों ने अपनी असमथधता प्रकट की. इस पर क्रुि होती हुई कर ु ने नागों को िाप ददया कक पाण्डववंि के राजा जनमेजय नागयज्ञ करें गे, उस यज्ञ में तम ु सब जलकर भस्म हो जाओगे. नागमाता के िाप से भयभीत, नागों ने वासकु क के नेतत्ृ व में ब्रह्माजी से िापतनवर्ृ त्त का उपाय पछ ू ा तो उन्होंने तनदे ि ददया कक यायावरवंि में उत्पन्न तपस्वी जतधकारु तम् ु हारे बहनोई होंगे. उनके पि ु आस्तीक तम् ु हारी रक्षा करे गा. ब्रह्माजी ने पंचमी ततधथ को नागों को वरदान ददया तथा इसी ततधथ पर आस्तीकमतु न ने नागों की रक्षा की. अतः नागपंचमी का यह व्रत ऎततहाससक तथा सांस्कृततक दृर्ष्ट से महत्वपण ू ध है . नागों की अनेक जाततयाूँ और प्रजाततयाूँ हैं. भद्धवष्यपरु ाण में नागों के लक्षण, नाम, स्वरुप एवं जाततयों का द्धवस्तार से वणधण समलता है . मखणर्ारी तथा इच्छार्ारी नागों का भी उल्लेख इसमें समलता है . सभी प्राखणयों में भगवान का वास होता है . यही दृर्ष्ट जीवमाि- मनष्ु य, पि,ु पक्षी, कीट-पतंगों आदद सभी में ईश्वर के दिधन कराती है . जीवों के प्रतत आत्मीयता और दयाभाव को द्धवकससत करती है . अतः नाग हमारे सलए पज् ू यनीय और संरक्षणीय हैं. प्राखणिास्ि के अनस ु ार नागों की असंख्य प्रजाततयाूँ हैं, र्जसमें द्धविभरे नागो की संख्या बहुत कम है . ये नाग हमारी कृद्धि-सम्पदा की, कृद्धिनािक जीवों से रक्षा करते हैं. पयाधवरणरक्षा तथा वनसंपदा में भी नागों की महत्वपण ू ध भसू मका है .नागपंचमी का यह पवध नागों के साथ जीवों के प्रतत सम्मान, उनके संवर्धन एवं संरक्षण की प्रेरणा दे ता है . यह पवध प्राचीन समय के अनरु ु प आज भी प्रांसधगक है . आवश्यतता है हमारी अन्तदृधर्ष्ट की.

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सभन्न-सभन्न भािाऒ ं में रामायण

संस्कृत---------महद्धिध वाल्मीकक रधचत “रामायण” भवभतू त रधचत

“उत्तर रामचररत”

61 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


दहन्दी-----------गोस्वामी तल ु सीदास रधचत “श्रीरामचररत मानस” केिवदास रधचत

“ राम चर्न्रका”

मैधथलीिरण गप्ु त रधचत

“साकेत”

जैन रामकथा तथा बौि राम कथा. मराठी---------संत एकनाथ कृत “भावाथध रामायण” (16वीं सदी) बांग्ला---------कृर्त्तवास ओझा रधचत “कृर्त्तवास रामायण” ( 15वीं सदी) ओडडया-------बलरामदास रामायण र्जसका वास्तद्धवक नाम “जगन्मोहन रामायण” है और जो दण्डी रामायण के नाम से जानी जाती है . अससमया------दग ु ाधवर रामायण. इसे गीतत रामायण भी कहते हैं (14 वीं सदी) मार्व कन्दली रामायण=(14वीं सदी), िंकरदे व रधचत “उत्तर काण्ड (16वीं.सदी). तसमल--------कम्ब रामायण ( 12वीं सदी) तेलग ु -ू -------रं गनाथ रामायण (14वीं सदी) मोल्ल रामायण (16वीं सदी) भास्कर रामायण (18 वीं सदी) मलयालम----रामकथा के श्रेष्ठ कृर्त्तकारों में राम पर्ण्णकर (15वीं सदी) एपत ु च्छन-(तच ुं न) और कुमारन आिान (सीता काव्य) कन्नड------नरहरर कद्धव कृत “तोरवे रामायण (16 वीं सदी) नाग चंद कृत “पंप रामायण.....डा.पट ु प्पा कृत “रामायण-दिधनम” ससंर्ी-------श्री सतराम दास साइल कृत रामकथा, प्रबंर् काव्य कश्मीरी---- श्री ददवाकर प्रकाि भटी कृत रामायण तथा प्रकाि राम कुयधग्रामी कृत रामावतार चररि. पंजाबी-----गरु ु गोद्धवन्दससंह कृत रामावतार रामकथा

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उदध-ू -------श्री द्वारकाप्रसाद उफ़्क प्रणीत दोखण्ड ं में “मसनवी रामायण” अल्लामा इकबाल द्वारा रधचत नज्म और चकवस्त की रामकथा द्धवियक नज्म. रामचररत मानस के अनव ु ादों में उफ़्क और िंकरदयाल फ़हधत ने उच्च स्तरीय अनव ु ाद ककया

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सह ु ाधगनों के अखण्ड सौभाग्य का रक्षक—

हररतासलकाव्रत(तीज) मध्यप्रदे ि, पव ू ी उत्तरप्रदे ि, त्रबहार, राजस्थान और झारखण्ड आदद प्रांतों में भारपद ित ु ल तत ृ ीया को सौभाग्यवती र्स्ियाूँ अपने अखण्ड सौभाग्य की रक्षा के सलए बडी श्रिा, द्धवश्वास और लगन के साथ हररतासलकाव्रत(तीज) का उत्सव मनाती हैं. र्जस त्याग-तपस्या और तनष्ठा के साथ वे व्रत रखती हैं, वह बडा ही कदठन होता है . इसमें न तो वे फ़लाहार-सेवन करती हैं और न ही जल गहृ ण करतीं हैं. व्रत के दस ू रे ददन प्रातःकाल स्नान के पश्चात व्रतपारायण र्स्ियाूँ सौभाग्य-रव्य एवं वायन छूकर ब्राह्मण ं को दान दे ती है . उसके बाद ही जल पीकर पारण करती हैं. इस व्रत में मख् ु यतः सिव-पावधती तथा श्री गणेि की पज ू ा की जाती है , इस व्रत को सवधप्रथम धगररराजककिोरी उमा ने ककया था, र्जसके फ़लस्वरुप उन्हें भगवान सदासिव वर के रुप में प्राप्त हुए थे. इस ददन र्स्ियाूँ वह कथा सन ु ती हैं,र्जसमें पावधतीजी के त्याग, संयम, र्ैयध तथा एकतनष्ठ पाततव्रत-र्मध पर प्रकाि डाला गया है ,र्जससे सन ु ने वाली र्स्ियों का मनोबल 63 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


ऊूँचा उठता है . कहते हैं , दक्षकन्या सती जब द्धपता के यज्ञ में अपने पतत सिवजी का अपमान न सहकर योगार्ग्न में दग्र् हो गयी थीं, तब वे मैना और दहमाचल की तपस्या के फ़लस्वरुप उनकी पि ु ी के रुप में पावधती के नाम से जन्मी थीं. इस नए जन्म में भी उनको पव ू ध की स्मतृ तयाूँ अक्षुण्य बनी रही थी और वे तनत्य ही भगवान सिव के चरण ं में भर्ततभाव से तनमग्न रहती. जब वे वयस्क हो गयीं तब द्धपता की आज्ञा से सिवजी को अपने मनोकूल वर की प्रार्प्त के सलए तपस्या करने लग . उन्होंने कई विों तक तनराहार रहकर बडी कठोर सार्नाएं कीं. जब उनकी तपस्या फ़लोन्मख ु हुई, तब एक ददन दे वद्धिध नारद दहमवान के यहाूँ पर्ारे . दहमवान ने अपना अहोभाग्य माना और उनकी बडी श्रिा के साथ आधथत्यसत्कार ककया. कुिलक्षेम के पश्चात नारदजी ने कहा -“भगवान द्धवष्णु आपकी कन्या का वरण करना चाहते हैं, उन्होंने मेरे द्वारा यह संदेि कहलवाया है . इस सम्बन्र् में आपका जो द्धवचार हो उससे मझ ु े अवगत कराएं. नारदजी ने अपनी ओर से भी प्रस्ताव का अनम ु ोदन कर ददया. दहमवान राजी हो गए, उन्होंने स्वीकृतत दे दी. दे वद्धिध नारद पावधती के पास जाकर बोले-“ तम् ु हें तम् ु हारी कठोर तपस्या का फ़ल समल गया है . तम् ु हारे द्धपता ने भगवान श्री द्धवष्णु के साथ तम् ु हारा द्धववाह पतका कर ददया है ”. इतना कहकर नारदजी अन्तध्याधन हो गए. उनकी बात पर द्धवचार करके पावधती के मन में बडा कष्ट हुआ. और वे तत्काल मतू छध त होकर धगर पडीं. सखखयों के उपचार से होि में आने पर उन्होंने सिव को वर के रुप में चुन सलए जाने का अपना मंतव्य कह सन ु ाया. इस बात को सन ु कर सखखयों ने कहा;-“तम् ु हारे द्धपता तम् ु हें सलवा जाने के सलए आते ही होंगे. जल्दी चलो, ककसी दस ू रे गहन वन में जाकर हम छुप जाएूँ.” ऎसा ही हुआ. उस वन के एक पवधतीय कन्दरा के भीतर पावधतीजी सिवसलंग बनाकर उपासानापव ध उनकी अचधना-पज ू क ू न आरम्भ की. कठोर तपस्या से सिव का ससंहासन डोल उठा और वे पारवतीजी के समक्ष प्रकट हुए और उन्होने उसे पर्त्न के रुप में वरण करने का वचन दे कर अन्तध्याधन हो गए. तत्पश्चात अपनी पि ु ी का अन्वेिण करते हुए दहमवान भी वहाूँ आ पहुूँचे और सब बातें जानकर उन्होंने पावधतीजी का द्धववाह भगवान िंकर से साथ कर ददया. दे वी पावधतीजी ने भारपद ित ु ल तत ृ ीया के हस्त नक्षि में यह आरार्ना की थी, इससलए इस ततधथ को कुवारी कन्याएं अपने भावी वर की प्रार्प्त की कामना से व्रत करती हैं. तथा सह ु ागन र्स्ियाूँ अपने पतत के ददघाधयु होने के सलए व्रत करती चली आ रही हैं. “आमलमभहयरिता यस्मात तस्मात सा हरितामलका” अथाधत सखखयों के द्वारा हरी गयीं- इस 64 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


व्यत्ु पर्त्त के अनस ु ार व्रत का नाम “हररतासलका” हुआ. इस व्रत के करने से नारी को अखण्ड सौभाग्य की प्रार्प्त होती है .

१९

श्रावण मास में पर्ू जत “सिव” श्रावण माह के िरु ु होते ही संपण ू ध भारतविध में भगवान सिव की पज ू ा-अचधना िरु ु

हो जाती है . बडी सब ु ह से ही सिव-भतत नहा-र्ोकर सिवालय जा पहुूँचता है और सिवसलंग पर जलासभिेक कर बेल-पि अपधण करता है. हर भतत के मूँह ु से “ओम नमः सिवाय” का तनरन्तर जाप चलता रहता है . वेद-परु ाण ं आदद में उल्लेख समलता है कक सिव ही एकमाि ऐसे दे वता हैं जो सहज-सरलता से अपने भततों के ऊपर िीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं. परू े माह तो सिवारार्ना चलती ही रहती है ,लेककन इस माह में पडने वाले सोमवार का ददन द्धविेि होता है . इसी माह में भगवान भोलेनाथ के प्रतत श्रिा रखने वाले भतत बांस से बनी कांवर,र्जसके दोनो ओर कलि रखे जाते हैं,भगवे वस्ि र्ारण ककए सिवभतत प्रत्येक विध इसी माह में हररद्वार की ओर कूच करते है . कांवर र्ारण करने वाले ये सिव भतत कांवररयां कहलाते हैं. कृष्णपक्ष की चतद ु ध िी ततधथ को गोमख ु ,गंगोिी और हररद्वार से जल लाकर सिव का असभिेक करते हैं. सिव की आरार्ना के सलए श्रावणमास का सोमवार तथा सिवरात्रि का ददन उत्तम माना गया है इन ददनों सिवमर्न्दर में रुराष्टाध्यायी का पाठ, सिवसलंग का दर् ू से असभिेक करने से अपार सौख्य प्राप्त होता है तथा अन्त में मोक्ष होकर सिवलोक की प्रार्प्त होती है . भगवान सिव की आरार्ना से भततों को तर्ृ प्त, बहुज्ञता, आददअन्तदहधत्बोर्, अलप्ु तिर्तत तथा अनन्तिर्तत, समपन्नता-ये पांच गण ु प्रसाद स्वरुप प्राप्त होते हैं.

65 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


आदददे व भगवान सिव पण ू ध परब्रह्म परमात्मा सर्च्चदानंद-स्वरुप हैं. वे ही समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इस जगत की उत्पर्त्त,पालन और संहार करते हैं. वे सत्यस्वरुप,ज्ञानस्वरुप ,अनन्त, तनगण ुध ,तनराकार,सगन ु ,साकार और अद्धवनािी हैं. वेद,उपतनिद,परु ाण आदद िास्िों में द्धवद्धवर् प्रकार से भगवान सिव का गण ु ानव ु ाद समलता है . भगवान सिव की उपासना आददकाल से ही प्रचसलत रही है . सिव दे व-दे वेश्वर महे श्वर हैं. जीवों के कल्याण करने के कारण ही उन्हें िंकर कहा जाता है . कोई भी सिव भतत उनके दरबार से खाली हाथ नहीं लौटता है ,वे भततो के सभी अभाव दरू कर दे ते हैं.अत िीघ्र प्रसन्न हो जाना,अपनी असीम दया से कृताथध करने वाले भोले भंडारी,कल्यानस्वरुप भगवान सिव की आरार्ना से भततों के सारे दःु ख दरू हो जाते हैं

सिव जैसे अद्भत ु ख ुध , स्वयं सिव पंचमख ु ु हैं ,वैसा ही उनका अपना पररवार है . द्धपता ब्रह्मा चतम तथा पि ु काततधकेय िडमख ु हैं. दस ू रे पि ु गणेि का ससर हाथी का है . सिवजी भस्म र्ारण ककए हुए हैं,श्मिान में तनवास करने वाले,इच्छा हुई तो वाघम्बर पहन सलया, नहीं तो नंगे ही घम ू ते रहे , आभि ू ण के नाम पर सपों की माला, सवारी के सलए ससर्ा-सार्ा बढ ू ा बैल. इतना होते हुए भी भोलेनाथ कोरे भोलेनाथ ही नहीं बने रहे . उन्होंने संपण ू ध दे वसेना का आधर्पत्य अपने पि ु काततधकेय़ को दे ददया सभी दे वताऒ ं में प्रथमपज् ू य का पद दस ू रे पि ु गणेि को बना ददया. समस्त ऎश्वयध और समद्धृ ि की अधर्ष्ठात ृ दे वी का पद अपनी पर्त्न को ददया और स्वयं दे वाधर्दे व बन बैठे और तनवास स्थान सवोच्च पवधत सिखर पर बनाया. इतना सब होते हुए पावधतीजी मर्ु श्कल से ही इस द्धविम पररवर को संभाल पाती हैं. इन्हीं के भरोसे भोलेनाथ कक गह ृ स्थी चलती है . सिवोपासना:-उपासना का िार्ब्द्दक अथध होता है “पास बैठना”. सिवोपासना का अथध हुआ ’सिव के 66 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


पास बैठना. “उपसमीपे आसनम उपासनम” अथाधत अपने-आपको सिव में समद्धपधत कर दे ना ही उपासना का चरम रुप है . सबसे पहले हमें अपने आपको उस योग्य बनाना होता है . अथाधत मनसा-वाचा-कमधना को ि​ि ु करते हुए हमें परम सत्ता को समद्धपधत होना होगा,तब कहीं जाकर सिवतत्व हमारे भीतर उतरे गा सांसाररक लाभ-हातन तो प्रारब्द्र्वि कमाधनस ु ार होते हैं.अतः इसकी धचता न करते हुए भोलेनाथ की िरण में जाना चादहए. ऐसा करने से हमारे कमध िभ ु सौर तनष्काम हो जाएंगे,र्जससे अपने आप ही सांसाररक कष्ट ं का नाि हो जाएगा इस बात को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है कक भगवान सिव की उपासक में जगत के भोगों के प्रतत वैराग्यभाव अवश्य होना चादहए..द्धवियभोगों में र्जनका धचत्त आसतत है वे परमपद के अधर्कारी कदाद्धप नहीं हो सकते. द्धवियों के धचंतन माि से मन में द्धवकार उत्पन्न हो जाते हैं. बाबा बोलेनाथ द्धविय मांगने वाले को द्धविय और मोक्ष पाने वाले को मोक्ष और प्रेम का सभकारी उनके प्रेम को प्राप्तकर र्न्य हो जाते हैं. वे कल्पवक्ष ृ हैं, भततों को मूँह ु मांगा वरदान दे ते हैं.

२०

सावन के झूले पडॆ.

विाध ऋतु के आगमन के साथ ही समच ू ी र्रती, र्रती पर तनवास कर रहे हर जीव-जंतु प्रसन्न्ता से झम ू उठते हैं. काले कजरारे मेघ ं को दे खकर,जहाूँ मयरू धथरक उठता है ,वहीं पपीहा टे र लगाते हुए उन्हें बरस-बरस जाने को मजबरू कर दे ता है . बादलों की आस में आकाि में ससर उठा-उठाकर दे खता कृिक, आनन्द में सराबोर हो जाता है . चार मदहने र्प ू में अपने को सख ु ाते तरुवरों के िरीर में प्राण धथरकने लगते हैं. वहीं रामधगरर पवधत की सिखर पर बैठा यक्ष, अपनी द्धप्रयतमा को अपना प्रेम-पि सभजवाने के सलए मेघ ं से द्धवनती करता नजर आता है . द्धवरहणी को अपने द्धप्रय की याद सताने लगती है है

और वह उससे परदे ि से लौट आने की गह ु ार अपने

गीतों के माध्यम से व्यतत करती है . गमी की तपन से सख ू चुकी नदी की दे ह कफ़र से नत ू न हो उठती है . िायद ही कोई कद्धव/लेखक अथवा धचिकार होगा, र्जसने अपनी कलम-कूची के माध्यम से ,मेघ ं को अपने कागज पर न उतारा हो. िायद ही कोई कफ़ल्मकार ऎसा होगा,र्जसने अपनी 67 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


कफ़ल्म में इस ऋतु को कैद न ककया हो और िायद ही कोई ऎसा गीतकार होगा र्जसने एक से बढकर एक नज्में न सलखी हों. भारत िरु ु से ही एक उत्सवप्रेमी दे ि रहा है . विाध ऋतु के आगमन के साथ ही यहाूँ

व्रत-पवों की झडी

सी लग जाती है . आिाडमास के प्रारं भ होते ही जगनाथ रथयािा, गरु ु पखू णधमा,, श्रावण मास में सोमवार व्रत, मंगलागौरीव्रत, तीज, नागपंचंमी, रक्षाबंर्न,भारपक्ष में बहुलाचतथ ु ी, श्रीकृष्णजन्माष्टमी,,सह ु ाधगन ं के अखण्ड सौभाग्य का रक्षक-हरतासलका व्रत,गणेि चतथ ु ी, ऋद्धिपंचमी,श्री रार्ाजन्माष्टमी,वामन जयन्ती, अनन्त चतद ु ध िी आदद व्रत िरु ु हो जाते हैं जो अनवरत परू े साल भर तक चलते रहते हैं समच ू ा आकाि बादलों से अटा पडा है और मेह परू ी एक सी लय-ताल और गतत के साथ बरस रहा है . ठीक इसी समय रे डडयो पर एक गीत प्रसाररत होता है ,”सावन के झूले पडे-तम ु चले आओ,.... तम ु चले आओ.” यह गीत स्वरसम्राज्ञी लता मंगि े करजी ने गाया था. ऐसे एक नहीं अनेक गीत, सावन को लेकर सलखे गए हैं.यथा-“सावन के झूले.पडॆ..सैंयाजी मोहे तम ु कहां भल ू गए”, “पड गए झल ू े..सावन ऋतु आई रे ”, “बरसे बदररया सावन की...सावन की..मन भावन की”,”बरखा सह ु ानी आई रे ” “बदरा छाए के झूले पड गए हाय” आदद-आदद जब-जब भी ये गीत रे डडयो पर बजते हैं तो ऐसा लगता है कक बस सन ु ते ही रहो. कभी-कभी तो इन गीतों को सन ु कर श्रोता भी खुद गन ु गन ु ाने लगता है . आिाढ-सावन व भादों के विाधमास अपने साथ उमंग-उल्लास एवं आनन्द लेकर आते हैं. बद ंू ं की ररमखझम का स्वर अमत ृ सा घोलता है .अपनी लय में - उमंग में , झूमता बरसता –गरजता सावन कभी रे िम की डोर और चांदी के झूले पर डोलता है तो कभी वह व्रत-पज ू ा-अनष्ु ठानों जैसी सांस्कृततक परम्पराओं से गथ ुं ा रहता है .परू े ही मदहने बाग- बगीचे,घर-मर्न्दरों में उल्लास सा छाया रहता है .वनों में बांस सदहत परू ा जंगल हररयाली की चादर ओढकर धथरकता सा लगता है . ढं डी-ठं डी बयार बह तनकलती है . बेलों की कोमल-कोमल पर्त्तयां अकुररत हो ,पेड ं की िाख ं पर चढकर ,नन्हें -नहें सक ु ोमल फ़ूल ं से लदीफ़दी हवा में झूलती-इठलाती जाती है . केतकी-कुटज,कदम्ब,चम्पा,चमेली की मादक गंर्,तन-मन को सव ु ाससत कर जाती है .पानी की ररमखझम में सराबोर ठं डी-ठं डी हवा के झोंके तन-मन में एक प्रकार की सनसनी सी दौडा दे ते हैं. बादल ं से अटे -पडॆ आकाि के श्यामपट पर सफ़ेद बगल ु ों की उडती हुई पर्ततयां दे खते ही बनती है . वनों में हरी-हरी तथा कोमल पर्त्तयों को चरते हुए दहरण कुलांचे भरते ददखलाई दे ते हैं. तो कहीं मोर मस्ती के साथ धथरक उठता है . यह पावस ऋतु र्रा के सभी प्राखणयों में नवजीवन का संचार करते हुए आनन्द से भर दे ती है . पतत-पर्त्न, प्रेमी-प्रेसमका के आपसी संबर् ं ों मे यह ऋतु एक उन्माद भर दे ती है और वे गा उठतीं 68 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


हैं:“नन्हीं-नन्हीं बदंु दया रे .....” सावन में झूला झूलना या कफ़र बाग ं में नीम की तनबोंररयों की समठास चखते स्वर-कंठ से फ़ूट पडते हैं:-“कच्ची नीम की तनबोरी....सावन जल्दी आयो रे ” तनगोडा सावन बरसता भी है और आग भी लगा दे ता है . ऐसे में परदे ि गए द्धप्रयतम की याद अकुलाती है ,तो त्रबरही-त्रबरहतनयों का मन व्याकुल हो उठता है . समलन की आिा और द्धवरह की दारुण पीडा वाली अवधर् के साथ जुडा होने से दोनो ही अपनी इस र्म्वयोग की र्स्थतत को संगीत-गीत के सहारे व्यतत करते हैं और यहीं से िरु ु होती है बारहमास गाने की परम्परा. बारहमासा द्धवयोग के गीत हैं,र्जसमें प्रकृतत के उदगार हैं. सावन उन्माद का मौसम है . चारों ओर छाई हररयाली, उमडते-उफ़नते नदी-नाले, द्धवरही-द्धवरदहन की प्रतीक्षा, यही सन लोक-गीतों के माध्यम से असभव्यतत होते हैं. कलात्मक में हदी को हाथ मे काढे , रं ग-त्रबरं गी लाल-पीली-हरी चूडडयां पहने , सन् ु दर वेिभि ू ा र्ारण ककए-घघ ंृ ार ककए यव ुं रु-झालर और पायल की रुनझुन के साथ सोलह िग ु ततयां बाग के वक्ष ृ ों पर झूले मे एक दस ू रे को झुलाती-झूलती, कजरी-मल्हार –बारहमासा गाती अपनी पीडा और अपनी वेदना सब कुछ भल ू कर परस्पर सौहादध भाव में मगन हो जाती हैं और तब उनके कंठों से मघरु स्वर फ़ूट पडता है .

गाओ न गीत मल्हार-मदहना सावन को “

द्धवरह की असह्य वेदना में तडपते हुए यक्ष ने अपनी द्धप्रयतमा को प्यार भरी पाती, इन्हीं मेघों के माध्यम से सभजवाई थी. महाकद्धव कालीदास की कृतत” मेघदत ू म” द्धवरह-वेदना की एक ऐसी अजर-अमर कृतत है ,र्जसे यग ु ों-यग ु ों तक ददल की गहराइयों से पढी-समझी जायेगी. सावन ् के परू े माह तीज-त्योहार, व्रत-पज ू ा-अनष्ु ठान चलते ही रहते हैं. राखी-भज ु सलया-हरछटजनमाष्टमी-पोला-तीज,गणेिोत्सव-सिवोपासना क्रमबि चलते ही रहते हैं. जन कल्यान के सलए इन्र की पज ू ा-यज्ञ आदद होते हैं. सावन के हर सोमवार को र्स्ियां व्रत-उपवास करके सिवजी से अपने पतत-पि ु और भाइयों के सलए मंगल कामनाएं करती हैं. संपण ू ध भारत में सावन के ित ु ल-पक्ष की तत ृ ीया में तीज मनाई जाती है . यह तीज झूले से जड ु ी है .और यह लडककयों- और सह ु ाधगन ं का पवध है . इस ददन उपवास रखकर गौरी की पज ू ा-अचधना करतीं हैं और अच्छे वर की की प्रार्प्त और पतत की मंगल-कामना करती है . द्धववाह के प्रथम तीज पर वह अपने भाई को बल ु ाती हुई कहती हैं:-“भैया मेरे तीजो पर आइयो जी, मेरे सलए लहररया-चन ु ररया लाइयो जी” 69 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


नागपंचमी

श्रावणमास का एक ऐसा त्योहार है , र्जसमें सांपों की पज ू ा होती है . ऐसा

माना जाता है कक श्रावणमास के ित ु ल-पक्ष की पंचमी के ददन इनकी उतपर्त्त हुई थी. अतः संपण ू ध भारतविध में सांपों की पज ू ा-अचधना द्धवधर्वत की जाती है . इस ददन सपेरे को अन्न-कपडा- चने की दालसमठाइयां आदद दे ने की परम्परा है . इस ददन सिव मर्न्दर मे श्रिा-भर्तत के साथ पज ू ा-अचधना की जाती है .

मध्यप्रदे ि के पचमढी क्षेि मे नागद्वारी का प्रससि मेला भरता है . लाखों की

संख्या मे अलग-अलग प्रांतों से भततगण यहां आते हैं और िेिनाग की पज ू ा-अचधना करते हैं. पचमढी के प्रससि र्ूपगढ जहां से आप सय ू ोदय और सय ू ाधस्त का अद्भत ु नजारा दे ख सकते हैं. र्ूपगढ के चोटी से जहां आप इस अद्भत ु नजारे का आनन्द उठाते हैं,उसी मागध से ठीक नीचे हजारों मीटर गहरी तलहटी में र्स्थत नागद्वारी है . बरसते पानी मे भततगण जैकारा लगाते हुए आगे बढते है . काफ़ी लम्बी दरू ी तय करने के बाद एक गफ़ ु ा ददखलायी दे ती है . ऐसी मान्यता है कक यहीं से नागपरु ी पाताल का रास्ता जाता है . अत्यंत संकरी होने के साथ अन्दर प्रवेि नहीं ककया जा सकता. इसे दरू से दे खे तो लगता है कक कोई िेिनाग फ़न काढे खडा है . यह गफ़ ु ा इतनी लम्बी-चौडी है कक यहां सैकड ं की संख्या मे भततगण रात्रि द्धवश्राम कर अपनी थकान समटा सकते है . ऎसा भी सन ु ने में आता है कक ककसी समय यहां सपों की इतनी अधर्क तादात होती थी कक भततगण इन्हें अपने हाथों से, रास्ते से हटाकर आगे बढते थे. यहां की यािा काफ़ी कदठन और श्रमसाध्य है . द्धविेिकर महाराष्र से काफ़ी बडी संख्यां में यहां भततो को दे खा जा सकता है .

अलग-अलग प्रांतों में सावन मास कुछ इस तरह मनाया जाता है . मेरठ र्जले मे द्धविेि चहल-पहल दे खी जा सकती है . मेरठ-बागपत मागध पर बालेनी कसबे के परु े श्वर महादे व मंददर में हजारों की संख्या में भततगण हररद्वार से लाए पद्धवि गंगाजल से सिवजी का असभिेक करते हैं.ये सिव भतत कांवड ं से गंगाजल भरकर लाते हैं. केरल में ओणम त्योहार बहुत ही हिोल्लास के साथ मनाया जाता है . र्ान की फ़सल कटने के बाद श्रावण नक्षि के ददन यह त्योहार मनाया जाता है . विाध के बादल ं के हटते ही केरल का प्राकृततक सौंदयध तनखर उठता है . लाल-हरे -पीले-नीले रं ग के फ़ूलों से बाग-बगीचे खखल उठते हैं. ऐसे समय में केरल के प्राचीन िासक महाबली के असभनन्दन में यह त्योहार मनाया जाता है . सांस्कृततक कायधक्रम भी आयोर्जत होते हैं. र्जसमें कथकली, तर्म्बतल्लन, कोकोदटी ककल, झूला झूलना, नत्ृ य संगीत, नौका-प्रततयोधगताएं, कबड्डी आदद खेलों का आयोजन बडॆ उत्साह के साथ मनाया जाता है . 70 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


उडडसा में आिाढ मास में भगवान जगन्नाथ कक रथयािा का आयोजन होता है . भगवान के सथ को खखंचने के सलए भारत के सद ु रू पांतों से भततगण यहां इकठ्ठा होते हैं. महाराष्र में प्रससि गणेिोत्सव के आयोजन भी इसी मास में िरु ु हो जाते हैं. गणेि चतथ ु ी का मख् ु य पवध भादों के ित ु लपक्ष में होता है . जैन र्माधवलर्म्बयों के सलए विाध ऋतु में ही चतम ु ाधस का समय आता है . इसी माह में श्रवणबेलगोला( कनाधटक ) में भगवान बाहुबली का महामस्तासभिेक बडी श्रिा-भर्तत के साथ सम्पन्न होता है .सावन के माह में ही भततगण कश्मीर के अमरनाथ की यािा पर जाते हैं.तथा श्रावण पखू णधमा के ददन गफ़ ु ा में बफ़ध से बने सिवसलंग के दिधन करते हैं.परु ाण ं के अनस ु ार इस प्राकृततक रुप से बने सिवसलंग के बारे में द्धवस्तार से पढा जा सकता है . सावन की पखु णधमा के ददन भाइ-बहन के पन ु ीत प्रेम का प्रततक “रक्षाबन्र्न” आता है . इसीसलए भाई अपनी बहन से रक्षासि ू बांर्कर उसकी रक्षा का संकल्प लेता है . पौराखणक कथा के अनस ु ार इन्र ,असरु ों से हार गए थे. द्धवजयश्री की उम्मीद त्रबल्कुल भी नहीं थी. गरु ु ब्रहस्पतत के कहने पर इन्राणी ने इन्र के सलए एक रक्षासि ू मंिों द्वारा तैयार ककया और उसे सावन की पखू णधमा के ददन बांर् ददया. फ़लतः इन्र की द्धवजय हुई. तभी से यह पवध “रक्षा-पवध” के रुप में मनाया जाता है . सावन की पखू णधमा को गोवा और महाराष्र में “नाररकेल-पखू णधमा” के रुप में मनाया जाता है इस ददन समर ु की पज ू ा नाररयलों से की जाती है और कामना की जाती है कक नाररयल की सम्पन्न-समि ृ फ़सल हो. सावन की पखु णधमा के आठ ददन बाद कृष्णजन्माष्टमी का पावन-पवध आता है . भगवान श्रीकृष्ण की मतू तध को खूब सजाया-संवारा जाता है . मर्न्दरों मे लता-पताकाएं फ़हराई जाती है और कीतधन-भजन का भी आयोजन होता है . ब्रज भसू म भर्ततरस मे नहा उठती है . आगरा-मथुरा-वन्ृ दावन-बरसाने-गोकुल र्ाम में द्धविेि आयोजन होते हैं,जो कई ददनों तक चलते रहते हैं .दे ि-परदे ि से कई श्रिालु वहां आकर इस महोत्सव में िसमल होते हैं और अपने जीवन को र्न्य मानते हैं.

71 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


२१….भारतीय संस्कृतत एवं दहन्द-ू र्मध के रक्षक=श्री झूलेलाल( उदे रोलाल) बात उन ददनों की है जब ससन्र् का बादिाह समखध राजमद में अन्र्ा होकर दहन्दओ ु ं पर अत्याचार ढा रहा था. उसने दहन्दओ ु ं को चेतावनी दे ते हुए राज्य में घोिणा करवा दी कक सारे दहन्द ू मस ु लमान बन जाएं, यदद वे ऎसा नहीं करते हैं तो सभी को मौत के घाट उतार ददया जाएगा.. िादह-िादह सी मच उठी थी परू े ससन्र् में . उसके अत्याचार से िाण पाने के सलए उस क्षेि की जनता वरुणदे वता के पास जाकर अपनी ददध भरी कहानी सन ु ाने लगी. तभी आकािवाणी हुई कक “थने” र्जले के नसरपरु गाूँव में ठाकुर रतनराव एवं माता दे वकी के घर िीघ्र ही वे जन्म लेंगे और उस अत्याचारी से मर्ु तत ददलाएंगे.

72 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


संवत 1007 में ससन्र्ु नदी के ककनारे बसे नसरपरु गाूँव में उदे रोलाल ने जन्म सलया. जन्म लेने के बाद जब माूँ ने दर् ू द्धपलाने के सलए उसका मूँह ु खोलने लगी तो मूँह ु ही नहीं खल ु पा रहा था. काफ़ी प्रयास के बाद जब मूँह ु खल ु ा तो माूँ दे खती है कक बच्चे के मूँह ु में ससन्र्ु नदी बह रही है और एक श्वेतवस्िर्ारी व्यर्तत उस नदी की र्ारा का पान कर रहा है . ऎसा होने पर िीघ्र ही ससन्र्ु नदी से जल मूँगवाकर बालक के मूँह ु में डाला गया. तत्काल ही बालक माता का दग्ु र्पान करने लगा. कुछ बडा होने पर उसने अपना स्थान “दरयाह िाह” में बनाया. वह बालक बचपन से ही बडा तेजस्वी और चमत्कारी था. उसने एक सेना का संगठन ककया और बादिाह हो चेतावनी दे ते हुए संदेिा सभजवाया कक वह सही मागध पर आ जाए तथा अत्याचार को ततलांजसल दे कर दहन्द-ू मस ु लमान सबको एक नजर से दे खे लेककन मदान्र् बादिाह चेतावनी दे ने के बावजूद अपनी मनमानी करता रहा. एक ददन उदे रोलाल ने बादिाह के महल में जाकर ऎसी चमत्कारी लडाई लडी कक वह परास्त हो गया. कहा जाता है कक अपनी हार के बाद उसने उदे रोलाल से अपनी जान बचाने के सलए दया की भीख माूँगने लगा. उदार उदे रोलाल ने उसे तरु न्त क्षमा कर ददया. यही कारण है कक मानवीय एवं उदार दृर्ष्टकोण के कारण उदे रोलाल की कीततध-पताका चारों तरफ़ फ़हराने लगी. उनकी यह जीत नश ं ता पि मानवता की, दानवी ृ स शजक्त पि मानवी शजक्त की, अभाितीयता पि भाितीय संस्कृतत की जीत थी. दे खते ही दे खते उनकी स्मतृ त में जगह-जगह मर्न्दर स्थाद्धपत होने लगे और पज ू ा होने लगी. इस महापरु ु ि ने द्धविेिकर ससन्र्ी समाज को संगदठत कर समखध बादिाह की र्माधन्र्ता से जनमानस की रक्षा की और समाज में आध्यार्त्मक र्ारा प्रवादहत कर अपना नाम अमर कर ददया. यही कारण है कक ससन्र्ी समाज आज भी झल ू ेलाल(उदरोलाल) की गणना अवतारों में करते हैं और प्रततविध नवविध के प्रारम्भ (चैि ित ु लपक्ष प्रथम ददवस)पर उनकी जयन्ती सारे भारत के ससन्र्ी दहन्दओ ु ं द्वारा उदे रोलाल, अमरलाल, चेटी चाूँद, ससन्र्ी ददवस के रुप में बहुत ही र्ूमर्ाम से मनायी जाती है . कहा जाता है कक उदे रोलाल ने समखध की बादिाहत पर अपनी ओजस्वी सेना से इतना जबरदस्त आतंक जमा सलया कक समखध बादिाह को वे बार-बार इस रुप दे ददखायी दे ने लगे थे, जैसे कक उदे रोलाल उनके महल में प्रवेि करके उसकी दाढी पकडकर तख्त से नीचे खींचकर मार रहे हैं ऎसा द्धवश्वास ककया जाता है कक उदे रोलाल दरयाह में लोप हो गए, कफ़र भी, जब ससन्र् में संकट की घडी आयी, लोग श्री उदे रोलाल को द्धविेि याद करते रहे और वे उनकी मनोकामनाएं परू ी करते रहे .

73 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


आज भी ससन्र्ी समाज श्री झूलेलाल( उदे रोलाल) को वरुणदे वता के रुप में मानता है . भारत में स्थान-स्थान पर झल ू ेलालालजी की झाूँकी और िोभायािा तनकाली जाती है . लोग बहराना तनकालते हैं और छॆ ज( द्धविेि नत्ृ य) तथा डोकला( डंडॆ बजाते हुए नत्ृ य) और नारे लगाने के साथ-साथ झल ू ेलाल की याद में नाचते-झम ू ते उत्सव का आनन्द लेते हैं. (नारा)

“ बढो जवानों झल ू ेलाल, लडॊ जवानॊ झल ू ेलाल आगे बढॊ झूलेलाल, दश्ु मन पछाडॊ झूलेलाल भाित के हि वीि

मसपाही

झूलेलाल

र्जस द्धविम पररर्स्थतत में श्री झूलल े ालजी द्वारा साम्प्रदातयक सद्भाव की स्थापना करते हुए भारतीय संस्कृतत की रक्षा की गयी थी, आज उनके संदेिों पर चलकर यदद भारत का हर वीर ससपाही उनके आदिों को जीवन में उतारे तो सम्पण ू ध समाज का कल्याण सम्भव है .

२२

राजस्थान में सती दादी के महोत्सव

िास्िों के अनस ु ार, जो स्िी सत के सलए जीती हैं एवं सत के सलए ही मत्ृ यु का वरण करती हैं,उन्हें सती का दजाध ददया गया है . सत का एक अथध परमात्मा भी होता है ,लेककन सती वह है जो अपने पतत को परमात्मा का स्वरुप मानकर पज ू ती हैं और उनके न रहने पर प्राण र्ारण नहीं करती,,वह सती है . भारत के नर-नारी अपने महान आदिॊं के रुप में ऎसी सततयों की पज ू ा करते हैं. सारे सकल समाज का यह द्धवश्वास हो जाता है कक सततयों के सत से ही समाज का संरक्षण एवं संचालन होता है . इसी परम्परा में यहाूँ द्धवसभन्न गोिों के लोग अपने-अपने कुल की सततयों का पज ू न पायः अपने –अपने घरों में कर लेते हैं. यहाूँ सभी सततयों के मर्न्दर भी बने हैं जहाूँ भारपद की अमावस्या पर मेले भी भरते हैं. दे ि के कोने-कोने में बसे राजस्थानी लोग यहाूँ आकर अपनी कुल की सततयों को र्ोक दे ते हैं और समारोहपव ध उनकी पज ू क ू ा-अचधना करते हैं. इन सततयों के नाम भी होते हैं,जैसे;-र्ोली सती, ढांढनसती, राणी सती आदद. झूँ झ ु नू में श्री राणी सती दादी का द्धविाल मर्न्दर है ,जो केवल राजथान में ही नहीं,सारे दे ि में

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अपना महत्वपण ू ध स्थान रखता है . द्धवदे िों में बसने वाले भारतीय भी जब स्वदे ि आते हैं तो अपने श्रिासम ु न माूँ-दादीजी के दरबार में झूँझ ु नू जाकर चढाने से नहीं चक ू ते. यहाूँ तक उन्होंने अपने-अपने घरों में दादीजी का मर्न्दर भी बना रखा है . मल ू रुप में राणी सतीदादी बांसल गोि की हैं,परन्तु उनकी मान्यता, राजस्थान में लगभग परू े अग्रवाल समाज में है . अग्रवालों के अलावा ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य, िर ू -सभी इनकी तनयसमत पज ू ाआरार्ना करते हैं. श्री राणीसतीजी की वंि-परम्परा में तेरह सततयों का पज ू न ककया जाता है , उनके नाम इस प्रकार हैं.(१)श्रीराणीसती (२)श्रीसीतासती (३)श्री महादे ईसती (४)श्रीमनोहरीसती (५)श्रीमनभावनीसती (६)श्री यमन ु ासती( ७)श्री ज्ञानीसती (८)श्रीपरु ा सती (९)श्री द्धवरागीसती (१०) श्री जीवणीसती (११)श्री दटलीसती (१२)श्रीबालीसती तथा(१३) श्रीगज ु रीसतीजी. भारपद कृष्ण अमावस्या को अर्न्तम सती श्रीगज ु रीसतीजी सती हुईं,इससलए उस ददन सभी सततयों की पज ू ा-अचधना बडॆ र्ूमर्ाम से की जाती है . श्रीराणीसतीजी अपनी वंि-परम्परा में प्रथम सती हैं और मागधिीिध कृष्ण नवमी, मंगलवार संवत १३५२, तदानस ु ार ६ ददसम्बर,सन १२९४ ई. को उन्होंने सतीत्व ग्रहण ककया. अतः सती के रुप में उसी ददन उनका प्राक्य हुआ. उस ददन सभी भततों को प्रसाद-भोजन कराने की व्यवस्था है . श्री राणीसती दादीजी एवं सभी सततयों की ददव्य-ज्योतत अपने भततों के जीवन को सदा आलोककत कर रही हैं. भारपद कृष्ण अमावस्या को इनकी पज ू ा-अचधना का द्धविेि महत्व है . इन ददन मंगलगीत गाए जाते हैं और भजन आदद के कायधक्रम ककए जाते हैं. श्री राणीसती दादीजी के द्धविेि महत्व को दे खते हुए हमें उनके जीवन-पररचय के बारे में जानना आवस्श्यक है . लोकमान्यता के अनस ु ार महाभारत के यि ु में अजन ुध पि ु असभमन्यु वीरगतत को प्राप्त हुए, उस समय उनकी पर्त्न उत्तरा गभधवती थीं. भगवान श्री कृष्णजी ने मना करते हुए कहा-’ ऎसा करने से तम् ु हें पाप लगेगा. कफ़र भी यदद तम् ु हारी इच्छा सती होने की है तो मैं तम् ु हें वरदान दे ता हू​ूँ कक तम ु कसलयग ु में सती होओगी और घर-घर में तम् ु हारी पज ू ा होगी.” यही महाभारत की उत्तरा कसलयग ु में नारायणी के नाम से अवतररत हुईं एवं वीर असभमन्यु बाद में तनर्नदासजी के रुप में अवतररत हुए. यही नारायणीबाई बाद में श्रीराणीसतीजी के नाम से द्धवख्यात हुई और घर-घर में पर्ु जत हुईं. श्री गरु सामलजी एवं श्रीमती गंगादे वी, तत्कालीन राजस्थान के महम नगर के ठोकवा उपनगर के रहने वाले थे. भततराज श्री गरु सामलजी महाराज अग्रसेनजी के वंिज थे. वे गोयल गोि के थे. उनके यहाूँ एक पि ु ी का जन्म हुआ,र्जसका नाम नारायणीदे वी रखा गया. जन्म के साथ ही आपका मख ु मंडल 75 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


अतत ददव्य एवं तेजस्वी था..एक संत ने इस नन्ही बासलका को दे खकर आिीवाधद ददया कक यह कन्या अमर सह ु ागन होगी, जग में ऊूँचा नाम करे गी और भततों के भंडार भरे गी. इस प्रकार आिीवाधद दे कर वे संत अन्तध्याधन हो गए. वे कुिाग्र बद् ु द्धि की थीं. उन्होंने अल्प समय में ही िास्िों का धचंतन-मनन कर सलया था. रामायण-गीता का वे तनत्य पारायण ककया करती थीं. बडी होने पर द्धपता ने उन्हें घड ु सवारी तथा िस्िसिक्षा में पारं गत कर ददया. उस समय हररयाण में ही नहीं,बर्ल्क उत्तर भारत में भी ,उनके मक ु ाबले की कोई तनिानेबाज बासलका तो तया, कोई परु ु ि भी न था. उर्र नारायणीबाई के भावी पतत तनर्नदासजी का जन्म दहसार नगर के महाराज अग्रसेन के सप ु ि ु द्धविालदे वजी के वंि में हुआ था. इनके वंिज बांसल गोि के थे. तनर्नदास्जी के द्धपता का नाम सेठ श्रीजालानदास एवं माता का नाम यमन ु ादे वी था. श्रीजालानदासजी दहसार के नवाब के यहाूँ दीवान थे.. इनकी न्यायद्धप्रयता प्रससि थी. भतत गरु सामलजी की पि ु ी नारायणीबाई तेरह विध की हो चुकी थी और वे उसके द्धववाह को लेकर धचर्न्तत रहने लगे थे. नारायणी दे वी ने अपने तप के बलपर स्वपनावस्था में स्वयं ही वर खोजकर एक ब्राह्मण को द्धववाह का प्रस्ताव लेकर भेजा. तनर्नदास के द्धपता अपने पि ु का द्धववाह नारायणीबाई के साथ करने के सलए खुिी से राजी हो गए. इस तरह बडॆ र्ूमर्ाम से दोनो का द्धववाह हुआ. द्धपता ने दहे ज में हाथी,घोडॆ,ऊूँट, बैल, के अलावा प्रचुर मािा में र्न भी ददया. द्धववाह के पश्चात श्रीतनर्नदासजी अपनी श्यामवणी घ डी पर सवार होकर दहसार सैर करने जाया करते थे. नवाब के िहजादे की नजर उस घोडी पर पडी. उसने घोडी की मांग की,लेककन तनर्दासजी ने घोडी दे ने से इनकार कर ददया. एक अन्र्ेरी रात में नवाबजादा उस घोडी को चुराने की तनयत से अस्तबल में घस ु ा. ककसी अजनबी को दे खकर घ डी दहनदहनाने लगी. घोडी का दहनदहना सन ु कर तनर्नदासजी जाग गए और उन्होंने उस ओर भाले से प्रहार कर ददया. इसमे नवाबजादा मारा गया. नवाबजादे को मरा पाकर दीवानजी ने तरु ं त रातोरात दहसार छोडने का तनश्चय ककया और वे पड सी राज्य के झूँझ ु नू के नवाब के पास पहुूँच गए. दहसार एवं झूँझ ु नू के नवाबों के बीच गहरी ि​ित ु ा थी. दीवान की हवेली में िहजादा मत ृ अवस्था में पाया गया तो दीवान को धगरफ़्तार करने के फ़रमान जारी कर ददए गए. दहसार की सैन्यिर्तत के आगे झूँझ ु नू की ररयासत में लोहा लेने की दहम्मत नहीं थी इर्र दभ ु ाधग्य अपना तनराला खेल, खेल रहा था. श्री तनर्नादासजी अपनी पर्त्न को ठोकवा से सलवा लाने पहुूँचे. मह ु ू तध के अनस ु ार त्रबदाई हो गई,लेककन अपिकुन होने लगे. दहसार राज्य से होकर उन्हें 76 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


जाना पडता था. सभवानी से लगभग ४-५ मील दरू दे वसर की पहाडी के पास आते ही नवाब की फ़ौजों ने भयंकर हमला कर ददया. इस यद् ु ि में तनर्नदासजी वीरगतत को प्राप्त हुए. अपने पतत के िव को दे खकर नरायणीदे वी ने तत्काल पतत का भाला एवं तलवार सलया और वे सेना से जा सभडीं. उनके तेजबल से ि​िु सेना में भगदड मच गई. ि​िु सेना को परार्जत कर नारायणीदे वी ने अपने सेवक राणाजी को लकडडयाूँ लाने व धचता बनाने की आज्ञा दी. सय ू ाधस्त से पहले वे अपने पतत के साथ सती हो जाना चाहती थीं. उनके अपने तेजबल से जमीन से पानी की र्ार बह तनकली. उन्होंने अपने पतत की मत ृ दे ह को नहलाकर श्रंग ृ ार ककया और िव को लेकर धचता पर चढ गईं. पद्मासन लगाते ही धचता प्रज्जवसलत हो उठी. इन महासती की द्धविेिता है कक इनका जन्म, द्धववाह एवं सती होना-तीनों मंगलवार को ही संपन्न हुए थे. र्ू-र्ू कर जलती धचता के अन्दर से नारायणीदे वी हाथ में त्रि​िल ू सलए प्रकट हुई और मर्ुर वाणी में अपने सेवक राणाजी से बोलीं-“ मेरी धचता तीन ददन में ठं डी हो जाएगी और तब तम ु सारी भस्म इकठ्ठी कर मेरी चुनरी में बांर्कर मेरी इस घोडी पर रख दे ना. घ डी चलते-चलते जहाूँ खुद रुक जाए,उसी स्थान पर मैं अपने प्यारे पतत के साथ तनवास करती हुई, जन-जन का कल्याण करती रहू​ूँगी. घोडी झूँ झ ू नू के मागध पर चल पडी और जहाूँ रुकी, वहीं पर सेवक ने माता नारायणीदे वी का स्मरण ककया. उस स्थान पर एक चबत ु रा बनाकर भस्म को स्थाद्धपत कर पज ू न ककया. माता नारायणीदे वी की आज्ञानस ु ार नवमी के िभ ु ददन जो व्रतादद रखते हैं, उनके घर में श्रीराणीसतीदादी का वास होता है . श्रीनारायणीजी मक ु लावा लेकर आती हुई मागध में सती हो गईं थीं. उस समय तक वे दाम्पत्यजीवन का अथध भी नहीं जान पायीं थी.इससलए जनसार्ारण उन्हें सततयों की रानी कहने लगा. एक ककं वदती के अनस ु ार सेवक राणा की सेवा से प्रसन्न होकर कहा कक मेरा नाम जग में “राणीसती” के नाम से प्रससि होगा. र्जस स्थान पर घ डी रुकी थी, उस स्थान पर झूँझ ु नू में आज भी माूँ सतीदादीजी का द्धविाल मर्न्दर स्थाद्धपत है . जो भी यहाूँ सच्ची भर्ततभावना के साथ दादीजी के दरबार में आता है , उसकी सभी मनोकामनाएूँ परू ी होती है .

77 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


२३

व्रमतड ंु ा महाकाय सय य ोदट समप्रभा, तनपवयघ्नम कुरु मे दे वा सवय कायेशु सवयदा ू क

श्री गणेिजी दहन्दओ ु ं के प्रथम पज् ू य दे वता हैं. दहन्दओ ु ं के घर में चाहे जैसी पज ू ा या कक्रयाकमध हो, सवधप्रथम श्री गणॆिजी का आवाहन और पज ू न ककया जाता है . िभ ु कायों में श्री गणेिजी कक स्ततु त का अत्यन्त महत्व माना गया है . गणेिजी द्धवघ्नों को दरू करने वाले दे वता है . इनका मख ु हाथी का, उदर लम्बा और िेि िरीर मनष्ु य के समान है . ससर ककसी जानवर का और िरीर आदमी का, दे खकर आश्चयध होना स्वभाद्धवक है . इस द्धवधचि संयोग के पीछॆ एक कहानी भी आ जुडती है . एक समय की बात है . माता पावधती स्नान करने के सलए जाने वाली थी. स्नानघर में प्रवेि करने से पव ू ध उन्होंने अपने पि ु से कहा कक वह प्रवेि-द्वार पर बैठकर इस बात की तनगरानी करे कक कोई भी अन्दर प्रवेि न कर पाए. अपनी माता की आज्ञा सिरोर्ायध कर वे एक स्थान पर बैठ गए. उसी समय उनके द्धपता िंकरजी का आगमन हुआ. वे अन्दर प्रवेि करें , उससे पव ू ध ही उस बालक ने उन्हें अन्दर प्रवेि करने से रोक ददया. िंकरजी ने इसमें अपना अपमान माना और दोनों के मध्य अघोद्धित यि ु तछड गया. अन्त में श्रीिंकर ने अपने त्रि​िल ू से उस बालक की गदध न र्ड से अलग कर दी. माता पावधतीजी जैसे ही स्नानघर से बाहर तनकली, अपने पि ु को तनजीव दे ख वे द्धवलाप करने लगी और अपने पतत को भला-बरु ा कहने लगी और उसे पन ु ः जीद्धवत करने की प्राथधणा करने लगी. 78 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


िंकरजी ने अपने गण ं को बल ु ाकर आज्ञा दी कक वे िीघ्रता से जायें और तरु न्त जन्म सलए ककसी मानव का ससर लेकर आयें. गण यहाूँ-वहाूँ चतकर लगाता रहा लेककन वह अपने प्रयास में सफ़ल नहीं हो पाया. खाली हाथ लौटकर जाने के भीिण अपरार् की तया सजा हो सकती थी, वह भसल-भांतत जानता था. संयोग से उसी समय एक हधथनी को प्रसव हुआ. उसने तत्काल उस सि​िु हाथी का ससर काट सलया और भगवान िंकर के समक्ष आ उपर्स्थत हुआ. भगवान िंकर ने तत्काल उस मत ृ बालक के ससर की जगह हाथी का ससर लगा ददया. उनसे आिीवाधद पा वह बालक जी उठा. उस बालक का नाम श्री गणेि रखा गया. अपने पि ु को जीद्धवत पा माता पावधती अत्यन्त ही प्रसन्न हुई. संभवतः यह संसार यह पहला सफ़ल प्रयोग( आपरे िन) था जब ककसी मानव के िरीर से ककसी जानवर के िरीर के ककसी अंग का प्रत्यारोपन ककया गया था. यह प्रसंग इस बात का संकेत दे ता है कक उस समय मेडडकल साईंस में भारत ककतना ससिहस्त रहा होगा. श्री गणेिजी बारह नामों से याद ककए जाते हैं. तथा= वक्रतण् ु ड, एकदं त, कृष्णद्धपङ्गाक्ष गजवति, लम्बोदर, द्धवकटमेव, द्धवघ्नराजेन्र र्ूम्रवणिं, भालचन्र द्धवनायक, गणपततं, एवं गजानन. नारद स्तोि के अनस ु ार इन नामों का त्रिसंध्या में जाप करने माि से मनष्ु य के सभी द्धवध्न दरू हो जाते हैं, और सारे मनोरथ ससि हो जाते हैं,. द्धवध्याथी को द्धवध्या की प्रार्प्त, र्नाथी को र्न की, पि ु ाथी को पि ु तथा मोक्षाथी को मोक्ष की प्रार्प्त होती है . श्री गणेिजी को एकदं त कहा जाता है . इससे एक कथा जड ु ी है , वह इस प्रकार से है . एक समय की बात है कक परिरु ामजी ने इस पथ् ू नाि करने के पश्चात अपने ृ वीतल से समस्त क्षत्रियों का समल गरु ु श्रीिंकरजी से समलने कैलाि जा पहुूँचे. ककसी बात को लेकर परिरु ाम और गणेिजी के बीच यि ु होने लगा. इस यि ु में परिरु ाम ने अपना फ़्ररसा गणेि जी पर चला ददया,र्जससे उनका एक दांत टूट गया. उस समय से उनका नाम एकदं त पडा. इसी तरह उनके बारह नामों से जुडी अलग-अलग कथाएं पढने को समलती हैं. श्री गणेिजी प्रथम पज् ु य दे वता हैं. दहन्दओ ु ं के घर में चाहे जैसी पज ू ा या कक्रयाकमध हो, सवधप्रथम श्री गणेिजी का आवाहान और पज ू न ककया जाता है . इसके पीछे भी एक कथा प्रचसलत है . वह इस प्रकार से है . भगवान श्री िंकरजी और माता पावधतीजी ने अपने दोनों पि ु श्री गणेि एवं काततधकेय से कहा कक तम ु दोनों में से जो संपण ू ध पथ् ू ा की जाएगी. ृ वी का चतकर लगाकर पहले आ जाएगा, इसकी सवधप्रथम पज काततधकेय का वाहन मोर था. वे उस पर सवार होकर पथ्ृ वी का चतकर लगाने के सलए तनकल पडॆ. श्री 79 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


गणेि अपने स्थान पर ही रुके रहे . जब उनसे यह पछ ू ा गया कक वे ककस कारण से रुके हुए हैं, जबकक तम् ु हारे भाई तो काफ़ी समय पव ू ध इस कायध को करने के सलए प्रस्थान कर चक ु े हैं. तब श्री गणेिजी ने कोई जवाब न दे ते हुए अपने माता-द्धपता के सात चतकर लगाए और उनके समक्ष हाथ जोडकर खडॆ हो गए और अत्यंत ही द्धवनीत भाव से उन्होंने कहा कक पथ् ृ वी ही तया, वे समस्त ब्रह्माण्ड के सात चतकर लगा चुके हैं. इस कथा से उस ममध को समझा जा सकता है कक कोई भी मनष्ु य यदद अपने माता-द्धपता की पज ू ा-अचधना/सेवा-िश्र ु ि ु ा करता है , तो उसके सलए संसार की सारी वस्तए ु ं सहज में ही उपलब्द्र् हो जाती है . उन्हें और दस ू रे अन्य उपाय खोजने की आवश्यकता नहीं पडती. िायद यही कारण था कक भगवान आित ु ोि और माता पावधतीजी ने उन्हें प्रथम पज् ू य होने का वरदान तत्काल ही दे ददया था. उस समय से श्री गणेिजी की पज ू ा-वंदना सवधप्रथम की जाती है . श्रीगणेिजी की मतू तध अथवा धचि को ध्यान से दे खें, एवं उनके नाम को भी ध्यान में लाएं. गण िब्द्द का अथध है- समद ु ाय और ईि का अथध है स्वामी. सिव गण ं के स्वामी होने के कारण ही इन्हें गणेि कहा जाता है . इनकी िारीररक संरचना के भी गहरे अथध हैं. ये लम्बोदर हैं, तयोंकक समस्त ब्रह्माण्ड उनके उदर में समादहत हैं..उनके सप ू े से लंबे कान हैं. बडॆ कान होने का असभप्राय यह कक इनमें ग्राह्यिर्तत बडी प्रचंड मािा में होने से अपने असंख्य भततों की बात आसानी से सन ु सकते हैं..उनकी लंबी सी सड ूं है . लंबी (नाक) सड ूं महाबद्धु ित्व का प्रतीक है . उनके चार हाथ हैं. चार होने का अथध यह है कक वे चार ं ददिाओं में सवधव्यापक हैं. एक और अथध यह कक वे कई-कई काम एक साथ त्रबना थके कर सकते हैं. िायद आप सभी ने पढा होगा कक महाभारत सलख चुके वेदव्यासजी के िरीर को कई व्याधर्यों ने घेर सलया था. तब उन्हें सलाह दे ते हुए नारदजी ने कहा था कक इससे छुटकारा आने के सलए आपको भागवत की रचना करनी चादहए. श्री द्धवष्णु के चररि को सलखने के बाद ही आप िांतत पा सकेंगे. तब महद्धिध ने सलखने से पहले एक द्धवधचि ितध रख दी कक रत ु गतत से सलखने वाला और त्रबना टोका-टाकी ककए हुए सलखते रहने वाले ऎसे व्यर्तत की तलाि की जाए,तो वे भाग्वत सलखवा सकेंगे. तब श्री गणेिजी को यह काम सौंपा गया था. महद्धिध त्रबना रुके बोलते जाते थे और श्री गणेि उसे तत्काल सलख डालते थे. इससे स्पष्ट हो जाता है कक वे कुिाग्र बद्धु ि के भी दे वता थे. उनमे सहनिर्तत भी गजब की थी. उनके एक हाथ में उनका द्धप्रय मोदक भी है . मोदक का अथध होता है वह आनन्द/ एक ऎसी वस्तु जो मीठी हो और खाने/पाने के बाद प्रसन्नता/आनन्द से भर दे . उनके दो हाथों में पाि और अंकुि हैं जो रजो गण ु और तम गण ु के प्रतीक है . पाि माने वह परस र्जससे वे अपने ि​िु को बांर् सकते हैं.एक हाथ से वे वरदान दे ते ददखाई दे ते हैं.वर-मर ु ा सत्वगण ु का प्रतीक है . एकदं त अद्वैत का सच ू क है . उनकी छ टी-पैनी आूँखें सक्ष् ू म-तीक्ष्ण दृर्ष्ट की सच ू क मानी गई हैं. उनके चेहरे पर ध्यान दटकाएूँ. िांत और

80 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


प्रसन्नधचत ददखलायी दे ते हैं. माने यह कक उन्हें दे खते ही हमारा मन प्रसन्नता से भर उठता है . इस ् तरह से उनके सारे रुप, जीवन के द्धवसभन्न गण ु ं को दिाधते हैं, जैसा कक गणेि परु ाण में वखणधत है . इतने सारे सदगण से यत ु ु त हमारे श्री गणेिजी हैं. तनर्श्चत ही उनके पज ू ने वालों में भी, इन ददव्य गण ु ं का होना तनतांत आवश्यक है . यदद ऎसा नहीं है तो कफ़र उनके पज ू न का ,उनके गण ु ाणव ु ाद गाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा.

मैं खखन्न मन से त्रबदा ले रहा हू​ूँ २४

(श्री गणेिजी का एक पि अपने भततों के सलए)

हाूँ..... मैं खखन्न मन से त्रबदा ले रहा हू​ूँ. त्रबदा लेना मेरी अपनी मजबरू ी है और त्रबदा करना तम् ु हारी. मैं तयों अप्रसन्नता के साथ त्रबदा ले रहा हू​ूँ, इसका कारण तया तम ु जानना नहीं चाहोगे? िायद यह तम् ु हारी मजबरू ी थी अथवा व्यस्तता, र्जसके चलते िायद तम् ु हें समय ही नहीं समला कक मझ ु से कुछ पछ ू ते?. जब तम ु ने पछ ू ना ही नहीं चाहा तो भला मैं बतलाता भी तो ककससे.? तम ु ने तो मझ ु े केवल समटी ी की मरू त समझा, र्जसकी कोई जुबान नहीं होती. बस यहीं पर भल ू हुई तम ु से. चलो मैं तम् ु हें याद ददलाता हू​ूँ कक जब मेरी प्रततमा पंडाल में लाई थी, तब उसमें जान नहीं थी लेककन जब तम ु ने उसे स्थाद्धपत कर ददया और उसके बाद, उस द्धवद्वान पंडडत ने मंिों के द्वारा उस मरू त में प्राणप्रततष्ठा की बस,उसी क्षण से मैं प्राणवान हो उठा था. अब मैं केवल एक समटी ी का लोंदा भर नही रह गया था. अब मैं बोल भी सकता था, दे ख भी सकता था और सन ु भी सकता था, लेककन मेरे मन की व्यथा-कथा सन ु ने के सलए तम् ु हारे पास न तो समय था और न ही पास बैठने का वतत.! अब तम् ु हीं बताओ, मैं ककससे बततयाता? मैं जो होता दे ख रहा था, वह दे खना नहीं चाहता था और जो सन ु ना नही चाहता था,वह सन ु रहा था. लगातार दस ददनों तक बैठे-बैठे मेरी दे ह ददों से भर गई थी. मैं एक क्षण भी वहाूँ बैठना नहीं 81 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


चाहता था,लेककन मजबरू ी में मझ ु े बैठना पडा था. लगातार दस ददन तक एक ही जगह पर अबोला बैठाबैठा मैं उस ददन की प्रततक्षा में था कक दसवें ददन तम ु मझ ु े द्धवसर्जधत कर दोगे,लेककन तम ु ने वैसा भी नहीं ककया. मझ ु े अकारण ही दो ददन और बैठे रहना पडा, तब जाकर तम ु ने मझ ु े द्धवसर्जधत ककया गया. मैं नदी की गहराई में तो जा समाया लेककन मैं अपने मन की बात तम ु से कह नहीं पाया, बस इसी बात का संताप सलए मैं तम ु से त्रबदा ले रहा हू​ूँ. मेरे द्धवसजधन के समय तम ु बडॆ ऊूँचे स्वर में धचल्ला रहे थे” पढ्चच्या विी लौकर या”. मैं तो कभी दब ु ारा आना ही नहीं चाहता था लेककन न आता तो ककतने ही मतू तधकार भख ू े रह जाते . ककतने ही पररवारों में चुल्हा नहीं जलता और न जाने ककतने बच्चों को भख ू ा सो जाना पडता. बस उन्हीं के कारण मझ ु े दब ु ारा आने पर मजबरू होना पडा था. तम् ु हें याद है अथवा नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, मझ ु े दख ु तो उसी ददन हुआ था,जब तम ु मतू तधकार के पास मझ ु े लेने गए थे और तम ु उससे मोलभाव करने लगे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कक एक गरीब कारीगर से तम् ु हारा इस तरह व्यवहार करना तया उधचत था ? तया तम् ु हें इस बात का ततनक भी ध्यान नहीं आया कक उसने भख ू ा-प्यासा रहकर एक मरू त गढी थी. यह वह वतत होत्ता है जब उसे चार पैसे समलते हैं. तम् ु हें तो उसके श्रम के मल् ू य को समझना चादहए था और उसकी मांग से कुछ ज्यादा ही दे दे ना चादहए था,लेककन तम ु यह जानते-बझ ू ते कक तम ु ने चंदे के नाम पर ढे र सारी दौलत इकठ्ठी कर रखी थी, तम ु आराम से उसे ज्यादा दे सकते थे और इसमें कोई हजध भी नही था,लेककन तम ु तो मोलभाव पर अडॆ हुए थे. इस बेचने और खरीदने के व्यापार को दे खकर मझ ु े अपार पीडा हुई थी,तयोंकक मैं त्रबकने के सलए ही रखा गया था और तम ु खरीदने के सलए एक खरीदार बने हुए थे. यह सब होता दे ख मझ ु े अपार पीडा हो रही थी लेककन मैं खामोि था, िायद खामोि रहना मेरी अपनी मजबरू ी थी और उस भोले-भाले मतू तधकार की भी. ककसी तरह मैं इस पीडा को सह तो गया,लेककन मझ ु े अब दस ू री पीडाएं भोगने के तैयार होना था. दस ू री पीडा तब हुई,जब तम ु उस पंडडत से भी दक्षक्षणा के सलए मोलभाव तय करने लगे थे. तम ु अच्छी तरह जानते थे कक तम ु अपनी जेब से कुछ नहीं दे रहे हो,लेककन तम ु उसे दो पैसे ज्यादा दे ने के पक्ष में ही नहीं थे. तीसरी पीडा उस समय हुई ती जब तम ु उस पें टर से भी पैसों के लेनदे न में अपनी बात में अडॆ रहे थे. मैं यह मानता हू​ूँ कक तम् ु हें पैसों के लेन-दे न में सतकधता बरतनी चादहए, लेककन तम ु ने उन पैसों को ककस तनदध यता के साथ अन्य मदों में खचध ककया, र्जसकी जरुरत ही नहीं थी. तेज-तेज डीजे बजाते समय तम् ु हें तया इस बात का भी ध्यान नहीं आया कक तम ु जाने अनजाने में ध्वतन-प्रदि ु ण बढा रहे थे. उस तीखी और ककधि आवाज से ककतने ही लोग रात की नींद चैन से सो नहीं पाए थे. बात यहीं आकर रुकती तो ठीक था लेककन तम् ु हारी रुह उस समय भी नहीं कांपी,जब तम ु ने स्रीट लाईट से कनेतिन जोड्ते हुये, त्रबजली की चोरी की. दख ु तो मझ ु े उस ददन भी हुआ था जब मेरे

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द्धवसजधन को जाते हुए दो गट ु आपसे में भीड गए थे और जमकर खून-खराबा हुआ था. समझ में नहीं आता कक मेरे भतत इस तरह एक दस ू रे के प्रतत इतने दहंसक हो उठें गे और खन ू -खराबा करने पर उतारु हो जाएंगे? ऎसा तो त्रबलकुल भी नहीं होना चादहए था, लेककन हुआ? जाते-जाते मैं एक बात कह दे ना चाहता हू​ूँ और वह यह कक तम ु ने मझ ु े दस ददनों तक त्रबठाए रखा लेककन मझ ु से कोई सीख लेने की जरुरत महसस ू तक नहीं की. यदद कोई सीख ले सलए होते तो िायद मझ ु े इतनी पीडा सहन नही करनी पडती. चलो...मैं अपनी ओर से अपने बारे में बताता चलंू कक मेरी इस द्धविाल दे ह में अनेकों रहस्य तछपे हुए हैं. मेरे बडॆ-बडॆ कान हैं. वह इससलए कक मैं अपने भततों के दख ु -ददों को तथा अन्य बातों को ज्यादा से ज्यादा सन ु सकंू .. मूँह ु छोटा इससलए है कक कम से कम बोलकर अपनी िर्तत को अपव्यय होने से बचा सकंू . बडा पॆट है र्जसमें मैं अच्छा और बरु ा आसानी से पचा सकंू . ससर बडा है तयोंकक मेरी सोच भी बडी है . आूँखे महज इससलए छ टी है कक मैं हर चीज को सक्ष् ु मता से दे ख सतता हू​ूँ.. मेरी सड ूं उच्च दक्षता का प्रतीक है . एक दं त इससलए है कक मैं अच्छाइयों को अपने जीवन में उतार सकंू और बरु ाइयां दरू कर सकंू . मेरे एक हाथ में फ़रसा है ताकक मैं मोह के बंर्नों को काट सकंू और रस्सी से उन उच्च और महान लाक्ष्यों को बांर् सकंू . मेरा एक हाथ आिीवाधद की मर ु ा में उठा हुआ है ताकक मैं अपने भततों को उनके आद्यार्त्मक पथ पर अग्रसर होता दे ख सकंू . इन सब सदगण ु ं के चलते, और मेरी कठोर सार्ना को दे खते हुए मेरी ममतामयी माता ने मझ ु े परु स्कार में मोदक ददए थे. अब यह मत पछ ू ना कक मोदक तया होता है ? मोदक का सीर्ा सा अथध है कक र्जसे खाने से मन प्रसन्नता से भर उठता है , रोम-रोम खखल उठता है . इससलए मझ ु े मोदक अत्यन्त ही द्धप्रय है . मझ ु े द्धवश्वास है कक तम ु ने मेरी व्यथा-कथा को गंभीरता से सन ु ा-गन ु ा होगा. मझ ु े यह भी द्धवश्वास है कक तम ु मेरे गण ु ं को अपने जीवन में उतारोगे और वह सब करोगे र्जससे मानवता िमधसार न होने पाए. मझ ु े सादगी पसन्द है और उस सादगी के साथ तम ु मझ ु े जब भी बल ु ाओगे, मैं दौडा चला आऊूँगा. तम् ु हारा श्री गणेि.

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राजस्थान के लोकदे वता राजस्थान के लोकदे वता गाूँव-गाूँव में पज ू े जाते हैं. यहाूँ की लोकसंस्कृती में लोकदे वताओं

का बडा ही महत्वपण ू ध स्थान रहा है . इनके थान एवं दे वालय राजस्थान में स्थान-स्थान में बने हुए हैं. गोगाजी, पाबज ू ी, रामदे वजी, दे वनारायणजी और तेजाजी का लोकदे वताओं में प्रमख ु स्थान है . प्रायः सभी की लोकचचाध समान है . रामदे वजी, पाबज ू ी और दे वनारायणजी की जीवनगाथा पडगायन के रुप में और गोगाजी और तेजाजी की गाथाएूँ लोकगीतों में तथा लोकनत्ृ यों में प्रचसलत है .

गोगाजी(सपों का दे वता) इततहास में उनको महमद ू गजनवी के समकालीन माना जाता है . उनका द्धववाह केसलमदे से हुआ था,जो राठौर बड ू ं कीलमंरजी की बेटी थीं. इनकी पज ू ा प्रततविध भारपक्ष के कृष्णपक्ष की नवमी को की जाती है . गोगाजी की समटी ी की प्रततमा बनाकर लोग पज ू ा करते हैं. राजस्थान में खेजडॆ के वक्ष ृ के नीचे सभी गाूँवों में उनका थान(पज ू ास्थल) होता है . गोगामेडी र्जला गंगाननगर में भारपद कृष्णपक्ष की नवमी पर द्धविाल मेला लगता है . गोगाजी को सपों का दे वता माना जाता है . राजस्थान के अलावा गोगाजी की पज ू ा दहमाचल प्रदे ि, पंजाब और उत्तरप्रदे ि में भी की जाती है .

पाबज ू ीसंवत १९१३ को मारवाड के कोलू (कीलमंर) के दठकाने में पाबज ू ी का जन्म हुआ था. उन्होंने २४ विध की आयु में अपने वचन की रक्षाहे तु प्राण त्याग ददए थे. ऎसी मान्यता है कक जब दे वलीचारण की गायों को जींदराव घेरकर ले गया, उस समय पाबज ू ी का पाखणगह ृ ण संस्कार हो रहा था. उन्होंने फ़ेरों के मध्य उठकर अपना वचन पालन ककया तथा गायों की रक्षा के सलए जींदराव से यि ु ककया और गायों की 84 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


मर्ु तत हे तु लडते-लडते अपने प्राण गंवा ददए. राजस्थान के ग्रामीण क्षेिों में उनके पज ू ास्थान पाए जाते हैं. कपड ं के थान पर पाबझ ू ी के जीवनवत्ृ तों को रं ग-त्रबरं गे रं गों से धचत्रित ककया जाता है . यही पाबज ू ी की पड कहलाती है .

रामदे वजी लोकगाथाओं में रामदे वजी को द्धवष्णु भगवान का वंिावतार माना जाता है , यह मान्यता है कक रामदे वजी प्रकट हुए थे. उनका जन्म नहीं हुआ था. लोकदे वों में वे सबसे अधर्क द्धवख्यात एवं पज् ू यनीय हैं. उन्होंने सदै व तनबधलों, िोद्धितों तथा पीडडतों की रक्षा की और उन्हें सम्मातनत ककया. तेरहताली उनके भततों का द्धप्रय नत्ृ य है . वे एक वीर योिा , उत्कृष्ट योगी तथा भतत-कद्धव के साथ-साथ क्रार्न्तकारी भी थे. उनके भव्य मर्न्दर रुणेचा, बीकानेर, धचत्तौडगढ, गज ु रात तथा कोलकाता में स्थाद्धपत हैं,जहाूँ प्रततविध मेला लगता है , उत्सव का आयोजन होता है तथा लोग अपनी मनौती पण ध र आल्हाददत होते हैं. ू क

दे वनारायणजी दे वनारायणजी को भी भगवान का अवतार माना गया है . उनका अवतरण मालासेरी गरी भीलवाडा र्जले के आसीन्द तहसील में माना जाता है . बगडावत दे वनारायण गाथा के नाम से उनकी गाथा प्रससि है . उन्होंने राजा दज ध साल को यि ु न ु में परार्जत कर अपने राज-समाज की रक्षा की. सवाई भोज दे वनारायणजी का प्रमख ु स्थल है , जहाूँ प्रततविध भारपद ित ु ल सप्तमी को दे वनारायणजी के मर्न्दरों में मेलों और उत्सवों का आयोजन होता है .

तेजाजी

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तेजाजी को गायों का रक्षक और प्राणपालक दे वता माना जाता है . एक बार जब वे गोरक्षा के सलए जा रहे थे तो रास्ते में नाग उन्हें डूँसने के सलए आया. उन्होंने नाग को वचन ददया कक गौओं की मर्ु तत के बाद आपके पास आऊूँगा, अभी मझ ु े जाने दें . नाग ने जाने ददया. वे गायों को मत ु त कराने के पश्चात अपने वचनानस ु ार नागदे वता के पास आए और नागदे व ने उन्हें डूँस सलया. तेजाजी के दे वालय राजस्थान के सभी गाूँवों में तनसमधत हैं, जहाूँ श्रिाभाव से लोग उनकी पज ू ा करते हैं तथा मानोकामना पण ू ध होने पर प्रसाद चढाते हैं. ब्राहमणों, इष्ट-समिों ,पररजनों तथा असहायों को भोजन कराते है , दान–दक्षक्षणा दे ते हैं और खूब उत्सव मनाते हैं.

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द्धवराट िर्तत के प्रतीक-वीर हनम ु ानजी “ अतसु लत बलर्ामं हे म िैलाभ दे हं दनज ु वन कृिानुं ज्ञातननामग्रगण्यम सकलगण ु तनर्ानं वानरानामधर्िं रघप ु ततद्धप्रय भततं वातजातमं नमासम” “अतसु लत बलिाली, पवधताकार दे ह के स्वामी, दष्ु ट /ं राक्षसों के वन को सख ु ा दे ने वाले, ज्ञातनयों में अग्रगणणीय, सकल गण ु ं के तनर्ान, वानरों के स्वामी, रघन ु ाथ के द्धप्रय भतत, पवनपि ु श्री हनम ु ानजी को मैं नमस्कार करता हू​ूँ” श्लोक में जैसा कक वखणधत

ककया गया है , उसी के अनरु ु प श्री हनम ु ानजी द्धवराट िर्तत के

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प्रतीक है और यही कारण है कक उनकी पज ू ा सम्पण ू ध भारतविध में तथा द्धवदे िों में भी सम्पण ू ध भर्तत एवं श्रिा के साथ की जाती है . आर्श्वन(चन्रमास-काततधक) के कृष्णपक्ष की चतथ ु ी ततधथ को स्वाती नक्षि और मेि लगन में माता अंजनादे वी के गभध से स्वयं भगवान िंकर पैदा हुए. अंजनादे वी के पि ु होने के कारण उन्हें मारुतत कहा जाता है . अंजनीपि ु -पवनसत ु ,िंकरसव ु न, केिरीनन्दन, संतसिरोमणी कद्धवसिरोमणी आदद ,हनम ु ानजी के ही नाम हैं. माूँ अंजना ककसी कायध में व्यस्त थीं. बाल पवनपि ु क भख ू लग आयी. उददत सय ू ध को उन्होंने फ़ल समझा. भख ू और तेज हो आयी. वे सरू ज की तरफ़ लपके. पवनपि ु होने के नाते, वे हवा में उड चले और सरू ज को उन्होंने मूँह ु में भर सलया. सारे संसार में हाहाकार मच गया. सरू ज के न रहने पर प्रकृतत के सारे कामकाज रुक गए. हवा चलना बंद हो गयी. दे वत्ताओं के राजा इन्र को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपना वर स चला ददया. वर स उनकी ठुड्डी में लगा. (ठुड्डी को संस्कृत भािा में “हन”ु कहा जाता है इससलए उनका नाम हनम ु ान पडा.) अपने पि ु पर वर स के प्रहार से वायद ु े व अत्यन्त क्षुब्द्र् हो गये और उन्होंने अपना प्रसार बंद कर ददया. वायु ही प्राण का आर्ार है , वायु के संचरण के अभाव में समस्त प्रजा व्याकुल हो उठी. प्रजा को व्याकुल दे ख प्रजापतत द्धपतामह ब्रह्मा सभी दे वताओं को लेकर वहाूँ गए,जहाूँ अपने मतु छध त सि​िु हनम ु ान को लेकर वायद ु े व बैठे थे. ब्रह्माजी ने अपने हाथ के स्पिध से सि​िु हनम ु ान को सचेत कर ददया. सभी दे वताओं ने उन्हें अपने अस्ि-िस्िों से अवध्य कर ददया. द्धपतामह ने वरदान दे ते हुए कहा-“ मारुत ! तम् ु हारा यह पि ु ि​िओ ु ं के सलए भयंकर होगा. यि ु में कोई जीत नहीं सकेगा. रावण के साथ यि ु में अद्भत ु पराक्रम ददखाकार, यह श्रीरामजी की प्रसन्नता का सम्पादन करे गा. बाल्यावस्था में वे बडॆ नटखट थे. सार्-ु संतों को जानबझ ू कर तंग ककया करते थे. सो उन्होंने श्राप दे ददया कक वे अपनी िर्तत को भल ू जाएंगे. उन्हें अपनी िर्तत का भास तब होगा, जब श्रीराम सीता की खोज में जाएंगे और हनम ु ानजी को इस बाबत गरु ु तर दातयत्व सौंपें गे. वह वतत भी, जब जामवन्तजी हनम ु ानजी को याद ददलाते हैं –“हे पवनपि ु -हनम ु ानजी ! आप वानरराज सग्र ु ीव के तल् ु य हो. यही नहीं, प्रत्यत ु तेज तथा बल में तम ु श्रीरामचन्रजी और लक्ष्मणजी के समान हो, गरुड के दोनों पंखों में र्जतना बल है , तम् ु हारी दोनों भज ु ाओं में भी उतना ही बल और पराक्रम है . अतः तम् ु हारा द्धवक्रम एवं वेग भी उनसे ककसी प्रकार कम नहीं है . वानरश्रेष्ठ ! तम् ु हारा बल, बद्धु ि, तेज, तथा उत्साह समस्त प्राखणयों से द्धवसिष्ठ अथाधत अधर्क है . कफ़र तम ु अपना स्वरुप तयों नहीं पहचानते.?”. “वानरश्रेष्ठ ! मैं दे खता हू​ूँ कक भसू म, अंतररक्ष, आकाि, अमरालय अथवा जल में भी तम् ु हारी गतत का अवरोर् नहीं है . तम ु असरु , गन्र्वध, नाग, नर, दे वता, सागर, और पवधत सदहत समस्त लोकों को जानते हो. वीर महाकपे ! गतत, वेग, तेज और फ़ुती- ये सभी सदगण ु तम ु में अपने महापराक्रमी 87 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


द्धपता वायु के ही समान है . तम् ु हारे समान इस पथ् ू रा कोई तेजस्वी नहीं है . अतएव वीर ! ऎसा ृ वी पर दस प्रयत्न करो र्जससे सीता का िीघ्र पता लग जाए. नीततिास्िद्धविारद हनम ु ान ! तम ु में बल, बद्धु ि, द्धवक्रम,तथा दे ि एवं काल का अनस ध प से है .” ु रण और नीतत का ज्ञान भी पण ू रु हनम ु ानजी को अपनी भल ू ी हुई िर्तत का तब अहसास हो आता है . तब महावीर हनम ु ानजी ने सभी को आश्वासन ददया और सौ योजन समर ु को लांघ गए. सवधथा अपररधचत लंकापरु ी में उन्होंने अपनी कुिाग्र बद्धु ि, नीतत, पराक्रम, बल, िौयध का प्रदिधन ककया और रामजी की मदहमा का यिोगान ककया. राम-रावण यि ु में उनके द्वारा प्रयोग मे लाया गया यि ु कौिल, पराक्रम, तेज, वेग,और फ़ुती के बारे में हम सभी भसल-भांतत पररधचत हैं. श्रीरामचन्रजी से प्रथम भें ट के बाद से लेकर रामराज्य की स्थापना और बाद के अनेकानेक प्रसंगों को पढ-सन ु कर हृदय में अपार प्रसन्नता तो होती ही है , साथ में हमें सदकमों को करने की प्रेरणा भी समलती है . श्रीमदहनम ु ानजी की र्जतनी भी स्ततु त की जाए, कम ही प्रतीत होती है . श्री हनम ु ानजी के व्यर्ततत्व को पहचानने के सलए यह भी आवश्यक है कक हम उनके चररि की मानवी भसू मका के महत्व को समझें. यदद हम यह द्धवश्वास करते हों कक श्रीराम के रुप में स्वयं भगवान श्री द्धवष्णु और मरुत्पि ु के रुप में स्वयं सिव अवताररत हुए थे, तब भी हमको यह समझना चादहए कक दै वी-िर्ततयाूँ दो उद्देश्य से अवतररत होती हैं. इन उद्देश्यों की सच ू ना गीता द्वारा हमें आज भी प्राप्त होती है . इन उद्देश्यों मे पहला उद्देश्य है-र्मधसस् ं थापना और दस ू रा है दष्ु टसंहार. इनमें भी ध्यान दे ने की बात यह है कक दष्ू टसंहार को पहला स्थान प्राप्त नहीं है . पहला स्थान र्मधसस् ं थापन को ददया गया है . र्मधसस् ं थापन के सलए जब भगवान और दे वता मनष्ु य समाज में अवतररत होते हैं, तब ठीक वैसा ही आचरण करते हैं,जो र्माधकूल और मनष्ु यों जैसा ही हो. भगवान श्रीराम और रामसेवक हनम ु ान यावज्जीवन संहारकमध के ही व्यस्त नहीं रहें . वे समाज के र्मध संस्थापन के कायध में अग्रणी बनकर, जीवन भर उसका नेतत्ृ व करते रहे और जब आवश्यक हो गया, तभी उन्होंने िस्िों का उपयोग ककया. इससलए यह आवश्यक है कक हम हनम ु च्चररि की मानवीय भसू मका को अपने जीवन में उतारें और यग ु यग ं थाना के कायध में सहयोगी बनें एवं भारत का नाम रौिन करें . ु में व्याप्त र्मधसस् इस प्रसंग के चलते एक बात बतलाना और भी आवश्यक हो गया है कक हनम ु ानजी द्वारा ककस प्रकार गरुडजी ,श्रीचक्र एवं सत्यभामा का गवध हरण ककया था. श्रीरामचन्रजी और श्री कृष्णजी के नाम और रुप में अन्तर जरुर है ,वस्तत ु ः वे दोनों एक ही हैं. इसी तरह जनकनर्न्दनी सीता और वि ु ारी रार्ाजी भी एक ही हैं. इसमे कोई भेद नहीं है और ृ भानु दल 88 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


ज्ञानमतु तध पवननन्दन श्री हनम ु ानजी भी इससे पररधचत हैं, ककन्तु उन्हें र्नर् ु रध श्रीराम और माता सीता ही अधर्क द्धप्रय है . द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भततों के गवधहरण के सलए पवनकुमार को ही तनसमत्त बनाया था. भगवान श्रीकृष्ण की प्राणद्धप्रया सत्यभामा को एक बार अपने सवधश्रेष्ठ

सन् ु दरी

होने का और अपने स्वामी की सवाधधर्क द्धप्रय होने का घमण्ड हो गया था. उन्होंणे श्रीकृष्ण से पछ ू ा – “तया जनकदल ु ारी सीता मझ ु से भी अधर्क सन् ु दरी थीं, जो आप उनके सलए वन-वन भटकते रहे ?. इस पर श्रीकृष्ण ने कोई उत्तर नहीं ददया. इस प्रकार परम तेजस्वी श्रीचक्र ने भी इन्र के व्रज को परार्जत कर ददया था. इस बात को लेकर उन्हें भी गवध हो आया था कक उनके बलिाली होने की वजह से श्रीकृष्ण उनका बार-बार स्मरण करते हैं. ठीक वैसे ही प्रभु के वाहन गरुड को भी अपनी िर्तत और वेग से उडने का असभमान हो गया था कक उन्होंने अकेले ही सरु -समद ु ाय को परास्तकर अमत ृ हरण कर सलया था तथा इन्र का व्रज भी उन्हें रोक नहीं पाया था. अपने इन तीन भततों का गवध हरण करने के सलए श्रीकृष्णजी ने हनम ु ानजी का स्मरण ककया. हनम ु ानजी तरु न्त ही द्वारका पहुूँच गए और राजकीय उद्यान में पहुूँचकर, एक वक्ष ृ पर चढकर फ़ल खाने लगे और वादटका के वक्ष ृ तोडकर तहस-नहस करने लगे. जब यह समाचार द्वारकार्ीि के पास पहुूँचा तो उन्होंने गरुड से कहा-“ कोई बलिाली वानर वादटका में घस ु आया है . तम ु सिस्ि सेना लेकर जाओ और वानर को पकड लाओ.” गरुड को यह सन ु कर बडा आघात लगा. उन्होंने कहा-“ प्रभ,ु एक वानर को पकडने के सलए सेना ले जाने को कह रहे हैं.? मैं अकेला ही पयाधप्त हू​ूँ”. प्रभु ने मंद-मंद मस् ु कुराते हुए कहा-“ जैसे भी हो, उस वानर को पकड ले आओ.” परमिर्ततिाली गरुड राजोद्यान में पहू​ूँचे. उन्होंने दे खा. एक वानर वक्ष ृ पर बैठा फ़ल खा रहा है . उन्हें क्रोर् हो आया. आूँखें लाल हो आयीं. उन्होंने कहा-“ हे दष्ु ट वानर, तू है कौन और वादटका तयों नष्ट कर रहा है .”. हनम ु ानजी ने कहा-“ मैं तो वानर हू​ूँ और वही कर रहा हू​ूँ, जो करना चादहए.”.गरुड ने कहा-“अच्छा..तो चल महाराज के पास ’. श्रीहनौमानजी ने कहा-’मैं ककसी महाराज के पास तयों जाऊूँ”. इतना सन ु ते ही गरुड क्रोधर्त हो गए और उन्होंने कहा-“ सन ु रे वानर, तू नहीं जानता,मैं कौन हू​ूँ? ततस पर खखजाते हुए हनम ु ानजी ने कहा-“मैंने तम् ु हारी जैसी ककतनी ही धचडडया दे खी है . अगर तम ु में कुछ िर्तत हो तो ददखाओ.”. गरुड ने आव दे खा न ताव और आक्रमण कर ददया. हनम ु ानजी ने उसे अपनी पूँछ ू में लपेट सलया तो गरुडजी छटपटाने लगे. कफ़र धगडधगडाते हुए गरुड ने कहा-“श्रीकृष्णजी ने आपको बल ु ा भेजा है .”. हनम ु ानजी ने कसाव कम करते हुए कहा-“ मैं तो रामजी का भतत हू​ूँ, कृष्ण के 89 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


पास तयों जाऊूँ?. गरुड को कफ़र क्रोर् हो आया, तो हनम ु ानजी ने उन्हें उठाकर दरू समर ु में फ़ेंक ददया और स्वयं मलयधगरर पवधत पर चले गए. गरुडजी सीर्े मूँह ु समर ु मे धगरे और क्षण भर को मतु छध त हो गए और समर ु का पानी पी गए. भींगे पंख ,लर्ज्जत गरुडजी प्रभु के समीप पहुूँचे. व्यंग्यपव ध कृष्णजी ने पछ ू क ू ा-“ समर ु में स्नान करके आ रहे हैं तया गरुडजी ?”.गरुडजी श्रीचरण ं में धगर गए और बोले-“ प्रभु वह वानर असार्ारण है और उसने मझ ु े समर ु में फ़ेंक ददया था”. लेककन इतने पर भी गरुडजी को अपने वेग से उडने का अहं कार िेि था. आगे की बात बतलाते हुए उन्होंने कहा-“हनम ु ानजी ने अपना पररचय दे ते हुए बतलाया था कक वे श्रीराम के अनन्य भतत हैं और वे अभी मलयधगरर जा रहे हैं, श्रीकृष्णजी ने गरुड से कहा- “तम ु मलयधगरर जाओ और उनसे कहो कक तम् ु हें श्रीरामचन्रजी द्वारका में बल ु ा रहे हैं” गरुडजी प्रणामकर चल ददए. तब श्रीकृष्णजी ने सत्यभामा से कहा वे सीताजी का रुप र्ारणकर मेरे समीप ही बैठी रहें , तयोंकक श्रीहनम ु ानजी को सीता-राम का रुप ही द्धप्रय है .और कफ़र सद ु िधनचक्र को आज्ञा दी कक वे द्वार पर उपर्स्थत रहें और कोई भी मेरी अनम ु तत के बगैर अन्दर न आने पाये. श्रीकृष्णजी स्वयं राम का रुप र्रण कर बैठ गए. उर्र गरुडजी अपने वेग से उडकर मलयधगरर पहुूँचे और हनम ु ानजी से कहा कक आपको श्रीरामचन्रजी द्वारका में बल ु ा रहे हैं हनम ु ानजी ने कहा कक तम ु चलो, मैं आता हू​ूँ. गरुडजी अत्यन्त ही वेग से उडकर चल ददये. उर्र पवनपि ु द्वारका पहुूँचे तो द्वार पर सद ु िधनचक्र ने रोक सलया. अपने प्राणनाथ के दिधन में द्धवलम्ब होता दे खकर श्री हनम ु ानजी ने सद ु िधन को अपने मह ूँु में रख सलया और अन्दर जाकर प्रभु के चरण ं में बैठकर वन्दना करने लगे. कफ़र प्रभु के मख ु को तनहारकर बोले-“ हे नाथ ! आज माताजी कहाूँ हैं? आज आप ककसी दासी को गौरव प्रदान कर रहे हैं”. यह सन ु कर सत्यभामा अत्यन्त ही लर्ज्जत हो गईं और उनका सौंदयाधसभमान नष्ट हो गया. उर्र हांपते-हांपते गरुडजी पहुूँचे. वहाूँ पहले से ही हनम ु ानजी को दे खकर उनका मख ु नीचा हो गया. उर्र द्वारकार्ीि ने पछ ू ा-“हनम ु ान, तम् ु हे राजभवन में प्रद्धवष्ट होते समय ककसी ने रोका तो नहीं?.” हनम ध कहा-“प्रभ,ु द्वार पर श्रीचक्र ने मझ ु ानजी ने अत्यन्त ही द्धवनयपव ू क ु े आपके श्रीचरण ं में उपर्स्थत होने में बार्ा डाली थी. व्यथध में द्धवलम्ब होता दे ख, मैंने उन्हें अपने मूँह ु में रख सलया है ”. तब हनम ु ानजी ने चक्र को मूँह ु से तनकालकर प्रभु के सामने रख ददया. चक्र श्रीहत हो गए. इस प्रकार तीनों भततों का गवध चूरकर, श्री हनम ु ानजी ने अपने प्रभु के चरण ं में प्रणाम ककया और उनकी आज्ञा लेकर 90 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


मलयधगरर की ओर चल ददये. ऎसे हैं हमारे भतत सिरोमणी श्री हनम ु ानजी.

महालक्ष्मी व्रत

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आज महालक्ष्मी व्रत है . आम बोलचाल की भािा में इसे हधथयापज ू न के नाम से जाना जाता है . िास्िों और परु ाण ं में इस व्रत का बहुत महत्व बताया गया है . इस व्रत के अनष्ु ठान करने वाले अपनी कामनाओं ही नहीं अद्धपतु र्मध, अथध, काम और मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं. र्जस प्रकार तीथों में प्रयाग, नददयों में गंगाजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार व्रतों में यह महालक्ष्मी-व्रत श्रेष्ठ है . इस ददन समटी ी का हाथी बनाकर उसकी पज ू ा-अचधना की जाती है . कथा:-एक लोककथा के अनस ु ार एक राजा की दो रातनयां थी. बडी रानी से अनेक पि ु थे,परन्तु छोटी रानी से एक ही पि ु था. बडी रानी ने एक ददन समटी ी के हाथी की प्रततमा बनाकर पज ू न ककया, ककं तु छ टी रानी इससे वंधचत रहने के कारण उदास हो गयी. उसका लडका माूँ को उदास दे ख इन्र से ऎरावत हाथी माूँग लाया और अपनी माूँ से कहा कक आप सचमच ु के हाथी की पज ू ा करें . इस व्रत को द्धवधर्द्धवर्ान से ककया गया था, र्जसके प्रभाव से उसका पि ु द्धवख्यात राजा हुआ. अतः इस ददन लोग

91 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


हाथी की पज ू ा करते हैं. कािी में लक्ष्मीकुण्ड पर सोलह ददन का महालक्ष्मी का मेला लगता है जो सोहररया मेला कहलाता है . यहाूँ भततगण तनयमपव ध लक्ष्मीजी का दिधन करते हैं. ू क दस ू री कथा:- एक बार नारदमतु न स्वगधलोक का भमण करते हुए पथ् ृ वीलोक पर आए और वे हर्स्तनापरु के राजा र्त ृ राष्र के महल में जा पहुूँचे. महाराज र्त ृ राष्र और उनकी पर्त्न गांर्ारी ने उनके चरण पखारे और उन्हें आदर के साथ ससंहासन पर त्रबठाया. अपनी सेवा से प्रसन्न हुए नारदमतु न ने उनसे वर माूँगने को कहा. गांर्ारी ने अपने सौ पि ु ों का अखण्ड राज्य होने का वर माूँगा. तब नारदमतु न ने कहा कक यदद वह गजलक्ष्मी का व्रत करें तो उनकी मनोकामना परू ी हो सकती है . उन्होंने उस व्रत को करने की द्धवधर् भी बतला दी. गांर्ारी को व्रत आदद की द्धवधर् बतला दे ने के बाद वे कंु ती के महल में जा प्हुूँचे.. वहाूँ भी उनका बहुत आदर-सत्कार हुआ. जाने से पव ू ध उन्होंने कंु ती को भी इस व्रत करने की सलाह दे दी.. चुंकक गांर्ारी के सौ पि ु थे, अतः उन्हें समटी ी लाने और बडा सा हाथी बनाने में दे र नहीं लगी. दे खते ही दे खते एक द्धविाल हाथी की प्रततमा बन गयी. गांर्ारी ने द्धवधर्द्धवर्ान से उसका पज ू न ककया और कफ़र उस पर सवार होकर राजमागध से तनकलते हुए अपनी प्रजा के बीच कपडॆ और र्न का द्धवतरण ककया. कफ़र चलते हुए वे कंु ती के महल में आयी और उन्हें भी वस्िादद भें ट में ददए. चुंकक वे महारानी थी अतः उनका वैभव दे खने लायक था. गांर्ारी का ठसव्यवहार दे खकर कंु ती को बरु ा लगा लेककन वे कर भी तया सकती थी. उसके पांच पि ु थे. वे सब यह होता हुआ दे ख रहे थे,लेककन बलिाली भीम को बहुि क्रोर् आया. अपनी बडी माूँ के चले जाने के बाद उसने अपने अनज ु अजन ुध से कहा कक वह स्वगध जाकर इन्र से ऎरावत हाथी माूँग लाएंगे और अपनी माता को उस पर त्रबठाकर उसी ठाठबाट से परू े िहर में घम ु ाएंगे और बडी माूँ को सबक ससखाएंगे. र्रती से स्वगध की ओर जाना एक चुनौती भरा कायध था. अजन ुध ने अपने तीरों की सहायता से एक सीढी तैय्रार की. तीरों से बनी सीढी की सहायता से भीम इन्र के दरबार में जा पहुूँचे. एक दे हर्ारी यव ु क को स्वगध में प्रवेि करता दे ख इन्र को बडा आश्चयध हुआ. उन्होंने उसका स्वागत ककया और उसके आने का कारण जानना चाहा. तब भींम ने सारा ककस्सा सन ु ाते हुए इन्र से प्राथधना की कक वे उसे अपना ऎरावत हाथी दे दें . इन्र ने कहा कक इस समय हमारा ऎरावत नन्दनवन में है . यदद तम ु उसे ले जा सको तो ले जाओ. भीम नन्दनवन जा पहुूँचे. इस समय ऎरावत मददरा के निे में झूम रहा था. एक अपररधचत बालक को सामने पाकर उसका क्रोर् बढ गया और वह उसे कुचलने के सलए आगे बढा. लेककन भीम के िरीर में सौ हाधथयों का बल था. उसने पल भर में

हाथी को अपने वि में कर सलया. इस तरह भीम

ऎरावत को र्रती पर ले आए. 92 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


जब हर्स्तनापरु के लोगो ने सन ु ा कक भीम स्वगध से इन्र का ऎरावत हाथी ले आया है , तो राज्य के सारे लोग उस हाथी को दे खने के सलए महल की ओर दौड पडॆ. भीम ने अपनी माता कंु ती से प्राथधना की कक वे उसकी पज ू ा-अचधना करे . पज ू ादद तनपट जाने के बाद कंु ती उस हाथी पर सवार होकर गांर्ारी के महल के सामने जा खडी हुई. गांर्ारी को जब इस बात की सच ू ना समली, तो अपनी छ टी बहन से समलने आयी और अपने कृत्य पर माफ़ी मांगते हुए उसे क्षमा करने की याचना करने लगीं. चुंकक कंु ती स्वभाव से ही अत्यंत मद ु थीं अतः उन्होंने गांर्ारी को माफ़ कर ददया. ृ ल

नाथद्वारा (राजस्थान) में श्रीनाथजी के ददव्य

२८….

दिधन

झीलों की नगरी के नाम से जगप्रससि नगर उदयपरु से महज 58 ककमी की दरू ी पर र्स्थत नाथों के नाथ श्रीनाथजी का भव्य मर्न्दर अवर्स्थत है र्जसे बस द्वारा एक घण्टा बाईस समनट की यािा करते हुए पहुूँचा जा सकता है . 17वीं िताब्द्दी में बनास नदी के भव्य तट पर इस मर्न्दर को श्रीभगवान का प्रवेि-द्वार भी कहा जाता है . उत्सवद्धप्रय प्रभु श्रीनाथजी नाथद्वारा में साक्षात द्धवराजमान होकर भततों एवं गोस्वामी बालकों द्वारा तनत्य सेद्धवत है .. गगधसदं हता में संग्रदहत एक कथा के आर्ार पर 93 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


श्रीनारदजी राजा बहुलाश्व को बतलाते हैं कक धगररराजजी की गफ़ ु ा के मध्यभाग में श्रीहरर का स्वतःससि रूप प्रकट होगा. भगवान भारत के चार कोनों में क्रमिः जगन्नाथ, श्रीरं गनाथ, श्री द्वारकानाथ, और श्रीबदरीनाथजी के नाम से पससि हैं. नरे श्वर ! भारत के मध्यभाग में में भी वे गोवर्धननाथजी के नाम से द्धवद्यमान हैं. इन सबका दिधन करने से नर नारायण हो जाता है . नारदजी ने राजा बहुलाश्व को यह भी बतलाया कक जो द्धवद्वत परु ु ि इस भत ू ल पर चारों नाथों के यािा करके मध्यवती दे वदमन श्रीगोवर्धननाथजी के दिधन नहीं करता, उसे यािा का फ़ल नहीं समलता. जो गोवर्धन पवधत पर श्रीनाथजी के दिधन कर लेता है , उसे पथ् ृ वी पर चारों नाथों की यािा का फ़ल सहज में ही प्राप्त हो जाता है . जनश्रुतत के आर्ार पर सन 1410 में गोवर्धन पवधत पर श्रीभगवानजी का बांया हाथ प्रकट हुआ, जो ऊपर उठा हुआ था, यह इस बात का प्रतीक था कक उन्होंने गोवर्धन पवधत को अपनी ऊंगली पर उठा रखा है . कफ़र उनका मख ु प्रकट हुआ. वल्लभाचायधजी का जन्म 1479 को हुआ. इनके जन्म के पश्चात ही श्रीनाथजी की िेि आकृतत प्रकट हुई. इस ददव्य-आकृतत के साथ ही दो गायें,एक सपध,एक ससंह,दो मोर भी प्रकट हुए. इन आकृततयों में एक तोते की भी आकृतत थी,जो श्रीजी के मस्तक पर द्धवराजमान था. यह वह समय था जब भारतविध पर पज ू ा-पाठ द्धवरोर्ी, मतू तध-भंजक, कटी रपंथी औरं गजेब िासन कर रहा था. उसकी सेना र्जस ओर जाती मर्न्दरों का द्धवध्वंस करती और मतू तधयों को भग्न करती-कफ़रती. वैष्णव संप्रदाय के लोगों में इस बात को लेकर भय पैदा हो गया था कक ककसी भी समय औरं गजेब की सेना का रुख इस ओर होगा और वे इस ददव्य श्री का द्धवग्रह भंग कर दें गे. अतः वे इस बात को लेकर धचंततत थे कक श्रीजी को एक ऎसे स्थान पर ले जाकर स्थाद्धपत कर दें , जहाूँ वे सरु क्षक्षत रह सकें. भगवान श्रीकृष्णचंदजी ने सपने में दिधन दे ते हुए बतलाया कक उनके श्रीद्धवग्रह को बैलगाडी पर मेवाड की ओर रुख करें . उन्होंने यह भी बतलाया कक बैलगाडी जहाूँ अपने आप रुक जाएगी, वहीं उन्हें स्थाद्धपत कर ददया जाए. इस तरह का संकेत प्रप्त होते ही श्रीद्धवग्रह को एक बैलगाडी पर रखते हुए उसे पत्तों से ढं क ददया गया. ऎसी भी जनश्रुतत है कक नटवरनागर ने अपनी भतत मीराबाई को स्वंय चलकर मेवाड आने का वादा ककया था. घससयार होते हुए गाडी आगे बढ रही थी कक अचानक बनास नदी पार करते हुए बैलगाडी कीचड में र्ंस गयी. काफ़ी प्रयास करने के बावजूद गाडी उस दलदल से नहीं तनकल पायी. श्रीजी का आदे ि भी था कक गाडी जहाूँ से आगे न बढ पाये, उस स्थान पर उन्हें स्थाद्धपत कर ददया जाये. श्रीजी के आदे िानस ु ार मेवाड के तत्कालीन राजा राणा राजससंहजी ने अपने महल में उन्हें स्थाद्धपत ककया. श्रीनाथद्वारा में श्रीजी की आठों पहर पज ं ृ ार,राजभोग, ू ा-अचधना की जाती है ,र्जसमें मंगला, श्रग उत्थान,भोग,आरती और ियन आरती की जाती है .लाखों की संख्या में वैष्णव भतत तनत्य प्रतत आकर आपके ददव्य दिधन कर अपने आपको अहोभागी मानते हैं. 94 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


यों तो नाथद्वरा में श्रीनाथजी के मर्न्दर में तनत्य मनोरथ एवं उत्सव होते हैं,तथाद्धप उनमें से कुछ उत्सवों के बारे में संक्षक्षप्त में जानकारी लेते चलें. जन्माष्टमी----यों तो जन्माष्टमी का पवध संपण ू ध भारतविध में हिोल्लास के मनाया जाता हैं.ककं तु नाथद्वारा में बडॆ भारी आनन्द से यह उत्सव मनाया जाता है . इस ददन दे ि-द्धवदे ि से अनेक वैष्णभततों का यहाूँ आगमन होता है . प्रातःकाल मंगला-दिधन में प्रभु का पंचामत ृ होता है ,बाद में श्रंग ृ ार होता है . रात्रि में जागरणदिधन होते हैं एवं मध्यरात्रि में जन्म का महोत्सव होता है . महाभोग में श्रीप्रभु को छप्पन भोग लगाया जाता है . जन्माष्टमी के दस ू रे ददन पलना के दिधन होते हैं. सोने के पलने में ठाकुरजी को झल ु ाया जाता है . भततगण ग्वाल-बाल के रूप में बनकर दर् ू , दही आदद अपधणकरते हैं. अपार जनसमह ू इस उत्सव का दिधन कर कृतकृत्य होते हैं. इसी तरह रार्ाष्टमी ,नवराि०-उत्सव ,दिहरा, िरदपखू णधमा, दीपावली ,मकरासंक्रार्न्त, वसन्तपंचमी पर अनेकानेक उत्सव आयोर्जत ककए जाते हैं. दीपावली

में

एकादिी से ही ततलकायत के श्रंग ृ ार आरम्भ हो जाते हैं. र्नतेरस को जरी के वस्िों द्वारा भारी श्रंग ृ ार एवं रूपचौदस को ठाकुरजी का अयोयंग होता है . राजभोग में सोने-चाूँदी का बंगला होता है . दीपावली के ददन सफ़ेद जरी के वस्ि एवं बहुत भारी श्रंग ृ ार होता है . आज ही के ददन गोिाला से गायें नाथद्वारा में प्रवेि करती हैं. सायं “कान्ह जगाई” होती है एवं रतनचौक में नवनीत प्रभु द्धवराजते हैं. अन्नकूट नाथद्वारा का सबसे बडा उत्सव है . दोपहर में गोवर्धन-पज ू ा होती है . सायं अन्नकूट में दे ढ सौ मन चाूँवल का ढे र लगाकर अन्नकूट(सिखर) बनाया जाता है . अनेकानेक प्रकार की सामग्री भोग में आती है . काततधक की ित ु ल द्द्धवतीया , गोपाष्टमी पर द्धविेि श्रंग ु ाईंजी का ृ ार होता है . पौि कृष्णनवमी को श्रीगस उत्सव मनाया जाता है . इस ददन जलेबी द्धविेि रुप से बनाई जाती है . इसे जलेबी-उत्सव भी कहते हैं. फ़ाल्गन ु ित ु ल पखू णधमा के ददन श्रीनाथजी नाथद्वारा में पाट पर द्धवराजते हैं. इसी माह की पखू णधमा को खब ू गल ु ाल उडाई जाती है . चैि कृष्ण प्रततपदा को ड लोत्सव का आयोजन होता है . तथा प्रततपदा के ददन भगवान के पंचाग सन ु ाई जाती है . तत ु ल नवमी ृ ीया को गणगौर का उत्सव तीन ददन चलता है . चैि ित को रामजन्मोत्सव मनाया जाता है . बैसाख कृश्ण एकादिी को श्रीमहाप्रभज ु ी का उत्सव होता है . आज ही के ददन महाप्रभक ु ा प्रातटय चम्पारण्य में हुआ था. वैिाख ित ु ल चतद ु धिी के ददन सन्ध्या आरती में िालग्रामजी को पंचामत ु ल पंचमी को श्रीजी में नावका मनोरथ होता ृ से स्नान कराया जाता है . ज्येष्ठ ित है . ज्येष्ठ ित ु ल पखू णधमा को ठाकुरजी को असभिक करा कर सवा लाख आमों का भोग लगाया जाता है . आिाढ ित ु ल द्द्धवत्तीया को रथयािा का आयोजन होता है . इस ददन भी सवा लाख आमका भोग लगाया जाता है . श्रवाणमास में परू े माह मर्न्दर में दहंडोला होते हैं. तनत्य नत ू न श्रंग ृ ार होते हैं. द्धविेिकर हररयाली अमावस, ठकुराइन तीज, पद्धविा एकादिी एवं राखी का भारी उत्सव होता है . इस ददन श्रीजी को राखी 95 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


बांर्ी जाती है . परु ु िोत्तममास में परू े मदहने ततधथ के अनस ु ार साल भर सभी त्योहार बडी र्ूमर्ाम से मनाए जाते हैं. सच है . जहाूँ धगररवरर्ारी, नटराज स्वयं उपर्स्थत हों, वहाूँ उत्सवों के भव्यतम आयोजन न हो, ऎसा भला कभी हो सकता है . मैं स्वयं तो इन तमाम तरह के उत्सवों में भले ही िासमल नहीं हो पाया, लेककन पाटोत्सव के समय मझ ु े श्रीजी के दिधनों का पण् ु यलाभ जरुर समला है . माह फ़रवरी २०१२ मे सादहत्यमण्डल ् प्रेक्षागार में आयोर्जत कायधक्रम में अन्य सादहर्त्यक समिों के साथ”दहन्दी भािा भि ू ण” सम्मान से सम्मानीत ककया गया था. ततबारा वहाूँ जाना तो नहीं हो पाया,लेककन मन-पाखी जब-तब श्रीचरण ं के दिधनाथध जा पहुूँचता है . उनके ददव्य दिधन प्राप्त कर मन में परम सन्तोि की प्रार्प्त समलती है .

२९

गोपाष्टमी-महोत्सव

गौवों का तया महत्व और माहात्म्य है इसे बतलाने की कतई आवश्यतता नहीं है . तथा इस बात का उल्लेख करना भी जरुरी नहीं है कक भगवान श्रीकृष्ण का अततद्धप्रय “गोद्धवन्द” नाम गायों की रक्षा करने के कारण ही पडा. काततधक ित ु ल प्रततपदा से लेकर सप्तमी तक गो-गोप-गोद्धपयों की रक्षा के सलए उन्होंने गोवर्धन पवधत को र्ारण ककए रहे . आठवें ददन इन्र की आूँख खुली और वे अहं काररदहत होकर 96 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भगवान श्रीकृष्णचंर की िरण में आए. कामाअर्ेजु ने भगवान का असभिेक ककया और उसी ददन भगवान का नाम “गोद्धवन्द” पडा. उसी समय से काददधक ित ु ल अष्टमी को “गोपाष्टमी” का उत्सव मनाया जाने लगा, जो अबतक चला आ रहा है . ऎसी मान्यता है कक काततधक ित ु ल अष्टमी को प्रातःकाल गौओं को स्नान कराकर, गन्र्-पष्ु पादद से पज ू न कर, वस्िालंकार ं से अलंकृत करके गोपालों ( ग्वालों) का पज ू न करें और थ डी दरू तक उनके साथ जाएं तो सभी प्रकार की अभीष्ट ससद्धियां प्राप्त होती है . गोपाष्टमी को सायंकाल गायें जाब चरकर वापस आएं, उस्स समय भी उनका आधथत्य, आसभवादन और पंचोपचार के साथ पज ू न करें और भोजन कराएं. ऎसा ककए जाने पर सौभाग्य की प्राप्त होती है. भारतविध के प्रायः बागों में गोपाष्टमी उत्सव बडॆ ही उल्लास के साथ मनाया जाता है . गोपाष्टमी के ददन हमें तया-तया करना चादहए, १.गोपाष्टमी मनाने का सन् ु दर ढं ग और उस ददन ककए जाने वाले कायध इस प्रकार ककए जाएं तो उत्तम होगा.(१) गायों को नहला-र्ुलाकर स्वच्छ करना और उन्हें सजाना(२) गायों के रहने के स्थान की सफ़ाई करना(३) गाय और ग्वालों की पज ू ा करना(४)गोिाला में दान आदद दे ना(५) गांव-गांव, नगर-नगार आम सभाएं आयोर्जत करते हुए इस बात पर द्धवचार ककया जाना चादहए र्जससे गोहत्या जैसे जघन्य अपरार् न हों.(६) गाय अगर ककसी कारणवाि बेचनी ही पड जाए तो इस बात का अवश्य ध्यान रखना चादहए कक वह ककसी कसाई के हत्थे न चढ जाए.(७) गायें स्वस्थ और सबल रहें ,इसके सलए उनका समय-समय पर डातटरी परीक्षण करवाते रहना चादहए.

97 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


३०

..

बंर्न राखी का.

बंर्न का िार्ब्द्दक अथध तो बंर् जाना, कैद हो जाना, जकडा जाना होता है , बंर्ना भला कोई चाहे गा भी तयों कर.? लेककन हर कोई बांर्ना चाहता है . यदद बंर्ने वाले के मन में कोई प्यारी सी ललक जगे और बांर्ने वाले के मन में कोई रस की तनष्पर्त्त हो तो कोई भी बंर् जाना चाहे गा. मछली तया जाल में बंर्कर उलझना चाहे गी ? कदाद्धप नहीं,लेककन जाल के साथ बंर्ा चारा उसे अपने सम्मोहन में बांर् दे ता है और वह बेचारी उसमें जा फ़ंसती है . चारा यहां उसके मन में एक लासलत्य जगाता है . बस उसी लालच में वह बंर् जाती है . यह तो रही मछली की बात. कोई रुपसी भी भला ककसी के जाल में तयोंकर बंर् जाना चाहे गी?.उत्तर होगा कदाद्धप नहीं. लेककन वह भी प्यार के मदहन बंर्नों में बंर् जाती है . कृष्ण ने सभी जीव-जन्तओ ु ं को,सभी नर-नारी सदहत समच ू े द्धवश्व को अपने सम्मोहन में बांर्कर रखा था. वे भला तया मां यिोदा के बंर्न मे आसानी से बांर्े जा सकते थे.? यहां वह मां का प्यार था, दल ु ार था,और भी बहुत कुछ था कक कृष्ण ने उन्हें अपने आपको बांर्े जाने के सलए प्रस्तत ु कर ददया. दरअसल, दस ू रों को बांर्ने में एक तनवधचनीय सख ु समलता है ,वहीं बंर् जाने में भी एक सख ु की तनष्पर्त्त होती है एक रस बांर्ने में आता है ,वहीं एक रस बंर् जाने में भी आता है . बंर्ने की प्रकक्रया अलग-अलग हो सकती है . स्िी ककसी परु ु ि से, बच्चा अपनी मां से, बहन अपने भाई से,पि ु अपने माताद्धपता से एक अटूट बंर्न में बंर्े होते है लेककन इसका पता न तो बंर्ने वाले को चल पाता है और न ही बांर्ने वाले को चल पाता है और इस तरह एक पडौसी दस ू रे पडौसी से, परू ा एक गांव और संपण ू ध राष्र एक सि ू में बंर्ता चला जाता है . यह क्रम आज से नहीं, अनाददकाल से चला आ रहा है . एक बहन अपने द्धप्रय भाई की कलाई में राखी बांर्ती है . राखी तया है ?. वह भी तो एक र्ागा ही है न ! र्जससे वह उसे बांर्ती है . बहन के मन में अपने भाई के प्रतत अनन्य प्रेम होता है ,एक अटूट द्धवश्वास होता है , एक ऐसा द्धवश्वास कक वह आडॆ ददनों में उसकी रक्षा करे गा. कोई संकट यदद आ उपर्स्थत हुआ तो वह अपने प्राणी, की बाजी तक लगा दे गा और अपनी बहन की रक्षा करे गा, उसके कदठन ददनों में एक संबल बन कर खडा हो जाएगा. भाई जब इस कच्चे सि ू से बंर्ता है तो उसके मन में भी एक दहलोर पैदा होती है , एक गवध का भाव पैदा होता है , एक आत्मद्धवश्वास पैदा होता है ,एक अपररमेय िर्तत उसके मन में जागती है कक वह ऎसा कर सकेगा. राखी का ि​ि ु िार्ब्द्दक अथध भी तो यहां रक्षा भाव का जाग्रत होना होता है .

98 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


पज ू न के समय ककसी पाि में पानी भर ददए जाने के बाद उसका भाव ही बदल जाता है . उस पाि को कच्चे सत ू से लपेटा जाता है . ऐसी मान्यता है कक उसमे वरुण दे वता का समावेि हो गया है .जो कक हमें समद्धृ ि और ऎश्वयध प्रदान कराते हैं. वस्तत ु ः यह जुडाव ,प्रकृतत के जुडाव से भी अपने आप जुड जाता है . वटसाद्धविी के ददन भी सह ु ागन र्स्ियां, पेड के तने में कच्चा सत ू लपेटतीं हैं. सभी जानते हैं कक वट वक्ष ु ेद के अनस ु ार उसका ककतना महत्व है . भगवत्गीता में ृ में दे वताओं का वास होता है और आयव वट वक्ष ृ को लेकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय १०.श्लोक २६ मे कहा है ”अश्वत्थःसवयवक्ष ु े व कृष्ण अश्वस्थ यातन वट वक्ष ृ ार्ां.....मतु नः! .वासद ृ हैं, जादहर है कक कृष्ण को कच्चे सि ू में बांर्कर वे अपने सलए अखंड सौभाग्य का वरदान मांगतीं हैं. रक्षाबंर्न को मनाए जाने के संदभध में एक कथा प्रचसलत है . दे वताऒ ं और राक्षसों के बीच यि ु हो रहा था. यह यि ु बारह विॊं तक चलता रहा. इसमें दे वताऒ ं की पराजय हुई. और असरु ों ने दे वलोक पर आधर्पत्य जमा सलया. दख ु ी,परार्जत और धचर्न्तत इन्र दे वगरु ु बह ृ स्पतत के पास गए और कहने लगे कक इस समय न तो मैं यहां सरु क्षक्षत हू​ूँ और न ही यहां से कहीं तनकल सकता हू​ूँ. ऎसी दिा में मेरा यि ु करना ही अतनवायध है ,जबकक अबतक के यि ु में हमारा पराभव ही हुआ है . इस वाताधलाप को इन्राणी भी सन ु रही थी. उन्होंने कहा कक कल श्रावण ित ु ल पखू णधमा है , मैं द्धवर्ानपव ध रक्षासि ध ब्राह्मण ं से बंर्वा लीर्जएगा. इससे ू क ू तैयार करुं गी, उसे आप स्वर्स्त-वाचनपव ू क आप अवश्य ही द्धवजयी होंगे. दस ध रक्षा बन्र्न कराया. पहले रक्षासि ू रे ददन इन्र ने रक्षाद्धवर्ान और स्वर्स्तवाचनपव ू क ू का द्धवधर् द्धवर्ान से पज ू न ककया गया. कफ़र ब्राह्मण ं ने रक्षासि ू बांर्ते समय इस ददव्य मन्ि को पढा-“ येन बिौ बली िाजा दानवेन्रो महाबलः//तेन त्वामनब ु ध्नामम िक्षे मा चल मा चल//. रक्षासि ू के प्रभाव से उनकी द्धवजय हुई. तब से यह पवध श्रावण ित ु ल पखू णधमा को रक्षाबन्र्न पवध के रुप में मनाया जाने लगा. भारतीय पवध-परम्परा में भाई-बहन के समलन का अनोखा त्योहार है रक्षाबंर्न. इस ददन बहन अपने भाई की कलाई में राखी बांर्तीं हैं और मंगलकामना करतीं हैं कक उसकी आयु लम्बी हो. प्राचीन समय अथवा वतधमान में भी ऎसा दे खा जाता है कक भाई को साहस दे ने, दहम्मत दे ने का कायध बहन ही करती है . बहन का आिीवाधद पाकर भाई वीरता का प्रदिधन करता है. राष्र पर जब भी आपर्त्त आती है तो बहनों ने ही भाइयों को स्नेहरुपी आिीवाधद दे कर राष्र की सरु क्षा परम कतधव्य है ,ऐसा उपदे ि दे ते हुए र्ीरता,वीरता का पररचय ददया है . ऎसे एक नहीं अनेको उदाहरण है र्जनको पढकर यह जाना जा सकता है कक एक कच्चा र्ागा जब स्नेह से ककसी की कलाई से बंर्ता है तो उसके ककतने सख ु द पररणाम तनकले, दे खने को समलते हैं. 99 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


सभी जानते हैं कक भगवान श्रीकृष्ण अपनी बहन रौपदी से ककतना स्नेह रखते थे और उन्होंने एक नहीं अनेकों बार अपनी बहन के कष्ट ं का तनवारण ककया था. भरी सभा में जब दय ु ोर्न ने अपने भाई दि ु ासन को आदे ि ददया था कक वह उसे घसीट लाए और उसका चीर हरण करे .यह तब का दृष्य है जब पांडव ं ने जए ु में अपना सवधस्व लट ु ा ददया था. रौपदी ने चीख-चीख कर सभी रथी-महारधथयों को,यहां तक र्त ृ राष्र और भीष्म द्धपतामह तक से अनरु ोर् ककया था कक एक नारी की रक्षा की जानी चादहए. जब कोई उसकी सहायता को आगे नहीं बढा तो उसने अपने भाई श्रीकृष्ण को याद ककया. पल भी नहीं बीता था कक उन्होंने प्रकट होकर अपनी बहन की लाज की रक्षा की थी. एक दस ू रा उदाहरण भी यहां दे खने को समलता है कक पांडवों के बनवास के समय सय ू ध ने रोपदी को एक अक्षय पाि ददया था. उसकी यह द्धविेिता थी कक वह ददन में एक बार

में इतना भोजन

उपलब्द्र् करवा दे ता था कक हजारों का पेट भरा जा सकता था. दय ु ोर्न ने ऋद्धि दव ु ाधसा को प्रसन्न करते हुए अनरु ोर् ककया था कक वे एक बार जाकर वहां भोजन करें ,जब रौपदी भोजन कर चुकी हो और वह ददव्य पाि र्ो ददया गया हो.र्जन्होंने इस कथा को पढा है वे जानते है कक कृष्ण को जब इस बात की भनक लगी तो वे वहां गए और थाली से धचपके अन्न के दाने को स्वयं खाकर ऋद्धियों को तप्ृ त कर ददया था. इस रक्षाबंर्न सि ू के प्रभाव से केवल दहन्द ु ही पररधचत होंगे, ऎसी बात नहीं है . इसका प्रभाव अन्य समद ु ाय के लोगों पर भी पडा और उन्होंने समय आने पर इस सि ू की प्रततष्ठा को आगे बढाया है . रक्षा का यह सि ू बरसों परु ानी ि​ित ु ा को भी खत्म कर दे ता है . इततहास में ऐसे एक नहीं कई उदाहरण पढने को समल जाएंगे. केवल एक प्रसंग पर हम यहां चचाध करना चाहें गे. राजा मानससंह ने अपने यव ु ा पि ु को अपनी सेना का प्रमख ु बनाकर सम्राट अकबर की सहायता करने के सलए दक्षक्षण भेज ददया था. इसी बीच गज ु रात के सल् ु तान कफ़रोजिाह ने मौका दे खकर नागौर पर चढाई कर दी. ककले को ि​िु सेना ने घेर रखा था. इस ् र्स्थतत ने राजा मानससंह को बहुत धचन्ता और परे िानी में डाल ददया था. वे जानते थे कक कुछ सैतनकों के भरोसे वे उसे हरा नहीं पाएंगे. अपने द्धपता के माथे पर तघर आए धचन्ताओं की लकीरों को पि ु ी पन्ना ने पढ सलया था. उसने अपने द्धपता को सलाह दी कक पास की बनी अररकन्द पहाडी पर उम्मेदससंह नामक राजपत ू राज्य करता है . उससे मदद मांगी जा सकती है . चुंकक दोनो पररवारों के बीच ककसी मामले को लेकर द्धववाद हुआ था और तभी से ि​ित ु ा चली आ रही थी. मानससंह ने अपनी पि ु ी से कहा कक ि​ित ु ा के चलते वह मदद को आगे नहीं आएगा. तभी पन्ना ने एक उपाय खोज तनकाला. उसने अपने द्धवश्वस्त और वफ़ादार यव ु क बेनीससंह को बल ु ाया और सोने के तारों से सन् ु दर मोहक राखखयां, जो उसने तैयार कर रखी थी,सभजवाया. राखी के साथ 100 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


एक पि भी था. उसने पि में सलखा;-“ तम् ु हारी र्मध-बदहन पन्ना तम् ु हें राखी भेज रही है . बदहन की राखी भाई के सलए उत्सव भी है और आमंिण भी. बदहन के द्वारा भेजा गया राखी का घागा भाई के सलए िौयध और साहस की परीक्षा की कसौटी होने के साथ ही आदिों के सलए, सनतन र्मध की मयाधदा के सलए समद्धपधत होने

हे तु व्रतबंर् भी है . यह पद्धवि र्ागा तम् ु हारी बदहन , वीरता और पराक्रम का आव्हान

कर रही है . तम् ं आतताइयों के द्धवरुि जूझने के सलए रण तनमंिण भेज रही है . नारी का ु हें बबधर और नि ृ स अर्स्तत्व एवं अर्स्मता आज खतरे में है .र्मध की सनातन मयाधदाएं आज रौंदी जा रही है . अपनी संस्कृतत को द्धवदे िी और द्धवर्मी कुचलने के सलए तत्पत हैं. तम् ु हें अपनी संस्कृतत, अपने र्मध एवं बदहन की मयाधदा की रक्षा के सलए आगे बढना है . मझ ु े अपने भैया पर परू ा यकीन है . द्धवश्वास है तम् ु हारे कदम आगे बढे त्रबना न रहें गे.”-तम् ु हारी बदहन पन्ना.

पि को

पढकर यव ु ा उम्मेदससंह के चेहरे पर वीरता का ओज चमकने लगा और उसने उस पि को अपने माथे से लगाया. राखी को अपनी कलाई में बांर्ा और अपनी सेना लेकर वहां जा पहुंचा और दे खते ही दे खते उसने ि​िु सेना के लोगों को गाजर-मल ू ी की तरह काट फ़ेंका.

ि​िु सेना को

परार्जत कर वह अपनी बदहन पन्ना से समलने महल के भीतर प्रवेि ककया. बाहर पन्ना आरती का थाल सजाए खडी थी. उसने आगे बढकर अपने भाई के माथे पर कुमकुम ततलक ककया,आरती उतारी और कहने लगी:-“ भैय्या ! दहन्दस् ु थान की हर बदहन को तम् ु हारे जैसा भाई समले”.

राखी का यह

द्धवसिष्ठ त्योहार अपने आपमें ककतनी ही पद्धविता का भाव, ओज का भाव सलए हमारे सामने आ उपर्स्थत होता है . अतएव हर भाई का यह परम कतधव्य हो जाता है कक वे अपनी बहनों का समधु चत ध्यान रखे. उसकी अर्स्मता की रक्षा करे . बहन ं का भी यह परम कतधव्य हो जाता है कक वे अपने भाइयों के मन में दे िप्रेम के बीज ं का अंकुरण करवाए और उन्हें

अपने कतधव्यों का जब-तब बोर् करवाते जाए.

इस तरह जब समच ू ा दे ि एकता की डोर में बंर् जाएगा तो तया मजाल है कक ि​िु दे ि आपकी ओर आंख उठाकर दे ख सके.

101 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


श्री रामजन्मोत्सव. ३१ सारे जगत के सलए यह सौभाग्य का ददन है ; तयोंकक अखखल द्धवश्व के अधर्पतत सर्च्चदानदघन श्री भगवान इसी ददन दद ु ाधन्त रावण के अत्याचार से द्धपडडत पथ् ु ी करने और सनातन र्मध की ृ वी को सख मयाधदा की स्थापना के सलए मयाधदापरु ु िोत्तम श्रीराम के रुप में प्रकट हुए थे. ’’दिाननवर्ाथाधय र्मधसस् ं थापनाय

दानवानां द्धवनािाय दाइत्यानां तनर्नाय च पररिाणाय सार्ूनां जातो रामः स्वयं हररः“

महाकद्धव बाल्मीक ने रामजन्म के द्धविय में यह कहते हुए सलखा है-

’ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतन ू ां समत्ययःु ततश्च द्वादिे मासे चैिे नावसमके ततथौ नक्षिेSददततदे वत्ये स्वोच्चसंस्थेिु पंचसु ग्रहे िु ककधटॆ लग्ने वातपताद्धवन्दन ु ा सह “प्रोद्यमाने जगन्नातं सवधलोकनमस्कृतम कौिल्याजनयद रामं ददव्यलक्षणसंयत ु ”

( अष्टादिः सगधः-८-९-१०)

102 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


यज्ञ –समार्प्त के पश्चात जब छः ऋतए ु ं बीत गयी, तब बारहवें मास में चैि ित ु लपक्ष की नवमी ततधथ को पन ु वधसु नक्षि एवं ककध लग्न में कौसल्यादे वी ने ददव्य लक्षण ं से यत ु त सवधलोकवर्न्दत जगदीश्वर श्रीराम को जन्म ददया. उस समय( सय ू ,ध मंगल, ितन, गरु ु और िक्र ु ) ये पांच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में द्धवद्यमान थे तथा लग्न में चन्रमा के साथ बह ृ स्पतत द्धवराजमान थे//बाल्मीक रामायणअष्टादिः सगधः श्लोक-८-९-१०). इनके जन्म के समय गंर्वों ने मर्ुर गीत गाए. अप्सराओं ने नत्ृ य ककया. दे वताओं की दन्ु दसु भयाूँ बजने लगी तथा आकाि से फ़ूलों की विाध होने लगी. अयोध्या में बहुत बडा उत्सव हुआ. मनष्ु यों की भारी भीड एकि हुई. गसलयाूँ और सडकें लोगों से खचाखच भरी थीं. बहुत-से नट और नतधक वहाूँ अपनी कलाएूँ ददखा रहे थे. वहाूँ सब ओर गाने-बजानेवले तथा दस ू रे लोगों के िब्द्द गूँज ू रहे थे.दीनदखु खयों के सलए लट ु ाए गये सब प्रकार के रत्न वहाूँ त्रबखरे पडॆ थे. राजा दिरथ ने सत ू , मागर् और वन्दीजनों को दे ने के योग्य परु स्कार ददये तथा ब्राह्मण ं को र्न एवं सहिों गोर्ान प्रदान ककये. ग्यारह ददन बीत जने पर महाराज ने बालकों का नामकरण-संस्कार ककया. उस समय महद्धिध वससष्ठ ने प्रसन्नता के साथ सबके नाम रखे. उन्होंने ज्येष्ठ पि ु का नाम “राम” रखा. कैकेयीकुमार का नाम भरत तथा ससु मिा के एक पि ु का नाम लक्ष्मण और दस ू रे का नाम ि​िघ् ु न तनर्श्चत ककया. इस अवसर पर राजा ने ब्राहमण ,ं परु वाससयों तथा जनपदवाससयों को भोजन भी करवाया.(बाल्मीकरामायण-श्लोक 17-से23) चंकू क वाल्मीकजी, महाराज दिरथ के समकालीन थे, अतः उन्होंने अपनी रामायण में आूँखों दे खा हाल का वणधण ककया था. राम-भतत तल ु सीदास जी ने भी इस अवसर पर सद ुं र भावासभव्यर्तत दी. उन्होंने सलखा है “नौमी ततधथ मर्ु मास पन ु ीता* सक ु ल पच्छ असभर्जत हररप्रीता मध्य ददवस अतत सीत न घामा* सीतल मंद सरु सभ बह बाऊ*

पावन काल लोक द्धवश्रामा हरससत सरु संतन मन चाऊ

बन कुससु मत धगररगन मतनआरा* स्रवदहं सकल सररताSमत ृ र्ारा सो अवसर त्रबरं धच जब जाना* गगन त्रबमल संकुल सरु जथ ू ा*

चले सकल सरु सार्ज त्रबमाना गावदहं गन ु गंर्बध बरुथा.

बरिदहं करदहं नाग मतु न दे वा*बहुद्धवधर् लावदहं तनज तनज दोहा-

सेवा”

सरु समह ू त्रबनती कर, पहुूँचे तनज तनज र्ाम जगतनवास प्रभु प्रगटॆ ,

अखखल लोक त्रबश्राम//१९१//बालकाण्ड//

103 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भगवान के अवतार लेने के समय पद्धवि चैि मास के ित ु लपक्ष में नवमी ततधथ प्रभु का द्धप्रय असभर्जत नक्षि था तथा नवम ददवस(अथाधत लगभग एक बजे) न अतत िीत और न द्धविेि सय ू ध की तपन, बर्ल्क संसार को द्धवश्राम दे ने वाला िभ ु समय था. िीतल मंद और सग ु र्न्र्त हवा चल रही थी. दे वता हद्धिधत थे, संतो के मन मे चाव था. वन फ़ूले हुए थे. पवधत-समह ू , मखणयों से यत ु त हो रहे थे और संपण ू ध नददयाूँ अमत ृ की र्ारा बहा रही थी. जब ब्रह्मा ने वह समय जाना तब सब दे वता द्धवमान सजाकर चले. तनमधल आकाि दे वताओं के समह ू से पण ू ध हो गया. गंर्वध गण ु गान करने लगे. सन् ु दर अंजसु लयों मे सजाकर फ़ूल बरसाने लगे. आकाि में घनघोर दन्ु दभ ु ी बजने लगी. नाग, मतु न और दे वता स्ततु त करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा अद्धपधत करने लगे. इस प्रकार दे व-समह ू नाना प्रकार से द्धवनती कर अपने-अपने स्थानों को चले गये और

सभी अखखल ब्रह्माण्ड के द्धवश्रामदाता तथा जगर्न्नयता

द्धवश्वव्यापक भगवान का प्राक्य हुआ. रामभतत तल ु सीदास जी ने अपने प्रभु के प्रकट होने पर जो छं दमय स्ततु त की है , अत्यंत ही रोचक और सरल भािा में व्यतत की है कक इसे गाते समय तन पल ु ककत हो उठता है और ऎसा लगता है कक हम श्रीरामजी को अपने सामने उपर्स्थत पा रहे है . तन में रोमांच हो आता है और आूँखों से प्रेमाश्रु बह तनकलते है . “भए प्रकट कृपाला, दीनदयाला कौसल्या

दहतकारी

हरद्धित महतारी, मतु न मन हारी, अद्भत ु रुप त्रबचारी लोचन असभरामा, तनु घनस्यामा,तनज आयर् ु भज ु चारी भि ू न बनमाला, नयन त्रबसाला,

सोभाससंर्ु खरारी*

कह दइु कर जोरी,अस्ततु त तोरी,केदह द्धवधर् करौं अनंता माया गन ु ग्यानातीत अमाना,बेद

परु ान

भनंता

करुना सख ु सागर,सब गन ु आगर, जेदह गावदहं श्रतु त संता सो मम दहत लागी, जन अनरु ागी,भयउ प्रगट श्रीकंता* ब्रह्मांड तनकाया,तनसमधत माया,रोम रोम प्रतत वेद कहैं मम सो उर बासी,यह उपहासी,सन ु त र्ीर मतत धथर न रहै उपजा जब ग्याना,प्रभु मस् ु काना,चररत द्धवधर् कीन्ह चहै कदह कथा सह ु ाई,मातु बझ ु ाई,जेदह प्रकार सत ु प्रेम लहै * माता पतु न बोली,सो मतत डोली,तजहु तात यह रुपा कीजै सससल ु ीला,अतत द्धप्रयसीला, यह सख ु परम अनप ू ा

104 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


सतु न बचन सज ु ाना,रोदन ठाना ,होइ

बालक सरु भप ू ा

यह चररत जे गावदहं, हररपद पावदहं,ते न परदहं भव कूपा* दोहा-त्रबप्र र्ेनु सरु संत दहत, लीन्ह मनज ु

अवतार.

तनज इच्छा तनसमत तन,ु माया गन ु गो पार//१९२//बालकाण्ड// श्रीराम केवल दहन्दओ ु ं के ही “राम” नहीं है , वे अखखल द्धवश्व के प्राणाराम हैं. भगवान श्रीराम को केवल दहन्दज ू ातत की संपर्त्त मानना उनके गण ु ं को घटाना है , असीम को सीमाबध्द करना है . द्धवश्व-चरारर में आत्मरुपसे तनत्य रमण करनेवाले और स्वयं ही द्धवश्वचराचर नारायण ककसी एक दे ि या व्यर्तत की वस्तु कैसे हो सकते हैं ?.वे सबके हैं, सबमें हैं, सबके साथ सदा संयत ु त हैं और सवधमय हैं. जो कोई भी जीव उनकी आदिध मयाधदा-लीला-उनके पण् ध गान, श्रवन और अनक ु यचररि का श्रिापव ू क ु रण करता है , वह पद्धविहृदय होकर परम सख ु को प्राप्त कर सकता है . श्री राम के समान आदिध परु ु ि, आदिध र्माधत्मा, आदिध नरपतत, आदिध समि, आदिध भाई, आदिध पि ु , आदिध गरु ु , आदिध सिष्य, आदिध पतत, आदिध स्वामी, आदिध सेवक, आदिध वीर, आदिध दयाल,ु आदिध िरणागत-वत्सल, आदिध तपस्वी, आदिध सत्यवादी, आदिध दृढप्रततज्ञ तथा आदिध संयमी और कौन हुआ है ?. जगत के इततहास में श्रीरामकी तल ु ना में एक श्रीराम ही हैं. साक्षात परमपरु ु ि परमात्मा होने पर भी श्रीराम ने जीवों को सत्पथ पर आरुढ कराने के सलए ऎसी आदिध लीलाएूँ कीं, र्जनका अनक ु रण सभी लोग सख ध कर सकते हैं. उन्हीं हमारे श्रीरामजी का पण् ु पव ू क ु य जन्मददवस चैि ित ु ल नवमी है . इस सअ ु वसर पर सभी लोगों को, खासकर उनको, जो श्रीराम को साक्षात भगवान और अपने आदिध पव ध रु ू प ु ि के रुप में अवतररत मानते हैं, श्रीरामजीका पण् ु योत्सव मनाना चादहए. इस अवसर का प्रर्ान उद्देश्य होना चादहए श्रीरामजी को प्रसन्न करना और श्रीराम के आदिध गण ु ं का अपने में द्धवकास कर श्रीरामकृपा प्राप्त करने का अधर्कारी बनना. अतएव द्धविेि ध्यान श्रीरामजी के आदिध चररि के अनक ु रण पर ही रखना चादहए.

३२

होसलकोत्सव

यदद ककसी सवधसार्ारण या आमव्यर्तत से यह प्रश्न पछ ू ा जाए कक “होसलकोत्सव” तया होता है ? तो उसे जवाब दे ने में द्धवल ं म्ब नहीं लगेगा और वह तत्काल उत्तर भी दे दे गा. वह कह उठे गा-“ भाई मेरे 105 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


! यह भी कोई प्रश्न पछ ू ने जैसी बात है . होसलकोत्सव का माने हास-पररहास, व्यंग्य-द्धवनोद, मौज-मस्ती ही तो है . यहाूँ उसकी मौज-मस्ती के माने कुछ और ही है . मतलब जमकर निापत्ती की जाएगी. अश्लीलता का द्धपिाच इस ददन नंगा होकर नाचेगा. रही हास-पररहास, व्यंग्य-द्धवनोद की बात, तो आजकल वह कहीं पर भी पररलक्षक्षत नहीं होता. अब एक प्रश्न कफ़र उपर्स्थत होता है कक वास्तव में होसलकोत्सव है तया? इसे समझने के सलए हमें वैददक काल में झांकना होगा. हास-पररहास, व्यंग्य-द्धवनोद, मौज-मस्ती और सामार्जक सौहादध का प्रतीक “होसलकोत्सव” वास्तव में एक यज्ञ है , र्जसका मल ू स्वरुप आज लगभग द्धवस्मत ु ा है . इस आयोजन में प्रचसलत हूँसीृ हो चक दठठोली, गायन-वादन, हुडदं ग और कबीर इत्यादद के उद्भव और द्धवकास को समझने के सलए हमें उस वैददक सोमयज्ञ के मल ू स्वरुप को समझना पडॆगा, र्जसका अनष्ु ठान इस महापवध के मल ू में तनदहत है . वैददक काल में ”सोमलता” प्रचुरता से उपलब्द्र् हो जाती थी. इसका रस तनचोडकर उससे जो यज्ञ सम्पन्न ककए जाते थे, वे सोमयज्ञ कहे गए. यह सोमलता कालान्तर में लप्ु त हो गयी और इस तरह यह प्रद्धवधर् बंद हो गयी. ब्राह्मणग्रन्थों में इसके अनेक द्धवकल्प ददये गये हैं, र्जसमें “पत ू ीक” और अजन ुध वक्ष ृ मख् े में इसके छाल की ु य है . अजन ुध वक्ष ु द ृ को हृदय के सलए अत्यन्त िर्ततप्रद माना गया है . आयव हृदयरोगों के तनवारण के संदभध में द्धविेि प्रिंसा की गयी है .इनका रस “ सोमरस” इतना िर्ततवर्धक और उल्लासकारक होता था कक उसका पानकर वैददक ऋद्धियों को अमरता-जैसी आनन्द की अनभ ु तू त होती थी इन सोमयागों के तीन प्रमख ु भेद थे-एकाह-अहीन-और सियाग..अर्न्तम ददन में ककए जाने वाले व्रत को “महाव्रत”के नाम से जाना जाता था. महाव्रत के अनष्ु ठान के ददन विध भर यज्ञानष्ु ठान में ऋद्धिगण अपना मनोद्धवनोद करते थे. ऎसे आमोद-प्रमोदपण ू ध कृत्य र्जसका प्रयोजन आनन्द और उल्लास का वातावरण तनसमधत करना होता था, होलीकोत्सव इसी महाव्रत की परम्परा का संवाहक है . होली में जलायी जाने वाली आग यज्ञवेदी में तनदहत अर्ग्न का प्रतीक है ..यज्ञवेदी में गल ू र की टहनी गाडी जाती थी,तयोंकक गल ू र का फ़ल मार्ुयध गण ु की दृर्ष्ट से सवोपरर माना जाता है . यह फ़ल इतना मीठा होता है कक फ़ल पकते ही इसमें कीडॆ पडने लगते हैं. गल ू र का एक नाम और है-उदम् ु बरवक्ष ृ . इसकी टहनी सामगान की मर्ुमयता की प्रतीकात्मक असभव्यर्तत करती थी. इसके नीचे बैठकर वेदपाठी अपनी-अपनी िाखा के मन्िों का पाठ करते थे. सामवेद गायकों की चार श्रेखणयाूँ थी- उग्दाता-प्रस्तोता-प्रततहताध और सब्र ु ह्मण्य. यज्ञवेदी के चारों तरफ़ उदम् ु बर काष्ठ से बानी वेदी पर बैठकर गान ककया जाता था और जल से भरे घडॆ सलए हुए र्स्ियाूँ “इदम्मर्ु...इदम्मर्(ु यह मर्ु है ...मर्ुर है ) कहती हुईं यज्ञवेदी के चारों ओर नत्ृ य ककया करती थीं. 106 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


इस नत्ृ य के समानान्तर अन्य र्स्ियाूँ और परु ु ि वीणावादन करते थे. उस समय वीणाओं के अनेक प्रकार समलते थे. इनमें अपघादटला, काण्डमयी, द्धपच्छोदरा, बाण इत्यादद मख् ु य वीणाएूँ थीं. “िततंिी” नाम से द्धवददत होता है कक कुछ वीणाएूँ सौ-सौ तारों वाली भी थीं. इन्हीं िततन्िीका –जैसे वीणाओं से सन्तरू का द्धवकास हुआ. कल्पसि ू ों में महाव्रत के समय बजायी जाने वाली कुछ अन्य वीणाओं के नाम भी समलते हैं. ये हैं-अलाब,ु वक्रा( समतन्िीका-वेिवीणा),काद्धपिीष्र्णी, द्धपिीलवीणा (िप ु ाध) इत्यादद. िारदीय वीणा भी होती थी,र्जससे आगे चलकर आज के सरोद का द्धवकास हुआ. होली में हूँसी​ीँ-दठठोली का मल ू “असभगर-अपगर-संवाद”नामक ग्रंथ में समलता है . भािकारों के अनस ु ार “असभगर” ब्राह्मण का वाचक है और “अपगर” िर ू ों का. ये दोनो एक-दस ू रे पर आक्षेपप्रत्याक्षेप करते हुए हास-पररहास करते थे और द्धवसभन्न प्रकार की बोसलयाूँ बोलते थे. महाव्रत के ददन घर-घर में द्धवसभन्न प्रकार के स्वाददष्ट पकवान बनाए जाते थे. राष्ररक्षा के सलए

जनमानस को सजग बने रहने की सिक्षा दे ने के सलए इस अवसर पर यज्ञवेदी के चारों ओर िस्िर्ारीकवचर्ारी राजपरु ु ि तथा सैतनक पररक्रमा भी करते थे.

उत्सवों और पवों का आरम्भ अत्यन्त लघरु ु प में होता है , कफ़र उसमें तनरन्तर द्धवकास होता जाता है . सामार्जक अवश्यकताएूँ इनके द्धवकास में द्धविेि भसू मका का तनवधहन करती हैं. यही कारण है कक होली जो मल ू तः एक वैददक सोमयज्ञ के अनष्ु ठान से प्रारम्भ हुआ, आगे चलकर भतत प्रल्हाद और उसकी बआ होसलका के आख्यान से जुड गया. मदनोत्सव तथा वसन्तोत्सव का समावेि भी इसी क्रम में आया. ु र्मध, अथध, काम और मोक्ष एक परु ु िाथध के रुप में प्रततर्ष्ठत है और इसे वेदों ने भी स्वीकार ककया है . नत्ृ य- संगीत, हास-पररहास, व्यंग्य-द्धवनोद ,आनन्द-उल्लास इसी तत ु िाथध के नानाद्धवर् अंग ृ ीय परु हैं. होसलकोत्सव के रुप में दहन्द-ू समाज ने मनोरं जन को स्थान दे ने के सलए तत ु िाथध के स्वरुप और ृ ीय परु लोकोपयोगी स्वरुप को र्मध के आर्ार पर मान्यता प्रदान की है .

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३३….

सय ध ष्ठी-महोत्सव ू ि

सय ध ष्ठी प्रमख ू ि ु रुप से भगवान सय ू ध का व्रत है . इस पवध में आदददे व सय ू ध का द्धवधर्-द्धवर्ान से पज ू न ककया जाता है . परु ाण ं में ईश्वर के द्धवसभन्न रुपों की उपासना के सलए ततधथयों का तनर्ाधरण ककया गया है . जैसे भगवान गणेि की पज ू ा के सलए चतथ ु ी, श्री द्धवष्णु के सलए एकादिी आदद. इसी प्रकार सय ू ध की पज ध प्तमी, रथसप्तमी, अचलासप्तमी भी कहा ू ा-अचधना के सलए सप्तमी ततधथ मानी गई है . इसे सय ू स जाता है . ककं तु त्रबहार प्रान्त में इस व्रत के साथ िष्ठी ततधथ का समन्वय द्धविेि महत्व है . ब्रह्मवैवतधपरु ाण के प्रकृततखण्ड ( १/६) के अनस ु ार सर्ृ ष्ट की अधर्ष्ठािी प्रकृततदे वी स्वयं को पाूँच द्धवभागों में द्धवभतत करती है .,--दग ध म प्रकृतत ु ाध, रार्ा, लक्ष्मी ,सरस्वती और साद्धविी. ये पाूँच दे द्धवयाूँ पण ू त कहलाती है . इन्हीं प्रकृतत दे वी के अंि, कला, कलांि और कलांिांि भेद से अनेक रुप हैं, जो द्धवश्व की समस्त र्स्ियों में ददखायी दे ते हैं. त्रत्रगर् ु ात्मस्वरूपा या सवयशजक्तसमजन्वता/ प्रिानसजृ ष्टकिर्े प्रकृततस्तेन कथ्यते. माकधण्डॆयपरु ाण का भी यही उद्घोि है- “जस्त्रयः समस्ताः सकला जगत्स”ु . प्रकृततदे वी के एक प्रर्ान अंिको “दे वसेना” कहते हैं, जो सबसे श्रेष्ठ मातक ृ ा मानी जाती है . ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षक्षता दे वी है . प्रकृतत का छठा अंि होने के कारण इस दे वी का एक नाम “ष ष ष ष ष ” भी है . षष्ठांशा प्रकृतेयाय च सा च षष्ठी प्रकीततयता * बालकाथिष्ठातद ृ े वी पवष्र्ुमाया च बालदा आयःु प्रदा च बालानां िात्री िक्षर्कारिर्ी * सततं मशशप ु ाश्वयस्था योगेन मसपियोथगनी 108 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


ब्रह्मवैवतधपरु ाण, प्रकृततखण्ड (४३/४,६) के इस श्लोकों से ज्ञात होता है कक द्धवष्णुमाया िष्ठीदे वी बालकों की रक्षक्षका एवं आयप्र ु दा हैं. िष्ठीदे वी के पज ू न का प्रचार पथ् ु हुआ, इस संदभध में एक कथा परु ाण में आती ृ वी पर कब से िरु है .---“प्रथम मन”ु स्वायम्भव ु के पि ु द्धप्रयव्रत की कोई संतान नहीं थी. एक बार महाराज ने अपना दख ु महद्धिध कश्यप से व्यतत ककया और पि ु प्रार्प्त के सलए उपाय पछ ू ा. महद्धिध ने महाराज को पि ु र्े ष्टयज्ञ करने का परामिध ददया. यज्ञ के फ़लस्वरुप महाराज की मासलनी नामक महारानी ने एक पि ु को जन्म ददया, ककं तु वह सि​िु मत ु हुआ. वे मत ृ था. महाराज द्धप्रयव्रत को अत्यन्त दख ृ सि​िु को अपने वक्ष से लगाये उन्मत्तों की भाूँतत प्रलाप कर रहे थे. सारे पररजन ककं मकत्तधव्यद्धवमढ ू खडॆ थे. तभी एक आश्चयधजनक घटना घटी. सभी ने दे खा कक आकाि से एक ज्योततमधय द्धवमान पथ् ृ वी की ओर आ रहा है . द्धवमान के समीप आने पर र्स्थतत और स्पष्ट हुई, उस द्धवमान में एक ददव्याकृतत नारी बैठी हुई थी. राजा के द्वारा यथोधचत स्ततु त करने पर दे वी ने कहा--- मैं ब्रह्मा की मानसपि ु ी षष्ठीदे वी हू​ूँ. मैं द्धवश्व के समस्त बालकों की रक्षक्षका हू​ूँ एवं अपि ु ों को पि ु प्रदान करती हू​ूँ---“पत्र ु दा S हम अपत्र ु ाय”. इतना कहकर दे वी ने सि​िु की मत ु को जीद्धवत ृ दे ह का स्पिध ककया, र्जससे वह बालक जीद्धवत हो उठा. महाराज ने अपने पि पा अनेकानेक प्रकार से दे वी की स्ततु त की. दे वी ने प्रसन्न होकर राजा से कहा कक तम ु ऎसी व्यवस्था करो, र्जससे पथ् ू ा करें . इतना कहकर दे वी अन्तर्ाधन हो गयीं. तदनन्तर राजा ने ृ वी पर सभी हमारी पज बडी प्रसन्नतापव ध दे वी की आज्ञा को सिरोर्ायध ककया और अपने राज्य में “प्रततमास के ित ू क ु लपक्ष की िष्ठी ततधथ को षष्ठी-महोत्सव के रुप में मनाया जाय” ऎसी राजाज्ञा प्रसाररत करायी. तभी से लोक में बालकों के जन्म, नामकरण, अन्नप्रािन आदद सभी िभ ु ावसरों पर िष्ठी-पज ू न प्रचसलत हुआ. इस पौराखणक प्रसंग से यह पण ध या स्पष्ट होता है कक िष्ठी सि​िओ ू त ु ं के संरक्षक एवं संवर्धन से सम्बर्न्र्त दे वी है तथा इनकी द्धविेि पज ू ा िष्ठी ततधथ को होती है , वह चाहे बच्चों के जन्मोपरान्त छटा ददन हो या प्रत्येक चान्रमास के ित ु लपक्ष की िष्ठी. परु ाण ं के इन्हीं दे वी का एक नाम “ कात्यायनी” भी समलता है , र्जनकी पज े य में मीठे चावल का ू ा नवराि में िष्ठी ततधथ को होती है . इसमे दे वी के नैवद् होना अतनवायध है . आज भी सि​िु के जन्म से छटॆ ददन िष्ठी-पज ू न बडॆ र्ूमघाम से लोकगीत (सोहर), वाध्य तथा पकवानों के साथ मनाने का प्रचलन है . प्रसत ू ा को प्रथम स्नान भी इसी ददन कराने की परम्परा है . ब्रह्मवैवतधपरु ाण में वखणधत इस आख्यान से िष्ठीदे वी का माहात्म्य, पज ू न-द्धवधर् एवं पथ् ृ वी पर इसकी पज ू ा का प्रसार आदद द्धवियों का सम्यक ज्ञान होता है , ककं तु सय ू ध के साथ िष्ठीदे वी के पज ू न का द्धवर्ान तथा “सय ध ष्ठी” नाम से पवध के रूप में इसकी ख्यातत कब से हुई ? यह द्धवचारणीय द्धविय है . ू ि 109 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भद्धवष्यपरु ाण में प्रततमास के ततधथ-व्रतों के साथ िष्ठीव्रत का भी उल्लेख समलता है . यहाूँ काततधकमास के ित ु लपक्ष की िष्ठी का उल्लेख स्कन्द-िष्ठी के नाम से ककया गया है . ककं तु इस व्रत के द्धवर्ान में प्रचसलत सय ध ष्ठी-व्रत के द्धवर्ान में पयाधप्त अन्तर है . मैधथल “विधकृत्यद्धवधर्” में “प्रततहारू ि िष्ठी” के नाम से त्रबहार में प्रससि “सय ध ष्ठीव्रत” की चचाध की गयी है . इस ग्रन्थ में व्रत, पज ू ि ू ा की परू ी द्धवधर्, कथा तथा फ़लश्रुतत के साथ ही ततधथयों के क्षय एवं वद्धृ ि की दिा में कौन-सी िष्ठी ततधथ ग्राह्य है , इस द्धविय पर भी र्मधिास्िीय दृर्ष्ट से चचाध की गयी है और अनेक प्रामाखणक स्मतृ त-ग्रन्थों से पष्ु कल प्रमाण भी ददए गए हैं. कथा के अन्त में “ इतत श्रीस्कन्दपिु ार्ॊक्तप्रततहािषष्ठीव्रतकथा समातता” सलखा है . इससे ज्ञात होता है “स्कन्दपरु ाण” के ककसी संस्करण में इस व्रत का उल्लेख अवश्य हुआ होगा. अतः इस व्रत की प्राचीनता एवं प्रामाखणकता भी पररलक्षक्षत होती है ,. प्रततहार का अथध होता है —जाद ू या चमत्कार अथाधत चमत्काररक रुप से अभीष्ट ं को प्रदान करने वाला व्रत. षष्ठीव्रत कथा—नैसमिारण्य में िौनकादद मतु नयों के पछ ध ष्ठी ू ने पर श्रीसत ू जी लोककल्याणाथध सय ू ि व्रत का महात्मय, द्धवधर् तथा कथा का उपदे ि करते हैं. इस कथा के अनस ु ार राजा कुष्ठरोग से ग्रससत एवं राज्यद्धवहीन है , वे द्धवद्वान ब्राह्मण के आदे िानस ु ार इस व्रत को करता हैं और फ़लस्वरुप रोग से मर्ु तत पाकर राज्यारुढ एवं समि ु ार राजा सगर की कथा का उल्लेख ृ हो जाता हैं. स्कन्दपरु ाण के कथानस समलता है . सगर ने एक बार पंचमीयत ध ष्ठी-व्रत को ककया था, र्जसके फ़लस्वरुप कद्धपलमतु न के ु त सय ू ि िाप से सभी पौिों का द्धवनाि हो जाता है . इस दृष्टांत से इस व्रत की प्राचीनता ससि होती है . व्रत की द्धवधर् में बतलाया गया है कक व्रती को काततधकमास के ित ु लपक्ष में सार्त्त्वक रूप से रहना चादहए. पंचमी को एक बार भोजन करना चादहए. उसे वातयसंयम रहना चादहए. तनराहार रहकार उसे फ़ल-पष्ु प, घत ृ पतव वैवेद्य आदद सामग्री लेकर नदी के तट पर जाकर गीत-वाद्य आदद से हिोल्लासपव ध महोत्सव मनाना ू क चादहए तथा भगवान सय ध उन्हें रततचन्दन तथा रततपष्ु प-अक्षतयत ू ध का पज ू न कर भर्ततपव ू क ु त अध्यध दे कर तनवेदन करना चादहए. इस व्रत का सवाधधर्क प्रचार त्रबहार राज्य में ददखायी पडता है . संभव है , इसका आरम्भ भी यहीं से हुआ हो और अब तो त्रबहार के अततररतत अन्य क्षेिों में भी इसका व्यापक प्रसार हो गया है . इस व्रत को सभी लोग अत्यन्त भर्तत-भाव, श्रिा एवं उल्लास से मनाते हैं. सय ू ाधध्यध के बाद व्रततयों के पैर छूने और गीले वस्ि र्ोनेवालों में प्रततस्पर्ाध दे खते ही बनती है , इस व्रत में प्रसाद माूँगकर खाने का द्धवर्ान है . सय ू ष्ध ष्ठी-व्रत के प्रसाद में ऋत-ु फ़ल के अततररतत आटे और गड ु से ि​ि ु घी में बने “ठे कुआ” का होना अतनवायध है . ठे कुआ पर लकडी के साूँचें से सय ध गवान के रथ का चक्र अंककत करना आवश्यक माना ू भ जाता है . िष्ठी के ददन समीपस्थ ककसी पद्धवि नदी या जलािय के तट पर मध्यान्ह से ही भीड एकि 110 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


होने लगती है . सभी व्रती मदहलाएूँ नवीन वस्ि एवं आभि ू णाददकों से सस ु र्ज्जत होकर फ़ल, समष्ठान्न और पकवानों से भरे हुए नए बाूँस से तनसमधत सप ू और दौरी( डसलया) लेकर िष्ठीमाता और भगवान सय ू ध के लोकगीत गाती हुई अपने-अपने घरों से तनकलती हैं. भगवान सय ू ध के अध्यध का सप ू और डसलया ढोने का भी बडा महत्व है . यह कायध पतत, पि ु या घर का कोई सदस्य ही करता है . घर से घाट तक लोकगीतों का क्रम भी चलता रहता है . यह क्रम तब तक चलता है जब तक भगवान भास्कर सायंकालीन अध्यध स्वीकार कर अस्ताचल को न चले जायूँ. सप ू ों और डसलयों पर जगमगाते हुए घी के दीपक गंगा-तट पर बहुत ही आकिधक लगते हैं. पन ु ः ब्राह्ममह ु ू तध में ही नत ू न अध्यध सामग्री के साथ सभी व्रती जल में खडॆ होकार हाथ जोडकर भगवान भास्कर के उदयाचलारूढ होने की प्रतीक्षा करते हैं. जैसे ही क्षक्षततज पर अरुखणमा ददखायी दे ती है वैसे ही मन्िों के साथ भगवान साद्धवता को अध्यध समद्धपधत ककये जाते है . यह व्रत द्धवसजधन, ब्राह्मण-दक्षक्षणा एवं पारणा के

पश्चात पण ू ध होता है . सय ध ष्ठी-व्रत के अवसर पर सायंकालीन प्रथम अध्यध से पव ू ि ू ध समटी ी की प्रततमा बनाकर िष्ठीदे वी का आवाहन एवं पज ू न करते हैं. पन ु ः प्रातः अध्यध के पव ू ध िष्ठीदे वी का पज ू न कर द्धवसजधन कर दे ते हैं. मान्यता है कक पंचमी के सायंकाल से ही घर में भगवती िष्ठी का आगमन हो जाता है . इस प्रकार सय ू ध भगवान के इस पावन व्रत में िर्तत और ब्रह्म दोनों की उपासना का फ़ल एक साथ प्राप्त होता है . इसीसलए लोक में यह पवध “सय य ष्ठी” के नाम से द्धवख्यात है . ू ष सांसाररक जनों की तीन एिणाएूँ प्रससि है—पि ै णा, द्धवत्तैिणा तथा लोकैिणा. भगवान सद्धवता ु ि प्रत्यक्ष दे वता हैं, वे समस्त अभीष्ठों को प्रदान करने में समथध हैं—“ककं ककं न सपवता सत ू .े ” समस्त कामनाओं की पतू तध तो भगवान सद्धवता से हो जाती है , ककं तु वात्सल्य का महत्व माता से अधर्क और कौन जान सकता है ?. परब्रह्म की िर्ततस्वरूपा प्रकृतत और उन्हीं के प्रमख ु अंि से आद्धवभत ूध ा दे वी िष्ठी, संततत प्रदान करने के सलए ही मख् ु यतया अधर्कृत हैं. अतः पि ु की कामना भगवती िष्ठीदे वी से करना अधर्क तकधसंगत प्रतीत होता है .

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सय ध ष्ठी के पन ू ि ु ीत पवध पर त्रबहार में मदहलाओं द्वारा गाये जाने वाले लोकगीत में भी दे खने को समलते हैं. काहे लागी पज य जन्दि) हे ू ेलू तह ु ूं दे वलि​िवा (सय ू म काहे लागी, कि ह छठी के बिततया हे , काहे लागी अन-िन सोनवा लागी पज ू ी दे वलि​िवा हे , पत्र ु लागी, किीं हम छठी के बिततया हे , पत्र ु लागी” इस गीत में समस्त वैभवों की कामना तो भगवान भास्कर से की गयी है , ककं तु पि ु की कामना भगवती िष्ठी से ही की जा रही है . इस परु ाणसम्मत तथ्यों को हमारी ग्रामीण सार्ु मदहलाओं ने गीतों में द्धपरोंकर अक्षुण्य रखा है . सद्धवता और िष्ठी दोनों की एक साथ उपासना से अनेक वांतछत फ़लों को प्रदान करने वाला यह सय ध ष्ठी-व्रत वास्तव में बहुत महत्वपण ू ि ू ध है .

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पवनपि ु श्री हनम ु ानजी

अतसु लतबलर्ामं हे मिैलाभदे हं, दानज ु वनकृिानुं ज्ञातननामाग्रगण्यम सकलगण ु तनर्ानं वानरानामर्ीिं,रघप ु तत द्धप्रय भततं वातजातं नमामी ----------------------------------------------------------------अततबलिाली,पवधताकारदे ह, दानव-वन को ध्वंस करने वाले, ज्ञातनयों में अग्रणी, सकलगण ु ों के र्ाम,,वानर ं के स्वामी, श्री रघन ु ाथजी के द्धप्रय भतत,पवनसत ु श्री हनम ु ानजी को मैं प्रणाम करता हू​ूँ ----------------------------------------------------------------------------------------------------बडा ही रोचक प्रसंग है .भगवान सय ू ध के वरदान से र्जसका स्वरुप सव ु णधमय हो गया है ,ऎसा एक सम ु ेरु नाम से प्रससि पवधत है ,जहाूँ श्री केसरी राज्य करते हैं. उनकी अंजना नाम से सद्धु वख्यात द्धप्रयतमा पर्त्न के गभध से श्री हनम ु ानजी का जन्म हुआ. सय य त्तविस्वर्यः सम ू द ु ेरुनायम पवयतः*यत्र िाज्यं प्रशास्त्यस्य केसिी नाम वै पपता तस्य भायाय बभव ू ेष्टा अजंनते त परिश्रत ु ा*जनयामास तस्यां वायिु ात्मजमत्ु तमम (वार्ल्मक.रा.उत्तर.पंचत्रि​िंसगध.श्लोक.१९-२०) एक ददन माता अजंना फ़ल लाने के सलए आश्रम से तनकलीं और गहन वन में चली गयीं. बालक हनम ध े व उददत होते ददखायी ददये. ु ान को भख ू लगी. तभी उन्हें जपाकुसम ु के समान लाल रं गवाले सय ू द उन्होंने उसे कोई फ़ल समझा और वे झूले से फ़ल के लोभ में उछल पडॆ. उसी ददन राहु सय ध े व पर ग्रहण ू द लगाना चाहता था. हनम ु ानजी ने सय ू ध के रथ के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पिध ककया तो राहु वहां से भाग खडा हुआ और इन्र से जाकर सिकायत करने लगा. हनम ु ानजी ने सय ू ध को तनगल सलया. संपण ू ध संसार में अन्र्कार का साम्राज्य छा गया. क्रोधर्त इन्र ने अपने वर स से हनम ु ान पर प्रहार ककया. इन्र के व्रज के प्रहार से अचेत हनम ु ान नीचे की ओर धगरने लगे. द्धपता पवनदे व ने उन्हें संभाला और घर ले आए. क्रोधर्त पवनदे व ने अपनी गतत समेट ली, र्जससे समस्त प्राखणयों की साूँसे बंद होने लगी. दे खते

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ही दे खते सारे संसार का चक्र त्रबगड गया. घबराए इन्र ने ब्रह्माजी की िरण ली और इससे बचने का उपाय खोजने की प्राथधना की. तत्पश्चात चतम ु ख ुध ब्रह्माजी ने समस्त दे वत्ताओं, गन्र्वों, ॠद्धियों, यक्षों सदहत वहाूँ पहुूँचकर वायद ु े वता के गोद में सोये हुए पि ु को दे खा और सि​िु पर हाथ फ़ेरा. तत्काल बालक के िरीर में हलचल होने लगी. उन्होंने उस बालक से अनरु ोर् ककया कक वह अपना मख ध े व को छ ड दें . बालक ु खोलकर सय ू द के मूँह ध े व आकािमण्डल पर कफ़र चमचमाने लगे. संसार कफ़र अपनी गतत पर चलने लगा. ु खुलते ही सय ू द कफ़र ब्रह्माजी ने समस्त दे वताओं से कहा;_ “ इस बालक के द्वारा भद्धवष्य में आप लोगों के बहुत-से कायध ससि होंगे, अतःवायद ु े वता की प्रसन्न्ता के सलए आप इसे वर दें . इन्र ने अपने गले में पडी कमल के फ़ूलों की माला डालते हुए कहा:- मेरे हाथ से छूटॆ हुए व्रज के द्वारा इस बालक की “हन”ु (ठुड्डी) टूट गयी थी, इससलए इस कद्धपश्रेष्ठ का नाम “हनम ु ान” होगा. इसके अलावा मैं दस ू रा वर यह दे ता हू​ूँ कक आज से यह मेरे वर स के द्वारा भी नहीं मारा जा सकेगा. सय ध े व ने वर दे ते हुए कहा:-“मैं इसे अपने तेज का सौवाूँ भाग दे ता हू​ूँ. इसके अलावा जब इसमें ू द िास्िाध्ययन करने की िर्तत आ जायगी, तब मैं इसे िास्तों का ज्ञान प्रदान करुूँ गा, र्जससे यह अच्छा वतता होगा. िास्िज्ञान में कोई भी इसकी समानता करने वाला न होगा.” वरुण दे वता ने वर दे ते हुए कहा:-“दस लाख विॊं की आयु हो जाने पर भी मेरे पाि और जल से इस बालक की मत्ृ यु नहीं होगी”. यमराज ने वर दे ते हुए कहा;-“ यह मेरे दण्ड से अवध्य और नीरोग होगा.”. कुबेर ने वर दे ते हुए कहा:-“मैं संतष्ु ट होकर यह वर दे ता हू​ूँ कक यि ु में कभी इसे द्धविाद नहीं होगा तथा मेरी यह गदा संग्राम में इसका वर् न कर सकेगी”. भगवान िंकर ने वर दे ते हुए कहा:_” यह मेरे और मेरे आयर् ु ों के द्वारा भी अवध्य रहे गा. सिर्ल्पयों में श्रेष्ठ परम बद्धु िमान द्धवश्वकमाध ने बालसय ू ध के समान अरुण कार्न्तवाले उस सि​िु को वर ददया “मेरे बनाए हुए र्जतने भी ददव्य अस्ि-िस्ि हैं,उनसे अवध्य होकर यह बालक धचरं जीवी होगा.” चतम ु ख ुध ब्रह्मा ने वर दे ते हुए कहा:-“यह दीघाधय,ु महात्मा तथा सब प्रकार से ब्रहदण्ड ं से अवध्य होगा तथा ि​िओ ु ं के सलए भयंकर और समिों के सलए अभयदाता होगा. यि ु में कोई इसे जीत नहीं सकेगा. यह इच्छानस ु ार रूप र्ारण कर सकेगा, जहाूँ जाना चाहे जा सकेगा. इसकी गतत इच्छा के अनस ु ार तीव्र या

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मन्द होगी तथा वह कहीं भी रुक नहीं सकेगी. यह कद्धपश्रेष्ठ बडा यिस्वी होगा. यह यि ु स्थल में रावण का संहार करने और भगवान श्रीरामचन्रजी के प्रसन्न्ता का सम्पादन करने वाले अनेक अद्भत ु एवं रोमांचकारी कमध करे गा.

( वार्ल्मक रामा.श्लोक ११ से

२५) इस ् प्रकार से हनम ु ानजी बहुत-से वर पाकर वरदानजतनत िर्तत से सम्पन्न और तनभधय हो ऋद्धि-मतु नयों के आश्रमों में जाकर उपरव करने लगे. कभी वे यज्ञोपयोगी पाि फ़ोड दे त,े उनके वत्कलों को चीर-फ़ाड दे त.े इनकी िर्तत से पररधचत ऋद्धिगण चप ु चाप सारे अपरार् सह लेत.े भग ृ ु और अंधगरा के वंि से उत्पन्न हुए महद्धिध कुद्धपत हो उठे और उन्हें िाप ददया कक वे अपनी समस्त िर्ततयाूँ भल ू जाएंगे और जब कोई उन्हें उनकी िर्ततयों का स्मरण ददलाएंगे, तभी इसका बल बढे गा. समर े और ु तट पर नल- नील- अंगद, गज, गवाक्ष, गवय,िरभ, गन्र्मादन, मैन्द, द्द्धवद्धवद, सि ु ण जाम्बवान बैठे द्धवचार कर रहे थे कक इस सौ योजन समर ु को कैसे पार ककया जाए?. सभी अपनी-अपनी सीसमत िर्ततयों का बखान कर रहे थे और समर ु से उस पार जाने में अपने आपको असमथध बतला रहे थे. इस समय हनम ु ान एक दरू ी बनाकर चुपचाप बैठे थे. तब वानरों और भालओ ू ं के वीर यथ ू पतत जाम्बवान ने वानरश्रेष्ठ हनम ु ानजी से कहा कक वे दरू तक की छलांग लगाने में सवधश्रेष्ठ हैं. उन्होंने द्धवस्तार के साथ द्धपछली सारी घटनाओं की जानकारी उन्हें दी. अपनी िर्ततयों का स्मरण आते ही वीर उठ खडॆ हुए और अपने साधथयों को आश्वस्त ककया कक वे सीताजी का पता लगाकर तनश्चय ही लौटें गे.

एवमक् ु तवा तु हनम ु ान वानिो वानिोत्तमः उत्पपाताथ वेगेन वेगवानपवचाियन सप ु र्यममव चात्मानं मेने स कपपकंु जिः (वाल्मीक रामा.सन् ु दरकाण्ड सगध १-४३-४४) ऎसा कहकर वेगिाली वानरप्रवर श्री हनम ु ानजी ने ककसी भी द्धवघ्नबार्ाओं का ध्यान न करके, बडॆ वेग से छलांग मारी और आकाि में उड चले. सभी इस बात से भली-भांतत पररधचत ही हैं कक श्री हनम ु ानजी ने ककस तरह रास्ते में पडने वाली समस्त बार्ाओं को अपने बल और बद्धु ि के बल पर पार ककया और लंका जा पहुूँचे. वहाूँ उन्होंने कौनकौन से अद्भत ु ानजी को माूँ ु पराक्रम ककए, इसे सभी पाठक भली-भांतत जानते हैं .ग्यारवें रुर श्री हनम सीताजी ने अमरता का वरदान दे ते हुए कहा था...

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अष्ट मसपि नवतनथि के दाता* अस वि ददन्ह जानकी माता. वे अष्ट ससद्धियाूँ और नौ तनधर्याूँ तया हैं,इसके बारे में संक्षक्षप्त में जानकाररयाूँ लेते चलें अष्ट मसपिया​ाँ इस प्रकाि हैं---अणर्मा, मदहमा, गरिमा, लतिमा, प्राजतत, प्राकाम्य, ईमशता तथा वमशता. अणर्मा मसपि=

इससे ससिपरु ु ि छोटे -से छोटा रुप र्ारण कर सकता है

लतिमा मसपि=

सार्क अपने िरीर का चाहे र्जतना द्धवस्तार कर सकता है .

मदहमा मसिी=

कोई भी कदठन काम आसानी से कर सकता है

गरिमा=

इस ससद्धि में गरु ु त्व की प्रार्प्त होती है .सार्क र्जतना चाहे वजन बढा सकता है .

=

प्राजतत=

हर कायध को अकेला ही कर सकता है ..

प्राकाम्य=

इसमें सार्क की सभी मनोकामनाएं पण ू ध होती हैं.

वमशत्व=

सार्क सभी को अपने वि में कर सकता है .

इमशत्व

सार्क को ऎश्वयध और ईश्वरत्व प्राप्त होता है . हनम ु ानजी को ऎश्वयध और ईश्वरत्व प्राप्त

है ,

यही वजह है कक छोटे से छोटे गाूँव से लेकर महानगरों तक उनके मर्न्दर दे खे

जा

सकते हैं.जहाूँ असंख्य संख्या में भततगण श्री हनम ु ानजी की पज ू ा-अचधना करते

हैं और

अपने कष्ट ं के तनवारण के प्राथधना करते हैं और दःु खों से छुटकारा पाते हैं

नौ तनथिया​ाँ=

शंख, मकि, कच्छ, मक ु ंु द, कंु द, नील, पद्म औि महापद्म

महद्धिध वार्ल्मक ने श्रीरामभतत हनम ु ान के बल और पराक्रम को लेकर सन् ु दरकाण्ड की रचना की. इन्होंने अडसठ सगों तथा र्जसमें दो हजार आठ सौ बासठ श्लोक हैं भतत सिरोमणी श्री तल ु सीदासजी ने सन्ु दरकाण्ड मे एक श्लोक,,साठ दोहे ,ततहत्तर चौपाइयां और छः छं द की रचना की. सन् ु दरकाण्ड अन्य काण्ड ं से सन् ु दर इससलए कहा गया है कक इसमें वीर सिरोमणी श्री हनम ु ानजी के अतसु लत पराक्रम, िौयध, बद्धु िमता आदद का बडा ही रोचक वणधन ककया गया है . संत श्री तल ु सीदासजी ने तनम्न सलखखत ग्रंथ ं की रचनाएूँ की. वे इस प्रकार हैं. श्रीिामचरितमानस/िामललानहछू/वैिाग्यसंदीपनी/बिवैिामायर्/पावयतीमंगल/जानकीमंगल/िामाज्ञाप्रश्न/ 116 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


दोहावली/कपवतावली/गीतावली/श्रीकृष्र्-गीतावली/पवनय-पत्रत्रका/सतसई/छं दावली िामायर्/पवनय पत्रत्रका//सतसई/छं दावली िामायर्/कंु डमलया िामायर्/िाम शलाका/संकट मोचन/किवा िामायर्/िोला िामायर्/झूलना/छतपय िामायर्/कपवत्त िामायर्/कमलिमायिमय तनरूपर् तथा हनम ु ान चालीसा आदद ग्रंथ की रचनाकर श्रीरामजी सदहत हनम ु ानजी की अमरगाथा को जन-जन तक पहुूँचाया. हम सभी भली-भांतत जानते हैं कक ककस तरह अपनी पर्त्न का उलाहना सन ु कर तल ु सीदास जी श्रीराम के दास बने और उन्होंने अपना संपण ू ध जीवन उन्हें समद्धपधत कर ददया. कािी में रहते हुए उनके भीतर कद्धवत्व-िर्तत का प्रस्फ़ुरण हुआ और वे संस्कृत में काव्य-रचना करने लगे वे जो भी रचना सलखते रात्रि में सब लप्ु त हो जाती थी. यह क्रम सात ददनों तक चलता रहा. आठवें ददन स्वयं भगवान सिवजी –पावधतीजी के सदहत आकर तल ु सीदासजी के स्वपन में आदे ि ददया कक तम ु अयोध्या में जाकर रह और अपनी भािा में काव्य रचना करो. मेरे आिीवाधद से तम् ु हारी कद्धवता सामवेद के समान फ़लवती होगी. िायद आप लोग ने अनभ ु व ककया अथवा नहीं यह मैं नहीं जानता लेककन इतना दावे के साथ तो कह ही सकता हू​ूँ कक रामायण की अनेक चौपाइयाूँ, हनम ु ान चालीसा की अनेक पंर्ततयाूँ िाबर मंिों की तरह चमत्कारी है तथा इनके द्धवधर्द्धवर्ान से जाप करने पर तत्काल फ़ल की प्रार्प्त होती है ,तयोंकक श्री हनम ु ानजी एकमाि ऎसे दे वता हैं जो अपने भततों पर सदहत ही प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी सभी कामनाओं क परू ा करते हैं. यदद ककसी को भत ू -द्धपिाच का डर सताता हो तो वह * भत ू द्धपिाच तनकट नहीं आवै* महाबीर जब नाम सन ु ावै“”,रोगों से मर्ु तत पाने के सलए “नासै रोग हरै सब पीरा* जपत तनंतर हनम ु त बीरा, संकट से उबरने के सलए “संकट ते हनम ु ान छुडावै*मन क्रम बचन ध्यान जो लावै””संकट कटै समटै सब पीरा*जो ससु मरै हनम ु त बलबीरा, “कौन सो संकट मोर गरीब को,*जो तम ु सों नदहं जात है टारो*बेधग हरो हनम ु ान महाप्रभ,ु जो कछु संकट होय हमारो”,भत ू प्रेत द्धपिाच तनिाचर*अर्ग्न बेताल काल मारी मर*इन्हें मारु तोदह िपथ राम की*राखु नाथ मरजाद नाम की”, आदद-आदद इसी तरह श्रीरामिलाका प्रश्नावली के अनस ु ार आप अपने मन में उमड-घम ु ड रही िंकाओं का तत्काल तनदानकर सकते हैं. वैसे तो संपण ू ध रामायण ही अद्भत ु है , इसकी हर चौपाई िाबर मंिों की तरह काम करती हैं तथा तत्काल सारे सकल मनोरथ पण ू ध करने करती है . यही कारण है कक भारत के घर-घर में तनत्य रामायण का पाठ होता है , ककन्ही-ककन्ही घरों में अखण्ड पाठ भी चलता रहता है . श्रीरामचन्रजी से प्रथम भेंट के बाद से लेकर रामराज्य की स्थापना और बाद के अनेकानेक प्रसंगों को पढ-सन ु कर हृदय में अपार प्रसन्नता तो होती ही है , साथ में हमें सदकमों को करने की प्रेरणा भी समलती है . श्रीमदहनम ु ानजी की र्जतनी भी स्ततु त की जाए, कम ही प्रतीत होती है . श्री हनम ु ानजी के व्यर्ततत्व को पहचानने के सलए यह भी आवश्यक है कक हम उनके चररि की 117 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


मानवी भसू मका के महत्व को समझें. यदद हम यह द्धवश्वास करते हों कक श्रीराम के रुप में स्वयं भगवान श्री द्धवष्णु और मरुत्पि ु के रुप में स्वयं सिव अवताररत हुए थे, तब भी हमको यह समझना चादहए कक दै वी-िर्ततयाूँ दो उद्देश्य से अवतररत होती हैं. इन उद्देश्यों की सच ू ना गीता द्वारा भी हमें प्राप्त होती है . इन उद्देश्यों मे पहला उद्देश्य है -र्मधसस् ं थापना और दस ू रा है दष्ु टसंहार. इनमें भी ध्यान दे ने की बात यह है कक दष्ू टसंहार को पहला स्थान प्राप्त नहीं है . पहला स्थान र्मधसस् ं थापन को ददया गया है . र्मधसस् ं थापन के सलए जब भगवान और दे वता मनष्ु य समाज में अवतररत होते हैं, तब ठीक वैसा ही आचरण करते हैं,जो र्माधकूल और मनष्ु यों जैसा ही हो. भगवान श्रीराम और रामसेवक हनम ु ान यावज्जीवन संहारकमध के ही व्यस्त नहीं रहें . वे समाज के र्मध संस्थापन के कायध में अग्रणी बनकर, जीवन भर उसका नेतत्ृ व करते रहे और जब आवश्यक हो गया, तभी उन्होंने िस्िों का उपयोग ककया. इससलए यह आवश्यक है कक हम हनम ं थाना ु च्चररि की मानवीय भसू मका को अपने जीवन में उतारें और यग ु -यग ु में व्याप्त र्मधसस् के कायों में सहयोगी बनें एवं भारत का नाम रौिन करें .

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ह ली के रं ग--दे ि से परदे ि तक होली हमारी सांस्कृततक- भावनात्मक एकता का प्रतीक है . ऋतरु ाज वसन्त के आगमन से, जब

समग्र प्रकृतत आनन्द से सराबोर होकर, राग-रं ग में मगन हो उठती है और जब वनस्पतत नए-नए पल्लवपररर्ानों के पष्ु पों से अपना िग ंृ ार करती है तथा मंद-मंद मलय समीर के मद ृ ु स्पिध से रोमांधचत होकर मस्ती मे झूमने लगती है, तब राग-रं र्जत सर्ृ ष्ट के समस्त प्राणी, उस नई भंधगमा में प्रकट होने वाली सौंदयध प्रकृतत-नटी के प्रफ़ुल्ल यौवन के आकिधण में बंर्कर गन ु गन ु ाने लगता है , तब मनष्ु य कैसे अछुता रह सकता है .? एक अव्यतत संगीत झंकृत होने लगता है . मर्ु तत के इस उत्सव में , उसकी सारी सीमाएं 118 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


टूट जाती है . वगध भेद,-जाततभेद से परे , मानवीय एकता और प्रेम की असभव्यर्तत का यह पवध, सबको रं ग-गल ु ाल में डूब जाता है . सग ं से बौराया पवन, मंद-मंद बहने लगता है और सारी सर्ृ ष्ट पल ु र् ु ककत होकर उल्लास, नई उमंग और उत्साह में झम ू उठती है . नगर में , गाूँव-गाूँव में , डगर-डगर पर मस्ती की र्म ू मचाता हुआ, रं गों की द्धपचकारी सलए अलबेला फ़ागन ु तनकल पडा है होली खेलने. कहीं उिा, ददन के माथे पर र ली लगा रही है , तो कहीं आकाि में संध्या, तनिा के ऊपर गल ु ाल और ससतारे बरसा रही है . बडी मर्रु और प्रेम-सौहारध की भावनाओं की प्रतीक है होली. रं गों की सतरं गी दतु नया के बीच मानवता की अनठ ू ी झलक ददखाई दे ती है इस ददन. भारत की इस सम्मोहक परं परा को, अन्य दे िों में भी, अपने-अपने ढं ग से सहजने की कोसि​ि की है . इसके नाम भी अलग-अलग दे िों में अलग-अलग हो गए हैं, परं तु उल्लास की मल ू भावना एक समान है . प्राचीन रोम में “साटर ने सलया” के नाम से होली की ही भाूँतत एक उत्सव मनाया जाता है . इसे अप्रैल माह में परू े सात ददनों तक मनाया जाता है . रोम में “रे डडका” नाम से एक त्योहार माह मई में मनाया जाता है . इसमें ककसी ऊूँचे स्थान पर काफ़ी लकडडयाूँ इकठ्ठी कर ली जाती है और उन्हें जलाया जाता है . इसके बाद लोग झूम-झूमकर नाचते-गाते हैं एवं खुसियां मनाते हैं. इटलीवाससयों की मान्यता के अनस ु ार, यह समस्त कायध, अन्न की दे वी ”फ़्लोरा” को प्रसन्न करने के सलए ककया जाता है . यन ू ान------पर्श्चमी दिधन के द्धपतामह कहे जाने वाले सक ु रात की जन्मभसू म यन ू ान में भी लगभग इसी प्रकार का समारोह “पोल” नाम के उत्सव में होता है . यहाूँ पर भी लकडडयाूँ इकठ्ठीकर जलाई जाती है . इसके बाद लोग झम ू -झम ू कर नाचते-गाते हैं. यहाूँ पर यह उत्सव यन ू ानी दे वता “टायनोससयस” की पज ू ा के अवसर पर आयोर्जत होता है . जमधनी---- कुछ इस तरह का उत्सव मनाने की परं परा जमधनी में भी है . यहाूँ के रै न्लैंड नाम के स्थान पर होली जैसा त्योहार, एक नहीं, परू े सात ददनों तक मनाया जाता है . इस समय लोग अटपटी पोिाक पहनते हैं और अटपटा व्यवहार कराते हैं. कोई भी, ककसी तरह के त्रबना ककसी सलहाज के मजाक कर लेता है . बच्चे-बढ ू े सभी एक दस ू रे से मजाक करते हैं. इन ददनों, ककसी तरह के भेदभाव की गज ुं ाइि नहीं रह जाती. और इस तरह की गई मजाक का कोई बरु ा नहीं मानता. बेलर्जयम मे भी कुछ स्थानों पर होली जैसा ही उत्सव मनाने का ररवाज है . इस हूँसी-खि ु ी से भरे त्योहार में ,परु ाने जूते जलाए जाते हैं और सब लोग आपस में समलकर हूँसी –मजाक करते हैं. जो व्यर्तत 119 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


इस उत्सव में िासमल नहीं होते, उनका मूँह ु रूँगकर, उन्हें गर्ा बनाया जाता है और जुलस ू तनकाला जाता है . कोई ककसी की कही बातों का बरु ा नहीं मानता. अमेररका में होली जैसा ही एक मस्ती से भरे त्योहार का नाम है “होबो”, इस अवसर पर एक बडी सभा का आयोजन होता है , र्जसमें लोग तरह-तरह की वेिभि ू ा पहनकर आते हैं. इस समय ककसी भी औपचाररकता पर ध्यान नहीं ददया जाता. मस्ती में झम ू ते हुए लोग पागलों जैसा व्यवहार करने लगते हैं. वेस्टइंडडज में तो लोग होली को, होली की ही भाूँतत मनाते हैं. इस अवसर पर यहाूँ तीन ददन की छुटी ी होती हैं. इस अवधर् में लोग र्ूम-र्ाम से त्योहार मनाते हैं. पोलैंड में होली के ही समान “असीना” नाम का त्योहार मनाया जाता है . इस अवसर पर लोग एक-दस ू रे पर रं ग डालते हैं और एक-दस ं स्थाद्धपत ू रे के गले समलते हैं. परु ानी ि​ित ु ा भल ू कर, नए ससरे से मैिी संबर् करने के सलए यह श्रेष्ठ उत्सव माना जाता है . चेकोस्लोवाककया में “बसलया कनौसे” नाम से एक त्योहार, त्रबल्कुल ही अपनी होली के ढं ग से मनाया जाता है . आपस में एक दस ू रे पर रं ग डालते हैं और नाचते-गाते हैं. अफ़्रीका महाद्वीप में कुछ दे िों में “ओमेना बोंगा” नाम से जो उत्सव मनाया जाता है , उसमें हमारे दे ि की होली के ही समान ही जंगली दे वता को जलाया जाता है . इस दे वता को “द्धप्रन बोंगा” कहते हैं इसे जलाकर नाच-गा कर नई फ़सल के स्वागत में खसु ियाूँ मनाते हैं. समश्र में भी कुछ होली की ही तरह नई फ़सल के स्वागत में आनंद मनाते हैं. इस आनंद से भरे त्योहार का नाम “ फ़ासलका” है . इस अवसर पर पारस्पररक हूँसी-मजाक के अततररतत एक अत्यंत आकिधक नत्ृ य एवं नाटक भी प्रस्तत ु ककया जाता है . सय ू ोदय के दे ि जापान में भी होली के रं ग की छटा तनखरती है , वहाूँ यह त्योहार नई फ़सल के स्वागत के रूप में मनता है . माचध के मदहने मे मनाए जाने वाले इस त्योहार में , जापान तनवासी उत्साह से भाग लेते हैं और अपने नाच-गाने एवं आमोद-प्रमोद से वातावरण को बडा ही आकिधक और मादक बना दे ते हैं. इस अवसर पर खूब हूँसी-मजाक भी होते हैं. श्रीलंका में तो होली का त्योहार त्रबल्कुल अपने दे ि की तरह ही मनाया जाता है . वहाूँ त्रबल्कुल ठीक अपनी होली की ही भाूँतत रं ग-गल ु ाल और द्धपचकाररयाूँ सजती हैं. हवा में अबीर उडता है . लोग सब गम और धगले-सिकवे भल ू कर, परस्पर गले समलते हैं. अपनी समिता एवं हूँसी-खि ु ी का यह त्योहार श्रीलंका में अपनी गररमा बनाए हुए है . 120 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


थाईलैंड में इस त्योहार को “सांग्क्रान” कहते हैं. इस अवसर पर थाईतनवासी, मठों में जाकर वहाूँ के सभक्षुओं को दान दे ते हैं और आपस में एक-दस ू रे पर सग ु धं र्त जल तछडकते हैं. इस पवध पर वि ृ व्यर्ततयों को सग ु धं र्त जल से नहलाकर, नए वस्ि दे ने की परं परा है . परस्पर हूँसी-मजाक, चुहल-चुटकुले इस त्योहार को एकदम होली की भांतत सूँवार दे ते हैं. अपने पडोसी दे ि बमाध में होली के त्योहार को “ततजान” नाम से जाना जाता है . यहाूँ पर भारत दे ि के समान ही पानी के बडॆ-बडॆ ड्रम भर सलए जाते हैं और उसमें रं ग तथा सग ं घोलकर एक-दस ु र् ू रे पर डालते हैं. मारीिस में तो होली का त्योहार भारत के समान ही मनाया जाता है . वहाूँ पर इसकी तैयारी पन्रह ददन पहले से ही िरु ु हो जाती है .इन पन्रह दोनों चारों ओर हूँसी-ठहाकों की मर्ुर गूँज ू खनकती रहती है . फ़ांस में “गाचो” नाम का त्योहार मनाते है तथा रं ग-गल ु ाल मलते हैं. साइबेररया-नावे-स्वीडन एवं डेनमाकध में लकडडयों के ढे र में आग लगाकर उसकी पररक्रमा करते हैं और नाचते-गाते हैं. ततब्द्बत में तो ’आग” को दे वता मानकर पज ू ा जाता है . जावा-कफ़जी-कोररया-सम ु ािा-मलेसिया में भी भारत की तरह ही होली का पवध मनाया जाता है . हूँसी की यह खनक अपने दे ि में हो या कफ़र दे ि की सीमाओं के पार, एक-सी है , एकदम एक है . द्धवश्व में त्रबखरी हूँसी की इस छटा को दे खकर, यही कहा जा सकता है कक होली एक है , पर उसके रं ग अनेक है . ये रं ग चमकते-दमकते रहें , इसके सलए हमें और हम सबको इसका ध्यान रखना होगा कक कहीं हम अपने ककसी व्यवहार से इन्हें बदरं ग न कर दें . इस सांस्कृततक त्योहार की गररमा, जीवन की गररमा में है . होली के इस रं ग-त्रबरं गे पावन पवध पर सभी को हाददध क िभ ु कामनाएूँ..

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श्रीमद्भवतगीता तथा अन्य गीताएूँ. 121 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


महाभारत के भीष्म पवध के पच्चीसवें अध्याय से बयासलसवें अध्याय तक के संवाद ं को श्रीमद्भगवतगीता कहा जाता है ., इसमें सात सौ श्लोक 24447 िब्द्दों में तनबि हैं, र्जसमें से पांच सौ चौहत्तर श्लोक भगवान श्रीमख ु से बोले गए हैं. महाभारत का यह द्धविेि खण्ड ही गीता के नाम से जगतप्रर्स्सि है और प्रस्थानियी में इसका प्रमख ु स्थान द्धवद्वानों द्वारा सवधमान्य है . मागधिीिध ित ु ल एकादिी को कहे जाने के कारण इस ददन गीताजयन्ती का उत्सव भी श्रि ृ ा के साथ मनाया जाता है . गीता िब्द्द कहते ही इसी ग्रंथ का स्वरुप मानसपटल पर आता है और जनमानस में यही सवाधधर्क प्रचसलत मान्य स्वीकायध तथा श्रिेय माना जाता है . उसमें कोई संिय नहीं. श्रीमदभगवतगीता अद्द्धवतीय ग्रंथ है . ककं तु इसके अलावा भी अन्य गीताएं भी पठनीय है . प्रकारांतर से हम कह सकते हैं कक वे गीता के अनप ु रू क ग्रंथ है . मख् ु य गीता को स्पष्तः समझने के सलए इन अन्य गीताओं का अध्ययन सहयोग दे ता है . कततपय गीताओं के नाम इस प्रकार है :-जैस-े उिवगीता- यह उिव-कृष्ण का आध्यार्त्मक संवाद है . पािाशिगीता में व्यवहाररक तनयमों का द्धवस्तार से उल्लेख है . भीष्मगीता में भीष्म द्वारा यधु र्ष्ठर को ददए गए उपदे ि है . यधु र्ष्ठगीता में दान आदद िभ ु कमों से मोक्ष प्राप्त करने के उपदे ि ददए गए हैं.. मनग ु ीता में तनष्कामकमध का प्रततपादन है . जापकगीता में जप की मदहमा दिाधयी गयी है . ब्राह्मर्गीता में ज्ञानयज्ञ को ही मोक्षपद की प्रार्प्त का सार्न बताया गया है . हं सगीता में मानवीय सदगण ु ं की मदहमा का तनरुपण है . कौमशकगीता में इर्न्रयों पर द्धवजय प्राप्त करने वाले को ही ब्राह्मण कहलाने का अधर्कारी बताया गया है . महाभारत समार्प्त पश्चात िोक में डूबे र्त ृ राष्र को र्मध का उपदे ि द्धवर्ुर द्वारा ददया गया है , वह पवि​िु गीता में संग्रदहत है . जाजमलगीता में भीष्म ने जाजसल और तल ु ार्ार वैश्य का संवाद यधु र्ष्ठर को सन ु ाया है . मंककगीता में मंकक ऋद्धि के उपदे ि है . सिव-पावधती के वाताधलाप के रुप में महे श्विगीता है . जनक और याज्ञ्यवल्क का संवाद याज्ञ्वल्यकगीता कहलाता है . सांख्य िास्ि और योग का द्धविद वणधण वमशष्ठगीता में है . राजा प्रथु के यज्ञ में गौतम और अत्रिमतु न के वाग्यि ु के द्धववाद का समार्ान सनतकुमार द्वारा ककया गया . यह माकय डॆयगीता में कल्याणकारी रुप में वखणधत है . सर्ृ ष्ट से संबि प्रश्नों के उत्तर भग ु ीता में संग्रदहत है . त्याग की मदहमा को बताने वाला ग्रंथ कपपलगीता है . ृ ग राज्य के द्धवधर्वत संचालन की व्यवस्था ब्रम्हगीता में वखणधत है . पन ु जधन्मवाद पर ब्रहस्पततगीता प्रकाि डालती है . उतथ्य ऋद्धि द्वारा राजा मान्र्ाता को राजर्मध का उपदे ि र्जसमें ददया गया है उसे उतथ्यगीता कहते हैं. आत्मा के अर्स्तत्व को नार्स्तकों के प्रतत पंचसिख मतु न ने कहा है , वह पंचमशखगीता में है . साद्धविी और यमराज का वाताधलाप सापवत्रीगीता कहलाता है .

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इस प्रकार ये द्धवसभन्न प्रकार की गीताएं हैं, लेककन सबका लक्ष्य एक ही है और वह है आध्यात्मद्धवद्या के अन्वेिण में लगे हुए र्जज्ञासओ ु ं को सही मागध ददखलाना है . श्रीमद्भगवतगीता तो प्रस्थानियी में से एक है .ककन्तु उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उसी अजन ुध को जो वही उपदे ि तीन माह पश्चात सन ु ाए गए, वह भी एक गीता है .र्जसे अनग ु ीता या उत्तिगीता कहा जाता है . खेद है कक यह अपेक्षाकृत कम चधचधत है . आध्यार्त्मक दृर्ष्ट से यह अनठ ु ा और अद्द्धवतीय ग्रंथ है . दोनो गीता में वेद्व्यास की रचनाएं है और दोनो महाभारत के अनि ु ासनपवध के ही अध्यायों में है . इततहास ऎसा है कक यधु र्ष्ठर के राज्यासभिेक के बाद, तीन माह पश्चात िांतत के क्षण ं में हर्स्तनापरु के राजमहल में सखा अजन ुध ने कृष्ण से प्रेमवि तनवेदन ककया कक हे प्रभु ! यि ु आरं भ के समय आपने जो ज्ञानोपदे ि ददया था, वह कुछ स्मत ु ः सन ु ने की ृ सा हो गया है . उस ज्ञानामत ृ को पन इच्छा बलवती हो गयी है . कृपया उसे मझ ु े पन ु ः सन ु ावें, तयोंकक अब आप िीघ्र ही द्वारका को जाने वाले हैं और मैं कहीं उस अमत ृ लाभ से वंधचत न हो जाऊूँ. तब श्रीकृष्ण ने अजन ुध को पन ु ः वही बातें बतायी जो अनग ु ीता के नाम से अनि ु ासनपवध में छत्तीस अध्यायों में तथा एक हजार से अधर्क श्लोकों में तनबि हैं. श्रीमद्भवतगीता में श्रीकृष्ण अपने िब्द्दों में अजन ुध को उपदे ि दे ते हैं,ककं तु अनग ु ीता में जनमेजय कश्यप, ब्रह्मा, नारद आदद को संदसभधत कर प्रमाण दे ते हुए अपनी बात अजन ुध को बताते हैं. श्रीमद्भगवतगीता कहते समय पररर्स्थतत ऎसी थी कक कम समय में बहुत सी बातें संक्षेप में कहनी थी,ककं त्य अनग ु ीता के कथन के समय, समयाभाव न होने से उन गढ ू द्धवियों को तकध और यर्ु ततयत ु त तरीके से प्रस्तत ु ककया गया है . अधर्क मत ु त रुप से आध्यात्म को द्धवश्लेिणात्मक द्धवधर् से उद्घादटत ककया गया है . अनग ु ीता में श्रीकृष्ण अपने द्धवराट ईश्वरीय स्वरुप का दिधन नहीं कराते, यह अन्तर ददखाई दे ता है . ककं तु इसका स्पष्ट कारण यह है कक यि ु पव ू ध अजन ुध प्रश्न पर प्रश्न ककए जा रहा था. उसे तत्काल प्रभाद्धवत करने तथा र्मधयि ु के सलए प्रेररत कराने हे तु द्धवराट स्वरुप को र्ारण करना श्रीकृष्ण के सलए आवश्यक हो गया था. बाद में अनग ु ीता कही गयी. अतः द्धवराट स्वरुप तो अजन ुध दे ख ही चुका था. अतः उसकी आवश्यतता नहीं रह गयी थी. और वह उस स्वरुप से भयभीत भी हो गया था. और चतभ ु ज ुध ी िांत स्वरुप पसंद करने लगा था. स्वभाद्धवक रुप से एक ही बात ज्यादा याद रहती है , सन ु ी बातों में द्धवस्मतृ त हो जाना स्वभाद्धवक है .अतः द्धवराट स्वरुप की आवश्यतता नहीं थी. दोनो गीता के उपदे िों का मंतव्य 123 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


समान है .श्रीमद्भगवतगीता को तो सांगोपांग रुप से समझना र्तलष्ट है . हजारों साल से गीता की तनत्य नत ू नता और धचरपरु ान्तता बनी हुई है . अनेकों द्धवद्वानों के भाष्य हमारे सामने है . िंकराचायध से लेकर द्धवनोबा भावे सभी गीता को एक स्वर से हृदयांगम करने का तनदे ि-उपदे ि दे ते हैं. अनग ु ीता बहुत सीमा तक श्रीमद्भगवत्गीता सहायक ससि हो सकती है , यदद अनग ु ीता को गीता का परू ग्रंथ मानकर अध्ययन ककया जाए. अनग ु ीता का महात्म्य बताते हुए श्रीकृष्ण अजन ुध से कहते हैं :- हे कुरुनन्दन ! यदद तम ु मझ ु पर द्धवश्वास, प्रेम और श्रि ु ीता में वखणधत) इस र्मध का पण ू ध आचरण करने पर तम ु पापों ृ ा रखते हो तो (अनग से मत ु त होकर मोक्ष को प्राप्त कर लोगे. हम भारतवासी अपने आध्यार्त्मक ग्रंथ ं पर गवध करते हैं. कृष्ण को अपना इष्ट दे व मानते हैं और उन्हें अपना परु ातन परु ु ि समझते हैं, यदद ऎसा है तो हम श्रीकृष्ण के श्रीमख ु से कही गीता और अनग ु ीता का तनयसमत पठन-पाठन तयों नहीं करते? ये ग्रंथ ईंट-गारे के बने म्यर्ु जयम में रखाने की चीजें नहीं, मन-बद्धु ि-मर्स्तस्क के संग्रहालय में संग्रदहत होने वाली चीजें हैं.

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आददवाससयों के अनठ ू े त्योहार बनाम जंगल में मंगल

मनष्ु य के र्मध की तरह ही इस द्धवराट रचना का भी एक र्मध है , और वह है प्रकृतत के साथ तालमेल रखने का काम. सच माने में र्मध तो वही है जो प्रकृतत के अनक ु ू ल हो और पाप वही है जो प्रकृतत के द्धवरूि हो. तनयम ससफ़ध मनष्ु य भर के सलए नहीं, वरन परू े ब्रहमाण्ड के सलए भी यही तनयम लागू होता है . 124 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


सर्ृ ष्ट के पांचों चक्र इन्हीं सनातन र्मध (तनयम ) का पालन करते हैं. न तो र्रती अपनी र्ूरी से हटती है और न ही चन्रमा अपनी िीतलता त्रबखेरने में पीछॆ हटता है और न ही सरू ज अपनी ऊष्मा का दान करने में कंजूसी करता है . ऋतु चक्र भी अपनी सनातन गतत पर चलता है , बीज में वक्ष ृ और वक्ष ृ में बीज समाये रहता है . वेदों में इसकी व्याख्या है इससलए वैददक र्मध भी यही है . प्रकृतत के माध्यम से जीवन की मंगलकामना करना वेदों की द्धविेिता रही है . यह कामना है िद्धु ि की, पद्धविता की और पयाधवरण के संरक्षण की. जल ि​ि ु बना रहे , अन्न-जल द्धविातत न हो, दहरण्य़गभाध र्रती र्न की खान और कृद्धि कमध की सम्पाददनी बनी रहे , पि-ु र्न की द्धवपल ु ता रहे , संताने सन् ु दरस्वस्थ और दीघधजीवी बनी रहे . प्रकृतत का यह नाद जीवन के संगीत में समाया हुआ है . कुदरत का जीवन से हटने का मतलब है फ़ेफ़ड ं से प्राणवायु का तनकल जाना, इसे हम र्जतनी जल्दी समझ जाएं, उतना ही अच्छा है . भारत द्धवसभन्न जाततयों और उप-जाततयों का एक अजायबघर है , र्जसमें लगभग 3,000 जाततयां तनवास करती है . इनका रहन-सहन, खान-पान, रीतत-ररवाज और परम्पराएं की अपनी-अपनी द्धविेिताएूँ है . भारत की प्राचीनतम जातत को राष्रद्धपता महात्मा गांर्ी ने “आददवासी” नाम से संबोधर्त ककया था. यह नाम उन जाततयों को प्रदान ककया जो अनादद काल से वनों में तनवास कर अपनी आवश्यकताओं की पतू तध वनों से ककया करती थी. इनकी सामार्जक, आधथधक, राजनैततक और कुटुम्ब व्यवस्था की अपनी एक द्धवसिष्ठ पहचान रही है . इन लोगों में वन-संरक्षण करने की प्रबल वर्ृ त्त रही है . ये वन्य जीवों व वन से उतना ही प्राप्त करते रहे हैं, र्जससे उनका जीवन सल ु भता से चल सके. और आने वाली पीढी को वन-स्थल र्रोहर के रूप में सौंप सकें. वन-संवर्धन, वन्य-जीवो, एवं पालतू पिओ ु ं का संरक्षण करने की प्रवतृ त परम्परागत रही है . इसी कौिल और दक्षता और प्रखरता के साथ इन्होने पहाड ,ं घादटयों एवं प्राकृततक वातावरण को सन्तसु लत बनाए रखा. जब तक आददवासी क्षेिों के प्राकृततक वातावरण में सेंर् नहीं लगी थी तब तक हमारी आरण्य-संस्कृतत बची रही. आर्तु नक भौततकतावादी समाज की जब इन क्षेिों में प्रद्धवर्ष्ट हुई तब वहाूँ की परम्परागत सांस्कृततक मल् ू यों का ह्रास होने लगा और उनके खुली हवा में द्धवचरण करते हुए आमोद-प्रमोद का आनन्द समाप्त सा होता चला गया. यह भी एक अजीब संयोग है कक दे खते ही दे खते र्रती-पि ु अपनी ही र्रती से द्धवलग कर ददया गया. िायद उन्होंने इस बात की कल्पना तक नहीं की थी कक पीढी-दर –पीढी र्जन वनों में वे रह रहे थे, अधर्कारों से ही वंधचत कर ददए जाएंगे. इन सब के बावजद ू वे अपना रोना लेकर ककसी के पास नहीं जाते और न ही अपना दख ु डा ककसी और को सन ु ाते हैं. जो कुछ भी है , जैसा भी है , बस उसी में संतष्ु ट रहते हुए वे अब भी अपनी परम्पराओं को जीद्धवत रखते हुए आमोद-प्रमोद में तनमग्न रहते हैं,. 125 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


िहरी सयोयता से कोसों दरू , गहन जंगलों के अन्र्ेरे कोनों में , पवधतों की गगनचम् ु बी चोदटयों पर, पाताल को छूती गहरी पथरीली खाइयों में , ददन में अनमने से ऊंघते और रात में खौंफ़नाक/ दहंसक हो उठते जंगल में रात त्रबताते आददवासीजनों की एक अनोखी दतु नया है . एक ऎसी दतु नया जो आर्ुतनक संसार की सांस्कृततक जगमगाहट से कोसों दरू —बेखबर--,अनजान है . आददवाससयों के मेले तथा त्योहारों का अपना आनन्द है . ये मेले उनके कठोर जीवन में रस का संचार करते हैं. उनके सलए यही तो एक माि ऎसा आकिधण है, र्जसे आददवासी विध भर अपने हृदय में संजोए रखता हैं. त्योहार के आते ही उनके पैरों में धथरकनों का संचार होने लगता है . बात-बात में उनके होंठ ं पर गीत मख ु ररत होने लगते हैं. माहौल मदमस्त होने लगता है . वे एक जगह इकठ्ठा होने लगते हैं. स्िी हो या कफ़र परु ु ि एक दस ू रे की कमर में हाथ डाले, मस् ु कुराते, घेरा बना कर नाच उठते हैं. ढोल, दटमकी, मांदल की गज ूं पर समच ू ा वातायण झूम उठता है . प्रकृतत भी भला कहाूँ पीछे रहती है . वह इनका भरपरू साथ दे ती है . पकते हुए महुए की मादक गंर्, मंजररयों से झरता पराग, उसकी भीनी-भीनी खुिब,ू लाललाल दगदगाता खखलता सेमल का फ़ूल, उस पर नकचढा टे सू इनकी नत्ृ य नादटका के सलए एक अनोखा रं गमंच तैयार करते हैं. सल्फ़ी कहें या महुए की िराब, हलक से नीचे उतरते ही उन्हें एक अनोखे संसार में ले जाती है . यह वही महुआ है र्जसके आसरे आददवासीजन जंगल में ठहर पाने का जज्बा बनाए रखता हैं. गोंडॊं का त्योहाि “मेिनाथ” फ़ाल्गन ु मास के प्रारम्भ होते ही अलग-अलग स्थानों में , अलग-अलग ततधथयों को “मेघनाथ पवध” मनाया जाता है , र्जसमें द्धवसभन्न गाूँवों के लोग उसमे सर्म्मसलत हो सकें. गोंड ं द्वारा मेघनाथ क अपना सबसे बडा दे वता माना जाता है . इस पवध के सलए खुले मैदान में चार खम्बे गाडॆ जाते हैं. इनके बीचोंबीच सबसे ऊूँचा खम्बा गाडा जाता है और उसके ऊपर एक खाम्बा इस तरह बाूँर्ा जाता है कक वह चारों ओर घम ू सके. चारों खम्बों में से दोके बीच लकडडयाूँ बाूँर्कर सीदढयाूँ बना दी जाती है . इसे मग ु ी के पंखों, रं गीन कपड ं के टुकड ं आदद से सजाया जाता है . इस अवसर पर खण्डारा दे व का आव्हान ककया जाता है और उनकी पज ू ा की जाती है . जब इन लोगों पर कोई द्धवपर्त्त आती है या ये बीमार होते हैं तो खण्डारा दे व की मान्यता करते हैं. यदद कोई भारी मसु सबत में होता है तो मेघनाथ के चतकर लगाने का व्रत करते हैं. इसमें मान्यता मानने वाले व्यर्तत को मेघनाथ के ऊपर बूँर्ी लकडी पर पीठ के सहारे बाूँर् ददया जाता है . ऊपर खडा एक व्यर्तत घम ू ने वाले खम्बे को सूँभालता है और ऊपर बूँर्े हुए आदमी को जोर-जोर से घम ु ाता है . इस अवसर पर खब ू ढोल-मंजीरे बजते हैं और गीत गाए जाते है . मध्यप्रदे ि के अलावा छत्तीसगढ में इस पवध को बडी र्ूमर्ाम से मनाया जाता है . 126 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भीलों का त्योहाि राजस्थान के भील-आददवाससयों के अधर्कांि रीतत-ररवाज, उत्सव एवं त्योहार बडॆ ही रोचक और द्धवधचि होते हैं. ये लोग त्योहारों और उत्सवों के ददन को िगन ु मानकर अपने जीद्धवकोपाजधन के सलए र्न्र्ा प्रारम्भ करते हैं. अन्य दहन्दओ ु ं की भाूँतत ये गणगौर, रक्षाबन्र्न, दिहरा, दीपावली एवं होली आदद त्योहार मनाते हैं, लेककन इनके मनाने का ढं ग तनराला-अनठ ू ा होता है . “आव्लया​ाँ ग्यािस” फ़ाल्गन ु ित ु ल एकादिी को भील समाज “आवल्याूँ ग्यारस” त्योहार के रूप में मनाते हैं. सल्फ़ी की मस्ती में मदमस्त होकर ये आूँवलें के पीले फ़ूल अपने पगडडयों में तरु े के रूप में लगाकर, जंगली फ़ूलों की मालाएूँ पहनकर तथा मण्डसलयाूँ बनाकर नत्ृ य और गान करते हुए ये लोग आस-पास के गाूँवों में मेले के रूप में एकि होते हैं. इस ददन को िभ ु ददन मानकर ये जंगलों से लकडडयाूँ काटकर बेचने का र्न्र्ा प्रारम्भ करते हैं. “होली पवय” होली के पवध को ये बडॆ द्धवधचि ढं ग से मनाते हैं. भील मदहलाएूँ नाचती-गाती आगन्तक ु ों का रास्ता रोक लेती हैं और जब तक इन आगन्तक ु ों से इन्हें नाररयल या गड ु नहीं समल जाता, ये रास्ते से नहीं हटतीं. होसलकादहन के पश्चात हाथ में छडडयाूँ सलए रं ग-त्रबरं गी पोिाकें पहने ये लोग “गैर”(एक प्रकार का नत्ृ य) खेलना प्रारम्भ कर दे ते हैं. छडडयों और ढोल-ढमाकों, मांदल और थाली की लय के साथ पाूँवों में घघ ूँु रुओं की ध्वतन का तालमेल आकाि को एक अनोखी एवं मर्ुर ध्वतन से ध्वतनत कर दे ता है . इस नत्ृ य में मदहलाएं भाग नहीं लेतीं. होली के तीसरे ददन “नेजा” नामक नत्ृ य बडॆ ही कलात्मक एवं अनठ ू े ढं ग से ककया जाता है . एक खम्बे पर नाररयल लटकाकर आददवासी मदहलाएूँ उसके चारों ओर हाथ में छडडयाूँ तथा बटदार कोडॆ सलए नत्ृ य करती हैं और जैसे ही परु ु ि नाचते-कूदते उस नाररयल को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, मदहलाएूँ उन्हें छडडयों एवं कोड ं से मारती हुई भगा दे ती हैं. इस नत्ृ य में ब्रज-मण्डल की होली की झलक कुछ अंि तक ददखलायी पडती है . चैिमास में गर्गौि का मख् ु य त्योहार अन्य लोगों की भाूँतत ही आददवासी भी मनाते हैं, लेककन आबू एवं ससरोही के पहाड ं और जंगलों के बीच रह रहे आददवासी धगराससये नत्ृ य और गान करते हुए गणगौर की काष्ट प्रततमा को लेकर आस-पास के गाूँवों में घम ू ते हैं. सावन-भादों के मदहने में ये भील लोग अपने घरों को छ डकर गाूँवों से बाहर चले जाते हैं और जगह-जगह नत्ृ य करते हुए अपने इष्टदे व की पज ू ा करते हैं. 127 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


इस तरह गौरीनत्ृ य का िभ ु ारम्भ होता है . यह नत्ृ य :श्रीसिवजी” के जीवन पर आर्ाररत होता है . भैरव के प्रतत र्ासमधक कत्तधव्य सम्पन्न करने के सलए इस नत्ृ य में सैंकड ं आददवासी भाग लेते हैं. काततधक मास में दीपपवय को ये अत्यन्त उल्लास और उमंग से मनाते हैं. पि-ु र्न को लक्ष्मी मानकर उनके ललाट पर कंु कुम से ततलक कर आरती उतारते हैं. इस उत्सव का प्रारम्भ ये “खेतरपाल”(खेत के प्रहरी दे वता) की पज ू ा से करते हैं. खेत के ककनारे द्धवराजे खेतरपाल दे वता पर ससंदरू चढाकर, नींबू काटकर एवं नाररयल फ़ोडकर रात्रि को दीप जलाकर पज ू ा-अचधना करते हैं..दीपावली के ददन ककसी द्धवसिष्ठ स्मारक की पज ू ा करते हैं. ककसी सत-चररि एवं लोकद्धप्रय आददवासी की असामतयक मत्ृ यु होने पर उसका प्रस्तरस्मारक बनाकार पज ू ा करते हैं, र्जसे “गाता-पज ू ा” कहते हैं. इसी ददन ये स्नेह-समलन का भीआयोजन करते हैं, र्जसे “मेर-मेररया” कहा जाता है . डूग ं रपरु र्जले की असपरु तहसील के नवातपरु ा ग्राम से करीब दे ढ ककमी. दरू माही एवं सोम नदी के बीच र्स्थत “बाणेश्वर महादे व” का मर्न्दर अवर्स्थत है . यहाूँ पर माघ ित ु ल एकादिी से पखू णधमा तक चलने वाले मेले में बडी संख्या में आददवाससयों का यहाूँ जमावडा होता है . मदहलाएं बडी सरु ीली आवाज में गीत गाती हुई दरू -दरू से पदयािा करती हुई मेले में भाग लेती हैं. परु ु ि अपने परु खों की अर्स्थयाूँ इसी अवसर पर माही नदी के जल में प्रवादहत करते हैं. त्रबहार, मध्यप्रदे ि तथा उडीसा के सद ु रू जंगलों में संथाल आददवासी की अपनी एक अजीबोगरीब दतु नया है . इनका लोकद्धप्रय ग्योहार “सोहाराय” है . यह त्योहार प्रायः जनवरी माह में पाूँच ददन तक चलता है . घरों की सफ़ाई के बाद सभी ग्रामीण एक जगह इकठ्ठे होते हैं और जहे र तथा गोर्न का आव्हान करते हैं. गौठानों के द्धवसभन्न स्थानों में अण्डॆ रखे जाते हैं. चरवाहों का द्धवश्वास है कक यदद उनकी गाय अण्डॆ क सूँघ ू ले या उस पर उसका पाूँव पड जाय तो यह अत्यधर्क भाग्य का सच ू क है . इसके पश्चात गायों के पैर र्ुलाने का भी ररवाज है . दस ू रे ददन दोपहर के वतत सरभोज का कायधक्रम होता है . इसमें गाूँव की कूँु वारी बासलकाएूँ सज-र्ाज के मखु खया के घर जाती हैं वे वहाूँ नाचती-गाती और गोपज ू न करती हैं. वे पिओ ु ं के सींग ं में ससन्दरू और तेल लगाती हैं..इस ददन गाूँव की सभी बहुएूँ अपने मायके चली जाती हैं. जुलाई माह में मनाए जाने वाले त्योहार “हररयर ससम” और अगस्त में “दरू ी िण्ु डली ननवानी” त्योहार दरअसल में दोनों ही त्योहार फ़सलों का त्योहार है . फ़सल के फ़ूलते-फ़लते तथा उसे काटते समय आददवासी संथाल का प्रसन्न होना स्वाभाद्धवक है .

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ससतम्बर और अतटूबर में “करम परव” पवध मनाया जाता है . गाूँव के लोग रात में करम पेड की डाली काटकर लाते हैं और गाूँव की गली में गाडकर उसके चारों ओर नाचते-गाते हैं. दहन्दओ ु ं की मकर-संक्रार्न्त के ददन मनाए जाने वाले त्योहार की तरह ही “मोकोर त्योहार” मकर संक्रार्न्त के ददन मनाया जाता है . इस ददन संथाल अपने पव ध ों के नाम चड ू ज ू ा मौर ितकर चढाते हैं. जनवरी के अन्त और फ़रवरी के िरु ु में “माघा सीम” त्योहार मनाया जाता है . इस पवध से संथालों का नया विध आरम्भ होता है . फ़रवरी के अन्त में मनाया जाने वाला त्योहार “वाहा या वसन्त” है . संथाल इसे अपना वसन्तोत्सव मानते हैं. ये लोग वसन्त के नये फ़ूल एवं पत्तों का उपयोग वाहा मनाने के बाद ही करते हैं. इस त्योहार को बडॆ बडॆ पद्धवि ढं ग से मनाया जाता है . दे वी-दे वताओं को र्ूप, दीप, ससन्दरू एवं घास के अततररतत हूँडडया, महुए तथा सरकुए के फ़ूलों की भें ट चढाई जाती है . जहे र स्थान पर खखचडी पकायी जाती है , जो प्रसाद की तरह द्धवतररत की जाती है . इस अवसर पर जल उछालकर हृदय की दहलोरें प्रकट की जाती है . सारे वैरभाव छ डकर ये आपस में गले समलते है , गाते बजाते हैं, नत्ृ य करते हैं. “सरहुल” र्जसे फ़ूलों का पवध भी कहते हैं, वसन्तोत्सव की तरह मनाया जाता है मण् ु डा आददवासी चैि मास में “वा” पवध मनाते हैं. “ वा” का अथध फ़ूल होता है . इस अवसर पर वे वनदे वी को प्रसन्न करने के सलए ससन्दरू , फ़ूल, जल, अक्षत आदद चढाते हैं. उराूँवों में यह पवध चैि ित ु ल की पंचमी को मनाते हैं. इस अवसर पर द्धववादहता लडककयाूँ भी अपने मायके से बल ु ा ली जाती हैं. इनकी मान्यता है कक खेती सवधप्रथम इसी पवध को मनाकर िरु ु की गयी थी. आज भी ये लोग उस पवध को मनाये त्रबना अपने खेतों में खाद तक नहीं डालते. सरू ज और र्रती की खुिहाली भी इस त्योहार का प्रतीक है . मध्यप्रदे ि और त्रबहार में तनवास कर रही उराूँव जातत में “करम” पवध का द्धविेि महत्व है . इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत को “करमा” कहा जाता है . करम वक्ष ृ को लेकर यहाूँ एक लोककथा प्रचसलत है . इस कथा के अनस ु ार करमा और र्रमा दो भाई थे. एक बार व्यापार आदद के सलए करमा गाूँव छ डकर बाहर गया. एक तनर्ाधररत समय बाद तक जब वह नहीं लौटा तो उसके भाई र्रमा ने करमवक्ष ृ की डाल काट कर आूँगन में गाड दी. उसने उस डाक की पज ू ा की और अपने भाई के समान ही आदर ददया. ककं तु जब करमा लौटकर आया तो उसने उस डाल को झाड-झंखाड समझकर कूडॆ में फ़ेंक ददया. इस कारण दोनो भाइयों को भारी कष्ट उठाना पडा, तयोंकक यह किमवक्ष ृ का अपमान था. कष्ट ं से मर्ु तत पाने के सलए उन्होंने कफ़र से उस डाल को उठाया, आूँगन में गाडकर उसकी पज ू ा की. पज ू ा करने से उनका खोया सख ु पन ु ः प्राप्त हो गया. आज भी उराूँव जातत के लोग “करमवक्ष ू ा-अचधना करते हैं. ृ ” की दे वता के समान पज 129 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


मध्यप्रदे ि के मण्डला र्जले की बैगा जातत द्वारा िहद पीने का त्योहार मनाया जाता है . यह त्योहार नौ विों में एक बार आता है और इसे वे अपने पव ध “नंगा बैगा” के नाम पर मनाते हैं. ू ज बोड आददवासी बडॆ त्रबहड इलाके में रहते हैं. वे इतने उग्र, भयंकर तथा प्रचण्ड होते हैं कक उनके पवों पर बाहरी व्यर्तत का गाूँव के भीतर प्रवेि वर्जधत रहता है . वे गाूँव की सीमा पर कंदटली झाडडयाूँ लगाकर लोगों का रास्ता बंद कर दे ते हैं. उनका अपना मानना है कक गाूँव के भीतर आने पर दस ू रे गाूँव का दै वी संक्रमण हो जाता है और बाहर जाने पर गाूँव की उवधरा िर्तत दस ू रे गाूँव की भसू म में चली जाती है . “र्जयाग-र्जगे” आम की फ़सल का पवध है . पज ू ा-समारोह में िाखाएूँ तथा पत्ते जलाए जाते हैं. जौनसारबाबर (उत्तरप्रदे ि) इलाके में माघमास में जगह-जगह मेले आदद लगते हैं. इस ददन आददवासी रं ग-त्रबरं गी पोिाकें पहनते हैं. इन्हें दे खकर ऎसा लगता है मानो रं ग-त्रबरं गे पष्ु प ककसी गल ु दस्ते में लाकर सजा ददये गये हों. इसी तरह जौनपरु में माघ का त्योहर “खाूँई” मनाया जाता है . यहाूँ वैिाख तथा आिाढ में पथ ृ कपथ ू ा की जाती है . भारपद में जन्माष्टमी, माघ में ृ क पवध मनाये जाते हैं. “दखन्यौड पवध” में पि-ु पज माघी, और फ़ाल्गन े ार” पज ु में सिवरात्रि का त्योहार मनाया जाता है . “दय ु ोर्न की जूतम ू ा भी इसी इलाके में होती है . मध्यप्रदे ि के कूरकू आददवासी काततधक मास में पडने वाली दीपावली बडॆ हिोल्लास से मनाते हैं. वे “बाल्दया”( पिग ु ह ु ं को लोहे के गमध औजार से दागते हैं. ृ ) की सफ़ाई आदद करते हैं तथा पिओ उनका मानना है कक दागे जाने के बाद पिु बीमार नहीं पडते. िहरों की चकाचौंर् और िहरी सयोयता से कोसों दरू तनवास कर रहे इन आददवाससयों को यदद ऋद्धियों की संज्ञा से द्धवभद्धू ित ककया जाए तो िायद यह अततश्योर्तत नहीं होगी. ये कभी भी अपना इलाका छ डकर िहरी वातावरण में न तो प्रवेि करने की चाह रखते हैं और न ही कभी हातन पहुूँचाने के चेष्टा करते हैं. घोर अभाव के बावजूद ये प्रसन्न रहते हैं. ये अपना रोना-र्ोना लेकर ककसी के पास नहीं जाते. और वे यह भी नहीं चाहते कक कोई उनकी अमन-चैन की र्जन्दगी में जहर घोले. अपना जीवन यापन करने के सलए ये परू ी तरह से जंगलों पर तनभधर रहते हैं और आवश्यतता के अनस ु ार ही प्रकृतत का दोहन करते हैं. आज र्स्थतत एकदम द्धवपरीत है . नए-नए कानन ू बनने से इनको अनेक कदठनाइयों के बीच से होकर गज ु रना पड रहा है . जंगल का राजकुमार कहलाने वाला आददवासी आज चोरों की श्रेणी में धगना जाने लगा है . जंगलों की तनबाधर् कटाई का सारा दोि इन गरीब आददवासी के ससर बांर् ददया जाता है ,जबकक ये प्रकृतत के सच्चे आरार्क रहे हैं. जंगलों के उजड जाने की कल्पना माि से ससहर उठते हैं. आज इन्हीं को जंगल से तनष्काससत ककया जा रहा है . इन वनवाससयों का मासलकाना हक केन्रीय एवं राज्य िासन के पास चला जाएगा तो तया ये आददवासी बेघर नहीं हो जाएंगे ?. ककसी सजग पहरे दार की तरह ददन 130 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


और रात जंगलों की रक्षा करने वाले इन भोले भाले आददवाससयों के जंगल में न रहने से पाररर्स्थततक सन्तल ु न रखने वाले घटक लप्ु त नहीं हो जाएंगे ? तया दहंसक जीव-जंतु जीद्धवत रह पाएंगे? द्धवकास के नाम पर बंर्ने वाले बडॆ-बडॆ बांर्ों से तया वहाूँ की भसू म दलदली नहीं होगी? तया वहाूँ की भसू म की उवधरा िर्तत कम नहीं होगी?. तया हम आने वाली पीढी को आददवाससयों के द्धवस्थापन की समस्या एवं वन सम्पदा का पण ू ध द्धवनाि दे ने जा रहे है ?. संस्कृतत एवं पयाधवरण को नष्ट कर आधथधक लाभ की कल्पना, तनर्श्चत रूप से कालान्तर में अवश्यमेव द्धवनािकारी ससि होगी. हमारा संद्धवर्ान वचनबि है कक आददवासी परम्परागत द्धवसिष्ट पहचान को बनाए रखते हुए ही राष्र की द्धवकास र्ारा में इच्छानस ु ार जुड सकते हैं. अतः हमें त्वररत गतत से ऎसे तनणधय लेने होंगे र्जससे उनकी प्राकृततक संस्कृतत पर कोई असर न पडॆ. वे अमन-चैन से रह सकें और इसी तरह उत्सव मनाते रहे .42

३८. य़ा

दे वी सवधभत ू ेिु द्धवद्यारूपेण संर्स्थता*

भारतीय संस्कृतत में व्रत, पवध एवं उत्सवों का द्धविेि महत्व है . यहाूँ कोई भी ऎसा ददन नहीं होता, र्जस ददन कोई-न-कोई व्रत, पवध या उत्सव न मनाया जाता हो. माघ माह की ित ु ल पंचमी को मनाये जाने वाले महासरस्वती महोत्सव का महत्व अनप ु म है . भगवती सरस्वती द्धवद्या, ज्ञान और वाणी की अधर्ष्ठािी दे वी है तथा सवधदा िास्ि-ज्ञान दे ने 131 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


वाली है . भगवती िारदा का मल ू स्थान अमत ुं है . वे अपने उपासकों के सलए तनरन्तर पचास ृ मय प्रकािपज अक्षरों के रूप में ज्ञानामत ु ज्ञानमय, आनन्दमय है . उनका तेज ृ र्ारा प्रवादहत करती हैं. उनका द्धवग्रह ि​ि अपररमेय एवं ददव्य है . वे ही िब्द्दब्रह्म के रूप में प्रस्तत ु होती हैं. सर्ृ ष्टकाल में

ईश्वर की इच्छा से

आद्यािर्तत ने अपने को पाूँच भागों में द्धवभतत कर सलया था. वे रार्ा, पद्मा, साद्धविी, दग ु ाध, और सरस्वती के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के द्धवसभन्न अंगों से उत्पन्न हुईं थीं. उस समय श्रीकृष्णजी के कण्ठ से उत्पन्न होने वाली दे वी का नाम सिस्वती हुआ. भगवती सरस्वती सत्त्वगण ु संपन्ना हैं. इनके अनेक नाम है र्जसमें वाक, वाणी, गीः, धगरा, भािा, िारदा, वाचा, र्ीश्वरी, वागीश्वरी, ब्राह्मी, गौ, सोमलता, वाग्दे वी और वाग्दे वता आदद अधर्क प्रससि है .

ब्राहमणग्रंथ के अनस ु ार वाग्दे वी ब्रह्मस्वरुपा, कामर्ेनु तथा समस्त दे वों की

प्रतततनधर् हैं. ये ही द्धवद्या, बद्धु ि और सरस्वती हैं. “श्रीमद्देवीभागवत” और “श्रीदग ु ाधसप्तिती” में भी आद्यािर्तत द्वारा अपने-आपको तीन भागों में द्धवभतत करने की कथा प्राप्त होती है . आद्यािर्तत के ये तीनों रूप महाकाली, महालक्षमी, और महासरस्वती के नाम से जगद्धवख्यात हैं. ब्रह्मवैवतधपरु ाण प्रकृतत खण्ड ४/३४ के अनस ु ार माघमास के ित ु लपक्ष की पंचमी ततधथ को असमत तेजस्वनी और अनन्त गण ु िासलनी दे वी सरस्वती की पज ू ा एवं आरार्ना तनर्ाधररत की गई है . इस ददन अचधना-पज ू ा तथा व्रतोत्सव के द्वारा इनके सांतनध्यप्रार्प्त की सार्ना की जाती है . वसन्तपंचमी को माूँ सरस्वती का आद्धवभाधव-ददवस माना जाता है . इनकी पज ू ा-अचधना के साथ ही बालकों के अक्षरारम्भ एवं द्धवद्यारम्भ की ततधथयों पर सरस्वती पज ू ा का द्धवर्ान ककया जाता है .

“श्रीं ह्ीं सिस्वत्यै स्वाहा” इस

अष्टाक्षरयत ु त मन्ि से उपासक माूँ भगवती सरस्वती का आव्हान करते हुए स्ततु त करना चादहए. “सिस्वतीं शक् ु लवर्ाय सजस्मतां सम ु नोहिाम * कोदटचन्रप्रभामप ु ष्ु टाश्रीयक् ु तपवग्रहाम

वजन्हशि ु ां

शक ु ािानां वीर्ापस् ु तकिारिर्ीम * ित्नसािे न्रतनमायर्नवभपू षताम सप य मपवयष्र्मु शवाददमभः ु जू जतां सिु गर्ैब्रह्

* वंदे भक्तया वजन्दतां च मन ु ीन्रमनम ु ानवैः

इसके अतततततत भगवती सरस्वती की स्ततु त एवं ध्यान करने के सलये तनम्नसलखखत श्लोक जगद्धवख्यात हैं. “या कंु दल द ु तष ु ाि हाि िवला या शभ्र ु वस्त्रावत ृ ा। या वीर्ा वि द ड मंडडत किा या श्वेत पद्मासना। 132 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


या ब्रह्माच्यत्ु त शंकि: प्रभतृ तमभय दे वै सदा वजन्दता। सा माम पातु सिस्वती भगवती तन:शेष जाड्या पहा। “ -( अथाधत ् जो द्धवद्या की दे वी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंरमा, दहमरासि और मोती के हार की तरह श्वेत वणध

की हैं और जो श्वेत वस्ि र्ारण करती हैं , र्जनके हाथ में वीणा-दण्ड िोभायमान हैं , र्जन्होंने श्वेत कमलों पर अपना आसन ग्रहण ककया है तथा ब्रह्मा, द्धवष्णु एवं िंकर आदद दे वताओं द्वारा जो सदा पूर्जत हैं, संपूणध जकता और अज्ञान को दरू कर दे ने वाली ऐसी मां सरस्वती आप हमारी रक्षा करें । )

भगवती सरस्वती की उत्पर्त्त सत्त्वगण ु से हुई है . अतः इनकी आरार्ना करने वाले उपासक सत्व गण से यत ु ु त होते हैं. ऎसा कहा जाता है कक लक्ष्मी की उपासना से र्न की प्रार्प्त होती है . हम सभी जानते हैं कक जहाूँ र्न होगा वहाूँ कलह होना स्वाभाद्धवक है . लेककन भगवती सरस्वती की आरार्ना करने से उपासक ज्ञानवान तो बनता ही है , उसे र्न की भी प्राप्त होती है . इनकी आरार्ना और कृपा से प्राप्त र्न से परू ा जीवन सख ु मय तरीके से बीतता है , तयोंकक यह र्न हमेिा सदाबद्धु ि बनाये रखता है . माूँ भगवती सरस्वती की कृपा से महद्धिध वालमीकक, व्यास, वससष्ठ, द्धवश्वासमि तथा सौनक आदद ऋद्धि कृताथध हुए. महद्धिध व्यासजी की स्वल्प व्रतोपासना से प्रसन्न होकर सरस्वतीजी कहती हैं-“ व्यास ! तम ु मेरी प्रेरणा से रधचत वाल्मीकक रामायण को पढो, वह मेरी िर्तत के कारण सभी काव्यों का सनातन बीज बन गया है . उसमें श्रीरामचररत के रूप में मैं साक्षात मतू तधमती िर्तत के रूप में प्रततर्ष्ठत हू​ूँ भगवती सरस्वती को प्रसन्न करके उनसे असभलद्धित वर प्राप्त करने के सलये द्धवश्वाद्धवजय नामक सरस्वती-कवच का वणधन भी प्राप्त होता है . इस अद्भत ु कवच को र्ारण करके ही व्यास, ऋष्यिग ंृ , भरद्वाज, दे वल तथा जैगीिव्य आदद ऋद्धियों ने ससद्धि पायी थी. इस कवच को म्सवधप्रथम रासरासेश्वर श्रीकृष्ण ने गोलोकर्ाम के वद ं ृ ावन नामक अरण्य में रासोत्सव के समय रासमण्डतल में ब्रह्माजी से काथा था.तत्पश्चात ब्रह्माजी ने गन्र्मादन पवधत पर भग ु तु न को इसे ददया था. ृ म कालीदास के बारे में सभी जानते हैं कक वे पहले मढ ू मतत थे. बाद में उन्होंने भगवती की आरार्ना की और कद्धवकुलगरु ु कालीदास कहलाए. गोस्वामी तल ु सीदासजी कहते हैं कक दे वी गंगा और सरस्वती दोनों ही एक समान पद्धविकाररणी हैं. एक पापहाररणी और एक अद्धववेक-हाररणी हैं मनोहर चररता एक हर अत्रबबेका.

पतु न बंदऊूँ सारद सरु सररता* जुगल पन ु ीत मज्जन पान पाप हर एका* कहत सन ु त

द्धवद्याधथधयों के सलए द्धविेि

133 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


भगवती सरस्वती द्धवद्या की अधर्ष्ठात ृ दे वी हैं और द्धवद्या सभी र्नों में प्रर्ान र्न कहा गया है . अतः द्धवद्याधथधयों को चादहए कक वे अपनी पढाई िरु ु करने से पहले माूँ भगवती सरस्वतीजी का ध्यान करें और “या कुन्दे न्द ु ति ु ार हार र्वला...........” को मन ही मन दोहराते हुए उन्हें द्धवद्यार्न प्राप्त हो, इस तरह की मन में असभलािा रखते हुए दत्तधचत्त से दे वी की प्राथधना करें . इस द्धवधर् को हमने भी अपने बचपन में प्रयोग में लाया है . तनर्श्चत ही इससे स्मरण-िर्तत में वद्धृ ि होती है और आपको हर पढी हुई चीज आजन्म याद रहती है . आप सभी जानते हैं कक ज्ञानवान और द्धवद्वान लोग सवधि सम्मान पाते हैं. वे अपने ज्ञान से/अपने द्धवद्याध्ययन से समाज को मागधदिधन दे ते हैं. वे इस र्न से स्वयं लाभार्न्वत नहीं होते,बर्ल्क औरों को भी इससे लाभार्न्वत करवाते रहते हैं. द्धवद्या प्राप्त करने के सलए कोई आयु सीमा तनर्ाधररत नहीं है . आप चाहें र्जस उम्र के तयों न हों, इस र्न से लाभार्न्वत हो सकते हैं. गह ृ स्थ जीवन में प्रवेि करने से पहले द्धवद्याधथधयों को चादहए के वे मन लगाकर अयोयास करें . अयोयास िरु ु करने से पव ू ध भगवती का ध्यान करना न भल ू ें और परू े मनोयोग से पढाई में रम जायें. द्धवद्या और बद्धु ि की साक्षात अधर्ष्ठात दे वी भगवती सरस्वती की मदहमा अपार है . भगवती दे वी के बारह नाम हैं. इन बारह नामों की नामावली का पाठ करने से भगवती सरस्वती मनष्ु य की र्जव्हा पर द्धवराजमान हो जाती है . वह इस प्रकार से हैप्रथमं भािती नाम द्पवतीयं च सिस्वती* तत ृ ीयं शािदा दे वी चतथ ु ं हं सवादहनी* पंचम जगती ख्याता षष्ठं वागीश्विी तथा* सततमं कुमद ु ी प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिर्ी* नवमं बपु िदात्री च दशम विदातयनी* एकादशं चन्रकाजन्तद्यवादशं भव ु नेश्विी* द्वादशैतातन नामातन त्रत्रसन्ध्यं यः पठे न्निः* जजव्हाग्रे वसते तनत्यं ब्रह्मरूपा सिस्वती. अपने तनर्ाधररत पाठ्यक्रम के अलावा उन तमाम पस् ु तकों को भी पढें जो आपके ज्ञान में श्रीवद्धृ ि करती हो. स्वाध्याय के साथ ही स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें . आपको यह बतलाना भी जरुरी है कक आज के इस भागमभाग और अस्त-व्यस्त वातावरण ने जीवन में तनाव भर ददया है . चारों तरफ़ अिार्न्त का वातावरण व्याप्त है . कहीं से भी आपको वे खबरें पढने अथवा सन ु ने को कम ही समलती हैं, जो आपको प्रसन्नता से भर दे . इन्टरनेट-टीव्ही- और मोबाईल के इस यग ु में एक नयी क्रार्न्त अवश्य आयी है , लेककन इन आद्धवष्कारों से जो समधु चत लाभ उठाया जाना चादहए, वह न उठाते हुए उनका गलत प्रयोग इन ददनों कुछ ज्यादा ही हो रहा है . कुल समलाकर इतना कहा जा सकता है कक यन्ि तो यन्ि ही होता है , बस हमें उनके कुिल संचालन करते हुए ज्यादा से ज्यादा फ़ायदा उठाना चादहए .न कक उनका गलत प्रयोग करना चादहए. उपरोतत द्धवधर् के अनस ु ार चलते हुए आप माूँ भगवती की कृपा के सप ु ाि तो बनेंगे ही, अपने माता-द्धपता का गौरव भी बनेंगे. समाज में आपका मान-सम्मान बढे गा. और वह ददन भी

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आएगा जब आप सकल समाज का मागधदिधन करें गे. आज यह समय की मांग भी है .

नाथद्वारा (राजस्थान) में श्रीनाथजी के ददव्य दिधन झीलों की नगरी के नाम से जगप्रससि नगर उदयपरु से महज 58 ककमी की दरू ी पर र्स्थत नाथों के नाथ श्रीनाथजी का भव्य मर्न्दर अवर्स्थत है र्जसे बस द्वारा एक घण्टा बाईस समनट की यािा करते हुए पहुूँचा जा सकता है . 17वीं िताब्द्दी में बनास नदी के भव्य तट पर इस मर्न्दर को श्रीभगवान का प्रवेिद्वार भी कहा जाता है . उत्सवद्धप्रय प्रभु श्रीनाथजी नाथद्वारा में साक्षात द्धवराजमान होकर भततों एवं गोस्वामी बालकों द्वारा तनत्य सेद्धवत है .. गगधसदं हता में संग्रदहत एक कथा के आर्ार पर श्रीनारदजी राजा बहुलाश्व को बतलाते हैं कक धगररराजजी की गफ़ ु ा के मध्यभाग में श्रीहरर का स्वतःससि रूप प्रकट होगा. भगवान भारत के चार कोनों में क्रमिः जगन्नाथ, श्रीरं गनाथ, श्री द्वारकानाथ, और श्रीबदरीनाथजी के नाम से पससि हैं. नरे श्वर ! भारत के मध्यभाग में में भी वे गोवर्धननाथजी के नाम से द्धवद्यमान हैं. इन सबका दिधन करने से नर नारायण हो जाता है . नारदजी ने राजा बहुलाश्व को यह भी बतलाया कक जो द्धवद्वत परु ु ि इस भत ू ल पर चारों नाथों के यािा करके मध्यवती दे वदमन श्रीगोवर्धननाथजी के दिधन नहीं करता, उसे यािा का फ़ल नहीं समलता. जो गोवर्धन पवधत पर श्रीनाथजी के दिधन कर लेता है , उसे पथ् ृ वी पर चारों नाथों की यािा का फ़ल सहज में ही प्राप्त हो जाता है .

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जनश्रुतत के आर्ार पर सन 1410 में गोवर्धन पवधत पर श्रीभगवानजी का बांया हाथ प्रकट हुआ, जो ऊपर उठा हुआ था, यह इस बात का प्रतीक था कक उन्होंने गोवर्धन पवधत को अपनी ऊंगली पर उठा रखा है . कफ़र उनका मख ु प्रकट हुआ. वल्लभाचायधजी का जन्म 1479 को हुआ. इनके जन्म के पश्चात ही श्रीनाथजी की िेि आकृतत प्रकट हुई. इस ददव्य-आकृतत के साथ ही दो गायें,एक सपध,एक ससंह,दो मोर भी प्रकट हुए. इन आकृततयों में एक तोते की भी आकृतत थी,जो श्रीजी के मस्तक पर द्धवराजमान था. यह वह समय था जब भारतविध पर पज ू ा-पाठ द्धवरोर्ी, मतू तध-भंजक, कटी रपंथी औरं गजेब िासन कर रहा था. उसकी सेना र्जस ओर जाती मर्न्दरों का द्धवध्वंस करती और मतू तधयों को भग्न करती-कफ़रती. वैष्णव संप्रदाय के लोगों में इस बात को लेकर भय पैदा हो गया था कक ककसी भी समय औरं गजेब की सेना का रुख इस ओर होगा और वे इस ददव्य श्री का द्धवग्रह भंग कर दें गे. अतः वे इस बात को लेकर धचंततत थे कक श्रीजी को एक ऎसे स्थान पर ले जाकर स्थाद्धपत कर दें , जहाूँ वे सरु क्षक्षत रह सकें. भगवान श्रीकृष्णचंदजी ने सपने में दिधन दे ते हुए बतलाया कक उनके श्रीद्धवग्रह को बैलगाडी पर मेवाड की ओर रुख करें . उन्होंने यह भी बतलाया कक बैलगाडी जहाूँ अपने आप रुक जाएगी, वहीं उन्हें स्थाद्धपत कर ददया जाए. इस तरह का संकेत प्रप्त होते ही श्रीद्धवग्रह को एक बैलगाडी पर रखते हुए उसे पत्तों से ढं क ददया गया. ऎसी भी जनश्रुतत है कक नटवरनागर ने अपनी भतत मीराबाई को स्वंय चलकर मेवाड आने का वादा ककया था. घससयार होते हुए गाडी आगे बढ रही थी कक अचानक बनास नदी पार करते हुए बैलगाडी कीचड में र्ंस गयी. काफ़ी प्रयास करने के बावजूद गाडी उस दलदल से नहीं तनकल पायी. श्रीजी का आदे ि भी था कक गाडी जहाूँ से आगे न बढ पाये, उस स्थान पर उन्हें स्थाद्धपत कर ददया जाये. श्रीजी के आदे िानस ु ार मेवाड के तत्कालीन राजा राणा राजससंहजी ने अपने महल में उन्हें स्थाद्धपत ककया. श्रीनाथद्वारा में श्रीजी की आठों पहर पज ं ृ ार,राजभोग, ू ा-अचधना की जाती है ,र्जसमें मंगला, श्रग उत्थान,भोग,आरती और ियन आरती की जाती है .लाखों की संख्या में वैष्णव भतत तनत्य प्रतत आकर आपके ददव्य दिधन कर अपने आपको अहोभागी मानते हैं. यों तो नाथद्वरा में श्रीनाथजी के मर्न्दर में तनत्य मनोरथ एवं उत्सव होते हैं,तथाद्धप उनमें से कुछ उत्सवों के बारे में संक्षक्षप्त में जानकारी लेते चलें. जन्माष्टमी----यों तो जन्माष्टमी का पवध संपण ू ध भारतविध में हिोल्लास के मनाया जाता हैं.ककं तु नाथद्वारा में बडॆ भारी आनन्द से यह उत्सव मनाया जाता है . इस ददन दे ि-द्धवदे ि से अनेक वैष्णभततों का यहाूँ आगमन होता है . प्रातःकाल मंगला-दिधन में प्रभु का पंचामत ृ होता है ,बाद में श्रंग ृ ार होता है . रात्रि में जागरणदिधन होते हैं एवं मध्यरात्रि में जन्म का महोत्सव होता है . महाभोग में श्रीप्रभु को छप्पन भोग लगाया जाता है . जन्माष्टमी के दस ू रे ददन पलना के दिधन होते हैं. सोने के पलने में ठाकुरजी को झुलाया 136 | हमारे पर्व और त्यौहार – गोर्र्वन यादर्


जाता है . भततगण ग्वाल-बाल के रूप में बनकर दर् ू , दही आदद अपधणकरते हैं. अपार जनसमह ू इस उत्सव का दिधन कर कृतकृत्य होते हैं. इसी तरह रार्ाष्टमी ,नवराि०-उत्सव ,दिहरा, िरदपखू णधमा, दीपावली ,मकरासंक्रार्न्त, वसन्तपंचमी पर अनेकानेक उत्सव आयोर्जत ककए जाते हैं. दीपावली में एकादिी से ही ततलकायत के श्रंग ृ ार आरम्भ हो जाते हैं. र्नतेरस को जरी के वस्िों द्वारा भारी श्रंग ृ ार एवं रूपचौदस को ठाकुरजी का अयोयंग होता है . राजभोग में सोने-चाूँदी का बंगला होता है . दीपावली के ददन सफ़ेद जरी के वस्ि एवं बहुत भारी श्रंग ृ ार होता है . आज ही के ददन गोिाला से गायें नाथद्वारा में प्रवेि करती हैं. सायं “कान्ह जगाई” होती है एवं रतनचौक में नवनीत प्रभु द्धवराजते हैं. अन्नकूट नाथद्वारा का सबसे बडा उत्सव है . दोपहर में गोवर्धन-पज ू ा होती है . सायं अन्नकूट में दे ढ सौ मन चाूँवल का ढे र लगाकर अन्नकूट(सिखर) बनाया जाता है . अनेकानेक प्रकार की सामग्री भोग में आती है . काततधक की ित ु ल द्द्धवतीया , गोपाष्टमी पर द्धविेि श्रंग ु ाईंजी का ृ ार होता है . पौि कृष्णनवमी को श्रीगस उत्सव मनाया जाता है . इस ददन जलेबी द्धविेि रुप से बनाई जाती है . इसे जलेबी-उत्सव भी कहते हैं. फ़ाल्गन ु ित ु ल पखू णधमा के ददन श्रीनाथजी नाथद्वारा में पाट पर द्धवराजते हैं. इसी माह की पखू णधमा को खूब गल ु ाल उडाई जाती है . चैि कृष्ण प्रततपदा को ड लोत्सव का आयोजन होता है . तथा प्रततपदा के ददन भगवान के पंचाग सन ु ाई जाती है . तत ु ल नवमी ृ ीया को गणगौर का उत्सव तीन ददन चलता है . चैि ित को रामजन्मोत्सव मनाया जाता है . बैसाख कृश्ण एकादिी को श्रीमहाप्रभज ु ी का उत्सव होता है . आज ही के ददन महाप्रभक ु ा प्रातटय चम्पारण्य में हुआ था. वैिाख ित ु ल चतद ु धिी के ददन सन्ध्या आरती में िालग्रामजी को पंचामत ु ल पंचमी को श्रीजी में नावका मनोरथ होता ृ से स्नान कराया जाता है . ज्येष्ठ ित है . ज्येष्ठ ित ु ल पखू णधमा को ठाकुरजी को असभिक करा कर सवा लाख आमों का भोग लगाया जाता है . आिाढ ित ु ल द्द्धवत्तीया को रथयािा का आयोजन होता है . इस ददन भी सवा लाख आमका भोग लगाया जाता है . श्रवाणमास में परू े माह मर्न्दर में दहंडोला होते हैं. तनत्य नत ू न श्रंग ृ ार होते हैं. द्धविेिकर हररयाली अमावस, ठकुराइन तीज, पद्धविा एकादिी एवं राखी का भारी उत्सव होता है . इस ददन श्रीजी को राखी बांर्ी जाती है . परु ु िोत्तममास में परू े मदहने ततधथ के अनस ु ार साल भर सभी त्योहार बडी र्ूमर्ाम से मनाए जाते हैं. सच है . जहाूँ धगररवरर्ारी, नटराज स्वयं उपर्स्थत हों, वहाूँ उत्सवों के भव्यतम आयोजन न हो, ऎसा भला कभी हो सकता है . मैं स्वयं तो इन तमाम तरह के उत्सवों में भले ही िासमल नहीं हो पाया, लेककन पाटोत्सव के समय मझ ु े श्रीजी के दिधनों का पण् ु यलाभ जरुर समला है . माह फ़रवरी २०१२ मे सादहत्यमण्डल ् प्रेक्षागार में आयोर्जत कायधक्रम में अन्य सादहर्त्यक समिों के साथ”दहन्दी भािा भि ू ण” सम्मान से

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सम्मानीत ककया गया था. ततबारा वहाूँ जाना तो नहीं हो पाया,लेककन मन-पाखी जब-तब श्रीचरण ं के दिधनाथध जा पहुूँचता है . उनके ददव्य दिधन प्राप्त कर मन में परम सन्तोि की प्रार्प्त समलती है .

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