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काशी शिवपुरी आश्रम: पो. इं टालीखेडा, ता.सलुम्बर, उदयपुर,राजस्थान,३१३०२६


ं ा सं ग्रह’’ प.पू. प्रभु बा के उपदेशोक

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प्रास्ताविका जय श्रीकृ ष्ण, अपनी गुरुदेव परमपूज्य प्रभु बा द्वारा दिये गये आशीर्वाद तथा मार्गदर्शन को इस इ पुस्तक के रूप में प्रसिद्ध करते हुए मुझे बड़ा सं तोष हो रहा है।गुरुचरणो ं में यह छोटीसी सेवा समर्पित है। गुढीपाडवा अप्रैल ११, २०१३.


गुरुवाणी-१

गुरुपौर्णिमा पर सं देश श्री गुरुपौर्णिमा पर सभी को आशीर्वाद । अपनी महान गुरु परम्परा और सद्गुरु योगीराज गुळवणी महाराज से यही विनती है कि मेरे प्रिय साधको ं को वे नियमित साधना हेतु प्रेरित करें व साधनपथ के पथिक के रूप में उन्हें अपने लक्ष्य तक अतिशीघ्र पहुंचाएं । सद्गुरु ने हमारी राह को फ़ू लो ं की पं खुड़ियो ं से सजाया है पर हम कांटो की राह पर चल पड़ते हैं, वे हमें सन्मार्ग का सं के त करते हर मोड़ पर मिलते हैं पर हम भटकने के आदी हो गए हैं। यह ठीक है कि सद्गुरु ही करुणा करके हमें पुन: सही मार्ग पर ले आते हैं पर इस अवधि में हुई पीड़ा और समय की हानि को तो हमें ही भुगतना होता है । हम द:ु खी होते हैं तो परोक्ष रूप से सद्गुरु को भी द:ु खी करते हैं क्योंकि वे हमारे द:ु ख में पीड़ा का अनुभव करते हैं तथा सुख में आनं दित अनुभव करते हैं । दीक्षा के पश्चात् सद्गुरु शिष्य के शरीर में सूक्ष्म रूप से प्रविष्ट हो जाते हैं । सही अर्थों में साधक सद्गुरु का ही अंश होता है। साधक को सद्गुरु के सं के तो ं को समझते हुए स्वयं उनमें समा जाना व पूर्णत्व प्राप्त करना होता है। इस यात्रा में मन मुख्य आधार होता है । सद्गुरु को साधक के तन की नही ं मन की दरकार होती है। प्रतिपल साधक का मन सद्गुरु पर के न्द्रित हो तो उनसे व उनके आश्रम से दूरी भी बाधक नही ं होती। वह हरपल सद्गुरु के ही पास होता है। इसके विपरीत कोई उनके सम्मुख या सान्निध्य गुरुपौर्णिमा पर सं देश

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में भी रहे पर मन उसका भटकता हो तो उसका उपस्थित होना निरर्थक ही होगा। गुरुसेवा अनमोल है । यह प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनो ं ही प्रकार से सं भव है, दोनो ं का समान ही महत्त्व है। यो ं तो साधक ने सबकु छ गुरुकृ पा से ही पाया है अत: उनके लिए सर्वस्व समर्पण का उदात्त भाव होना कोई त्याग नही ं है। साधक द्वारा निष्काम, नि:स्वार्थ व निरंहकारी साधना ही सच्ची गुरु सेवा है। साधक के मन में यह बात पक्की होनी चाहिए कि वह अपने सद्गुरु का प्रतिबिम्ब है। यदि वह कटु, भीरु, विषम, असत्य, प्रेमरहित, विवेकहीन व्यवहार करता या अपने स्वभाव से ईर्ष्या , द्वेष, राग, आलस्य आदि की झलक प्रस्तुत करता है तो वह अपने सद्गुरु के बिम्ब को धुंधला ही करता है । साधक को बाहरी व भीतरी दोनो ं प्रकार की शुद्धता पर ध्यान देना आवश्यक है। बाहरी शुद्धता का अर्थ वस्त्र - आभूषण से या अन्य भौतिक उपकरणो ं से की गई शारीरिक सजावट नही ं है। सद्गुरु के बताए साधन और तप के तेज से ही ये दोनो ं श्रेष्ट शुचिताएं सं भव है। साधक की हर सांस में गुरुमं त्र प्रतिष्ठित हो तथा हर समय निरंतर जाप चलता रहे तो साधन और तप को फ़लित होने में कोई देरी नही ं लगती है। यह सब करना कोई कठिन काम नही ं है। साधनपथ में लगना कोई चट्टानें तोड़ना, हिमालय पर चढ़ाई करना या खून-पसीना एक करना नही ं है। बस मन को इसमें लगाना है । सारा खेल मन पर नियं त्रण का है। परमात्मा के बनाए इस सं सार में अपने सांसारिक दायित्वों को पूर्ण करते हुए ही ईश्वरत्व को पाना है अत: इसके किए मन को वश में करना ही एकमेव उपाय है। यह ध्यान रहे कि हमें मुमुक्षु, साधक और साध्य तक की यात्रा इसी शरीर से इसी जन्म में पूर्ण करनी है। इसके किए कु छ भी छोड़ना नही ं है। के वल ‘न दैन्यं न पलायनं ’ की उक्ति को जीवन में धारण कर लेना है। उधार का पुस्तकीय ज्ञान बटोरना, व्यर्थ के तर्कों के भँ वर में फ़ँ सना , निरर्थक शं काओ ं - आशं काओ ं में डू बना-उतराना, अधकचरी व बिना अनुभूत बातो ं को बांटते रहना 2

गुरुवाणी


बेतक ु ा है। अंधे बनकर अंधविश्वास व निरंधो ं पर विश्वास करने से बेहतर है अपनी भीतरी चक्षुओ ं को पहचानना, उन्हें चैतन्य करना। इसमें ध्यान हमारा आधार बनेगा। ध्यानावस्था में जो भी चितं न, मनन और मं थन होगा वह आत्मज्ञान बन जाएगा। वही अमृत तत्त्व बन जाएगा। ध्यान करने से दर्ल ु भतम बातें सहज मिल जाती हैं। ध्यानी को कु छ भी याचना नही ं करनी पड़ती, उसकी याचकवृत्ति ही समाप्त हो जाती है। कई बार व्यक्ति ध्यान करने की सोचता तो है पर शर्तों के साथ। जैसे मेरा अमुक कार्य सध जए तब मैं ध्यान करने लगूंगा, यह मिल जाए तो फ़िर ध्यान में ही मन रमा लूंगा आदि-आदि। पर सच मानना न तो इससे कु छ मिलेगा और न ही ध्यान सधेगा। यह दवु िधा की स्थिति है। ‘दवु िधा में दोनो ं गए, माया मिली न राम।’ ध्यान सबसे अंत में नही ं सबसे पहले करने की आवश्यकता है। ध्यान को टालने के बहाने नही ंढू ंढना है वरन् ध्यान करने के अवसर ढू ंढ़ना है। सद्गुरु के कहने से ध्यान करना अनिवार्य है इस भाव से उन पर अहसान के लिए ध्यान नही ं करना बल्कि अपने कल्याण के भाव से ध्यान करना है। ध्यान में साधक को तो बस आसन लगाकर बैठना भर है। आँखे बं द करके अपने भीतर की ओर चलना है। हमारे भीतर जाग्रत कुं डलिनी शक्ति बिराजमान है, वह सर्वशक्तिमान जगदम्बा ही सबकु छ करवा लेगी, बल्कि वही सब कर देगी। आपको तो कु छ भी नही ं करना है। अपने आपको निष्क्रिय कर देना है। वैसे भी जीवन भर कु छ न कु छ करने की होड़ और दौड़ में ही तो लगे रहे हो। क्या पा लिया? अब भागना छोड़कर शांत चित्त से बस द्रष्टा बन जाओ। बाहर की यात्रा बहुत हो गई, भीतर की शुरुआत करो। एक मूल को पकड़ो, दर-दर ं रें मत खाओ। समय कम है और कीमती है, उसे बरबाद मत करो। भटककर ठोक गुरुपौर्णिमा के पर्व से एक नई प्रथा व परम्परा की पहल करो। नम मन से मन का करो, समर्पण चित्त का करो, आरती, धूप, दीप के बजाय स्वयं पावन बनो, किसी वस्तु की भेंट के बजाय अपना मन, अपना दिल सद्गुरु को भेंट करो। इससे पवित्र पूजा और भेंट इस जगत में और कोई नही ं है। स्वयं को कभी भी सद्गुरु से दूर या भिन्न कभी भी मत गुरुपौर्णिमा पर सं देश

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समझो। सगुरु तो आपके अंतस में ही निवास करते हैं और आपके चेहरें में ही वे अपने आपको देखते हैं। इसलिए हरक्षण खुश रहो, आनं द में डोलते रहो, हँ सो और हँ साओ। एक महत्त्वपूर्ण बात की ओर सभी का ध्यान दिलाना चाहूंगी। गुरु भाइयो ं और बहनो ं को परस्पर स्नेह से रहना चाहिए। मेरा पूरा वासुदेव कु टुम्ब प्रेम के धागे से बं धा हुआ है। साधको ं का एक दूसरे के प्रति आत्मीय भाव, विश्वास और बं धुत्व ही दर्ल ु भ पूंजी है। एक दूसरे का सम्मान होना चाहिए। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, बुद्धिमान-कमबुद्धि जैसे भेदो ं का इस कु टुम्ब में कोई अस्तित्त्व नही ं है। एक साधक को पीड़ा हो तो दूसरो ं को भी उतना ही दर्द हो। किसी एक पर सं कट हो तो सभी उसके निवारण को दौड़ पड़े यही वासुदेव कु टुम्ब का भाव है। साधको ं का आपसी रोष मुझे असहनीय पीड़ा देता है। गुरु बं धु का नाता सं सार का सबसे पावन रिश्ता है। बाकी सभी रिश्ते स्वार्थ पर आधारित होते हैं पर यह नाता नि:स्वार्थ है। आश्रम में सभी का प्रवेश अलग-अलग अवधि में हुआ है । सभी अलगअलग दिशाओ ं और मानसिकताऒ ं से आए हैं किन्तु यहां प्रविष्ट होते ही सभी एक हो गए हैं। एकाकार हो गए हैं । तन विलग हैं पर मन सभी के एकसार हैं। यहां से जाने पर यही एकरसता बनी रहे इसीलिए सद्गुरु ने हमारे सं स्थान को ‘एकता ध्यान योग’ नाम दिया है। इस नाम का सार्थक करना भी सद्गुरु आज्ञा का अनुवर्तन ही है। -----तुम्हारी अपनी ही ‘बा’ पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह जुलै २००८

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गुरुवाणी


गुरुवाणी-२

आओ अंतर्यात्रा करें। आत्मा और बुद्धि दोनो ं भिन्न तत्त्व हैं । आत्मा चेतन पुरुष है और बुद्धि अचेतन प्रकृ ति का अंग । किन्तु जब आत्मा बुद्धि से युक्त होता है वह ‘ध्याता’ या ‘द्रष्टा’ कहलाता है, क्योंकि बिना बुद्धि के वह कु छ जान ही नही ं पाता । चित्त पर बाह्य जगत् के विषयो ं का प्रतिबिम्ब प्रभावी होने से वह कभी शांत कभी आत्मा और बुद्धि दोनो ं भिन्न तत्त्व हैं । आत्मा चेतन पुरुष है और बुद्धि अचेतन प्रकृ ति का अंग । किन्तु जब आत्मा बुद्धि से युक्त होता है वह ‘ध्याता’ या ‘द्रष्टा’ कहलाता है, क्योंकि बिना बुद्धि के वह कु छ जान ही नही ं पाता । चित्त पर बाह्य जगत् के विषयो ं का प्रतिबिम्ब प्रभावी होने से वह कभी शांत कभी अशांत तो कभी विमूढावस्था में होता है । आत्मा इनका द्रष्टा बन करके अपने मूल स्वरूप को विस्मृत किए हुए है। अध्यात्म जगत् में अनेक साधको ं की मान्यता है कि श्रवण, मनन व निदिध्यासन द्वारा मोक्ष की सम्प्राप्ति सं भव है । पर चित्त शुद्धि के बिना श्रवण, मनन व निदिध्यासन फ़लीभूत होना सं दिग्ध है। चित्त की शुद्धि के लिए ही शक्तिपात योग-साधना है, अत: मोक्षगमन के आकांक्षी के लिए यह योग - साधना अति आवश्यक है। चित्त पर बाह्य विषयो ं का प्रतिबिम्ब मन और पं चेंन्द्रियो ं के द्वार से प्रविष्ट होता है । यह बहिर्मुखी अवस्था होती है, जब वे अंतर्मुखी हो जाते हैं तो विषयो ं से इनका सं बं ध टू ट जाता है । हमारी बुद्धि महत्तत्त्व के एक बुदबुदे के समान है । इसीलिए ईश्वर को सर्वज्ञ और जीव को अल्पज्ञ कहा गया है। जीव आओ अंतर्यात्रा करें।

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जब ईश्वर का ध्यान करता है तब उसकी गति बुद्धि से ऊपर उठकर महत्तत्त्व में हो जाने से वह अपने बुद्धिगत सं स्कारो ं से मुक्त हो जाता है । कु ण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने पर भक्ति, योग, ज्ञान इत्यादि का भेद विलोपित हो जाता है । सभी साधनारूपी सरिताएं साधनरूपा सागर में मिल जाती हैं, इसी को महायोग कहते हैं । प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरीय शक्ति विद्यमान है । यह शक्ति जब तक अपने मूल कारण और उद्गम को भूलकर जगत की भौतिकता में उलझी रहती है उसे बहिर्मुखी अवस्था कहते हैं । नानाविध सांसारिक कार्य और पूजा-पाठ, कथा- कीर्तन, वाचन, मं त्रोच्चार, जप आदि सभी बाह्यकर्म ही हैं, हम चाहे इन्हें जीवनभर करते रहें पर ये क्रियाएं मात्र होती हैं, किन्तु शक्ति जाग्रत होकर अंतर्मुखी हो जाए तो ध्यान लगता है, शक्ति अपने मूलस्थान से ऊपर उठकर सहस्रदल में स्थित शिव से सं योग को तत्पर होती है। साधक को अनुभव होना शुरु होता है । शक्ति एक बार जाग्रत हो जाने पर वह कार्यहीन नही ं रहती उसके प्रभाव सतत घटित होते रहते हैं । साधक की अंतर्यात्रा प्रारंभ हो जाती है । वह अपनी बहिर्दृष्टि को समेटता हुआ भीतर की गहराइयो ं में डू बता जाता है । चित्त की शुद्धि का क्रम गति पा लेता है, वासनाएं क्षीण होने लगती हैं एवं जीव मुक्ति के राजमार्ग का अग्रसर हो जाता है। --अपनी ही ’बा’ पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह फ़े ब्रुवारी २००८

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गुरुवाणी


गुरुवाणी-३

अहोभाव की उपासना सुना है कि परमात्मा ने ढाई दिन में सम्पूर्ण सृष्टि की सं रचना की। अंत में अपने कौशल प्रगट करने के लिए उन्होंने मोर जैसा सुन्दर प्राणी सृजित किया। इस मोर को बनाने में भी परमात्मा को ढाई दिन लग गए। मोर सतरंगी और स्वर्णाभा से परिपूर्ण था। सृष्टि की सुन्दरतम रचना हो गया मोर । ईश्वर के इस चमत्कार को देखकर सभी दंग रह गए। चारो ं ओर मोर के सौन्दर्य की चर्चा होने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि मोर को अपनी सुन्दरता पर घमण्ड हो उठा। वह परमात्मा के अनुग्रह को भूलकर अपनी सुन्दरता को स्वयं सिद्ध पराक्रम मान बैठा और गर्वोक्तियां करने लगा। वह अन्य प्राणियो ं का उपहास करने को भी उद्यत होने लगा। बात परमात्मा तक पहुँची । वे अपनी श्रेष्ठतम कृ ति को लुप्त नही ं करना चाहते थे पर गर्व तो चूर करना ही था। कहते हैं कि ईश्वर ने मोर के सौन्दर्य को तो यथावत् रखा किन्तु पाँवो ं को कु रुप बना दिया। इसलिए आज भी मोर जब नाच कू द कर अपने पैरो ं को देखता है तो वह शर्मिन्दगी का अनुभव करता है तथा अपने घमण्ड को वह स्मरण कर मन ही मन रोता, घुटता है। अज्ञानतावश कभी कभी ईश्वरीय अंश से उपजात मनुष्य भी अभिमान डू ब जाता है। अभिमान करके हम ईश्वरीय अनुकम्पा से अपने आपको पृथक् कर देते हैं। परमात्मा को अभिमान सुहाता ही नही ं है। उसके प्रति अहोभाव की उपासना हो, धन्यता के शब्दों की प्रार्थना हो, समर्पण के सं स्कारो ं की पुष्पमाला हो तो उसकी अँगुली हमारे हाथ में ही समझो । ......आपकी अपनी बा पूर्वप्रसिद्धी शिवसुगंध 7 अहोभाव की उपासना


गुरुवाणी-४

अखण्ड नाम जप - महिमा सबसे श्रेष्ट साधन है ध्यान और ध्यान का आधार है नाम-जप । नाम- जप चलता फ़िरता परमात्मा है । ध्यान तो दिन में दो घण्टे ही करना होता है, शेष समय में नाम जप ही सुलभ व श्रेष्ठ साधन है । इसमें भी अखण्ड नाम जप की महिमा तो अतुलनीय है । नाम - जप ईश्वरीय शक्ति का आहार है । जैसे हम अतिथि को प्रसन्न करने के लिए स्वादिष्ट पक्वान परोसते हैं, वैसे ही ईश्वर को, हमारी शक्तिस्वरूपा गुरुपरम्परा को रिझाने के लिए एकाग्रचित्त से, पूरे श्रद्धाभाव से, लय- तालपूर्वक किया गया नाम-जप बहुत श्रेष्ठ आध्यात्मिक भोजन है । जहां- जहां साधको ं द्वारा अखण्ड नाम - जप होता है, ईश्वर व श्री सद्गुरुदेव का परिभ्रमण वहां अवश्यमेव होता है । यही नाम- जप जब एक लय व ताल में हो तो धुन कहलाता है । मधुर धुन सुनने - करने के लिए तो बड़े बड़े योगी भी लालायित रहते हैं । जहां ऐसी मर्मस्पर्शी धुन हो वहां वे अपनी तपस्या को भी कु छ समय स्थगित कर धुन में झमू ने लगते हैं, धुन को आत्मसात करते रहते हैं । ऐसी धुन जब हमारे कानो ं द्वारा भीतर प्रविष्ट होती है तो हमारा मन मयूर नाचने लगता है, आनं द की फ़ु हार से हम सराबोर हो जाते हैं । जब हम नामधुन करते हैं तो प्रथम हमारी वाणी पवित्र होती है, इसके बाद अंतर्मन 8

गुरुवाणी


का शुद्धीकरण होता है जिससे हम सकारात्मक ऊर्जा के धनी बनते चले जाते है । नामधुन एक अलौकिक आनं द की जननी है। इसमें डू बने के लिए आवश्यक है कि जपकर्ता अपने आपको उसमें विलीन कर दे । हर चिन्ता व हर विचार को विराम दे दे। हर प्रकार की बातो ं से मुक्त हो जाए, यहां तक कि स्वयं के बारे में भी चितं न करना छोड़ दें । अपने आसपास, आगे पीछे कौन है? क्या कर रहा है? यह भी ध्यान में न आए । आसपास के वातावरण से मुक्त होते ही अनुभव होने लगेगा कि हम परमात्मा की शरण में हैं और उसी के लिए गा रहे हैं । हमारी वाणी को उस तक पहुंचाना ही उपादेयता है । हम अपने लिए नही,ं दनि ु या के लिए नही ं , बस अपने परमात्मा के लिए ही गा रहे हैं । हम अपनी वाणी और किसी को नही ं शिवस्वरूप, वासुदेवस्वरूप श्री सद्गुरुदेव को ही सुना रहे हैं । सच तो यह है कि जब ऐसी तल्लीनता और भाव आ जाएगा तब किसी भी क्षण खुली आंखो ं से उनके दर्शन हो जायेंगे । वही क्षण परमात्मा की अनुभूति करवाएगा। आप में एक विलक्षण दिव्यता का उदय होगा । वह दिव्यता आपके जीवन को आलोकित कर देगी । जीवन की सार्थकता सिद्ध हो जायेगी, परम्परा का प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा, सद्गुरु की मेहर बरसने लगेंगी । आप एक अनूठे अहोभाव से परिपूरित हो जायेंगे । अब तक का सुना और सीखा सैद्धांतिक अध्यात्म प्रत्यक्ष घटित होने लगेगा। मैंने नामधुन से इन अनुभूतियो ं का आनं द लिया है, इसलिए मैं पूरे विश्वास से कहती हूं कि आप सब भी ऐसा कर सकते हैं । जय श्री कृ ष्ण । -----आपकी अपनी बा पूर्वप्रसिद्धी - शिवप्रवाह फ़रवरी २०११

अखण्ड नाम जप महिमा

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गुरुवाणी-५

मं त्र जाप की महिमा मं त्रों की महिमा अपरम्पार है। सत्सं ग, साप्ताहिकी आदि में साधक ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मं त्र का जाप करते हैं। यह मं त्र मन में शुचिता की प्रतिष्ठा करते हुए समग्र पापो ं का विनाश करता है । ‘ॐ नम: शिवाय’ का पं चाक्षरी मं त्र सर्वकल्याण के साथ -साथ गुरुकृ पा प्रदाता है। गुरुपूर्णिमा से दत्त जयं ती तक इसका जाप करते हुए सद्गुरुदेव को समर्पित करने से सर्वसिद्धि मिलती है।’ श्री राम जय राम जय जय राम’ मं त्र का जाप अन्नाहार से पूर्व करने से अन्न पावन व पुष्टिवर्धक हो जाता है । ‘दिगम्बरा दिगम्बरा श्रीपाद वल्लभ दिगम्बरा’ , ‘हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे, हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण हरे हरे ‘ , ‘विठ्ठल विठ्ठल ‘ आदि मं त्रों के साथ कीर्तन करने से परमात्मा के चरणो ं में अनुराग बढता है । सद्गुरु द्वारा दिए गए मं त्र में उक्त सभी विलक्षणताएं समाहित होती हैं। अत: उसका जाप सर्वग्राह्य है । शर्त यही है कि गोपी भाव से गुरु मं त्र का जाप चले । जो साधक जप व ध्यान की महिमा से अज्ञ होते हैं, उनका मनोयोग से जप व ध्यान नही ं हो पाता । या तो उन्हें निद्रा अपने आगोश में लेने लगती है या शारीरिक रूप से असहजता अनुभव कर आसन से उठ खडे़ होने की चाह बलवती होने लगती है। कोई बलात् या सं कोचवश बैठा भी रह जाता है तो उसका यांत्रिक जाप ही चलता है ं े प्रवाह में बहने लगता है । ऐसा साधक कु छ समयोपरांत मन तो सांसारिक विषयोक ऊब कर साधना को अलविदा कह देता है । जो इस सं भावित सं कट की घाटी को सं कल्प व सजगता से पार कर लेता है वह परमात्मा के आनं द से सराबोर हो उठता है । हमारा सम्पूर्ण आध्यात्मिक वाङ्मय इसके प्रमाणो ं से भरा पडा है। बालक प्रल्हाद ने मं त्र जाप की शरण ली तो विष, अग्नि , काल आदि भी उसका बांल तक बांका नही ं 10

गुरुवाणी


कर सके । अंतत: उसकी रक्षार्थ स्वयं नारायण को नृसिहं रूप में आकर ‘परित्राणाय साधूनाम्, विनाशाय च दष् ु कृ ताम्’ का वचन निभाना पडा। भक्त ध्रुव ने मं त्र का आश्रय लिया तो उसे परमात्मा की गोद में अटल स्थान मिला । मं त्र के प्रभाव से समुद्र में पत्थर तैरने लग गए और सम्पूर्ण रामदल जल सागर से ही नही ं सं सार सागर से भी पार हो गया। भक्तमती मीराबाई नाम सं कीर्तन के प्रताप से ज्योति बनकर स्वयं श्री कृ ष्ण में समाहित हो गई। सं त तुकाराम नाम जपते जपते परमपद को पा गये । ऐसे असं ख्य आख्यान हैं जो नाम जप की महिमा मुखर करते हैं। वास्तव में मं त्र साधना हेतु तुम सब भी सदप् ात्र हो| बस सं कल्प कर लो, ल़क्ष्य को वर लो|

—तुम्हारी अपनी बा पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह ऑगस्ट २००७

ॐ नमो भगवते वासदु वे ाय । मं त्र जाप महिमा

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गुरुवाणी-६

धारणा का स्वरूप चित्त को किसी स्थान-विशेष में बांधना, किसी ध्येय-विशेष में स्थिर करना, यही धारणा का स्वरूप है। ध्यान व योग जगत के अनुसार बारह प्राणायामो ं की एक धारणा होती है, बारह धारणाओ ं का एक ध्यान होता है और बारह ध्यान की एक समाधि होती है। समाधि को योग का अंतिम अंग कहा गया है। समाधि से सर्वत्र बुद्धि का प्रकाश फ़ै लता है। जिस ध्यान में के वल ध्येय ही अर्थरूप भासता है, ध्याता निश्चल महासागर के समान स्थिर भाव से स्थित रहता है और ध्यानस्वरूप से शून्य सा हो जाता है, उसे समाधि कहते हैं। जो योगी ध्येय में चित्त लगाकर सुस्थिर भाव से उसे देखता है और बुझी हुई आग के समान शांत रहता है, वह समाधिस्थ कहलाता है। समाधिस्थ साधक न सुनता है न सूं घता है, न बोलता है न देखता है, न स्पर्श का अनुभव करता है न मन से सं कल्प-विकल्प करता है, न उसमें अभिमानवृत्ति का उदय होता है और न वह बुद्धि के द्वारा ही कु छ समझता है। के वल काष्ठ के भाँति स्थित रहता है। जैसे वायुरहित स्थान पर रखा हुआ दीपक कभी हिलता नही-ं निस्पं द बना रहता है, उसी तरह समाधिनिष्ठ शुद्धचित्त योगी भी उस समाधि से कभी विचलित नही ं होता-सुस्थिर भाव से रहता है। इस प्रकार उत्तम योग व ध्यान का अभ्यास करने वाले योगी व ध्यानी के सारे अंतराय शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण विघ्न भी धीरे-धीरे दूर हो जाते हैं। - राजयोगी प्रभु बा पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह ऑगस्ट 07

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गुरुवाणी


गुरुवाणी-७

नवाह्न अनुष्ठान रूपरेखा नवरात्रि महोत्सव काशी शिवपुरी आश्रम का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पर्व है। शक्ति पीठ के रूप में विदित इस सिद्ध आश्रम में नवरात्रि की तैयारियां अपने आप में एक अनुष्ठान होता है। सम्पूर्ण आश्रम परिसर का रंगरोगन, साजसज्जा, आगं तक ु साधको ं के लिए आवास की योजना से प्रारंभ होकर हरसिद्धि अम्बाजी के विग्रह का मनोरम शृं गार, साधक- साधिकाओ ं द्वारा नौ दिन की स्वयं सज्जा की योजना, सम्पूर्ण कालावधि में पूजा-अर्चना की तैयारी, गरबा-रास हेतु मण्डल की रचना, सर्व मनोकामनाओ ं की पूर्ति के लिए अखण्ड ज्योति कलशो ं की सजावट व तैयारी तक गहमागहमी और उल्लास भरे वातावरण में सब मनोरथ पूर्ण होते हैं। नवरात्र में पूजा का अपना विधान है। घट स्थापना अर्थात् प्रतिपदा के दिन आदिशक्ति महामाया के अंगो ं से पार्वती, उमा, रमा, शारदा, सरस्वती, दर्गा ु , महाकाली आदि देवियां शक्ति के रूप में निसृत हुई हैं। अतएव घट स्थापना के साथ ही देवी की छवि या प्रतिमा के समक्ष एक कलश में नौ आम के पत्ते श्रीफ़ल सहित धराए जाते हैं। एक गरबा-कलश लेकर उसमें दीप प्रज्वलन किया जाता है। गरबे के छिद्रों से प्रस्फ़ुटित प्रकाश अष्ट सिद्धि व नव निधि के आगमन का प्रतीक है। इसी दिन माँ के समक्ष मिट्टी के जवारा-पात्रों में नौ प्रकार के धान (गेहूँ, जौ, चना, चौलाई, उड़द, मूं ग, ज्वार, मटर व तिल) बोए जाते हैं। माँ की प्रतिमा को सुन्दर वस्त्र- आभूषणो ं से शृं गारित किया जाता है। अखण्ड ज्योति जाग्रत की जाती है। सम्पूर्ण नवरात्रि के काल में उपवास करते हुए दर्गा ु की आराधना के लिए नवाह्न मं त्र (ॐ ऐ ं ह्रीं क्लिं चामुण्डायै विचै।) का जाप करते कुं कु मार्चन किया जाता है। नौ दिनो ं तक माँ की गोद भरी जाती है। इसमें नारियल, हल्दी, कुं कु म, चूड़ियां, पायल, बिछियां, नवाह्न अनुष्ठान रूपरेखा

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ोमं गलसूत्र, बिदं ियां, आईना, चावल आदि सामग्री का समर्पण होता है। माँ को हर रोज चना-गुड़, पूरण पूड़ी, पकौड़ी, तुअर की सादी दाल, चने की दाल से निर्मित व्यंजनो ं का नैवेद्य चढ़ाया जाता है। नैवेद्य के साथ मुखवास भी होता है। दिन की पूजा के बाद रात्रि को आरती से माँ की पूजा होकर गरबो ं से उन्हें रिझाया जाता है। कन्याओ ं व साधिकाओ ं द्वारा सं तुलित शृं गार करके गरबा-नृत्य की प्रस्तुति को देखने तो कहा जाता है कि देवता भी भू लोक में आते हैं। माँ की अभ्यर्थना का सही समय तो मध्यरात्रि को ही आरंभ होता है। अंत में गरबो ं की दिव्य-ज्योति से आरती द्वारा शक्ति-सं चय का अनुष्ठान होता है। यह क्रम नौ ही दिनो ं तक चलता है। ललिता पं चमी पर नौ सुहागिनो ं को भोजन कराकर उनकी गोद सुहाग के प्रतीको ं से भरने का प्रावधान है। सप्तमी को फ़ु लोरा होता है। इस दिन माँ को फ़ू ली हुई खाद्य सामग्री ही चढ़ाई जाती है। इनमें पूरी, सिका हुआ धनिया, तले हुए सागूदाने, हरी सब्जियां व बहुबीजी अर्पित किए जाते हैं। अष्टमी को नौ कु मारिकाऒ ं को भोजन कराकर उन्हें शृं गार सामग्री भेंट की जाती है। कन्यापूजन के समय उन्हें माता के स्वरूप में ही पूजा जाता है। इसी दिन माताजी के समक्ष होम का आयोजन होता है जिसमें नारियल, चोली व साड़ी की आहुति होती है। नवरात्र की पूर्णता पर दशहरे पर बड़ा हवन किया जाता है। माँ की चाँदी के कलदार से गोद भरी जाती है, घट, कलश एवं जवारापात्रों का विसर्जन किया जाता है। सभी नौ दिनो ं तक आने वाली सुहागिनो ं की हल्दी, कुं कु म से गोद भराई कर दूध व चना के प्रसाद से सत्कार किया जाता है। इस समय ‘काली दर्ु गे नमो नम:’ का पाठ करते हुए यह कर्म सम्पन्न किया जाता है। रावण के रूप में मानव मन में घुस आई आसुरी शक्तियो ं यथाअहं, राग, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ आदि का दहन करने का विधान है। पूरे नवरात्रि काल में गेहूँ व उससे निर्मित पदार्थ तथा आम का प्रयोग नही ं करना श्रेयस्कर होता है। ----तुम्हारी अपनी ’बा’ पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह ऑक्टोबर २००७ 14

गुरुवाणी


गुरुवाणी-८

मेरे साधक, तुम दीपक हो ! मेरे साधक, तुमने दीपक को ध्यान से देखा होगा । दीपक में तेल जलता है, बाती वही बनी रहती है । हाँ, यदि तेल ही बीत जाय तो फ़िर तो बाती भी जलकर भस्म हो जाती है । तेल साधना है । बाती शरीर है ।जब तक साधना चलती है तब तक शरीर पर आँच भी नही ं आती , साधना बन्द हुई तो शरीर को दहन की क्रिया से गुजरना पड़ता है । देखा होगा, दीपक प्रज्वलित रहता है तो प्रकाश का एक वलय बनता है। दूर -दूर तक नन्हीं-नन्हीं किरणो ं से दीपक अपने प्रकाश को बिखेरता है । मं तव्य यही होता है कि शायद किसी को कोई मार्ग सूझ जाए, किरणो ं का जीवन सफ़ल हो जाए । वासुदेव कु टुम्ब से जुड़ते ही तुम दीपक तो बन गये हो। ध्यान और जप की साधना का स्नेह तुम्हारे प्रकाश का स्रोत है । तुम्हारी बाती जब तक स्नेहहीन थी तब तक निस्तेज थी, पर अब तो तुम किरणो ं के वाहक हो, प्रकाश का अद्तभु वलय हो । सच तो यह है कि स्नेह के आगे बाती नजर ही कहां आती है? दिखता है तो बस प्रकाश, उजास, चमक, ओज, तेज और आभा का वलय ही दिखता है । उस प्रकाश से सम्पर्कित दिशा पाता है, मार्ग पाता है, जीवन का सारांश पाता है । दिशा, मार्ग और सारांश देने की क्षमता तुम्हें कै से मिली यह रहस्य भी नही ं है । तुम्हारी थोड़ी सी साधना ने तुम्हें कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया, अभी भण्डार का द्वार खुला है, अनमोल हीरे तो अभी आगे बाकी है । तुम दीप तो हो गए हो, परम्परा की कृ पा से तुम्हें अखण्ड दीपक का सौभाग्य मिल गया है । आओ अब दीपमाला बन जाओ । तुम स्वयं आलोकित होऒ और आनं द का आलोक फ़ै लाऒ । ...तुम्हारी अपनी बा । पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह अक्टू बर २००८ मेरे साधक तुम दीपक हो

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गुरुवाणी-९

बा के आशीर्वाद जीवन का आधार है श्वास । सबसे सूक्ष्म है श्वास । तुम्हारी वृत्तियो ं की नियं त्रक है श्वास । साधना का सहज साधन है श्वास और आश्चर्य की बात है कि सबसे उपेक्षित है श्वास । उपेक्षित इस दृष्टि से नही ं कि तुम इसका उपयोग नही ं करते, वरन इस दृष्टि से कि तुम्हें श्वास लेने की सुध ही नही ं है । श्वास पर तुम्हारे द्वारा कभी ध्यान ही नही ं दिया है। तुम आनं द में होते हो, क्रोध में होते हो, प्रेम में होते हो, आराम में होते हो, भक्ति में होते हो, , भौतिक जगत के आकर्षण में होते हो, या अन्य किसी उपक्रम में होते हो, तो आपकी श्वास अलग -अलग होती है । जैसे जैसे श्वास बदलती है मन के भाव भी रुपांतरित होते जाते हैं । मन को बदलना हो तो श्वास को बदल लो । श्वास बदलना आसान है, अत: मन को बदलना भी सरल है । तुम अपनी आती - जाती श्वास को देखो, कै से श्वास ले रहे हो इसे परखो, इसे भीतर लेने और बाहर निकालने में कितना समय लेते हो इसे जाँचो, यही हँ सता, खेलता, रसीला ध्यान है । जब यह ध्यान सध जाता है तो तुम इतना निर्भार हो जाते हो, शीतल और शान्त हो जाते हो कि अपना अस्तित्त्व तिरोहित हो जाता है । अस्तित्त्व का तिरोहण ही साधना का मधुर फ़ल हैं । सच तो यह है कि तुम्हारा अस्तित्त्व कु छ और नही ं एक दर्पण है जिसमें तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब रुपायित होता है जो महज काल्पनिक होता है वैसे ही अपने अस्तित्व को त्याग मन को सत्य की खोज में लगा लो--यही उपासना है।

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---तुम्हारी अपनी ’बा ’ पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह - अप्रैल २००७ गुरुवाणी


गुरुवाणी-१०

जल में कुं भ, कुं भ में जल है। वर्षा में बदलियां पानी बरसाती है। भू-तल को स्नेहसिक्त कर देती हैं । उस जल से गढ्ढे तो स्वीकारोक्ति भाव के कारण परिपूरित हो जाते हैं पर टीले अहंकार के उठाव के कारण जलवांचित रह जाते हैं । तुम भी गढ्ढों की तरह बनो ं टीलो ं की तरह नही।ं अपने आपको भरो, रीता मत रखो। जगत् में प्रभुकृपा की वर्षा तो प्रतिक्षण हो रही है। मैं कई लोगो ं को देखती हूँ , तो उन पर मुझे दया आती है। इतने बेमतलब के भावो ं से भरे हैं कि उन्हें किंचित भी अवकाश नही ं है अपने भीतर शिवभाव को भरने का। उनके मानस में जरा सा भी शून्य नही,ं सुथरा आकाश नही।ं जिसमें आकाश नही ं वह मुक्ति के लिए कै से कु छ कर पायेगा? जैसे जलवर्षण के लिए बाह्य आकाश आवश्यक है, बादलो ं का बनना, घुमड़ना, उमस होना आवश्यक है वैसे ही शिवकृ पा की वृष्टि के लिए भीतरी आकाश एवं बाह्य आकाश की तरह परिवर्तन की ललक जरूरी है। भीतर और बाहर के आकाश का एकाकार होना ही मुक्ति का प्रबोधन है, वही ईश्वरानुभव है।

जल में कुं भ, कुं भ में जल हैं।

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गुरुवाणी-११

सद्गुरु और अनुभव सद्गुरु और अनुभव भले ही दो अलग- अलग शब्द दिखाई देते हो ं किन्तु मेरे सोच और समझ में ये दोनो ं एक दूसरे से अभिन्न हैं । वास्तविकता तो यह है, कि सद्गुरु शब्द का अर्थ ही अनुभव से समझ में आता है। इसे यो ं भी कहा जा सकता है कि अनुभव पहले होता है, फ़िर सद्गुरु प्रकट होते हैं । अगर गौर करें तो पायेंगे कि प्रत्येक साधक के जीवन में अनुभवो ं की शृं खला, एक कड़ी पहले आती है । अनेक छोटी छोटी घटनाएं एक के बाद एक घटती अनुभव होती हैं। हर साधक के जीवन में सद्गुरु के प्रकट होने का समय पहले से ही तय है। निमित्त कु छ भी हो सकता है, चाहे वह स्थान हो, परिस्थिति हो या कोई अन्य, किन्तु मिलन का क्षण पूर्व निर्धारित है। यो ं तो हम चाहकर भी सद्गुरु को नही ं खोज सकते हैं क्योंकि हमारे पास वह आँख, वह दृष्टि, वह परख है ही नही ं । हो भी कै सें? स्वयं सद्गुरु अपने आप शिष्य को खोजते हैं, उसे आवाज लगाते हैं, उसे अपनी पहचान बताते हैं, उसे इस बात का प्रमाण देते हैं कि वे ही वह परमसत्ता है जिसकी तलाश की कामना शिष्य के मन में उठी थी । यह बात अलग है कि वह पुकार, वह सं के त, वह सं देश वह क्रिया न तो शिष्य को दिखाई देती हैं और न शिष्य के अलावा किसी अन्य को भनक ही होती है । बस अपने आप मन के तार झं कृ त होने लगते हैं, भीतर ही भीतर आनं द का स्रोत बहने लगता है, उन्मना भाव जाग्रत होने लगता है, इसी घटनाक्रम को अनुभव कहते हैं । अनुभव से ही शिष्य अपने सद्गुरु को पहचान लेता है । 18

गुरुवाणी


साधक अनुभवो ं से ही सद्गुरु शब्द की सत्ता व अर्थ समझता है । अनुभवो ं से बोध होता है । अनुभवो ं से ज्ञान मिलता है। अनुभवो ं से विश्वास बढ़ता है । अनुभवो ं से विवेक आता है । अनुभव ही सद्गुरु की सामर्थ्य का, उसकी उपस्थिति का, उसकी असीम शक्ति का अहसास कराता है । सद्गुरु के बिना अनुभव होना असं भव है इसीप्रकार सद्गुरु हो और अनुभव न हो ं यह भी असं भव है । स्वयं के अनुभव से प्राप्त ज्ञान ही सच्चा आत्मज्ञान है । उधार का ज्ञान तो बिखरा पड़ा है, वह तो कही ं भी मिल जाएगा । ऐसे बासी ज्ञान की चर्चा करने वाले भी अनेक मिल जायेंगे । लेकिन ऐसा ज्ञान के वल तर्कों और भाषणो ं में ही काम देता है, वह बुद्धिविलास ही है, उससे कु छ भी हासिल नही ं होता है । हां उससे अहंकार जरूर जन्म सकता है, वह अहंकार पुष्ट होकर पनपेगा भी, वही अहंकार उसके धारणकर्ता का घात ही करेगा । इसके विपरीत अनुभव से प्राप्त ज्ञान साधक में विनम्रता लाएगा । अहंकार उसे छू भी नही ं सके गा । जो साधक एक बार भी उस असीम को लख लेगा, उसे महसूस कर लेगा वह यह भी निर्णय कर लेगा कि असली ज्ञान कौनसा है? उसे कण और मण का विवेक हो जाएगा । फ़िर अहंकार टिके गा कहां? अहंकार के लिए स्थान ही कहां रहेगा? इसीलिए ज्ञान के लिए अनुभव का सम्बल आवश्यक है और यह ध्रुव सत्य है कि अनुभव के लिए सद्गुरु का होना जरूरी है । सद्गुरु के वल अनुभव देते हैं । पात्रता विकसित हो तो अनुभवो ं की झड़ियां लगा देते हैं । सद्गुरु कभी ज्ञानी होने का दावा नही ं करते और न जाहिर तौर पर कभी ज्ञान की बातें करते ही दिखाई देते हैं । सद्गुरु हमेशा मौन ही रहते हैं, उनके पास शब्दों की कमी हर समय रहती हैं । उन्हें ज्ञात है कि जो खज़ाना उनके पास है उसे शब्दों में व्यक्त की नही ं किया जा सकता तो फ़िर शब्द साधना क्यों? उनके पास तो अनुभवो ं का अकू त खज़ाना होता है । वे शब्दों के बजाय अनुभव देंगे, अनुभव के सद्गुरु और अनुभव

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अलावा कोई छोटी - मोटी वस्तु उनके पास है ही नही ं । वे रखना भी नही ं चाहते । जिसे अनुभव मिल जाता है, उसे फ़िर किस चीज की दरकार होगी? अनुभव आते ही साधक तो परमानं द में गोते लगाने लगेगा, मस्ती और आनं द में झमू ता मिलेगा, व्यर्थ की चर्चाओ ं और कामो ं के लिए उसके पास वक्त ही कहां मिलेगा? दनि ु याई लोग उसे दीवाना कहे, पागल कहे पर वह होगा सयानो ं में सयाना । वह किसी भी विषय में तर्क नही ं करेगा, किसी वाद- विवाद में नही ं पड़ेगा, किसी परिभाषा से बं धेगा नही,ं वह सभी के बीच रहते हुए भी अके ला ही होगा, न उसे किसी समर्थन की आवश्यकता है और न किसी के विरोध की परवाह । उसे किसी से किसी प्रकार के प्रमाण-पत्र, मान्यता की भी अपेक्षा नही ं । न उसे अपनी प्रतिष्ठा चाहिए और न किसी का आकलन करने की उसकी इच्छा । वह तो गाता, गुनगुनाता गुजरता दिखाई देगा। द:ु ख - दर्द और मायूसी उसे छू तक नही ं सकें गे । उसके चेहरे पर अलौकिक तेज जगेगा । यही तो है असली ज्ञान का तेज, असली साधना का तेज । इसीलिए तो मैं बार- बार, हर पल सभी साधको ं से यही कहती हूं कि बहुत हो गई बातें, बहुत पढ़ और रट लिया, बहुत सुन लिया । अब तो अनुभव की यात्रा प्रारंभ करो, अब तो अनुभव के जगत की सैर करो, अब तो अनुभव, बस अनुभव करो मेरे भाई । ध्यान करो भाई ध्यान करो, गहरा गहरा ध्यान करो । जय श्री कृ ष्ण । ..................आपकी अपनी बा पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह मार्च२०११

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गुरुवाणी


गुरुवाणी-१२

सद्गुरु की सीख आत्मीय साधक! ध्यान करते-करते तुम लम्बी यात्रा कर चुके हो, कु छ सीख बातें अब तुम्हें बतानी हैं। ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान प्रयोजन-इन चारो ं को जानकर ध्यान करना ही उसका फ़लप्रदाता है। जो ज्ञान व वैराग्य से उत्पन्न हो, सदा शांतचित्त रहता हो, श्रद्धालु हो और जिसकी बुद्धि प्रसाद गुण से युक्त हो, ऐसे साधक को ही सत्पुरुषो ं ने ध्याता कहा है। श्रद्धापूर्वक, विक्षेपरहित चित्त से परमेश्वर का चिन्तन ही ध्यान है। बुद्धि के प्रवाहरूप ध्यान का जो आलम्बन या आश्रय है, उसी को ध्येय कहते हैं। मोक्ष सुख का पूर्ण अनुभव और अणिमा आदि ऐश्वर्य की उपलब्धि ध्यान के प्रयोजन हैं। ध्यान से सौख्य और मोक्ष दोनो ं की सहज प्राप्ति होती है अत: मनुष्य को सबकु छ छोड़कर ध्यान में लग जाना चाहिए। बिना ध्यान के ज्ञान नही ं होता और जिसने योग का साधन नही ं किया है, उसका ध्यान सिद्ध नही ं होता। जिसे ध्यान और ज्ञान दोनो ं प्राप्त हैं, उसने समझो भवसागर को पार कर लिया है। शिवपुराण में आया है--यथा वह्निर्महादीप्त: शुष्कमार्द्रं च निर्दहेत् । तथा शुभाशुभं कर्म ध्यानाग्निर्दहते क्षणात् ॥ ध्यायत: क्षणमात्रं वा श्रद्धया परमेश्वरम् । यद्भवेत् सुमहच्छ् रे यस्तस्यान्तो नैव विद्यते ॥ जैसे प्रज्ज्वलित हुई आग सूखी और गीली लकड़ियो ं को जला देता है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि शुभ और अशुभ कर्म को क्षणभर में दग्ध कर देती है। जैसे छोटा दीपक भी गहन अंधकार का विनाश कर देता है, इसी तरह थोड़ा सा योगाभ्यास भी भारी पाप का विनाश कर डालता है। श्रद्धापूर्वक क्षणभर भी परमेश्वर का ध्यान करने वाले पुरुष को सद्गुरु की सीख

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जो महान् श्रेय प्राप्त होता है, उसका कही ं अंत नही ं है। शिवपुराण में ही कहा गया हैनास्ति ध्यानसमं तीर्थं, नास्ति ध्यानसमं तप: । नास्ति ध्यानरूपो यज्ञस्तमाध्यानं समाचरेत्त् ॥ ध्यान के समान कोई तीर्थ नही ं है, कोई तप नही ं है और कोई यज्ञ नही ं है, इसलिए अवश्य ध्यान करें। प्राणायाम करने से शांति, प्रशांति, दीप्ति और प्रसाद जैसी दिव्य शक्तियां प्राप्त होती हैं। समस्त आपदाओ ं के शमन को शांति कहते हैं, तम ( अज्ञान) का अंतर्बाह्य नाश प्रशांति कहलाता है, अंतर्बाह्य ज्ञान के प्रकाश को दीप्ति और बुद्धि की जो स्वस्थता (आत्मनिष्ठता) है, उसे प्रसाद कहा गया है। बाह्य और् आभ्यं तरसहित जो समस्त करण हैं, वे बुद्धि के प्रसाद से शीघ्र ही प्रसन्न और निर्मल होते जाते हैं। ध्यानी साधक आत्मतीर्थ में अवगाहन करते और आत्मदेव के भजन में ही लगे रहते हैं। इसे योगियो ं को ईश्वर के सूक्ष्म स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन होता है इसलिए प्यारो,ं मैं निरंतर कहती हूँ , ध्यान करो, भाई ध्यान करो। गहरा गहरा ध्यान करो। परमशिव को प्राप्त करो। .................राजयोगी प्रभु बा पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह अगस्त २००७

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गुरुवाणी


गुरुवाणी-१३

बा का प्रसाद अधिकतर लोग जब ध्यान करते हैं तो वे श्रद्धारहित होते हैं। न तो उनमें अष्टसात्त्विक भावो ं का जागरण ही हो पाता है और न ही उनका ध्यान सध पाता है। हर कोई न जाने क्यों दिखावा करने को आतुर हो उठता है कि उसका ध्यान सबसे श्रेष्ठ लगा है, न जाने क्यों वह चमत्कार का वर्णन करने को उत्सुक दिखाई देता है? ऐसा दिखावटी व्यक्ति स्वयं भी फ़ँ सता है तथा प्रभाववश अन्यों को भी भरमाता है। स्मरण रखें ध्यान एक सहज क्रिया है। ध्यान लगने में समय लगता है, आसन पर बैठे कि ध्यान लगा ऐसा कोई मण्डी का सौदा नही ं है यह क्रिया। आप के वल ध्यान करें, दिखावा नही ं करना है। ध्यान के समय किसी मूर्ति भी आँखो ं के सामने मत लाओ, के वल बैठे रहो। उस असीम ईश्वर ई गरिमा का गुणानुवाद करो, उसका करिश्मा अनुभव करो। तुम्हें कु छ भी करने की आवश्यकता नही ं है। के वल श्रद्धापूर्वक ध्यान की गहराई में उतरते चले जाओ। उस परम प्यारे को के वल प्रेम चाहिए, एकाग्रता चाहिए, अपने मार्गद्रष्टा सद्गुरु का स्मरण चाहिए, आडम्बनविरहीन होकर अपनी यात्रा जारी रखिए, ईश्वर तो बस आपकी प्रतीक्षा में ही खड़ा है। तुम तो के वल सही ढंग से, सद् मार्ग से आगे बढ़ो, मं जिल समीप ही है। ...........आपकी अपनी बा! पूर्वप्रसिद्धी--शिवसुगंध- फरवरी २००७

बा का प्रसाद

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गुरुवाणी-१४

प्रिय साधक: अप्प दीपो भव मेरे प्रिय साधक-भक्तों, दीपावली के पावन पर्व पर आपको शुभकामनाएं व आशीर्वाद। श्रीगुरुकृ पा से जो पावन ज्योति आपके अंतर्मन में प्रज्वलित हुई है, उसके आलोक से आपका जीवन सपरिवार तेजोमय हो ऐसी मं गलकामनाएं । प्रकाश के इस पर्व पर आप और हम परम्परागत रूप से दीप जलाते हैं, पर याद रहें हमें यही तक नही ं रूक जाना है। जो ज्ञानज्योति सद्गुरु ने अपनी अनुकम्पा बरसाकर हमारे अंतर में जलाई है, उसे बुझने नही ं देना है। निरंतर ध्यान-साधना से प्राप्त उस प्रकाश को पहले अपने दिल के हरेक कोने को प्रकाशित करने में लगाएं और बाद में औरो ं के जीवन को सं वारने का भी सोचे। स्वयं को प्रकाशित करना ही ‘अप्प दीपो भव’ का स्वीकार है। जब व्यक्ति स्वयं दीप बन जाता है तो उसके सं सर्ग में आनेवाला हर व्यक्ति स्वत: प्रकाशित हो उठता है। ‘एक दीप से जले दूसरा’ का दृश्य साकार हो उठता है। दीपो ं के प्रज्वलन की यह शृं खला ही तो जीवन का सन्मार्ग है। श्रीगुरुदेव के दर्शाए पथ पर चलकर अज्ञान, अंधविश्वास, काम, क्रोध, ईर्ष्या, अभिमान, मत्सर जैसी अनेकानेक विनाशक प्रवृत्तियो ं के प्रभाववश प्रकटे अंधकार को हमेशा हमेशा के लिए मिटाना है। दीपक तो एक प्रतीक है, असली ज्योति तो गुरुज्ञान की, आत्मज्ञान की, ईश्वरीयज्ञान की है। इसे प्रज्वलित करने हेतु श्रद्धा, समर्पण, भक्ति रूपी तेल की आवश्यकता है। इस तेल की आपूर्ति के लिए साधक को नियमित ध्यान व निरंतर नाम स्मरण और सत्सं ग करना ही होता है। इनके परिणामस्वरूप इस ज्योति से नि:स्वार्थ प्रेम, करुणा, सद्भाव, ममता, निर्मलता, मधुरता, समभाव की किरणें प्रकट होगं ी। इन किरणो ं से आत्मज्ञान, आत्मकल्याण और अध्यात्म का प्रकाश विकिरित होगा तभी 24

गुरुवाणी


सही अर्थों में दीपोत्सव मन पाएगा। साररूप देखें तो आत्मज्ञान ही वास्तविक लक्ष्मी है। मैं अपने सभी साधको ं की आँखो ं में, उनके अंतस् में यही दिव्यज्योति देखना चाहती हूँ । हर साधक मेरे लिए एक प्यारा सा दीपक है। जब हरेक दीपक में मुझे वह ज्ञानज्योति प्रसन्नतापूर्वक डोलती, इठलाती, आनं द की के लियां करती दृष्टिगत होगी तो ही मैं भी पूरे आनं द से, पूरी मस्ती से सराबोर होकर तुम्हें ‘हैप्पी दीपावली’ कह सकूं गी । …तुम्हारी अपनी बा. पूर्वप्रसिद्धी- शिवप्रवाह नोव्हेंबर २००७

प्रिय साधक अप्प दीपो भव

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गुरुवाणी-१५

सद्गुरु का सं देशा

शक्तिपात महायोग साधना में कु छ खोना नही ं होता है, कु छ देना भी नही ं पडता है यहां तक की सांसारिक गतिविधियां भी नही ं त्यागनी पडती है। बस साधना के लिए अपने आप को प्रस्तुत करना ही इसका प्रवेश चरण है । शक्तिपात साधना से ईश्वर प्रसन्न होगा या उसके दर्शन होगं े ही, ऐसा भी नही ं है । किन्तु इससे अपने भीतर ही ईश्वरत्व प्रकट हो सके गा ऐसा अवश्य है । आत्मराम में रमण करने वाला सुख व आनं द के सागर में निमग्न रहता है, अपनी सुप्त शक्तियो ं के जागरण से वह अनं तानं द को प्राप्त कर लेता है । मानव जीवन की सार्थकता उसके चरमोत्कर्ष में ही है। इसलिए ध्यान और जप से शक्ति जागरण का मार्ग प्रशस्त करो । -अपनी बा पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह मार्च २००८ 26

गुरुवाणी


गुरुवाणी-१६

साधन पथ सांप और सिढ़ी खेल जैसा है। मेरे सभी प्यारे साधको ं को दीपावली के पावन पर्व पर अनेक-अनेक शुभाशीर्वाद, नूतन वर्ष हेतु शुभकामनाएं । आने वाले वर्ष में आप सभी साधक तीव्रता से साधनरत हो ं और आप सभी के परिवार में सुख, समृद्धि, सौहार्द एवं स्वास्थ्य की वर्षा निरंतर हो ऐसी श्रीसद्गुरुदेव से मं गल प्रार्थना। इस दीपावली पर मैं चाहती हूँ की हम सभी एक छोटा सा सं कल्प लें। स्वयं को बदलने का सं कल्प। यह बदलाव भले ही छोटा हो और यह परिवर्तन भले ही धीरे-धीरे हो किन्तु हो निश्चित। हम औरो ं के बदलने का हमेशा प्रयास करते हैं। हम समाज सुधारने की बात करते हैं। विश्व कल्याण की सोच रखते हैं। किन्तु यह सब हकीकत में क्या है हम सभी जानते है। जो स्वयं को बदल नही ं सके वो औरो ं की, समाज की, विश्व की क्या बात करे, और क्यों करें? और अगर करना भी है तो आरंभ तो स्वयं से ही करना होगा। तो यह छोटा सा ध्येय लेकर शुरुआत करें। जो भी हम में दर्गु​ु ण हो, चाहे झठू बोलने की आदत, औरो ं से ईर्ष्या, बुरे व्यसन, किसी की बिना वजह और बगैर किसी ठोस कारण के निदं ा, आलस्य, किसी से ईर्ष्यावश प्रतिस्पर्धा, झठू , द्वेष, क्रोध, लोभ, लालच, बुरी नियत, अन्य धर्मों, आश्रमो ं की या देवालयो ं की निदं ा, धर्म एवं ईश्वर के नाम पर अंधविश्वास, ढोगं आदि-आदि जो भी बुराइयां हम में हैं उन्हें मिटाने का सं कल्प लें | इसका बड़ा सरल तरीका है पहले तो आसन पर नियमित रूप से साधन करें| उसी आसन पर बैठ कर विचार करें कि क्या जो हम कर रहे हैं वो हमारे सद्गुरु को भाएगा? क्या हम साधन पथ सांप और सिढ़ी खेल जैसा है।

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सर उठा कर अपनी इस आदत का, कृ त्य का बखान सद्गुरु के समक्ष कर पाएं गे ? क्या इसीलिये हमने यह अद्तभु और अनमोल शक्तिपात दीक्षा ली है? याद रहे शक्ति याने आग का गोला है, उससे खेलना मत, एक पल में वो सब कु छ ख़ाक कर सकती है| यह शक्ति बड़ी अद्तभु है| निर्माण की ओर, सकारात्मकता की ओर बढ़ेगी तो निहाल कर देगी, नकारात्मकता या विध्वं श की ओर चलेगी तो बेहाल कर देगी| अत: इसके जागरण का एक उपाय है, सदगुरुदेव से ही इन अवगुणो ं को हटाने हेतु सहायता की प्रार्थना करें और उसी क्षण से स्वयं इन आदतो ं को बदलने का सच्चा प्रयास करें| अपना निरर्थक अहंकार निकाल फें कें , स्वयं को सबसे होशियार, बुद्धिमान, श्रद्धावान् और बड़ा अधिकारी मानने के बजाय सबसे छोटा मानें | जो भी अच्छा हो रहा है वो ईश्वर की, मेरे सद्गुरु की असीम अनुकंपा है, यही भाव हमेशा मन में रखें | यह सब कोई एक या दो दिन का प्रयास नही ं है, यह ज्ञान अंतर्मन से, यह बोध अंतरात्मा से उठना चाहिए। ध्यान रहे साधक का जीवन सांप-सीढ़ी के पारम्पारिक खेल जैसा है। ऊपर बढ़ने की जो सीढ़ियां हैं वो गुरुकृ पा है किंतु ध्यान रहे हर सीढ़ी के बाद एक सांप भी है जो सीधे नीचे की ओर धके लता है। जैसे-जैसे खेल आगे बढता है सांप बड़ा होता जाता है और सबसे बड़ा सांप मं जिल के ठीक एक कदम पहले है। यहां उसके दंश में आ गए तो ठे ठ नीचे, पतन की गर्त में जाना निश्चित है। ये सांप क्या हैं? ये हैं हमारे अहंकार, अभिमान और कभी कभी तथाकथित स्वाभिमान। जब ये सांप दस लेते हैं तो हमारी दृष्टि धुंधलाने लगती है, जब इन सांपो ं का विष चरम पर होता है तो हम दृष्टिहीन, विचारहीन व विवेकहीन हो जाते हैं। उस समय हम सद्गुरु की आवाज सुन नही ं सुन सकते, उन्के सं के त हम समझ नही ं सकते। कोढ़ में खाज का आलम यह होता है कि हम अपने आपको उनसे भी श्रेष्ठ समझने लगते हैं। किसी भी साधक के जीवन में सांपो ं से बचना उतना ही आवश्यक है जितना कि सीढ़ी पर चढ़ना। बल्कि सांपो ं से बचना अधिक जरुरी है। एक बार सीढ़ी चूक भी गए तो कम से कम 28

गुरुवाणी


वहां तो खड़े ही रहेंगे, नीचे तो नही ं जायेंगे, एक एक कदम आगे बढ़ने के अवसर तो पास में होगं े ही। किन्तु सांप ने डस लिया तो नीचे गिरना अवश्यंभावी है। सीढ़ी चढ़ेंगे या सांप ड़सेगा इसका निर्णय कौन करता है? जाहिर हैं खेल में प्रयुक्त होने वाला पासा। यह पासा कै से डालना यही तो साधन है। पासे को साधन से ही साधा जा सकता है। कितने अंक चाहिए इसकी दक्षता साधन से ही आयेगी। अत: ज्यों ज्यों साधन सधेगा सांप से बचने और सीढ़ी को पकड़ने की पात्रता भी विकसित होने लगेगी। अगर साधक नियमित साधनरत है तो भीतर आत्मज्ञान का दीपक जलेगा ही| उसी अंतस के दीपक से साधन-पथ प्रकाशित होगा| फिर तो सांप भी सांफ नजर आने लगेगा और सीढ़ी भी। कहां सांप है और कहां सीढ़ी पर चढ़ने के लिए पासा कै से पड़ेगा यह भी महारत हासिल होने लगेंगी। दीपावली पर मेरे सभी साधको ं के लिए मैं यही कामना करती हूँ कि आप अपने जीवन में हमेशा गुरुकृ पा की सीढियां चढ़ते रहें और सांपो ं से बचते हुए अपनी मं जिल तक हँ सते, खेलते, परमानं द में झमू ते हुए पहुंच जायें। वहां सद्गुरु अपने दोनो ं हाथ ं त करने, आपको अपने आप में समाने हेतु प्रतीक्षारत हैं। जय पसारे आपको आलिगि श्रीकृ ष्ण। –आपकी अपनी बा पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह ऑक्टोबर २०११.

साधन पथ सांप और सिढ़ी खेल जैसा है।

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हम आसमान (आकाश) है और सारे साधक हमारी गोद में बिठाए हुए तारे हैं। एक भी तारा जमीन की तरफ़ गिरता है तो हमें बहुत द:ु ख होता है। हम उसे गिरने नही ं देत,े मध्य से ही उठा लेते हैं। फ़िर वह तारा कै सा भी क्यों न हो-निन्दक हो या वं दक। हम साधको ं को उनकी गलतियो ं की सजा जरूर देते हैं लेकिन उन्हें गिरने नही ं देते हैं। उन्हें सं भालकर फ़िरसे अपनी गोदी में बिठा देते हैं। हमें आपसे और कोई तौफ़ा नही ं चाहिए। मेरी अपने सद्गुरु से यही प्रार्थना है कि आप ज्यादा से ज्यादा ध्यान की ओर बढ़ें। हमें दूसरा कोई उपहार नही ं चाहिए। ….आपकी अपनी बा हमें तुम मिल गये सद्गुरु...।


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