अम्, �ार और गीत
सवार्�धकार सुर��त। इस प्रकाशन का कोई भी भ
इलेक्ट्रा, यां�त्, छायाप्र, �रका�ड�ग अथवा �कसी भी अन्य तर�के स, रचनाकार क� �ल�खत अनुम�त के �बना पुनम्ुर �द्रत नह�ं �कया जा सकत
© धम�न्द्र कुमार �स‘सज्ज’
प्रका:
धम�न्द्र कुमार �स‘सज्ज’ (dkspoet@gmail.com)
आभार:
http://thatsme.in अम्, �ार और गीत
प� ृ [1]
अम्, �ार और गीत
समपर् यह संग्रहम� अपने स्वगर्वासी �सुर जी को सम� करता ह ू ँ, िजन्ह�ने अपने �दल के टुकड़े को मेर� अद्धा��गनी बनाकर मुझे संपूणर् �
प� ृ [2]
अम्, �ार और गीत
राकेश खंडेलवाल जी क� कलम से जाती हुई ग्रीष्म ऋतु को �वदा देते हुए सावन का पह बादल हवा के झ�के के साथ अठखे�लयाँ करता हुआ आंगन म� आकर जैसे मन मो�हत कर लेता है उसी प्रकार क� ताज़गी �लये हुए धम�न्द्र
�संह क�
रचनाय� ह� । उनक� गज़ल� क� अपनी �व�ष� शैल� और
नज�रया उनके गढ़ ू वै�ा�नक अध्ययन और अनुभव को
सीधे उनके शब्द� मे सहज ह� �दखलात है । नव गीत� म� और गीत� म� उनके हस्ता�र यह प्रमा�णत करते ह�
कालान्तर म� उनक� यशस्वी लेखनी उ�रो�र प्र
करती रहे गी।
सीधे सपाट शब्द� म� व्यंग को उतारना मुिश्कल क होता है ले�कन धम�न्द्र ने इसे अपनी कुछ रचनाओं
खब ू सूरती से उतारा है । उनक� रचना “शैतान बन गया म� दे खो” म� वे सहज भाव से तथाक�थत ई�र से कहलवाते ह�,
जब चाहूँ इन धमार्न्ध� धा�मर्क दंगे म� करवा दू
या उनक� ग़ज़ल का यह शेर प� ृ [3]
अम्, �ार और गीत
जय जय के नार� ने अब तक कमर् �कये ऐस हर जयकारा अब ई�र पर ताना लगता है और म� लाया आईना क्यू
ये सबको खल रहा है या उनके यह अल्फ़ा झूठ सा�बत हुई कहावत ये
�ान को घी पचा नह�ं करता िज़न्दगी क� हक�कत� से जुड़े रह कर अपनी बात को
सादे शब्द� म� कह पाना उनके �लये साधारण सी बात है जो उतर आती है उनके इन शब्द� म
बार� बार� साथ मेरा हर रहबर छोड़ गया
एक मुसा�फ़र था म�, मुझको �फ़र भी चलना था व्यवस्था के प्र�त �शकायत जो व्यवस्था से जुड़े ह व्य�� के मन म� रहती है कह�ं पर दबी हुई और कह�ं
साफ़ उजागर , वह धम�न्द्र क� रचनाओं म� भी प�रल� प� ृ [4]
अम्, �ार और गीत
है कह�ं व्य ग् बनकर और कह�ं �शकायत बन कर । वैसे आज के लेखन का यह दौर िजसम� केवल �शकायत� और
व्यग् ह� लगभग सभी लेखक� को प्रभा�वत �कये हुए ह और एक से ह� सुर का अनुभव कराता है वह�ं धम�न्द्र
शब्द� का �व�वधपन अपनी ओर आक�षर्त कर कुछ शब् पर अनायास क� रुकने को बाध्य कर देता . धन क� नौकर
�नज इच्छा स
अब है बु�द्ध ब कमर् राम क
ले�कन लंका
दे खो हुई धनी बदल रहे आदशर
लड़कपन के गीत� और ग़ज़ल� के अ�त�र� धम�न्द्र ने अपनी क हायकू और छन्दमु� क�वताओं पर भी चलाई ह छन्दमु� क�वताय� कह�ं कह�ं क�वता न रहकर
सपाटबयानी हो जाती ह� ले�कन यह धम�न्द्र का द
नह�ं, क�तपय सभी छन्द्मु� क�वताय� आज के मंच स्त के कारण अपना प्रवाह खो चुक�ह� यह लग प� ृ [5]
।
अम्, �ार और गीत
आज के युग क� अ�धकांश छन्दमु� क�वताओं म� �दखाई दे ता है ।
कुल �मलाकर धम�न्द्र कुमार �संह का यह काव्य स उनक� नयी सोच और शब्दावल� का प्रतीक
। म ुझे
आशा है आने वाले अन्य कई पुस्तक� म� धम�न्द्र
�संह के लेखन म� �नरन्तर प्रग�त होती रहेगी �हन्द�
जगत उनक� रचनाध�मर्ता से समृद्ध होता रह।
राकेश खंडल े वाल
१४२०५ पंच स्ट्
�सल्वर िस्प, मैर�ल� ड, २०९०६
संय� ु राज्य अमे�रक १९ मई २०११
प� ृ [6]
अम्, �ार और गीत
अनुक्
क्रमां
शीषर्
ग़ज़ल�
प� ृ ांक
१.
काश याद� को कर�ने से लगा पाता म�
12
३.
लुट के मिस्जद से हम नह�ं आते
14
५.
गर�बी अमीर� ख़ुदा क� �सयासत
16
२. ४. ६. ७. ८. ९.
१०. ११. १२. १३. १४. १५. १६.
�च�ड़या क� जाँ लेने म� इक दाना लगता है रोज ह�
दरख़्त बदल रहा ह
धँस कर �दल म� �वष फैलाता हर अँधेरा ठगा नह�ं करता
गर ु ू ने सड़क पर लगाए ह� ठेले धार म� गर बहा नह�ं होता
वो जो रु-ए-हवा समझते ह� ददर् जहाँ को �दखलाओ मत
�मल नगर से न पावन नद� रह गई पर खुशी से फड़फड़ाते
चंदा तारे बन रजनी म� नभ को जाती ह� रुबाइया (‘सज्ज’ क� मधुशाला से)
१७.
इक कमल था
१९.
मेरे �व�ान
१८. २०. २१. २२.
गीत / नवगीत
मानवता क� कोयल
13 15 17 19 20 21 22 23 24 25 26 27 29 47 49 50
बैकुं ठवासी श्याम
53
कंकर�ट के जंगल म�
55
अवकलन-समाकलन
57
प� ृ [7]
अम्, �ार और गीत २३.
म�ने ई�र को मं�दर म�
२५.
दे वी तुम जाओ मं�दर म�
२४. २६. २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३९.
59
कृष्णकाय सड़क� पर
61
काँपता सा वषर् नूतन
65
तुम नह�ं आ�
म� कभी न प्यार समझ पाया शैतान बन गया म� दे खो
उन सबको धन्यवाद मेरा मेरा चाँद आज आधा है सहयात्री �मल जात ऐ ख़बर बेख़बर
ख़्वाब म� तुम मेरे आती जाती रह�ं फट गया �दल एक बादल का समाचार ह� अद्भु
सच्चाई क� सड़क पर
गई जब से मुझे छोड़कर, रूठकर हाइकु
छं दमु� रचनाएँ
63 67 68 70 72 73 74 76 77 78 80 82 83 84
४१.
हे डमास्टर क� कुस�
91
४३.
एक पगल�
95
४२. ४४. ४५. ४६. ४७. ४८.
93
एक नाव
97
गाय
98
�रक्शा यूँ ह�
100
आँवले जैसी हो तुम
105
102
हवाई जहाज
प� ृ [8]
अम्, �ार और गीत ४९.
पाप-पण ु ्
106
५१.
बोझ
112
५०. ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ ६९ ७० ७१ ७२ ७३
108
चेह रे
113
भूकम्प
114
अच्छा-बुराई
115
बफर्
117
ई�र
प्रयोगशाल
नद� के तल क� �मट्ट
बलात्का: उद्भव एवं �वका पाप-पण ु ्य और बु�ढ़या अधूर� क�वता
पहाड़� से �लपट� बफर् अम्, �ार और गीत
119 121 123 131 133 134 136 137
तूफ़ान
138
रं ग
139
ईमानदार�
140
ददर्
142
मेढक
144
गूलर क� लकड़ी
146
भूख
149
कर
द�वार�
�चकनी �मट्टी और रे घास
प� ृ [9]
151 152 154
अम्, �ार और गीत
वाणी-वंदना जय शारदे , जय शारदे , म� पत ु ्र तेरा शार,
�न�श-�दन बढ़े , बढ़ता रहे , वह �ान दे , सु�वचार दे ;
जो जला दे अ�ान तम, वह अनल दे , अंगार दे ,
जो छलक जाये द�न-दु�खय� हे तु वह घट-प्यार द; काटे सभी �व�ास झूठे, सत्य क� वह धार द,
माँ लोभ-सागर के मुझे तू आज पार उतार दे ; है अहं का जो दै त्य बैठा हृदय म� वह मार ,
�नज गोद म� लेकर मुझे, अब तार दे , माँ शारदे ।
प� ृ [ 10 ]
अम्, �ार और गीत
ग़ज़ल
प� ृ [ 11 ]
अम्, �ार और गीत
(१) काश याद� को कर�ने से लगा पाता म� काश याद� को कर�ने से लगा पाता म�
तेर� याद� के सभी रै क हटा पाता म� ॥१॥ एक लम्हा िजसे हम दोन� ने हर रोज िजय
काश उस लम्हे क� तस्वीर बना पाताम�२॥ मेरे कान� म� पढ़ा प्रेम का कलमा तुम
काश अलफ़ाज़ वो सोने से मढ़ा पाता म� ॥३॥ एक वो पन्ना जहाँ तुमने म� हूँ गैर �लख
काश उस पन्ने का हर लफ़्ज़ �मटा पाताम�४॥ �दल क� मिस्जद म� िजसे रोज पढ़ा करता हूँ
आयत� काश वो तुझको भी सुना पाता म� ॥५॥
प� ृ [ 12 ]
अम्, �ार और गीत
(२)
�च�ड़या क� जाँ लेने म� इक दाना लगता है �च�ड़या क� जाँ लेने म� इक दाना लगता है
पालन कर के दे खो एक जमाना लगता है ॥१॥ जय जय के पागल नार� ने कमर् �कए ऐस
हर जयकारा अब ई�र पर ताना लगता है ॥२॥ दरू बज� गर ढोल कह�ं सबको मीठे लगते
�चल्लाता जनग, संसद को गाना लगता है ॥३॥ कल तक द�प बुझाने का आरोपी था ले�कन
स�ा पाने पर सबको परवाना लगता है ॥४॥
टूट� ग� �व�ास कल� से मत पूछो कैसा
खुशबू दे व� को दे कर मुरझाना लगता है ॥५॥ जाँच स�म�तय� से करवाकर कु छ ना पाओगे उसके घर म� शाम सबेरे थाना लगता है ॥६॥
प� ृ [ 13 ]
अम्, �ार और गीत
(३)
लुट के मिस्जद से हम नह�ं आत लुटके मिस्जद से हम नह�ं आत
मयकदे म� कदम नह�ं आते ॥१॥ कोई बच्चा कह�ं कटा होग
गोश्त यूँ ह� नरम नह�ं आते २॥
आग �दल म� नह�ं लगी होती
अश्क इतने गरम नह�ं आते ३॥ भूख से �फर कोई मरा होगा
यूँ ह� मह�फल म� रम नह�ं आते ॥४॥
कोई अपना ह� बेवफ़ा होगा
यूँ ह� आँगन म� बम नह�ं आते ॥६॥
प� ृ [ 14 ]
अम्, �ार और गीत
(४)
रोज ह� एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ह�
जख़्म यूँ तोहै प ुराना पर कसकता रोज ह� ॥१॥ थी �मल� मुझसे गले िजस पल म� पहल� बार तू व� क� काल� घटाओं म� चमकता रोज ह� ॥२॥ को�शश� �दन भर �कया करता तुझे भूलँ ू मगर
चम ू कर तस्वीर तेर� म� �ससकता रोज ह� ३॥ इक नई मुिश्कलमुझे �मलती है क्यूँ ह मोड़ पर,
क्याख़द ु ा क� आँख म� म� हूँ खटकता रोज ह� ॥४॥ आज भूकंपो से हारा कल सह� थी आँ�धयाँ
टूट जाऊँ चाहता हूँ पर लचकता रोज ह� ॥५॥
प� ृ [ 15 ]
अम्, �ार और गीत
(५)
गर�बी अमीर� खुदा क� �सयासत गर�बी अमीर� खुदा क� �सयासत
नह�ं तो करे कौन उसक� इबादत ।१। नह�ं दे ख पाती ये सच क� शहादत
सुने झूठ का राग अंधी अदालत ।२। �लखा दस ू र� का जो पढ़ते ह� भाषण
वह� �लख रहे ह� गर�ब� क� �कस्मत ३।
सँवारूँ म� कैसे नह�ं रूह �दख
मुझे आइने से है इतनी �शकायत ।४। नह�ं हा�थय� पर जो रक्खोगे अंकुश
चमन न� होगा मरे गा महावत ।५।
ग़ज़ल म� तेरा हुस्न भर भी अगर दू
म� लाऊँ कहाँ से ख़ुदा क� नफ़ासत ।६। बरफ़ के बने लोग �मलने लगे तो
नह�ं रह गई और उठने क� हसरत ।७।
प� ृ [ 16 ]
अम्, �ार और गीत
(६)
दरख़्त बदल रहा ह दरख़्त बदल रहा ह
स्वयं खा फल रहा है १। म� लाया आइना क्यू
ये सबको खल रहा है ।२। �दया सबने जलाया
महल अब गल रहा है ।३। छुवन वो प्रेम क�
अभी तक मल रहा है ।४। डरा बच्च� को ह� अ
बड़� का बल रहा है ।५। �लखा िजस पर खुदा था
वह� घर जल रहा है ।६। दहाड़े जा रहा वो
जो गीदड़ कल रहा है ।७।
प� ृ [ 17 ]
अम्, �ार और गीत
उगा तो जल चढ़ाया
अगन दो ढल रहा है ।८।
प� ृ [ 18 ]
अम्, �ार और गीत
(७)
धँस कर �दल म� �वष फैलाता तेरा कँगना था धँस कर �दल म� �वष फैलाता तेरा कँगना था
पत्थर ना हो जाता तो मेरा �दल सड़ना था १॥ म�दरामय कर लट ू �लया िजसने वो गैर नह�ं �दल म� मेरे रहने वाला मेरा अपना था ॥२॥ कर आ�लंगन मुझको जब वो रोई भावुक हो
जाने पल वो सच था या �फर कोई सपना था ॥३॥ बार� बार� साथ मेरा हर रहबर छोड़ गया
एक मुसा�फर था म� मुझको �फर भी चलना था ॥४॥ जाने अब म� िजंदा हूँ या गमर-लहू मुदार
प्यार जहर म� ना पाता तो मुझको मरना था ५॥ फकर् नह�ं था जीतूँ या हारूँम� इस रण
अपने �दल के टुकड़े से ह� मुझको लड़ना था ॥६॥
प� ृ [ 19 ]
अम्, �ार और गीत
(८)
हर अँधेरा ठगा नह�ं करता हर अँधेरा ठगा नह�ं करता
हर उजाला वफा नह�ं करता ॥१॥ दे ख बच्चा भी ले ग्रहण म�
सूय् उसपर दया नह�ं करता र २॥ बावफा है जो दे श खाता है
बेवफा है जो क्या नह�ं करता ४॥ गल रह� कोढ़ से �सयासत है
कोई अब भी दवा नह�ं करता ॥५॥ प्यार खींचे इसे समंदर क
नीर यूँ ह� बहा नह�ं करता ॥६॥ झठ ू सा�बत हुई कहावत ये
�ान को घी पचा नह�ं करता ॥७॥
प� ृ [ 20 ]
अम्, �ार और गीत
(९)
गुरू ने सड़क पर लगाए ह� ठेल गुरू ने सड़क पर लगाए ह� ठेल
धरम �बक रहा मोल लेते ह� चेले उजाला-हवा-भू सभी छूटे नीचे
िजयादा उठे जो हुए वो अकेले खुदा मौत दे या दे ऐसी दवा जो
तड़पती हुई रूह का ददर् ले ल
छुपाकर सभी से सदा चम ू ता हूँ �खलौने जो म�ने तेरे संग खेले झपटती रह� मौत लेकर नए बम
नह�ं कर सक� कम ये जीवन के मेले नह�ं भख ू से, खा कभी प्यार से भ
वो रोट� तेर� जाँनशीं िजसको बेले
है जीना अगर तैरना सीख ‘सज्ज’
यहाँ नाखुदा ह� भँवर म� धकेले
प� ृ [ 21 ]
अम्, �ार और गीत
(१०) धार म� गर बहा नह�ं होता धार म� गर बहा नह�ं होता गतर् म� तू �गरा नह�ं होत
छाँट द� जाती ह� झुक� डाल�
पेड़ यूँ ह� बड़ा नह�ं होता
ताज को छू के मौलवी तू कह पत्थर� म� ख़ुदा नह�ं होत
झूठ ने इस कदर �पला द� मय पाँव पर सच खड़ा नह�ं होता
थोड़ी �रश्त� को ढ�ल द� होती मेरा मंझा कटा नह�ं होता
लूट लेता है फूल को काँटा
आज दु�नयाँ म� क्या नह�ं होत
प� ृ [ 22 ]
अम्, �ार और गीत
(११)
वो जो रु-ए-हवा समझते ह� वो जो रु-ए-हवा समझते ह�
हम उन्ह� धूल सा समझते ह� १॥ चाँद रूठा ये कहके उसको ह
एक रोट� सदा समझते ह� ॥२॥ धप ू भी तौल के �बकेगी अब
आप बाजार ना समझते ह� ॥३॥ तोड़ कर दे ख ल� वो पत्थर स
जो हम� काँच का समझते ह� ॥४॥
जो बस� मं�दर� क� नाल� म�
वो भी खुद को ख़ुदा समझते ह� ॥५॥
प� ृ [ 23 ]
अम्, �ार और गीत
(१२)
ददर ् जहाँ को �दखलाओ म ददर ् जहाँ को �दखलाओ मत
चोट लगे तो सहलाओ मत ॥१॥
भीड़ बहुत है मर जाएगा
अंधे को पथ बतलाओ मत॥२॥ कायार्लय दफ़्तर म� छो
भल ू कभी भी घर लाओ मत ॥३॥ नेक� कर द�रया म� डालो
नेक जहाँ म� कहलाओ मत ॥४॥ �दल बच्चा है िजद कर लेग
�दखा �खलौने बहलाओ मत ॥५॥ सब करते ह� ऐसा कहकर
अपने मन को फुसलाओ मत ॥६॥ बच्च� के आदशर् तुम्ह�ं
अपने वादे झुठलाओ मत ॥७॥
प� ृ [ 24 ]
अम्, �ार और गीत
(१३)
�मल नगर से न पावन नद� रह गई �मल नगर से न पावन नद� रह गई
सालती िजस्म को गंदगी रह ग ॥१॥ लाल जोड़ा पहन साँझ �बछड़ी जहाँ,
साँस �दन क� वह�ं पर थमी रह गई ॥२॥ �बज�लय� क� त�पश तो पल� म� �मट� होके घायल हवा चीखती रह गई ॥३॥ रात ने ग़म-ए-�दल तो छुपाया मगर
दब ू क� शाख़ पर कु छ नमी रह गई ॥४॥ नीर क� पीर को प्यार उसका सम
नाव मँझधार म� ह� फँसी रह गई ॥५॥ करके जठ ू ा फल� को पखेरू उड़
शाख़ क� रूह तक काँपती रह गई ६॥
प� ृ [ 25 ]
अम्, �ार और गीत
(१४)
पर खुशी से फड़फड़ाते पर खुशी से फड़फड़ाते आज सारे �गद्ध दे
�फर से उड़के �दल्ल� जाते आज सारे �गद्ध द ॥१॥ रोज रोज खा रहे ह� नोच नोच भारती को
हड्�डय� से घी बनाते आज सारे �गद्ध देख२॥ �ान को �सयासती गल� के द्वार पे �बठाक
गमर् गोश्त �मल के खाते आज सारे �गद्ध दे३॥ आसमान से अकाल-बाढ़ दे खते ह� और
लाश� का कफ़न चरु ाते आज सारे �गद्ध देखो४॥ जल रहा चमन हवा म� उड़ रहे ह� खाल, खन ू
इनक� दावत� उड़ाते आज सारे �गद्ध देखो५॥
प� ृ [ 26 ]
अम्, �ार और गीत
(१५)
चंदा तारे बन रजनी म� नभ को जाती ह� चंदा तारे बन रजनी म� नभ को जाती ह�। सूरज उगता है तो सब याद� सो जाती ह�।
आँख� म� जब तक बँद ू � तब तक इनका �हस्स �नकल� तो खारा पानी बनकर खो जाती ह�।
खुशबूदार हवाएँ �कतनी भी हो जाएँ पर
मीन सभी मरतीं जल से बाहर जो जाती ह� सागर क� करतूत� बादल �लख दे ते तट पर
लहर� आकर पल भर म� सबकु छ धो जाती ह�। �भन्न उजाले म� लगती ह� यूँ तो सब शक् �कंतु अँधेरे म� जाकर इक सी हो जाती ह�।
प� ृ [ 27 ]
अम्, �ार और गीत
रुबाइया
(‘सज्ज’ क� मधुशाला से)
प� ृ [ 28 ]
अम्, �ार और गीत
(१) है और नह�ं कु छ पास मेरे,
भगवन म� हूँ इक मतवाला; हूँ इसी�लए अ�पर्त करत,
भर म�दरा, इक नन्हा प्याल स्वीकार तुझे तो साथ मेर, तू झूम आज पीकर हाला;
औ’ दे मुझको वर, भर� रहे , म�दरा से मेर� मधुशाला। (२) म� दे ख रहा प्रभु ऊब गतुम पीते-पीते गंगाजल;
थक गये दे ख तुम बेल-पत,
मन्दा-पुष्, औ’ तुलसी-दल। हूँ प्यासा देख तुम्, हे -
भगवन! आया म� लेकर प्याल; अब भोग लगाकर नीलकण्,
कर दो प�वत्र यह मधुशाला प� ृ [ 29 ]
अम्, �ार और गीत
(३) मधु का म� भी था महाशत,्
जब तक कर म� न �लया प्याल; पर एक बार जब मुझे �पला द�, साक� ने जबरन हाला।
तब से मुझको यह �ात हुआ, हर घर, हर आँगन है प्याल;
सब जन पीते �न�श-वासर मधु, यह जगत प्रेम क� मधुशाल (४) मधु के नव प्रेमी कोम�,
पकड़ाया जब नन्हा प्या; अधर� पर रखते ह� उसने
फ�का, कह, “अ�त कड़वी हाला”; पर �कसी तरह जब छककरउसे �पला बैठ� साक� बाला, मधुपान के �लए प्र�दन-
आया, सप�रवार, वो मधुशाला। प� ृ [ 30 ]
अम्, �ार और गीत
(५) ओ प्रथम बार पीने वा,
तुझको अनुभव होगा ऐसा;
मख ु -उदर बीच के हर अंग को, है भस्म �कये जाती हाला इतने से ह� धबराकर, तू
ना कह�ं पटक दे ना प्याल;
कु छ काल ठहर और दे ख जरा, उड़ती है कैसे मधुशाला। (६) पीता जा तू भरकर प्याल,
जपता जा प्याल� क� माल; तुझको रोक� धमर-गर ु ू त, उनसे पछ ू प्र� ये वाल
म�दरा य�द है बरु � अगर तो, कोई आकर बतला दे क्य;
उतने मिन्दर नह�ं जगत म,
िजतनी जग म� ह� मधुशाला। प� ृ [ 31 ]
अम्, �ार और गीत
(७) जो धुल न सके गंगाजल से, वह पाप भी धो दे ती हाला;
जो �मल न सके चरणामत ृ से, वह पूण्य भी देता है प्याल सौ सुिन्दरय� क� मादकत, दे ती है इक साक�बाला;
सारे तीथ� के दशर्न क
फल दे दे ती इक मधुशाला।
(८) तेरे अधर� का रस पहले,
या पहले आयी थी हाला;
मानव पहले म�दरा पीकर,
या तुझको छू था मतवाला। हूँ असमंजस म� ; सच कहता हूँ, पीकर म�दरा का प्याल; हो तम ु जन्मी मधुशाला स, या तम ु से जन्मी मधुशाला प� ृ [ 32 ]
अम्, �ार और गीत
(९) कैसे कह दँ ू म� केश इन्ह,
जब इनसे महक रह� हाला; म� नेत्र कहूँ कैसे इन,
ये करते मुझको मतवाला। कैसे कह दँ ू म� अधर उन्ह,
जो लगते म�दरा का प्याल;
कर दो पत्थर तक को पाग, तुम हो वह मादक मधुशाला। (१०) म�दरा नेत्र� , अधर� म� ,
साँस� म� महक रह� हाला;
हो मुस्काती जबशमार्क,
कर दे ती जग को मतवाला। जब चलती हो मन्थर ग�त स, छलका करता मधु का प्याल; म� और �लखूँ क्या शब्द नह, तुम चलती �फरती मधुशाला। प� ृ [ 33 ]
अम्, �ार और गीत
(११) प्रेय�स आओ �मल आज बना अपने अधर� को प्याल,
इन मधुमय हाथ� से हम-तम ु �फर डाल प्रणय क� वरमा;
तुम भी पी लो, म� भी पी लँ ,ू
�चर त�ृ � न हो तब तक हाला; बन जाये मधु यह प्र-अमर, बाँह� बन जाय� मधुशाला।
(१२) तेरे प्यार म� म� य� पागल हू,
सच कहता हूँ ऐ मधुशाले; मँह ु से है �नकलता राम-राम, जब कहता हूँ जय श्री हाल जन कहते चरणामत ृ पीता, म� समझ रहा पीता हाला;
सब कहते म� जाता मिन्द, पर म� जाता हूँ मधुशाला। प� ृ [ 34 ]
अम्, �ार और गीत
(१३) नये-नवेले जगमग करते, �कतने म�दरालय दे खे;
ताँबे, चाँद�, सोने के म�ने, �कतने ह� प्याले देखे
पर न जाने क्य� मुझे जँच, वह नन्हा �मट्टी का प्;
और जाने क्य� मुझको जँचत, वह टूट� फूट� मधुशाला। (१४) छककर पीयूँगा सुरा स�च, आकर बैठा म�दरालय म� ;
आदे श �दया साक� को, लेकर आ इक म�दरा का प्याला लायेगा साक� और �पयूँगा छककर, इसी कल्पना म,
ना पता चला कब परमत� ृ हो, छोड़ी म�ने मधुशाला। प� ृ [ 35 ]
अम्, �ार और गीत
(१५) जग ने ना था आगाह �कया, जब प्रथम बार पी थी हा;
जब पछ ू ा था अवगुण मधु का, तब सब ने था मुझको टाला। अब रोक न पायेगा कोई भी मुझको पीने से प्याल;
अब तो मेर� आत्मा तक म है रची-बसी वह मधुशाला। (१६) िजस म�दरालय के आँगन म� , मेरा सारा जीवन बीता;
उस म�दरालय का जीवन-रस गर आज हो गया है र�ता।
कर अिग्न स�पर् र��त �नभाओ, कहता है जग मतवाला;
ये र��त न �नभा सकँू गा म�, मुझसे न जलेगी मधुशाला। प� ृ [ 36 ]
अम्, �ार और गीत
(१७) म� खोज थका यह सारा जग, पाने को एक झलक प्रभु ; और यह� थकान �मटाने को, म� पी बैठा छककर हाला।
जब लगा झूमने तो दे खा,
ह� नाच रहे भगवन पीकर;
म� बस इतना ह� बोल सका,
जै श्री भग, जै मधुशाला। (१८) जब प्यास जगे तुझम� तो य मत सोच कहाँ पर है प्याल, य�द नह�ं �मले तुझको साक� तो बन खुद ह� साक�बाला।
मन म� �व�ास जगा गर तो जल भी बन जायेगा हाला,
जग के हर इक कोने म� तुझको �मल जायेगी मधुशाला। प� ृ [ 37 ]
अम्, �ार और गीत
(१९) �कतने आये म�दरालय म� ,
इक प्याले म� ह� लुढ़क गय;
कु छ मतवाल� ने पर �फर भी, म�दरालय खाल� कर डाला।
अपना सब कु छ न्योछावर क डाला म�दरा के प्याले प,
ऐसे मतवाल� के कारण ह� अमर हुयी है मधुशाला। (२०) म� पुनज्न्म लूँ भारत र , ले दोन� हाथ� म� प्याल;
औ’ प्रथम वाक्य मेरे मुख
�नकले, "जय भारत, जय हाला"। गर अन्तर म� कुछ हो मेर,
तो हो मानवता क� ज्वाल;
जीवन भर जो कु छ कमा सकँू , उससे खुलवा दँ ू मधुशाला। प� ृ [ 38 ]
अम्, �ार और गीत
(२१) बद ु , कृष्, ईशा, पैगम्ब, बैठे ह� लेकर प्याल;
सब ह� मस्ती म� झूम रह,
पीकर मधु होकर मतवाला। बाहर लड़ता सारा जग कह,
जय राम, कृष्, अल्लाताल; भीतर प्याला टकराकर चार, बोल रहे जय मधुशाला। (२२) म� हूँ मधु का �चर-�वक्रे, हूँ बेच रहा जीवन हाला;
म� दे ख रहा हूँ सब पीते ह�, ले अपना-अपना प्याला मधु वह� एक इक मादकता, अन्तर इतना सा है यार;
कु छ क� मधुशाला �मट्टी , कु छ क� सोने क� मधुशाला। प� ृ [ 39 ]
अम्, �ार और गीत
(२३) बन प्रेत भटकता था क्य,
थामा कर म� न कभी प्याल; इक �दन भल ू ा-भटका गुजरा, मरघट से जब पीनेवाला।
बेध्यानी म� थी छलक पड़,
तब मेर� राख पर कु छ हाला; म� तुरत गया बैकुं ठ धाम,
कह, “जय-म�दरा, जय-मधुशाला”।
(२४) सब साथ छोड़ द� ग� तेरा,
पर साथ न छोड़ेगी हाला;
चाहे न �मले गंगाजल पर,
�तहुँ लोक �मले मधु का प्याला दे व� दै त्य� दोन� को त,
पायेगा पीकर मतवाला;
हो स्वग-नकर-बैकुं ठ-ब्,
हर लोक �मलेगी मधुशाला। प� ृ [ 40 ]
अम्, �ार और गीत
(२५) गीता, बाइ�बल, कु रान सखे, सब कहते �पयो प्रेम हा;
पर पं�डत, मल ु ्ल, पाद�रय� ने, �मला �दया �वष का प्याला ह� धमरग्रन्थ अब छोड़ ,
मिन्द, मिस्ज, �ग�रजाधर को; आ�यर् न करना य�द कह दू, सब आकर बैठे मधुशाला। (२६) अपराध बोध हो य�द मन म� , तो मत छूना यार� प्याल;
काबू ना हो य�द अपने पर, होठ� पर मत रखना हाला। य�द डरते हो बदनामी से,
मत होना पीकर मतवाला;
हो छुपा रहे �नज कम� को तो, मत जाना तम ु मधुशाला। प� ृ [ 41 ]
अम्, �ार और गीत
(२७) पत ु ्री इस, पत ु ्र �सक्ख,
�हन्दू है प�, मिु स्लम माँ ह,
आज मेरे म�दरालय का, यार� दे खो कु छ अजब समाँ है ।
िजसम� िजसक� जैसी श्र, ले उसी धमर् क� वो हाल;
है बोझ नह�ं तन-मन-आत्म पर, धमर, हमार� मधुशाला।
(२८) कभी-कभी म� पी लेता था, आधा-चौथाई प्याल;
औ’ कहता था सबसे, मुझको मदहोश न कर पायी हाला।
जब इक �दन मुझे �पला बैठ�, छककर यार� साक�बाला;
तब जाकर मुझको �ात हुआ, है �व�-�वज�यनी मधुशाला। प� ृ [ 42 ]
अम्, �ार और गीत
(२९) है दे व नह�ं वह है पत्थ,
स्वीकार न िजसको हो हाल; मत कह दे ना मानव उसको,
हो �पया नह�ं िजसने प्याला वह घर श्मशान समान जहा, कोई ना हो पी मतवाला;
वह शहर नह�ं प्रेत� का डे, हो न जहाँ पर मधुशाला। (३०) �छन जाये मेरा सब कु छ पर, बस बचा रहे मेरा प्याल;
जग से �मट जाए सब कु छ
भगवन, �मटे न पर मादक हाला। जग ले जाये सब सिु न्दरया, बस बची रहे साक� बाला;
प्रभु स्वगर् उसे दो जो म, मुझको दो मेर� मधुशाला। प� ृ [ 43 ]
अम्, �ार और गीत
(३१) खुद नीचे �गरकर इस जग को, तू दे ता है जीवन हाला;
धरती क� प्यास बुझाने क,
तन-मन न्योछावर कर डाला हूँ दे ख तेरा मतवालापन, म� कहता, �नझर्, पी प्याल; तेरा उदम है जहाँ, वहाँ,
थी कभी रह� इक मधुशाला। (३२) य�द मेरे मग के हर पग म� , प्रभडालो काँटो क� माला; म� पीकर पागल हो जाऊँ, बस इतनी दे दे ना हाला।
चलता जाऊँगा म� हँ सकर, रोये चाहे साक�बाला;
�बंधता है तो �बंध जाये तन, पर म� पहुँ चग ूं ा मधुशाला। प� ृ [ 44 ]
अम्, �ार और गीत
(३३) हाले त ू खोज थक� सब जग, पाने को वह पीनेवाला;
पीकर जो झम ू े औ’ नाचे, ऐसा द�वाना मतवाला।
क्य� तूने नासोचा म�दरे , वो द�वाना पीकर प्याल; कोने म� ह� लुढ़का होगा,
जा खोज उसे तू मधुशाला। (३४) �कतना भी �लख लो म�दरा पर, �कतना �फर भी रह जायेगा;
हम-सा, त ुम-सा ह� �फर कोई आयेगा जग म� मतवाला।
म�दरा पीकर, पागल होकर,
वह भी �फर कु छ �लख जायेगा; औ’ बन जायेगी जग म� �फर, इक नयी-नवेल� मधुशाला। प� ृ [ 45 ]
अम्, �ार और गीत
गीत / नवगीत
प� ृ [ 46 ]
अम्, �ार और गीत
(१)
इक कमल था,
इक कमल था
क�च पर जो �मट गया। लाख आ� �तत�लयाँ, ले पर रँगीले,
कई आये भ�र,
कर गुंजन सजीले,
मं�दर� ने याचना क� सवर्द,
दे वताओं ने �चरौर� क� सदा, साथ उसने
पंक का ह� था �दया। क�च क� सेवा,
थी उसक� बंदगी,
क�च क� ख�ु शयाँ,
थीं उसक� िजंदगी,
क�च के दुख ददर ् म� वह संग खड़, क�च के उत्थान क� ह� जंग लड़, क�च म� ह�
सकल जीवन कट गया। प� ृ [ 47 ]
अम्, �ार और गीत
एक �दन था
जब कमल मुरझा गया, क�च ने
बाँह� म� तब उसको �लया,
प्र-जल को उस कमल के बीज पर, पंक ने �छड़का जो नीची कर नज़र, क�च सारा,
कमल ह� से पट गया। इक कमल था,
क�च पर जो �मट गया।
प� ृ [ 48 ]
अम्, �ार और गीत
(२)
मानवता क� कोयल आतं�कत हो मानवता क� कोयल भूल� कूक, अंधा धमर् �लए �फरता है हाथ� म� बंदूक नफरत के प्याल� म,
जन्नत के सपन� क� म�दरा देक; दोपाए मरू ख पशुओं से,
मासूम� का कत्ल कराक;
धमर् बेचने वाले सारे रहे ख़ुद पर थक। ू
रोट� छुपी दाल म� जाकर,
चावल दहशत का मारा है ;
सब्जी काँप रह� है थर थ,
नमक ह� क�थत हत्यारा ह;
इसके पैकेट म� आया था लुक�छपकर बारूद।
इक �दन आयेगा वह पल,
जब अंधा धमर् आँख पायेग; दे खेगा मासम ू � का ख,ँू
तो रोकर वह मर जायेगा;
दे गी �मटा धमर्गुरुओं को �फर उनक� ह� चू प� ृ [ 49 ]
अम्, �ार और गीत
(३)
मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा! मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा! ना हो जाद ू ना चमत्का, ना चालबािजय� कावतार,
ना पर�कथाओं के नायक;
ना �र�द-�स�द्ध के तुम दा,
तुम हो केवल क्रमबद्ध; मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा!
तुम �वक�सत मानव संग हुए, भौ�तक� रसायन अंग हुए, तुमसे आडंबर भंग हुए;
सब पाखंडी-जन दं ग हुए,
तुमने सच का जब �दया �ान; मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा!
अिस्तत्व �वह�न समय जब , ब्र�ांड एक लघु कण भर ,
तब तुम बनकर क्वांटम गुरु, �दखलाते थे अपना प्रभु,
प� ृ [ 50 ]
अम्, �ार और गीत
है नमन तुम्ह� हे �चर महा;
मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा!
तुमसे ह� �नयम� को लेकर, प्रभु ने अपनी ऊजार् द,
था रचा महा�वस्फोट वहा,
वरना जग होता नह�ं यहाँ,
है स�ृ � तुम्हारा अमर गा; मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा!
�चर �नयम अ�नि�तता का दे , ब्र�ांड सृजन के कारक ,
य�द नह�ं अ�नि�तता होती,
हर जगह अिग्न ह� बस सोत, तुम ह� से है जग प्राणव; मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा!
सब बँधे तुम्हारे �नयम� स ग्रह सूयर् और सारे त
आकाशगंग या कृष्-�ववर
सब �फरते �नयम� म� बँधकर
कु छ �ात हम� , कु छ ह� अजान प� ृ [ 51 ]
अम्, �ार और गीत
मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा! जब मानव सब कु छ जानेगा वह यह सच भी पहचानेगा तम ु म� ई�र, ई�र म� तम ु
इक �बन दज र ू ा अपूण् हरद �मलकर दोन� बनते महान
मेरे �व�ान! प्यारे �व�ा!
प� ृ [ 52 ]
अम्, �ार और गीत
(४)
बैकुं ठवासी श्या उतर आओ �फर धरा पर, छोड़ कर आराम बैकुं ठवासी श्या!
अब सुदामा कृष्ण के सेवक से भी दुत्कार खा,
झूठ के दम पर यु�ध��र अब यहाँ ह� राज्य पात, गभर् म� ह� मार देते कंस नन्ह�ं दे�वय� ,
और अजुर्न से सखा अब कहाँ �मलते ह� �कसी क,
प्रेम का बहुरूप ध आ गया है काम
दे वता डरने लगे ह� दे ख मानव भ�� भगवन,
कमर् कोई और करता फल भुगतता दूसरा ज,
योग सस्ता होके अब बाजार म� �बकने लगा ह,
�ान सारा दे ह के सुख को बढ़ाने म� लगा है , नये युग को नई गीता, चा�हए घनश्या
कौरव� और पांडव� के स्वाथर्रत गठबन्धन�,
हिस्तनापुर कसमसाता और भारत त्रस्त �फ, द्रौपद� का चीर खींचा जा रहा हर इक गल� , प� ृ [ 53 ]
अम्, �ार और गीत
धरके लाख� रूप आना ह� पड़ेगा इस सद� म, बोझ क�लयुग का तभी,
प्रभु पाएगा सच था
प� ृ [ 54 ]
अम्, �ार और गीत
(५)
कंकर�ट के जंगल म� कंकर�ट के जंगल म�
उगते प्लािस्टक के प। हरे रं ग ह�, भरे अंग ह�,
नकल� फल भी संग संग ह�;
इनके ह� अंदाज अनूठे,
हमसे इनको दे ख दं ग ह�;
मत ृ ह�रयाल� क� तस्वीर से लगते ये पेड़।
�बना खाद के �बन �मट्टी क �बन पानी के हरे भरे ह�,
सूय् रिश्म � र , खुल� हवा �बन भी सुगंध से तरे तरे ह�;
सब कु छ है पर एक अदद आत्मा �वह�न ये पेड़
रोज सब ु ह ह� सब ु ह रसायन से मल मल कर धोए जाते,
चमक दमक जो भी �दखती है प� ृ [ 55 ]
अम्, �ार और गीत
उसे रसायन से ह� पाते, चमक रहे बाहर से,
अंदर-अंदर सड़ते पेड़। भूल गए मौसम प�रवतर्न वातानुकु �लत कमर� म� ये,
खुद कटकर इक बेघर को घर दे ने का भी सख ु भल ू े ये,
केवल कमर� म� सजने को ह� िजन्दा ये पेड़
प� ृ [ 56 ]
अम्, �ार और गीत
(६)
अवकलन समाकलन अवकलन समाकलन
फलन हो या चलन-कलन हरे क ह� समीकरण
के हल म� तू ह� आ �मल� घुल� थी अम्ल �ार म �वलायक� के जार म�
हर इक लवण के सार म�
तू ह� सदा घुल� �मल� घनत्व के महत्व गर ु ुत्व के प्रभुत
हर एक मल ू तत्व म
तू ह� सदा बसी �मल� थीं ताप म� थीं भाप म�
थीं व्यास म� थीं चाप म हो तौल या �क माप म� सदा तू ह� मुझे �मल�
प� ृ [ 57 ]
अम्, �ार और गीत
तुझे ह� म�ने था पढ़ा तेरे सहारे ह� बढ़ा
हूँ आज भी वह�ं खड़ा जहाँ मुझे थी तू �मल�
प� ृ [ 58 ]
अम्, �ार और गीत
(७)
म�ने ई�र को मं�दर म�
म�ने ई�र को मं�दर म�
�बलख-�बलख रोते दे खा है । पत, पुष्, गंगाजल-पू�रत
ताम-पात्से स्नान कर रह धप ू , द�प, नैवेद, दुग्ध ’ चरणामत ृ का पान कर रहे
इक छोटे काले पत्थरको ई�र पर हँसते दे खा है ।
मं�दर के बाहर वट नीचे
गन्दा फटा व� फैलाक
उस ई�र के एक अंश को
�ुधा-प्याससे व्याकुलहोकर लोग� क� फ�क� जठ ू न भी
�बन-�बन कर खाते दे खा है । मिन्दर म� ह� गूँज रह�
हर �नधर्-�नबर्ल क� चाह� क
पूर� कर दे ने क� उस ई�र क� कोमल इच्छाओं क,
प� ृ [ 59 ]
अम्, �ार और गीत
स्वणार्भूषण’ नोट� के ढे र� म� दबते दे खा है ।
स्वग-नकर्क� जंजीर� से
पाप-पूण्य क� तस्वीर�
बुर� तरह से कैद हो गये भोले ई�र के हाथ� म�
सवर-धमर् के प्-जलज को
म�ने कु म्हलाते देखा है
मिन्दरके ह� एक अंधरे े
सीलन भरे , �कसी कोने म� , नफरत-स्वथर् औ पाप� के भाल� से छलनी सीने म� -
से बहकर प्र-अ�मय-र� को �मट्टी म� �मलतदे खा है ।
तड़प रहे ई�र क� चप ु के-चप ु के से �फर �चता जलाकर
और राख़ म� धमर्जा�त क
घण ृ ा-स्वथर का ज़हर �मलाकर
क�थत धमर्गुरुओं को �फर , धमर-ग्रन�लखते दे खा है ।
प� ृ [ 60 ]
अम्, �ार और गीत
(८)
कृष्णकाय सड़क� प कृष्णकाय सड़क� प सभ्यता चल� ह
यौवन-जरा म� अनबन भगवा-हरा लड़े ह�
छोटे सड़क से उतर� यह चाहते बड़े ह�
ग�त को गले लगाकर नफरत यहाँ फल� है
है भागती अमीर�
सड़क� के मध्य जाक है तड़पती गर�बी
प�हय� के नीचे आकर काल� इसी लहू से हर सड़क हर गल� है ओ शंख चक्र धा
अब तो उतर धरा पर सब काले रास्त� क
प� ृ [ 61 ]
अम्, �ार और गीत
इक बार �फर हरा कर
कबसे समय के �दल म� यह लालसा पल� है
प� ृ [ 62 ]
अम्, �ार और गीत
(९)
दे वी तुम जाओ मिन्र म� दे वी तुम जाओ मिन्र म� । मेरे घर म� क्य� ओगी?
मुझ गर�ब से क्या पओगी? धप ू , द्व, नैवेद, फूल, फल,
स्णर-मुकुट, पावन-गंगाजल, पीताम्बरऔ’ व� रे शमी,
मेरे पास नह�ं ये कु छ भी,
कैसे रह पाओगी सोचो, तम ु मेरे छोटे से घर म� ? दे वी तम ु जाओ मिन्र म� । मेर� श्र के फूल� म� ,
है रं ग नह�ं, है गंध नह�ं,
है गागर प्रेम भर� उर ,
पर बुझा सकेगी प्यास नह�, ह� पूजा के स्वर आँख� म,
ले�कन उनम� आवाज नह�ं,
कैसे पढ़ पाओगी भाव� को, उठते जो मेरे उर म� ?
दे वी तुम जाओ मिन्र म� ।
प� ृ [ 63 ]
अम्, �ार और गीत
तुमको भाती है उपासना,
लोग� का कातर हो कहना,
"जय हो दे वी माँ सुन ले ना,
मुझको ये सब कु छ दे दे दे ना, दे वी उसको अच्छा क ना, माई मेर� र�ा करना"
कैसे माँगोगी तम ु मुझसे, छोट� छोट� चीज� घर म� ?
दे वी तम ु जाओ मिन्र म� ।
प� ृ [ 64 ]
अम्, �ार और गीत
(१०)
काँपता सा वषर् नूत काँपता सा वषर् नूत
आ रहा, पग डगमगाएँ साल जाता है पुराना
स�प कर घायल दुआएँ आरती है अधमर� सी
रोज बम से चोट खाकर
मं�दर� के गभर्गृह म
छुप गए भगवान जाकर
काम ने �नज पाश डाला सब यव ु ा बजरं �गय� पर
साहस� को जकड़ बैठ�ं वद ृ ्ध मंगल कामना प्रग�त है बंद
�वदे शी ब�क के लॉकर म� जाकर रोज लूट� लाज
घोटाले गर�बी क� यहाँ पर न्याय सोया है
स�म�तय� क� सुनहल� ओढ़ चादर
दमन के ह� खेल �नमर्म क्रां�त हम कैसे जग प� ृ [ 65 ]
अम्, �ार और गीत
लपट लहराकर उठे गी
बं�दनी इस आग से जब जल�गे सब दनुज �नमर् स्वणर् लंका गलेगी
पर न जाने राम का वह
राज्य �फर से आएगा क
जब कहे गा समय आओ वषर् नूतन �मल मनाए
प� ृ [ 66 ]
अम्, �ार और गीत
(११) तुम नह�ं आ� तुम नह�ं आ� बरस बीते
बताओ बात क्या ह? याद� तेर� व� के साँचे म� �घर के धीरे -धीरे मेरे मन म� जम ग� ह�
बीम के जैसी मेर� तनहाइयाँ सब
याद� के कु छ कालम� पर थम गई ह� खंडहर ये
प्यारका है
या �क मेरा घर बना है ? क्रेसा होकर खड़ा ये तन हमारा िजंदगी के बोझ से है चरमराता
कम्पक� से कँप रहे कंक्र�ट सा
जख़्म �दल क� धड़कन� से थरथराता
हूँ बनाता म� महल या प्यारका ये मकबरा है ?
प� ृ [ 67 ]
अम्, �ार और गीत
(१२)
म� कभी न प्यार समझ पाय। म� कभी न प्यार समझ पाय। जीवन म� पहल� बार �कया,
जब उससे म�ने प्यार �कय, जग बोला है ये प्यार नह�, है नासमझी ये बचपन क�, मेरे उन कोमल भाव� को,
उन भोल�-मीठ� आह� को,
यँू बेदद� से कु चल-मचलकर, जग ने जाने क्या पाय? म� कभी न यार समझ पाया,
म� कभी न प्यार समझ पाय। उसका �दल तोड़ बना �नदय�,
जग बोला बस है यह� सह�,
िजसम� हो तेरा ये समाज सुखी, सच-झूठ छोड़, कर आज वह�,
मेरे पाप� को छुपा-वुपाकर, मुझको पापी बना-वनाकर, जग ने जाने क्या पाय?
म� कभी न यार समझ पाया,
म� कभी न प्यार समझ पाय। प� ृ [ 68 ]
अम्, �ार और गीत
जग कहता अब इससे प्यार कर, इस पर जीवन न्यौछार कर,
मेरे भीतर का प्रेम कु,
और वह�ं चला नफरत का हल,
ह� बीज घण ृ ा के जब बोए, �कस तरह प्रेम पैदा ए?
अब कहता सारा जग मुझसे, तू कभी न यार समझ पाया,
तू कभी न प्यार समझ पाया
प� ृ [ 69 ]
अम्, �ार और गीत
(१३)
शैतान बन गया म� दे खो। शैतान बन गया म� दे खो। �नदोष� क� चीत्कार� स,
�हलतीं मिन्द क� द�वार� ,
जाने �कतनी अबलाओं क� लज्ज लुटती मेरे द्वा,
पर मुझको क्या मतलब इसस, मेरे आँख कान सब पत्थर क ,
भगवान नह�ं अब हूँ म� तो, शैतान बन गया म� दे खो।
�हन्दू ह, या मुिस्म, या �सख,
डरते ह� मुझसे यार सभी,
मिन्द, मिस्ज, गुरुद्वार� झुकते ह� �कतनी बार सभी, ह� काँप रहे सब ह� थर-थर,
करते जय-जय मेर� डरकर,
जब चाहूँ खत्म करूँ इन, शैतान बन गया म� दे खो।
प� ृ [ 70 ]
अम्, �ार और गीत
इन्सान� का जीव-तन-मन,
ये इनके भावुक आकषर्,
इनके �रश्त, नाते, अस्म
और कहते ये िजसको �कस्म, ये प्यार मोहोब्बत इनके , सब खेल-�खलौने ह� मेरे, जैसे चाहूँ तोडूँ इनको,
शैतान बन गया म� दे खो। मेर� मज� अकाल ला दँ ,ू
या बाढ़ जमीं पर फैला दँ ,ू जब चाहूँ इन धमार्न् म� , धा�मर् दं गे म� करवा दँ ,ू
करवा दँ ू म� कु छ भी इनम� , मेर� ह� जय बोल� गे ये,
इस कदर डरा रक्खा सबक, शैतान बन गया म� दे खो।
प� ृ [ 71 ]
अम्, �ार और गीत
(१४)
उन सबको धन्यवाद मेरा उन सबको धन्यवाद मेरा दुख मुझको दे कर िजस-िजस ने
है �सखा �दया गम को पीना,
मँह ु मोड़, छोड़ मुझको िजसने,
है �सखा �दया तन्हा जीन; उन सबको सा�सवा� मेरा।
अपमान मेरा करके िजसने,
सम्मान ��णक यह �सखलाय, िजस-िजस ने हो मेरे �खलाफ, अपन� तक मुझको पहुँचाया; उन सबको सा�सवा� मेरा।
िजसने भी मुझे परािजत कर अ�भमान मेरा है चरू �कया,
डर �दखा भ�वष्यत का मुझक
आलस्य मेरा है दूर �कय; उन सबको सा�सवा� मेरा।
प� ृ [ 72 ]
अम्, �ार और गीत
(१५)
मेरा चाँद आज आधा है मेरा चाँद आज आधा है । उखड़ा हुआ मुखड़ा सूजी हुई आँख�
आज इसक� आँख� म� नमी थोड़ी ज्यादाहै
मेरा चाँद आज आधा है । बात क्या हो ई है
चाँदनी रो सी रह� है जाने क्य� क� इस
आज कु छ िजयादा है ,
मेरा चाँद आज आधा है ।
घबरा मत चाँद मेरे
दुख क� इन रात� म�
साथ तेरे रहूँगा म� मेरा तुझसे वादा है
मेरा चाँद आज आधा है ।
प� ृ [ 73 ]
अम्, �ार और गीत
(१६)
सहयात्री �मल जा सहयात्री �मल जा! कु छ समीप क�
कु छ स ुदूर क�
हो जातीं कु छ बात� ; वो कु छ कहते
हम कु छ कहते
हँसते और हँसाते;
�ण भर के ह�
पर कु छ बन्धन
और� से बँध जाते; कु छ पल उड़ते पंख लगाकर
यँू ह� आते-जाते;
जीवन यात्र
के �ण दो �ण
स्मृ�तय� म�बस जाते; प� ृ [ 74 ]
अम्, �ार और गीत
(१७)
ऐ ख़बर बेख़बर! ऐ ख़बर बेख़बर! बु�धया लुटती रह�, फुलवा घुटती रह�, तू �सनेमा, �सतार� म� उलझी रह�,
जाके लोट� तु मंत्री , नेता के घर,
क्या कहूँ है �गर� आज तू �कस कद;
ऐ ख़बर बेख़बर!
सच को समझा नह�ं, सच को जाना नह�ं, झठ ू को झठ ू भी तन ू े माना नह�ं,
जो �बक�, है बनी, आज वो ह� ख़बर, है टँ गा सत्य झूठ� क� द�वार प; ऐ ख़बर बेख़बर!
भूत प्रेत� को �दन भर �दखाती र, लोग� का तू भ�वष्यत बताती रह,
आम लोग� पे क्या गुजर� ह, आज, पर, ये न आया तुझ,े है कभी भी नजर; ऐ ख़बर बेख़बर!
प� ृ [ 75 ]
अम्, �ार और गीत
तू थी खोजी कभी, आज मदहोश है ,
थी कभी साहसी, आज बेजोश है ।
बन �भखार� खड़ी है हर एक द्वार ,
कोई दे दे कह�ं चटपट� इक ख़बर; ऐ ख़बर बेख़बर!
उठ जगा आग तुझम� जो सोई पड़ी,
आग से आग बुझने क� आई घड़ी,
काट तू गदर ्-ए-झूठ क� इस कदर, जुमर् खाता �फरे ठोकर� द-बदर;
ऐ ख़बर बेख़बर!
प� ृ [ 76 ]
अम्, �ार और गीत
(१८)
ख़्वाब म� तुम मेरे आती जाती रह� ख़्वाब म� तुम मेरे आती जाती रह�,
रात भर नींद म� गुनगुनाता रहा।
�दन �नकल ह� गया फाइल� म� मगर,
प्री�त क� है कुछ ऐसी सनम रहगु,
जब तलक व्यस्त , मन था बहला हुआ,
पर अकेले म� ये कसमसाता रहा।
साँझ याद� क� मधु ले के �फर आ गई, रात तक तुम नशा बन के थीं छा गई, यूँ तो मदहोश था, �फर भी बेहोशी म� , नाम तेरा ह� म� बड़बड़ाता रहा।
�फर सब ु ह हो गई, रात �फर सो गई, चाय के स्वाद म, याद �फर खो गई,
जब म� दफ्तर गया ना �कसी को लग, रात �बस्तर पे म� छटपटाता रहा
प� ृ [ 77 ]
अम्, �ार और गीत
(१९)
फट गया �दल एक बादल का फट गया �दल एक बादल का। प्यार का मृदु स्वप्न ल, छोड़ आया था वो सागर,
भटकता था जाने कब से, पूछता था यह� सब से;
कहाँ वह थल, जहाँ कर लँ ू अपना �दल हलका।
सब ये कहते थे बढ़ा चल,
वीर तू पवर्त चढ़ा च,
जगत म� �नज नाम कर तू, वीरता का काम कर तू;
प्रेम के मत फेर पड़ ,
प्यार तो है नाम बस छल का तभी उसको �दखी चोट�, प्री�त उसके हृदय ल,
�ेत �हम से वो ढक� थी, प्रेम रस से भी छक� ;
प� ृ [ 78 ]
अम्, �ार और गीत
राह रोक� तभी �ग�र ने,
कर प्रदशर्न बाहु के बल लड़ा �ग�र से बहुत बादल, मगर वो जल से भरा था, �तस पे उतने पहुँ च ऊपर, अधमरा सा हो चला था; ददर ् इतना बढ़ गय,
वह फाड़ �दल छलका।
प� ृ [ 79 ]
अम्, �ार और गीत
(२०)
समाचार ह�
समाचार ह� अद्भ
अद्भ,
जीवन के अब बबार्द
करे म ुनाद�
संसाधन सी�मत सड़ जाने दो �कंतु करे गा
बंदर ह� �वत�रत �नयम
अनूठे ह�
मानव-वन के प्र-रोग अब लाइलाज
�कं�चत भी नह�ं रहा नई दवा ने
आगे बढ़कर
सबका ददर ् सह रं ग बदलते
प� ृ [ 80 ]
अम्, �ार और गीत
पल पल
तन मन के धन क� नौकर
�नज इच्छा स
अब है बु�द्ध ब कमर् राम क
ले�कन लंका
दे खो हुई धनी
बदल रहे आदशर
लड़कपन के
प� ृ [ 81 ]
अम्, �ार और गीत
(२१)
सच्चाई क� सड़क प सच्चाई क� सड़क प, है झूठ का कुहासा। स्वाथ� क� ठंढ बढ़त ह� जा रह� है हर-पल,
पर�हत का ताप सोया है ओढ़ सख ु का कम्ब;
ह� प्रेम के सब उप अब दे रहे धुँआ-सा। सब म�सर्डीज भाग� पैस� क� रोशनी म , ईमान-द�प वाले, डगमग बह� तर� म� ;
बढ़ती ह� जा रह� है , अच्छाई क� हताशा घुट रहा धमर् दबक पाखंड क� बरफ से,
�तस पर �सयासत� क� आँ�धयाँ हर तरफ से; कुहरा बढ़ा रह� है , नफरत क� कमर्नाशा
पछुआ हवा ने पाला ऐसा �गराया सब पर, �रश्त� के खेत सारे अब हो गये ह� बंज;
आय�गी ग�मर्याँ �फ, है आ�खर� ये आशा।
प� ृ [ 82 ]
अम्, �ार और गीत
(२२)
गई जब से मुझे छोड़कर, रूठक गई जब से मुझे छोड़कर, रूठक,
ऐसा कु छ हो गया, तब से सो न सका। उसक� बात� कभी, उसक� साँस� कभी, आसमाँ म� उमड़ती-घुमड़ती रह�ं,
उसक� याद� क� बरसात म� भीगकर,
आँख� नम तो हु� पर म� रो ना सका। रात� घुटन� के बल पर �घसटतीं रह�, नींद भी यँू ह� करवट बदलती रह�, तीर लगते रहे ददर ् के िजस्म ,
म� तड़पता रहा, चीख पर ना सका। मेर� साँस� तो रुक रुक के चलती रह,
�दल क� धड़कन भी थम थम धड़कती रह�,
को�शश� क� बहुत म�ने पर जाने क्य,
मौत के मँह ु म� जाकर भी मर न सका।
प� ृ [ 83 ]
अम्, �ार और गीत
हाइकु
प� ृ [ 84 ]
अम्, �ार और गीत
(१) आज या कल
सबको है �मलता कम� का फल (२) �दए जलाए
अंधकार मन का �मटा न पाए (३) बात अजीब
धनी जन-सेवक जन गर�ब (४) झील सी आँख�
बफर् जैसी पलक मछल� सा म�
प� ृ [ 85 ]
अम्, �ार और गीत
(५) �रश्त� क� डो ढ�ल� करते जाना दे ना न छोड़ (६) बंदर-बाँट बँटता रहा दे श मंत्री क� (७) स्नेह समा राख हुई व�तर्क द�पक बुझा (८) तू है चंदन
तुझको न छोड़ेगा भुजंग -मन प� ृ [ 86 ]
अम्, �ार और गीत
(९) पानी म� नाव
छुपा नह�ं सकती �दल के घाव (१०) छोट� सी कथा
सागर भर पानी मीन सी तष ृ ा (११) पछुआ हवा �बछड़ गए साथी चोल� दामन (१२) हवा म� आई मीन समझ पाई पानी का मोल प� ृ [ 87 ]
अम्, �ार और गीत
(१३) झील सी आँख� बफर् जैसी पलक मछल� सा म� (१४) फल� का भोग भूखा मरे ई�र खाएँ बंदर (१५) मंत-मानव जादग ू र प्रग यंत-मानव (१६) ढूँढे ना �मल� क�वता भटकती शब्द� क� गल प� ृ [ 88 ]
अम्, �ार और गीत
(१७) नया जमाना
घुट रहा ई�र सद� परु ाना (१८) चीनी सी तुम
नींबू सी न�कझ�क पानी से हम (१९) चंचल नद�
ताकतवर बाँध गहर� झील (२०) दे खो ये दाँव
खाई क� गदर ्न प शैल� के पाँव प� ृ [ 89 ]
अम्, �ार और गीत
क�वताएँ
प� ृ [ 90 ]
अम्, �ार और गीत (१)
हे डमास्टर क� कुस
मेरे हे डमास्टर क� कुस पुरानी
मगर बेहद साफ
घूल का एक कण भी नह�ं हुआ करता था उसपर; शुरू शुरू म� तोम� बहुत डरता उस कु स� से
पर धीरे धीरे मुझे पता लगा
�क लकड़ी क� उस बूढ़� कु स� म� भी �दल है और मुझे उस कु स� से लगाव होने लगा; आजकल वो कु स�
हे डमास्टर साहब के घर म� पड़ी हुई ह उसका एक पाँव टूट गया है
और आँख� से �दखाई भी नह�ं पड़ता
क्य��क मो�तया�बन्द के आपरेशन के �लय पैसे नह�ं थे;
एक �दन यूँ ह�
म� उस कु स� से �मलने चला गया था
तो सब पता लगा मुझ;े
प� ृ [ 91 ]
अम्, �ार और गीत
सबसे छुपाकर
बीस हजार रूपये देकर आया हू,
आपरे शन के �लए; क्या कर
उस कु स� का महत्
�सफर् म� ह� समझ सकता हू
वो कु स� ना होती
तो म� ना जाने क्या होता
प� ृ [ 92 ]
अम्, �ार और गीत (२)
डगमगाती रह�
एक नाव
डूबती रह� एक नाव
नद� चप ु चाप लेट� थी
चाँद शािन्त से देख रहा थ
�कनार� ने मँह ु घुमा �लया था
हवाएँ पेड़� के पीछे छुप ग� थीं थोड़ी ह� दे र म�
पूर� तरह भर गया नाव म� पानी
और हो गये �न�ल नाव के हाथ-पाँव बेचार� नाव
�फर सबकु छ हो गया पहले जैसा
हवा बहने लगी,
चाँद गुनगुनाने लगा नद� हँसने लगी �कनारे नद� को
प� ृ [ 93 ]
अम्, �ार और गीत
बाँह� म� भरने क�
को�शश� करने लगे
जैसे कु छ हुआ ह� नह�ं नाव बेचार�
कराहती हुई
गहरे और गहरे
डूबती चल� गई
पानी इन्तजार करने लग पूर� तरह शान्त होक अगल� नाव का।
प� ृ [ 94 ]
अम्, �ार और गीत
(३)
रास्ते म
एक पगल�
चौराहे पर
पूरे कस्बे म
मैले कु चैले व� पहने धल ू भरे बाल �लए
काल� काल� चमड़ी ओढ़े मह�न� से �बना नहाए
तन और मन पर छोटे -बड़े हरे -सख ू े
घाव �लए
एक पगल� घूमती है हाथ� म� पकड़ी
एक छोट� गु�ड़या को जाने क्या सोच सो बार बार चम ू ती है
एक �दन अचानक
कस्बे के पुजार� को प� ृ [ 95 ]
अम्, �ार और गीत
बेचार� पे दया आई
वो उसे कस्बे के सबसे धनवा
पुजार� के प्रमुख जजम
लाला दयावान के पास ले गया नहलाया धुलाया
इत्र �दया लगाने अच्छे कपड़े पहना
खाना �दया खाने को और �फर
दोन� ने �मलकर सद ू समेत
अपना मलधन वसल ू ू �कया; आज कल रात� म� लाला के बाग� म� पेड़� क� डा�लयाँ
जब हवा से झूमती ह�,
तो कहते ह� कस्बे के लो
�क बाग के पेड़� पर
पगल� क� आत्मा घूमती है
प� ृ [ 96 ]
अम्, �ार और गीत
(४)
गाय
एक गाय है
वो जब तक बछड़े पैदा करती थी दध ू दे ती थी
तब तक उसक� पूजा होती थी
उसके गोबर से आँगन ल�पा जाता था उसके दध ू से
भगवान को भोग लगाया जाता था लोग उसके चरण छूकर आशीवार्द लेते थ
पर अब वह बूढ़� हो गई है उसे गोशाला के छोटे से
गंदे से, कमरे म� भेज �दया गया है कभी बछड़� पर प्यार उमड़ता ह और जोर से उन्ह� पुकारती ह तो डाँट द� जाती है
बचा खच ु ा खाना उसके आगे डाल �दया जाता है
वो खाकर चप ु चाप पड़ी रहती है जवानी के �दन याद करते हुए
मौत के इंतजार म� ।
प� ृ [ 97 ]
अम्, �ार और गीत
(५)
�रक्श
एक �रक्शा थ
जो मुझे बचपन म�
स्कूल ले जाया करता थ
रोज सुबह व�पर आता था सीट� बजाता था और म� दौड़कर
उसपर चढ़ जाया करता था
अच्छा लगता थ दोस्त� के सा
उस �रक्शे पर बैठकर स्कूल जा कभी कभी
जब वो खराब हो जाता था तो पापा छोड़ने जाते थे
पर पापा के साथ जाने म� वो मजा नह�ं आता था
एक अजीब सा �रश्ता बन गया था उस �रक्शे स;
वो �रक्शा अब भी आता है कभी कभी मेरे घर
प� ृ [ 98 ]
अम्, �ार और गीत
पर म� तो अक्सर
परदे श म� रहता हूँ जब म� घर जाता हूँ
तो उसको पता नह�ं होता �क म� आया हूँ और जब वो आता है
तो म� परदे श म� होता हूँ लोग कहते ह�
वो कु छ माँगने आता होगा
लोग नह�ं समझ सकते
एक बच्चे और उसके �रक्शे का �रश इस बार म� कु छ कपड़े
घर पर छोड़ आया हूँ घरवाल� से कहकर वो आये तो दे दे ना क्या कर
िजन्दगी क� भागदौड़ म
म� इतना ह� कर सकता हूँ तुम्हारे �लय
कभी अगर �कस्मत ने साथ �दय तो मुलाकात होगी।
प� ृ [ 99 ]
अम्, �ार और गीत
(६)
बेध्यानी म यूँ ह�
यूँ ह�
पंखुड़ी गुलाब क� होठ� म� दबा ल� तब पता लगा लोग दे ते ह�
�कतनी गलत उपमा कहाँ वो पंखुड़ी ठं ढ�, नीरस
कहाँ तम ु ्हारे ह�
गुनगुने सरस
यूँ ह� इक �दन, ध्यान से देख चाँद को म�ने
तो पता चला
�कतना गलत कहा तुमको म�ने
कहाँ वो चाँद
दागदार �नजर् न ह�रयाल�
प� ृ [ 100 ]
अम्, �ार और गीत
ना ह� आक्सीज
कहाँ तुम्हारा चेहर बेदाग हरा भरा
मुद� म� भी भरे जो नव जीवन
इक �दन यँू ह� चंदन का पेड़
�दख गया मुझे तब पता चला
म� था अब तक गलत सोचता
कहाँ तम ु ्हारा बलखाता रे शमी बदन
कहाँ भुजंग� से �लपटा ये जड़ चंदन।
प� ृ [ 101 ]
अम्, �ार और गीत
(७)
हवाई जहाज को
हवाई जहाज
दु�नया और ख़ासकर शहर
बड़े खब ू सूरत नजर आते ह�
सपाट चमचमाती सड़क� से उड़ना रुई के गोल� जैसे
सफेद बादल� के पार जाना
हर समय चमचमाते हुए
हवाई अड्ड� पर उतरना या खड़े रहन दरअसल
असल� दु�नया क्या होती ह हवाई जहाज
ये जानता ह� नह�ं
वो अपना सारा जीवन असल� दु�नया से दरू
सपन� क� चमक�ल� दु�नया म� ह� �बता दे ता है
हवाई जहाज भी क्या कर
उसका �नमार्ण �कया ह� गया ह
सपन� क� दु�नया म� रहने के �लए वो �रक्शे या साइ�कल क� तर
प� ृ [ 102 ]
अम्, �ार और गीत
गंद� ग�लय� और
टूट� सड़क� पर नह�ं चल सकता
क�चड़ या कचरे क� बदबू नह�ं सहन कर सकता
शर�र पर जरा सी भी खर�च लग जाय
तो सड़ने लगता है
�व� का सबसे अच्छा �ध
सबसे ज्यादा मात्रा म� इस्तेमाल करत हवाई जहाज
या उसके सपन� क� दु�नया से मुझे कोई ऐतराज नह�ं ऐतराज इस बात से है
�क हवाई जहाज के हाथ म� ह� असल� दु�नया क� बागडोर है वह उस जगह बैठकर
आम इंसान� के �लए �नयम बनाता है
जहाँ से आम इंसान
या तो चींट� जैसा �दखता है या �दखता ह� नह�ं
इसी�लए ज्यादातर �नय
केवल हवाई यात्रा करने वाल�
सु�वधाओं का साधन बन कर रह जाते ह� प� ृ [ 103 ]
अम्, �ार और गीत
और आम इंसान चीं�टय� क� तरह
थोड़े से आटे के �लए ह� संघषर् करत जीता मरता
रह जाता है ।
प� ृ [ 104 ]
अम्, �ार और गीत
(८) आँवले जैसी हो तुम आँवले जैसी हो तम ु जब तक पास रहती हो खटास बनी रहती है पर जब दरू चल� जाती हो और मै सँग सँग �बताए पल� क� याद का पानी पीता हूँ
तो धीरे धीरे �मठास घुलने लगती है तुम्हारे साथ �बताए समय क मेरे मँुह म� मेरे तन म� मेरे मन म� मेरे जीवन म� ।
प� ृ [ 105 ]
अम्, �ार और गीत
(९)
पाप-पुण्
सब उलझा हुआ है ,
पाप-पूण्, उ�चत-अनु�चत, धमर-अधमर, सत्-असत्,
सब एक दस ू रे म� उलझा हुआ है , धाग� क� तरह,
एक धागा पकड़ कर खींचता हूँ, और एक पल को लगता है यह पण ू ्य ह, सत्य ह,
पर दस ू रे ह� पल लगता है ये तो पाप है , असत्य ह, ये उलझी हुई प�रभाषाएँ,
समझ म� न आने वाल� भाषाएँ, उलझन, उलझन, उलझन, सब उलझा हुआ है ,
क्या करूँ, क्या कर ? गाँठ� बढ़ती जा रह� ह�,
और �सरा �दख भी नह�ं रहा है , ढूँढता ह ू ँ, ढूँढता ह� जाता हूँ, और थक कर बैठ जाता हूँ,
तभी अचानक मुझे ख्याल आता ह, �क कह�ं ऐसा तो नह�ं,
�क ये धागे व� ृ ीय ह�, �सरा हो ह� नह�ं,
हूँ, हो सकता है , ऐसा हो सकता है ,
तभी तो पाप कहाँ शुरू होता है और पूण्य कह, प� ृ [ 106 ]
अम्, �ार और गीत
पता ह� नह�ं चलता,
इसी�लए पाप और पूण्य के बी,
कोई स्प� रेखा नह�ं खींची जा सकत, �फर भी हम मान लेते ह� �क यहाँ, इस �नशान पर,
पाप खत्म होता है और पूण्य शुरू होता ,
पर न पाप का खत्म होना स्प� , और न पण ू ्य का शुरू हो,
सबका अपना-अपना ख्याल ह, अपने को द� गई सांत्वना ह,
�क हम जो कर रहे ह� वह� पण ू ्य ह, जब�क सत्य तो संभवतः यह ह,
�क पण ू ्य करते करत,
कब पाप होना शुरू हो जाता ह, ये तय कर पाना असंभव है ,
इस�लए भ�वष्य म� जब पूण्य क�रये, तो थोड़ा सावधान र�हएगा,
हो सकता है आप पाप कर रहे ह�।
प� ृ [ 107 ]
अम्, �ार और गीत
(१०) क्या पूणर् स,
चेह रे
नग्न सत,
तुम बोल सकते हो?
क्या ऐसा सत्यम� सुन सकता ह?
पर अधरू ा सत्य
क्या दूसर� तरह से अधूरा झूठ नह�ं कहा जाएग? मुझे लगता है �क ये तम ु हो, पर क्या ये तुम ह� ह?
तम ु ्हे लगता है �क ये म� हू,
पर क्या ये म� ह� हू?
एक चेहरे पर दस ू रा चेहरा चढ़ाये म� और तम ु , एक रात का चेहरा,
एक �दन का चेहरा, एक घर का चेहरा,
एक बाहर का चेहरा,
चेहरे , चेहरे , हर ओर चेहरे ह� चेहरे , पर सब झूठे चेहरे , ये मासू�मयत,
ये कोमलता, सब झूठ,
प� ृ [ 108 ]
अम्, �ार और गीत
ये आदशर्वा,
ये समाजवाद, सब झूठ,
िजस चेहरे म� िजसको फायदा �दखा, वह� चेहरा चढ़ा �लया,
अब तक तो म� खुद भूल चुका हूँ, मेरा असल� चेहरा कौन सा है , �पता के सामने पत ु ्र का चेह,
प�ी के सामने प�त का चेहरा,
प्रे�मका के सामने प्रेमी का च, दोस्त के सामने दोस्त का चेह,
और सारे चेहरे एक दस ू रे से बढ़कर, मासम ू , वफादार, नेक,
और इन सबसे हटकर एक और चेहरा, लाल-लाल, भे�ड़ये सी आँख� वाला,
गमर, भस्म कर देने वाल� सांस� वाल,
जो �कसी प�रणाम क� प�रवाह नह�ं करता, जो उभरता है नशे म� , या पागलपन म� ,
वहशीपन �लए हुए
�कसी जंगल� जानवर जैसा �हंसक, इनम� असल� चेहरा कौन सा है ,
प� ृ [ 109 ]
अम्, �ार और गीत
या �फर सारे चेहरे ह� असल� ह�,
या सारे ह� चेहरे नकल� ह�,
असल� चेहरे जैसी कोई चीज है भी?
या ये दु�नया ह� चेहर� क� दु�नया है , चेहरे , चेहरे , चेहरे ,
और इन चेहर� के नीचे कु छ भी नह�ं, शून्,
शन ू ्, अरे हाँ,
एक और चेहरा,
जब समाज का बनाया कोई भी चेहरा, पहनने क� आवश्यकता नह�ं होत,
कह�ं अकेले म� , अँधेरे म� , एक चेहरा उभरता है ,
िजसे दस ू रे दे ख तो सकते ह� पर समझ नह�ं सकते,
इस चेहरे को केवल वह� समझ सकता है ,
िजसका वो चेहरा है , शून्, अथार्,
आम आदमी क� प�रभाषा म�
उसका कोई अिस्तत्व नह�ं , पर वह असत्य भी नह�ं ह, दबा हुआ है ,
ढे र सारे चेहर� के नीचे, प� ृ [ 110 ]
अम्, �ार और गीत
जो उभरता है , अकेले म � , अँधेरे म� ,
सारे चेहर� के हट जाने पर,
एक गम्भी, शान्, तेजोमय चेहरा, पर दस ू रे लोग उस चेहरे को समझ नह�ं पाते
और िजसे लोग समझ नह�ं पाते, उसे या पागल कहते ह� या ई�र, पर क्या कभी ऐसा �दन आएग,
जब समाज
इस चेहरे को समझने योग्य ‘समझ’ पाएगा।
प� ृ [ 111 ]
अम्, �ार और गीत
(११) अपने जीवन म� ,
बोझ
�कतने बोझ ढोता रहता है आदमी, माता �पता के सपन� का बोझ;
समाज क� अपे�ाओं का बोझ; प�ी क� इच्छाओं का बो; बच्च� के भ�वष्य का ब; व्यवसाय या नौकर� म,
आगे बढ़ने का बोझ;
अपनी अत� ृ इच्छाओं का बो;
अपने घुट-घुटकर मरते हुए सपन� का बोझ; �कतने �गनाऊँ, सैकड़� ह�,
और इन सब से मु�� �मलती है ,
मरने के बाद;
शायद इसी�लए, िजन्दा आदम,
पानी म� डूब जाता है ,
मगर उसक� लाश तैरती रहती है ।
प� ृ [ 112 ]
अम्, �ार और गीत
(१२)
भूकम् कौन कहता है िजन्दगी म� भूकम्प कभी कभी आते,
हर रात म� सामना करता हूँ,
एक भूकम्प क,
हर रात तुम्हार� याद� के भूकम्प ,
मेरे तन-मन का कोना कोना �हल जाता है ,
मेरा कोई न कोई �हस्सा रोज टूट जाता ह ,
�व�ान कहता है ,
भूकम्प म� जो िजतना अ�धक दृढ़ होता , उतनी ह� जल्द� टूट जाता ह ,
काश! �क म�ने भी थोड़ी सी �हम्म, थोड़ी सी दृढ़ता �दखाई होत,
तो अगर तुम न भी �मलतीं तो भी,
एक ह� बार म� टूटकर �बखर गया होता,
कम से कम ये रोज रोज का ददर ् तो न झेलत,
शायद ये मेरे समझौत� क�, मेरे झुकने क� सजा है ,
�क म� थोड़ा थोड़ा करके रोज टूट रहा हूँ, और जाने कब तक म� यँू ह�, �तल �तल करके टूटता रहूँगा।
प� ृ [ 113 ]
अम्, �ार और गीत
(१३)
बढ़ता ह� जा रहा है ,
अच्छाई- बुराई
अच्छाई पर बुराई का दबा; इकट्ठी होती जा रह� , दबे हुए,
कु चले हुए लोग� म� ,
दबाव क� ऊजार;
एक दस ू रे म� धँसी जा रह� ह�,
भख ू और �पछड़ेपन क� चट्टा;
भूकम्प आने ह� वाला ह,
और बदलने ह� वाल� है ,
धरती क� तस्वी,
और मेरे भारत क� तकद�र।
प� ृ [ 114 ]
अम्, �ार और गीत
(१४) बफर
बफर् �गरती है तो �कतना अच्छा लगता , उन लोग� को,
जो वातानुकू�लत गा�ड़य� से आते ह�, और गमर् कमर� म� घुस जाते ह,
�फर �नकलते ह� गमर् कपड़े पहनक,
खेलने के �लए बफर् के गोले बना बनाक, गमर् धूप म ;
कोई ये नह�ं जानता,
�क उस पर क्या बीतती ह,
जो एक छोट� सी पत्थर� से बनी कोठर� म,
िजसक� छत लोहे क� पुरानी चद्दर� से ढक� होती ,
गलती हुई बफर् के कार, �गरते हुए तापमान म� , एक कम्बल के अन्,
रात भर ठण्ड से काँपता रहता ह; �दन भर के काम से थका होने के कारण, प� ृ [ 115 ]
अम्, �ार और गीत
नींद तो आती है ,
पर अचानक कम्बल के एक तरफ स,
थोड़ा उठ जाने से,
लगने वाल� ठण्ड क� वजह स, नींद खुल जाती है ,
सारे अंग� को कम्बल से ढकक,
वह �फर सोने क� को�शश करने लगता है , उस बफर् को कोसते हु,
िजसे सड़क� पर से हटाते हटाते,
�दन म� उसके हाथ पाँव सन ु ्न हो गये थ,
ता�क वातानुकू�लत गा�ड़य� को आने जाने का, रास्ता �मल सके
प� ृ [ 116 ]
अम्, �ार और गीत
(१५)
ई�र
ई�र क� श��याँ;
अन्तर्धान हो, रूप बदल लेन,
दु�नया को न� कर दे ना,
मुद� को जी�वत कर दे ना, अंधे को आँखे दे दे ना,
लँ गड़े को टाँगे लौटा दे ना,
बीमार� को ठ�क कर दे ना, आ�द आ�द,
इनम� से कु छ को,
�व�ान मानव के हाथ� म� स�प चुका है ,
और कु छ को आने वाले समय मे स�प दे गा, क्य��क ये सार� श��या,
द्रव्य और ऊजार् क� अवस्थाओं म� प�रवतर्न,
और आने वाले कु छ सौ साल� म� ,
हम इनपर पूर� तरह �वजय प्रा� कर ल�ग क्या होगा त?
मानव ई�र बन जायेगा?
या शायद ई�र मर जायेगा? प� ृ [ 117 ]
अम्, �ार और गीत
अब व� आ गया है ,
�क हम ई�र क�,
हजार� वषर् पुरानी प�रभाषा को बदल द , और एक नई प�रभाषा �लख�,
जो श��य� के आधार पर ना बनाई गई हो, जो डर के आधार पर न बनाई गई हो, एक ऐसे ई�र क� कल्पना कर,
जो अपनी खुशामद करने पर वरदान ना दे ता हो,
और अपनी बरु ाई करने पर दण्ड भी ना देता ह, जो अपनी बनाई हुई सबसे महान कृ�त,
या�न मानव,
क� बार बार सहायता करने के �लए, धरती पर ना आता हो, जो एक जा�त �वशेष,
को दान दे ने पर खुश ना होता हो,
िजसे यक�न हो अपनी महानतम कृ�त पर, �क ब्र�ांण म� फैल� अ�नि�ता के बावज,
उसक� यह कृ�त अपना अिस्तत्व बनाये रहे, �वक�सत होती रहे गी;
ई�र को पुनः प�रभा�षत तो करना ह� होगा, अगर ई�र को िजन्दा रखना ह, तो हम� ऐसा करना ह� होगा।
प� ृ [ 118 ]
अम्, �ार और गीत
(१६)
बड़ा मुिश्कल ह,
प्रयोगशा
तुम पर क�वता �लखना,
�व�ान क� प्रयोगशालाओं , क�वता कहाँ बनती है ? परखन�लय� म� ,
अम्ल� म, �ार� म� ,
रासाय�नक अ�भ�क्रयाओं , क�वता कहाँ बनती है ?
तरह तरह क� गैस� क� दुगर्न्ध ,
भावनाह�न प्रयोग� ,
क�वता कहाँ बनती है ? पर क्या करूँ,
उन्ह�ं �नज�व प्रयोगशालाओं,
तो �बखर� पड़ी ह� तुम्हार� याद, तुम्हारे हाथ क� छुव,
जैसे अम्ल छू गया हो शर�र स,
आज भी �सहर उठता है मेरे हाथ का वह भाग, प� ृ [ 119 ]
अम्, �ार और गीत
तुम्हार� खनकती हँस,
जैसे बीकर �गरकर टूट गया हो मेरे हाथ से, तुम्हार� साँस� क� आवृ�� स,
मेर� साँस� का बढ़ता आयाम, हमारे प्राण� का अनुन,
हमार� आँख� क� �क्रया प्र�त,
आँख� क� अ�भ�क्रयाओं से बढ़ता तापम, कहाँ से लाऊँ म� उपमान,
वै�ा�नक उपमान� से कहाँ बनती है क�वता? लगता था जैसे हमारे शर�र� के बीच का गुरुत्वाकष, �कसी दस ू रे ह� �नयम का पालन करता है ,
कोई और ह� सूत्र लगता ,
इस गुरुत्वाकषर्ण क� गणना करने ह,
जो शायद अभी खोजा ह� नह�ं गया है ,
और शायद कभी खोजा जाएगा भी नह�ं। कु छ चीज� ना ह� खोजी जाएँ तो अच्छा ह,
कु छ क�वताएँ ना ह� �लखी जाएँ तो अच्छा ह, और कु छ कहा�नयाँ,
अधरू � ह� रह जाएँ तो अच्छा है
प� ृ [ 120 ]
अम्, �ार और गीत
(१७)
नद� के तल क� �मट् नद� के पानी क� रफ़्ता,
थोड़ी बहुत बढ़ने से,
उसके तल क� �मट्, जो स�दय� से, जमी रहती है , नह�ं �हलती,
क्य��क नद� के पानी क� ग�तज ऊजा,
उसक� तल� तक पहुँचते पहुँ चते,
शून्य हो जाती ह, नद� के पानी क�,
�व�भन्न पत� के द्व,
सोख ल� जाती है ;
नद� के तल क� �मट्, तभी �हलती है ,
जब नद� के पानी का वेग, इतना अ�धक हो जाता है ,
�क पानी के अणुओं क� ग�तज ऊजार,
उसक� पत� को तोड़ कर �बखेर दे ती है , और इन पत� के टूटते ह�,
प� ृ [ 121 ]
अम्, �ार और गीत
पानी क� ताकत,
तल� को ह� नह�ं,
उसे स�दय� से बाँधकर रखने वाले, �कनार� को भी तोड़कर,
बहा दे ती है ,
और जब तल� पर जमी ये �मट्, बाहर �नकलकर फैलती है ,
तो स�दय� से बंजर जमीन� भी, उपजाऊ हो जाती ह�।
प� ृ [ 122 ]
अम्, �ार और गीत
(१८)
बलात्का: उद्भव एवं �वक शुरू म� सब एक जैसा थ
जब प्रारिम्भक स्तनपाइय� का �वकास धरती पर,
नर मादा म� कु छ ज्यादा अन्तर नह�ं मादा भी नर क� तरह श��शाल� थी वह भी भोजन क� तलाश करती थी शत्रुओं से युद्ध थी
अपनी मज� से िजसके साथ जी चाहा सहवास करती थी
बस एक ह� अन्तर थ
वह गभर् धारण करती थ
पर उन �दन� गभार्वस्था
इतना समय नह�ं लगता था
कु छ �दन� क� ह� बात होती थी। �फर क्र� �वकास म� बन्दर� का उद्भव
तब जब हम बंदर थे
�ी पुरुष क भेद ज्यादा नह�ं होता थ प� ृ [ 123 ]
अम्, �ार और गीत
मादा थोड़ी सी कमजोर हुई क्य��क अ गभार्वस्था ज्यादा समय लगता थ
तो उसे थोड़ा ज्यादा आराम चा�ह था गभार्वस्था के दौर; मगर नर और मादा
दोन� ह� भोजन क� तलाश म� भटकते थे
साथ साथ काम करते थे। �फर हम �चम्पांजी बन मादा और कमजोर हुई
गभार्वस्था म� और ज्यादा समय लगने वह ज्याद दे र घर पर �बताने लगी नर ज्यादा श��शाल� होता गय क्र�मक �वक म� ।
�फर हम मानव बने
नार� को गभार्वस्था के दौर
बहुत ज्यादा समय घर पर रहना पड़ता थ
ऊपर के बच्च� के जीवन क� संभावना भी क थी तो ज्यादा बच्चे पैदा करने पड़ते
घर पर लगातार रहने से
उसके अंगो म� चब� जमने लगी प� ृ [ 124 ]
अम्, �ार और गीत
स्तन व �नतम्ब� का आक
पुरुष� स �बल्कुल अलग होने लग ज्यादा श्रम के काम न करने अंग मुलायम होते गये
और वह नर के सामने कमजोर पड़ती गई
और उसका केवल एक ह� काम रह गया
पर ु ुष� का मन बहलान;
बदले म� पर ु ुष उसक� र�ा करने लग अपने बल से; समय बदला,
पर ु ुष चाहने लगे �क एक ऐसी नार� ह जो �सफर उसका मन बहलाये
जब वो �शकार से थक कर आये,
उसके अलावा और कोई उसको छू भी न सके, वो �सफर् एक पुरुष के बच्चे पैदा कर , इस तरह जन् हुआ �ववाह का
ता�क नार� एक ह� पुरुष क� होकर रह सक और पुरुष ज चाहे कर सके, एक �दन �कसी पुरुष न
�कसी दस ू रे क� �ी के साथ बलपूव् र सहवास �कया
अब �ी का प�त क्या करत प� ृ [ 125 ]
अम्, �ार और गीत
इसम� नार� का कोई कसूर नह�ं था
पर पुरुष� के अहम ने एक सभा बुला
उसम� यह �नयम बनाया
�क य�द कोई �ी अपने प�त के अलावा �कसी से मज� से या �बना मज� से सहवास करे गी
तो वह अप�वत्र हो जाए
उसको परलोक म� भी जगह नह�ं �मलेगी
उसे उसका �पता भी स्वीकार नह�ं करेग प�त और समाज तो दरू क� बात है
क्य�� �पता, प�त और समाज के ठे केदार सब पर ु ुष थ
इस�लये यह �नयम सवर्सम्म�त से मान �लया ग
एक �ी ने यह पूछा
�क सहवास तो �ी और पुरुष दोन� के �मलन से होता ह
य�द पर�ी अप�वत्र हो है
तो परपुरुष भी अप�वत्र होना चा
उसको भी समाज म� जगह नह�ं �मलनी चा�हए, पर वह �ी गायब कर द� गई
उसक� लाश भी नह�ं �मल� �कसी को और इस तरह से बनी बलात्कार क
और �ी क� अप�वत्रता प�रभाषा प� ृ [ 126 ]
अम्, �ार और गीत
पुरुष कुछ भी करे मरना �ी को ह� है �फर समाज म� बलात्कार बढ़ने लग िजनका पता चल गया
उन ि�य� ने आत्महत्या ल�ं या वो वेश्या बना द� ग
जी हाँ वेश्याओं का जन्म यह�ं से ह क्य�� अप�वत्र ि�य� के प
इसके अलावा कोई चारा भी तो नह�ं बचा था और िजनका पता नह�ं चला वो िजन्दा बचीं रह�
घुटती रह�ं, कु ढ़ती रह�ं
पर िजन्दगी तो सबको प्यार� होती
उनके साथ बार बार बलात्कार होता रह और वो िजन्दा रहने के लालच म, चप ु चाप सब सहती रह�ं।
जी हाँ शार��रक शोषण का उदय यह�ं से हुआ पुरुष� का �कया धरा है स
�चम्पांिजय� औ बंदर� म� नर बलात्कार नह�ं करते धीरे धीरे �ी के मन म� डर बैठता गया बलात्कार क
अप�वत्रता प� ृ [ 127 ]
अम्, �ार और गीत
मौत का
इतना ज्याद
�क वो बलात्कार म� मान�सक रूप से टूट जाती वरना शर�र पर क्या फक पड़ता है दो चार बँूद� से
नहाया और �फर से वैसी क� वैसी।
धीरे धीरे ये �ी को प्रता�ड़त करने के �
पर ु ुष� का अ� बन गय,
शार��रक यातना झेलने क� ि�य� को आदत थी
गभार्वस्था झेलने के का,
पर मान�सक यातना वो कैसे झेलती इसका उसे कोई अभ्यास नह�ं था
मगर धीरे धीरे �ी ये बात समझने लगी �क ये सब पुरुष का �कया धरा ह उनके ह� बनाये �नयम ह�
और धीरे धीरे मान�सक यातना
सहन करने क� श�� भी उसम� आने लगी यह बात पुरुष� को बदार्श्त नह�ं
�फर जन् हुआ सामू�हक बलात्कार क अब �ी ना तो छुपा सकती थी
प� ृ [ 128 ]
अम्, �ार और गीत
ना शार��रक यातना ह� झेल सकती थी और मान�सक यातना
तो इतनी होती थी
�क उसके पास दो ह� रास्ते बचते थ आत्महत्या , या डाकू बनने का। धीरे धीर क्र�मक �वकास
प�वत्र और अप�वत्र क� प�रभाष गड्डमड होने लगी
झूठ समय का मुकाबला नह�ं कर पाता वो समय क� रे त म� दब जाता है
केवल सच ह� उसे चीर कर बाहर आ पाता है
प�वत्र और अप� क� प�रभाषा
�सफर् ि�य� पर ह� लागू नह�ं होत यह पुरुष� पर भ लागू होती है
या �फर प�वत्र और अप�वत्र जैसा कुछ होता ह� न मुझे समझ म� नह�ं आता
दो चार बँद� ू से इज्जत कैसे लुट जाती ह,
और पुरुष उसे लूटता ह
तो ज्यादा इज्जतदार क्य� नह�ं बन ज,
�ी क� इज्जत उसके जननांग म� क्य� रहती उसके सत्काय� म, उसके �ान म� क्य� नह�, प� ृ [ 129 ]
अम्, �ार और गीत
बड़ी अजीब है ये इज्जतक� प�रभाषा दरअसल ये पुरुष का अहंकार ह उसका अ�भमान है जो लुट जाता है
�ी पर कोई फकर् नह�ं पड़त
पर अहं कार� पुरुष उस � को स्वीकार नह�ं करत
क्य��क उसके अहं को ठेस लगती ह स�दय� परु ाने अहं को
जो अब उसके खन ू म� रच बस गया है
िजससे छुटकारा उसे इतनी आसानी से नह�ं �मलेगा सात साल क� सजा से
या बलात्कार� क� मौत स
कोई फायदा नह�ं होगा फायदा तभी होगा
जब पुरुष ये समझने लगेग �क बलात्का
जबरन �कये गये कायर् से ज्यादा कुछ नह�ं हो,
और बलात्का करके वो लड़क� क� इज्जत नह�ं लूटत केवल अपने ह� जैसे कु छ पुरुष� क अहं को ठे स पहुँ चाता है ।
प� ृ [ 130 ]
अम्, �ार और गीत
(१९)
पाप-पुण्य और बु�ढ़य गंगा नद� के �कनारे खड़े होकर,
एक बु�ढ़या ने एक रूपए का �सक्, नद� म� उछाला,
उसके �व�ास� के अनुसार,
उसने गंगा क� गोद म� पैसे बोए,
इसका फल उसे आने वाले व� म� �मलेगा, एक रूपए के बदले ढेर सारे रूपए �मल�ग वह �सक्का नद� म� �गरते पाक,
एक लड़का उसे �नकालने नद� म� कूदा,
लड़के के �लए यह रोजमरार् का काम थ, ऐसे ह� उसक� जी�वका चलती थी, �सक्के �नकालक,
पर इस बार उसने डुबक� लगाई, तो वो बाहर नह�ं आया। बेचार� बु�ढ़या,
अब यह समझ ह� नह�ं पा रह� थी, �क उसने पूण्य �कय,
या लड़के क� मौत का कारण बनकर, प� ृ [ 131 ]
अम्, �ार और गीत
पाप �कया;
वह खुद को कोस रह� थी,
�क उसने �सक्का इतनी जोर से क्य� फ�,
�कनारे ह� फ�क दे ती;
अब न जाने भ�वष्य म� उस,
पूण्य का फल �मलेग,
या पाप का दं ड।
प� ृ [ 132 ]
अम्, �ार और गीत
(२०)
अधूर� क�वता डायर� के पन्न� म� पड़ी एक अधूर� क�वत, अक्सर पूछती है मुझस, मुझे कब पूरा करोगे?
कभी कभी कलम उठाता हूँ,
पर आसपास का माहौल दे खकर डर जाता हूँ, अगर म� इस क�वता को पूर� कर दँ ग ू ा, तो लोग इसे फाँसी पर लटका द� गे; ये अधरू � क�वता,
मेर� डायर� म� ह� पड़ी रहे तो अच्छा ह,
मेर� डायर� म� घुट घुट कर ह� सह�,
कम से कम अपनी िजंदगी तो जी लेगी,
और म� पूर� करने के बहाने,
कभी कभी इसे दे ख �लया करूँग, जी भर कर।
प� ृ [ 133 ]
अम्, �ार और गीत
(२१)
पहाड़� से �लपट� बफर पहाड़� से �लपट� बफर,
जब �पघल कर पानी बन जाती है ,
तो मैदान� क� ओर भागने लगती है ,
और सागर म� जाकर खो जाती है ,
�फर धीरे धीरे जलती है जुदाई क� आग म� , भाप बनकर उठती है ,
बादल बनकर वापस दौड़ती है ,
और भागकर �लपट जाती है ,
पहाड़� से,
दुबारा बफर् बनकर और बेचारा पहाड़
वो बार बार इस बफर् को अपने गले से लेता ह, इसे माफ कर दे ता है ये जानते हुए भी
�क जैसे जैसे सूरज क� चमकती धप ू इसे �मलेगी
यह �पघलेगी
और �फर से मुझे छोड़कर चल� जाएगी क्या यह� प्रेम
िजससे प्रेम ह
प� ृ [ 134 ]
अम्, �ार और गीत
उसके सारे गुनाह माफ कर दे ना
उसे बार बार �फर से अपना लेना यह जानते हुए भी
�क कु छ समय बाद
वह �फर छोड़ कर चला जायेगा।
प� ृ [ 135 ]
अम्, �ार और गीत
(२२)
मेरे कु छ मनमीत,
अम्, �ार और गीत
अम्, �ार और गीत। एक खट्टा ,
दस ू रा कसैला है ,
तीसरे के सारे स्वाद ह�
पहला गला दे ता है , दस ू रा जला दे ता है ,
तीसरा सारे काम कर दे ता है ।
पहले दोन� को �मलाने पर, बनते ह� लवण और पानी, अथार्त खारा पान, अथार्त आँस,
और तीन� को �मलाने पर, बन जाता हूँ म�।
प� ृ [ 136 ]
अम्, �ार और गीत
(२३)
तूफ़ान तूफ़ान के बाद वह� पेड़ बचते ह�,
जो धरती से गहराई से जुड़े होते ह�, और झुंड� म� खड़े होते है ;
जो पेड़ अपनी धरती से जुड़े �बना, ऊँचा उठता है ,
तूफ़ान� का मुकाबला नह�ं कर पाता,
तूफ़ान उसे बड़ी आसानी से, उखाड़ दे ता है ।
तफ़ ू ान बड़ा अजीब होता है , ऊँचाई बढ़ने के साथ,
इसका वेग बड़ी तेजी से बढ़ता है ,
मगर धरती िजस �बन्दु पर इसे चूमती ह,
उस �बन्दु पर यह �बल्कुल शान्त हो जाता , तूफ़ान भी शायद धरती का ह� पुत्र , िजसका सजन ृ ,
धरती यह परखने के �लए करती है ,
�क कौन अपनी धरती को,
�कतनी गहराई से प्यार करता है प� ृ [ 137 ]
अम्, �ार और गीत
(२४) रं ग
रं गीन चमक�ल� चीज�,
प्रकाश के उन रंग� ,
जो उनके जैसे नह�ं होते, सोख लेती ह�,
और उनक� ऊजार् से अपने रंग बनाती ह�
और हम समझते ह� �क ये उनके अपने रं ग ह�, िजन्ह� हम रंगीन वस्तुएँ कहते,
वे दरअसल दस ू रे रं ग� क� हत्यार� होती ह� केवल आइना ह� है ,
जो �कसी भी रं ग क� ऊजार् का इस्तेम, अपने �लए नह�ं करता,
सारे रं ग� को जस का तस वापस लौटा दे ता है , इसी�लए तो आइना हम� सच �दखाता है ,
बाक� सार� वस्तुए,
केवल रं ग�बरं गा झठ ू बोलती ह�,
जो वस्तु िजतनी ज्यादा चमक�ल� होती ,
वो उतना ह� बड़ा झठ ू बोल रह� होती है ।
प� ृ [ 138 ]
अम्, �ार और गीत
(२५)
ईमानदार�
आजकल ईमानदार� बढ़ती जा रह� है ,
क्य��क जो बेईमानी सब करने लगते ह, करने वाले भी और पकड़ने वाले भी, वो �सस्टम म� आ जाती ह,
उसम� पकड़े जाने का डर नह�ं होता, और धीरे धीरे हमार� आत्मा भ, मानने लगती है ,
�क वो बेईमानी नह�ं है ;
और अंतरात्मा क� आवाज़ गलत नह�ं होत, ऐसा �ानी लोग कह गये ह�;
तो भाइय� आजकल,
ईमानदार� का दायरा बड़ा होता जा रहा है ,
क्य��क ईमानदार� क� नई प�रभाषाएँ बन रह� ह, और बेईमानी का घटता जा रहा है ; तो जल्द� ह,
वह घड़ी आएगी, जब बेईमानी,
दु�नया से परू � तरह, समा� हो जाएगी।
प� ृ [ 139 ]
अम्, �ार और गीत
(२६) ददर
ददर ् क्या ? शार��रक ददर ् क्या ?
शर�र के �व�भन्न �हस्स� से �नकलने वा, कम ऊजार् क� �वद्युत धार,
जो तिन्त्रकाओं के रास्ते �दमाग तक पहुँचत, और �दमाग इन तरं ग� का �मलान,
अपने पास पहले से उपिस्थत सूचनाओं से करक , हम� अहसास �दलाता है ,
�क ये तो ददर ् क� �वद्युत धाराएँ मान�सक ददर ् क्या ?
�दमाग के एक �हस्से से �नकलने वाल� �वद्युत तर, िजस �हस्से म� याददाश्त होती , और ये तरं ग� जब �दमाग के,
ददर ् महसूस करने वाले �हस्से म� पहुँचती,
तो �फर एक बार सूचनाओं का �मलान होता है , और ददर ् क� अनुभू�त होती ह ,
ये ददर ् बड़ा तीव्र होता ,
क्य��क आदमी का �दमा, प� ृ [ 140 ]
अम्, �ार और गीत
उसके शर�र से कह�ं ज्याद,
�वद्युत उजार् उत्पन्न कर सकत आजकल म� को�शश कर रहा हूँ,
�दमाग म� उपिस्थत पूवर् सूचनाएँ न� करने , और इसका एक आसान रास्ता ह,
सूचनाओं के ऊपर दस ू र� सूचनाएँ भर दे ना,
आजकल म� खब ू चल�चत्र देख रहा ह,
खब ू क�वताएँ पढ़ रहा हूँ, उपन्यास� क� तो बस पू�छये ह� म,
और �व�ान क� उन समीकरण� को भी, समझने क� को�शश कर रहा हूँ, िजनसे म� हमेशा ह�, डरता था।
जल्द ह� म� अपने �दमाग म, इतनी सूचनाएँ भर दँ ग ू ा,
�क उसक� याद� या तो �मट जाएँगी,
या इतने गहरे दब जाएँगी �क �दमाग को,
ढूँढने पर भी नह�ं �मल� गी,
और तब म� मु�� पा सकँू गा, इस बेरहम ददर ् से
प� ृ [ 141 ]
अम्, �ार और गीत
(२७)
मेढक
मेढक को अगर,
उबलते हुए पानी म� डाल �दया जाय,
तो वह उछल कर बाहर आ जाता है ; मगर य�द उसे डाला जाय,
धीरे धीरे गमर् हो रहे पानी म ,
तो उसका �दमाग,
उस गम� को सह लेता है ,
और मेढक उबल कर मर जाता है ; छात्र� को मेढक काट,
उसके अंग� क� संचरना तो समझाई जाती है ,
पर उसके खन ू का यह गुण,
पूर� तरह गु� रखा जाता है , हमार� सरकार द्वा;
तभी तो हमारा सरकार� तंत,
युवा आत्माओं क,
भ्र�ाचार क� धीमी आँच ,
उबालकर मारने म� ,
प� ृ [ 142 ]
अम्, �ार और गीत
इतना सफल है ; कु छे क आत्माएँ ह,
इस सािजश को समझ पाती ह�,
और इससे लड़ने क� को�शश करती ह�,
पर इस गमर् हो रहे पानी स,
लड़ने का कोई फ़ायदा नह�ं होता, इस पर लगे घाव,
पल भर म� भर जाते ह�,
और लड़ने वाले आ�खर म� , थक कर डूब जाते ह�,
और खत्म हो जाते ह; एक ह� रास्ता है इसे खत्म करने या तो आग बुझा द� जाय
या पानी नाल� म� बहा �दया जाय
और दोन� ह� काम
पानी से बाहर रहकर ह� �कए जा सकते ह� मेढक� से कोई उम्मीद करन बेकार है ।
प� ृ [ 143 ]
अम्, �ार और गीत
(२८)
गूलर क� लकड़ी गूलर क� लकड़ी,
कुँ आ खोदते व� सबसे पहले, तल� म� लगाई जाती है ,
िजसके ऊपर �ट� क� �चनाई क� जाती है ,
उस पर जैसे जैसे �ट� क� बोझ बढ़ता जाता है , और बीच म� से �मट्टी �नकाल� जाती , वह धँसती जाती है , नीचे और नीचे;
गूलर क� लकड़ी सैकड� साल� तक, दबी रहती है �मट्टी के नी, सबसे नीचे,
सार� �ट� का बोझ थामे, सब सहते हुए,
�फर भी गलती नह�ं, सड़ती नह�ं;
इसके बदले उस लकड़ी को,
न कोई पुरस्कार �मलता ह, न कोई सम्मा,
प� ृ [ 144 ]
अम्, �ार और गीत
पर उसको इस पुरस्का,
या मान-सम्मान से क्या क?
जब कोई थका हारा,
प्यास का मारा मुसा�फ,
उस राह से गुजरता है ,
और एक लोटा पानी पीकर कहता है ,
आज इस कुँ ए के पानी ने मेर� जान बचा ल�,
वरना म� प्यास से मर जात, तो उस लकड़ी को लगता है , उसके सारे क�,
उसका सारा श्, सफल हो गया;
उसके �लए एक थके हुए प�थक क�,
त�ृ � भर� साँस ह�,
मान है ,
सम्मान ह,
परु स्कार ह, संतु�� है , स्वगर् ह
प� ृ [ 145 ]
अम्, �ार और गीत
(२९) भूख
न जाने भूख क्य� बनाई ई�र न? और पेट क्य� �दया इंसान क? क्या चला जाता ई�र क,
अगर उसने हम� ऐसी त्वचा द� होत,
जो सूय् क� रोशनी स र ,
सीधे ऊजार् प्रा� कर , मुफ़्त क� ऊजा;
अगर ऐसा होता,
तो लोग� को भख ू ना लगती,
लोग दाल रोट� क� �फ़कर ना करते,
तब लोग काम करते,
केवल अहं कार क� तु�� के �लए,
एक दस ू रे को नीचा �दखाने के �लए, और जीवन का सारा संघषर,
अमीर� के बीच �समट कर रह जाता; क्य��क गर�ब बेचार, आराम से �दन भर, धप ू �लया करते,
प� ृ [ 146 ]
अम्, �ार और गीत
ना कोई �चन्ता ना कोई �फ़क,
�कतना सुखी हो जाता गर�ब� का जीवन; मगर,
ई�र ने पेट दे कर,
भूख दे कर,
गर�ब� के साथ छल �कया है ,
और अमीर� क� तरफ़दार� क� है ,
ता�क गर�ब अपने �लए, जीवन भर,
रोट� दाल का इन्तजाम करते रह जाए, और अमीर,
�दन ब �दन अमीर होते जाएँ, गर�ब� का खन ू चस ू कर;
गर�ब� के इस खन ू को बेचकर,
अमीर,
ई�र के �लए नए नए घर बनवाते जाएँ,
और गर�ब,
अपने खन ू से बने उन घर� म� , मत्था टेकक,
अपने को धन्य समझते रह, प� ृ [ 147 ]
अम्, �ार और गीत
ई�र क� जयजयकार करते रह� , और चलती रहे ,
ई�र क� दाल रोट�।
प� ृ [ 148 ]
अम्, �ार और गीत
(३०) कर
आयकर, गहक ृ र, सम्प��क, �बक्र�, जलकर,
�कतने �गनाऊँ?
�कतने सारे रूपय, कर के रूप म,
हर साल सबसे वसूलती है सरकार, पर होता क्या है इन रूपय� ,
खेल के मैदान� म� कु छ कु �सर्याँ और लग जाती ह,
सरकार� दफ़्तर� का पुन�नर्माण हो जाता , राज्यमागर् और चौड़े हो जाते,
सरकार� कमर्चा�रय� क� वेतनवृ�द्ध हो जाती , बड़े लोग� के िस्वस ब�क खात� म थोड़ा धन और बढ़ जाता है ; एक चक्र है ,
िजसम� अमीर� से पैसा �लया जाता है , और अमीर� को और सु�वधाएँ दे ने म� , खचर् कर �दया जाता ह; गर�ब� के �लए, प� ृ [ 149 ]
अम्, �ार और गीत
�वदे श� से ग� हू मँगाया जाता है , जो गोदाम� म� ह� सड़ जाता है ;
�ट� क� अस्थायी सड़क� बनाई जाती ह, जो बा�रश म� टूटकर बह जाती ह�; चापाकल लगाये जाते ह�,
जो ग�मर्य� म� सूख जाते ह; जो बचता है ,
वो अ�धका�रय� के,
सफ़ेद और काले भ�� म� खप जाता है ; सरकार अमीर� से धन वसूल तो सकती है ,
पर उसे गर�ब� तक पहुँचा नह�ं सकती;
अब ऐसे म� क्या रास्ता बचता , बेचारे गर�ब के पास?
यह� ना �क वो सीधे अमीर� के पास जाए, और उनसे उनका धन छ�न ले;
सबकु छ आइने क� तरह साफ है ,
�फर भी लोग आ�यर् करते रहते ह, अपराध के बढ़ने पर, �वद्रोह के बढ़ने ,
राजद्रोह के बढ़ने प प� ृ [ 150 ]
अम्, �ार और गीत (३१)
द�वार� सब दे खती और सुनती रहती ह� द�वार� सारे कुकमर् द�वार� क� आड़ म� ह� �कए जाते ह और एक �दन इन्ह�ं कुकम� के बोझ स टूटकर �गर जाती ह� द�वार� और �फर बनाई जाती ह� नई द�वार� नए कुकम� के �लए; पता नह�ं कब बोलना सीख� गी ये द�वार� मगर िजस भी �दन द�वार� बोल उठ� गी वो �दन द�वार� क� आड़ म� स�दय� से फलती फूलती इस सभ्यत इस व्यवस् का आ�खर� �दन होगा।
प� ृ [ 151 ]
अम्, �ार और गीत (३२) �चकनी �मट्टी और र �चकनी �मट्टी के नन्ह� नन्ह� कण आपसी प्रेम और लगाव होता हर कण दस ू र� को अपनी ओर आक�षर्त करता ह और इसी आकषर्ण बल स दस ू र� से बँधा रहता है रे त के कण आकार के अनुसार �चकनी �मट्टी के कण� से बहुत बड़े होते उनम� बड़प्पन और अहंकार होता ह आपसी आकषर्ण नह�ं होत उनम� केवल आपसी घषर्ण होता ह �चकनी �मट्टी के कण� के बी आकषर्ण के दम प बना हुआ बाँध बड़ी बड़ी न�दय� का प्रवाह रोक देता , �चकनी �मट्टी बा�रश के पानी को रोक जमीन को नम और ऊपजाऊ बनाए रखती है ; प� ृ [ 152 ]
अम्, �ार और गीत
रे त के कण� से बाँध नह�ं बनाए जाते ना ह� रे तील� जमीन म� कु छ उगता है उसके कण अपने अपने घमंड म� चूर अलग थलग पड़े रह जाते ह� बस।
प� ृ [ 153 ]
अम्, �ार और गीत (३३) घास घास कह�ं भी उग आती है जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व �मल जाँ, इसी�लए उसे बेशमर् कहा जाता ह , इतनी बेइज्जती क� जाती ह पैर� तले कु चला जाता है ; घास का कसरू ये है �क वो जानवर� को �खलाने के �लए बनी है , इसी�लए उसक� बेइज्जती करने के �लए मुहावरे तक बना �दये गए ह� कोई �नकम्मा हो तो उसे कहते ह� वो घास छ�ल रहा है ; िजस �दन घास असहयोग आन्दोलन करेगी उगना बन्द कर देगी और लोग� को अपने �हस्से का खाना जानवर� को दे ना पड़ेगा अपने बच्च� को दूध �पलाने के �ल; प� ृ [ 154 ]
अम्, �ार और गीत उस �दन पता चलेगा सबको घास का महत्व उसी �दन बदलेगी लोग� क� सोच और स�दय� से चले आ रहे मुहावरे ।
प� ृ [ 155 ]
अम्, �ार और गीत
समा�
प� ृ [ 156 ]
अम्, �ार और गीत
प� ृ [ 157 ]