Apri may june 2016 pdf

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ऄनिक्रमऽणक़ ख़त-ख़बर सम्प़दकीय अज़़दा बोलने की

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वररष्ठ कऽव प्रत़प सेहलग साम़ भ़रता पंकज ऽिवेदा

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अलेख पंटिंग्स मं रं ग संयोजन ऄऽमत कल्ल़ (कवर –2) सिसहस्थ..एक डि बकी आऽददऱ ककसलय 04 क्य़ किल्मं क़... सरस दरब़रा 05 पंज़बा ऩंको मं मऽहल़ सरोक़र श़ली कौर ऄनि. सिभ़ष नारव 33

कऽवत़एँ दो नवगात ग़ज़ल ये कलम कि छ कऽवत़एँ ह़आकि गात (वर्णणक छं द) दो नज़्म कि छ कऽवत़ चल, लौं चलं तान कऽवत़ दो कऽवत़एँ कऽवत़ कऽवत़ (नइ कलम)

(कवर -3) (कवर -3) 06 10 21 32 38 38 39 46 51 64

सिरेश ईऽनय़ल कदनेश बैस भ़वऩ शिक्ल डॉ. मंजरा शिक्ल गोसिवद शम़य कदनेश पंच़ल

11 14 26 29 52 54

संस्मरण मं तिम्हं छी लेऩ च़हत़ श्राक़ंत दिबे ईसकी गोद मं ऄसाम़ भट्ट मीसल़ध़र बरसता संवेदऩ बकि ल दवे ऄनि. पंकज ऽिवेदा सिबह होने तक अच़यय बलवदत

07 19 40 44

लघिकथ़ ददय दोहऱ चररि / ढ़ंग नमकीन प़ना दापक क़ तेल सिध़र ऄंऽतम श्रुंग़र ISSN –2347-8764

पीनम शम़य ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ कल्पऩ भट्ट डॉ. ऄवऽदतक़ सिसह मंजी शम़य चदरेश कि म़र छतल़ना

09 25 28 43 43 60

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ऽनबंध व़संता ऊती क़ प्रेम़ख्य़न पराचय द़स एक शहर मेरे भातर रहत़ ऄचयऩ ठ़कि र

20 22

व्यंग्य सर पर की कते सिनदक ऄसऽहष्णित़ से भऱ पीऱ

कमलेश प़ण्डेय रऽव रतल़मा

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सौरभ प़ण्डेय

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डॉ. प्रणव भ़रता

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समाक्ष़ कि ण्डऽलय़ छं द

भ़वऩ ऽतव़रा हस्तामल हस्ता सररत़ पदथा देवेदर अयय सिषम़ भंड़रा ईर्णमल़ म़धव ज्योऽत खरे ऽनश़ंत य़दव शऽश सहगल ऄंजऩ ं​ंडन नवनात प़ण्डे वंदऩ दिबे

कह़ना ईसकी अत्महत्य़ ह्यीमन ररलेशंस महत्व़क़ंक्ष़ सौद़ वह दोस्त हा रह़ (ब़ल) ऄपने ऄपने अइने

स़क्ष़त्क़र

नइ ककत़ब चलो अज ऽमलकर

शोधपि शमशेर बह़दिर सिसह की कऽवत़ मं संवेदऩ डॉ. भगव़न सिसह सोलंकी 58 डॉ. ऽवनय प़ठक रऽचत क़व्य संग्रह 'ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र.. संजयभ़इ चौधरा 61

सल़हक़र संप़दक सिभ़ष चंदर ✽ संप़दक

रे ख़ंकन ऽचि प्रवेश सोना ✽ व़र्णषक सदस्यत़ : 200/- रुपये पंकज ऽिवेदा 5-वषय : 1000/- रुपये ✽ (ड़क खचय सऽहत) सह संप़दक ✽ ऄचयऩ चतिवद े ा सम्प़दकीय क़य़यलय ✽ ऽवश्वग़थ़ पऱमशयक C/o. पंकज ऽिवेदा सौरभ प़ण्डेय - मंजिल़ ऄरगड़े सिशदे गोकि लप़कय सोस़यंा, ऽबददि भट्ट ✽ 80 िीं रोड, सिरेदरनगर शोधपि संप़दक 363002 -गिजऱत डॉ. के तन गोहेल ✽ डॉ. संगात़ श्राव़स्तव vishwagatha@gmail.com ✽ ✽ मिखपुष्ठ ऽचि Mo. 09662514007 सिरेश स़रस्वत

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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ख़त-ख़बर अज ’ऽवश्वग़थ़’ क़ नवान ऄंक भा ऽमल़ । स़थयक और श़नद़र । ऽनभीक संप़दकीय ऽजसमं देशभऽि पर चल रहे बव़ल को कं र मं रख़ गय़ है-ऄज़दा बोलने की । नंद भ़रद्व़ज जा ने कल़ओं के बदलते पररदुश्य की बखीबा परख की है । सन्न कर देत़ है-स़वध़न ! ऄपऱध कम हो रहे हं- व्यंग्य श्रा सिभ़ष चंदर जा क़ व्यंग्य । मनहर ईध़स, कदनकर जोशा और श्रा सिभ़ष चंदर जा के स़क्ष़त्क़र हं । ऄचयऩ जा ने ऽनमयम पर अवश्यक प्रश्न ककये हं- क्य़ ऄच्छ़ ऽलखने के ऽलए पिरस्कु त होऩ जरूरा है। भ़इ ऄरसिवद कि म़र खेड़े ने ऽजस ढ़ंग से माटिंग क़ मतलब ऄपने व्यंग्य मं समझ़य़ है। यथ़थय है। हम तो झेलते हा रहते हं। कह़ऽनय़ं सभा बेहतर हं। यह मेरे द्व़ऱ पढ़़ गय़ ऽवश्वग़थ़ क़ ऄभा तक क़ सवयश्रेष्ठ ऄंक है। - शऽशक़ंत सिसह ~✽~ ककतने ऽवमशय एक स़थ और सब के सब स़थ है । - भरत मेहत़ (एम.एस. यीऽनवर्णसंा, वड़ोदऱ) ~✽~ सेव़ मं, संप़दक महोदय, ऽवश्वग़थ़ क़ ऄंक जनवरा–िरवरा-म़चय 2016 ऄंक–1 ह़थ मं अय़ ह़र्ददक प्रसन्नत़ हुइ । व्यऽथत संवेदऩओं कक ब़त कहत़ अवरण, और ईस से भा बढ़कर अपक़ संप़दकीय बेब़क रूप से सच बोलत़ हुअ । श़यद यह सच अज कोइ सिनने और बोलने कक ऽहम्मत ऩ करं ऩ स्वाक़रे , पर अप कक ब़त ७० वषीय प्रौढ़़ (मेरा म़ँ) को समझते देर नहं लगा । आसऽलए ईनकी ओर से बध़इ ग्रहण करं । मह़देवा वम़य जा से ऽशक्ष़ ग्रहण कर चीकी और ईन से ऽमलने के ब़द अप प्रथम है ऽजनकी लेखना की ईदहंने प्रशंस़ की है, ईन के शब्ददं मं इश्वर अप को ऽनभीक बऩए रखं...अप कक कलम क़ सत्य औरं को बल देग़ । अभ़र सऽहत, अऱधऩ ऱय (कदल्ला) न पढ़इ क़ ऱजनाऽत से कि छ लेऩ देऩ है के वल ब़व़ल मच़ऩ अत़ है। सम़ज के उँचे पदं पर बैठ कर के वल शोषण हा कर रहे । च़हं व व्यऽि क़ हो य़ पद क़, मऽहल़ कदवस पर बहुत हा खीब लेख है।- ऄलक़ ऄग्रव़ल ~✽~ सम्प़दकीय से मं पीणयत:सहमत हूँ । अपको स़धिव़द। - परम़नंद ऽिप़ठा ~✽~ ऽवश्वग़थ़ एक पठनाय पऽिक़ है—ऽवनोद जोशा(ज़नेम़ने गिजऱता कऽव) ~✽~ अदरणाय, ऽजम्मेद़र संप़दक श्रा पंकज जा, जनवरा–िरवरा-म़चय : 2016 क़ ऄंक प्ऱप्त होते हा हषय हुअ। क्यीकक मेरा भा ग़ज़ल आस ऄंक मं श़ऽमल जो था, ईसके ऽलए अपक़ तहे कदल सं अभ़र प्रगं करत़ हूँ। मेरे ऽलए ऽवश्वग़थ़ ISSN –2347-8764

पऽिक़ ऽहददा स़ऽहऽत्यक जगत क़ प्रवेशद्व़र बन चीकी है। आस ऄंक के द्व़ऱ मिझे घर बैठं ऽवभान्न ऱज्यं के ईभरतं और ईभरं हुए स़ऽहत्यक़रं की कह़ऽनय़ँ, लघिकथ़, कऽवत़एँ पढकर ईनके ऄहस़सं सं जीडने क़ मौक़ ऽमल़ है। मं ऽवश्वग़थ़ को ऽवं़ऽमन 'V' म़नत़ हूँ। ऽवश्वग़थ़ के ऄंक को पढ़कर मेरे कदल मं दबा ख्व़ऽहशं को कि छ कर कदख़नं क़ जिनीन किर सं ज़ग गय़ है । आस ऄंक से म़लीम होत़ है कक अप संप़दक होने कक भीऽमक़ भा बहुत बखीबा ऽनभ़ते हं । पंकज जा, अपसं रूबरू ऽमलकर भा मिझे क़फ़ी खिशा हुइ। अपके जावन की स़दगा और अपकी सोच की उँच़इ ने मिझे मंिमिग्ध कर कदय़ । अपक़ मनोबल देखकर यह यकंन के स़थ कह सकत़ हूं कक अप आस पऽिक़ के प़ठकं क़ वगय बढ़कर अनेव़लं वि मं 'ऽवश्वग़थ़' को ऽवश्व िलक तक ले हा ज़ओंगे । बहुत स़रा शिभक़मऩओं के स़थ....... ऄऽमत व़घेल़ 'क़फ़ी' (भ़वनगर, गिजऱत) ~✽~ स्नेहा श्रा पंकजभ़इ, ऽवश्वग़थ़ क़ ऄंक जनवरा–िरवरा-म़चय -2016 ऄंक ऽमल़। म़दयवर कऽव-कऽवयिा और नव लेखकं अप प्रोत्स़हन देते हं वो प्रशंसनाय है। - डा. के . ओझ़ (सेव़ऽनवुत अइ.ए.एस.) चेन्नइ ~✽~ अदरणाय संप़दक महोदय, ऽवश्वग़थ़ िैम़ऽसक ! ऽवश्वग़थ़ क़ जनवरा-म़चय 2016 ऄंक प्ऱप्त हुअ। आस ऄंक मं मेरा ग़ज़ल को स्थ़न देने के ऽलए ह़र्ददक अभ़रा हूँ अपक़। प्रस्तित ऄंक के संप़दकीय मं अपने ऽबल्कि ल हा प्ऱसंऽगक मिद्दे पर स़थयक चच़य की है। सचमिच, ऱजनाऽत ऄब आतना ऽघनौना हो चला है कक ऄब "ऱजनाऽत" के ऩम से हा उबक़इ अने लगा है। पऽिक़ मं संकऽलत रचऩएँ ईच्चस्तराय हं। शिरुअत मं हा सिभ़ष चंदर जा के व्यंग्य "स़वध़न! ऄपऱध कम हो रहे हं!" ने सोचने पर मजबीर कर कदय़। और, डॉ० ऄशोक मैिेय जा के दोहे पढ़कर मं प्रभ़ऽवत हुए ऽबऩ नहं रह सक़। सभा कह़ऽनय़ँ एक से बढ़कर एक लगं। पऽिक़ मं प्रक़ऽशत शोधपिं से क़िी ज्ञ़नवधयन भा हुअ। मं अपकी आस स़ऽहत्य-स़धऩ को नमन करत़ हूँ, और पऽिक़ के सिनहरे भऽवष्य की क़मऩ करत़ हूँ । स़दर ! जयऽनत कि म़र मेहत़, ग्ऱम-ल़लमोहन नगर, पो०- पहसऱ, थ़ऩ- ऱनागंज, ऄरररय़, ऽबह़र-854312 मो- 09199869986

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ऱस्ते ऄच़नक ऽमल गये सम्प़दकीय दो पल ब़तं मं लगे और ऄलग हो गये । झरने ऄच़नक ऽमल गये पंकज ऽिवेदा एक-दीसरे के गले ऽमले और घिल गये । हम ऄच़नक ऽमल गये संप़दन करने व़ले ऐसे लोग हं, जो ऽहददा भ़ष़ और स़ऽहत्य हम, न ऱस्त़ य़ न झरने की स्तरायत़ के स़पेक्ष ऄपना कम़इ करने के ऽलए बैठे है । ईदहं आसऽलए भ़ष़, स़ऽहत्य और स्तरायत़ जैसे शब्ददं से कोइ मतलब नहं है। न ऄलग हुए, न घिल गए ! मतलब है तो ऩम-यश की प्रबल अग मं व्यऽिगत प्रगऽत और - जयदत प़ठक ऽवक़स से ! ऐसे संप़दक स़ऽहत्य और संस्कु ऽत को ’ख़त्म’ करने गिजऱता कऽव जयदत प़ठक की कऽवत़ आसऽलए य़द अ गया कक के पश्च़त् ऄहंक़रवश खिद को बड़़ स़ऽबत करने की होड़ मं लगे मं गिजऱता के ब़द ऽहददा भ़ष़ मं लेखन-संप़दन क़यय कर रह़ हं । हूँ। भ़ष़ओं के ररश्ते और ररश्तं की भ़ष़एँ हमेश़ मिझे स़वध़न देश-ऽवदेश मं पिरस्क़रं पर ऽवव़द होऩ आसा म़नऽसकत़ को करता रहा हं । भ़ष़ मं जज़्ब़त है और ररश्तं मं भा । भ़ष़ मं दश़यत़ है । मगर सस्ता लोकऽप्रयत़ ह़ऽसल करने और चंद ऽनदोषत़ होता है मगर ररश्तं मं ऽनऽहत स्व़थय से भरा भ़ष़ रचऩओं के बल पर खिद को पिरस्क़रं से ऽवभीऽषत हुए कदख़ऩ आं स़ऽनयत को सरे अम नंग़ कर देता है । तब भ़ष़ की ऽनदोषत़ य़ ऽवऽवध संप़दनो मं ऄपना ईपऽस्थऽत दज़य करव़ने के ऽलए पर ररश्त़ ह़वा हो ज़त़ है । भ़ष़ पहले य़ ररश्त़ ? ररश्त़ ऽसिय पैसं क़ हा खेल करऩ 'स्तरायत़' शब्दद की तौहान है । पहले य़ स्व़थय ? अकदम़नव से अज के म़नव तक ये दोनं प्रश्न आससे हम़रा भ़ष़, संस्कु ऽत और रचऩधर्णमत़ पर बहुत बड़़ वहं के वहं हं । जब भ़ष़ नहं था । संकेतं से आं स़न जज़्ब़त सव़ऽलय़ ऽनश़न लगत़ है । आसके पररण़म हम़रा अने व़ला को समझत़ और समझ़त़ थ़, तब भा स्व़थय थ़ । ररश्तं की पाढ़ा को भिगतऩ पड़ेग़ । क्यंकक ईनके ह़थं मं जो स़ऽहत्य गठन, समझ और स्वाक़र मं भा स्व़थय है । भ़ष़ और ररश्तं मं होग़, ईसमं न चमक होगा, न हम़रा संस्कु ऽत और भ़ष़ क़ जो स्व़थय कदखत़ है, ईसक़ मील पें की अग मं है । पें की अग सहा दशयन होग़ । पररण़म स्वरुप वो सच्चे स़ऽहत्य और ऽवच़रं से भा ख़तरऩक होता है म़नवाय ऽजजाऽवष़ । यहं से स़ऱ से ऄवगत हा नहं हो प़यंगे । पिरस्क़र और संप़दनो क़ यह खेल शिरू होत़ है । खेल ऽहददा भ़ष़ मं दामक की तरह ऽजस गऽत से फ़ै ल रह़ है, कि छ कदन पहले मध्यप्रदेश से एक कॉल अय़ । कह रहे थे, अप कहं वो प्ऱदेऽशक भ़ष़ओं मं भा फ़ै लने लग़ तो हम़रा भ़ष़ ऄपना पऽिक़ के ऩम पिरस्क़र देऩ शिरू कर दाऽजए । किर और संस्कु ऽत को बच़ऩ मिऽश्कल हो ज़येग़ । ईदहं ने गिर ऽसख़ने शिरू ककये । मं सिनत़ रह़ । ब़त था – ऐसे हा, जब ककसा रचऩक़र को हम दयोत़ देते हं, तो ईनक़ ऽवदेशं मं क़ययक्रम अयोजन, रचऩक़रं को खिद के व्यय को पहल़ सव़ल होत़ है; 'भ़इ, ककतने शब्ददं मं ऽलखी? ं ' यह प्रश्न ऽनभ़ऩ और ईससे अना ऄपना कम़इ करऩ । शिरू मं मेरे ऽलए अघ़त बनकर ह़वा होत़ थ़ । मौऽलक सुजन किर कि छ कदन गिज़रे और ककसा ऄदय मोहतरम़ क़ एक मैसज े शब्ददं की ऽगनता से नहं होत़ ! स्तराय रचऩ के ऽलए संप़दक अय़ । ऽलख़ थ़, ऱज्य के बड़े शहर मं अपक़ सम्म़न होग़ । खिद हा पऽिक़ मं जगह बऩत़ है । ह़ल़ँकक स़लं तक ऄखब़रा अने-ज़ने क़ व्यय खिद हा वहन करऩ होग़ और पंजाकरण स्तंभ ऽलखने के क़रण समझत़ हूँ कक ईदहं शब्ददं क़ ककतऩ ऱऽश िल़ँ त़राख तक जम़ करव़ना होगा । महत्त्व है । मगर दोनं मंच ऄलग भा तो हं ! स़ऽहत्य मं एक और नय़ ईद्योग चल़ है । ऽजनकी क़यदे से देश को नइ कदश़ देने के ऽलए ऱजनाऽत जरूरा है । मगर पच़स रचऩएँ न छपा हं वो ककत़बं क़ संप़दन करने मं लगे ऱजनाऽत को सहा कदश़ कदख़ने के ऽलए सहा ऽवच़र, व़णा और हं । जो ईभरते रचऩक़र, ऽजनक़ लेखन स्तराय न हो, ऽजनकी संस्क़र की जरुरत होता है । और, वो हमं हम़रा भ़ष़, हम़रे कोइ ककत़ब न अया हो, न स़थयक रचऩएँ कर प़ते हं, ऐसे स़ऽहत्य और स़ंस्कु ऽतक परम्पऱओं से हा ऽमल सकता है । मं लोग संप़दकत्व के प्रलोभन मं हं । ईदहं संप़दन-मण्डल मं स्थ़न ज़नत़ हूँ कक बहुत से संस्थ़नं को मेरे शब्ददं से करठऩइ होगा । प़ने के ऽलए दो-तान हज़़र की ऱऽश देकर ऄपने ऽहस्से के कि छ मगर कोइ ऽवच़र ऄपने तक साऽमत न रखते हुए ईसे जनऽहत़य पन्नं मं ऄपना रचऩएँ छपव़ना होता हं । ऐसे क़रऩमं के ऽलए प्रस्तित करऩ समझऩ च़ऽहए। अरं भ की कऽवत़ की कि छ ऄंऽतम सोशल ऽमऽडय़ प्रच़र क़ बड़़ क़रगर म़ध्यम स़ऽबत हुअ है । पंऽिय़ँ आदहं संदभं मं स़थयक कदख रहा है अपको ऄगर 'स़ऽहत्य सेवक' य़ ऐसे भ्ऱमक ऩमं के पिरस्क़रं हम ऄच़नक ऽमल गये को प्ऱप्त करऩ है तो ऄपना जेब को ऄक्षय-प़ि बऩ दाऽजए । हम, न ऱस्त़ य़ न झरने पिरस्क़र-सम्म़न अपकी झोला मं अयेग़ हा अयेग़ । अपकी आसऽलए रचऩओं को कोइ पि-पऽिक़ छ़पने को तैय़र हो न हो, मगर न ऄलग हुए, न घिल गये ! ♦♦♦

न ऄलग हुए न घिल गए !

ISSN –2347-8764

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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अलेख

सिसहस्थ... एक डि बकी क़ सव़ल है आऽददऱ ककसलय "कल़ संस्कु ऽत ऽसय़सत कि सी और ब़ज़र से परे एक ब़त तो तै है कक पिण्य सभा आकट्ठ़ करऩ च़हते हं । सभा के ऽवच़रं के रथ की वल्ग़ अस्थ़ के ह़थं मं है । च़हे वह ऽसर पर गठरा ल़दे सवयह़ऱ हो य़ स़मंत ऽजसने कभा जमं पर प़ंव नहं धरे । ऽसिय एक " डि बकी क़ सव़ल है । नइ पाढ़ा समिर मंथन ज़नता है और न सिसहस्थ। 21 वं सदा क़ स्वणयप़श च़हे ऽजतऩ मजबीत हो, सिसहस्थ किं भ के पाछे धमयभारुत़ ढी ंढनेव़ले भा आसे ऱष्ट्राय एक़त्मत़ एवं स़मिद़ऽयकत़ के ऽहस़ब से महनाय म़नंगे हा । समिरमंथन से ऽनकल़ थ़ "ऄमुत घं" । आदरपि​ि जयंत लेकर भ़ग़ थ़ आसे।पीरे 12 वषय चल़ थ़ देव द़नव संघषय । छाऩझपंा मं जह़ं जह़ं कि छ बींदं ऽगरं वह़ं वह़ं किं भ क़ अयोजन ककय़ ज़त़ है । वे स्थ़न हं-ईज्जैन हररद्व़र प्रय़ग एवं ऩऽसक । सिसहस्थ आसऽलए कक बुहस्पऽत सिसह ऱऽश मं है, सीयय मेष तथ़ चदर तिल़ ऱऽश मं। खगोलाय ऽनष्कषं एवं पिऱख्य़नं से जिड़़ है किं भ। वस्तितः यह जलतत्व की अऱधऩ, नदा को प्ऱणं मं ईत़रने और ईसकी ऄऽस्मत़ पर बौऽिक ऽवमशय क़ ईत्सव है । जो सहज ऽवश्व़स हेति अस्थ़ से जोड़ कदय़ गय़ । सम़ज ने ऊऽषयं को नकदयं क़ पहरूअ बऩय़ । भगारथ गौतम और ऄगस्त्य को स्मरण कीऽजए । ये जल रक्षक हा तो थे।जब तक हम क़र्णमक दुऽि से, नदा से ऄहोभ़व से नहं जिड़ते, ककसा जल संरचऩ क़ संरक्षण नहं करते- डि बकी एक औपच़ररकत़ हा रहेगा नदा देवा है। ईसके स़थ देववत् अचरण हा पिण्यद़या होग़ ।नदा ककऩरे बिऽिजाऽवयं क़ जम़वड़़ क़ल़दतर मं किं भ कहल़य़ । ईत्सवंकी ब़त करं --गंग़पीज़ छठ क़र्णतक पीर्णणम़ मकर संक्ऱऽदत, नदा ऽबऩ संभव कह़ं । कहते हं -150-स़ल ब़द नदा की कदश़ और दश़ स्व़भ़ऽवक रूप से बदलता है । 144 वषं के ब़द मह़किं भ की ऄवध़रण़ के पाछे यहा रहस्य तो नहं । अस्थ़ की पगडंडा से पय़यवरण संरक्षण के ऱजम़गय तक पहुंच़ने क़ प्रय़स । ईज्जैन, ईज्जऽयना य़ ऄवंऽतक़ वह नगरा है जह़ं से मंगल ग्रह की ईत्पऽि हुइ । मह़क़ल से संवेकदत, भगव़न कु ष्ण के गिरू स़ंदापना ऊऽष की पिण्यभी, कऽवकि लगिरू क़ऽलद़स और ऽवक्रम संवत् के प्रणेत़ सम्ऱं ऽवक्रम़कदत्य के तेज से दाप्त है । सिसहस्थ पर लगत़ है जैसे असम़न से सिसदीर बरस रह़ है । सवयि के सररय़ रं ग की रे शमा ध्वज़एं, यज्ञश़ल़एं, ऽशऽवरं के रं गान ISSN –2347-8764

कल़त्मक प्रवेशद्व़र, 80 तरह क़ छ़प़ ऽतलक लग़ए भगव़ध़रा स़धी समिद़य, कि छ कि छ भगव़ पररध़न ध़रे भ़विक भि, संत महंतं के मह़क़र कं अईट्स, बैनर एवं पोस्ंर ऄद्भित दुश्य की रचऩ करते हं।ऽवश्व क़ सबसे बड़़ मेल़ ऽवदेऽशयं की नज़र मं भ़रा कि तीहल क़ ऽवषय है । माऽडय़कर्णमयं की ब़ढ़ हर दस कदम पर पिऽलस एवं ऄदय सिरक्ष़ बलं के जव़न, छोंा छोंा रं ग ऽबरं गा दीक़नं, भिं के रे ले और बंडब़जे के स़थ सदत महदतं की श़हा सव़ररय़ं । ऽक्षप्ऱतं पर सम्मोहन से ब़ंधता सतरं गा ल़आं​ं,ईनक़ रं ग सोखता जलऱऽश, मोहक िव्व़रे ,जावन रक्षक नौक़एं-कभा स़ंझ क़सीरज स़क्षा तो कभा सिबह क़ । जनत़ की म़नऽसकत़, स़धिओं की पिऱतन और ह़इ ंेक जावन शैला ,पीज़ पिऽतयं को समझने, अषय परं पऱ के पाछे ऽछपे तकय एवं ऽवज्ञ़न के ऄदवेषण के ऽलए, समग्र भ़रतायत़ की स़क्ष्य प़ने के ऽलए सिसहस्थ किं भ एक व़त़यन है । हर समय तकं से भऱ तरकश क़म नहं अत़।इश्वर संवेद्य सि़ है। सबसे ऄद्भित दुश्य ईपऽस्थत करते हं ल़खं ऩग़ स़धी । जो गिरूदेव प पीज्य स्व़मा ऄवधेश़नंद ऽगररजा मह़ऱज द्व़ऱ दाऽक्षत हं। अप़दमस्तक भभीत मं ऽलपंे, जं़जींध़रा, गंद़िी लम़ल़ पहने ऩग़ स़धी समीचे संस़र के ऽलए अश्चयय क़ ऽवषय हं । धीना रम़ए हुए ये स़धी यद़ कद़ गॉगल पहन लेते हं। ऄनंत ऽजज्ञ़स़ओं के जनक आन स़धिओं को शंकऱच़यय ने सऩतन धमय के ऽलए अवश्यक बत़य़ थ़ । पीरे 12 वषय ऽनयम क़नीन प़लन करने के ब़द बनते हं ऩग़ब़ब़ । न ज़ने कौन सा ऐसा प्रेरण़ है जो आन स़धिओं को चक़चंध भरा ईपभोि़व़दा दिऽनय़ से ऄऽलप्त रखता है । जह़ं रफ्त़र स्पध़य और रव्य़जयन की ल़लस़ एवरे स्ं छी रहा है आदहं वस्तिगत अकषयण से कोइ सरोक़र नहं। ऄनेक मत पंथ और सम्प्रद़यं से ऽमलकर होता है किं भ की संरचऩ। किं भ ऄथ़यत् घड़़ कलश मंक़ । आस घं मं सम़इ है सकदयं की अस्थ़ और ऽवश्व़स । ऄगर सिसहस्थ को जल पवय म़नं तो पीज़ एवं प्य़र के जररए नकदयं को प्रदीषण रऽहत बऩऩ मिशककल न होग़ । बस जरूरत है एक संकल्प की । ।। जय मह़क़ल ।। ~✽~

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क्य़ किल्मं क़ भऽवष्य दशयक तय करते हं? सरस दरब़रा अज की सिबह बहुत त़ज़़ तरान थं, ठं डा ठं डा हव़ चल रहा था और मौसम मं भा हल्की सा ऽसहरन था। मं रोज़ की तरह ऄपने मॉर्निनग वॉक क़ लित्ि ईठ़ रहा था, तभा बगल से दो मऽहल़एं कि छ व़त़यल़प करता हुइ गिज़रं । कदम़ग ईनकी ब़तं मं ईलझ गय़ । “पिऱना किल्मं मं कह़ना ऐसा हा होता था, ह़ँ संगात बहुत बकढ़य़ होत़ थ़। वहा ऽघसा ऽपंा हल्की ि​ि लकी रोम़ंरंक् कह़ऽनय़ँ...” । तभा दीसरा मऽहल़ ने ब़त क़ंते हुए कह़; "तब किल्मं लोग एं​ं​ं​ंमं​ं के ऽलए देखने ज़ते थे । रोज़मऱय के जावन मं वहा रोऩ धोऩ देखकर, कि छ समय के ऽलए एक ऐसा दिऽनय़ मं पहुँच ज़ऩ च़हते थे जह़ं यथ़थय से दीर एक सपनं की दिऽनय़ की सैर करं । जह़ं रं ग हं, खिऽशय़ँ हं, खीबसीरता हो, प्य़र मोहब्दबत हो । पर अज लोग सच देखऩ च़हते हं, आसऽलए अज की किल्मं मं सिहस़, म़र पां, अतंक, भ्रि़च़र, यहा सब देखने को ऽमलत़ है । क्यंकक लोग यह ज़न गए हं कक जावन मेक ऽबऽलव नहं है । कह़ऽनय़ँ जावन से हा ईठ़इ ज़ता हं, आसऽलए अज कल यत़थयव़दा किल्मं बनने लगा हं । वह दोनं तो ब़तं करता हुइ ऽनकल गईं, पर मिझे सोचने के ऽलए एक ऽवषय दे गईं। क्य़ व़कइ किल्मं दशयकं के चयन से बनता हं, क्य़ किल्मं क़ भऽवष्य दशयक तै करते हं ? ह़ँ, एक दौर थ़ जब िॉमीयल़ किल्मं बनने लगं थं, पर जल्दा हा लोगं ने ईससे उबऩ शिरू कर कदय़। एक सम़ऩदतर किल्मं क़ दौर चल़। ह़ल़ंकक यह किल्मं एक ऽवशेष वगय हा पसंद करत़ थ़। यह कम बजें मं बना किल्मं हुअ करता थं, कम ल़गत होता था । तो ईसमं बड़े ऽसत़रे नहं हुअ करते थे जो कक अकषयण की एक बड़ा वजह थे। ऐसे मं अम जनत़ ISSN –2347-8764

ऽजन पर ककसा किल्म को ऽहं य़ फ्लॉप करने क़ श्रेय होत़ थ़ । ऐसा किल्मं से दीररय़ँ बऩने लगे। क्यंकक बतौर ईनके वे आसा गराबा, भिखमरा, और संि़स से भ़गकर पैसे खचय करके मनोरं जन खरादते थे। नताज़ यह हुअ कक आस तरह की किल्मं य़ तो कि छ हा ऽगनता के ऽसनेम़ घरं मं मरंना शो मं कदख़इ ज़तं य़ किर ऄंतरऱष्ट्राय किल्म सम़रोह मं ऽशरकत करतं। यह किल्मं आसऽलए और मिख्यध़ऱ से हं गईं क्यंकक किल्म फ़़आनंस क़पोरे शन (FFC जो ब़द मं NFDC कहल़य़) ने ऐसा किल्मं के ऽनम़यण के ऽलए ऽविाय सह़यत़ देना बंद कर दा। श्य़म बेनेगल, सइद ऽमज़़य, मऽण कौल, बसि चैंजी, सबको आसा संस्थ़न से ऽविाय सह़यत़ ऽमला था। लेककन भीमंडलाकरण के ब़द यह सह़यत़ बंद कर दा गइ। आस दौऱन , कि छ बहुत हा ऄच्छा किल्मं बनं, भिवन शोम, अऽवष्क़र, मंथन, कलयिग, ऄधयसत्य, ऄंकिर, ऽमचय मस़ल़, आत्य़कद किल्मं यत़थयव़दा पुष्ठभीऽम से जिड़ा थं। अज भा यह किल्मं देखने क़ प्रलोभन हम संव़र नहं प़ते। एक ब़र किर वहा दौर कदख़इ देने लग़ है, बस िकय आतऩ है, कक ऄब बड़े बड़े ऽसत़रं को लेकर आस तरह की किल्मं बऩइ ज़ रहा हं, जो सम़ज मं, पॉऽलरंक्स मं हो रहे ऽघनौने सच को ऄऩवुत कर रहे हं। यह ऽसत़रे आन किल्मं को बॉक्स ऑकिस पर वह सिलत़ दे देते हं, ऽजसकी कल्पऩ नहं की ज़ सकता। कलेक्शन के नए रे कॉर्डसय बन रहे हं और किल्म ईद्योग मं बड़े बड़े अँकड़ं क़ खेल हो रह़ है। बड़ा बजें की किल्मं पहले भा बना हं, ऽजदहं ने ऄपने समय मं बहुत ऄच्छ़ व्यवस़य ककय़ । 1949 मं बरस़त ने 1 करोड़ 10 ल़ख क़ क़रोब़र ककय़ । 1960 मं मिग़ल-ए-अज़म जो ऄपने समय की बहुत महंगा किल्म था, ऽजसने 5 करोड़ क़

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ऽबज़नस ककय़। 1974 मं शोले ने 65 करोड़ और 1994 मं हम अपके हं कौन ने 70 करोड़। पैसं के आस खेल क़ ग्ऱि समय के स़थ बढ़त़ हा ज़ रह़ है। गजना ने 114 करोड़ और द थ्रा इडाओट्स ने 200 करोड़ क़ व्य़प़र ककय़ ! प़ना की तरह पैसे बह़ऩ, एक्सोरंक लोके शनस पर किल्मं शीं करऩ, अधिऽनक तकनाकं के आस्तेम़ल ने किल्म ऽनम़यण को नए अय़म कदये ,नए अँकड़े कदये । यह दौड़ कह़ँ ज़कर खत्म होगा यह कह प़ऩ मिऽश्कल है। ह़ल़ंकक ऄभा भा कि छ छोंे ऽनम़यत़ ऐसे हं ऽजनक़ म़नऩ है कक एक किल्म मं एक स़थ आतऩ पैस़ लग़ऩ एक बहुत बड़़ जिअ है । आससे बेहतर है कक ईसा कीमत मं तान च़र छोंा किल्मं बऩइ ज़एँ ऽजससे ररस्क कम हो। जो भा हो, पर यह म़नऩ पड़ेग़ कक किल्मं के स्तर मं सिध़र अय़ है। ऩऽयक़ प्रध़न किल्मं क़ एक दौर थ़ जब पररणात़’, ‘मं चिप रहूंगा, क़जल, सिज़त़, बंकदना और मदर आं ऽडय़ जैसा किल्मं बना थं पर िॉमीयल़ किल्मं के चलन के ब़द ऩऽयक़ प्रध़न किल्मं क़ दौर जैसे खत्म हो गय़। ऩऽयक़एँ ऄऽभनेत़ओं के मिक़़बले ह़ऽशये पर रख दा गईं और के वल सज़वं की वस्ति बनकर रह गईं। मधिर भंड़रकर, अशितोष गोव़राकर ने ऩऽयक़ प्रध़न किल्मं बऩइ शिरू कं और लोगं की आन ध़रण़ओं को तोड़़ कक मऽहल़ प्रध़न किल्मं बॉक्स ऑकिस पर ऽहं नहं होतं, और ऄपना ब़त को ऽसि कर कदख़य़। संसर बोडय की बढ़ता ईद़रत़ ने भा किल्मं के कथ़नक और दुश्यं को क़िी प्रभ़ऽवत ककय़ है। जो पहले वर्णजत थ़, ऄब वैद्यत़ प़ चिक़ है। एक और ऽवध़ ऽजसे दशयक बहुत सऱह रहे हं वह है एऽनमेशन। पहले पैसे खचय करके एऽनमेशन किल्मं कोइ देखऩ पसंद नहं करत़ थ़। लेककन हनिम़न और घंोत्कछ की सिलत़ ने ऽनम़यत़ ऽनदेशकं की सोच बदला है। ऽनम़यत़ ऽनदेशक ऄऽधत्य चोपड़़ ऄब व़ल्ं ऽडज़्ना स्ंि ऽडयो के स़थ ऽमलकर भ़रत मं एऽनमेशन किल्मं बऩने लगे हं। गोसिवद ऽनहलना जैसे गंभार ऽनदयशक भा एक उं​ं के बच्चे कक कह़ना “कमली” बऩ ISSN –2347-8764

रहे हं जो एक थ्रा- डा किल्म हं। बच्चं के स़थ ऄब बड़ं को भा ईसमं लित्ि अने लग़ है। पहले ब़ओऽपक्स मं लोगं की कोइ रुऽच नहं था पर ऽमलख़ सिसह पर बना किल्म को दशयकं ने ह़थं ह़थ ऽलय़ । भ़रताय मऽहल़ बॉक्सर पर जब ईमंग कि म़र ने मेरा कॉम बऩइ, तब लोगं ने ईसके ब़रे मं ज़ऩ। दशयकं मं ऽखल़ऽड़यं, ररयल ल़आि हारोज के ऽवषय मं ज़नने की

ईत्सिकत़ बढ़ा और किर एक के ब़द एक ब़आओऽपक्स की झड़ा लग गइ। दशयकं ने जब ऽजसे च़ह़ फ़लक पर बैठ़ कदय़, और जब च़ह़ एक हा झंके मं नक़र कदय़। ऄब देखऩ यह है कक भऽवष्य मं ककस सोच और ककस ऽवध़ की किल्मं को दशयक तरजाह देते है, ईसा तरह की किल्मं ऽनम़यत़ ऽनदेशक बऩएँगे और ईसा लकीर पर अने व़ला किल्मं क़ भऽवष्य ऽनध़यररत होग़। ♦♦♦ घनघोर, ऽनरे , ऄंऽधय़रे मं आक दाये की लौ सा जलता है । ककतने हा रं ग बदलता है ये कलम मेरा जब चलता है ।।

कऽवत़

ये कलम सररत़ पदथा

लफ्जं मं आश्क डि बो देता दीजे की पार पे रो देता । सिख दिःख मं सबके ढलता है ये कलम मेरा जब चलता है ।। मं नकदय़ ये कलम है ध़र बहता ज़ता ये ऽबन पतव़र । ऽनत तार वेग से छलता है ये कलम मेरा जब चलता है ।। ऽलख ज़ता सबकी पाड़़ यौवन से करता है क्रीड़़ । ऄनिऱग ये मिखपर मलता है ये कलम मेरा जब चलता है ।। बस्ता बस्ता शहर शहर ज़ता न कभा ये कहं ठहर । आज्जतद़रं को ये खलता है ये कलम मेरा जब चलता है ।।

saritapanthi1234@gmail.com (नेप़ल) ♦ Sarita Panthi, C/o. Richa Panthi Flat No. 63, 6th Floor, Yogi Krupa Co- Opreative Housing Society Ltd, Manish Nagar, Four Bungalows, Andheri 9 [W}, Mumbai – 400 053. ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

पढ़नेव़ले क़ मन भ़त़ संग मेरे वो अ ज़त़ । ईर मं सबके मचलता है ये कलम मेरा जब चलता है ।। ददय मेऱ वो पाता है खिऽशयं मं मिझसँग जाता है । भ़वं मं मेरे वो पलता है ये कलम मेरा जब चलता है ।।

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संस्मरण

मं तिम्हं छी लेऩ च़हत़ थ़, म़के स श्राक़ंत दिबे

2014 मं यिव़ लेखक श्राक़ंत दिबे मेऽक्सको मं थे। म़के स के शहर मेऽक्सको ऽसंा मं। तब म़के स ऽजदद़ थे। ईनक़ यह संस्मरण़त्मक लेख लैरंन ऄमेररक़ मं म़के स की छऽव को लेकर है, म़के स से ऽमलने की ईनकी ऄपना अक़ंक्ष़ को लेकर है । पढ़ते हुए समझ मं अ ज़त़ है कक क्यं म़के स के जावनाक़र गेऱल्ड म़र्टंन ने ईनको एक एक ग्लोबल लेखक कह़ थ़ । ऄब देऽखये न म़के स के ऽनधन पर आतऩ ऄच्छ़ लेख सिहदा मं ऽलख़ गय़ है । ईस भ़ष़ मं ऽजसमं ईनकी कि ल एक ककत़ब ऄनीकदत हुइ है । म़के स प्रेऽमयं के ऽलए एक जरूर पठनाय लेख ।

(प्रस्तित खंड मेऽक्सको प्रव़स पर अध़ररत मेरे संस्मरण क़ एक ऄध्य़य है)

ग़ऽिएल ग़र्णसय़ म़के स क़ मतलब क्य़ होत़ है? आस प्रश्न के एक़ऽधक ईिर हं । समीचा दिऽनय़ के ऽलए एक ‘ऄऽनव़यय’ और मह़न ककस्स़गो । लेककन पीरे लैरंन ऄमेररक़ के ऽलए आससे कहं ऄऽधक, म़के स म़ने एक ईत्सव । मेरे मेऽक्सको प्रव़स के शिरूअता कदनं मं जब सीरज और च़ँद के ऽसव़य हर चाज़ ऄजनबा कदखता था, ऐसे मं मेट्रो-बस के ऄददर ककसा भा ईम्र के शख्स के ह़थं मं झीलता म़के स य़ की ककत़ब क़ कदख ज़ऩ असप़स ककसा ऄपने के होने जैस़ एहस़स देकर खिश कर देत़ थ़ । मेरा ंी ंा-िी ंा स्पैऽनश के ऄल़व़ म़के स हा थे जो मेऽक्सको और मेरे बाच की दीररय़ं ऽमं़ते, जगह-ब-जगह। मं जैसे हा ककसा से पहला ब़र ऽमलत़, दो च़र ऽमनं ब़तं करत़, हम़रे बाच म़के स अ ज़ते। ऐस़ ऄपव़द स्वरूप कभा हुअ हो तो नहं पत़, लेककन, बंक के ि​ि ल ं़आम कमयच़रा से लेकर रे स्तऱं के वेंर और ंैक्सा ड्ऱइवर तक, सब ने कभा न कभा ‘म़के स’ को पढ़ रख़ थ़ और सऱह़ थ़। मेऽक्सको मं म़के स के ब़रे मं सोचते, बोलते आस ऽवषय व़ला मेरा स्पैऽनश आतना ऽनखर गया था कक ऄक्सर हा ऐसे संव़दं के ऄंत मं मिझे आस ISSN –2347-8764

भ़ष़ पर ऄपना पकड़ को लेकर त़राफ़ भा ऽमल ज़ता । ह़ल़ँकक मेरे द्व़ऱ ककसा और भ़ष़ की बऽनस्पत स्पैऽनश हा साखे ज़ने के मील मं भा म़के स हा थे । ईन कदनं मं बाए ऽद्वताय वषय क़ छ़ि थ़, जब यिव़ कथ़क़र चददन प़ण्डेय ने मिझे म़के स की ऽलखा ‘लव आन द ं़आम ऑफ़ कॉलऱ’ ऩमक ईपदय़स कदय़ । मंने पहला ब़र आस ईपदय़स को ऄपना कमजोर ऄंगरे जा के ऩते रुक-रुक कर पढ़़। लेककन एक ब़र पीरा होने के ब़द दाव़ऩव़र दीसरा ब़र भा पढ़ ड़ल़ । कि छे क महाने ब़द तासरा ब़र भा. और ककत़ब य़ म़के स क़ मिझ पर ऄसर कि छ यीं हुअ कक मेरा इमेल अइडा क़ प़सवडय, जो कक तब तक मेरा गलयफ्रेंड क़ ऩम हुअ करत़ थ़, बदल कर ईपदय़स की एक ककरद़र ‘िे र्णमऩ द़स़’(ferminadaza) क़ ऩम हो गय़। म़के स को और गहरे से समझने के ऽलए, मंने तय ककय़ की ईसकी ब़की ककत़बं मील स्पैऽनश मं हा पढी ंग़ और मं ऄपने ऄऽभय़न मं लग गय़ । लैरंन ऄमेररक़ मं, साम़ ऽवव़द एवं प़सपोंय और वास़ की ब़ध्यत़ओं के ब़वजीद ऄंतदेशाय ऽवव़हं की बहुलत़ है । रं ग एवं वणय भेद नहं के बऱबर है । आस तरह, संस्कु ऽतय़ँ अपस मं आतना घिला -ममली हैं जैसे पतीले मं पक रहैे चावल के दाने । ऄतः मेऽक्सको ऽसंा भर मं ऽजन लोगं से मेरा ज़न पहच़न हुइ, ईनमं पेरू, पऩम़, ग्व़ंेम़ल़ और ऽचला तक के ऩगररक रहे । ऽजनसे मिझे पत़ चल़ कक समीचे लैरंन ऄमेररक़ मं म़के स ‘ग़बो’ की संज्ञ़ से बिल़ये ज़ते हं । एक लेखक के ऽलए आससे बड़़ सम्म़न और क्य़ हो सकत़ है कक देश हा नहं, बऽल्क एक पीऱ मह़द्वाप ईसे दिल़र करत़ है । आस ब़त की तसदाक करत़ एक प्रसंग- कदसम्बर महाने की शिरुअत मं मेऽक्सको ऽसंा मं ‘एल किन’ य़ना ‘वषय के ऄंत’ के ऩम पर जगह-जगह पिस्तक मेले लग रहे थे। कि छे क घनघोर ‘ऄस़ऽहऽत्यक’ स्ं़ल्स के ऄऽतररि कोइ भा ऽवक्रेत़ ऐस़ नहं ऽमलत़ ऽजसके प़स

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‘ग़बो’ मौजीद न हो । मं यकद पीछत़ कक म़के स की ‘िल़ं’ ककत़ब है कक नहं’, तो वे अपस मं बोलते, “‘ग़बो’ की ‘िल़ं’ ककत़ब दे दो।” आन कदनं जैसे शॉसिपग म़ल्स मं हमं वस्तिओं पर ‘ब़इ वन गें वन’ जैसे ऑिर ऽमल ज़य़ करते हं, पिस्तक मेलं मं ऐसे ऑिसय सबसे ऄऽधक म़के स की ककत़बं के स़थ दाखते। मेऽक्सकन मिऱ के स़मने कराब प़ंच गिऩ ऄवमीऽल्यत भ़रताय रुपयं के ऩते मेरे ऽलए ईन कदनं आससे ऄऽधक ख़ुशा की ब़त और क्य़ हो सकता था? यह ब़त मिझे तब तक नहं पत़ था कक जदम से लेकर बतौर लेखक ऽवश्व ऽवख्य़त होने तक मिख्यतः कोलंऽबय़ मं रहे म़के स आन कदनं मेऽक्सको मं रहते हं । जब तक कक मेरे ऑकिस की सहकमी म़ररय़ ईइदोिो ईफ़य ‘तोना’ ने एक रोज यह न पीछ ऽलय़ कक, “ग़बो मेऽक्सको मं हा तो रहते हं, तिम ईनसे ऽमल क्यीँ नहं लेते?” तोना ने, ह़ल़ँकक, यह ब़त यीँ हा कह दा था, लेककन मंने आसे बेहद गंभारत़ से ऽलय़ और अते ज़ते तोना से आस ब़त की हा गिह़र लग़त़ रह़ कक वो मेरा मिल़क़़त म़के स से कऱ दं । दो रोज की लग़त़र ऽजद के ब़द तोना ने मिझे अश्व़सन कदय़ कक वह जरूर हा आस ऽसलऽसले मं प्रय़स करं गा । तोना ने ऄपने ररश्तेद़रं और ईनकी ज़न-पहच़न के लोगं तक को िोन कर-करके ककसा म्यीऽजयम, पिस्तक़लय, अंय गैलरा अकद मं क़म करने व़ले कम से कम दऽसयं लोगं से ब़त की और म़के स क़ पत़ और िोन नम्बर ज़नने की कोऽशश की । आस ऽसलऽसले मं एक िोन नंबर ऽमल़ भा, लेककन ईसकी सेव़यं रद्द थं । यीँ, ढेर स़रा छ़नबान करने के ब़द पत़ चल़ कक सन 1999 के ब़द से म़के स ने िोन क़ प्रयोग करऩ बंद कर कदय़ थ़, और ईन तक पहुँचने क़ आकलौत़ ज़ररय़ कफ़लह़ल ईनके छोंे भ़इ ‘ख़इमे ग़र्णसय़ म़के स’ हं । तोना ऄपना कोऽशश मं ऄगले कदन भा लगा रहं, और कोलंऽबय़इ दीत़व़स मं क़म करने व़ले ऄपने ककसा दीर के सम्पकी के ज़ररये ख़इमे ग़र्णसय़ म़के स क़ िोन नम्बर ईपलब्दध कर ऽलय़ । यह ब़त िरवरा के दीसरे य़ तासरे सप्त़ह ISSN –2347-8764

की रहा होगा, ऽजसके ब़द मेऽक्सको मं मेरे प्रव़स के कराब दस-ब़रह कदन और बचते थे। तोना ने मेरा ख्व़ऽहश के ब़रे मं ख़इमे ग़र्णसय़ म़के स को आिेल़ देकर ऄपॉआं ंमं​ं लेने की ख़ऽतर िोन ऽमल़य़ । कोइ ज़व़ब नहं अय़ । हमने दो-तान दिे और कोऽशश की, लेककन ऽसिय घं​ंा बजता रहा, ऽबऩ ईिर । मंने ऄगला सिबह खिद हा ख़इमे ग़र्णसय़ म़के स को िोन करने क़ ऽनश्चय ककय़ और होंल व़पस अ गय़ । मंने ऄपने िोन मं ऄऽधक क्षमत़ क़ मेमोरा क़डय ड़लने के स़थ ईसके ऑऽडयो ररकॉडयर की ज़ंच की, और पीरा तैय़रा कर ला कक सिबह से लेकर श़म तक क़ जो भा कोइ वक़्त मिझे कदय़ ज़ए, म़के स से ऄपना मिल़क़़त के ऽलए मेरे बंदोबस्त मिकम्मल हं । ह़ल़ँकक ऄभा तक सब कि छ ऄऽनऽश्चत थ़, लेककन मं ऄगले कदन के ऽलए कि छ वैसे हा ईत्स़ऽहत थ़ जैसे समीच़ बचपन मैद़ना क्षेिं मं गिज़़र देने के ब़द मं पह़ड़ को ऽसिय देख नहं, बऽल्क एक ब़र छी लेऩ च़हत़ थ़ । ऄसल मं मं म़के स को भा एक ब़र छी लेऩ च़हत़ थ़ । मं म़के स को पुथ्वा के दीसरे छोर तक के लोगं के कदलं मं पल रहे ईनके ऽलए बेशिम़र प्य़र के ब़रे मं बत़ अऩ भा च़हत़ थ़ । ‘म़के स-म़के स’ ऱत बाता । मंने भ़रत से ले अये कपड़ं मं से पं​ं-शंय क़ सबसे ऄच्छ़ कदखने व़ल़ जोड़़ पहऩ, जीते अकद स़फ़ ककय़ और ऑकिस के ऽलए ऽनकल ऽलय़ । मिझे पत़ थ़ कक ऄगर ऄपॉआं ंमं​ं तय हो गय़ तो क़म की दिह़इ देकर मेरा मैनेजर मिझे रोकं गा नहं (ऽजस भंऽगम़ के ऽलए मं ईनक़ शिक्रगिज़़र हूँ) । ब़क़ी, मंने एक दीसरे ऄज़ाज़ सहकमी कक्रसोिोरो से भा ब़त कर ला था ग़ड़ा लेकर मेरे स़थ चलने के ऽलए । ऑकिस मं मिझसे पहले हा से तोना मौजीद थं । हमने मेऽक्सकन संस्कु ऽत के तहत एक दीसरे के ग़ल से ग़ल छी कर ऄऽभव़दन ककये, और तोना ने ऽबऩ पीछे ड़यरा ऽनक़ल ख़इमे ग़र्णसय़ म़के स क़ नंबर ऽमल़ कदय़। घं​ंा किर से बजा और चंद सेकंर्डस मं ईठ़ भा ऽलय़ गय़। तोना ने पीछ़ तो ईधर से ज़व़ब अय़ कक, ‘ह़ँ, मं ख़इमे ।’ तोना ने ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

ईनसे कह़ कक भ़रत से एक ‘यिव़ लेखक’ श्राक़ंत अय़ है, जो ग़बो से ऽमलऩ च़हत़ है । मिल़क़़त के ऽलए यकद ऄपॉआं ंमं​ं ऽमल सके तो मेहरब़ना होगा । ख़इमे की बिजिगय अव़ज़ ने मेरा भ़वऩ क़ स्व़गत ककय़ और आसपर ऄपना ख़ुशा जत़इ । लेककन स़थ हा स़थ ईदहंने ‘मिल़क़़त संभव न होने’ की ब़त भा जोड़ दा । ईदहंने बत़य़ कक ऽपछले कि छ रोज़ से म़के स स़हब कक तबायत खऱब हो गया है और वे ऽचककत्सकं की ऽनगऱना मं हं । ईदहंने मिझे अश्व़सन कदय़ कक मं चंद हफ्ते रुककर किर से ईदहं फ़ोन कर लीँ, ऽस्थऽत मं सिध़र रह़ तो ग़बो भा मिझसे ऽमलकर खिश हंगे. आसके ब़द ककसा तरह की ऽज़रह की संभ़वऩ नहं बचता था । मंने ग़बो के स्व़स्थ्य ल़भ की शिभक़मऩ देकर ख़इमे जा को ऄलऽवद़ कह़, और तोना को ढेर स़ऱ शिकक्रय़ । वह श़यद शिक्रव़र क़ कदन थ़. क़म मं मेऱ मन न लग़, आसे मेऽक्सको की मेरा पीरा ंाम ने भ़ंप ऽलय़। जैसे एक बच्च़ दीर शहर से अने व़ले ऄपने च़च़ द्व़ऱ ल़ये ज़ने व़ले ऽखलौने क़ आं तज़़र कर रह़ हो, और ऄच़नक पत़ चले कक च़च़ क़ घर अऩ किलह़ल ंल गय़ । तोना और कक्रसोिोरो समेत समीचा ंाम ने चिपके से तैय़रा की और लंच के ऩम पर हम कक्रसोिोरो तथ़ एक ऄदय सहकमी की क़रं मं बैठकर मेऽक्सको ऽसंा के न ज़ने ककस कोने तक बढ़ अये । बत़ दीं, कक मेऽक्सको समेत लैरंन ऄमेररक़ के ऄऽधकतम देशं मं दोपहर के भोजन के ब़द एक घं​ंे के ऽवश्ऱम़वक़श लेने की परं पऱ है । आस तरह से लगभग प्रत्येक क़य़यलय मं मध्य़वक़श कि ल दो घं​ंे क़ हो ज़त़ है । यीँ, ऄच़नक योऽजत आस लंच की तिसाल किर कभा, लेककन कि ल ऽमल़कर ‘म़के स से न ऽमल प़ने’ की ख़ऽलश के ब़वजीद कदन य़दग़र रह़ । सप्त़ह़ंत बात़ और सोमव़र तड़के ऑकिस पहुँचने पर मंने प़य़ कक मेरे मेलबॉक्स मं मेरा व़पसा क़ पक्क़ रंकं मेऱ आं तज़़र कर रह़ थ़ । य़ि़ क़ कदन शिक्रव़र । य़ना कि ल ऽमलकर मेऽक्सको मं मेरा रहनव़रा के प़ँच कदन बचे । जबकक ख़इमे

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ग़र्णसय़ म़के स के मित़ऽबक़ मिझे चंद हफ़्ततं ब़द किर से िोन करऩ थ़ । फ़ोन करूँ य़ न करूँ की पशोपेश मं दो कदन और भ़ग गए । बिधव़र की दोपहर ब़द तक मं खिद को रोक नहं प़य़ और किर से ख़इमे ग़र्णसय़ म़के स क़ नम्बर ड़यल कर कदय़ । फ़ोन ककसा मऽहल़ ने ईठ़य़, जो श़यद ग़बो की पत्ना ‘मेसेदेस ब़च़य’ ईफ़य ‘ग़ब़’ थं । ईदहंने बत़य़ कक ख़इमे किलह़ल मेऽक्सको से ब़हर गए हं । मं साधे मिद्दे पर अते हुए पीछ़, ‘और ग़बो?....’ लगे ह़थं मंने खिद के लेखक और ऽहददिस्त़न से होने व़ला ऽस्क्रप्ं भा पढ़ दा और पीछ बैठ़ कक क्य़ ग़बो से मेरा ब़त हो सकता है, फ़ोन पर हा सहा? ईदहंने क़िी ऽवनम्रत़ के स़थ खेद जत़य़ और बोला कक ग़बो के िे िड़ं मं संक्रमण हो गय़ है, स़ंस लेने तक मं तकलाि है और ईदहं ठाक होकर ब़तचात कर प़ने मं महाने लग सकते हं । यीँ, ग़बो से ऽमल प़ने के आस ऄंऽतम अस के ंी ंने के चंद हा घं​ं​ं ब़द एक माटिंग से यह ब़त ऽनकल कर अइ कक ऄप्रैल के ऄंत तक मिझे व़पस मेऽक्सको अऩ पड़ सकत़ है । ईनकी खऱब तबायत के ब़द ग़बो से ऽमल प़ने की सबसे मि​िीद सीरत ऐसे हा बन सकता था कक मं कि छे क महानं ब़द व़पस अउं, जब तक कक वे स्व़स्थ्य ल़भ कर लं । यीँ, घं​ंे दर घं​ंे मेऽक्सको के छी ंते ज़ने की खंकन के ब़वजीद मं एक ईम्माद भर की ख़ुशा के स़थ भ़रत लौं अय़ । अज 18 ऄप्रैल है और मेरे मेऽक्सको व़पसा की योजऩ क़िी अगे तक बढ़ चिकी है । और जल्द हा रव़नगा की त़राख और रंकं मेरे ह़थ मं अ सकते हं । आस बाच यह खबर कक “म़के स नहं रहे ।” ऄभा ऄभा लग रह़ है कक ठाक मेरे पैरं के नाचे एक सिरंग बनने लगा है, ऽजसमं घिसत़ ज़त़ हुअ मं पुथ्वा के ईस प़र य़ना मेऽक्सको मं ऽनकल ज़ने व़ल़ हूँ । भ़ग-भ़ग कर पीऱ शहर खोजने व़ल़ हूँ । और बस यहा प़ने व़ल़ हूँ कक “म़के स नहं रहे” । यीँ तो दिऽनय़ तिम्हं सद़ हा ऄपने अस-प़स प़येगा और महसीसता रहेगा, लेककन मंने कह़ न म़के स, कक मं तिम्हं छी लेऩ च़हत़ थ़, ओह ! (स़भ़र - प्रभ़त रं जन-ज़नकीपिल) ISSN –2347-8764

लघिकथ़

ददय पीनम शम़य

कीमो क़ ऄसहनाय ददय ऽजसमं पीरे बदन मं झिनझिऩहं हो ज़ता था। ईऽल्ंयं के म़रे ऄधमऱ हो ज़त़ ईपेदर, ऩ ऄपने ह़थ से ख़ऩ ख़ प़त़ थ़, ऩ कमाज़ के बंन बंद कर प़त़ थ़ । सह रह़ थ़ ऽसिय ऄपना पत्ना और आकलौता बेंा की ख़ऽतर ऽजसने बड़ा मेहनत के ब़द मेऽडकल मं द़ऽखल़ ऽलय़, ईसा कदन ईसे ऄपना बाम़रा क़ पत़ चल़ थ़ । ककतऩ खिश थ़ एक स़थ कइ खिऽशय़ँ प़कर जब खेत से ऽमले पैसं से मह़नगर मं ऄपऩ खिद क़ मक़न अवंरंत कऱय़ थ़। बरसं की बावा की एक ऄदद क़र लेने की ख्व़ऽहश ईसकी पसंद की क़र कदल़ ईसके चेहरे की ख़ुशा बढ़इ था। बेंा ने ऄपने दम पर सरक़रा मेऽडकल कॉलेज मं द़ऽखले मं सिलत़ प़या था। चहुँ ओर से बध़इ के िोन, व्ह़ट्सएप और ऽमलने व़लं को ऽमठ़इ ऽखल़ते ईसके प़ँव ज़मान पर नहं पड़ रहे थे । पत्ना और बेंा संग बैठ नए घर को सज़ने के सपने देखने शिरू ककये थे, क्यंकक कक ऄब बेंा के ऽलए ऩ प्ऱआवें कॉलेज मं डोनेशन देऩ थ़ और ऩ िीस की सिचत़ करना था ! ईसके भऽवष्य के ऽलए अश्वस्त हो चिक़ थ़। बेंा के ऽलए खराद़रा चल रहा था और ब़ज़़र मं हा ईसे वमन हुअ थ़, ऽजसक़ रं ग कि छ ल़ऽलम़ ऽलए और भयंकर बदबीद़र थ़ ! तानं डर गये थे ककसा अशंक़ से

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और खराद़रा छोड़ साधे डॉक्ंर के प़स पहुंचे । वह़ं एंडोस्कोपा देखते हा डॉक्ंर ने ईसे कदल्ला ज़ने की और कं सर के आल़ज़ की सल़ह दा था ! वो कहते हं ऩ जरुरत से ज्य़द़ ख़ुशा तो ककस्मत को भा बद़यश्त नहं होता और ग्रहण लग हा ज़त़ है ! "PET" की ररपोंय अता होगा, तब तक तिम थोड़ स़ जीस पा लो ऩ । सिबह से कि छ नहं ऽलय़, कमजोरा अएगा।" पत्ना ने मररयल सा अव़ज़ मं डरते हुए कह़ तो ईसकी बेचैना और बढ़ गया ! "नहं, थोड़ा देर और आं तज़़र करो। डॉक्ंर स़हब ऄभा अते हा हंगे। श़यद ररपोंय मं ग़ंठं कम अयं किर दोनं जीस ऽपयंगे।" कहने को वो कह गय़, पर अव़ज़ क़ँप रहा था, मन हा मन ऄपने इश्वर को मऩ रह़ थ़ । पर तभा पत्ना के चेहरे पर गौर ककय़ । वह़ं म़तम की सीचऩ से पहले हा "वैधव्य "की क़ला परछ़ईं गहऱ गया था ! पत्ना के ह़थ मं ररपोंय के क़गज़ िरिऱ रहे थे। अँखं मं ऽनऱश़ जत़ गया कक कि छ भा सहा नहं है। ईसे लग़ कक पत्ना के दिःख के अगे ईसक़ ददय? पत्ना ने कबसे क़गज़ छि प़ये थे कक वो कि छ ख़ ले तब बत़ये। जीस क़ ऽगल़स ईसने लपक कर ऽलय़ और गं़गं पा गय़, जैसे पत्ना ऄपऩ ददय पा रहा था । ♦♦♦ B-150,ऽजगर कॉलोना, मिऱद़ब़द-244001

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चिन्ने ख़ं बंड म़स्ंर सफ़े द पड़ चिके हंठं पर जाभ िे र ईं गऽलय़ं के आश़रे से पें की स़रा हव़ पातल की प़आप से गिज़र कर सरगम मं बदल देत़ है चिन्ने ख़ं बंड म़स्ंर ब़लक चिन्ने ने सय़ने चिन्ने क़ रोब देख चिन्ने मं देख़ थ़ ऄपऩ भऽवष्य ल़ल झब्दबेद़र वदी जराद़र कै प क़ले रं ग की गंद से िी ले ग़ल क़ला ईं गऽलय़ं नच़तं धवल-स्वर कठपितऽलय़ं अरता बज़ द्व़रच़र कऱत़ चिन्ने ख़ं न कोइ पैद़ हो सकत़ है न ऄंऽतम य़ि़ पर ज़ सकत़ है चिन्ने के ऽबऩ ब़ऱत हो य़ ककसा पिरऽनय़ की ऄथी झीमने के ऽलए चिन्ने क़ बंड सबको च़ऽहए वों की ब़त और है वों म़ंगने अये धम़यच़यय को नहं च़ऽहए म्लेक्ष-मत त़कक चददन-मतं को एकवं ककय़ ज़ सके कर ऽलय़ जात भा गए ऽबऩ चिन्ने के वों के जात गए धम़यच़यय डमडम ऽडग़ ऽडग़ से शिरू चिन्ने मौसम ऽभग़ ऽभग़ होते न होते शहऩइ की करुण त़न हो गय़ ऽवजय जलीस मं सबसे अगे चिन्ने ख़ं बंड म़स्ंर

बंद दरव़ज़ं पर दस्तक देत़ ऄज़न को ऩरं मं डि बोत़ कऽिस्त़न सा ख़़मोशा को चारत़ खिला ऽखड़ककयं पर भाड़ बंोरत़ ऄबार-गिल़ल से नह़य़ चिन्ने ख़ं जलीस मं सबसे अगे धम़यच़यय से भा अगे ऽबऩ वों कदए भा ऽहददिस्त़ना है चिन्ने ख़ं

ऽखचड़ा ऄबकी ऽखचड़ा नहं गइ बेंा के घर

कि छ कऽवत़एँ

ये तो तैय़र थं दिखता कमर पर ह़थ रखे कऱहता कड़़हा चढ़़ने को पर ले कौन ज़ए मोब़इल से ऽसिय बध़इ भेजा ज़ सकता है स्व़द नहं बड़े ने कह़ प़प़ !.. अप भा !! छोंे को आचडा-ऽखचड़ा चीऽतय़प़ लगता है खराद नहं लंगा क्य़ धंध़ ऽतलव़ ढंढ़ा ऽतलकि ं गजक सब तो ऽमलत़ है ब़ज़र मं ईपभोि़ क्ऱंऽत क्य़ ज़ने मकर संक्ऱंऽत संबंधं की ॎ श़ंऽत ! श़ंऽत ! श़ंऽत ! बेंा को ऽखचड़ा नहं ज़ प़इ आस ब़र कोसता हं बीढ़़ खिद को मेरा भा ऽहम्मत नहं पड़ा कक चल़ ज़उं ऄब वे हा भेजव़एँ चढ़़ दींग़ बेंा क़ ऽहस्स़ भा ब़ब़ गोरखऩथ को मौसम मेल़ और त़प थोड़़ नरम तो पड़े ♦

पतंग क्य़ वजन होग़ पतंग क़ ? पंख बऱबर भा नहं और डोर ? हद से हद पच़स ग्ऱम मगर सद्दा बंधा पतंग जब अक़श चीमता है तो डोर सम्ह़लते ठि नककय़ते ढाल देते खाचते पंच लड़़ते ह़थ भर ज़ते हं ऄच्छे ऄच्छं के ♦

ISSN –2347-8764

कऽवत़एँ

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

देवदे र अयय ऽवक़स ऽबस्कि ं मं भर गय़ आल़यचा क़ स्व़द के ले से अता है संतरे की महक और संतऱ महकत़ है प्य़ज की तरह अदमा से ऄऽधक वस्तिओं और खिशबिओं मं ईतऱ है भीमड ं लाकरण ऽवऽशित़एं आच्छ़ओं के ज़म मं िस गया हं ज़म ऽजसमं आन्नोव़ हो य़ एऽक्ंव़ य़ ंेम्पो सबकी औक़़त बऱबर होता है स़यककल से बदतर प़ण्डे जा प़सव़न और प़सव़न जा चतिवेदा बनने के आच्छि क हं सिसह स़हब सोनकर और सोनकर जा ऽबसेन की पंऽि मं आच्छ़ओं पर ह़वा है सपनं क़ व्य़प़र ऄब कदल्ला जीन मं रठठि रता है और जीन ब़ऱमिल़ मं प़ना भरत़ है ऽगि ग़यब हं ऄब ईनकी ज़रुरत नहं रहा अदमा हं न! क़ग़ज़ क़बयन कचऱ प्ल़ऽस्ंक ख़ के ग़य ऄगर दीध दे सकता है तो अदमा की स़ँस से मोब़आल क्यं नहं च़जय हो सकत़ ब़ँद़ घ़स की रोंा पर बसर कर सकत़ है तो क्य़ हम ऽवक़स के ऽलए गंग़ से पंग़ नहं ले सकते ? ♦♦♦

A -127 अव़स ऽवक़स क़लोना ,श़हपिर गोरखपिर -273006 मोब़आल - 09794840990,

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कह़ना

ईसकी अत्महत्य़ सिरेश ईऽनय़ल

वररष्ठ कह़नाक़र एवं 'स़ररक़' के पीवय संप़दक

ईस अदमा की अत्महत्य़ की खबर ने मिझे ऽबल्कि ल नहं चंक़य़। बऽल्क जब मदन मिझे यह खबर दे रह़ थ़... नहं, यह खबर देने से पहले जैसे हा ईसने ईसक़ ऩम ऽलय़ थ़, मं पहले से हा ज़नत़ थ़ कक वह क्य़ बत़नेव़ल़ है। वैसे यह ब़त बत़ने से पहले ईसने एक छोंा सा भीऽमक़ भा बऩइ था। संभवतः वह समझ रह़ थ़ कक मं ईसे भील गय़ होउंग़ और ईसकी आस भीऽमक़ से मिझे वह य़द अ ज़एग़। जब मदन यह सब बत़ रह़ थ़, ईस समय एक सव़ल करने की आच्छ़ भा मन मं ईठा था कक क्य़ यह ईसकी पहल़ अत्महत्य़ था? य़ क्य़ आससे पहले भा ईसने अत्महत्य़ की था? लेककन मंने यह सव़ल पीछ़ नहं। आसक़ क़रण श़यद यह भा थ़ कक मिझे ईसके और मदन के संबंधं के ब़रे मं ज्य़द़ पत़ नहं थ़। हो सकत़ है, मेरे आस तरह के सव़ल से वह बिऱ हा म़न ज़ए। दरऄसल मदन ने हा मिझे ईस अदमा से ऽमलव़य़ थ़। वह ईसे लेकर मेरे प़स अय़ थ़। ब़त ज्य़द़ पिऱना तो नहं है लेककन आतना त़ज़ भा नहं है। वह कराब च़लास-पंत़लास स़ल क़ ऩं़ और मों़ स़ अदमा थ़, अम ऩंे और मोंे अदऽमयं की तरह। म़थे के अगे के कि छ ब़ल ईड़े हुए थे। ईसक़ चेहऱ स्थ़इ रूप से ईतऱ हुअ लग रह़ थ़। दरऄसल ईसके चेहरे की बऩवं की कि छ ऐसा था, यह ब़त मिझे एक य़ दो मिल़क़तं के ब़द खिद हा पत़ चल गइ। पहला मिल़क़त के ईसके कि छ हा कदन ब़द की ब़त है। वह भा मदन के स़थ थ़। मदन और मं ऑकिस की ककसा घंऩ को लेकर क़िी ईिेऽजत थे। हम़रे गिस्से क़ क़रण हम़ऱ हा एक सहकमी थ़। हम ईसक़ ऩम लेकर ग़ऽलय़ं भा दे रहे थे। तभा वह ऄच़नक बोल पड़़ थ़, ‘‘कहं तिम लोग ईसकी हत्य़ करने की तो नहं सोच रहे हो?’’ ईसके आस ऄच़नक और ऄप्रत्य़ऽशत सव़ल से हम दोनं चंक गए। एक स़थ हम़रा नज़र ईसकी ओर ईठ गइ था। वह मेरा ISSN –2347-8764

ककत़बं की ऄलम़रा के प़स खड़़ थ़। ईसके ह़थ मं एक ककत़ब था ‘एनस़आक्लोपाऽडय़ ऑफ़ मडयर’। वह हम़रा ओर बड़ा हा डरा हुइ नज़रं से देख रह़ थ़। ईसकी अंखं क़िी िै ला हुइ थं। ‘‘देखो शैलंर, मंने तिमसे ककतना ब़र कह़ कक आस तरह की ईंपं़ंग ब़तं हर समय मत ककय़ करो। हत्य़एं आस तरह नहं होतं।’’ मदन ने ईसे लगभग ड़ं​ं कदय़ थ़। ‘‘मं ज़नत़ हूं, कै से होता हं। तिम्हं प़ईऽलन प़कय र क़ ककस्स़ पत़ है? दयीज़ालंड की ईसे सोलह स़ल की लड़की ने ऄपना म़ं की हत्य़ ऽसिय आसऽलए कर दा था क्यंकक वह ईसे जीऽलयं ह्यीम ऩम की ऄपना सहेला के स़थ समलंऽगक संबंध रखने से मऩ करता था। किर तिम्ह़रे दफ्तर क़ म़मल़ तो और भा गंभार है।’’ ऄब तो ईसकी ब़त पर मिझे भा कोफ्त होने लगा था। आस ब़र हमने ईसकी ब़त क़ कोइ जव़ब नहं कदय़ और ऄपना ब़त पर व़पस अ गए। कराब दस ऽमनं ब़द ईसने एक सव़ल द़ग कदय़ थ़, ‘‘मदनजा, एक ब़त बत़ओ, जब ककसा व्यऽि की हत्य़ की ज़ रहा हो तो ईसे कै स़ महसीस होत़ होग़? जऱ कल्पऩ करो य़र, कोइ व्यऽि तिम्ह़रा गदयन दब़ रह़ है! य़ ईसके ह़थ क़ छि ऱ तेजा से तिम्ह़रे पें की ओर अ रह़ है! जावन और मौत के बाच के वे थोड़े से क्षण ककतने ि़सद़यक होते हंगे। अदमा जाऩ च़हत़ होग़ और ज़नत़ होग़ कक ऄब जावन कि छ हा क्षणं क़ ब़की है। क्य़ ईसे ईन कि छ क्षणं मं ऄपने घर की, पररव़र की, बावा-बच्चं की, य़द अता होगा? ऄपने ऽबऩ ईनके भऽवष्य की सिचत़ ईदहं होता होगा? यह वह आस सबसे ऽवरि हो ज़त़ होग़?’’ क़िी देर तक वह आसा तरह की ब़तं करत़ रह़। मिझे मदन पर गिस्स़ अ रह़ थ़ कक वह ऐसे अदमा को ऄपने स़थ लेकर क्यं अय़। हम़रा ऄच्छा ख़सा चच़य को चैपं करके रख कदय़।

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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ईससे मेरा ऄगला मिल़क़त हुइ एक लोकल ट्रेन पर। कराब ग्य़रह बजे हंगे ऱत के । गोरे ग़ंव अने के ऽलए मंने चचयगें से ट्रेन ला था। भाड़ ज्य़द़ नहं था लेककन सां कोइ भा ख़ला नहं था। मं दरव़जे के प़स खड़़ हो गय़ थ़। मरान ल़आं स पर तान च़र लोग और चढ़े। ईनमं से एक वह भा थ़। मंने ईसे अव़ज दा तो वह मेरा बगल मं अकर खड़़ हो गय़। ईस कदन वह ब़तचात मं क़िी श़लान नज़र अ रह़ थ़। हम दोनं क़िी देर तक मदन के ब़रे मं ब़त करते रहे। ईसने यह भा बत़य़ कक ईसने मल़ड मं एक फ्लैं खराद ऽलय़ है। बहुत जल्दा वह ऽशफ्ं कर लेग़। ऄभा तो वह ऄंधेरा इस्ं मं ककऱए पर रह रह़ है। घर मं बावा और दो बेरंय़ं हं। एक कंलेज मं पढ़ता है और दीसरा स्की ल मं। बड़ा क़ ररश्त़ पक्क़ हो गय़ है, ऄगले कदसंबर मं ईसकी श़दा है। वैसे ऄभा वह एक एडवं़यआज़मं​ं कं पना मं प़ंयं़आम क़म भा करता है। और किर गलता मिझसे हा हो गइ। मंने एक सव़ल पीछ ऽलय़, ‘‘अपक़ कोइ लड़क़ नहं है?’’ ‘‘लड़क़ थ़। एक कदन ककसा ब़त पर पर घर से झगड़कर गय़ तो किर लौं कर अय़ हा नहं। मं ज़नत़ हूं, ईसने अत्महत्य़ कर ला होगा। अत्महत्य़ भा आन कदनं एक िै शन बन गय़ है। वे श़यद यह नहं ज़नते कक ईनके एक क्षऽणक अवेग क़ पररण़म कइ लोगं को जावन भर भिगतऩ पड़त़ है।’’ द़दर गिजर गय़ थ़। ऽजतने लोग ईतरे थे ईनसे कि छ ज्य़द़ हा चढ़ गए। एक लड़क़ अकर हम़रे दीसरा ओर व़ले दरव़जे पर खड़़ हो गय़। वह दरव़जे के बाच की रॉड पकड़े हुए थ़ और ईसक़ शरार ब़हर की ओर झील रह़ थ़। ‘‘ईस लड़के को देख रहे हो, ईसा की ईम्र क़ होग़। पत़ नहं अजकल के नौजव़नं को क्य़ हो गय़ है, हर घड़ा जैसे कि छ न कि छ कर गिजरने को तैय़र रहते हं। ईदहं कि छ समझ़ने की कोऽशश करो तो ईलंे मरने-म़रने को तैय़र हो ज़ते हं। भ़विक आतने की जऱ सा खिशा अ गइ तो िी ले नहं सम़एंगे, ऩचते किरं गे और यकद ISSN –2347-8764

ककसा तरह की परे श़ना अ गइ तो साधे अत्महत्य़ कर लंगे।’’ मंने ईसके चेहरे की तरि देख़। वह एक जाऽवत अदमा क़ चेहऱ नहं लग रह़ थ़। ईसकी पाठ पाछे दाव़र से रंकी था। दोनं ह़थ नाचे की ओर लंके हुए थे। अंखं ब़हर कहं शीदय मं लंकी हुइ थं। हंठं के ऄल़व़ कोइ भा ऄंग हरकत मं नहं थ़। चेहरे क़ रं ग क़ल़ पड़ गय़ थ़। मं डर गय़ थ़। मंने ईसक़ ह़थ पकड़कर ऄंदर की ओर खंचते हुए कह़, ‘‘अआए, ऄंदर चलकर बैठते हं। मिंबइ की यह दौड़-धीप अदमा को थक़ देता है।’’ भातर दो ख़ला सां​ं मिझे कदख गइ थं। यह ब़त कहने के पाछे दो क़रण थे। एक तो मिझे यह डर थ़ कक ऽडप्रेशन क़ यह दौऱ ईस पर आतऩ घऩ न हो ज़ए कक वह चलता ग़ड़ा से हा की द पड़े। और दीसरे मं डर गय़ थ़ और ऽवषय़ंतर करऩ च़हत़ थ़। ब़ंऱ गिजर गय़ थ़। हम लोग ऄंदर अकर बैठ गए। ऄब वह चिप थ़। मं आस चिप्पा को तोड़ऩ च़हत़ थ़। लेककन डर थ़ कक मेरा कहा हुइ ककसा भा ब़त को वह ककसा न ककसा तरह अत्महत्य़ से जोड़ लेग़। ऄच़नक वह खिद हा बोल पड़़, ‘‘देखो, मं कह रह़ थ़ कक वह लड़क़ अत्महत्य़ कर लेग़ और ईसने कर ला। वह ट्रेन से की द गय़।’’ मंने चंककर देख़, हम़रे दीसरा तरि व़ले दरव़जे के प़स जो लड़क़ खड़़ थ़, ऄब वह वह़ं नहं थ़। ‘‘कहं ईतर गय़ होग़। क्य़ अपने ईसे की दते देख़ है?’’ ‘‘की दते तो नहं देख़ लेककन क्य़ मं आतऩ नहं ज़नत़ कक जब ब़ंऱ तक वह वहं खड़़ थ़ तो ईतऱ कह़ं होग़। जरूर वह की द गय़ होग़।’’ मंने ईसे समझ़ने की कोऽशश की कक ब़ंऱ के ब़द तो ग़ड़ा ख़र, स़ंत़क्रीज़ और ऽवले प़रले पर रुकी था, कहं भा ईतर गय़ होग़। ‘‘कै सा ब़त करते हं अप! यह ि़स्ं ट्रेन है। ब़ंऱ के ब़द साधे ऄंधेरा हा रुकता है।’’ वह पीरा तरह से बहस के मीड मं थ़। मं आतऩ अश्वस्त थ़ कक ब़त ट्रेन के रुकने न ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

रुकने की हो रहा है, हत्य़ य़ अत्महत्य़ की नहं। आसऽलए ब़त अगे बढ़़ने मं कोइ हजय नहं। मं च़हत़ थ़ कक ऄंधेरा तक क़ यह दस ऽमनं क़ ब़की ऱस्त़ भा ऐसा हा ब़तं मं कं ज़ए। ऽसिय ब़त बढ़़ने के ऽलए मंने कह कदय़, ‘‘ऱत को तो सभा ट्रेदस स्लो हो ज़ता हं।’’ ‘‘होता हंगा। लेककन मंने ऄच्छा तरह देख़ थ़ कक यह ट्रेन ब़ंऱ के ब़द ऄभा तक नहं रुकी और ईस लड़के न जरूर अत्महत्य़ कर ला होगा।‘’ चेहरे से हा लग रह़ थ़ कक वह गिस्से मं थ़। हो सकत़ है, घर मं ब़प ने ड़ं​ं कदय़ हो ककसा ब़त पर। ऄरे भ़इ, जब घर के बड़े कि छ कहते हं तो आनके भले के ऽलए हा कहते हंगे। लेककन गिस्स़ तो जैसे आनकी ऩक पर रख़ होत़ है। जऱ स़ कि छ कह़ नहं कक चढ़ गय़ गिस्स़ स़तवं असम़न पर!’’ वह किर ईिेऽजत हो गय़ थ़। ऄंधेरा स्ंेशन अ गय़ थ़। ईसकी ह़लत देखकर मंने बेहतर यहा समझ़ कक ईसे घर तक छोड़ अउं। ह़ल़ंकक कराब पौने ब़रह हो गए थे और यह ऽनऽश्चत नहं थ़ कक ईसे छोड़ने के ब़द मं अऽखरा ट्रेन पकड़ प़उंग़। लेककन ऐसा ह़लत मं ककसा अदमा को यं हा छोड़़ भा तो नहं ज़ सकत़ थ़। हम इस्ं की तरि से स्ंेशन से ब़हर ऽनकले। ंैक्सा ला। ईसक़ प्रल़प ज़ता थ़, ‘‘आनसे तो हमने ज्य़द़ हा दिऽनय़ देखा है। जो कि छ हमने देख़, ईसकी तो ये कल्पऩ भा नहं कर सकते। हमने तो अदमा को ग़जर मीला की तरह कंते देख़ है। मं खिद गव़ह हूं, हत्य़क़ंड के ईस भय़नक दौर क़। गव़ह हा क्य़, भ़गाद़र भा रह़ हूं। जव़ना क़ जोश जो थ़। लगत़ है, ये नौजव़न एक ब़र किर से वहा मंजर ल़ने के ऽलए तैय़र बैठे हं। ऄब भल़ बत़आए, ऄगर हम ईदहं रोकने की कोऽशश करते हं तो क्य़ गलत करते हं? अऽखर ये लोग समझने की कोऽशश क्यं नहं करते? क्यं हर घड़ा एक तरह के तऩव मं रहते हं? क्यं नहं समझते कक हम पिऱने लोग जो कि छ भा कर रहे हं, आदहं के ऽलए तो कर रहे हं। ककतऩ जावन ब़की रह गय़ है! सब आदहं के ऽलए तो छोड़कर ज़एंगे।

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लेककन नहं, आदहं तो लगत़ है, हम आनके दिश्मन हं। हमेश़ आनके पाछे पड़े रहते हं। आदहं आनकी तरह से जाने की अज़़दा नहं देते। ऄपने जावन मील्य आन पर थोपते रहते हं। लेककन क्य़ हम़ऱ आन पर आतऩ भा ऄऽधक़र नहं है कक ऄपना कोइ ब़त आनसे कह भा सकं ।... मं ईसके घर आससे पहले कभा नहं गय़ थ़। ईसकी पत्ना ईम्र मं ईससे ऄऽधक लगता था। ब़ल तो पीरे सिे द हो गए थे। दरव़ज़ ईसने हा खंखं़य़ थ़ और ईसकी पत्ना ने खोल़ थ़। एक ऄजनबा को, आतना ऱत गए ऄपने पऽत के स़थ घर अते देखकर भा ईसके चेहरे पर ककसा तरह की ऽजज्ञ़स़ के भ़व नहं ईभरे थे। दो कमरं क़ फ्लैं थ़। सिख सिऽवध़ क़ हर स़म़न मौजीद थ़। लेककन सब कि छ ईजड़़ ऽबखऱ स़ लग रह़ थ़। दोनं लड़ककयं ने एक एक ब़र कमरे के दरव़जे पर अकर झ़ंक़ और किर व़पस चला गईं। ईसकी पत्ना दो ऽगल़सं मं प़ना ले अइ था। ‘‘सिनो, अज ट्रेन पर मंने ऄजय को देख़ थ़।’’ ईसकी ब़त सिनकर मं चंक गय़। ऄजय ईसके बेंे क़ ऩम थ़। मं आस ब़त से नहं चंक़ कक वह ऄपने बेंे से ऽमलने की ब़त कर रह़ थ़ बऽल्क आसऽलए चंक़ कक यह ब़त सिनकर भा ईसकी पत्ना के चेहरे पर ककसा तरह के भ़व नहं अए थे, वह ईसा तरह ऽनर्णवक़र थ़। ‘‘तिम्हं यकीन नहं अय़ न? आनसे पीछ लो। ब़ंऱ तक वह हम़रे स़थ थ़। किर न ज़ने क्यं ईसने ट्रेन से की दकर अत्महत्य़ कर ला। श़यद मिझे देखकर। निरत तो वह मिझसे करत़ हा थ़ न...’’ आस ब़र मं किर चंक़। वह लड़क़? आसक़ बें़ कै से हो सकत़ थ़? और ऄगर थ़ तो आसने तभा क्यं नहं बत़ कदय़। ईसकी पत्ना ने दोनं ह़थं के बाच ऄपऩ चेहऱ ऽछप़ ऽलय़ थ़। चेहरे के कं पन से लग रह़ थ़ कक वह ऽससक रहा था। बेअव़ज़। ईन दोनं क़ अचरण मेरे ऽलए एक पहेला बन गय़ थ़। यकद ईसने ऄपने बेंे को देख ऽलय़ थ़ तो बिल़य़ क्यं नहं? ईसे व़पस ल़ने की कोऽशश क्यं नहं की? मं ईसके स़थ थ़ तो मेरा सह़यत़ भा ले सकत़ थ़। ईसकी सह़यत़ करने मं मिझे खिशा हा होता। दीसरा ओर ईसकी पत्ना ने यह भा ज़नने की कोऽशश नहं की कक आतने स़ल से खोय़ हुअ ईनक़ बें़ ककस ह़ल मं थ़। ईसने ईसे व़पस ल़ने की कोऽशश क्यं नहं की, क्यं ईसे ऄपने अंखं के स़मने अत्महत्य़ कर लेने दा। ह़ल़ंकक यह तो मं ज़नत़ हा थ़ कक ईसने अत्महत्य़ नहं की था। वह तो ऱस्ते मं कहं स़ंत़क्रीज़ य़ ऽवले प़रले मं ईतर गय़ थ़। मंने ईसक़ चेहऱ य़द करने की कोऽशश की लेककन कोइ ऽवशेष चेहऱ कदम़ग मं नहं अय़। वह तो वह अम चेहऱ थ़ जो अपको कभा भा ककसा भा लोकल ट्रेन मं रॉड पकड़कर लंक़ हुअ कदख़इ दे सकत़ है। व़त़वरण बहुत घऩ हो गय़ थ़ और मं ईस घनेपन को तोड़ऩ च़हत़ थ़। मं ईसकी पत्ना के प़स गय़। वह ऄब भा ईसा तरह ह़थं मं चेहऱ ऽछप़ए बेअव़ज़ ऽससक रहा था। मंने धारे से कह़, ‘‘अपके बेंे ने अत्महत्य़ नहं की है। वह ऱस्ते मं ईतर गय़ थ़। ऄगर मिझे किर कभा कदख़इ कदय़ तो व़पस अपके प़स ले ISSN –2347-8764

अउंग़।’’ ईसकी पत्ना ने चेहऱ ईठ़य़ और हल्की अव़ज़ मं कह़, ‘‘ककसे ल़एंगे अप! वह ऄब आस दिऽनय़ मं है हा कह़ं।’’ ‘‘लेककन...’’ ‘‘ईसने अत्महत्य़ कर ला था।’’ यह कहने के स़थ हा वह जोर से ि​िक पड़ा था। आसके ऽलए ऽजम्मेव़र वह ऄपने पऽत को हा म़नता था। जो कि छ ईसने मिझे बत़य़ ईसक़ स़ऱंश यहा थ़ कक लड़क़ ऄपने ब़प की रोज-रोज की ऽखंऽपं से तंग अ गय़ थ़। वह पढ़ने मं बहुत तेज थ़। ऄपऩ पीऱ ध्य़न पढ़ने मं हा लग़ए रहत़ थ़। लेककन आदहं न ज़ने क्यं हमेश़ यहा शक रह़ कक वह गलत संगत मं पड़ गय़ है। कहं भा झगड़े य़ दंगे की ब़त सिनते य़ पढ़ते तो ईसे कोसने लगते। यह समझते कक आस सब मं ईसा क़ ह़थ थ़। ‘‘वह बढ़ता ईम्र क़ बच्च़ थ़, कब तक आनकी ब़तं सिनत़ और चिप लग़ए रहत़। एक कदन ईसने तेज अव़ज़ मं जव़ब भा दे कदय़। पहले कदन तो ईसकी तेज अव़ज़ सिनकर यह चिप लग़ गए लेककन जब तान च़र ब़र यहा हुअ तो आदहंने कहऩ शिरू कर कदय़ कक वह आनकी हत्य़ करऩ च़हत़ है...!’’ मं सिनकर ऄव़क रह गय़। बीढ़े की यह खब्दत मेरा समझ से परे था। लेककन ईसने अत्महत्य़ क्यं कर ला, यह मं ज़नऩ च़हत़ थ़। यह सव़ल मं साधे साधे पीछऩ भा नहं च़हत़ थ़। लेककन मं ऄपना ऽजज्ञ़स़ को रोक न सक़। ईसने जो बत़य़ ईसक़ स़ऱंश यह थ़ -- बेआज्जता की भा एक हद होता है। अऽखर वह कब तक ऄपना बेआज्जता सहन करत़। जब भा ईसके दोस्त अते, आदहं यहा लगत़ कक वे बम बऩ रहे हं य़ बंदक ी ं और ऽपस्तौलं ऽछप़ रहे हं। ईनके स़मने हा बड़बड़़ने लगते। हद तो जब हुइ जब एक कदन ईसके कॉलेज पहुंच गए और और सिप्रऽसपल से कहने लगे कक कॉलेज क़ ऽडऽसऽप्लन खऱब हो गय़ है। स़रे लड़के ऽबगड़ गए हं। गिंड़गदी करते हं। जब सिप्रऽसपल ने ज़नऩ च़ह़ कक वह ककसके ब़रे मं ब़त कर रहे हं तो आदहंने ईसक़ और ईसके दोस्तं के ऩम बत़ कदए। और यह भा बत़ कदय़ कक आनक़ बें़ होते हुए भा वह आनकी हत्य़ कर देऩ च़हत़ है। सिप्रऽसपल ने ईसे और ईसके दोस्तं को बिल़कर खीब ड़ं​ं़। दोस्तं ने ऄपना ऄपना तरह से सि़इ मं कह़ लेककन ईसने तो जैसे ऄपना जब़न सा ला था। एक भा शब्दद नहं बोल़। चिपच़प सिनत़ रह़ और किर घर लौंते हुए चलता ट्रेन से की द गय़, स़ंत़क्रीज़ स्ंेशन प़र करते हा...!!! ईसकी पत्ना यह सब बत़ रहा था और ईधर वह सोिे पर चिपच़प बैठ़ हम़रा ओर घीर रह़ थ़। ईसकी पलकं ऽस्थर थं। मंने चलने के ऽलए ईससे ऄनिमऽत म़ंगा तो ईसकी पत्ना बोला, ‘‘अप ककससे पीछ रहे हं। ये तो सो गए हं। आसा तरह सो ज़ते हं और अंखं खिला रहता हं।’’ ♦♦♦ बा - 8, प्रेस ऄप़ंयमट्ं स, 23 आदरप्रस्थ एक्सं​ंशन, कदल्ला-110 092

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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कह़ना

ह्यीमन ररलेशस ं कदनेश बैस

अमौता द़मौता ऱना, चलौ सिऩएं कथ़ सिह़ना, जगत बोध की एक कह़ना, हूँक़ देओ तो सिरू करं , न देओ तौ चिप्पइ रहं। एक थ़ ऄिसर। एक थ़ नौकर। दोनो थे सरक़रा च़कर। क़म करं तौ पछत़यं। अऱम करै की तनख़ प़यं। एक थ़ म़थिर। एक थ़ श्राव़स्तव। ज़त-प़ँत मं दौनं एक। ऄिसर ब़ऱ नौकर बड़़। ऄिसर श्रध्द़ली। नौकर ममत़ली। ऄिसर ऽपघल़,”भैय़ जा, यं तो अप दफ्तर मं हम से नाचे हं मगर ईम्र मं हम से बड़े हं। बिऱ न म़नं तो हम अप से भैय़ जा हा कहंगे।” नौकर ऄिसर की सौ िंक़रं को नहं सं​ंत़। ‘ऄपने‘ से दो बोल पर फ्लैं हो ऽलय़,”धदय तो वह म़ँ है स़हब, ऽजसने अप जैसे बेंे को जनम कदय़। जिग-जिग ऽजयो। िी लो-िलो। प्रण़म है ईस म़ँ के चरणं मं। नौकर ऐस़ ब़वल़ हुअ कक ऄिसर के कदमं मं लों हा ज़त़ मगर मजबीर हो गय़-ऄिसर ने बड़े भ़इ की पदवा जो दे दा था। ऐस़ म़न तो ऄपने सगं ने नहं कदय़ थ़ जो ईसके संचे-पोसे त़ड़ बन गये थे। पंख ईगे तो ईड़ ऽलये। भगव़न भल़ करे मोब़आल पैद़ करने व़लं क़। मोब़आल है तो ररश्त़ बऩ है। छठे -छम़से मोब़आल पीछ लेत़ है-भैय़, ठाक तो हो ऩ-जैसे मलेररय़ ब़बी मलेररय़ ज़ंचने अय़ हो। मलेररय़ है य़ नहं, आसकी खबर तो ब़द मं लगेगा। सिइ चिभो कर खीन लेने क़ ददय तिरंत दे ज़त़ है। ’ह़ँ’ के ऽसव़ क्य़ कहे कोइ ? छी ंते हा यह तो नहं कह देग़ कक कि ढ़ रह़ हूँ। बहुत पार दा है तिम लोगं ने। जब तक यह कहने क़ नम्बर अत़ है, मोब़आल गीग ँ ़-बहऱ हो ज़त़ है। एक कदन ऄिसर दिखा हो ऽलय़,”भैय़ जा, मन को बड़ा ठे स लगता है कक अप दफ्तर मं छोंे-मोंे क़म करते रहते हं। लोग कनि​ि ऽसय़ँ करने लगे हं कक कै स़ ऄिसर है। बड़े भ़इ पर हा ऄिसरा झ़ड़ रह़ है। रगड़े ड़ल रह़ है। क्यं न अप कभा-

ISSN –2347-8764

कब़र हा दफ्तर अय़ करं । मेरे रहते अप खं​ं, यह तो कोइ ब़त नहं हुइ।“ सौ ज़ल़लत झेल कर नौकर ‘ईँ ह‘ करके मीड़ झंक सकत़ थ़ मगर ऐसे ऄपऩपे को कै से झेल प़त़? क़तर हो ईठ़,“आन ह़थं ने हमेश़ क़म ककय़ है, भैय़। किर, घर पर कदन कै से कंेग़? ऄब तो तिम्ह़रा भ़भा भा मिँह नहा लग़ता है।” “जो भा हो, क़म तो मं यह़ँ नहं करने दीग ँ ़ अपको,“ ऄिसर ने िै सल़ सिऩ कदय़। ”... ,“ नौकर चिप। क्य़ बोले? ऽनणयय लेने क़ ऄऽधक़र कब नौकर के प़स रह़ है...? ”क्यं न ऐस़ करं ?“ ऄिसर ऱस्त़ ऽनक़लने बैठ गय़,”कल से अप दफ्तर न अयं। बंगले पर हा चले अय़ करं । मं जस्ंाि़इ कर लीग ँ ़। मेरे प़स बंगले पर भा क़म कऱने क़ ऄऽधक़र है।” “जैस़ तिम समझो, भैय़,” नौकर म़न गय़। ह़मा भर दा। नौकर ऄधेड़ उपर हो रह़ थ़। सोच़, बंगले पर दफ्तर से तो कम हा क़म होग़। यह़ँ तो सब ऽपत़ तिल्य हं। ब़बी से ऄिसर तक। ... और यह भा कक ऄिसर ज़त ठहरा। ल़ख ‘भैय़ जा‘‘भैय़ जा‘ कर रह़ हो। कौन ज़ने, ‘न ‘ कहने पर ररऽसय़ ज़ये। और किर, बंगले पर ब़ल-गोप़लं मं मन भा रम़ रहेग़। ...यं कहो कक ऄिसर ने तो नौकर को ‘भैय़ जा‘ म़न ऽलय़। कि छ-कि छ वैस़ हा सम्म़न भा कदय़। मगर सौ सव़लं से बड़़ सव़ल तो यह है कक क्य़ ऄिसऱआन ने भा नौकर को ‘भैय़ जा‘ क़ म़न कदय़? वह ऄिसऱआन ऽजसके ब़प ने ऄध ऄठ ऄंक़ रूपय़, बंगल़ ग़ड़ा के मोल पर बेंा के ऽलये ऄिसर खराद़ थ़। वह ऄिसऱआन ऽजसक़ ब़प ऄत क़ ऽबस्व़सा थ़। म़नत़ थ़ कक बेंा के ऽलये ककसा भा मोल मं कि छ भा खराद सकत़ थ़। किर वह पसंद क़ कि ि़ हो य़ पता हा क्यं न हो । ...और बेंा की झोला मं ऄिसर ड़ल कर ईसने यह

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करके भा कदख़ कदय़। क्य़ ईस ब़प की नकचढ़ा बेंा ने भा नौकर को ‘भैय़ जा‘ म़ऩ...? ...न्ऩ, ...हर्णगज नहं। हुअ यह कक पहले कदन आतव़र थ़। दफ्तर की छि् ट्टा क़ कदन। नौकर पहले-पहल बंगले अय़ थ़। ईसने सोच़ कक यह तो ऄपऩ स़ ‘घर‘ है। घर के क़म मं क्य़ आतव़र और क्य़ छि ट्टा? पहले हा कदन ऄिसर की ‘भैय़ जा‘-‘भैय़ जा‘ की ऽभनऽभऩहं से ऄिसऱआन ऽभऽन्नय़ गइ। ऄिसर की हर ‘भैय़ जा‘ की गिह़र से ऄिसऱआन ऐसे ऄचकच़ ज़ता जैसे ऄच़नक देह से कि छ सरक गय़ हो। द़ँत मं कं कड़ की तरह ककरककऱ रहा था ‘भैय़ जा‘ की पिक़र। ऄिसर के स़थ ऄके ला हुइ तो िं पड़ा,“क्य़ भैय़ जा-भैय़ जा लग़ रख़ है? स्ंेंस क़ भा ध्य़न नहं रखते हो। डैडा ठाक कहते हं कक ऽमऽडल क्ल़स को औक़त पर अने मं देर नहं लगता है। ऱजपथ खिल़ हो मगर मौक़ ऽमलते हा पगडंडा की ओर दौड़ पड़ते हं।“ ऄिसर ने बिऱ नहं म़ऩ। ऄनिभव ने ऽसख़य़ थ़ कक पत्ना की ड़ँं को सह हा लेऩ च़ऽहये। आससे द़म्पत्य सिख मं वुऽध्द होता है। ऽस्थऽत ऽनयंिण के ऽलये ऄिसर ने कि छ प्रचऽलत व़क्यं क़ प्रयोग ककय़,“की ल ड़ईन ड़र्निलग। डॉदं बा ह़आपर।” ऄिसर ने पढ़़इ की जो जम़त पढ़ा था, ईसमं ऽसख़य़ गय़ थ़ कक मनिश्य वस्तिओं के ऽलये संस़धन होत़ है। ऄथ़यत ‘पैस़ अदमा के ऽलये होत़ है।‘ आस सत्य को ईलं कर ऽसख़य़ ज़त़ है कक ‘पैसे के ऽलये अदमा होत़ है।‘ ऽसखय़ ज़त़ है कक धारज रखऩ अदत मं न हो तो धारज रखऩ साख लेऩ च़ऽहये। धारज रखने की ट्रेसिनग ले लेना च़ऽहये। ऄिसर ईस जम़त क़ प्रऽतभ़श़ला ऽवद्य़थी थ़। ऄिसऱआन को देख कर मिस्कऱय़। ऄिस़ऱआन को संदेश कदय़। आस समय वह स्वयं को ईस भीऽमक़ मं म़न रह़ थ़ ऽजसमे कभा कदहैय़ रणक्षेि मं ऄजियन के सम्मिख थे,“धैयय रखो, ड़र्निलग। ह्यीमन ररलेशंस ऽसख़त़ है कक धंस य़ धमकी से ‘प्रॉपर परिॉमंस‘ नहं ऽमलता है। ‘ह्यीमन ररसॉर्णसस‘ को ऽनचोड़ऩ है तो ईसे थपथप़ऩ साखो। ...ब़आ दा वे, हमं भैय़ जा से घर मं क़म लेऩ है, ऑकिस मं नहं। ईसे ‘साजंड‘ करऩ होग़। ईसके कदम़ग मं बैठ़ऩ होग़ कक वह हम़ऱ ‘प़ंय‘ है। हम ईस पर ‘ऽडपंड‘ करते हं।” ऄिसऱआन ऄिसऱआनोऽचत की ढ़ मगज था तो आसक़ मतलब यह थोड़े हा है कक मीरख भा था। वह समझ गइ। खिद को यं समझ़य़ कक भैय़ जा नौकर क़ ‘ऩम‘ है। तो क्य़ वह नौकर को ऩम लेकर नहं बिल़येगा...? किर तो बंगले मं भैय़ जा-भैय़ जा की वह बरस़त हुइ कक नौकर भाग गय़, ऽसर से प़ँव तक। चकरऽघन्ना बन गय़ नौकर। ऐस़ ऽनह़ल हुअ कक ऽबऩ ककसा अदेश के बंगले पर अने क़ समय दफ्तर से एक घं​ं़ पहले हो गय़। श़म को घर ज़ने क़ कोइ समय नहं। ह्यीमन ररलेशंस और पिश्ं करने के ऽलये एक कदन ऄिस़ऱआन, ऄिसर के संग, नौकर के घर च़य पा अया। नौकरपत्ना की गोद मं ऄिसऱआन ने एक स़ड़ा-ब्दल़उज रख हा तो कदयेअप बड़ा बहन सा हं। आदक़र मत करऩ। ऄसर यह हुअ कक नौकर-पत्ना की अमद-रफ्त भा बंगले पर शिरू ISSN –2347-8764

हो गइ। नताजे मं बंगले मं ख़ऩ बऩने व़ला ि़लती हो गइ। ऽनक़ल दा गइ। ...गिआय़ँ! य़, यह़ँ यह कह कर कह़ना खतम की ज़ सकता है कक भगव़न ने जैसे ‘भैय़ जा‘ आस ऄिसर को कदये, वैसे सबको दं। सबके सिख मं ऄपन सिखा। लेककन गिआय़ँ, कह़ना तो ऄब शिरू हो रहा हैहुअ यं कक स़ल-छम़से मं नौकर कि छ-कि छ उबने लग़। ईसे लग़ कक जैसे वह जोत़ ज़ रह़ है। नौकर-पत्ना भा ऄब कि छ खाझने सा लगा था। पहले वह मन से बंगले पर चला ज़ता था। ऄब अदेश जैस़ ऄनिरोध अने लग़। ऽजसमं न कहने की गिंज़आश नहं होता था। कोइ बह़ऩ नहं चल सकत़ थ़। बह़ऩ होत़ भा तो ककतना ब़र? समय ने च़ल ऐसा चला कक नौकर ककऱये क़ मक़न छोड़ कर बंगले के अईं ह़ईस मं अ गय़। यह़ँ ‘सिख‘ थ़- चौबासं घं​ंे नल क़ प़ना थ़। ऽबजला था। हंऽडल घिम़ओ, प़ना ब़हर। खंक़ दब़ओ, ऽबजला ह़ऽजर- हुकि म मेरे अक़- सबसे बड़ा ब़त यह कक कोइ ककऱय़ नहं। ककऱय़ बच गय़।...सिजदगा ऽगरवं रख गइ। ऄिसर तो खैर ऽखल़ड़ा थ़। ईसके स्व़ंग मं खों खोजऩ दिश्व़र थ़। चीक ऄिसऱआन से हा हो रहा था- वह भीलने लगा था कक ईसे ‘ह्यीमन ररलेशंस‘ की ल़ज रखना है। यह भील तब ऄऽधक होता था जब बंगले पर प़ंी-श़ंी होता था। ऐसे मौकं पर भ़ँत-भ़ँत की ऄिसऱआन आकट्ठा होता थं। तब तो जैसे ईदहं कि ढ़़ने के ऽलये हा ऄिसऱआन ऄत की हुकि मब़ज बन ज़ता था। नौकर कहल़त़ तो तब भा ‘भैय़ जा‘ हा थ़ मगर ऄिसऱआन की अव़ज की गमक स़ि ऐल़न करता था कक वह बंगले क़ मिँह बोल़ एक ऩम हा है। जैसे ‘ंॉमा‘, ‘जैकी‘ य़ ऐस़ हा कि छ भा। ‘भैय़ जा‘ कोइ ररश्त़ य़ सम्म़न नहं है ऽजस पर आतऱय़ ज़ सके । और तो और, म़लककन ऄिसऱआन की देख़ देखा कि छ दीसरा नकचढ़ा ऄिसऱआन तो भैय़ जा-भैय़ जा कह कर छे ड़ने पर हा ईतर अता थं- खिद की लिग़इ ऐस़ बत़यव करता तो वह खबर लेत़ कक ...। ककसा ऄवसर-कि ऄवसर पर दफ्तर के संगा स़था ऽमल ज़ते तो वह भा ईसे ऽचड़ा क़ गिल़म हा समझते थे- ऄब, बेगम की क़ँख क़ ऽपस्सी बन ज़ने से कोइ ब़दश़ तो नहं कहल़ने लगेग़- वे रठठोला करते। बहुत से गिंत़ड़े ऽभड़़ कर नौकर ने तरकीब ऽनक़ल हा ला ऽजससे ऄिसर क़ म़नमदयन भा न हो और नौकर की गिल़मा भा ऽमं ज़ये। मौक़-ऄवसर नौकर ऄिसर से कभा-कभ़र दफ्तर मं भा क़म कऱने की ऽवनता करने लग़। तकय होत़ कक जब तक यह ल़ल़ भरत ल़ल जैस़ ऄिसर है तब तक तो कोइ ब़त नहं-सब जग वुदद़वन है-कल कोइ बिड़बक अ गय़ तो क्य़ होग़? ऄिसर की ज़त, अऽखर कब तक एक खीं​ं े से बंधा रहेगा? कभा न कभा तो ईसक़ तब़दल़ होग़ हा। ईदहं कदनं दफ्तर मं तरक्की के ऄवसर पैद़ हो गये। नौकर की कै ंेऽगरा के लोग आस पद के ऽलये दरख्व़स्त दे सकते थे-ऄिसर ने हा सीचऩ दा था - ऄिसर अड़ गया कि भैया जी इस पद िे लिये

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अवेदन कर हा दं। क्यंकक, ईठा ह़ं ऄठव़रे लगता है। ब़द मं कौन ज़ने, कब जगह ऽनकलं? किर, अज ऄिसर यह़ँ है, तब रहे, न रहे। और, ऄिसर के रहते तरक्की न हो प़ये तो ऩक तो ऄिसर की हा कंेगा न? नौकर ने अवेदन ककय़। जैसे नौकर जैसे दीसरे लोगं ने ककय़। पराक्ष़ के कदन ज्यं-ज्यं प़स अते गये, नौकर के ऽसर से क़म क़ बोझ हल्क़ होत़ गय़। ऄिसर की समझ स़ि था कक भैय़ जा को पराक्ष़ की तैय़रा के ऽलये समय ऽमलऩ च़ऽहये। ऄिसर जब ंी ऄर पर नहं होत़ तो दो घं​ंे खिद नौकर को पढ़़त़। ऄिसऱआन को आससे क्य़ िरक पड़ऩ थ़? बंगले क़ क़म सम्ह़लने के ऽलये नौकर-पत्ना था हा। ऽलऽखत पराक्ष़ हुइ। नौकर प़स हो गय़। सो भा, सबसे ऄव्वल नम्बर से। ऄिसर हा ने खिद अकर खबर दा था-भैय़ जा, तैय़रा कर लो। ज्य़द़ से ज्य़द़ हफ्ते भर मं प्रमोशन लेंर अ ज़येग़। देखो, कह़ँ ट्ऱदसिर होत़ है। ट्ऱदसिर मं नहं रोक प़उँग़। लैड ड़ईन पॉऽलसा है कक प्रमोशन पर ट्ऱदसिर होग़ हा। ह़ँ, कि छ समय ब़द अपको व़पस बिल़ने की कोऽशश ऄवश्य कर सकत़ हूँ। किलह़ल तो अपको ज़ऩ होग़नौकर पत्ना तो हैऱन था कक कौन से देवत़ के प्रत़प से यह हो गय़। स़मने ऄिसर के ऽसव़ और कोइ कदखत़ हा नहं थ़। ईसा के स़मने क़जी-बिी क़ ऽडब्दब़ खोल कर बैठ गइ-भैय़, भगव़न खिद थोड़े हा अत़ है। ककसा न ककसा को ऄपने रूप मं भेजत़ हा है - ऄफसर हैनुमान जी थोड़े हैी था कक ग्यारहै रूपये के चनाआल़यचा द़ने मं भोग लग ज़त़। अऽखर, देवत़ क़ स्तर भा कि छ म़यने रखत़ है। ऄिसर बड़़ देवत़ थ़। ईसकी पीज़ मं क़जीबिी तो बनता हा था। ऄिसऱआन तो जैसे जल कर भिरंय़ हो गइ- ऄब बंगल़ कौन सम्ह़लेग़? ऐस़ प़लती नौकर किर कह़ँ ऽमलेग़- ब़दल ऄिसर पर िं़- तिम्ह़रे रहते वह प़स कै से हो गय़? तिम िे ल भा तो कऱ सकते थे- ऱत को ऐसा करं​ं़ लेके पड़ा कक ऄिसर की तरि मिड़ा हा नहं। ज़ने-ऄनज़ने ऄिसर क़ ह़थ ऄिस़ऱआन की देह पर पड़़ भा तो ऐसे ऽघऽनय़ कर झंक कदय़। जैसे बरस़त मं, मिँह की और अता, भंस की गोबर ऽलथड़ा पीछ ँ झंक रहा हो। ऄिसर पा हा तो गय़, ऄिस़ऱआन क़ दिव़यस़ त़प- सबेरे ईसे ंी ऄर पर ज़ऩ थ़। ऽबऩ तऩव के ज़ऩ ईसे ‘ह्यीमन-ररलेशन‘ ने ऽसख़य़ थ़। ... नौकर ने सत्य ऩऱयण स्व़मा की कथ़ बोला था। करंदा म़त़ के ऽलये वह ‘बकऱ‘ पराक्ष़ देने से पहले हा कबील कर चिक़ थ़। पत्ना से झोल़-झंड़ ब़ंधने के ऽलये कह़। ग़ड़ा मं ररजवेशन के रंककं ऄिसर पहले हा संप गय़ थ़। बस, आतऩ स़ क़म बच़ थ़ कक नौकर दफ्तर ज़कर प्रमोशन, ट्ऱदसिर और ररलासिवग लेंर ले ले। दफ्तर के संगा-स़ऽथयं ने छोंा सा ऽवद़इ प़ंी रखा था। ईसे स़भ़र स्वाक़र कर ले। तो, नौकर ने भा प़ंी मं धदयव़द के रूप मं बोलने के ऽलये भ़षण रं ऽलय़ थ़- छों़-मों़, ऄनगढ़ स़ISSN –2347-8764

आन स़रा तैय़ररयं के स़थ वह दफ्तर पहुँच़ गय़। ईसे ऄचरज हुअ- दफ्तर मं ऐसा कोइ हलचल नहं था जैसे कोइ प़ंी-अंी होना हो। बड़े ब़बी ने प्रमोशन-लेंर नहं कदय़। सीचऩ दा कक हेडक्व़ंर से िै क्स अ गय़ है कक जो पोस्ं ‘कक्रयें‘ हुइ थं, ईदहं तत्क़ल प्रभ़व से रद्द कर कदय़ गय़ है। जब पोस्ं हा नहं रहं तो क़हे क़ प्रमोशन? क़हे क़ ट्ऱंसिर? कै स़ ररलासिवग लेंर? ‘स्ंेंस को‘-यथ़ ऽस्थऽत- बऩये रखऩ है। ... ऄब छोड़ो गिआंय़ँ, यह सोचने मं कौन मीड़ म़रे कक नौकर और नौकर-पत्ना पर क्य़ बाता- ऄखब़र की हर खबर पर कदल बैठने लगे तो जा ऽलये। धम़क़ बंगले मं हुअ। ऄिसर ंी ऄर से लौं़ तो ऄिसऱआन ऐसा ंी ं के पड़ा कक ऄिसर पहला ऱत भील गय़। ऽलपं़-ऽलपंा, चीम़ -चाटी से मन भरा तो कू की,“व़उ लव, यह सब कै से हुअ? आज आं नॉं ऄृ ऽमऱककल?” “हैव द पेशंस स्वांा,” ऄिसर सोिे पर पसर ऽलय़- जैसे जात की थक़न ईत़र रह़ हो- ऄिसऱआन बगल मं सं ला। ऄिसर मं ऽपघलता हुइ सा ने ं़इ की गठ़न दोनो ह़थं से ढाला कर दा। ऄिसर ऽतऽलस्म तोड़ने बैठ गय़। यह ब़बी देवकी नददन खिा जैस़ ऽतऽलस्म थ़ ऽजसे वहा तोड़ सकत़ थ़ ऽजसने रच़ हो। ऄिसर ने ब़ईल से ऽबस्कि ं ईठ़ कर कि तऱ,“ह्यीमन ररलेशन ड़र्निलग! ह्यीमन ररलेशन। ह्यीमन ररलेशन बत़त़ है कक ह्यीमन ररसॉर्णसस की परि़रमसय लीज होने लगे तो ईसे बीस्ं करने की जरूरत होता है। पोस्ं कक्रयें होऩ, ईस पर ईस ब़ँगड़ी क़ सलेक्ं होऩ ऐस़ हा बीस्ंर समझो।” “ह्यीमन ररलेशन यह भा बत़त़ है कक झंक़ ककतऩ भा तगड़़ देऩ हो, लग़ओ धारे से,” ऄिसर िै ल गय़,“एक्ं ऐस़ हो कक स़मने व़ल़ अपको दोशा म़न हा न प़ये। ...भ़ग्य और भगव़न को हा कोसत़ रह ज़ये,” ऄिसर और ढाल़ हो गय़। ल़ड़ मं पगलय़इ सा ऄिसऱआन ईस पर ऽबछ सा गइ,“और रहा ब़त पोस्ं सरं डर होने की तो हम मैनेजमं​ं हं स्वां ह़ंय! ...पोस्ं कक्रयें करव़ सकते हं तो सरं डर भा करव़ सकते हं।” “दोनो क़मं के ऽलये हमं बस ‘जस्ंाकिके शन‘ हा तो देऩ होत़ है, ...हेडक्व़ंर को,“ ऄिसर की ऽसग्नेचर ट्डीन ऄिसऱआन के ओठं पर बज गइ। ऄिसऱआन ऄिसर को ऐसा मरऽमंा सा देख रहा था जैसे ंा वा साररयल ज़सीस ‘करमचद‘ मं ग़जर चरते पंकज कपीर को मिंल्लो सिऽष्मत़ सेन देख रहा हो- यी अर जाऽनयस सर-

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स़क्ष़त्क़र

वररष्ठ कऽव प्रत़प सहगल से ब़तचात साम़ भ़रता प्रत़प सहगल एक ज़ने-म़ने कऽव, ऩंकक़र, कथ़क़र और अलोचक के रूप मं पहच़ने ज़ते हं। 10 मइ, 1945 को पऽश्चमा पंज़ब के झंग प्रदेश मं (ऄब प़ककस्त़न मं) आनक़ जदम हुअ। साम़ भ़रता: अपकी कि छ कऽवत़एँ ऽनजा जावन के कोमल ऄंतरं ग पलं क़ स़क्ष्य हं जो अपकी ऄदय कऽवत़ओं से ऽबल्कि ल ऄलग ककस्म की है। आसके अध़र पर यह पीछ़ ज़ सकत़ है कक कऽवत़ओं मं अपक़ "मं" ककतऩ है? प्रत़प सहगल: कऽवत़ओं मं "मं" की भीऽमक़ बड़ा महत्वपीणय होता है । कऽवत़ मं हा क्यं, सभा कल़ओं मं कल़क़र की ईपऽस्थऽत तो होता हा है लेककन यह ईपऽस्थऽत नज़र नहं अता। जैसे इश्वर सुऽि की रचऩ करके ग़यब हो गय़ है, कि छ ईसा तरह से लेखक भा ग़यब हो ज़त़ है। दीसरा ब़त यह कक जब तक कऽव ऄपने ‘मं’ को ऽवस्त़र नहं देग़, ईसे स़म़ऽजक सददभं से जोड़ेग़ नहं, तब तक ईसक़ कोइ महत्व नहं । कऽवत़ मं एक ‘सब्दजेऽक्ंऽवंा’ होना हा च़ऽहए, च़हे अप स़म़ऽजक सददभं के स़थ चलं य़ ऱजनाऽतक वैच़ररकत़ को कऽवत़ मं घिल़-ऽमल़ दं । यह वैच़ररक अध़र भा ऽबऩ ‘मं’ के चलत़ नहं है । कहं न कहं ‘मं’ हस्तक्षेप करत़ रहत़ है । कऽव के ‘मं’ क़ ‘मं-मं बनने क़ खतऱ भा रहत़ है, आसऽलए स़वध़ना बरतऩ भा ज़रूरा है। कऽव के ऄहस़स, ईसके ऄनिभव, ईसक़ सच य़ ईसक़ ऽवश्व़स हा कऽवत़ की राढ़ की हड्डा होत़ है । साम़ भ़रता: अपकी कऽवत़ओं मं स़म़ऽजक दुऽि ऄऽधक स़थयक रूप से रे ख़ंककत हुइ है I कमज़ोर वगं से ऄपने प़ि चिनने क़ अशय क्य़ परक़य़ प्रवेश की तरह है? प्रत़प सहगल: ऄपना कऽवत़ओं क़ कमज़ोर वगं क़ प़ि मं खिद हा हूँ । अज अप प्रत़प सहगल को ऽजस रूप मं ज़नते हं, पच़स स़ल पहले ऐस़ नहं थ़ । मंने संघषयपीणय जावन ऽजय़ है। अपको अज लगत़ है कक वह परक़य़-प्रवेश है पर व़स्तव मं मं ऐसा ऽस्थऽतयं से सहजत़ से त़द़त्म्य स्थ़ऽपत कर लेत़ हूँ । मेरे ऄपने ऄनिभव हा मेरा कऽवत़ओं मं स़म़ऽजक संदभं के ब्दयोरे बन कर ईतरते हं । साम़ भ़रता: ‘ऄँधरे े मं देखऩ’ कऽवत़ संग्रह की कऽवत़एँ कि छ नए ऄथय, नए भ़वबोध की तल़श करता कदखता हं। वतयम़न से ऄसंतोष और एक ऽनरं तर तल़श । ऐस़ भ़व क्य़ तत्क़लान स़ऽहऽत्यक पररवेशगत दब़व की देन है य़ आनकी कोइ और वजह रहा ?

ISSN –2347-8764

प्रत़प सहगल: ऄँधेरे मं देखऩ की कऽवत़ओं क़ संस़र ऄनेक रूप़क़रं मं फ़ै ल़ हुअ है और ऄगर अपक़ आश़ऱ ‘ऄँधेऱ और अदमा’ मं श़ऽमल कऽवत़ओं की ओर है तो बत़ दीँ कक यह एक कऽवत़ श्रुंखल़ है । यह़ँ एक हा ऽस्थऽत के ऽवऽभन्न रूप हं । ऄँधरे ़ हम़रे स़मने एक सैल़ब बनकर ईतरत़ है। मीतय रूप मं ईसको ऽनर्णमत हम करते हं, आसऽलए प्रताक़त्मक रूप से हा अशय संप्रेऽषत ककये ज़ सकते हं । वहा मंने ककय़ है। ऄँधेरे मं ऽवऽभन्न ऽस्थऽतय़ँ ईभरता कदख़इ देता हं । ईन ऽस्थऽतयं के स़थ आस खंड की कऽवत़एँ जीझता हं। व़स्तव मं यह ऽडिरं ं िे सेज़ ऑफ़ ल़आि हं । महत्वपीणय है ऄँधेरे से हा प्रक़श की कोइ ककरण ऽनक़लने की कोऽशश करऩ। ऄँधेरे मं देखऩ महत्वपीणय है, ऄँधेरे मं डी बऩ नहं। जब तक अप ऄँधरे ा ऽस्थऽतयं से खिद को ऽनक़लने की कोऽशश नहं करं ग,े अप अगे नहं बढ़ सकते । साम़ भ़रता: ‘अकदम अग’ ऩमक संग्रह की कऽवत़ओं मं सचमिच एक अग है । परदति प्रश्न वहा ऽवकल स्वर व़ले हं। आस संग्रह की कि छ कऽवत़ओं को अपने दो पंऽिये मि​ि छं दं मं भा समें कदय़ है जो मीलतः कि छ सिबबधमी प्रताक़त्मक प्रक़र के हं और कि छ ऽवच़र ब्दयोरे की तरह ज़न पड़ते हं । ह़ल़ंकक यह छं द आतने सिगरठत हं कक आनमं से एक भा शब्दद को ऽखसक़ प़ऩ संभव नहं है । ऐसा कऽवत़ओं के ऽलखने की वजह? प्रत़प सहगल: अपने कह़ कक एक भा शब्दद हं़ने से कऽवत़एँ ऽगर ज़एँगा तो मं कहूँग़ की यह ईन कऽवत़ओं की शऽि है । आस दुऽि से सिहदा मं दोह़ सबसे समथय छं द है । ईदीय य़ सिहदा मं ग़ज़ल क़ एक-एक शेर ऄपने व्यऽित्व के स़थ ईपऽस्थत होत़ है और ऄपऩ प्रभ़व छोड़त़ है । आस तरह के छं द के बंधन से मि​ि भा सशि रूप से ऄपना ब़त कहा ज़ सकता है । मेरा छोंा-छोंा कऽवत़एँ श़यद यहा कहता नज़र अता हं I थोड़े मं कि छ बड़़ रचने की कोऽशश हा आन कऽवत़ओं के वजीद की वजह हो सकता है। मेरे पहले दो कऽवत़ संग्रहं ‘सव़ल ऄब भा मौजीद हं और ‘अकदम अग’ मं भा ऐसा कइ कऽवत़एँ हं । एक ब़त और- मंने आन कऽवत़-संग्रहं मं कऽवत़ओं क़ चिऩव ऄलग तराके से ककय़ है । मेऱ पहल़ कऽवत़ संग्रह 1983 मं

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हं । आसऽलए ईनमं एक ऽवक़स क़ क्रम कदख़इ देत़ है । मेरे कइ दोस्तं ने कह़ कक बहुत सा कऽवत़एँ कमज़ोर हं, आदहे मत छपव़ओ । पर मिझे लगत़ है कक प़ठक के स़मने मिझे खिद को समग्र रूप से रखऩ च़ऽहए ऄगर वे कऽवत़एँ कमज़ोर हं, तो हं, लेककन एक कऽव के ऽवक़स-क्रम मं आनकी भा ऄपना जगह है तो आदहं ऽछप़उं क्यं? आन संग्रहं की एक ऽवशेषत़ यह भा है कक आनमं एक ओर दो-च़र पंऽिए कऽवत़एँ हं तो एक-एक लंबा कऽवत़ भा है। साम़ भ़रता: क्य़ एक कऽव के भातर ऄपना परं पऱ क़ होऩ ज़रुरा है? आस बाच अपको भा ऽवच़र-कऽवत़ अंदोलन के समथयक के रूप मं ज़ऩ ज़त़ रह़। अप स्वयं को परं पऱ से ककस हद तक बंध़ य़ मि​ि महसीस कर प़ते हं? प्रत़प सहगल : परं पऱ स्मुऽत-संस़र है, ऽवच़र लेखन की उज़य। लेककन ककसा ऽवच़रध़ऱ को ईल्थ़ कर देऩ कऽवत़ नहं हं। ऽवच़रध़ऱ क़ कऽवत़ मं ईपयोग बहुत समझ कर और बहुत संभल कर करऩ च़ऽहए । ऽवच़र-कऽवत़ अंदोलन से मं कभा जिड़़ नहं, यह भ्रम अपको कै से हो गय़, कह नहं सकत़ । परं पऱ कोइ मुत-वस्ति नहं है कक ईससे ररश्त़ खत्म हो ज़ए । परं पऱ से हम़ऱ जावंत ररश्त़ बऩ रहत़ है लेककन परम्पऱ और रूकढ़यं मं फ़कय की समझ भा ज़रूरा है वऩय अप लकीर के फ़कीर होने से ज़्य़द़ कि छ नहं हंगे । व़स्तव मं ऽवच़र और संवेदऩ मनिष्य की मनाष़ क़ ऽनरदतर ऽवक़स-क्रम है । एक समय अपको यह मोह होत़ है कक मेरा कऽवत़ओं को आस श्रेणा की कऽवत़ओं के स़थ रख़ ज़ये । समय के स़थ मं आन ब़तं से मि​ि हुअ हूँ । यह ब़तं अपको थोड़े वक़्त के ऽलए चर्णचत तो कर सकता हं, अपको कहं ले नहं ज़एँगा । अज यह़ँ तक अ कर मंने यहा ज़ऩ की ऽवच़रध़ऱ के चौखंे मं बंदा कऽवत़ भोथरा होता है I ऽवच़रध़ऱ ओढ़ने और ऽवच़रध़ऱ जाने मं बहुत फ़कय है। ऽवच़रध़ऱ ऄगर कऽव की जावन-चय़य क़ ऽहस्स़ है तो ईस कऽव की कऽवत़ओं क़ ऽमज़़ज और रं ग ऄलग हा होग़। परं पऱ से मिऽि की क़मऩ के ISSN –2347-8764

बज़य ईसके ऽवक़स की क़मऩ ऄऽधक मील्यव़न है । साम़ भ़रता: शब्ददं क़ आतऩ ऽवश़ल भंड़र और सम्प्रेषण के हर कौशल से व़ककि होने के ब़वजीद अपने ऄपना कऽवत़ओं क़ ऽशल्प आतऩ स़ध़रण क्यं रख़? कऽवत़ के ऽशल्प को लेकर अपकी ऽनजा तल़श कै से अग्रहं य़ ककन प्रत्यक्ष य़ परोक्ष दब़वं के बाच बना है? प्रत़प सहगल: स़ध़रण मं ऄस़ध़रण स्थ़ऽपत करऩ मिऽश्कल क़म है। अप ऄपना ब़त को ऄगर सचमिच सम्प्रेऽषत करऩ च़हते हं तो श़ऽब्ददक अडम्बर से बचं। मेरा कोऽशश यहा रहता है कक श़ऽब्ददक छल से दीर रहूँ। शब्दद वहा आस्तम़ल हं जो स्व़भ़ऽवक रूप से अपके ज़हन मं अ रहे हं । पररव़र मं बोला ज़ रहा भ़ष़ हो, य़ ब़ज़़र की बोलच़ल की भ़ष़, सभा शब्दद तो हम़रे होने क़ ऽहस्स़ हं । क्य़ कऽवत़ के ऽलए ऄलग तरह की शब्दद़वला और ब़तचात के ऽलए ऄलग तरह की शब्दद़वला होना च़ऽहए ? महत्त्वपीणय यह है कक अप शब्ददं क़ ऽवदय़स कै से करते हं । ईन शब्ददं क़ रखरख़व कै से करते हं । शब्ददं क़ रख-रख़व हा तो शब्दद को ऄऽभध़ से व्यंजऩ की ओर ले ज़त़ है। और ऐस़ भा नहं है कक मिझे ऐसे शब्दद प्रयोग करने नहं अते। मंने ऄपने ‘ऄदवेषक’ ऩंक मं ऐसे शब्ददं क़ प्रयोग ककय़ है, ऽजसे अम बोलच़ल मं ऽक्लि ऽहददा कहते हं, परदति मेरा ऽक्लि सिहदा भा अपको प्रव़हमया लगेगा, समझ भा अएगा। आसा त्वऱ की कमा के चलते कऽवत़एँ अज सम़ज से कंता ज़ रहा है। मं अम लोगं को समझ अने ल़यक ऽलखत़ हूँ और मेरा कोऽशश होता है कक मिझे ज़्य़द़ से ज़्य़द़ लोग पढ़ं । ऽशल्प हम़रा ऄऽभव्यऽि क़ तराक़ हा तो है। आसऽलए सम्प्रेषणायत़ भा ककसा रचऩ की एक कसौंा होना च़ऽहए । साम़ भ़रता: यह ब़त कभा स्वयंऽसि की तरह दोहऱइ ज़ता था कक, " कऽवत़ एक स़थयक वक़्तव्य होता है" और आस पंऽि को ऽवस्त़र से कह़ ज़ये तो कऽवत़ भ़ष़ मं अदमा होने की तमाज़ है । क्य़ कऽवत़ के ऽलए ऐसे द़ऽयत्व क़ ऽनव़यह ज़रुरा है? ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

प्रत़प सहगल: कऽवत़ अदमा होने की तमाज़ है, के वल कऽवत़ पर हा क्यं? यह ब़त स़ऽहत्य की ऄदय सुजऩत्मक ऽवध़ओं पर भा ल़गी होता है। आसऽलए आस द़ऽयत्व क़ ऽनवयहण हर रचऩक़र को ककसा भा ऽवध़ के ऽलए करऩ पड़त़ है । न के वल ककसा भा ऽवध़ बऽल्क ककसा भा कल़-रूप मं ऽलए भा । साम़ भ़रता: यीँ तो लम्बा कऽवत़ओं मं भ़व की सघनत़ खोने क़ डर बऩ रहत़ है पर अपके कइ कऽवत़ संग्रहं मं लम्बा कऽवत़एँ संकऽलत हं। कि छ के अख्य़ऩत्मक स्वर प्रेमचंद सराखे गद्यक़रं के भ़वभीऽम की य़द कदल़ता है। ऄपने हा देश मं ऽवस्थ़पन क़ ददय झेल रहे मज़दीरं की व्यथ़ की प्ऱसंऽगकत़ "बीचड़ख़ऩ" कऽवत़ को ऄपने समय से अगे की कऽवत़ बऩ देता है । लम्बा कऽवत़ओं के प्रऽत आतऩ अग्रह क्यं? प्रत़प सहगल: मेरा कऽवत़ओं की भ़वभीऽम ऽबल्कि ल ऄलग ककस्म की है। मं शहर क़ अदमा हूँ आसऽलए मंने प्रेमचंद से ऽबल्कि ल ऄलग ककस्म की दिऽनय़ देखा है । मेरा कऽवत़ओं मं जो कि छ अय़ है वह सब मेऱ भोग़ और देख़ हुअ सच है । मं यह म़नत़ हूँ कक अपक़ लेखन अपक़ ऄपऩ ऄर्णजत सच हा होत़ है, किर वह च़हे प्रेमचंद हं य़ कोइ और । सबकी ऄपनाऄपना भ़वभीऽम है । मेरे सभा कऽवत़ संग्रहं मं एक-एक लम्बा कऽवत़ ऽमलेगा । लम्बा कऽवत़ क़ ऽवध़न भा मंने लगभग 1969 से स़धऩ शिरू कर कदय़ थ़ । ब़द मं छह लम्बा कऽवत़ओं क़ एक ऄलग संग्रह ‘आस तरह से’ प्रक़ऽशत हुअ । ‘बीचडख़ऩ’ क़ पररवेश के वल भ़रत नहं, वैऽश्वक है । आससे पहले मेरा लंबा कऽवत़ ‘सव़ल ऄब भा मौजीद है।’ ऽनज से शिरू होकर स़म़ऽजक पररवेश मं ऽवस्त़र प़ता है और ईसके पाछे एक सिऽचऽदतत ऽवच़र क़म कर रह़ है । लंबा कऽवत़ के प्रऽत अपको अग्रह आसऽलए लगत़ है कक ऄब तक मंने छह लंबा कऽवत़एँ ऽलखा हं । वस्तितः कइ ऽवषय हा ऐसे हं ऽजनके ऽलए लंबा कऽवत़ ऄऽनव़ययत़ है य़ना लंबा कऽवत़ ऽलखऩ कोइ अग्रह नहं, ऽववशत़ है। ऽपछले कइ स़लं से एक भा लंबा

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कऽवत़ ऽलख नहं प़य़ य़ना ऄनिभवं की सघनत़ की ऄऽभव्यऽि ककदहं दीसरे ऽवध़रूपं मं हुइ है। साम़ भ़रता: वतयम़न मं अप जब स़ऽहत्य की ऄदय ऽवध़ओं मं भा एक सशि हस्त़क्षर के रूप मं ऽचऽह्नत ककये ज़ते हं, तब भा ऐस़ क्य़ कि छ रह ज़त़ है ऽजसके ऽलए अप कऽवत़ की ओर मिड़ते हं? अपको पहला दि़ कब महसीस हुअ कक जो कि छ कऽवत़ मं कह़ ज़ सकत़ है वह ककसा और ऽवध़ मं नहं? प्रत़प सहगल: कऽवत़ ऽलखने की मेरा शिरुअत 1962 के असप़स होता है । ईदहं कदनं मैनं ‘मधिश़ल़’ पढ़ा था और ईसक़ ऄसर भा थ़। ईसा ऄसर के चलते ‘मधिकलश’ ऽलखा। यह सब स्वत:-स्िी तय थ़। ऄब वह मधिकलश कह़ँ, मिझे नहं पत़ । यह कदल लग़ने की ईम्र होता है और कदल ंी ंने की भा । मेरे स़थ दोनं हुए और कफ़र कि छ प्रेम गात और कि छ ऽवरह गात ऽलखे गए । 1962 मं चान ने हमल़ ककय़ और हम पऱस्त भा हुए । आसा समय कि छ देशप्रेम के और कि छ ईदबोधऩत्मक गात ऽलखे गए । ईदहं कदनं कदनकर की ‘परशिऱम की प्रताक्ष़’ प्रक़ऽशत हुइ था। आस कऽवत़ ने मिझपर गहऱ ऄसर ड़ल़ । प्रेम च़हे अपको प्रेमा-प्रेऽमक़ से हो य़ देश से, दोनं हा रूपं मं बहुत प्रेरक होत़ है । है तो प्रेम हा । ऽबन प्रेम सब सीन । 1965 मं क़ऽलज मं प्रवेश ककय़ तो कदम़ग की ऽखड़ककय़ँ और खिलं और नया कऽवत़ पढ़ने लग़। ऄकऽवत़ क़ ऄसर भा हुअ । क्षोभ, क्रोध, और स्वप्न ंी ंने क़ दंश, सभा सिहदा कऽवत़ के प़श्वय मं थे । ऄकऽवत़ और जन-पक्षाय कऽवत़ स़थ-स़थ चल रहा थं । दोनं क़ ऄसर थ़ मेरा पाढ़ा पर और हम सभा ऄपना ऱहं तल़श रहे थे । 1965 और 1970 की बाच बहुत कि छ साख़ और कऽवत़ के स्वर भा बदलने लगे । अक्रोश और तोड़-िोड़ की जगह क़व्य मं संयम अने लग़ । कऽवत़ मं ऽवच़र की भीऽमक़ को रे ख़ंककत ककय़ ज़ने लग़ । आसा पररवेश मं मिझे ऄपना ऱह बऩना था। ऄब क्य़ ऽलख़ है, कै स़ ऽलख़ है, आसक़ मील्य़ंकन तो अप लोग हा करं गे । साम़ भ़रता : कह़ ज़त़ है कक कऽव ने ISSN –2347-8764

ऄगर ईपदय़स और कथ़एं भा ऽलखा हं तो ईसकी कऽवत़ओं को समझने के ऽलए ईनकी ओर भा देखो । क्य़ अप ऄपना रचऩधर्णमत़ को समझने के ऽलए भा आसे ज़रुरा समझते हं? प्रत़प सहगल : ह़ँ मं आसे ज़रुरा समझत़ हूँ । आससे अप कऽव को समग्र रूप मं पहच़न सकते हं । कऽवत़ संकेत देता है तो गद्य ऽवस्त़र देत़ है । और कऽव ने ऄगर अत्मकथ़ ऽलखा हो तो ईसे ज़रूर देखं। बहुत सा कऽवत़ओं के संदभय पकड़ मं अ ज़एँगे। साम़ भ़रता: वो कौन से लोग/जगह य़ घंऩएँ हं ऽजनसे जिड़े हुए शब्दद अपकी कऽवत़ के ऽलए बाज शब्दद क़ क़म करते हं? प्रत़प सहगल: मिख्यतः मेरे जावन से जिड़े लोग, स्थ़न और घंऩएँ ब़र-ब़र ऄनेक रूपं मं मेरा कऽवत़ओं मं ध्वऽनत होते हं । समय के स़थ हा व्यऽि के जावन मं पररपक्वत़ अता है I मं कोइ ऄपव़द नहं हूँ । यहा वजह है कक समय के स़थ हा एक हा व्यऽि और एक हा घंऩ ऄलग ऄलग रूपं मं शब्ददं मं अक़र प़ने लगता है। यह एक ऄजाब तरह क़ ऽतलस्म है कक कै से ककसा घंऩ के ऄथय जावऩनिभवं के स़थ बदलते चले ज़ते हं । कफ़र जो-जो पढ़़, समझ़, गिऩ, वे भा कऽवत़ मं बाज शब्दद बनकर बजने लगते हं । साम़ भ़रता: मनिष्य के ऽलए ऽनरं तर नैऽतक पऱभव के आस दौर मं क्य़ एक कऽव के तौर पर अपको लगत़ है की ऄब कऽवत़ के वल संत़प की कऽवत़ हो सकता है? प्रत़प सहगल: मिझे नहं लगत़ कक ऄब के वल संत़प की कऽवत़ हो सकता है । कऽवत़ ईल्ल़स की भा हो सकता है और संघषय की भा । और कफ़र ऽबऩ कोइ स्वप्न देखे तो बड़ा कऽवत़ संभव हा नहं है । ऄगर संत़प की कऽवत़ भा है तो वह स्वप्न ंी ंने से ईपजे संत़प की कऽवत़ हा होगा । कइ ब़र हम प्रल़प य़ ऽवल़प को भा संत़प म़नने की भील कर बैठते हं । कऽवत़ नैऽतक पऱभव के दौर मं प्रक़श-स्तंभ क़ क़म करता है। ♦♦♦ एफ़-101, ऱजौरा ग़डयन, नइ कदल्ला-110027 फ़ोन: 011-47550565 / 0981638563

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

संस्मरण

ईसकी गोद मं ऄसाम़ भट्ट

1990 मं 'अज' ऄखव़र मं क़म करता

था। िे ज्रर रोड से ऽनकल कर पंऩ ग़ँधा मैद़न क़ऽलद़स रं गग़लय पैदल अऩ ज़ऩ मेऱ रोज़ होत़ थ़ ररहसयल के ऽलए। ऱस्ते मं एक स़ंवला सा, पतला औरत गोद मं छोंे से बच्चे को ईठ़ये भाख म़ंगता था । कि छ दे ... बच्च़ भीख़ है ... ख़ऩ नहं ख़य़.. बाम़र है....पें मं एकगो ऄन्न है... मंने एक कदन खाझ कर ऽझडकते हुए कह़; - 'तिम लोग बच्चे पैद़ हा क्यीँ करते हो? जब बच्च़ प़ल नहं सकते ।' हम क्य़ करं ? रोज ऱत को ज़बरदस्ता दरोगव़ (क़ऽलद़स रं गग़लय से संे थ़ऩ है) हमको ग़ँधा मैद़न के बंच पर ले ज़त़ थ़ और यह बच्च़...!? ♦♦♦ अप रं गमंच-ंावा-किल्म ऄऽभनेिा और संवेदनशाल स़ऽहत्य सेवा भा है ।

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ऽनबंध

व़संता ऊती क़ प्रेम अख्य़न पररचय द़स

होला पर हम वषय भर की करठनत़एं, दिख, ऄस्वच्छत़ को भस्माभीत कर देते हं। और हम ऐस़ ऄके ले नहं करते। हम होऽलक़-दहन मं स़मीऽहक रूप से खड़े होते हं। यह ‘स़मीऽहकत़’ होला की स़ंस्कु ऽतकत़ क़ प्ऱणतत्व है। हम़रे प्ऱणं क़ ऽखलऩ होला हा ऽसख़ता है। प्ऱणं की जावंतत़ क़ ऩम होला है होला हम़रे ऽलए बहुऄथी प़श्वयध्वऽन रचता है। आस ईल्ल़स पवय मं हम ऄपने ऄंदर एक ऄदुश्य गिनगिऩहं महसीस करते हं। आस यंिाकु त होते ज़ते सम़ज और कु ऽिमत़ के ऄवशेषं के बाच होला एक मधिमय स़हचयय है,एक ईल्ल़स है, एक ईमंग है । होला मन क़ संव़द है। आकहऱ नहं, बहुअय़मा संव़द है। रं गं क़ संव़द, हृदय क़ संव़द, ऊतिओं क़ संव़द और सबसे बढ़कर संबंधं क़ संव़द। होला मं सभा ऄऽतरे क ऽशऽथल हो ज़ते हं। ऄऽतरे कं से सिजदगा नहं चलता। ईनमं लचाल़पन च़ऽहए। मध्यम़गय च़ऽहए। वाण़ के त़र यकद कस कदये ज़एं तो नहं बजता वाण़, बऽल्क ईसके त़र ंी ंे ज़ते हं और यकद त़र ढाले कर कदये ज़यं तो भा नहं बजता वाण़। ईससे ध्वऽन क़ ‘कि शल संचरण’ नहं होत़। होला के मध्यम़गय क़ सबसे प्रथम पक्ष है : ईसकी ब़संता ऊति क़ प्रेम-अख्य़न । वसंत: य़ना शात व ग्राष्म के बाचंबाच होऩ। एक ऐस़ म़धियय भऱ व़त़वरण, ऽजसमं मधिमयत़ हो। मधि को जावन और जावन को मधि बऩने की ब़त ऄज्ञेय भा कह गये हं। मधि तो ऊग्वेद मं ऄत्यंत सम़दुत है। मधि क़ ऄथय है- संचय से प्ऱप्त ऽमठ़स। भ्रमर जो संचया व रऽसक वुऽि के होते हं, ईनकी खोज व प्रऽतश्रिऽत है-मधि। यह मधिमयत़ हा वसंत क़ प्ऱण है। जो स़ऽहत्य हम ऽलखते हं, ब़ंचते हं, वह प्रक़ऱंतर से रं ग क़ ISSN –2347-8764

अत्म़दवेषण है, मधिचय़य है। हम़ऱ स़ऽहत्य होला क़ हा प्रऽतरूप है, जह़ं हर तरह के ब़ड़े बंधन ंी ंते हं। ज़ऽत, सम़ज, प्ऱंत, वगय, ऽवच़रध़ऱ आत्य़कद। ऄंतत: होला करता क्य़ है? यह कहं न कहं हमं जोड़ता हा तो है! यह तो स़ऽहत्य क़ भा कमय हुअ न! कस्मै देव़य हऽवष़ ऽवधेम? होला के रूप मं जावन के रं ग क़ हऽवष्य अप ऄपने लोक देवत़ के ऽलए लिं़ते हं। यह जो लोक है यह ‘लोकल’ क़ पय़यय नहं है। लोक स्थ़नाय तो है, लेककन ईसकी पररऽध से भा बहुत अगे ज़त़ है। लोक के वल ‘िोक’ भा नहं है। हम़रे दशयन मं तो ‘लौकककत़’ के बहुत हा वुहत् ऄथय हं। होला संवत् की ऄंऽतमत़ को भा प्रण़म है। आसाऽलए ग्ऱमाण क्षेिं मं आसे ‘सम्मत’ (संवत्) िीं कऩ भा कहते हं। आसमं हम वषय भर की करठनत़एं, दि:ख, ऄस्वच्छत़ को भस्माभीत कर देते हं ।...और हम ऐस़ ऄके ले नहं करते। हम होऽलक़-दहन मं स़मीऽहक रूप से खड़े होते हं। यह ‘स़मीऽहकत़’ हम़रा होला की स़ंस्कु ऽतकत़ क़ प्ऱणतत्व है। हम़रे प्ऱणं क़ ऽखलऩ होला हा ऽसख़ता है। प्ऱणं की जावंतत़ क़ ऩम होला है। होऽलक़ दहन मं हम जौ और गेहूं की जो ब़ऽलय़ं ऄर्णपत करते हं, यह ऽवध़न ऄन्न के पररपक्व होने के स़थ हा अस्व़द -ऄपयण से संबि है। यह हम़रा ककस़ना परं पऱ की समुऽि को दश़यता है , जो ग़ंवं मं अज भा चला अ रहा है। दिऽनय़ भर मं क्यंकक नगराकरण की प्रकक्रय़ व ईिर अधिऽनकत़ तथ़ संरचऩ की नया दुऽियं के क़रण पवो के प्रऽत, सम़जं के प्रऽत, जाऽवक़ के प्रऽत, संबंधं के प्रऽत नया समझ अया है, आसऽलए हम नये अलोक मं आन पवो क़ नय़ प़ठ बऩते हं। होला क़ समक़लान प़ठ यह है कक सम़ज वंऽचत के ऽलए होला मं पहले से ऄऽधक ऄवसर हं-

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रं ग अलेपन के , ऄपना प्रसन्नत़ क़ आजह़र करने के । आस पवय पर कोइ भा, गराब से गराब भा, भ़रत के सवोच्च व्यऽि को न के वल रं ग पोत सकत़ है, बऽल्क हक से प्रत्यक्ष- ऄप्रत्यक्ष कि छ ‘ऄऽतररि’ भा कह सकत़ है। यह होला क़ हा ईल्ल़स है, ऽजसमं सम़जबि संरचऩ ंी ंता है। ऄब यह ज्य़द़ ंी ंता है लेककन ऄब भा और ऄऽधक ंी ंने की अक़ंक्ष़ है। आस मौके पर रघिवार सह़य की कऽवत़ य़द अता हैंी ं, ंी ं, ंी ं। य़ना सुजन के ऽलए ंी ं जरूरा है लेककन सिचतनाय यह है कक हर ंी ं सुजन नहं बनता। डाकं स्ट्रक्शन जरूरा है पर वह कं स्ट्रक्शन क़ क्य़ स्वरूप लेग़, यह ऽवच़रणाय है। होला की ब़त करं तो वह ि़गिन के ऽनऽहत़थय नय़ कं स्ट्रक्शन करता है, नय़ स्ट्रक्चर बिनता है। नइ संरचऩ क़ एक रूप वसंत क़ नवऽवध़न भा है: नवनवत़। हर वुक्ष, हर पिा, हर पिष्प एक कथ़ कहते हंनइ नइ। अपके स़थ रं गभरा भ़ष़ मं बऽतय़ते हं, अप पर गिल़ल ड़लते हं, अपसे ऽपचक़रा खेलते हं। अप ईनसे खेऽलए तो! अप ईनसे संव़द तो कररए ! अप रऽसक संवकदय़ तो बऽनए! संव़द के प्रऽत संव़द हंगे, ऽवसंव़द हंगे, मगर हेति तो संव़द हा है न! आतने ऽवऽवधवणी पिष्प वसंत मं ऽखले रहते हं कक न च़हते हुए भा अह्ल़द व ईदम़द अ हा ज़त़ है। कै स़ ईदम़द? वह ईदम़द नहं जो हमं ऽछछल़ बऩए, ऐस़ जो हमं किं भ बऩ दे। पररपीणय कर दे। पररतुप्त कर दे। लेककन क्य़ कीऽजएग़, यह सिंदरत़, यह रूप, हमं प्रऽतपल-प्रऽतक्षण बेधत़ रहत़ है। हम च़हते तो हं कक तुप्त हो ज़एं, ककदतिऽवद्य़पऽत की व़णा मं कहं तो ‘जनमऄवऽध हम रूप ऽनह़रल, तबहुं न ऽतरऽपत भेल।’ वसंत ईस प्य़स की तरह है, जो कभा बिझता नहं है, कभा तुप्त नहं होता है। होला ईसक़ चरम रूप है। हम ऽजतऩ आस ऊति मं डी बते हं, आसे प़ने की कोऽशश करते हं, वह ईतऩ हा और-और प़ने के ऽलए ल़ल़ऽयत करता है, ऄपना ओर अकर्णषत करता है। मन की ऊति हममं एक वसंत रचता है। हममं होला क़ रं ग, प्रेमपीणय ISSN –2347-8764

ईदम़द, संबंधं की तरलत़, प़ने और देने की ल़लस़ की जो ऽवद्यम़नत़ है, वहा तो हमं ऽजल़ए हुए है, वरऩ हम ककसऽलए ऽजएं, ककसके ऽलए ऽजएं? प़ना की रं गभरा बौछ़र, गिल़ब की पंखिऽड़य़ं, गिल़ल, के सर अपके शरार को रस दे, अपमं रऽसक व्य़कि लत़ और लय ईभरे - यहा तो च़हत है म़नव मन की। यह लय वैसा हा है, जैसा कऽवत़ की दो पंऽियं के बाच होता है। यिग्म भा, स्व़यि भा। अप होला मं जिड़े, स़थ हा अपके मन क़ अक़श और खिले, स्व़यि हो, ऽववेकशाल मनिष्य यहा तो च़हत़ है। सलाके से कदल खोलकर ऽमऽलए, मह़नगर की बंकदशं के ब़वजीद। कोइ बंकदश मत रऽखए। यकद बंकदश हा रखना है तो होला के गात की बंकदश रऽखए। होला के नुत्य मं न के वल अपके पद, ऄऽपति अपक़ मन भा ऽथरकऩ च़ऽहए। होला हम़रे ऽलए बहुऄथी प़श्वयध्वऽन रचता है। आस ईल्ल़स पवय मं हम ऄपने ऄंदर एक ऄदुश्य गिनगिऩहं महसीस करते हं। आस यंिाकु त होते ज़ते सम़ज और कु ऽिमत़ के ऄवशेषं के बाच होला एक मधिमय स़हचयय है। एक ईल्ल़स है, एक ईमंग है। वणय-वणय की पररऽधयं से परे ज़ने की अक़ंक्ष़। गेहू-ं जौ की ब़ऽलयं, चने और मंर के स्व़द क़ प्रथम पवय। पंऽि के ऄंऽतम व्यऽि की दुऽि की लल़इ और रं ग क़ हेति है - होला। व़णा के प़ठ और ऊति के ल़ऽलत्य क़ ऽवलक्षण संगात है - होला। यह होला शब्दद को ऄऽतक्रऽमत कर हम तक संप्रेष्य है। यह वसंत की लक्षण़ भरा होला कऽवत़ के माठे रच़व की गिऽझय़ है। ♦♦♦ 76, कदन ऄप़ंयमंट्स,सेक्ंर-4, द्व़रक़ , नइ कदल्ला-110078 मोब़आल-09968269237 ♦♦♦

वर्णणक छंद

ह़आकि गात सिषम़ भंड़रा

धऱ हा तो है जो ईठ़ता है बोझ चिप रहके ♦ चिप रहऩ सहऩ..यीं ढहऩ साख़ धऱ से ♦ ऽसख़ता धऱ म़यने स्वच्छत़ के समझो ज़ऱ ♦ समझ भा ज़ बहुत हुअ प्ऱणा ऽवऩश - लाल़ ♦ न होगा धऱ स्वच्छ सिंदर यकद न होग़ जाव ♦ बच़एँ धऱ रोकं ऽवऩश हम प्रण-स्वच्छत़ ♦

फ्लैं -३१७, प्लैरंनम ह़आट्स, सेक्ंर-१८ /बा, द्व़रक़, नइ कदल्ला-७८ मो.-९८१०१५२२६३

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ऽनबंध

एक शहर मेरे भातर रहत़ है... ऄचयऩ ठ़कि र

एक शहर अपको आतना अस़ना से कह़ँ छोड़त़ है ? दम भर पकड़ कर रखत़ है । मंने ककतना हा ब़र कोऽशश की था, ये शहर छोड़ दीँ । चल़ ज़उं ककसा भा शहर मं । आस शहर से कदम त़ल ऽबलकि ल ऽवलग कर लीँ पर शहर तो जैसे जंक स़ पाठ पर ऽचपक गय़ है । ऽजतऩ ख़ुरचो ईतऩ और गहऱ धँसत़ ज़त़ है । अऽखर ल़च़रा - बेच़रगा मं ऽपछले च़लास स़लं से शहर को कदधं पर ढोए किर रह़ हूँ । ये तो मिझे नहं छोड़ेग़ तो मं भा आसे ऽशव की तरह गले मं लपेंे घीमत़ रहूँग़ । ऄब तो मेरा पहच़न हा ये शहर बन चिक़ है । जो मिझे ज़नते है वे आस शहर को मेरे द्व़ऱ हा ज़नते है पर व़स्तव मं मं आतने वषो मं शहर को ककतऩ ज़न प़य़? एक ढेर ईद़सा, गिमऩमा और भाड़ मं खोय़ मं ऽपछले च़लास स़लं से शहर के ऄददर जाऽवत हूँ । पैद़ तो यहं हुअ । ऄब लगत़ है शैय्य़ भा आसा शहर मं नसाब होगा । धारे धारे ऐसा म़नऽसक ऽस्थऽत हो गइ कक शहर को छोड़ने क़ ऽवच़र हा छोड़ कदय़ मंने । ऄब शहर को खिद के ऄददर प़लने लग़ थ़ मं । एक जाऽवत शहर, जो मेरे ऄददर स़ँस लेत़ है । ऽजसे मं हर पल महसीस करत़ हूँ और वो ऽवकऽसत भा होत़ है । ऽजसे मं पोऽषत भा करत़ हूँ । मेऱ शहर ऄब बड़़ हो रह़ है । मं ऄब ईसके स़थ जिड़ चिक़ हूँ ये सोच कर हा मं ईत्स़ऽहत हो ईठत़ हूँ । मिझ गिमऩम कऽव की पहच़न भा है ये शहर । लोग मिझे ज़नते है आस शहर से हा । मं गिमऩम होकर भा प्रऽसि हूँ क्यंकक मेरे ऩम के स़थ आस शहर क़ ऩम जिड़ गय़ है । ऩम जो एक पहच़न है, पहच़न जो एक ऩम है वो है ये शहर । आस शहर मं मेऱ एक छों़ स़ पररव़र भा है और ईससे भा ISSN –2347-8764

छोंा सा नौकरा । आस नौकरा, पररव़र और जीनीन ए हद ये ऽलखने क़ नश़ ऄब मं सद़ आनके बाच डोलत़ रहत़ हूँ पर सब कि छ आस शहर मं हा रहते हुए हा करत़ हूँ । मं ऄब बड़ा बड़ा गोष्ठायं मं ज़ने लग़ हूँ । पहच़न क़ द़यऱ भा खंच खंच कर बढ़़ने लग़ हूँ । ऄब जब सब कि छ आसा शहर मं है तो ऄब मं खिद आससे ब़हर नहं ऽनकलऩ च़हत़ । एक ऄनज़ऩ स़ डर मन मं सम़ गय़ है कक कहं आस शहर को छोड़ते ये शहर तो मिझे नहं भील ज़एग़ । आस भील ज़ने क़ डर ककसा वहम की तरह मेरे मन मऽस्तष्क मं चस्प़ हो गय़ । मं शहर के ब़हर ककतऩ भा अवश्यक क़म हो ं़ल ज़त़ । ये शहर मेऱ है और मं भा आसा शहर से हूँ, ये मनोवुऽि मेऱ हौसल़ बन गइ और स़थ हा दहशत भा । ऄब ये भा डर नहं कक आस शहर की ऄंध गऽलयं मं कहं मं खो ज़उंग़ । ककतना भा ंेढ़ा, भीला ऽबसरा, भील भिलैय्य़ गऽलयं मं मिझे छोड़ दो एक ऽवश्व़स ईकदप्त है कक मं नहं खोउंग़, ऽनकल हा अउंग़ । शहर ऽवश्व़स बन गय़ । कऽवत़ मं भा ऄब शहर सम़ने लग़ ककसा प्रेऽमक़ की तरह मं कभा सिप्त कभा ज़ग्रत ककसा भा ऄवस्थ़ मं कऽवत़ को शहर से जोड़ लेत़ । ये नश़ बन गय़ । ऽबऩ ऄिीम भ़ंग के मं नशे मं चीर रहने लग़ । एक ऄऽधक़र स़ थ़ आस पर मेऱ । आस शहर ने म़ऩ बहुत कि छ ऽलय़ तो देत़ भा रह़ ईसकी परोसा थ़ला कभा ख़ला न रहा ईसमं कि छ न कि छ ईपऽस्थत हा रह़ । म़त़ ऽपत़ को खोने क़ गम को अने व़ले मेरे बच्चं ने पीणय कर कदय़ । ऄधीरा ऽशक्ष़ के कड़वे घीं​ं मं नाम स़ सत रुपा नौकरा ऽमल गइ । एक ड़ककय़ बन ऄब मं ऄपने शहर मं स्वछंद घीम सकत़ थ़ । हर गला की चे मं बेधड़क श़ऽमल हो सकत़ थ़ । स़आककल के पैडल पर पैर म़र म़र के शहर मं दौड़त़ घीमत़ रहत़ मं ।

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पररव़र, कऽवत़ और नौकरा तानं पौधं एक हा शहर रुपा गमले मं रोप कर स़थ हा आदहं संचने लग़ थ़ मं । शहर शहर होत़ है ऄज़नबा पन मं भा पहच़न क़ एक ंि कड़़ जरूर अपके ह़थ मं रहत़ है । मं भा ईसा ऽछन्न ंि कड़े मं ऄपऩ मिख ऽनह़रत़ रहत़ और शहर आसा क्रम मं मेरे ऄददर बढ़त़ रहत़ । शहर अज ईद़स है ह़ँ मेऱ शहर अज ईद़स है । क्यं --! अज आसकी पहच़न ककसा ने छान ला है हमेश़ श़ंत ऄपने मं मग्न रहने व़ल़ शहर तेज़ा से सरपं भ़ग रह़ है । ऄब वो बाम़र हो चल़ है और आसा म़नऽसक ऽवक़र के ईदम़द मं आधर ईधर भ़ग रह़ है शहर । ऄब आसे ह़दसं क़ पॉआं ं कहने लगे है लोग । अकऽस्मक कहं भा ऽवस्िों, दिघयंऩ ब़हुल्य हो गय़ है शहर । क्य़ ये मेऱ वहा शहर है ऽजसे श़ंत मह़त्म़ स़ महसीस ककय़ थ़ मंने ! अज ककसा नक्क़स स़ ह़थ मं पोंला थ़मे भ़ग रह़ है । ईसे मेरा सिध भा नहं है वो तो बस भ़ग़ रह़ है भले हा मं पाछे कहं छी ं़ ज़ रह़ हूँ ईसे आसकी भा सिचत़ नहं । एक हा पल मं ककतऩ ऽनदयया हो गय़ है ये शहर । ऄब नहं रहूँग़ आस शहर मं, ये मेऱ ब़ल सख़ नहं रह़, ये तो बदलते ह़ल़तं मं ऽबल्कि ल बदल गय़ है । मतलबा - धोखेबाज़ हैो चला है​ै । मजस एक साँझा चिल्हे मं धमय कहं छोर पर छी ं ज़त़ थ़ और ऽसिय प्य़र ऄपऩ पन रहत़ थ़ ऄब वह़ं धोख़ पैर पस़रे बैठ गय़ है । आस शहर को तो ऄब ज़रा व़ला गिऽड़य़ को तेज़ रफ़्तत़र ऽवदेशा चक्के से कि चलते रहम भा नहं अता । मेरे स़मने खीन से सऩ शहर कै से मिस्कऱ रह़ है । ऄब वो ईदहं लोगो के स़थ खड़़ है जो आसा को चार - ि़ड़ रहे है ककतऩ बेवकी ि हो गय़ है ये शहर । गिऩहग़र ऽबन ज़म़नत के छी ं गए, घ़यल दिऽखय़ ह़य ह़य करते कोऩ पकड़ ऽलए है| ये मेऱ शहर नहं रह़ । मेऱ शहर कब मेरे ऄददर से नाकल ऩऽभ सीि तोड़ ऄब मिझसे ऽबल्कि ल हा ऽवरि हो चल़ है, ऄब तो ऽनऽश्चत हा छोड़ दींग़ मं ये शहर...! ♦♦♦ ISSN –2347-8764

पऽिक़एँ (1) सेती (ऄियव़र्णषक पऽिक़) : संप़दक : डॉ. देवेदर गिप्त़ / कथ़क़र योगेश्वर शम़य पर के ऽदरत जनवरा-जीन-2016 ऄंकऽशमल़ / अवरण : किँ वर रऽवदर (2) एक और ऄंतराप : संप़दक : डॉ. ऄजय ऄनिऱगा / डॉ. रजनाश / म़नव मिऽि को समर्णपत (ऽद्वभ़षा) िैम़ऽसक पऽिक़-जयपिर / जनवरा-म़चय-2016 ऄंक (3) कदव़न मेऱ : संप़दक : नरे दरसिसह पररह़र / सुजनकत़यओं की ऽद्वम़ऽसक सिहदा पऽिक़-ऩगपिर / ऄप्रैल-मइ-2016 ऄंक (4) ऽहददा प्रच़र व़णा : ऄध्यक्ष : डॉ. (श्रामता) शकिं तल़ ऩगऱज / कण़यंक मऽहल़ ऽहददा सेव़ सऽमऽत, च़मऱपें, बंगलोर-18 / ऄप्रैल -2016 ऄंक (5) कदव्यत़ : संप़दक : वुि़ंत श्राव़स्तव / घर पररव़र की पऽिक़-लखनउ / ऄप्रैल -2016 ऄंक (6) सरस्वता सिमन : प्रध़न संप़दक : डॉ. अनददसिमन सिसह / स़ऽहत्य एवं संस्कु ऽत क़ स़रस्वत ऄऽभय़न-देहऱदीन / ऄप्रैल 2016 ऄंक (7) ग़थ़ंतर : सम्प़दक : डॉ. सोना प़ण्डेय/ gathantarmagazine@gmail.com

म़ननाय सम्प़दक पंकज जा, स़दर नमन ! अपके द्व़ऱ प्रेऽषत `ऽवश्वग़थ़' क़ जनवरा -िरवरा -म़चय ऄंक 2016 प्ऱप्त हुअ, स्मरण हेति ह़र्ददक अभ़र । अपक़ सम्प़दकीय `अज़़दा बोलने की' ऄत्यदत समस़मऽयक, स़रगर्णभत एवं ईच्च स्तराय है । अलेख, व्यंग्य, स़क्ष़त्क़र ऄनिकदत जमयन कह़ना एवं कह़ना, लघिकथ़, कऽवत़, समाक्ष़, शोध -पि, सम़च़र आत्य़कद से सिसऽज्जत आस ऄंक की स़मग्रा क़ चयन ऄत्यदत स्तराय है आसऽलए ऄंक संग्रहणाय बन पड़़ है । पऽिक़ ऽनरदतर ईिरोिर प्रगऽत पथ पर ऄग्रसर है । सिभ़ष चददर क़ व्यंग्य `स़वध़न ! ऄपऱध कम हो रहे है' सच्च़इ को बय़ं करत़ कदल को छी गय़ । पऽिक़ की ब़ह्य एवं अतंररक स़जसज्ज़ नयऩऽभऱम है । पऽिक़ के ईज्जवल भऽवष्य के ऽलए मेरा ह़र्ददक शिभक़मऩएं स्वाक़र करं । - डॉ रम़ ऽद्ववेदा, 102 ,आम्पाररयल मैनर ऄप़ंयमं​ं , बेगमपें ,हैदऱब़द -500016 ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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व्यंग्य

ऄसऽहष्णित़ से भऱ-पीऱ मेऱ एक कदन रऽव रतल़मा

सिबह-सिबह

मेरे ऄसऽहष्णि स्म़ंयफ़ोन क़ ईतऩ हा ऄसऽहष्णि ऄल़मय बज़ । अपके ऽलए ऄल़मय च़हे ऽजतने भा जरूरा हं, वे सऽहष्णि कभा भा, कतइ नहं हो सकते। वैसे भा, मेऱ स्म़ंयफ़ोन पहले हा पीरा ऄसऽहष्णित़ के स़थ, पीरा ऱत, हर दीसरे ऽमनं चाख ऽचल्ल़ कर मिझे बत़त़-जग़त़ रह़ थ़ कक कोइ न कोइ एक ऽनश़चर व़ट्सएऽप्पय़ एक हज़र एक ब़र ि़रवडय म़रे गए सऽड़यलेस्ं चिंकि ले को म़र्दकं मं नय़ अय़ है कह कर किर से ि़रवडय म़ऱ है । और, आस ऽनगोड़े स्म़ंयफ़ोन ने ल़इन और ह़इक और फ़े सबिक और ऽट्वंर के स्ंेंसं को भा ईतने हा स्म़ंयनेस से िौरन से पेशतर मिझ तक पहुंच़ने क़ मह़न ऄसऽहष्णि क़यय करत़ रह़ थ़, थोड़़ ऄऽधक ऄसऽहष्णि होकर एकदम संाक ं़आम – प़ँच बचकर स़ठ ऽमनं – जा, ह़ँ अपने सहा हा पढ़़, क्यंकक छः बज ज़ते तो स्म़ंयफ़ोन की स्म़ंयनेस नहं हा रह ज़ता, ऄपऩ ऄल़मय बज़ कदय़। क़श वह मिझ पर थोड़़ सऽहष्णि हो ज़त़ - एक दो ऽमनं के ऽलए हा सहा। ऄगर वो थोड़ा सा सऽहष्णित़ कदख़कर छः बजकर दो ऽमनं पर ऄल़मय बज़ देत़ तो कम से कम मं दो ऽमनं की नंद और म़र लेत़ । य़ किर, कमबख्त मिझ पर पीऱ हा सऽहष्णि हो लेत़ और ऱत भर मं ऄपना बैंरा खतम कर ऐन ऄल़मय बजने के ठाक पहले बंद हो ज़त़ तो मिझ पर ककतऩ बड़़ ईपक़र होत़ ईसक़ । ब़द की ब़द मं देखा ज़ता, आतने ऄसऽहष्णि ढंग से यकद ककसा को सिबह-सिबह ईठ़य़ ज़एग़, तो ईसक़ पीऱ कदन ऄसऽहष्णिमय हो ज़ऩ तो तयशिद़ ब़त है - य़ना ऽडफ़ॉल्ं सा ब़त है – यकद अपको अज की सिहदा से प्रॉब्दलम है ! मं ब़थरूम मं घिस़ यह सोचकर कक अज नल जऱ मिझ पर कि छ सऽहष्णि होग़ और अज अने मं थोड़़ देर करे ग़ । आतने मं, और आसा बह़ने मं किर से एक नंद म़र लींग़. मगर वो तो और ऄसऽहष्णि ऽनकल़ । रोज देर सबेर अने व़ल़, और कभा कभा ऩग़ करने व़ल़ ऽनगोड़़ नल अज जऱ ज्य़द़ हा फ़ोसय से प़ना ईगल रह़ थ़ । मेरा प्ल़सिनग धरा की धरा रह गइ था. ऄसऽहष्णि नल और ईसक़ ईतऩ हा ऄसऽहष्णि प़ना ! ISSN –2347-8764

कहऩ न होग़ कक सिबह ऽबजला भा नहं गइ, ऩश्त़ भा ंैम से ऽमल़, शंय और पं​ं भा समय पर प्रेस ककए हुए ऽमल गए । यह़ँ तक कक जीते पर पॉऽलश भा नइ था, और ईसक़ लैस भा तरताब से थ़ । अज तो स़रा दिऽनय़ मिझ पर ऄसऽहष्णि हो रहा था। जम कर । मं ऑकफ़स ज़ऩ नहं च़हत़ थ़, ऽबस्तर छोड़ऩ नहं च़हत़ थ़, दो घड़ा अऱम करऩ च़हत़ थ़, मगर जैसे कक पीरा दिऽनय़ मेरे पाछे पड़ा था, स़ऽजश कर रहा था और मिझ पर जऱ सा भा सऽहष्णित़, ऩमम़ि की भा सऽहष्णित़ दश़य नहं रहा था। कदम़ग मं ऽवच़रं की ककरण कंधा कक ऐ कदल है मिऽश्कल जाऩ यह़ँ, कहं और चलके मरऩ वह़ँ! ओह, स़ल़ ऽवच़र भा सऽहष्णि नहं हो प़ रह़ है अज तो । दफ़्ततर ज़ने के ऽलए मंने अज स़वयजऽनक पररवहन ले ऽलय़ कक ऽजतना देर मं दफ़्ततर पहुंचंगे ईतना देर सां पर झपकी म़र लंगे. मगर, अपने सहा समझ़. अज तो कदन ऄसऽहष्णित़ क़ थ़ न तो ऩंक-नौं​ंकी तो होना था और अपकी प्ल़सिनग की व़ं लगना हा था. अज, शहर मं ऑड-इवन जैस़ पऽब्दलक लोकऽप्रय िं ड़ ल़गी नहं होने के ब़द भा, पत़ नहं क्यं कहं कोइ ज़म नहं थ़, तो घं​ंे भर की ऽनत्य की य़ि़ महज बास ऽमनं​ं मं पीरा हो गइ और बैठने को सां भा ऽमल गइ. ऄब जब तक च़र छः लोगं के बाच, भाड़ मं कि चलते-झीलते हुए खडे न हं, ऄगले को नंद कै से अ सकता है भल़? ऽपछले कइ वषं क़ तजिब़य क्य़ क्षण भर मं िऩ हो ज़एग़? दफ़्ततर पहुँच़ तो यह सोचकर खिश हुअ कक ऄभा कोइ अय़ नहं है, और लोगं के अते-अते, चहल-पहल मचते तक मं ऄपना ंेबल पर प़ँच-दस ऽमनं क़ पॉवर नैप तो ले हा लींग़. लोगं की दफ़्ततर देर से पहुँचने की अज की ईनकी सऽहष्णित़ पर मिझे बहुत ऄच्छ़ लग़. मगर श़यद खिद़ को ईनके ऄपने तम़म बंदं समेत श़यद ये मंजरी नहं थ़ – वो भा ऄसऽहष्णि हो चल़ थ़ श़यद. मं ऄपना कि सी पर पसऱ हा थ़ कक, खिद़ क़ एक नेक बंद़, मेरे दफ़्ततर क़ मेऱ ऽप्रय चपऱसा ऄपने ह़थं मं च़य क़ प्य़ल़ ऽलए नमीद़र हुअ. दफ़्ततर मं यकद कोइ सव़यऽधक ऄसऽहष्णि होत़ है तो

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वो दफ़्ततर क़ चपऱसा होत़ है. जब अप कोइ क़म करऩ च़हते हं तो स़ब की घं​ंा क़ व़स्त़ देकर चपऱसा अपको बॉस के कमरे मं भेज देत़ है और जब अप अऱम करऩ च़हते हं तो चपऱसा अपके ऽलए च़य लेकर ह़ऽजर हो ज़त़ है. यह तो ऄसऽहष्णित़ की पऱक़ष्ठ़ है. लोग ऩहक ऄपने बॉसं को बदऩम करते हं. ऄसऽहष्णित़ क़ दीसऱ ऩम हा चपऱसा है. ठाक है, मं जऱ ज्य़द़ हा ऄसऽहष्णि हो रह़ हूँ, परं ति दिऽनय़ भा अज कौन सा मिझ पर सऽहष्णि हो रहा है! दफ़्ततर मं पीऱ कदन ऄसऽहष्णित़ भऱ म़हौल रह़. मेरा च़य खत्म हुइ हा था कक वम़य जा अ गए, और ऄपने मोब़आल ंावा को च़ली कर कदय़. ईदहंने कोइ आं ंरनैं पैक ले रख़ है ऽजससे वे लगभग मिफ़्तत मं, नें के जररए कक्रके ं देखते रहते हं. देखते क्य़ हं, कदख़ते ज्य़द़ हं. ख़सकर ऄपऩ मोब़आल व नें क़ प्ल़न और मोब़आल के स्पैक. जो हो, उपर से, अज तो प़ककस्त़न और भ़रत क़ मैच अ रह़ थ़. ऄपने जैसे ख़ं​ंा भ़रताय ईिय कक्रके ं के दाव़ने, सऽहष्णित़-ऄसऽहष्णित़ को भ़ड़ मं िं क कर वम़य जा के मोब़आल से ऽचपक ऽलए. वम़य जा की हम पर ऄऽतशय ऄसऽहष्णित़ क़ पत़ तो तब चल़ जब मैच भ़रत ह़र गय़ और यक़यक हम पर भयंकर रूप से अलस छ़ गय़. कमाने, ऄसऽहष्णि लोगं ने अज मेरा कदन की नंद छान ला – एक एक को देख लीग ं ़! श़म को घर व़पस अते समय ंैक्सा ले ला. सोच़, ऱस्ते मं बैक सां पर एक झपकी तो ऽनक़ल हा लींग़. मगर पाछे मल्ंामाऽडय़ ऽसस्ंम लग़ हुअ थ़ और ईस पर कदन मं हुए मैच क़ ल़आव राव्यी अ रह़ थ़. ऄब ख़ं​ंा भ़रताय ईिय कक्रके ं प्रेमा यह कै से छोड़े? स़ल़ यह ंैक्सा व़ल़ और यह चैनल व़ले सब ऽमले हुए थे. मिझ पर ऄसऽहष्णित़ की म़र म़रे ज़ रहे थे. ईनकी ऄसऽहष्णित़ के क़रण, मजबीरा मं मिझे व़पसा मं ऄपना बैकसां-झपकी क़ प्ल़न स्थऽगत करऩ पड़़ और वह कदलचस्प मैच राव्यी देखऩ पड़ गय़. इश्वर जरूर आदहं सज़़ देग़ जो मेरे जैसे ऽनराह लोगं के प्रऽत ऄसऽहष्णि होते हं और जऱ भा सऽहष्णित़ नहं कदख़ते. घर पहुँच़ तो लैपंॉप खिल़ प़य़. ऄरे ! सिबह चहुँओर की ऄसऽहष्णित़पीणय अप़ध़पा मं आसे बंद करऩ भील गय़ थ़. दो सौ इमेल, तान सौ फ़े सबिक स्ंेंस, च़र सौ ट्वां, प़ँच सौ सिपंरे स्ं, छः सौ आं स्ं़ग्ऱम अकद अकद के नोरंकफ़के शन स़मने स्क्रीन पर बिगबिग़ रहे थे. दिऽनय़ के स़थ ऽमल कर ककतऩ ऄसऽहष्णि हो गय़ है अज यह ऽनगोड़़ लैपंॉप भा. जऱ भा रहम नहं! जीते के िीते खोलने से पहले मंने लैपंॉप ऄपना ओर खंच ऽलय़. सोच़, चलो पहले आसे हा ऽनपं़ दीं... ♦♦♦

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दो लघिकथ़

दोहऱ चररि / ढ़ंग ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़

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शोभऩ मुदभ ि ़ऽषणा एवं अकषयक व्यऽित्व की मऽहल़ है। वह ऱजनाऽत की सिल ऽखल़ड़ा है। ईसके भ़षणं मं मऽहल़ एवं ब़ल ऽवक़स प्रमिख ऽवषय रहत़ है। वह मऽहल़ओं की प्रबल पक्षधर के रूप मं ज़ना ज़ता हं। एक कदन वह ऄपना पि​ि-वधी के स़थ डॉक्ंर बि़ के क्लाऽनक पर पहुँचा। पि​िवधी भ्रीण की ज़ंच कऱइ तो पत़ चल़ कक वह एक कदय़ है। शोभऩ ने डॉक्ंर बि़ से गभयप़त कऱने की ब़त की तो ईदहं बहुत अश्चयय हुअ। ईदहंने पीछ ऽलय़ - ''शोभऩ जा, अप तो मऽहल़ ऽहतं की प्रबल पक्षधर हं, किर कदय़ - भ्रीण को क्यं ऽगऱऩ च़हता हं ? '' शोभऩ ने बड़ा कढठ़इ से कह़- '' छोऽड़ये , डॉक्ंर स़हब, भ़षणं की ब़त और है। ऄपने घर क़ ऽहस़ब तो देखऩ पड़त़ है।'' ड़क्ंर बि़ शोभऩ के दोहरे चररि को देखकर हतप्रभ थे।

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क़ली की आकलौता संत़न चम्प़ सोलह वषय की हुइ तो ईसके शरार मं एक ऄलग हा अकषयण पैद़ हो गय़। ठ़कि र रूर प्रत़प सिसह ईस पर असि हो गए। अँखं अँखं मं ठ़कि र स़हब ने प्रेम क़ आजह़र ककय़। ऩद़न चम्प़ झ़ंसे मं अ गया। वे ऄक्सर खेतं मं ऽमलने लगे। गर्णमयं के कदन थे। ठ़कि र रूर प्रत़प सिसह की पत्ना बच्चं को लेकर पाहर गया हुइ था। एक दोपहर चम्प़ ठ़कि र स़हब के घर पर अ गया। रूर प्रत़प सिसह रसोइ मं थे। चम्प़ रसोइ मं चला अया। रूर प्रत़प सिसह को ऄच्छ़ नहं लग़। ऩऱजगा से बोले - '' चम्प़ रसोइ मं क्यं चला अया ? क्य़ यह भा भील गया कक ती दऽलत है ? '' चम्प़ अह़त हुइ । बोला - '' सिऩ है, अत्म़ की कोइ ज़ऽत नहं होता। यकद शरार दऽलत है , तो आसे अप कइ ब़र छी चिके हं । यह ढंग कब तक चलेग़ , ठ़कि र स़हब ?'' ♦♦♦ बंगल़ संख्य़- 99, रे लवे ऽचककत्स़लय के स़मने, अबी रोड 307026 (ऱजस्थ़न ) मोब़आल- 09460714267

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कह़ना

महत्व़क़ंक्ष़ डॉ. भ़वऩ शिक्ल

कॉलेज से लौं रहा था बस यहा ईधेड़बिन मं था की बा.ए. ऄंऽतम वषय की पराक्ष़ कराब है पत़ नहा सपऩ कह़ ल़पत़ हो गया, ईसने कह़ थ़ मं रोज़ तेरे घर पर पढने अउंगा। लेककन न ईसक़ िोन अय़ और न हा वो खिद अइ। आतने मं जोर से अव़ज अइ “- श़ली –ओ-श़ली ररक्श़ रोको”। जैसे हा पलंकर देख़ तो स़मने तो सिवण़य खड़ा था। ऄरे ! व़ह सिवण़य मं तो बस तिम्ह़रे ब़रे मं हा सोच रहा था । अज इश्वर से और भा कि छ म़ंग लेता तो वो भा ऽमल ज़त़ । ककतऩ सिखद संयोग है जो तिम ऽमल गइ । ऄरे ! मौसाजा प्रण़म! मंने अपको देख़ नहा थ़। मौसा ने कह़ – “ तिम दोनं सहेऽलय़ँ अपस मं ऽमल रहा था”। देखकर बहुत ख़ुशा हुइ. “बें़ खिश रहो । बहुत अशाव़यद मेऱ “। मौसा ने जऱ ठहर कर कह़ – “ श़ली, ऄगले महाने 28 ि़राख को सिवण़य की श़दा है, हम घर पर ऽनमदिण देने अयंगे । यह सिनकर मं अव़क रह गइ ख़ुशा कदख़उँ य़ गम कि छ समझ न अय़। मेरे मिँह से ऽसिय आतऩ ऽनकल़ “जा मौसा”। मंने कह़ – “ सिवण़य पराक्ष़यं नजदाक है पेपर देऩ है की नहा”। सिवण़य ने त्वररत ईिर कदय़ – “क्यं नहा ? मं कल घर अ रहा हूँ ढेर स़रा ब़तं करना है। मन मं हलचल सा मच गइ आतना जल्दा श़दा ऄभा पढने कक ईम्र मं बेच़रा के स़थ क्य़ गज़ब हो रह़ है ? चलो कोइ ब़त नहा कल तक तो आं तज़र करऩ हा पड़ेग़। सिवण़य के मिँह से हा ईसकी ऱम कह़ना सिनेगे। ऄगले कदन सिवण़य अते हा गले लग गइ, ईसे देख ऐस़ लग रह़ थ़ जैसे जबरदस्ता समझौत़ कर रहा है। चेहरे पर ख़ुशा क़ कोइ भ़व नहा थ़ । मंने कह़ –“ सिवण़य आतना भा क्य़ जल्दा था श़दा की ? ISSN –2347-8764

वो बोला –“श़ली क्य़ करू ? ब़बीजा की तऽबयत ठाक नहा रहता आस क़रण पररव़र व़ले जल्दा कर रहे है ।” मंने कह़ –“कौन है वह खिशनसाब जो हम़रा सिददरा को ब्दय़ह कर ले ज़ने व़ल़ है ? सिवण़य ने बड़े हा दबे स्वर मं कह़ “ बस श़दा है आतऩ ज़नता हूँ ब़की मिझे नहा म़लीम।” मंने कह़ –“तिम ऄपना मऩ कर दो, बोलो मिझे ऄभा पढऩ है। सिवण़य बोला –“नहा य़र मं बग़वत नहा कर सकता जो मेरा ककस्मत मं ऽलख़ होग़ वो होग़।” मंने कह़ –“सिवण़य क्य़ तिम रऽवदर को भील गइ । घर पर ईसके ब़रे मं ब़त करो, ये ररश्त़ ऄच्छ़ और मजबीत रहेग़ । श़दा जल्दा हा करना है ईससे न सहा आससे करो, क्य़ िकय पड़त़ है ।” सिवण़य बोला –“ न ब़ब़ न ऽजसक़ और न छोर ईस ब़रे मं क्य़ ब़त करऩ । मंने कह़ –“क्य़ हुअ ?” सिवण़य बोला –“ वह मिझे बहुत ऄच्छ़ लगत़ है लेककन कभा ईसने ऄपना तरि से आजह़र नहा ककय़। मंने तो श़ली ऽनश्चय ककय़ है, म़त़ ऽपत़ जो कहंगे वहा करुँ गा, मं तो आतऩ हा कहूँगा – “ हुइ है वहा जो ऱमरऽच ऱख़”। समय बात़ और वह समय अ गय़। सिवण़य की श़दा क़ कदन है । हम सब पररव़र सऽहत पहुंचे । सिवण़य सिंदर तो है हा पर दिल्हन के वेश मं च़र च़ँद लग गये थे । ईसके चेहरे पर मिस्कऱहं था पर वह ऐसा जैसे ईसने जबरदस्ता की मिस्कऱहं ओढ़ ला हो । जयम़ल़ की घडा भा अ गया । जैसे हा दिल्हे ऱज़ पर नज़र पड़ा, ह़य ऱम ! ये क्य़ हो गय़? संगमरमरा रूप पर क़ऽलख पोत दा हो । ऱत और कदन क़ ऄंतर मं क्य़ देख़ आन सबने ? मं तो मन हा मन बिदबिद़ रहा रहा था लेककन प़स खड़े लोगो मं भा क़िी चच़य था। जैसे तैसे ऽवद़ कर हम सब ऄपने घर अ गये । ख़ुशा की बज़य मन

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''ऩहं, हम तो सम़न ईठ़के ल़ये हं। इ बोले की चल, स़म़न पहुंच़ दे, पंऩ तक चल ज़येग़ । ..एको पइस़ नहं लगेग़ '' भ़रा हो गय़ । बस यहा दिअ कर रहे थे “वो खिशह़ल रहे”। मं ऄपना पढ़इ मं व्यस्त हो गइ । कराब 15 कदनं ब़द ईसक़ िोन अय़, “ईसने कह़ –“ श़ली, मं कल हा यह़ँ पहुँचा । मं कल दोपहर को घर अ रहा हूँ । तिझसे ढेर स़रा ब़तं करना है । मं ऄपलक दरव़जे को ऽनह़र रहा था । जैसे हा वह अइ और अते हा वह गले लगकर खीब रोइ । मंने कह़ –“ ऄरे व़ह जा अते हा जाज़जा की य़द अने लगा ; क्य़ ज़दी क्य़ हम़रा सिवण़य पर हम भा तो ज़ने ।” सिवण़य बोला –“ि़लती ब़तं मत करो , मेरा सिनो ।” मंने कह़ –“ सिऩओ तो सहा “ सिवण़य ने कह़ –“ये देखो ! ये पैर, ये ह़थ ! मंने जैसे हा ईसके गोर बदन पर क़ले क़ले ऽनश़न देखे मेरा तो चाख ऽनकल गइ । मंने कह़ – ये सब क्य़ है ? ऄब यकद तिम्हे ऄक्ल अ ज़ये तो मत ज़ऩ व़पस और ऄपना म़ँ को सब बत़ देऩ“। सिवण़य ने धारे से कह़ –“कोऽशश करुँ गा”। एक ब़त और बत़ऩ च़हता हूँ –यह़ँ अते वक़्त रऽवदर ऽमल़ थ़ रस्ते मं ! ईसने ऽसिय आतऩ कह़ ,“तिमने एक ब़र तो मिझे ब़त की होता, आं तज़र ककय़ होत़ ? सिवण़य बोला- मंने ईससे कह़, तिमने आज़ह़र भा तो नहा ककय़ थ़ ? वो बोल़ – तिमसे ऽमलऩ, ब़तं करऩ, तिम्ह़रे घर अऩ, घं​ंो बैठऩ ब़तं करऩ ये सब तो मिझे ऄच्च़ लगत़ थ़ । मंने सोच़ तिम समझ गइ होगा मेरे कदल क़ ह़ल ! सिवण़य बोला- “ मंने कह़ – ऄब आन ब़तं क़ कोइ ऄथय नहा हं, वक़्त जरूरत पर तिमने हम़रे पररव़र की मदद की आसके ऽलये धदयव़द ! “हम –हमसफ़र न सहा एक ऄच्छे दोस्त है और रहंगे ।” सिवण़य बोला-“ श़ली ये सब सोचकर मन व्यऽथत होत़ है, क़श मंने ईसके मन की ब़त ज़ना होता ?” मंने कह़- “ कोइ ब़त नहा ऄब पहले घर पर ज़कर यह सब ब़तं मम्मा जा से करो किर िै सल़ करो की क्य़ करऩ है। और कफ़लह़ल ऄभा पढ़इ कर पराक्ष़ दो ऽजसके ऽलये अइ हो तिम ! जैसे हा सिवण़य की पराक्ष़ सम़प्त हुइ ईसा कदन जाज़जा ईसे लेकर चले गये । आसक़ मतलब ऄब स़रा ऽजददगा ईदहा को होम कर दा, नहा बोल प़इ ऄपने स़थ ककये ऄत्य़च़र. ऄपना महत्वक़ंक्ष़ को ऄपने मन मं दब़ये चला गइ ककसा कै दा की भ़ंऽत । समय बातत़ गय़ और बहुत वषो तक हम़ऱ ऽमलऩ –ऽमल़ऩ नहा हुअ । हम भा बहुत दीर चले गये । सोच़ सब ऄपना ऄपना दिऽनय़ मं मस्त है । सिवण़य भा ऄच्छा हा होगा । “एक कदन ऄच़नक िोन अय़ । मं बहुत खिश था. लम्बे ऄरसे के ब़द बहुत ब़तं हुइ पत़ चल़ बच्चे तो बड़े हो गये है, सब ऄलग ISSN –2347-8764

ऄलग शहर मं है । ईसकी अव़ज मं अज भा परे श़ना की झलक स़फ़ समझ मं अ रहा था । मंने कह़ – सिवण़य, कभा ऽमलंगे तो खिलकर ब़तं करं गे ।” सिवण़य ने कह़ –“ मंने फ़ोन आसाऽलये तो ककय़ है, मं जल्दा हा तिम्ह़रे शहर अने व़ला हूँ मेऱ आल़ज चल रह़ है । “ मंने कह़ –“ ऄरे ! क्य़ हुअ सब ठाक तो है , ककसक़ आल़ज चल रह़ है? “ सिवण़य ने कह़- पत़ नहा क्यं ऽसरददय होत़ है. ये यह़ँ के डॉक्ंर को बत़ऩ है । मंने कह़ –“ ऄच्छ़ ठाक है तिम ऄपना ज़ंच करव़कर जब समय ऽमले तो जरुर अऩ हम ऽमलकर ढेर स़रा ब़तं करं गे ।” कि छ समय पश्च़त् सिवण़य के अने क़ प्रोग्ऱम बऩ । कदन ऽनऽश्चत हुअ और वह सपररव़र हम़रे घर पध़रे .बरसं ब़द सबसे ऽमल बहुत ऄच्छ़ लग़ । सिवण़य अज भा वैसा हा सिंदर है पर कि छ मोंा हो गइ और चेहरे पर थोड़ा सा झ़इय़ँ नजर अ रहा था। ऽजससे स़ि झलक रह़ थ़ कक वो अज भा परे श़न है. ऽसिय संबंधो को ढोये ज़ रहा है। सम़ज की, पररव़र की ख़ऽतर । मंने कह़ सिवण़य अओ ऄददर चलते है, यह़ँ ये लोग ऄपना ब़तं करते है । हम लोग ऄददर ऄपना ब़तं करते है । ऄददर अकर मंने कह़ –“ ऄब ऄपना अप बाता कहो देवा, नहा तो पऽतदेव भा तिम्ह़रे यहं अ गये तो हो चिकी ब़तं ।” सिवण़य बोला –“ क्य़ सिऩउँ ? 25 स़ल ऽजददगा के आदहं होम कर कदए लेककन अज तक आदहोने हमं नहा समझ़ । पहले से थोड़ सिध़र है । जैसे म़र पां नहा करते. मंने स़रा ऽजददगा घिं घिं कर जा है.......... आतऩ कहते हा जोर जोर से रोने लगा । मेरा स़रा मह्त्व्कं क्ष़ये ऄधीरा रह गइ...मेरे स़रे सपने हव़ हो गये... क़श मंने तिम्ह़रा ब़त म़ना होता तो अज ये कदन न देखऩ होत़ । मं ऄगर आनसे ऽबऩ पीछे कि छ कर लेता हूँ, ये च़र प़ंच कदन तक ब़त नहा करते । भगव़न क़ ल़ख ल़ख शिकक्रय़ मेरे दोनं बेंे बहुत समझद़र और मेऱ ध्य़न रखने व़ले है । कि छ समय ब़द बहू अ ज़येगा मं सोचता हूँ ऄब तो सिधर ज़ये लेककन नहा । इश्वर से प्ऱथयऩ करता हूँ बच्चे ऄब जम चिके है इश्वर मिझे ईठ़ ले ।” मंने कह़ –“ ऄरे ! सिवण़य ऐस़ नहा कहते. तिम्ह़रे प़स भ़व है, भ़ष़ है । तिम पहले ऄच्छ़ ऽलखता था, छपता भा था ऄखब़रं मं। ऄपऩ मन बेक़र की चाजं की बज़य लेखन मं क्यं नहा लग़ता । ऽचदतन करो ऄच्छे ऽवच़र अएंगे मन भा लग़ रहेग़ ।” सिवण़य बोला –“श़ली, तिम्ह़रा ब़त मं दम तो है, मं कोऽशश करुँ गा।” एक म़ह ब़द सिवण़य की एक कह़ना मेरे प़स अया ईसे पढ़कर बहुत ऄच्छ़ लग़ । ईसे मंने एक पऽिक़ मं छपने को दा । मेरे मन ने कह़ – चलो कम से कम ईसने ऽलखऩ तो शिरू ककय़ । धारे धारे ये ऽसलऽसल़ चलत़ रह़ और बढ़त़ हा गय़ । ईसकी कह़ऽनय़ं, अलेख पि पऽिक़ओं मं छपने लगे । ईसक़ ऩम अज की लेऽखक़ओं मं प्रक़श मं अने लग़ । ईससे ब़तचात से म़लीम

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हुअ अग़मा समय मं ईसक़ ईपदय़स अने व़ल़ है । ऩम है “महत्वक़ंक्ष़”। कि छ समय पश्च़त् ईसक़ िोन अय़ । हल्लो श़ली _”कै सा हो ? श़ली तिम्हे यह बत़ऩ है मेरे ईपदय़स क़ लोक़पयण होने व़ल़ है और तिम जाज़जा के स़थ जरुर अओगा ।” मंने कह़ ठाक है हम जरुर अयंगे । वह बोला – प्रोग्ऱम लखनउ मं है । तिम्ह़रे अने पर हा लोक़पयण होग़ । मंने कह़ – ठाक है ! तिम ऽचदत़ मत करो हम जरुर अयंगे । मंने ऄपने पऽतदेव को स़रा ब़तं बत़इ और ऽनऽश्चत त़राख को हम लोग लखनउ पहुँच गये । प्रोग्ऱम मं पहुँचकर क्य़ देखता हूँ। हम़रे जाज़जा सबकी अवभगत कर रहे है पत्ना के अगे पाछे घीम रहे है। जो अदमा ऄपना पत्ना से साधे मिँह ब़त नहा करत़ थ़, अज दम ऽहल़ रह़ है। मंने आनसे कह़ –“देखो जा, ये क्य़ चमत्क़र है । अज जो रूप है जाज़जा क़ ऐस़ रूप पहले कभा नहा देख़ । हम लोग सिवण़य से ऽमले । ईसे बध़इ दा। क़ययक्रम प्ऱरम्भ हुअ । ईपदय़स क़ लोक़पयण हुअ । जब सिवण़य के विव्य की ब़रा अइ तो ईसने ऄपने विव्य मं कह़ – “अज मं आस मिक़म तक पहुँचा हूँ वह ऽसिय श़ली की हा वजह से है, वह मेरा प्रेरण़ है । मं तो ऱस्त़ भंक गइ था मिझे सहा ऱह आसा ने कदख़इ । लगत़ है ऄब मेरा महत्वक़ंक्ष़ पीरा हो गइ है । श़ली कु प़ करके मंच पर अओ- मं तिम्ह़ऱ ऄऽभनंदन करऩ च़हता हू। जैसे हा मं मंच पर पहुँचा ईसने मिझे गले से लग़ ऽलय़ और श़ल श्रािल से मेऱ ऄऽभनंदन ककय़ । सिवण़य ने कह़- श़ली ! तिमसे ऄनिरोध है दो शब्दद तिम भा कहो । मंने कह़ –“ मं तो ऽसिय एक म़ध्यम था ऱस्त़ बत़य़ । लेककन मेहनत तो सिवण़य ने की है, मं ऄक्सर ईसे परे श़न हत़श देखता था तो मन म़यीस हो ज़त़ है । सोचता था आतना बिकद्दमता लडकी की ये क्य़ दश़ हो गया है । ये मेऱ छों़ स़ प्रय़स है । सिवण़य के प़स ऄच्छे वणय है । शब्दद भंड़र है । ईसक़ सपऩ स़क़र हो गय़ । जावन मं व्यऽि जो कि छ च़हत़ है वो सब ईसे नहा ऽमलत़ स़रा महत्त्वक़ंक्ष़ये पीरा नहा होता । लेककन इश्वर ने प्रस़द स्वरूप जो कि छ भा सिवण़य को कदय़ है । वह ऄक्षिण है । ईसे लगत़ है ईसकी महत्वक़ंक्ष़ पीरा हो गया है..... ♦♦♦ डब्दल्यी जेड /21, हरर सिसह प़कय , मिल्त़न नगर, नइ कदल्ला- 110056 ♦♦♦

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लघिकथ़

नमकीन प़ना कल्पऩ भट्ट

श्वेत़ और सिनाल ने नए घर मं ऽशफ्ं कर ऽलय़ थ़ । ईनक़ स़म़न देख कर पडोसा समझ गए थे कक ट्ऱंसिर होकर वे लोग यह़ँ अये है । स़म़न ट्रक से ईत़ऱ गय़ । "सिनाल, यह घर पहले व़ले से तो ऄच्छ़ है । पर ईनक़ क्य़ करं गे ? ईनको वह़ं ऄभा छोड़ तो अये है पर ईनको ल़ऩ तो पड़ेग़ न ?" "तिम ककसकी ब़त कर रहा हो श्वेत़ ? कहं म़ँ की तो नहं । ऄरे तिम भा कह़ँ की ईलझनं को ले बैठा । यह़ँ ऽसिय मं और तिम, और कोइ नहं अयेग़ । म़ँ भा नहं । बड़ा मिऽश्कल से तो बिकढ़य़ से छि ंक़ऱ ऽमल़ है ।" एक ऄट्ह़स सा हंसा ने घर की दाव़रं मं गींज ईठा । पड़ोऽसयं को आस हंसा की अव़ज़ मं एक ऄजाब सा गंध अइ । पर कौन पड़े पचड़े मं । यीँहा कदन गिज़रते गए । एक कदन सिबह सिबह दरव़ज़े की घं​ंा बजा । श्वेत़ को लग़ दीध व़ल़ होग़ । सो ईसने दरव़ज़़ खोल कर दीध की पताला अगे बढ़़ दा । पर ईस पताला मं दीध न ड़ल़ गय़ पर कि छ प़ना की बिँदे ऽगरा नज़र अइ । अँखे मल कर श्वेत़ ने देख़ तो एक बिकढ़य़ की अँखं से नमकीन प़ना बह कर ईसकी पताला मं ऽगर पड़े थे । "ऄरे अप ! यह़ँ तक कै से अ गया । हमको जाने भा दोगा की नहं ...? " पर जैसे हा खिद की म़ँ को देख़ ईनके पाछे तो देखता हा रह गया। "ऄरे म़ँ , अप ? अओ न घर मं अओ ।" श्वेत़ की म़ँ ने ऄपना बेंा से कह़, "बें़, यह तिम्ह़रा स़स है, जो ऄब ऄंधा हो गईं है । तिम तो आनको सड़क पर हा छोड़ अइ था, वह़ं आनक़ एक्साडं​ं हो गय़ । ऽजस हॉऽस्पंल मं भती हुइ वह़ं के डॉक्ंर ने आनकी सिचऩ दा । हम और तिम्ह़रे ऽपत़जा के तो होश हा ईड़ गए । वह़ं आनक़ ऑपरे शन हुअ पर डॉक्ंर ने बत़य़ की आनकी अँखं चला गया है । मिझे तिमसे यह ईम्माद नहं था । शमय अता है कक तिम मेरा बेंा हो । ऄब पताला मं नमकीन प़ना और बढ़ गय़ थ़ । ♦♦♦

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कह़ना

सौद़ डॉ. मंजरा शिक्ल

मेरे ऽपत़जा से ज्य़द़ दररय़कदल और मह़न आं स़न मंने अज तक नहं देख़। दररय़कदल आसऽलए क्यंकक ईनके कदल मं कं जीसा और कु पणत़ दोनं क़ दररय़ पीरे वेग के स़थ बहत़ है और मह़न आसऽलए क्यंकक वह कं जीसा के स़म्ऱज्य के वो मह़न सम्ऱं है ऽजनकी ंक्कर मं कोइ खड़़ हा नहं हो सकत़ । घर हो य़ ब़हर, वो जह़ँ भा ज़ते हं ईनकी नज़र ऄपना जेब गमय करने की कफ़ऱक मं हा लगा रहता हं । एक कदन वो ईनके पसंदाद़ ग़यक ककशोर कि म़र क़ ग़ऩ गिनगिऩते हुए अए और बोले-" चलो, तिम्हं ऽहम़चल प्रदेश घिम़ कर ल़त़ हूँ ।" मंने म़ँ की तरि अश्चयय से देख़ जो सब्दजा क़ंते -क़ंते ऄच़नक ऐसे हक्क़ -बक्क़ होकर ऽपत़जा को देख रहा था, म़नं कहं से भीकम्प अने की सीचऩ ऽमला हो । मं खिश होते हुए बोल़-" व़ह ऽपत़जा, म़ँ क़ तो कइ स़लं से बड़़ मन थ़ कहा घीमने क़ ।" "ऽसफ़य ती और मं ज़ रहे है", ऽपत़जा ने मिस्कि ऱते हुए कह़ । "क्यं,म़ँ क्यं नहं ज़एगा?" मंने कि छ ऩऱज़ होते हुए पीछ़। "ऄरे , तिझे पत़ नहं है क्य़, ईनके घिंनं मं ककतऩ ददय रहत़ है । वह़ँ ठं ड क़ मौसम होग़ और ईस पर से एक पह़ड़ा से दीसरा पह़ड़ा चढ़ऩ होग़ । कै से चलेगा वो बेच़रा..." मं अश्चयय से ईनक़ मिंह देखे ज़ रह़ थ़, ऽजस म़ँ के पैर मं ऽबच्छि क़ं ज़ने पर भा डॉक्ंर के यह़ँ ऩ कदख़कर ऽपत़जा ने घरे ली ईपच़र कर कदय़ थ़ । अज ईनके ब़रे मं आतना सिचत़ .. मेऱ चेहऱ देखते हुए वो ऽखऽसय़ना हंसा हँसते हुए बोले अजकल की महँग़इ और स़ँप की तरह लम्बे-लम्बे डॉक्ंर के ऽबल तो तो तिम देख हा रहे हो ऩ ?" म़ँ ने गिस्से के म़रे सब्दजा वहा ँ पंकी और ऄंदर चला गइ । ISSN –2347-8764

मेऱ भा मन हुअ कक कह दीँ , ठाक है म़ँ के ऽबऩ मं भा नहं ज़उंग़ । पर 24 स़ल की ईमर होने के ब़वजीद भा मं अज तक घर के असप़स के मोहल्लं और स्की ल- कॉलेज के ऄल़व़ कहं नहं गय़ थ़ । कम से कम दोस्तं को बत़ने के एक जगह तो ऽलए रहेगा और ये सोचत़ हुअ मं म़ँ के प़स ज़कर खड़़ हो गय़ । म़ँ ने मिझे देखते हा झंपं पल्ली से ऄपने अँसीं पंछे और मिस्कि ऱने की कोऽशश करते हुए कहने लगा- "ती ज़ य़ मं ज़उं, एक हा ब़त है । मं यहं से बैठकर तेरा अँखं से स़ऱ ऽहम़चल प्रदेश देख लीग ँ ा"। मं भ़विक होकर म़ं के गले से ऽलपं कर बोल़ -"जब मं नौकरा करूंग़ तो तिझे घर मं रहने हा नहं दीग ं ़ आतने वषं की स़रा कसर पीरा हो ज़एगा।" म़ँ मिस्कि ऱ दा और ऄगले हा कदन मं ऽपत़जा के स़थ ऽहम़चल प्रदेश के ऽलए ऽनकल पड़़। ऐस़ लग रह़ थ़ जैसे कोइ ईम्रकै द क़ कै दा ऄच़नक सल़खं के ब़हर अ गय़ हो । स़लं ब़द मंने तन के स़थ स़थ मन की खिला हव़ मं स़ंस ला था । मेरे ऽपत़जा से पहले हा कह कदय़ थ़ कक ऱस्ते मं अप कोइ कं जीसा नहं कदख़एंगे । मं जह़ं ख़ऩ च़हूंग़ अप ऽखल़एंगे और मं जो पाऩ च़हूंग़ ऽपल़एंगे । ऽपत़जा ने मेरा स़रा शतं तिरंत म़न ला था । आसऽलए मं ऽबल्कि ल ऱज़ की तरह सफ़र कर रह़ थ़ । मं यह देखकर अश्चययचककत थ़ कक ऽपत़जा के ऄंदर ककसा और की अत्म़ तो नहं अ गइ था । क्यंकक वह मिझे भा ककसा भा चाज मं रोक-ंोक नहं रहे थे । खैर सफ़र बहुत हा मजेद़र थ़ । वह़ँ की ग़य, भंस और यह़ँ तक हा पक्षा भा मिझे रोम़ंऽचत कर रहे थे । ऄब तो मिझे य़द नहं है, पर आतऩ खिश तो श़यद मं ईस समय भा नहं हुअ होग़ जब मंने पहला ब़र चलऩ साख़ होग़ ।

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जैसे हा बस रुकी, ऽपत़जा बोले- "ऄब क्य़ कं डक्ंर के स़थ ईसके घर ज़ने क़ आऱद़ है ?" मं जैसे नंद से ज़ग़ । मंने ऽपत़जा के ह़थ से बैग ले ऽलय़ और कोल्ड सिड्रक की अधा भरा बोतल ऄपने थैले मं रख ला । ऽपत़जा हँसते हुए बोले- "ऄरे , क्यं जऱ सा कोल्ड सिड्रक को ल़दे चल रह़ है, हम नइ बोतल ले लंगे ।" नहं ऽपत़जा, अपकी ये कु प़ दुऽि पत़ नहं कब बंद हो ज़ए और ऽजस द़ना पिरुष की अत्म़ अपके ऄंदर घिसा है, कब ब़हर ऽनकल ज़ए कोइ भरोस़ नहं । आसऽलए मं ऽजतऩ आन लम्हं को जा लीँ मिझे जा लेने दाऽजए । ऽपत़जा ने कि छ गिस्से से मिझे देख़ पर कफ़र ऽबऩ कि छ कहे ऄपऩ क़ल़ हंड बैग संभ़ले बस से ईतर गए । पाछे -पाछे मं लद्दी घोड़़ स़ अध़ ऽगरत़ पड़त़ ईनसे बोल़-"ऽपत़जा, मिझे पत़ है कक अप कि ला नहं करं गे पर मिझसे ये सब ईठ़य़ नहं ज़ रह़ है ।" "आतऩ लम्ब़ चौड़़ और हट्ट़ कट्ट़ नज़र अने के ब़द भा ऄंदर से के ले की तरह ऽपलऽपल़ है ती ।" "क्य़ करुँ ऽपत़जा, स़ऱ बचपन और जव़ना तो अपके च़वल के द़ने ढी ंढने मं हा बात गइ । मिझे भा ऄगर थोड़़ समय ऽमल़ होत़ तो डोले शोले बऩ लेत़ ।" "देख रह़ हूँ बहुत लम्बा ज़ुब़न हो गइ है तेरा ।" ह़ँ, ऽपत़जा, ककसा मह़न द़शयऽनकने कह़ भा है, कक ककसा भा व्यऽि को ज़नने के ऽलए ईसके स़थ एक ब़र लम्ब़ सफ़र जरूर करऩ च़ऽहए । जिब़न तो मेरे मिँह मं हमेश़ से था पर अपने आसे लपें कर आसके उपर रबड़बंड जो ब़ँध कदय़ थ़ । ह़ह़ह़..ऽपत़जा जोर से ठह़क़ म़र कर हँस पड़े और आश़रे से एक कि ला को बिल़कर ऽबऩ मोल-भ़व करे हा ईस पर स़म़न लदव़ कदय़ । ऽहम़चल प्रदेश के खीबसीरत पेड़, ठं डा हव़एँ और च़रं ओर ऽबखरा खीबसीरता को देख कर मेऱ कदल खिश हो गय़ । ऑंो तय करने के ब़द जब हम ऽपत़जा ने एक अऽलश़न होंल के स़मने ईसे रूकने के ISSN –2347-8764

ऽलए कह़ तो मं चंक गय़ । मं झ़ँककर ईस होंल के बगल मं ककसा सऱय य़ सस्ते ं़आप क़ होंल देखने लग़ तभा ऽपत़जा बोले- "आधर ईधर मत देख, हम आसा होंल मं अए है ।" मेरे गले से तो जैसे थीक भा ऽनगल़ नहं ज़ रह़ थ़ । अज तक लंगर य़ ककसा बिल़वे पर ख़ऩ ऽखल़ने के ऄल़व़ ऽपत़जा ने हम लोगो को ककसा म़मीला से होंल मं भा ले ज़कर कि छ नहं ऽखल़य़ थ़ । मिझे ऄच्छे से य़द है, जब मौसा की श़दा हुइ था तो ईदहंने हा अने ज़ने क़ रंकं और कि छ रुपये भेजे थे तभा ऽपत़जा हमं ईस श़दा मं ले गए थे, वरऩ श़दा क़ आनऽवंेशन क़डय देखते हा ईदहंने ऐसा त्योररय़ँ चढ़़ ला था कक घर भर मं ईनसे कोइ ब़त करने की ऽहम्मत ऩ कर सके । मिंबइ मं म़ँ क़ भेल पीरा ख़ने क़ बहुत मन थ़ पर ईसकी खट्टा और माठा चंना पर ढेरो ईपदेश देकर वो ईदहं लगभग घसांते हुए वह़ँ से ले गए थे । ककतऩ ऽचढ़़ थ़ मं ऽपत़जा से ईस समय.. और अज वहा ऽपत़जा ईसे आस भव्य होंल मं लेकर अए है , ऐस़ होंल तो मंने कभा ऄपने सपने मं भा नहं देख़ थ़ । ऽजसके ऄंदर ज़ने के ऩम से हा मेरे पैरं मं एक ऄजाब तरह क़ कं पन शिरू हो गय़ थ़। मं मंिमिग्ध स़ ईनके पाछे चलने लग़ । दरव़ज़े के प़स पहुँचते हा दोनं ग़डं ने हमं सेल्यीं म़ऱ और मंने भा ऄचकच़कर ईदहं ऄपने ब़एँ ह़थ से सेल्यीं म़र कदय़ । दोनं हा ग़डय मिस्कि ऱकर रह गए पर ऽपत़जा धारे से बोले- "ऄपने ह़थ पैर क़बी मं रख ऩल़यक ।" स्वगय श़यद ऐस़ हा होत़ होग़..होंल के ऄंदर पहुंचकर मेरे मिँह से ऽनकल़ । सजे धजे खीबसीरत लोग, एक कोने मं नाला रौशना मं बहत़ फ़व्व़ऱ, ऄसला फ़व्व़रं को भा म़त दे रह़ थ़ । च़रं तरि िी लं की सज़वं ऐसे लग रहा था म़नं हम ककसा खीबसीरत बगाचे मं अ गए हो । रं गान जलता बिझता झ़लर कोने मं सिशोऽभत, एक बड़े से पातल के गिलदस्तं की सिंदरत़ मं च़र च़ँद लग़ रहा था। मेरा सोच और मेरे शब्दद अज वह़ँ की भव्यत़ ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

और कल़त्मकत़ के अगे जैसे खत्म हो गए थे। ऽपत़जा ने ककसा से ब़तचात करा और ईसने एक अदमा को आश़ऱ ककय़ I ह़थ ब़ँधे ईस अदमा ने बड़े हा ऄदब से हम़ऱ ऄऽभव़दन ककय़ और हमं एक अऽलश़न कमरं मं ले गय़ । ईस के कमरे से ब़हर ज़ते हा मं बच्चं की तरह गद्दे पर ईछलने लग़ । ऽपत़जा ने ड़ँं़ - "क्य़ प़गलं की तरह हरकतं कर रह़ है ती?" पर मं तो जैसे ऄपना हा धिन मं खोय़ हुअ थ़ । "ऽपत़जा करने दाऽजए ऩ, रूइ के मोंे गद्दं मं लेंकर कभा पत़ हा नहं चल़ कक ज़मान पर सो रहे है य़ गद्दे पर ।" "और ये..ये तो ऐसे लग रहे है म़नं मं ब़दलं मं ईड़ रह़ हूँ । अप भा एक ब़र ईड़ कर ...मेऱ मतलब..आन पर बैठकर देऽखये ऩ .." "ऩल़यक..प़गल हो गय़ है ती..ऄके ले मं ये बददर ऩच ककतऩ भा कर ले पर औरं के स़मने ऄपना ज़ऽहऽलयत ईज़गर मत होने देऩ ।" पर मिझे तो ऩ ईनकी कोइ ब़त बिरा लग रहा था और ऩ हा वो । सिज़दगा मं पहला ब़र मिल़यम रे शमा तककयं और हँस के पंखं सा सफ़े द च़दर ने मिझे कब नंद के अगोश मं ले ऽलय़, मं ज़न हा नहं सक़। श़म को जब मेरा अँख खिला तो ऽपत़जा अऱम से बैठकर ककसा पऽिक़ के पन्नं पलं रहे थे । मिझे ऽबस्तर पर बैठते हुए देखकर बोले -"ऄमारं के भा जलवे होते है ऽबंव़ । च़र पन्नं की ककत़ब पीरे तान सौ रुपये की ..आतने मं तो पीरे हफ्ते की स़ग सब्दजा अ ज़ए ।" मं धारे से बिदबिद़य़ -"और ऄगर अपके ह़थ मं हो तो पीरे एक महाने की अ ज़ए।" पर ऄब भल़ मेरे ऽपत़जा दिव़यस़ ऊऽष कह़ँ रह गए थे सो मेरा ब़त को ऄनसिऩ करते हुए बोले- "चलो ऄब नाचे चल कर ऩश्त़ करते हं ।" भीख तो मिझे भा बहुत जोरो की लग रहा था, आसऽलए फ़ं़फ़ं तैय़र होने के ब़द हम रे स्ंोरं ं मं पहुंचे । हम़रे साढ़ा से ईतरते हा एक अदमा हम़रे प़स अय़ ।

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वो क़ले रं ग के सीं बीं मं आतऩ तैय़र थ़, म़नं ककसा श़दा मं अय़ हो । मंने एक नज़र ऽपत़जा के धोता कि ते पर ड़ला और दीसरा नज़र मेरा स़ध़रण सा पाले रं ग की शंय और स़लं पिऱना ऽघसा हुइ जंस पर । वो तो भल़ हो िै शन क़, जो हर पिऱने से पिऱने फ़ंे कपड़े को स्ं़आल क़ ऩम दे देत़ है वरऩ मिझ जैसे लोग कह़ँ ज़ते । वो अदमा हमं बड़े अदर के स़थ एक कि सी के प़स ले गय़ और ईसने हम़रे ऽलए कि सी खंचा । ईसके ब़द ईसने एक वेंर को आश़रे से बिल़य़ । ऽपत़जा के चेहरे से तो प्रसन्नत़ छि प़ए नहं छि प रहा था । तभा वेंर तेज क़दमं से हम़रा ओर अय़ और हम़रे अगे मैदयी क़डय रख कदय़ । ऽपत़जा ने सरसरा ऽनग़ह से मेदयी क़डय देख़ और पीछ़- "क्य़ ऩश्त़ करोगे?" च़य और कॉिी के पैसे देखकर हा मेऱ गल़ सीख गय़ थ़ । मं प़ना क़ एक घीँं पाकर धारे से बोल़ - "ऽपत़जा, ऄस्सा रुपये की च़य है ।" चऽलए, ब़हर कहं खोमचे व़ले के प़स ज़कर कि छ ख़ पा अते है ।" "चिप रह मीखय, क्यं आज्जत क़ ि़लीद़ करने पर तिल़ है... कहते हुए ईदहंने वेंर को दो च़य, दो प्लें कंलें, एक प्लें संडऽवच और एक प्लें पनार पकौड़े क़ ऑडयर दे कदय़ । मं आस ब़त से ऄनज़न थ़ कक आतने वषो तक ऽपत़जा के स़थ रहते-रहते ईनके कि छ गिण मेरे ऄंदर भा अ गए थे । मंने बैचेन होते हुए कफ़र कह़-"ऽपत़जा, आस ऩश्ते क़ कम से कम हज़़र के कराब ऽबल बनेग़।" "ती क्यं सिचत़ करत़ है, 10,000 बनने दे।" ऽपत़जा मिस्कि ऱते हुए बोले । तभा ऽपत़जा ने पीछ़ -" वो लड़की कै सा लग रहा है ?" मंने असप़स नजर दौड़़इ, पर ऽसव़ कि छ चपंे और क़ले चेहरं के ऄल़व़ मिझे कि छ नज़र नहं अय़ । "कौन सा लड़की ..मंने अँखं ि़ड़-ि़ड़कर च़रं ओर देखते हुए पीछ़ । "ऄरे वहा लड़की, जो मैनेजर के बगल मं खड़ा है।" ऽपत़जा एक ओर देखते हुए बोले । ISSN –2347-8764

"ऽपत़ जा लगत़ है,अप ऄपऩ चश्म़ घर भील अए हं ,वो लड़की नहं बऽल्क ऄच्छा ख़़सा एक मोंा औरत है और ईसकी ऩक तो देऽखये जऱ..ककतना चपंा है ..आसक़ तो जिख़म भा सरयरय से नाचे बह ज़त़ होग़ ...कहते हुए मं जोरं से हँसने लग़ । ऽपत़जा ने ऄपऩ चेहऱ बहुत गंभार बऩ ऽलय़ और मिझे गौर से देखते हुए कह़ "कोइ औरत वौरत नहं है ..लड़की हा है वो ।" ऄब तक मं मज़क के मीड मं अ चिक़ थ़, आसऽलए मिस्कि ऱते हुए बोल़- "ऽपत़जा, कफ़र तो अप भा लड़की हा हो ।" ऽपत़जा मेऱ ह़थ दब़ते हुए बोले - "ऄरे , ब़त को ज़ऱ समझ़कर ..यह होंल ईसा क़ है । करोड़ं की संपऽि की म़लककन है और वो भा ऄपने म़त़ ऽपत़ की आकलौता संत़न । ऐसे प़ँच अऽलश़न होंल है ईसके । पैस़ शब्दद जिड़ते हा ककसा आं स़न क़ कद ऄच़नक ककतऩ बड़़ हो ज़त़ है, यह मिझे ईसा समय पत़ चल़ जब ऄच़नक हा वह औरत मिझे बेहद ज़हान और श़लान मऽहल़ लगने लगा था । ऽजसकी नज़रं के स़मने ऩ ज़ने ककतने लोग ह़थ ब़ँधे घीम रहे थे । मेरे मिँह से ऽनकल़- "आसक़ पऽत ककतऩ खिशककस्मत होग़ ऩ ऽपत़जा ?" "ऄरे यह किँ व़रा है । आसकी ऄभा तक श़दा नहं हुइ है ।" "और ऽपत़जा होगा भा भल़ कै से ...आतना मोंा और क़ला भंस से कौन करे ग़ श़दा । कम से कम बिास की तो है ...और तास से तो ऽबल्कि ल भा कम नहं है ।" "ऄरे तो क्य़ हुअ । ती कभा ऄमेररक़ गय़ है, वह़ँ तो 40 स़ल के ब़द लोग जव़न होते हं ।" ऽपत़जा मेरा ब़त को क़ंते हुए बोले । मंने थोड़़ ऽचड़ऽचड़़ते हुए कह़- "अप तो ह़थ धोकर आस औरत के ..मेऱ मतलब है कक आस लड़की के पाछे हा पड़ गए हं । रहने दाऽजए ईस खीबसीरत लड़की को वह़ँ पर । ईसकी ब़त मत कररए ।" "ऄरे कै से ईसकी ब़त नहं करूँ । ईसा के पाछे तो मं तिझे आतना दीर तक लेकर अय़ हूँ ।" ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

" पर ऽपत़जा ईसके पाछे क्यं अए है हम दोनं?" मंने अश्चयय से पीछ़ । "क्यंकक जो भा ईस औरत से श़दा करे ग़, वह करोड़पऽत हो ज़एग़ ।" "तो ऽपत़जा, अप हा कर लाऽजए । अप करोड़पऽत हो ज़एंगे तो मं और म़ँ अऱम से रहंगे ।" "चिप रह ऩल़यक ! मं तो अज कर ली,ँ पर यहं नहं करे ग, क्यंकक वो तिझे पसंद कर चिकी है।" "मिझे तो जैसे क़ठ म़र गय़ और मेरे मिँह से अव़ज हा ऽनकलऩ बंद हो गइ।" मंने ऽपत़जा की तरफ़ देख़ और मं समझ़ कक वह मज़क कर रहे हं । मंने थीक गंकते हुए धारे से पीछ़- "मिझे कै से पसंद कर चिकी है और हम लोग तो जब से यह़ँ अए हं, मंने ईसे पहला ब़र देख़ है।" "क्यंकक मं तिम्ह़रा िोंो पहले हा ईसे भेज चिक़ हूँ । जो हम़रे पड़ोस व़ले शम़य जा है ऩ ईनकी मिँह बोला बहन है। ईदहं से पत़ चल़ कक आसको श़दा करना है। जब आसने तेरा िोंो पसंद कर ला, तो मं तिझे यह़ँ आससे ऽमलव़ने ले अय़।" मंने ऄपने सर के ब़ल नोचते हुए कह़ "पर ऽपत़जा यह मिझसे कम से कम स़त य़ अठ स़ल बड़ा है और ककतना बदसीरत है।" "ऄरे पगले, स़त -अठ स़ल क्य़ होत़ है कि छ नहं होत़। ती ऄपने को स़त-अठ स़ल बड़़ समझ और जह़ँ तक बदसीरता की ब़त है तो यह बेच़रा यह़ँ की साधा स़दा औरत है। आस को भल़ क्य़ पत़ होग़ कक प्ल़ऽस्ंक सजयरा क्य़ होता है। तो ती ईसको यह़ँ से साध़ ऄमराक़ ले ज़ऩ। ऄमराक़ हा क्यं, मं तो कहत़ हूँ, ती ग्लोब लेकर चलऩ और जमयना, फ़्ऱँस ऑस्ट्रेऽलय़ सब घीम अऩ। तेरे अने ज़ने के ककऱए और रहने सऽहत एक कदन की कम़इ होगा आसके स़रे होंल्स की। तिम लोग ईसा कदन ऄमराक़ ज़कर व़पस अ ज़ओगे ।" "ऽपत़जा, अप समझते क्यं नहं हं। ये मेरे कहने के ऄनिस़र क्यं चलेगा। ऽचल्ल़एगा नहं मिझ पर ...कि छ कहेगा नहं?" "नहं, नहं..वो कि छ नहं कहेगा।" "ऄरे .. पर ऽपत़जा क्यं नहं कहेगा कि छ?" मंने कि छ गिस्से से कह़ ।

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"कै से कहेगा,ये तो बेच़रा गीग ं ा है।" "हे भगव़न " कहते हुए मंने ऄपऩ सर पकड़ ऽलय़ और गिस्से से मेऱ खीन खौल गय़ । "मंने पहला ब़र ऄपने ऽपत़जा के स़मने उंचा अव़ज मं लगभग चाखते हुए कह़ "अप ऽपत़ है य़ ऱक्षस ... ऄपने आकलौते बेंे को बेच रहे हं ?" लेककन ऽपत़जा पर तो जैसे कि छ ऄसर हा नहं हुअ । वह च़य की चिस्की लेते हुए बोले -" पढ़इ ऽलख़इ से तीने हमेश़ जा चिऱय़ आसऽलए बड़ा मिऽश्कलं से अज तक ककसा तरह प़स होत़ चल़ अय़ है । मेहनत मजदीरा तेरे शरार के बस की ब़त नहं । ऄगर ती ईससे श़दा नहं करे ग़ तो मं तिझे ऄपना ज़यद़द से िी ंा कौड़ा भा नहं दीँग़ और मेऱ तिझसे कोइ संबंध नहं रहेग़ । ऄब ती स़फ़-स़फ़ बत़ दे कक तिझे ऱज़ बनकर रहऩ है य़ ऽभख़रा बनकर ।" मंने भरपीर नज़रं से ऽपत़जा की ओर देख़ जो अऱम से पनार पकोड़़ कि तरते हुए मिझे देख रहे थे । ऄब मंने ईस औरत की तरफ़ नज़रं घिम़इ । वो मिझे हा देख रहा था और मिझे ऄपना ओर देखत़ देख वो धामे से मिस्कि ऱ दा । मं भा ईसको देखकर मिस्कि ऱ कदय़.... भल़ ऽभख़रा बनकर मं कै से रह सकत़ थ़ । ♦♦♦ ४०१, तिलऽसय़ना स्क्व़यर, गल्सय ह़इ स्की ल के प़स, ऽवपरात भगवता ऄप़ंयमं​ं, क्ल़आव रोड, ऽसऽवल ल़आदस, आल़ह़ब़द-211001 ई.प्र. ♦♦♦

नज़्म

दो नज़्म ईर्णमल़ म़धव

1

2

स़मने ये ऽचलऽचल़ता धीप है,? य़ तिम्ह़ऱ छद्म वेशा रूप है ?

ब़त ऐसा मं तिम्हं बतल़ रहा हूँ ख़़स मंऽज़ल से ईतर कर अ रहा हूँ

बस आसा जंगल मं तिमको देखता हूँ ख़ुश्क पिं को सद़यं भेजता हूँ

कि छ धिएं थे और थे ब़दल बहुत से अऽमरं की शक्ल मं प़गल बहुत से

जब हव़ बनकर गिज़रते हो यह़ँ से धामा सा अव़ज़ अता है वह़ं से

कि छ ऄसारा मं बंधे थे ख़ुद ब खिद हा प़ँव भा ज़ंजार थे सो ख़ुद ब ख़ुद हा

सब के सब आसको बगाच़ कह रहे हं सबने ऽमलके आसको संच़ कह रहे हं

ज़ने ककतने मसऄलं पर तज़ककरे थे मेरा नज़रं मं तो सब हा सरकिरे थे

वो जो एक झाऩ स़ पद़य बाच मं है बस के एक परदेस आसकी साध मं है

सबके चेहरं पर ऄजब सा वहशतं थं ऽबन बिल़इ मौत की सा दहशतं थं

धीप मं कि सी पे सर को ंेकता हूँ और ईसा परदे से तिमको देखता हूँ

झीठ ककस्से फ़स्ल की बब़यकदयं के ब़ँं ऽहस्से ऄपना कि छ अब़कदयं के

आसऽलए आस धीप से ऩत़ रह़ है तिमको सीरज छी के जो अत़ रह़ है

मं नहं समझा ये कै से लोग हं सब ! हंस रहे पर लग रहे पिर सोग हं सब

गर्णमयं मं ये झिलस कर डर गए हं श़ख़ और पिं के ररश्ते मर गए हं

प़ँव हं पर चल रहे बैश़ऽखयं पर और क़दम रख्खे हं के वल ह़ऽशयं पर ♦

मं मगर तिमसे जिड़ा हूँ ईम्र भर को ढी ँढता रहता हूँ,ख़ुद ऄपना नज़र को ♦

ISSN –2347-8764

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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अलेख

पंज़बा ऩंकं मं मऽहल़ सरोक़र श़ली कौर ऄनिव़द : सिभ़ष नारव

संबंऽधत ऽवषय पर ब़त करने से पीवय समीचे पंज़बा स़ऽहत्य के पररदुश्य पर एक दुऽिप़त करऩ अवश्यक है। ऄब आस मं कोइ दो ऱय नहं है कक पंज़बा स़ऽहत्य क़ अरं भ ऩथ जोऽगयं के कल़म से हुअ। अधिऽनक क़ल तक पहुँचते-पहुँचते हम़ऱ स़ऽहत्य ऽभन्न-ऽभन्न प्रवुऽियं मं से गिज़ऱ है। प्ऱरं ऽभक समय से हा स़ऽहत्य मं ऩरा-सरोक़र प्रस्तित होते रहे हं। ईद़हरण के रूप मं ऩथ-जोगा, स्त्रा के प्रऽत घुण़ की दुऽि रखते थे और ईसको ऽतरस्कु त ऽवशेषणं के स़थ पिक़ऱ करते थे। जैसे -

ब़घऽन सिजद लै, ब़घऽन सिबद लै, ब़घऽन हमरा क़य़ आन ब़घऽन ऽिलोइ ख़इ, बऽधत गोरख ग़य़।1

ऩथ जोऽगयं के ब़द सीिी स़ऽहत्य की ध़ऱ के स़थ, पंज़बा स़ऽहत्य ऽवऽधवत रूप मं अक़र ग्रहण करत़ है। सीिीव़द, ऽवश्व-व्य़पा आस्ल़ऽमक रहस्यव़द मं से पैद़ हुइ कट्टरत़ के प्रऽतकक्रय़ स्वरूप स़मने अय़। आस ध़ऱ क़ मील के दर आश्क है। सीिी कऽव ऄल्ल़ह को म़शीक और स्वयं को अऽशक समझते हं। आस क़रण, आस ध़ऱ मं ऩरा सरोक़र, ऩथजोऽगयं से ऽभन्न रूप मं स़मने अए। श़ह हुसैन, ऩरा को कि अंरा लड़की के प्रताक के तौर पर प्रयोग करत़ है। ईसकी रचऩ मं ऩरा गराब, कमज़ोर होकर बसऩ नहं च़हता, बऽल्क बऱबरा क़ दज़य म़ंगता है। जैसे -

ऄस बिररय़ं वे लोक़ ! बिररय़ं ताऱं ते तलव़ऱं कोलं ऽतऽखय़ं नैण़ं दाअं छि र्टरय़ं जे तीं तख़्त हज़़रे द़ स़ईं, ऄसं ऽसअल़ं दाअं कि ऽऺडय़ं।2

सीिीव़द से गिरमऽत क़व्यध़ऱ तक अते-अते ऩरा के प्रऽत पंज़बा स़ऽहत्य क़ व्यवह़र ऽबल्कि ल ऽभन्न हो ज़त़ है। गिरू ऩनक देव जा ने पिऱतन समयं की परं पऱओं को भलाभ़ंऽत देखने-परखने के ब़द, यह नताज़ ऽनक़ल़ कक ऩरा, सम़ज क़ एक अवश्यक ऄंग है। ईदहंने ऩरा सिनद़ की परं पऱ को तोड़कर, यह समझ़ने क़ यत्न ककय़ कक ऱज़ओं, मह़ऱज़ओं और पंऽडतं-ऽवद्व़नं और अलम-ि़ज़लं को जदम देने व़ला ऩरा सिनद़ की प़ि नहं हो सकता। आसऽलए ईदहंने ऩरा को एक सम्म़नयोग्य स्थ़न देने की वक़लत की। ईद़हरण स्वरूप, ब़णा की आन पंऽियं को हा लाऽजए -

तंऽड जम्मायै भंडा ऽनम्मायै, भंऽड मंगण ऽवह़हु

ISSN –2347-8764

भंडहु होवै दोस्ता भंडहु चलै ऱहु भंड मिअ भंडि भ़ऽलयै, भंऽड होवऽह बंध़नि सो ककई मंद़ अऽखयै, ऽजति जम्मऽह ऱज़नि ! 3 गिरमऽत स़ऽहत्य के सम़ऩंतर हा ककस्स़-क़व्य ध़ऱ चलता है। आसमं ऩरा को सम्म़न की दुऽि से नहं देख़ ज़त़, बऽल्क ईसको िफ्िे कि ंना(मक्क़र), कमऄक्ल और सम़ज पर बोझ तथ़ स्व़थय की प्रताक बऩकर पेश ककय़ ज़त़ है। हार व़ररस की पंऽिय़ं हं -

‘व़ररस’ रन्न, फ़कीर, तलव़र, घोड़़ च़रे थोक ऐह ककसे दे य़र नहं। 4

अधिऽनक स़ऽहत्य तक पहुँचते-पहुँचते, ऩरा सरोक़रं मं ऽवऽभन्नत़ अता है। पऽश्चमा स़ऽहत्य सिचतन की ऽवऽधयं से पररऽचत होने के क़रण, पंज़बा स़ऽहत्यक़रं मं ऩरा-चेतऩ प्रबल रूप मं स़मने अता है। अधिऽनक स़ऽहत्य मं भ़इ वार सिसह से लेकर, हम़रे समक़लान कऽवयं तक, सब ऩरा को बऱबर क़ हक देने, ईसको स़क्षर करने, ईसकी अर्णथक स्वतंित़ और सम़ज मं दय़य-संगत स्थ़न कदल़ने के ऽलए यत्नशाल हं। आन समयं के पिरुष कऽव यद्यऽप ऩरा के दिखं को लेकर ऽलखते अ रहे थे, परं ति ऄमुत़ प्रातम जैसा मऽहल़ स़ऽहत्यक़रं ने, ऩरा मं अ रहा चेतनत़ को जावंत रूप मं पेश ककय़। यद्यऽप औरत ऄब ऄत्यऽधक चेतन हो चिकी है, पर ईसकी ऽववशत़एँ ऄभा भा ईसकी ऱह मं ब़ध़ बना हुइ हं। ऄमुत़ एक स्थ़न पर ऽलखता हं -

हर सोहणा कदअं कदम़ं ऄग्गे ऄजे वा आक झऩ पइ वग्गे हर सस्सा कदअं पैऱं हेठ़ं ऄजे वा तड़पन छ़ले...।5 (झऩ- एक नदा)

कऽवत़ हा नहं, कह़ना मं चरन सिसह शहाद से लेकर अज तक के सभा कह़नाक़रं ने ऩरा-चेतऩ के ऽभन्न-ऽभन्न प्रस़रं को दुऽिगोचर ककय़ है। आसा प्रक़र, पंज़बा ईपदय़स और गद्य भा ऩरा के ऄलग ऄलग रूपं की प्रस्तिऽत कर रह़ है। पंज़बा स़ऽहत्य के ऽवऽभन्न रूपं के म़ध्यम से ईज़गर हो रहे ऩरा-चेतऩ के प्रस़रं के ऄंतगयत, पंज़बा ऩंक क़ ऽवश्लेषण

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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करऩ भा बनत़ है। क्यंकक दोहरे चररि व़ले स़ऽहत्य रूपं के म़ध्यम से, ऩराचेतऩ क़ ईभ़र व संच़र, स़ऽहऽत्यक प़ठ से कि छ कदम अगे बढ़कर, रं गमंच के म़ध्यम से प्रकं होत़ है। ऩंक, स़ऽहत्य की एक ऄलग ऽवध़ है। स़ऽहत्य की शेष सभा ऽवध़यं, ऽलऽखत प़ठ से संबंऽधत होता हं जबकक ऩंक ऐसा ऽवध़ है जो स़ऽहत्य-कल़ और प्रदशयन के समिच्य को प्रगं करता है। आसक़ स़मथ्यय भा शेष ऽवध़ओं से ऽवलक्षण है, क्यंकक यह ऽलऽखत प़ठ के स़थ-स़थ, मंचन से भा संबंध रखता है। आसको ऽवद्व़नं ने ‘ऽमऽश्रत कल़’ क़ ऩम भा कदय़ है। यह महज पढ़े ज़ने व़ल़ स़ऽहत्य प़ठ न रहकर, दशयकं के स़थ साधे तौर पर भा जिड़त़ है। आसक़ संबंध दुश्य कल़ के स़थ होने के क़रण, यह पढ़े-ऽलखे वगय के ऄल़व़, ऄक्षरज्ञ़न से वंऽचत दशयकं को भा प्रभ़ऽवत करने की स़मथ्यय रखत़ है। आस मं नुत्य कल़, ऄऽभनय कल़, ऽशल्प कल़ अकद कइ कल़ओं क़ सऽम्मश्रण होत़ है। यह भा कह़ ज़त़ है कक ऩंक सभा कल़ओं को ऄपने कलेवर मं ले सकत़ है। आसऽलए ऩंक बहु-ऽवध़इ कल़ भा है। जैसे कक -

ऩंक कल़, सुजऩत्मक कल़ क़ वह रूप है ऽजसमं, मिख्य संव़दमीलक कथ़ को ऄऽभनेत़ के म़ध्यम से रं गमंचाय ऽशल्प की सह़यत़ के स़थ, रं गमंच पर दशयकं के सम्मिख पेश ककय़ ज़त़ है। ऩंक ऽवशि​ि स़ऽहत्य नहं, ऄऽपति ऐसा कल़ है जो स़ऽहत्य के अगे के ऄनिभव को प्ऱप्त करता है और दशयक –प़ठक को ऽवलक्षण बोध करव़ता है। 6

ऩट्ड-श़स्त्रा भरतमिऽन ने, ऩंक को प़ंचव़ वेद म़नते हुए, आसको लोगं के व्यवह़र ऄथव़ जावन क़ ऄनिकरण कह़ है। जबकक पऽश्चमा क़व्य श़स्त्र के रऽचयत़ ऄरस्ती ने, क़यय के ऄनिकरण को ऩंक म़ऩ है। मील रूप मं ऩंक, शब्दद से अरं भ होकर, क़यय तक की य़ि़ है। यह के वल दुश्य क़व्य नहं, ऄऽपति चऽलत दुश्य है ऽजसमं कइ कल़यं श़ऽमल होता हं। ऩंक की ऽवध़, पंज़ब मं कोइ ऄऽधक पिऱना नहं है। खोज के ऄनिस़र, नौऱ ररचडयज़ की प्रेरण़ से इश्वर चंदर नंद़ द्व़ऱ ISSN –2347-8764

सन 1913 ‘दिल्हन’ ऩंक की रचऩ हुइ ऽजस पर आब्दसन की यथ़थयव़दा शैला क़ प्रभ़व है। परं ति, आससे पहले भा ऩंक के ऄऽस्तत्व से आदक़र नहं ककय़ ज़ सकत़। ‘दिल्हन’ ऩंक से पहले लगभग एक दज़यन ऩंक ऽलखे हुए ऽमलते हं जो ककसा ऽवध़ के वजीद की ह़मा भरते हं। यद्यऽप ये स्ंेज पर मंऽचत नहं हो सके , य़ होने के समथय नहं थे। आन से पहले लोक-ऩंक के रूप मं, ऩंक हम़रा बहस क़ ऽहस्स़ रह़ है। नकलं, स्व़ंग, लाल़ ऩंक, ऽगि़ ऩंक, पितला के तम़शे अकद आस तथ्य की गव़हा भरते हं। यह सच है कक तकनाकी तौर पर मंच पर पेश होने व़ल़ पहल़ ऩंक ‘दिल्हन’ य़ ‘सिह़ग’ हा है। यद्यऽप आससे पहले ऩंक ‘शऱब कौर’ के मंच पर खेले ज़ने के कि छ सिऱग ऽमलते हं, पर आस ऩंक क़ प्रक़ऽशत प़ठ ऄभा ईपलब्दध नहं है, जो खोज की म़ंग करत़ है। इश्वर चंदर नंद़ से शिरू होकर पंज़बा ऩंक ऄब तक प़ँचवा पाढ़ा के ऩंकक़रं के ह़थं मं पहुँच चिक़ है। पंज़बा के प्रथम ऩंक ‘दिल्हन’ मं ऩरा प्रऽतऽनऽध प़ि के रूप मं ईभरता है। इश्वर चंदर नंद़ द्व़ऱ आस ऩंक की रचऩ करते हुए ऄनमेल ऽवव़ह के ऽवषय को ऽनव़यह करऩ थ़, आसऽलए ईसकी ऽववशत़ था कक वह स्त्रा को बेबश हा प्रस्तित करे । आस ऩंक की प़ि कौम को दिख है कक ईसकी बेंा एक बीढ़े के स़थ ब्दय़हा ज़ रहा है। वह ऄपना अर्णथक मज़बीररयं के क़रण ऄपऩ दिख ऄंदर हा पा ज़ता है और आसक़ ऽवरोध करने क़ स़हस नहं करता। आसा प्रक़र, हरचरन सिसह के ऩंक ‘रि़ स़ली’ मं गराब पररव़र की कह़ना है। गराब म़ऽलन के पि​ि को ऽबसवेद़र हल़क कर देत़ है। पि​ि लहू मं तर हुअ, ऄऽदतम स़ंस लेते हुए भा म़ँ को हौसल़ देत़ है। पर म़ऽलन, बेबस म़ँ है। वह दिखा होकर ऽवल़प करता हुइ कहता है -

म़ऽलन : रे कै से हौसल़ करूँ ! कौन सा म़ँ कदल को रोककर रख सकता है ऽजसकी अंतं लहू मं लथपथ पड़ा हं ! रे कौन-सा म़ँ मन को धारज दे सकता है ऽजसक़ खीन स़मने ढेरा हुअ पड़़ हो, (ध़य म़रकर) कौन-सा म़ँ पि​ि की मौत ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

देखकर कदल कड़़ कर सकता है। ऽजगर के ंि कड़े, ती म़ँ की कोख क़ दिख नहं ज़न सकत़।7 गिरदय़ल सिसह खोसल़ ऄपने ऩंक ‘प्रलय से पहले’ मं भ़गवंता ऩम की बेबस प़ि़ क़ सुजन करत़ है। अठ बच्चं की म़ँ भ़गवंता, गराबा के ह़थं मज़बीर होने के क़रण, भीख-े ऽबलखते बच्चे देख नहं सकता। ईसकी अर्णथक ऽववशत़ है कक वह बच्चे को दीध म़ंगने पर भा नहं ऽपल़ सकता, के वल दिखा हो सकता है। कि छ यत्न करने की बज़य वह ह़ल़त के स़मने घिंने ंेक देता है। जैसे कक -

-क्य़ दीं तिझे ? च़य पा ले। अज दीध तो िं गय़ है स़ऱ। अध़ तो प़ना होत़ है। और अज बच़ हुअ दीध जल गय़ है। बेइम़ना की भा हद हो गइ है।8

यह भ़गवंता ऄपने ध़र्णमक और स़म़ऽजक बंधनं मं ऽघरा हुइ प्रतात होता है, पर आन बंधनं को तोड़ने ऄथव़ समस्य़ क़ हल खोजने की कोइ कोऽशश नहं करता। संत सिसह सेखं जब ऄपऩ ऩंक ‘मोआय़ं स़र ऩ क़इ’ रच रहे थे तो ईनके स़मने मह़ऱज़ दलाप सिसह क़ ककरद़र तो बेबस थ़ हा, परं ति मह़ऱना सिजद़ को भा वह ह़ल़त मं बड़ा ऽववश म़ँ के तौर पर पेश करते हं। वह च़हते हुए भा पंज़ब की होना को बदलने मं ऄसमथय है। बलवंत ग़गी के ऩंक ‘कणक दा बल्ला’ मं ऽनह़ला के मनोऽवश्लेषण को पेश ककय़ गय़ है ऽजसक़ पऽत भ़गो की म़ँ के पाछे ज़न गव़ं देत़ है। ब़द मं, ईसक़ पि​ि भा त़रो के मोह मं मौत को गले लग़ लेत़ है। ऽनह़ला आस दिख की म़रा ऽवल़प करता है और मुत पि​ि की पगड़ा को पकड़कर, अँगन मं ऽसर झिक़ये बैठा, ऄपना बेबसा क़ आस प्रक़र आज़ह़र करता है -

-ह़य ! अज मेल़ खत्म हो गय़। दीसरं के अदमा ऽपयंगे और लड़ंगे। दीसरा म़ँओं के पि​ि मेले मं ज़एँगे, और लड़ककयं के पाछे दौड़ंगे। मेले ने मेरे घर से बऽल ले ला।9

दरऄसल, बलवंत ग़गी ने आस ऩंक मं सभा ऩरा प़िं को, के वल ऩरा के रूप मं ऽचऽित ककय़ है। आस ऩंक के प़ि, ऽबगड़े हुए ज़माद़र की पत्ना ठ़करा भा अर्णथक पक्ष से मजबीत होने के ब़वजीद बेबस है।

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ईसक़ पऽत ईसके पैसे के ऽसर पर ऐश करत़ है, रोज़ ककसा नइ लड़की क़ सौद़ करत़ है। ठ़करा पर जिल्म ढ़त़ है, पर वह ऽवरोध नहं करता, बऽल्क ह़ल़त के स़मने बेबस नज़र अता है। नसाबो के ह़थ डोर देकर, ग़गी के आस गात क़ प्रतात बन ज़ता है - ”बऽलये कणक कदये, तैनीं ख़णगे नसाब़ं व़ले।“। बलवंत ग़गी की ऽसित आस ब़त मं है कक वह ऩरा को बेबस पेश करते हुए भा ईसके मऩऽवश्लेषण के म़ध्यम से ईसकी मनोदश़ को पेश करत़ है। ईसके एक ऄदय ऩंक ‘ऽगरझ़ं’ की प़ि नीरा, ऄपने पें की भीख की ख़ऽतर ऄपना आज्ज़त गव़ं बैठता है। ईसकी मज़बीरा/ बेबसा आस व़त़यल़प से स्पि होता है -

-म़ंगने गइ था। तंदरी व़ले ने मिझे खड़े रख़। मं खड़ा-खड़ा प्रताक्ष़ करता रहा, जब मेरे पैर जव़ब देने लगे तो ईसने मिझे ऄँधेरे मं घसां ऽलय़...।10

कपीर सिसह घिम्मण के ऩंक ‘बिझ़रत’ मं शारा ऩमक प़ि, पऽत और प्रेमा दोनं के धोखे से दिखा है। वह कल़क़र है, पर कल़ के मील्य की कर करने व़ल़ कोइ नहं। पिरुष प्रध़न सम़ज ईसको आस्तेम़ल तो कर सकत़ है, ईसकी कर नहं कर सकत़। आसऽलए वह तड़पता है, पर ऽवरोह नहं करता। गिरदय़ल सिसह ि​ि ल्ल ऄपने प्रऽसि ऩंक ‘ओड़क सच रहं’ मं एक बेबस म़ँ क़ ऽचिण करत़ है। रुकमणा ऩम की यह म़ँ ऄपना बेंा पर हो रहे ऄत्य़च़रं से दिखा होकर ऽनऱश जावन जा रहा है। यह वो बेबस म़ँ है जो ऄपऩ दिख प्रकं करते हए पीरे सम़ज के दिख खंग़लता हुइ, औरत की दश़ आस प्रक़र बय़न करता है -

रुकमणा : तभा सकदयं से ऽस्त्रयं पर जिल्म हो रहे हं। कभा कि एँ मं िं की गइ, कभा जलता ऽचत़ मं परखा गइ। कभा नंगा के जिलीस ऽनक़ले गए। ऄब मेरा बच्चा पर जिल्म होने लग़।11

हरशरन सिसह ऄपने ऩंक ‘कि लक्षणे’ मं पऽत को ऐसे ककरद़र के तौर पर पेश करत़ है जो कि दरता तौर पर बच्च़ पैद़ नहं कर सकत़, पर ईसकी पत्ना, एक स्त्रा होने के ऩते, बच्चे के ऽलए ऽवह्वल है। क्यंकक वह समझता है कक बच्चे के ऽबऩ ISSN –2347-8764

स्त्रा क़ ऄऽस्तत्व ऄधीऱ है। पऽत ऄपना ऄसमथयत़ पर पद़य ड़लने की ख़ऽतर ईसको भऽि की ओर ध्य़न लग़ने के ऽलए प्रेररत करत़ है। पत्ना बेबसा मं बोलता है

-मं ऐसे इश्वर की भऽि नहं कर सकता ऽजसने स्त्रा को मज़बीर और ल़च़र बऩय़ है।12

जोऽगददर बऱड़ क़ ऩंक ‘कि देसण’ ऩरा चेतऩ क़ एक प्रऽतऽनऽध पंज़बा ऩंक है ऽजसमं ब़हरा ऱज्यं से ल़इ गइ ऽस्त्रयं की खराद-िरोख्त को कदख़य़ गय़ है। ये ऽस्त्रय़ँ, घर की ऽस्त्रय़ँ तो बनता हं, पर आदहं ईनके हक नहं ऽमलते। यहा नहं, वह बच्च़ जदमने के ब़द भा पऱइ हा रहता है। आस ऩंक के प़ि प़ल़ सिसह के ऄपना पत्ना से के वल बेरंय़ँ हा पैद़ होता हं। पि​ि की ल़लस़ मं वह कि देसण, गंग़ को एक हज़़र रुपये मं खराद ल़त़ है जो पि​ि को जदम देता है। ऩंक मं ंकऱव तब ऽशखर पर पहुँचत़ है जब प़ले की पत्ना जातो, गंग़ से पैद़ हुए प़ल़ सिसह के पि​ि को ऄपऩ पि​ि बत़ता है और प़ल़ सिसह को आस ब़त के ऽलए मऩ लेता है कक वह गंग़ को घर से ऽनक़ल दे। प़ल़ सिसह, गंग़ के स़थ ऄपने ऽवव़ह को ऩज़यज बत़कर गंग़ को घर से ऽनक़ल देत़ है। गंग़ के प़स रोने-पांने के ऽसव़य कोइ दीसऱ ऱस्त़ नहं बचत़। जैसे कक -

गंग़ : ह़य रब्दब़ ! ती नहं देखत़ मेरे स़थ क्य़ हो रह़ है ? रोक ले रब्दब आदहं ! ह़य, मं जाते जा मर गइ ! ह़य रे मेऱ पित् ! म़र कदय़ रे लोगं चंदरं ने मिझे !13

पंज़बा के प्रथम ऩंकक़र इश्वर चंदर नंद़ ने ऩरा-संवेदऩ को अध़र बऩकर, ऄपने ऩंकं मं ऩरा की ऽनत्यप्रऽत ज़ख्मा होता रूह को, ऄलग ऄलग रूपं मं बय़न ककय़ है। जह़ँ ‘सिह़ग’ मं वह स़म़ऽजक दिखं को झेलता अर्णथक पक्ष से कमजोर, एक मजबीर और बेबस म़ँ के तौर पर पेश हुइ है, वहं ‘सिभऱ’ ऩंक मं वह ऽवधव़ है। ऽजसकी स़स कोड़ा ईस पर जिल्मं के पह़ड़ ऽगऱ देता है। ऽवधव़ होऩ, ईसक़ श्ऱप बन ज़त़ है। ईसकी म़नऽसक संवेदऩ आन शब्ददं मं प्रगं होता है -

सिभऱ - बहन एक तो हमं रब ने म़ऱ, दीसरे बंदे भा ऐसे ऽमले ऽजनके मन मं ऽमहर ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

नहं, कदल मं तरस नहं। ऱत कदन नंचने मं लगे रहते हं। बेबे ने त़नं म़र म़र मेऱ खीन सिख़ रख़ है। साऩ मेऱ िीं क कदय़। जब भा बोलता है, यहा बोलता है - रा कलमिंहा ! कलजोऽगणे ! म़थ़ सड़ा ड़यन ! रा तीने मेऱ आकलौत़ पि​ि ख़ ऽलय़। रा ती अइ तो हम़रे घर क्लेश पड़़। ईज़ड़ कदय़, घर को ख़क श़ह कर कदय़ ! (अँसी भरकर) भैण(बहन) प्रऽसन्ने, ऄब ती हा बत़, मं कौन से कि एँ मं ज़ डी बीँ। स़ऱ कदन घर के स्य़पं मं बात ज़त़ है। और ऄगर दो घऽऺडय़ं ज़ऱ कहं लड़ककयं के स़थ बैठ ज़उँ, चख़य ड़लीँ य़ सिइ ईठ़कर बैठँी , तो मेरा तो श़मत अ ज़ता है। मं सच कहता हूँ, मं आन रोज रोज के त़नं, बोऽलयं और म़र से आतना तंग अ गइ हूँ, सच स़ईं ज़नत़ है, मं प्ऱण देने तक को तैय़र हूँ। म़ँ-ब़प और भ़इ की आज्ज़त लेकर बैठा हूँ।14 हरचरन सिसह भा ऄपने ऩंकं मं ऩरासंवेदऩ को बड़ा गंभारत़ के स़थ प्रस्तित करत़ है। ईसके ऩंक ‘दोष’ की ऩऽयक़ ऱजो, एक मज़बीर ऩरा के तौर पर पेश हुइ हं, जो ऄपने उपर होते जिल्मं को ऽछप़ता है और ईसकी संवेदऩ तब प्रगं होता है जब वह ईसा व्यऽि की ऽहस्सेद़र बन ज़ता है ऽजसने ईसकी ऽऺजददगा बब़यद की होता है। ईसके दीसरे ऩंक ‘रि़ स़ली’ मं गराब म़ऽलन, ज़माद़र क़ जिल्म सह रहा है। जब ज़माद़र ईसकी लड़की ईठ़ लेत़ है तो वह ऽवल़प करता है। ऩरासंवेदऩ के पक्ष से हरचरन सिसह क़ ऩंक ‘कं चन म़ंा’ भा वणयन-योग्य है। आसकी प़ि़ क़ऽमना जो ब्दय़हत़ ऩरा है, ऄपने पऽत की इष्य़य और द्वैत से दिखा है। क्यंकक पऽत ईसके ऄंदर ऽछपे कल़क़र को पहच़नने मं समथय है। पऽत से ऄसंति​ि क़ऽमना जब ऄपने प्रेमा दापक के स़थ घर से भ़ग ज़ता है तो ईसके ब़द भा ईसके दिखं क़ ऄंत नहं होत़। दापक द्व़ऱ धोख़ देने के क़रण पऽतव्रत़ ऩरा से ब़ज़़रू औरत मं तब्ददाल हो ज़ता है। ऄपना आस दयनाय ह़लत के ब़रे मं वह स्वयं यीँ बोलता है -

क़ऽमना : हे परम़त्म़ ! मं ककस प़त़ल मं ऽगर गइ हूँ। मं आस नरक मं से कै से छि ंक़ऱ

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प़उँगा। मं ज्य़द़ देर आस ह़लत मं ऽजदद़ नहं रह सकता। ह़य ! मेऱ ! ऽसर िं़ ज़ रह़ है !15 गिरदय़ल सिसह ि​ि ल्ल पंज़बा क़ एक ऐस़ ऩंकक़र है जो ऄपने ऩंकं मं चैतदय ऩरा की तस्वार पेश करत़ है। ईसके ऩंक ‘धरता दा ज़या’ की प़ि ऱना, धरता म़ँ की ख़ऽतर ऄपने ह़थं, ऄपने पऽत को गोला म़र देता है। पर धरता म़ँ पर कोइ अँच नहं अने देता। एक ऄदय ऩंक ‘बेबसा’ मं वह पिरुष-प्रध़न सम़ज क़ ऽचिण करत़ है जह़ँ अर्णथक मजबीरा के क़रण लड़की के ब़प को ईसको बस़ने के ऽलए बेबस होकर ऄपने स़रे अदशय और ईसील त्य़गने पड़ते हं। क्यंकक य़ तो ईसको ऄपना लड़की के ह़थ सिह़ग की मंहदा लग़ने क़ प्रबंध करऩ पड़त़ है य़ ईसा ब़प को लड़की के खीन की मंहदा ऄपने ह़थ मं लग़ना पड़ता है। आस ऩंक क़ प़ि बलवंत सिसह, ऄपने अदशं की ख़ऽतर, ऄपना लड़की के ररश्ते के ऽलए दहेज देने से मऩ करत़ है। पर ईसकी पत्ना ऱम रखा, स़रे ह़ल़त को समझता हुइ जह़ँ स़म़ऽजक ऽववशत़ओं क़ रोऩ रोता है, वहं ऄपने पऽत के अदशं पर भा प्रश्न खड़़ करता है और सम़ज पर ऄज्ञ़नत़ की ऽखल्ला ईड़़ता है। सिरजात सिसह सेठा, पंज़बा मं ऐब्दसडय ऩंकं क़ बड़़ ऩंकक़र है। ईसके ऩंक ‘किकग ऽमज़य ते सपेऱ’ की प़ि़ सिल्त़ऩ, होंल की स़तवं मंऽऺजल पर खड़े किकग और ऽमज़य के ऽलए प्रेरण़-स्रोत बना है। वह दोनं को मौत की ऄपेक्ष़ ऽऺजददगा को तरजाह देने की साख देता है। आस प्रक़र, वह ऽऺजददगा के प्रऽत चैतदय औरत के रूप मं प्रस्तित होता है। ईसके एक ऄदय ऐब्दसडय ऩंक ‘मदय मदय नहं, औरत औरत नहं’ मं औरत एक ऐसा ऩरा प़ि़ है ऽजसने ऄपने पऽत की बज़य ग़ैर मदय के बच्चे को जदम कदय़ है। ईसक़ ऽऺजददगा के प्रऽत नज़ररय़, अम ऩररयं से ऽभन्न है और वह आख़ल़की स्तर से ऽगरकर भा ऽऺजददगा के अनंद को भोगने को तरजाह देता है। जैसे -

औरत : ऽऺजददगा को कदलचस्प बऩने के ऽलए अव़ऱ य़ बदचलन भा कहलव़ऩ पड़े तो सौद़ कोइ आतऩ मंहग़ नहं।16 ISSN –2347-8764

कपीर सिसह घिम्मण के ऩंक ‘ऄतात दे परछ़वं’ मं प़ि ल़लस़, जब ऄनब्दय़हा म़ँ बन ज़ता है तो सम़ज के त़नं से डरता, ऄपने बच्चे को म़रने के ऽलए ह़ईसबों की नौकऱना ऽनश़त को संप देता है। परं ति ईसक़ कदल तब तड़प ईठत़ है जब कि छ देर ब़द ईसको पत़ चलत़ है कक ईसक़ बच्च़ सिजद़ है। वह ऄपने अप को म़फ़ नहं कर प़ता और संवेदऩ के स़गर मं डी बकर म़नऽसक संतिलन खो बैठता है -

ल़लस़ :मं औरत हूँ ऽनश़त... और म़ँ भा। क्य़ कोइ म़ँ ऄपने बच्चे को क़त्ल कर सकता है ? मं म़ँ नहं हूँ... औरत भा नहं... मं प़ऽपन हूँ...ऄपऱऽधन !17

सो, ज़़ऽहर है कक पंज़बा ऩंक, स्त्रा की अज़़दा से कभा आदक़रा नहं हुअ। औरत की अज़़दा तभा संभव है यकद वह अचरण के तौर पर मज़बीत हो, क्यंकक अचरण से ऽगरा हुइ स्त्रा के प़स पश्च़त़प और अँसओं ि के ऽसव़य कि छ नहं बचत़। पंज़बा ऩंकक़रं ने ऄपने ऩंकं मं ऐसे अदशय प़िं क़ सुजन ककय़ है जो म़फ़ करने की कदलेरा रखता हं। आन ऩंकं क़ ऽवश्लेषण करने के ब़द आस नताजे पर पहुँच़ ज़ सकत़ है कक पऽत-पत्ना के संबंध ऄथयहान नहं होते, य़ के वल क़मिकत़ अध़ररत नहं होते। दैऽहक अकषयण से उपर भा कि छ होत़ है जब एक की गलता दीसरे के ऽलए ईलझन क़ क़रण तो बनता है, पर दीसऱ पक्ष पहला को ऽऺजददगा के प्रऽत नय़ दुऽिकोण भा देत़ है। पंज़बा के बहुत स़रे ऩंकक़रं ने ऩंकं मं ऐसा समस्य़ को हा सिलझ़ने क़ यत्न ककय़ है। संत सिसह सेखं क़ ऩंक ‘कल़क़र’, हरशरन सिसह क़ ऩंक ‘ऽजगऱ’, हरचरन सिसह क़ ऩंक ‘कं चन म़ंा’, गिरचरन सिसह जसीज़ क़ ऩंक ‘पररय़ँ’ अकद आदहं पररऽस्थऽतयं को ईघ़ड़ते हं। पंज़बा ऩंकक़रं ने ऩरा-संवेदऩ के ऽभन्न-ऽभन्न पक्षं को पकड़ने क़ यत्न ककय़ है। आस संबंध मं गिरचरन सिसह जसीज़ क़ ऩंक ‘कं ध़ं रे त कदय़ं’(दाव़रं देत की) को देख़ ज़ सकत़ है। आस ऩंक की ऩयक़ ईर्णमल़, तन बेचने के ऽलए मज़बीर एक औरत की बेंा है। यद्यऽप ईसके ऽपत़ ने ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

ईसकी म़ँ के स़थ ऽवव़ह भा कर ऽलय़ थ़, परं ति म़ँ क़ स़य़ ईस पर हमेश़ क़यम रहत़ है। जब ईसक़ प्रेमा कि ददन सिसह ईसको आसऽलए ठि कऱ देत़ है कक वह एक ऐसा औरत की संत़न है जो कं जरा है। ईसके एक ऄदय ऩंक ‘ईमऱं लम्मा दौड़’ की ऩऽयक़ रात़, एक ऽभन्न ककस्म की म़नऽसक संवेदऩ की ऽशक़र होता है। वह स़म़ऽजक नैऽतकत़ क़ ईल्लंघन करके , ऄपना कोख हरा करने के ऽलए ऄपने दोस्त क़ सह़ऱ लेता है। पर ईसक़ यह तराक़ स़रा ईम्र के ऽलए ईसकी पाड़़ बन ज़त़ है। दीसरा तरि, जसीज़ क़ एक ऄदय ऩंक ‘पररय़ँ’ म़नऽसक तौर पर त़कतवर ऩररयं की पेशक़रा करत़ है। आन ऩररयं को पररयं के रूपक के तौर पर पेश करत़ है -

ईप़सऩ : जब ईसने मेरा पऽवित़ पर शक ककय़, मिझे बदचलन कह़, तो मेरे तन -बदन मं मानो अग लग गइ। मेरे ऄंदर गिस्से क़ समिंदर ठ़ठं म़रने लग़ और मेरे पंख ऽनकल अए। मं परा बन गइ। ईस समय यकद मेरे प़स ऽपस्तौल होत़ तो ऄवश्य गोला चल ज़ता।18

आसा पाढ़ा के ऄदय ऩंकक़रं ने भा ऩरासंवेदऩ को, ऄपने दुऽिकोण से प्रस्तित ककय़ है। चरनद़स ऽसद्धी क़ ऩंक ‘ब़ब़ बदती’ मं संता को संवेदऩ मं कलपते कदख़य़ गय़ है। ईसके पि​ि ऽबह़रा क़ सरवण क़त्ल कर देत़ है। पर बेबसा मं वह सरबण क़ कि छ नहं ऽबग़ड़ सकता, बऽल्क ऄपऩ दिख प्रगं करता हुइ ऽवल़प करता है -

त़पा : सम़ गय़ धरता मं ! ऽबछोड़े दे गय़ ऽसलायर ऩर को (ऽवल़प करते हुए) मेरे ऱज़, ककसके सह़रे छोड़ चल़, ऽसलायर ऩर ! ओ मेरे दिऽल्लय़, तेरे ऽबऩ सीने हं मेरे महल। मेरे जोधे, मिझे भा ले चल स़थ।19

आसके स़थ पररऽस्थऽतयं वश तकलाफ़ सहने की चेतऩ, ईसको मनोवैज्ञ़ऽनक तौर पर प्रबल बऩने मं मदद करता है। अत्मजात के ऩंक ‘मं त़ं आक स़रं गा ह़ं’ की प़ि गात़, प़ल और माऩ, पिरुषप्रध़न सम़ज द्व़ऱ ककए ज़ रहे ऄत्य़च़रं से पाऽऺडत हं, परं ति अर्णथक तौर

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पर ऽनभयर होने के क़रण वे आस संवेदऩ को चेतऩ मं बदलने क़ यत्न करता हं। अत्मजात, ऐऽपक ऽथयेंर की तकनाक के म़ध्यम से कोरस गात श़ऽमल करके , ईनकी चेतऩ को आस प्रक़र ईज़गर करत़ है -

स़ज़ त़ं ह़ं, अव़ज़ बण़ंगा ऄंज़़म होय़, अव़ज़ बण़ंगा ऽचऽऺडय़ं बण बण देख ऽलय़ ईक़ब बण़ंगा, ब़ज़ बण़ंगा अपणा हंद नीं खोज रहा मं हुण न के वल संगा ह़ं मं त़ं आक स़रं गा ह़ं मं त़ं आक स़रं गा ह़ं… नज़ऱं दे ऽजन्ने वा शाशे ओने रं ग़ं ऽवच रं गा ह़ं मं त़ं आक स़रं गा ह़ं मं त़ं आक स़रं गा ह़ं।20

आस गात से स्पि है कक ऄब ऩरा मज़बीरा य़ बेबसा मं, ऽऺजददगा गिज़़रने के ऽलए तैय़र नहं, ऄऽपति वह ऽवरोह करऩ ज़नता है। स़म़ऽजक राऽतयं, मील्यं को तोड़कर नए जावन-मील्यं के म़ध्यम से ऄपना स्वतंि हस्ता के ऽलए चेतन हो चिकी है। हम़ऱ एक ऄदय महत्वपीणय ऩंकक़र और मंचकमी गिरशरन सिसह यद्यऽप ऱजनैऽतक संघषय के ऩंकं के रचऽयत़ के तौर पर प्रऽसि है, परं ति ऩरा की दश़ को बड़ा ताव्रत़ के स़थ ऄनिभव करत़ है। जैसे कक ऩंक के ऩम से हा स्पि हं, ईसके ऩंक ‘ब़ंझ’ की ऩरा, बच्च़ न पैद़ कर सकने क़ संत़प भोग रहा है ऽजसको वह कि दरत की बेआंस़िी कऱर देता है। यहा दिख म़नऽसक संवेदऩ को ब़र ब़र प्रगं करत़ है। ईसक़ एक ऄदय ऩंक ‘तंदरी ’ त़त्क़ऽलक ‘तंदरी क़ंड’ पर अध़ररत है ऽजसं ऱजनाऽत के ऄपऱधाकरण से पद़य ईठ़य़ गय़ है। आस ऩंक के ऽसय़सतद़न प़ि, नैऽतक मील्यं क़ त्य़ग करके , ऄपना पऽत्नयं और बहू-बेरंयं को भा ऱह क़ क़ं​ं़ समझ बैठते हं और आस क़ं​ंे को ऽनक़लने के ऽलए, ईदहं ज़न से म़रने की स़ऽऺजश रचने की घरंय़ हरकत तक ज़ सकते हं। कि छ ऩरा के सह़रे से, कि सी तक पहुँचने क़ यत्न करते हं। आस ऩंक की प़ि़ और ईसके ISSN –2347-8764

पऽत देऽवददर क़ व़त़यल़प आस ब़त क़ ईह़हरण है -

दाप : मदय मदय होत़ है, च़हे बड़़ प्रध़न हो और च़हे छों़ प्रध़न, च़हे बीढ़़ हो, च़हे जव़न। ईसकी नज़रं तं दीसरे कदन हा बदल गईं। देऽवददर : आसको ऽसय़सा खेल कहते हं। मिझे पत़ थ़, वह तेऱ कि छ नहं ईत़र लेग़। ये नौजव़नं क़ जरनल सेक्रेंरा पद तेरा ईसा सेव़ क़ हा िल है और यह ऄभा पहला ककस्त है।21

प़ला भीसिपदर सिसह को हम चौथा पाढ़ा के प्रबि​ि ऩंकक़र के तौर पर देखते हं। वह ऐस़ ऩंकक़र है जो ऄपने ऩंकं मं नयेनये प्रयोग करने के ऽलए प्रऽसि है। ऩरासंवेदऩ को अध़र बऩकर ऽलखे ईसके ऩंक, ईसकी ऩंकक़रा की ऄहम प्ऱऽप्त हं। ईसक़ ऩंक ‘मं जदं ऽसफ़य औरत हुंदा ह़ं’ मं म़ँ, बहन और पत्ना के बाच ऄदतर करने, पिरुष-मन की स़ऽऺजश को ईघ़ड़ने क़ यत्न ककय़ गय़ है। यह ऩंक 1947 के देश ऽवभ़जन के समय हुए स़म्प्रद़ऽयक दंगं से संबंऽधत है। आसकी मिख्य प़ि़ ऄमुत़ ऽहददी है जो ऽवभ़जन के समय मिसलम़न कट्टरपंऽथयं से डरकर ऄपने पिऱने नौकर जिम्मे के घर मं पऩह लेता है, जो एक मिसलम़न है। ईस नौकर क़ पि​ि, ऄमुत़ की ननद से ऽवव़ह करव़ने क़ आच्छि क है। ऄमुत़ क़ पऽत, ऄपना बहन की आज्ज़त बच़ने के ऽलए, ऄपना पत्ना की बऽल देने को तैय़र है। ऩंकक़र ने ऄमुत़ को एक जिझ़रू स्त्रा के रूप मं प्रस्तित ककय़ है जो हौसल़ करके , मिसलम़न जिम्मे के पि​ि ननकी को हल़क कर देता है और ऄपना तथ़ ननद की रक्ष़ करता है। ईसको मदय रूपा सम़ज से ऽशक़यत है, वह दिखा मन से कहता है -

ऄमुत़ : तिम्ह़रे ह़थं मं लड़ने की त़कत आसऽलए नहं रहा क्यंकक ये लड़़इ तिम्हं मेरे ऽलए लड़ना पड़ता है, मेरे ऽलए। मं... जो तिम्ह़रा बावा हूँ, बहन नहं। तिम्ह़रा म़ँ ज़इ नहं, तिम्ह़रे खीन क़ ऽहस्स़ नहा, यकद यहा लड़़इ तिम्हं ऄपना बहन के ऽलए लड़ना पड़ता तो तिम्ह़रे ह़थं मं लड़ने की त़कत भा अ ज़ता और कि ल्ह़ड़ा भा ईठ़ लेते तिम। यह पक्षप़त तो शिरू से हा होत़ ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

अय़ है मेरे स़थ।22 ऩरा-संवेदऩ की दुऽि से आस पाढ़ा क़ एक ऄदय ऩंकक़र स्वऱजबार बहुत महत्वपीणय है। यद्यऽप स्वऱजबार को हम प्रगऽतव़दा लेखकं की शुंखल़ मं हा देखते हं जह़ँ वह ऽमथ को नइ कदश़ देकर, आसके ऄददर नए ऄथय ग्रहण करव़त़ है। ईसके ऩंक ‘मेदना’ को ऩरा-चेतऩ के प्रसंग मं देखऩ ज़रूरा हो ज़त़ है। आस ऩंक की प़ि़ सिरजात कौर की ऱजसा अक़ंक्ष़यं बहुत प्रबल हं। वह ऄपने ऱजसा लक्ष्य की पीर्णत के ऽलए, ऄपना बेंा मनदाप के प्रेम को भा, ऄपना ऱह क़ रोड़़ समझता है और आस रोड़े को ऱस्ते से हं़ने के ऽलए ऄपना बेंा मनदाप क़ क़त्ल करव़ने से भा गिरेज नहं करता। ऐसे हा ईसके एक ऄदय ऩंक ‘तस्वाऱं’ मं तान औरतं की ऽभन्नऽभन्न संवेदऩ की प्रस्तिऽत होता है। एक औरत वह है जो ईम्रभर ऽवव़ह नहं करव़ता। ईसको ऄपने आस िै सले पर कभा गवय होत़ है और कभा दिख। पर, ऄसल मं वह एक़कीपन के दिख की संवेदऩ हा भोग रहा होता है। दीसरा औरत ने प्रेम ऽवव़ह ककय़ होत़ है जो ऄसिल रहत़ है। वह आस प्रेम मं ख़ये धोखे की वेदऩ मं ग्रस्त है जबकक तासरा औरत नइ दिऽनय़ मं अज़़द ख़य़लं के स़थ, अज़़द जावन जाने के ऽलए तत्पर है। परं ति पहला दोनं के तकय ऄनिभव, ईसको जावन मं कोइ ऽनणयय लेने से रोकते हं। स्वऱजबार क़ हा एक ऄदय ऩंक ‘मऽसय़ दा ऱत’(ऄम़वस की ऱत), पि​ि प्ऱऽप्त के ऽलए पिरुष के द्व़ऱ मजबीर की गइ औरत की वेदऩ है जो न च़हते हुए भा गभयप़त करव़ता है। स्वऱजबार क़ ऩंक ‘श़यरा’ पंज़बा ऩंकं मं हा नहं, ऄऽपति समीचे स़ऽहत्य जगत मं ऩरा की ऽवलक्षण पहच़न को ईघ़ड़त़ है। ऩंक मं ऩंकक़र पारो और गिल़बद़स के आश्क संबंधं की ऽनश़नदेहा करत़ है। पारो, गिल़बद़स के स़थ हकीकी आश्क मं हं। परं ति दिऽनय़ आस आश्क को गलत नज़र से देखता है। जगदाश सचदेव़ क़ ऩंक ‘स़वा’ पंज़बा ऩट्ड क्षेि मं ऩरा सरोक़रं क़ प्रमिख ऩंक है। आस ऩंक के कथ़नक मं म़नवाय दिख़ंतं और ररश्तं की भद्दा और

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ि़सकदक ंी ं-िी ं है। आन ररश्तं मं स्त्रा हा करता हं। सम़ज मं ऩरा की ऽस्थऽत कऽवत़ सबसे ऄऽधक श़ऽपत है। गिज्जर कल्चर को सिध़रने के ऽलए पंज़बा के ऩंकक़रं ने रूपम़न करता यह रचऩ व़स्तव मं हर संभव यत्न ककय़ है, ऽजसके िलस्वरूप कम्प्यींर यिग मं भा, दिऽनय़ के हर सम़ज ऩरा-चेतऩ के ऽभन्न-ऽभन्न अय़म मं, स्त्रा के यथ़थय की सहा तस्वार है। ऩंक दुऽिगोचर हो रहे हं। ऽनश़ंत य़दव की मिख्य प़ि़ स़वा के शब्दद ईसके बेचैन ♦♦♦ और सिलगते जज्बं की तजियब़ना करते हं। पंज़बा ऽवभ़ग, कदल्ला ऽवश्वऽवद्य़लय, नइ वह पिनः ऄपने शब्ददं के म़ध्यम से ऄपने कदल्ला पाड़़ग्रस्त ऄतात मं पहुँच ज़ता है। स़वा इ मेल: shellykaur2@gmail.com कभा कि ब़यन होने व़ला बहन है, कभा बेंा ऄनिव़दक संपकय : और कभा पत्ना है। ईसके स्व़ऽभम़न को subhashneerav@gmail.com ईस समय गहरा चों लगता है जब ईसक़ मोब़आल: 09810534373 ♦♦♦ ऱंझी ईसके कदल के भेद नहं समझत़। ऄदल़-बदला मं ऽमले ब़ल पऽत ऱंझी को कऽवत़ कभा पि​ि की तरह प़लता है और जव़न होते ऱंझी की तरि देख, ईसमं से ऄपऩ चमकते शहर मं ऄँधेऱ कह़ँ है हमईम्र तल़शता है। ईसक़ कदल तब ंी ंत़ रुको देखो कदलो मं ऄँधेऱ घऩ है ज्योऽत खरे है जब ऱंझी ईस के प़स अकर बख्तो के स़थ ऽवव़ह करने की ब़त करत़ है। दौड़त़शहर है सबक़ ऄपऩ जह़ँ है ऩंकक़र, स़वा के रूप मं औरत की ऄनंत ऱस्त़ है सफ़र है मगर ज़ऩ कह़ँ है शऽि और त्य़ग क़ बय़न करत़ है। ईपरोि चच़य से यह स्पि है कक पंज़बा ऩंक मं प्रस्तित हो रहा स्त्रा ऄपना यह़ँ चमक है दौड़ है रुकऩ मऩ है संवेदऩओं की दश़ ऽनध़यरण करके , ऩरा मेरे य़र ये शहर ऄपऩ कह़ँ है चेतऩ के एक ऐसे पड़़व पर पहुँच गइ हं जह़ँ वह स्व-पहच़न करने मं समथय हो गइ हर उँचा छत पे ऄमारा को हँसते देख़ है है और असप़स की समझ और संबंध को यह़ँ मि​िऽलसं की जगह कह़ँ है पहच़न सकता है। स्वतंित़ से पहले भ़रताय ऩरा अर्णथक पक्ष से पिरुष पर चल लौं चलं कस्वे को ऄपने व़त़निकीऽलत कमरे मं बैठकर ऽनभयर था, वह पिरुष के स़मने ऄपना आस शहर मं मिहब्दबत भा ऽनगेहव़ं है आच्छ़ओं को प्रकं नहं कर सकता था और धीप को ग़ला देऩ शोषण क़ ऽशक़र होता था। आसक़ क़रण अदत है तिम्ह़रा सम़ज मं ईसको सम़नत़ के सम्म़न क़ न ऽमलऩ थ़। परं ति स्वतंित़ के ब़द ऩरा कभा ब़हर ऽनकलो ज़गरुक हुइ है। वह ऄपने हकं और देखो कतयव्यं के प्रऽत सचेत हुइ है। वह परं पऱव़दा मील्यं मं ऽवश्व़स न रखकर, ऽचलऽचल़ता धीप मं लें़ बच्च़ नए मील्यं की स्थ़पऩ की ओर यत्नशाल दीध पाऩ च़हत़ है है। ईसक़ नवसिचतन ईसको स़म़ऽजक और और ईसकी म़ँ नैऽतक प़बंकदयं से मिऽि कदल़त़ प्रतात होत़ है। पंज़बा ऩंक मं ऩरा के ऽभन्नतसले मं ऽभन्न रूपं मं, ऩरा वेदऩ के ऽभन्न-ऽभन्न ग़ऱ ढोते हुए धऱतल और प्रस़र दुऽिगोचर हुए हं। पंज़बा ऩंक मं ऩरा चेतऩ के ऽनरूपण धीप के ऽखल़ि लड़ रहा है ! के ऽलए ऩट्ड कल़ की दुऽि से ऄनेक ♦♦♦ ऄऽभव्यऽिपीवयक ऽवऽधय़ँ भा ऄथय ग्रहण

चल, लौं चलं

कि छ कऽवत़

ISSN –2347-8764

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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तान कऽवत़

च़हत़ है ऄपने व्यऽित्त्व क़ ऽवस्त़र ब़ड़ के क़ँंे चिभने के स़थ-स़थ भेदने लगे हं त्वच़ के पोर।

ऽपत़ ऽबरव़ बार बहुंा

शऽश सहगल ऽपत़ ♦ ऄबोध बच्च़ देखत़ है ऽपत़ को कभा हँसकर, कभा हैऱन होकर यीँ हा पल-पल बढ़ता है पहच़न। बच्च़ ऄब ऄबोध नहं रह़ समझने लग़ है ऄपने और पऱए क़ फ़कय म़ँ को तो गंध से ज़ऩ थ़ ईसने ऽपत़ क़ व़त्सल्य भा पढ़ने लग़ है अँखं से। ईं गला पकड़ ऄब चलने लग़ है बच्च़ हर ब़र ऽगरने से बच़त़ है ऽपत़ बन गय़ है पय़यय सिरक्ष़ क़ ऽपत़। म़ँ और ऽपत़ के पाछे-पाछे डोलऩ ऄब छोड़ चिक़ है बच्च़ सड़क प़र करत़, वह नहं च़हत़ ईं गला थ़मऩ ईसके मनच़हे क़मं मं रुक़वं बनने लग़ है ऽपत़ स्व़ऽभम़न क़ ऄंकिर िी ं िै लने लग़ है ईसकी ऽशऱओं मं। बच्च़ ऄब जव़न हो गय़ है पर ऽपत़ के ऽलए तो ऄब भा है वह बच्च़ नहं म़नत़ बच्च़ नहं म़नत़ ऽपत़ क़ कदल। ऽपत़ क़ सिरक्ष़-चक्र बदल गय़ है ऄब क़ँं​ं की ब़ड़ मं आस ब़ड़ से मिऽि च़हत़ है बच्च़ ISSN –2347-8764

बीढ़े पहलव़न स़ एक और हं गय़ है ऽपत़ ईसकी सिचत़एँ बच्चे को लगने लगं हं व्यथय क़ प्रल़प। अज हैऱन है ऽपत़ बच्चे के ऽपत़ बन ज़ने पर अ गइ है ईसमं यह कै सा तब्ददाला ऄब वह बच्चे क़ ह़थ थ़म संभ़लत़ है और देत़ है ईसे ऄपऩ सिरक्ष़-चक्र। ऽपत़ के च़रं ओर ईगा कँ ंाला खर-पतव़र धारे -धारे ऄपना चिभन खो रहा है ढी ँढ ऽलय़ है ईसने ऱस्त़ अज नए ऽपत़ की ओर। ♦ ऽबरव़ ♦ य़द अता है तिम्ह़रा ब़त कह़ थ़ तिमने एक कदन अओ ऄँधेरं को चार कर ब़हर ऽनकलं ईग़ लं ऄपना हथेला पर सीरज ह़ँ सीरज ऽजसके त़प से सभा प़प जल ज़एँ और भा एक ब़त कहा था रोप दं एक नदह़ पौध़ कदल की बंजर होता ज़मान पर ऽमलकर संचं ईसे एक-एक कंपल के स़क्षा बनं। ऄभा वक़्त है वह नदह़ पौध़ धारे -धारे बढ़ने लगेग़। ऽबरव़ तो रोप़ कंपल भा िी ंा पौध़ भा बऩ बनकर हररय़ला पर मन ऽबरव़ वैस़ हा बंजर

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

न कंपल, न पि़। बार बहूंा ♦ कल ऩना ने बच्चा से कह़ क्यं रोता है आतऩ रो-रो कर अँखं बार-बहूंा सा ल़ल कर रखा हं। बच्चा की अँखं मं अँसी की जगह प्रश्न स़ तैर गय़ शब्दद – बार बहूंा रोऩ भील पीछने लगा आस शब्दद क़ ऄथय। भल़ ऄब ऩना क्य़ जव़ब देता यं हा कह़ना की भ़ष़ मं बोला बहुत पहले जब तेरा ऩना बच्चा था तब होता था बरस़त झम़झम एक कदन, दो कदन, कइ कदन लग़त़र रुक-रुक कर बरसत़ थ़ प़ना स़वन के आसा मौसम मं न ज़ने कह़ँ से ऽनकल अता थं सिख़य ल़ल मखमल के मोता सा बारबहूरंय़ँ। गाला ऽमट्टा मं हौले-हौले चलता ज़तं ऽमट्टा पर सिसदीरा ंाक़ सा लगतं छी ने भर से कछि ए की तरह ऄंग ऽसकोड़ ऽस्थर हो ज़तं धरता क़ ल़ल ंाक़ होता थं बारबहूरंय़ँ। पर ऽबरंय़ ऄब कह़ँ से कदख़उँ तिझे बरस़त देखने को हा तरसता हं अँखं धरता और मन दोनं हा प्य़से गाल़ मन, गाला म़ंा सभा से दीर हो गईं हं ऄब बार-बहूरंय़ँ। ♦ एफ़-101, ऱजौरा ग़डयन, नइ कदल्ला-110027 फ़ोन: 9899166929

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संस्मरण

लस्ं िॉर ल़इि (सळगत़ं सीरजमिखा)

मीसल़ध़र बरसता संवेदऩ बकि ल दवे भ़व़निव़द : पंकज ऽिवेदा 1977 के वषय मं सिरंरनगर ऽजल़ पिस्तक़लय मं कि छ न कि छ ढी ँढने की कोऽशश मं ऄरसिवग स्ंोन क़ ईपदय़स 'लस्ं िॉर ल़इि' क़ ऽवनोद मेघ़णा ने ककय़ हुअ गिजऱता ऄनिव़द 'सळगत़ं ज्व़ऴमिखा' मेरे ह़थ मं अय़ । डच ऽचिक़र ऽवदसं​ं व़नगॉग के कल़ जावन पर अध़ररत आस ईपदय़स को मं पढ़ गय़ । ईसने मेरे मन पर एक ऄमां छ़प छोड़ दा और ह्रदय को भागो कदय़ । ईसके ब़द ककसा भा ऽचिक़र के ब़रे मं कहं कि छ भा पढी ं य़ ऽचि देखीं तब ऄऩय़स ऽवदसं​ं व़नगॉग मेरा स्मुऽत के स़थ जिड़ ज़यं । किर से एकब़र 'सळगत़ं ज्व़ऴमिखा' पढ़ने की इच्छ़ मं ताव्रत़ प्रबल ज़एं । किर तो सिरंरनगर के पिस्तक़लय मं ईस ईपदय़स को बहुत ढी ँढ़ मगर कभा भा न ऽमल़ । बेरोज़ग़रा के ईन कदनं मं पैसे खचय करके पिस्तक खरादने की मेरा हेऽसयत हा न था । ऽपछले जनवरा मं मिझे ऄहमद़ब़द ज़ऩ हुअ । मं ऄपने ऽचिक़र ऽमि महेदर ऽमस्त्रा के स्ंी ऽडयो मं बैठ़ थ़ । महेदरभ़इ ऄहमद़ब़द के दो ज़नेम़ने प्रक़शकं के पिस्तकं क़ मिखपुष्ठ तैय़र करते हं । ईदहं ने ऄंल ऽबह़रा व़जप़इ जा के कऽवत़ संग्रह क़ भा मिखपुष्ठ बऩय़ है । महेदरभ़इ के स्ंी ऽडयो मं, बच्चं क़ ऽवस्मय ऄपना अँखं मं अंजकर मं ईनके के नव़स देखत़ थ़ । तब ऄच़नक हा मिझे पीवयजदम की स्मुऽत की तरह ऽवदसं​ं व़नगॉग क़ स्मरण हो अय़ । 'क्य़ सोच रहे हं?' महेदरभ़इ ने पीछ़ । 'मिझे...' मंने कह़, 'ऽवदसं​ं की य़द अ गया आसा क्षण । ईनक़ संघषयमय जावन और वो ऽचिकल़ को ककतऩ समर्णपत थ़ वो य़द अत़ है । अपने ऽवदसं​ं व़नगॉग पर अध़ररत ईपदय़स पढ़़ है न?' महेदरभ़इ के चेहरे पर ऽस्मत ईभर अय़ । 'ऽवनोद मेघ़णा ने जो ऄनिव़द ककय़ है, अप ईस 'सळगत़ं ज्व़ऴमिखा' की ब़त करते हं न?' 'ह़ँ ।' 'मं ि़आन अट्सय क़ छ़ि थ़ तब मंने वो ईपदय़स पढ़़ थ़ ।' 'अपके प़स वो ईपदय़स है?' ISSN –2347-8764

'मेरे प़स तो नहं है, मगर गीजयर प्रक़शन मं से जरूर ऽमल ज़एंग़ ।' ऄब तो ईसक़ ज्य़द़ हा अकषयक और पिन:ऄनिकदत संवर्णधत संस्करण कै स़ होग़? वषं के ब़द ऽमलते स्वजन को मनभर देखने क़ ह्रदय मं अतिरत़ हो वैस़ ऄनिभव हुअ । ईसा श़म को मंने 'सळगत़ं सीरजमिखा' मंने खराद ऽलय़ । पिस्तक जल्दा पढ़ने की जल्दब़जा जो था । ऄहमद़ब़द की मेरा मिल़क़़त क़ समय कम करते हुए मं जल्दा लौं गय़ सिरंरनगर । 'सळगत़ं सीरजमिखा' ईपदय़स मेरे घर मं पलंग पर सोते हुए और झीले पर झीलते हुए पढ़ना था । ईन्नास स़ल ब़द किर से एक ब़र, जनवरा महाने की श़म मंने 'सळगत़ं सीरजमिखा' क़ पठन शिरू ककय़ । एक सप्त़ह तक वो पठन चलत़ रह़ प्रऽतकदन ऱत को । मिझे ईस दौऱन ऐस़ लग़ करत़ कक समग्र संवेदऩ को ईज़गर कर – मेरा चेतऩ को मशगील कर देने व़ला ऄऽद्वताय पठनय़ि़ मं से मं गिज़र रह़ हूँ । 'सळगत़ं सीरजमिखा' है तो ऽवदसं​ं व़नगॉग के कल़जावन को ऄंककत करत़ ईपदय़स हा । मगर ईसमं कल्पऩ के रं ग बहुत कम है, यथ़थय ज्य़द़ है । 'लेखकीय' मं ऄरसिवग स्ंोन ऽलखते हं कक पीरे ईपदय़स के कि छ व्यथय ऽहस्सं को हं़य़ गय़ है । ऐसा तकनाकी रज़़मंदा ला है ईसे ब़द करते हुए पिस्तक हकीक़त क़ दस्त़वेज है । ऄरसिवग स्ंोन को ऽवदसं​ं व़नगॉग पर ईपदय़स ऽलखने की प्रेरण़ कै से हुइ ईसकी ज़नक़रा पिस्तक मं शिरुअत मं 'लेखक क़ ऽनवेदन' मं ऽमलत़ है । ईदहं ने ऽलख़ है ; 'मंने धमय से जिड़े हुए एक ल़ख से ऄऽधक ऽचिं को देख ऽलय़ । मं ऄसमंजस मं थ़ । मिझे ईन ऽचिं मं कि छ समझ नहं अत़ थ़। मंने ऄपने अप से कह़- ऽचिकल़ एक सिंदर म़ध्यम होग़ मगर मेरे ऽलए कोइ सददेश नहं, मेरा समझ मं ऐस़ तो नहं ।' ईसके ब़द लेखक ऄपने ऽमि रोज़न बगय गेलरे ा मं ऽवदसं​ं के ऽचिं क़ प्रदशयन देखने ज़ते हं, ईद़सानत़ से । तब ईदहं ने ऽवदसं​ं क़ ऩम भा सिऩ नहं थ़ । ऄरसिवग स्ंोन अगे ऽलखते हं कक 'रोज़नबगय गेलरे ा मं ऽवदसं​ं ने अलय मं बऩये हुए पच़स के कराब चमकते के नव़स देखकर

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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मंने जो ऄनिभव ककय़ वो पहले कभा नहं हुअ थ़ । कदग्मीढ बनकर मं खड़़ हा रह गय़ । सोचने की य़ स़ंस लेना की शऽि भा ऽपघल गइ । दो ऽमनं खड़़ थ़ य़ बास ऽमनं वो भा भ़न न रह़ । अऽखरक़र बड़े यत्न के स़थ मंने ऄपने अप को गेलेरा की नज़रबंदा मं से छि ड़व़य़ । मिझे लग़, मिझे लग़ कक मिझे आतना गहऱइ तक छी ने व़ले, पीऱ जावन मं ऄंध रह़ ऐसा उमी से सजग कर देने व़ल़ यह पिरुष कौन थ़ ?' लेखक की नंद ईड़ गइ । ऱत को यक़यक ज़ग ज़ते लेखक के मन मं ऽवदसं​ं और ईनक़ भ़इ ऽथयो के बाच के संव़द ईभरने लगे । ऽवदसं​ं के स़थ जिड़े हुए स्थ़नं के वणयन ईनके ऽचि मं ईभरने लगे। ऽवदसं​ं ने लेखक के मन पर ऄपऩ स़म्ऱज्य जम़ कदय़ थ़ । और ईसा के िलस्वरूप ऽलख़ ज़त़ है लेखक क़ प्रथम ईपदय़स : 'लस्ं िॉर ल़इि' । 'लस्ं िॉर ल़इि' ऽचिक़र ऽवदसं​ं व़नगॉग की वेदऩ-संवेदऩ के त़नेब़ने से ऽज़दद़ चमड़ा ईधेड़ ला ज़एं ऐसा ऄनिभीऽत व्यि करता हुइ उमी से सऱबोर और ऽनत़ंत रमणाय कथ़ है । ब़ररश के मौसम मं बहता हुइ रम्यघोष़ जैस़ धसत़ हुअ ऽनऩदपीणय प्रव़ह मं बहकर भ़वक धदय हो ज़त़ है । ज्य़द़तर ऐस़ होत़ है कक मील ईपदय़स ऽजतऩ सिंदर हो ईसकी तिलऩ मं ईनक़ ऄनिव़द कमज़ोर होत़ है। ऄनिव़दक क़ अयऩ आतऩ गदद़ होत़ है कक मील रचऩ क़ सिंदर चेहऱ भा कि रूप कदखने लगत़ है । मगर सदभ़ग्य से यह़ँ ऐस़ नहं हुअ है। यह़ँ तो गिजऱता भ़ष़ मं श़यद हा देखने को ऽमले ऐस़ यह ऄनिव़द ऄत्यंत सिव़च्य और प्रव़हा है । ऄनिव़द की भ़ष़ मं मील रचऩ की खिश्बी है । ईसा खिश्बी मं भाग ज़ते हं । ऄनिव़दक के रूप मं ऽवनोदभ़इ मेघ़णा ने ऄपने आस क़यय को ऄत्यंत ईज्जवल बऩय़ है, ईसके ऽलए ईदहं तो सल़म हा करना पड़ं । ऽवनोदभ़इ ऄपने क़यय के प्रऽत ककतने सऽन्नष्ठ है और पीणयतय़ Perfection के ऽलए अग्रहा है ईसक़ पररचय 'सळगत़ं सीरजमिखा' के ऄंत मं ऽलखे ऄनिव़दक के ऽनवेदन – 'स्मुऽतपथे... कर कर लम्बा ब़ंय...' मं ऽमलत़ है । ISSN –2347-8764

ऽवनोदभ़इ ऽलखते हं ; 'एक कदन मील ऄंग्रेज़ा पिस्तक लेकर दशकं पिऱऩ मेऱ ककय़ हुअ ऄनिव़द सिध़रने को बैठ़ । शब्दद शब्दद और व़क्य व़क्य मं ऄनिव़द की कमज़ोरा मेरे स़मने ऽवकु त ह़स्य करने लगा । ऐसे मह़न लेखक के आतने पररश्रम से गड़े हुए शब्ददं – व़क्यं के ऄऽवच़रा संक्षेप करने की धुित़ के बदल मेऱ मन लऽज्जत हो गय़ । ईस शमय के बोज तले अज भा मं दब ज़त़ हूँ और प्ऱथयऩ करत़ हूँ कक वो मील ऄनिव़द ककसा की नज़र मं न अएं ।' ऽवनोदभ़इ की ऐसा ऽनष्ठ़ के क़रण हा 'सळगत़ं सीरजमिखा' म़नं मील गिजऱता भ़ष़ मं हा ऽलख़ गय़ हो ऐस़ ऄनिभव होत़ है । यह़ँ प्ऱयोऽजत ऄनिव़द की भ़ष़ मं संगातमय लय है और ऽनरं तर सरल गऽत भा है । भ़ष़कीय ल़ऽलत्य क़ सघन स्पशय भा है ईनमं । दुश्य और वणयन मं ब़राक नक्क़शाद़र क़यय हुअ है । संव़द मील रचऩ मं से बहुत हा सरलत़ से ईतर अएं हं । ईसमं जावन प्रऽतऽबम्बत होत़ है । कि ल अठ खंडो मं – जह़ँ जह़ँ, जो जो स्थ़न ऽवदसं​ं के ऽलए क़ययक्षेि बने थे ईससे संलग्न कि ल अठ खंड और 501 पुष्ठं के ऽवश़ल िलक पर ऽवस्तुत आस ईपदय़स मं मन और ह्रदय को श्रेष्ठ पठन तुऽप्त से भागौ दे ऐसे वणयन, सम्व़द और गद्यखण्ड हं । ईसमं कि छे क को अपके स़मने रखे ऽबऩ नहं रह सकत़ । 'हम़रा सीझबीझ से ईठते सीर को इम़नद़रा से ऄनिसरण और ईसक़ अखरा मील्य़ंकन सवयशऽिम़न पर छोड़ दं । सुजनह़र की सेव़ मं कि छ म़गय ग्रहण करने के ऽलए तिम्हं आस पल मं ऽवश्व़स हो तो वो श्रि़ तिम्ह़रे भऽवष्य के ऽलए एकम़ि प्रक़शस्तंभ है; ईसके उपर ऽवश्व़स करने मं संकोच मत करऩ ।' (पुष्ठ-३६) 'सुजऩत्मक कल़ मं से ऽमले ऄनिभव से पीणय शि​ि ऄऽत ईल्ल़स और श़श्वत पररपीणत य ़ के ऽचरं तन भ़व ईदहं ने प्रभिसव े ़ मं से भा प्ऱप्त नहं ककए थे ।' (पुष्ठ-९३) 'प्ऱरम्भ मं सद़ हा कि दरत कल़क़र को ऄवरोधत़ है...' (पुष्ठ-१०९) दीसरे ऽचिक़रं के ऽचिं को पिन: ऄंककत करने से ि़यद़ होग़ ऐस़ म़नने व़ले ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

ऽवदसं​ं को फ़्ऱंस के प्रऽसि ऽचिक़र मोवे ने कह़; 'नोनसेदस ! तिम्हं सुजन करऩ हो तो जावंत सुऽि मं प्रवेश करो । नक़ल मत करो' (पुष्ठ-१२३) कक्रस्ंान ऩमक वेश्य़ ऽवदसं​ं को कहता है; 'सीऩ लगत़ होग़ न ?' 'ह़ँ, भय़नक ।' 'मिझे भा ऐस़ लगे, कभा । घर पे बच्चे है, म़ँ है, भ़इ है, आतने पिरुषं को ऽमलता हूँ तो भा ऄंत मं तो हम सभा ऄके ले हा जाते हं न ? लोग तो ऄनऽगनत हंगे मगर क्य़ होग़? हमं सच मं कोइ पसंद अ ज़एं और ऽमल ज़य तो श़यद... (पुष्ठ-१५७-५८) ऽचिक़र मोव की सल़ह के ऽवरुि ज़कर ऽवदसं​ं कहते हं; 'मिझे जो ऽवषय कदख़इ पड़ंगे ईसक़ मं ऽचि बऩउंग़, अपको कदखे वो नहं ।' (पुष्ठ-१९०) दोनं चिपच़प बैठे रहे । कि छे क दीर ककस़नं क़ किस्त़न थ़ । जावन के दौऱन ऽजस धरता ने ककस़नं ने खिद़इ की था ईसा धरता मं दिऩ कदए ज़ते थे । मुत्यि ककतना स़म़दय घंऩ था ! पतझड़ मं पि़ ऽगरे ईतना स़म़दय घंऩ; थोड़ा सा ज़मान की खिद़इ... एक लकड़ा क़ क्रोस ग़ड़ कदय़ ज़य...' (पुष्ठ-२४५) ऽचिक़र मोव कहत़; आदस़न ऽचि बऩ सकं य़ ईसके ब़रे मं ब़त कर सकं ; दोनं क़यय एक स़थ नहं कर प़एग़ ।' (पुष्ठ३४७) 'कोइ भा ईच्च कक्ष़ की अत्म़ प़गलपन के ऄसर के ऽबऩ नहं रह प़त़ ऐस़ ककसने कह़ थ़, ज़नते हो? एररस्ंोंल ने खिद।' (पुष्ठ-४५२) 'सळगत़ं सीरजमिखा' की सिददर छप़इ और आतने बड़े पिस्तक मं कहं कोइ मिरण दोष नहं हुअ । 'सळगत़ं सीरजमिखा' मं से गिज़रने के ब़द ईसके सम्मोहन मं से ब़हर अऩ ऄसंभव हो ज़त़ है । ककसा सहृदया भ़वक के ऽलए मीसल़ध़र बरसता गाला संवेदऩ मं से गिज़रने की ऽवरल ऄनिभीऽत बन सकता है । 'ल़स्ं िॉर ल़इि' को गिजऱता मं ऄवत़र देकर श्रा ऽवनोद मेघ़णा ने गिजऱता स़ऽहत्य की बहुत बड़ा सेव़ की है । ईदहं ऄऽभनददन ।

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व्यंग्य

सर पर की कते सिनदक कमलेश प़ण्डेय

ऄपने संत कऽव ने ऽजस क़ल मं सिनदक को ऽनयरे हा बऽल्क साधे अँगन मं हा कि ंा छव़ कर रखने की सल़ह दा था, तब ईदहं भऽवष्य मं सिनदकं के अक़र-प्रक़र और लोके शन मं अने व़ले क्ऱंऽतक़रा पररवतयनं क़ कि छ ऄंद़ज़ नहं रह़ होग़ । ये वो समय थ़ जब सोशल माऽडय़, िे सबिक अकद न होने की वजह से लोग पाठ पाछे हा सिनद़ कर वक़्त क़ं़ करते थे । हम़रे संत आं स़ना कितरत क़ ये पहली खीब समझते थे कक अपसा सिनद़ के समिऽचत ऄवसर न ऽमलने पर म़नऽसक ऄसंतल ि न और स़म़ऽजक ऄश़ंऽत क़ खतऱ है । पर -निनदा से निनदक की ऊजा​ा का ह्रास तो होत़ है पर नइ उज़य क़ संचरण भा होत़ है । आसऽलए पाठ-पाछे सिनद़ कर उज़य को नि करने की बज़य स़मने खड़े होकर सिनद़ करने को प्रोत्स़ऽहत ककय़ गय़ । संतं ने आसा क्रम मं अगे चलकर आसकी सहूऽलयत को बढ़ने के ऽलह़ज से सिनदक को एकदम ‘ऽनयरे ’ हा रख लेने क़ सिझ़व कदय़ । पर बासवं सदा के बातते-बातते घरं से अँगन नद़रद हो गए । ऄगर होते भा तो, एक कि रंय़ बिक करने मं आतऩ खच़य अने लग़ कक बिक करने क़ ख्य़ल तक मन मं अने के ब़द अदमा ऄपने सगं को भा नज़र-ऄंद़ज़ करने लगे। ब़ज़़र ने आं स़ना कदम़गं मं बज़ंओ-ऽबल के आतने बव़ल भर कदए कक पर सिनद़ क़ रचऩत्मक क़म करने के ऽलए वक़्त कम पड़ने लग़ । छोंा-छोंा इक़इयं मं बं​ं़ मध्य-वगय छोंे-छोंे स्तरं, जैसे स़स-बहू, प़स-पडोस अकद पर सिनद़-कमय संपन्न करने लग़ तो बड़े लोग बड़ा-बड़ा प़र्टंयं मं ज़म से चिऽस्कय़ं लेकर यहा क़म करने लगे । संत-व़णा के ऄनिस़र ऄब घर पर ऄपने ऽनजा सिनदक प़लने ISSN –2347-8764

की ज़रूरत भा नहं रहा । खिले ब़ज़़र के दौर मं ऄदय क़मं की तरह सिनद़ कमय को भा पेशव े र तराके से संपन्न करने व़ले हज़़रो स़ंस्थ़ऽनक, प्ऱयोऽजत य़ शौकक़य़ सिनदक ऄब चहुँ ओर की कते ऽमलने लगे हं । अपके अँगन की बज़य एक दम बेडरूम मं लंके ंावा स्क्रीन पर हा मिस्कऱते, खंसे ऽनपोरते, भ़विक होकर डबडब़ ज़ते य़ किर शेर की तरह दह़ड़ते हुए ये सिनद़ कमय मं संलग्न कदख ज़ते हं । सिबह-सिबह ऄखब़र खोलते हा ईसके पन्ने कइ श़श्वत ककस्म के सिनदकं के व्यिव्यं से पिते ऽमलते हं ऽजनमं सिनद़ के ईन शब्ददं की भा सिनद़ करने व़ले श़श्वत हा ककस्म के प्रऽत-सिनदकं के बय़न भा श़ऽमल होते हं । कि छ मिद्दं पर ये परस्पर ऽवरोधा सिनदक एकमत होकर जिगलबंदा मं ऱग-सिनद़ क़ ग़न करते हं । प़ककस्त़न द्व़ऱ हम़रा धरता पर प्ऱयोऽजत अतंकव़द ऐस़ सबसे प्रमिख मिद्द़ है । सोशल माऽडय़ के अ ज़ने के ब़द तो सिनद़ -रस के आस कोरस गान मं अम जनत़ क़ स्वर भा जिड़ गय़ है । सिनद़ की मौऽखक ऽमस़आलं के घनघोर ऩद से कि छ देर के ऽलए तो अतंक और ईसके प्रणेत़ जरुर हा ऄधमरे हो ज़ते हंगे । पर आस शऽि -प्रयोग से क्षीण व् ऊजा​ा मवहैीन होकर सिनदक भा थक कर अँख मीँद लेत़ है । वो म़न लेत़ है कक ऽनदद़स्त्र चल़ कर ईसने सेऩ और सिरक्ष़ ब़लं के शहादं की ऄक़लमुत्यि क़ भा प्रऽतशोध ले ऽलय़ है । आस प्रक़र अधिऽनक यिग मं सिनद़ करने मं गंग़ नह़ लेने जैस़ ऽनवुऽि भ़व है । प़ककस्त़न बनने से ऄब तक आस नज़दाकी पड़ोसा के कु त्यं पर ऽजतने सिनद़-प्रस्त़व प़ररत हुए हं ईदहं संकऽलत ककय़ ज़य तो संऽवध़न से भा मों़ ग्रदथ बन सकत़ है ।

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स़वयजऽनक सिनद़ के कइ प्रक़र हं- स़दा य़ शि​ि सिनद़, कठोर य़ कड़ा सिनद़, घोर य़ घनघोर सिनद़ और आसक़ ईच्चतम स्तर भत्सयऩ । सिनद़ ऄब हम़रे सम़ज मं कदनचय़य मं श़ऽमल है । ऽजसमं कइ ब़र बहता गंग़ मं ह़थ धोने य़ लगे ह़थं ऽनबं़ ड़लने अकद क़ भ़व होत़ है । साधा-स़दा सिनद़ ऄब कम हा होता है, लोग ब़त-बेब़त मं साधे भत्सयऩ तक अ ज़ते हं, च़हे म़मल़ मोहल्ल़-स्तर के फ्रेंडला छेड़-छ़ड़ क़ हा क्यं न हो । स़ंस्थ़ऽनक, प्ऱयोऽजत, पेशव े र हं य़ शौकक़य़, सिनदक सिनद़ क़ क़म संपन्न करने के ब़द श़ंत होकर सिनद़-योग्य ककसा कु त्य य़ घंऩ की ऄगला खेप क़ आं तज़़र करने लगत़ है। आस बाच प़ंय ं़आम मं बस एक़ध व्यऽियं व व्यिव्यं की ि​ि ंकर सिनद़ कर लेत़ है । हम़रे ये स़वयजऽनक सिनदक पोपिलर संरंमं​ं की भड़़स हं । संस्थ़एं ऄब ऄपऩ प्रवि़ और चैनल ऄपने एंकर चिनते हुए ध्य़न रखता हं कक वह सिनद़ करने मं ककतना ईं च़इय़ं य़ ऽनच़इय़ँ छी सकत़ है। ककसा अम सिचत़ के मिद्दे पर अपके मन मं घिमड़ते अक्रोश की चाख को जो कक आन कदनं ‘ककस ब़त पर नहं अता’ । ये सिनदक न ऽसिय ऄपना ईच्च डेसाबेल क़ंव-क़ंव से व्यि कर अपको ऱहत देते हं । बऽल्क अपकी भ़वऩ के प्रऽतपक्ष से ऄपना ईतना हा भत्सयऩ ईतने हा उँचे सिर मं करव़ कर अपके गिस्से पर प़ना भा डलव़ते हं । आस तरह ये सम़ज के क़ग हं जो क़ंव-क़ंव करते, कभा-कभा अपके सर पर ठोकते ऄपने ज़ने लग़त़र अपको सचेत रखते हं। हम़रा परं पऱ ने क़गं को कि छ और भले क़म भा सौपे हं, जैसे ऄऽतऽथ की अहं देऩ, जो कक वतयम़न यिग मं भा एक बेहद जिरुरा ऄलंय है । ब़की ऄपना चंच से कचऱ बानने और आस क्रम मं ईसे और ज्य़द़ ऽबखेरऩ तो आनक़ श़श्वत स्वभ़व हा है । वैसे संत कऽव की व़णा को ऄपने जावन मं हर शराि अदमा ईस वि ईत़र हा लेत़ है । जब श़दा कर के ऄपने सबसे परम सिनदक को ऄपने आतने ‘ऽनयरे ’ ल़ कर रख लेत़ है कक वो ऄध़ंऽगना हा बन ज़ता है । ISSN –2347-8764

किर ईसके ऽलए औक़त भर कि ंाय़, फ़्तलैं य़ कोठा बऩने और ईसमं ईसे खिश रखने के ईप़द़न बंोरने मं जावन ऽनक़ल देत़ है । आस अदमा के हर ऄच्छे बिरे कमय मं स्वयं स़झाद़र होते हुए भा ईसकी ये सिनदक ऽनरं तर ईसकी सिनद़ क़ क़म मिस्तैदा से ऽनभ़ता है । आस ऽनरं तर सिनद़ के सिरक्ष़ घेरे मं बंद़ शराि अदमा बऩ रहत़ है, य़ना हमेश़ सिरक्ष़त्मक मिऱ मं रहऩ साख लेत़ है और अक्रोश, गिस्स़, अक्ऱमकत़, अत्ममिग्धत़ जैसा बिऱइयं से बच़ रहत़ है । अप च़हं न च़हं, संत कऽव की व़णा के ऄनिस़र सिनदक सद़ अपके ऽहत मं अपके अस-प़स हा बने रहंगे । आदहं इश्वर क़ वरद़न म़न लं और बेरोक-ंोक ऄपने ऽनकं ि​ि दकने और क़ंव-क़ंव करने दं।

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बा-260, पॉके ं-2, के दराय ऽवह़र, सेक्ंर-82, नोएड़ (ई.प्र.)-201304

लघिकथ़

दापक क़ तेल

डॉ. ऄवऽदतक़ सिसह लक्ष्मा ऄँधेरे मं घर की ंी ंा दाव़र के सह़रे बैठा था । घर के स़मने कि छ दीर पर ऽवश़ल पापल क़ वुक्ष थ़ । ऽजसके च़रं ओर कि छ अस्थ़व़न व्यऽियं द्व़ऱ जल़ये गए तेल के दापकं क़ प्रक़श रंमरंम़ रह़ थ़ । वह प्रक़श अस-प़स के व़त़वरण को प्रक़शमय कर रह़ थ़ । कि छ प्रक़श लक्ष्मा के घर तक भा अ रह़ थ़ । जैसे-जैसे ईन दापकं क़ तेल कम होत़ ज़ रह़ थ़ वैसे-वैसे ईनकी रोशना मध्यम पड़ता ज़ रहा था । ठाक वैसा हा एक ज्व़ल़ लक्ष्मा के भातर भा जल रहा था और वह था भीख-प्य़स की ज्व़ल़, ऽजसमं ईसकी क़य़ धारे -धारे क्षाण होता ज़ रहा था । ईन अस्थ़व़न व्यऽियं द्व़ऱ जल़ए गए दापकं क़ तेल अस-प़स के व़त़वरण को तो रौशन कर रह़ थ़ परदति ककसा आं स़न की भीख ऽमं़ने मं ऄसमथय थ़ ।

♦♦♦ ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

लघिकथ़

सिध़र मंजी शम़य

सनकी रॉय स़हब ऑकिस से घर अये तो ईनके ह़थ मं ऽमठ़इ के दो ऽडब्दबे देख कर ईनकी पत्ना ने शंककत हो ईल़हऩ देते हुए पीछ़ ऽलय़ ; "अज ये ऽमठ़इ, ककस ख़ुशा मं?" "ऄरे हम़रा पोसिस्ंग पठ़नकों हो गइ है स़म़न ब़ँध लो, मीवमं​ं ऑडयर भा ऽमल गय़ है। दो कदन मं ज्व़आन करऩ है। दस कदन मं मक़न ख़ला करऩ है और ये ऽमठ़इ मं नहं ल़य़ हूँ । छोंे स़हब और बड़े स़हब ने पोसिस्ंग की बध़इ और नसाहत स़थ दा हं कक वह़ँ पर ज्य़द़ ऽनयम क़नीन झ़ड़ कर ककसा को परे श़न मत करऩ। सबके स़थ ऽमल कर क़म करऩ सबके स़थ सबक़ ऽवक़स की नाऽत मं सहयोग करऩ। ऩ कक यह़ँ की तरह खिद भा भीखे प्य़से रहे और नाचे से उपर तक सबको भा भीख़-प्य़स़ रख़, हम़रा शिभक़मऩएं सदैव अपके स़थ रहंगा।" रॉय स़हब ने स़म़दय लहजे मं बत़य़ । "ईफ्ि!! अप सिधरते क्यं नहं? मं तो तंग अ गइ हूँ । स़रा सिजदगा स़ल मं दो-दो तान -तान पोसिस्ंग झेल कर, बंज़रं सा सिजदगा जाने मं तम़म ईम्र ऽनकल गइ।" ऽमसेज़ हर पोसिस्ंग पर ज़ने से पहले की तरह किर बड़बड़़ने लगं । "ऄरा भ़गव़न बस दो-च़र ब़र और झेल ले, नौकरा के एक-डेढ़ स़ल तो बचे हं।" ऽमसेज़ रॉय-"ह़ँ शेखर दस कदन की छी ट्टा लेकर अ ज़ओ, स़म़न पैक करने मं मदद कर देऩ, ऄब मिझसे ये सब ऄके ले नहं होत़।" थके थके से स्वर मं बच्चं को िोन करने लगं । ईधर से जव़ब सिन कर ईनके चेहरे पर ऱहत भरा हल्की सा मिस्क़न तैरता देख ऽमस्ंर रॉय पीछने लगे । "भ़गव़न बड़ा मंद मंद मिस्कऱ रहा हो, क्य़ कह रह़ थ़ शेखर?" ईन पर ताव्र दुऽि ड़ल कर ऽमसेज़ रॉय बोलं-"कह रह़ थ़, प़प़ कभा नहं सिधरं गे।" ♦♦♦

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संस्मरण

सिबह होने तक अच़यय बलवदत बच़ओ! बच़ओ! की पिक़र सिनकर यह समझने मं देर नहं लगा कक पीरब से अनेव़ला अव़ज़ ऱमनगाऩ ब़बी के घरव़ला की है। लिंेरे लींप़ं मं लगे थे, मऩ करने पर म़रपां भा रहे थे। रह-रहकर व़त़वरण के सन्ऩंे को चारता, वहा कदल दहल़ देनेव़ला अव़ज़ हम़रे क़नं से ंकऱकर व़त़वरण मं ऽवलान हो ज़ता था। ईस समय हम लोग एक कमरे मं बंद थे। नज़र रखने के ऽलए ईनक़ एक अदमा बददीक ऽलये ब़हर खड़़ थ़। दो-ढ़इ घण्ंे पहले की ब़त था। ईस समय ऱत के ब़रह बजते रहे हंगे। अँखं मं नंद न था। कि छ देर पहले से हा मं कमरे के अस-प़स लोगं की अव़ज़हा महसीस कर रह़ थ़। मन ककसा ऄनहोना अशंक़ से घबऱ रह़ थ़। तभा ककसा ने दरव़जे पर दस्तक दा। क्य़ करूँ, क्य़ न करूँ की ईह़पोह मं कि छ समझ नहं सक़। ऽपछले दरव़जे से ऽनकल भ़गने की ब़त भा नहं सीझा ईस समय। न च़हते हुए भा जब मंने दरव़ज़ खोल़, ब़हर क़ दुश्य देखकर ऄव़क् रह गय़। च़र बददीकध़रा मिझे च़रं ओर से घेर ऽलये। एक ने रोबाला अव़ज़ मं मिझे चिपच़प बगलव़ले कमरे मं चलने की ब़त कहा। ऄच्छा तरह य़द है, ठाक ईसके पहले ईसने शोर मच़ने पर गोला म़र देने की ब़त भा कहा था। एक ने तो मेरे साने पर बददीक लग़ भा दा था। बगल के कमरे के ऄंदर क़ दुश्य कम चंक़नेव़ल़ न थ़। पड़ोसा पररव़र के स़रे सदस्य वह़ँ मौजीद थे। पररव़र के मिऽखय़ की म़ँ, बहन, बावा और वह ईनसे ऽगड़ऽगड़़ कर ऄपना ऽजददगा की भाख म़ँग रहे थे। मेरे ककऱयेद़र मेव़ल़ल और छऽवऩथ ईकड़ीं बैठे थे। ईनके ह़थ ईनकी पाठ पर बंधे थे। बेच़रे कब से यह ऩरकीय पाड़़ भोग रहे थे, कि छ कह नहं सकत़। तभा एक अदमा ऽजसने ऄपऩ मिँह मिलर से ब़ँध रख़ थ़, कमरे मं द़ऽखल हुअ। एक तो पहले से हा वह़ँ मौजीद थ़। तान-च़र ब़हर भा रहे हंगे। एक ने दीसरे से कह़, ‘ब़हर से ल़ठा ल़ओ और स़लं को पांो। म़स्ंर को मत म़रऩ। पढ़़ -मलखा, समझदार अदमी है​ै, शोर नहैं करे गा। और बुकढ़या, पत़ चल़ है कक ती ऄपना बहू को बहुत सत़ता है, चिपच़प रहऩ-नहं तो गोला म़र दीग ँ ़।’ बिकढ़य़ ‘ऩहं सरक़र, ऩहा सरक़र’ करता हुइ ऄपने ऽनदोष होने की सि़इ दे रहा था और बच्चं को भा चिप रखे था। ISSN –2347-8764

ईनमं से एक ने मेव़ल़ल से पीछ़, “ककतने रुपये ऽमलते हं महाने के ?” “तान हज़र स़हब।” “तान हज़र स़ले, झीठ बोल रहे हो?” “नहं स़हब, सहा कह रह़ हूँ,” मेव़ल़ल ने कह़। डर के म़रे चोर को स़हब कहते सिनकर मिझे हँसा अ गया। “यह सच है कक तान हज़र हा नहं ऽमलते हंगे। लेककन जो ऽमलते हं, ऄभा ऽमले नहं हं श़यद। क्यंकक हर महाने की च़र-प़ँच त़राख को ककऱये के दो सौ रुपये मिझे भा तो देते हं, ऄब तक कदये नहं हं,” मंने कह़। श़यद मेरा ब़त ईसे जँचा। किर वह कमरे से ब़हर ऽनकल गय़ ऄंदरव़ले स़था को दरव़जे पर खड़़ रहने की ऽहद़यत देकर। मेव़ल़ल और छऽवऩथ ब़बी को बहुत देर से पेश़ब लगा था। ईनकी ह़लत मिझसे देखा नहं ज़ रहा था। मंने ईन दोनं के ह़थ खोल कदये और लैम्प की लौ मऽिम कर दा। मऽहल़एं भा ऽनवुि हुईं एक-एक कर। बच्चं ने पेश़ब के स़थ शौच भा कर कदये थे। दमघं​ंी दिगंध कमरे भर िै ल गया था। ऄब तो स़ंस लेऩ भा करठन हो गय़ थ़। प्य़स से ककसा क़ गल़ सीख रह़ थ़ तो कोइ ऄपने ऄदय स़ऽथयं के ह़लच़ल ज़नने के ऽलए परे श़न थ़। बच्चे म़रे डर के म़ँ की गोद मं दिबके थे। सब सिबह होने क़ आं तज़र कर रहे थे। दरव़जे पर एक अदमा को छोड़कर ऄदय स़मने के कु ऽष क़य़यलय मं घिस गये। पहले वे ऑकिस के कमयच़ररयं को ऄपने कब्दजे मं ककये। किर ईदहं के सह़रे ऽडप्ंा ड़यरे क्ंर बेच़रे ईप़ध्य़य जा को भा दबोच ऽलये। ऄंगद ब़बी जो के वल ऩम के हा ऄंगद थे, ककसा प्रक़र बच ऽनकले और शौच़लय मं ज़ ऽछपे। लिंेरे भा कम श़ऽतर न थे। ईदहं पकड़कर जमान पर पंक कदये। ईनमं से एक बीं पहने ईनकी छ़ता पर चढ़ गय़। बेच़ऱ च़र सव़ च़र िीं क़ एकतऽतह़ अदमा चाखनेऽचल्ल़ने लग़, किर चिप हो गय़। मैनेजर सिसह को भा बिरा तरह म़रे -पांे थे सब । सन्ऩं़ ऄददर हा नहं, ब़हर भा पसऱ थ़। ईसकी स़ंय-स़ंय दीर तक सिऩइ दे रहा था। सड़क सीना था। रह-रहकर एक-दो ग़ऽड़य़ँ अऽहस्त़-अऽहस्त़ सरक रहा थं। ज़ड़े की ऱत तो था हा। ऽपछले कदन बींद़-ब़ंदा भा हुइ था। ब़हर कि हऱ आतऩ घऩ थ़ कक प़स की चाजं भा नज़र नहं अता थं। ईसकी बीँदं सड़क के ककऩरे ऽस्थत ऽशराष के पिं से ंपक रहा थं।

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व़त़वरण मं नमा आतना था कक हव़ स़ंस रोके हुए सा प्रतात होता था। किर बच़ओ! बच़ओ! की अव़ज़। सिबह पत़ नहं कब होगा और तब तक क्य़ होग़? मं सोचने लग़। सिबह हुइ। ककसा ने दरव़ज़ खोल़। हम लोग ब़हर अये। ऱत की ब़त जंगल की अग की तरह अस-प़स के ग़ँवं तक पहुँच गया। लोग जिंने लगे। ऽजले के अल़ ऄऽधक़ररयं को व़रद़त की ज़नक़रा दा गया। तत्क़लान पिऽलस ऄधाक्षक ऱधेश्य़म ऽिप़ठा दल-बल के स़थ कु ऽष भवन मं अ धमके । ईनके अते हा क्षेि़ऽधक़रा ऱबंयसगंज भा मौक़-ए-व़रद़त पर ईपऽस्थत हो गये। अस-प़स के कइ थ़नं के ऄऽधक़रा भा ऄपना ईपऽस्थऽत दजय कऱने से नहं चीके। क्षेिाय ऽवध़यक हरर प्रस़द खरव़र ईिय घमड़ा, (जो कभा दस्यि सरगऩ के रूप मं दहशत के पय़यय थे) ग्ऱम प्रध़न दय़ऱम व क्षेि के ऄदय सम्म़ऽनत लोग भा ईपऽस्थत हो गये। अम लोगं की भा ख़सा भाड़ जिं गया, जो वह़ँ हो रहे तम़शे पर तरह-तरह की ऄंकलं लग़ रहा था। सबको लग रह़ थ़ कक ऽजले की पिऽलस व़रद़त मं श़ऽमल प्रत्येक व्यऽि को धर दबोचेगा। पिऽलस ने तहकीक़त शिरू की। ऽजसक़ जो-जो गय़ थ़, हुंि क-हुंि क कर ऽगऩने लग़। एक एच.एम.ंा कोऽहनीर घड़ा, ऽजसे मेरे ऽमि हाऱल़ल कऽव ने कदय़ थ़, जैकें और 250 रु. के कराब मेरे भा गये हंगे। पड़ोसा पररव़र की ऽस्त्रयं के बड़े-छोंे स़रे जेवर और नकदा जो गये थे, बिकढ़य़ रो-रोकर बत़ रहा था। नगाऩ ब़बी के कमरे के ब़हर ंी ंे हुए ख़ला बॉक्स पड़े थे। ईनकी बड़ा बेंा भ़गमना ईदहं ईठ़-ईठ़कर घर मं ले ज़ रहा था। मझला कह़ँ था, नहं म़लीम पर ईनकी छोंा बेंा नाती ऄपने प़प़ के प़स गिमसिम खड़ा था। नगाऩ ब़बी गले पर तौऽलय़ लपेंे आधर-ईधर ंहल रहे थे। एस.पा. ऽिप़ठा ऽडप्ंा ड़यरे क्ंर से औपच़ररक पीछत़छ मं मशगील थे। कभा-कभा हँसा-मज़़क भा करते थे। औपच़ररकत़ पीरा कर कड़ा क़रय व़इ करने क़ अश्व़सन देकर व़पस लौं गये। ईनके ज़ते हा पिऽलस के ऄदय छोंे-बड़े ऄऽधक़रा भा चलते बने। ऱत क़ वह खंफ़ऩक मंज़र कदन मं जब भा य़द अत़ रंगंे खड़े हो ज़ते थे और मन क़ँप ईठत़ थ़। दो कदन पहले तक ऽजन लोगं की हँसा के ठह़कं से व़त़वरण सिखद एहस़सं से सऱबोर हो ज़त़ थ़, अज ईनके चेहरे लंके हुए थे। सब सन्न थे। कोइ ककसा से ब़तं नहं करऩ च़हत़ थ़। दहशत तो आतना था कक सीय़यस्त होते हा सब ऄपने-ऄपने रठक़नं पर अ ज़ते थे। सिबह होने से पहले कोइ घर से ब़हर नहं ऽनकलत़ थ़। दो कदन हुए थे घंऩ के । ऱत स़ढ़े अठ बजे के कराब नगाऩ ब़बी की दो बेरंय़ँ मेरे प़स अयं और बोलं- हम़रे प़प़ प़गल हो गये हं, हम लोगं को म़र पां रहे हं, मम्मा अपको बिल़इ है। जल्दा चऽलए। ऽबऩ कि छ सोचे-ऽवच़रे मं ईनके स़थ हा चल पड़़। आस ब़त की ज़नक़रा मंने ऽडप्ंा ड़यरे क्ंर को भा दे दा। ईदहंने क़य़यलय के ऄदय कमयच़ररयं के उपर नगाऩ ब़बी के देख-भ़ल की ऽजम्मेद़रा संपने के ऽलए ईस कमरे के स़मने ज़कर अव़ज़ देने लगे, ऽजसके ऄंदर दसं लोग रहे हंगे। लेककन न तो ककसा की ISSN –2347-8764

अव़ज़ अया न तो कोइ ब़हर ऽनकल़। ‘स़ले! चीऽड़य़ँ पहन लो’ कहते हुए ईप़ध्य़य जा नगाऩ ब़बी के कमरे की तरि लौं अये। मेरे पहुँचने से पहले हा नगाऩ ब़बी को पकड़कर ईनके ह़थ-पैर ईदहंने ब़ँध कदये थे। ईदहंने मेरे स़थ ऄपने एक चपऱसा को लग़ कदय़। मंने देख़ कक नगाऩ ब़बी एक कमरे मं बंद थे और गमछे से बंधे ह़थं की ग़ंठं द़ँतं से खोल रहे थे। कभा चाखते-ऽचल्ल़ते तो कभा ऄपऩ ऽसर पंकने लगते थे। ग़ऽलय़ँ भा देते थे खीब। मिझे म़लीम थ़ कक ईनकी म़नऽसक ऽस्थऽत ठाक नहं है। ईस ऱत जो हुअ, ईससे आतऩ क्षिब्दध हो गये कक ऽखड़की के शाशे मं ऽसर घिसेड़ कदये। गले पर तो के वल खरंचं अयं लेककन चेहऱ बिरा तरह ऽवदाणय हो गय़। सीजन भा खीब था। चों अँखं पर भा अया था। ग़ऽलय़ँ बकते समय आतने भय़वने लगते थे कक मत पीऽछये। हम दोनं क़ क़म आतऩ भर थ़ कक ऱत भर ककसा तरह ईनको घर मं रोके रहं। अधा ऱत के कराब क्षेि़ऽधक़रा ऱबंयसगंज च़र पिऽलस कर्णमयं के स़थ साधे नगाऩ ब़बी के अव़स पर अ पहुँच़। ईसने सबसे पहले मेऱ ऩम, क़म और ऱत के ब़रह बजे वह़ँ होने क़ क़रण पीछ़। ज़ते समय वह मिझे ऄगले कदन दस बजे कोतव़ला अने क़ भा हुक्म दे गय़। मिझसे ऄके ले मं पीछत़छ जो करना था। लगत़ है पिऽलस की तफ्सास मं लोगं ने बत़य़ होग़ कक म़स्ंर जा को छोड़कर लिंेरं ने सबको पां़ थ़। कोतव़ल क़ व्यवह़र मिझे ऄच्छ़ नहं लग़। ईसके लहज़े मं एक धमकी था। ‘बहुत लम्ब़चौड़़ कि त़य-प़ज़म़ पहने हो म़स्ंर। कल कोतव़ला मं अ ज़ऩ दस बजे’ सिनकर मं सन्न रह गय़ थ़। ऄगले कदन दस बजने से पहले हा दो क़ंस्ंेबल मिझे लेने अ पहुँचे। ईनके स़थ जब मं कोतव़ला पहुँच़, ईस समय ग्य़रह बजते रहे हंगे। क्षेि़ऽधक़रा ब़हर धीप मं च़रप़इ पर बैठ़ थ़। ईसकी ब़यं ओर की कि सी पर एक नेत़ ं़आप क़ अदमा बैठ़ थ़। स़मनेव़ला कि सी ख़ला था। मं ईस पर बैठ़ हा थ़ कक क्षेि़ऽधक़रा ईठ गय़ और मिझे लेकर वह़ँ से कि छ दीरा पर अ गय़। किर बोल़- म़स्ंर स़हब ! अपकी भल़इ आसा मं है कक मं जो पीछीँग़ सहा-सहा बत़आयेग़। “ठाक है सर,” मंने कह़। “वो ककतने अदमा थे।” “जा, च़र लोग।” “ककसा को पहच़नते हं ईनमं से?” “जा नहं।” “क्यं?” “सबके मिँह कपड़े से ढके थे स़हब।” “ईनकी ब़तचात से कोइ ऄनिम़न?” “जा नहं, मंने कह़।” “ब़तचात की भ़ष़ क्य़ था ईनकी?” “सिहदा।” “पढ़े-ऽलखे लग रहे थे?” “जा, शि​ि सिहदा बोल रहे थे।” “क्य़ वो अदमा थ़?”

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“जा नहं।” “क्यं?” “आसऽलए कक ईसके तान बच्चे मेरे स्की ल मं पढ़ते हं। वो ऐस़ नहं कर सकत़।” “ठाक है, ऄब अप ज़ सकते हं, ज़रूरत पड़ेगा तो बिल़ लीग ँ ़।” लोग डरे सहमे थे। घंऩ के एक सप्त़ह के भातर हा ईपऽनदेशक कु ऽष प्रस़र क़य़यलय पा.ए.सा. की एक छोंा छ़वना मं तब्ददाल हो गय़। ऽजधर देऽखए, ईधर पा.ए.सा. के हा जव़न नज़र अते थे। ख़ने-पाने और सोने के ऽसव़य कदन मं कोइ दीसऱ क़म न थ़ ईनको। ऑकिस के स़मने ईनकी बस हमेश़ खड़ा रहता था। सिबहश़म एक दो ब़र स़ग-सब्दजा और ऱशन अकद के ऽलए सड़क पर भा नज़र अ ज़ता था। कु ऽष क़य़यलय के कमयच़ररयं ने भा म़मले को तील देऩ ईऽचत नहं समझ़। सब श़ंत हो गये। नगाऩ ब़बी की तबायत कदन पर कदन ऽबगड़ता हा ज़ रहा था। बच्चे ऽवद्य़लय ज़ऩ बदद कर कदये थे। पत्ना परे श़न था। समझ नहं प़ रहा था कक क्य़ करे , क्य़ न करे । नगाऩ ब़बी को सम्भ़लऩ ईसके वश की ब़त न था। ऽवभ़गाय लोगं ने ईनकी म़नऽसक ऽचककत्स़ कऱने क़ मन बऩय़। ककसा प्रक़र समझ़बिझ़कर ईदहं म़नऽसक ऽचककत्स़लय व़ऱणसा ले ज़य़ गय़। लम्बे समय तक दव़ चला। चेहरे के घ़व तो भर गये, लेककन ईनके कदल पर जो चों लगा था, ईसके ऽनश़न ऄभा भा ईनके स्मुऽत पंल पर ऽवद्यम़न थे। अश्चयय आस ब़त क़ थ़ कक आतना भय़वह व़रद़त के ब़द भा संबंऽधत थ़ने मं एि.अइ.अर तक दजय न हो सकी। ईसके ब़द एक-एक कर चोरा की कइ घंऩएँ घं​ं, लेककन पिऽलस की ईद़सानत़ और ईसके गैर ऽजम्मेद़ऱऩ रवैये से ककसा की ऽहम्मत नहं हुइ कक थ़ने ज़कर ऄपना ब़त कह सके ।

♦♦♦ सिहदा ऽवभ़ग़ध्यक्ष, कमल़ कॉलेज ऑि मैनेजमं​ं स्ंडाज 450, ओ.ंा.सा.रोड, कॉंनपें, बंगलीर-560053 मो. 7337810240 ,9844558064-91 Email- balwant.acharya@gmail.com

दो कऽवत़एँ 1

ऄंजऩ ं​ंडन

ऽजस तरह हवन की वेदा मं धधक कर यौवन के कदन य़द करता है अम और नाम की ईम्रदऱज़ लकऽड़य़ँ। ऽजस तरह बतयन व़ले के पिऱने कपड़ं की पोंला मं बँधा रं गईडा ज़मिना लहररय़ य़द करता है ऄपऩ पहल़ मिस्कऱत़ स़वना ईत्सव । ईसा तरह हररद्व़र के घ़ं पर से बह़य़ हुअ वो ऄऽस्थकलश मंझद़र मं पहुँच कर य़द करत़ है देह के जंगल से प़र हो ककसा क़ मन मं ईतरऩ । सच है ऄवशेषा स्मुऽतयं के ऽलए कोइ मऽणकर्णणक़ घ़ं नहं होत़ ।

2

कभा देखा है क्य़ होता है " मुत्यि गंध" यिगं से बंद ककसा जंग लगे त़ले के प़स से गिज़रो तो महसीस करऩ कोइ ऄवशेष स़ रह़ स्पददन । प्रेम क़ ऩम लेते ककसा ऄऽवचऽलत व्यऽि को देखऩ जड़ होता सीखा बंजर अँखं की खरपतव़र ऽनक़लते हुए । ऽनश़ऽनय़ँ िं कनं से पहले ऄशेष स्मुऽतय़ँ ग़ड़ते हुए कदव़गंत सैऽनक की म़ँ की भ़वहान अव़ज को सिनऩ । ऄंऽतम स़ँसं से पहले ऩऽभ चक्र मं ऄंके ह़ऱ के शेष जिड़व को झंक कर तोड़ने से हा ईपजता है ये ऽवशेष गंध

Dr. Anjana Tandon C- 405, Malviya Nagar Jaipur-302017 Rajasthan

ऄंतमयन मं स्वत: सरस्वता सिख़ने के पश्च़त हा ऽनकलता है ये ऽवशेष गंध ऽचत़ दहकने से पहले हा ककतऩ कि छ मर चिक़ हेत़ है ।

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09314881179 anjanatandon87@gmail.com ISSN –2347-8764

ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

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समाक्ष़

छददं के प्रऽत ईत्कं अग्रह के स़थ सतत कक्रय़शाल रहऩ कइ ऄथं मं महत्त्वपीणय है सौरभ प़ण्डेय स़थयक रचऩकमय श़ऽब्ददक ऄऽभव्यऽि म़ि नहं होत़, बऽल्क यह एक सिगढ़ क़व्य-ऄनिश़ऽसत भ़व-संप्रेषण है । रचऩकमय भ़विक ककदति अग्रहा ऄऽभव्यऽियं के ब़वज़ीद क़व्यऄनिश़सन से ऽजतना दीर ज़त़ है, ईतऩ हा दिरूह और क्षणभंगरि होत़ ज़त़ है । पद्य-रचऩओं को यकद क़़यदे से समझ़ ज़य तो छ़ददऽसकत़, गात़त्मकत़ य़ शब्दद-प्रव़ह कऽवकमय के ऄहम ऽहस्स़ रहे हं । आनकी होता लग़त़र कमा पद्य-प्रस्तिऽतयं को अमजन से दीर लेता चला गया है । यहा क़रण है, कक मि​िछदद की भा ब़त वहा कर सकत़ है, ऽजसे छददं की मीलभीत समझ हो । वस्तितः छददं से रचऩओं की मि​ित़ क़ ऄथय हा सहा ढंग से समझ़ नहं गय़ है । यहा छदद के ऽवरुि व्य़प गये ककसा भ्रम क़ मिख्य क़रण है । एक प्रश्न सहज हा मन मं ईठ सकत़ है, कक श़स्त्राय छददं पर अध़ररत रचऩएँ अज ककतना प्ऱसंऽगक हं ? आनके संकलन य़ संग्रहं की पिस्तक की सम़ज को अज ककतना अवश्यकत़ है ? आन प्रश्नं के स़थयक, सक़ऱत्मक तथ़ अश्वऽस्तक़रक ईिर हं । ऽजनमं एक पहली यह भा होग़ कक अज गाऽतक़व्य ऽवऽभन्न कलेवरं मं, मसलन गातं, नवगातं, तिक़दत कऽवत़ओं, ग़ज़लं य़ मि​िछदद रचऩओं मं ऄपना मिखर गेयत़ के स़थ पिनः मिख्यध़ऱ मं अ गय़ है । आसके स़पेक्ष यह ज़नऩ अवश्यक होग़, कक रचऩ-पंऽियं मं गेयत़ शब्ददं की म़ि़ और ऽवदय़स को समझने से हा सध सकता है, ऽजसके ऽलए छददं की मीलभीत ज़नक़रा ऄत्यंत अवश्यक है । शब्ददं के भ़वपीणय तथ़ सिगढ़ ऽवदय़सजदय प्रयोग ऐसे ऄभ्य़सं से हा सधते हं । छ़ददऽसक रचऩएँ कथ्यऽवददिओं पर तो प्रक़श ड़लता हा हं, छददं की मीलभीत ऽवध़ओं, ईनके ल़ऽलत्य एवं ईनकी ऄवध़रण़ओं के प्रऽत क़व्य-रऽसकं के मन मं ईत्सिकत़ पैद़ करता हं । ऽहददा स़ऽहत्य के भऽिक़ल के दौऱन नाऽतगत और भऽिपरक ईपदेश-रचऩओं की ब़ढ़ था । सि़ के असप़स जमे व्यऽियं की इष्य़यलि मनोदश़, ईनकी कि ण्ठ़, ईनकी महत्त्व़क़क्ष़एँ, ईनक़ व्यऽिगत ऄवस़द पीरे सम़ज क़ अइऩ बन गये थे । यहा क़रण है कक व्य़वह़ररक अचरणं मं ISSN –2347-8764

स्पि कदखते ऐसे ह्ऱस हा नहं पऱभव के स़पेक्ष पद्य-रचऩओं मं ’समझ़आश’ एक मिख्य शैला बन कर व्य़प गइ । आस्ल़मा श़सन-सि़ के आदय-ऽग़दय व्य़पक अध़र प़त़ ज़ रह़ अचरण पीरे स़ऽहत्य, ऽवशेषकर पद्य स़ऽहत्य-म़ि यहा प्रभ़वा स़ऽहत्य थ़ भा-को बिरा तरह से प्रभ़ऽवत करने लग़ थ़ । ऐसे ऽवरीपक़रा व़त़वरण के ऽवरुि प्रऽतक़र की ध्वऽन गीँजना हा था । भऽिक़ल के व्य़पक हो ज़ने क़ मील क़रण यहा थ़। नाऽतपरक छ़ददऽसक रचऩएँ पीरे वेग से व्य़प गया थं । दोह़ य़ दोहरे की ऽद्वपदा के स़थ-स़थ रोल़ छदद क़ भा व्य़पक प्रयोग हुअ । आनके संयोग और संऽश्लित़ की ऽशित़ से एक ऽवशेष छदद क़ व्य़पऩ सहज हुअ । वह छदद थ़, कि ण्डऽलय़ छदद । संक्षेप मं बत़ते चलं कक कि ण्डऽलय़ एक ऽवऽशि छदद है, जो कक ऄियम़ऽिक छददं की श्रेणा क़ है । यह वस्तितः दो छं दं क़ यिग्म है । ऽजसमं पहल़ छदद दोह़ और दीसऱ छदद रोल़ होत़ है। ऄथ़यत, एक दोह़ के दो पदं के ब़द एक रोल़ के च़र पद होते हं । य़ना, कि ण्डऽलय़ छः पऽियं य़ पदं क़ छदद है । आसके अगे, आनके संयि​ि को प्ऱरूप को कि ण्डऽलय़ छदद बनने के ऽलए थोड़ा और ऽवऽशित़ ऄपऩना पड़ता है । दोह़ क़ दीसऱ सम चरण रोल़ व़ले भ़ग क़ प्रथम ऽवषम चरण ऽनध़यररत होत़ है, तथ़, ऽजस शब्दद, शब्दद़ंश य़ शब्दद-समीह से छदद क़ प्ऱरम्भ होत़ है, ईसा शब्दद, शब्दद़ंश य़ शब्दद-समीह से छदद क़ सम़पन भा होत़ है । छ्नदद-स़ऽहत्य के आऽतह़स मं वह समय भा अय़ है जब रचऩओं मं कथ्य के तथ्य प्रभ़वा नहं रह गये। रचऩओं से ’क्यं कह़ गय़’ ग़यब होने लग़ और ’कै से कह़ गय़’ क़ श़ऽब्ददक व्य़य़म महत्त्वपीणय होने लग़ । ऄऽभव्यऽिय़ँ व़ऽग्वल़स और शब्दद-कौतिक य़ ऄथय-चमत्क़र की पोषक तथ़ अग्रहा भर रह गयं । पद्य-रचऩएँ स़म़दय जन की भ़वऩओं, भ़व-दश़ओं य़ अवश्यकत़ओं से परे ऽवऽशि वगय के मनस-ऽवक़रं को पोऽषत करने क़ म़ध्यम म़ि रह गया थं । चीँकक छदद रचऩकमय की ऄऽनव़ययत़ हुअ करते थे, ऄतः अगे अधिऽनक प्रगऽतशाल अददोलन के दौऱन पद्य-स़ऽहत्य मं ऐसे ऄदयथ़कमं क़ स़ऱ ठाकऱ िी ं़ छददं पर ! छददं को हा त्य़ज्य समझ़ ज़ने लग़ । छदद अध़ररत

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रचऩओं य़ गातं को ’मरण़सन्न’ और, ब़दमं तो, ’मुत’ हा घोऽषत कर कदय़ गय़ । ऄथ़यत, ऽजस भीऽम के जन की सोच तक गात़त्मक हो, जह़ँ के प्रत्येक ऄवसर और स़म़ऽजक पररप़रंयो के ऽलए कोइ न कोइ गात य़ सरस छ़ददऽसक रचऩ ईपलब्दध हं, ईस जन-सम़ज से गात-क़व्य और रचऩएँ छान लेने क़ ऽनरं किश ऄपऱध हुअ ! मनिष्य के जावन य़ आसके अस-प़स क़ स़ऱ व्यवह़र एक ऽनयत प्रव़ह मं, ऽवशेष अवुऽतयं मं हुअ करत़ है । धमऽनयं मं होत़ रि-प्रव़ह तक ऄनिश़ऽसत अवुऽतयं मं है । ऽबऩ ऽनयत अवुऽत के प्रकु ऽत क़ कोइ व्यवह़र नहं होत़ । चीँकक, छ़ददऽसक रचऩओं, जो कक मनिष्य़ की प्ऱकु ऽतक भ़वऩओं, वुऽियं और भ़वदश़ के श़ऽब्ददक स्वरूप हं, के कथ्य ऽबऩ ऄंतगेयत़ के संभव हा नहं हो सकते । यहा क़रण है कक छ़ददऽसक रचऩएँ स़म़दय जनम़नस को आतना गहऱइ से छी प़ता हं । तभा, छददं के ह़ऽशये पर ठे ले ज़ते हा पद्य-स़ऽहत्य, जो जन-सम़ज की भ़वऩओं क़ न के वल प्रऽतऽबम्ब हुअ करत़ है, बऽल्क जन-सम़ज की भ़वऩओं को संति​ि भा करत़ है, रसहान हो कर रह गय़ । परदति, ऐसा ऄतिक़दत पररऽस्थऽतयं मं भा भ़व़रय रचऩकमी द़ऽयत्वबोध से प्रेररत हो, तो कइ ब़र ऄपना नैसर्णगक प्रवुऽत के क़रण, लग़त़र ऽबऩ ककसा ऄपेक्ष़ के छ़ददऽसक रचऩकमय करते रहे । एक पीरे वगय क़ छ़ददऽसक रचऩओं पर सतत ऄभ्य़स बऩ रह़ । ईपयियि कथ्य के अलोक मं नैसर्णगक भ़व के कि ण्डऽलय़ छ्नदद-कऽव ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ क़ कि ण्डऽलय़ छदद के प्रऽत ईत्कं अग्रह के स़थ सतत कक्रय़शाल रहऩ कइ ऄथं मं महत्त्वपीणय है । ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ ने छददऽसक रचऩएँ हा नहं की हं, बऽल्क ऄपने ऽवऽशि व्यऽित्व के क़रण कइ ऄदय रचऩक़रं से भा स़थयक ऄभ्य़स करव़य़ है । यह ईनकी ऄभ्य़सा प्रवुऽत हा है, कक ईनकी रचऩओं के तथ्यं मं जह़ँ अमजन के दैऽनक-व्यवह़र को स्थ़न ऽमलत़ है, वहं कि ण्डऽलय़ छदद के ऽवध़न की छ़ददऽसक रचऩओं मं भा वणय और म़ऽिक गणऩ से कोइ समझौत़ हुअ नहं कदखत़ । आन म़यनं मं ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ स्वयं के ऽलए भा उँचे म़नक ऽनध़यररत करते हं तथ़ आसके प्रऽत ऄदय छददक़रं को ऄनिप्ररे रत करते हं । तभा तो आस ऄियम़ऽिक छदद के रचऩक़रं द्व़ऱ हुए प्रय़सं मं शब्ददं क़ संयोजन तो बस देखते हा बनत़ है । आस क़रण स़म़दय से ऽवषय़ भा छददोबि हो कर ऄवश्य पठनाय हो ज़ते हं । स़थ हा, ईनकी प्रस्तित हुइ रचऩओं की ऽवशेषत़ है, तथ्य, ऽशल्प, भ़व, रस के स़थ-स़थ रचऩओं मं ईपयि​ि शब्ददं क़ स़थयक चयन क़ होऩ । आस क़रण ईनकी रचऩओं की संप्रेषणायत़ समिऽचत रूप से बढ़ ज़ता है । आदहं ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ के सम्प़दन मं एक वषय के ऄंतऱल पर जोधपिर, ऱजस्थ़न के ’ऱजस्थ़ना ग्रदथ़ग़र’ से दो कि ण्डऽलय़संग्रह प्रक़ऽशत हुए हं - ’कि ण्डऽलय़ क़नन’ तथ़ ’कि ण्डऽलय़ संचयन’ । आन दोनं संग्रहं मं ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ ने क्रमशः कि ल ISSN –2347-8764

आक्कीस तथ़ चौदह छददक़रं की कि ण्डऽलय़ रचऩओं को सऽम्मऽलत ककय़ है । कि ण्डऽलय़ छदद के अकद कऽव क़ ऩम बत़ऩ तो संभव नहं है, लेककन ’कि ण्डऽलय़ क़नन’ के प्ऱक्कथन मं सम्प़दक ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ कहते हं - ’ऽगररधर से पीवय स्व़मा ऄग्रद़सने कि ण्डऽलय़ ऩमक कु ऽत की रचऩ की ।’ ककदति, स्व़मा ऄग्रद़स की रचऩओं से सम्प़दक पररऽचत कऱ नहं प़ये हं । ऄलबि़, ’कि ण्डऽलय़ क़नन’ मं ’धरोहर’ के ऄंतगयत ऽगररधर कऽवऱय, सदत गंग़द़स तथ़ कऽपल कि म़र की कि ण्डऽलय़-रचऩएँ सऽम्मऽलत हुइ हं । अगे, आस संग्रह मं अज के छ्नददक़रं मं सवयश्रा कै ल़श झ़ किककर, ग़कफ़ल स्व़मा, गोप़ल कु ष्ण भट्ट अकि ल, डॉ. जगन्ऩथ प्रस़द बघेल, ंाकम चददर ढोडररय़, तोत़ऱम सरस, डॉ. नऽलन, मह़वार ईिऱंचला, रघिऽवदर य़दव, ऱजकि म़र ऱज, ऱजेदर बह़दिर ऱजन, ऱजेश प्रभ़कर, ऱमशंकर वम़य, डॉ. ऱमसनेहा ल़ल शम़य य़य़वर. ऽशव कि म़र दापक, शीदय अक़ंक्षा, स़धऩ ठकि रे ल़, ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ की रचऩओं को सम़दुत ककय़ गय़ है । दीसरे संग्रह ’कि ण्डऽलय़ संचयन’ के कि ल चौदह छददक़रं मं कइ ईन छददक़रं की रचऩओं को पिनः स्थ़न कदय़ गय़ है, जो कि ण्डऽलय़ क़नन मं जगह प़ चिके थे । आस संग्रह मं ऽजन नये छददक़रं की रचऩएँ सऽम्मऽलत हुइ हं, वे हं ऄशोक कि म़र रि़ले, डॉ. ज्योत्सऩ शम़य, परमजात कौर रात, डॉ. प्रदाप शिक्ल, महेदर कि म़र वम़य, ऽशव़नदद सिसह सहयोगा, ह़ऽतम ज़वेद एवं हाऱ प्रस़द हरे दर । दोनं कि ण्डऽलय़-संग्रहं की ऄलग-ऄलग चच़य न कर हम सऽम्मऽलत चच़य करं गे । सवयप्रथम, आस तथ्य के ऽलए सम्प़दक की प्रशंस़ करना हा होगा, कक, ईदहंने शैऽल्पक दुऽि से कि ण्डऽलय़ के प्ऱरूप को एक सम़न रख़ और रखव़य़ है । वस्तितः, प्ऱचान क़ल से हा रोल़ छदद के कइ प्ऱरूप प्रचऽलत रहे हं । चरणं की म़ऽिकत़ के तौर पर सवयम़दय 11-13 की यऽत पर रोल़ छदद की पंऽिय़ँ अबि हुअ करता हं । परदति, यऽत क़ क्रम तथ़ पंऽियं मं चरण़दत, शब्ददऽवदय़स अकद मं भ़रा भेद कदखत़ है । हम ईनकी चच़य नहं करने ज़ रहे । परदति, मीलभीत तथ़ ऄऽत प्रचऽलत ऽवध़न रोल़ की प्रऽत पंऽि मं दोनं चरणं मं तिक़दतत़ को लेकर ऽवशेष ऽवददिवत होने की ऄपेक्ष़ करत़ है । ऽवषम चरण क़ चरण़दत गिरु-लघि से होने के स़थ-स़थ, समचरण क़ प्ऱरम्भ ऽिकल शब्दद से तथ़ आसा चरण क़ ऄदत समकल शब्दद से ककये ज़ने क़ ऽवध़न है । शैऽल्पक दुऽि से ऄदय़दय ऽवध़-ऽवददिओं को भा यथ़ सम्भव दीर रख़ गय़ है। च़हे दोह़ व़ले भ़ग की ब़त हो य़ रोल़ व़ले भ़ग की, शब्ददसंयोजन और यऽत को सम्प़दक ने एकस़र रखने मं बहुत हद तक सिलत़ प़या है । रोल़ छदद के ऽवऽभन्न और प्रचऽलत प्ऱरूपं की शैऽल्पकत़ को देखते हुए ऐस़ सम्भव करव़ऩ आतऩ सरल नहं थ़ ।

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जह़ँ तक कथ्य क़ सव़ल है, जावन के लगभग सभा पहली शब्ददं मं ऽसमं अये हं । देश की दश़, ब़ज़़र क़ अतंक, वैयऽिक भ़वोद्ग़र, संयोग-ऽवयोग शुंग़र, थकत़ हुअ हौसल़, स़मिऽहक उजयऽस्वत़, श्रम, क्षाण होता मनोदश़, प़प-पिण्य की सोच, नैऽतक मनोभ़व, जावन-चेतऩ, ऽशक्ष़, ग्ऱमाण पररवेश मं िै लता हत़श़, शहर की मशाना ऽज़ददग़ा, ऊति-संह़र, प्रकु ऽत-सिषम़, मौसम क़ ऄंपं़पन, पवय-त्यौह़र की ईत्ि​ि ल्लत़ और ऽवसंगऽतय़ँ, महँग़इ, प़ररव़ररक ऽवघंन अकद-अकद ऽवषयं को प्रमिखत़ से शब्ददबि ककय़ गय़ है । कहने क़ त़त्पयय है, कक आन ऽवषयं पर कमोबेश सभा छददक़रं की कलम खीब चला है । देश की ऊतिएँ, पय़यवरण, जल-समस्य़, प्रकु ऽत, जन-ऄनिश़सन रचऩओं के ऽवषय हं, तो कऽवयं की सोच की गहनत़ को सहज हा समझ़ ज़ सकत़ है । छददक़रं के की दुऽि मं कदख रहे ब़ज़़र के प्रऽत भ़वऩ की एक ब़नग़ा—मिऱओं मं मं नहं, ऽबकने को तैय़र / किर भा ज़ने क्यं

ध्वज़ िर-िर िहऱये / चकी प्य़र मं पात चिनर गोरा की कोरा / लहऱये बल ख़ये, मगन मन मं है गोरा ! (ऄशोक कि म़र रि़ले /

ऱमसनेहा ल़ल शम़य य़य़वर / कि ण्डऽलय़ क़नन) । आसा क्रम मं देश के प्रऽत गहन भ़व श़ऽब्ददक हुए हं—ईभरा देखो देश की,

संचयन) देश की समस्य़ओं क़ मिख्य क़रण अजकी कि ऽत्सत प्रश़सन व्यवस्थ़ तथ़ स्व़थी ऱजनेत़ हं । आस संदभय को श़ऽब्ददक करता यह कि ण्डऽलय़ ऄत्यंत स्पि है—ऽलये ऽतरं ग़ गवय से, बोल़ मं

मिझे, बिल़ रह़ ब़ज़़र / बिल़ रह़ ब़ज़़र, िं कत़ नत्ये प्रलोभन / बेच रह़ है प्य़र, ददय, असी,ँ सम्बोधन / रचत़ नये प्रपंच, ऄज़ना भ़ष़ओं मं / नहं ऽबकीँ ग़ ऽमि, कभा मं मिऱओं मं ! (डॉ.

खौफ़ऩक तस्वार / भ़व ज़मानं के बढ़े, सस्ते हुए ज़मार / सस्ते हुए ज़मार, लोग हो गये ऽबक़उ / अज पिऱतन मील्य, नहं रह गये रंक़उ / संस्कु ऽत था ऽसरमौर, गतय मं देखो ईतरा / खौफ़ऩक तस्वार, देश को देखो ईभरा ! (रघिऽवदर य़दव / कि ण्डऽलय़ क़नन। स़म़ऽजक ऽवरीपत़ क़ यह ऽचिण व़स्तव मं रिव्य है—ऽनधयन के तो प़स हं, भीख पें की एक , धनव़नं की भीख के , देखो रूप ऄनेक / देखो रूप ऄनेक, नहं है ऽगनता कोइ / प़ते कब संतोष, क़मऩ है, कब है सोइ / कहं नऽलन कऽवऱय, द़स होते हं धन के / कब अते हं क़म, कहो तो ये ऽनधयन के । (डॉ. नऽलन /कि ण्डऽलय़ क़नन) । नव कदवस को ऽमले शब्ददं, कऽव की सोच और ईसके अय़म को कौन प़ठक ऄनिमोकदत नहं करऩ च़हेग़ ? — पिे-

पिे झीमते, लय भरत़ ऽभनस़र / पंछा के संपन्न स्वर, ऽततला की मनिह़र / ऽततला की मनिह़र, गात भँवरं के ग़ये / पल्लव के नवगात, कं ठ से कं ठ ऽमल़ये / ’सहयोगा’ की सोच, सजे खिऽशयं के छिे / कलरव के संगात, गिँजे हं पिे-पिे । (ऽशव़नदद सिसह ’

सहयोगा’ / कि ण्डऽलय़ संचयन) प्रकु ऽत-सिषम़ को ककतने अग्रह से ईभ़ऱ गय़ है ! - कदनकर है

अक़श मं, रऽिम ईसके नैन / ऱत-ऱत भर ज़ग कर, सिबह हुइ बेचैन / सिबह हुइ बेचैन, चले सब ऽझलऽमल त़रे / ऽखल-ऽखल हँसता ऱत, थक गये बेच़रे / चदद़ क़ मिख म्ल़न, धरे वह पगपग ऽगनकर / प्रभित़ क़ ऄहस़स, कऱने अय़ कदनकर ! (डॉ.

प्रदाप शिक्ल / कि ण्डऽलय़ संचयन) आसा क्रम मं ग्ऱमाण पररवेश की मधिर-मनोहर ऄनिभीऽतयं के स़पेक्ष आन पंऽियं को देखऩ सिखद होग़—गोरा के मन खेत मं,

ऽखलने लग़ वसंत / रं ग-ऽबरं गे पिष्पसम, ऽखलतेभ़व ऄनंत / ऽखलते भ़व ऄनंत, ऽसदधि मन मं लहऱये / चला प्य़र की ऩव, ISSN –2347-8764

कि ण्डऽलय़ संचयन) ऐस़ नहं है, कक जन-सम़ज की समस्य़ओं य़ द़रुण ऄवस्थ़ पर छददक़रं की दुऽि नहं गया है । सम़ज की अर्णथक ऽवषमत़ पर कऽव की दुऽि ककतना ऽवददिवत है—खिदग़जी के ऩव पर, होकर

लोग सव़र / देखो, करने चल पड़े, ररश्तं क़ व्य़प़र / ररश्तं क़ व्य़प़र, दग़़ब़ज़ा क़ धदध़ / ल़लच मं हर शख्स, बऩ बैठ़ है ऄदध़ / चेतो ऐ ज़वेद, यहा है मेरा ऄजी / वरऩ जग मं अग, लग़ देगा खिदग़जी ..( ह़ऽतम ज़वेद / कि ण्डऽलय़ संचयन)

कदय़-दश़ और भ्रीण-हत्य़ को लेकर हो रहे बड़े-बड़े द़वं के बाच वस्तिऽस्थऽत क्य़ है, यह छि प़ हुअ सत्य नहं है । ऐसे मं आस ऽवषय पर कि छ न कहऩ हा अश्चययचककत करत़. कि ण्डऽलय़ छदद के म़ध्यम से बड़़ साध़ प्रश्न ककय़ गय़ है—हत्य़ करके भ्रीण की,

कम़ रहे हो प़प / बेंा को बेवज़् हा, समझ रहे ऄऽभश़प / समझ रहे ऄऽभश़प, बेरंय़ँ दिग़य-क़ला / ईदहं धैयय के स़थ, सिऽशऽक्षत कर दो अला / कह ’हरे दर’ ऽसरत़ज़, बनेगा संग ऄक्षर के / व्यथय बंोरे प़प, भ्रीण की हत्य़ कर के । (हाऱ प्रस़द हरे दर / कि ण्डऽलय़

अज़़द / तभा ऽबछौने अ गये, ि​ि ंप़थं के य़द / ि​ि ंप़थं के य़द, रठठि रते ऽबस्तर स़रे / ऩरा है ल़च़र, मनिज द़नव के म़रे / तरह-तरह की लीं, कहं नज़हब क़ दंग़ / यिव़-फ़ौज़ बेक़र, खीमिा ऽलए ऽतरं ग़ ! (ऄशोक कि म़र रि़ले / कि ण्डऽलय़ संचयन) य़ किर, यिग बदल़ तो प्रगऽत के , बदल गये प्रऽतम़न / कं करां के वन ईगे, ऽनगल खेत-खऽलह़न / ऽनगल खेत-खऽलह़न, बैल, हल, म़चा, चरख़ / वं की शातल छ़ँव, ऄष़ढ़ा ररमऽझम बरख़ / कह ’ऽमस्ंर कऽवऱय’, चंद ऽसक्कं मं पगल़ / बेच रह़ इम़न, सखे कै स़ यिग बदल़ ? (ऱमशंकर वम़य / कि ण्डऽलय़ क़नन) देश की जो ऽस्थऽत है, आस पर कऽवगण की संवेदऩ मिखर न होता, यह हो हा नहं सकत़ थ़—संस़धन की होड़ को, कै से कहं

ऽवक़स / ऽमलत़ नैऽतक मील्य को, हर कदन हा वनव़स / हर कदन हा वनव़स, सत्य के दिर्ददन अये / भ्रऽमत करं प्रऽतऽबम्ब, झीठ ने ज़ल ऽबछ़ये / ’ठकि रे ल़’ कऽवऱय, बऽस्तय़ँ ईजड़ं मन की / ऽप्रयतम हुअ पद़थय, पीछ बस संस़धन की । (ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ / कि ण्डऽलय़ संचययन) ईपयियि ईिरणं से स्पि है कक आन संग्रहं की रचऩओं की संप्रेषणायत़ ऄत्यंत प्रभ़वा है । लेककन आस तथ्य की ओर से भा अँखं मीँदा नहं ज़ सकतं कक आन रचऩओं क़ अध़र-ऽवददि य़ ईद्येश्य क्य़ है । कि ण्डऽलय़ छदद की रचऩओं को अज की भ़ष़ तथ़ अज के ऽबम्बं के स़पेक्ष संदभय की तरह प्रस्तित करऩ एक ब़त है, और यह ऄवश्य हा श्ल़घनाय प्रय़स है, परदति, ककसा ईद्येश्य के ऄंतगयत हुअ रचऩकमय न के वल प़ठकं को संति​ि करत़ है, बऽल्क सचेत भा रखत़ है । शेष ऄनिसध ं ़न पेज - 57

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नइ ककत़ब

चलो अज ऽमलकर... डॉ. प्रणव भ़रता कऽवत़ जावन क़ है मधिबन कऽवत़ जावन क़ है वददन कऽवत़ भाना-भाना सा महक कऽवत़ प़यल की रुनक-झिनक कऽवत़ पल-पल हंसता-ग़ता कऽवत़ जावन को दिलऱता कऽवत़ जावन क़ मधिर ह़स्य कऽवत़ जावन क़ नव-प्रभ़त ! अज के आस ऽवषम दौर मं जब जावन मं अप़ध़पा, ऄऽवश्व़स, ऄहं,ऄज़गरूकत़ च़रं ओर मिह ब़ए कदख़इ देते हं, वहं कऽवत़ की चंद पंऽिय़ँ कदलोकदम़ग़ को एक सिकीन से सऱबोर कर देता हं । कऽवत़ स्वयं को प्रस्तित करने क़ एक ऐस़ म़ध्यम है जो कि छ पंऽियं मं सज-संवरकर मन के भातर पहुंचकर ईऽद्वग्न भा कर देत़ है, स़ंत्वऩ भा दे ज़त़ है और भर ज़त़ है चेतऩ क़ एक ऄहस़स! यह़ँ मं चच़य करऩ च़हता हूँ श्रामता कि सिम वार की कऽवत़ओं की जो ईनकी दीसरा पिस्तक मं संकऽलत तथ़ प्रक़ऽशत हं । सबसे पहले तो मं ईनकी आस पिस्तक के प्रक़शन के ऽलए ईदहं तहेकदल से बध़इ तथ़ भऽवष्य के ऽलए शिभक़मऩएँ देऩ च़हता हूँ । यह जावन की एक सिमग ं ल बेल़ होता है जब कोइ एक ऩज़ुक स़ ऽवच़र कऽव-हृदय को छी ज़त़ है । बेशक अज के आस दौर मं जावन मं आतने ऽबखऱव, आतना बेचैऽनय़ँ भर गइ हं कक कऽव सक़ऱत्मकत़ की ओर मिड़कर भा कहं न कहं ऽबखऱव मं भंकने लगत़ है और ईसकी कलम से कहं न कहं ऽनऱश़ की परछ़ईं ऽनसुत होने लगता है । लेककन यह कऽव की संवेदऩ हा तो है जो ईसे अम अदमा से ऽभन्न स्तर पर प्रऽतऽष्ठत करता है और अम अदमा क़ ऽहस्स़ भा बऩए रखता है । ईसमं दीसरं की पाड़़ को अत्मस़त कर ईसे प्रस्तित करने क़ संबल देता है । 'चलो अज ऽमलकर नय़ कल बऩएं' की कवऽयिा कि सिम वार भा आस सम़ज तथ़ व़त़वरण से ऽभन्न लोक मं ऽनव़स नहं करतं । वे आसा सम़ज मं रहकर दिःख-सिख जाता हं थ़ ऄपना संवेदनशालत़ के म़ध्यम से ऄपना ब़त, ऄपने ऽवच़र ISSN –2347-8764

कऽवत़ के रूप मं प्रस्तित करता हं । ऄपने च़रं पसरे ऄँधरे े से वे व्य़कि ल हं, पाऽड़त हं, व्यऽथत हं तभा तो ईनके ऽवच़रं मं नक़ऱत्मकत़ से सक़ऱत्मकत़ की लहरं ईठता-ऽगरता दुिव्य होता हं; 'एक दापक प्रज्ज्वऽलत कर तिम चलो' सक़ऱत्मक दुऽि के ओज से सऱबोर हं कि सिम, ईदहं सिचत़ है कक आस जमान पर कोइ भा कोऩ ऄदधक़र मं डी ब़ न रह ज़ए, कहता है; घोर शंक़एँ यह़ँ, कि चेि़एँ हं ऄनऽगन गढ़ं अतंक ऄत्य़च़र क़ है ज़ोर भा कि छ कम नहं भय कि शंक़ त्य़गकर, तम चारकर अगे बढ़ो एक दापक प्रज्ज्वऽलत कर तिम चलो आतऩ हा नहं, वे अह्व़हन करता हं; मंऽज़लं गर करठन हं, ऱहं कँ ंाला हं यकद शील भा गर चिभ रहं, पग रोकऩ लेककन नहं स़हस की चढ़ बिलऽददय़ँ, तिम माल क़ पत्थर बनो एक दापक प्रज्ज्वऽलत कर तिम चलो कवऽयिा कि सिम वार को ऽजतऩ मंने ज़ऩ है,ईदहं बहुत संवेदनशाल प़य़ है । वे प्रकु ऽत से ब़बस्त़ रहता हं । सम़ज मं घरंत ककसा घंऩ से ईनक़ संवेदनशाल मन जिड़व महसीस करत़ है, स्त्रा होने के ऩते वे एक स्व़ऽभम़न से लरजता हं जो ईनके भातर की सिचत़ को ईज़गर करत़ है । कहता हं; 'कदय़ हूँ ऄऽभश़प नहं' अज च़रं ओर कदय़ बच़व की गिह़र लग़इ ज़ रहा है किर भा हम सब पररऽचत हं कक कहं न कहं कथना-करना मं दिऱव होत़ हा है । म़ँ के गभय से कदय़-ऽशशि से कवऽयिा गिह़र लगव़ता हं; मत घं​ं आस अव़ज़ को ऽहम्मत जिं़, स़हस कदख़ बेंा हा सरस्वता और लक्ष्मा आस सच को, ती सबको बत़ 'चलो अज ऽमलकर नय़ कल बऩएं' मं स्थ़न-स्थ़न पर ईनकी भ़वभीऽम पर प्रकु ऽत क़ अलंबन प्रदर्णशत होत़ है, वैऽश्वक एकत़ के सीि मं म़नव-मन के ऽपरोने के दुश्य प्रदर्णशत होते हं कि सिम क़ मन मंथन करत़ है । िी लं व शीलं दोनं क़ हा वे स्व़गत करता कदख़इ देता हं; वे ऄज्ञ़न से लड़ने की ब़त करता हं , ऄदधक़र से रोशना की ओर ज़ने की ब़त

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करता हं । ऄपने-पऱए के बाच क़ भेद ईदहं ऩगव़र गिज़रत़ है । कवऽयिा की संवेदऩ कहता है, 'सिज़दगा यीँ हा गिज़र ज़ता है', सच हा है आसाऽलए ईनकी आस रचऩ मं सिज़दगा के सम़ऽप्त की ओर ज़ने की पाड़़ है, ऄपनं से दीर होने की पाड़़ है और पाड़़ है ररश्तं के तल़शने की और तल़शते हुए,दीर रहते हुए, समापत़ के ऽलए पाड़़ झेलते हुए सिज़दगा पीरा हो ज़ता है तब के वल प्रेम हा रह ज़त़ है ऽजस पर सभा ररश्ते रंके रह सकते हं.आस प्रेम से हा स्नेह के अच्छ़कदत शातल ब़दलं के ंि कड़े तैरते कदख़इ देते हं । कबार ऽवश्व के मह़न द़शयऽनक ! ईनसे न प्रभ़ऽवत होऩ ऄसंभव है वे कहते हं 'ढ़इ ऄक्षर प्रेम क़ पढ़े सो पंऽडत होय' कवऽयिा की ढ़इ अखर की मऽहम़ श़श्वत है, कहता हं; ढ़इ अखर संस़र रच़ यह सुऽि प्रेम चकोरा है दापक संग ब़ता ज्यं जलता ऽनज अत्म िह्म की चेरा है और सतत चक्र मं घीम रहे जाने क़ ममय नहं ज़ऩ ढ़इ अखर की छ़ँव ऽमला जावन ईत्सव को पहच़ऩकहं कवऽयिा ऄज्ञ़न एवं तम की बेऽड़यं को क़ंने की ब़त करता हं तो दीसरा ओर ल़वण्यमय प्रेम से सऱबोर होता हं 'तेरे अने की अहं', 'ऽवकल वेदऩ', धामा सा अहं तिम्ह़रा', 'प्ऱण हा शऽब्ददत हुए', 'धीप धऱ से ऽमलने अइ', मधिर ऽमलन', 'ऽमलनऽवरह',' क्यं य़द अइ अज' - अकद कइ रचऩएँ ईनकी प्रेम से ऽभगोता संवेदऩओं को प्रस्तित करता हं । कि सिम क़ स्वर प्रकु ऽत के समाप है ऄत: ईनकी लगभग सभा रचऩओं मं लिक़-ऽछपा खेलता प्रकु ऽत ऽचऽित हो ज़ता है । कवऽयिा यह नहं भीला है कक म़नव-शरार प्रकु ऽत के तत्वं से बऩ है और ईसा की धरोहर है आसाऽलए ईनकी कलम से प्रकु ऽत की मिस्क़न झरता रहता है, यकद कऱहं​ं भा हं तब भा वे ईदहं मिस्कि ऱहं​ं मं पररवर्णतत करने की चेि़ करता कदख़इ देता हं । प्रेम ईनक़ सिर है तो देश ईनक़ ऱग ! वे शहादं पर ऩज़ करता हं, ऄपना जदमभीऽम तथ़ ईसकी अज़दा को स्नेहऽसि करता हं, 'प़वस' मं यकद वे मेघऱज को दिल़रता हं तो 'बिलबिल'े , 'मत ब़ँंो आं स़न', 'मन गाला ऽमट्टा स़' - अकद रचऩओं मं से गिज़रता हुइ ऄपने बेंा होने पर गवय करता हुइ 'बेह़ल बच्चं ' की सिचत़ मं मग्न कदख़इ देता हं । ईनकी रचऩओं मं ररश्ते मं पाड़़ की सिगबिग़हं है तो व़त्सल्य मं म़ँ के नेह की सिगंध ! 'सत्य क़ संकल्प', 'ऩरा शऽि', समय की करवं​ं के स़थ' वे 'जावन ऽशल़ पर' ऄनेक अलेख ऽलखता हं और ईदहं 'वि की च़दर' मं लपें भा देता हं । ईनके संग्रह की ऄंऽतम रचऩओं मं भा प्रकु ऽत क़ ऽचिं पररलऽक्षत होत़ है । 'ईष़ जगा भोर मं', 'स़ँझ', 'सिज़दगा की व़रंक़ मं', 'ऱत ऽसत़रे सज़ रहा है', 'सुऽि' अकद सभा रचऩएँ प्रकु ऽत की सिददरत़ से सऱबोर हं ।

म़नव तथ़ प्रकु ऽत क़ गठ्बदधन श़श्वत है ईसे स्नेह, प्रेम की डोरा से ब़ँधऩ अवश्यक है ऄदयथ़ आस प्रेम क़ कोइ मोल नहं, मनिष्य क़ कोइ मोल नहं, जावन क़ कोइ मोल नहं । म़नवाय सिखद संवेदऩओं से ओतप्रोत कि सिम वार आसा प्रक़र मनिष्य से मनिष्य के ह्रदय तक प्रेम की पंगं बढ़़कर सम़ज मं मधिर सिर भा व्य़प्त करता रहं । ईनके रचऩ-स़ऽहत्य से प्रेररत होकर सम़ज मं प्रेम के बंधन ऄऽधक सशि हं । भऽवष्य मं भा वे ऄपना आस भ़वऩ क़ संच़र करता रहं । यहा भ़वऩ व शिभक़मऩ ।

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'लऽलत श्रिऽत, ईमेद-प़कय , ऄहमद़ब़द-61 मोब.9904516484 प्रक़शन वषय - 2016, प्रक़शक - ज्ञ़न गंग़, कदल्ला (प्रभ़त प्रक़शन क़ सम्बि प्रक़शन)

कऽवत़ नवनात प़ण्डे बच्चे अजकल के

बच्चे अजकल के क्य़ बच्चे हं बड़ं पर हंसते हं कदख़ कदख़ परसं​ंेज़ पैकेज कह़ं कह़ं ककतऩ है क्रेज़ ईदहं क्य़ पत़ हमने क्य़ प़य़ थ़ और ईदहंने क्य़ खोय़ है हमने हमेश़ शिध्द प़य़, ख़य़ है ईदहं शि​ि के ऽलए यिध्द ऄऽभय़न चल़ऩ पड़त़ है क्य़ हुअ जो ऄपना पसंद क़ नहं ऽमल़ हमं मौक़ पर ये क्य़ कम है बिजिगं के अशाव़यद और ऽनणयय से नहं ऽमल़ कभा धोख़ ऄपने ऽनणययं पर बच्चं को आतऱते देख रहे हं और ब़र ब़र धोखे ख़ते भा देख रहे हं हमं कोइ नहं ऽशक़यत ऄपने वि से पर क्य़ वे भा कि छ साख रहे हं ऄपने वि से? ब़र ब़र नौकरा, छोकरा, मोब़आल, ऽसम, टिरगंोन बदलऩ जाऩ नहं होत़ जो सिज़दगा हा पा ज़ए वो पाऩ पाऩ नहं होत़

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"प्रताक्ष़" २ डा २, पंेल नगर, बाक़नेर(ऱज) call +919413265800

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ब़ल कह़ना

वह दोस्त हा रह़ गोसिवद शम़य ऱजी और ऽबरजी दोनं दोस्त। दोनं अठवं के छ़ि, पर ऽबरजी एकदम पहलव़नं जैस़। वह ककसा से लड़त़ झगड़त़ नहं, पर स्की ल के जो बच्चे ईसे ज़नते थे, वे ईससे डरते थे। क्यंकक ऽबरजी को कोइ छे ड़ बैठत़ तो ईसे वह सबक जरूर ऽसख़त़। आसके ऽवपरात ऱजी कि छ कमजोर पर शऱरता पीऱ। वह ककसा न ककसा से ईलझ़ रहत़। जब मिसाबत मं िं स ज़त़ तो ऽबरजी को बिल़त़। ऽबरजी ईसकी मदद तो करत़, पर ईसे समझ़त़ भा कक शऱरतं करऩ ऄच्छा ब़त नहं। ईसक़ दोस्त जो ठहऱ। ईसकी मदद करऩ और समझ़ऩ-ऽसख़ऩ ईसक़ कत्र्तव्य थ़। पर ऱजी पर ईसकी ब़तं क़ ज्य़द़ ऄसर नहं हो रह़ थ़। एक कदन ऱजी और ऽबरजी घीमते घीमते ऄपने शहर के दीसरे ककऩरे पर पहुंच गये। वह़ं की गऽलयं मं दोनं को कोइ नहा ज़नत़ थ़। ऽबरजी श़ंत थ़, ऱजी हमेश़ की तरह शऱरता। वह कभा ककसा घर के दरव़जे पर ठोकर जम़ देत़ तो कभा ऄक़रण क़लबेल दब़ देत़। लोगं के घरं के अगे बने बगाचे से िी ल पऽिय़ं तोड़ लेत़, मिंह से ऄजाब ऄजाब अव़जं ऽनक़लत़। ऽबरजी ईसे ऐस़ करने से ब़र ब़र रोक रह़ थ़। पर ऱजी पर कोइ ऄसर नहं हो रह़ थ़। यह क्य़? ऱजी ने तो हद हा कर दा। एक पत्थर ईठ़य़ और एक घर के भातर िं क कदय़। छन्न की अव़ज अइ। ऽबरजी ने कह़- ऄरे , तिमने यह क्य़ कर कदय़। तिम्ह़रे पत्थर से घर के भातर कोइ शाश़ ंी ं़ है। देखऩ, ऄब घर के भातर से लोग अयंग,े हम से लड़ने के ऽलए। ऱजी ने बेपरव़हा से जव़ब कदय़, ‘‘ऄरे , तिम्ह़रे होते मिझे क्य़ परव़ह है। ऽजसक़ ऽबरजी है य़र, ईसक़ सद़ होग़ बेड़़ प़र।’’ आतने मं घर के भातर से दो च़र लोग ह़थ मं डंडे लेकर ब़हर अए। वे गिस्से मं थे। एक बोल़-यहा हं वे, ऽजदहंने पत्थर िं क़ है। आदहे पकड़ कर पांते हं। आतऩ सिनते हा ऱजी ने घबऱकर ऽबरजी की तरि देख़। ऽबरजी ने अव देख़ न त़व, तिरंत वह़ं से भ़ग छी ं़। ईनमं से एक दो ने ऽबरजी क़ पाछ़ करऩ च़ह़।पर ऽबरजी भ़गने मं भा तेज थ़। वह ग़यब हो गय़। ऱजी के तो जैसे वह़ं प़ंव हा जम गये। ऄरे , यह क्य़ हुअ? मेरे ऽलये हर जगह लड़ने के ऽलये तैय़र रहने व़ल़ ऽबरजी अज भ़ग गय़। मिझे मिसाबत मं छोड़कर भ़ग गय़। यह कै स़ दोस्त है? अज से, ऄभा से ISSN –2347-8764

ऽबरजी मेऱ दोस्त नहं है........। घर के भातर से ऽनकले लोगं मं से एक ऱजी से बोल़- क्य़ वह तिम्ह़ऱ दोस्त हं? ‘‘ नहं, वह मेऱ दोस्त नहं है। ’’ ‘‘हमं तो पत़ नहं कक तिम दोनं मं से ककसने पत्थर िं क कर घर मं खड़ा क़र क़ शाश़ तोड़़ है। हम तो तिम दोनं की हा ऽपं़इ करते । पर ईसने यह़ं से भ़गकर स़ऽबत कर कदय़ कक दोषा वहा है। आस तरह तिम ऽपं़इ से बच गये।’’ यह कह कर वे लोग घर के भातर चले गये। ऱजी सभा शऱरतं भील चिक़ थ़। वह घर व़पस ज़ने लग़। एक गला के मोड़ पर ईसे ऽबरजी कदख़इ दे गय़। ऽबरजी लपक कर ईसके प़स अय़ और बोल़, ‘‘तिम्हं ईन लोगं ने कि छ कह़ तो नहं?’’ ऱजी बोल़, ‘‘कह़ तो मिझे थ़। पर वह मेरे ऽलये तिम्हं कह़ थ़। ईदहंने कह़ थ़ कक यह ऄच्छ़ हं कक भ़गने व़ल़ तिम्ह़ऱ दोस्त नहं है। दोस्त होत़ तो अज हम तिम्हं जरूर पांते। तिम ऐसे शऱरता बच्चं के स़थ कभा मत रहऩ।’’ ‘‘ऱजी, लगत़ है तिम मेरे से ऩऱज हो। मं तिम्ह़ऱ दोस्त हूं। क्य़ तिम नहं म़नते हो?’’ ‘‘ह़ं, ऽबरजी, एक ब़र तो मंने यह म़न ऽलय़ थ़ कक तिम मेरे दोस्त नहं हो। तिम मिझे ऽपंने के ऽलये छोड़ कर भ़ग गये। पर ब़द मं ईन लोगं की ब़तं से लग़ कक मिझे तिम्ह़रा दोस्ता पर ऩज करऩ च़ऽहए। ऄगर तिम वहं रहते तो वे हम दोनं को दोषा म़नकर हम़रा ऽपं़इ करते। क्यंकक वे हम से बड़े और ज्य़द़ थे। भ़गने से वे यह समझे कक पत्थर िं कने व़ल़ मं नहं, तिम हो। सद़ तिम मेरे प़स खड़े होकर मिझे बच़ते रहे हो। अज तिमने भ़ग कर मेऱ कसीर ऄपने ऽसर लेकर मिझे बच़य़ है। ईन लोगं ने मिझे साख दा कक मिझे तिम जैसे शऱरता बच्चं से दीर रहऩ च़ऽहए....... व़स्तव मं यह साख कहता है कक तिम्हं मिझसे दीर रहऩ च़ऽहए। बत़ओ, क्य़ तिम मेरे दोस्त बने रहोगे य़ ईन लोगं की ब़त म़नकर........।’’ ‘‘ऄरे नहं, मं तिम्ह़ऱ दोस्त हूं और रहूंग़।’’ ‘‘वैसे मं दीरा बऩने की सोच चिक़ हूं।’’ ‘‘मिझसे?’’ ‘‘नहं, ऄपना पंग़ लेने की अदतं से, शऱरतं से.....।’’ आतऩ सिनते हा ऽबरजी को हंसा अ गइ। किर भल़ ऱजी हंसे ऽबऩ कै से रहत़।

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इश्वर हम़रे मिहल्ले के प़स एक हा मैद़न थ़। छों़ स़। छों़ थ़ आसऽलए हम छोंे बच्चं को ऽमल गय़। बड़़ होत़ तो ये बड़े हमं कह़ं लेने देते। हम वह़ं कक्रके ं खेलते। कक्रके ं मं चैके-छक्के न लगे तो कै स़ खेल? मैद़न के ठाक प़स इश्वर ऄंकल क़ बंगल़। हर बॉल छक्के पर इश्वर ऄंकल के बंगले मं चला ज़ता। ककसा के अईं होने, चैक़ लगने य़ छक्क़ लगने पर हम शोर मच़ते , वह भा ऽबऩ म़आक के इश्वर ऄंकल के बंगले मं चल़ ज़त़। पहले तो ऄंकल झिंझल़ते रहे। किर शोर क़ ऽवरोध करने लगे। बॉल चला ज़ता तो ईस पर कब्दज़ कर लेते। इश्वर ऄंकल के आस ऄत्य़च़र के क़रण हम ईदहं ‘ऱक्षस’ कहने लगे थे। कभा कभा बॉल लेने के ऽलये ज़ने व़ले दिस्स़हसा बच्चे पर ह़थ भा ईठ़ने लगे। कि छ ब़हर अकर बत़ते नहं थे, कि छ शरम़ते हुए कहते- हुंह, आससे ज्य़द़ जोर व़ल़ तम़च़ तो मिझे ऄपना मम्मा से ऽमलत़ है। पर यह तय हो गय़ कक छक्क़ लगने पर , बॉल इश्वर ऄंकल के बंगले मं ज़ने पर, छक्क़ लग़ने व़ल़ बैट्समैन हा बॉल लेने ज़येग़, बॉलर नहं य़ सब एक स़थ यह़ं से भ़गंगे। ह़ं, दीसरा जगह छक्क़ लग़ने पर आऩम ऽमलत़ है, पर हम़रे िै सले पर इश्वर ऄंकल की ऩऱजगा ह़वा रहा। हम ऄब पिऱने खेल ऄपने मजी से नहं खेलते थे, पर कक्रके ं के स़थ हा इश्वर ऄंकल के स़थ अंख ऽमचैना, लिक़ऽछपा, भ़गमभ़ग खेलने लगे। ऄच़नक ऄधयव़र्णषक पराक्ष़ अ गइ। हम सब ईसमं व्यस्त हो गये। कइ कदन तक मैद़न क़ मिंह नहं देख़। एक कदन वह़ं अये तो देख़, मैद़न क़ भीगोल बदल गय़ है। मैद़न क़ जो ऽहस्स़ जऱ उंच़ थ़,वह़ं ऄब एक लंब़ गहऱ गड्ढ़ थ़। ऄरे ह़ं, ऽपछले दो स़ल से ईस कोने मं बड़ा बड़ा प़आपं पड़ा हं, ईदहं धरता मं दब़ने क़ वि अ गय़ है। य़ना सावरे ज की ल़आन ऽबछ़इ ज़ना है। हम़ऱ अध़ मैद़न ईसकी भं​ं चढ गय़। ब़की अध़ भा हम से ऽछनेग़। मशानं गहऱ गड्ढ़ ईस ऽहस्से मंे​े खोद कर चला गइ हं। हो सकत़ है अगे की खिद़इ के ऽलये दो स़ल ब़द अये। तब तक अध़ मैद़न तो हम़ऱ रहेग़। ऄब हमने ऽवके ं की कदश़ बदल दा। एक ऄच्छ़ क़म यह हुअ कक छक्क़ लगने पर बॉल के इश्वर ऄंकल के बंगले मं ज़ने की संभ़वऩ कम हो गइ। आस खिशा मं ंप्पी ने बॉल को जोर से ऽहं ककय़ और वह छक्क़, स़तव़ं, अठव़ं बनता साधे गड्ढे मं चला गइ। सबको पिऱऩ िै सल़ य़द अ गय़ कक बॉल को छक्क़ लग़ने व़ल़ हा ल़येग़। ह़ं, यह सबको ईम्माद था कक गड्ढे मं कोइ इश्वर ऄंकल नहं होग़, आसऽलए ईसमं झ़ंक कर सब देखंगे। सबने ककऩरे से झिक कर देख़, पर बॉल कदख़इ नहं दा। सब ंप्पी को देखने लगे। आस ऽवश्व़स के स़थ कक ऄपने छक्के को वहा व़पस ल़येग़। सबको ईम्माद था कक बॉल गड्ढे मं हा कहं है। आतऩ जल्दा कौन ऽनक़ल कर ले ज़त़। बच्चं की संसद मं प़ररत िै सले को सम्म़न देने के ऽलये ंप्पी गड्ढे मं ईतरने के ऽलये तैय़र हो गय़। वह ईतरने लग़। गहरे गड्ढे मं एकदम नाचे ईतर गय़। बॉल भा वह़ं पड़ा था । ईसने बॉल ईठ़इ और उपर से झ़ंक रहे दीसरे ऽखल़ऽडयं को कदख़इ। ISSN –2347-8764

खिशा की चाख भा सिऩइ। जैसे ईसने ककसा सऽचन य़ सहव़ग क़ कै च ले ऽलय़ हो। पर वह़ं कोइ ईसके गले ऽलपंने व़ल़ नहं थ़। वह बॉल लेकर ब़हर ऽनकलने के ऽलये गड्ढे की दाव़रं पर पैर रखने की जगह ढी ंढने लग़। ऄच़नक.....। ऄच़नक दाव़र की कच्चा ऽमट्टा क़ एक बड़़ स़ ंि कड़़ धड़़म से ऽगऱ। ंप्पी ने ऄपने दोनं ह़थं के बाच ऽसर को और बॉल दोनं को बच़ ऽलय़। पर खिद कमर तक ईस ऽमट्टा मं धंस गय़। ब़हर ऽनकलने के ऽलये ऽजतऩ जोर लग़त़, ईतऩ नाचे हा धंसत़। ऄपने ह़थं से ऽमट्टा हं़ने की कोऽशश करत़, पर ऽमट्टा था कक कम होने की बज़य बढ रहा था। ब़हर बच्चे शोर मच़ने के ऄल़व़ कि छ नहं कर प़ रहे थे। ईनक़ शोर सिनकर कइ ऱहगार वह़ं रूक गये। पर गड्ढे मं ईतरने की कोइ ऽहम्मत नहं कदख़ रह़ थ़। कोइ ि़यर ऽबग्रेड को िोन करने की तो कोइ ऽनगम को ि ेोन करने की ऱय देने लग़। ंप्पी रूअंस़ हो गय़। डबडब़इ अंखं से ईसने देख़, कोइ गड्ढे मं ईतर रह़ है। अंख मं अंसी और रे त के कण होने के क़रण वह ठाक से देख नहं प़य़। जब वह व्यऽि एक दम प़स अ गय़ तो पहच़ऩ कक यह तो वहा ऄंकल है, ऽजसे ऄब तक ऱक्षस कहत़ रह़ है..... क्य़ यह गड्ढ़ भा ईनक़ बंगल़ है? क्य़ वह तम़च़ लग़ने के ऽलये...। वह सोचत़ रह़। पर इश्वर ऄंकल ईसके प़स पहुंच कर ईसके अस प़स की रे त-ऽमट्टा ऄपने ह़थं से हं़ने लगे। पहले ईदहंने एक तरि की ऽमट्टा हं़इ और ंप्पी क़ एक पैर ब़हर ऽनक़ल ऽलय़। किर दीसऱ ऽनक़लने लगे। लोग ब़हर शोर कर रहे थे, पर कोइ भातर अने की ऽहम्मत ऄब भा नहं कदख़ रह़ थ़। इश्वर ऄंकल की मेहनत और तरकीब रं ग ल़इ । ंप्पी ऄब ब़हर थ़। ऽजस रे त ऽमट्टा मं दब़ थ़,ईसके उपर बैठ़ थ़। बॉल ईसके ह़थ से छी ं गइ था। पर इश्वर ऄंकल ने दोब़ऱ ईसे बॉल पकड़़ दा। थोड़़ रोते, थोड़़ डरते , ंप्पी बोल़- ऄंकल, अप ज़नते हं हम बच्चं ने पहले अपको क्य़ ऩम कदय़ थ़... हमने अपको ऱक्षस कहऩ शिरू कर कदय़ थ़ क्यंकक अप हम़रा बॉल दब़ लेते थे, बॉल म़ंगने पर अपसे तम़च़ ऽमलत़ थ़। मिस्कऱते इश्वर ऄंकल बोले, ऄब क्य़ कहोगे? ऄंकल, जो अपक़ ऩम है य़ना इश्वर-भगव़न....। नहं, ंप्पी मं पहले भा आं स़न थ़ और ऄब भा आं स़न हूं..... लगत़ है ि़यर ऽिगेड व़ले अ गये हं। लो, उपर से रस्स़ भा अ गय़ है, आसे पकड़ कर ब़हर चलते हं। वे दोनो गड्ढे से ब़हर अ गये और ऄब बच्चं के घेरे के भातर थे। ंप्पी और इश्वर ऄंकल..... ऽसिय आं स़न। ह़ं, शोर मच़ने मं म़ऽहर बच्चे ऄब चिप थे, पर इश्वर ऄंकल बोल गये-ऄब तिम लोग मिझे ऱक्षस म़नो य़ कि छ और, पर आतऩ य़द रखऩ, मं ऄपऩ और ऄपने पररजनं क़ ऽसर तिम्ह़रा ब़ल से बच़ने की कोऽशश ज़रा रखींग़। ♦♦♦

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ग्ऱमोत्थ़न ऽवद्य़पाठ, संगररय़-335063

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कह़ना

ऄपने ऄपने अइने कदनेश पंच़ल

चरय ऻ​ऻ..ची.ं . की अव़ज के स़थ ऄच़नक तेज िेक लगने के क़रण कस्बे के थ़नेद़र की जाप लगभग गजभर ऽघसंता हुइ रुकी। ड्ऱआवर के प़स हा थ़नेद़र बैठ़ हुअ थ़। स़मने दोनं ह़थ िै ल़ये जाप को रोकने क़ आश़ऱ करता हुइ ‘गलकी’ पगला खड़ा था। एक ह़थ मं पिऽलऽसय़ डंड़ थ़मकर गिस्स़य़ ड्ऱआवर नाचे ईतऱ और तेज कदमं से साध़ गलकी की तरि भ़ग़। गलकी ऄपना जगह से ंस से मस नहं हुइ, मीर्णतवत् ऽबऩ डर के खडा रहा। जैसे हा ड्ऱआवर ने ईसे धमक़ने के ऽलए डंड़ उंच़ ककय़, थ़नेद़र ने तेज अव़ज के स़थ ईसे रोक कदय़। गलकी के धील से सने चेहरे पर व्यंग्य़त्मक मिस्क़न तैर अया। ‘‘म़र,....ले....म़र डंड़। तिझ मं ऽहम्मत है क्य़ ?’’- गलकी ने ड्ऱआवर की तरि देखते हुए कह़। ड्ऱआवर क़ चेहऱ किर से तमतम़ गय़। ईसक़ ह़थ पिनः उंच़ हो गय़, ककदति थ़नेद़र के अदेश की ऄवहेलऩ करने की ईसकी ऽहम्मत नहं बन पड़ा। वह मन मसोस कर रह गय़, लेककन पगला क़ सिददर चेहऱ ईसकी अंखं मं चीभ स़ गय़। गलकी साधा जाप मं बैठे थ़नेद़र की तरि लपकी और नमस्क़र की मिऱ बऩकर खड़ा हो गइ, ऽबल्कि ल प़स ज़कर बोला—‘‘स़‘ब नमस्ते।’’- वह सिख सिख करता हुइ हँस पड़ा। थ़नेद़र ज़नत़ थ़ कक यह तो आस पगला क़ रोज क़ ऩंक है, अये कदन ऱस्त़ रोक कर परे श़न करता रहता है। ‘‘क्य़ हुअ रे ! गलकी, जाप क्यं रुकव़ दा ?’’- थ़नेद़र ने गलकी को ऽचढ़़ने के लहजे मं कह़। ‘‘दस रूपये दे दो।’’-दोनं ह़थ िै ल़ते हुए गलकी ने य़चऩ की। ‘‘क्यं, दस रुपयं की तिझे क्य़ जरूरत है ?’’ ‘‘स़’ब, क्य़ पीछते हो? दे दो ऩ।’’ ‘‘ऄरे ! बत़ऩ तो पडेग़ हा।’’ ‘‘मिझे च़य पाना है स़’ब।’’ ‘‘बस आतना सा ब़त? मिझे साधे हा कह देता, मं स़मने व़ला च़य की दिक़न व़ले सेठ से कह देत़।’’ ‘‘नहं थ़नेद़रजा, यह सेठ बड़़ हऱमा है। अपके स़मने तो ह़ँ कह देग़, पर च़य देग़ नहं। च़य दे भा देग़ तब भा ISSN –2347-8764

गददा-गददा ब़तं करे ग़, गददे आश़रे करे ग़ और त़क-त़क कर मेरा तरि देखेग़। यह सेठ हा नहं, ये सब दिक़न व़ले ऐसे हा हं। मं आससे हऱम की च़य नहं पाऩ च़हता हूँ।’’ थ़नेद़र ने दस रुपये क़ नों गलकी के ह़थ मं थम़ कदय़ और सोचने लग़ कक ऐसा ब़त करने व़ला औरत प़गल कै से हो सकता है? ड्ऱआवर ने तिरदत झंके के स़थ जाप को तेज गऽत के स़थ अगे बढ़़ कदय़। ईसने ऄपने स़मने लगे छोंे से अइने को एक ह़थ से आस तरह से व्यवऽस्थत ककय़ कक पाछे क़ सब कि छ कदख़इ दे सके । ऽवशेषकर गलकी क़ चेहऱ व िंे कपड़ं मं से झ़ंकते ईसके ऄंग। ईसने जाप की गऽत को धाम़ कर कदय़ और तब तक वह ईस अइने की तरि ऽनह़रत़ रह़ जब तक कक गलकी की छऽव अइने से ओझल नहं हो गइ। ऐस़ करते हुए जाप स़मने ऽबजला के खम्भे से ंकऱते-ंकऱते बचा। थ़नेद़र भा गलकी को हा ऽनह़रने की गरज से पाछे की तरि त़क रह़ थ़। दोनं के मन मं श़यद एक हा ऽवच़र कंध रह़ थ़, क़श! यह गलकी प़गल नहं होता...। यह ब़त ऄलग था कक प़गलपन के क़रण हा गलकी जैसा सिददर औरत लोगं के समाप और ऽनग़हं के स़मने आतना अस़ना से था वरऩ...। आस घंऩ को असप़स की भाड़ कौतिहल भरा दुऽि से देख रहा था। आनमं से कइ लोगं को गलकी की तरि लग़त़र त़कने क़ बह़ऩ ऽमल गय़ थ़ और वे ईसक़ पीऱ-पीऱ ल़भ ले रहे थे। ऐस़ होत़ भा क्यं नहं, व्यऽि प़गल हो सकत़ है, सिददरत़ थोड़े प़गल होता है। गलकी च़य की दिक़न पर गया और ख़ला बंच पर बैठकर रौब के स़थ एक च़य क़ ऑडयर कदय़। नौकर ब़हर की ओर प़ना की ं​ंकी के प़स पड़े की ड़े के प़स रखे हुए एक ऽगल़स मं च़य भरकर ले अय़ और गलकी को थम़ने के ऽलए ह़थ अगे बढ़़य़। गलकी तैश मं अकर खड़ा हो गइ और नौकर पर बरस पड़ा-‘‘ऄबे ओ हऱमा! की ड़े मं िै के हुए ऽगल़स मं च़य भर कर ल़य़ है ? आस ऽगल़स को रोज कि तरा च़ंता रहता है। मं तेरे सेठ को पैसे देकर च़य पाने अया हूँ, सब पाते हं ईस व़ले ऽगल़स मं च़य ल़...।’’ नौकर च़य लेकर व़पस गय़ । नये

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ऽगल़स मं च़य भरने के ऽलए ऽगल़स ईठ़ हा रह़ थ़ यह देखकर ईसक़ सेठ दौड़त़ हुअ अय़ और ऽगल़स को झपं ऽलय़, ड़ं​ंते हुए बोल़ -‘‘भेररय़, ती यह क्य़ कर रह़ है? यह ऽगल़स तो ऄच्छे व़ल़ है, आसमं प़गलं को च़य नहं देते हं। तीने पहले ऽलय़ थ़ वहा ऽगल़स ठाक है।’’ ‘‘सेठजा, मंने तो ईसे ईसा ऽगल़स मं च़य दा था, पर वह तो ईस ऽगल़स मं लेने से मऩ कर रहा है और किर वह बेच़रा पैसे भा तो दे रहा है...किर ईसे क्यं...!’’ ‘‘ठाक है मिझे दे। मं ज़त़ हूं, देखीं कै से नहं लेता है?’’ सेठ स्वयं च़य लेकर गय़ और गलकी की तरि बढ़़य़, लेककन गलकी ने सेठ को भद्दा ग़ला देते हुए ऽगल़स धके ल कदय़। च़य िशय पर ऽबखर गया और क़ंच क़ ऽगल़स ककचरा-ककचरा होकर ऽबखर गय़। दस रुपये क़ नों हव़ मं लहऱता हुइ गलकी उंचा अव़ज मं ऽचल्ल़इ-‘‘सेठ, ती क्य़ समझत़ है ऄपने अप को? क्य़ हम़ऱ जाव नहं है, हम म़नवा नहं हं, मं पइसे नहं दे रहा था? मिझे गैला-ग़ंडा समझकर ऄलग ऽगल़स मं च़य दे रह़ है? स़ल़ रोज सिबह-सिबह मं मेरे को त़कत़ किरत़ है, गददे आश़रे करत़ है तब मं प़गल नहं लगता और ऄब जब च़य क़ ऽगल़स देऩ है तब मं प़गल हो गया ?’’ गलकी ऽचल्ल़ता हुइ बाच सड़क पर अकर कं कड़-पत्थर और जो भा ह़थ मं अय़ लेकर दिक़न की तरि िं कने लगा। वह तो क़िी निकस़न कर देता ककदति स़मने से ईसने ऄपने जेठ को अते हुए देख ऽलय़ थ़। श़यद ईसके डर से बड़बड़़ता हुइ भ़ग ऽनकला। अज हा नहं अये कदन गलकी ऐस़ हा करता था। ऱस्ते मं अतेज़ते ककसा को कभा नहं छेड़ता था, बस ऄपने अनंद मं खोइ रहता। कभा ऩचने लगता, कभा ग़ने लगता, कभा ककसा को ह़थ जोड़कर नमस्ते करता और कभा-कभा तो सभ्यत़पीवयक संबोधन करता था। ऽबल्कि ल ऄहस़स तक नहं होत़ थ़ कक वह प़गल है। ऽपछले कि छ कदनं से वह ईद़स-सा रहने लगा था और कइ ब़र ईसे िी ं-िी ं कर रोते हुए भा देख़ गय़ थ़। ईसकी बिरा अदत यह था कक वह कभा-कभ़र ऄपने कपड़े ईत़र कर ऽनवयस्त्र घीमता-किरता था। जब वह ऐस़ करता था तब कोइ वुिजन ऄथव़ ईसक़ पररजन ऄथव़ कोइ औरत जो भा ऽमल ज़त़ तो वस्त्र ईसके तन पर ड़ल देते थे। ईसकी आस ऽस्थऽत के ब़रे मं पररजनं को पत़ चलत़ थ़ तो वे ईसे ले ज़ते थे और घ़स की कोठरा मं बदद कर देते थे। भीख़-प्य़स़ रख़ ज़त़ थ़। ईसको ठाक कऱने के ऽलए ऽबजला के शॉक लगव़ये। ज़दी-ंोऩ करव़य़, ककदति स़रे प्रय़स ऽविल रहे। ऐस़ हो ज़ने के ब़द गलकी कहं बैठकर चिपच़प ऄपना दिदश य ़ पर रोता था। कोइ ईस पर दय़ न कर दे और बेच़रा न समझ ले यह सोचकर वह ऄपने अँसओं ि को लोगं से ऽछप़ने के ऽलए चेहऱ छि प़ लेता था। दय़ तो वह ककसा की च़हता हा नहं था। ईसने कइ ब़र कइ लोगं की दय़ प़इ भा था, ककदति हर ब़र दय़ के बदले कोइ न कोइ स्व़थय देख़ थ़। ऄपने प़गलपन मं भा वह आतऩ तो ज़नता था कक यकद दय़ भगव़न ने ईसके ऽलए बऩइ ISSN –2347-8764

होता तो अजतक प़गल नहं बना रहता। गलकी कभा-कभ़र ऄपऩ दिखड़़ ऐसे ककसा स्त्रा ऄथव़ पिरूष को सिऩय़ करता था ऽजस पर ईसे ऽवश्व़स हो ज़त़ थ़ कक वह मन मं कोइ खों नहं रखत़ है और ईसके प़गलपन को समझत़ है। वह ऄपने प़गलपन के कइ म़नऽसक क़रण ऽगऩता था। कौनस़ क़रण ज्य़द़ प्रभ़वा रह़ यह तय नहं थ़। वैसे भा बहुत कम लोग ऐसे ऽवरले होते हं ऽजनके जावन मं बहुत स़रे म़नऽसक प्रत़ड़ऩ के क़रणं को सहन करने की क्षमत़ होता है। ऽऺिर गलकी की क्य़ ऽबस़त? गलकी क़ व़स्तऽवक ऩम ग़यिा थ़। ईसक़ चिलबिल़पन और सिददरत़ ईसके बचपन के कदनं के गौरव थे। ईसकी ईम्र की सभा लड़ककय़ं तड़क-भड़क मं रह़ करता था, ककदति ग़यिा सिशाल था और सभ्यत़ से रहने व़ला था। क्य़ मज़ल कक ईसके वक्षःस्थल से ईसक़ दिपट्ट़ जऱ भा सरक ज़ये। पर, ह़य रा ककस्मत! कक अज वह कस्बे की सड़कं पर खिले बदन घीमता किर रहा था। ईसके प़गल होने के ब़द ईसे ग़यिा की बज़य गलकी कह़ ज़ने लग़। प्ऱयः श़म को वह कस्बे के गोल ब़ज़र के बाच मं बना छतरा के नाचे बैठ ज़य़ करता था। कभा तो की डेकरकं से ऄपऩ श्रुग ं ़र करता, कभा प्ल़ऽस्ंक की थैऽलयं ऄथव़ गददे कपड़ं क़ घींघं ऽनक़ल कर ऐसे बैठ ज़ता जैसे दिल्हन सिह़ग की सेज पर बैठा हो। कभा अक़श की ओर देखकर दोनं ह़थं को िै ल़कर ऐसे आश़ऱ करता जैसे कोइ अक़श से ईतर रह़ हो और वह ईसको ऄपना ब़जिओं मं भरऩ च़ह रहा हो। गोल ब़ज़र कस्बे के ठाक बाच मं ऽस्थत थ़। ऄपने ऩम के ऄनिरूप पीऱ ब़ज़र गोल़इ मं बऩ हुअ थ़। ब़ज़र के बाच मं बना छतरा के नाचे ककसा मह़पिरूष ऄथव़ नेत़ की मीर्णत लगना था, ककदति ऄब तक लग नहं प़इ था। ह़ँ, मीर्णत के स्थ़न पर कभाकभा बच्चे बैठ ज़ते थे य़ कभा-कभ़र श़म को गलकी अकर बैठ ज़ता था। वह जब छतरा के नाचे बैठता था तो च़रं ओर की ऄऽधक़ंश दिक़नं के दिक़नद़र ऄपना कि र्णसयं की कदश़ ऄंदर की ओर करके बैठ ज़ते थे। कि छ बदम़श ककस्म के लोग कनऽखयं से गलकी के सौददयय को ऽनह़रते थे और ऄपऩ कदख़वंा दिःख जत़य़ करते थे। छतरा के ठाक स़मने सेठ जनकऱम की दिक़न था। ईनक़ पोत़ पप्पी रोज श़म को द़द़ के ऽलए च़य लेकर अत़ थ़। अज भा वह थमयस मं च़य लेकर अय़। ईसकी दुऽि लगभग ऄियनग्न बैठा गलकी पर पड़ा तो ईसने शमय के म़रे ऽसर झिक़ ऽलय़ और च़य लेकर अगे चल पड़़। दिक़न पर पहुंच़ तो ईसने देख़ कक ईसके द़द़ दिक़न के क़ईदंर की ऽवपररत कदश़ मं मिँह कर के बैठे हं। वह क़ईं ंर क़ ि़ंक खोलकर ऄददर गय़ और थमयस को प़स मं पड़े स्ंी ल पर पर रख कदय़। ईसने धारे से पिक़ऱ-‘‘द़द़जा!’’ ककदति द़द़जा ने जैसे सिऩ हा नहं। एकंक कि छ देखने मं खोये हुए थे। ईसने ऄबकी ब़र जोर से अव़ज लग़इ-‘‘द़द़जाऻ​ऻ...।’’ सेठजा एकदम चंककर तितल़ते हुए बोले ‘‘कक् ...कौन है...?’’ ‘‘मं हूँ, द़द़जा! पप्पी।’’-अश्चयय मं डी बत़ हुअ पप्पी बोल़। ‘‘पप्पी बें़...त..त्..ती...कब अय़ ?’’

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‘‘मं ऄभा अय़ हूँ। ि़ंक खोलकर ऄंदर अय़ और थमयस को स्ंी ल पर रख़, अपको अव़ज लग़इ, पर अपने सिऩ हा नहं। अप क्य़ कर रहे थे?... ंा.वा. देख रहे थे क्य़ ?...ऄरे ! ंा.वा. तो बंद है किर क्य़ देख रहे थे ?’’-ऄब पप्पी क़ अश्चयय और बढ़ गय़। ‘‘ऄरे नहं बें़, मं तो रै क मं रखा वस्तिऐं देख रह़ थ़। कल ब़ज़र से स़मग्रा ल़ना है, आसऽलए क्य़ वस्ति कम है यह देख रह़ थ़।’’सेठ ने बह़ऩ बऩय़ । सेठ ऄपना कि सी से ईठे , थमयस मं से च़य ऽनक़ला और कपनिम़ ढक्कन मं हा ड़लकर होठं से लग़ऩ हा च़ह़ थ़ कक पप्पी से पीछ़-‘‘बें़ तीझे पाना है क्य़ ?’’ ‘‘नहं, मं तो घर से च़य मं दीध और मल़इ ऽमल़कर पाकर अय़ हूँ। स़रा च़य अप पा लो ।’’ थमयस मं ऄभा भा कपभर च़य और बचा था। प़स मं रखे कप मं बचा हुइ च़य को ड़ल कदय़ और पप्पी से प़स की दिक़न व़ले महाप़ल क़क़ को देने के ऽलए कह़। पप्पी महाप़ल क़क़ की दिक़न पर गय़। महाप़ल क़क़ भा भातर की ओर मिँह कर के कि छ देखने मं व्यस्त थे। पप्पी ने अव़ज लग़इ-‘‘महाप़ल क़क़...!’’ ककदति महाप़ल क़क़ भा कि छ देखने मं तल्लान थे। ईसने अव़ज लग़इ-‘‘क़क़, ओ ! महाप़ल क़क़ऻ​ऻ...’’ महाप़ल क़क़ भा जैसे नाद से ज़ग़ हो, चंक कर ऄपना कि सी से ऐसे ईठ़ जैसे कोइ ऄपऱध करते हुए पकड़़ गय़ हो। ईसने भा लगभग तितल़ते हुए कह़-‘‘प..प..पप्पी बें़, ब..ब..बोलो क्य़ हु..अ?’’ ‘‘मं अपके ऽलए च़य ल़य़ हूँ।’’- कहते हुए ईसने च़य क़ कप क़क़ को थम़ कदय़। एक ह़थ से मऽहप़ल ने च़य क़ कप ऽलय़ और दीसरे ह़थ से स़मने पड़ा बरना मं से एक च़ेृकलें ऽनक़लकर पप्पी को दा। पप्पी च़ेृकलें लेकर चल कदय़। पप्पी क़ ब़लमन अश्चयय चककत थ़ कक ऽजस तरह से ईसके द़द़जा ऄंदर की ओर देखने मं तल्लान थे, ठाक ईसा दश़ मं महाप़ल क़क़ भा थे। ईसने सोच़- ‘और भा कि छ दिक़नं को देखं कक वह़ँ पर क्य़ हो रह़ है?’ पप्पी ने देख़ कक कइ दिक़नद़रं की भा ऐसा हा ऽस्थऽत था। ईसकी समझ मं कि छ भा नहं अ रह़ थ़। कक अऽखर ब़त क्य़ है ? कि छ दिक़नं ऐसा भा था कक ईनमं बैठे दिक़नद़र ऄपने व्य़प़र करने मं व्यस्त थे। घीम-किर कर पप्पी द़द़ की दिक़न पर लौं अय़। ईसे देखकर द़द़जा ने कह़-‘‘बें़ मं दो ऽमनं मं ब़थरूम ज़कर अत़ हूँ, तब तक ती यहं बैठऩ।’’ द़द़जा के ज़ते हा, पप्पी कि सी पर बैठ गय़, कि छ देर तक तो कि सी को द़ँय-े ब़ँये चकरा की तरह घीम़त़ रह़ और झिले क़-स़ अनदद लेत़ रह़। किर भा ईसक़ ब़लमन ऄभा भा आस ब़त मं खोय़ हुअ थ़ कक ऄऽधक़ंश दिक़नद़रं की ऽस्थऽत एक जैसा क्यं था? ईसने सोच़, द़द़जा स़मने की तरि ंकंकी लग़कर क्य़ देख रहे थे ? गौर से ईसने ईसा कदश़ मं देख़ तो रै क मं रखे स़म़न के बाच मं एक अइऩ थ़। ऄपऩ चेहऱ देखने के ऽलए पप्पी ने अइने मं देख़ तो ईसे ऄपने चेहरे के स़थ हा छतरा के नाचे बैठा गलकी की छऽव कदख़इ दा। ऽजसमं गलकी क़ ऽनवयस्त्र तन स्पि कदख़इ दे ISSN –2347-8764

रह़ थ़। पप्पी क़ म़थ़ ठनक़, ईसको ऄब कि छ-कि छ समझ मं अ रह़ थ़ कक अआने की तरि ग़ौर से क्यं देख़ ज़ रह़ है? वह चिपच़प ईठ़ और महाप़ल क़क़ की दिक़न पर कप लेने के बह़ने पिनः गय़। ऄबकी ब़र वह ि़ंक खोलकर साध़ ऄंदर चल़ गय़। ईसा समय कोइ ग्ऱहक अय़। स़म़न देने के ऽलए महाप़ल क़क़ खड़़ हुअ तो पप्पी गिपचिप कि सी पर बैठ गय़। ईसकी खोजा ऽनग़हं ने स़म़न के बाच मं रखे अइने को देख ऽलय़। आस अइने मं भा वहा दुश्य थ़ जो ऄभा-ऄभा ऄपने द़द़जा के अइने मं देखकर अय़ थ़। ईसक़ मन घुण़ से भर अय़। वह झिंझल़कर कि सी से ईठ गय़। महाप़ल क़क़ ग्ऱहक को स़म़न देकर किर से ऄपना कि सी पर बैठ गय़। पप्पी ईसे ि़ंक खोलकर ब़हर ज़त़ कदख़। ईसने पिक़ऱ-‘‘पप्पी बें़, बैठ ज़। क्य़ हुअ, व़ऽपस क्यं चल कदय़ ?’’ ‘‘बस क़क़ मं तो कप लेने अय़ थ़, ईसे लेकर ज़ रह़ हूँ।’’-ब़हर ऽनकलते हुए दबे हुए स्वर मं पप्पी बोल़। वह ईद़स-स़ हो गय़ थ़। महाप़ल ने एक चॉकलें ऽनक़ल कर ईसे देना च़हा तो लगभग खाजते हुए लेने से मऩ कर कदय़। महाप़ल को अश्चयय हुअ कक चॉकलें को ऽबजला की गऽत से लपक लेने व़ल़ पप्पी अज मऩ क्यं कर रह़ है! वह पीछऩ च़ह रह़ थ़, ककदति पप्पी ने हा पीछ़-‘‘क़क़, ये अइने नहं होते तो क्य़ होत़ ?’’ यह प्रश्न महाप़ल को जहरबिझे तार की तरह ऄपने ऄदतस् को बहुत गहरे सिबध गय़। वह एक ब़लक के मिंह से ऐस़ गीढ़ प्रश्न सिनकर अश्चययचककत थ़। ऄपऱधबोध मन मं ऽलये हुए वह ईल्ंे कदम़ंे​े से अइने के प़स गय़ और पप्पी की नजरे बच़ते हुए ईसे ईत़र कर धारे से प़स मं रखा ऄखब़र की रद्दा मं छि प़ कदय़। पाछे मिड़कर ईसने देख़ तो पप्पी वह़ँ से ज़ चिक़ थ़। पप्पी ऄपना दिक़न के स़मने गय़ और ऱस्ते मं पड़े एक बड़े कं कड़ को ईठ़कर साध़ अइने को ऽनश़ऩ बऩकर िं क़। कं कड़ ठाक ऽनश़ने पर लग़। अइऩ ंी ंकर ऽबखर गय़। कि छ देर ब़द ऄच़नक छतरा के च़रं ओर भाड़ लग गइ। पप्पी भा दौड़त़ हुअ भाड़ तक पहुंच़। भाड़ को चारकर जैसे हा वह ऄंदर घिस़ ईसने देख़ कक गलकी चक्कर ख़कर छतरा की साऽऺढयं के नाचे लिढ़ककर धऱश़या हो गइ है। कोइ ईस पर प़ना के छं​ंे ड़ल रह़ थ़, तो कोइ ईसक़ मिंह ऽहल़कर होश मं ल़ने क़ जतन कर रह़ थ़। गोल ब़ज़र की ऽडस्पेदसरा क़ डॉक्ंर भाड़ के ऄददर अय़। ईसने गलकी की नब्दज पकड़कर कि छ देर तक घड़ा मं देख़। कि छ सोचने के ब़द ईसने गलकी की छ़ता और पें पर स्थेंेस्कॉप रखकर ज़ंचपड़त़ल की। डॉक्ंर क़ चेहऱ भ़व ऽवहान-स़ हो गय़। वह धारे धारे बिझे हुए मन से खड़़ हुअ। भाड़ मं खड़े लोग ड़ेृक्ंर के चेहरे के ईड़ते हुए रं ग को देखकर चिप थे। ‘‘डॉक्ंर स़हब क्य़ हुअ ?’’-भाड़ मं से ककसा ने अश्चयय ऽमऽश्रत ईत्सिकत़ भरे स्वर मं पीछ़। डॉक्ंर ऽसर पर ह़थ िै रत़ हुअ मन हा मन बड़बड़़य़-‘‘ओह ! नो...आं् ’स स्ट्रेदज...। शेम..शेम...ह़ई आं की ड बा पोऽसऽबल?’’

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लोगं की ईत्सिकत़ ऄब जव़ब दे रहा था। भाड़ मं खड़े कस्बे के ऽवद्य़लय के म़स्ंरजा ने पीछने की ऽहम्मत की-‘‘डॉक्ंरस़हब कि छ तो बत़ओ, अऽखर गलकी को ऄच़नक क्य़ हो गय़ है ?’’ कि छ देर और चिप रहने के ब़द डॉक्ंर ऽबल्कि ल बिझे हुए स्वर मं बिदबिद़य़-‘‘...शा...आज...प्रेग्नेदं..!’’ डॉक्ंर के मिंह से म़नवत़ को शमयश़र कर देने व़ले शब्दद सिने तो भाड़ मं श़ऽमल लोग एक-एक कर ऽखसकने लगे। ऄऽधक़ंश दिक़नद़रं ने ऄपना दिक़नं की तरि रूख कर ऽलय़। ईनके मन मं श़यद यह ऽचदत़ सत़ रहा था कक न ज़ने ककस के और ककतने ऩम स़मने अयंगे ? कि छ लोग खिसर-पिसर कर रहे थे कक गलकी क़ पें कि छ कदनं से भऱ कदख रह़ थ़, पर प़गल औरत के स़थ ऐस़ कि कमय कौन कर सकत़ है? यह सोचकर, चिप्पा स़ध लेते थे। बेहोश पड़ा गलकी के शरार मं हलचल होने लगा। होश मं अते हा वह ईठा। ऄपने कपड़े ठाक करता हुइ बेपरव़हा से तेजा से गोल ब़ज़र से ब़हर ऽनकल गइ। पप्पी द़द़जा की प्रताक्ष़ ककये ऽबऩ हा घर चल़ गय़ थ़। ज़ते हुए वह बड़बड़़ रह़ थ़-‘स़ले....गोल ब़ज़र व़ले हऱमा हं। कि िे हं.....कि िे...।’ अज गोल ब़ज़र कदन रहते हा बंद हो गय़। छतरा के प़स एकएक कर के कि छ कि िे जम़ हो गये थे। ऐस़ लग रह़ थ़ कक ऱतभर के ऽलए पीरे गोल ब़ज़र पर ईदहंने ऄपऩ अऽधपत्य जम़ ऽलय़ हो। एक दीसरे से ऄठखेऽलय़ं करते हुए ऐसे प्रतात हो रहे थे जैसे वे ऄपने अपको अदमज़त जत़ने की जिगत मं लगे हं।

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प़वयता-ऽवह़र, सहज कॉलोना, बस स्ंेशन के प़स, ऽवक़सनगर, ऽजल़-डी ंगपिर(ऱज.)-14404

'ऄऽस्मत़ पवय-19' मं ऽचि प्रदशयन

ऽवश्व प्रऽसद्द संत पी. मोऱरा ब़पी के ऽवशेष ऽनमंिण से 'ऄऽस्मत़ पवय 19' महुव़ (गिजऱत) मं ऽवद्य़नगर के दो ऽचिक़र श्रा ऄशोक ख़ं​ं और श्रा कनि पंेल के ऽचिं क़ प्रदशयन भा ककय़ गय़ थ़ । प्रदशयन के दौऱन पी. मोऱरा ब़पी, ह़ल हा मं भ़रताय ज्ञ़नपाठ पिरस्क़र प़ने व़ले श्रा रघिवार चौधरा, किल्म मेकर जऩब मिज़फ्फ़र ऄला, ऩट्डकिल्म कल़क़र श्रा ऄचयन ऽिवेदा एवं बड़ा संख्य़ मं स़ऽहत्यक़रकल़क़र ईपऽस्थत थे । ऽचिक़र श्रा ऄशोक ख़ं​ं ने कइ ब़र 'ऽवश्वग़थ़' के मिखपुष्ठ को सज़य़ है । ♦♦♦ ISSN –2347-8764

ऄनिसध ं ़न पेज - 49 से भऽवष्य के संग्रहं को लेकर सम्प़दक क़ ध्य़न आस ओर ऄवश्य बऩ रहे । दीसरे , रचऩ-संग्रहं क़ सम्प़दन म़ि रचऩ समिच्चय हेति ककय़ ज़ने व़ल़ प्रय़स प्रतात होने लगे तो ऐसे प्रय़सं की पहुँच बहुत व्य़पक नहं बन प़ता । स़ऽहऽत्यक आऽतह़स सदैव से स़क्षा रह़ है, कक सोद्येश्य क़व्य-संग्रह हा अज तक ईद्धुत ककये ज़ते रहे हं । एक तथ्य सवयस्वाक़यय है कक रचऩओं की दश़एँ और ईनकी शैऽल्पक तथ़ वैध़ऽनक ऽस्थऽत हा रचऩक़रं को स्वाक़यय बऩता हं । त़त्पयय यह है, कक रचऩक़र हा नहं, रचऩएँ भा रचऩक़रं को गढ़ता हं । यह ऄलग ब़त है, कक गहन सतत ऄभ्य़स और समुिक़रा ऄनिभव ककसा रचऩक़र की पीँजा होते हं ऽजनके अध़र पर रचऩक़रं की रचऩओं की गहऱइ प्रभ़वा हुअ करता है । आस ऽवददि पर रचऩक़रं के सीचा क़ संयत रहऩ ऄत्यंत ऄवश्यक हुअ करत़ है । ककसा रचऩक़र को ककसा संग्रह मं क्यं स्थ़न ऽमल़ आसकी ज़नक़रा ऽमलऩ सम्प़दक से ऄपेऽक्षत तो होत़ हा है, संग्रह की महि़ को भा बढ़़ देत़ है । ऽवश्व़स है, अग़मा संग्रहं मं ऐसे तथ्यं तथ़ ऽवददिओं की ओर सम्प़दक क़ ध्य़न अग़मा संग्रहं मं ऄवश्य रहेग़ । यह ब़त तो तय है कक कि ण्डऽलय़ छदद से तथ्य त़र्दकक तथ़ प्रभ़वा ढंग से संप्रेऽषत ककये ज़ सकते है । अवश्यकत़ यहा है कक अज की पाढ़ा आस छदद को रचऩकमय क़ म़ध्यम बऩये । सबसे बड़ा ब़त है, कक की ण्डऽलय़ छदद के म़ध्यम से ककसा ऽवषय को छः पंऽियं मं मि​िक की तरह प्रस्तित ककय़ ज़त़ है । अज की भ़ग-दौड़ की ऽज़ददग़ा मं ऐसे रचऩ-म़ध्यमं की महि़ स्वयमेव बढ़ ज़ता है । ऽनस्संदेह ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ क़ कि ण्डऽलय़ छदद को लेकर बऩ अग्रह आस छदद की व्य़पकत़ को पिनस्थ़यऽपत करे ग़ । दोनं संग्रहं की छप़इ और कलेवर अकषयक हं । प्रि​ि के प्रऽत बना दुऽि प्रभ़ऽवत करता है । वैसे तऽनक गिंज़आश तो सद़ बना रहता है । दोनं संग्रह ह़डयब़आण्ड हं । छ़ददऽसक रचऩओं के ऄभ्य़ऽसयं तथ़ प़ठकं के प़स आन दोनं संग्रहं क़ होऩ ऽनस्संदेह ईनकी ’दुऽि’ को व्य़पक करे ग़ । आदहं शिभक़मऩओं के स़थ ऱजस्थ़न ग्रदथ़ग़र, जोधपिर से प्रक़ऽशत दोनं कि ण्डऽलय़-संग्रहं ’ कि ण्डऽलय़ क़नन’ तथ़ ’कि ण्डऽलय़ संचयन’ मं सऽम्मऽलत सभा रचऩक़रं को ईनकी प्रस्तिऽतयं और स़रस्वत सहभ़ऽगत़ के ऽलए बध़इ ! ♦♦♦ क़व्य-संग्रह : ’कि ण्डऽलय़ क़नन’ तथ़ ’कि ण्डऽलय़ संचयन’ सम्प़दन - ऽिलोक सिसह ठकि रे ल़ कलेवर - ह़डय ब़आण्ड / मील्य - क्रमशः रु. 200/ तथ़ रु. 150/ संपकय - 09460714267 / इ-मेल - trilokthakurela@gmail.com प्रक़शक - ऱजस्थ़न ग्रदथ़ग़र, जोधपिर इ-मेल - rgranthagar@satyam.net.in / www.rgbooks.net संपकय - 0291-2657531, 2623933 ♦♦♦ समाक्षक - सौरभ प़ण्डेय / पत़ - एम-2 / ए-17, ए.डा. कॉलोना, नैना, आल़ह़ब़द - 211008 / संपकय - 9919889911 इ-मेल - saurabh312@gmail.com

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शोधपि

शमशेर बह़दिर सिसह की कऽवत़ मं संवेदऩ डॉ. भगव़न सिसह जे. सोलंकी

सिहदा स़ऽहत्य मं अघिऽनक संवेदऩ क़ सीिप़त वैसे तो भ़रतंद ि यिग से म़ऩ ज़त़ है, लेककन 'त़र सप्तक' प्रक़शन के स़थ आसके स्वरुप मं क़िी बदल़व अय़ । अधिऽनक सिचतन मं मनिष्य स़रे मील्यं क़ स्रोत और ईसक़ ईप़द़न बऩ और वह स्वयं हा ईनके ऽवघंन क़ क़रण भा । संच़र के प्रत्यक्ष और ऄप्रत्यक्ष म़ध्यमं के प्रच़र- प्रस़र के क़रण म़नवाय संवेदनशालत़ पर दब़व बढ़़ है । ऽजसके क़रण ऄनिभीऽत क़ क्षरण हो रह़ है । अज मनिष्य हा मनिष्य के ऽलए सबसे बड़़ खतऱ बन गय़ है । एक समय कऽवत़ को जावन की ऄत्यंत म़नवाय सुऽि म़नते हुए शमशेर जा ने संवेदऩत्मक कथन प्रण़ला को ऽवकऽसत ककय़ थ़ । जावन और संवेदऩ की कऽवत़ क़ ऽवस्तुत खिल़स़ ऄपना कऽवत़ओं के म़ध्यम से ककय़ है । "कऽव क़ कमय ऄपना भ़वऩओं मं, ऄपना प्रेरण़ओं, ऄपने अँतररक संस्क़रं मं सम़ज-सत्य के ममय को ढ़लऩ, ईसमं ऄपने को प़ऩ है । और ईसे प़ने को ऄपना पीरा कल़त्मक क्षमत़ से, पीरा सच्च़इ के स़थ व्यकत करऩ है, जह़ँ तक वह कर सकत़ है ।" 1 नया कऽवत़ के प्रऽतऽनऽध कऽव शमशेर जा के ईपयियि ऽवच़रं के अध़र पर ईनकी कऽवत़ क़ ककसा साम़ तक ऄनिम़न ककय़ ज़ सकत़ है । जावन-जगत के प्रऽत ऄपने ऄनिभवं की यथ़थय किकति कल़त्मक ऄऽभव्यऽि हा ईनकी दुऽि मं सवय प्रमिख क़व्य प्रयोजन थ़, और तदनिस़र हा ईदहंने क़व्य सजयऩ की । किकति ईनके कऽवत्व क़ एक महत्वपीणय पक्ष यह भा रह़ हं , ईदहंने सदैव म़नवाय भ़वं की सच्चा एवं सिं दर ऄऽभव्यककत करते हुए म़नवत़ की रक्ष़ के प्रयत्न ककये । यह भा सत्य है । "व्यऽिगत मनोभीऽम पर शमशेरजा के क़व्य मं म़नवाय अस्थ़ की झलक, एक़कीपन तथ़ तंस्थत़ प्ऱप्त होता है। ईनक़ व्यऽिगत बोध अधिऽनक बोध के नजदाक है।" 2. वस्तितः ऄनिभीऽतयं के स्तर पर शमशेर को जह़ँ जावन के यथ़थृ की सच्चा ऄऽभव्यऽि करऩ ऽप्रय थ़ , वहं यह ऄऽभव्यऽि संदयँमया हो, यह ऄऽभप्रेत भा ईनक़ हंमेश़ रह़ । संभवतः आसा क़रण संवेदऩ और ऽशल्प के स्तर ISSN –2347-8764

पर ईनके क़व्य मं पय़ँप्त वैऽवध्य एवं ऽवस्त़र ऽमलत़ है । ऽवऽभन्न भ़वो, छददं एवं ऄलंक़रं के प्रयोग से ईनके क़व्य की क्षमत़ बढ़ा हा है । भ़व़ऽभव्यऽि मं प्ऱयः ब़तऽचत के लहजे के प्रयोग ने ईनकी सुजनधमिमत़ को एक नया पहच़न दा। सिप्रऽसध्ध अलोचक ड़ँ.परम़नंद श्राव़स्तव के ऄनिस़र "शमशेर के यह़ँ जावऩभीऽत से कम बल कल़त्मक ऄनिभीऽत नहं, पर कल़त्मक ऄनिभाऽत भा ऄपने मं एक ऄंतृजावन ऽछप़ये रहता है । यह जरुर है की शमशेर की कऽवत़ एक अत्माय स्वर क़ अत्माय स्वर के प्रऽत संबोधन ज़न पडता है । " 3 . शमशेर जा प्रबिध्ध प़ठक के कऽव है, ऽजनकी क़व्य-संवेदऩ और ऄऽभव्यऽि स़म़दयतः दिबोँध एवं जरंल है । शमशेर को पढ़ते हुए मस्तक पर सलवंे ईभरने लगता है। आनकी कऽवत़की ऄपना नइ जमान है । ऽजसे ईदहंने स्वयं खोद ख़दकर ईवृर बऩय़ है । यह सहा है की ईसकी ईवृरत़ के ऽलए पररवेशगत हव़, प़ना और प्रक़श क़ सह़ऱ ऽलय़ है । आनकी कऽवत़ओ मं ऩग़जिँन क़ देशा ठ़ठ, के द़र क़ ँ सोच, धिऽमल की ग्ऱमाण-बोध, सवेँश्वर की मधयम-वगाय सप़ं बय़ना दिष्यंत की समस़मऽयक द़हकत़, ऄझेय की ऽनजा व्यऽिगतत़, कदनकर की ऱिायत़, बच्चन और नरे दर शम़ँ की कऽव मंचायत़ अकद ऽवधम़न नहं है । शमशेर ने भ़रताय और प़श्च़त्य स़ऽहत्य क़ गहन ऄध्यन ककय़ थ़ । ये ककसा व़द, ऽवषय, क़म, शैला, भ़ष़ अकद कक साम़ओं से नहा बँधे और न तो छपने के प्रऽत कभा ल़ल़ऽयत रहे । एक तरह से कहं तो आनक़ लेखन संवेदऩ से भऱ रह़ है । शमशेर ने ऄपना ऽनजा ऄनिभीऽतयोँ को क़व्य के ऽवऽवध रुपं ऽवलक्षण बिऩवं एवं बऩवं के स़थ बडं ँ त़ के स़थ प़ठको के समक्ष रख़ । यहं क़रण ऽनभाक है कक ऄपने समय के कऽवयं मं आनकी एक ऄलग पहच़न बना । शमशेरजा के क़व्य की यहं ऽवशेषत़ है की आन दोनं प्रवुऽतयं के प्रभ़वो के ऄल़व़ ऽवशिध्ध प्रेम एवं संदयँ की ऄऽभव्यऽि को ईसमं प्रध़नत़ ऽमला । प्रेम क़ वह ईद़त रुप ईनके क़व्य मं प्रत्यक्ष हुअ, जो ऽनजा और व्यऽिगत प्रेम

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की साम़ से परे म़नवाय करुण़ की कोरं मं ज़ पहुंचत़ है । ऄपना 'कल़' शाषृक कऽवत़ मं प्रेम आसा व्य़पक पक्ष को आतने प़स ऄपने मं रुप़ऽयत करते हुए ईनहं ने कह़— "प्रेम क़ कँ वल ककतऩ ऽवश़ल हो ज़त़ है अक़श ऽजतऩ, और के वल ईसा कदन के दिसरे ऄथृ- संदयँ हो ज़ते है , मनिष्य की अत्म़ँ मं ।" यह तो गिणाजनं ने एक मत से स्वाक़र ककय़ है कक ईनकी प्रेम़निभीऽत तथ़ संदय़ँऽभव्यंजऩ के मील मं यह ऽवरल वेदऩभ़व है, जो वैयऽिक भ़वभीऽम तक ऽसऽमत नहा, वह तो मनिष्यम़ि वरनी प्ऱऽणम़ि से संबंध है । ईद़हरण स्वरुप ईनकी 'बैल' शाषृक कऽवत़ को ऽलऽजए, ऽजसमं कोल्हु मं जोते गये बैल की पाड़ पीरा ह़दिदकत़ से मीखररत हुइ है, आसमं तऽनक भा कदख़व़ क़ प्रयोग नहं हुअ, जैसे "मिझे वह आस तरह नाचोडत़ है, जैसे घ़ना मं एक- एक बाज कसकर दब़कर मेरे लहू की एक-एक बींद ककसके ऽलए सममिपत होता है ? यह तपृण ककसके ऽलए होत़ है ? " (क़ल तिझसे होड़ है मेरा संग्रह से) शमशेर की कऽवत़ओं की सिक्ष्म पडत़ल से यह तथ्य प्रतयक्ष होत़ है कक ईनके सुजन के पाछे ऽनरं तर एक संवेदऩत्मक लक्ष्य कक्रय़शाल रह़ है । श़यद आसा क़रण ऽशल्प के स्तर पर दिरुह हंने के ब़वजिद वे ऄपना सहज-सिंदर भ़वध़ऱसे प्रभ़ऽवत करता है – जेसे, "संवेदऩत्मक ईदेश्य ऽवधीत की वह ध़ऱ है, जो ऄदतरव्यऽिव प्रसीत होकर जावन ऽवध़न करता है । अत्मचररि़त्मक और सुजनशाल ये संवेदऩत्मक ईदेश्य, हदय मं ऽस्थत जावन ऄनिभवो को संकऽलत कर, ईदहे कल्पऩ के संयोग एवं से ईदाप्त और मीमितम़न करते हुए , एक और प्रव़ऽहत कर देते है । " 4. ईपयिँकत पररप्रेक्ष्य मं ईनकी ऽनम्नऽलऽखत क़व्यपंककतय़ँ ऄवलोकनाय है, ऽजनमं प्ऱकु ऽतक ईपम़नो द्व़ऱ बहुत हा कोमल ढंग से जनत़ को एक जिं रहने क़ संदेश कदय़ गय़ है । "सीरज, ईग़य़ ज़त़, िी लं मं, ISSN –2347-8764

यकद हम, एक स़थ , हंस पडते च़ंद , अंगन बनत़ , अँखो मं ऱस भीऽम यकद, सौरमंण्डल की ऽमलता स़र हम होते , क़व्य के , ऄनिपम भीत – भऽवष्य के यकद हम , वतृम़न मं , एक स़थ , हँसते रोते ग़ते एक स़थ ? एक स़थ ? एक स़थ ? " स़मदयतः शमशेर क्ल़ऽसक ऄथ़ँत श़स्त्राय कऽव म़ने गये है किकति लोकजावन के ऽबम्बो –प्रताको कं समिऽचत प्रयोग से ईनकी कऽवत़ मं जो संवेदन–क्षमत़ सम़ऽहत हुइ है, ईसके क़रण ईदहंने ऩग़जिँन, ऽिलोचन तथ़ के द़रऩथ ऄग्रव़ल की श्रेणा मं भा रख़ गय़ है । ऽजस तरह आन तानं ने प्रमिख रुप से देश –सम़ज के महेनतकश किकति स्व़ऽभम़ना स़म़दयजावन को ऄपना कऽवत़ क़ ऽवषय बऩय़ थ़, ईसके सिख – दिःख क़ ऄंकन ककय़ थ़, वैस़ सब नहं कर सके । कऽव शमशेर की कऽवत़ओ मं ईसकी चच़ँ ऐसा हा ह़दिदकत़ एवं गहनत़ से हुइ है । ईद़हरण स्वरुप 'ये श़म है' कऽवत़ की ऽनम्नऽलऽखत पंककतय़ँ है । "ये श़म है, कक असम़न खेत है पके हुए ऄऩज लपक ईठा लहू भरा दऱऽतय़ँ, कक अग है ? धिअँ धिअ,ँ सिलग रह़, ग्व़ऽलयर के मजीर क़ हदय ।" (कि छ कऽवत़एँ संग्रह से) यह सत्य है कक ईनकी कल़त्मकत़ मं जरंलत़ एवं दिरुहत़ ऽवधम़न है, किकति संवेदऩत्मक स्तर पर ईनकी अऽधक़ंश रचऩएँ ममृस्पशा ँ है । आस दऽि से 'ओ मेरे घर' शाषृक प्रऽगत कि छ पंऽिय़ँ ईध्धत है, ऽजनमं ममृस्पमिशत़ ऽनऽश्चत रुप से ककसा भा संवेदनशाल हृदय को झंझोड सकता है । "ओ मेरे घर? ओ हे मेरा पुथ्वा, स़ँस के एवज मं, तीने क्य़ कदय़ मिझे ओ मेरा म़ँ ............ तीने यिध्ध हा मिझे कदय़ और क्य़ कदय़ मिझे भगव़न कदये कइ – कइ, मिझसे भा ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

ऽनराह ।" (प्रऽतऽनऽध कऽवत़ऐँ संग्रह से) यह तो ईदहंने स्वयं भा 'क़ल तिझसे होड़ है मेरा' शाषृक संग्रह की प्रस्त़वऩ मं कह़ थ़ कक मं सद़ हा ऄपना म़नऽसक पररवेश को ऽचऽित करत़ रह़ हुँ । पररवेश के स़थ-स़थ ईसके म़हौल को भा ऄपने प़स ' आतने प़स ऄपने ' खंचत़ रह़ हूँ कक मेऱ ऄददरुना कऽव और ऽचिक़र ऄपने ऄक्ष को ईसमं ईत़रने से ब़ज न अ सके । ईपयिँि ऽस्वकु ऽत के समथँन मं ईनकी 'स़गर तं' कऽवत़ की कि छ पंऽिय़ँ प्रस्तित है "धिन रहा था सर, व्यथृ व्य़कि ल मत लहरं , वहं अ-अकर, जह़ँ थ़ मं खड़़, मौन, समय के अघ़त से पोला, खड़ा दाव़रे , ऽजस तरह घहरं , एक के ब़द एक, सहस़ च़ंदना की ईँ गऽलय़ँ चंचल, क्रोऽशए से बिन रहा, था चपल िे न झ़लर बैल म़नो । " यह तो ककसा भा सच्चे कऽव क़मऩ हो सकता है कक मनिष्य हंने के ऩते ये मजीर भा ऄदय़य क़ प्रऽतक़र करं और ऄपने स्व़ऽभम़न की रक्ष़ के ऽलए जीझनं को करंबध्य रहं । शमशेर ने भा ऄपने क़व्य मं ऐसे प्रंसगो की प्रभ़वमया ऄऽभव्यंजऩ की है । "कऽवत़ की आस चररि परं पऱ मं शमशेर की ऄपना गदध है । ईनक़ व्यऽित्व आस परं पऱ को नया अभ़ देता है ।" 5 . मनिष्य और प्रकु ऽत, और प्रकु ऽत की ऄदतः प्रकक्रय़ ईनकी ऽबम्ब़त्मकत़ क़ मील अध़र रहा है, ऽजसे ईदहंने कभा बहुत हा स्पि और कभा ऄस्पि ककदति कल़त्मक राऽत से पररच़ऽलत ककय़ है । कऽवत़ और ऽचिकल़ के तत्वं क़ जो अव़गमन आस ईद़हरण मं हुअ है, वह रे ख़ंककत करने योग्य है "एक नाल़ अइऩ, बे-ठौस सा वह च़ंदना, और ऄददर चल रह़ हूँ मं, ईसा के , मह़तल के मंन मं, मंन मं आऽतह़स क़, कन ककरण जावात एक बस, एक पल की, ओं मं हं कि ल जह़न । " जावन – जगत के प्रऽत शमशेर के मन मं जो वातऱगा भ़व थ़, जो एक

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नैऱश्यपीणृ, ईऽद्वग्न मनःऽस्थऽत ईनकी प्ऱयः रहता था, ईनके ऽबम्ब म़नं ईसके दपृण है । नया कऽवत़ के वरे ण्य कऽव मिऽिबोध के ऄनिस़र "शमशेर संवेदनशाल और ऄदतमिँखा कऽव ऽसध्य होते है । संवेदऩओं के गिणं की ईदहे गहरा समझ है । ईनक़ संवेदऩ – झ़न एवं संवेदन – ऽचिण ऄऽद्वताय है । " 6. आस प्रक़र प्रेम और सौददयँ जैसा ऄनिभीऽतयं के म़ध्यम से यिग की नब्दज पर ह़थ रखने व़ले, ऽशल्प स्तर पर ऽबम्ब– प्रताको द्ऩऱ सजाव ऄऽभव्यजऩ करने व़ले, 'ऄसम क़ ऱग' जेसा वैऽश्वक सददभृ की रचऩ करके ऽवश्वश़ऽदत क़ स्वप्न देखने व़ले ऽहददा गज़लं को यिग की समस्य़ओं से जोड़कर स़थृकत़ प्रद़न करने व़ले "कऽव शमशेर की क़व्य सजृऩ बहुअय़मा है ।" श्रा नदद ककशोर नवल ने कह़ है "वे वस्तित प्रेम और सौददयृ के ऽवलक्षण ग़यक थे और ईदहं के म़ध्यम से ईदहंने ऄपने यिग की समस्य़ओं से ईद्वेऽलत होकर ऄपना कऽवत़ओं मं बहुत ईद़त रुप मं म़नव – मील्यं की स्थ़पऩ की । ईनकी श़ऽब्ददक ऽमतव्यऽयत़, ईनक़ सीक्ष्म लय– बोध और ईनकी भव्य ऽबम्ब योजऩ ऽहददा कऽवत़ की एक ईपलऽब्दध है।" 7. ईपरोि चच़ँ के ब़द इतऩ तो हम ऽनःसंदेह कह सकते है कक ऽपछले प़ंच स़लं मं ऽहददा कऽवत़ के ऄंऽतम दशक एवं अज की नइ संवेदऩओं के स़थ ऽनरं तर बदल़व की प्रकक्रय़ से गिजर रहा है। ऱजनाऽत, ब़ज़र, माऽडय़, सीचऩ, तकनाकी, भीमंडलाकरण अकद के प्रभ़व के क़रण हम़रे स़म़ऽजक और स़ंस्कु ऽतक जावन मं पररवतृन वषोँ मं नहं ऄऽपति मऽहनो मं हो रहे है । दरऄसल आस गऽतशालत़ को स्थील रुप से नहं अंक़ ज़ सकत़, क्यंकक अज व्यऽि एवं सम़ज मन को अस़ना से नहं ज़ँच़ ज़ सकत़ । किर भा नए कऽव सकक्रय होकर ऄपना भीऽमक़ क़ सिल ऽनव़ँह कर रहे है । ऽहददा कऽवत़ के ऄत्यऽधक गध्य़त्मक रुप से ईसकी पठऽनयत़ मं कमा अया है । ऽहददा कऽवत़ को ऄपना जड़ तक पहुँचने ISSN –2347-8764

तथ़ नइ संवेदऩओं को पकडने के ऽलए ईसक़ पठनाय होऩ भा जरुरा है । वस्तितः कऽवत़ अम जावन से कं रहा है । यह एक ऽवच़रणाय मिद्द़ है । संदभय संकेत शमशेर बह़दिर सिसह – कि छ और कऽवत़एँ, विव्य से डॉ. सीयृप्रक़श ऽवद्य़लंक़र – सप्तक्रतयः अधिऽनकत़ एवं परं पऱ पु . 185-186 परम़नदद श्राव़स्तव – शब्दद और मनिष्य पु . 80 मिऽिबोध – नया कऽवत़ क़ अत्मसंघषय पु . 69 डॉ. जावनसिसह – कऽवत़ की लोक प्रकु ऽत पु . 55 मिऽिबोध - नया कऽवत़ क़ अत्मसंघषय और ऄदय ऽनबंध, पु . 3 सं. डॉ. ऽवश्वऩथ ऽिप़ठा - बासवं सदा क़ ऽहददा स़ऽहत्य पु . 28

लघिकथ़

ऄंऽतम श्रुग ं ़र

चदरेश कि म़र छतल़ना

वो ऽभख़रा सीयय ईगते हा शहर के सबसे बड़े ऽवश्वऽवद्य़लय के ब़हर ज़कर खड़़ हो गय़ । ईसे ऽवश्व़स थ़, पराक्ष़ओं के चलते वह़ं से ऄच्छा भाख ऽमल ज़येगा । आतने मं कि छ छ़िं क़ एक दल ऩरे लग़त़ हुअ अय़, "ऽवश्वऽवद्य़लय प्रश़सन ह़यह़य! हम़रा म़ंगं पीरा करो, करठन प्रश्नपि के बोनस म़क्सय दो । " ऩरे लग़ते वो दरव़जे के एक तरि बैठ गये ।यह देख ऽभख़रा हैऱन हो गय़ । किर छ़िं क़ एक और दल अय़, वो भा ऩरे लग़ रहे थे, "हमं ऄऽभव्यऽि की स्वतंित़ च़ऽहये, लोकतंि की यह म़ंग है । ", ऽचल्ल़ते हुए ♦♦♦ वो दरव़ज़े के दीसरा तरि बैठ गए । ऽभख़रा ऄब हँसने लग़ । प्रस्तितकत़य : डॉ. भगव़नसिसह जे. सोलंकी किर छ़िं क़ एक ऄदय दल नेत़ओं के ऽप्रऽदसप़ल, श्रा भाख़भ़इ पंेल स़थ अय़, और वो दरव़जे के ठाक ब़हर आऽदस्ंट्डिं ऑि पा.जा. स्ंडाज एदड खड़े होकर ऩरे लग़ने लगे, "कि ल़ऽधपऽत से रासचय आन ह्यिमेऽनरंज, अणंद (गिजऱत) म़ंग है, छ़ि ऄऽतररि गऽतऽवऽधय़ँ नहं मो. 9825373209 करं । ऽबऩ ऄनिमऽत गऽतऽवऽध करने व़ले दऽण्डत हं । " ऽभख़रा की हँसा और भा तेज़ हो गया । आतने मं ऽवश्वऽवद्य़लय के कि लपऽत की ग़ड़ा सनसऩता हुइ अइ, वो तिरत-ि​ि रत मं ब़हर ऽनकले और हर दल से श़ंऽत की म़ंग करने लगे । यह देख कर तो वो ऽभख़रा कहकहे लग़ने लग़ । कि लपऽत के आश़रे पर वहा ँ खड़े एक पिऽलसकमी ने ईस ऽभख़रा को डंड़ कदख़ते हुए कह़, "ऐ, भ़ग यह़ँ से... हँस तो ऐसे रह़ है जैसे यीऽनवर्णसंा तेरा है?" ऄब हँसा ऽभख़रा के चेहरे पर फ़ै ल गया, ईसने हथेला को उपर की तरि कर, ऄपऩ ह़थ ईन सभा की तरि ककय़ और लगभग ऽचल्ल़ते हुए कह़, "ये पढ़े-ऽलखे गिरूजा, बच्चे और स़रे नेत़ मेरे हा तो स़था हं...." कहते-कहते ईसकी हंसा की ताक्ष्णत़ बढ़ गया । ♦♦♦ chandresh.chhatlani@gmail.com

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शोधपि

डॉ. ऽवनय प़ठक रऽचत क़व्य संग्रह 'ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र' मं अंचऽलक ईपम़नं एवं प्रताकं क़ प्रयोग संजयभ़इ चौधरा

डॉ.ऽवनय कि म़र प़ठक जा ने ‘ऄक़दसा’ के स़आक्लो स्ं़आल प्रक़शन के 24 वषो के ऄंतऱल के ब़द सन् 1997 मं ‘ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र’ शाषयक से ईसे प्रक़ऽशत ककय़ हं। ऽजसमं अपने मौऽलक स़ंस्कु ऽतक ईपम़नं एवं प्रताकं से यि​ि क़व्यं क़ सुजन करके एक नय़ ऽद्िपथ ऽनर्णमत कर कदय़ हं। ग्रंथ की भीऽमक़ंतगयत डॉ.बलभर ऽतव़रा ने ऽलख़ हं कक‘डॉ.प़ठक की छतासगढ़ा कऽवत़एँ संक्ऱंऽत की ईपज हं, प्रयोग क़ प्रऽतिलन हं। ईदहं ने सिहदा सिचतन ऽवऽध पर अध़ररत छतासगढ़ा के स़ऽहत्य और भ़ष़ दोनं स्तर पर मील स्वरुप की सिरक्ष़ की हं तथ़ एक पाढ़ा को लेकर छतासगढ़ा मं सोचकर छतासगढ़ा मं हा ऽलखने की एक प्रवुऽत ऽवकऽसत की ऄदयथ़ लोग सिहदा मं सोचकर छतासगढ़ा मं ऽलखने ऄथव़ ऄनिव़द क़यय करके मौऽलक छतासगढ़ा लेखक व कऽव के रुप मं स्थ़ऽपत हो रहे थे। आस तरह प्रस्तित क़व्य संग्रह अंदोलन की दस्तक हं, आऽतह़स क़ क्षण हं।’1 डो.सीययभ़नने ‘ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र’ के संदभय मं ऽलख़ हं कक- ‘प्रयोगव़द के प्रणेत़ ऄज्ञेयजा ने ऽजस तरह प्ऱचान ईपम़नं क़ जीठन और ब़सा कहकर अधिऽनक भ़वबोध व यिगान संदभय को स़थयक ढ़ंग से प्रस्तित करने के ऽलए नए ईपम़नं क़ ऄदवेषण ककय़। ईसा तरह अपने छतासगढ़ा क़व्य की मौऽलकत़ की खोज की हं। अपने क़व्य को संक्रमणक़लान ऽस्थऽत से बच़ने के ऽलए मौऽलक स़ंस्कु ऽतक ईपम़नं और प्रताकं क़ प्रयोग ककय़। आस प्रक़र अपने छतासगढ़ा कऽवत़ को मौऽलकत़ क़ ज़म़ पहऩय़ और छतासगढ़ की जमान को सिव़स से सिव़ऽसत ककय़ हं।’2 अगे डो.सीययभ़न सिसह ने – ‘डो.प़ठक क़ यहा कमय त़र सप्तक की तरह छतासगढ़ा क़व्य क़ ऐऽतह़ऽसक दस्त़वेज बत़य़ हं।’3 डो.ऽवनय प़ठक जा क़ मंतव्य है कक, लोक संस्कु ऽत के अलोक मं ऽजस क़व्य क़ सुजन होग़, ऽनऽच्छत रुप से वह मौऽलकत़ से सभर और ऄऽद्वऽतय रहेग़। आसा ऽवच़रं के पररप्रेक्ष्य मं मौऽलक प्रताकं और ईपम़नं क़ डो.प़ठक क़ अग्रह सवयथ़ ईऽचत हं। यकद कऽव परम्पऱ से प्ऱप्त प्रताकं और ईपम़नं की पररऽमऽत से ब़हर न अये तो, अँचऽलक भ़ष़ओं मं रचऩ ऽनरथयक स़ऽबत होगा। ऽहददा क़ छ़य़निव़द म़ि बनकर ISSN –2347-8764

रहनेव़ला छतासगढ़ा कऽवत़ के प़स ऽनज क़ कहने योग्य कि छ तो रहऩ च़ऽहए। ‘ऄक़दसा’ की कि छ कऽवत़ओं मं नवान मौऽलक प्रताकं एवं ईपम़नं के प्रयोग की चच़य यह़ँ करते हं। ‘ऄक़दसा’ की प्रथम कऽवत़ ‘तोर मन ब़सा’ शाषयक से संग्रहात हं। ईसमं कऽव श्रा डो. प़ठक ने प्रेम को पररभ़ऽषत करने के ऽलए क्रमश: मन-तन, ऄंतमयन और जावन को के ऽदरत रख़ हं और ईसा को अँचऽलक अलोक मं अँचऽलकत़ मं रुप़तंररत ककय़ हं। म़नव जावन मं प्रेम के महत्व को नक़ऱ नहं ज़ सकत़। दैनंकदन क़यं की व्यस्तत़-रुक्षत़ मं प्रेम सरसत़ क़ संच़र क़ स़धन बनत़ हं। दरररत़, ऄऽशक्ष़ अकद से अक्ऱदत होने के ईपऱंत भा लोक प्रेम क़ सम्बल प्ऱप्त करके ऽजजाऽवष़ बऩये रखते हं। कऽव के मत़निस़र ऩऽयक़ क़ मन ब़सा (जो छतासगढ़ क़ लोकऽप्रय ख़ध पद़थय हं) की तरह स्व़कदि और पौऽिक हं, तो ऩयक क़ मन ईसमं धीऽलत नमक की तरह हं। ऽजसके ऽबऩ ब़सा अस्व़द्य होता हं। ऩऽयक़ क़ तन, यौवन के ऄंग़र मं पकी मोंा ऄंग़कर रोंा की तरह गोल-मंोल और गमय, ल़ल और कि रकि ऱ है तो ऩयक तेल से ऽसि होकर ‘ऄंग़कर रोंा’ क़ अस्व़द बढ़़त़ हं। ऩऽयक़ क़ ऄंतमयन यकद ‘पीरा’ हं तो ऩयक ईड़दद़ल से बऩ ‘बऱ’ य़ना ‘बड़़’ हं। ऩऽयक़ नमक से अपीररत अच़र ऽवशेष व्यंजन ‘नीन चीऱ’ की भ़ँऽत हं जो ऩयक के प्रेमरुपा तेल के सिसचन के ऽबऩ सड़ सकता हं। ऩऽयक़ क़ जावन ब़ँस की ताऽलयं से ऽवऽनर्णमत ईथल़ प़ि ‘पऱय’ है तो ऩयक क़ जावन ईस पर सिख़इ ज़नेव़ल़ व्यंजन ‘ऽबजोरा’ सम़न हं। ‘गौऱ’ य़ना ‘ऽशव’ के ऽबऩ ‘गौरा’ क़ जावन ऽनरथयक और ऄधीऱ है। भल़ गौऱ के ऄभ़व मं गौरा कभा जाऽवत रह सकता हं क्य़?- "

तौर मन ब़सा ऄई मोर मन नीन हे। तोर ऽबन गोइ ए ऽज़नगा सीन हे।। तोर तन ऄंग़क़र ऄई मोर तन तेल हे। तोर ऽबन गोइ ए ऽज़नगा जेल हे।। तोर ऄंतस संह़रा, मोर ऄंतस बऱ। मय़-तेल-छं​ं़-ऽबन सर हा मोर नीनचऱ।।

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तोर ऽज़नगा पऱय, मोर ऽज़नगा ऽबजौरा। तोर ऽबन गौऱ, ऽजहा कआ से गौरा ?"4 ‘तोर मन’ कऽवत़ से स्पि हं कक ऩयक और ऩऽयक़ क़ एक दीसरे के ऽबऩ जावन की ग़ड़ा चल नहं सकता। कऽवने ऽप्रय़ के ऄभ़व मं ऩयक के ऄऽस्तत्व क़ सव़ल खड़़ ककय़ हं। ऩऽयक़ के व्यऽित्व के स़थ ऩयक की लघित़ को प्रकं करके लौककक प्रेम के सह़रे अध्य़ऽत्मक प्रेम को पररलऽक्षत ककय़ हं। ‘तोर मन’ क़व्य मं डो.ऽवनय प़ठक की मौऽलकत़ के सम्बदध मं डो.मुण़ऽलक़ झ़ क़ यह कथन ककतऩ स़थयक हं कक- ‘डो.ऽवनय कि म़र प़ठक ने छतासगढ़ा क़व्य मं मौऽलकत़ क़ पिं कदय़ हं। अपके अँचऽलक ईपम़न, मौऽलक स़ंस्कु ऽतक प्रताक, छतासगढ़ा क़व्य की ऽनजत़ को ऄक्षिण्ण बऩये रखते हं। आस ऽद्ि से अपकी क़व्य रचऩएँ ऄनिकरणाय हं हं, लेककन जावन-दशयन को ऽववेऽचत करने के पररप्रेक्ष्य मं भा महत्वपीणय प्रम़ऽणत हुइ हं।’5 ‘मोर ग़ँव रे ’ क़व्य मं कऽव ने ऄपना कोमलतम और मधिरतम भ़वऩओं ऱऱ ग्ऱम-वैभव को व्यि ककय़ हं। लोक म़नस क़ ईल्ल़स जो हव़ मं तैरत़ हुअ खेतं मं से समवेत स्वरं मं सिऩइ पड़त़ हं। खेतं से ध़न की सिनहला ब़ऽलय़ँ नवोढ़़-सद्श नत ऽसर होकर झीम-झीम कर, मिस्कऱता, ऽखलऽखल़ता हुइ झिकता हं, तब प्राऽत की प्रत्यंच़ से छि ंे हुए ब़ण ह्दय को अनंद से बेधत़ हं। ग्ऱम्य-वैभव संदयय क़ ऽचिण तो देऽखए-

"ऽजह़ँ ज़बे प़बे, ऽवपत के छ़ँव रे । ऽहरदे जिड़़ ले अज़ मोर ग़ँव रे ।। खेत म बसे ह़बै करम़ के त़न। झिमरत ह़बै रे त़ढ़े-त़ढ़े ध़न।। ऽहरदे ल चारथे रे मय़ के ब़न। ऽज़नगा के अस हे ऱमं भगव़न।।"6

कऽव बत़ते हं कक यकद सिख बंोरऩ है तो ग़ँव की गऽलयं मं अऩ होग़। ऽजस प्रक़र धऱ पापल-प़त तले छ़य़-तप क़ अनंद लेता हं, ईसा प्रक़र क़ सिख ग्ऱम्य जावन क़ हं जो प्रभि की कु प़ पर सिजदगा की स़रा ईम्मादं बँधा रहता हं। प्रकु ऽत क़ प़वन पररवेश हा ग्ऱम्य जावन की सच्चा ऽवभीऽत हं। डो.बुजेश श्राव़स्तव क़ मंतव्य ISSN –2347-8764

हं कक- ‘डो. प़ठक की कऽवत़ओं मं वदयब़ल़ की ऄल्हड़त़ भा हं, चपलत़ भा और प्रेम़निभीऽत की सघनत़ भा ईनकी कऽवत़ओं के एक-एक शब्ददभ़व के स़गर मं तैरते मोता प्रतात होते हं, ऽजनसे ऽनच्छल प्रेम की अभ़ ऽवकीणय होता हं।’7 स़थ हा डो.ऽवनय कि म़र प़ठक जा क़ ग्ऱम्य ऽवष़द और ऽवषमत़ की ऄऽभव्यऽि मं ग़ँव की यथ़थय ऄवस्थ़ मं भा कऽव-कमय सजग रह़ हं। वतयम़न मं ग्ऱम क़ श्रा संदयय अहत होकर िंे-ऽचथड़ं मं ऽलपं़ हुअ लऽज्जत हो रह़ हं। ईसक़ मिख क़ऽलख से पित़ हुअ, ऽनऱध़र कि ंार की भ़ँऽत, ंी ंे छप्पर की तरह भग्न हुअ हं। सौभ़ग्य-प्रताक चीड़ा से ररि कल़इव़ला ऄभ़ऽगना ऽवधव़ की तरह ऄभ़ग़ हं ईसे देखकर कऽव क़ ंी ं़ मन मसोस कर रह ज़त़ हं। ग़ँव की बेबसा ऽससकता अह मं ऄऽभव्यि हो रहा हं"सिध्धर ऽभख मंगा दीरा कस मोर ग़ँव रे ।

जेखर ल़ज हर ऽचथऱ म लिक़ये ह़वै। जेखर ऽजनगा कं र बँछ म बिक़ये ह़बै।। ऽबन ऄध़र के ऽज़नगा-कि ररय़ जेखर ठ़ढ़े। ंी ंह़ छ़ना कस मन हर ऄई जेम़ म़ढ़े।। जिच्छ़ ह़थ ऽबगर चीरा कस मोर ग़ँव रे ।।"8 अगे कऽव बत़ते हं कक-

"ओ हा ऽजनगा, ओ हा कि ररय़, ओ हा रे बस्ता। "ओहा म़ कोल़ब़रा, ओहा म़ ऽगरस्ता।। ओ हा हे ऄंगऩ ऄई ओ हा ओस़रा। ककच ऽबच सकपक्क़ये ऽज़नग़ना ऽबच़रा।। सरे -गले भ़जा-जीरा कस मोर ग़ँव रे ।।9 आनमं कऽव ऱऱ ग्ऱम को सड़ा-गला भ़जा की जिड़ा की ईपम़ देऩ ऄत्यदत ईऽचत एवं स़थयक हं। भ़जा सस्ता हं, ककदति वह भा सड़ा-गला हं। ग्ऱम ऽनराह हं, तदनिरुप ऽनमीयल्य़ भा हं। दि:ख, गराबा, बेबसा ने पीरे ग़ँव को झकझोर कदय़ हं। धिनख़य़ हुअ ग़ँव जैसे कऱहत़ हं। भाड़ भरं संि़स मं संकोच आतऩ बढ़ गय़ हं कक पीऱ ग़ँव सड़ा-गला भ़जा की जीड़ा के सम़न ऽनरथयक प्रतात होत़ हं। ग़ँव की धिनख़इ हुइ सिजदगा से सालनभरा बदबी अता हं। पीरे ग़ँव को ि​िीं द सा लग गइ हं। यकद ग्ऱमो मं भ़जा की जीड़ा की भ़ँऽत ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

एकत़ होता एवं सब भ़जा की तरह बँधे होते, तो अज ग्ऱमं मं एकत़ होता, ईसक़ वचयस्व-महत्व बढ़त़, किकति परस्पर इष्ऱ की संड़़घ के क़रण शऽिऽवऽहन हं। ग़ँव की क्षमत़ ऽशऽथल हो चिकी हं। ग़ँव की ऽवषम ऽस्थऽत को प्रताक के म़ध्यम से ईद्घ़रंत करते हुए कऽव कहते हं-

"भोथल़ च़कि -छि रा कस मोर ग़ँव रे । प़ना किले छि र-छि रा कस मोर ग़ँव रे ।।"10

यकद ग्ऱमं की एकत़ ध़रद़र च़की -छी रा की तरह क़रगर हो सकता हं, ककदति ऄंधऽवश्व़स, ऄऽशक्ष़ और वैमनस्य के क़रण वह अज बोघरा हं। जह़ँ नगर नवान ि​ि लझड़ा की तरह ऽवऽवधवणी प्रक़श ऽवकर्णणत िै ल़त़ हं, वहं ग्ऱम स्व़थय-जल से अदूय ि​ि लझड़ा हं, ऽजसे शऽिरुपा ऄऽग्नसंच़र करके भा प्रसन्नत़ के िी ल झड़ते नहं कदखल़यं ज़ सकते हं। ‘हमर मय़ के सिरुज मर गे’ शाषयस्थ क़व्य मं कऽव ने स्पि ककय़ हं कक- ‘हम़ऱ प्रेम ऄधय चदऱक़र रजत ऄलंकरण ‘सितिव़’ सद्श ईज्जवल हं और गले से ऽलपं़ भा हं। व़स्तव मं ग्राव़ मं संध़रण अभीषण के सम़न जावन को शोभ़यम़न करत़ हं एवं प़यल ऽवशेष ‘पैरा’ की तरह समिधिर रणत्क्वणन भा करत़ हं। एक प्रणया क़ मन सतरं गा वस्त्ऱवध़न के सम़न ऽवऽवधरं गा भा होत़ हं और ईजले कपड़े के सम़न स्वच्छं द मि​ि भा होत़ हं। ऽवऽवधवणी स़ड़ा की तरह तन और सिददर ‘पोलखे’ की तरह मन स्वच्छदद हं, ईदमि​ि हं-

"सितिव़ कस चमकत हमर मय़, पैरा कस रुनिन-झिनिन बोलय। मन के टिरगासिचगा पोलक़, ऄत ऄंतस-लिगऱ ल खोलय।।"11

सामंत संस्क़र ‘सधौरा’ सद्श स़ध की भ़ँऽत प्राऽत, छठा-बरहा रुपा त्यौह़र मऩता हं। असन्न सत्व़ मऽहल़ के दोहदोत्सव के सम़न हम़रा प्राऽत प़वन है नवज़त ऽशशि के जदमोत्सव के सम़न मनभ़वन भा हं। ऽवकऽसत होकर यह प्रेम सिंदर ब़लक के सम़न ईज्वलत़ और ललऩओं की क़कला मं बसे हुए जदमगातं से दिलऱय़ भा ज़त़ हं। आतऩ हा नहं, ऽशशि की तरह सिददर-ऽनच्छल मन को सोहर की थपकी ऽमलता हं,-

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"सघोरा-स़थ कर हमर मय़, छट्ठा-बरहा ओखर ऽतह़र। मन के लड़क़ कस सिध्धर है, तेम़ सोहर के ऽमले दिल़र।।"12 अगे कऽव बत़ते हं कक प्राऽत ऱऽि की भ़ँऽत लऽज्जत और सप्तपदा के बंधन की तरह सिदढ़ू एवं प़वन हं। आस ईपक्रम मं मन रुपा म़ंगल्यक़ष्ठ मिस्कऱ रह़ हं और ऄंतऱत्म़ की ऄल्पऩ ईसे शोऽषत कर रहा हं-

"बऱत कस सँवरे हमर मय़, भ़ँवर के ग़ँत म जिरे रहै। मन के मंगरोहत मिऽस्कय़त, ऄंतस के चउँ क ह पिरे रहै।।"13

हम़रा प्राऽत तो सजा-सज़इ वर की शोभ़ य़ि़ के सम़न हं जो सप्तपदा की प़वन ग्रंऽथयं मं बि हो ज़ता हं और आस प्रणय की पररणय बेल़ मं मन म़ंगल्य क़ष्ठ-सद्श ऄंतऱल की ऄल्पऩ मं ऄवऽस्थत होकर स़क्षा बन ज़त़ हं। मन मिस्क़त़ हं, प्रेम अत़ हं जो मन को भ़त़ हं किकति जावन क़ यह प्रणयतरु यकद जल ज़यं तो कोइ अश्चयय नहं होत़। कऽव को प्रणय-पररण़म की सिचत़ न होने के क़रण प्रणय-सिध़कर के ऄस्त होने पर अश्चयय नहं होत़, बऽल्क ऽवस्मय आस ब़त क़ हं, कक ईसके ऄश्रिसिसऽचत प्रणय़ऱधऩ के ऽनष्िल होने पर प्रेम क़ सिबब जब जावन मं प्रऽतसिबऽबत होत़ है तब तक प्रणय-अलोक की अभ़ रहता हं, ककदति ईसके ऽतरोध़न होते हा जावन ऽतऽमरमय हो ज़त़ हं। कऽव की पाड़़ यहा हं कक ईसके प्रणय-प्ऱंगण मं पल्लऽवत वुंद़वना तिलसा की अऱधऩ ऽनरथयक ऽसि हो ज़ता हं। आस प्रक़र प्राऽत की ऽपप़स़ ऄवद़त ऄश्रिमं ऄऽभव्यि होता हं और प्रणय क़ प्रभ़कर ऄस्त होकर ऽनष्प्रभ-ऽनस्तेज होकर मरण़सन्न हो ज़त़ हं। ईपयि​ि य क़व्य मं कऽव ने अँचऽलक-स़ंस्कु ऽतक ककदति मौऽलक ईपम़नं एवं प्रताकं क़ सहजत़ व सिंदरत़ से प्रयोग ककय़ हं, वह ऄऽप्रतम हं। ‘मेहनत के थोरक मजीरा’ शाषयक कऽवत़ मं कऽव ने अधिऽनक भ़व-बोध को भा अँचऽलक अलोक मं व्यि ककय़ हं। कऽव ने यह़ँ ऽनर्ददि ककय़ हं कक यह़ँ श्रम बेमोल ऽबकत़ हं। श्रऽमक ऽबकते हं, मजदीरा सस्ते ISSN –2347-8764

द़मं पर ऽलल़म होता हं और पीँजापऽत ऐश्वयय भऱ जावन गिज़रते हं। सरे अम, कदन-दह़ड़े श्रऽमक की मजदीरा पर, ईसके खीन-पसाने की कम़इ पर, बेबसा की मिहर लग़ कर लीँं ला ज़ता हं। यह शोषण कब तक चलत़ रहेग़? ईसक़ गराबा की ऄस्मत कब तक लिँंता रहेगा? ऽवड़म्बऩ तो यह हं कक सात़ व सता-स़ऽविा के देश मं पऽतव्रत़ श्रम कदय़ ऽबकता हं और पिंसत्वहान श्रऽमक सिज़दगा की ल़श को ऄपने कं धो पर ढ़ो रह़ हं। आन सब ऽस्थऽतयं को भ़ँपते हुए भा श्रऽमक नपिंसक व ऽनलयज्ज बन कर द़सत्व से जावन जाने के ऽलए ऽववश बऩ हं। अज ऄधमय प्रबल हं, धमय पऱऽजत सत्य को ऽनष्क़ऽसत कर कदय़ गय़ हं। स़म़दय जनत़ किककतयव्य ऽवमीढ़ हो गइ हं। अज धन क़ महत्व आतऩ है कक आसके बल पर धनपऽत ऱम और कु ष्ण की तरह पीज्य बन गये हं। शोषक देश की ब़गड़ौर थ़मं हुए ऱजनाऽत क़ नेतुत्व करते हुए प्रज़ की ग्राव़ मं छी रा चल़ रहे हं। समस्त देश ऽनयऽत-प्रत़ऽड़त हो गय़ हं। ज़ऽत-प़ँऽत के ऽवघंन ने सब मं ऄलग़व ल़ कदय़ हं। ऽवध़त़ स्वयं जैसे स्व़थय की पीर्णत मं संलग्न हं।–

"मेहनत के थोरक मजीरा। ऽसधव़ मनखे के मजबीरा।। पताबरत़ कमैऽलन अज हे बेच़वत। कऽनय़ मेड़व़ हो के ज़ंगर चल़वत।। पआस़ ब़ले मन हे ककऽस्सन ऄई ऱम। सोसन करआय़ धरे देस के लग़म।। नेत़ मन हमर देस के । गर न दँत़ दे हं छी रा।।"14

आस क़व्य मं कऽव ने श्रऽमकं की व्यथ़ को तथ़ ईसमं ईत्पन्न अक्रोश क़ प्रभ़वा ऽनरुपण ककय़ हं। आस संदभय मं डो.सीययभ़न सिसह ने बधला और छतासगढ़ा क़व्य की तिलऩ करते हुए ऽलख़ हं कक- ‘बधेला कऽवत़ ह़स्य व्यंग्य तक साऽमत रह ज़ता हं, जबकक छतासगढ़ा कऽवत़ यथ़थय बोध के म़ध्यम से स़म़दय जन-जावन की समस्य़ओं से जिझने को तैय़र हं। छतासगढ़ा कऽव डो.ऽवनय प़ठक क़ अधिऽनक भ़व-बोध व्य़पक हं, दीसरा और बधेला कऽव शिक्लजा की कऽवत़ संकीणय हं। आसमं म़ि स्व़थय की ऽवऽवध कल्पऩओं को ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

व्यि ककय़ गय़ हं। डो.प़ठक के ह्दय मं स़म़ऽजक अक्रोश है जो श्रऽमकं की व्यथ़ बनकर क़व्य के रुप मं ईभरत़ हं।’15 ‘अज़ बड़ ल़गत हे ऄसकं’ क़व्य मं कऽव क़ मत है कक प्रेम मं ऽवध्न ब़ध़ हा व्यथ़ बनकर मन:ऽस्थऽत को प्रऽतकि ल बऩ देता हं। ऐसा दश़ मं मनिजमन-मसोस कर रह ज़त़ हं। मन व्य़कि ल और आतऩ ऽखन्न हं कक ऄवस़द मं डी ब कर बबील की गंद के सम़न ऽलजऽलज़-ऽचपऽचप़ लग रह़ हं। कल तक जो ऽप्रय थ़, वह ऄशिभऄप्राऽतकर बन ज़त़ हं। नैनं मं सम़इ हुइ सिंदर पितऽलक़ ऽपश़चा बनकर ऄंतऱल मं सम़ ज़ता हं और ऄंतमयन को नख-क्षत कर ज़ता हं। आस प्रक़र कऽव ने मन के ऽनमयल प्रव़ऽहत चंचल जल के ऄऩय़स पय़यवरण -पररवतान के पश्चात् बफा बनकर जड़ बन ज़ने की ऽस्थऽत को रे ख़ंककत ककय़ हं। ईदहं ऐस़ प्रतात हुअ म़नं अत्म़ के ऄंतऱल मं प्रऽवि होकर ‘ऽमर चिक भीत’ मन के ऽशशि को खरोचने लग़ हं। ऐसा ऽस्थरत़ मं जावन के ऄंतऱल मं नदह़ स़ प्रेत प्रऽवि होकर ऄंतमयन मं ऄवऽस्थत प्ऱण -शमि को खरंच कर लहुलुहैान बना रहैा हं। ऄंतर मरण़सन्न ऽस्थऽत मं हं, और ऄंतमयन प्रेत-ब़ध़ मं सिबध कर रि से लथपथ हो गय़ हं। आस ऽस्थऽत मं गन्ने क़ माठ़ रस, भ़त के गमय पेय ‘पेज’ की भ़ँऽत साठ़-रात़ प्रतात लगत़ हं-

"मन के ऽनरमल प़ना ह क़बर, ईररस ऄई बरि जऽमस। ऄंतस म ऽमरचिक भितिव़ ऄम़के , मन-लआक़ ल कोक ऽमस।। गिर तर कि ऽसय़ऱ जऩआस ऄआसन, ऽसट्ठ़ पेज ऽपयं गं गं।। अज बड़ ल़गत हं ऄसकं।।"16

‘ऽजनगा ह़’ शाषयस्थ क़व्य मं कऽव ने जावन की ऽववेचऩ की हं। जावन को मनि से लेकर अज तक के म़नवं ने पररभ़ऽषत करने की चेि़ की हं, ककदति जावन क़ संस़र ऄध़वऽध ऄपररभ़ऽषत हा रह गय़ हं।17 कऽव जावन को कभा ‘खेड़़-भ़जा’ की तरह म़नते हं, तो कभा ‘ड़ीबकी स़ग’ की ईपम़ देते हं। अपके मत़निस़र जावन ‘खेड़़-भ़जा’ की तरह च़र महाने क़ हं,

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तथ़ऽप आसकी पऽिय़ँ भ़ँजा, तऩ और जड़ सब ख़ध हं आस प्रक़र सब ईपयोगा हं। यह यकद ऽवपऽत की भ़ँऽत खट्ट़ भा लगत़ हं, तो सिख के मस़ले के स़थ तर-बतर व रुऽचकर भा होत़ हं। आसमं यकद कोयल की माठा अव़ज सिऩया देता हं, तो कौए की ककय शत़ भा हो सकता हं। यह जावन सिख-दि:ख, हषय-ऽवष़द और ऽमलनऽवरह क़ धीप-छ़ँव हा हं। आसा प्रक़र ‘ड़ीबकी स़ग’ के सम्बदध मं देखं तो ईड़दद़ल को पास कर गमय दऽध-ऽमऽश्रत जल मं पक़ कर बऩइ गइ तरक़रा ऽवशेष - ‘ड़ीबकी’ के स़थ डी ब कर कऽव जावन को समझ लेते हं। कऽव के मत़निस़र ‘ड़ीबकी स़ग’ की तरह जावनरस मं हा पकत़ हं और ईभरत़ हं। वह़ ब़ह्य चमक दमक से नहं, ऄंतर की अव़ज से पहच़ऩ ज़त़ हं। ईसा से अत्म-ऄर्णजत-ईज़य से हा जावन ईध्वमियखा होत़ हं।

"ऽज़नगा हे खेड़़भ़जा च़रे महाऩ िरथे। ऄम्मठ-मसलह़ ऽज़नगा, स़ँ हा ओहर लग थे। कोआला कस कि हू कभी, गिहू कभी कोआला कस, कभी लगे कंअ क़ँव, ज़नो येल़ भ़इ रे । ऽज़नगा हे डि बकी स़ग, रस म जे चिर थे, भातर-भातर पक थे, भातर-भातर घिरथे। मिसकी-असीँ, सिख-दि:ख, सिख-दि:ख, मिसकी अँसि ऽज़नगा बँंे सहर-ग़ँव, ज़ना येल़ भ़इ रे ।"17

आस प्रक़र डो.ऽवनय कि म़र प़ठक ने अँचऽलक-स़ंस्कु ऽतक ककदति मौऽलक एवं ऄऽभनव ईपम़नं एवं प्रताक प्रयोगं ऱऱ छतासगढ़ा लोक छं दो व नइ कऽवत़ओं की ऽशल्पऽवऽध को प्रकं ककय़ हं। अप मौऽलक-स़ंस्कु ऽतक ईपम़नं एवं प्रताकं के पथ पर प्रऽस्थत होकर सत्य के ऄदवेषक एवं मौऽलक सिचतक के रुप मं प्रस्थ़ऽपत हुए हं। ‘ऄक़दसा’ के पश्च़त् प्रय़स प्रक़शन ऱऱ प्रक़ऽशत प्ऱय: समस्त क़व्य संग्रहं तथ़ प्रबदध क़व्यं मं डो.प़ठक क़ यह प्रभ़व स्पि पररलऽक्षत होत़ कदख़इ पड़त़ है। अपने अक़शव़णा, कऽव सम्मेलनं एवं गोऽष्ठयं के म़ध्यम से क़व्य पठन एवं संमेलनो व बैठकं मं एतद् ऽवषयक ऽवच़र ISSN –2347-8764

व्यि करके तथ़ शोध परक लेखं क़ प्रक़शन करके अँचऽलक ईपम़नं-प्रताकं की धीम मच़इ हं आसक़ जो प्रभ़व छतासगढ़ा स़ऽहत्य पर पड़़ हं आस यिग़ंतरक़रा घंऩ को द्िव्य करते हुए अपको यिगपिरुष से सम्म़ऽनत ककय़ गय़ हं। संदभय सीचा 1. ‘ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र’ – भीऽमक़ंतगयत डो.बलभर ऽतव़रा क़ मत 2. ‘बधेलखंड़ और छतासगढ़ के अधिऽनक लोक कऽवयं क़ तिलऩत्मक मील्य़ंकन’ – डो.सीययभ़न सिसह, पु.194 3. वहं, पु.195 4. ‘ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र’ डो. ऽवनय कि म़र प़ठक, पु.1 5. ‘छतासगढ़ा स़ऽहत्य के यिगपिरुष डो.ऽवनय प़ठक’, डो.रुरदत ऽतव़रा, पु.16 6. ‘ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र’ , पु.4 7. ‘छतासगढ़ा कऽवत़ की नइ ध़ऱ को डो.ऽवनय कि म़र प़ठक क़ प्रदेय’ – डो.िजेश श्राव़स्तव, पु.71 8. ‘ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र’, पु.6 9. वहं, पु.6 10. वहं, पु.6 11. वहं, पु.8 12. वहं, पु.8 13. वहं, पु.8 14. वहं, पु.11 15. ‘बधेलखंड़ और छतासगढ़ के अधिऽनक लोक कऽवयं क़ तिलऩत्मक मील्य़ंकन’ – डो.सीययभ़न सिसह, पु.498 16. ‘ऄक़दसा ऄउ ऄनऽचदह़र’, पु.13 17. ‘छतासगढ़ा स़ऽहत्य के यिगपिरुष डो.ऽवनय प़ठक’, डो.रुरदत ऽतव़रा, पु.14

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संप्रऽत – संजय भ़इ चौधरा 46,ऽशवशककत नगर-1 मिस़ रोड, क़नपिऱ, व्य़ऱ,ऽज.त़पा दऽक्षण गिजऱत पान.394650 संपकय - 94271 51012, 97243 39271

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ऽवश्व ग़थ़ : ऄप्रैल-मइ-जीन-2016

नइ कलम

कऽवत़

वंदऩ दिबे ऄगर मं तिमसे कह प़ता तो बहुत कि छ कहता, छोंा - छोंा ब़तं से ह़ले बय़ करता । मं यीँ हा कहता रहता और तिम सिनते रहते ॥ ऄगर मं तिमसे कह प़ता तो वो सब कि छ कहता, कभा ऽशकव़ करता कभा ददे बय़ँ करता । वि बात ज़त़ खट्टा माठा ब़तं से, अज ब़त कर लेता तिमसे तिम मेरे कदल मं सिजद़ हो ॥ ♦♦♦ 64




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