Patalkot dharti par ek ajooba

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( धरती पर एक अजब ू ा) तथा

अन्य

आलेख

पातालकोट- धरती पर एक अजब ू ा – गोवधधन यादव | रचनाकार.ऑगध (http://rachanakar.org) की प्रस्ततु त


अनक्र ु म १ पातालकोट (धरती पर एक अजूबा.)

२. आदिवासी संस्कृतत और पर्ा​ावरण ३. लोकसाअदित्र् में पर्ा​ावरण चेतना ४. एक अबझ ू ी प्र्ास िै सावन तेरो नाम ५. कथा सादित्र् में मध्र्प्रिे श का र्ोगिान ६. डाकघर –इततिास के झरोखों से ७. र्तु नवसाल पोस्टल र्तू नर्न ८. फ़ागन ु ी गीत ९. भारतीर् नाटक की उत्पत्त्त एवं ववकास १०.ववलप्ु त िोती जा रिी गौरै र्ा. ११.दिन्ि ू वववाि में संस्कारों का मित्त्व १२.परम्परा और आधुतनकता. १३.प्रतीक-कववता में नए रं ग भरता िै . १४.लघक ु था-इततिास के झरोखे से १५.किानी पोस्टकाडा की.

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पातालकोट-धरती पर एक अजब ू ा

गगनचु​ुंबी इमारतें , सडकों पर फ़राधटे भरती रुं ग-बबरुं गी-चमचमाती लक्जरी कारें ,मोटरगाडडयाुं और न जाने ककतने ही कल-कारखाने, पलक झपकते ही आसमान में उड जाने वाले वायय ु ान, समद्र ु की गहराइयों में तैरतीुं पनडुब्बबया​ाँ, बडॆ-बडॆ स्टीमर,-जहाज आदद को दे ख कर आपके मन में ततनक भी कौतुहल नहीुं होता. होना भी नहीुं चादहए,क्योंकक आप उन्हें रोज दे ख रहे सफ़र कर रहे होते

होते हैं,उनमे

हैं. यदद आपसे यह कहा जाय कक इस धरती ने नीचे भी यदद कोई मानव

बस्ती हो,जहा​ाँ के आददवासीजन हजारों-हजार साल से

अपनी आददम सुंस्कृतत और रीतत-ररवाज

को लेकर जी रह रहे हों, जहा​ाँ चारों ओर बीहड जुंगल हों, जहा​ाँ आवागमन के कोई साधन न हो, जहा​ाँ ववषैले जीव जन्तु, दहुंसक पशु खुले रुप में ववचरण कर रहे हों, जहा​ाँ दोपहर होने पर ही सरू ज की ककरणें अन्दर झाुंक पाती हो, जहा​ाँ हमेशा धु​ुंध सी छाई रहती हो, चरती भैंस ुं को दे खने पर ऐसा प्रतीत है ,जैसे कोई काला सा धबबा चलता-कफ़रता ददखलाई दे ता हो, सच मातनए ऐसी जगह पर मानव-बस्ती का होना एक गहरा आश्चयध पैदा करता है . जी हा​ाँ, भारत का हृदय कहलाने वाले मध्यप्रदे श के तछन्दवाडा ब्जले से 62 ककमी. तथा ताममया ववकास खुंड से महज 23 ककमी.की दरू ी पर ब्स्थत “पातालकोट” को दे खकर ऊपर मलखी सारी बातें दे खी जा सकती है . समद्र् ु सतह से 3250 फ़ीट ऊाँचाई पर तथा भत ू ल से 1200 से 1500 फ़ीट गराई में यह कोट यातन

“पातालकोट”

ब्स्थत है .

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हमारे पुरा आख्यानों में “पातालकोट” का ब्जक्र बार-बार आया है .”पाताल” कहते ही हमारे मानस-पटल पर ,एक दृष्य तेजी से उभरता है. लुंका नरे श रावण का एक भाई,ब्जसे अदहरावण के नाम से जाना जाता था, के बारे में पढ चक ु े हैं कक वह पाताल में रहता था. राम-रावण यद्ध ु के समय उसने राम और लक्ष्मण को सोता हुआ उठाकर पाताललोक ले गया था,और उनकी बमल चढाना चाहता था,ताकक यद्ध ु हमेशा-हमेशा के मलए समाप्त हो जाए. इस बात का पता जैसे ही वीर हनम ु ान को लगता है वे पाताललोक जा पहुाँचते हैं. दोनों के बीच भयुंकर यद्ध ु होता है ,और अदहरावण मारा जाता है .उसके मारे जाने पर हनम ु ान उन्हें पुनः यद्ध ु भमू म पर ले आते हैं. पाताल अथाधत अनन्त गहराई वाला स्थान. वैसे तो हमारे धरती के नीचे सात तल ुं की कल्पना की गई है -अतल, ववतल, सतल, रसातल, तलातल, महातल,तथा महातल के नीचे पाताल.. शबदकोष में कोट के भी कई अथध ममलते हैं=जैसे-दग ु ,ध गढ, प्राचीर, रुं गमहल और अुंग्रेजी ढुं ग का एक मलबास ब्जसे हम कोट कहते है . यहा​ाँ कोट का अथध है -चट्टानी दीवारें , दीवारे भी इतनी ऊाँछी,की आदमी का दपध चूर-चूर हो जाए. कोट का एक अथध होता है -कनात. यदद आप पहाडी की तलहटी में खडॆ हैं,तो लगता है जैसे कनातों से तिर गए हैं. कनात की मड ु​ुं रॆ पर उगे पॆड-पौधे, हवा मे दहचकोले खाती डामलया​ाँ,,हाथ दहला-दहला कर कहती हैं कक हम ककतने ऊपर है . यह कनात कहीुं-कहीुं एक हजार दो सौ फ़ीट, कहीुं एक हजार सात सौ पचास फ़ीट, तो कहीुं खाइयों के अुंतःस्थल से तीन हजार सात सौ फ़ीट ऊाँची है . उत्तर-पूवध में बहती नदी की ओर यह कनाट नीची होती

चली जाती है . कभी-कभी तो यह गाय के खुर की आकृतत में ददखाई दे ती है .

पातालकोट का अुंतःक्षेत्र मशखरों और वाददयों से आवत ृ है . पातालकोट में , प्रकृतत के इन उपादानों ने, इसे अद्ववतीय बना ददया है . दक्षक्षण में पवधतीय मशखर इतने ऊाँचे होते चले गए हैं कक इनकी ऊाँचाई उत्तर-पब्श्चम में फ़ैलकर इसकी सीमा बन जाती है . दस ू री ओर िादटया​ाँ

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इतनी नीची होती चली गई है कक उसमें झाुंककर दे खना मब्ु श्कल होता है . यहा​ाँ का अद्भत ु नजारा दे खकर ऐसा प्रतीत होता है मानो मशखरों और वाददयों के बीच होड सी लग गई हो. कौन ककतने गौरव के साथ ऊाँचा हो जाता है और कौन ककतनी ववनम्रता के साथ झक ु ता चला जाता है . इस बात के साक्षी हैं यहा​ाँ पर ऊगे पेड-पौधे,जो तलहदटयों के गभध से, मशखरों की फ़ुनगगयों तक बबना ककसी भेदभाव के फ़ैले हुए हैं. पातालकोट की झुकी हुई चट्टानों से तनरन्तर पानी का ररसाव होता रहता है . यह पानी ररसता हुआ ऊाँचें -ऊाँचे आम के वक्ष ृ ुं के माथे पर टपकता है और कफ़र तछतरते हुए बूुंद ुं के रुप में खोह के आाँगन में गगरता रहता है . बारहमासी बरसात में भीुंगकर तन और मन पल ु ककत हो उठते है . अपने इष्ट, दे वों के दे व महादे व, इनके आराध्य दे व हैं. इनके अलावा और भी कई दे व हैं जैस-े मढुआदे व,हरदल ु लाला, पनिर, ग्रामदे वी, खेडापतत, भैंसासर, चुंडीमाई, खेडामाई, िरु लापाट, भीमसेनी, जोगनी, बािदे वी, मेठोदे वी आदद को पूजते हुए अपनी आस्था की लौ जलाए रहते हैं, वहीुं अपनी आददम सुंस्कृतत, परम्पराओुं ,रीतत-ररवाजों, तीज-त्योहारों मे गहरी आस्था मलए शान से अपना जीवन यापन करते हैं. ऐसा नहीुं है कक यहाुं अभाव नहीुं है . अभाव ही अभाव है ,लेककन वे अपना रोना लेकर ककसी के पास नहीुं जाते और न ही ककसी से मशकवा-मशकायत ही करते हैं. बबत्ते भर पेट के गढ्ढे को भरने के मलए वनोपज ही इनका मख् ु य आधार होता है . पारुं पररक खेती कर ये कोदो- कुटकी, -बाजरा उगा लेते हैं. महुआ इनका वप्रय भोजन है .महुआ के सीजन में ये उसे बीनकर सख ु ाकर रख लेते हैं और इसकी बनी रोटी बडॆ चाव से खाते हैं. महुआ से बनी शराब इन्हें जुंगल में दटके रहने का जज्बा बनाए रखती है . यदद बबमार पड गए तो तो भम ु का-पडडहार ही इनका डाक्टर होता है . यादद कोई बाहरी बाधा है तो गुंडा-ताबीज बाुंध कर इलाज हो जाता है . शहरी चकाचौंध से कोसों दरू आज भी वे सादगी के साथ जीवन यापन करते हैं. कमर के इदध -गगदध कपडा लपेटे, मसर पर फ़डडया बाुंधे, हाथ में कुल्हाडी अथवा दराती मलए. होठ पर मुंद-मुंद मस् ु कान ओढे ये आज भी दे खे जा सकते हैं. ववकास के नाम पर करोड -अरब ुं का खचाध ककया गया, वह रकम कहाुं से आकर , चली जाती है , इन्हें पता नहीुं चलता और न ही ये ककसी के पास मशकायत-मशकवा लेकर नहीुं जाते. ववकास के नाम पर केवल कोट में उतरने के मलए सीदढयाुं बना दी गयी है ,लेककन आज भी ये इसका उपयोग न करते हुए अपने बने –बनाए रास्तोंपगडुंडडयों पर चलते नजर आते हैं. सीदढयों पर चलते हुए आप थोडी दरू ही जा पाएुंगे,लेककन ये अपने तरीके से चलते हुए सैकड ुं फ़ीट नीचे उतर जाते हैं. हाट-बाजार के ददन ही ये ऊपर आते हैं और इकाठ्ठा ककया गया वनोपज बेचकर, ममट्टी का तेल तथा नमक आदद लेना नहीुं भल ू ते. जो

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चीजें जुंगल में पैदा नहीुं होती, यही उनकी न्यन ू तम आवश्यकता है . एक खोज के अनस ु ार पातालकोट की तलहटी में करीब 20 गा​ाँव साुंस लेते थे, लेककन प्राकृततक प्रकोप के चलते वतधमान समय में अब केवल 12 गा​ाँव ही शेष बचे हैं. एक गा​ाँव में 4-5 अथवा सात-आठ से ज्यादा िर नहीुं होते. ब्जन बारह गाुंव में ये रहते हैं, उनके नाम इस प्रकार है -रातेड, चमटीपुर, गज ु​ुं ाडोंगरी, सहरा, पचगोल, हरककछार, सख ू ाभाुंड, िरु नीमालनी, झझरनपलानी, गैलडुबबा, िटमलुंग, गढ ु ीछातरी तथा िाना. सभी गाुंव के नाम सुंस्कृतत से जड ु -ॆ बसे हैं. भाररयाओुं के शबदकोष में इनके अथध धरातलीय सुंरचना, सामाब्जक प्रततष्ठा, उत्पादन ववमशष्टता इत्यादद को अपनी सुंपूणत ध ा में समेटे हुए है . ये आददवासीजन अपने रहने के मलए ममट्टी तथा िास-फ़ूस की झोपडडयाुं बनाते है . ददवारों पर खडडया तथा गेरू से पतीक गचन्ह उकेरे जाते हैं .हाँमसया-कुल्हाडी तथा लाठी इनके पारुं पररक औजार है . ये ममट्टी के बतधनों का ही उपयोग करते हैं. ये अपनी धरती को मा​ाँ का दजाध दे ते हैं. अतः उसके सीने में हल नहीुं चलाते. बीजों को तछडककर ही फ़सल उगाई जाती है .. वनोपज ही उनके जीवन का मख् ु य आधार होता है . पातालकोय़ में उतरने के और चढने के मलए कई रास्ते हैं. रातेड-गचमटीपुर और कारे आम के रास्ते ठीक हैं. रातेड का मागध सबसे सरलतम मागध है , जहा​ाँ आसानी से पहुाँचा जा सकता है . कफ़र भी सुंभलकर चलना होता है . जरा-सी भी लापरवाही ककसी बडी दि ध ना को ु ट आमुंबत्रत कर सकती है . पातालकोट के दशधनीय स्थलों में ,रातेड, कारे आम, गचमटीपुर, दध ू ी तथा गायनी नदी

का उद्गम स्थल और राजाखोह प्रमख ु है . आम के झरु मट ु , पयधटक ुं का मन मोह लेती है .

आम के झरु मट ु में शोर मचाता- कलकल के स्वर तननाददत कर बहता सन्ु दर सा झरना, कारे आम का खास आकषधण है . रातेड के ऊपरी दहस्से से कारे आम को दे खने पर यह ऊाँट की कूबड सा ददखाई दे ता है . राजाखोह पातालकोट का सबसे आकषधक और दशधनीय स्थल है . ववशाल कट रे मे मातनुंद ,एक ववशाल चट्टान के नीचे 100 फ़ीट लुंबी तथा 25 फ़ीट चौडी कोत(गफ़ ु ा) में कम से कम दो सौ लोग आराम से बैठ सकते हैं. ववशाल कोटरनम ु ा चट्टान, बडॆ-बडॆ गगनचु​ुंबी आम-बरगद के पेड ,ुं जुंगली लताओुं तथा जडी-बूदटयों से यह ढुं की हुई है . कल-कल के स्वर तननाददत कर बहते झरनें, गायनी नदी का बहता तनमधल ,शीतल जल, पक्षक्षयों की चहचाहट, हराध-बेहडा-आाँवला, आचार-ककई एवुं छायादार तथा फ़लदार वक्ष ृ ुं की सिनता, धु​ुंध और हरततमा के बीच धूप-छा​ाँव

की आाँख ममचौनी, राजाखोह की सुद ुं रता में चार चा​ाँद लगा दे ता है . और उसे एक पयधटन स्थल

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ववशेष का दजाध ददलाता हैं. नागपुर के राजा रिज ु ी ने अाँगरे जों की दमनकारी नीततयों से तुंग आकर मोचाध खोल ददया था, लेककन ववपरीत पररब्स्थततया​ाँ दे खकर उन्होंने इस गफ़ ु ा को अपनी शरण-स्थली बनाया था, तभी से इस खोह का नाम “राजाखोह” पडा. राजाखोह के समीप गायनी नदी अपने पूरे वेग के साथ चट्टानों क काटती हुई बहती है . नदी के शीतल तथा तनमधल जल में स्नान कर व तैरकर सैलानी अपनी थकन भल ू जाते हैं. पातालकोट का जलप्रवाह उत्तर से पव ू ध की ओर चलता है . पतालकोट की जीवन-रे खा दध ू ी नदी है , जो रातेड नामक गा​ाँच के दक्षक्षणी पहाड ुं से तनकलकर िाटी में बहती हुई उत्तर ददशा की ओर प्रवादहत होती हुई पुनः पूवध की ओर मड ु जाती है . तहसील की सीमा से सटकर कुछ दरू तक बहने के , पन ु ः उत्तर की ओर बहने लगती है और अुंत में नरमसुंहपरु ब्जले में नमधदा नदी में ममल जाती है . पातालकोट का आददम- सौंदयध जो भी एक बार दे ख लेता है , वह उसे जीवन पयंत नहीुं भल ू सकता. पातालकोट में रहने वाली जनजातत की मानवीय धडकनों का अपना एक अद्भत ु सुंसार है ,जो उनकी आददम परुं पराओुं, सुंस्कृतत,रीतत-ररवाज, खान-पान, नत्ृ य-सुंगीत, सामान्यजनों के कक्रयाकलाप ुं से मेल नहीुं खाते. आज भी वे उसी तनश्छलता,सरलता तथा सादगी में जी रहे हैं. यहा​ाँ प्राकृततक दृष्यों की भरमार है .यहा​ाँ की ममट्टी में एक जादई ु खुशबू है , पेडपौधों के अपने तनराले अुंदाज है , नदी-नालों में तनबाधध उमुंग है , पशु-पक्षक्षयों मे तनद्धवुंद्वता है ,खेत- खमलहानों मे श्रम का सुंगीत है , चारो तरफ़ सग ुं ही सग ुं है , ऐसे मनभावन वातावरण में ु ध ु ध दःु ख भला कहा​ाँ सालता है ?. कदठन से कदठन पररब्स्थततया​ाँ भी यहा​ाँ आकर नतमस्तक हो जाती है सरू ज के प्रकाश में नहाता-पुननधवा होता- झखलझखलाता-मस् ु कुराता- खुशी से झूमता- हवा के सुंग दहचकोले खाता- जुंगली जानवरों की गजधना में काुंपता- कभी अनमना तो कभी झम ू कर नाचता जुंगल,

खब ू सरू त पेड-पौधे, रुं ग-बबरुं गे फ़ूलों से लदी-फ़दी डामलया​ाँ, शीतलता

और ,मुंद हास बबखेरते, कलकल के गीत सन ु ाते, आकवषधत झरने, नदी का ककसी रुपसी की तरह इठलाकर- बल खाकर, मचलकर चलना दे खकर भला कौन मोदहत नहीुं होगा ?. जैसे –जैसे साुंझ गहराने लगती है ,और अन्धकार अपने पैर फ़ैलाने लगता है , तब अन्धकार में डूबे वक्ष ृ ककसी दै त्य की तरह नजर आने लगते है और वह अपने जुंगलीपन पर उतर आते हैं. दहुंसक पशु-पक्षी अप्नीअपनी माुंद से तनकल पडते हैं, अपने मशकार की तलाश में . सरू ज की रौशनी में , कभी नीले तो कभी काले कलट ू े ददखने वाले, अनोखी छटा बबखेरते पहाड ुं की श्रुंख ृ ला, ककसी ववशालकाय राक्षस से कम ददखलाई नहीुं पडते. खूबसरू त जुंगल ,जो अब से ठीक पहले,

हमे अपने सम्मोहन में

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समेट रहा होता था, अब डरावना ददखलायी दे ने लगता है . एक अज्ञातभय, मन के ककसी कोने में आकर मसमट जाता है . इस बदलते पररवेश में पयधटक, वहा​ाँ रात गज ु ारने की बजाय ,अपनी-अपनी होटलों में आकर दब ु कने लगता है , जबकक जुंगल में रहने वाली जनजातत के लोग, बेखौफ़ अपनी झोपडडयों में रात काटते हैं. वे अपने जुंगल का, जुंगली जानवरों का साथ छ डकर नही भागते. जुंगल से बाहर तनकलने की वह सपने में भी सोच नहीुं बना पाते. “जीना यहा​ाँ-मरना यहा​ाँ” की तजध पर ये जनजाततयाुं बडॆ सक ु ू न के साथ अलमस्त होकर अपने जुंगल से खब ू सरू त ररश्ते की डोर से बुंधे रहते हैं. अपनी माटी के प्रतत अनन्य लगाव, और उनके अटूट प्रेम को दे खकर एक सब्ू क्त याद हो आती है .” जननी-जन्मभमू मश्च स्वगाधदवपगररयसी”= जननी और जन्म भमू म स्वगध से भी महान होती है ” को फ़मलताथध और चररताथध होते हुए यहा​ाँ दे खा जा सकता है . यदद इस अथध की गहराइयों तक अगर कोई पहुाँच पाया है , तो वह यहा​ाँ का वह आददवासी है , ब्जसे हम केवल जुंगली कहकर इततश्री कर लेते है . लेककन सच माने में वह “:धरतीपुत्र” है ,जो आज भी उपेक्षक्षत है .

(२)

(

आदिवासी-संस्कृतत और पर्ा​ावरण. भारत में करीब तीन हजार की सुंख्या​ाँ में ववमभन्न जाततयों और उप-जाततया​ाँ तनवास करती है . सभी का रहन-सहन, रीतत-ररवास एवुं परम्पराएुं अपनी ववमशष्ट ववशेषताओुं को दशाधती है . कई जाततया​ाँ (**)मसलन गोंड- भील- बैगा- भाररया आदद जुंगल ुं मे आनाददकाल से तनवास करती आ रही है . सभी की आवश्यकताओुं की पतू तध जुंगलो से होती है . इन जाततयों की सामाब्जक-आगथधक-राजतनततक एवुं कुटुम्ब व्यवस्था की अपनी अलग पहचान रही है . इन लोंगो में वन-सुंरक्षण करने की प्रबल वब्ृ त्त है . अतः वन एवुं वन्य-जीवों से उतना ही प्राप्त करते हैं,ब्जससे

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उनका जीवन सल ु भता से चल सके और आने वाली पीढी को भी वन-स्थल धरोहर के रुप में सौंप सकें. इन लोगों में वन सुंवधधन, वन्य जीवों एवुं पालतू पशुओुं का सुंरक्षण करने की प्रवब्ृ त्त परम्परागत है . इस कौशल दक्षता एवुं प्रखरता के फ़लस्वरुप आददवामसयों ने पहाड ,ुं िादटयों एवुं प्राकृततक वातावरण को सुंतुमलत बनाए रखा. स्वतुंत्रता से पूवध समाज के ववमशष्ट वगध एवुं राजामहाराजा भी इन आददवासी क्षेत्र से छॆ ड-छाड नहीुं ककया करते थे. लेककन अग्रेजों ने आददवासी क्षेत्रों की परम्परागत व्यवस्था को तहस-नहस कर डाला, क्योंकक यरू ोपीय दे शों में स्थावपत उद्दोगों के मलए वन एवुं वन्य-जीवों पर कहर ढा ददया. जब तक आददवासी क्षेत्रों के प्राकृततक वातावरण में सेंध नहीुं लगी थी, तब तक हमारी आरण्यक-सुंस्कृतत बरकरार बनी रही. आधुतनक भौततकवादी समाज ने भी कम कहर नहीुं ढाया. इनकी उपब्स्थतत से उनके परम्परागत मल् ू यों एवुं साुंस्कृततक मल् ू यों का जमकर ह्रास हुआ है . साफ़-सथ ु री हवा में ववचरने वाले,जुंगल में मुंगल मनाने वाले इन भ ले भाले आददवामसयों का जीवन में जहर सा िल ु गया है . आज इन आददवामसयों

को

वपछडॆपन, अमशक्षा, गरीबी, बेकारी एवुं वन-ववनाशक के प्रतीक के रुप में दे खा जाने लगा है. उनकी आददम सुंस्कृतत एवुं अब्स्मता को चालाक और लालची उद्योगपतत खुले आम लट ू रहे हैं. जुंगल का राजा अथवा राजकुमार कहलाने वाला यह आददवासी जन आज ददहाडी मजदरू के रुप में काम करता ददखलायी दे ता है . चुंद मसक्कों में इनके श्रम-मल् ू य की खरीद-फ़ारोख्त की जाती है और इन्हीुं से जुंगल के पेड ुं और जुंगली पशु-पक्षक्षयों को मारने के मलए अगव ु ा बनाया जाता है . उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीुं की होगी कक पीढी दर पीढी से वे ब्जन जुंगलों में रह रहे थे, उनके सारे अगधकारों को ग्रहण लग जाएगा. ववलायती हुकूमत ने सबसे पहले उनके अगधकारों पर प्रहार ककया और तनयम प्रततपाददत ककया कक वन ुं की सारी ब्जम्मेदारी और कबजा सरकार की रहे गी और यह परम्परा आज भी बाकायदा चली आ रही है . वे अब भी “झूम खेती” करते है . पेड ुं क जलाते नहीुं है ,ब्जसके फ़लों की उपयोगगता है . महुआ का पॆड इनके मलए ककसी “कल्पवक्ष ृ ” से कम नहीुं है . जब इन पर फ़ल पकते हैं तो वे इनका सुंग्रह करते हैं और परू े साल इनसे बनी रोटी खाते है . इन्हीुं फ़लों को सडाकर वे उनकी शराब भी बनाते हैं. शराब की एक िट ूुं इनमें जुंगल में रहने का हौसला बढाती है . दे श की स्वतुंत्रता के उपरान्त पुंचवषीय योजनाओुं की स्थापनाएुं, बुतनयादी उद्योगों की स्थापनाएुं एवुं हररत क्राुंतत जैसे िटकों के आधार पर ववकास की नीुंव रखने वाले तथाकगथत बुदद्दजीववयों ने हडबडाहट में “एकानामी” एवुं “एकालाजी” के सह-सुंबुंधों को भल ू जाने अथवा जानबूझकर “इगनोर” करने की प्रवतृ त के चलते, हमारे सम्मख ु पाररब्स्थततकी की ववकट समस्या पैदा कर दी हैं. समझ से परे है कक ववकास के नाम पर आददवामसयों को ववस्थावपत कर उन्हें

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िम् ु मकड की श्रेणी में ला खडा कर ददया है और द्रत ु गतत से वनों की कटाई करते हुए बडॆ-बडॆ बाुंधों का तनमाधण करवा ददया है .. यदद आददवामसयों की सामाब्जक एवुं साुंस्कृततक मल् ू यों को भी दृब्ष्ट में रखकर इन सभी योजनाओुं का कक्रयाब्न्वत ककया जाता, तो सुंभव है कक पयाधवरण की समस्या ववकट नहीुं होती और न ही प्रकोप होता, जैसा कक अभी हाल ही में आए प्राकृततक प्रकोप ने “उत्तराख्ड” को ख्ड-ख्ड कर ददया, बचा जा सकता था. यह भी सच है कक हमें ववश्व सुंस्कृतत के स्तर पर दे श की अथधव्यवस्था को सदृ ु ढ बनाते हुए समानान्तर स्तर पर लाना है , लेककन “अर्य़ संस्कृतत” को ववध्वुंश करके ककये जाने की पररकल्पना कालान्तर में लाभदायी मसद्ध होगी,ऎसा सोचना कदावप उगचत नहीुं माना जाना चादहए. हमें अपने परम्परागत साुंस्कृततक मल् ू यों, सामाब्जक परम्पराओुं का ववनाश न करते हुए आददवामसयों की

वन एवुं वन्य-जीव सुंस्कृतत को बगैर छे ड-छाड ककए सुंरक्षण प्रदान ककया जाना

चादहए. एक स्थान से दस ू रे स्थान पर ववस्थापन, न तो आददवामसयों को भाता है और न ही वन्य जीव-जन्तुओुं को, लेककन ऎसा बडॆ पैमाने पर हो रहा है , इस पर अुंकुश लगाए जाने की जरुरत है . अगर ऎसा नहीुं ककया गया तो तनब्श्चत जातनए कक वनों का ववनाश तो होगा ही, साथ ही पाररब्स्थततकी असुंतल ु न में भी ववृ द्ध होगी. अगर एक बार सुंतल ु न बबगडा तो सध ु ारे सध ु रने वाला नहीुं है . सुंववधान में आददवामसयों को यह वचन ददया गया है कक वे अपनी ववमशष्ट पहचान को बनाए रखते हुए राष्र की ववकासधारा से जड ु सकते हैं. अतः कडा तनणधय लेते हुए सरकार को आगे आना होगा,ब्जससे उनकी प्राकृततक सुंस्कृतत पर कोई प्रततकूल असर न पडॆ. हम सब जानते हैं कक उनकी भमू म अत्यगधक उपजाऊ नहीुं है और न ही खेती के योग्य है . कफ़र भी वे वनों में रहते हुए वन ुं के रहस्य को जानते हैं और “झूम” पद्दतत से उतना तो पैदा कर ही लेते हैं,ब्जतनी कक उन्हें आश्यकता होती है . यदद इससे जरुरतें पूरी नहीुं हो सकती तो वे महुआ को भोजन के रुप में ले लेते हैं या कफ़र आम की गढ ु मलयों क पीसकर रोटी बनाकर अपना उदर-पोषण कर लेते हैं, लेककन प्रकृतत से झखलवाड नहीुं करते., कफ़र वे हर पौधे-पेड ुं से पररगचत भी होते हैं, कक कौनसा पौधा ककस बबमारी में काम में आता है , कौनसी जडी-बूटी ककस बबमारी पर काम करती है , को भी सुंरक्षक्षत करते चलते हैं. ववुंध्याचल-दहमालय व अन्य पवधत मशखर हमारी सुंस्कृतत के पावन प्रतीक हैं.. इन्हें भी वक्ष ृ ववहीन बनाया जा रहा है .,क्योंकक वनवामसयों को उनके अगधकारों से वुंगचत ककया जा सके. इन पहाडडयों पर पायी जाने वाली जडी बूदटयाुं, ईंधन, चारा एवुं आवश्यक्तानस ु ार इमारती लकडी प्रचूर

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मात्रा में प्राप्त होती रहे .. आददवामसयों को जुंगल धरोहर के रुप में प्राप्त हुए थे, वे ही ठे केदारों के इशारे पर जुंगल काटने को मजबूर हो रहे हैं.. यद्दवप पवधतीय क्षेत्रों में अनेकों ववकास कायधक्रम लागू ककए जा रहे हैं लेककन उनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरुप से उन्हें फ़ायद होने वाला नहीुं है ., आददवामसयों को सुंरक्षण प्राप्त नहीुं होने से केवल वन सुंस्कृतत एवुं वन्य-जीव सरु क्षा का ही ह्रास नहीुं हो रहा है बब्ल्क दे श की अखण्डता को खुंडडत करने वाले तत्व अलग-अलग राज्यों की माुंग करने को मजबूर हो रहे हैं. इन सबके पीछे आगथधक असुंतुलन एवुं पयाधवरण असुंतुलन जैसे प्रमख ु कारण ही जड में ममलेंगे. हमारे दे श की अर्र् संस्कृतत अपनी ववशेषता मलए हुए थी, जो शनैः-शनैः अपनी हरीततमा खोती जा रही है . जहा​ाँ-कहीुं के आददवामसयों ने अपना स्थान छोड ददया है ,वहा​ाँ के वन्यजीवों पर प्रहार हो रहे हैं ,बब्ल्क यह कहा जाए कक वे लगभग समाब्प्त की ओर हैं, उसके प्रततफ़ल में सख ू ा पडने या कहें अकाल पडने जैसी ब्स्थतत की तनममधतत बन गई है ..कफ़र सरकार को करोड रुपया राहत के नाम पर खचध करने होते हैं. लाखों की सुंख्या में बेशकीमती पौधे रोपने के मलए ददए जाते हैं, लेककन उसके आधे भी लग नहीुं पाते. यदद लग भी गए तो पयाधप्त पानी और खाद के अभाव में मर जाते हैं. जब शहरों के वक्ष ृ सरु क्षक्षत नहीुं है तो कफ़र कोसो दरू जुंगल में उनकी परवररश करने वाला कौन है ? हम अपने पडौस के दे शो में जाकर दे खें, उन्होंने प्रभावी ढुं ग से सफ़लतापूवक ध अनक ु रणीय़ कायध ककया है और पेड ुं की रक्षा करते हुए हररयाली को बचाए रखा है . जब आददवामसयों से वन-सम्पदा का मामलकाना हक छीनक्रर केन्द्रीय एवुं राज्य सरकारों के हाथ में चले जाएुंगे तो केवल ववकास के नाम पर बडॆ-बडॆ बाुंध बाुंधे जाएुंगे और बदले में उन्हें ममलेगा बाुंधो से तनकलने वाली नहरें , नहरों के आसपास मचा दलदल और भमू म की उवधरा शब्क्त को कम करने वाली पररब्स्थतत और ववस्थावपत होने की व्याकुलता और ब्जन्दगी भर की टीस, जो उसे पल-पल मौत के मह ु​ुं में ढकेलने के मलए

पयाधप्त होगी.

आददवासी क्षेत्रों में होने वाले ववध्वुंस से जलवायु एवुं मौसम में पररवतधन द्रत ु गतत से हो रहा है . कभी भारत में ७०% भमू म वनों से आच्छाददत थी, आज िटकर २०-२२ प्रततशत रह गई है . वनो के मलए यह गचुंता का ववषय है . वनों की रक्षा एवुं ववकास के नाम पर पूरे दे श में अफ़सरों और कमधचररयों की सुंख्याुं में बेतरतीब बढौतरी हुई हैं, उतने ही अनप ु ात में वन मसकुड रहे हैं. सरु क्षा के नाम पर गब्श्त दल बनाए गए हैं, कफ़र भी वनों की अुंधाधु​ुंध कटाई

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तनबाधधगतत से चल रही है . कारण पूछे जाने पर एक नहीुं,वरन अनेकों कारण गगना ददए जाते हैं.,उनमे प्रमख ु ता से एक कारण सन ु ने में आता है कक जब तक ये आददवासी जुंगल में रहें गे, तब तक वन सरु क्षक्षत नहीुं हो सकते. ककतना बडा लाुंझन है इन भेले-भाले आददवामसयों पर, जो सदासे धरती को अपनी माुं का दजाध दे ते आए हैं. वे रुखा-सख ू ा खा लेते हैं, मफ़ ु मलसी में जी लेते हैं,लेककन धरती पर हल नहीुं चलाते, उनका अपना मानना है कक हल चलाकर वे धरती का सीना चाक नहीुं करते. भारत का हृदय कहलाने वाले मध्यप्रदे श के तछन्दवाडा ब्जले से 62 ककमी. तथा ताममया ववकास खुंड से महज 23 ककमी.की दरू ी पर, समद्र् ु सतह से 3250 फ़ीट ऊाँचाई पर तथा भत ू ल से 1200 से 1500 फ़ीट गराई में

“कोट” यातन “पातालकोट” ब्स्थत है . ब्जसमें आज भी

आददवामसयों के बारह गा​ाँव साुंस लेते हुए दे खे जा सकते हैं. यहा​ाँ के आददवामसयों को धरती-तल पर बसाने के मलए कई प्रयत्न ककए गए,लेककन वे इसके मलए कतई तैयार नहीुं होते. अतः दोषरोपण मढना कक अददवामसयों की वजह से वन सरु क्षक्षत नही है , एक मख ध ापूणध लाुंछन है . ू त ,

अतः सच्चाई का दामन पकडना होगा. यदद आददम लोगो की सामाब्जक, आगथधक,

साुंस्कृततक ववरासत को सरु क्षक्षत रखते हुए तथा उनकी सक्रीय भागीदारी सतु नब्श्चत करते हुये उन्हें ववकास की योजनाओुं के साथ जोड ददया जाए तो तनब्श्चत ही कहा जा सकता है कक आददम क्षेत्र में पयाधवरण के साथ अन्य भागों क भी सरु क्षक्षत रखा जा सकता है, स्वस्थ पयाधवरण पर सारे राष्र का अब्स्तत्व एवुं भववष्य सरु क्षक्षत रह सकता है और वह प्रगतत के पथ पर अग्रसर हो सकता है .

(३)

लोक सादहत्य में पयाधवरण चेतना.

लोकसादहत्य पढने-मलखने में एक शबद है , पर वह वस्तुतः यह दो गहरे भावों का गठबुंधन है . “लोक” और “सादहत्य”एक दस ू रे के सुंपूरक, एक दस ू रे में सुंब्श्लष्ट. जहाुं लोक होगा, वहाुं उसकी सुंस्कृतत और सादहत्य होगा. ववश्व में कोई भी ऎसा स्थान नहीुं है , जहाुं लोक हो और वहाुं उसकी सुंस्कृतत न हो. मानव मन के उद्गारों व उसकी सक्ष् ू मतम अनभ ु तू तय ुं का सजीव गचत्रण यदद कहीुं ममलता है तो वह लोक सादहत्य में ही ममलता है . यदद हम लोकसादहत्य को

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जीवन का दपधण कहें तो कोई अततश्योब्क्त नहीुं होगी. लोक सदहत्य के इस महत्व को समझा जा सकता है कक लोककथा को लोक सादहत्य का जनक माना जाता है और लोकगीत को काव्य की जननी. लोक सादहत्य मे कल्पना प्रधान सादहत्य की अपेक्षा लोकजीवन का यथाथध सहज ही दे खने में ममलता है . लोकसादहत्य हम धरतीवामसयों का सादहत्य है ,क्योंकक हम सदै व ही अपनी ममट्टी, जलवायु तथा साुंस्कृततक सुंवेदना से जड ु े रहते हैं. अतः हमें जो भी उपलबध होता है वह गहन अनभ ु तू तयों तथा अभाव ुं के कटु सत्यों पर आधाररत होता है , ब्जसकी छाया में वह पलता और ववकमसत होता है . इसीमलए लोक सादहत्य हमारी सभ्यता का सुंरक्षक भी है . सादहत्य का केन्द्र लोकमुंगल है . इसका पूरा ताना- बाना लोकदहत के आधार पर खडा है . ककसी भी दे श अथवा यग ु का सादहत्यकार इस तथ्य की उपेक्षा नहीुं कर सकता. जहा​ाँ अतनष्ठ की कामना है ,वहा​ाँ सादहत्य नहीुं हो सकता. वह तो प्रकृतत की तरह ही सवधजनदहताय की भावना से आगे बढता है . सुंत मशरोमझण तुलसीदास की ये पुंब्क्तयाुं” कीरत भतनत भरू रमल सोईसरु सरर के सम सब कह दहत होई” अमरत्व मलए हुए है . गुंगा की तरह ही सादहत्य भी सभी का दहत सोचता है . वह गुंगा की तरह पववत्र और प्रवाहमय है , वह धरती को जीवन दे ता है ...श्रुंग ृ ाुंर दे ता है और साथधकता भी. प्रकृतत सादहत्य की आत्मा है . वह अपनी ममट्टी से, अपनी जमीन से जुडा रहना भी सादहत्य की अतनवायधता समझता है . ममट्टी में सारे रचनाकमध का” अमत ृ वास´ रहता है . रचनाकर उसे नए-नए रुप दे कर रुपातयत करता है . गरु ु -मशष्य परम्परा हमें प्रकृतत के उपादान ुं के नजदीक ले आती है . जहा​ाँ कबीर का कथन प्रासुंगगक है -´गरु ु कुम्हार मसख कुंु भ गढी-गढी काठै खोट- अन्तर हाथ सहार दे बाहर वाहे खोट” सुंस्कारों से दीक्षक्षत व्यब्क्त सभी प्रकार के दोष -ुं खोट ुं से मक् ु त रहता है . इसमें लोकदहत की भावना समादहत है . मलक ू दास भी इन्सातनयत की पररभाषा अपने शबदों में यूुं दे ते हैं-“मलक ु ा सोई पीर है ,जो जाने पर पीर-जो पर पीर न जानई,सो काकफ़र बेपीर.” दस ू रों की पीडा समझने वाला इन्सान पशु-पक्षी का भी अदहत नहीुं सोच सकता. उसे वनस्पतत के प्रतत मैत्री का वह ववस्तार सादहत्य ही तो है . ब्जज्ञासु व्यब्क्त कुछ न कुछ सोचने की चेष्टा करता है . इस प्रकृतत के सहचयध से उसने बहुत कुछ सीखा है . उस काल के वेदज्ञ ब्राहमण चौदह ववद्दाओुं का करना अपना अभीष्ठ

अध्ययन

मानते थे. सोलह कलाओुं और चौदह ववधाओुं के अलावा वे सुंगीत,

सामदु द्रक, ज्योततवष, वेदाध्ययन काव्य, भाषाशास्त्र, पशभ ु ाषा ज्ञान, तैरना,धातु ववज्ञान,

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रसायन, रत्न परख, चातुय ध एवुं अुंग ववज्ञान आदद अनेक ववषयों में गहरी रूगचया​ाँ रखते थे.इस बात के साक्षी है पुरातन भारतीय- ग्रुंथ जो समय की सीमा को पार कर चुके हैं .मनष्ु य के सुंगचत ज्ञान और अनभ ु व के पहले पस् ु तकाकार स्वरुप की याद आते ही दृब्ष्ट स्वमेव ही वेदों की ओर चली जाती है . वेद वे वाड.मय जो ज्ञान कोष के रुप में सददयों से हमारा साथ दे ते आए हैं. ऋगवेद को सब्ृ ष्ट ववज्ञान की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है . जल, अब्ग्न, वाय,ु मद ु रुप से ृ ा, चारों वेदों की रचना के पीछे ये ही तत्व प्रमख काम करते हैं. ऋगवेदे मे अब्ग्न के रुपान्तरण कायध और गण ु ुं की व्याख्या है ., तो यजुवेद में ववववध रुपों और गण ु धमों की. सामवेद का प्रधान तत्व जल है , तो अथवेवेद पथ् ृ वी( मद ृ ा) पर केब्न्द्रत है . पाुंचव तत्व आकाश तत्व है . सब्ृ ष्ट की रचना करने वाले उस महान कुंु भकार ने इन्हीुं पाुंचों तत्वों के कच्चे माल को ममलाकर एक ऐसी ही रचना की ,जो बेजोड है . हमारी धरती के अब्स्तत्व का जो आधार है ब्जसे भारतीय मेधा ने भमू म मा​ाँ कहकर अमभनन्दन के स्वर अवपधत ककए_”माताभमु मः पुत्रोव्है पगृ थव्या”. अचधन-अमभनन्दन के इन ् स्वरों में बहुत ही साथधक भावभीना स्वर है . यह वैददक पथ् ू माुं पथ् ृ वी समह ृ वी की स्तुतत का पावन सत्र ू ,प्रकृतत प्रेम की अद्भत ु ममसाल,पयाधवरण ववमशध का महत्वपूणध िोषणापत्र,पयाधवरण प्रततष्ठा का सारस्वत अनष्ु ठान और उसके सुंरक्षण के मलए समवपधत मशव सुंकल्प, आसरु ी वब्ृ त्तयों के अस्वीकार तथा दै वी वब्ृ त्तयों के स्वीकार का िोषणा-पत्र है . यह पथ् ृ वी की समस्त तनगधयों के वववेक सम्मत प्रयोग का आग्रही है . यह प्रेम के मलए नहीुं, श्रेय के मलए समवपधत शोध का पक्षधर है. यह सामाब्जकता,मुंगलमयता में लीन हो जाने का आव्हान है . आज के पयाधवरण सुंकट की समस्त यब्ु क्तयों का एक सबू त्रय समाधान है . बीस काुंड ,ुं इकतीस सत्र ू ों और पाुंच हजार नौ सौ इकहत्तर मुंत्रों का महाकोष है . व्यब्क्त सख ु ी रहे , दीिाधयु प्राब्प्त करे . सदनीतत पर चले, पशु-पक्षक्षयों, वनस्पततयों एवुं जीव जगत के साथ साहचयध रहे ,इन्हीुं कामनाओुं से ओत-प्रोत यह अद्भत ु ग्रुंथ है . लोक चेतना तो सुंस्कृतत और सादहत्य की पररचालक शब्क्त मानी जाती है .ककन्तु वतधमान मशीनी और कम्प्यट ु री समाज से लोक चेतना शन् ू य होती जा रही है . आज जरुरी है कक सादहत्य का मल् ू याुंकन लोकजीवन, लोक सुंस्कृतत की दृब्ष्ट से ककया जाना चादहए. जो लोकसादहत्य लोकजीवन से जुडा होगा वही जीवन्त होगा. माना भमू मः प्रयोग है पथ ृ ीव्याः अथवधवेद कक ऋचा का महाप्राण है . लोकजीवन इस ऋचा के आशय का प्रतततनगधत्व यग ु ों से करता आ रहा है .यही लोक सादहत्य की आधार मशला है .

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लोकसादहत्य परम्परा पर आधाररत होता है . अतः अपनी प्रकृतत मे ववकाश- शील है . इसमें तनत्यप्रतत पररवतधन की सुंभावना बनी रहती है . इसका सज ु पीडा एवुं ृ न यग सामाब्जक दवाब को भी तनरन्तर महसस ू करता रहता है . साुंस्कृततक पररब्स्थततयों का तनवधहन ही सभ्यता कहलाती है . कुछ ववद्वान सभ्यता और संस्कृतत को एक ही मानते हैं और उसके ववचार में सभ्यता और सुंस्कृतत का ववकास समान रुप से होता है . काफ़ी गहराई से गचुंतन करें तो सभ्यता का ज्यों-ज्यों ववकास होता है ,त्यों-त्यों सुंस्कृतत का ह्रास होता है . खान-पान, पहनावा सब बदलता जाता है और उसका प्रत्येक पर प्रभाव पडता है . लोकसादहत्य में लोककथा-लोकनाटक तथा लोकगीतों के रखा जा सकता है . ब्जसमें जनपदीय भाषाओुं का रसपूण-ध कोमल भावनाओुं से यक् ु त सादहत्य होता है . भारतीय लोक सादहत्य के ममधज्ञ आर.सी टे म्पल ु के मतानस ु ार लोक सादहत्य कक सादहब्त्यक दृब्ष्टकोण से वववेचना करना उसी सीमा तक करना उगचत होगा, ब्जस सीमा तक उसमें तनदहत सन् ु दरता और आकषधण को ककसी प्रकार की हातन न पहुाँचे. यदद लोक सादहत्य की वैज्ञातनक वववेचना की जाती है तो मल ू ववषय नीरस और बेजान हो जाएगा. लोक के हर पहलू में सुंस्कृतत के ददव्य दशधन होते हैं. जरुरत है तीक्ष्ण दृब्ष्ट और सरल सोच की. लोक सादहत्य के उद्भट ववद्वान दे वेन्द्र सत्याथी ने सादहत्य के अटूट भुंडार को स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था-“ मैं तो ब्जस जनपद में गया, झोमलयाुं भरकर मोती लाया.

परलोक की धारणाएाँ भी इन्हीुं से जुडी है . सभी कमधकाण्ड,पूजा-अनष्ु ठान तथा

उन्नत साुंस्कृततक समाज में मनष्ु य के आचरण का तनधाधरण इसी लोक में होता है . लोक हमारी सामाब्जकता की गुंगोत्री है और सभ्यता का प्रवेश द्वार भी. भारतीय जनमानस को श्रीमद भगवद्गीता ने ब्जतना प्रभाववत ककया उतना शायद ककसी अन्य पस् ु तक ने नहीुं ककया. वैष्णवी तुंत्र ने गीता की जो व्याख्या की है , उसमें प्रतीक के रूप में पशु जीवन का महत्व प्रततपाददत होता है . सवोपतनषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः पाथो वत्स सध ु ीभॊक्ता दग्ु धुं गीतामत ृ ुं महत.! अथाधत उपतनषद गाय है ,कृष्ण उनको दह ु ने वाले है , अजन ुध बछडा है और गीता दध ू है . गीता मे प्रकृतत को ईश्वर की माया के रूप में दशाधया है . गीता के कुछ स्लोकों को ( अथध) रे खाुंककत ककया जा सकता है . जो तेज सय ू ध और चन्द्रमा में है , उसे मेरा ही तेज मानों. मैं ही पथ् ू -प्राझणयों के धारण करता हूाँ. चन्द्रमा ृ वी में प्रवेश करके सभी भत

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बनकर औषगधयों का पोषण करता हूाँ. जठ-राब्ग्न बनकर प्राझणयों की दे ह मे प्रववष्ठ हूाँ. प्राणवाय-ु अपानवायु से सुंयक् ु त होकर चारों प्रकार से भोजन ककए हुए प्राझणयों के अन्न को पचाता हूाँ. सुंपण ू ध भत ू ों (प्राझणयों) के ह्रदय क्षमता में तनवास करता हूाँ.( अध्याय.१५) श्रीकृष्ण ने अपनी प्रकृतत को अष्टकोणी बताया है . इसमें पथ् ृ वी, जल,अब्ग्न,वायु एवुं आकाश के साथ-साथ मन-बुवद्ध एवुं अहुं कार की गणणा कक गई है . अपनी बाललीलाओुं के माध्यम से उन्होंने जो ददव्य सुंदेश ददया उसका व्यापक प्रभाव लोकजीवन तथा लोकपरम्पराओुं पर पडा. उस ददव्य सुंदेश के पीछे तात्पयध यह था की वनस्पतत, नददयाुं, पहाड,पशु-पक्षी, गौवें , जलचर और मनष्ु य सभी इस प्रकृतत के अुंगीभत ू स्वरुप हैं.और सबका रक्षण,पोषण और ववकास जरुरी है . पवध और त्योहारों के इततहास में हमारे दे श की सुंस्कृतत और सभ्यता का इततहास सब्ृ ष्ट वस्तुतः सारे त्योहार ऎसे हैं जो प्रकृतत की गोद में और प्रकृतत के सुंरक्षण में मनाए जाते हैं. जैसे गोवधधन पूजा, आवुंला पज ू न, गुंगा सप्तमी, माह काततधक मे तुलसी पूजन आदद. ये सभी पवध हमें अपनी प्राकृततकता से सह सुंबुंधो की परम्पराओुं की याद ददलाते हैं .ऎसे पवध जो प्रकृतत के ववमभन्न िटक ुं को पूजने के ददन के रुप में मनाए जाते है , उसी पवध के अवसर पर सम्पन्न कक्रया –कलाप और समारोह प्रकृतत-प्रेम एवुं प्रकृतत के प्रतत सुंवेदनशीलता का नया वातावरण हमें प्रदान कर पयाधवरण को शुद्ध रखने के मलए उत्प्रेररत करते हैं. प्रकृतत िटकों के सहसम्बन्ध हमें नई उमुंग और प्रकृतत प्रेम के नए उत्साह का अनभ ु व कराता है. भौततक ,साुंस्कृततक एवुं लोभ मानसपटल पर नहीुं होंगे तो स्वाथधमय भौततक सुंस्कृतत जैसे प्रदष ू ण प्रकट नहीुं होंगे और पयाधवरण शुद्ध बना रहे गा. ववमभन्न तथ्यों एवुं लोकजीवन की शैली के आधार पर तनष्कषध में कह सकते हैं कक वक्ष ृ हमारी सुंस्कृतत के ववमभन्न अुंग रहे हैं .भारत कृवष प्रधान दे श है. अतः मद ृ ा का सुंरक्षण आवश्यक है . प्राकृततक अवस्था में मैदानी एवुं पहाडी स्थानों पर लगे वक्ष ृ ुं की जडॆ ुं जमीन को पकडॆ रहती है ,ब्जससे पानी का प्रवाह एवुं हवा सुंतुमलत रहती है . वक्ष ृ ुं के अभाव में हवा एवुं पानी पर तनयुंत्रण नहीुं रहने से भमू म के रे गगस्थान में पररवतधन होने की प्रबल सुंभावनाएुं बनती जा रही है . वनों की कटाई न करने के प्रतत जन चेतना फ़ैलाने के उद्देश्य से आुंदलन ुं को शुरु ककया जाना चादहए.

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मनुष्य की प्रदवू षत मानमसकता प्रकॄतत को ककसी न ककसी रुप में प्रदवु षत करती है . अस्तु प्रकृतत के प्रदष ू ण को रोकने के मलए सुंस्कृतत की आत्मा,ब्जसमें प्रकृतत की गूाँज है ,से अनुप्राझणत होकर मशक्षा प्रदान करनी चादहए. अतः मशक्षण सुंस्थाओुं में अध्ययनरत बालक-बामलकाओुं को परम्परागत भारतीय मशक्षा प्रदान की जानी चादहए. पूवध की पीदढयों ने अपने समय में प्रकृतत का पूणध ववकास कर उनको भौततक सुंपब्त्त के रुप में बदलकर अगली पीदढयों को प्रदान ककया जाना है और यह माना है कक आने वाली पीढी उन पूवज ध ों का उपकार मानेगी, लेककन वतधमान पीढी की तो भावी मानव के मलए जदटल समस्याएुं और प्रकृतत के ववध्वुंस का आधार छ ड कर जाने की सुंभावनाएुं बन रही है . आज रे गगस्थान बढ रहे हैं. जीव-जुंतुओुं की बहुत सी प्रजाततयाुं लप्ु त हो रही है . प्रकृतत के वतधमान दोहन के भववष्य की आवश्यकताओुं को दृब्ष्ट में रखकर ही अपनी योजनाओुं का तनमाधण करना चादहए

एक अबूझी प्यास है फ़ागुन तेरो नाम

(४)

----------------------------------------------वसुंत-पुंचमी के बाद से ही गा​ाँवों में फ़ाग-गीत गाए जाने की शुरुआत हो जाती है .साज सजने लगते हैं और महफ़ीलें जमने लगती हैं. राबत्र की शुरुआत के साथ ढोलक की थाप और झाुंझ-मुंजीरों की झनझनाहट के साथ फ़ाग गाने का मसलमसला दे र रात तक चलता रहता है . हर दो-चार ददन के अन्तराल के बाद फ़ाग गायी जाती है और जैसे-जैसे होली तनकट आती जाती है ,लोगों का उत्साह दे खते ही बनता है . अब न तो वे ददन रहे और न ही वह बात रही. तेजी से बढते शहरीकरण और दवू षत राजनीतत के चलते आपसी सौहादध और सहयोग की भावना िटती चली गई और आज ब्स्थतत यह है कक फ़ाग सन ु ने को कान तरसते हैं. फ़ाग की बात जुबान पर आते ही मझ ु े अपना बचपन याद हो आता है . बैतुल ब्जले की तहसील मल ध ुत्री ताप्ती का उद्गम स्थल है ,मेरा जन्म हुआ, और जहा​ाँ से मैंने ु ताई,जहा​ाँ से पतीत-पावनी सय ू प मैरीक की परीक्षा पास की, वह परु ाना दृष्य आाँखों के सामने तैरने लगता है . जमिट जमने लगती है , ढोलक की थाप, झाुंझ-मुंजीरों की झनझनाहट ,दटमकी की दटममक-दटन, से परू ा माहौल झखल उठता है .

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कफ़र धीरे से आलाप लेते हुए खेमलाल यादव फ़ाग का कोई मख ु डा उठाते हैं और उनके स्वर में स्वर ममलने लगते है . दमडूलाल यादव,दशरथ भारती, सेठ सागरमल, फ़कीरचुंद यादव, श्यामलाल यादव, सोमवार परु ी गोस्वामी, गेन्दलाल परु ी खस ू टमसुंह, पलु भारती,लोथ्या भारती, मभक्कुलाल यादव (द्वय )और उनके सागथयों का स्वर हवा में तैरने लगता हैं. बीच-बीच में हुं सी-दठठौली का भी दौर चलता रहता है . शाम से शुरु हुए इस फ़ाग की महकफ़ल को पता ही नहीुं चल पाता कक रात के दो बज चुके हैं. फ़ाग का मसलमसला यहा​ाँ थम सा जाता है ,अगले ककसी ददन तक के मलए. ब्जस ददन होलीका -दहन होना होता है , बच्चे-बूढे-जवान ममलकर लकडडया​ाँ जमाते हैं. गाय के गोबर से बनी चाकोमलयों की माला लटका दी जाती है .

रुं ग-बबरुं गे कागजों की तोरणें टुं गने

लगती है . लकडडयों के ढे र के बीच ऊाँचे बाुंस अथवा बल्ली के मसरे पर बडी सी पताका फ़हरा दी जाती है . बडी गहमा-गहमी का वातावरण होता है इस ददन. बडॆ से मसल पर भा​ाँग पीसी जा रही होती है . कोई दध ू औटाने के काम के जुटा होता है . ब्जतने भी लोग वहा​ाँ जुडते हैं, सभी के पास कोई न कोई काम करने का प्रभार होता है . जैस-े जैसे ददन ढलने को होता है ,वैसे-वैसे काम करने की गतत भी बढती जाती है . साझुं तिर जाने के साथ ही एक चमकीला चा​ाँद आसमान पर प्रकट होता है और चार ुं ओर दगु धया रुं ग अपनी छटा बबखेरने लगता है . अब होलीका दहन वाले स्थान के पास बडी दरी बबछा दी जाती है और लोगों का जमावडा होना शरु ु हो जाता है . दटमकी,ढोलक,झाुंझ,मुंजीरें ,करताल बजने लगते हैं. फ़ाग गायन शैली सामदू हक गायन के रुप में होता है . फ़ाग गायन की ववषय वस्तु द्वापर यग ु में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बज ु रन ृ ग्वालबालों एवुं गोवपयों के साथ हास-पररहास की शैली प्रच्चमलत है .सबसे पहले श्री गणेश का सम ककया जाता है . कफ़र कान्हा और राधा के बीच खेली जाने वाली रुं ग-गल ु ाल-वपचकारी के मद्धुर भावों को वपरोती फ़ाग गायन की शुरुआत होती है .(१)

“चली रुं ग की फ़ुहार,वपचकाररयों की मार कान्हा तू न रुं ग ड्डार, काहे सताए रुं ग डार के राधा पडॆ तोरे पैयाुं गगरधारी न तू मारे भर-भर वपचकारी भीुंगी चुनरी हमार काहे ददया रुं ग डार मैं तो गई तोसे हार,काहे सताये रुं ग डार के”

(२)

“ सारी चन ु री मभुंगो दी तन ू े मोरी मेरे सर की मटककया फ़ोडी कहूुं जा के नुंद द्वार तोरो लाला है गुंवार करे जीना दश्ु वार,काहे सताये रुं ग डार के”

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(३)

सारे बज ृ मे करे दठठौली लेके कफ़रे सारे ग्वालों की ट ली ककन्हे गाल मोरे लाल डाला ककस-ककस पे गल ु ाल मैया ऎसा तेरा लाल,काहे सताये रुं ग डार के.” फ़ाग गायन का क्राम चलता रहता. स्त्री-परु ु ष-बच्चे िरों से तनकल आते

पूजन करने. कफ़र दे र रात होमलका-दहन का कायधक्रम शुरु होता. बडा बुजुग ध लकडी-कुंडॆ के ढे र में आग लगात्ता और इस तरह होमलका दहन की जाती. पौराझणक मान्यता के अनस ु ार” दहरणाकश्यप” द्वारा अपने भक्त पत्र ु प्रहलाद को “होमलका” में जलाने के प्रयास के असफ़ल हो जाने पर तत्कालीन समाज द्वारा मनाए गए आुंदोलन से इसे जोडा जाता है . होमलका दहन के बाद लोग अपने-अपने िर की ओर रवाना हो जाते, इस उत्साह के साथ कक अगले ददन जमकर रुं ग बरसाएुंगे. सब ु ह से ही सारे मह ु ल्ले के लोग बाबा खुसट के यहा​ाँ इकठ्ठे होते. फ़ाग गाने का क्रम शुरु हो जाता. कफ़र आती रुं ग डालने की बारी. सब ु ह से ही लोग टॆ सू के फ़ूलों का रुं ग उतारकर पात्रों में जमा कर लेत.े इसी रुं ग से सभी रुं ग कर सराबोर हो जाते. कफ़र सभी को कुंु कुम-रोली लगाई जाती. ठुं डाई का दौर भी चल पडता. इस अवसर पर बने पकवानों का भी लफ़् ु त उठाया जाने लगता. फ़ाग-गायन मुंडली हुं सी-दठठौली करती बाबा दमडूलाल के िर जा पहुाँचती.वहा​ाँ पहले से ही ट ली के स्वागत-सत्कार की व्यवस्था हो चुकी होती है .एक ददन पहले से ही आुंगन को गोबर से लीपकर तैयार कर ददया जाता है . इस ददन बबछायत नहीुं की जाती. लोग िेरा बनाकर बैठ जाते. फ़ाग उडती रहती. रुं ग गल ु ाल बरसता रहता. ठुं डाई का दौर चलता रहता. पकवानों का रसास्वादन भी चलता रहता. िर का प्रमख ु लोगों के मसर-माथे पर ततलक-रोली करता और इस तरह फ़ाग के राग उडाती ट ली आगे बढ जाती. सबसे ममलते-जुलते, रुं ग –गल ु ाल में सराबोर होती टोली के सदस्य, अपने –अपने िरों की ओर तनकल पडते. नहा-धोकर लोग चार बजे के आसपास होमलका-दहन वाले स्थान पर आ जुडते. फ़ाग उडने लगती. कफ़र मुंडली गाते-बजाते मेिनाथ-बाबा के दशधनाथध के मलए बढ जाती.वहा​ाँ उस ददन अच्छा खासा मेला लग जाता. इस तरह सारे गाुंव की मुंडमलयाुं वहा​ाँ जुडने लगती है . लोग एक दस ू रे को गले लगाते हैं. इस तरह प्रेम-सौहादध की भावना से ओतप्रोत यह त्योहार सम्पन होता है.

(५)

कथा सादहत्य में मध्यप्रदे श का योगदान पातालकोट- धरती पर एक अजब ू ा – गोवधधन यादव | रचनाकार.ऑगध (http://rachanakar.org) की प्रस्ततु त


तकरीबन ढाई-तीन दशक तक कववता की कुंु ज-वादटका में रमण करते रहने के बाद मैंने कहानी जैसी कठोर भमू म पर चलने का दस् ु साहस ककया था. यह अनायास नहीुं बब्ल्क सायास हुआ था. होता यह था कक वररष्ठ होने के कारण ककसी कायधक्रम में मख् ु य अततगथ अथवा अध्यक्ष बना ददया जाता. काव्यपाठ में सहभागगता करने वाले ममत्रगण अपनी कववता सन ु ाते और कफ़र लिश ु ुंका का इशारा करते हुए अपनी जगह से उठ खडॆ होते. और एक बार कमरे के बाहर कदम रखते तो कफ़र दब ु ारा लौटकर नहीुं आते. एक तो यह कारण था और दस ू रा यह कक उस समय तक मैं छ टी-मोटी पत्र-पबत्रकाओुं में शान से छप रहा था. मन में तरुं ग उठी कक ककसी बडी पबत्रका में अपना भाग्य आजमाऊाँ. मैंने एक आलादजे के सुंपादक के नाम, जो मेरे आदशध रहे हैं, कुछ कववताएाँ भेजी कक इसे अपनी पबत्रका में स्थान दें . जब उनसे प्रत्यक्ष भें ट हुई तो उन्होंने कहा कक अब इस तरह की कववताओुं के ददन कफ़र गए हैं, यदद कोई अकववता मलखी हो तो भेजे, उसे स्थान जरुर ममल जाएगा. आपको शायद याद होगा कक यह वह समय था जब कववता औरअकववता के बीच एक अिोवषत यद्ध ु चल रहा था. मैंने उसमे हाथ आजमाया लेककन मैं उसमें सफ़ल नहीुं हो पाया. ऎसा भी नहीुं है कक मैंने उस तरह की कववताएुं नहीुं मलखी. मलखी जरुर लेककन वे ववष्णु खरे , लीलाधर मुंडलोई, चन्द्रकाुंत दे वताले, अथवा मोहन डहे ररया जैसी मलखी तो बबल्कुल भी नही गई थी. मेरे मलए एक तनराशा का समय था यह. कफ़र मैंने कहानी मलखने का मानस बनाया. मेरी पहली कहानी” एल मल ु ाकात” जो शरु ु से ही एक रहस्य मलए हुए होती है जो अुंत तक रहस्यमयी बनी रहती है . इसका नायक “समय” होता है , से अचानक मल ु ाकात होतीहै . वह मेरे बारे में सब कुछ जानता है और मझ ु से कहता है कक मैं तेरा बचपन का साथी हूाँ. लुंबे समय तक साथ

बने रहने के बाद भी मैं उसे पहचान नहीुं पाता हूाँ. कहानी के अुंत में एक

अप्रत्यामशत िटना िटती है और वह सारे रहस्यों पर से पदाध उठाता है . यह कहानी “कहानी” के क्षेत्र में अत्युंत सफ़ल कहानी रही. मझ ु े काफ़ी प्रशुंसाएुं ममली और अनेकानेक पत्र पाठकों से प्राप्त हुए. इस कहानी के सफ़लतापूवक ध मलखे जाने के बाद से मेरे मानस पटल पर छाया कुहासा छटने लगा था. इसके बाद मैंने पीछे मड ु कर नहीुं दे खा. मेरा पहला कहानी सुंग्रह “ महुआ के वक्ष ृ ” पुंचकुला हररयाणा से प्रकामशत हो कर आया. उस सुंग्रह पर लगभग पैंसठ समीक्षाएुं मझ ु े प्राप्त हुईं. पाठक मुंच द्वारा आयोब्जत कायधक्रम में भोपाल से मेरे कथाकार ममत्र श्री मक ु े श वमाध, श्री बलराम गम ु ास्ता श्री बलराम गम ु ास्ता, श्री मोहन सगोररया, नागपरु से श्रीमती इुंददरा ककसलय ने आकर उसे ऊाँचाइया​ाँ दी. सभाग्रह में करीब ढाई सौ ममत्रों की उपब्स्थतत रही. दस ू रा सुंग्रह “तीस बरस िाटी” वैभव प्रकाशन रायपुर से प्रकामशत हुआ. इस सुंग्रह में मध्यप्रदे श राष्रभाषा प्रचार सममतत, दहन्दी भवन भोपाल के मुंत्री-सुंयोजक सम्मानीय श्री कैलाशचन्द्र पुंतजी ने दो शबद मलखे

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और इस सुंग्रह का ववमोचन दे श के प्रख्यात कवव-मुंत्री-साुंसद सम्मानीय श्री बालकवव बैरागीजी के हस्ते “दहन्दी भवन”भोपाल में हुआ. यह मेरे मलए अब तक की सबसे बडी सफ़लता थी. तीसरा कहानी सुंग्रह “ आसमान अपना-अपना” शैवाल प्रकाशन गोरखपरु में प्रकाशाधीन है . इसी बीच लगभग सौ लिक ु थाएुं भी मैंने मलखी है और इसे पुस्तकाकार होने में समय लग सकता है . इस लिक ु थाओुं पर भी माननीय श्री पुंतजी ने अपना आशीवाधद दो शबद मलखकर ददया है . मेरी प्रायः सभी रचनाएुं दे श-प्रदे श की हर बडी पबत्रकाओुं में प्रकामशत हुईं है . इससे लाभ यह हुआ कक मेरे हर प्राुंत में ममत्र ्रों की फ़ौज खडी हो गई हैं. जगह-जगह से मझ ु े आमुंबत्रत ककया जाता है और इस तरह करीब अठारह सुंस्थाओुं ने मझ ु े सम्मानीत ककया है . इसका सारा श्रेय मैं पुंतजी को दे ना चाहता हूाँ. अगर मेरा जड ु ाव राष्रभाषा प्रचार सममतत से न हुआ होता तो शायद ही मैं इतनी ऊाँचाइया​ाँ छू नहीुं सकता था. ममत्रों, मैंने अब तक करीब तीस समीक्षाएुं मलखी है . जब कहानी मलखने का मन नहीुं होता है तो ववमभन्न ववषयों पर लेख-आलेख मलखता रहता हूाँ. आज इन्टनेट का जमाना है , ववमभन्न ईमेल पबत्रकाओुं में

इनका प्रकाशन होता रहता हैं. अब तो कुछ ववदे शी ईमेल पबत्रकाओुं

में भी मेरी कहातनया​ाँ, लिक ु थाएाँ लेख-आलेख प्रकामशत होते रहते हैं. दे श के ख्यातनाम कहानीकारों की कहातनयों के अलावा प्रदे श के अनेक कहानीकार ुं को पढने का सअ ु वसर ममला है .पद्मश्री मान.श्री रमेशचन्द्र शाहजी, श्रीमती ज्योत्सना ममलन, गोववन्द ममश्रजी, रमेश दवेजी,श्रीमती मेहरुब्न्नसा परवेज जी,महे श अनि, सय ध ाुंत नागर,शशाुंक, भालचन्द्र ू क जोशी, ए असफ़ल, राजेन्द्र दानी, ज्ञानरुं जनजी, हररभटनागर, तरुण भटनागर, अजीत हषे, स्वातत ततवारी ,उममधला मशरीष, उदयन बाजपेयी, यग ु ेश शमाधजी, मालती शमाधजी, मालती जोशीजी, उदयप्रकाश, रामचरण यादव, .राममसुंह यादवजी, डा.पुन्नीमसुंहजी, अमरनाथजी, नवल जायसवालजी, प्रभु जोशीजी, ध्रुव शुक्लजी, तछन्दवाडा के श्री हनम ुं मनिटे जी, ददनेश भट्टजी, ु त राजेश झरपरु े जी, स्व. मनीषरायजी, आदद-आदद ,फ़ेहररस्त काफ़ी लुंबी हो सकती है . ये सारे कथाकार अपनी लेखनी के बल पर पूरे दे श में जाने जाते हैं. इन सबकी कहातनया​ाँ जहा​ाँ अपने काल का अक्स प्रस्तुत करती हैं वहीुं वे समाज की ववकृततयों को दरू करने का आगाह भी करती है . या यह कहें कक समग्र अथों में अपने यग ु की कडवी सच्चाई को प्रस्तत ु करने का सफ़ल कायध कर रही हैं. माननीय रमेशचन्द्र शाहजी की कहानी “ अमभभावक” पब्श्चमी माडल पर आधाररत आज की मशक्षा प्रणाली, अमभभावकों की दोहरी मानमसकता और उच्च आकाुंक्षाओुं के बीच वपसते बच्चो के बचपन का माममधक वववेचन करती है. आपकी लेखनी का जाद ू पाठक के ददल-ददमाक पर गहरा असर डालती है , वहीुं आपकी शबद सुंपदा, शबद सामथ्यध, गचुंतन बोध, भाषायी सगु चता

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की बानगी दे खते ही बन पडती है . तनःसुंदेश यह आपके धीर-गुंभीर लेखन का पररणाम है . ज्योत्सना ममलनजी की कहानी “चीख के उस पार” प्रभावशाली है . उममधला मशरीष की कहानी “तमाशा” एकदम नए ववषयवस्तु पर मलखी समाज की सच्चाई को बयाुं करती महत्वपण ू ध कहानी है . सम्मानीय श्री रमेश दवे की कहानी

“भल् ु लकड”

ररटायरमें ट पर मलखी कहानी है , उसी तरह

आपकी एक कहानी “खबरें ”आज के अखबारों में पसरी मानमसक उदासी को प्रस्तत ु करती है. कक अब अखबार पढने की चीज नही रह गयी है . कहानी का नायक अपनी पब्त्न गायत्री से कहता है —नहीुं-नहीुं गायत्री अब खबरे नहीुं पढी जाती-अच्छा तो कल से अखबार बुंद कर दो” काफ़ी गहरा असर पाठकों के ददल-दीमाक पर छोडती है . मालती जोशी की कहानी “ववषपायी” बेटी-बेटे के बीच दृब्ष्टभेद पर मलखी माममधक कहानी है , ब्जसने समाज का बेडा गकध कर ददया है . मेहरुब्न्नसा परवेज की कहानी “ अपने होने का अहसास” अुंधववश्वास पर मलखी कहानी है . सय ध ाुंत नागर की ू क कहानी “ववभाजन” तथा बेदटयाुं” प्रभावकारी है .श्री ज्ञानरुं जनजी की कहानी “वपता” वपता पर मलखी अब तक की तमाम कहातनयों पर भारी पडती है . मुंगला रामचन्द्रण की कहानी “ममन्नी बडी हो गई”-“भावनाएुं अपादहज नही होतीुं,” “हम होंगे कामयाब”, श्री मक ु े श वमाध की कहातनयाुं खेलणपुर, साक्षात्कार, होली, न्यायाधीश, रात, अन्ना, कस्तवार प्रभावशाली है . इस पर मैंने समीक्षा भी मलखी थी. सादहत्य समाज का दपधण तो है ही साथ ही वह एक ऎसा प्रकाश स्तुंभ भी है जो समाज को ददशा दे खाने का कायध भी सुंपाददत करता है . उसका कारण यह है कक सादहत्य में जहा​ाँ एक ओर जीवन के मलए आदशों की प्रस्तुतत की गज ु​ुं ाइश होती है , तो दस ू री ओर वह समाज में व्याप्त आतनयममतताओुं, ववकृततयों, प्रततकूलताओुं रोजमराध की कशमकशताओुं, उसमें बबुंधी इच्छाएुं, आकाुंक्षाएुं, ववस्मतृ तयों, ववडम्बनाओुं, उत्पीडन, तथा अन्यान्य बुराइयों पर प्रहार करने का माद्दा भी होता है . जहा​ाँ तक समकालीन कहातनयों का प्रश्न है तो इस समय की कहातनयाुं समग्र अथों में अपने यग ु की कडवी सच्चाई को प्रस्तत ु करने का सफ़ल कायध कर रही है , वह आम आदमी के पक्ष में खडी ददखाई दे ती है . वतधमान समय में जहा​ाँ चारों ओर भ्रष्टाचार ताडुंव कर रहा है , जहाुं

बलात्कार मामल ु ी सी चीज बन कर रह गई है, जहाुं भख ू , कराह और ववसुंगततयों का माहौल है , समकालीन लेखकों द्वारा अगधकारपूवक ध कलम चलाई जा रही है . आज की समकालीन कहातनया जहाुं एक ओर साम्प्रदातयकता के ववरुद्ध शुंखनाद छे डॆ हुए है . वहीुं वह ईष्या, द्वेष, झूठ ,छल, फ़रे ब, राजनीतत में अपरागधकरण, जनप्रतततनगधयों का

चाररबत्रक पतन ,गगरते जीवन

मल् ू यों,

आहत होती भावनाओुं पर जमकर मलखा जा रहा है .

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उपरोक्त उदाहरण से यह बात स्पष्ट होती है कक आज के कथाकार अपने का

दातयत्वों

तनवधहन बडी मशद्दत के साथ कर रहे हैं अतः यह कहा जाना की आज की कहातनयों में समकालीनता बोध का ककुंगचत भी अभाव है ,तो यह सवधथा अनौगचत होगा. यह बात तनववधवादरुप से कही जा सकती है कक आज की कहातनयाुं यग ु ानरु ु प है , बब्ल्क वतधमान की आवश्यक्ताओुं के अनक ु ू ल भी है .

डाकिर _ इततहास के झरोखे से

(६)

आत्यानगु धक डाकिर भवन में जहाुं मरकरी लाइट की चकाचौंध आुंखों को चुंगु धया रही हो, जहा​ाँ कम्यट ु र अपना कायध पूरी दक्षता के साथ

सुंपन्न कर रहें हों, जहाुं से सेटेलाइट मनीआडधर भेजे जा रहे हों, जहाुं

मशीनें गचदियों की सादटं ग बडी बाररकी से कर रही हों, ऐसे सस ु ब्ज्जत भवन में ,आज की सदी में पैदा हुए ककसी नौजवान को

ले जा कर खडा कर ददया जाए तो वह कौतह ु ल से उन्हें नहीुं दे खेगा,क्योकक वह आज

वे सारी गचजों को अपने लैप्टाप में अथवा कम्प्यट ु र पर स्वय़ुं दे ख-सन ु रहा है ,मोबाइल सेट उसकी अपनी जेब में है , वह बटन दबाते ही अपने ककसी ममत्र से रोज बात करता रहता है ,उसे ततनक भी आश्चयध नहीुं होगा.और न ही वह यह जानना चाहे गा कक यह ककस प्रकार काम करते है और इसके पीछे उसका अपना क्या इततहास रहा होगा. यदद कोई उससे कहे कक क्या वह यह जानता है कक आज से सैकड ुं वषध पव ू ध ये सारी व्यवस्था नहीुं थी,तब आदमी अपना काम कैसे चलाता होगा? कैसे अपना सुंदेशा अपने सद ु रू बैठे ममत्र अथवा पररवार के सदस्यों को भेजते रहा होगा? तो तनब्श्चत तौर पर वह यह जानना चाहे गा,कक अभावों के बीच भी उसके पव ध कैसे काम चलाते रहे होंगे. सबसे बडी कमी आज हमारे बीच में यही है कक हम न तो उसे ू ज अपने गौरवशाली इततहास की जानकारी नहीुं दे ते.जबकक हमारा यह उत्तरदातयत्व बनता है कक हम अपनी ववरासत, अपनी भावी पीढी को दे ते चले. जब तक हमे उसके बारे में कुछ भी पता नहीुं होगा,हम आझखर गौरव ककस बात पर करे गें? डाकिर का अपना गौरवशाली इततहास रहा है . वह न मसफ़ध हमें चमत्कृत करता है , बब्ल्क एक ऐसे भावालोक में भी ले जाता है , कक कदठन पररब्स्थततयों में हमारे पव ध ों ने उसे इस ब्स्थतत तक लाने में ू ज ककतनी मेहनत की थी.

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इततहास को टटोलें तो हमें ज्ञात होता है कक राजिरान ुं में कभी कबूतर पाले जाते थे और उन्हें बाकायदा प्रमशक्षण भी ददया जाता था और सामने वाले की पहचान भी बतलानी होती थी कक पत्र प्राप्तकताध कैसा है ? इसके मलए उसे उसका छाया-गचत्र ददखलाया जाता था और उसके पैरों में सुंदेशा/पत्र आदद बाुंध ददया जाता था और वह वहाुं जाकर उसी व्यब्क्त को पत्र दे ता था,ब्जसकी पहचान उससे करवा दी गई थी. राजकुमार अकसर अपने प्रेम-सुंदेशे अपनी प्रेयसी को इसी के माध्यम से मभजवाते थे. यह एक श्रमसाध्य कायध था और इसमे कई बात धोका भी हो जाता था. उस समय भारतवषध में कै छोटे -बडे राज्य होते थे. राजा को कहीुं पत्र भेजना होता था तो वह पत्र मलख कर उस पर राजमोहर चस्पा कर उसे िड ु सवार के माध्यम से पहु​ुंचता था. कई राजा- महाराजाऒ ुं ने एक तनब्श्चत दरू ी तय कर रखी थी. िड ु सवार उस दरू ी तक जाता और वहाुं तैनात दस ू रे िड ु सवार को वह पत्र सौंप दे ता था. इस तरह डाक लुंबी दरू ी तक पहु​ुंचायी जाती थी. यह व्यवस्था केवल उच्च वगध तक ही सीममत थी. आमजन इस व्यवस्था को जट ु ा नहीुं पाता था.

डाक

व्यावस्था को सच ु ारु रुप से चलाने के मलए प्रयास चलते रहे . कफ़र डाक व्यवस्था हुई जो आमजन के मलए सल ु भ थी. ववश्व को अचुंमभत कर दे ने वाली मोसध प्रणाली का आववष्कार हो चुका था. टे लीग्राफ़ लाइनें बबछाई जाने लगी थी. इस तरह सुंचार व्यवस्था में एक क्राुंततकारी पररवतधन आया और आवश्यकतानस ु ार चीजें जुडती चली गयीुं.

* सन 1825 में

पहला दटककट मसुंध से कराची से जारी ककया गया.

* सन 1830 में

इुंगलैण्ड और भारत के मध्य डाक सुंबुंध स्थावपत हुए.

* सन 1851में

कलकत्त्ता एवुं डायम्ण्ड हावधर के बीच पहला सरकारी तार लाइन की व्यवस्था हुई.

* सन

1854 में परू े भारत के मलए डाक दटककट जारी की गई.

* सन

1865 की 27 तारीख को भारत और इुंग्लैण्ड के बीच तार व्यवस्था स्थावपत हुई.

* सन

1877 में व्ही.पी.प्रणाली जारी

* सन

1880 में मनीआडधर व्यवस्था. जारी

* सन

1885 में रकम जमा करने” बचत बववुंक” का शुभारुं भ. * 1907 में १५ नवम्बर को पहला इुंटनेशनल ररप्लाई कूपन जारी ककया गया. * सन 1911 में इलाहाबाद से नैनी जुंक्शन तक पत्र लेकर पहले ववमान ने उडान भरी. यह वह समय था जब लोगों ने आकाश में उडता हुआ दे खा था . पास से दे खने एवुं उडान भरते हुए नजदीक से दे ख पाने का सौभाग्य केवल उसी ददन ममला था. अतः नजदीक से दे खने वालों की भीड का अुंदाज आप स्वयुं लगा सकते हैं बेदहसाब भीड के बावजद ू वहाुं गजब की शाुंतत थी क्योंकक लोग आश्चयध में डूबे हुए थे. एक डच ववमान ब्जसका नाम बुंबर-सोभुंर था और ब्जसके चालक का नाम हे नरी वपके,जो फ़ाुंसीसी था,

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अपना ववमान फ़ाुंस से लेकर आया था. इसके बाद अलग-अलग दे शो में हवाई डाक सेवा प्रारुं भ की. प्रथम उडान इटली के बब्रुंडस्ट नामक स्थान से अलबातनया के बेलोना नामक स्थान के मध्य हुई परन्तु नागररक हवाई डाकसेवा को आरम्भ करने का गौरव आब्स्रया को प्राप्त हुआ. इस सेवा के अुंतगधत यह सवु वधा सवध प्रथम आब्स्रया के ववयेना नगर तथा रूस के कोव नगर के मध्य प्रचलन में आयी. * वायय ु ान से डाक लाने और ले जाने से पूवध गैस से भरे गबु बारों को प्रयोग में लाया गया. इस व्यवस्था अुंजाम में लाने वाले व्यब्क्त का नाम जान वाईस था,ब्जसने 35मील की उडान भरी थी. जानवाईस के सम्मान में अमरीका ने एक ववशेष डाक सेवा प्रारुं भ की एवुं उस गबु बारे का सावधजतनक प्रदशधन भी ककया. * 1917 मे सवधप्रथम अगधकृत हवाई डाक दटककट का प्रचलन आरम्भ हुआ.6 नवम्बर को पहला समाचार पत्र”केप-टाउन”जो केप्टाउन में छापा गया था. इसे पोटध - एमलजाबेथ: नामक हवाई जहाज से भेजा गया था. * 1918 में य.ू एस.ऎ ने हवाई दटककट का प्रचलन आरम्भ हुआ.

तथा दटककट ुं पर हवाई जहाज

के गचत्र भी प्रकामशत ककए गए. * 1928 में “न्यय ू ाकध हे राल्ड ने अपने तनयममत हवाई डाक सुंस्करण का प्राकाशन प्रारुं भ ककया था. *1929 को भारत ने कामनवेल्थ हवाई डाक दटककट जरी ककए गए. * 1930 को एक्सप्रेस डडमलवरी सववधस जारी की गयी. * 1932 में अमेरीका ने हवाई डाक मलफ़ाफ़े का प्रचलन शुरु ककया.गया. * 1946 में ववश्व का पहला हवाई तार भेजा गया.

“ डाक “ क्रे इततहास में एक नही वरन अनेक ऐसी रोचक जानकाररयाुं हैं कक उन्हें अगर ववस्तार ददया गया तो एक ककताब ही मलखी जा सकती है . ब्जज्ञासु व्यब्क्त को चादहए कक वह इन दल ध ु भ ऐततहामसक जानकारी का सुंकलन करे एवुं अन्य लोगों को भी प्रेररत करे , यव ु ा कवव-कहानीकार,लेखक, सुंपादक एवुं कुशल प्रशासक डाक ववभाग में कायधरत आई.पी.एस. अगधकारी श्रीयत ु कृषणकुमार यादव ने डाक ववभाग के एक सौ पचास साल के गौरवशाली इततहास को अपनी ककताब” इब्न्डया पोस्ट. 150 ग्लोररयस इअरस” में कडे पररश्रम से तैयार ककया है , जो न मसफ़ध रोचक है ,बब्ल्क ज्ञानवधधक भी है . आज भी कई ऐसे लोग हैं जो डाक-दटककटों का तथा समय-

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समय पर प्रकामशत होने वाले” फ़ोल्डरों का तथा फ़स्टध डे कवसध” का कलेक्शन करते हैं,उन्हें इस ककताब को खरीदकर अपने सुंग्रह में रखते हुए उसे और भी बहुमल् ू य बना सकते हैं. तार तथा टे लीफ़ोन के आववष्कार के बाद से ये दोनो मसस्टम डाकिर से जोड ददए गए.इससे क्राुंततकारी

पररवतधन का एक यग ु शुरू हुआ. इनके आववषकार ुं के बारे में सुंक्षक्षप्त में जानकारी लेते चलें.

एलेक्जेंडर ग्राहम बेल

3 माचध 1847 क अमेररका मे एलेक्जुंडर ग्राहम बेल नाम के बालक ने जन्म मलया,.ब्जसके वपता का नाम एलेक्जॆडुं र मेल ववले बेल और माता का नाम इमलजा ग्रेस था.. एलेक्जुंडर बचपन से मेधावी, और ववलक्षण प्रततभा के धनी थे. इनकी माुं बहरी थी. सुंयोग से जब इनकी शादी माबेल ववले बेल से हुई तो वह भी बहरी ही थी. अपने मन की बात जब इनसे कहना होता तो उन्हें काफ़ी ददक्कतों का सामना करना पडता था. शायद यह वही कारण था कक वे आगे चलकर टे लीफ़ोन का आववष्कार कर पाए. एडडनबगध यतु नवमसधटी और यतु नवमसधटी कालेज लुंदन से अपनी पढाई पूरी कर वे बोस्टन यतु नवमसधटी मे आववष्कारक, वैज्ञातनक,इुंब्जतनयर,प्रोफ़ेसर रहे . वे बगधरों के मशक्षक थे. बचपन से ही इन्हें ध्वतन ववज्ञान में गहन रुगच थी. 23 साल की उम्र मे उन्होंने पहला प्यानो बनाया था. वे स्पीच टे क्नोलाजी ववषय के मशक्षक रहे थे, अतः ऐसा युंत्र बनाने में सफ़ल हुए जो न केवल म्यब्ू जक्ल नोट्स भेजने में सक्षम था बब्ल्क आदटध कुलेट स्पीच भी दे सकता था. यह टे लीफ़ोन का सबसे परु ाना माड्ल था. एलेक्जुंडर ग्राहम बेल न मसफ़ध टे लीफ़ोन के आववष्कारक थे बब्ल्क मेटल डडटे क्टर की खोज का श्रेय भी उन्हें ही जाता है . बाद में वे डायबबदटक हो गए थे. २ अगस्त १९२२ के ददन उनका तनधन हो गया

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टे लीफ़ोन के माडल जो समय और आवश्यकता के अनस ु ार बदलते रहे ..( 1से 8)

सेमअ ु ल एफ़.बी. मोसध (27 अप्रैल 1791-2अप्रैल 1872

टे लीग्राफ़ मसस्टम के आववष्कारक

सेमअ ु ल कफ़नाले ब्रीज मोसध का जन्म अमेररका के चाल्सध टाउन( मेसाचस ु ेट्स) को २ अप्रैल १७९१ में हुआ था, ब्जन्होने एकलतार टे लीग्राफ़ी प्रणाली एवुं मोसध कोड का तनमाधण ककया था. वे भूगोल- वेत्ता और पादरी जेववडडया मोसध की पहली सुंतान थे.

(७)यतू नवसधल पोस्टल यतु नयन

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यतू नवसधल पोस्टल यतू नयन को अन्तराधष्रीय डाक सुंि के नाम से भी जाना जाता है . क्या आप बता सकते हैं कक इसका जन्म कब, कहाुं, कैसे और ककसके द्वारा हुआ?. तनःसुंदेह आपके पास इसका उत्तर शायद ही होगा. आइये मैं इसकी ववस्तत ृ जानकारी आपको उपलबध करवा रहा हूाँ. यतू नवसधल पोस्टल यतू नयन की नीुंव मे एक नाम दबा पडा है . वह नाम है “हाईनररश फ़ान स्टे फ़ान” का. आपको यह जानकर सख ु द आश्चयध भी होगा कक ये महाशय एक डाककमी थे. हाईनररश फ़ान स्टे फ़ान का जन्म 7 फ़रवरी 1831 को पोमेरातनया में हुआ था. वे अपनी प्रारुं मभक स्कूली मशक्षा के उपराुंत 17 वषध की आयु मे प्रमशयन डाक सेवा में भती हुए थे. फ़ान अपने चुने हुए व्यवसाय में द्रत ु गतत से मुंब्जल दर मुंब्जल पार करते हुए कोलोन जा पहुाँचे,जो राइन प्रदे शों की महानगरी तथाजमधन, पब्श्चम यरू ोप एवुं समद्र ु पारीय दे शों के बीच डाकसेवाओुं का केन्द्र बबुंद ु थी. तत्पश्चात उनका अगला कदम कोलोन से प्रमशया की बमलधन ब्स्थत सवोच्य डाक प्रशासतनक सुंस्था मे पहु​ुंचना था. जब सन 1870 में जनरल डाक तनदे शक ( जमधनी के डाक प्रशासन का अध्यक्ष) का पद ररक्त हुआ तो फ़ान को उनकी दरू दरू तक फ़ैली ख्यातत तथा असाधारण योग्यताओुं के कारण उक्त पद हे तु चुना गया. फ़ाुंस-जमधन यध् ु द के पश्चात फ़ान अपने जीवन के महानतम कायध” अन्तराधष्रीय डाक सुंि” की स्थापना में जट ु गए. सन

1869 में उत्तरी जमधन सरकार ने यरू ोपीय राष्रों के बीच डाक सुंबुंन्धों मे समानता एवुं

सामान्य डाकसुंि की स्थापना पर ववचार-ववमशध हे तु डाक काुंग्रेस आमुंबत्रत करने के मलए फ़ाुंस सरकार से एक समझौता ककया. यह तभी सुंभव हो सका जबकक 1 जुलाई 1873 को जमधन सरकार ने स्टे फ़ान द्वारा तैयार ककया गया सामान्य डाक समझौतेका प्रारुप यरू ोपीय एवुं अमरीकी सरकारों के समक्ष प्रस्तत ु ककया. 15 मसतम्बर 1874 को दोनों गोलाधॊं के 22 राष्र ुं के प्रतततनगधयों ने बनध (ब्स्वटजलैण्ड) में राष्रीय सीनेट के प्राचीन ऎततहामसक भवन में हुए काुंग्रेस सम्मेलन में भाग मलया. काुंग्रेस ने फ़ान स्टे फ़ान को समझौता प्रारुप की जाुंच हे तु स्थावपत आयोग का अध्यक्ष तनयक् ु त ककया. यह उनकी पहल शब्क्त, कूटनीततक चातुय ध तथा डाक मामलों के अुंतरुं ग ज्ञान का ही पररणाम था कक सामान्य डाक समझौते पर 24 ददन की अल्पावगध में ही 9 अक्टूबर 1874 को हस्ताक्षर हो गए तथा इस प्रकार “ सामान्य डाक सुंि” का जन्म हुआ. अब स्टे फ़ान ने अन्तराधष्रीय डाक सुंि (य.ू पी.य)ू जैसा कक बाद में इसका नाम पडा के प्रसार कायध में अपने आपको समवपधत कर ददया. उनका एकमात्र लक्ष्य था य.ू पी.य.ू की एकता, वववादों को रफ़ादफ़ा करने में उन्होंने अपनी वाकपटुता, दृढ इच्छा शब्क्त, ववश्वास की उजाध तथा तकध-शब्क्त का प्रयोग ककया. यतू नवसधल पोस्टल यतू नयन के सुंस्थापक फ़ान स्टे फ़ान का दे हान्त 8 अप्रैल 1897 मे हो गया. आज भी इन्हीुं के ददखाए मागध पर समच ू ा ववश्व डाक प्रकक्रया मे जुडा हुआ है .

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(८)

फ़ागन ु ी-गीत फ़ागन ु ी-गीत, लोक सादहत्य की एक महत्वपण ू ध गीत ववधा है , जो लोक हृदय में स्पुंदन

करने वाले भावों, सरु , लय, एवुं ताल के साथ अमभव्यक्त होता है . इसकी भाषा सरल, सहज और जनजीवन के होंठ ुं पर गथरकती रहती है . इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है . फ़ागन ु के माह में गाए जाने के कारण हम इसे फ़ागन ु ी-गीत कहें तो अततश्योब्क्त नहीुं होगी. वसुंत पुंचमी के पवध को उल्लासपूवक ध मनाए जाने के साथ ही फ़ागन ु ी गीत गाए जाने की शुरुआत हो जाती है . फ़ागन ु का अथध ही है मधुमास. मधुमास याने वह ऋतु ब्जसमें सवधत्र माधुय ध ही माधय ु ध हो. सौंदयध ही सौंदयध हो. वक्ष ृ पर नए-नए पत्तों की झालरें सज गई हों, कमलया चटक रही हों, शीतल सग ु गुं धत हवा प्रवहमान हो रही हो, कोयल अपनी सरु ीली तान छे ड रही हो. लोकमन के आल्हाद से मख ु ररत वसुंत की महक और फ़ागन ु ी बहक के स्वर ही ब्जसका लामलत्य हो. ऎसी मदहोश कर दे ने वाली ऋतु में होरी, धमार ,फ़ाग,की महकफ़लें जमने लगती है . राबत्र की शरु ु आत के साथ ढोलक की थाप और झाुंझ-मुंब्जरों की झनझनाहट के साथ फ़ाग-गायन का क्रम शरु ु हो जाता है . वसुंत मे सय ू ध दक्षक्षणायन से उत्तरायण में आ जाता है . फ़ल-फ़ूलों की नई सब्ृ ष्ट के साथ ऋतु भी अमत ु त ृ प्राणा हो जाती है , इसमलए होली के पवध को “मन्वन्तरारम्भ” भी कहा गया है . मक् स्वच्छन्द पररहास का त्योहार है यह. नाचने, गाने हाँसी, दठठौली और मौज-मस्ती की बत्रवेणी भी इसे कहा जा सकता है . सप्ु त मन की कन्दराओुं में पडॆ ईष्या-द्वेष, राग-ववराग जैसे तनम्न ववचारों को तनकाल फ़ेकने का सन् ु दर अवसर प्रदान करने वाला पवध भी इसे हम कह सकते हैं. रुं ग भरी होली जीवन की रुं गीनी प्रकट करती है . होमलकोत्सव के मधरु ममलन पर माँह ु को काला-पीला करने का जो उत्साह-उल्लास होता है , रुं ग की भरी बाल्टी एक-दस ू रे पर फ़ेंकने की जो उमुंग होती है , वे सब जीवन की सजीवता प्रकट करते है . वास्तव में होली का त्योहार व्यब्क्त के तन को ही नहीुं अवपतु मन को भी प्रेम और उमुंग से रुं ग दे ता है. कफ़र होली का उल्लेख हो तो बरसाना की होली को कैसे भल ू ा जा सकता है जहा​ाँ कृष्ण स्वयुं राधा के सुंग होली खेलते हैं और उसी में सराबोर होकर अपने भक्तों को भी परमानुंद प्रदान करते है . फ़ाग में गाए जाने वाले गीतों में हल्के-फ़ुल्के व्यग्यों की बौछार होंठ ुं पर मस् ु कान ला दे ती है . यही इस पवध की साथधकता है . लोकसादहत्य में फ़ाग गीतों का इतना ववपुल भुंडार है , लेककन तेजी से बदलते पररवेश ने काफ़ी कुछ लील मलया है. आज जरुरत है उन सब गीतों को सहे जने की और उन

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रमसक-गवैयों की, जो इनको स्वर दे सकें. जैसा कक आप जानते ही हैं कक इस पवध में हाँसी-मजाक-दठठौली और मौज-मस्ती का आलम सभी के मसर चढकर बोलता है . इसी के अनरु ु प गीतों को वपरोया जाता है . फ़ाग-गीतों की कुछ बानगी दे झखए. मैं होली कैसे खेलग ूुं ी या साुंवररया के सुंग कोरे -कोरे कलस मुंगाए,

वामें िोरो रुं ग

भर वपचकारी ऎसी मारी,सारी हो गई तुंग //मैं नैनन सुरमा.दाुंतन ममस्सी, रुं ग होत बदरुं ग

मसक गल ु ाल मले मख ु ऊपर,बुरो कृष्ण को सुंग //मैं तबला बाजे,सारुं गी बाजे और बाजे ममरदुं ग कान्हाजी की बुंसी बाजे राधाजी के सुंग//मैं चुनरी मभगोये,लहुं गा मभगोये,मभगोए ककनारी रुं ग सरू दास को कहा​ाँ मभगोये काली काुंवरी अुंग//मैं (२)

मोपे रुं ग ना डारो साुंवररया,मैं तो पहले ही अतर में डूबी लला कौन गा​ाँव की तुम हो गोरी,कौन के रुं ग में डूबी भला नददया पार की रहने वाली,कृष्ण के रुं ग में डूबी भला काहे को गोरी होरी में तनकली, काहे को रुं ग से भागो भला सैंया हमारे िर में नैइया ,उन्हई को ढूुंढन तनकली भला फ़ागन ु मदहना रुं ग रुं गीलो,तन- मन सब रुं ग डारो भला भीगी चुनररया सैंइयाुं जो दे खे,आवन न दे हें दे हरी लला जो तुम्हरे सैंया रुठ जाये,रुं गों से तर कर दइयो भला. (३) आज बबरज मे होरी रे रमसया

होरर रे रमसया बर जोरर रे रमसया (४)ब्रज में हरर होरर मचाई होरर मचाई कैसे फ़ाग मचाई बबुंदी भाल नयन बबच कजरा,नख बेसर पहनाई

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छीन लई मरु ली वपताुंबर ,मसर पे चुनरी ओढाई लालजी को ललनी बनाई.-(ब्रज में ............) हाँसी-दठठौली पर कुछ पारुं पररक रचनाएाँ (१)मोती खोय गया नथ बेसर का, हररयाला मोती बेसर का अरी ऎ री ननददया नाक का बेसर खोय गया मोहे सब ु हा हुआ छोटे दे वर का,हररयाला मोती बेसर का (२)अनबोलो रहो न जाए,ननद बाई, भैया तुम्हारे अनबोलना अरे हा​ाँ....... भौजी मेरी रसोई बनाए,नमक मत डाररयो.. अरे आपदह बोले झकमार अरे हा​ाँ ननद बाई,अलोने-अलोने ही वे खाए ..... अरे मख् ु न से न बोले बेईमान (३) कहा​ाँ बबताई सारी रात रे ...साुंची बोलो बालम मेरे आाँगन में तुलसी को बबरवा, खा लेवो ना तुलसी दह ु ाई रे काहे को खाऊाँ तुलसी दह ु ाई, मर जाए सौतन हरजाई रे ... साुंची बोलो बालम.......... (४) चुनरी बबन फ़ाग न होय, राजा ले दे लहर की चुनरी...(आदद-आदद) हाँसी की यह खनक की गज ूुं पूरे दे श में सन ु ी जा सकती है . इस छटा को दे खकर यही कहा जा सकता है कक होली तो एक है ,लेककन उसके रुं ग अनेक हैं. ये सारे रुं ग चमकते रहें -दमकते रहें और हम इसी तरह मौज-मस्ती मनाते रहें . लेककन हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कक कोई कारण ऎसा उत्पन्न न हो जाये ब्जससे यह बदरुं ग हो जाए. याद रखें--इस साुंस्कृततक त्योहार की गररमा जीवन की गररमा में है . होली के इस अवसर पर इस ् तरह गन ु गन ु ा उठें लाल-लाल टॆ सू फ़ूल रहे फ़ागन ु सुंग होली के रुं ग-रुं गे, छ्टा-तछटकाए हैं. वहा​ाँ मधक ु ाज आए बैठे मधक ु र पुंज ु मलय पवन उपवन वन छाए हैं . हाँसी-दठटौली करैं बूढे औ बारे सब दे ख-दे झख इन्हैं कववत्त बतन आयो है .

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(९)

(o) भारतीय नाटक की उत्पब्त्त व ववकास(0) इस बात के प्रमाझणक हैं हमारे वेद कक ववश्व में सवधप्रथम नाटक की उत्पब्त्त तथा ववकास भारत में ही हुआ था. ऋगवेद के कततपय सत्र ू ों में यम और यमी, और पुरुरवा और उवधशी आदद के कुछ सुंवाद हैं. ववद्वान लोग इन सुंवादों को नाटक के ववकास का गचन्ह पाते हैं. अनम ु ान ककया जाता है कक इन्हीुं सुंवादों से प्रेरणा ग्रहण कर नाटक की रचना की गई थी. .

नाट्यकला दै वीय उत्पब्त्त भी मानी जाती है . ऎसा कहा जाता है कक सतजुग के बीत जाने के बाद, त्रेतायग ु के आरुं भ में दे वताओुं ने मुंत्रणा की और यह अनभ ु व ककया कक सतजुग में सवधत्र सख ु की वषाध होती रही लेककन त्रेता में , दख ु के सुंकट भी तिरने लगें गे. अतः इससे तनजाद पाने के मलए ककसी ऎसे ग्रुंथ की रचना की आवश्यकता महसस ू की गई ब्जसका अनश ु ीलण करने से, आदमी राहत महसस ू कर सके. सारे दे वता ब्रह्मलोक गए और उन्होंने ब्रह्मदे व से प्राथधना की कक कोई ऎसी कला प्रकट करें ब्जससे श्रवणशब्क्त और आाँखों की रोशनी बढे , मन आनब्न्दत हो. वह पा​ाँचवा वेद हो, मगर उन चारों वेदों की तरह न हो. उससे लाभ पाने का हक, हर जातत, हर वगध, हर धमध के लोगों को हामसल हो. ब्रहमाजी ने ऋग्वेद से सुंवाद, सामवेद से नगमा यातन सुंगीत,, यजुवेद से स्वाुंग(अमभनय) और अथवधवेद से जज्बाततनगारी(रस) जैसे कलाओुं के तत्वों को ममलाकर नाटक का प्रणयन ककया. मशव ने ताण्डव(नत्ृ य) और पारवती ने लताफ़त(नरमी) की बुदतरी की, ववश्वकमाध को हुक्म ददया गया कक वह तनगारखाने(नाट्यमुंच) बनाए. कफ़र इसे भरत मतु न के हवाले ककया गया ताकक वो जमीन पर आकर उडते रुं ग-रुप में पेश करें . इस ् तरह भरतमतु न को इस

खद ु ाई फ़न, अथाधत नाट्य-शास्त्र के रगचयता होने का श्रेय हामसल हुआ.

अतः यह स्वतः मसद्ध हो जाता है कक इस कला का प्रादभ ु ाधव सबसे पहले भारत में हुआ. कुछ इततहासकार, भरतमतु न के इस काल को ४०० ई.पू. के तनकट मानते हैं. इस अद्भत ु ग्रुंथ में सुंगीत, नाटक, अमभनय के तनयमों का आकलन भर नहीुं है ,बब्ल्क अमभनेता, रुं गमुंच और प्रेक्षक,इन तीन तत्वों की पतू तध आदद तथ्यों का वववेचन ककया गया है . ३७ अध्यायों में मतु न ने रुं गमुंच, अमभनेता, अमभनय, नत्ृ य

गीत, वाद्य , रसतनस्पब्त्त आदद का वववेचन ककया था.

इस ग्रुंथ की सवाधगधक प्रामाझणक और ववद्वत्तापूणध टीका, श्री अमभनव गप्ु तजी ने

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सन १०१३ में ककया था. ब्जसमे ववषय वस्तु, पात्र, प्रेक्षागह ृ , रसवब्ृ त्त, अमभनय, भाषा, नत्ृ य, गीत, वाद्ययुंत्र,,पात्रों के पररधान, प्रयोग की जाने वाली धाममधक कक्रया,,नाटक के अलग-अलग वगध, भाव, शैली, सत्र ू धार,

ववदष ू क, गझणका, नातयका आदद पात्रों में ककस प्रकार की कुशलता

अपेक्षक्षत है -ववचार ककया गया है . सुंस्कृत सादहत्य में अनेक उच्चकोदट के नाटक मलखे गए ..सादहत्य में नाटक मलखने की पररपाटी सुंस्कृत से होते हुए दहन्दी में आयी. सुंस्कृत के अलावा पामल के ग्रुंथ ुं में भी नाटक मलखे जाने के प्रमाण ममले हैं. अब्ग्नपुराण, मशल्परत्न, काव्यमीमाुंसा तथा सुंगीत -मातधण्ड में राजप्रसाद के नाटकमुंडपों के वववरण प्राप्त होते हैं. इसी तरह महाभारत मे रुं गशाला के उल्लेख ममलते हैं. हररवुंशपुराण में रामायण के नाटक खेले जाने का वणधण ममलता है . पाश्चयात ववद्वानो की धारणा है कक धाममधक कृत्यों से ही नाटकों का प्रादभ ु ाधव हुआ. इससे रुं गस्थली की कल्पना की जा सकती है . दशधकों के बैठने की उत्तम व्यवस्था थी. सुंस्कृत नाटक रस प्रधान होते हैं. सुंस्कृतकाव्य परम्परा मे,नाटक काव्य का ही एक प्रकार है . इसमे दशधक को अपनी आुंखों से दे खने और कानों से सन ु ने का भी रसास्वादन ममलता है . अतः इससे सहज जुडाव भी होता है . कहा गया है -“काव्येषु नाटकुं रम्यम.” इन नाटको में , लेखन से लेकर प्रस्तुततकरण तक कई कलाएुं,, भावों, अवस्थाओुं से यक् ु त, कक्रयायों के अमभनय, कमध द्वारा सुंसार को सख ु -शाुंतत दे ने वाले होने के कारण नाट्य हमारे यहाुं ववलक्षण कृतत माने गए हैं. कहा गया है -“न तज्ज्ञानुं न तब्च्छल्पुं न सा ववद्या न सा कला/नासौ योगो न तत्कमध नाट्योSब्स्मन्यत्र न दृष्यते” सुंस्कृत नाटक के प्रमख ु नाटककार कामलदास, भास, शुद्रक आदद की गणणा प्रमख ु रुप से की जाती है .

दहन्दी में नाटकपररभाषा—“नाटक काव्य का ही एक रुप है ,जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीुं अवपतु, दृब्ष्ट द्वारा भी दशधक के हृदय में रसानभ ु तू त कराती है . उसे नाटक या दृष्यकाव्य कहते है . २.नाटक में श्रवण काव्य से अगधक रमणीयता होती है . ३.श्रवणकाव्य होने से लोकचेतना से अगधक ितनष्ठता होती है . ४.नाट्यशास्त्र में लोकचेतना को नाटक के लेखन और मुंचन की मल ू प्रेरणा माना गया है .

नाटक के प्रमख ु तत्व.१.कथावस्तु—पौराझणक, ऎततहामसक, काल्पतनक या सामाब्जक हो सकती है .

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२-पात्रों का सजीव और प्रभावशाली चररत्र, नाटक की जान होती है . कथावस्तु के अनरु ु प नायक धीरोदात्त, धीर, लमलत होना चादहए.

३.रस-नाटक मे नवरसों में से केवल आठ का ही पररपाक होता है . इसमें शाुंत रस तनवषद्द माना गया है . वीर रस या श्रुंग ृ ार-रस में से कोई एक नाटक का प्रधान रस होता है . ४. अमभनय- (१)आुंगगक अमभनय (२) वागचक अमभनय (३)आहायध--वेषभष ू ा-मेकअप-स्टे ज ववन्यास,तथा भरपूर प्रकाश व्यवस्था होना आवश्यक होता है . ५)साब्त्वक अमभनय---पात्र जब डूबकर अपना अमभनय करता है तो वह नाटक में जान डाल दे ता है . लोकनाट्य अथवा नाटक का लोकजीवन से ितनष्ट सुंबुंध है . लोकनाट्य का मुंचन उत्सवों, माुंगमलक कायों अथवा वववाह आदद के अवसर पर ककया जाता है . लोकनाट्य की भाषा अत्यन्त ही सरल, सीधी-सादी और रोचकता मलए हुए होती है . नट ुं के द्वारा भी लोकनाट्य रचे जाते हैं. नट ुं द्वारा खेले जाने वाले लोकनाट्यों में कथानक, ऎततहामसक, पौराझणक अथवा सामाब्जक आधार वाले होते है , अमभनीत ककए जाते हैं .इसके मलए कोई ववशेष मुंच बनाने की आवश्यकता नहीुं पडती. नट के आसपास ,कुछ दरू ी बनाकर दशधक बैठकर अथवा खडॆ रहकर, उसके द्वारा रचे जा रहे अमभनय को तनहारते है ,और आनब्न्दत होते है .. बुंगाल का लोकनाट्य” जात्रा” के नाम से जाना जाता है . बुंगाल के अलावा “जात्रा”, उडडसा तथा पूवी बबहार में भी

आयोब्जत ककए जाते है . इसमे धाममधक आख्यान होते हैं. राजस्थान में अमरमसुंह राठौर

की ऎततहामसक गाथा का अमभनय ककया जाता है . केरल में लोकनाट्य “यक्षगान” के नाम से जाना जाता है . उत्तरप्रदे श में रामलीला –रासलीला का मुंचन ककया जाता है . मध्यप्रदे श के मालवाुंचल में “माुंच(मुंच का अपभ्रुंश), महाराष्र में “तमाशा”, गज ु रात में “भवई”,कनाधटक में “यक्षगान”, तममलनाडु में ” थेरुबुडु”, बु​ुंदेलखुंड में ” भुंडत ै ी”, “रहस”,काुंडरा”,स्वाुंग, गोवा का अनोखा नाट्य-“बत्रयात्र”, हररयाना का साुंग, उत्तराखुंड की केदार िाटी में -“चन्क्रव्यह ू ”, दहमाचल की तनचली तराई- बबलासपुर में स्वाुंग, मुंडी में बाुंठना, मसरमौर और मशमला में कररयाला,, चाुंबा में हरण, ऊना और सोलन मे-धाजा, बबहार में बबदे मसया, अवध में रामायण, छत्तीसगध में नाचा-तथा करमा, मुंचन ककया जाता है . लोकनाट्य

केरल में मड ू ीयेटटु आदद लोकनादटका का

को लेकर राजस्थान के तीन क्षेत्र गचब्न्हत ककए गए हैं (१)उदयपरु ,

डूग ुं ीपूर, कोटा, झालावाड,मसरोही (२)जोधपुर, बीकानेर, शेखावट, जयपुर(३) राजस्थान का पव ू ांचल ब्जसमें शेखावट, जयपुर भरतपुर, धौलपुर प्राुंत आते हैं.यहा​ाँ नाटक कई रुपों में मुंगचत ककए जाते हैं. कहने का

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तात्पयध यह है कक सुंपूणध भारतवषध में नाटक मुंगचत ककए जाने के प्रमाण ममलते हैं ,भले ही वे अलगअलग नामों से जाने जाते हैं.

पाश्चात्य रुं गमुंचप्राचीन सभ्यता में चौथी शती ई.पूवध यन ू ान और रोम के रुं गमुंच आकार ले चक ु े थे. इततहास प्रमसद्ध डयोनीसन का गथएटर एथेंस में आज भी उस काल की याद ददलाता है . एक अन्य गथएटर है “एपोडारस “ब्जसका

नत्ृ यमुंच गोल आकार में है . ३६४ ई.पू. रोमवाले इरस्कन

अमभनेताओुं की मुंडली अपने नगर लाए और उनके मलए “सकधस कैब्क्सयस” में पहला रोमन रुं गमुंच तैयार ककया.

इस तरह रुं गमुंच प्रारुं मभक रुप मे आया. सीजर तथा आगस्टस ने रोम को बहुत उन्नत

ककया. पाुंपेई का शानदार गथएटर तथा एक अन्य(पत्थर का) गथएटर उसी के बनवाए बताए जाते हैं. प्रथम चरण१/-रोमीय परम्परावाल ववसेंजा रुं गमुंच(१५८०-८५)ब्जसमें बाद में दीवार के पीछे वीगथकाएुं जोडी

गई .

२)सैववयोनेटा में स्कमोजी ने इन ववगथकाओुं को मख् ु य रुं गमुंच से ममला ददया(१५८८ई) ३)इममगो जोंस ने बाद में इन्हें रुं गमुंच ही बना ददया. ४)१६१८-१९ में परमा गथएटर में , रुं गमुंच पीछे हो गया और पष्ृ ठभमू म की गचबत्रत दीवार आगे आ गई. लगभग दस ू री शती ईसवीुं में रुं गमुंच कामदे व का स्थान माना जाने लगा. ईसाइयत के जन्म लेते ही पादररयों ने नाट्यशाला को हे य मान मलया. गगरजािरों ने गथएटर का ऎसा गला िोटा कक वह आठ शताब्बदयों तक पनप न सका.. उन्होंने रोमन साम्राज्य का पतन का मख् ु य कारण गथएटर को ही माना. रोमन रुं गमुंच का अुंततम सुंदभध ५३३ ई. का ममलता है . बावजूद इसके चोरी-तछपे नाटक खेले जाते रहे . इतालवी पुनजाधगरण के साथ वतधमान रुं गमुंच का जन्म हुआ. चौदहवीुं शताबदी में कफ़र से नाट्यकला का जन्म हुआ और लगभग १६वीुं शताबदी में उसे प्रौढता प्राप्त हुई. कई उतार-चढाव के बाद १८वीुं-१९वीुं शती में रुं गमुंच के ववकास का आदशध माना गया. पन ु जाधगरण का दौर सारे यरू ोप में फ़ैलता हुआ एमलजाबेथ काल में इुंग्लैंड जा पहुाँचा. सन १५७४ तक वहाुं एक भी गथएटर नहीुं था. लगभग पचास वषों में यह अपने चरम पर जा पहु​ुंचा.और कफ़र इटली, फ़ाुंस, स्पेन तक जा पहु​ुंचा. १५९०-१६२० का काल शेक्सवपयर का काल रहा. रुं गमुंच ववमशष्ट वगध का न होकर, जनसामान्य के मनोरुं जन का साधन बना.

आधतु नक रुं गमुंच

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रुं गमुंच यातन गथएटर,वह स्थान है ,जहा​ाँ नत्ृ य, नाटक, खेल आदद हों. रुं गमुंच शबद रुं ग और मुंच दो शबदों की यतु त से बना शबद है . रुं ग इसीमलए प्रयक् ु त हुआ कक दृष्य को आकषधक बनाने के मलए दीवारों, छ्तों और पदों पर ववषेश प्रकार की और ववववध प्रकार की गचत्रकारी की जाती है और अमभनेताओुं की वेषभष ू ा तथा सज्जा में भी ववववध रुं गों का प्रयोग होता है और मुंच इसीमलए प्रयक् ु त हुआ कक दशधकों की सवु वधा के मलए रुं गमुंच का तल फ़शध से कुछ ऊाँचा रहता है . दशधकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रुं गमुंच सदहत समच ू े भवन को प्रेक्षागह ृ , रुं गशाला या नाट्यशाला कहते हैं. पब्श्चमी दे शों में इसे गथएटरया आअपेरा नाम ददया जाता है . आधतु नक रुं गमुंच का वास्तववक ववकास १९ वीुं शती के उत्तराधध में आरुं भ हुआ और एक भव्यतम रुप सामने आया.लेककन यह स्वरुप ज्यादा ददन न दटक सका. ववज्ञान के नए-नए अववष्कारों ने जन -जीवन पर व्यापक प्रभाव डाला. मक ू मसनेमा, कफ़र सवाक मसनेमा ने जनमानस को अपनी ओर तेजी से आकृष्ट ककया. गथएटर से कुछ मोह भुंग हुआ और मसनेमा का आकषधण बढता गया. क्योंकक इसमे ग्लैमर और पैसा दोनो है . स्वतुंत्रता पश्चात १९५१ में आयोब्जत एक कला सम्मेलन नई ददल्ली में , ववचार ककया गया कक नत्ृ य,नाटक और सुंगीत की राष्रीय अकादममया​ाँ खोली जाए. ३१ मई १९५२ में तत्कामलन मशक्षा मुंत्री श्री मौलाना अबदल् ु द कलाम आजाद की उपब्स्थतत में अकादमी की नीव रखी गई, २८ जनवरी १९५३ को डा.राजेन्दप्रसादजी ने इस अकादमी को ववगधवत उद्िादटत ककया. भारतीय नाट्य परम्परा को तनत नई उाँ चाइया​ाँ दे ने में भारतेन्द ु हररश्चन्द्र,,जयशुंकरप्रसाद,कमलेश्वर, जगदीशचन्द्र मथरु , सवेश्वरदयाल सक्सेना, रामकुमार वमाध, मोहन राकेश, स्वदे श दीपक, नाग बोडस, हररकृष्ण प्रेमी ,धमधवीर भारती, नुंदककशोर आचायध, आदद ववद्वानों ने बेहतरीन नाटकों की रचना की. उनके द्वारा मलखे गए नाटकों की सवधत्र सराहना हुई और आज भी वे जगह-जगह मुंगचत ककए जा रहे हैं.

कई ददग्गज कफ़ल्म -अमभनेता तो आज अपने

चमोत्कषध पर हैं, सबके सब स्टे ज कलाकर रह चुके हैं.कुछ तो मसनेमा में इतने व्यस्त हो गए हैं कक इन्हें स्टे ज(रुं गमुंच) पर जाने का समय ही नहीुं ममल पाता, बावजूद इसके उनके मन में अब भी रुं गमुंच को लेकर अगाथ श्रद्धा और समपधण का भाव मौजद ू है . नाटकों की बात हो और नक् ु कड नाटक पर बात न की जाए तो शायद अधुरा सा लगेगा. समय के साथ नक् ु कड नाटक भी कलाकारों द्वारा खेले गए. इसमे ककसी गथएटर अथवा ककसी नाट्यगह ृ की आवश्यक्ता नहीुं पडती. कलाकार ब्जसमे पात्रों की सुंख्या कम से कम “एक” या आवश्यकतानस ु ार कुछ ज्यादा भी हो सकती है , द्वारा गली-गली में जाकर अपने अमभनय से दशधकों तक अपनी बात पहु​ुंचाते है , ब्जसे हम नक् ु कड भी कह सकते हैं, वे अपनी प्रस्ततु त द्वारा समाज में फ़ैल रही ववसुंगततयों पर कडी चोट करते हैं अथवा कोई ऎसा सुंदेश दे ना चाहते

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हैं जो समाज के मलए उपयोगी हो,के ववषय के मल ू में जाकर तछपे सुंदेश को जन-जन तक पहुाँचाते है . इसमे कोई तामझाम नहीुं करनी पडती और न ही कोई ववशाल मुंच बनाने की जरुरत ही पडती है . इससे यह फ़ायदा हुआ कक जो लोग नाटकों से जड ु नहीुं पाए अथवा समयाभाव के कारण मुंच तक नहीुं भी जा पाए तो उन्हें िर बैठे इसका आनन्द उठाने को ममल जाता है . अतः कहा जा सकता है कक नाट्यववधा का भववष्य आगे भी सरु क्षक्षत रहे गा और आए ददन नए-नए नाटक मुंगचत ककए जाते रहें गे.

(१०)

ववलुप्त होती जा रही गौरै या आप ऊपर जो गचत्र दे ख रहे हैं,वह गौरै या का है . एक नन्हीुं सी, भरू े रुं ग की, छोटे -छोटे पुंखों वाली, पीली सी चोंच मलए, 14से 16 से.मी लुंबी इस गचडडया को आप अपने िर के आसपास मुंडराते दे ख सकते हैं. इसे हर तरह की जलवायु पसुंद है . गा​ाँवों- कस्बों-शहरों और खेतों के आसपास यह बहुतायत से पायी जाती है . नर गौरै या के मसए का ऊपरी भाग, नीचे का भाग तथा गालों का रुं ग भरू ा होता है . गला.चोंच और आाँखों पर काला रुं ग होता है . जबकक मादा गचडडया के मसर और गले पर भरू ा रुं ग नहीुं होता. लोग इन्हें गचडा-गचडडया भी कहते हैं.

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यह तनहायत ही िरे लू ककस्म का पक्षी है , जो यरू ोप और एमशया में सामान्य रुप से पाया जाता है . मनष्ु य जहा​ाँ-जहा​ाँ भी गया, इस पक्षी ने उसका अनस ु रण ककया. उन्हीुं के िरों के छप्परों में िोंसला बनाया और रहने लगा. इस तरह यह अफ़्रीका,यरू ोप, आस्रे मलया और एमशया में सामान्यतया पाया जाने लगा. इस पक्षी की मख् ु य छः प्रजाततयाुं पायी जाती है . हाउस स्पेरो माने िरे लू गचडडया, स्पेतनश स्पेरो, मसुंड स्पेरो, रसेट स्पेरो, डॆड सी स्पेरो और री स्पेरो.

गचत्र –ऊपर दाुंए से बाुंए (१)(२) िरे लू गचडडया (३) स्पेतनश (४) मसुंड (५) रसेट (६) डॆड सी (७) री स्पेरो. इसके अलावा ववश्व में अलग-अलग रं गों की चचडडर्ा पार्ी जाती िै .

इटामलयन स्पेरो सोमाली स्पेरो

प्लेनबैकड स्पैरो

लागो स्पेरो

सड ु ान गोल्डन स्स्पेरो

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स्पेरो

ग्रेट स्पेरो.

लाकध स्पेरो स्पेरो

ककतनया स्पेरो

व्हाईट क्राउण्ड स्पेरो

डाकध आइड जुंको

व्हाईट थ्रोटे ड स्पेरो

साुंग स्पेरो

अमेररकल री

बलैकववुंग स्पेरो

यलो थ्रोटॆ ड

इनके अलावा सोमाली, वपुंक बैक्ड, लागो, शेली, स्कोरा, कुरी, कैप, नादध न ग्रे है डड ॆ , स्वैनसन, स्वादहल,

डॆहटध , सड ु ान गोल्ड, अरै बबयन गोल्ड,चेस्टनट आदद गचडडया ववमभन्न दे शों में पायी जाती है . इनके रुं ग-रुपआकार- प्रकार दे श-प्रदे श की जलवायु के अनस ु ार पररवततधत हुए हैं. बच्चों, यहा​ाँ एक बात बतलाना मैं आवश्यक समझता हूाँ कक सबसे पहले ईश्वर ने पूरी सब्ृ ष्ट के तनमाधण के साथ ही इस धरती को भी बनाया. इसके बाद पेड-पौधे लगाए, कफ़र असुंख्य जीवजुंतु-पक्षी-पखेरु उत्पन्न ककए. बादल-बबजली-पानी वे पहले ही बना चक ु े थे. वे जानते थे कक ककतना भ-ू भाग छोडा जाए ककतना नहीुं.

उन्होंने एक भाग धरती, और शेष तीन भाग पानी से भर ददए ताकक ककसी जीव-जुंतु को कमी न महसस ू हो सके. धरती का खूब साज-मसुंगार करने के बाद उन्होंने मानव की उत्पब्त्त की.

ईश्वर जानते थे मनष्ु य की कफ़तरत को और उसकी नेक-तनयतत को भी. ददमाक का उपयोग करने वाला

वह पहला प्राणी था. वे यह भी जानते थे कक एक ददन वह धरती में छॆ द कर पाताल तक जा पहुाँचेगा. समद्र ु को चीर कर नागलोक तक और आसमान में सरु ाग कर स्वगध-लोक तक जा धमकेगा और उसे धता

बताने लगेगा..जहा​ाँ एक ओर वह साइुंस और टे क्नोलाजी में परचम लहराकर अपनी बुवद्ध कौशल्य से नयीनयी इबारतें भी मलखेगा और एक ददन ववनाश का कारण भी बनेगा.

मनष्ु य के द्वारा तनममधत हर चीज ककतना गहरा असर जन-जीवन पर डाल रही है , इसका अन्दाजा तो आप स्वयुं लगा सकते हैं. बढती आधुतनकता और गगनचु​ुंबी इमारतों,गचमतनयों से तनकलता जहरीला

धुाँआ,खेत-खमलयानों में जहरीली रासायतनक खादों और कटते पेड ुं ने इन पखेरुओुं का जीना हराम कर

ददया है . अब तो शहरों और महानगरों में जगह-जगह खडॆ होते जा रहे मोबाईल टावरों से तनकलने वाल तरुं गों ने, न मसफ़ध इन पर गहरा असार डाला है बब्ल्क इनके प्रजनन पर भी ववपरीत असर डाला है .

इसका दष ु पररणाम आज दे खने को ममल रहा है कक हमारे िर-आुंगन में चहकने वाली गौरै या अब ढूाँढे नही ममल रही है . गौरै या को िास के बीज काफ़ी पसुंद होते हैं जो शहरों की अपेक्षा ग्रामीन क्षेत्रों में आसानी

से ममल जाया करते थे, लेककन काुंक्रीट के फ़ैलते जुंगल से इनका भोजन भी छीन मलया है . प्रदष ु ण और

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ववककरण की वजह से तापमान के बढते ग्राफ़ को आप दे ख ही रहे हैं

शायद यही कारण है कक आज

ईश्वर के द्वारा बनाई गई इस सन् ु दर कृतत का तेजी के साथ सफ़ाया हो रहा है . खतरे में िै र्ि खजाना

िख ु इस बात का िै कक प्रकृतत प्रित्त र्ि खजाना अब खतरे में पड गर्ा िै . िे खते िी िे खते अनेक

प्रजाततर्ां ववलप्ु त िोती जा रिी िैं. वि समर् भी नजिीक आन पडा िै जब िमारी संताने पढा करें गी कक जीव-जंतुओं में फ़लां-फ़लां जीव भी िुआ करते थे, पर अब वे निीं िै .

अतः इन रं ग-बबरं गी चचडडर्ों की रक्षा के ललए जो प्रर्ास ककए जाएं उसमें जन-सामान्र्, राजनैततक, प्रशासन, र्व ु ा, गामीण, शिरी ववशेषकर बच्चों को सिर्ोग िे ना िोगा ताकक प्राकृततक संतुलन को बनाए

रखने के ललए ललए प्रर्ास साथाक लसद्ध िो सकें. इन प्राणणर्ों की सरु क्षा में िी मानव की सुरक्षा तनदित िै .

.

(११)

दहन्द-ू वववाह पद्दतत में सुंस्कारों की महत्ता सुंसार की प्रत्येक वस्तु, स्वयुं को ददव्य, भव्य तथा आकषधकरुप में प्रस्तुत करने के मलए सुंस्कार की अपेक्षा रखती है . सुंस्कार का अथध ही-पररमाब्जधत रुप में प्रस्तुतत है . सुंस्कार वैज्ञातनक अवधारणा के रुप में ववकमसत भारतीय जीवन-पद्दतत की सवाधगधक स्पह ृ णीय, सवधस्वीकृत एवुं महत्वपूणध आनष्ु ठातनक प्रकक्रया है . सुंस्कारों के द्वारा वस्तु या प्राणी क और अगधक सुंस्कृत, पररमाब्जधत एवुं उपादे य बना ही इसका मख् ु य उद्देश्य है अथाधत सुंस्कार पात्रता पैदा करते हैं. सभ्यता, सुंस्कृतत एवुं प्रज्ञा के ववकास के साथ-साथ भारतीय मनीवषयों ने मनष्ु य-जीवन को अगधकागधक क्षमतासम्पन्न, सुंवेदनशील, भावप्रवण एवुं उपयोगी बनाने के मलए ही सुंस्कारों की अतनवायधता स्वीकार की है .

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भौततक पदाथों का ही नहीुं अवपतु समस्त प्राझण-जगत, पशु-पक्षी भी अपनी-अपनी तरह से सुंस्कार करते हैं. मनष्ु य तो स्वयुं चैतन्य है . उसका जन्म अपनी जननी की कोख से प्राकृत रुप में हुआ है , पर उसके प्राकृत जीवन को अपेक्षाकृत अगधक पररष्कृत, सुंवेदनशील एवुं लक्ष्योन्मख ु बनाने के मलए सुंस्कारों की मयाधदा तनधाधररत है . सुंस्कारों का ववस्तत ु ेद एवुं पुराण आदद में भी ममलता है . ृ वववेचन धमधशास्त्रीय ग्रन्थों के साथ-साथ आयव धमधशास्त्रों में ववशेषतः पारस्कर, साुंख्यायन, आश्र्वलायन आदद गह् ू ों में इनकी सुंख्या पथ ृ क-पथ ृ क ृ यसत्र ममलती है . गौतमसत्र ू में अडतामलस सुंस्कारों का उल्लेख है, जबकक सम ु न्तु ने पच्चीस सुंस्करों का उल्लेख ककया है . वहीुं व्यासस्मतृ त में सोलह सुंस्कारों का वववरण है . वे इस प्रकार हैं- (१) गभाधधारण,(२) पुंस ु वन, (३)सीमन्तोन्नयन (४)जातकमध( ५)नामकरण (६) तनष्क्रमण( ७) अन्नप्राशन (८) चूडाकरण (९) कणधवेध (१०) उपनयन (११) वेदारम्भ (१२) केशान्त (१३) समावतधन (१४) वववाह (१५) वानप्रस्थ (१६) सुंन्यास एवुं अन्तयेब्ष्ट. इसमें प्रथम तीन-गभाधधान, पु​ुंसवन एवुं सीमन्तोन्नयन प्रसव से पूवध के हैं, जो मख् ु यतः माता-वपता द्वारा ककए जाते हैं. अगग्रम छः-जातकमध से कणधवेध तक बाल्यावस्था के हैं, जो पररवार—पररजन के सहयोग से सम्पन्न होते हैं. अगग्रम तीन-उपनयन, वेदारम्भ, समावतधन ववध्याध्ययन से सम्बद्ध है , जो मख् ु यतः आचायध के तनदे शानस ु र सम्पन्न होते हैं. वववाह, वानप्रस्थ एवुं सन्यास-ये तीन सुंस्कार तीन आश्रमों के प्रवेशद्वार हैं तथा व्यब्क्त स्वयुं इनका तनष्पादन करता है और अन्तयेब्ष्ट जीवन-यात्रा का अब्न्तम सुंस्कार है , ब्जसे पत्र ु -पौत्र आदद पाररवाररक जन तथा इष्ट-ममत्रों के सहयोग से ककया जाता है . उपरोक्त सोलह सुंस्कारों में हम केवल वववाह-सुंस्कार को लेकर चचाध करें गे. जैसा कक हम जानते ही हैं कक आयों ने पववत्र, सरल, ब्स्थर और सख ु मय जीवन-यापन के उद्देश्य से मानव और मानवों के मलए अपने जीवन को सुंयम, सदाचार, त्याग, तप, सेवा, शाुंतत, एवुं धमध आदद अनेक कल्याणकारी-गण ु ुं से पररष्कृत करने एवुं अववनय, कदाचार तथा ववलामसता आदद दग ु ण ुध ुं से दरू रहने के मलए “वववाह-सुंस्कार” को आवश्यकतम माना है . उनके ववज्ञान में इस पववत्रतम सुंस्कार के बबना इन आवश्यक कल्याणकारीगण ु ुं का ववकास एवुं दग ु ण ुध ुं का उच्छे द दःु शक्य ही नहीुं, अवपतु असम्भव है. वववाह एक साुंसाररक अव्यवस्थाओुं क दरू करने वाला सुंस्कार है . इससे परु ुं कृत, सभ्य एवुं ु ष सस ु स् धमाधत्मा बनता है . परु ु ष की अपने शरीर में ब्जतनी ममता होती है , उतनी अन्य वस्तओ ु ुं में नहीुं. वववाह के द्वारा उसकी ममता अपने शरीर से ऊपर उठकर पत्नी में , कफ़र सुंतान होने पर, वही ममता पुत्र-कन्या आदद में बुंट जाती है . वही प्रेम िर की चारदीवरी से प्राम्भ होकर मह ु ल्ला, गली, ग्राम, नगर, प्राुंत, दे श कफ़र क्रमशः समस्त ववश्व में व्याप्त हो जाता है . गह ृ स्थ के इस महाववद्द्यालय में त्याग-प्रेम आदद का पूणध

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अभ्यास कर जब पतत-पत्नी उसी प्रेमभाव-त्यागभाव का प्रयोग परमेश्वर की ददशा की ओर प्रवत्ृ त कर दे ते हैं, तब वे परमेश्वर के तनकट पहुाँच जाते हैं. यही शास्त्रानस ु ार उनके जीवन का परम एवुं चरम लक्ष्य हुआ करता है . दहन्द-ू वववाह का परम लक्ष्य कामवासना-पूततध नहीुं है , ककुंतु यज्ञ में अगधकार-प्राब्प्त तथा साब्त्त्वक प्रेम में प्रवब्ृ त्त और वेदादद शास्त्र में प्रेम उत्पन्न करना है . वेदमन्त्रों से वववाह शरीर और मन पर ववमशष्ठ सुंस्कार उत्पन्न करने वाला होता है . इससे धमध, अथध, काम और मोक्ष तक की प्राब्प्त हुआ करती है . यदद वववाह सुंस्कार न होता तो पुरुष की न तो पब्त्न ही होती, न मा​ाँ, न बहन और न उसकी कोई लडकी आदद सुंतान होती. तब परु ु ष का न तो िर होता और न ही कोई ववद्ध्यालय होता. वववाहरदहत राष्र धमध, मशक्षा सुंस्कृतत, कला, ववज्ञान आदद से सवधथा शन् ू य एक पशु-राष्र होता. इसी वववाह-सुंस्कार ने मनष्ु य को व्यवब्स्थत ककया, पररवार ददया, प्रेम ददया, िर बसाने की और ववद्या पाने की प्रेरणा दी. वववाह से ही सव ु णधमय सुंसार बस गया. दहन्द ू वववाह में स्त्री केवल कामपूततध का युंत्र नहीुं बनतीुं, ककुंतु धमधपत्नी बनती है ,. इसी के द्वारा स्त्री में पाततव्रत्य इतना कूटकर भर ददया जाता है कक वह अपने पतत के अततररक्त परु ु षों को वपता, भ्राता या पत्र ु की दृब्ष्ट से दे खती है इसी दहन्द-ू वववाह के पररणामस्वरुप भारतवषध का पाततव्रत्यधमध दे श-ववदे श में सप्र ु मसद्ध है . इसमें पतत-पत्नी एक द्वार के दो दरवाजे हैं, एक मख ु की दो आाँखें हैं, एक रथ के दो चक्र हैं. इसी दहन्द-ू वववाह से दम्पत्ती एक-दस ू रे से अववश्वस्त नहीुं रहते, पक्का गठजोड रहता है . इस वववाह ववगध में दे वताओुं की साक्षी होती है . दहन्द-ू सुंस्कृतत में इसी सत्य का साक्षात्कार ही मानव-जीवन का लक्ष्य माना गया है . तेजी से बदलते पररवेश में हम सुंस्कारववहीन होते जा रहे है . इस सुंस्कारहीनता का पररणाम सुंयक् ु त पररवारों के टूटने के रुप में हमारे सामने आ रहा है . वपता द्वारा सम्पब्त्त के मलए पत्र ु की हत्या, तो कहीुं पुत्र द्वारा वपता की हत्या ककए जाने की िटनाएुं सामने आ रही है . जीवन भर साथ तनभाने का सुंकल्प लेने वाली पत्नी मयाधदाहीनता का मशकार बनकर परपुरुष ुं से सम्बन्ध बनाने में नहीुं दहचकचा रही है . इतना ही नहीुं, समाचार-पत्रों में जब पत्नी ने प्रेमी के साथ षडयन्त्र रचकर पतत की हत्या करा डाली, जैसे समाचार प्रकामशत होता है हृदय काुंप उठता है . तो कहीुं छोटी=छ टी बातों पर हुआ वववाद तलाक का रुप लेने लगा है . तलाक के अगधकाुंश आवेदनों में दहे ज के नाम पर धन माुंगने जैसे आरोप लगाए जा रहे हैं. रही सही कसर दरू दशधन पर ऎसे-ऎसे धारावादहक प्रसाररत ककए जा रहे हैं, ब्जनमे यव ु क-यव ु ततयों के वववाहपव ू ध सम्बन्ध ददखाए जा रहे हैं. इन अवैध सम्बन्धों को “प्रेम” प्रदमशधत कर यव ु ा पीढी को सुंस्कारहीन बनाया जा रहा है . ठगी-चोरी तथा भ्रष्टाचार के नए-नए तरीके इन धारावादहकों में प्रदमशधत

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करने के कारण यव ु कों को एक प्रकार से अपराधों का प्रमशक्षण प्राप्त हो रहा है . सुंस्कारहीनता के इससे िझृ णत पररणाम और क्या हों सकते हैं ? मशक्षा पद्दतत से आये बदलाव के कारण भी अनेक सामाब्जक समस्याएाँ पैदा हुईं.. मैकाले के मानस-पुत्रों ने भारतीय सुंस्कृतत, वेदों, पुराण ुं इत्यादद को रुदढवादी, काल्पतनक तथा अवैज्ञातनक कहकर ततरस्कृत ककया. उन्होंने यह काम इतनी चालाकी और चतुराई से ककया कक हम उनके झाुंसे में आ गए और अपने आपको पाश्चात्य सुंस्कृतत में डूबो मलया और अपने हाथों अपने पूवज ध ुं द्वारा स्थावपत सामाब्जक मयाधदाओुं का और सुंस्कारों का ताना-बाना तछन्न-मभन्न करने में वपल पडॆ. पररणाम -भयुंकररुप से सामने खडा होकर अट्टहास कर रहा है . अब भी दे र नहीुं हुई है . हमें इन सब बातों पर गम्भीरतापव ध ववचार करने की आवश्यक्ता है . और अपनी ू क सुंस्कार-सम्पन्न गौरवमयी सद ु ीिध परम्परा को समझते हुए तदानस ु ार उसका आचरण करना होगा. तब जाकर हम पुनः अपने खोये हुए गौरव और आदशों को प्रततब्ष्ठत कर सकेंगे.

(१२)

परम्परा और आधतु नकता. परम्परा पर चचाध करने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कक परम्परा क्या होती है ? इसकी स्थापना की जरुरत आझखर क्यों समझी गई? क्या इसका कोई वैज्ञातनक आधार है ? क्या इसके करने और न करने पर कोई अतनष्ट होने की सुंभावना है ? क्या परम्पराएाँ कोई दककयानस ु ी ववचारधारा है , या कफ़र इनका कोई ठोस आधार भी है ? क्या राष्रीयता को लेकर भी कोई परम्परा ववकमसत हुई है ?. क्या परम्परा का प्रभाव गायन,/नत्ृ य/गचत्रकला/ सादहत्य /नाटक/सुंगीत पर भी दे खा जा सकता है ? आदद-आदद. एक नहीुं,बब्ल्क अनेक प्रश्न इस ददशा में उठ खडॆ होते हैं. यदद हम इन प्रश्नों पर गुंभीरता से ववचार करें तो पाते हैं कक परम्पराऎ ुं जीवन जीने की एक शैली का नाम है . अब यह आदमी के वववेक पर तनभधर करता है कक वह पशव ु त जीवन ब्जए, ब्जसमें कोई सामाब्जक बुंधन नहीुं है . न ही कोई आदशध हैं, और न ही कोई तनयम कायदे हैं. चु​ुंकक आदमी एक सामाब्जक प्राणी है , अतः समाज की एक इकाई होने के नाते, उसके कुछ कतधव्य बनते हैं, कक समाज में ककस तरह शाुंतत का वातावरण बना रहे . बडॆ-बज ु ग ु ों के प्रतत उसका कैसा व्यवहार हो. िरों

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की ब्स्त्रयों के प्रतत उसका क्या नजररया हो. बच्चों के प्रतत उसके क्या कतधव्य होने चादहए. कफ़र समाज में एक ही जातत के ,एक ही सुंप्रदाय के लोग नही रहते. उसमे अलग-अलग धमों के लोग भी रहते हैं, उनके प्रतत उसका क्या दातयत्व बनता है ,? प्रकृतत और पयाधवरण से उसके कैसे सुंबुंध होने चादहए?, यह भी उसे ध्यान में रखना होता है . इन सब बातों की मशक्षा वेदों-पुराण ुं में अथवा धाममधक ग्रुंथ ुं में पढने को ममलती हैं. इन वेदों और पुराण ुं के रगचयता और कोई नहीुं बब्ल्क हमारे ऋवषगण थे,ब्जन्होंने सब्ु क्तयों के रुप में ऋचाएुं मलखी- श्लोक मलखे, ताकक आदमी इन तनयमों का पालन करे और अपने जीवन में उतारे . यहा​ाँ यह बात ध्यान में रखना अतत आवश्यक होगा कक वे कथाकगथत ऋवष और कोई नहीुं, बब्ल्क समाजशास्त्री ही थे,ब्जन्होंने एक मयाधदा-रे खा खीचीुं, उस पर धमध का हल्का सा मल् ु लमा चढाया और उसे अमल में लाने की सीख दी. उन्होंने जो भी तनयम-कायदे बनाए, उन सभी का अपना ठोस आधार है साथ ही वैज्ञातनक आधार भी. प्रातःकाल ब्राह्ममह ु ू तध अथाधत सय ू ोदय से प्रायः डेढ िुंटा पव ू ध उठकर जाग जाने की बात कही गई है . यह भी कहा गया है कक ऎसा करने से उत्तम स्वास्थ्य, धन ववध्या, बल और तेज बढता है . जो सय ू ध उगने के समय तक सोया रहता है उसकी आयु िटती है . उन्होंने उसे एक सत्र ू में व्याख्यातयत करते हुए मलखा“कराग्रे वसते लक्षमीः करमध्र्े सरस्वती--करमल ू े त्स्थतो ब्रह्मा प्रभाते करिशानम.” अथाधत;--हथेमलयों के अग्र भाग में लक्ष्मी तनवास करती है , मध्यभाग में सरस्वती और मल ू में ब्रह्माजी तनवास करते हैं. अतः प्रातः हथेमलयों के दशधन करना आवश्यक है . भगवान दे वव्यास ने करोपब्ल्बध को मानव का परम लाभ माना है . इस ् ववधान का आशय यह है कक प्रातःकाल उठाते ही सवधप्रथम दृब्ष्ट और कहीुं न जाकर अपने करतल में ही दे वदशधन करे , ब्जससे वब्ृ त्तयाुं भगतगचन्तन की ओर प्रवत्ृ त हों. भगवान का स्मरण और ध्यान करने से सब ु ुवद्ध बनी रहे . शरीर तथा मन से शुद्ध साब्त्वक कायध ककया जा सके. जब आदमी सब ु ह से ही इस बात को अपने जहन में उतार लेता है तो तनब्श्चत जातनए कक वह कफ़र कोई बरु े काम की ओर प्रवत्त नहीुं होगा. यदद बरु े काम नहीुं करे गा तो उसका फ़ायदा तो उसे ममलेगा ही, साथ में वह समाज के मलए भी अप्रत्यक्षरुप से लाभदायी होगा.. इसी तरह बबस्तर छोडने से पहले और शय्या से नीचे उतरने से पूवध उसे धरती माता का अमभवादन करना चादहए और उन पर पैर रखने की वववशता के मलए क्षमा माुंगते हुए तनम्नमलझखत शलोक का पाठ करना चादहए “ समद्र ु वसने िे वव पवातस्तनम्डले//ववष्णुपत्त्न नमस्तुभ्र्ं क्षमस्व में ” आप ऎसा करें अथवा न करें ,इससे धरती को कोई फ़कध नहीुं पडता. आप चाहें

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खाट पर रहें अथवा नीचे उतर आएुं, धरती पर उतना वजन तनब्श्चत तौर पर रहना ही रहना है , लेककन इसके पीछे वैज्ञातनक दृब्ष्टकोण काम कर रहा होत्ता है . धरती के स्पषध करने मात्र से आपके भीतर एक चुंब ु कीय शब्क्त उत्पन्न होती है ,ब्जसका अनभ ु व आप ददन भर महसस ू कर सकते है . मात्र इस छोटे से टोटके से क्या आप ददन भर उजाधवान बने रहना नहीुं चाहें गे? कफ़र वैज्ञातनक भी मानते है कक धरती एक ववशाल चु​ुंबक है . इस बात से भला आप इनकार कैसे कर पाएुंगे.? इसी प्रकार िर में स्नान करने से पूवध तनम्नमलझखत मुंत्र का उच्चारण करते हुए लोगों दे खा-सन ु ा जा सकता है . “गंगे च र्मन ु े चैव गोिावरर सरस्वती//नमािे लसन्धु कावेरर जलेSत्स्मन संतनचधं कुरु” इस दे श में नददयों को मा​ाँ का दजाध ददया गया है . गुंगा-यमन ु ा-सरस्वती, नमधदा ताब्प्त आदद नददयों को दे वी का दजाध ददया गया है और उनकी अनेकानेक मदहमा गायी गई है . नहाने से पूवध आदमी इस भाव से भर उठता है कक वह नदी में उतरकर स्नान कर रहा है . यह भाव-पक्ष है . कहा गया है कक जैसा भाव आप मन में लाएुंगे,वैसी ही अनभ ु तू त आपको होने लगेगी. ऎसा ककए जाने से मन प्रसन्नता से भर उठता है और वह पूरे ददन अपने आपको तरोताजा पाता है. एक ही तरह की लोकामभव्यब्क्त या लोक तत्व लुंबे समय तक अमभव्यक्त होता रहे तो कालान्तर में परम्परा बन जाता है . और उसकी अमभव्यब्क्त लोक परम्परा के अन्तरगत होने लगती है . और जीवन के ववमभन्न क्षेत्रों में अमभव्यब्क्त भी पाती हैं. यथा गीतों में , नत्ृ यों में , वाध्यों में , कथाओुं में , कहावतों में , और लोकोब्क्तयों में रुप पाकर सुंचाररत होती हैं. साथ ही लोक-व्यवहार, उठने-बैठने, पहननेओढने, हाँसने-रोने, तथा बातें करने में भी पररलक्षक्षत होती हैं. इस प्रकार स्पष्ट है कक इन परम्पराओुं में मभन्न-मभन्न चीजों पर जोर है ,ककन्तु उनमें परस्पर मेल ममलाप भी होता है . शास्त्रीय सुंगीत और नत्ृ य शास्त्रीय परम्परा के ज्वलन्त उदाहरण है , जो लोक सुंस्कृतत के स्वरुपों लोक-गीत- जैसे बबरहा, चैता, कहरवा, पुंडवानी----लोकनाट्र् में नौटुं की ववदे मशया,तथा माचा, -लोकनत्ृ य में छउ बीहू, गभाध----लोक चचत्रकला में -मधुबनी, जादोपदटया आदद मभन्न हैं क्योंकक शास्त्रीय सुंगीत और नत्ृ य प्रायः कुछ िरानों

और राजदरबारों तक सीममत रहे .( दरभुंगा,

बनारस िराना, जयपरु िराना, लखनऊ िराना,आगरा िराना, ग्वामलयर िराना, गया िराना, कनाधटक सुंगीत, दहन्दस् ु थानी सुंगीत) वहीुं दस ू री ओर लोकगीत, लोकगचत्रकला, लोकनत्ृ य आदद समच ू ी जनता के मलए खुले है और वह गरु ु -मशष्य परम्परा तक सीममत और सुंकुगचत नहीुं है , लेककन यह भी सच है कक दोनो पम्पराओुं के ममलने से अधधशास्त्रीय सुंस्कृतत का ववकास हुआ.

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जो भी है , यह तो मानना पडॆगा कक भारत में साुंस्कृततक बहुलता का वजूद है . न केवल धमों में और पुंथों में अलग-अलग उप-साुंस्कृततक परम्पराएुं है , और यह परम्परा इततहास से भी प्रभाववत है , ब्जसके कारण अद्भत ु “सामाब्जक सुंस्कृतत” ववकमसत हुई, ब्जसमें ’मभन्नता में एकता के साथ-साथ “एकता में मभन्नता” भी है और यही इसकी खूबसरू ती एवुं तनरुं तरता की वजह है . लोक परम्पराएुं अपने बुतनयादी चररत्र के समानधमी होते हुए ककसी अुंचल ववशेष में अपनी ववमशष्टता की पहचान अलग मलए भी हो सकती है .उसको समझने के मलए उस अुंचल के उद्भव, ववकास, और तनरुं तरता, भौगौमलक पररब्स्थतत तथा सामाब्जक दबाव आदद को ध्यान में रखकर समझा जा सकता है . जन्म सुंस्कार ,छटी, नामकरण सुंस्कार, सगाई, वववाह आदद में अपनायी जाने वाली परम्पराएुं, मत्ृ यु के अवसर पर ककए जाने वाले सुंस्कारो में , पयाधप्त मभन्नता दे खने को ममलती है . यही नहीुं, एक ही जातत के लोगों में भी उनकी लोक-परम्पराओुं में मभन्नता ममलती है . यद्दवप बतु नयादी तौर पर एकरुप होते हुए भी ववमभन्न अुंचलों की परम्पराएुं भी लगभग एक ही तरह की होती है और उनके गततशीलता का पैमाना भी एक सा ही हुआ करता है . गततवान और ववकासशील परम्पराएुं कब सुंस्कृतत का एक अहम दहस्सा बन जाती है , पता ही नहीुं चल पाता. शाब्बदक अथों में “सुंस्कृतत” शबद “सुंस्कार” का ही रुपान्तरण है . और कालान्तर में सुंस्कारों का पररमाजधन ही सुंस्कृतत का आकार ग्रहण करता हुआ जीवन भर साथ चलता है , ब्जसे हम बाद में इन्हीुं सुंस्कृतत और सुंस्कारों को भावी पीढी को सौंप जाते हैं. लोक व्यवहार के कुशल गचतेरे, मानस ममधज्ञ तल ु सीदासजी ने रामचररत मानस में परम्प्रराओुं और सुंस्कारों की ववशद व्याख्या ही नहीुं की है ,बब्ल्क उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उतारकर उसे जनजन तक पहु​ुंचाया भी है १/-“प्रातकाल उदठ के रिन ु ाथा* मातु वपता गरु ु नावदहुं माथा” २/-“करर दुं डवत मतु नदहुं सनमानी*तनज आसन बैठारे दह आनी ३/-“जननी भवन गए प्रभ* ु चले नाइ पद सीस” ४/-“लागे पखारन पाय पुंकज*प्रेम तन पुलकावली” “५/- कुंबल,बसन ववगचत्र पट रे *भाुंतत-भाुंतत बहु मोल न थोरे ६/-गज रथ तुरग दास अरुदासी*धेनु अलुंकृत कामदह ु ा सी”

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७/-“सनमातन सकल बरात आदर, दान बबनय बडाइ कै प्रमदु दत महा मतु न बुंद ृ बुंदे,पूब्ज प्रेम लडाइ कै ८/-“बुंद ु न बररसदहुं,राउ जनवासेदह चले ृ ारका गन सम ९/-दुं द ु भ ु ी जय धुतन बेद धुतन नभ, नगर कौतह ू ल भले १०/-तब सखी मुंगल गान करत, मन ु ीस आयसु पाइ कै ११/-दल ू ह दल ु दहतनन्ह सदहत सद ु​ुं रर, चली कोहबर ल्याइ कै” “पुतन जेवनार भई बहु भा​ाँती, पठए जनक बोलाइ बराती” १२/-“आसन उगचत सबदहुं नप ू करी सब लीन्हे ृ दीन्हे , बोमल सप १३/-सादर लगे परन पनवारे . कनक कील मतन पान साँवारे ” जेवत ाँ दे दह मधुर धुतन गारी, लै लै नाम पुरुष अरु नारी’ सब ु ह उठकर माता-वपता को प्रणाम करना, अपने से बडॆ-बूढे, माता-वपता तथा गरु ु को उगचत सनमान दे ना, शादी-वववाह के समय वधु को दहे ज में अनेकानेक चीजों का ददया जाना. बरात का आदरपूवक ध सम्मान करना, ब्स्त्रयों का मुंगल गान गाना, दल् ु हे के मलए लहकोर लेकर आना,और झखलाना, सारे बाराततयों को भोजन करने के मलए बुला भेजना, उगचत सनमान दे ते हुए आसन दे ना, भोजन करने का आग्रह करना, भोजन करते समय ब्स्त्रयाुं, मधुर ध्वतन से परु ु षों व ब्स्त्रयों के नाम ले लेकर गामलया​ाँ दे ने का ररवाज आदद का वणधण गोस्वामीजी ने मानस में ककया है परम्पराओुं का साुंचा-ढाुंचा कुछ इस तरह ववकमसत ककया गया था कक वह सकल समाज को भी साथ लेकर चलती है .. इस उदाहरण से काफ़ी हद तक उसे समझा जा सकता है . मसलन ककसी पररवार में शादी-वववाह होना है . मुंढा बनने और तोरण सजाने के मलए उसे बाुंस-बब्ल्लयों की आवश्यक्ता होती थी तो वह बसोड से सुंपकध साधता था. खाम्ब बनाने के, मलए बढई, ममट्टी के पात्र जैसे कलश-और दीप प्रज्जवमलत करने के मलए दीया चादहए तो वह कुंु भकार से सुंपकध साधता था. शादी की रस्में करवाने के मलए ककसी योग्य ब्राहमण की तलाश करना, हर िर तक माुंगमलक कायों की सच ू ना अथवा बुलावा भेजने के मलए मलए नाई को इस काम में लगाना, वाद्द-युंत्र बजाने के मलए बसोड, मुंगल गीत गाने और भी व्यवहाररक रीत तनभाने के मलए मोहल्ले-पडौस की मदहलाओुं की आवश्यकता होती थी. ररश्ते-नाते के लोगों के अलावा पूरा समाज इस आयोजन में अपनी भागीदारी का तनवधहन करता नजर आता था.

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यह परम्परा आज भी चली आ रही है , लेककन इस बदले माहौल में काफ़ी कुछ बदल गया है . इस आधुतनकता के दौर के चलते अब लोग दे र तक बबस्तर में िस ु े रहते हैं. गरु ु जनो एवुं वयोवद्ध ृ ककतना सम्मान पा रहे हैं, यह ककसी से छुपा नहीुं है . सुंबुंध तय होने से पहले माुंग-मलस्ट थमा दी जाती है .,मुंगल गान गाने और सन ु ने की कल्पना अब नहीुं की जा सकती. “गचकनी चमेली” जैसे बोल वाले गानों पर यव ु ा-यव ु ततया​ाँ गथरकते नजर आते हैं. अब कोई आपको मनह ु ार करते हुए खाना परस कर नहीुं झखलाता. उसकी जगह अब “बफ़े” ने ले ली है. बफ़े लेने के अपने अपने तनयम कायदे हैं लेककन लोग भोजन पाने के मलए गगद्द की तरह टूट पडते हैं., बच्चों का जन्मददन भी अब पाश्चात्य तरीके से मनाया जाता है . उसकी उम्र के अनस ु ार, उतनी मोमबब्त्तयाुं जलाई जाती है और कफ़र “ हे प्पी बथध डॆ टू यू” कहकर तामलयाुं बजती हैं और कफ़र बच्चा उस मोमबत्ती को फ़ूुंककर बुझा दे ता है, जबकक भारतीय पद्दतत में दीप जलाने की मशक्षा दी जाती है. “िीपोज्र्ोततः परब्रह्म िीपोज्र्ोततजानािा नः/िीपो िरतु मे पापं सांध्र्िीप नमोSतु ते

शुभं करोतु कल्र्ाण आरोग्र्ं सख ु सम्पिम/शत्रु बुवद्ध ववनाशार् च िीपज्र्ोना​ामोsतु ते “ हमारी भारतीय परम्परा में दीप प्रज्जवमलत करने के महत्व को प्रततपाददत ककया गया है , न कक दीप बुझाने को. यह पाश्चात्य सुंस्कृतत की दे न को हम अुंगगकार करके गौरवाब्न्वत होने तथा आधुतनक होने का भ्रम पालकर, प्रसन्नता का अनभ ु व कर रहे हैं, यह सीधे-सीधे भारतीयता पर कलुंक है . .

बैलगाडी का यग ु काफ़ी पीछे छूट चुका है . अब गतत का यग ु है और गततवान बने रहने

के मलए तेज रफ़्तार से भागने वाली मोटर गाडडया​ाँ है , रे ल है , राकेट हैं और सप ु रसोतनक हवाईजहाज हैं, उसी तरह एक पत्र के इन्तजार में हफ़्तों नहीुं बैठा जा सकता. आज हमारे पास उच्च स्तर के साधन मोजूद है . मोबाईल /टे लीववजन और नेट ने, दतु नया को और भी छ टा बना ददया है . पलक झपकेते ही सब कुछ पाया और दे खा जा सकता है . एक साधारण से साधारण आदमी भी इस नयी टे क्नालाजी का भरपरू उपयोग कर रहा है . बावजूद इसके भयुंकर गगरावट दजध की गई है . आदमी वैसा नहीुं रह गया है . इस पररवतधन की आुंधी ने हमारे साुंस्कृततक मल् ू यों को तहस-नहस कर डाला है , उसी का पररणाम है कक आदमी की मनष्ु योगचत सादगी, तनश्छलता, शालीनता, ववनम्रता आदद गण ु ुं का तेजी से क्षरण हुआ है . टुच्चागगरी, कमीनगी उसके आचरण के अमभन्न अुंग बनते जा रहे है . व्यब्क्तगत लाभ-लोभ ने उसे लगभग अुंधा बना ददया है . अब वह वही दे खना-सन ु ना और करना पसुंद करता है ,ब्जसमें उसका नीब्ज स्वाथध तछपा होता है . दया, ममता, करुणा जैसे अथधवान शबद उसके मलए कोई माइने नहीुं रखते. अनीतत से पैसा कमाने की दौड में , “पररवार” नामक इकाई में दरारें पडने लगी है . सच तो यह है कक अब पररवार बचे ही कहा​ाँ है .?.जब िर नहीुं रहा तो पररवार कहाुं बचा रह सकता है , ब्जसमें माुं-वपता-दादा-दादी आदद रहा करते थे. पररवार में अब बुजुगों के मलए जगह शेष नहीुं बची है . या तो वे वद्ध ृ ाश्रम पहु​ुंचाए जा पातालकोट- धरती पर एक अजब ू ा – गोवधधन यादव | रचनाकार.ऑगध (http://rachanakar.org) की प्रस्ततु त


चुके हैं अथवा मभखारी बन भीख माुंगने के मलए मजबूर हो चले हैं. रही सही कसर बाजारवाद ने पूरी कर दी है . जगह-जगाह माल खडॆ ककए जाने लगे हैं. शराबखाने कुकरमत्ु ते की तरह ऊग आए है. बार खुल गए हैं ,जहा​ाँ जवान बेदटयाुं गथरकने के मलए मजबरू हैं अथवा मजबरू की जा रही हैं. क्योंकक नाचना उनकी मजबूरी भी हो सकती है और इनकी आड में पैसा कमाना बार ममलक की. दहुंसा. गैंगरे प के आुंकड ुं में तनरन्तर बढौतरी हो रही है , इस तिनौनी हरकत में वे लोग हैं जो नजदीक पास के ररश्तेदार हैं पडौसी हैं अथवा ररश्ते में सगे होते हैं. इन िटनाओुं ने ववश्वास की नीुंव दहलाकर रख दी है. अब बच्च ुं को भी िेरा जा रहा है . उनका मासम ू बचपन जैसे कैद होकर रह गया है . पैदा होने के साथ ही उसे अुंग्रेजी में ताममल दी जाने लगी है . पररणाम चौंकाने वाले हैं कक वह न तो अच्छी अुंग्रेजी का ज्ञाता बन पाता है और न ही दहन्दी का. अधकचरे ज्ञान ने उसकी सहजता-सरलता को ग्रहण लगाददया है . अल्पवय में अब उनके हाथ में ररमोट पकडा ददया जाता है , “वे चैनल बदलकर अपनी पसुंद का कायधक्रम दे ख सकते हैं, भले ही उसमें वब्जधत दृष्य ददखाए जा रहे हों. अब वे कुंप्यट ु र पर भी हाथ आजमाने लगे हैं और पोनध-साइट का आनन्द उठाने लगे हैं. आधुतनकता के नाम पर माता-वपता उन्हें वे चीजे मह ु ै या करवा रहे हैं,ब्जसमें बच्चों का समय पास हो सके क्योंकक पैसे कमाने के चक्कर में उनके पास अपने बच्चों के बीच बैठने का वक्त ही नहीुं है . एक समय वह भी था जब भारतीय परम्परा में बच्च क ववद्द्याभ्यास के मलए गरु ु कुलों में भेजकर सुंस्काररत ककया जाता था. अब वे ददन रहे नहीुं. आज गली-गली में अुंग्रेजी सीखाने के स्कुल कुकरमत्ु ते की तरह ऊग आए हैं जहा​ाँ बच्चे

“अ” अनार का, म”

मछली का, न बोलकर ए.बी.सी.डी का रट्टा लगाता है . कौवे को “क्राउ”,गाय को “काउ”,भैंस को “बफ़ेलो”के नाम से जानते हैं. इस तरह जानवरों के नाम से वुंगचत होते जा रहे हैं. इसी तरह “अुंअल” शबद चल तनकला है . आप उम्र में छ टॆ हैं अथवा बुजुग ध सभी “अुंकल” की श्रेणी में आते है . इस तरह “अुंटी” शबद भी प्रचलन में आ गया है . चाचा, फ़ूफ़ा, चाची, भाभी जैसे सुंबुंधकारक शबद बेमानी हो गए हैं. दहन्दी की गगनती तक वे नहीुं जानते. स्वतुंत्रता सुंग्राम में दहन्दी को वरीयता दी गई और उसे आधार बनाकर लुंबी लडाइयाुं लडी गई थी ताकक अुंग्रेज ुं की दमनकारी नीततयों से छुटकारा पाया जा सक्रे और दे श परतुंत्रता की बेडी काटकर आजाद हो सके. दे श पर अपनी जान कुबाधन कर दे ने वाले उन तमाम दे शभक्तों ने सपने में भी नहीुं सोचा होगा कक दे श आजाद होकर एक दष्ु चक्र में फ़ुंस जाएगा. हो वही रहा है , जो नहीुं होना चादहए था. गोरे अुंग्रेज चले गए और उसकी जगह काले अुंग्रेज सत्तानशीन हो गए. गोरे तो कफ़र भी अपनी सरकार के प्रतत ईमानदार थे, कतधव्यतनष्ठ थे, तनयम-कानन ू -कायदे के पक्के दहमायती थे, तथा अपने दे श और दे शवामसयों के मलए उनके मन में समपधण का भाव था. यदद वैसा की वैसा ही चलने दे ना था तो कफ़र इतना लुंबा सुंिषध चलाने की जरुरत ही क्या थी? सारा राजकाज आज भी ववदे शी भाषा में चल रहा है . अुंग्रेज से

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नफ़रत और अुंग्रेजी से प्यार, यह नीतत समझ से परे है . उसी तथाकगथत नीततयों पर चलते हुए अब गाुंव-कस्बे तक अुंग्रेजी की पाठाशालाएुं खोल दी गई है .

सत्ताधाररयों की शायद यह सोच है कक बच्चे

यदद अुंग्रेजी भाषा के जानकार हो जाएुंगे तो उनकी गगनती सभ्य होने की तनशानी मानी जाएगी. सभी जानते है कक अुंग्रेजी भाषा में वे परम्पराएुं नाम मात्र को भी नहीुं है जो भारतीय परम्पराओुं में मौजूद है . शायद वे भल ू कर रहे हैं और यह नहीुं जानते कक बच्चे एक ऎसी पीढी है जो हमारा-आपका-सबका वतधमान तो है ही, साथ ही हमारा-आपका भववष्य भी है . एक कोंपल, जो नाजक ु है ,सन् ु दर है -रक्षणीय है तथा शारीररक रुप से लडने में असमथध है , इसका बबाधद होना अथवा टूटना अथाधत पूरे ढाुंचे का बबाधद होना है . .हर काम अब ठीक उलटॆ हो रहे है . शहरी सुंस्कृतत ने तो और भी नए ररकाडध कायम ककए हैं. पडौस में कौन रह रहा है ,? ककस को हमारी जरुरत हो सकती है ,? हम ककसी के काम आ सकते हैं,? जैसा भाव भी अब ददखलाई नहीुं पडते. सारी परम्पराओुं और मान्यताओुं को धता बताकर हम ककस ओर बढ रहे हैं? यह सोचनीय प्रश्न है . क्या हम अपनी ववरासतों को दफ़न करते हुए उस पर आधुतनकता का महल खडा करने का प्रयास कर रहे हैं, ब्जसे आज नहीुं तो कल भरभराकार गगर जाना है ? क्या हमें उस तरह की आधतु नकता चादहए अथवा ववकास चादहए जो पेड ुं की बमल लेकर खडी की जा रही हो, नददयों के बहाव को मोडकर अथवा पहाड ुं को खोखला कर बबजली उत्पादन का ररकाडध स्थावपत ककए जाने का उपक्रम ककया जा रहा हो. आझखर हम चाहते क्या हैं,? शायद ठीक से हमको पता नहीुं है .

उसके भीषण

पररणाम “उत्तराखण्ड की भयावह त्रासदी” के रुप में हमारे सामने खडा अट्टहास कर रहा हैं. श्रद्धा-ववश्वास और आस्था के केन्द्रों की उपेक्षा का पररणाम हमने, सबने दे खा और भी न जाने ककतने ही पररणामों को भग ु तने के मलए हमें तैयार रहना होगा. आधुतनकता अथवा उत्तरआधुतनकता की बात हो, इस दौर में खडॆ होने के मलए हमारे अपने पास क्या है .? क्या है हमारे पास ब्जस पर हम गवध सके ? न तो आज दे श के पास उसकी अपनी भाषा है , और न ही उसका सुंववधान. दे श भी दो नामों से जाना जाता है –एक भारत और दस ू रा इुंडडया. भारत में गरीब-शोवषत-पीडडत-उपेक्षक्षत जन रहते हैं, ब्जनकी भाषा दहन्दी अथवा स्थानीय बोली है . जबकक इुंडडया में धनाड्य लोग-ईलीट लोग, रहते हैं ब्जनकी भाषा अुंग्रेजी है , ब्जनके पास िर नहीुं, आलीशान कोठीयाुं होती है . वह ए.सी कार में सफ़र करता है . ऎ.सी में सोता है और बुंद बोतलों का पानी पीता है ..सुंयोग से सत्ता की चाभी इन्हीुं इलीट वगध के पास है

वे ही सत्ता का उपभोग कर पाते हैं अथवा कर रहे हैं ब्जनके

अन्दर दे श नाम की कोई चीज नहीुं है . उनकी एक वक्त की थाली का मल् ू य हजारों में होता है ,जबकक एक गरीब मात्र बीस रुपयों में गज ु ारा करता है. हमारी सारी बडी-बडी योजनाएुं शहरो से होकर गज ु रती हैं,जबकक गाुंव आज भी उपेक्षक्षत हैं. गाुंधी का माडल, नेहरुजी के माडल के आगे फ़ेल हो गया. वे ब्जस

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तजध पर भारत की बुतनयाद रखना चाहते थे, नेहरु उनसे बबल्कुल भी सहमत नहीुं थे. भाषा के नाम पर क्या हुआ? यह सभी जानते हैं और आज तक दहन्दी इस दे श की भाषा होने का गौरव नहीुं पा सकी. कफ़र एक भयानक षडयुंत्र रचा गया. भाषा के नाम पर अलग-अलग राज्य खडॆ कर ददए गए. हालात ककसी से तछपे नहीुं है . आपस में मल्लयद्ध ु हो रहा है . चाहे वह भाषा के स्तर पर लडा जा रहा हो अथवा पानी के बुंटवारे को लेकर लडा जा रहा हो. सारे कल-कारखाने शहरों में स्थावपत ककए गए. शहरों को फ़ैलाव के मलए जगह चादहए थी, सो गाुंव की गाुंव खाली करवा मलए गए और उनकी जगह आलीशान इमारतों ने ले लीुं. गाुंव के लोग बेरोजगार हो गए और वे पलायन कर शहरों की ओर भागने को मजबूर हो गए. गाुंव में बच गए लुंगडॆ-लल ू े-अपादहज, बूढे लोग. गाुंव जैसे गाुंव नहीुं रह पाए. ववकट ब्स्थतत बन पडी है कक आज शहर बसने लायक नहीुं बचे और गाुंव रहने लायक. यह सब दे ख कर

अपार पीडा होती है कक आजादी से पूवध हमारे महापुरुष ुं ने भारत को लेकर

ककतने हसीन सपने दे खे थे, आज उससे ठीक उलट हो रहा है . अब तो भारतीयता की पहचान भी खतरे में पडती जा रही है . .इस बदलाव को दे खते हुए यह बात कही जा सकती है कक सुंस्कृतत को मनष्ु य ही बनाता और बबगाडता भी है . और हम शायद यह भल ू ते जा रहे हैं कक सुंस्कृतत की वजह से ही मनष्ु यता पैदा होती है . अब मनष्ु य नहीुं, आदममयों की भीड ज्यादा बढ रही है . सुंकट के इस भयावह दौर में अब इुंतजार है उस चमत्कार का कक भववष्य में कोई ऎसा महापरु ु ष पैदा होगा, जो हमारे भारतीय सुंस्कृतत और परम्पराओुं की पुनस्थाधपना करे गा. और दे श को वह गौरव ददलवाएगा,ब्जसका की वह हकदार है .

(१३)

प्रतीक-कववता में नए अथध भरता है .

(पररभाषा) प्रतीक का अथध है ” गचन्ह” ककसी मत ू ध के द्वारा अमत ू ध की पहचान. यह अमभव्यब्क्त का बहुत सशक्त माध्यम है . अमत ध अथाधत जो वस्तु हमारे सामने नहीुं है , उसका प्रत्यक्षीकरण प्रतीकों के माध्यम ू ध का मत ू न से होता है . मनष्ु य अपने सक्ष् ू म गचुंतन को अमभव्यक्त करते समय इन प्रतीकों का सहारा लेता है . इस तरह ““मनष्ु य का समस्त जीवन प्रतीकों से पररपण ू ध है .

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(२)अथवा-ककसी वस्तु, गचत्र, मलझखत शबद, ध्वतन या ववमशष्ठ गचन्ह को प्रतीक कहते हैं, जो सुंबुंध सादृष्य या परम्परा द्वारा ककसी अन्य वस्तु का प्रतततनगधत्व करता है . उदाहरण- एक लाल कोण, अष्टकोण (औकटागौन), रुककए( स्टाप) का प्रतीक हो सकता है . सभी भाषाओुं में प्रतीक होते है , व्यब्क्तनाम, व्यब्क्तयों का प्रतततनगधत्व करने वाले प्रतीक होते हैं.

प्रयोगवाद के अनन्त समथधक अज्ञेय ने अपने गचुंतन से कववता को नयी ददशा दी. उन्होंने परम्परागत

प्रतीकों के प्रयोग पर करारा प्रहार करते हुए शबदों मे नया अथध भरने की बात की. उनकी वैचाररकता से बाद के अमशकाुंश कववयो ने ददशा ली.और कववताओुं में नए रुं ग भरने लगे. (इससे पव ू ध महादे वी वमाध ने अपनी कववता में “दीपक” को प्रतीक बनाया और एक नए गचुंतन, नए आयाम, नए क्षक्षततज रचे थे. प्रयोगवाद के के अनन्य समथधक अज्ञेय की एक छोटी से कववता की बानगी दे झखए उड गई गचडडया काुंपी

ब्स्थर हो गई पाती गचडडया का उडना और पत्ती का काुंपकर ब्स्थर हो जाना बाहरी जगत की वस्तुएाँ है . परन्तु कवव इस बात को कहना नहीुं चाहता. वह इसके माध्यम से कुछ और ही कहना चाहता है . जैसे-

ककसी के बबछुडने पर

मन के आुंगन में मची हलचल, बैचेनी, िबराहट, असरु क्षा का भाव आदद का होना. कफ़र मन की हलचलों के शाुंत हो जाने के बाद की प्रततकक्रया को वे बाहरी वस्तु जगत की वस्त्यों के लेकर एक प्रतीक रचते हैं. यथाथध के धरातल पर यदद हम चीजों को दे खें तो लगता है कक कहीुं जडता सी आ गयी है . हमारी अनभ ु तू तयाुं, सुंवेदनाएुं, यदद यथाथधपरक भाषा में सुंप्रेवषत हो रही हैं, तो सपाटबयानी सा लगता है . दरअसल हम जो कहना चाहते हैं वह परू ी तरह से सुंप्रेवषत नहीुं हो पा रहा है ...कुछ आधा-अधूरा सा लगता है . यदद वही बात हम “प्रतीक” के माध्यम से कहते हैं तो वह उस बात को नए अथों में खोलता सा नजर आता है . दस ू रे शबदों में कहें कक मनष्ु य अपने सक्ष् ू म गचुंतन को अमभव्यक्त करते समय प्रतीकों का सहारा लेता है . इस तरह मनष्ु य का समस्त जीवन प्रतीकों से पररपूणध है . और वह प्रतीकों के माध्यम से ही अपनी बात को सोचता है . वैसे भी भाषा के प्रत्येक शबद ककसी न ककसी वस्तु का प्रतीक-गचन्ह ही होते हैं. सामान्य शबद का अथध जब तक वह साथधक एवुं प्रचमलत रहता है - ववमभन्न व्यब्क्तयों एवुं ववमभन्न प्रसुंगों में मभन्न-मभन्न हो जाता है . “प्रतीक” की वववेचना करते हुए डा. नगेन्द्र कहते हैं कक, ”प्रतीक” एक प्रकार से रुढ उपमान का ही दस ू रा नाम है , जब उपमान स्वतुंत्र न रहकर पदाथध ववशेष के मलए रुढ हो जाता है तो “प्रतीक” बन जाता है. इस प्रकार प्रत्येक प्रतीक अपने मल ू रुप में उपमान होता है . धीरे -धीरे उसका बबम्ब-रुप सुंचरणशील न रहकर ब्स्थर या अचल हो जाता है. डा. नामवरमसुंहजी भी मानते हैं कक, बबम्ब पुनरावत्ृ त होकर “प्रतीक” बन जाता है .

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उदाहरण स्वरुप= प्रयोगवाद के अनन्य समथधक अज्ञेय की की एक कववता “सदानीरा” सादर प्रस्तुत है . ’

“सबने भी अलग-अलग सुंगीत सन ु ा इसकी

वह कृपा वाक्य था प्रभओ ु ुं का

उसको आतुंक/मब्ु क्त का आश्वासन

इसको/वह भारी ततजोरी में सोने की खनक

उसे/बटुली में बहुत ददनों के बाद अन्न की सौंधी खुशबु ककसी एक को नई वधू की सहमी-सी पायल ध्वतन ककसी दस ू रे को मशशु की ककलकारी

एक ककसी जाल-फ़ाुंसी मछली की तडपन एक ऊपर को चहक मक् ु त नभ में उडती गचडडया की

एक तीसरे को मुंडी की ठे लमठे ल,ग्राहकों की अस्पधाध भरी व चौथे को मुंददर की ताल यक् ु त िुंटा-ध्वतन

और पाुंचवे को लोहे पर- सधे हथौडॆ की सम चोंटें ,

और छटे की लुंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अववराम थपक

बदटया पर चमरौंधों की सुंिी चाप सातवें के मलए

और आठवें की कुमलया की कटी में ड से बहते जल की इसे नमक...की एडी के ि​ि ु​ुं रु की उसे यद्ध ु का ढोल

इस सुंझा गोधल ू ी कर लि-ु चन ु -दन ु उसे प्रलय का डमरुवाद

इसको जीवन की पहली अुंगडाई असाध्य वीणा में बबम्ब और प्रतीकों की जो गहन गहराती ध्वतन है वह बाद की कववता में दल ध ु भ

होती गई है .. इस दे श की पूरी परम्परा और रीतत-ररवाजों का और इस दे श के भभ ू ाग का ववस्तत ृ अध्ययन अगर आपको करना हो तो यह कववता आपको वह सब बतला सकती है , जो बडॆ-बडॆ

सादहत्यकारों, इततहासकारों और नत्ृ तत्वशाब्स्त्रयों के बस का नहीुं है ,.दे श केवल भौगोमलक मानगचत्र पर बना दे श नहीुं होता, वह उस दे श के असुंख्य जीव-जुंतुओुं का भी होता है .

अज्ञेय की एक नहीुं बब्ल्क अनेक कववताएुं--मसलन-रहस्यवाद, समागधलेख, हमने पौधे से कहा,

दे ना जीवन, ब्जतना तुम्हारा सच है , हम कृती नहीुं है , मैंने दे खा एक बूुंद, नए कवव से, दोनो सच है , कववता की बात, पक्षधर, इततहास बोध, आदद कववताएुं हैं, ब्जनमें दशधन या ववचार अनभ ु तू त की बबम्बभाषा में पूरी तरह आत्मसात हो जाते हैं. अज्ञेय की एक कववता

“कलगी बाजरे की’

की बानगी दे झखए

“अगर मैं तुमको

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ललाती साुंझ के नभ की अकेली ताररका अब नहीुं कहता

या शरद के भोर की नीहर-न्हायी-कुंु ई टटकी काली चम्पे की वैगरह तो

नही कारण कक मेरा हृदय उथलाया कक सन ू ा है या कक मेरा प्यार मैला है बब्ल्क केवल यही

ये उपमान मैले हो गए हैं

दे वता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच (२)

कभी बासन अगधक तिसने से मल ु म्मा छूट जाता है .

नदी के द्वीप

हम नदी के द्वीप हैं

हम नहीुं कहते कक हमको छ डकर स्त्रोतब्स्वनी बह जाए वह हमें आकार दे ती है

हमारे कों,गमलया​ाँ, अुंतरीप,उभार,सैंकत-कूल सब गोलाइया​ाँ उसकी गढी हैं

मा​ाँ है वह ! है उसे से हम बने हैं......मातः उसे कफ़र सुंस्कार तुम दे ना यह पूरी कववता बबम्बों और प्रतीकों से सम्प्रेवषत कववता है ... एक ववचार है . इससे पहले दहन्दी में एक रुढ मान्यता यह रही है कक आधुतनक काव्यभाषा बबम्बधमाध होती है और वक्तव्य उससे अकाव्यात्मक

चीज है , लेककन नई कववता के शीषध कवव और मसद्धाुंतकार अज्ञेय ने महज इस कववता में ही नहीुं बब्ल्क अपनी अनेक कववताओुं में प्रतीक-बबम्ब और वक्तव्य की परस्पर अपवज्यधता को अमान्य ककया है . कई

दौरों में मलखी गई कववताएाँ=जैसे= रहस्यवाद, समागध-लेख, सत्य तो बहुत ममले, हमने पौधे से कहा, दे ना जीवन, अकवव के प्रतत कवव, हम कृती नहीुं है , मैंने दे खा एक बूुंद ,नए कवव से, चक्राुंत-मशला, पक्षधर, कववता की बात आदद कववताओुं में तनःसन्दे ह कुछ ऎसी कववताएुं है , ब्जनमे दशधन, अनभ ु तू त की बबम्बभाषा अपनी सुंपूणत ध ा के साथ समाए हुए हैं. अपनी ववचार-कववता (भवन्ती-१९७२) में वे मलखते हैं

“ववचार कववता की जड में खोखल यह है कक ववचार चेतन कक्रया है जबकक कववता की प्रकक्रया

चेतन और अवचेतन का योग है , ब्जसमें अवचेतन अुंश अगधक है और अगधक महत्वपूणध है......”ववचार कववता” का समथधक यह कहे कक उसमें एक स्तर रचना सजधना का है , साथ ही दस ू रा स्तर है ब्जसमें

कल्पना से प्राप्त प्राक-रुपों बबम्बों में चेतन आयास से वस्तु या अथध भरा गया है , तो वह उस प्रकार की कववता को अलग से पहचानने में योगदान दे गी, पर यह आपब्त्त बनी रहे गी कक यह दस ू रा स्तर तकध-

बुवद्ध का स्तर है , रचना का नहीुं. अथाधत “ववचार कववता” कववता नहीुं, कववता ववचार है और ऎसी है तो

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उसकी “कववता” पर ववचार करने के मलए “उसके ववचार” को अलग दे ना होगा या [रसुंगेतर मान लेना होगा.”

दे श और प्रदे श के ख्याततलबध कवव श्री चन्द्रकाुंत दे वतालेजी ने जातीय जीवन में व्याप्त क्रूरता और

तनरुं कुशता को महसस ु करके मलखी गई कववता “उजाड में सुंग्रहालय” की अब्न्तम कववता का शीषधक है =”यहा​ाँ

अश्वमेि यज्ञ हो रहा है ”.

आज के िदटत यथाथध से मठ ु भेड की कववता. इसमें अश्वमेि

का िोडा और िण्टािर की सावधजतनक िडी “प्रतीक” बनकर वातावरण और ज्यादा तनावपूणध बनाते हैं. बरसों पहले मब्ु क्तबोध की कववता “अुंधेरे में ” भी एक शोभा यात्रा का वत ृ ाुंत आया था, यहा​ाँ भी है ब्जस शोभा यात्रा में वपछलग्गओ ु ुं की भीड थी ककत्ती उसी का तो उत्तरकाण्ड इस महापुंडाल में नहीुं,नहीुं इस महादे श में भी

हर तरफ़ “अुंधेरे में ” का उत्तरकाण्ड

तब तो बस एक था ड माजी उस्ताद अब तो दे खो ब्जसे वही वही वही... हर दस ू रा काजल के बोगदे में

तीसरा तस्कर मुंत्र-जाप करता

चौथा आग रखने को आतरु बारुद के ढे र पर

और पहला कौन है क्या सत्तासीन अथवा बबचौमलया बबका हुआ सज्जन पा​ाँचवा-छठा-सातवाुं कफ़र गगनती के बूते के बाहर सुंख्या में शाममल होते हैं अन्दर जाते हैं—बाहर जाते हैं

पववत्र गन्ध से आच्छाददत है नगर का आकाश ब्जसका नगर कोई नहीुं जानता

यहा​ाँ अश्वमेि यज्ञ हो रहा है (प.ृ १५०) ववश्व ववख्यात कवव श्री ववष्णु खरे की एक कववता

मसलमसला

(“सब की आवाज के पदे में ” सुंग्रह

से) कहीुं कोई तरतीब नहीुं

वह जो एक बुझता हुआ सा कोयला है फ़ूाँकते हुए रहना है उसे हर बार राख उडने से

ब्जससे भौंहे नहीुं आाँख को बचाना है वह थोडा दमकेगा

जलकर छ टा होता जाएगा

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लेककन कोई चारा नहीुं फ़ूाँकते रहने के मसवा ताकक जब न बचे सा​ाँस

कफ़र भी वह कुछ दे र तक सल ु गे उस पर उभर आई राख को

यकबारगी अुंदेशा हो लम्हा भर तम् ु हारी सा​ाँस का

अुंगारे को एक पल उम्मीद बाँधे कफ़र दमकने की इतना अुंतराल काफ़ी है

कक अप्रत्यामशत कोई दस ू री सा​ाँस जारी रखे यह मसलमसला इस कववता में कोयला एक प्रतीक है . उसमें धधकती आग को जलाए रखना जरुरी है ताकक उस पर रोदटया​ाँ सेकी जा सके. दे श में व्याप्त गरीबी-मुफ़मलसी-बेहाली-तुंगहाली को बयाुं करती यह कववता अन्दर तक उद्वेमलत कर दे ती है .

ववश्व ववख्यात कवव श्री लीलाधर मुंडलोई की कववता की बानगी दे झखए पहले मा​ाँ चा​ाँवल में से कुंकर बीनती थी अब

कुंकड में से चा​ाँवल बीनती है . यहा​ाँ कुंकड गरीबी का और चा​ाँवल अमीरी का प्रतीक है . िर में जहाुं कभी सम्पन्नता थी, अब वहा​ाँ गरीबी का ताण्डव है . दोनो ही पररब्स्थततयों को उजागर करती यह कववता आत्मा को दहलाकर रख दे ती है . अपनी कववताओुं में प्रतीक का उपयोग करने श्री अरुणचुंद्र राय की एक कववता की बानगी दे झखए. “शटध की जेब/होती थी भारी/सारा भार सहती थी/कील अकेले

नए बबम्बों के प्रयोग में सुंदभध में इस कववता को दे खें. उन्होंने कील को प्रतीक के रुप में मलया है . कील का ववमशष्ठ प्रयोग यहाुं एक मानवीय सुंवेदना की प्रततमतु तध बनकर सजीव हो उठी है . जड-बेजान कील यहाुं कील न रहकर सस्वर हो जाती है .- एक नए अथध से भर उठती है. अपनी अथधवत्ता से ववववध

मानमसक अवस्थाओुं –आशाओुं, आवेग, आकुलता, वेदना, प्रसन्नता, स्मतृ त, पीडा व ववषाद आदद के माममधक गचत्र उकेरती है .

कववता को पढते ही एक गचत्र हमारी आुंखों के सामने गथरकने लगता है . कील पर जो वपता की कमीज

टुं गी है , उस टुं गी कमीज में तनब्श्चत ही जेब भी होगी. और जेब है तो उसमें पैसे भी होंगे. वे ककतने हो

सकते है , ककतने नहीुं, इसे बालक नहीुं जानता. सुंभव है वह खाली भी हो सकती है लेककन उसके मन में एक आशा बुंधती है कक जेब में रखे पैसों से चाकलेट खरीदी जा सकती है , पतुंग खरीदी जा सकती है . और कोई झखलौना भी मलया जा सकता है . यह एक नहीुं अनेक सुंवेदनाओुं को एक साथ जगाता है .

लेककन बच्चा नहीुं जानता कक उस जेब के मामलक अथाधत वपता को ककतनी मब्ु श्कलों का सामना करना

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पडा होगा, अनेक कष्ट को सहकर उसने कुछ रकम जुटाई होगी और तब जाकर कहीुं चल् ू हा जला होगा और तब जाकर कहीुं वह अपने पररवार का उत्तरदातयत्व सुंभाल पाया होगा.

अपने आशय को साफ़ और सपाट रुप में प्रस्तुत करने के बजाय कवव ने साुंकेततक रुप से उस ममध को, बात की गुंभीरता.को मत ू ध जगत से अमत ू ध भावनाओुं को प्रतीक बनाकर प्रस्तुत ककया है .

शाश्वत सत्य की व्युंजना प्रस्तत ु करना हो तो वह केवल और केवल प्रतीकों के माध्यम से की जा

सकती है . ऎसा ककए जाने से अथध की गहनता, गुंभीरता तथा बहुस्तरीयता की सुंभावनाएुं बढ जाती है शुंकरानन्द का कववता सुंग्रह “िस ू रे दिन के ललए” एक नए तरह के प्रतीक और बबम्ब के जररए प्रभाववत कर दे ने वाला काव्य-लोक है . छोटी-छ टी कववताएुं अपने ववन्यास में भले ही छोटी जान पडॆ, पर अपनी प्रकृतत में अपनी रचनात्मक शब्क्त के साथ, चेतना को स्पषध करती है और बेचैन भी. बानगी दे झखए मा​ाँ चल् ु हा जलाकर बनाती है रोटी या छौंकती है तरकारी कुछ भी करती है कक

उसमें गगर जाता है पलस्तर का टुकडा कफ़र अन्न चबाया नहीुं जाता पलस्तर एक दश्ु मन है तो उसे झाड दे ना चादहए

ममटा दे ना चादहए उसे परू ी तरह डा रामतनवास मानव की काव्य रचनाओुं में , वे कववता, दोहा, द्ववपदी, बत्रपदी, हायकू आदद में से चाहे ककसी भी ववधा की क्यों न हो, प्रतीकों का सदृ ु ढ एवुं साथधक प्रयोग करते हैं. प्रतीकों के माध्यम से वे

ऎसा बबम्ब प्रस्तुत करते हैं, ब्जनमे यथाथध हो, प्रततभामसत हो ही जाता है . पाठक की कल्पना भी अपना क्षेत्र ववस्तत ृ करने के मलए वववश हो जाता है . उनकी एक जानदार कववता है -“शहर के बीच”. इसकी बानगी दे झखए

जब भी तनकलती है बाहर कोई गचडडया िोंसले से बाज के खूनी पुंजे

दबोच लेते हैं उसे. यहाुं बाज और गचडडया का प्रयोग बहुआयामी है . बाज-प्रशासक, शोषक या आतुंकवादी कोई भी हो सकता है . गचडडता- जनता शोवषत या आतुंकवाद का मशकार, कुछ भी हो सकता है . इनकी काव्य रचना में ददन-रात, िटा-बबजली, बाि-भेडडये, बन्दर-भाल,ू कौवे-बगल ु े, गगद्द-गगरगगट, फ़ूलकाुंटे अदद न जाने ककतने प्रतीक आते है और पूरी अथधवत्ता के साथ आते हैं.

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एक बानगी दे झखए-

कौवे,बगल ु े,गगद्द यहा​ाँ हैं/ सारे साधक मसद्ध यहा​ाँ है

डा. मानव की एक और रचना दे झखए ब्जसमें प्रेमचुंदजी का गा​ाँव है . गा​ाँव है तो उसमे होरी है , गोबर है . गरीबी है , मफ़ ु मलसी है , अभाव है , भख ू है , मजबूररयाुं है . इतनी सारी बातें मात्र तीन लाइन मे

कवव अपने अन्तरमन की बात,- अपने मन की पीडा कम से कम शबदों में “प्रतीकों” के माध्यम से कह जाता है . प्रेमचुंद के गा​ाँव मे

पडी है आज भी बेडडया​ाँ

(२)

है होरी के पा​ाँव में

भाग्य झखचता डोररया​ाँ होरी तडपे भख ू से

गोबर ढोता बोररया​ाँ

दे श में नेताओ, दलालों, अफ़सरों आदद के कारनामे और व्ववस्था में आई गगरावट और

ववसुंगततयों को दे खकर वे मलखते हैं

धत ू ध भेडडये/ और रुं गे मसयार/करते राज तभी दे श समच ू ा /लगे जुंगल राज मुंगलेश डबराल की एक कववता

(२) भालू के बाद बन्दर की बारी है

राजनीतत के मुंच पर िदटया प्रदशधन जारी है .

(स्मतृ त से साभार)

रात भर हम दे खते हैं पत्थरों के नीचे

पानी के छलछला का स्वपन

यहा​ाँ पत्थर कठोरता, पानी का छलछलाना करुणा का प्रतीक है . श्रीकाुंत वमाध “हब्स्तनापुर” से साभार सुंभव हो

तो सोचो हब्स्तनापुर के बारे में ब्जसके मलए

थोडॆ-थोडॆ अुंतराल में

लडा जा रहा है महाभारत. (यहा​ाँ हब्स्तनापुर प्रतीक है सत्ता का) मुंगलेश डबराल की एक कववता की बानगी दे झखए.

मेरे बचपन के ददनों में एक बार मेरे वपता एक सन् ु दर सी टॉचध लाये ब्जसके शीशे में गोल खाुंचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कक हे डलाईट में होते हैं

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हमारे इलाके में रोशनी कक वह पहली मशीन ब्जसकी शहतीर एक चमत्कार कक तरह रात को दो दहस्सों में बा​ाँट दे ती थी। एक सब ु ह मेरी पडोस की दादी ने वपता से कहा बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कक मलए थोडी सी आग दे दो वपता ने हुं सकर कहा चाची इसमें आग नहीुं होती मसर्ध उजाला होता है यह रात होने पर जलती है और इससे पहाड के उबड-खाबड रास्ते सार् ददखाई दे ते हैं दादी ने कहा बेटा उजाले में थोडा आग भी रहती तो ककतना अच्छा था मझ ु े रात को भी सब ु ह चूल्हा जलाने की कफ़क्र रहती है िर-गगरस्ती वालों के मलए रात में उजाले का क्या काम बडे-बडे लोगों को ही होती है अाँधेरे में दे खने की जरूरत वपता कुछ बोले नहीुं बस खामोश रहे दे र तक। इतने वषध बाद भी वह िटना टॉचध की तरह रोशनी आग माुंगती दादी और वपता की खामोशी चली आती है हमारे वक्त की कववता और उसकी ववडम्बनाओुं तक इसमें टाचध केवल एक प्रतीक भर है , लेककन इसके भीतर से ककतने कोलाज बनते हैं और एक नया अथध यहाुं दे खने को ममलता है , (२) चाहे जैसी भी हवा हो /यदद हमें जलानी है अपनी आग/ जैसा भी वक्त हो/ इसी में खोजनी है अपनी हाँसी/ जब बादल नहीुं होंगे/ खूब तारे होंगे आसमान में / उन्हें दे खते हम याद करें गे/ अपना रास्ता. यहा​ाँ हवा पररब्स्थततयों की प्रतीक है , आग क्राुंतत की और बादल परे शातनयों का. गोवधधन यादव की एक कववता (शेरशाह सरू ी के िोडॆ से साभार) पत्र पाते ही झखल जाता है उसका मरु झाया चेहरा

और बहने लगती है एक नदी हरहराकर उसके भीतर.

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(इसमे िोडॆ प्रतीक है जो उजाड और नीरस जीवन में खुमशयाुं लाते है औरब्जनके आते ही वह प्रसन्नता से भर उठती है

(२

मेरे अन्तस में बहती है एक नदी ताप्ती

ब्जसे मैं महसस ू ता हूाँ अपने भीतर ब्जसकी शीतल, पववत्र और ददव्य जल बचाए रखता है ,मेरी सुंवेदनशीलता

खोह,कन्दराओुं,जुंगलों और पहाड ुं के बीच बहती यह नदी

बुझाती है सबकी प्यास

और तारती है भवसागर से पावपयों को

इसके तटबुंधों में खेलते हैं असुंख्य बच्चे ब्स्त्रया​ाँ नहाती हैं

और परु ु ष धोता है अपनी मलीनता इसके ककनारे पनपती हैं सभ्यताएाँ

और, लोकसुंस्कृततया​ाँ लेती है आकार लोकगीतों और लोकधुनों पर माुंद की थापों पर

दटमकी की दटममक-दटममक पर ०

गथरकता है लोकजीवन

(यहा​ाँ नदी एक प्रतीक के रुप में आती है )

पमु लस महातनदे शक श्रीववश्वरुं जनजी की एक कववता की बानगी दे झखए वह लडकी नही पछ ू ती है

(२) आसमान से बाजारी शमशीर

वह आाँखें नीची रखती है

काट रही थी हवा को

बडॆ-बुजुगों के आदे शानस ु ार

वह एक भारी झूठ-सा गडा रहा दलदल में

यह सब अब

उसने खुद को बचा रखा है आददम बमल के मलए

वह लडकी सचमच ु बडी हो गई

हर भारतीय कस्बे की लडकी की तरह और

बहुत अुंदर से हार गई है .

खतरनाक तरीके से

ऊजाधरदहत, शब्क्तहीन,तेजब्स्वतारदहत

बाजार की मार झेलने के मलए/वह बेचारा आदमी

(३) मैं जानता हूाँ बहुत गरीबी है मैं जानता हूाँ बहुत मफ़ ु मलसी है , यहा​ाँ ददध है ,तडपन है .. चलो बाहों में बाहें डाल अपने अपने न बोले जाने वाले सत्यों और अनभ ु तू तयों के/

साथ िम ू आयें क्षक्षततजों से पार

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डा.बलदे व कक कववता की एक बानगी पॆड छायादार, पेड ुं की सुंख्या में एक पेड और बच्चा पूछ रहा- मा​ाँ कहा​ाँ है ?

वक्ष ृ में तबदील हो गयी, औरत के बारे में

मैं क्या कहूाँ, कैसे कहूाँ, वह कहा​ाँ है यव ु ा कवव रोदहत रुमसया की कववता की एक बानगी सहे ज लेना चाहता हूाँ अपने वपता की तस्वीर के साथ

जब ममलेंगे हम दोनो

कक भरपरू हाईब्रीड के जमाने भी

तम ु मस् ु कुरायीुं

थोडा सा धान और कुछ गेहूाँ की बामलया​ाँ मेरी आने वाली पीदढया​ाँ महसस ू कर सकें अपनी जड ुं की महक

ककसी ने कुछ भी नहीुं कहा

तुम आयीुं, बहने लगा झरना झखल गए सारे फ़ूल

मैं चुपचाप महसस ू करता रहा वसन्त अपने भीतर

उपरोक्त कववताओुं के माध्यम से हमने दे खा की “प्रतीक” के माध्यम से हम अपने

आशय को साफ़- सपाट रुप में प्रस्तत ु करने की जगह मसफ़ध साुंकेततक रुप में अथध की व्युंजना करते हैं तो हमारे कहन में अथध की गहनता, गुंभीरता तथा बहुस्तरीयता बढ जाती है और साथ ही कववता का सौंदयध भी. बस यहा​ाँ ध्यान ददए जाने की जरुरत है कक कक कववता की ववमशष्ट लय बागधत नहीुं होनी चादहए.

(१४)

लघुकथा- इततिास के झरोखे से. दहन्दी सादहत्य के इततहास को खुंगालाने पर ज्ञात होता है कक ववगत सौ-सवा सौ साल के दौरान कहातनयाुं,तनबन्ध,उपन्यास,यात्रा-वत ृ ाुंत,सुंस्मरण एवुं ररपोताधज आदे ववधाएुं ववकमसत हुईं,ब्जसमें कहानी की ववधा सवोपरी रही. ऐसा माना जाता है कक सन 40 के दशक में मराठी भाषा में लिक ु था का सत्र ू पात हुआ था.उन ददनों प्रकाब्स्शत होने वाली साप्तादहक पबत्रकाओुं “गचत्रा” तथा “आशा” मामसक पबत्रका “ज्योत्सना”

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में लल्ित ु म कथा मशर्षक से लिक ु थाओुं का प्रथम सुंग्रह प्रकाब्स्शत हुआ था. तब से लेकर आज तक ववमभन्न भाषाऒ ुं में हजार ुं लिक ु थाएुं प्रकामशत की जा चुकी हैं. लघक ु था का अथा:नाम से ही स्पष्ट है कक छ टी कथा. कम से कम शबदों मे मलखी गई कथा या बहुत छोटी कहानी, पर कहानी का सुंक्षक्षप्तीकरण नहीुं. मशल्प और रीटमेन्ट के कारण कहानी से स्वतुंत्र ववधा.(2) छोटी पर अधरू ी नहीुं(3)छोटी माने केवल एक ववषय, एक िटना के माममधक बबन्द ु पर केन्द्रीत.(4) चरम सीमा से प्रारुं भ होते हुए कफ़र अन्त.(5)प्रारम्भ और अन्त आपस में गथ ु ें हुए.(6) पात्र सज ृ न ,सुंिषध, अुंतद्धवुंद, वातावरण, वणधण, ववस्तार आदद की गज ु​ुं ाइश नहीुं. बस सब साुंकेततक. उपरोक्त बबन्दओ ु ुं को अपने मे समाअदहत करती हुई अगर कोई रचना है तो तनःसुंदेह वह लिक ु था ही होगी. उसमें कसाव होगा. तीर की मारक क्षमता होगी. वह आिात भी करे गी. एक आइसा िाव पैदा करे गी जो आपको कचोटती रहे गी. लघक ु था का आकार-प्रकार. लिक ु था का आकार-प्रकार क्या हो? इस सुंबुंध में अब तक कोई मानक मापदण्ड नहीुं है . कुछ ववद्वानों का मत है कक लिक ु था में पाुंच-छः सौ शबदों के बीच वह मसमट जाना चादहए. कथा सम्राट प्रेमचन्द ने भी लिक ु थाएुं मलखी है . उसमे सबसे कम शबदों में मलखी गई लिक ु था” “ राष्र का सेवक” है ,ब्जसमें 280 शबद है . “ बुंद दरवाजा” में 350, “दे वी” में 380, “दरवाजा” में 650, “बाबाजी का भोग” में 690, “कश्मीरी सेव में 720, “दस ू री शादी” में 740,”जाद”ू में 800,” शादी की वजह” में 800, “गमी” में 820, “गरु ु मुंत्र” में 890, तटःआआ “यह भी नशा,वह भी नशा” में 930 शबद थे. अतः कहा जा सकता है कक लिक ु था में शबद में शबद तनधाधरण कोई शतध नहीुं है ,परन्तु उसकी अगधकतम सीमा है अवश्य. यदद ऐसा नहीुं होगा तो लिक ु था सुंकेतों के व्युंजना के अपने सौंदयध को खो दे गी. वह कहानी बन जाएगी. सपाट, िटना कथा अथवा सच ू ना रचना कथा बन कर रह जाएगी. लिक ु था में आुंतररक उद्वेग ब्जतना िनीभत ू होगा, कथ्य ब्जतना स्पष्ट होगा और कथाकार ब्जत्ना स्क्षम होगा, अमभव्यब्क्त उतनी सटीक व प्रभावकारी होगी. अतः कथाकार को उसकी रचना आकारगत में छोटी रह जाने अथवा लम्बी हो जाने की गचन्ता नहीुं करनी चादहए. कालखंड ं में लघक ु थाएं.

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प्राचीन काल से ही लिक ु थाएुं सादहत्य की एक ववधा थी और सुंप्रेषण का माध्यम भी. इस काल की लिक ु थाएुं पौराझणक सादहत्य को समब्ृ ध्द प्रदान करती थीुं. अतः कहा जा सकता है कक लिक ु था कोई नयी ववधा नहीुं है . इसका जन्म तो वैददक यग ु में ही हो गया था,ककन्तु इसके स्वरुप में समय व कालचक्र के साथ पररवतधन होते चले गए. मध्यकाल सरू -तुलसी,कबीर,जायसी जैसे श्रेष्ठ कववयों का काल था. इस काल में भब्क्तरस में डूबी-पगी कववताएुं तथा नातयका के नख-मशख को बयान करती कववताओुं का यग ु था. गद्ध सादहत्य लगभग उपेक्षक्षत ही रहा है . इसीमलए लिक ु था की दृब्ष्ट से यह अभाव का काल था. इस काल में कुछ मदु द्रत अुंकों की उपलब्बध हुई. जैसे ममसधया,,मसुंहासन बत्तीसी व माधोनल,चौरासी वैष्णवों की वाताध आदद. लिक ु थाओुं की दृब्ष्ट से केवल मसुंहासन बत्तीसी को ही मलया जा सकता है . इसी काल मे कुछ पत्र-पबत्रकाएुं प्रकाश में आयीुं,ब्जसमे सरस्वती, चाुंद,मतवाला,ब्राह्मण आदद, लेककन इन पत्र-पबत्रकाओुं ने लिक ु था के महत्व को कोई महत्व नहीुं ददया. 1900 से 1947 तक का समय दहन्दी लिक ु था के प्रारब्म्भक यग ु के नाम से जाना जता है . सन 1901 मे माधवराव सप्रे की लिक ु था” ममट्टी भर टोकरी” छात्तीसगढ-ममत्र पबत्रका में प्रकामशत हुई थी. बाद में इसे स्व.कमलेश्वर ने साररका, पहली कहानी में अपने सुंपादत्वकाल में प्रकामशत ककया था. सरस्वती पबत्रका

में छबीलीलाल गोस्वामी की लिक ु था” ववमाता” प्रकामशत हुई,लेककन शबदों

की सुंख्या की अगधकता की वजह से इसे लिक ु था की श्रेणी के उपयक् ु त नहीुं माना गया. सन 1916 मे पदम ु लाल पुन्नालाल बख्शी की लिक ु था “ झलमला” प्रकामशत हुई. यह दहन्दी की प्रथम जीवन्त लिक ु था मानी जाती है . इसमें प्रतीकात्मक और कथ्य की सहज भुंगगमा पायी गई. सन 1914 में जगदीशचन्द्र ममश्र की “बढ ू ा व्यापारी”, 1924 में आचायध रामचन्द्र श्रीवास्तव की “बेबी”,1926में जयशुंकर प्रसाद की” कलावती की सीख”,1928में माखनलाल चतुवेदी की “बबल्ली और बयख ु ार”,1929 में कन्है यालाल प्रभाकर की सेठजी और सलाम,1930 में सद ु शधन की ”दो परमेश्वर”,उपेन्द्रनाथ अस्श्क की”जादग ू रनी,1933 में भारतेन्द ु की”आप बीती-जगबीती” कन्है यालाल ममश्र की “साथधकता”,जगदम्बाप्रसाद त्यागी कक “ववधवा का सह ु ाग”,1940 में रामनारायण उपाध्याय की “आटा और सीमेन्ट” प्रकामशत हुई भोपाल के लिक ु थाकार जहुर बख्श ने खूब लिक ु थाएुं मलखी,जो काफ़ी सराही गयीुं. 1950 से आजतक की लिक ु थाएुं आधुतनक लिक ु था के दायरे में आती हैं. आधुतनक लिक ु था का जन्म सातवें दशक के मध्य से माना जाता है . शताबदी के आठवें दशक मे लिक ु था खूब मलखी गयीुं.71 से 80 तक का समय लिक ु था के मलए महत्वपूणध रहा. इस काल मे लिक ु था के ववकास में अभत ू पूवध ववकास हुआ. बढती मुंहगाई, भख ू ,गरीबी, ररश्वतखोरी और जमा खोरी के सामने

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जनमानस में कुछ नहीुं कर पाने की बैचैनी थी. आठवें दशक में लिक ु था तेजी से सामने आने का कारण यग ु ीन वातावरण था. 72-73 के समय में पाुंच भाषी राज्यों से छः पबत्रकाओुं के लिक ु था ववशेषाुंक छपकर आए. भोपाल से अन्तयाधत्रा, राजस्थान से “अततररक्त” और “पववत्रा ”(बयावर),उत्तरप्रदे श से “ममनीयग ु (गाब्जयाबाद) हररयाणा से”दीपमशखा”,पुंजाब से” प्रयास”पबत्रकाएुं सब्म्ममलत हैं. इसके तुरन्त बाद कमलेश्वर ने जून 73 तथा जुलाई 75 में साररका के लिक ु था ववशेषाुंक तनकाले. यह वह समय था जब ववमभन्न समाचार पत्रों तथा सादहब्त्यक पबत्रकाओुं ने लिक ु था को हाथों हाथ मलया. पाठकों की सुंख्या में अभत ू पव ू ध ववृ द्ध हुई. नए लेखक मैदान में आए. लिक ु था ववशेषाुंकों और सुंग्रहों का जाल पूरे दे श भर में फ़ैलता चला गया. सन 74 मे भगीरथ व रमेश जैन के सुंपादन मे “गफ़ ु ाओुं से मैदान की ओर” रमेश बतरा द्वारा “ताररका”(अम्बाला) तथा जगदीश कश्यप व महावीर प्रसाद जैन द्वारा “समग्र”, 77 में (ददल्ली) पबत्रका के ववशेषाुंक ुं ने लिक ु था को दो धाराओुं में बाुंट ददया. एक धारा सतही वणधण ुं को उत्तेजना के साथ उकेरती थी ब्जसका प्रतततनगधत्व साररका कर रही थी. दस ू री धारा यग ु ीन सामाब्जक यथाथध को व्यक्त करने की बेचैनी के साथ उसे कलात्मक यथाथध मे पररणत करने का सुंयम ददखा रही थी,ककन्तु साररका कक व्यवसातयकता व लोकवप्रयता ने पहली धारा को अच्छा खासा फ़ैलाव ददया. सतही और उबाऊ वणधणों वाली लिक ु थाएुं अपनी गैर-ब्जम्मेवारी के कारण तीखी आलोचना का मशकार होने लगीुं. इसमे कुछ भी गलत नहीुं था. 1972 में जगदीश कश्यप ने ममनी यग ु के माध्यम से लिक ु था सादहत्य को सामने लाने की महत्वपण ू ध भमू मका का तनवधहन ककया. बाद मे इसका सुंपादन बलराम अग्रवाल व सक ु े श साहनी ने सुंभाला. लिक ु था को ववक्रम स नी ने “आिात”

पबत्रका के माध्यम से स्थायीत्व ददया. अशोक जैन ने लिु

समाचार पत्र आकार की पबत्रका तनकालकर महत्वपूणध योगदान ददया. सन 84 में “ पहचान-यात्रा” नाम से साप्तादहक एवुं त्रैमामसक पबत्रका का प्रकाशन हुआ. तरुण जैन ने “ आगमन “ (त्रै.) अुंक तनकाले. सतीशराज ने 86 से 88 तक “ददशा” पबत्रका तनकाली. वे पबत्रकाएुं आज अतीत का दहस्सा बन चुकी हैं. वतधमान समय में हुं स,वागथध,कथाक्रम,कथादे श,उद्भावना,कथाबबुंब,,शोध ददशा आदद पबत्रकाएुं लिक ु था के प्रकाशन में उल्लेखनीय योगदान दे रही हैं. “सरस्वती सम ु न”पबत्रका( प्रधान सुंपादक डा.आनन्दसम ु न मसुंह) ने श्रीकृष्णकुमार यादव (तनदे शक डाक सेवाएुं) के अततगथ सुंपादन मे वष्यध २०११ में 126 लिक ु थाकरों का ववषेशाुंक प्रकामशत ककया. इस पबत्रका को काफ़ी सराहा गया. अववराम सादहब्त्यकी (त्रै) के सुंपादक डा.

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उमेश महादोषी अपने सभी अुंको में लिक ु थाओुं को यथोगचत स्थान दे रहे हैं. यद्दवप यह पबत्रका अपने आकार-प्रकार में छ टी अवश्य है ,लेककन इसमें प्रकामशत लिक ु थाओुं के तेवर दे खने लायक होते हैं. और भी अन्य पबत्रकाएुं लिक ु थाओुं को लेकर प्रकामशत हो रही है ,और न जाने ककतनी ही पबत्रकाओुं के लिक ु था ववशेषाुंक प्रकामशत ककए जा चुके होगे. यह सब दे ख कर कहा जा सकता है कक लिक ु था ने सादहत्य में अपना अममट स्थान बना मलया है और यह सुंतोष का ववषय है .

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किानी पोस्टकाडा की

डाक का महत्व प्राचीन काल से ही रहा है . उस समय एक राजा दस ू रे राज्य के राजा तक अपना सुंदेश एक ववशेष व्यब्क्त ब्जसे ित ू कहा जाता था, के माध्यम से भेजते थे. उन दत ू ों को राज्य की ओर से सरु क्षा तथा सम्मान प्रदान ककया जाता था. महाकाव्य रामायण तथा महाभारत में कई प्रसुंगों में सुंदेश भेजे जाने का उल्लेख प्राप्त होता है . राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता और राम के वववाह होने का सुंदेश राम के वपता दशरथ को मभजवाया था. रावण की राजसभा में श्रीराम का सन्दे श लेकर अुंगद का जाना, इस बात का प्रमाण है .. महाभारत में श्रीकृष्ण का कौरवों के मलए पाुंच गाुंव माुंगने जाना तथा अनेक राज्यों में पाुंडवों तथा कौरव ुं के पक्ष में , यद्ध ु में भाग लेने के मलए सुंदेश पहुाँचाना, जैसी कोई डाक व्यवस्था उस समय काम कर रही होगी. अन्य प्रसुंगों में राजा नल द्वारा दमयन्ती के बीच सन्दे शों का आदान-प्रदान हुं स द्वारा होने का वणधण आता है . महाकवव कालीदास के मेिदत ू में िक्ष अपनी प्रेममका के पास मेिों के माध्यम से सन्दे श पहुाँचाते थे. एक प्रेमी राजकुमार अपनी प्रेममका को कबत ू रों द्वारा पत्र पहुाँचाते थे. खद ु ाई के दौरान कुछ ऐसी महत्वपूणध जानकाररयाुं ममली हैं कक ममस्र, यन ू ान एवुं चीन में डाक व्यवस्था थी. मसकन्दर महान ने भारत से यन ू ान तक सुंचार व्यवस्था बनाई थी, ब्जससे उसका सुंपकध यन ू ान तक रहता था. अनेक राजामहाराजा एक स्थान से दस ू रे स्थान तक सन्दे श पहु​ुंचाने के मलए द्रत ु गतत से दौडने वाले िोड ुं का प्रयोग ककया करते थे.

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यह सब कालान्तर की बातें तो है ही, साथ ही रोचक भी है . इसका प्रयोग केवल उच्च वगध तक ही सीममत था. साधारण जन इससे कोसों दरू था. बाद मे कई प्रयास ककए गए और डाक व्यवस्था में तनरन्तर सध ु ार आता गया और आज यह व्यवस्था आम हो गई है . १ अक्टूबर सन १८५४ को पहला भारतीय डाक दटककट जारी ककया गया था. उस समय तक पोस्टकाडध की कल्पना भी नहीुं की गई थी. सन १८६९ में आब्स्रया के डाक्टर इमानए ु ल हरमान ने पत्राचार के एक सस्ते साधन के रुप में पोस्टकाडध की कल्पना की थी. भारत में पहली बार १ जल ु ाई १८७९ को पोस्टकाडध जारी ककए गये. ब्जसकी डडजाइन और छपाई का कायध मेससध थामस डी.ला.रय.ू एण्ड कुंपनी लुंदन ने ककया था. उसके

दो मल् ू य वगध थे. एक पैसा( उस समय एक आने में चार पैसे हुआ करते थे) मल् ु य का काडध

अन्तरदे शीय प्रयोग के मलए था और दे ढ-आना वाला काडध ,उन दे शों के मलए था जो “अुंतरराष्रीय डाक सुंि” से सुंबद्ध थे. पहले पोस्टकाडध मध्यम हलके भरू े से रुं ग में छपे थे. एक पैसे वाले काडध पर “ ईस्ट इब्ण्डया पोस्टकाडध” छपा था. बीच में ग्रेट बब्रटे न का राज गचन्ह मदु द्रत था और ऊपर की तरफ़ दाएुं कोने मे लालभरू े रुं ग में छपी ताज पहने साम्राज्ञी ववक्टोररया” की मख ु ाकृतत थी. ववदे शी पोस्टकाडध में ऊपर अुंग्रेजी और फ़्रेंच भाषाओुं में ” यतू नवसधल पोस्टल यतू नयन” अुंककत था. इसके नीचे दो पुंब्क्तयों में अुंग्रेजी में क्रमशः “बब्रदटश इब्ण्डया” और” पोस्टकाडध” और इसका फ़्रेंच रुपान्तर तथा इन दोनों के बीच में बब्रटे न का राजगचन्ह मदु द्रत था एवुं ऊपर दादहने कोने पर दटककट होता था. दटककट और लेख नीले रुं ग में थे. दोनों ही प्रकार के काडॊ में अुंग्रेजी में ” दद एड्रेस ओनली टु बी ररटे न ददस साईड” छपा था पोस्टकाडध में कई पररवतधन हुए. १८९९ में “ईस्ट” शबद हटा ददया गया और उसके स्थान पर “ इब्ण्डया पोस्ट काडध” मदु द्रत होने लगा. ददल्ली के सम्राट जाजध पुंचम के राज्यामभषॆक की स्मतृ त में सन १९११ में केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों ने सरकारी प्रयोग के मलए ववशेष पोस्टकाडध जारी ककए थे. इन पर “ पोस्टकाडध” शबद मदु द्रत था,परन्तु दटककट का कोई गचन्ह अुंककत नहीुं था. इन पर “ताज” और “ जी.आर.आई” मोनोग्राम सन ु हरे रुं ग में और ददल्ली तथा ववमभन्न प्राुंतों के बीच के प्रतीक-गचन्ह ,मभन्न-मभन्न रुं गों से इम्बामसुंग पद्धतत से मदु द्रत थे. स्वतुंत्रता के बाद चटकीले हरे रुं ग में “बत्रमतू तध” की नयी डडजाइन के दटककट वाला प्रथम पोस्टकाडध ७ ददसम्बर १९४९ को जारी ककया गया था. सन १९५० में कम डाक दर( ६ पाई) के स्थानीय़ पोस्टकाडध जारी ककए गए, ब्जन पर कोणाकध के िोडॆ की प्रततमा पर आधाररत दटककट की डडजाइन चाकलेट रुं ग में छपी थी.

२ अक्टूबर १९५१ को तीन गचत्र पोस्ट्काडॊं की एक श्र ्रृुंखला जारी की गई,ब्जसमें एक पर बच्चे

को मलए हुए गाुंधीजी, दस ू रे पर चखाध चलाते हुए गाुंधीजी और तीसरे पर कस्तूरबा गाुंधी के साथ गाुंधीजी

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का गचत्र अुंकन था. २ अक्टूबर १९६९ को गाुंधी शताबदी के उपलक्ष में तीन पोस्टकाडॊं की दस ू री श्रुंख ृ ला तनकाली गई, ब्जसमें गाुंधीजी और गाुंधीजी की मख ु ाकृतत अुंककत थी. जबसे पोस्टकाडॊं का प्रचलन हुआ है , तभी से जनता के पत्र-व्यवहार का माध्यम ये पोस्ट्काडध रहे हैं. हमारे दे श के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ये काफ़ी लोकवप्रय है . इस समय प्रततवषध अरबों की सुंख्या में पोस्टकाडध दे श के एक छोर से दस ू रे छोर तक, दे शवामसयों को भातत्ृ व के बुंधन में बाुंधने का कायध करते हैं.

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