अध्यात्म के समु न की सगु धं
जनमदिन पर बहोत बहोत बधाई!
अध्यात्म के समु न की सगु ंध प.पू. गुरु प्रभु बा के जन्मदिवस (सं कल्प दिवस) पर प्रख्यात लेखक तथा साधक श्री. वरदीचन्द रावसाहाब तथा अन्य साधको ं द्वारा विरचित रचनाओ ं का सं कलन गुरुदेव के श्रीचरणोमं ें सादर समर्पित
सद्गुरुकृ पा से साधक की शक्ति का जागरण एक अनुभूत सत्य है, समर्थ सद्गुरु अपने पात्र शिष्य को शून्य से सहस्रार तक की यात्रा सहज ही करा देते हैं। आश्चर्य तो यह है कि इस यात्रा की तैयारी में साधक को अनुग्रह के पहले या बाद में कु छ भी नही ं करना पड़ता है, जो भी होता है वह सद्गुरु द्वारा ही सम्पन्न होता है। साधक मात्र द्रष्टा व अनुभोक्ता है। साधक तो बस सद्गुरु की सन्निधि का सं कल्प पाल ले, सद्गुरु का शिष्य तारण- सं कल्प समय पाकर स्वत: पूर्ण होता है, इसमें न आग्रह चाहिए न दरु ाग्रह। यह दोनो ं ओर के सं कल्पों का उत्सव है अत: वासुदेव कु टुम्ब में प्रभु बा का जन्मोत्सव सं कल्प-दिवस के रूप में मनाया जाता है। ....वरदीचन्द राव.
अनुक्रम पुष्प
शीर्षक
रचयिता
पृष्ठ क्र.
१
अध्यात्म के सुमन की सुगंध
वरदीचन्द राव
१
२.
जन्मोत्सव
वरदीचन्द राव
४
३
शिवसं कल्प
वरदीचन्द राव
७
४.
साधना का सार
वरदीचन्द राव
८
५.
जनमदिन बहुत मं गलमय हो
मधुलिका सिहं
१०
६.
सं कल्प
वरदीचन्द राव
१२
७.
सं कल्प दिवस पर शुभकामनाएं
रेणु कौशिक
१५
८
जन्मोत्सव का राम राम
वरदीचन्द राव
१६
९
हृदय तुम्हारा बहता जल है
वरदीचन्द राव
१९
१०.
अखं ड स्नेह स्रोतस्विनी को नमन
वरदीचन्द राव
२०
११
बधाई हो बधाई
चं द्रेश पलन
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध पुष्प १
राजमहिषी जैसे आभायुक्त वस्त्र, विविधांग आभूषणो ं से सज्जित, वैभवपूर्ण आसन। यह किसी प्रतिमा का वर्णन नही ं हैं। यह है बा का भौतिक रूप। हर नवागं तक ु पहली बार देखता है तो ठिठक सा जाता है। उसके अंतस् में पहला प्रश्न उगता है - सं त होकर इतना बनाव-शृं गार क्यों? तत्पश्चात् जब उसकी दृष्टि ’बा’ के मुखमण्डल पर टिकती है तो वह पाता है - एक सौम्य व सं कर्षित करती मुसकान, अपनेपन से लबरेज आँखे, समक्ष बैठे हरेक व्यक्ति के मानस- अंधकार को विदीर्ण करता तेज, आशीर्वाद लुटाते हस्त पद्म और अपने में समा लेने का अद्तभु निमं त्रण। तब दूसरा प्रश्न उगता है -कै से? क्यों और कै से की ऊहापोह में उसे बा के सं सर्ग में अल्पावधि बीत चुकी होती है । इस सन्निधिकाल में बा के सद्भाव तरंगायित होकर वातावरण को प्रेममय कर देते हैं। अनुभव होती है एक ताजी सुगंध, जिसे अध्यात्म के सुमन की सुगंध कहना सटीक होगा। फ़िर प्रश्न सो जाते हैं । पूर्व में अंकुरित प्रश्न अपना रूप बदलकर श्रद्धा में और श्रद्धा अपना शृं गार कर आस्था में बदलने लगती हैं। किसी को पता ही नही ं चलता यह हो गया-कब? क्यों , कै से और कब? इन तीन सूत्रों को समझना ही बा को समझने का प्रथमिक प्रयास है। इन तीन पर ही अधारित है बा के वासुदेव कु टुम्ब की अवधारणा और उनके द्वारा निर्मित स्नेह का आकाश। अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध पुष्प १
जैसे देव-प्रतिमा का भक्तगण चाहे जैसा शृं गार करें, कितने ही लकदक आभूषण धराये, कितना ही भव्य सिहं ासन लगाये, प्रतिमा है अनजान, प्रतिमा है अनासक्त, प्रतिमा है निर्लिप्त । यह सारा कार्य तो भक्त का अनुरंजन है । ठीक ऐसा ही अनुरंजन प्यारे पुत्रों को मिले इसलिए बा ने इसे स्वीकारा है । बा शक्तिरूपी शिव और शक्तिरुपी सुगंध का सुमेल है । बा शिव का प्रवाह है , बा शिव और शक्ति के सामं जस्य का आल्हादक स्वरूप है । एक दीप से जले दूसरा यह भाव भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन का आधार रहा है । बा में दीपक, बाती और तेल तो जन्मत: ही परमात्मा ने रच दिये थे । इस दीपक में ज्योति परमपूज्य योगीराज गुळवणीजी महाराज ने स्वयं अपने दीपक से प्रज्वलित कर दी । इससे इस दीपक में समा गई एक शीतल चांदनी, एक दिव्य तेज, एक झिलमिलाहट और गजब का गुरुत्वाकर्षण। यह आकर्षण जब श्रद्धालु के मन को कर्षित करता है, तन को रोमांच से भरता है , बुद्धि को स्पंदन देता है, भावो ं को वं दन देता है, तब एक विलक्षण घटना घटित होती है। मैं और मेरा तिरोहित होकर अध्यात्म की बयार में उड़ जाता है, साधक मुक्ति के कै लास की ओर मुड़ जाता है । फ़िर क्यों, कै से और कब का उत्तर पाना हेतु नही ं रहता, हेतु अपना प्रदर्शन भी नही ं रहता, मं तव्य बा का दर्शन भी नही ं रहता, फ़िर तो बा स्वतं उतर आती है उसके हृदपटल पर, उसे हर क्षण उनकी उपस्थिति की अनुभूति होती है, अपने अंतर्मन में रमते सद्गुरु को देख - देखकर उसकी आँखो ं में अश्रुझड़ी लग जाती है , ये आँसू अतिशय खुशी के होते हैं। ऐसे में साधक की दशा होती है शून्य, निर्विकल्प, निराशय और कभी -कभी निराकार भी । 2
अध्यात्म के सुमन की सुगंध
अध्यात्म के सुमन की सुगंध पुष्प १ तब बा के नाभिकमल से उगते सरोज की पं खुड़ियो ं पर साधक स्वयं आरूढ़ होकर उनके विराट - दर्शन का सुख पाता है । यही क्षण सद्गुरु और सच्छिष्य के मिलन का ऐतिहासिक क्षण हो जाता है, यह मिलन शाश्वत बन जाता है, यह मिलन सनातन हो जाता है । इससे सिद्धि नही ं सिद्धता प्रकट होती है, दैन्यता नही ं दिव्यता का आविर्भाव होता है और शिवोऽहं का मं त्र स्वयं सिद्ध हो जाता है । फ़िर बा को न तो समझना शेष होता है और न ही समझने की आवश्यकता। बा और साधक में भेद ही विलुप्त हो जाता है । अध्यात्म के सुमन की सुगंध से सराबोर साधक अपने आप में मगन होकर परमात्मा के छोर को पा लेता है, बा का सं कल्प भी पूरा हो जाता है, यह आद्यशक्ति साधको ं के दीप प्रज्वलित करने ही तो अवतरित हुई है । वरदीचन्द राव सं पादक शिवप्रवाह पूर्वप्रसिद्धी मे 2009
अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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पुष्प २
जन्मोत्सव मैंने पढ़ा हैब्रह्मा, विष्णु व महेश इकसार होकर भगवान दत्तात्रेय में अवतारित हुए थे। मैंने सुना हैसभी पूर्ण व अंशावतारोनं े अपने अपने समय में कीर्तिमान छु ए थे। मैंने जाना हैइतिहास एक चक्र की तरह घूमता है। हर शीर्ष अपने उद्गम को पुन: पुन: चूमता है। मैंने देखा हैमेरे सद्गुरु में त्रिदेव, समस्त अवतार, कोटि-कोटि देव और ग्रह-नक्षत्रों का आलोक झरता है। मैंने अनुभव किया हैसाधको ं के दिल में वही प्रकाश किरण-किरण करके उतरता है। इस प्रकाश में होता है आनं द का जल, सन्तोष की सांस, साधना की अग्नि,
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध
जन्मोत्सव पुष्प २
आरोग्य का आकाश और धैर्य की धरती। इससे प्रकाशित होने वाले को खुद दनि ु यां है सुमरती। इतना ऊँ चा स्थान कोई सद्गुरु ही दिला पाता है। उन्हें ही यह ज्ञात है कि गागर में सागर कै से समाता है? मेरे सद्गुरु, आपकी अनुकम्पा व महिमा को कै से बखाने? आपमें पल-पल जन्मते अवतारो ं को कै से पहचानें? वह कौनसी रचना है जिसमें आपकी आभा नही ं समाई? कै से दें आपको जन्मोत्सव की बधाई? जिधर देखें, जिसे देखें, बस आप ही आप दिखते हैं। पता नही ं कब आप हममें घुल जाते हैं, कब अलग होकर लीला करते हैं, कब हमारी साधना को बढ़ाते हैं, कब हमारी तकदीरें लिखते हैं? प्रभुवर, आपका जन्मोत्सव बस दिखता हुआ कार्यक्रम है। आप तो सं कल्प-जन्मा हैं, तिथि-वार-सं वत तो हमारा दनि ु याई भ्रम है। आप अबुझ हैं, मौन हैं, आपके अनूठे सं के त समझ पाएं । अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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जन्मोत्सव पुष्प २ प्रभुवर, रहम करके औसी कोई जुगत बताएं । हर साधक आपमें डू बकर आप में ही समा जाए। बून्द सागर में और अंश पूर्ण में रच-पच जाए। यही है कामना, यही है सं कल्प, हे करुणावतार, हे सकल साधको ं के तारक। हमारे सं कल्पों के विश्वास से परिपूर्ण आपको एक और जन्मदिन मुबारक। --व. राव द्वारा बदलापुर में 25 मई को सं कल्प दिवस पर प्रस्तुत काव्य पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह मई-जून 2011.
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध
शिव-सं कल्प पुष्प ३
मानव जीवन में सं कल्पों का समावेश कदम-कदम पर है। चाहे व्यावहारिक जीवन हो या धार्मिक अनुष्ठान, सभी जगह सं कल्पों का प्रावधान है। ये सं कल्प व्यक्ति स्वत: भी अंगीकृ त करता है और ग्रहण भी करवाये जाते है। सं कल्पबद्ध होने से व्यक्ति उस ओर गं भीरतापूर्वक प्रयास करता है, सं कल्प को साकार करने का मानस बनता है। सं कल्प से उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। किन्तु इन सभीप्रकार के सं कल्पों के विकल्प भी हैं। सं कल्प सध नही ं पाये तो उसके विकल्प हमें सं तोष देकर निराशा से बचाते हैं। वस्तुत: ये सं कल्प हमारे सं तोष तक ही सीमित है। हमारे कल्याण के लिए तो शिव-सं कल्प आवश्यक हैं। शिव-सं कल्प का अर्थ है-सर्व कल्याण का सं कल्प। ये सार्वकालिक, सार्वभौम और सार्वजनीन होते हैं। इन सं कल्पों से ही ’सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् द:ु खभाग्भवेत’ का भाव उपजता है। ऐसे शिव-सं कल्प हर युग के सद्गुरु ने धारण किए है। चाहे वह सद्गुरु शरीरी हो या अशरीरी,स्थूल हो या सूक्ष्म, प्रतीक हो या प्रत्यक्ष । सभी ने शिव-सं कल्प पूरा किया है। अपने सम्पर्क में आने वाले नही ं आने वाले, पात्र-अपात्र, समझ-ू नासमझू सभी के लिए कल्याण का भाव रखा गया है| ऐसी उत्कृष्ट परम्परा रही है आदिदेव महादेव से| हमारा सौभाग्य है कि हम उस बिदं ु से प्रारम्भ परम्परा से जुड़े हुए है| यह परम्परा भक्ति, शक्ति, आध्यात्मिक उन्नति की अनुभवजन्य परम्परा है| इसे समय-समय पर प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है| ऐसा ही सुयोग ‘वासुदेव कु टुंब ‘ के माध्यम से हमें भी मिला है| हम भी अपने सदगुरुदेव की सन्निधि में अपने सं कल्पों को शिव-सं कल्प बनाने के लिए और आग्रहपूर्वक आगे बढ़ें| ऐसा सं कल्प हम सद्गुरु के समक्ष साध सकें यही सं कल्प दिवस का आयोजन है| –वरदीचं द राव. शिवप्रवाह अप्रैल. २०१२. अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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साधना का सार पुष्प ४
सद्गुरु शिव की सन्निधि है। वह पालनकर्त्ता विष्णु है, वही सर्जक विधि है। वह देव है, देवालय है, देवात्मा है।
सद्गुरु सारे नक्षत्रों का चरण है। वह विराट स्वरूप का धरती पर टिका पहला चरण है। सद्गुरु प्रकृ ति का उत्साह है। वह कलकल करती नदियो ं का निर्मल-प्रवाह है। वह आकाश सा उठाव और सागर सी गहराई है।
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सद्गुरु साक्षात परमात्मा है। सद्गुरु जीवन की काकड़ आरती है। वह साधक के जीवन-रथ का स्वयं भू सारथी है।
सद्गुरु अध्यात्म की मं द मं द चलती पुरवाई है। सद्गुरु विराट स्वरुप द्वारा गाया हुआ सं कल्पभरा गीत है। इसीलिए सद्गुरु की महिमा शब्दातीत है। अध्यात्म के सुमन की सुगंध
साधना का सार पुष्प ४
सद्गुरु कहां और कब नही ं है? यही बात तो हरेक शास्त्र ने कही है। सद्गुरु नेति नेति है, शाश्वत है, अनादि है। इसका वरदान दर्ल ु भ और सधी हुई समाधि है।
सद्गुरु को बुद्धि से नही ं सं कल्पों से पाया जाता है। साधक के हर सं कल्प के साथ सद्गुरु कहां और कब नही ं है? यह रिश्ता और गहराता है। सं कल्पों से उगती है वे आंखे, जो उस पार तक देख पाती है।
सद्गुरु अनुग्रह के अंजन से उनमें दिव्य ज्योति समाती है। तब साधक और सद्गुरु हो जाते एकाकार हैं। यही पूर्णाहुति है, यही परम सत्य है, यही परम्परा है और यही सम्पूर्ण साधना का सार है। वरदीचन्द राव द्वारा सं कल्प दिवस पर द्वारका में प्रस्तुत रचना अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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जनमदिन बहुत मं गलमय हो! पुष्प ५
बा, जन्मदिवस के शुभ अवसर पर ..... मेरी बा, मेरी माँ ! मेरी प्रेरणा, मेरी साधना, मेरी वं दना, मेरी अर्चना | ये क्या की है मैने जीवन रचना? छोटी- छोटी बातो ं में फ़ँ सना, शारीरिक पीड़ाओ ं से डरना, मानसिक रोगो ं से लड़ना?!?! बस, प्रभु, बहुत हो गया ऐसे जीना । अब बाकी है बस एक कामना, वृक्ष - वनस्पति की सेवा करना, पशु-पक्षी की सेवा करना, नर- नारी की सेवा करना, प्राणी - निष्प्राणी की सेवा करना । पुराना जीवन यही ं हो जाये अस्त नए जीवन में रहूँ मस्त! मस्त !! मस्त !!!
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध
जनमदिन बहुत मं गलमय हो! पुष्प ५
क्या मीराबाई का नाचना? क्या चैतन्य प्रभु का झमू ना? मुझे तो शराबी की परिभाषा है बदलना! और.... जिसका भी मैं करूँ स्पर्श, हृदय से, हाथो ं से, विचारो ं से वो भी झमू े होके मस्त! मस्त!! मस्त!!! उसका जीवन भरे उज्ज्वल सवेरो ं से । बा, जन्मदिवस के शुभ अवसर पर, क्या मेरी कामना करेंगी सम्भावना? क्या ये जीवन बनेगा सुख सपना? सुना है एक बार, सिर्फ़ एक बार, सच्चे मन से करो पुकार फ़िर देखो उसकी चमत्कार! उसी चमत्कार की प्रतीक्षा में, आपकी प्रिय मधुलिका सं कल्प दिवस पर मधुलिका सिहं द्वारा विरचित काव्य. अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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सं कल्प पुष्प ६
मन के वे असं ख्य पाँव हैं जिनसे सफ़लता के सोपान चढ़कर सद्गुरु का द्वार मिलता है । जब साधना के सूर्य ध्यान की हवा और गुरुमं त्र के जल का सम्मिश्रण होता है तो तत्क्षण उपलब्धियो ं का सहस्रदल कमल खिलता है । इसकी एक - एक पँ खुरी अनेक अनेक सं देशे सुनाती है । सद्गुरु की अनुकम्पा से वही ध्वनि अनहद नाद बन जाती है । वह अजपा जप सांसो की डोर से माला बनकर जब अंतर्मन को फ़िराता है । तो साधक सद्गुरु की गोद का उत्तराधिकारी बनकर स्वयं उन्हीं में समा जाता है ।
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध
सं कल्प पुष्प ६
फ़िर न प्रयास होता है, न प्रयत्न होते हैं । सम्पर्कित भले ही कांच के टुकड़े ही हो पर सद्गुरु का सम्प्रेषण पाकर वे अध्यात्म के अनमोल रत्न होते हैं । ऐसे रत्नों के बीच रत्नप्रसूता ’बा’ का दर्शन आनं द की पराकाष्ठा और ब्रह्मानंद का आचमन है । जीव का परमात्मा की ओर गमन है ।
यह यात्रा जारी रहे । सत्यस्वरूपा ’बा’ और सत्य के पुजारी रहे । आरतियां उतरती रहें । आशीर्वादो ं से झोलियां भरती रहें । जागरण से दिखता रहे चित्ति शक्ति का चमत्कार । पा सकें हम सद्गुरु का प्यार अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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सं कल्प पुष्प ६
यही है परम्परा का प्रयोजन और आत्मिक सार । आओ सार को पायें । इस सं कल्प दिवस पर अपने मन में मुक्ति के बिरवे लगायें । २५ मई २००९ को नेरल में बा के जन्म दिवस (सं कल्प दिवस) पर व. राव की प्रस्तुति पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह जून २००९.
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध
सं कल्प दिवस पर शुभकामनाएँ । पुष्प ७
आज का ये दिन कितने दिलो ं को सुहाया है एक साल के बाद फ़िर से वो दिन आया है खुशियो ं से भर कर सूरज ने किरणें बिछाई हैं हर तरफ़ जैसे लाली ही लाली छाई है पेडो ं से भी सरसराहट की आवाज आई है हवा ने ले कर अंगडाई एक लोरी गाई है ये तालाब ये नदियाँ उमं ग से बह गई हर पत्ते- पत्ते पर खुशी की बहार छाई है ं आसमां ने जैसे अपनी बाहें फ़ै लाई हो बादलो ं ने छु प छु प कर बूँदें बरसाई हैं जमीन पर फ़िर एक सुबह निखर आई हैं चाँद तारो ं ने भी मिलकर बारात सजाई हैं क्यों ना हो ये सं सार दीवाना खुशी से मेरे गुरु को आज जन्मदिन की बधाई है थम जा ऐ वक्त तू सदा के लिये यही ं ऐसा मासूम पल जिसकी दहु ाई ही दहु ाई है ऐसे शक्स की जरूरत है हमेशा के लिये जिनके बिना जिदं गी अपूरी है हमेशा के लिये खुदा से ही क्या माँगे हम खुदा के लिये पर दआ ु है कि चलती रहे ये सांसे हमेशा के लिये। ....रेणु कौशिक. सं कल्प दिवस पर विरचित कविता अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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जन्मोत्सव का राम राम पुष्प ८
लोग कहते हैं, प्रभु बा , कल्पवृक्ष है| भक्तों का कहना है बा महाराज, अमृत की धार है| साधक कहते हैं सद्गुरु बा , माँ का प्यार है| मैं कहता हूँ ---नही,ं प्रभु बा, कल्पवृक्ष नही ं है, क्योंकि कल्पवृक्ष तो कामना करने पर ही देता है। मेरी प्रभु बा का मन तो बिन मनोरथ ही सबकी झोली भर देता है। मैं कहता हूँ ---नही,ं प्रभु बा, अमृत की धार नही ं है, क्योंकि अमृत तो शरीर का स्पर्श होने पर ही अमरता लाता है। मेरी प्रभु बा के तो स्मरण-मात्र से ही कोई भी जीवन पा जाता है।
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध
जन्मोत्सव का राम राम पुष्प ८
मैं कहता हूँ — नही,ं प्रभु बा, माँ का प्यार नही ं है, क्योंकि माँ उन्हीं को दल ु राती हैं, जिन्हें जन्माती है। उन्हीं को अपना जीवन-रस पिलाती है। पर मेरी प्रभु बा का करुण-रस तो स्नेह के बादलो ं सा अनवरत झरता है। यह हरेक के हरेक अभावो ं को हरता है। मुझे लगता है कि .... प्रभु बा, वह नं दनवन है जिसमें अगणित कल्पवृक्ष फ़लते हैं। प्रभु बा, वह सागर है जिसमें कोटि-कोटि अमृतकुं भ लहरो ं के साथ मचलते हैं। प्रभु बा, प्रेम की वह अकू त खान है जिसमें ममता के असं ख्य प्रवाह झरते हैं।
अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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जन्मोत्सव का राम राम पुष्प ८
प्रभु बा, वह अंतरिक्ष है जिसमें अनं त सूरज, चांद और तारे अध्यात्म का प्रकाश भरते हैं। ऐसी परमशक्ति का जन्म दिन उत्सव का एक बहाना है। हमारा नाता तो इसमें जन्मों पुराना है। यह बात अलग है कि हम अबोध हर कल्प में आत्मविस्मृत होते हैं सद्गुरु की पहचान कर सहारा देते है। जब भी नाव भं वर में फ़ं सती है सद्गुरु ही उसे खेता है। इस सनातन सं बं ध को निभाना मेरे सद्गुरु तुम्हारा ही काम है| अपने वश में तो बस जन्मोत्सव का राम-राम है| --वरदीचं द राव पूर्वप्रसिद्धी शिवप्रवाह में-जून २०१०
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अध्यात्म के सुमन की सुगंध
हृदय तुम्हारा बहता जल है। पुष्प ९
एक सरल रेखा हो तुम तो हृदय तुम्हारा बहता जल है । कल- कल रेवा के प्रवाह सा, गहरा किन्तु दिखता तल है ।।१॥
तुम तारक हो सगरसुतो ं की फ़िर भी तुम थिर- हम चं चल है । एक सरल रेखा हो तुम तो, हृदय तुम्हारा बहता जल है ॥३॥ कई हनुमान तुम्हारे प्रेरे, तुम में तो राघव का बल हैं। एक सरल रेखा हो तुम तो, हृदय तुम्हारा बहता जल है ॥५॥ बीज भले कोई कड़वे बोए, तुमसे पाता मीठा फ़ल है। एक सरल रेखा हो तुम तो, हृदय तुम्हारा बहता जल है ॥७॥
हम हैं बादल - आसमान तुम, हम निष्प्रभ है- भासमान तुम । आंचल में हैं स्नेह - तरंगें, हम सब की हो माँ समान तुम ।।२॥ तुम भारी हो जैसे धरती, हलकी जैसे हवा हो तिरती । आशीर्वाद लुटाती मुद्रा, हर आतुर का सं कट हरती।।४॥ तुम्हें छु ए या छलता जाए, जुड़ जाए या टलता जाए। निर्विकार तुम अनासक्त हो, हर हालत वह पलता जाए ॥६॥
वरदीचन्द राव द्वारा विरचित कविता शिवप्रवाह अप्रैल २०१० अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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अखं ड स्नेह स्रोतस्विनी को नमन पुष्प १०
आत्मीयता का असीम विस्तार अनवरत झरता वात्सल्य स्नेहसिक्त रश्मियो ं से आलोकित प्रकाशपुंज । अंतर्ज्योति को जाग्रत करती राजयोग की कीर्तिस्तं भ सं चेतना का सामुद्रिक -ज्वार । साधना के प्रवाह से अभिसं चित सरस-सधन-सं घनित अध्यात्मकुं ज । सं सर्गियो ं को भीतर तक आर्द्र करती सत्सं ग की सुरसरि -धार । आभा, प्रभा और शोभा का सिधं ,ु त्रितापो ं का शमन करती मलयपवन । सं कल्प - सरोवर की निर्मल लहर जीवन को समिधासम कर शक्तिपात का दैवी आचमन । परकल्याण में रत तेजस्विनी प्रभु बा । परम्परा में आपने अपनी क्षमता से एक नूतन इतिहास रचा। जीवन को समिधासम कर परकल्याण में रत तेजस्विनी प्रभु बा । परम्परा में आपने अपनी क्षमता से इतिहास को नमन, अध्यात्म को नमन, एक नूतन इतिहास रचा। अपनत्व को नमन, सतत्व को नमन, साधना को नमन, आराधना को नमन, लब्धि को नमन, उपलब्धि को नमन 20
अध्यात्म के सुमन की सुगंध
अखण्ड स्नेह स्रोतस्विनी को नमन पुष्प १०
शक्ति के प्रभं जन को नमन भक्ति के स्पंदन को नमन नमन हर क्षण को, नमन कण कण को नमन तुम्हारी स्मिता को। नमन तुम्हारे में रमे परमपिता को । जो देता है हमें दिशाज्ञान। कराता है आत्मानुसंधान । यही खोज हमें आत्मा से परमात्मा में रूपांतरित कर देगी । नाम जप व योग साधना तभी तो सधेगी । सधा हुआ जीवन, जीवन की साध बन जाए । आस्था घनीभूत होकर, तात्त्विक सांद्रता बरसाए ।
इसलिए इतनी कृ पा करना प्रभु, बा को दीर्घायु करना । ताकि अनं तकाल तक अजय रूप से हँ सता, गाता बहरता रहे यह आध्यात्मिक झरना।
अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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बधाई हो बधाई पुष्प ११ (श्रद्धेय ‘बा’ के जनमदिन पर) शुभ अवसर है, सौभाग्य है हमारा कोटि कोटि प्रणाम वं दन है हमारा आपसे नूतन शक्ति, शुभाशीष व निरंतर कृ पा का सुरक्षा कवच प्राप्त हो, प्रगति हो, यह कामना है हमारी। हम निर्विघ्न प्रगति पथ पर अग्रसर हो ं यह देन होगी आपकी भक्तों, साधको ं को खुशहाल देखें यह खुशी है आपकी व नवजीवन है हमारा। मां का वात्सल्य, ममत्व तो सोना है ही उसमें भी ‘बा की अनुकम्पा’ है तो सोने पे सुहागा वाली बात है। 22
अध्यात्म के सुमन की सुगंध
बधाई हो बधाई पुष्प ११
जीवन धन्य धन्य हो जाए बेड़ा पार हो जाए प्रेम व प्रभुत्व के साथ दर्शन के आनं द प्रसाद से भाग्य हमारे खुल गए आपने हमें अपनाया प्रभु ‘बा’ जीवन हमारा धन्य हो,धन्य हो, धन्य हो आपको पुन: वं दन हो,वं दन हो, वं दन हो खूब खूब बधाई हो, बधाई हो, बधाई हो। मानव कल्याण के नए आयाम का निर्माण हो यही शुभकामना व मं गल भावना है हमारी। ----चं द्रेश पलन पूर्वप्रसिद्धी शिवसुगंध अध्यात्म के सुमन की सुगंध
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सं कल्प दिवस पर बहोत बहोत बधाई.....।