Pdf ebook goverdhan yadav ki kavitaye

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पीडीएफ़ ईबुक – रचनाकार.ऑर्ग की प्रस्ततु त

र्ोवर्गन यादव

की

कतवताएँ कतवता सग्रं ह : बचे हुए समय में मझ ु े साथ दो. मुझे

साथ

दो मेरे साथी

मुझे हाथ

दो मेरे साथी

मैं इस धरती पर स्वर्ग बसाउँ

मैं इस धरती पर रामराज्य लाउँ र्ा वे सर उठाये चले आ रहे हैं पशु से बदतर पाषाणी चले आ रहे हैं नजर

उठा के दे खो तो

सही

घटायें तम की घनी छा रही है साँसों मे घुटन बढती जा रही है साथ को साथ

दो मेरे साथी

साज पर आवाज दो मेरे साथी मैं इस धरती पर सय ू ग बनकर दमकु​ुंर्ा


मैं पाषाणी उनकी मोमों मे

ढल दुं र् ू ा

जजन्दर्ी से मौत दरू ककतनी

मौत से दरू ककतनी जजन्दर्ी

यही

कुछ

साुंसों

का

वही

कुछ

दरू है,

ना कक

दरू है

ससर्ग

कोरा क्रमसुंचय है

मुझको मुझको

ये

साुंसें दे

ये

दो साथी

साुंसें दे

दो साथी

मैं प्रचण्ड प्रलय बनकर र्रजूुंर्ा

मैं नस-नस में उनकी डर भर दुं र् ू ा ककतनी

ही होती है खुलकर

जब

भी आतीुं हैं कुछ ऎसी

जैसे

नीर क्षीर

समलकर

एक होते हैं

ककसी

ने आँचल थामा है

आज

ककसी

ने नजर उठाया है

उठती

नजर उठा

उठते

हाथ

साथ

दो

मझ ु े हाथ

दो

मेरे

खून

दो

साथ दो

दुं र् ू ा

दुं र् ू ा

साथी

मेरे साथी

मुझको उस हाथॊुं की जरुरत है मझ ु े

ही

मरोड ही

मुझकॊ उन हाथॊुं की जरुरत है मुझे

ऎसे

में एक दस ू रे

आज

मुझे

बातें रातें

मेरे

मेरे

साथी

साथी

बस अपना एक मुस्कुराना है पवन कह दो हर कली से कक वह तैयार रहे

घोर घमण्ड कर तूर्ान आने वाला है र्र्न में घोर काले बादल घघरे र्ें

कौन जाने कब,दासमनी-कासमनी का होर्ा नतगन कडक-कडक कर,चमक-चमक कर वे भरना चाहे र्ीुं डर नस-नस में पर इससे तुझे क्या ?

आती तो रहे र्ीुं हरदम घडडयाँ तम की और कभी समलेर्ा समसलन्द आसक्त रक्त का


खखल सर कुंटकों के बीच मुस्कुराना है

जजन्दर्ी में अपना बस,एक मुस्कुराना है

अब तम ु आयीुं

लहरों पर इठलाती बलखाती

धूप

बस ऐसे ही छा जाता तुम्हारा यौवन रुप कमलाकर को पाकर

जैसे खखल पडा कमल याद आते ही बस हुं स पक्षक्षयों का ककल्लोल

पडा

ददल


ररझाने वाले

र्ाने

लर्ता रह-रह

कर

दे रही मुझको

ताने

मुंथर र्घत से चलती इठलाती मदमाती पुरवाई

लहरों पर इठ्लाती बलखाती लर्ता अब तुम आयीुं

बेचन ै ी ने दल ु राया

जब मैनें तुम्हें

पहली बार दे खा

था

ददल में मीठा ददग दबाये

घनत दे खा करता था सपने न

जाने ककतनी ही बार

बेचैनी ने दल ु राया

था

धडकने हुई कई बार तेज अभी तक नहीुं जान पाया था लर्ी ददल की बढती रही साुंसें बर्ग सी जमती रहीुं

स्वपन मेरे सजाने आय़ी हो तो,द्वार पर क्यों खडी रह र्ईं


जजन्दर्ी भी मस् ु कुरा दे र्ी प्रीत

के र्ीत मुझे दे दो

तो,मैं उम्र भर र्ाता रहूँ प्रीत ही मुझे दे दो तो

मैं जजन्दर्ी भर सुंवारता रहूँ जब मैं तुम्हारी सरहद में आया था

याद करुं तो कुछ याद न आया था एक अजब खामोशी व खम ु ारी जो मुझ पर अब तक खामोशी के राज मुझे दे दो

कक मैं चैन की बुंसी बजाता रहूँ

छाये

थी है


र्ीत नये-नये र्ाता

रहूँ र्ीत नये-नये र्ुनर्ुनाता रहूँ तुम तभी जब

से

अपने हो

चाुंद तारे भी

न थे

ये जमीुं आसमान भी न थे तुम तभी से साथ हमारे थे र्ीतों के बदले जजन्दर्ी भी माुंर् लोर्ी तो मुझे तघनक भी र्म न क्योंकक मुझे

मालम ु

है

रहे र्ा कक

र्ीतॊुं के बहाने नयी जजन्दर्ी लेकर तुम

द्वार मेरे जरुर

आओर्ी

अधरों पर सलख दो इन अधरों पर सलख दो एक सुहाना सा

नाम

हो ना जाये अनबबहायी पीडा ………….

बदनाम

सपनॊुं ने नयनों को नीर ही ददया है चुंदा ने चकोरी कॊ पीर ही ददया है वेदना है मीरा तो मरहम है श्याम

इन अधरों पर सलख दो सुन्दर सा

एक

नाम


दे खेंर्ी अलसाई रत जर्ी अखखयाुं

भुनसारे पनघट पर छे डेंर्ी सखखयाुं बार-बार पूछेर्ी सजना का

नाम

इन अधरों पर सलख दो सुहाना सा

एक नाम

पर्-पर् दीप जलाये हैं पर्-पर्

दीप

जलाये

हैं

किर भी ठोकर खा ही जाती हूँ ये पैंजन सारे की सारे भेद पल भर में खोल जाते हैं कहा कक न

कई है बार नटवर से इतनी छे डा

कक मैं हो

‘ कासलुंदी न

जा

के

तट

रात

कर तान

बीते

अपनी

जाऊँ अधीर बावली

पर

ककस झुरमुट में

घछपकर करते आँख समचौनी मालुम ककतनी व्याकुल होती हूँ मैं और भर आते नयना पलभर में किर चुपके - चुपके

आकर


मुझको वे बाुंहो

में भर लेते

सहमी-सहमी सी रह जाती मैं सारा बाँहों

के

बुंधन

की

सारा र्ुस्सा पीकर

का सुख

ककतना प्यारा-प्यारा तू, क्या जाने पहरे

बीत

और मन ही ककतनी

जाती पल मन

में

रह जातीुं

ही सारी

बातें

सखी-य़े दीपावसलयाँ न जाने

ककतना

ककतनी

प्यारी-प्यारी

तम हर लेती हैं

ऎसे ही उस नटवर की मधरु स्मघृ त

ककतने अलौककक स्वपन ददखा जाती है किर समझ नहीुं मुझको ये पडता है

ये जर् मुझे क्यों बावरी-बावरी कहता है

जल जल दीप जलाए सारी रात जल जल

दीप

जलाये सारी

रात

हर र्सलयाँ सूनी सूनी हर छोर अटाटूप अुंधेरा भटक न जाये पथ

में

आने वाला हमराही मेरा

झल ु स- झल ु स

दीप जलाये

घटायें जब घघर-घघर आती मेरा

मन

है

घबराता

हा-ददखता नहीुं कोई सहारा

सारी

रात


क्षक्षजततज मे

आँख लर्ाये

हर क्षण तेरी इन्तजारी में

सससक-सससक

दीप

जलाये सारी

रात

आशाओ की पी पीकर खाली प्याली ये

जर् जीवन

रीता

है

ये जीवन बोझ कटीला है

राहों के शूल कटीले

है

घतस पर यह चलता दम भरतता है

तडर्

तडफ़्र

दीप

जलाये

सारी रात

लौ ही दीपक का जीवन स्नेह में ही जस्थर जीवन

बुझने को होती है रह रह

घतस पर आँधी शोर मचाती

एक दरस को अखखुंयाुं अकुलाती

जल जल

दीपक माटी

दीप जलाये

का तुम हो सोने की वादटका

तो मैं हूँ नन्हा दीपक माटी का तम ु प्रभात के साथ समल

अलख जर्ाने आयी हो जजसके रव में

कोई

कवव रोता है या हुं सता है मेरा

अस्ताचल

का साथ

मानो भारी घनद्रा लाया जजसका आँखों

कण कण में

आुंजे

है

भी सोता है

सारी

रात


दघु नयाुं भी ककतनी बौराई है या

किर कोई पार्लपन

है

कोई कहता समट्टी सोना हो र्या कोई कहता सोना समट्टी हो र्या

यदद ये अन्तर एकाकी हो जाये तो दघु नयाुं घनववगकार हो

जाये

क्यों कर मेरा आँर्न महक र्या है अचानक युंूदह तम ु से

हुई भें ट थी अनायास ही ये अखखयाुं समल लाचार हुई थी

अल्हड यौवन क्यों कर कुछ खोया खोया सा है और चुंचलता क्योंकर र्हरी चुप्पी साधे

है

क्यों कर तुम तभी से मुझे याद आ रहे हो


क्योंकर तभी से

यह

एक नया पररवतगन है अज्ञातभय से काुंप उठे थे हाथ मेरे जब मैने छे डा वीणा नवीना को था एक

नया

स्वर पाया था

जजसे न चाहकर भी पाया था क्योंकर अलसाये सपनो

ने

अब रोम-रोम मेरे

र्ीत तुम्हारे र्ुनर्न ु ाने लर्े है

ली अब एक नई अुंर्डाई है बदल बदलकर रप घनत नये मन को मेरे र्ुदर्ुदाने लर्े है

क्यों कर सपने मेरे बहक बहक र्ये है

बार् की हर डाली डाली झूल र्ई यौवन के भार से

समलकर इनसे पवन झकोंरा एक नई र्ुवाुंर बाुंट रहा

क्योंकर मेरा आँर्न महक महक र्या है

छोटा सा सुंदेश जा उड जा रे उस ओर जहाँ मेरे साुंवररया रहते हैं जो हरदम मेरे उर में बसते हैं लेकर ये छोटा सा सन्दे श कक बबना तुम्हारे लर्ता जीवन सूना-सूना

आ मैं तुमको उनकी पहचान बताऊँ साुंवरी-साुंवरी सी सूरत होर्ी ख्यालों में डूबे-डूबे से होंर्े


कुछ खोये-खोये से रहते होंर्े

रो-रोकर ये अुंखखयाुं

न जाने ककतनी लाचार हुई हैं अरमाुं ककतने लाचार हुये है

रुं र्महल बन र्या धूसर कदटुंला हा-तुझको ये कैसे बतलाऊुं

ये माना तुम शाुंघत के पररचायक हो एक काम मेरा छोटा सा ये करना

मन के मीत अर्र समल जाये,तो कहना बबना तुम्हारे लर्ता ये जीवन सूना-सू

कल तक मैने जो स्वप्न सुंजोये थे घनस ददन मुझसे पछ ू ा करते हैं

ददल नहीुं कहता,पर मन का सन्दे ह दरू जाकर क्या वे मुझको भूल र्ये होंर्े या उनको भी मेरी सुधध आती होर्ी

" जीवन- मरण" का प्रश्न होर्ा

जो तुम लेकर आओर्े सन्दे श

बस पाने को एक छोटी सी पाती बैठी रहूँर्ी,राहों में अखखयाँ छाती

कैसे र्ाऊँ और र्वाऊँ रे तुम कहते हो र्ीत सुनाओ

तो, कैसे र्ाऊँ और र्वाऊँ रे मेरे दहरदा पीर जर्ी है तो, कैसे र्ाऊँ और र्वाऊँ रे

आशाऒ ुं की पी-पीकर खाली प्याली मैं बुंद ू -बुंद ू को तरसा हूँ उम्मीदॊुं का सेहरा बाुंधे मैं द्वार-द्वार भटका हूँ

तुम कहते हो राह बताऊँ


तो कैसे राह बताऊँ रे मन एक व्यथा जार्ी है कैसे हमराही बन जाऊँ रे रुं र्ो-रुं र् में रुं र्ी घनय़घत नटी क्या-क्या दृष्य ददखाती है पातों की हर थरकन पर मदमाती-मस्ताती है तुम कहते हो रास रचाऊँ

तो,कैसे नाचँू और नचाऊँ रे मन मयूर ववरहा रुं जजत है कैसे नाचुंू और नचाऊुं रे

ददन दन ू ी साुंस बाुंटता सपन रात दे आया हूँ

मन में थोडी आुंस बची है तन में थोडी साुंस बची है

घतस पर तुमने सुरसभ माुंर्ी तो,कैसे-कैसे मैं बबखराऊँ रे

तुम कहते हो र्ीत सुनाऊँ

तो कैसे र्ाऊँ और र्वाऊँ रे

छ्लक रहा रुं र् लाल-लाल आकाश के भट्टे मे लर्ाई आर् लाल-लाल जजसमें ईंधन झोंक ददया,र्ोल-र्ोल लाल-लाल कढाहे में उबल रहा, छ्लक्र रहा

लाल-लाल

छलक रहा लाल-लाल,टपक रहा लाल-लाल टपक रहा लाल-लाल, जजसे

हमने

सूखे से पेड पर

तुमने कहा,टे सू

लाल-लाल


झर रहे टे सू लाल-लाल , हवा के मस्त झोंकों पर झर रहे टे सू लाल-लाल, हो र्ई परत बाुंसुरी बजाता

नुंदलाल, नाच रहे

लाल-लाल

ग्वाल-बाल

नाच रहे ग्वाल-बाल, घोला

रुं र्

लाल-लाल

भर-भर मारी वपचकारी,कर ददयो चीर लाल-लाल

कर ददयो चीर लाल-लाल, हो र्ये सब लाल-लाल

भर- भर मारा है जब रुं र् लाल , लाल र्ल ु ाल छा र्या रुं र् लाल-लाल,छा नाच रहीुं र्ोवपयाँ

र्ई धुंध ु लाल-लाल

बेहाल, नाच रहे

प्रीत के छुं द अधर पर खखले प्रीत

के

छुं द

मुस्कान बनकर सजन अब कौन सी व्यथा

मन

की

बेचैन हो रह र्ई मौन पलकों की सेज पर

नुंद के लाल


महक

उठे

एक याद

सपने बनकर सजन टीस

अब कौन

रह

र्ई

र्लहार

बनकर

घटायें सावन की पलकॊुं मे ससमट रह र्ई मूक

बनकर सजन अब कौन सी व्यथा

रह

प्यास

र्ई

बनकर

अलकॊुं मे बाुंधकर मलयज हौले से शुन्य अब सुंसार हुआ सजन अब कौन हार हार

कर रह र्ई

कण्ठहार

कपसीले काुंधो

बनकर

बादल

पर वववशताओुं का बोझ

हथेली से धचपकी-

बेदहसाब बदनाम डडधियाुं ददल पर आशुंकाओुं-कुशुंकाओुं केरें र्ते जहरीले नार् घनस्तेज घनर्ाहें

पीले पके आम की तरह लटकी सूरतें


और सूखी हड्डडयों के ढाचों केर्मलों मे बोई र्ईं

आशाओुं की नयी-नयी कलमें और पाँच हाथ के

कच्चे धार्े मे लटके-झूलते कपसीले बादल

जो आश्वासनों की बौझार कर

तासलयों की र्डर्डाहट के बाद किर एक लुंबे अरसे के सलये र्ायब हो जाते हैं और कल्पनाओुं का कल्पतरु र्लने-र्ूलने के पहले ही ठूुंठ

होकर रह जाता है

मैं अपना ईमान नहीुं बेचर् ूुं ा पथ पर धर्रकर चाहे कुचला जाऊुं

पर अपना ईमाननहीुं बेचु​ुंर्ा

धड से कट कर चाहे शीश

धर्रे

पर अपना ईमान नहीुं बेचु​ुंर्ा

अपने ही जन


स्वाथगससविवश पर्-पर् पर र्हरे र्ड्डे खोद रहे

दबकर मर जाना चाहु​ुंर्ा पर अपना ईमान नहीुं बेचु​ुंर्ा ये धरती राम रहीम की है ये धरती र्ाुंधी की है ये धरती उन वीरॊुं की है जजनके रक्त से ससुंधचत आज खडा आजादी का पौधा है आज के सभकमुंर्े

अपनी पूजा करवाना चाहें

धड से कट कर चाहे भुजा धर्रे आज के सभकमुंर्े

अपनी पूजा करवाना चाहें

धड से कट कर चाहे भुजा धर्रे पर मैं अपने हाथ नहीुं जोडु​ुंर्ा मैं अपना ईमान नहीुं बेचु​ुंर्ा हर र्ली-र्ली चौराहों

पर

पाखजण्डयों के अड्डे हैं चाुंदी के चन्द ससक्कों पर खरीद रहे ईमान खडे मुदाग काया

चाहे बबक जाय ये नकली पुतले पर अपना इमान नहीुं बेचु​ुंर्ा

ददल के काले तन के उजले


ववषधर बन कर चाहे लाख र्न पटके तडर्-तडर् मर जाना चाहु​ुंर्ा पर अपना ईमान नहीुं बेचु​ुंर्ा ये धरती राम रहीम की है ये धरती र्ाुंधी की है

ये धरती उन वीरॊुं की है जजनके रक्त से ससुंधचत आज खडा आजादी का पौधा है आज के सभकमुंर्े

अपनी पज ू ा करवाना चाहें

धड से कट कर चाहे भुजा धर्रे आज के सभकमुंर्े

अपनी पूजा करवाना चाहें

धड से कट कर चाहे भुजा धर्रे पर मैं अपने हाथ नहीुं जोडु​ुंर्ा मैं अपना ईमान नहीुं बेचु​ुंर्ा

अपनी माटी का धरती

क्या होर्ा. पर पलने वाला

धरती पर र्लने वाला

मानव कुछ सोच रहा

बैठ र्रुरी के झोंकों पर

अपनी माटी को भूल रहा खबर नहीुं है उसको

अपनेपन की,जनधन की ओ-आसमाुं

पर,

सम्पाघत

सा

ऊँचा

उडने

वालों

र्र तुमने सोचा होता, अपने कोमल पुंखों का क्या होर्ा ? हर र्ली-र्ली चौराहों पर पाखुंडडयों के अड्डे

हैं

तन - मन लीलाम हो रहा


चाुंदी

के चुंद ससक्कों पर

अब स्टे जों तक शेष

रही

अब आम सभाओुं तक शेष रही मानव से मानवता की चचागएुं ओ

मानवता

के

भक्षक

बनने

वालों

र्र तुमने सोचा होता, र्ाुंधी के सपनों का क्या होर्ा? हाट बाट में बबकने वाली राम प्रघतमाएुं हमने

तुमने लाख खरीदीुं होर्ी

कुंठी माला लेकर हमने तुमने लाख दआ ु एुं बाुंटी होर्ी

केवल शब्दों ही शब्दों में हमने जी भर राम रमाया

न बदली काया, ब बदली माया ओ

दानव

से

मानव

बनने

वालों

र्र तम ु ने सोचा होता, राम की मयागदा का क्या होर्ा? हर सुबह हर शाम

केवल धचुंताओुं का घेरा है कब ककसको बरबाद

करे

कब ककसको आबाद करे

और केवल ,बस केवल ,अपनी ही प्रभुता का बखान करे

और दानवता का माटी में दुं भ भरे रे , अपनी

माटी

को दम्भ

ददखाने

वालों

र्र तुमने सोचा होता, अपनी इस माटी का क्या होर्ा?

तम ु तम ु मेरे उद्बोधन के झील ककनारे

र्म ु सम ु -र्म ु सम ु सीबैठी-बैठी

िूलों के पाखों से

कोमल-कोमल हाथॊुं से मेरे जीवन- घट में

घोल रही हॊ सम्मोहन हे , दे हलता सी तरु बाला


बोलोतोडो-

बोलो

तोडो

तुम कौन

हे

मौन

धचरकाल काल से साध रहा हूँ अपने अुंतर तल में बैठा-बैठा

अपने तल को माप रहा हूँ ककससलत अरमानों के आँचल मेसलपटी-सलपटी तुम

क्यों मन के अवर्ठ ु​ुं न को सौरभ से सोख रही हो

हे कुंचन सी कचनार कासमनी

घनवगसना कुससु मतभावनाओुं

बोलो-

बोलो

तोडो-

तोडो

तुम हे

कौन ? मौन

की-

मुंथरर्घत में बहकर

मैं ददर्ुंत को माप रहा हूँ जीवन की कडडयों सेकडडयाँ जोड रहा हूँ तुम असभलससतशुष्क अधरों से

प्रीघत के रस घोल रही हो

हे कुन्दन सी रतनार कासमनी बोलो...बोलो

तोडॊ .... तोडॊ

पाँखरु ी र्ल ु ाब की मेरा भी एक बार् था बार् मे एक र्ुलाब था लाल-लाल वो,लाल था

मेरे चमन का ताज था दे श का वह र्ुमान था वो

जवाहरलाल

था

जजस पर हमें नाज था ऎसा वो र्ुलाब

था

तुम हे

कौन

मौन


एक घटा थी उमड र्ई एक प्रलय जर्ा वक्त

र्ई

भी मचल र्या

मौत ने अधर धरे होंठ पर र्ुलाब के चम ू - चम ू वो र्ई झूम-झूम वो र्ई बार् के र्ुलाब

से

लौट के जब आया होश था वक्त को

ससहर-ससहर वो र्या काुंप-काुंप वो र्या एक घटा थी थम र्ई दहम सी वो जम र्ई रुदन- चीतकार था नयन थे भरे -भरे

मौत के डरे -डरे हुये कैसा ये र्ुबार था कैसा ये उतार था कैसा ये मोड था चमन-चमन उजड र्या बार्वाुं कर्सल र्या मौत की ढलान से कैसा ये खेल था कैसा ये मेल था वक्त है कर्सल रहा और एक ढलान पर सोच और कुछ रहा चल और कुछ रहा पाँख-पाँख झर र्ई


शाख-शाख झुक र्ई पात-पात झर र्ई

लाल एक र्ुलाब की कैसा ये र्ुमान था कैसा ये ख्याल था धर्रे जहाँ-जहाँ भी कतरा-ए र्ुलाब

के

जार्-जार् है र्ई अनुंत में बहार की महक-महक है र्ई ददर्न्त मे र्ुलाब की एक र्ूल में थी समायी एक शजक्त ब्रम्ह की

उस शजक्त को प्रणाम है उस रतनर्भाग को प्रणाम है उस दे वदत ू को प्रणाम है आज भी महक रही-

लाल पाँखुडी र्ुलाब की

प्रीत के अधर पर खखले प्रीत के छुं द न बन पाये मुखररत मुस्कान न जाने व्यथा कौन सी दबी उठी बेचैन रह र्ई मौन

सेज पर पलकों की झलके सजीले स्वपन घनपट अनजान समली मुझे आह के साथ टीस

र्लहार बन र्ई मौन


घटायें सावन की उमडी ससमट आई पलकों की कोर न जाने धचर अतजृ प्त की प्यास र्ले कॊ रुंध रही है कौन ?

अलस कुन्तल में मलयज की र्ुंध का वास नहीुं समलता चरु ा कर ले र्या कौन ?

बताता नहीुं,रहता है मौन उम्र भर रही जजससे अन्जान पररधचता बन बैठी है कौन ?

लाुंघ र्ई धूप यौवन की दे हलीज लाुंघ र्ई धप ू डाली से टूट

बबखर र्ये र्ूल

सपनॊुं की अमराई नहीुं बौरायापन मस्ताती कोककला

यौवन की दे हलीज लाुंघ र्ई धूप

राह र्ई भूल

सूनी प्यालों की र्हराई


रीते पलकों के पैमाने सससक रही मधुबाला पीकर आँसू खारे

कुंर्न की खनकार हो र्ईं अथगहीन पाुंव बुंधी पायल हो र्ई मौन यौवन की दे हलीज लाुंघ र्ई धूप

न जाने ककतनी है बाकी जीवन में और साुंसे और न जाने ककतनी भरनी है यु​ुंदह आहें थम र्ये पाँव थम र्ई छाुंव उमर की ढलान लर्ा र्ई दाुंव

यौवन की दहलीज लाुंघ

र्ई धूप

दीप र्ीत सखी री......... एक दीप बारना तुम उस दीप के नाम

जजस दीप के सहारे

हम सारे दीप जले हैं सखी री........ सखी री.. दज ू ो दीप बाररयो तुम


उस दीप के नाम जजस दीप के सहारे हम जर् दे खती हैं

सखी री........

सखी री..... तीजॊ दीप बाररयो तुम उस माटी के नाम जजस माटी से बनो है ये दीुंप सखी री....... सखी री..... चौथो दीप बाररयो तुम उन दीपों के नाम

जो तूर्ानों से टकरा र्ये थे और बुझकर भी

भर र्ये जर् में अनधर्नत दीपों का उजयारा सखी री........ श्रीमती शकुन्तला यादव

अपना ववश्वास नहीुं क्या

मुझ

पर अपना

ही

ववश्वास नहीुं ?

जो केवल ,केवल सपना था आज वह केवल अपना है अब तक थीुं तुम आँखों की परछाई हो अब मेरे धडकन की तरुणाई क्या

यह

अपना

एक नया इघतहास नहीुं ?

भरती साुंसों साुंसॊुं में प्राण तेरी ये मादक मुस्कान मदहोश हो उठा

पाकर


मैं, तेरा वह सुन्दर प्यार क्या

यह "आप" का

वरदान

हुं सों के पुंखों से भी कोमल

नहीुं

?

आँखों की कजराई कोमल ककतना नशा इन वासुंती अुंर्ों में अब

खखली अरुणाई मानो उदयाचल में

अपने को

अपना

ही

होश

नहीुं

खब ू सुरा पी है मैंने

भरकर इन प्यालों से बबुंधा चक ु ा है असल

अपने को इन पाुंसों से मेरे सुख की मादकता

खडी द्वार पर आज अचानक कैसे? समलन प्रहर के इस क्षण को पाने में मैने तन के ककतने उतपात सहे? क्या

मुझ

पर अब

भी

ववश्वास नहीुं ?

लर्न मीत का दीप जलाओ लर्न मीत का दीप जलाओ तो मैं द्वार तुम्हारे

आऊुं

मैं मौसम बन छा जाता हूँ हर र्ूल लदी डाली पर तुम अपलक दे खतीुं दरू

तुम सपनों

का

मधुमास

क्षक्षघतज

रचाओ

तो मैं मधुप बन, र्ली तुम्हारे आऊुं

रहीुं

पर !


बात कभी चली तो याद कर सलया रप कभी बहका तो पलकों में आुंज सलया कभी बदसलयाुं रुकी-रुकी सी तो मेह सा बरसा ददया तुम तो

यादों मैं

की

जुंजीर

बुंधा-बुंधा

चला

यह

बनाओ आऊुं

कम सच भी

नहीुं

कक मैं नन्हा दीपक माटी का यह उतना ही सच सही कक तुम हो सोने की वादटका

इस इस अन्तरतम को दरू हटाओ तो

मैं द्वार

तुम्हारे

आऊुं

याद तुम्हारी आय़ी जब - जब याद तुम्हारी

आयी

बरबस ही ये नयना भर-भर आये छत की मु​ुंडरे से

दरू उठती र्ोधुली

लाज की मारी ऊषा लाली सी घछतराती लर्ता बरबस

अब तुम आयीुं,तब तुम आयी ही

ख्वाबों

की

लहराई


डाल

पर अमुआ

र्डर्डाने मन के

के

की आवाज

सोये तुंतु

में

किर एक ककरण अलसाई जब

भी तुम्हारे रप के बादल छाये

बरबस ही

ये

नयना भर-भर आये

बाुंध लो इस प्यार को ककतनी मादक और सजीली इन होठों की लाली

ककतनी प्यारी-हे आली रच लो इनको अब वपया मनभावन आवन को वरना ये बहकता-बहकता नवरुं र् सा बबखर जायेर्ा. ककतना नशीला


ककतना मदमाता तुम्हारा ये यौवन रप लर्ती सुहावनी सावन सी धूप

साज लो इसको थाम लो इनको वरना ये मचलता-मचलता ददर्न्त में बबखर जायेर्ा ककतनी भयानक और शाुंत भी छा जाती है तम की हाला

कक बस सुंभव है ज्योघत-ज्वाला ? बाुंध लो इस प्यार को मन के धार्ों से वरना ये बबखरता-बबखरता बाजार हो जायेर्ा.

प्रघतमा पाषाणी आशाओुं के दीप जलाये मैं आया हूँ इस द्वारे चोला बदल-बदल कर पर तुम को कुछ भी याद नहीुं?

अपनी पूजा का आराध्यतुम्हीुं को माना है मैंने अपने जीवन का सार

ओ !पाषाणी प्रघतमा जडता की आधारसशला अरमानों के पुष्पों को

अश्कॊुं के तारो में र्ँथ ू

र्ल्हार पहनाये थे तुमको

तुम्हीुं को जाना है मैंने


पर ओ पाषाणी प्रघतमा खूब सुना है मैंने

तुमको कुछ भी याद नहीुं !

तेरे घर दॆ र अवश्य है पर अुंधेर नहीुं है इसी वास्ते तेरे द्वारे ठहरा हूँ अब रीत चुकेआशाओुं के प्याले अब सूख चुके-

अश्कों के लहराते सार्र पर ओ पाषाणी प्रघतमा ककसी और के अब

हुआ न हलचल अब भी तुझमें

जाकर द्वार खटखटाऊँ ये ना होर्ा

मुझसे

बची-कुची साुंसॊुं के मनसब

अब इसी द्वारे छोडा जाता हूँ अरे ! आराध्य तुम्हीुं को माना है

अपना

मैंने

आज नहीुं तो,कल अवश्य ही आऊँर्ा किर इसी द्वार

पूरी होर्ी मेरी सर्ल आराधना

मैं चोला बदल-बदलकर ओ ! पाषाणी प्रघतमा जडता की आधारसशला

नदी के डैश-डाट अशाुंत मन लेकर जब मैं-

ककसी नदी के तट पर जाता हूँ तो लहरों का नतगन र्ुदर्ुदा स्प्ष

और कलरव सुनकर

मेरा भी जी चाहता है

कक दो-चार कववता सलख डालूुं


नदी की कलकल की घनरन्तर आती आवाज को सुनकर सहसा ध्यान

दफ़्तर में लर्ेसाउन्डर की तरर् जाता है जजससे लर्ातारडैश-डाट , डैश-डाट-

घनरन्तर बजता रहता है इसका मतलब तो हम प्रायः सभीघनकाल लेते हैं लेककन नदी के साउन्डर से घनकलतीकल-कल की ध्वघन का मतलब हम केवल अपनी समझ से

घनकाल पाते हैं ,अलर्-अलर् जजसका कोई वर्ीकरण नहीुं होता और न ही इसका कोई मैसेन्जर खबर लेकर द्वार-द्वार भटकता है

लर्ता है लर्ता है आज तुम बहुत अल्हड रहे

जी

सहे

भर

उदास

हो

सुंददली बयार के झोंको ने मन

के

के

सुंयम

उडाया

है

को

आज

लर्ता है आज मन कहीुं खोया-खोया सा है बेखबर से न

जोडा

बबखरे - बबखरे ये केशकुंु तल

र्या

आज

घनखरा

र्ुलाब


लर्ता ककसी घनष्ठुर सपन ने तोडा है मन लर्ता है ककससलत अरमानों को लर्

र्ई पतझर की नजर है

मन-प्राण

क्यों ववकल

क्योंकर छूट आओ भी तेरे

बेचैन

है

जाती है धीरज की डोर

मेरे सपनों की ठुं डी छाुंव तले

मेरे

सपने

शायद एक

रुं र् हैं

लर्ता है सचमुच तुम आज बहुत उदास

समाजवाद मुंथन दे व और दानवों नेमथा सार्र

व्यथग ही वपसता रहा वासुकक समला क्या ?

शाुंघत-शाुंघत की-

चलती रही चख-चख र्ायदा उठाया शेषशायी ने अपना और दे वर्ण का कराया आज इसी क्रम में हो रहा

समाजवाद मुंथन मस्का घनजश्चत ही-

हो


वररष्ठ पायेंर्ें

कुछ चमचे चाट जायेर्ें

मठा, समाज के नाम चढाकर

र्रीबी हटाओ र्रीबी हठाओ केवल दो शब्द और छ्ह अक्षर मर्र कैसे

?

कोरे भाषणॊुं से नहीुं कोरे प्रचारों से नहीुं केवल दहलसमलकर हम उिम -साहस -धैयग -बुवि-शजक्त और पराक्रम इन छः ददव्यास्रों को अपने हाथॊुं में लेकर सभी छ्ह राक्षसों को पलभर में मार सकेर्ें

इनकी नाभी में अमत ृ कुंु ड है ?

तो यह हमारा कोरा भ्रम होर्ा.

र्रीबी इनकी नजरों में नेता:- " र्रीबी हटाओ

इस ददशा में हमें बहुत कुछ प्रयास करना बाकी है शायद ,र्रीब र्स्ट र्रीबी आफ़्टरवडगस"

डॉक्टर

" र्रीबी कोई खास मजग नहीुं लेककन इसकी दवा माकेट मे उपलब्ध नहीुं"


मनोवैग्यघनक - "र्रीबी एक छूत की बबमारी

खासकर इससे परे शान है दौलतमुंद " व्यापारी

" र्रीबी एक भद्दा सा शब्द

जो मेरी डडक्शनरी में नहीुं " इजन्जनीयर

" एक लुंबी खाई जजस पर पल ु नहीुं बन सकता "

ससिाुंतवादी

" खटमल खाट छोडने पर वववश है और हम है कक नीुंद खुलती नहीुं "

अवसरवादी

"लाडा मरे चाहे लाडी

पाल रहे नार्राज हम असर्ल प्रयतन करने केआदी हो र्ये हैं

अच्छी से अच्छी लच्छे दार बातें करने मेंमादहर हो र्ये हैं कोई

हमारी सुने या न सुने

हम सुनाने के शौककन हो र्ये हैं

आसन, आश्वासन,भाषण, अनुमोदन


अब

हमारी पररपाटी हो र्ई है

कुछ ददनों से चरागया है शौक हमनें अपने ही आुंर्न में बना डाली है बाुंबी

और पाल रहे नार्राज बस केवल एक कमी है उसमें वह हमें दे खकर र्ुंु सकारता है

पर हमारा भी अटल ववश्वास है एक न एक ददन तो वह मान ही जायेर्ा इसीसलये हमनें उस काघतल कोरोज दध ू वपलाने की ठान ली है

धमग पररवतगन एक ददन समाजवाद मुंच पर खडा

र्रीब पक्ष काजमकर समथगन कर रहा था


शायद वह रामराज्य लाने के चक्कर में था जनता ने उसे खूब उछाला उसे र्ले से लर्ाया

यहाँ तक उसके पैर भी पडे

दस ू रे ददन एक दमदार नेता ने उसे दावत पर बुलाया स्काच वपलाया

और मुर्गमुस्सलम भी खखलाया

तीसरे ददन दे श के सभी समाचार परों ने बडे-बडे अक्षरों मे खबर प्रकासशत की कक, समाजवाद ने -

अपना धमग पररवतगन कर सलया है

मेरा जीवन केवल-

मुठ्ठी भर-

उजाला ही तो मेरे पास है यदद वह मैं तुम्हें दे दँ ू

तो मैं कहीुं का नही रहूर् ँ ा नहीुं नहीुं, -


यह क्दावप नहीुं हो सकता कभी नहीुं हो सकता उसके एक-एक शब्द

मुझे अक्षरतः याद है

प्रघतशोध की ज्वालामुझे बार-बार उकसाती है कक मैं उसका मुँह नोच लूुं

पर मैं उसका कुछ भीबबर्ाड नहीुं पाता हूँ क्योंकक

उसकी बुंद मुठ्ठी में

सससक रहा होता है मेरा जीवन

प्रसव पीडा प्रसव पी​ी्डा की छटपटाहट के बाद जब एक कवव ने जन्म ददया एक कववता को

तो प्यार से उसका नाम रखा शाुंघत जब दस ू री को जन्म ददया तो नाम ददया काुंघत

और तीसरी को जन्म ददया तो नाम रखा


आकृघत

ठीक इसी तरह राजनीघत के साथ

र्ुंदी रघतक्रीडा करते हुये कुछ छै लों ने जन्म ददया अशाुंघत-ववकृघत-

इसी का दष्ु पररणाम है कक न जजये चैन है

और न मरे चैन है याने कक सब बेचैन हैं

तुम घनत नूतन ससुंर्ार करो कुंचन सी कचनार कासमनी कनक

प्रभा

सा

तेज

ऊषा आकर लाली मल दे चाँद सी बबुंददया माथे जड दे चमक

उठे र्ी

दे ह

सखी री ! तुम घनत नूतन ससुंर्ार करो ! जब -जब भी हैं र्ूल खखले जूडे से

वे है

मलयाचल जब आँचल से तो

महक

आन जुडे

मचल उठे

वह उलझ पडे उठे र्ी

दे ह


सखी री ! तुम घनत नूतन ससुंर्ार करो

!

घटायें काली घघर-घघर आये चातकपी-पी

मन

की

सुन

व्याकुल सखी

भरमाये

मन

टे र सखी घबराये

री ! तुम अब थामो धीरज डोर कसलुंदी के तट पर दे खो वपया बुंसी तोड

सखी सखी

लॊ

र्ये

खडे के

रहे

हैं

जौन

धन ु पर दे खो हैं

मौन

री ! तुम घनत नूतन असभसार करो री ! तुम घनत -नूतन

बादल उमड-उमड कर घुमड-घुमड कर

लॊ आ र्ये बादल नभ पर छा र्ये बादल हवाओुं ने की अर्वानी मयूर-पर् नाचे बेसानी

लचकती डासलयों ने ककया -झुककर असभवादन उमड-उमड कर घुमड-घुमड कर आ र्ये बादल

लो नभ पर छा र्ये बादल

ससुंर्ार करो!

!


प्यासे चातक में प्राण भरे याचक कृषक ने हाथ जोडे

दटन-दटन दटनदटना उठीुं

वष ृ भ की र्लहार घुंदटयाुं लो सरर्म बबखेरते आ र्ये बादल उमड-घुमड आ र्ये बादल

लो नभ पर छा र्ये बादल तपस की हवस ने थे वसुन्धरा के छीने प्राण अब वही बादल बन

अमत ृ की र्ुवाुंर बाुंट रहा स्वर्ग-धरा को जोड रहा बादल बन तार-तार आओ हम सब समलकर खूब मनायें बूदों का तयोहार नतगन करते र्जगन करते लो आ र्ये बादल

हस्ताक्ष

नभ पर छा र्ये बादल सख ू भी नहीुं पाये थे अभी सूखे के हस्ताक्षर

कक बाढ ने दनादन जड ददये चाुंटॆ

आदमी के र्ाल पर पता नहीुं इन दो पाटों के बीच कब तक वह अपनी

सूखी हड्डडयाँ वपसवाता जायेर्ा ? हम कोरे आश्वासनॊुं के ढे र पर बैठे हैं

वे हमारे ससर पर आसन सलये बैठे हैं वे घनत नये आसमाुं से बातें करते है और हम रोज रात में

सपनों के जाल बन ु ा करते हैं

इन दो अुंतरालों के बीच आदमी और ककतना धर्रता जायेर्ा ? पता नहीुं-पता नहीुं

कब वह

सडक पर चलना सीख पायेर्ा ?


अपने आुंर्न में उन्होनें लर्ा रखे हैं कल्पतरु

सुराघट भी सदा उनके पास रहता है मेनकादद अप्सरायें भी

चरणों में बैठा ककया करती हैं वे घनत नये पकवान उडाते हैं

और यहाँ सूखी रोटी भी नसीब नहीुं होती चाुंद सी ददखने वाली ये रोटी और ककतने दरू होती जायेर्ी पेट और रोटी कक दरू ी

और ककतनी बढती जायेर्ी ? वे यमन ु ा के ककनारे बैठे हैं

और र्ुंर्ा में पाप धोते हैं और हम केवल नाम सन ु कर

भवसार्र से पार उतरने की सोचते हैं पता नही यह बुंदरचाल कब तक चली जायेर्ी ? सुना है हमनें कक

उन्होने अपनी पीढी-दर-पीढी का कर सलया इुंतजाम है

और हम पैसॊुं -पैसॊुं के सलये दर-दर भटका ककये करते हैं

यदद माुंर्ने की जजद की तो बदले में समलती है र्ोसलयाँ

पता नहीुं आदमी कब तक

आर् और पानी पीता जायेर्ा ?

चुंदन सा एक नाम इन होठॊुं पर सलख दो एक सुहाना सा नाम मन की

ये पीडा

अब सही नहीुं जाये तन की

ये तपन

अब सही नहीुं जाये


दहकते

हुये बदन पर सलख दो, चुंदन सा एक नाम सखखयों के घेरे मुझको है छे डे नाम को तेरे

में हदी से जोडे हाुं, तन-मन पर सलख दो मेरे शीतल

सा

एक

नाम

इन होठॊुं पर सलख दो एक सुहाना सा

नाम

अपनों से लर्ने लर्े हो

दे खा

है हमने तुम्हें

सपनों की

र्ाँव में

पीपल की ठुं डी छाुंव में तभी से न जाने क्यों तुम अपनों से

लर्ने लर्े हो

सपने सजीले अब सजने लर्े हैं बदल-बदलकर मन को मेरे

घनत रप नए र्ुदर्ुदाने लर्े हैं


तभी से न जाने क्यों

मुझे

सपने अच्छे से लर्ने लर्े हैं

अल्हड यौवन कुछ खोया-खोया सा है और चुंचलता र्हरी चुप्पी

साधे

है

क्यों कर यह एक नया पररवतगन

है

तभी से न जाने क्यों मेरा मन र्ीत तुम्हारे र्ुनर्ुनाने लर्ा हैं

बार् की

हर डाली -डाली

झूल र्ई यौवन के भार से

समलकर इनसे पवन झकोंरा एक नयी

र्ुवाुंर बाँट रहा

तभी से न जाने क्यों

मेरा

आँर्न महक- महक र्या है

लो आ र्ए ददन बहार के

सपनों के बुनने

के

फ़ूलों को चुनने गीत

के

गुनगुनाने के

सलोने दिन

आ गये लो आ गए दिन मनुहार के

कललयों के मेले में फ़फ़र भी अकेले में वासंती गीत गाने के सतरं गी दिन आ गए


लो आ गए दिन बहार के फ़ागुनी दि्डॊलों में

झूलने को जी चाहे

बांध मलयज पावों मे उडने को जी चाहे लो आ गए दिन प्यार के रूप के लसंगार के हास के पररहास के रूठने मनाने

के

चमत्कारी दिन आ गए

लो आ गये दिन रुपहले संसार के

वाद

भारतीय यारी की प्रघतक्षा में एक यान ,अडा खडा था ककसे भेज,े ककसे न भेजे इसी उआपोह में मामला ठुं डे बस्ते मे पडा था एक नेता ने सोचा काश अर्र वहअुंतररक्ष में जा पाता तो चाँद ससतारों का वैभव नजदीक से दे ख पाता उसने अधीर होकर


अपने पी.ए को बुलाया

और अपना दख ु डा रो सुनाया "तुम्हीुं बताओ समर

जो भी इस अुंतररक्ष में जायेर्ा वह भला वहाँ क्या कर पायेर्ा जैसा जायेर्ा वैसा ही वावपस लौट आयेर्ा काश अर्र मैं जा पाता

तो चाँद ससतारों की हसीन वाददयों में कुछ वाद बो आता

वॆसे तो हमने इस धरती पर भाषावाद- जाघतवाद-प्राुंतवाद-अवसरवाद-र्ूटवाद और न जाने ककतने ही वादों को सर्लतापव ग पनपाया है ू क

किर मुझे चाँद-ससतारों से क्या लेना-दे ना

वे आज भी तुम्हारे हैं ,कल भी तुम्हारे रहे र्ें बस

मार एक ददली इच्छा थी कक

मैं चाँद ससतारों की बुंजर भूसम में कुछ नए वाद बो

आता

जीवन के शन् ु य जीवन के ये शुन्य-

क्या कभी भर पायेर्ें

ररसते घावों के जख्मक्या कभी भर पायेर्ें

ये आँसू कुछ ऎसे आँसू हैं

जो घनस ददन बहते ही जायेर्ें ददॊं से मेरा कुछररश्ता ही ऎसा है

ये बहते और बहते ही जायेर्े जीवन के ये शुन्य

क्या कभी भर पायेर्ें ? ररसते घावों के जख्म


आशाएुं केवल-

क्या कभी भर पायेर्ें ?

स्वपन जर्ाती हैं

पलकों की सीवपयों से जो वक्त-बेवक्त लुढक जाया करती है सपनों के राजमहल खण्डहर ही होते हैं

पल भर में बन जाया करते हैं और

पलभर में ढह जाया करते हैं आशाएुं क्या कभी सभी परू ी हो पाती हैं ? सपने सजीले सभी

क्या कभी सच हो पाते हैं ? ववश्वास सोने का मर् ृ है

आर्े-पीछे ,पीछे -आर्े दौडाय़ा करता है जीवन भर भटकाया करता है अशोक की छाया तो होती है किर भी

शोकाकुल कर जाता है

जीवन का यह ववश्वास क्या कभी जी पाता है ? जीवन के शुन्य

क्या कभी भर पाते हैं ? धन-माया सब मरीधचकाएुं हैं प्यास दर प्यास बढाया करती हैं रात तो रात ददन में भी


स्वपन ददखा जाती हैं न राम ही समल पाते हैं न माया ही समल पाती है

धन-दौलत-वैभव क्या सभी को रास आते हैं? जीवन के ये शुन्य

क्या कभी भर पाते हैं ? र्ूल खखलेर्ें

र्ुलशन-र्ुलशन

क्या कभी र्ल लर् पायेर्ें ? जीवन केवल ऊसर भसू म है शूल ही लर् पायेर्ें

पावों के तलुओुं को केवल

हँसते जख्म ही समल पायेर्ें

शूल कभी क्या

र्ूल बन खखल पायेर्ें ?

जीवन की उजाड बस्ती में क्या कभी वसुंत बौरा पायेर्ा ? जीवन एक लालसा है

वरना कब का मर जाता जीवन जीने

वाला

मर-मर कर आखखर जीने वाला मर ही जाता है पर, औरों के खाघतर जीनेवाला

न जाने ककतने जीवन जी जाता है और

अपना आलोक अखखल

ककतने ही शुन्यों में भर जाता है वरना ये शून्य,

शून्य ही रह जाते

ये रीते थे,रीते ही रह जाते जीवन के ये शून्य


कभी-कभी ही भर पाते है पावों के हुं सते जख्म कभी-कभी ही भर पाते हैं

आम्रमुंजरी की हाला *आम्र

मुंजरी

कोककला

की

पीकर हाला

तुझको ये कण्ठ समला है

र्ुदक-र्ुदक कर इस डाली से उस डाली तूने सम्मोहन

का जाल

अलसाई

बन ु ा

है

शरमायी कसलयों ने

अब अपना घु​ुंघट खोला है मुंदहास

मादक धचतवनयन से

असलयों को आमुंरण भेजा है

यौवन की र्र्री लादे कसलयाँ झीनी डाली पर डोल रही है पवन झकोरों के दहुंडॊलों पर

अपने उन्मादों को तौल रही हैं

आदमी

तमाम जजन्दर्ी चलता रहा आदमी अपनी ही लाश

ढोता रहा आदमी

शहर र्ुलों का ढूुंढता

रहा

आदमी

बेतरतीब ख्वाबॊुं को सजाता रहा आदमी होंठॊुं पर नकली मुस्कान ओढता रहा आदमी दे खने मे ककतना खुश नजर आता है आदमी पर सलहार्

मे

घुसकर रोता रहा आदमी

दघु नयाुं की तमाम खुसशयाँ पाने को आदमी

आदसमयों का काम तमाम करता रहा आदमी


धन - दौलत शोहरत पाने को आदमी आदसमयों के शहर जलाता रहा आदमी बदहवास यहाँ-वहाँ भार्ता रहा आदमी इन्साघनयत की दौड में हारता रहा आदमी अपने ही प्यादों से मात खाता रहा आदमी सच जाघनये ककतना बदनसीब

है आदमी

तमाम जजन्दर्ी चलता रहा आदमी अपनी ही लाश ढोता रहा

आदमी

शहर र्ुलॊुं के ढूुंढ्ता राहा

आदमी

और काुंटॊुं की नोक चलता रहा आदमी

हे दीपमासलके

हे दीपमासलकेजर्मर् कर दे

र्हन अर्म अुंधकार पथ को आलोककत कर दे हे दीपमासलके

जर्मर् कर दे रोज नया सूरज ऊर्े

किर भी पावन धरती ककरणों को तरसे


शोवषत-पीदढत जन नव -प्रकाश को तरसे हे दीपमासलके

अुंधधयारी कुदटयों को आलोककत कर दे घतल-घतल कर र्ला सूरज पजश्चम के भाल से

कासलख सी मल र्या उषा के र्ाल पर तल-अतल -ववतल जड- चेतन में तू

ककरणों का सार्र भर दे हे दीपमासलके जर्मर् जर् कर दे

सतरुं र्ी प्रकाश ककरणें सतरुं र्ी प्रकाश ककरणों का नव ववतान सा छाया सूरज चाुंद ससतारों का वैभव पथ्ृ वी ने कर्र पाया

सचमुच सकुधचत स्वर्ग बेचारा इस पावन धरती से हारा

ददया भें ट मे उसने जर् को

अनधर्नत ददपॊुं का उजयारा

आलोक मेरा नाम है ददन भर का थका हारा सूरज


रात भर सुसताता रहा

और बुनता रहा ककरणॊुं का जाल मैं मजृ ततका के दीप सा जलता रहा रात भर

पथ आलोककत करता रहा रात भर तो, जल जाना ही मेरा काम है आलोक मेरा नाम है आलोक मेरा नाम है

खोया बचपन

*सुबह से

राशन की लाइन में खडा बालक जब शाम को घर पहु​ुंचा तो उसकी माँ ने उसे पदहचानने से इुंकार कर ददया क्योंकक जब वह सुबह घर से चला था तो बच्चा था

दोपहर में वह जवान हुआ और साुंझ ढले जब वह लौटा तो बढ ू ा हो चक ु ा था.

*सडकों पर परररुं भन हो चौराहॊुं पर हो चीर हरण शैशव के तेरे ये ददन है

तो भरी जवानी में क्या होर्ा ?


मन तू उदास क्यों ? धरती का अुंधकार काुंप जाता है नव-प्रभात की नन्हीुं ककरणों से ददल और ददमाक रौशन हो जाते हैं जब ग्यान र्ूट पडता है

हे मन! कर्र तू उदास क्यों ? उठ सूरज सा जार् मन के सोये तुंतु

खुद-ब-खुद जार् जायेर्ें मुंजजल खुद् चलकर

कदमॊुं से सलपट जायेर्ी

अर्स्तय बन कर तो दे ख


ववुंध्याचल खुद सर झुकायेर्ा यह कलयुर् है

सतजुर् तो नहीुं

थोडा सा श्रम तो तू कर

घर-घर र्ुंर्ा बह सकती है

हे मेरे मन ! किर तू उदास क्यों ? सददयों से बुंद पडे हैं वेद पुराण के पन्ने बरसों से तरस रहे साकार होने को र्ाुंधी के सपने

सुंुदर सा एक र्ाुंव बसाकर

उन सपनों की बधर्या तू महका खसु शयों का सोना उर्ल तू रोज सुबह दे खेर्ा

हे मेरे मन ! किर तू उदास क्यों ?

वादा- नये वाद लाने का हमने र्ाुंधी के स्वणीम सपनों को उनकी रामराज्य की

ववशाल कल्पनाओुं को बुंदकर रखा है एक कब्र के माघनुंद राजघाट में

और घनत नये मुखौटे आकर र्ूलॊुं की बसल चढा जाते हैं

और दो समनट का मौन रखकर तघनक र्दग न झुका कर

मन ही मन कह जाते हैं बाप.ु ...हम शसमिंदा हैं तेरे उपदे शॊुं का


अमत ृ तुल्य वचनों से

इतनी ज्यादा बढ र्ई है र्ररष्ठता कक साुंस लेना भी दभ ू र हो र्या

चलकर आना तो बडी बात थी तनकर हो र्ै है तु​ुंबे सी तोंद खैर....

आज हम पन ु ः कसम खाते हैं कक तेरे सपनों को हम

हवा में युंूदह तैरने नहीुं दे र्ें वैसे तो हमने परू े दे श मे पीट ददया है डडुंडोरा

कक हमने, एक नहीुं अनेकों वादों को

इस भूसम मे पनपाया है जैसे प्रजावाद-दे शवाद

जाघतवाद,जनवाद-प्राुंतवाद अवसरवाद-र्ूटवाद

हम वादा करते हैं आपसे और भी नए-नए वाद लाने की

बचे हुये समय में आर्

-----------------------------------

पानी

बचे हुए समय मे मैं बचाकर रखना चाहता हूँ थोडी सी आर्

बचे हुए समय मे मैं बचा कर रखना चाहता हूँ थोडा सा पानी

ताकक कर सकुंू हवन

बजल्क एक समूची नदी

मन की अतल र्हराई तक

ताकक धो सकुंू


-जमा कचरा-कूडा

मैली कथडी और

जो र्ैलाती हैं ववद्वेष-घण ृ ा और नर्रत

उन तमाम

और भी उन तमाम चीजों को और घनखर सकुंू

दमक सकुंू तपकर

बुझा सकुंू प्यास आकुंठ प्यासे कुंठों की जो प्यासे थे

कुंु दन सा

वपछली कई सददयों से

हवा

समय

बचे हुए समय में मैं बचाकर रखना चाहता हूँ थोडी सी हवा

बचे हुए समय में से मैं चुराना चाहता हूँ

ताकक लोर् बचा सके

ताकक सुंवार सकूँ

अपने आप को घुटन से और ले सकें-

थोडा सा समय

जीवन उन सबका

जो समय की दौड से -

थोडी सी राहत भरी साुंस

कर ददए र्ये थे बाहर

जो सददयों पहले

और छोड ददए र्ए थे -

दबा ददये र्ये थे

तपते रे धर्स्थान में

भारी चट्टान के नीचे

घतल-घतल कर मरते रहने और घतल-घतल जलते रहने के सलये

अधरों पर सलख दो इन अधरों पर ललख िो चंिन सा

एक नाम

सपनो ने नैनों को नीर ही दिया है चंिा ने चकोरी कॊ पीर ही दिया है वेिना है मीरा तो मरहम है श्याम िे खेगीं अलसाई रत- जगी अंखखया​ाँ


भुनसारे

पूछेगी

पूछेगी हरिम श्वासों

की

साजन का

नाम

जोगन का रक्स रुकेगा

अम्बर का धरती पर शीश राधा है प्यासी

प्यार का पौधा

सखखया​ाँ

-

रुठा

झुकेगा

है श्याम

साथ रहना तुम्हें र्वाुंरा नहीुं और चाहती हो बचा रहे प्रेम बस

एक ही उपाय है कक तुम बन जाओ धरती

और मैं बन जाऊँ आकाश बाहें हमारी आपस में जुडी रहेर्ीुं और बना रहे र्ा अुंतर भी शायद इस तरह जीववत बचा रह सकेर्ा प्यार का पौधा

एक लडकी एक लडकी बडे भुनसारे जार् जाती है जार्ने के साथ ही

चौका-बासन, झाडू-पोंछा कर नहाती है और बेलती है रोदटयाँ

और घनपटाती जाती है वे सारे काम जो ववमाता द्वारा बतलाये जाते हैं

उसे दे ना पडता है दो-चार कप प्याली चाय तब जाकर वह छोड पाती है बबस्तर ददन के ग्यारह बजते-बजते ककताबों के र्ठ्ठर का बोझ और ददल और ददमाक मे तनावों को लादे स्कूल के सलये घनकल पडती है

रास्ते में कुछ टपोरी टाइप के लडके


उसे आता दे ख रोक लेते है रास्ता कुछ शोहदे-

सीदटयाँ बजाकर अपने वहाँ होने का अहसास कराते है डरी-डरी ,सहमी-सहमी सी वह लडकी चुपचाप अपनी र्दग न नीचे ककये नापती है स्कूल का रास्ता स्कूल का माहौल भी

कुछ सार्-सुथ़रा नहीुं होता कुछ ददल र्ेंक मास्टर भी उसके जजस्म में चुभोते हैं अपनी नजरों के तीर न जाने ककतने ही

चक्रव्यूहॊुं मे घघरते-घघराते

और उन्हें कुशलता से तोडते हुये लौट पडती है अपने घर के सलये घर की ओरती के नीचे खडी होकर अपनी अघनयुंबरत हो आयी साुंसों को घनयुंबरत करने लर्ती है और शकु क्रया अदा करती है

आकाश में टुं र्े दे वताओुं को और घुस पडती है लाक्षार्ह ृ में

दे र रात तक खटती रहने के सलये

र्ार्ुनी दोहे रात हुई केसररया, ददन आ वसन्त के आँर्ने,ॠतुएुं

हुआ मराल हुई घनहाल !

अमुआ की ठुं डी छाुंव तले,उतरी क्या बारात लुका-घछपी के ददन हुये

,भूल-भुलैया रात !!

कसलयाँ चटकीुं,र्ूल बनी,र्ूलॊुं में बना परार्

बैठ र्ुंध के र्ालीचे पर ,ॠतुएुं पढे ककताब ! बौर खाय बौराई कोयल,

र्ाती मीठे

र्ीत


बोली सात सुरों की बाँसुरी, जीवन है अनमोल ! आँर्न-आँर्न बासन्ती नाचे,मुंद-मुंद मुस्काए

मन जोर्ी बैठा नददया तीरे ,अपना आपा खोय !! खुशबू की चौपाइयाँ,

बाुंचे र्ूल सुजान

बहके-बहके से आने लर्े,सपने घनपट अजान ! कल तक था सरदी का मौसम,ॠतुएुं थीुं मर्रुर छै ल छबीली नार ने

चतष्ु पददयाँ

*

पलाश कर्र महका वासुंती पुरवाई है

र्ीत की अमराई में मादकता इठलाई है *पलाश कर्र दहका वासुंती पुरवाई है

दे ह की सूखी नदी में किर बाढ *

आयी

है

जुंर्ल-जुंर्ल महुआ महके सुंत कबीरा बहके-बहके छोड छाड अब जोर् की बातें रचने लर्े हैं छलछुं द

,तोडे सभी र्रर !!


* अुंर्-अर्ुं मे चुंर् बजे साुंस-साुंस

मद ृ ुं र्

मन मयूरा झम ू कर नाचे

तोडकर सारे

अनुबुंध

*र्ाल-र्ाल खखले र्ुलमोहर

और आँखॊुं में छाए मकरुं द र्ुलों से र्ायब हुए जैसे खुशबु के अनुबुंध

* खुशबु-खुशबु हूक उठे टे स-ू टे सू आर्

न जाने ककस र्ाल को छूके लौट आया मधुमास

*

कार्ज पर नदी क्या बही डूब र्ई शब्दो की नर्री

र्ोरी आुंसू से धचठ्ठी सलखे हा - ककतनी है मजबूरी * सूना अवसर पाकर

मन पर रहा न काबू

थोडी सी खैंचातानी में टूटा सुंयम का तराजू *

महका -महका सा मन है बहकी-बहकी सी चाल न जाने ककस बात में मचा बडा धमाल

* कोयल ने पाघत सलखी वासुंती

के

नाम

सुन सरसॊुं पीली भई

टे सू के हुये र्ुलाबी र्ाल


बालम क्यों न आए जी

घर में पसरा सन्नाटा और यादों के साये जी

धचदठया सलख-सलख हार र्यी मैं बालम क्यों न आए जी आसमान मे खखली चाुंदनी और आुंर्न में रतरानी जी बहकी-बहकी हवा चली

और कोयल भी चहकी जी उड-उड जाये सुंयम की चूनर,सुख कैसे पाऊँ जी

धचदठया सलख-सलख हार र्यी मैं,बालम क्यों न आए जी ददन तो जैस-े तैसे कट जाता कटती नहीुं कलुटी रातें जी


याद आती रह-रहकर मुझको

तुम्हारी वो नशीली बातें जी

रहा न अब तन पर काब,ू मन दहचकोले खाए जी

धचदठया सलख-सलख हार र्यी मैं,बालम क्यों न आए जी आओ भी अब आ भी जाओ अब न चलेर्ी मनमानी जी हो तुम मेरे ददल के राजा

और मैं तुम्हारी महरानी जी

आसमान से झाुंके बदररया,जाने क्या सुंदेशा लायी जी धचदठया सलख-सलख हार र्यी मैं,बालम क्यों न आए जी

एक नदी मेरे अुंतःस्थल में

बहती है एक नदी "ताप्ती" जजसे मैं महसूसता हूँ अपने भीतर जजसका शीतल,पववर और ददव्यजल बचाये रखता है मेरी सुंवेदनशीलता खोल,कुंदराओुं,जुंर्लों और पहाडॊुं के बीच बहती यह नदी बुझाती है सब की प्यास


और तारती है भवसार्र से दष्ु टॊुं को

इसके तटबुंधों पर खेलते हैं असुंख्य बच्चे जस्रयाुं नहाती हैं

और पुरुष धोता है अपनी मलीनता इसके ककनारे पनपती हैं सभ्यताएुं और लोक सुंस्कृघतयाँ लेती हैं आकार लोकर्ीतॊुं लोक धन ु ॊुं पर माुंदर की थापों पर

दटमकी की दटसमक-दटसमक पर धथरकता रहता है लोकजीवन

माँ मैं, काली घटाओुं कोबरसने से रोक सकता हूँ, चमचमाती बबजली कोहथेली में थाम सकता हूँ, शोर मचाते-दहाडते समद्र ु परसरपट दौड लर्ा सकता हूँ,


तूर्ानों का रुखपलभर में मोड सकता हूँ, पहाडॊुं को झुका सकता हूँ मैं वह सब कर सकता हूँ लेककन ममता की मरू तकरुणा की सार्र और दयामयी माँ पर कोई कहानी नहीुं सलख सकता.

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पररचय *नाम--र्ोवधगन यादव *वपता-. स्व.श्री.सभक्कुलाल यादव *जन्म स्थान -मल ु ताई.(जजला) बैतुल.म.प्र. * जन्म घतधथ- 17-7-1944 *सशक्षा - स्नातक *तीन दशक पूवग कववताऒ ुं के माध्यम से सादहतय-जर्त में प्रवेश *दे श की स्तरीय पर-पबरकाओुं में रचनाओुं का अनवरत प्रकाशन *आकाशवाणी से रचनाओुं का प्रकाशन *करीब पच्चीस कृघतयों पर

समीक्षाएुं कृघतयाँ * महुआ के वक्ष ु प्रकाशन पुंचकुला(हररयाणा) *तीस बरस ृ ( कहानी सुंिह ) सतलज घाटी (कहानी सुंिह,) वैभव प्रकाशन रायपुर(छ,र्.) * अपना-अपना आसमान (कहानी सुंिह) शीघ्र प्रकाश्य. *एक लघक ु था सुंिह, शीघ्र प्रकाश्य.

सम्मान *म.प्र.दहन्दी सादहतय सम्मेलन घछुं न्दवाडा द्वारा”सारस्वत सम्मान” *राष्रीय राजभाषापीठ इलाहाबाद द्वारा “भारती रतन “ *सादहतय ससमघत मल ु ताई द्वारा” सारस्वत सम्मान” *सज ृ न सम्मान


रायपुर(छ.र्.)द्वारा” लघक ु था र्ौरव सम्मान” *सरु सभ सादहतय सुंस्कृघत अकादमी खण्डवा द्वारा कमल सरोवर दष्ु युंतकुमार सम्मान *अखखल भारतीय बालसादहतय सुंर्ोष्टी भीलवाडा(राज.) द्वारा”सज ृ न

सम्मान” *बालप्रहरी अलमोडा(उततराुंचल)द्वारा सज ृ न श्री सम्मान *सादहजतयक-साुंस्कृघतक कला सुंर्म

अकादमी पररयावाुं(प्रतापर्घ्ह)द्वारा “वविावचस्पघत स. *सादहतय मुंडल श्रीनाथद्वारा(राज.)द्वारा “दहन्दी भाषा भष ू ण”सम्मान *राष्रभाषा प्रचार ससमघत वधाग(महाराष्र)द्वारा”ववसशष्ठ दहन्दी सेवी सम्मान *सशव सुंकल्प सादहतय पररषद नमगदापुरम होशुंर्ाबाद द्वारा”कथा ककरीट”सम्मान “ *तत ृ ीय अुंतराष्रीय दहन्दी सम्मेलन बैंकाक(थाईलैण्ड) में “सज ू ोततर दहन्दी अकादमी सशलाुंर्(मेघालय) ृ न सम्मान. *पव

द्वारा”डा.महाराज जैन कृष्ण स्मघृ त सम्मान. *अभ्यद ु य बहुउद्देशीय सुंस्था वधाग द्वारा आयोजजत पोटग लई ु स,मारीशस में दहन्दी सेवी सम्मान म.प्र.तल ु सी अकादमी भोपाल द्वारा “तल ु सी सम्मान” से सम्माघनत. *

ववशेष उपलजब्धयाँ:औिोधर्क नीघत और सुंवधगन ववभार् के सरकारी कामकाज में दहन्दी के प्रर्ामी प्रयोर् से सुंबुंधधत ववषयों तथा र्ह ृ मुंरालय,राजभाषा ववभार् द्वारा घनधागररत नीघत में सलाह दे ने के सलए वाखणज्य और उिोर् मुंरालय,उिोर् भवन नयी ददल्ली में “सदस्य” नामाुंककत (2)केन्द्रीय दहन्दी घनदे शालय( मानव

सुंसाधन ववकास मुंरालय) नयी ददल्ली द्वारा_कहानी सुंिह”महुआ के वक्ष ृ ” तथा “तीस बरस घाटी” की खरीद की र्ई.

सुंप्रघत

- सेवाघनवत ृ पोस्टमास्टर(एच.एस.जी.1* सुंयोजक राष्र भाषा प्रचार ससमघत जजला इकाई

घछन्दवाडा (अब स्वतुंर लेखन) र्ोन.नम्बर—07162-246651 (चसलत) 09424356400


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