Jan feb march 2017

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ऄनुक्रमणणका सम्पादकीय संवाद पंकज णिवेदी 03 अलेख प्रकृ णत का ईलास पवव - कृ ष्ण कु मार यादव 04 ✽ छं द, छं दमुक्त और संगीत - बीनू भटनागर 07 सलाहकार संपादक बसर होती नसीहतं रीभा णतवारी 40 सुभाष चंदर राजस्थान मं बालणववाह ऄणमत बै ज नाथ 41 ✽ कहानी संपादक हे ब्यूटीफु ल णप्रयंवदा ऄवस्थी 10 पंकज णिवेदी मुणक्त शेफाणलका वमाव 15 ✽ णपता अर अर हषावना 19 सह संपादक कमली देवी नागरानी 22 ऄचवना चतुवेदी थोड़े से संस्कार मधु शमाव कटटहा 25 परामशवक दुणनया का सबसे रूपवान (ऄमेटरकन) 47 णबन्द्द ु भट्ट गेबैएल गार्ससया माखेज ऄनु. सुशांत सुणप्रये मंजुला ऄरगड़े सिशदे आं तज़ार मं सीमा ऄसीम सक्सेना 51 ✽ फफर वो क्या करत? आं द ु पुरी गोस्वामी 54 शोधपि संपादक नया सवेरा णनशा नरे श के ला 55 डॉ. के तन गोहेल ऄसंभव णशवानी कोहली 57 डॉ. संगीता श्रीवास्तव कणवता ✽ दो मुक्तक णवश्वम्भर शुक्ल 01 मुखपृष्ठ तसवीर सूरज जरूर अएगा परीणित बाजपेयी 10 कृ ताथव सोलंकी वामा अरती णतवारी 24 ✽ चंपा का फु ल संजय वमाव 'दृणि' 46 वार्सषक सदस्यता : तेरे णबन (गीत) तारा सिसह 'ऄंशल ु ' 50 200/- रुपये ऄंतराल राजेश शाणडडल्य 53 5-वषव : 1000/- रुपये मुसाफफर एकता ठाकर 56 (डाक खचव सणहत) दो कणवताएँ फकरण राजपुरोणहत 56 ✽ कणवता अमीन खान 64 सम्पादकीय कायावलय व्यंग्य णवश्वगाथा कहावतं को लोकतांणिक... ब्रजेश कानूनगो 36 ॎ, गोकु लपाकव सोसायटी, बेटी शोभना श्याम 36 80 फीट रोड, सुरेन्द्रनगरदीदी तीन, जीजा पांच ऄशोक णमश्र 37 363002 (गुजरात) संस्मरण ✽ हरसिजदर सिसह 27 vishwagatha@gmail.com गुरुदयाल सिसह ऄनु. सुभाष नीरव ✽ Mo. 09662514007 णवनोद शंकर शुक्ल वीरन्द्र सरल 33

जनवरी-फ़रवरी-माचव 2017

लघुकथा फ़कव प्रो. शरद नारायण 06 रीत ऄंफकता भागवव 09 दो लघुकथाएँ मार्टटन जॉन 14 पटरभाषा संजय वमाव 'दृणि' 18 राष्ट्रवाद की जय संदीप तोमर 21 ऄनपढ़ माँ ऄणमत वाघेला 24 आं तज़ार आं साफ का राजन कु मार 60 ओस्कर एवोडव फफल्म डॉ. णझवागो -सुमंत रावल -ऄनु. राजेन्द्र णनगम 61 प्रवासी रूसी संस्कृ णत तमारा व्लासोवा 35 फकताबघर नदी मरती नहं णप्रयंवदा ऄवस्थी 42 नक्काशीदार के णबनेट पुप्षा सक्सेना 43 मेरी णप्रय कथाएँ अचायव संजीव वमाव 45 शोधपि सिपजरे की मैना डॉ. समीर प्रजापणत 65

दो मुक्तक

सवेरे सवेरे णवश्वम्भर शुक्ल

एक सूरजमुखी स्वणव-अकाश हो , शणक्त का पुंज हो,एक णवश्वास हो, भोर की है यही प्राथवना हे प्रभो , हर ऄधर पर ऄलंकृत मधुर हास हो ! ✽ खग का सुमधुर कलरव देख, रूप ऄनूठा,ऄणभनव देख , णतणमर छं टा,अया ईणजयारा , तेज सूयव का नव-नव देख ! ~✽ ~

'णवश्व गाथा' मं सभी साणहत्यकारं का स्वागत है। अप ऄपनी मौणलक रचनाएँ ही भेजं, साथ मं ऄपना णचि और पटरचय भी। रचनाएँ भेजने से पहले, पूवव ऄंकं का ऄवलोकन जरूर करं । प्रकाणशत रचनाओं के णवचारं का संपूणव ईत्तरदाणयत्व लेखक पर होगा। णववाफदत या ऄन्द्य सामग्री चयन ऄणधकार संपादक का होगा। प्रकाणशत रचनाओं पर कोइ पाटरश्रणमक भुगतान नहं होगा। पणिका मं प्रकाणशत सामग्री रचनाकारं के णनजी णवचार हं । संपादक मंडल-प्रकाशक का ईनसे सहमत होना ऄणनवायव नहं है। ~✽~

© Editor, Printer & Publisher : Pankajbhai Amrutlal Trivedi , Gokulpark Society, 80 Feet Road, Surendranagar-363002 (Gujarat) Owner by : Pankajbhai Amrutlal Trivedi, Printed at Nidhiresh Printery, 23, Medicare Complex, Nr. A-One Garage, Surendranagar. Published at Gokulpark Society, 80 Feet Road, Surendranagar-363002 (Gujarat) Jurisdiction : Surendranagar (Gujarat)

ISSN –2347-8764

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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ख़त-ख़बर युवा व्यंग्यकार पुरस्कार फदल्ली : 14 जनवरी, 2017 को पूवावह्न 11 बजे से सिहदी भवन मं व्यंग्य की चौपाल का अयोजन फकया गया। राजर्सष पुरुषोत्तमदास टंडन सिहदी भवन के तत्वावधान मं अयोणजत आस चौपाल का मुख्य णवषय—व्यंग्य स्तम्भ और शाश्वतता का प्रश्न था। आसके ऄलावा भी व्यंग्य से जुड़े ऄन्द्य मुद्दों पर चचाव हुइ। आसी कायवक्रम मं चर्सचत युवा व्यंग्यकार ऄनूप मणण णिपाठी (लखनउ) को पहला युवा व्यंग्यकार पुरस्कार प्रदान फकया गया। आसमं श्री ऄनूप को 5100/-रुपये की राणश, श्रीफल और प्रशणस्तपि भंट फकया गया। यह पुरस्कार प्रणसद्दो युवा व्यंग्य लेणखका ऄचवना चतुवेदी द्वारा ऄपने णपता स्व. डॉ फकशोरी लाल चतुवेदी की पुडय स्मृणत मं प्रणत वषव फकसी युवा व्यंग्यकार को प्रदान फकया जाएगा। आस वषव की णनणावयक सणमणत मं सववश्री गोपाल चतुवेदी, डा हरीश नवल, सुभाष चन्द्दर और डॉ रमेश णतवारी शाणमल थे। ज्ञातव्य है फक श्री ऄनूप मणण णिपाठी अईट लुक, नवनीत, साणहत्य ऄमृत, णवश्वगाथा, पटरकथा, तहलका, प्रथम प्रवक्ता, आसिडया न्द्यूज, ऄलाव, समकालीन जनमत, लफ्ज, परिरदे, समकालीन चौथी दुणनया, व्यंग्य यािा, साणहत्य पटरक्रमा, सोच-णवचार, प्रगणतशील ईद्भव, ऄट्टहास, चौथी दृणि, जनसत्ता, दैणनक जागरण, नवभारत टाआम्स, स्वतंि भारत, सिहदुस्तान दैणनक, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता एक्सप्रेस, नइ दुणनया, अइ नैक्स्ट, डीएनए, द संडे पोस्ट अफद मं णनयणमत रूप से णलख रहे हं।वह कइ वषो तक जनसत्ता एक्सप्रेस मं ‘दरऄसल’ और तहलका मं ‘तहलका-फु ल्का’ नाम से लगातार पांच वषं स्तंभ लेखन करते रहे हं । आसके अलावा वह प्रथम के .पी. सक्सेना युवा व्यंग्यकार 2015 और णवणभन्न संस्थाओं द्वारा समय-समय पर पुरस्कृ तहो चुके हं। ईन्द्हं बधाइ। * "णवश्वगाथा" का नवम्बर—फदसंबर ऄंक ISSN –2347-8764

णमला। सभी रचनाएँ पसंद अयं। कल्पना हँसाया, गुदगुदाया और कचोटा। वटरष्ठ मनोरमा जी की व्यंग कणवता 'बुणधया हर व्यंग्यकार डा. सूयवबाला का सािात्कार फदन जोड़ घटाती', मंजरी शुकल जी की तथ्यपूणव रहा। कु ल णमलाकर यह एक कहानी "सच्ची दीपावली" और ऄरणवन्द्द संग्रहणीय ऄंक रहा खासकर व्यंग्यप्रेणमयं कु मार खेड़े जी का व्यंग 'सफ़र मं ऄख़बार' के णलये। संम्पादक श्री पंकज णिवेदी, बेहद पसंद अया। सभी रचनाकारं को ऄणतणथ संपादक श्री सुभाष चन्द्दर और हार्ददक बधाइ। प्रणत के णलए ऄचवना जी सणहत पूरी टीम को बधाइ। शुफक्रया Pankaj Trivedi सर अभार। -आन्द्रजीत कौर णशवानी कोहली * श्री रं जीत जी, नमस्कार। अशा है अप स्वस्थ एवं सानंद हंगे। प्रकाशन सन्द्दभव जानकारी "णवश्वगाथा" ऄक्टू बर-फदसंबरद पेपर रणजस्रेशन ऑफ न्द्यज़ ू पेपर सेन्द्रल 2016 मं प्रकाणशत अपका रूल्स-1955 के तहत अलेख "वो वांस की कटाइ, वो णवश्व गाथा : (िैमाणसक की माणहती घास की बुनाइ" पढ़ा। गुज़ारे : णवश्वगाथा ज़माने की याद ताज़ा हो गयी। सामणयक का नाम बाजारवाद फकतना कु छ लील सामणयक की भाषा : णहन्द्दी गया। संस्कृ णत और मूल्य भी : िैमाणसक खोते जा रहे हं। अलेख हेतू प्रकाशन की ऄवणध हमारा हार्ददक साधुवाद अर.एन.अइ. नंबर : RNIस्वीकारं । सादर/सप्रेम, GUJHIN/00602/2014 Dr. Sarika Mukesh पणिका की कीमत : 50 रुपये Tamilnadu * संपादक, प्रकाशक, माणलक : पंकज णिवेदी संपादक महोदय, णवश्वगाथा : पंकज णिवेदी का 'ऄक्टू बर-फदसम्बर 'ऄंक मुरक प्राप्त हुअ। धन्द्यवाद। वटरष्ठ राष्ट्रीयता : भारतीय अलोचक श्री सुभाष चन्द्दर जी : 23, मेडीके र का ऄणतणथ संम्पादकीय 'व्यंग्य मुरण स्थान का संक्रमण काल' वतवमान कोम्प्लेक्स, सुरंरनगर– पटरवेश के व्यंग्य और 363002 (गुजरात) व्यंग्यकारं का सही णचिण प्रस्तुत करता है। अदरणीय श्री प्रकाशन स्थल : गोकु लपाकव सोसायटी, शंकर पुणताम्बेकर जी के तीनं 80 फु ट रोड, सुरंरनगर– व्यंग्य ने ईनके णचरपटरणचत ऄंदाज मं ही गागर मं सागर 363002 (गुजरात) भरे । कबूतर की घर वाणपसी, मं पंकज णिवेदी घोषणा करता हूँ फक ईपयुक्त व बताइ गइ सािर होने की पीड़ा, झोले, माणहती मेरी जानकारी मं है और मान्द्यता के ऄनुसार पासपोटव नहं तो कु छ नहं, सही हं । भंसो के राष्ट्रीयकरण अफद रचनाओं ने समाज की फदनांक : 31/03/2017 पंकज णिवेदी णवसंगणतयं पर साथवक प्रहार संपादक - णवश्व गाथा फकया। व्यंग्य कणवताओं ने भी

णवश्व गाथा

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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सम्पादकीय

संवाद पंकज णिवेदी

"अप को ऄपने भीतर से ही णवकास करना होता है। कोइ अपको सीखा नहं सकता, कोइ अपको अध्याणत्मक नहं बना सकता। अपको णसखाने वाला और कोइ नहं, णसफव अपकी अत्मा ही है।” – स्वामी णववेकानंद परं को खोलते हुए पंणछयं को ईड़ान भरना णसखाने को जब खुला अकाश फदया जाता है तब वो ऄपने पौरुष के बल से ईड़ने की चेिा करता है तथा णनरन्द्तर ऄभ्यास के द्वारा वह आसे उँची रोमांचक और ऐणतहाणसक बनाता है। ऄपेिाएं आं सान को ही होती है ऐसा नही होता पंणछयं को भी णनणित होती हंगी। आसणलए तो वह दूर दराज तक दौड़ लगाकर ऄपनी चंच मं दाने लाकर, घंसले मं पल रहे बच्चं को णखलाता है। और जब ईन्द्हं बच्चं मं ईड़ने की ईत्सुकता और फु ती देखी जाती है तब वह ऄपने बच्चं को खुला अकाश देने के णलए चंच मार मारकर ईड़ना भी णसखाता है। ऄनुभव के ऄनुशाणसत व गहन णनरीिण मं फकये गए ऄभ्यास कायव ही ईसे सफल बनाते हं। मौन बड़ा प्रभावी होता है। मौन का ऄथव शब्दहीन हो जाना नहं होता। मौन प्रखर है, पूणावणभव्यणक्त भी है। मौन अत्मसिचतन को फदया गया समय हो तो ईससे बड़ा कोइ यज्ञ कोइ ऄनुष्ठान नहं। आसणलए हर व्यणक्त को समय समय पर ऄपने मौन की गोद मं बैठना चाणहए और स्वयं का अकलन भी करना चाणहए। संभव है फक मौन को मुखटरत होने मं देर नहं लगेगी। 'णवश्वगाथा' पणिका को ऄनणगनत रचनाकारं का ऄमूल्य सहयोग रचनाधर्समता के माध्यम से णमला है। नामी साणहत्यकारं ने आस पणिका के स्तर को बढ़ावा फदया है तो ऄनामी साणहत्यकारं के णलए यह मंच हौसला बढ़ाने मं काम अया है। 'णवश्वगाथा' मं न के वल णहन्द्दी साणहत्य को ही महत्त्व फदया गया है बणल्क भारतीय एवं णवदेशी भाषाओं की रचनाओं को णहन्द्दी भाषा के मंच पर प्रस्तुत करने का भी प्रयत्न फकया है। व्यावसाणयक रूप से आस पणिका ने ऄपने प्रचार-प्रसार के णलए कोइ ठोस कदम नहं ईठाया। मगर ऄपने सदस्यं तक सीणमत रहकर भी ऄपना णवशेष स्थान बनाने मं कोइ कसर नहं छोडी। ऄगले कु छ महीनं मं आसे और भी बेहतर बनाने के साथ व्यवसाणयक स्तर पर भी ले जाने का मन है। यह सब तभी संभव हो पाएगा जब पणिका के सजग सदस्यं ने ऄबतक जो सहयोग फदया है, ईसे अगे भी जारी रखकर हमारा साथ दंगे। मं चाहता हूँ फक प्रत्येक शहरं मं कोइ साणहत्यकार णमि ही वहाँ का प्रणतणनणधत्व करं और पणिका को ऄपना सहयोग दं। ISSN –2347-8764

जब कभी कोइ कायव शुरू फकया जाता है तो ईसमं ऄनणगनत लोग कभी प्रणसणि पाने को या ऄपने णनजी स्वाथव के णलए भी जुड़ते हं। ईनमं से बहुत ही कम लोग ऄपनी ईड़ान के बाद जड़ं को याद रख पाया करते हं। कु छ लोग तो दो-तीन वषो मं ही ऄपने अप को सववश्रेष्ठ मानने लगे और ऐसा सच मं हो, यह जरूरी नही होता। ऄनुभव के मापदंड पर आसे जब परखा जाता है तो बहुत बड़ा ऄंतर णनकलता है णसणि और प्रणसणि के मध्य। घमंड या ऄहंकार बढ़ने से जड़ं से टरश्ता टू टना बेहद स्वाभाणवक प्रफक्रया है। मगर आसके णवपरीत शुरूवात मं मंने जैसे कहा फक बड़े वो होते है जो ऄपने बच्चं के परं को ईगता देख खुला अकाश सही समय पे दे दं। ऐसा करने से दोनं का भला होगा। बदलते वक्त के साथ पटरवतवन होना भी स्वाभाणवक है। मगर प्रत्येक पटरवतवन मं शाणमल होना भी ठीक नहं होता। पटरवतवन पर सोच-णवचार के बाद ऄपने णनणवय खुद हमं ही लेने पड़ते हं। जब भी फकसी णमशन को लेकर हम एक गणत से अगे बढ़ रहे है तब सफलता की संभावना से बहुत लोग जुड़ंगे मगर जब ईसी मंच के अधार पर वो ऄपना दाणयत्व आस मंच से हटकर कही और णनभाने चले जाएं तब ऐसे स्वके न्द्री व्यणक्तत्व से णनजात पा लेने मं भी कोइ बुराइ नहं होती। क्यूंफक कु छ मंच व्यणक्तगत नहं होते, साववजणनक होते है। णजसमं समाज के लोगं की ऄपेिाएं, कु छ ऄच्छे पटरणाम प्राप्त करने के णलए होती है। अशा है, तीन वषव पूणव होने पर आस चौथे वषव के प्रथम ऄंक को ऄपने हाथं मं पाकर अप संति ु हंगे। पणिका की साज-सज्जा एवं साणहणत्यक सामग्री से भी अपको कहं न कहं संतोष का ऄनुभव देने की कोणशश की गयी है। अप सभी के स्नेह और सुझाव से ही यह पणिका सच्ची राह पर चल पाएंगी। पाठकं और साणहत्यकारं की सजगता ही पणिका के णलए बड़ा संबल साणबत होगी। मं अपको यह भरोसा फदलाता हूँ फक जून के बाद अपको पणिका मं काफ़ी कु छ नयापन णमलेगा। गुजरात मं रहकर णहन्द्दी साणहणत्यक पणिका प्रकाणशत करना चुनौतीपूणव जरूर है। सीणमत संसाधनं से आस कायव को एक सही अकार देना मुणश्कल जरूर है, ऄसंभव भी नहं हं । अप सभी के णवश्वास को बनाए रखकर ईस पे खरा ईतरना मेरा दाणयत्व भी है। ऄंग्रेजी नूतन वषव और बसंत ऊतू की की ऄनेकानेक शुभकामनाएं। ~✽ ~

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अलेख

प्रकृ णत का ईल्लास पवव है वसंत कृ ष्ण कु मार यादव मं ऊतुओं मं न्द्यारा वसंत, मं ऄग-जग का प्यारा वसंत। मेरी पगध्वणन सुन जग जागा, कण-कण ने छणव मधुरस माँगा।। नव जीवन का संगीत बहा, पुलकं से भरा दिदगत। मेरी स्वप्नों की णनणध ऄनंत, मं ऊतुओं मं न्द्यारा वसंत। (महादेवी वमाव) वसंत का ईत्सव प्रकृ णत और श्रृंगार का ईत्सव है। आसके अगमन के साथ ही फफजा मं चारं तरफ मादकता और ईल्लास का ऄहसास छा जाता है। कभी पढ़ा करते फक 6 ऊतुएं होती हं- जाड़ा, गमी, बरसात, णशणशर, हेमत, वसंत। पर ग्लोबल वार्मिमग के बढ़ते प्रभाव ने आन्द्हं आतना समेट फदया फक पता ही नहं चलता कब कौन सी ऊतु णनकल गइ। पूरे वषव को णजन छः ऊतुओं मं बांँ​ँटा गया है, ईनमं वसंत सबसे मनभावन मौसम है, न ऄणधक गमी है न ऄणधक ठं ड। यह तो शुक्र है फक ऄपने देश भारत मं कृ णष एवम् मौसम के साथ त्यौहारं का ऄटू ट सम्बन्द्ध है। रबी और खरीफ फसलं की कटाइ के साथ ही साल के दो सबसे सुखद मौसमं वसंत और शरद मं तो मानो ईत्सवं की बहार अ जाती है। वसंत मं वसंतोत्सव, सरस्वती पूजा, महाणशवराणि, रं ग पंचमी, होली और शीतला सप्तमी के ऄलावा चैि नवराणि मं नव संवत्सर अरं भ, गुड़ी पड़वा, घटस्थापना, रामनवमी, चैती दशहरा, महावीर जयंती आत्याफद त्यौहार मनाये जाते हं। वास्तव मं ये पवव णसफव एक ऄनुष्ठान भर नहं हं, वरन् आनके साथ सामाणजक समरसता और नृत्य-संगीत का ऄद्भुत दृश्य भी जुड़ा हुअ है। वसंत ऊतु मं चैती, होरी, धमार जैसे लोक संगीत तो माहौल को और मादक बना देते हं। तभी तो कणववर सोहन लाल णद्ववेदी णलखते हंअया वंसत अया वसंत छाइ जग मं शोभा ऄनंत। सरसं खेतं मं ईठी फू ल बौरं अमं मं ईठं झूल बेलं मं फू ले नए फू ल पल मं पतझड़ का हुअ ऄंत अया वसंत अया वसंत। माघ महीने के शुक्ल पि की पंचमी से ऊतुओं के राजा वसंत का अरं भ हो जाता है। आसमं न तो ग्रीष्म की रूमानी ISSN –2347-8764

दग्धता है और न पावस की पच-पच पणनयल हरी-हरी मादकता। वसंत के संदयव मं जो ईल्लास णमलता है वह जैणवक नहं है। यह एक सगुण ऄनुभूणत है। आसी समय से प्रकृ णत के संदयव मं णनखार फदखने लगता है। वसंत मं ईववरा शणक्त ऄथावत ईत्पादन िमता ऄन्द्य ऊतु की ऄपेिा बढ़ जाती है। वन मं टेसू के फू ल अग के ऄंगारे की तरह लहक ईठते हं, खेतं मं सरसं के पीले-पीले फू ल वसंत ऊतु की पीली साड़ी-सदृश फदखते हं। ऐसे मं वसंती हवा की आठलाहट को कणववर के दार नाथ ऄग्रवाल कु छ यूँ ऄणभव्यक्त करते हंहँसी जोर से मं, हँसी सब फदशायं हँसे लहलहाते हरे खेत सारे हँसीचमचमाती भरी धूप प्यारी बसंती हवा मं हँसी सृणि सारी हवा हूँ हवा मं बसंती हवा हूँ। फकसी कणव ने कहा है फक वसंत तो ऄब गांँ​ँवं मं ही फदखता है, शहरं मं नहं। यह सच भी है क्यंफक क्यंफक वसंत मं सरसं पर अने वाले पीले फू लं से समूची धरती पीली नजर अती है। आसी कारण आस फदन पीले रं ग के कपड़े पहनने का चलन है। आन फदनं बोगनवेणलया, टेसू (पलाश), गुलाब, कचनार, कनेर अफद फू लने लगते हं। अमं मं बौर अ जाते हं, गुलाब और मालती अफद के फू ल णखलने लगते हं। अम-मंजरी और फू लं पर भंरे मँडराने लगते हं और कोयल की कु हू-कु हू की अवाज प्राणं को ईद्वेणलत करने लगती है। तभी तो कणववर नागाजुवन कह ईठते हंरं ग-णबरं गी णखली-ऄधणखली फकणसम-फकणसम की गंधो-स्वादं वाली ये मंजटरयां तरूण अम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर झूम रही हं।

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आस मौसम मं वृिं के पुराने पत्ते झड़ने के बाद ईनमं नए-नए गुलाबी रं ग के पल्लव मन को मुग्ध करते हं। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृ णत वसंत ऊतु मं सोलह कलाओं से णखल ईठती है। जौ-गेहूँ मं बाणलयाँ अने लगती हं और वन वृिं की हरीणतमा मन को ऄपनी ओर अकर्सषत करती है। पणियं के कलरव, पुष्पं पर भौरं का गुंजन तथा कोयल की कु हू-कु हू णमलकर एक मादकता से युक्त वातावरण णनर्समत करते हं। ऐसे मं भला ’णनराला’ का कणव-मन क्यं न बौरालता मुकुल हार गंध भार भर, बही पवन बंद मंद मंदतर जागी नयनं मं वन यौवन की माया, सणख वसंत अया। यौवन हमारे जीवन का वसंत है तो वसंत आस सृणि का यौवन है। महर्सष वाल्मीफक ने रामायण मं वसंत का ऄणत सुंदर व मनोहारी णचिण फकया है। भगवान कृ ष्ण ने गीता मं ’ऊतूनां कु सुमाकरः’ कहकर ऊतुराज वसंत को ऄपनी णवभूणत माना है। कणववर जयदेव तो वसंत का वणवन करते थकते ही नहं। वसंत ऊतु मं मन मं ईल्लास और मस्ती छा जाती है और ईमंग भर देने वाले कइ तरह के पटरवतवन देखने को णमलते हं। आससे शरद ऊतु की णवदाइ के साथ ही पेड़-पौधं और प्राणणयं मं नवजीवन का संचार होता है। प्रकृ णत नख से णशख तक सजी नजर अती है और णततणलयां तथा भंवरे फू लं पर मंडराकर मस्ती का गुंजन गान करते फदखाइ देते हं। हर ओर मादकता का अलम रहता है। सुणमिानंदन पंत आसे महसूस करते हुए णलखते हंदीप्त फदशाओं के वातायन, प्रीणत सांस-सा मलय समीरण, चंचल नील, नवल भूयोवन, फफर वसंत की अत्मा अइ, अम मौर मं गूथ ं स्वणव कण, दिकशुक को कर ज्वाल वसन तन। वसंत ऊतु अते ही प्रकृ णत का कण-कण णखल ईठता है। मानव तो क्या पशु-पिी तक ईल्लास से भर जाते हं। हर फदन नयी ईमंग से सूयोदय होता है और नयी चेतना ISSN –2347-8764

प्रदान कर ऄगले फदन फफर अने का अश्वासन देकर चला जाता है। साणहत्यकार अचायव हजारी प्रसाद णद्ववेदी ने एक जगह णलखा है, ’’वसंत का मादक काल ईस रहस्यमय फदन की स्मृणत लेकर अता है, जब महाकाल के ऄदृश्य आं णगत पर सूयव और धरती-एक ही महासिपड के दो रूप-ईसी प्रकार णवयुक्त हुए थे णजस प्रकार फकसी फदन णशव और शणक्त ऄलग हो गए थे। तब से यह लीला चल रही है।’’ हमारे यहाँ त्यौहारं को के वल फसल एवं ऊतुओं से ही नहं वरन् दैवी घटनाओं से जोड़कर धार्समक व पणवि भी बनाया गया है। यही कारण है फक भारतीय पवव और त्यौहारं मं धार्समक देवी-देवताओं, सामाणजक घटनाओं व णवश्वासं का ऄद्भुत संयोग प्रदर्सशत होता है। वसंत पंचमी को त्योहार के रूप मं मनाए जाने के पीछे भी कइ ऐसे दृिांत हं। पीत वस्त्र धारण कर, पीत भोजन सेवन कर वसंत का स्वागत अज भी आसी फदन से होता है। ऐसा माना जाता है फक वसंत पंचमी के फदन ही देवी सरस्वती का ऄवतरण हुअ था। आसीणलए आस फदन णवद्या तथा संगीत की देवी की पूजा की जाती है। पुराणं के ऄनुसार एक मान्द्यता यह भी है फक वसंत पंचमी के फदन भगवान श्रीकृ ष्ण ने पहली बार सरस्वती की पूजा की थी और तब से वसंत पंचमी के फदन सरस्वती की पूजा करने का णवधान हो गया। छोटे बच्चं को ऄिरारं भ कराने के णलए भी यह ऄत्यंत शुभ फदन माना जाता है। वसंत को ऊतुराज कहा गया है यानी सभी ऊतुओं का राजा। अयुवेद मं वसंत को स्वास्थ्य के णलए णहतकर माना गया है। वसंत मं मादकता और कामुकता संबंधी कइ तरह के शारीटरक पटरवतवन देखने को णमलते हं णजसका अयुवेद मं व्यापक वणवन है। चरक संणहता मं कहा गया है फक आस फदन काणमनी और कानन मं ऄपने अप यौवन फू ट पड़ता है। ज्योणतणषयं की नजर मं वसंत के मौसम मं सबसे ज्यादा शुक्र का प्रभाव रहता है। शुक्र काम और संदयव के कारक हं। आसणलए यह ऄवणध रणत-काम महोत्सव मानी जाती है। आस मौसम मं कामदेव ऄपनी पत्नी रणत के साथ पृथ्वी का णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

भ्रमण करते हं। वसंत कामदेव मदन के णप्रय णमि हं और कामदेव धरती पर काम भावना लोगं मं जाग्रत करते हं। यही कारण है फक वसंत पंचमी का ईत्सव मदनोत्सव के रूप मं भी मनाया जाता है और तदनुसार वसंत के सहचर कामदेव तथा रणत की भी पूजा होती है। नाणसर काज़मी ने आसे कु छ यूँ ऄणभव्यक्त फकया हैकुं ज-कुं ज नग्माज़न वसंत अ गइ ऄब सजेगी ऄंजुमन वसंत अ गइ ईड़ रहे हं शहर मं पतंग रं ग-रं ग जगमगा ईठा गगन वसंत अ गइ मोहने लुभाने वाले प्यारे -प्यारे लोग देखना चमन-चमन वसंत अ गइ सब्ज खेणतयं पे फफर णनखार अ गया ले के ज़दव पैरहन वसंत अ गइ णपछले साल के मलाल फदल से णमट गए ले के फफर नइ चुभन वसंत अ गइ । आस ऄवसर पर ब्रजभूणम मं भगवान श्रीकृ ष्ण और राधा के अनंद-णवनोद का ईत्सव मुख्य रूप से मनाया जाता है। भगवान श्रीकृ ष्ण आस ईत्सव के ऄणधदेवता हं। वसंत पंचमी के फदन से ही होली अरं भ हो जाती है और ईसी फदन पहली बार गुलाल ईड़ाइ जाती है। आस फदन से होली और धमार का गाना प्रारं भ हो जाता है। लोग वासंती वस्त्र धारण कर गायन, वाद्य एवं नृत्य मं णवभोर हो जाते हं। ब्रज मं तो आसे बड़ी धूमधाम से मनाते हं। आस फदन फकसान नए ऄन्न मं घी और गुड़ णमलाकर ऄणि तथा णपतृ तपवण भी करते हं। रामचटरत मानस के ऄयोध्याकांड मं भी ऊतुराज वसंत की मणहमा गाइ गइ है टरतु वसंत हबह णिणबध बयारी। सब कहं सुलभ पदारथ चारी।। स्त्रक चंदन बणनताफदक भोग। देणख हरष णबसमय बस लोग।। ऄथावत् वसंत ऊतु है। शीतल, मंद, सुगंध तीन प्रकार की हवा बह रही है। सभी को धमव, ऄथव, काम, मोि चारं पदाथव सुलभ हं। माला, चंदन, स्त्री अफद भोगं को देखकर सब लोग हषव और णवस्मय के वश हो रहे हं। गुलाबी धूप के साथ प्रकृ णत के पोर-पोर मं बासन्द्ती छटा का ऄनुपम रं ग नये ऄनुबंधं की ऄलख जगाता है। प्रकृ णत मं सनी फू लं

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की मादक गंध, घर अँगन, खेत, णसवान मं णवस्तार लेती हुइ नये सृजन का ऄहसास कराती है तो यही ऄनुहार-मनुहार की परम्परा को भी बासन्द्ती चोले से ढककर सजवना के नये अयाम से जोड़ती है। वास्तव मं वसन्द्त प्रकृ णत का ईल्लास पवव है। वसंत मं मौसम खुशनुमा और उजाववान होता है, न ज्यादा ठं डा होता है और न गमव। यही कारण है फक आस दौरान रचनात्मक व कलात्मक कायव ऄणधक होते हं। आस दौरान प्रकृ णत लोगं की कायविमता मं भी वृणि करती है, तभी तो लोगं की सृजन िमता बढ़ जाती है। ऐसे मं भला कै से सम्भव है फक वसंत पर कोइ भी सृजनधमी कलम न चलाये। तभी तो ‘ऄज्ञेय‘ ऊतुराज के स्वागत मं कहते हंमलयज का झंका बुला गया खेलते से स्पशव से रोम रोम को कं पा गया जागो जागो जागो सणख वसंत अ गया जागो। -ऄज्ञेय ऐसा मानते हं फक वसंत का ईत्सव ऄमर अशावाद का प्रतीक है। वसंत का सच्चा पुजारी जीवन मं कभी णनराश नहं होता। पतझड़ मं णजस प्रकार वृि के पत्ते णगर जाते हं, ईसी प्रकार वह ऄपने जीवन मं से णनराशा और ऄसफलताओं को झटक देता है। णनराशा से णघरे हुए जीवन मं वसंत अशा का संदेश लेकर अता है। णनराशा के वातावरण मं अशा की ऄनोखी फकरण फू ट पड़ती है। जयशंकर प्रसाद ने आसे कु छ यूँ ऄणभव्यक्त फकया हैणचर-वसंत का यह ईद्गम है, पतझर होता एक ओर है, ऄमृत हलाहल यहाँ णमले हं, सुख-दुख बंधते, एक डोर हं । ~✽ ~ णनदेशक डाक सेवाएँ, राजस्थान पणिमी िेि, जोधपुर-342001 मो- 09413666599 इ-मेलः kkyadav.t@gmail.com ~✽ ~ ISSN –2347-8764

लघुकथा

फ़कव प्रो. शरद नारायण खरे

" मेरे णलए एक ऄच्छा-सा लेडीज सूट फदखाओ" लड़के ने दुकान मं पहुंचकर कहा ! " जी साब, फदखाता हूं !” दुकानदार ने स्माटवनेसफदखाइ ! कु छ देर बात वह लड़का ऄपने घर पहुंचा, और एकांत का लाभ ईठाकर घर मं काम कर रही एक सीधी-सादी पर ग़रीब सी लड़की की ओर णगफ्ट पैक बढ़ाते हुए बोला-" नया साल मुबारक़ हो ! ये लेडीज सूट का णगफ्ट के वल तुम्हारे और बस तुम्हारे णलए ! " कहते हुए ईस लड़के , णजसका नाम मयंक था, ने यमुना को णगफ्ट का पैकेट देना चाहा ! पर आनकार करते हुए यमुना ने सरलता पर दृढ़ता से कहा"नहं, छोटे साब मं यह तोहफा अपसे नहं ले सकती, क्यंफक मं अपके घर की कामवाली बाइ हूं ! और आस तरह फकसी कामवाली बाइ का फकसी बाहरी मदव से तोहफा लेना, हमारी मयावदा मं नहं है ! ........मालफकन याणन अपकी मम्मी जो भी दंगी, नये साल का आनाम मानकर मं के वल वही स्वीकार करूंगी !... अणख़र हम ग़रीबं को ऄपनी आज़ज्त का ख़्याल भी तो रखना पड़ता है न?" यमुना ने सपाट शब्दं मं कहा ! मयंक णनराश हो गया ! पर ईसके फदमाग मं तत्काल एक अआणडया कंध ईठा ! वह फौरन वही णगफ्ट लेकर णलली के घर की ओर दौड़ पड़ा ! हालांफक ईसकी णलली से कोइ ख़ास जानपहचान नहं थी, पर ईसने सोचा फक राइ मारने मं कोइ हज़व नहं है ! णलली को देखते ही, ईसे वह पैकेट देते हुए बोला -"हैप्पी न्द्यु आयर णडयर णलली, फदस णगफ्ट ओनली फॉर यु !" णगफ्ट हाथ मं अते ही णलली खुशी से ईछल पड़ी और मयंक के गाल पर फकस करते हुए बोली- "णडयरे स्ट यु अर वैरी स्वीट " आधर ये दोनं खुश थे और ईधर दूसरी ओर ऄमीरीग़रीबी,णशणित-ऄणशणित, संस्कार - कु संस्कार के बीच का फ़कव व्यंग्य से मुस्करा रहा था ! ~✽ ~ णवभागाध्यि आणतहास, शायकीय जे.एम.सी.मणहला महाणवद्यालय, मंडला (म.प्र)–481661 (मो.9425484382) khare.sharadnarayan@gmail.com ~✽ ~

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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अलेख

छँद, छँद मुक्त और संगीत बीनू भटनागर णहन्द्दी मं अफदकाल से ही काव्य छँ द मं णलखने की पाबंदी थी। छँ द के बाहर जाकर णलखना पद्य की श्रेणी मं ही नहं माना जाता था।णहन्द्दी मं सिपगल छँ द शास्त्र सबसे पुराना ग्रंथ माना जाता है।छं दं के णनयमं मे बंधकर काव्य मे लय और रं जकता अती है।ये भी ज़रूरी नहं है फक सभी कणवयं ने छँद शास्त्र का ऄध्ययन पहले फकया हो तब ही काव्य रचना की हो। भणक्तकाल के कणव कबीर तो पढ़े णलखे भी नहं थे पर ईनका हर दोहा दोहे के णनयमं पर खरा ईतरता है, क्यंफक ईनके मन मे जो लय बसी थी वो ईसमं ही वो शब्द णपरो देते थे।णजन कणवयं मं भीतर से ही लय का ऄहसास होता है ईनकी कणवता छँ दो मं ही णनकलती है, पर ऐसा भी नहं है फक छँ द णलखने के णलये स्वाभाणवक प्रणतभा न हो तो कोइ छँ द णलख ही नहं सकता। ऄभ्यास करने से आस णवधा मे णलखना सीखा जा सकता है। अरं भ मं कटठनाइ होगी, कड़ी महनत करने से धीरे धीरे णलखना असान हो जाता है।यफद कोइ गुरु णमल जाये तो रास्ता और असान होता जाता है। अफद काल णजसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है, ईस काल की ऄणधकतर रचनायं दोहं मे है। ये दोहे ऄणधकतर ऄपने अश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा मे णलखे गये थे। भणक्तकाल मे णनगुण व धारा के प्रमुख कणवयं मं रहीम और कबीर ने भी दोहं मं ऄपनी रचनाये णलखी।काव्य की सगुण भणक्तशाखा के कणव तुलसी दास ने दोहे चौपाइ मे रामचटरत मानस की रचना की। आस समय कणवत्त छप्पय सोरठा और कु डडणलया छँ द का भी प्रयोग हुअ। कृ ष्ण भणक्त मे मीरा और सूरदास ने पद णलखे।रीणत कालीन कणवयं ने मुक्तक, कणवत्त दोहे कु डडणलया आत्याफद छँ दं मं श्रृग ं ार रस की रचनायं की। पणिमी साणहत्य मं धीरे धीरे छँ दं के बन्द्धन खुलने लगे थे।णहन्द्दी मे छँदं के बंधन खोलने वाले सुप्रणसि कणव णनराला जी और सुणमिानंदन पंत थे।छँ द की रूफढ़यं से मुक्त होकर भी आनके काव्य मे प्रवाह बना रहा, कभी आन कणवताओं ने पढ़ने वाले चफकत भी कर फदया, ऄनायास कहं तुक णमलती है, कहं न णमलती, यही छँ द मुक्त काव्य की णवशेषता है। यहाँ कोइ णनयम नहं है फफर भी कणवता मं प्रवाह नहं रुकता। कहं न कहं ये छँदमुक्त ISSN –2347-8764

काव्य छँ द के अधार पर ही णलखे गये थे। छायावादी युग के छँ दमुक्त काव्य का अधार रोला और धनािरी माना जाता है। प्रयोगवादी युग मे सवैया तथा ऄन्द्य पुराने छँ दो को रूफढ़मुक्त करके णलखा गया। कणवता ऄनायास छँ दमुक्त नहं हुइ, समाज ने रुफढ़यंको तोड़ा तो कणवयं ने भी तोड़ा यद्यणप णवरोध हुअ पर कणवता छँ दं की जकड़न से मुक्त होने लगी। णनराला जी की एक कणवता मौन प्रस्तुत है आसमं लय भी है प्रवाह भी है और कोइ गुणी संगीतकार आसे संगीतबि भी कर सकता है। मौन बैठ लं कु छ देर, अओ, एक पथ के पणथक-से णप्रय, ऄंत और ऄनन्द्त के , तम-गहन-जीवन घेर। मौन मधु हो जाए भाषा मूकता की अड़ मं, मन सरलता की बाढ़ मं, जल-णबन्द्द ु सा बह जाए। सरल ऄणत स्वच्नन्द्द जीवन, प्रात के लघुपात से, ईत्थान-पतनाघात से रह जाए चुप,णनद्ववन्द्द । यद्यणप णनराला जी और सुणमिानंदन पंत जी की काव्य शैणलयाँ णभन्न थं फफर भी दोनो ने छँ द से बाहर णनकल कर णलखा, णवरोध हुअ पर ऄंत मे छँद मुक्त काव्य को मान्द्यता णमली। यहाँ पंत जी की एक प्रणसि कणवता का ऄंश प्रस्तुत हैचंटी वह चंटी को देखा अज? वह सरल णवरल काली रे खा तम के तागे सी जो णहल डु ल चलती लघु पद णमल जुल णमल जुल यह है पीणपणलका पाँणत! देखोन फकस भाँणत। काम करती वह सतत, कन कन चुनके चुनती ऄणवरत। आस कड़ी मं जयशंकर प्रसाद जी और राम धारी सिसह फदनकर का नाम भी जुड़ता है। धीरधीरे छँ द के बंधन

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टू टे तो कु छ लोगं को लगा फक कणवता णलखना बड़ा असान है जो भी मन मं भाव ईठ रहे हं या णवचार अ रहे हं ईन्द्हे णलखते चलो, बस बन गइ कणवता! छँ दमुक्त कणवता मे भी लय होती है, यणत और गणत भी होती है। प्रारं णभक छँ दमुक्त कणवताओं मे णहन्द्दी के संसकृ तणनष्ठ शब्दं का ही प्रयोग होता रहा फफर धीरे धीरे ईदूव शब्द कणवता मं समाने लगे और अज के कणव तो सारी सीमायं तोड़ कर आं गणलश शब्द ही नहं वाक्याँश तक प्रयोग करने लगे है। णहन्द्दी ईदूव सहचरी भाषायं हं आसणलये आनका प्रयोग होना तो भाषा के संदयव को कम नहं करता। आं गणलश भी सिहदी मं घुलने णमलने लगी है आसणलयं यदा कदा यफद सिहदी मे सही शब्द न णमले तो आं गणलश का भी प्रयोग फकया जा सकता है।ऄत:यह कहा जा सकता है फक छँ द के साथ भाषा की रूफढ़याँ भी टू टने लगं। रुफढयं का टू टना भी एक हद तक सही लगता है पर अज के एक मशहूर कणव की एक कणवता मं ' बाआ द वे' (by the way ) जैसा वाक्याँश देखकर मुझे कु छ णनराशा हुइ । शायद मै णवषय से भटक रही हूँ क्यंफक आस लेख मं मेरा मकसद ऄन्द्य भाषाओं के शब्दं का कणवता मं समाणहत होना नहं बणल्क छँ द और छँ द मुक्त काव्य की तुलना करके संगीत मे ईन्द्हे ढ़ालने के प्रयोगं को समझना है। अम तौर पर धारणा यह है फक छँ दबि काव्य को संगीत बि फकया जा सकता है। छँ द मुक्त काव्य संगीत मे नहं ढ़ाला जा सकता।गीत और नवगीत की णवधायं भी पूरी तरह छँ दबि नहं हं परन्द्तु ये गीत हं, तो संगीत के णलये ही बने हं। आनमं मुखड़ा और ऄंतरे होते हं। मुखड़े को शास्त्रीय संगीत मे स्थाइ कहते हं। मुखड़े की ऄंणतम पंणक्त और स्थाइ की ऄंणतम पंणक्त तुकाँत होती है, णजससे ऄंतरे के बाद मुखड़े पर अना होता है।यहाँ स्थाइ और ऄंतरे की मािायं णगनना ज़रूरी नहं होता है। छँ द मे भी लय होती है और संगीत मं भी, पर गौर से देखा जाय तो लय शब्द के ऄथव दोनं मे ऄलग हं। छँ द मे लय से तात्पयव प्रवाह से है फक णबना ऄटके ईसको पढ़ा जा सके । संगीत मे लय का ऄथव गणत से होता है, फक फकतना तीव्र या फकतना मन्द्द गणत से गायन या ISSN –2347-8764

वादन हो रहा है। स्वर शब्द का भी संगीत और भाषा मं ऄलग ऄथव है। स्वर ऄअ आ इ ई उ ए ऐ सिहदी भाषा के वौवल्स है। संगीत के स्वर षडज, टरषभ, गाँधार, मध्यम, पंचम, धैवत और णनषाद हं णजन्द्हं हम स रे ग म प ध णन या सरगम के नाम से जानते है। आन्द्हे आं गणलश मे नोट्स कहते हं (do re me fa so la ti ) । स्वर के ऄलावा संगीत मे ताल का भी बहुत महत्व है।ताल मे भी छँ द की तरह मािायं णगनी जाती हं पर माि णगनने का तरीका एक दम ऄलग होता है। यहाँ एक मािा मं दो वणव भी णबठाये जा सकते हं और एक वणव को दो या तीन मािाओं मे अकार के साथ बढ़ाया भी जा सकता है।ताल के एक चक्र मे गणत के ऄनुसार मािायं णनधावटरत होती हं न फक वणव और स्वर की णगनती के ऄनुसार। यफद हम शास्त्रीय संगीत की कु छ पुरानी बंफदशं को ध्यान से पढ़े तो पता चलेगा फक वे कहं भी छँद बि नहं हं राग जोग की ये बंफदश देखते है।साजन मोरे घर अये(स्थाइ) 14 मािायं, मंगल गावो चौक पुरावो, (ऄंतरा) 16 मािायं, दरस णपया हम पाये 12 मािायं, ऄब मालकौस की एक बंफदश पर ध्यान देते हंमुख मोर मोर मुसकात जात, 16 मािायं, ऐसी छबीली नार चली कर सिसगार 21 मािायं (स्थाइ), काहू की ऄंणखयाँ रसीली मन भाईं, 21 मािायं, चली जात सब सणखयाँ साथ 15 मािायं (ऄंतरा), स्पि है फक आन दोनं बंफदशं मं कोइ छँ द नहं है। संगीत मं आन दोनो बंफदशं को सैकड़ो सालं से तीन ताल मे गाया जा रहा है। तीन ताल मं सोलह मािायं जो चार खंडो मं णवभाणजत रहती हं। धा सिध सिध धा धा सिध सिध धा ना सित सित ना धा सिध सिध धा आसी तरह सब लोकगीत छँ दबि नहं हंते पर ऄणधकतर कहरवा ताल मं गाये जाते हं। ये ताल ढोलक पर भी सजती है। ये शास्त्रीय संगीत के णलये ईपयुक्त नही मानी जाती। कहरवा के बोल आस प्रकार हंधा गे ना णत न क णध न णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

ईपयुवक्त ईदाहरणं से स्पि हो जाता है फक संगीत बि होने के णलये रचना का छँ द बि होना ज़रूरी नहं है। गुणी संगीतकार पास वाद्य यंि होते हं कोरस हो सकता है णजससे यफद ज़रूरी हो तो वो ईनही शब्दं के साथ मािओं को घटा बढ़ा सकता है। ग़ज़ल ईदूव शायरी की णवधा है णजसे णहन्द्दी तथा ऄन्द्य भाषाओं ने ऄपना णलया है।ग़ज़ल गाणयकी भी एक ऄलग प्रकार की णवधा बन चुकी है। ग़ज़ल लेखन मं बहुत पाबणन्द्दयां है आन्द्हे ऄलग ऄलग रागं मं बाँधकर गाया जाता है। आसमं गायक को भावं की ऄणभव्यणक्त सही तरह णनभाने के साथ स्वर और ताल मं बंध कर गाना होता है पर शुि शास्त्रीय संगीत की शैली से ग़ज़ल गायन की शैली ऄलग होती है यहाँ ताने लेने या मुरफकयाँ लेने की जगह भावं और शब्दं का ईच्चारण ऄणधक महत्वपूणव होता है, आसणलये ग़ज़ल गायकी को ईप शास्त्रीय संगीत की श्रेणी मं रखा जाता है। ग़ज़ल की बहर (मीटर) छोटी बड़ी हो सकता है पर ग़ज़ल के णलये संगीतकार ताल दादरा का प्रयोग काफी करते हं। तीन ताल झपताल व कु छ ऄन्द्य तालं मं भी ग़ज़ल बाँधी जाती है। दादरा, तीनताल और झपताल मं क्रमश: 6.16 और 10 मािायं होती हं। एक समय था जब ग़ज़ल गायक के नाम से पहचानी जाती थं फक ये मंहदी हसन की ग़ज़ल है, ये ग़ुलाम ऄली की और ये जगजीत सिसह की, लेफकन जगजीत सिसह पंकज ईधास और ग़ुलाम ऄली के बाद कोइ ग़ज़ल गायक ईभर कर सामने नहं अया। एक दो होनहार ग़ज़ल गायक अये वो ऄणधकतर ग़ुलाम ऄली या फकसी प्रणतणष्ठत गायक की ग़ज़ल ही गाकर रह गये कु छ नया नहं फकया या ईन्द्हे मौक़ा नहं णमला। ग़ज़ल गायकं का ऄभाव है पर ग़ज़ल णलखने वालं की कोइ कमी नहं है। सववश्री प्राण शमाव, ऄशोक रावत, नीरज गोस्वामी, दीणित दनकौरी और लक्ष्मी शंकर वाजपेयी जी के ऄलावा और बहुत से लोग ग़ज़ल णलख रहे हं पर गाणयकी मं ग़ज़ल के ग़ज़ल के िेि मं अजकल कोइ नया नाम नहं जुड़ा है, फफल्मं मं भी अजकल ग़ज़ल गाणयकी की गुंजाआश नहं रह गइ है।

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संगीतकार क्यं आस णवधा से दूर हो रहे हं यह जानने की ज़रूरत है। हम णसफव श्रोता को दोष नहं दे सकते, जब ग़ज़ल सुनने को नहं णमलेगी तो श्रोता क्या करे गा! ग़ज़ल पढ़ने वाले भी बहुत तो नहं हं पर फफर णलखी जा रही हं। ऄब छँ द मुक्त काव्य और संगीत की बात करते हं फफल्म हक़ीकत के एक गाने ने सबको बहुत भावुक कर फदया था।, “मं ये सोचकर ईसके दर से ईठा था” यह पूरी तरह मुक्त था आसमं मुखड़ा और ऄंतरा भी नही था, न तुकांत पंणक्तयाँ कै फ़ी अज़मी, मोहम्मद रफ़ी और मदनमोहन ने आसे जो रूप फदया ऄनोखा था, ऄसर दार था! यहाँ मेरा नाम जोकर के गीत “ए भाइ ज़रा देख के चलो” का णजक्र करना भी ऄप्रासांणगक नहं होगा नीरज, शंकर जयफकशन और मन्ना डे ने आसे कभी न भुला पाने वाले गीतं की श्रेणी मं लाकर खड़ा कर फदया। । छँ दमुक्त कणवता की तरह ही जावेद ऄख्तर साहब का एक गीत 1942 ए लवस्टोरी मं था णजसको पहली बार सुनते ही मुझे लगा वाह क्या गीत है! क्या संगीत है! आसमे तो सारे बंधन ही टू ट चुके थे न ऄंतरा था न मुखड़ा बस...’ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...“ से हर पंणक्त शुरू हुइ और फफर एक से एक सुन्द्दर ईपमाओं का णसलणसला शुरू हो गया, भले ही यहाँ मुखड़े और ऄंतरे न हं पर हर दो ईपमायं तुकान्द्त थं और ऄंणतम ईपमा दीघव पर समाप्त हुईं और बाकी लघु स्वर पर ख़त्म हुईं। जावेद ऄख्तर साहब के बोल अर.डी.बमवन का संगीत और कु मार शानू की अवाज का ये जादू बहुत चला। आस णसलणसले मं जगजीत सिसह की गाइ एक लोकणप्रय नज़्म भी याद अरही है“बात णनकलेगी तो दूर तलक जायेगी’’। नज़्म भी काफ़ी हद तक छँ द मुक्त कणवता जैसी ही होती है। जगजीत सिसह लोकणप्रयता आसी नज़्म से अरं भ हुइ थी। गुलज़ार साहब तो शायरी मं 'फदन ख़ाली ख़ाली बतवन हं' जैसी पंणक्तयाँ णलखकर चफकत करते रहे हं पर ईनका आजाज़त फफल्म का एक गीत बहुत लोकणप्रय हुअ था'' मेरा कु छ सामान तुम्हारे पास पड़ा ISSN –2347-8764

है... आसमं न कोइ पंणक्त तुकाँत थी न कोइ दीघव लघु पर ऄंत होने का बंधा हुअ णसलणसला। आस गाने मे तो हर पंणक्त के मीटर मं भी बहुत ऄंतर था।जब गुलज़ार साहब ने अर. डी. बमवन को ये पूणव रूप से छँ द मुक्त कणवता फदखाइ तो ईन्द्होने गुलज़ार साहब से कहा " कल तुम टाआम्ज़ अफ आणडडया ले अओगे और कहोगे फक आसकी धुन बनाओ" अर. डी. बमवन ने ये चुनौती स्वीकार की और ये गाना फकतना मधुर बना और लोकणप्रय हुअ हम सभी जानते हं। अजकल नये प्रयोग करने का ज़माना है कु छ ऄच्छे लगते हं कु छ नहं ऄच्छे लगते कणव और लेखक बंधन मुक्त होकर णलख रहे हं, आससे छँ द का महत्व कम नहं हो सकता। संगीतकार पूरे णवश्व से संगीत लाकर ईससे कु छ नया कु छ ऄच्छा संगीत दे रहे हं । एक ही गीत मे कभी राग बदल जाता है, कभी ताल कभी वैस्टनव बीट पर ड्रम बजने लगते हं। आस्माआल दरबार साहब ने हम फदल दे चुके सनम मं पूरी तरह शास्त्रीय संगीत मं बि गीत णजसमं ताने भी थं मुरफकयाँ भी थी। ‘’ऄलबेला सजन अयो री’’ मं ताल वाद्य को बहुत गौण कर फदया तालवाद्य की अवाज गाणयकी के नीचे दब गइ जबफक अम तौर पर शास्त्रीय संगीत मं तबला या पखावज का रूप णनखर करअता है। ये बंफदश राग ऄहीर भैरव मे ईस्ताद सुल्तान खाँ ने गाइ थी और अफद ताल मं बि थी णजसमं 8 मािायं होती है। आस्माआल दरबार ने आसे लगभग मूल रूप मं रखा पर एक गाणयका और एक गायक की अवाज़ फफल्म के फकरदारं के णहसाब से जोड़ दी। हाल मं संजय लीला भंसाली ने आसी बंफदश को बाजी राव मस्तानी के णलये णबलकु ल नये कलेवर मं कइ गायकऔर गाणयकाऔं की अवाज़ मं पेश फकया। यह राग भोपाली और राग देशकर का णमला जुला रूप था आसमं ताल कहरवा का थोड़ा पटरवर्सतत रूप ऄपनाया गया। ताल कहरवा मं भी 8 ही मािायं होती है। राग और ताल बदलने से बणन्द्दश का स्वरूप बदल गया, गंभीरता की जगह ख़ुशी का माहौल बना फदया गया। ‘’हम फदल दे चुके सनम’’ मं यह बंफदश णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

शास्त्रीय संगीत लगी और बाजी राव मस्तानी मं लोकसंगीत की छटा फदखी परन्द्तु आन प्रयोगं से शास्त्रीय संगीत की णनयम प्रणाणलयं की गटरमा नि होने का भी कोइ सवाल नहं हं, क्यंफक णजस प्रकार काव्य का अधार छँ द हं, छँ द हं तो छँ द मुक्त है। आसी तरह संगीत का अधार भी शास्त्रीय संगीत है और वही सात स्वर हं पूरे णवश्व के संगीत मं। ~✽ ~

लघुकथा

रीत ऄंफकता भागवव भंडारी साहब दहेज़ प्रथा के प्रबल णवरोधी थे। ईनकी नज़र मं आससे बड़ी कु रीणत कोइ और नहं थी, ऄत: ईनका प्रण था फक वे ऄपने जीवन मं दहेज़ नामक आस कु रीणत को जगह नहं दंगे, ना ऄपने बच्चं की शादी दहेज दंगे और ना ही लंगे। आस प्राण के साथ वे बेटी के णलए ऄच्छे घर-वर की तलाश मं जब दूल्हा मंडी पहुंचे तो ईनका सामना आस हकीकत से हुअ फक णजसे वह कु रीणत कहते रहे ऄसल मं वह दुणनया की रीत है। ऄब अदशं के णलए बेटी को कु एं मं तो नहं धके ल सकते थे ऄत: ईन्द्हं समझौता करते हुए दुणनया की यह रीत णनभानी पड़ी। बेटी के णववाह के काम से फाटरग होते होते ईनके बेटे के णलए भी ऄच्छे टरश्ते अने लगे। ऄब तक भंडारीजी समाज की हर रीत से भली भांणत पटरणचत हो चुके थे ऄत: ऄब ईनके मन मं आसके प्रणत ना कोइ मैल था और ना कोइ संकोच। ~✽ ~ D/o. वी.एल. भागवव, घर नं. 422, सेक्टर नं. -1, वोडव नं.- 6,ओल्ड पोस्ट ऑफफस रोड, सांगटरया-335063, णजला-हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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कहानी

हे ब्यूटीफु ल णप्रयंवदा ऄवस्थी डू बते हुए सूरज की छनती हुइ सुनहरी फकरणं की काली सफे द लटं से होती ऄटखेणलयं मं खोयी थी वो शाम। ऄचानक कानं से टकराते ही पोर पोर स्पंफदत कर गयी। एक खनकती छनकती सी मदावनी अवाज़ ! “हे ब्यूटीफु ल!! व्हाट अर यू डू आंग णहयर? मे अय णसट णवथ यू फॉर ऄ व्हाआल?” चंक सी गयी मं । यूँ ऄचानक ही फकसी के मुझे आस तरह अवाज़ देते ही...स्वभावतः ही जब मंने पलट कर देखा तो एक ऄधेड़ से कु छ ज्यादा ईम्र का हृि पुि ओजस्वी चेहरे का ऄंजान व्यणक्त मुझे देख पहचान बढ़ाती हुइ सी मुस्कान णलए मेरी ही ओर को ऄपना हाथ बढ़ाते हुए बेहद ऄपनत्व से बोला - “फ्रेंड्स?” और कु छ यूँ मुस्कराया। जैसे वो मेरा कोइ बहुत ऄपना हो और वषं से जैसे जानता हो मुझे। ईस एक िण भले ही मन भीतर कु छ ऄचकचाहट सी हुइ फकन्द्तु आसके ठीक णवपरीत ईस िण पणिमी समुन्द्दर की गगनचुम्बी ईछाल मारती लहरं को चूमकर गुजरती हवाओं के नम झंके मं णलपट आतराती आठलाती आतस्ततः ईड़ती ऄसंख्य जल कणं की सूक्ष्म बूद ं ं ने एक तपते हुए तन मन पर जैसे शीतल बौछार सी कर दी थी। मं बेपरवाही से ऄपने ऄस्त व्यस्त हुए से अँचल को सम्हालते हुए जरा टठठकी घुटनं पे जोर देकर ईठी और फफर खुद को समेटते हुए ऄनचाहे ही ईसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा फदया और बोली.... “जी कणहये...” सुदढ़ृ सुगटठत देहयणि बेहद ही ओजस्वी चेहरा और वाणी मं ऄनुपम चुम्बकीय अकषवण । ऄपनत्व के भाव से सराबोर णवनम्रता तथा पटरपक्वता से दृढ़ ईसके हाथं ने सहज ही मेरी हथेली को ऄपनी हथेली मं कस कर जकड़ णलया और पूरे जोश से झकझोरते हुए कहा; “यस ! वी अर फ्रेंड्स नॉव ब्यूटीफु ल फ्रेंड....” और फफर ISSN –2347-8764

हम दोनं ही एक दूसरे को देखकर पहले तो मुस्करा ईठे और फफर न जाने क्यं जोर से हँस पड़े । वो वही ँ गीली सीली सी बालू रे त पर मेरे ठीक बगल मं लगभग दो बाणलश्त की दुरी पर बैठ गया और फफर कु छ पल एक दूसरे से णनगाह णमलाते चुराते मूक पटरचय बनाते रहे । लहरं बोलती रहं फकन्द्तु हमारे मध्य संवादहीनता का सन्नाटा सा पसर गया। शायद प्रकृ णत के बदलते पटरदृश्य मं क्या जाने कु छ तलाशते णनमि से हम दोनं के ही मन सामने पसरे ऄंतहीन सागर की ऄनवरत लहरं की चंचलता के साथ साथ ईठते णगरते रहे। अँखं की चपल पुतणलयाँ अज पुनः न जाने क्यं ईन फे णनल लहरं से बचपने भरे चुहल के खेल खेलने लगी । ऄसंयत णवचारं की धर पकड़ मं ईलझकर ईस िण शायद कहं बहुत दूर णनकल गयी मं फक ऄचानक ही ऄपना मौन तोड़ते हुए ईसने फफर बोला – “बड़ी देर से तुझे देख रहा हूँ, तू भीड़ से ऄलग थलग पड़े आस णनजवन फकनारे पर क्या खोज रही थी, आस गीली सुखी सी णमटटी मं? जैसे कोइ बड़ा बूढ़ा सर पर हाथ फफराते प्रेम से पुचकारते हुए फकसी नन्द्हे बच्चे से पूछता हो ठीक वही ऄंदाज़ था ईसका। न..न..ना... कु छ भी तो नही ! मंने झटके से त्वटरत ईत्तर फदया ईसे । जैसे मंने कोइ चोरी की हो और ईसे णछपाना चाहती हूँ। ईस एक पल ईसने तनी हुइ मुखमुरा णलए हुए मुझे कु छ यूँ देखा जैसे फक मेरे मुखमडडल पर मेरा ऄतीत वतवमान सब कु छ स्पि णलख गया हो और वो मुझे ईससे णछपाते देख कु छ कु छ नाराज़ सा है । क्या कहती मं ईस ऄजनबी से? हाँ ऄजनबी ही तो था वो ऄभी मेरे णलए.. । कै से कह दूँ फक णज़न्द्दगी और टरश्ते नातं की भीड़ मं आस चलायमान शरीर से दुणनया मं तो

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न जाने फकतनं की ऄपनी सी हूँ फकन्द्तु मन से णनतांत णनपट ऄके ली । ऄपनी ही बसाइ बनाइ दुणनया से बोझल हो जब तब कु छ पल के णलए यहाँ ईन सबसे कहं दूर णनकल बस यूँ ही मन की शांणत को तलाशते, स्वयं को खोजते हुए आस तट पर अ बैठती हूँ? वक़्त की मारक जंकं ने मेरे रोम रोम से रक्त व उजाव दोनं ही चूस डाली थी शरीर के ऄंग प्रत्यंग मं शून्द्यता का ऄहसास भर चूका था। आस णस्थणत से ईभरने की जद्दो​ोजेहद मं ऄसक्त से हो गए शरीर की आन लहुलुहान हो अइ सी ईँ गणलयं से ऄपने सूखे भुरभुरे ऄतीत की रे त मं मन की तृषा प्रेम और ऄपनत्व से भीगे हुए खोये पाए िणं को जब तब तलाश फकया करती हं ? एक पल को लगा कह दूँ वो सब कु छ फकन्द्तु दूसरे ही िण भीतर ही भीतर सर झटका मंने । न..न..ना नही कहना मुझे आस कु छ भी ऄपटरणचत से । तन्द्रा टू टते ही चेतना ने जैसे ही यथाथव मं अकर ईसे एक बार फफर से णनहारा ईसका ऄब तक मुझपर टटका प्रश्नवाची चेहरा देखकर मंने मेरी नजर दूसरी ओर को घुमा ली । फकन्द्तु िण भर बाद ही एक ऄजीब से कु तूहल ने मुझे ईसकी ओर पुनः मोड़ फदया । ईस पल वो मुझे फकसी देवदूत सा मंद मंद मुस्कराते हुए बैठा नज़र अया । जैसे मेरे मौन मं समाणहत ऄपने हर प्रश्न के ऄनुत्तटरत ईत्तरं को समेटता सहेजता सा फदखा वह ! आससे पहले फक ऄब वो मुझसे कोइ और सवाल करता…असपास वातावरण मं घुलती स्याही को महसूस कर मं सहसा ही वहाँ से ईठ खड़ी हुइ और बोली– “साँझ ढलने को है ऄब मुझे चलना चाणहए ईसने भी मुझे नहं रोका फकन्द्तु फफर णमलने का वादा जरुर चाहा । मंने सहमणत मं गदवन णहला हामी भरते हुए मं ईससे णवदा ले वहां से चल पड़ी ...णछटके णबखरे ऄतीत को भूल अज वतवमान मं ईलझी मं स्वयं को सुलझाने की कोणशश करते हुए अणहस्ता अणहस्ता ऄंणधयारी होती तंग गणलयं से गुजरते वापस ऄपनी दहलीज पर अ खड़ी हुइ....। णज़न्द्दगी की तरह यहाँ क्या क्या और कहाँ कहाँ णबखरा पड़ा है । घर के कोने कोने मं ISSN –2347-8764

जाकर ईसे समेटकर व्यवणस्थत तो कर णलया पर न जाने क्यं काली ऄमावस सी सन्नाटी णज़न्द्दगी मं यूँ ऄचानक फकसी प्रकाश पुंज की आस तरह ऄनायास हुइ आस ईपणस्थणत से बेहद अकु ल व्याकु ल सी हो ईठी थी । मन के भीतर रह रह कर ईठ रहे भावनाओं के ऄणनयंणित ज्वार को मं चाहकर भी संयत नही कर पा रही थी। यूँ तो अज वैभव (मेरे पणत) को गुजरे लगभग 5 वषव हो चुके थे । ईनसे आस तरह बीच राह साथ छू ट जाने के बाद भी मंने कभी स्वयं को आतना एकाकी और ऄधूरा नही महसूस फकया, णजतना फक अज आस िण महसूस कर रही थी । एक ऄबूझा सा सम्मोहन। णजसके णवषय मं णजतना सोचती ईतना ही और ईलझ जाती। वषं बाद अज मंने एक तरफ ईपेणित पड़े अइने की धूल साफ़ की । णबखरे हुए ऄनुभवं से कच्चे पक्के हुए काले सफ़े द बाल संवारे । ऄपने ही प्रणतणबम्ब की अँखं मं अँखं डालकर जैसे ही खुद को णनहारा। कानं मं गूंज ईठी फफर एक वही अवाज़ – “हे ब्यूटीफु ल व्हाट अर यू डू आंग णहयर?” बुझी बुझी सी अँखं बेवक्त ही न जाने क्यं मुस्करा ईठी । पलकं की कोरं पर ईभर अये णसलवटं के मोरं ने जैसे बादलं की लहर गहर महसूस कर चेहरे पर ऄपने सारे पंख पसार फदए । और बेवक्त बेमौसम सावन गरज चमक बरस पड़ा । ईस एक पल क्या तन और क्या मन नही पता दुःख या सुख कु छ भी संज्ञान नही बस भीगती रही । धीरे धीरे जैसे बहुत कु छ बह णनकला था अँखं के रास्ते, मन ऄब कु छ शांत था। अह ! णज़न्द्दगी के सामान सहेजते बटोरते मुझे तो शायद याद भी नही रह गया था ऄब फक णपछली बार कब मंने ऐसा कु छ सुना था । कब यूँ ऄल्हड मुस्कान रोम रोम से फू टी थी, चूल्हा चौका घर गृहस्थी बच्चे तथा एक बड़े से पटरवार को सम्हालती छोटी ईम्र और ओहदे मं ईन सब टरश्तं मं सबसे छोटी। क्या जाने कब कहं भीतर मुझमे बसी वो ऄलहड़ नटखट शरारती चुलबुली बच्ची फकस कोने मं दुबक कर बैठ गयी थी। णजसे ऄचानक अज ईस एक पराये से फदखने वाले शख्स की ऄपनेपन से लबरे ज अवाज़ ने पुनः बाहर णनकाल ठहरी णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

हुइ णचतवन पर रखकर चुटफकयं मं चंचल कर फदया । साँझ ढलने की सुगबुग् के साथ ही तो ईसका मेरा साथ छू ट गया था, पर चढ़ती हुइ रात के साथ जैसे मेरी करवटं मं ईलझ सा गया था वो ऄजनबी और ईसका ऄलबेला ऄपनापन । फकतना लम्बा ऄरसा बीत गया था जब फकसी ऄपने ने यूँ मेरी परवाह की थी। अणखर कौन है वो ऄजनबी ? क्यं अया है मेरे जीवन मं और क्या चाहता था मुझसे? आस मतलबी दुणनया मं जब णबना कारण कोइ फकसी की ओर रुख भी करना नही पसन्द्द करता । ऐसी स्वाथी ज़मीन पर ये मसीहा सा कौन अ खड़ा हुअ है जो णबना फकसी कारण के खुद को णबसर गयी सी मुझे यूँ अज मुझसे ही फफर से णमलाने की कोणशश कर रहा था? काफी देर तक मं आसी ईहापोह मं ईलझी रही ।मंने ऄपने णलए कु छ हल्का फु ल्का खाने को बनाया जैसे तैसे खाना खाकर मं हर रोज की तरह अकर यूँ ही ऄपने णबस्तर पर लेट गयी। णवगत कु छ वषं से हर रोज तो मं आस तन्द्हा पल मं फदन भर की आकट्ढा कही ऄनकही ऄपने णसरहाने रखी वैभव की तस्वीर से कहती सुनती रहती थी और फफर एक नए सवेरे की अस ऄपनी सूनी पलकं मं भंच कर सो जाया करती । भले ही दुणनया की णनगाह मं वो मृत हो चुके थे फकन्द्तु मंने ईन्द्हं मेरे णलए अज भी जीणवत रखा था ,आस एक ऄलौफकक असरे के णसवाय मेरे अस पास कोइ और था भी तो नही णजसके साथ मं मेरे णनजी सुख दुःख साझा करती । जाने क्यं शरीर से णबछड़ जाने के बाद भी मुझे ये महसूस होता रहा फक जैसे वो हमेशा मेरे अस पास ही हं । अज भी हमेशा की तरह मं ईनसे बहुत कु छ कहना चाहती थी पर अियव फक मं ईनकी तस्वार हाथं मं णलए णसफव ईन्द्हं ऄपलक णनहारती ही रह गयी । एक भी शब्द मेरी जुबान से अज प्रस्फु टटत न हुअ । मेरा शरीर णनिय ही घडटं पहले सागर के ईस छोर से घर को लौट अया था पर मन तो जैसे ऄब भी ईसी समुन्द्दर के फकनारे पसरी गीली सूखी रे त के ढेर पर

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ही बैठाकर छोड़ अइ थी । सिजदगी का खोया पाया टटोलते हुए और ऄब भी जैसे वो ऄजनबी ऄँधेरे की अड़ ले कहं से मुझे देखकर मुस्करा रहा था । मन को पूरी दृढ़ता से खंचकर मं आस कल्पना को यथाथव पर ले अइ रात बहुत हो चुकी थी । मंने ऄपने कमरे की लाआट ऑफ की और सीधे शून्द्य की ओर मुख फकये णवश्रामावस्था लेट गयी । फकन्द्तु रह रह कर क्या मालूम क्या भीतर क्या कंध सा ईठता फक फफर णसफव करवटं पर करवटं और हर करवट मं गहराते रहे हुए ईस ऄबूझे व्यणक्त से जुड़े हुए ऄनन्द्त प्रश्न ! णजनके ईत्तर कदाणचत् प्रश्नवाची होते हुए भी, मेरे अस पास पसरे एकांत मं ऄजीब से खुशबु भरे जवाब घोल रहे थे । ऄमूनन रोज ही रात सोने की चेिा कु चेिा करते फदन णबतानेवाली मुझे अज न जाने क्यं न ही नंद मं फदलचस्पी थी न ही असपास पसरे हुए सन्नाटे का बोझ । कु छ बदल रहा था भीतर पर क्या नही टटोल पा रही थी । बच्चं के नौकरी पेशा शादी ब्याह के बाद ईनके णवदेश मं स्थायी रूप से बस जाने के पिात् मं और वैभव ही यहाँ ऄके ले रह गये थे । फफर ऄसमय ही वैभव का साथ छू ट जाने की पीड़ा, सिचताओं के कं टीले थपेड़ं से अहत आस तन की णनत णनत बढ़ती हुइ ईम्र, वषं से तन्द्हा मन और आस शरीर को चलायमान बनाये रखने को कु छ पल को सब कु छ णबसर जाने को नंद की चाहत ऄब तक तो जैसे मृगतृष्णा सी ही साणबत हुइ थी मेरे णलए । पर अज न जाने क्या ऄणभमंणित कर चला गया था वो शख्स ऄपने चन्द्द शब्दं से मुझ पर फक णवचारं की आतनी गम्भीर हलचल होते हुए भी मं तणनक भी णवचणलत न थी । सूनी फकन्द्तु हर बढ़ते हुए िण चमकीली होती अँखे नंद के मीठे झंके ऄनुभव कर रही थी, कु छ ऄनदेखे ऄनजाने ऄहसासं से भरे स्वप्नों का पलकं मौन अह्वान कर रही थी। आन्द्ही बातं से ईलझते क्या मालूम फक कब अँख लग गयी भोर दूणधये ने जब जोर से दरवाजा खटकाया तब जाकर अँख खुली। वो बोला– “क्यं बाइ, अज बड़ी देर से जागी अप? मं तो घबरा ही गया दरवाजा ISSN –2347-8764

बंद देख कर, तणबयत तो ठीक तो है न अपकी?” मं तन्द्रा त्याग ईबासी लेते हुए रसोइघर मं जाकर दूध का बतवन ले अइ और बोली, “क्या हुअ कल बड़े ऄरसे बाद बड़ी गहरी नंद अइ मुझे...तू फफ़क्र ना कर पगले आतनी जल्दी नही कु छ होगा मुझ ढीठ को?” “क्या बाइ अप भी! सुबह सवेरे ये कै सी बाते करने लगी? भोलेनाथ भली करं । “ टोणपये मं अधा सेर दूध देकर वो चल फदया ऄपनी ईड़नपरी याणन साइफकल के साथ ...फफर वापस मुड़ा और जोर से बोला, “ओ बाइ ! तुमने मुझ गरीब को बहुत सहारा फदया है सच कहता हूँ । बाइ, कोइ भी ऐसी वैसी बात हो तो तुरत खबर करना मुझको । अधी रात भी मेरी लुगाइ को तेरे पास ही छोड़ के जाउंगा । तेरे कारण ही तो वो णजन्द्दा है तेरा पूरा हक है ईस पर । “ऄरे हाँ रे बाबा ! ऄब जा तू ऄपना काम णनपटा ऐसा कु छ होगा तो बता दूंगी बस? तू ज्यादा फफकर ना कर मेरी मं एकदम ठीक हूँ।“ वो अस्वस्त होकर चला गया...। मन ही मन बुदबुदाइ मं, अज तो सचमुच हद ही हो गयी । देखो कै से सूरज असमान पर चढ़ अया है और मं ऄब तक सोइ रही? हड़बड़ी मं जल्दी जल्दी गैस पर एक तरफ दूध पकने को रख कडक कॉफ़ी बनाइ और गेस्ट रूम मं बैठकर ऄखवार की सुर्सख़यं मं खो गयी । ऄवसान की ओर ईन्द्मुख जीवन मं यकायक ये कै से एक और जीवन की ऄबूझी सी दस्तक, वो भी ईम्र के आस पड़ाव पर अकर? फदमाग णजतना ही आन प्रश्नं मं ईलझ रहा था फदल न जाने क्यं फकसी कोमल सुलझाव की तरफ मेरी हृदय गणत को मोड़ रहा था । णवणचलत होते हुए भी मं अज णबलकु ल भी ऄधीर क्यं न थी मुझे भी यह समझ मं नही अ रहा था । कु छ तो था जो भीतर वषं से ऄवरुध्द सा था और अज एक झीना सा सुराख़ णमलते ही णनगवम को अतुर हो पड़ा है । फकसी ऄणवरल जल की धारा सा प्रवाह जो णनरन्द्तर ही मुझे अगे की ओर ईन्द्मुख फकये जा रहा था। जीवन की ढलान पहुंचकर णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

जैसे ऄपनी ऄप्रत्यि चेतना को बन्द्धनमुक्त कर मन फफर ईस िीर सागर की लहरं के उपर चलते हुए जैसे एक और जीवन को नाप लेना चाहता था । स्नान, ध्यान, णनत्यकमव के बाद अज मेरा कु छ णवशेष खाने को जी न हुअ । बस यूँ ही कु छ एक फल फफ्रेज से बाहर णनकाला और खाकर फफर णवश्राम करने ऄपने शयन कि मं चली अइ और यूँ ही लेट गयी । रात भर गहरी नंद लेने के बाद भी शरीर ऄभी जैसे और णवश्राम को आक्छु क था । घड़ी की प्रणतपल अगे को बढ़ती हुइ सुआयं पर ऄटका हुअ मेरा वतवमान कल तक तो णपछले घडटं का णहसाब फकताब करके जीवन की अगे की गणणत लगाता रहा था। फकन्द्तु न जाने फकस उजाव से ऄणभप्रेटरत वह अज जैसे ईन्द्हं पंख बनाकर सुदरू फकसी मनवांणछत स्थान पर ईड़ जाने को अतुर था। हृदय की अतुरता से ऄनणभज्ञ समय ऄपनी णनयत गणत पर कायम था । सूरज ने ऄपना तयशुदा मागव ऄमूमन ऄब तक तय ही कर णलया था । मंने घड़ी की ओर णनगाह फे री शाम के 5 बज चुके थे ईठकर मंने णखड़की से परदं को हटाकर जब बाहर झाँका तो देखा, फकरणं का ताप कु छ णनश्तेज सा होने लगा था। मं पूरी उजाव के साथ ईठी, ऄपने श्वेत श्याम बालं की ईलझन को खोल ईन्द्हं करीने से संवारा फफर ऄव्यवणस्थत कपड़े ठीक फकये । घर पर ताला लगाया और णनकल पड़ी समन्द्दर के फकनारे को। अज मं कत्तइ ऄशांत नही थी । एक ऄजीब सा कु तूहल मुझे सरपट ईस ओर को खंचे णलए चलता चला जा रहा था । मन मं णसफव और णसफव ईस मसीहा का ख्याल । शायद मं ईस ऄनजाने व्यणक्त को कु छ और जानना चाहती थी या फफर कु छ और ही ईपज ईठा था आस मन मं जो मं जानकर भी नही सहज स्वीकारना चाहती थी । णवचारं की मन्द्िमुग्ध करती गणलयाटरयं मं अगे और अगे को बढ़ती हुइ मं शारीटरक चेतना से फकस कदर ऄबोध थी फक यह संज्ञान ही न हुअ फक कब मं तट के करीब पहुँच गयी। शीतल सागरीय हवाओं के झोकं मं णलपटी नमी ने तेज चाल के

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प्रभाव से तीव्र हुए रक्त संचार से सुखव हो अये चेहरे को शीतल अभा पहुंचानी शुरू कर दी। अज यूँ लगा जैसे समुन्द्दर की लहरं मुझे नजदीक अता देख कु छ और ज्यादा चंचल हो ईठी थं तट को णबलकु ल अँखं के सामने देखकर णजतना णवस्मय हुअ मुझे ईतना ही ऄपनी मानणसक दशा की णवणचिता पर चफकत होने कइ बजाय मं स्वयं पर ही मन्द्द मन्द्द मुस्करा रही थी । अज फकतनी जल्दी मंने ये रास्ता तय कर णलया कल तक तो तो यही मुझे बेहद ईबाउ और लंबा प्रतीत होता था । मन मं णवचारं का ऄम्बार ही ऄम्बार फकन्द्तु कु छ तो था। जो अज मुझमं बदल रहा था भीतर या बाहर ये कह पाना जरूर ऄसमंजस की णस्थणत बनी थी । चारं तरफ सरसरी णनगाहं दौड़ाइ मंने! दूर दूर तक मुझे वैसा या ईससे णमलता जुलता भी कोइ आं सान नज़र नही अया णजसकी अज मुझे तलाश थी । मुझसे पहले ईसके यहां न ईपणस्थत होने से मुझे दिकणचत णनराशा तो हुइ फकन्द्तु ऄभी साँझ पूरी तरह फकधर ढली थी सूरज पर लाली की सुगबुग शुरू ही हुइ थी । ऄधीरता को अँचल की कोर पर बांध मंने एक शांत सा कोना खोजा और वही ँ बैठ गयी। मन थोडा सा णवचणलत तो जरुर था फकन्द्तु मायूस हरणगज़ न था शायद जीवन के ऄब तक पढ़े ऄध्यायं ने सन्द्तोष का ऄभ्यास करना तो णसखा ही फदया था । अस पास के कु छ जाने कु छ ऄनजाने लोग आधर से ईधर अपस मं यहाँ वहाँ की बातं करते टहलते घूमते नज़र अ रहे थे। पास ही मं दो छोटे छोटे बच्चे एक दूसरे के साथ आधर ईधर भागते हुए पानी के छपाकं के खेल खेल रहे थे। मं कभी ईनको तो कभी ईनकी ईन्द्मुक्त बेपरवाह ऄल्हड फकलकाटरयं मं खो जाती तो कभी ईनसे जरा सा ध्यान भंग होते ही वापस फफर से अस पास एक बार नज़र दौड़ाकर देख लेती। न जाने क्यं ढलती हुइ शाम को णनहारना मुझे क्या सुख देता था एक ऄजीब सा अकषवण मुझे ईस ओर खंचता रहा है। णजसे शब्दं मं ऄणभयक्त करना कटठन हो कु छ ऐसा । नटखट शरारतं ईन्द्मुक्त णनभवय ISSN –2347-8764

णनर्सवकार गणतणवणधयं को छोड़ मेरी अँखं ईस पार की आस ऄप्रणतम नैसर्सगक घटना पर हमेशा की तरह अकर ठहर सी गयं। फदन भर एक दुणनया को जीवन परोसने के ईपरांत थकान से सुस्त पड़ गए शनैः शनैः रणक्तम होते हुए णवशालकाय सूरज को ऄपने नज़दीक और नज़दीक अता देख धीर, गहरे सागर की पल पल ईच्छृ ं खल होती लहरं प्रेम से ऄणभभूत हो ऄनवरत जैसे ईसे चुम्बन देकर ईसकी सारी थकन णमटा देने को अतुर थं। प्रकृ णत के आस ऄनुपम रोमांचक पल मं मं भी जैसे ऄब ईस ढलते णछपते हुए सूयव की फकरणं सी स्वयं मं णसमटते हुए खुद मं ही ढलने लगी फक ऄचानक मेरे णनढाल हो अये कन्द्धे पर एक मृदु स्पशव और कानं मं वही अवाज़ “हे ब्यूटीफु ल! हाई अर यू? कब से यहां बैठी हो?” ऄप्रत्याणशत रूप से ऄचानक ऐसा होने पर मं एक झटके मं ही ईठ खड़ी हुइ, फकसी तरह स्वयं को व्यवणस्थत कर ईसकी ओर को मुख फकये मुड़कर खड़ी हो गयी। अश्वस्त सी मुस्कान मुस्कराते हुए बेकाबू ईखड़ी सी स्वांस प्रश्वांस को एक गहरी सांस से संयत कर कु छ ईत्तर देती वो बोल पड़ा क्यं -अज आस बालू रे त से क्यं नही खेली ? मंने अँखं अँखं मं फकतने ही प्रश्न प्रिाणलत कर फदए ईस पर… मसलन वो शायद मेरे अने से पहले ही आधर था तो फफर पास अकर णमलने मं आतना णवलम्ब ? फकन्द्तु जुबान से कु छ न कह सकी फफर न जाने ऐसा क्या हुअ आस प्रश्नकाल के दौरान हमारे मध्य फक हम दोनं ही एक दूसरे को देखकर कर बेतहाशा हंस पड़े । हँसते हँसते हम दोनं की ही अँखं की कोरं से नमकीन जल की धारा बह णनकली दोनं एक दूसरे को ऄनकहे कु छ कहते रहे, दोनं ही अँखं से टरसते रहे ,,,, दोनं ही मौन । एक दुसरे की अँखं की छलछलाहट को णनहार जैसे दोनं ही का ऄतीत ऄबोले ही एक दूसरे के सम्मुख रीत गया ...न ईसे कु छ कहने की जरूरत पड़ी न मुझे हम दोनं ही एक दूसरे को णबना फकसी पटरचय के समझ गए । णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

ठीक वैसे जैसे जीवन के ईजले काले ऄनुभवं की णसलेटी हुइ रे त मं जीवन का खोया पाया रोज रोज खोजना। जीवन तो णनत नए ऄनुभवं का ऄनवरत ऄभ्यास माि ही तो है णजसकी पुनरावृणत्त णनतांत ऄसम्भव है ,बेहतर हम समय से साम्य कर दुसरे छोर की कोर को कोमलता फकन्द्तु दृढ़ता से थामे रहं । हमारे बीच पसरे हुए मौन को तोड़ते हुए अज मंने पहल की और कहा - सुनो देखो न ये ढलता हुअ सूरज ...फदन भर जहां भर का जीवन संवार कर ऄपने घर को लौटता हुअ। फकतना थका हारा सा...और सारा सारा फदन आस रोमांणचत कर देने वाले पल की प्रतीिा करती, ईसकी हर एक अहट से स्पंफदत होकर चंचल होती ये शरारती होती लहरं …। ईसने पहले एक बार आस ऄद्भुत व्याख्या को ध्यान से सुनते मेरी ओर को देखा फफर ईस गहराती हुइ शाम पर नज़र डाली, एक बार फफर कनणखयं से मेरे चेहरे पर पसरे हुए अनन्द्द को जाने फकस माप दंड मं तोलते हुए णनहारा। सुखव सूरज लहरं के अगोश मं अधा समा चूका था समूचा सागर स्वर्सणम हो ईठा था हम दोनो मौन दोनं ही चुप थे। आस बार हम दोनं ने एक साथ ही एक दूसरे को देखा और एक साथ ही बोल पड़े -यही तो जीवन का सार भी और अधार भी.... है न ? ईसने ऄपनी नम हथेली मेरी हथेली रख दी मंने प्रकृ णत को णनर्सवरोध स्वीकार कर हौले से शाम को ढलने फदया, रात ने ऄपनी बोझल होती ऄलसाइ पलकं णिणतज के कं धे पर झुका दं ..तेज हवाओं से चेहरे पर णबखरते हुए बालं की एक लट हटाते हुए ईसने बोला सुनो अज पूनम की रात है। जाने क्यं मुझे लहरं का ईन्द्माद और पूणव चन्द्र का सागर पर ठहराव को देखना ऄद्भुत अनंद देता है....पर मं चाहता हूँ फक प्रकृ णत का ये नज़ारा अज तुम भी मेरे साथ ही देखो। िणणक जीवन जी लेने को अतुर मानव शरीर की ऄसंख्य कामनाओं सी आन बेकाबू होती लहरं का जीवन के आस एक शाश्वत सत्य का पणवि स्पशव कर, चाँद को खुद मं समेट लेने का सतत साहणसक प्रयास .....क्या मेरे साथ यह सब

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देखने को अज की रात तुम यहं ठहरोगी ? एक िण को मौन रहने के पिात मंने मौन स्वीकृ णत देते हुए ऄपनी गदवन झुका दी। ईस रात का सागर जैसे हर ऄगले िण के णलए और ऄधीर और भी ऄणधक ईतावला होता फदख रहा था। एक बार फफर जीवन के स्पशव को धरती से ऄपनी नज़दीफकयां नापता हुअ स्याह गगन से ईजागर होता धुन्द्धला सा फकन्द्तु पूणावकार मं प्रकट होता चाँद ईसके और मेरे और नज़दीक अते हुए

दो लघुकथाएँ

जैसे मुझसे एक बार फफर मेरी पहचान कराते देखकर ये पूछ रहा था; “हे ब्यूटीफु ल व्हाट अर यू डू आंग णहयर?” मंने पलकं मूँद कर ईसके मजबूत कन्द्धं पर ऄनुभवं ईजली हुइ णखली ऄधणखली सी चांदनी पूणवता के णलए पसार दी। ~✽ ~ 128/404, H-2 ब्लॉक फकदवइ नगर कानपुर (ईत्तर प्रदेश) णपन कोड-208011

भणवष्यवक्ता / भगवान के नाम पर मार्टटन जॉन भणवष्यवक्ता

चलते-चलते सहसा ईसकी णनगाह एक साइनबोडव से टकराइ। णलखा था, ‘हाथ फदखाआए, भाग्य जाणनए – णवख्यात ज्योणतषाचायव सुखानंद पंणडत।’ ईसके कदम ईस ओर ही बढ़ गए। “हाथ देणखएगा पंणडतजी?” करीब जाकर ईसने कहा। “हाँ हाँ क्यं नहं। .....शहर की बड़ी बड़ी हणस्तयां मुझे हाथ फदखा चुकी है। क्या मजाल फक मेरी एक भी भणवष्यवाणी झूठ णनकले..।” ज्योणतषी की पेशेवर बोली पर ईसने हौले से मुस्करा कर ऄपनी दाणहनी हथेली ईसकी ओर बढ़ा दी। “पहले दणिणा !” ज्योणतषी ने खंसे णनपोरते हुए ईसे याद फदलाया। “फकतना लेते हं।” “बीस रूपये माि !” “पंणडतजी, अप णनसि​ित रहं। पहले हाथ तो देख लं। दणिणा ज़रूर दूंगा।” ईसने ईसे अश्वस्त फकया। चश्मा चढ़ाकर ज्योणतषी ने ईसकी हथेली को ऄपनी अँखं के करीब ले अया। कु छ पल तक रे खाओं का गौर से मुअयना करने के बाद कहना शुरू फकया, “जजमान, अप नौकरी के णलए बहुत संघषव कर रहं हं । रे खाएं कह रही हं फक आस माह के ऄन्द्दर अपकी सारी परे शाणनयां दूर हो जाएंगी ...बस थोड़ी प्रतीिा करं । ...एक ऄच्छी सी नौकरी णमलने ही वाली है।” वह हंसते हुए मन-ही-मन बुदबुदाया, ‘नौकरी करते हुए दो साल होने चले पंणडत जी।’ अगे ज्योणतषी क्या क्या बकता रहा, ईसने कु छ नहं सुना। जब ईसकी धारा प्रवाह बोली पर पूणवणवराम लगा तो झटके से ईठा। चलने का ईपक्रम करते हुए कहा, “बहुत बहुत धन्द्यवाद।“ पंणडतजी ! .....नौकरी लगी तो सबसे पहले अपका मुँह मीठा कराउंगा। चलता हूँ ।” और ईसने मुड़कर कदम बढ़ा णलए। “लेफकन दणिणा तो देते जांए जजमान !” वह रुक गया। मुड़कर ज्योणतषी को णनहारा और होठं पर मुस्कान लाते हुए कहा, “महाराज, अप शहर के मशहूर भणवष्यवक्ता हं। ISSN –2347-8764

मेरे हाथ की रे खाएं देखकर अप आतना भी नहं जान पायं फक मं फदया हुअ वचन कभी नहं णनभाता।” कहकर वह चलता बना। ~✽ ~

भगवान के नाम पर शहर के भव्य मंफदर के बाहर और भीतर दशवनार्सथयं की ऄपार भीड़ लगी हुइ थी। शायद अज कोइ धार्समक ईत्सव था। मंफदर से कु छ हटकर पूजन सामाणग्रयं के ऄलावा फल वगैरह की दुकानं पंणक्तबि लगी हुइ थी। मं हटरया की दुकान से कु छ फल खरीद रहा था। सहसा चीथड़े मं णलपटी वृि काया वाली एक णभखाटरन दुकान के समीप अ धमकी, “भला हो बेटा तेरा, भगवान के नाम पर एक के ला दे दे !” मुझ जैसे कबाब मं हड्डी को ईपणस्थत देख हटरया झुंझलाया और फ़ौरन झूठ बोल फदया, “अगे जाओ माइ, फ़ालतू के ला वेला नहं है।” फफर जाने क्या सोच कर ईसने एक सड़ा के ला ईठाकर ईस णभखाटरन के हाथ मं थमा फदया। के ला लेकर ईसने िणांश ईसे ईलट –पलट फकया और ऄपने णपचके णसल्वर के कटोरे से दो रूपये का एक णसक्का णनकालकर हटरया की ओर बढ़ाते हुए कहा, “ले पैसे ले, एक के ला और दे ! पैसे लेकर हटरया ने एक बफढ़या सा के ला ईसे थमा फदया। ऄचानक वह णभखाटरन मंफदर की ओर मुड़ी और ऄपने लाठी तथा कटोरे को नीचे रखकर दोनं हथेणलयं से के ले को पकड़ कर चीखने लगी, “देख ले भगवान, तेरे नाम पर णमला सड़ा के ला और पैसे से णमला बफढ़या के ला। ....ऄब बता तू बड़ा न पैसा बड़ा? फफर वह ठठाकर हंसने लगी। हटरया ऄपने को व्यस्त फदखाने के णलए के लं के ढेर पर ऄकारण हाथ फे रने लगा। ~✽~

ऄपर बेणनयासोल , पोस्ट.-अरा , णजला- पुरुणलया, पणिम बंगाल , 723121 , मो. 09800940477

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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कहानी

मुणक्त शेफ़ाणलका वमाव माँ सारे फदन तुम मीरिटग मं लगी रहती हो, जुलूस-नारे आन सब से क्या होने वाला है माँ ? ओह कोलेज मं पढ़ती हो तुम, क्या तुम्हे आसका ज्ञान नही बेटा -सारा देश, देश तो दूर सारे णवश्व मं मणहला मुणक्त अन्द्दोलन चल रहा है। तभी तो अज हमे दम मरने की भी फु सवत नहं। ऄनु ऄपने काम मं डू बी ऄपनी बेटी मंहा को जबाब भी देती जा रही थी। मुणक्त अन्द्दोलन? मुक्त होने की ये अकांिा फकस से माँ ...पणत से, पुि से, पटरवार से, माँ मेरे फदमाग मं तो कु छ अता ही नही है। धृि बाणलका आस ऄगम मुणक्त को जानने के प्रयास मं थी। ऄनु पुिी की बात सुन चंक गयी थी अज समाज मं एक ओर नारी मुणक्त अन्द्दोलन की धूम मची है, णजसकी नेता स्वयम मंहा की माँ थी। ऄनु को ऄपनी पुिी पर दया अयी । ममता ईमड़ी, एक णनरीह दृणि मंहा पर देती वो समझाने लगी – बेटा, समाज मं मणहला पर फकतने ऄत्याचार हो रहे हं। पटरवार मं मणहला का शोषण, दहेज़ के कारण ऄपमान, ऄनाचार क्या नही हो रहा है... । कमल कोमल सी भाव भरी मंहा चुपचाप ऄपनी माँ की बातं सुन रही थी। स्कू ल से कोलेज तक फस्टव अने वाली, बोली मं मधुटरमा, चाल मं गटरमा ...ऄपने णपता की सौम्यता और महानता का णनखार ईसमं था। णहमालय सी धीर गम्भीर णपता की संतान थी मंहा। व्यस्त डॉक्टर के जीवन मं समय का ऄभाव देख ऄनु ने ऄपने णलए मणहला क्लब मं स्थान खोज णलया था, मणहला नेता के रूप मं णवख्यात भी हो गयी थी। मणहला मुणक्त अन्द्दोलन ऄनु देखती थी, समझती भी थी पर ये नही जानती थी –मुणक्त फकस से? बड़े बड़े बैनर लेकर, ऄधवनि, स्लीवलेस, बैकलेस ब्लाईज मं णझलणमलाते पारदशी अंचल मं, णनयोन रौशनी की तरह णझलणमलाती देह की दीपणशखा मं, एक ISSN –2347-8764

दूसरे की देह पर णगरती पड़ती, हंसती बोलती बीच सडक पर नारं से ज्यादा प्रदशवन करती ......मंहा का मन णवतृष्णा से भर ईठता। प्राय कोइ न कोइ मीरिटग पाटी घर पर होती रहती ..मेहा आस सब से ऄलग ऄपने रूम मं रहती। के वल चाय नाश्ता लेकर बैठक मं जाती। डॉक्टर साहब भी णनणिन्द्त रहते, पत्नी व्यस्त तो हो गयी। ईस फदन मीरिटग मं होती बातं मेहा के कानं मं गमव शीशे की तरह णपघल रही थी। णमसेज चौधरी ऄपनी प्रोफे सर बहू के साथ अयी थी। णमसेज झा ने बहू की तारीफ करते पूछा – बड़ी सुन्द्दर साड़ी है, कहाँ से ली हो? क्लास मं भाषण देनेवाली बहू घर मं भंगी णबल्ली की तरह रहने वाली बहू ने कहा –यहाँ की नही है, मायके की है। णमसेज चौधरी को जैसे अग लग गयी। एक साड़ी के णलए मायके की तारीफ कर रही हो ..और क्या फदया तुझे मायके वालं ने? हाँ अजकल की लडफकयाँ मायके की ही तारीफ करती रहती है। मेरी बहू बहुत बड़े वकील की बेटी है, ऄहंकार फकतना ईसमं है.......णमसेज झा बडबडाती रही। हाँ एक बात तो समझ लो, वकील, डाक्टर, आं जीणनयर, ठे केदार की बेटी सब से ब्याह नही करना चाणहए.. पैसे के कारण फदमाग टठकाने पर नही रहता आनकी बेटटयं का। णमसेज लाल कम नही थी। पैसेवालं की बेटटयं की क्या बात, जैसे संस्कार दंग,े बच्चे वैसे णह तो बनंगे। मेरी मंहा को ही देखो, बगल के कमरे से सब सुनती माँ के मुंह से ऄपना नाम सुन मंहा के मुंह मं जैसे कु नैन अ गया। फकन्द्तु वहां बैठी सभी औरतं मेहा के नाम से चुप हो गयी। फकसी ने तुरत बात बदल दी—आतनी ऄच्छी लडफकयं की शादी दहेज़ के कारण नही होती है।

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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हाँ...एक ईसांस भरती ऄनु ने कहा –ये तो सच है, मं भी लगी हूँ एक ऄच्छे लडके की तलाश मं... प्रसाद जी वकील साहब का बेटा प्रोफे सर है, ईसकी कीमत 4 लाख रूपये, साथ मं टी वी, फफ्रेज ..क्या क्या नही ...! प्रसाद जी की पत्नी के कानं मं जैसे ही बात णगरी –हा हा मंने तो चार लाख ही रखे हं, ठाकु र जी की पत्नी तो ऄपने चाटवडव ऄकाईं ट बेटे का छ लाख मांग रही है। मणहला संघ की बातं सुन सुन मेहा का मन फटे बादल की तरह शून्द्य मं चला जाता . माता णपता ऄपनी ऄपनी दुणनया मं व्यस्त, छोटा भाइ फदल्ली मं पढता था। खुद मंहा पटना णवमंस कॉलेज से बी ए अनसव की परीिा दे रही थी। पुस्तकं की दुणनया मं खोइ रहती। फकन्द्तु अज मेहा का मन सजल जलद की भांणत माँ पर बरस गया। माँ, मं मीरिटग मं नही रहती हूँ पर अप सबं की सारी बातं सुनती रहती हूँ, अप जानती हं मणहला को मुणक्त फकस से चाणहए? ऄपनी जड़ता से, ऄज्ञानता से, ऄणशिा के ऄंधकार से... ऄनु ऄवाक फफर मुस्कु राती बोली - बेटा, तुम्हं समझने मं ऄभी वक़्त लगेगा। माँ दहेज़ पर सारी णस्त्रयाँ बढ़ बढ़ कर बोलती है, फकन्द्तु स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। क्या बोलती हो मंहा –तमक ईठी ऄनु बेटी की बात पर। हाँ माँ मुझे बोलने दो अज मुझसे नही सुना जाता ये ऄनगवल प्रलाप। एक बार मेरी भी तो सुनो माँ... चुप हो गयी ऄनु ... । माँ अज यफद सारे बेटं की माँ कसम खा ले हम ऄपने बेटं को नही बेचंगी कोइ सामान नही लंगी, तो फकसी बेटे के बाप की मजाल नही जो दहेज़ ले ले। पत्नी से णवरोध ले कोइ ऄपनी गृहस्थी मं ऄशांणत नही लाना चाहेगा। ऄनु चुप्प।जैसे फकसी पुरानी पुस्तक का नया पन्ना खुल अया ईसके सामने। ईस फदन मीरिटग मं माँ चौधरी चाची ऄपनी बहू को फकतना कु छ बोल रही थी, झाजी अंटी ऄपनी बहू की। माँ फकसी के णपता फकसी बहू की बुराइ नही ISSN –2347-8764

करते फफर माँ ही क्यं ..वो भूल जाती है फक वो भी फकसी की बहू थी। जो स्वयं माँ नही बन सकती वो बहू से बेटी बनने की अशा क्यं रखे। नारी स्वयम नारी पर ऄत्याचार करती है। मंहा साँस भी नही ले रही थी, धाराप्रवाह थी... अप बलात्क्कर की बात करती हं माँ ..फै शन मं चूर, ऄधवनि नाटरयां वासना को ही तो जाग्रत करती हं, माँ अप दशा – फदशा फदखाआए आस मणहला समाज को....मंहा का स्वर भावावेश से अरव हो गया था, स्वर की संवेगता और सजलता से माँ का हृदय णसहर ईठा। नाम और यश के पंख पर ईड़नेवाली ऄनु ऄपनी युवा पुिी के तकव और अवेग से पंखणवहीन हो जैसे णगर गयी। णजसे मै बच्ची समझती रही ईसके ह्रदय मं आतने तूफान... बहुत देर तक ऄनु सोचती रही..मेहा की बातं ईसे अंदोणलत करती रही। नही नही मंहा का कहना सही है ..फकधर जा रहा हमारा नारी- समाज...पटरवार टू ट रहा है। णजस संयुक्त पटरवार की मेरुदंड नारी थी अज मुणक्त खोजने के प्रयास मं ऄपने स्थान से भी वंणचत हो गयी। जो माता –णपता आतने कि से ऄपने बच्चं को पाल पोस ईसे मनुष्य बनाते हं। वे ही संतान ऄपने माता णपता को भी साथ रखने को तैयार नही, पणत-पत्नी और संतान...न्द्यू णक्लयर पटरवार। संतान भी माता णपता की व्यस्तता देख ईनसे णवमुख होती जा रही है ..तब फफर बचता क्या है नारी समाज के पास-साडी कपडा, जेवरजात और अलोचना–प्रत्यालोचना के कं र मं नारी मुणक्त अन्द्दोलन का नारा। सारा फदन ऄनु का ऄंतद्वंद मं बीता। रात मं खाने के टेबुल पर ईसने डॉक्टर साहब से पूछा – अप मणहला मुणक्त अन्द्दोलन से क्या समझते हं? डाक्टर साहब चंक ईठे , खाते खाते बोलेजो तुम समझती हो... भाभा कर हंस पड़ी मंहा। ऄनु के ऄधरं के कोण पर मुस्की की झलक अ गयी। नही मजाक मं बात को मत ईड़ा दीणजये...अज मेरी बेटी ने मुझ मं ऄपराध भाव जगा फदया है। ऄरे सचमुच? हमारी बेटी मेहा रानी को णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

कु छ बोलने भी अता है, डाक्टर साहब हँसते बोले। फफर ऄनु के मुंह से सारी बातं सुन डाक्टर धीर गंभीर भाव से बोले- ऄनु, फकसी देश की ऄसली पहचान ईस देश की नारी होती है। ऄपने देश की नाटरयं के चेहरे पर जो काणन्द्त, वाणी मं णमठास और चाल मं गटरमा होती है वही आस देश की माटी मं है, प्रकृ णत मं है। भारतीय नारी के लाज भरे चेहरे मं जो सौन्द्दयव है ऄनु वो ऄन्द्यि नही, पुरुष नारी को रहस्य से भरा ही देखना पसंद करते हं ऄनु। यह तो पुरुष की लोलुपता है –झपटती ऄनु बोली –नारी क्या भोग्या है ! तुम गलत समझती हो ऄनु, यहाँ भोग्या का प्रश्न कहाँ? समस्त प्रकृ णत रहस्य से भरी है वैज्ञाणनक आस रहस्य को तार तार कर देने मं लगे हं । नारी भी वही रहस्यमयी प्रकृ णत है णजसके ऄंतरतम तक जाने के णलए पुरुष एक्स रे बन जाता है। नारी का त्याग, समपवण, सेवा पुरुष से संभव नही। तब क्यं मणहला मुणक्त अन्द्दोलन हो रहे हं? ऄनु के समि प्रश्न ईसी तरह खड़ा था। ऄनु, मणहला मुणक्त का नाम मणहला ईणिन्द्ख्लता नही है नारी मं सब कु छ है, ऄभाव है, साहस का अत्मशणक्त का। फकतनी भी पढ़ णलख ले औरतं फकन्द्तु स्वयम णनणवय नही ले सकती, छोटी छोटी बातं मं पुरुष के शरण मं चली जाती है, कोइ बलात्कार करता है, नारी स्वयम को तो कलंफकत समझती ही है। दूसरी भी दोषी ही समझती है, बलात्कार करनेवाला बेदाग घूमते रहता है। मंहा ठीक कहती है, ऄनु कु छ करती हो तो नाटरयं के भीतर अत्मणनभवरता, स्वरिा और अर्सथक स्वाधीनता की शणक्त जगाओ। पापा ..चाची की शादी के पांच साल हो गये, कोइ बच्चा नही हुअ ..सभी औरतं ईसे बाँझ कहती है..आसमं ईनका क्या दोष..मै तो माँ से यही कहती हूँ औरतं ही औरतं को सताती है। मदव तो मूंछं पर ताव देते रह्रते है ..मंहा तमतमा गयी थी नही बेटा ऐसा नही होता है स्त्री स्त्री- जाणत के सुख दुःख नही देख णसफव ऄपने पटरवार का णहत ऄणहत देखती है। स्त्री ही क्यं ..क्या पुरुष ऄपाने पटरवार का णहत ऄणहत नही देखता दुसरे पुरुष को भीख मांगते देख

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कहाँ ऄपनी जेब काट ईसे दे देता। डाक्टर साहब की बातं से मेहा णजतनी ईमणगत थी ऄनु ईतनी ही व्यणथत। अज तक मणहला सणमणत मं फकये गये सारे कायव ईसे सारहीन लगने लगा। रात भर करवटं बदलती रही। क्या क्या सोचती थी.. फकतनी ऄच्छी बातं डाक्टर साहब, स्वयम ईसकी बेटी मेहा ने कही। मन को शान्द्त कर ईसने ऄपने सारे सोच को मेहा की तरफ मोड़ फदया आस तेजणस्वनी बेटी का भणवष्य क्या होगा। डाक्टर साहब गरीबं के मसीहा थे। वो मरीजं का पैसे के णलए नही बणल्क मज़व दूर करने की प्रैणक्टस करते थे। आसीणलए ईनके पास गरीब मरीज ज्यादा अते, ईनका यश भी शीषव पर था। पर पैसे के धनी नही थे। लाखो लाखं मं लडके णबकने लगे, तभी समाज मं शुरू हो गया लड़का सडक पर से ईठाओ जबरदस्ती शादी कराओ। ऄजीब णस्थणत थी। मंहा के मामा णवपुल बाबु मेहा के योग्य वर की तलाश मं थे। डाक्टर साहब भी णवपुल बाबु पर सारा भर संप णनणशसिचत रहते थे। और एक फदन न जाने कहाँ से पछवा की तरह णवपुल बाबु अये। ऄनु के कानं मं कु छ गुनगुना गये। णवपुल, कु ल खानदान सब देख णलया है न? हाँ बहन लड़का प्रोफे सर है फस्टव क्लास के टरयर, होनहार और तेजस्वी..णवपुल ईत्साणहत थे। ऄनु सिचणतत... क्या डाक्टर साहब ईसके णपता से बातं नही करं गे?– ये ऄटपटा नही लगता है। नही बहन, ऄब समय कहाँ है? मै सब से णमल चूका हूँ। अज से पांचवे फदन शादी के णलए मंने फफक्स भी कर णलया है। डाक्टर साहब सुन कर चुप रह गये। पत्नी और ईसका भाइ, णवश्वास कर गये। मेहा के णलए थोड़े सोच मं पड गये। देखते देखते घर मं रौनक अ गयी। शादी की तैयाटरयां शुरू हो गयी। मंहा पहले तो ऄकचका गयी फफर माँ की सिचता, आच्छा जान चुप रह गयी, कहाँ तो वो ऄपने के टरयर बनाने मं लगी थी और कहाँ... साधारण साज-सज्जा के साथ तैयारी पूरी हो गयी। दस–बारह बारात के साथ दुल्हे राजा पहुंचे। लड़का ISSN –2347-8764

सुन्द्दर था फकन्द्तु ईसके णनर्सवकार चेहरे पर एक ईदासी, एक णवराग भाव जैसे ऄन्द्तर मं कोइ छटपटी एक, बेकली हो। णवपुल के हाथं मं सरात–बरात दोनं का प्रबंध था। लड़का का एक भाइ लडके से सटे खड़ा रहता था। ईसके तीन चार दोस्त लड़के को घेरे रहते थे और मेहा की तीन चार दोस्त मेहा को घेरे रहती थी। हंसी मजाक के बीच शादी की सारी णवणधयाँ सम्पन्न हुइ। णसन्द्दरू दान का समय अ गया। शान्द्त और धीर लडके के हाथ मं सिसदूर फदया गया। ऄचानक रात णवषैले सांप मं पटरवर्सतत हो गयी। शादी के साज सामान णवषैले कीड़े की तरह मंडप मं रं गने लगे। लड़का सिसदूर लेकर खड़ा हुअ, लडकी के दोस्त ईसे घेरे जोरं से ठहाका लगा रही थी। प्रोफे सर साहब शान्द्त भाव से मंहा की मांग मं सिसदूर दे, झपट्टा मार। मेहा के चारो दोस्तं की मांग मं भी सिसदूर डाल फदया ईसने। णस्थणत भयावह हो गयी, धरती कांपने लगी, लोगं के कलेजे कांपने लगे –ये क्या कर फदया लडके ने! मंने ऄपनी पत्नी के ऄलावे आन चारो लडफकयं से भी शादी कर ली है। ऄब ये पांचो मेरी पणत्नयाँ है। सुनते ही सबं के ऄधरं की हंसी खत्म हो गयी, चेहरे पे राख ईड़ने लगी फकसी के मुंह से कोइ शब्द नही णनकल रहा था। चारो लड़फकयां मेरी पत्नी णजनका फक मै नाम भी नही जानता, को पकड़ी सारे णवध व्यहार मं साथ रही। शास्त्र के ऄनुसार मेरी पणत्नयाँ हो गयी। पंणडतं ने सर झुका णलए फकसी के पास हठात हुयी आस घटना का कोइ जबाब नही था। ऄपने जीवन के आस पोस्टमाटवम को देख मेहा को काटो तो खून नही। स्तब्धता के अवरण को चीरता मौन भी मुखर हो जाता है। आस मौन मं णिशंकु की तरह ऄटकी मेहा को जैसे होश अया, ईसने दुल्हन की सज्जा माथे पर से हटाइ और सीधे ईस लडके से पूछा अपको मेरा नाम भी नही मालूम ये ऄसत्य है। ये सत्य है-ऄब प्रोफे सर साहब को भी ताकत अइ। णवपुल बाबु आस शहर मं पांच फदनं से मुझे बंधक बनाये हुए थे वे ऄपनी णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

कोइ सहयता करने के बहाने मुझे यहाँ ले अये मै खुश था चलो फकसी के काम तो मै अया। ईन्द्ही पांच फदनं मं मुझे पता चला आन लोगं का एक णगरोह है जो लडकं को ईठाकर ले जाते हं और शादी करवाते हं। वास्तव मं आसी बीच णवपुल बाबु और सारे बारात गायब। सिसदूर दान के बाद जब णवपुल बाबु ने मेरी जान छोड़ी तब मै अप सब को कह पाया। दीन हीन प्रोफे सर साहब की बातं ने जैसे सबं को काठ बना गया, मानो काटो तो खून नही। नही नही ..ऐसा नही हो सकता। तेजस्वी ऄनु ऄपनी एक माि पुिी का ये गंजन देख णचल्ला ईठी। अप णस्थर रहो माँ-गम्भीर स्वरं मं मेहा ने कहा-फफर ईसने लड़के से पूछा-अपने मन्द्ि पढ़ा था क्या? नही–मै तो डर से णघणघया रहा था, मन्द्ि कहाँ सुनता। मेहा की गुरु गम्भीर अवाज़ वातावरण को णसहरा गयी, प्रोफे सर साहब! अपको जबरदस्ती शादी के णलए यहाँ लाया गया। णववाह माि वेद मन्द्ि, सिसदूर से नही होता। वो पाठ एकान्द्त भाव का समपवण होता है। ईस समय अपके प्राण ऄवग्रह मे थे यहाँ बैठे पंणडत पांचो लड़फकयं से अपके णववाह का समथवन दे रहे हं। क्या यही शास्त्र है, यही धमव है। अवेश से मेहा हांफ रही थी। दिकणचत सांस लेती गंभीर स्वरं मं कहा– प्रोफे सर साहब, मै अपको मुक्त करती हूँ। मै आस णववाह को णववाह नही मानती हूँ और न ही मेरी ये णनरीह दोस्त मानती हं। हम आतने गये गुजरे नही हं प्रोफे सर साहब... अप चफकत न हं। मै एक लडकी होकर, एक नारी होकर ये सब अपको कह रही हूँ। नारी की णस्थणत माि णववाह ही है ये मै नही मानती। णववाह स्त्री पुरुष का समपवण है। मै आतनी छोटी हूँ अपके सामने ..फफर भी मै अपको कह रही हूँ। ये सब मै नही, मेरे णपता की दी हुइ णशिा और संस्कार हं मै ऄके ली नही हूँ मेरे साथ मेरे माता- णपता की शणक्त है। मै आस सिसदूर को नही मानती जो जबरदस्ती फदया जाय और एक साथ पांच पांच लडफकयं को.. धमव की दृणि मं मान्द्य

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हो जाये... पर ऄपना धमव भी आतना रोगी, कणवता कमवकांडी नही रहा है। जो भी हो हम आसे नही मानते। प्रोफे सर साहब ऄवाक। ईनकी बुणि एक चतुथव वषव की छाि के तकव णवतकव और ओजणस्वता के सामने जैसे णनष्प्राण हो गयी थी। वो क्या सोच रहे थे, फकतने भयभीत थे, पर यहाँ तो पूरा पासा णह पलट गया। सभी ऄणतणथ बडबड़ा रहे थे –क्या हो गया ज़माने को ..न तो ऐसा बदमाश लड़का ही देखा, ना ही ऐसी ऄगत्ती लड़की। डाक्टर साहब ऄब शान्द्त णस्थतप्रज्ञ, चुपचाप एक ओर खड़े थे, ऄनु का मन भी पुिी की बातं से णस्थर हो रहा था।मेहा भी जलमय मेघ की तरह णवनीत... माँ, अप ऄपने मणहला संघ से मत डरं । अप सबं के अशीवावद से ही मै शणक्तमयी हो ईठी हूँ। पुन: परीणित बाजपेइ प्रोफे सर साहब की और देखती बोली मेहामंने अपको मुक्त कर फदया, मणहला मुणक्त के णलए कु छ भी कहो अन्द्दोलन करती है। पर वे नही जानती मुक्त करने पर बहुत खूबसूरत होती है का सबसे ज्यादा ऄणधकार और शणक्त मणहलाओं के सदी की सुबह पास है। अप ऄपने घर जाआए, जो हुअ ईसे एक बुरे सड़क के फकनारे ऄलाव पर सपने की तरह भूल जाआये, लीणजये आस सिसदूर को हाथ संकते लोग भी मै अपके सामने ही पोछ लेती हूँ-कहती मेहा कोहरे को चीरती गाणड़यं की ऄपने माथे के सिसदूर को पोछने लगी। पीली गुनगुनी लाआट प्रोफे सर साहब जैसे एक ऄणस्तत्व व्यापी मूढ़ता मं ओस की चादर मं णलपटे पेड़ पड़े हं, ईनकी तन्द्रा टू टी.. ऄज्ञात सम्मोहन से फदलाते हं णवश्वास अणवि ईन्द्हंने मेहा के हाथ पकड णलए- तुम धन्द्य ँ लं मं दुबके गीले पंखं को घौस हो..मेरे णलए पूज्य भी.. मेरे ऄपराध को िमा करो फक -सूरज ज़रूर अयेगा –तुम मेरी हो! अकाश मं बचा है एक अस्ते से हाथ छोडती मंहा ने कहा– नही प्रोफे सर अलसी तारा साहब! मै एक ईदास पराणजत पत्नी की णजन्द्दगी णजसे मेरी तरह देर से सोने की नही जीना चाहती हूँ। मै आस शादी को स्वीकारुं गी अदत है तो समस्ज मं अये फदन फकतने लड़कं को फु सला सिजदगी के सफर पर णनकले लोग कर, बंधक रख शादी होती रहेगी। जबरदस्ती ईसे बैठे हं कानं पर धुंध का मफ्लर सधवा बना कर णवधवा की णजन्द्दगी जीने को णववश जेब मं हौसलं को णछपाये कर देते हं समाज...मै आसका णवरोध करती हूँ । बस की सीट पर ठीक है मेहा, मै अउंगा ऄपने पूरे पटरवार के साथ ईँ घते हुए से बारात को लेकर, ऄनायास णमले आस हीरे को मै न सूरज ईगा है न तारे णछपे हं नही छोडू ंगा। प्रोफे सर साहब का हतशून्द्य और भागने लगता है अत्मसम्मान जग चूका था। मेरे ऄपूणव ज्ञान की आं सान तारकोल की काली पूणवता हो तुम..! मै जल्द अ रहा हूँ और वो सड़क पर डाक्टर साहब और ऄनु के चरणं मं झुक गये। जो कही ँ पहुँचाती नही ँ ~✽ ~ भटकाती रहती है A-103, SIGNATURE VIEW APARTMENTS, DDA ता-ईम्र आं सान को HIG FLATS, DR. MUKHERJI NAGAR, ऄके ला DELHI-9 MOB. 09311661847 ~✽ ~ अणखर और फकतना ? ~✽ ~

सूरज जरुर अएगा

ISSN –2347-8764

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

लघुकथा

पटरभाषा संजय वमाव ’ दृणि’ गर्समयं की छु टट्टयं मं एक श्रीमान के यहाँ ईनकी साली अइ। श्रीमान की पत्नी की अवाज बहुत ही सुरीली थी। वो ऄपनी नन्द्ही सी बेटी को ऄक्सर लोरी गा कर सुलाती थी। जब वो लोरी गा रही थी तब श्रीमान की सालीजी ने ईस लोरी को रे काडव कर वीणडयो बना णलया सोचा दीदी आतना ऄच्छा गाती है। मं घर जाकर माँ को फदखाईं गी। सालीजी कु छ फदनं बाद घर चली गइ। कु छ फदनं पिात् श्रीमान की पत्नी को गंभीर बीमारी ने जकड़ णलया काफी आलाज करने के ईपरांत वह बच नहं पाइ,चल बसी। ईधर पत्नी की मृत्यु का गम और आधर नन्द्ही बच्ची को सँभालने की सिचता। जब रात होती बच्ची माँ को घर मं नहं पाकर रोने लगती हालाँफक वो ऄभी एक साल की ही थी। कु छ समझ नहं अ रहा था फक अणखर क्या फकया जाये। सालीजी अइ तो ईसने लोरी वाला वीणडयो जब बच्ची को फदखाया तो वो आतनी खुश हुइ और ईसके मुँह से ऄचानक "माँ "शब्द णनकला और हाथ दोनं माँ की और ईठे मानो कह रहे थे माँ मुझे ऄपने अँचल मं ले लो तभी टीवी पर दूर गाना बज रहा था माँ मुझे ऄपनेअँचल मं छु पा ले गले से लगा ले की और मेरा कोइ नहं। ईस समय के हालत से सभी घर के सदस्यं की अँखं मं ऄश्रु की धारा बहने लगी। ममत्व और भावना की पटरभाषा क्या होती है फकसी को समझाना नहं पड़ा । ~✽ ~ 125, शहीद भगत सिसग मागव, मनावर-454446 णजला-धार, (म.प्र.)

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कहानी

णपता अर अर हषावना पैदा होते ही माँ से णलपटे रहेने के कारण मुझे ऄपने णपता या कोइ पुरुष के बारे मं कु छ भी याद नहं। मेरा जन्द्म होनेके कु छ मणहनो तक, जैसा की माँ ने कहा था, मं ऄस्पतालमे ही रहा जहाँ पर मेरे ऄत्यंत णनबवल शरीर मं सुआया भंककर मुझे आन्द्क्युबटे र मं रखा गया था। माँ रातफदन मेरे णबस्तर के करीब बैठकर अंसू बहाकर भगवान् से मेरी सिजदगी के णलए प्राथवना करती रहती। मगर जब ईसे पता चला की मेरे आलाज के णलए ईसके पास न तो पैसा बचा हं न ही बेचने के णलए गहने तो वह मुझे बीमार हालत मं ही घर ले अइ। कु छ फदनं तक तो वह पागलं सी मुझे सीने से लगाये रोती रही। बचपन से ही मुझे दूध या खुराक की जगह गोणलयां और दवाआया ज्यादा लेनी पड़ी थी। हलाफक माँ की प्राथवना और णनस्वाथव प्रेम के कारण मं बच गया। जब मं दो साल का हुअ तभी मुझे ऄपने असपास के माहौल के बारं मं पता चला। हम एक कु टटया-से घर मं रह रहे थे णजसमे एक कमरा अगे और एक कमरा पीछे था णजसमं एक छोटी सी रसोइ थी। एक टू टीफू टी चारपाइ और टटपोइ थी। ज्यादातर मै णपछले कमरे मं ही रहता था और माँ वहीपर अकर मेरेपास सो जाती थी। लेफकन मै देखता कइबार देर रात माँ ईठकर ऄगले कमरे मं चली जाती थी और दरवाजा बंद कर लेती थी। एक रात जब माँ ईठकर ऄगले कमरे मं चली गइ तो मै भी ईठकर ईस कमरे की णखड़की के करीब पहुचकर ऄन्द्दर झाँकने लगा। तभी मुझे कु छ बातचीत सुनाइ पड़ी जो माँ और फकसी मदव के बीच हो रही थी। बादमं माँ का यह णनत्यक्रम बन गया था। फफर एक रोज माँ ने मुझे नहलाकर नए कपडे पहनाये और नजदीकी स्कू ल मं ले गयी। मुझे याद है जब सिप्रणसपल ने मेरे णपता का नाम पूछा तो माँ के चहेरे पर ऄत्यंत घृणा ईभर अइ और ईसने णतरस्कृ त स्वर मं कहा, - “आसका बाप मर गया है। ईसकी जगह मेरा नाम ISSN –2347-8764

णलख दो।“ सिप्रणसपल मेरे जन्द्म के दाणखले को पढ़ते हुए हंस पड़ा – “बाप का नाम यहाँ णलखा हं – प्रीतम सेन।" ईस वक्त पहलीबार मुझे पता चला फक माँ णपता से ऄत्यंत घृणा करती थी। मगर मेरा ऄंतमवन मुझे बारबार प्रेटरत कर रहा था ये जानने के णलए की मेरे णपता कौन थे और कहाँ थे। “माँ, णपताजी कहाँ हं ? “ मंने डरते हुए घर अते ही पूछ णलया। तभी माँ ने ऄचानक क्रोणधत होकर मेरे गाल पर आतना जोर का चांटा जड़ा की मं वहं पर चक्कर खा कर णगर पड़ा और बेहोश हो गया। कु छ देर बाद जब मुझे होश अया तब मंने देखा मै णबस्तर पर पड़ा था और ऄड़ोसपड़ोस की णस्त्रयाँ मुझे धेरे हुए थी। माँ रो रही थी। मेरे होश मं अते ही ईसने मुझे ऄपनी छाती से णचपका णलया और मेरे गाल चूमने लगी। ईसी फदन मंने तय फकया फक ऄब कभी भी माँ से णपता के बारे मं नहं पूछूँगा। मेरे समझदार होते ही मुझे माँ और ऄपने बारे मं कु छ ज्यादा पता चला। हम लोग गरीब थे और हमारी कु टटया भी फकराये पर थी। हमारे असपास झोपड़पट्टी थी जहाँ पर गरीब और बीमार लोग ही रहते थे। वहां के णनवासी बीमार गंदे और झगडालू थे। माँ कभी भी मुझे महल्ले के बच्चं के साथ खेलने नहं देती थे। "ये बच्चे गंदे हं – ऄनाथ हं।" मं जानना चाहता था फक माँ मेरा लालनपालन आतनी ऄच्छी तरह से करने के णलए क्या करती थी। बेशक वह कड़ी महेनत कर रही थी। फफर बहुत फदनं तक ईसका रात का णनत्यक्रम चलता रहा। वह रात कभी भी मेरे कमरे मं सोती नहं थी और अगे के कमरे मं ऄपने अप को बंद कर लेती थी। रात मेरे कानं मं माँ और फकसी ऄन्द्य अदमी की बातचीत

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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सुनाइ देती थी। लेफकन वह अदमी कौन था ये पूछने की मेरी णहम्मत नहं होती थी। एक फदन सवेरे जब माँ खुश थी और मुझे चाय नास्ता णखला रही थी, मंने सहमकर माँ से कहा – “कल रात मंने सपने मं णपताजी को देखा। वे हमदोनं को ऄपने पास बुला रहे थे ... कहं दूर ले जाने के णलए .....!” ईसने अँखं तरे रकर मुझे देखा – “बदमाश कहं के !” ईसने ऄपना हाथ तो ईठाया पर थप्पड़ मार न सकी। मेरे सहमे से चहेरे को ताकती रही। मुझे ऄपने कथन पर पिाताप हुअ। हलाफक मुझे अियव हुअ ये देखकर फक ईसकी अँखं से अंसू टपकने लगे थे। ईसने रंणध अवाज मं आतना ही कहा – “लगता हं ऄब तुझे तेरे णपता के बारे मं बताना ही पड़ेगा। तू बहुत जल्दी जो बड़ा हो रहा हं।“ ईसने मेरे गाल पर हल्की सी चुटकी भरी और जल्द से नास्ता खाने का हुक्म फदया। कु छ महीनं बाद एक रात मै ऄगले कमरे मं हो रहे शोरगुल को सुनकर सकपकाकर जाग ईठा। चूफक मं ऄपने कमरे मं ऄके ला था, मं जोर से णचल्लाते हुए दरवाजे की और दौड़ पड़ा। “माँ......माँ.........!’ ऄगले कमरे के ऄन्द्दर से मुझे माँ की चीखे सुनाइ पड़ी। लगा कोइ अदमी गाणलयाँ देते हुए माँ को णपट रहा था। मं जोर से णचल्लाकर दरवाजा खटखटाने लगा। “माँ...... दरवाजा खोलो । माँ ......दरवाजा खोलो!“ मंने चीखकर दरवाजे को दम लगाकर धक्का फदया और दरवाजा खुल गया। कमरे का रश्य देखकर मेरी अँखं फटी –फटी सी रह गइ। माँ फशव पर णगरी हुइ थी और एक दाढ़ीवाला हट्टाकट्टा अदमी बुरी तरह से माँ के बाल सिखच रहा था। “छोड़... माँ को ... छोड़ दे।" मं ईसकी और दौड़कर ईसे ऄपने नन्द्हे हाथं से पीटने लगा। ईसने मुझे जोर का धक्का दे डाला और तुरंत ही दरवाजा खोलते हुए माँ को धमकी दी – “ख़बरदार जो मुझे कभी ना कही हं तो...तेरा खून पी जाईं गा। “और वह ऄँधेरे मं ऄरश्य हो गया। मं दौड़कर माँ से णलपट पड़ा – “ माँ, तुम ISSN –2347-8764

ठीक हो? माँ भी मुझसे लीपटकर णबलख पड़ी। ईसके चहेरेपर भयंकर खौफ था – “मं ऄब ऐसा कभी नहं करुँ गी। कभी नहं ......... !” वह रोते हुए बोल पड़ी। मं समज नहं पाया माँ ने ऐसा क्या फकया था जो वह ऄब कभी नहं करना चाहती थी। ईस रात हुइ दुघवटना के बाद माँ ने ऄगले कमरे मे सोना बंद करके मेरे ही साथ सोना शुरू कर फदया। रात होते ही वह दरवाजे पर ताला लगा फदया करती थी। कु छ महीने यूँही आणत्मनान से बीत गए। माँ खुश थी। ईसने ऄपने णलए कोइ काम ढू ंढ णलया था। दोपहर को मै घरमं ऄके ला रहता था। हलाफक माँ खाना बनाकर ही काम पे जाती थी। एक दोपहर जब मं घरमे ऄके ला था, एक शख्स सफ़े द कमीज़ और खाकी पतलून पहने हुए अ पहुंचा और माँ के बारे मं पूछने लगा। “तुम्हारी माँ कहाँ हं ? सुषमासेन।" ईसने कड़क स्वर मं पूछा। “माँ काम पर गइ हं।" मंने दबी अवाज मं ईत्तर फदया। ईसने पड़ोस मं से दो व्यणक्तओको बुला णलया और एक कागज़ पर ईनके दस्तखत णलए। फफर ईस कागज़ को हमारी कु टटया के दरवाजे पर गंद से णचपका फदया। “सुषमासेन को सेशन कोटव मं ग्यारह तारीख को ग्यारह बजे हाणजर होना हं। मं यह नोटटस दरवाजे पर णचपका रहा हूँ“ वह चल फदया। मं समज गया। ईस कागज़ मं बुरी खबर थी ऄतः मंने ईसे फाड़ना चाहा मगर माँ को बताना जरुरी था आसणलए मंने ऐसा नहं फकया। शाम माँ के लौटते ही मंने ईसे दरवाजे पर णचपका हुअ कागज बताया। ईसने कागज़ पढ़ा और तुरंत ही ईसे फाड़ते हुए गुस्से मं बोली–“मं ईसके पास कभी नहं जाईं गी .... कभी नहं ..चाहे वह कोटव की नोटटस ही क्यं ना भेजे।“ फफर ईसने ऄत्यंत रढ़तापूववक सौगंध लेते हुए कहा–“मं ऄपना बच्चा ईसे फकसी भी कीमत पर नहं दूँगी। ये मेरा लाल हं। ईसका हरणगज़ नहं।“ कहते णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

हुए माँ ने मुझे गले लगा णलया और चूमते हुए ऄत्यंत भावणवभोर हो गयी। मं समज नहं सका ये सब क्या होने जा रहा था लेफकन आतना जरूर समज सका की कोइ मुझे माँ से छीन लेने की कोणशश कर रहा था और वह और कोइ नहं मेरे णपता ही हो सकते थे। मेरी आस बारे मं पूछने की णहम्मत नहं हुयी और चूप रहा। ईस घटना के बाद माँ मेरे बारे मे ऄणधक चौकन्नी हो ईठी। वह फकसी भी कीमत पर मुझ पर रहे ऄपने ऄणधकार को गवाने को तैयार नहं थी। कोटव की नोटटस पर भी ईसने कोइ ध्यान न फदया और तारीख भी बीत गयी। करीब एक सप्ताह बाद एक ऄधेड़ शख्स सफ़े द कमीज पर टाइ बांधे और काली पतलून पहने हुए माँ से णमलने अया। वह सद्गृहस्थ लग रहा था और माँ से ऄणत नम्र होकर णबनती करने लगा – “अपके पणत ऄस्पतालमे अखरी साँस ले रहे हं। ऄपने बच्चे से णमलने को तड़प रहे हं। ये ईनकी अखरी ख्वाणहश है। मान जाआये। बच्चे को लेकर ईनसे णमल अआए। आतने कठोर मत बणनए। एक वकील नहं बणल्क ईनके करीब दोस्त की हेणसयत से तुम्हे णबनती कर रहा हूँ। प्लीज़ .... मान भी जाआये। ईसे माफ़ कर दीणजये।“ यह सुनकर माँ एक पत्थरकी मूर्सत की तरह सन्न रह गइ। ईसके चहेरे पर गहरा णवषाद ईभर अया। हमेशा कठोर फदखनेवाला ईसका चहेरा मोम-सा णपघलने लगा, अँखं से ऄश्रु बहने लगे। ऄगली सुबह जब हम टेक्सी की णपछली णसट पर बैठकर णपताजी से णमलने जा रहे थे तभी माँ के णसनेमं लम्बे समय तक दबी हुयी घृणा और रोष का बांध टूट गया और ईसने ऄपने दुखं की कहानी मुझे सुना डाली। णपताजी ने माँ के साथ णनष्ठु र ऄमानवीय और दैत्य जैसा व्यवहार फकया था। णबना कोइ कसूर के माँ को धक्के मारकर घर से णनकाल फदया था। णपताजी णचिकार और कलाकार थे णजनका हृदय आतना कठोर था यह मेरा फदल मानने को तैयार नहं था। दोनं एक ही काणलज मं पढ़ते थे और तभी एक-दूसरे से प्रेम करने

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लगे थे। माँ सुन्द्दर थी और णपताजी ईनकी तस्वीर बनाकर बेचा करते थे। ऄचानक शादी के बाद णपताजी के जीवन मं एक और स्त्री ने प्रवेश फकया। एक स्थानीय ऄणभनेिी ने णपताजी के णचि खरीदकर ईन्द्हं ऄपने प्रेमजाल मं फं सा णलया। णपताजी ऄब बहुत बड़े णचिकार बन गए थे। ऄब ईन्द्हं ऄपनी भोलीभाली पत्नी मं कइ तरह की कणमयाँ नज़र अने लगी। माँ के साथ मारपीट करके एक फदन ईन्द्हं घर से बाहर णनकाल फदया। माँ के पास ऄपने मायके लौटने के अलावा कोइ णवकल्प न रहा। वहां भी ईनकी बूढीमाँ के अलावा कोइ नहं था। माँ की बूढी माँ भी बेटी के दूख का सदमा सह न सकी और मर गइ। माँ ऄब भरी दुणनया मं ऄके ली रह गइ। लेफकन ईसे भी ऄपने पेट मं पल रहे बच्चे के णलए णजन्द्दा रहना था। ईसके हदय मं णपताजी के णलए णसवाय शाप घृणा और नफरत के अलावा कु छ न बचा था। फफरभी एक स्त्री होने के नाते माँ का पत्थर फदल पसीज गया और वह ऄपने पणत से णमलने के णलए तैयार हो गइ जो अज ऄस्पताल मं अखरी सांसे ले रहा था।

लघुकथा

ऄस्पताल पहुंचते ही हमं पता चला फक णपताजी की मृत्यु हो चुकी थी और ईनकी लाश घर णभजवा दी गइ थी। माँ ये सुनकर वहं पर स्तब्ध रह गइ। ईसे अघात लगा मगर वह रो न सकी। टेक्सी मं बेठकर हम णपताजी के बंगले पर पहुंचे। वहां बरांडे मं काफी भीड़ जमा हो चुकी थी णजसे चीरते हुए हम णपताजी की लाश के पास पहुंचे। सफ़े द वस्त्र मं णलपटी हुइ णपताजी की लाश को फशव पर लेटाया गया था। ईनका मुह खुला था और नाणसका के णछरो को रुइसे बंध कर फदया गया था। णसटरयाने पर सुगंधी ऄगरबत्ती और दीपक जल रहा था। माँ णबना पलक ज़पकाए णपताजी के मृत चहेरे को तकती रही–वो चहेरा णजसे वह सिजदगीभर णधक्कारती रही थी। वह रोना चाहती थी, णबलखना चाहती थी मगर ऐसा कर न सकी क्यो की सारे जज्बात सीनेमं ही दबकर रह गए। मुझे देखते ही वह शख्स जो कु छ फदन पहेले ही माँ से णमलने अया था ईसने बड़े प्रेम से मेरा हाथ थामते हुए कहा – “अओ बेटा, ऄपने णपता की ऄंणतम आच्छा पूरी करते हुए

राष्ट्रवाद की जय संदीप तोमर

"ऐ णडबली तू सुबह सुबह फकताबे बोरे मं भर कपडे ऄटेची मं क्यं भर रा है? क्यं तुझे पढना णलखना न है के ?"- बापू मानो गुराव रहा हो.. "बापू तू तो कहता था फक ऄपना छाती भी छप्पन आं ची और ईका भी ओ सब ठीक कर देगा। देख बापू भरतु पढ़ा न कॉलेज फफर ईका णमली कोनो नोकरी सोकरी! खाए टेम की खोटी करूं । तू बेच लेना आन फकताब्बो कू और ले अआयो तम्बाखू तेरे हुक्के का कम तो चलेगा, णडबली ने ऄपना गुस्सा ईतारा... "ऄर तू हमै नू तो बता ऄक आतना गुस्सा फकस पै कर रा? छप्पन आं ची तो कररा ISSN –2347-8764

णजतना ईसके बसकी.. और के करवाओ ईस पै?" "बापू तू तो ठहरा देहाती, तुझे न पता फकसका खेत गधा खारा? नौकरी फकसी कू णमल न री और दाल तक के लाल्ले पड़रे ...ईप्पर तै तन्नै णबया और फूं क फदया मेरा ऄब नू बता पढू ं या लुगाइ की फरमाइश पूरी करूँ, णडबली और णतलणमलाया... माँ एक कोने मं बैठी बडबडाइ; "तेरे बापू का छपन्न आं ची तो जगह जगह घुम्मन की मौज लेन लगरा... तेली बतावै ऄपने अप कू ..जहाँ भी जावै तेल ही बेचै। फकसी का खून ख़राब बतावै फकसी कूं णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

ऄपने हाथं से ईनका ऄणि संस्कार कर दो। णसफव तुम्ही ईनकी एकलौती संतान और ईनकी जायदाद के वाटरस हो।“ जीवन मं पहलीबार मै माँ से ऄलग हो रहा था। मंने माँ की तरफ दयनीय दृणि से देखा। माँ ने ऄपनी शोकग्रस्त अँखं की पलके झुकाकर आशारं मं हामी भरी। हमने कभी नहं सोचा था हमारा भाग्य आसकदर बदल जायेगा। फफर हम ऄपनी झंपड़पट्टी की कु टटया छोड़कर णपताजी के अणलशान बंगले मं रहने अ गए। एक शाम माँ के साथ बैठक मं ऄके ले बैठे हुए मंने माँ से गंभीर स्वरमं पूछा–“माँ, क्या तुम ऄब भी णपताजी से नफरत करती हो ? “मरे हुए अदमी से कोइ नफरत नहं कर सकता मेरे बच्चे !” माँ ने ऄफ़सोसभरे स्वर मं ईत्तर फदया। ~✽ ~ 31, णववेकानंद सोसायटी-2, ऄंध णवद्यालय मागव, सुरेन्द्रनगर( गुजरात) 363 001

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ब्रहामणपशाच कहावै.. मैन्ने तो नू लगै ऄक यु कोइ तांणिक मोलवी फदक्खै... ।" माँ की बात सुन बापू को सदमा सा लगा। ईसने खाट का पाया पकड़ते हुए करवट बदली... "देख बापू ऄब मं तो शहर जाकर मजूरी करूँ दो चार पैसे लाकै एक छोटी सी दुकान मं कु छ सोद्दोा भरकै ऄपनी लुगाइ नै खुश रक्खूग ँ ा...पढाइ गयी तेल लेनं।" बापू का चेहरा मानो मुरझा ही गया... माँ बोली-"देख णडबरी के बाप्पू छोरे नै जाण दे काम धंधे की टोह मै। और छप्पन आं ची का मलाल मत करै ऄभी तो पता नी के के ऐब और करे गा।" णडबरी का मान फकया फक जोर से णचल्लाये- "राष्​्बाद की जय।" लेफकन ईसने ऄटेची को ईठाकर कं धे पर रखा और सीधा दरवाजे के बाहर णनकल गया... । ~✽ ~

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कहानी

कमली देवी नागरानी ऄरी ओ कमली, मेरा हुक्का तो भर दे । दो चार काश लगा लूं, तो धांय धांय करता फदमाग कु छ शांत हो ।’ नानी ने णहदायती सुर मं कु छ आस तरह अवाज़ दी फक अंगन से होता हुअ ईनका सन्द्देश रसोइ घर मं ईसके कानं तक अ पहुंचा । ‘ऄम्मी बस ऄभी अइ फक अइ’, वहं से अवाज़ देते हुए कमली ने कहा । ‘ऄरी मुदावर तू मेरे काम के णलए कभी भी फाटरग नहं होती। टालती रहती है, नखरे भी तो कोइ कम नहं है तेरे, अए फदन बढ़ते ही जा रहे हं. ऄब तू कमली से फफर कमणसन जो हो गइ है।’ ‘नानी बस दो चार बतवन और हं, मांज कर अती हूँ।’ कमली की अवाज़ रसोइ घर से बाहर नानी के कानं तक अइ । ‘तेरी अवाज तो बाहर अ सकती है, पर तू नहं अती । बतवन करने का दावा करती है । खाना खाती है तो बतवन भी करे गी । कहकर क्यं सुनाती है? क्या खाना सुना कर खाती है? जाने क्या हुअ है अजकल के ज़माने को । बच्चे तो बच्चे, नौकरं की भी ज़बान चलने लगी है ।’ ‘देवकी, ओ देवकी तू ही अकर हुक्का बनादे, आसे तो फु सवत ही नहं णमलती मेरे काम के णलए । ज़रा देखना तो, रसोइ मं कोयले तो नहं बुझ गए ।’ ‘ अइ नानी….!’ मं ऄपने फकताब णबस्तर पर ही छोड़ कर बाहर अ गइ । तुरंत न अने का नतीजा जानती थी। ‘तू भी बहरी हो गइ है । मं तो सिहदुस्तान मं अकर ज्यादा परे शान हो गइ हूँ ।’ ‘हं गइ हंगी, ज़रूर हुइ हंगी। सिसध मं चार चार नौकर -चाकर जो तुम्हारे आगे पीछे घूमा करते थे । यहाँ तो णबचारी यह ऄके ली ही है, फकस काम को देखे....फकस काम को छोड़े!’ सोचा, पर कह न पाइ । शामत को दावत देना फकसे भला लगता है । मेरी बात मेरे मुंह मं ही रह गइ । नानी की रोबदार अवाज तो थी ही, पर नाराज़गी मं ईसमं से कु छ और ISSN –2347-8764

ही स्वर णनकलते थे । कु छ और सुनूं आससे पहले हुक्का ईठाकर हौदी की ओर चल पड़ी । पुराना पानी णगराया, ताजा पानी भरा, टोपी को ईं डेलकर राख णनकाली, फफर ऄंगार डालने के णलए रसोइ घर मं गइ । कमली ने अंखं ईठाकर मेरी ओर देखा-लगा वह बहुत ही णनबवल हो गइ थी..शायद काम का बोझ ईससे ईठाया नहं जा रहा था, और उपर से आन वज़नदार शब्दं की बौछार! कमली मेरी हम ईम्र थी, नानी की नाणतन मं भी थी, और वह भी । पर फकव था । मं सेज पर सोती, वह मेहनतकशी की चक्की मं णपसती रहती । मं पढ़ाइ के णलए स्कू ल जाती, वह रसोइघर का काम संभालती । ऄपनी पीठ पर मेरे हाथ का स्पशव महसूस करके ईसकी अँखं गीली हो गइ । लगा पुराने ज़ख्मं से कु छ टरस रहा हो । पर वह चुप थी । खामोशी भी फकतनी ऄजीब होती है । ऄपनी ही भाषा मं फकतनी दास्ताने एक ही बार मं बोल जाती है । हां यह और बात है, फक कोइ समझे, कोइ ना समझे, कोइ महसूस करं , कोइ ना करे । ‘कमली तुम बतवन मांज कर रखती जाओ, मं धोती जाती हूँ । आस तरह काम जल्दी ख़त्म होगा । फफर तुम जाकर थोड़ा अराम कर लेना । ‘नहं बीबी, मं कर लूंगी। अप नानी का हुक्का भर दीणजये....।’ और ईसकी नाक की सूं ...सूं...ने बहुत कु छ बहने से रोक णलया!’ आतना तो मेरे बाल मन ने जान णलया था । मंने हुक्का लाकर नानी की खाट पर रख फदया और ऄपने कमरे की ओर जाने के णलए कदम बढ़ाया ही था फक सामने नानू जान अँगन मं अते हुए फदखाइ फदए । ‘सलाम नानू जान,,!’ मंने भागकर ऄपनी बाहं ईनके आदव णगदव लपेटते हुए कहा । ‘सलाम बेटा, खुश रहो! कहो पढ़ाइ ठीक-ठाक चल रही है ना?’ नानू ने मेरे सर पर हाथ फे रते हुए पूछा ।

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‘हाँ नानू, णबलकु ल ठीक चल रही है ।’ कहकर मं चलने लगी, पर मेरे पाँव रुक गए। ‘लड़फकयं को पढ़ाना बेकार है । फदमाग खराब हो जाता है ईनका……’ नानी ने एक बड़ा कश लेते हुए णबन मांगी ऄपनी राय सामने रखी । ‘क्यं न पढ़ं? ज़माना भी तो बदला है फक नहं? मं तो कहता हूँ फक कमली को भी आसके स्कू ल मं दाणखल करवा दो । दोनं का साथ भी हो जायेगा और पढ़ाइ भी ।’ ‘ऄब चुप भी करो, ज्यादा फदमाग खराब मत करो ईसका । वह भी पढ़ेगी तो घर का काम कौन संभालेगा? मं तो बोल कर फं स गइ ।’ और नानी की बद्बदाहट मेरे कानं तक रं गती हुइ पहुंची, णजसमं कु छ कड़वे, कु छ कसैले शब्द थे जो णपघले डामर की तरह मेरे कानं मं तैरते रहे । ‘ऄब बात को अगे मत बढ़ाओ !’ नानू ने ऄपने कमरे की ओर रुख करते हुए कहा। ‘कमतर जात के लोग हं…. फकतना भी भला करो भुला देते हं. ज़माना ही बदल गया है । न वे लोग रहे हं, न ही वह खुशबू बाकी रही है फकसी मं ।’ ‘ऄरी भाग्यवान ऄब घड़ी पल चुप भी हो जाओ. णबचारी दोनं लड़फकयां क्या कु छ नहं करतं? तुम्हारी हर फरमाआश तो पूरी करती हं, पल दो पल देरी तो हो ही जाती है । तुमने तो ईम्र काटी है, आनके सामने तो पूरी सिजदगी पड़ी है । मुझे तुम्हारी ये बातं णबल्कु ल नहं भाती, और न ही तुम्हं ऐसा करना शोभा देता है । ‘नहं ऄच्छी लगती तो……!' ऄभी नानी की बात पूरी भी नहं हुइ थी फक नानू ने रोबदार अवाज मं कहा-’ऄपने ही घर मं अदमी कु छ पल सुकून के बैठे, ऐसा तो मौसम ही नहं रहा। काम से लौटकर घर अओ तो घर-घर लगना चाणहए। यहां तो हरदम तुम्हारी णशकायतं की दुकान खुली रहती है!’ ‘हां हां ऄब यह मेरी दुकान हो गइ, और वह तुम्हारी...यही कहना चाहते हो न?’ ‘ऄब बस भी करो। मं जाकर लेट रहा हूँ!’ ‘खाना तो खालो। क्या यूं ही भूखे पेट लेट जाओगे?.....‘कमली, ऄरी ओ कमली ऄपने ISSN –2347-8764

नानू को खाना तो देना, जल्दी हाथ पाँव चला।’ नानी की बुलंद अवाज़ सुनने मं अइ । ‘जी अइ नानी, ऄभी अइ । तवे से रोटी ईतार कर लाती हूँ।’ मं आतनी बड़ी तो न थी, पर न जाने क्यं नानी की तंज़ भरी अवाज़ मं कही बातं मेरे भीतर तीर सामान चुभ जातं। ऄमीरी गरीबी की दीवार नाज़ुक नहं, ईंटं से भी ज्यादा मज़बूत होती है। लाराकाणे मं ज़मीनदारी थी, बड़ी हवेली थी, बग्गी थी, चार चार दाणसयां फदन रात ईनके अगे पीछे फफरा करतं। एक फदन भर घर की सफाइ करती, णबस्तर णबछाती, कपड़े धोती, ईन्द्हं सुखाकर आस्त्री करके रख देती। दूसरी चाय पानी नाश्ता, दो समय के खाने का पूरी व्यवस्था करती। तीसरी घर की ज़रुरतं के हर चीज़ को बाज़ार से ले अती और समूचे घर की देखभाल करती। और चौथी यह ‘कमली’ जो दस साल की ईम्र से नानी की सेवा मं लगी हुइ है- नानी की हर अवाज पर हाणज़र हो जाती, फफर चाहे फकसी भी समय, फकसी भी चीज़ की मांग हो। ‘ऄरे मेरी चप्पल तो ले अना, देख मंने कं घी कहां रख दी?, ऄरे चश्मा ज़रा साफ कर दे, एक कप चाय बनाकर णपला..! आस तरह के छोटे-मोटे काम कमली की णजम्मेवारी थी। लगभग मेरी ईम्र की, पर सिसध मं भी मं स्कू ल जाती और वह नानी की चाकरी मं व्यस्त रहती। सबसे बड़ा काम था नानी का हुक्का जो फदन मं दो-तीन बार भरकर नानी के सामने रखना पड़ता। यह लत घर मं नानी के णसवाय फकसी को न थी। नानू बीड़ी पीते थे, और मेरे णपताजी शराब….! बाकी सब साफ़ सुथरी सिज़दगी व्यतीत करने मं प्रयासरत रहते । अणखर मौसम बदला। बहारं मं णखज़ां अने के असार बढ़ने लगे। हलचल बढ़ी, दंगे हुए, मारपीट हुइ, जुल्म ऄत्याचार की तणपश नानू को लपेट ले, आससे पहले नानू ऄपनी आज्जत बचाने के णलए समस्त पटरवार को फकसी मुसलमान दोस्त की मदद से पोरबंदर की ओर रवाना करने मं जुट गए । सिहदुस्तान मं भी ईनके रहने खाने -पीने का इं तजाम कर ददया। नानू-नानी णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

अए, और साथ मेरे णपता, मं और कमली भी अइ। मेरी मां के णलए नानी कहती है-’ तेरी वजह से तेरी मां को ऄपनी सिजदगी से हाथ धोना पड़ा। न तुम पैदा होती, न वो मरती। हाय हाय मेरी मूमल रानी’ कहकर छाती पीटते हुए वह ऄपने बेटी का मातम मनाती थी । कमणसन को ऄपने साथ सिसध से स्थानांतरण के समय नानी ने ईसकी पहचान देते कहा था- ‘यह मेरी नाणतन है कमली । दो साल की हुइ मां मर गइ। ऄब मं ही आसकी मां भी हूँ और नानी भी।’ कहते हुए दुपट्टे से अंखं पोछते नानी कमली का हाथ पकड़ते हुए, लाठी की ठक ठक के साथ, गाड़ी के आं तजार मं खड़ी भीड़ के बीचो-बीच लापरवाही से ऄपना रास्ता बना लेती। यह हुनर कोइ नानी से सीखं। पराए को ऄपना करना, और ऄपने को पराया करना। मं सोचती रही, मां मुझे जन्द्म देकर मर गइ। कमली तो वहां की मुसलमान यतीम थी णजसने नाना की पनाह पाकर नानी की सेवादारी के णलए घर मं ऄपनी जगह बना ली । मेरी मां तो ईसकी एक ही बेटी थी जो मुझे जन्द्म देकर आस जहाँ से चली गइ। यह कौन सी बेटी हुइ जो कमली ईनकी नाणतन बन गइ। सोचती रही, पर फकसी सवाल का माकू ल जवाब पाने मं नाकाम रही। खैर, सिसध छोड़कर णहन्द्द मं अ बसे। घर बसा, दुकानदारी शुरू हुइ और मेरी फफर से स्कू ल मं दाणखला हो गइ। कमली को घर के काम की, नानी की सेवा की संपण ू व जवाबदारी ईठानी पड़ी। ऄपनी सेवाएं देते देते वह वक्त और माहौल के मुताणबक कभी कमली, तो कभी कमणसन बन जाती, कभी सिहदू तो कभी मुसलमान! वक़्त के चेहरे भी नकाब बदलते हं। और ऄचानक एक फदन मेरे बाबा भी हाटव ऄटैक मं ग्रस्त होकर चल बसे। नानू आन्द्तहा तन्द्हा हो गए। हुइ तो नानी भी, पर ऄपनी अवाज़ मं खणलश भरकर बात करने मं वह बहुत कु छ छु पा करतं। पटसन की खाट पर लेटी नानी की टांगं पर कमली के हाथ देर तक चलते रहे, कभी उपर की ओर, कभी नीचे की ओर घूमते

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हुए देह को सुकून देते रहे. नानी का मन जाने क्यं अज णबना मां बाप की बच्ची के णलए दुखी होने लगा। ऄपनी बेटी के साथ साथ ईसकी मां नगीना भी याद अ गइ जो ईनके घर मं पनाह लेकर, ऄंत तक णनभा गइ । भगवान के रहस्य मं कब कौन झाँक पाया है। दोनं हमजोली, हम ईम्र, ऄपनी ऄपनी बेटटयं को ऄमानत के तौर ईसकी गोद मं छोड़ गईं ... और पल भी नहं लगा सोचने मं फक नानी ने ईनको अगोश मं भरकर गले लगा णलया। पर बुरा हो आस णवभाजन का णजसने धरती के साथ फदलं के भी टु कड़े टु कड़े कर फदए। सिहदू और मुसलमान एक दूसरे के बैरी बन गए। सच तो यह है फक नानी का मन भी यहां और वहां की यादं के बीच मं झूलता रहा। नानी के ऄपने टरश्तेदार, भाइ, बहन ने आस दरबदर होने के दौर मं बंट गए। कु छ यहां अए, कु छ वहं रह गए।

कणवता

ममता की छाती पर दरारं पड़ गईं। बस एक ऄपनी नाणतन और एक न ऄपनी, न पराइ नगीना की बेटी कमणसन, ईन्द्हं संभालते संभालते ऄब नानी थक गइ थी। ईसने भी बहुत कु छ खोया था, बाकी टरश्तो की माला मं बचे थे चार मोती, नानू, नानी मं और कमली। नानी सोच की गणलयं से होती हुइ ऄपनी पटसन वाली खाट पर लेटी लेटी, कमली की हाथं के दबाव् का अनंद लेती रही। ‘नानी, गमी लगती हो तो पंखा झुलाउं। गरम हवा भी तो बहुत है।’ – मासूम बच्ची के स्नेह भरे अवाज़ मं न जाने क्या था फक नानी का ह्रदय करुणा से भर गया। ऄपनी टांग खंचते हुए, खाट पर ईठ बैठी और प्यार से कमली के माथे पर हाथ फे रते हुए कहा-’ कमली ऄब तू भी देवकी के कमरे मं जाकर अराम कर। सारा फदन काम करती रहती है. मेरी बातं को फदल से

वामा

लघुकथा

न लगाया कर। बूढ़ी हो गइ हूँ, बड़बड़ की बीमारी हो गइ है। अज से तू कमणसन नहं, बस कमली है, मेरी कमली है!’ ‘नानी ....!’ कहकर वह नानी के ममतामइ गोद मं समा गइ। ‘कल ही तेरे नानू से कहकर देवकी के स्कू ल मं तेरा भी दाणखला करवाती हूँ। तू भी ईसके साथ रहकर पढ़-णलख लेना।’ और दादी की अंख से दो मोती लुढ़ककर छलके । एक देवकी के णलए, एक कमली के णलए ! ~✽ ~ संपकव 9-डी, कानवर व्यू सोसाआटी, 15/33 रोड, बांरा, मुम्बइ 400050 ~✽ ~

ऄनपढ़ माँ

अरती णतवारी ऄणमत वाघेला 'काफ़ी' ईसने नही पहनी बेणड़याँ गजरं और लच्छं की सोने चाँदी से मढ़ी हथकणड़यं से भी मुक्त रही ईम्र भर साधारण णस्त्रयं के वैभव प्रदशवन दिकणचत भी णवचणलत नही कर सके ईसके हौसलं की बेलौस ईड़ानं कु णत्सत आरादे और कु टटल चालं, प्रशंसा की चाशनी मं लपेट कर परोसे गए छल ईसे और मज़बूत करते तुम्हारे हताश करते,हर कदम के मुक़ाबले ईसने कभी नही डाले साहस के हणथयार रक्त मं लोहे की कमी होते भी लेती रही लोहा तुम्हारे लश्कर से और पतझड़ मं भी णखली रही स्वगव पुष्प णशरोइ सी ~✽ ~ ISSN –2347-8764

रात के करीब 8:30 बज चूके थे। धीमी-धीमी बरसात की बूंदे णगर रही थी। रात की रौशनी के पीछे -पीछे मं और मेरे कु छ दोस्त शहर की गरीबं की झुणग्गयं मं बच्चं के णलए फू ड पेकेट णवतरण के णलए अ पहुँचे थे । पास अके देखा...कोइ सब्जी वाला ठे ले पर सो रहा था। कोइ ऄपने पटरवार के साथ बातचीत कर रहा था तो कोइ ऄपने बच्चं को सुलाने की कोणशश कर रहा था। ईसी बीच हमने फू ड पेकेट णवतरण करना शुरू फकया। मगर बच्चं की फू ड पेकेट पाने फक भूख को देखकर मुझे बहुत ऄजीब सा लगा। जैसे फक कइ फदनं के बाद अज वो भूख से रूबरू णमल रहे हो। ईसी माहौल को लेकर मेरे फदल मं तब कइ सवालं का तूफान ईठ चूका था । फू ड पेकेट बाँटकर जब हम वहाँ से णनकल रहे थं तभी एक बच्चं की माँ कु छ बोली पर मुझे सुनाइ नहं फदया। मं ईस माँ के पास गया और पूछा : "माताजी, ऄभी अपने कु छ कहा?" ईस ऄनपढ़ माँ ने हँसतं हुए कहाँ; "साहब ! यं ऄमीर के घरमं पलं बच्चं नहं हे, यं झुणग्गयं के बच्चं है! अपके जाने के बाद यं खाना ऄपने पटरवार मं अपस मं बाँटकर ही खायंगे।" बस... ऄनपढ़ माँ के ईत्तरने मुझे काफ़ी कु छ सीखा फदया। ~✽ ~

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कहानी

थोड़े से संस्कार मधु शमाव कटटहा गटरमा की ऄपनी माँ से ‘संस्कार’ शब्द को लेकर ऄक्सर बहस हो जाती थी। यूँ तो गटरमा माताणपता की आकलौती और चहेती संतान थी, पढ़ने-णलखने मं भी हमेशा अगे रहती थी। एम.टैक पूरी होते ही नौकरी णमल गयी थी ईसे। हर बात मानती थी वह ऄपनी माँ सुधा और णपता फदवाकर की। लेफकन ईसके फदमाग से यह बात वे नहं णनकाल पा रहे थे फक संस्कार फकसी प्रकार की बेणड़यं का नाम नहं, बणल्क ऄपने को बेहतर बनाने के णनयमं का नाम है। ईसे लगता था फक समाज के कु छ लोग जो ऄभी तक स्वयं को सामाणजक कु रीणतयं से ऄलग नहं कर पाए, वे ही संस्कारी होने का ढंग करते हं और संस्कार के नाम पर ऄपने बच्चं को भी स्वतंि जीवन-यापन नहं करने दे रहे। सुधा लाख समझाती फक ऄपने व्यवहार मं प्रेम-भाव व सद्भावना रखकर दूसरे के प्रणत ऄच्छा व्यवहार करने मं कु छ बुरा नहं हैऐसी कु छ बातं ही तो संस्कार है। पर गटरमा को संस्कार गुलामी,एवं पािात्य संस्कृ णत से प्रेटरत होकर फकया गया व्यवहार ही अज़ादी का पयावय लगता था। सुधा स्वयं एक अधुणनक णवचारं की मणहला थी। रूफढ़वाफदता और ऄंधणवश्वास से कोसं दूर रहती थी वह। पर संस्कार ईसे णवरासत मं णमले थे। सुधाकर से प्रेम तथा णवजातीय णववाह करके भी ‘सास-ससुर की णप्रय बहू’ कहलाने का गौरव ईसे ईन संस्कारं के कारण ही णमला था। ईस फदन सुधा की ऄमेटरका मं रह रही सहेली रे खा ने फ़ोन फकया। ईसकी पहचान का लड़का, टरतेश भारत फकसी काम से अ रहा था। णपछले साल रे खा भी आं णडया अइ थी। ईसे गटरमा बेहद पसंद थी। वह चाहती थी फक गटरमा टरतेश से णमल ले और यह टरश्ता पक्का हो जाए। सुधा ने जब गटरमा को आस णवषय मं बताया तो वह टरतेश से णमलने को तुरंत ही तैयार हो गइ। रइस घर के णवदेश मं बसे नवयुवक से टरश्ता जोड़ने मं गटरमा को भला क्या परे शानी थी? णनणित फदन टरतेश आं णडया अ गया। सुधा के कइ बार कहने पर भी वह ईनके घर न अकर होटल मं ही रुका। ऄगले फदन गटरमा ऄणत ईत्साणहत होकर ईससे णमलने चल दी। होटल की चकाचंध गटरमा के ईत्साह को और भी बढ़ा रही रही थी। टरतेश के कमरे मं पहुँचकर जब गटरमा ईससे णमली तो ईसका ईत्साह कु छ कम ISSN –2347-8764

होने लगा। टरतेश ऄभी-ऄभी सो कर ईठा था। गटरमा को ऄके ला ही बैठाकर वह नहाने चल फदया। ईसे तैयार होने मं लगभग एक घंटा लगा। तब तक गटरमा को ज़बरदस्ती टी.वी. देखना पड़ा। नहाने के बाद ही टरतेश ने कमरे मं चाय मँगवाइ। फफर दोनं के बीच बातचीत का णसलणसला शुरू हुअ। जब तक गटरमा ईसके पास रही ईसे आं णडया की खाणमयाँ और यू.एस.ए. की तारीफ़ ही सुनाइ दी- टरतेश के मुँह से। वह गटरमा की हर बात काट रहा थावो भी मज़ाक बनाते हुए। बात-बात पर ईसका भारत को एक गरीब देश कहना गटरमा को बहुत ऄखर रहा था। वाणपस अते समय गटरमा ने ईसे ऄगले फदन घर अने का न्द्योता फदया, पर टरतेश ने यह कहकर मना कर फदया फक वह ऄपने माता-णपता और ईनकी णमि-मंडली से दूर ही रहता है, क्यंफक वे लोग बात-बात पर ईपदेश देने लगते हं णजससे वह फ़्री फील नहं कर पाता। वह चाहता था फक गटरमा ऄगले फदन वहं ईससे णमलने अ जाए। “फ़ोन पर बता दूँगी“ कहकर गटरमा वाणपस चल दी वहाँ से। गटरमा घर पहुँची तो वहाँ कोइ नहं था। सुधा को ईम्मीद थी फक गटरमा शाम तक वाणपस अएगी, ऄतः ईसने मॉल जाने का कायवक्रम बना णलया था। गटरमा का ऄके ले घर मं णबलकु ल भी मन नहं लग रहा था। टरतेश की बातं रह-रह कर ईसके फदल मं शूल सी चुभ रहं थं। ऄपने मूड को ठीक करने के ईद्दोेश्य से ईसने रणत के घर जाने का णनणवय फकया। रणत ईसके स्कू ल की सहेली थी। कु छ माह पूवव ही ऄपनी पसंद का णववाह फकया था ईसने रूपेश के साथ। रणत के णपता नवीन एक व्यापारी थे, धन की कोइ कमी न थी ईन्द्ह।ं घर मं रणत के ऄलावा के वल हाथ-पैरं से लाचार बेटा मोहन था। पत्नी को गुज़रे बरसं बीत गए थे। रणत ऄपने पापा के साथ णमलकर बहुत प्यार से देख-भाल करती थी छोटे भाइ की। रूपेश से शादी को लेकर नवीन ने मुणश्कल से हाँ की थी। रूपेश एक प्राआवेट कं पनी मं क्लकव के पद पर कायव करता था। फकन्द्तु णववाह के णलए नवीन का ऄसमंजस मं होना ईसकी नौकरी नहं था। वे ईसके व्यवहार से संतुि नहं हो पा रहे थे। फकसी भी समय रणत से णमलने ईसके घर चले अना तथा मोहन को ऄनदेखा कर देना-जैसी बातं नवीन को बहुत ऄखरतं थं। रूपेश के माता-णपता यद्यणप आसी शहर मं थे, फफर भी वह ऄके ला ही रह रहा था। नवीन की आच्छा थी फक रूपेश के णवषय मं ठीक से पता कर णलया जाए, फकन्द्तु रणत अश्वस्त थी रूपेश के प्रणत...शादी के छह मास बीत जाने के बाद भी कोइ णशकायत नहं हुइ रणत को

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ईससे। रणत का घर पहली मंणज़ल पर था। ईसके घर के नीचे पहुँचकर गटरमा ईसके घर की सीफढ़याँ चढ़ ही रही थी फक ईसे रणत के रोने की अवाज़ सुनाइ दी। बंद दरवाज़े के पास पहुँचकर वह चुपचाप खड़ी हो गइ। रणत के रोने की अवाज़ लगातार अ रही थी। तभी रूपेश की गुस्से मं भरी ककव श अवाज़ सुनाइ दी, ”मुझे क्या पता था फक तुम्हारा बाप सारी दौलत ऄपाणहज के आलाज मं ईड़ा देगा।“ “लेफकन कोणशश तो करं गे ही न पापा और फफर ईनका पैसा है, कु छ भी करं पापा, अप क्यं नाराज़ होते हं?“ रोते हुए रणत कह रही थी। “ईनका पैसा? क्या मतलब? क्या मेरा कोइ हक नहं है वहाँ? और फफर मं दामाद हूँ वहाँ का....मेरी यही आज्ज़त है क्या? जब मना कर रहा हूँ फक आलाज के णलए आटली नहं जाना तो वो कै से णहम्मत कर सकते हं ? देखते नहं फक ईनकी बेटी और दामाद फकराए के घर मं रह रहे हं।“ रूपेश गरजता हुअ बोला। “बस कीणजये...अप कहते थे फक मोहन की णजम्मेवारी हमारी है और ऄब आलाज के णलए भी जाने नहं देना चाहते।“ रुँ धे गले से रणत बोली। “चुप......” रूपेश की तेज़ अवाज़ के साथ बहुत ज़ोर से कु छ णगरने की अवाज़ अइ और सब शांत हो गया। गटरमा ईल्टे पाँव दौड़ पड़ी वहाँ से। पसीना -पसीना होते हुई वह घर पहुँची। उसे कु छ नहं सूझ रहा था। घर पहुँचकर भी चैन नहं णमल रहा था। “ये सब क्या था? रणत ने कभी क्यं नहं बताया रूपेश के बारे मं? क्या हुअ होगा वहाँ? क्या कोइ ऄनहोनी....?” गटरमा सोच-सोच कर परे शान थी। “पुणलस को फ़ोन करूँ?....पर आससे रणत नाराज़ हो गइ तो?” आसी ईधेड़ बुन मं काफ़ी समय बीत गया। आसी बीच रणत के पापा का फ़ोन अया। ईन्द्होने बताया फक रणत ऄपने घर मं फफसलकर णगर गइ है, णसर मं चोट लगी है। रूपेश की प्रशंसा करते हुए वे बोले फक यह ख़बर णमलते ही रूपेश ऑफफस का ज़रूरी काम छोड़कर दौड़ा-दौड़ा अया और ऄस्पताल मं भती करवाया है ईसने रणत को। गटरमा यह सुनकर गुस्से से लाल-पीली हो ISSN –2347-8764

रही थी। कु छ देर बाद सुधा अ गइ । दोनं णमलकर ऄस्पताल गए। रणत भी ऄपने फफसलकर णगरने की कहानी दोहरा रही थी। गटरमा व सुधा समझ नहं पा रहं थी फक नवीन को सच्चाइ बताइ जाए या नहं। वे ज़्यादा देर तक वहाँ रुक न सकं और थोड़ी देर बाद घर लौट अईं। गटरमा घर अकर एक ऄजीब से ईधेड़ बुन मं थी। सुधा को ईसने टरतेश से होटल मं हुइ मुलाक़ात के णवषय मं सब बातं बताईं और साफ़ कह फदया फक वह ईससे टरश्ता जोड़ने को आच्छु क नहं है। बहुत देर तक सोचने के बाद ईसने सुधा से कहा फक वह एक बार सौरभ से णमलना चाहती है। सौरभ पेशे से वकील था और एक जज बनना चाहता था। सुधा और फदवाकर कु छ फदन पहले ईससे णमलने गए थे। ईन्द्हं वह बहुत पसंद अया था और ईसका पटरवार भी ऄच्छा लगा था। पर गटरमा ईससे णमलने मं अनाकानी कर रही थी, क्यंफक वह एक संस्कारी पटरवार से था और गटरमा ऐसे बंधनं से कोसं दूर भागना चाहती थी। पर अज ऄचानक गटरमा ने सौरभ से णमलने की आच्छा जताइ। सुधा ने फ़ोन करके ऄगले फदन का समय तय कर णलया। णनणित समय पर सौरभ ईनके घर अ गया। कु छ देर की पहचान के बाद ही गटरमा और वह एक-दूसरे से घुलणमल गए। सौरभ की बातं मं एक समझदारी झलक रही थी। वह गटरमा की राय हर बात मं ले रहा था, णजससे गटरमा सम्माणनत महसूस कर रही थी। गटरमा ने पहले ही सोचा हुअ था फक वह सौरभ से रणत के णवषय मं बात करे गी। ऄब वह पूरे ऄणधकार से खुलकर ऄपने मन की बात सौरभ से कह पाइ। सौरभ ने भांप णलया फक रणत रूपेश से डर कर झूठ बोल रही है। ईसने गटरमा को णवश्वास फदलाया फक वह रणत का मामला सुलझाने मं गटरमा की पूरी मदद करे गा। गटरमा के साथ काफ़ी समय णबताने के बाद सौरभ ऄपने घर चला गया। वाणपस घर पहुँचकर भी ईसने गटरमा को फ़ोन फकया और रणत को लेकर णनसि​ित रहने को कहा। सौरभ ऄगले ही फदन गटरमा के साथ रणत और रूपेश से णमला। जब गटरमा रणत के साथ बातं करने मं व्यस्त थी तो सौरभ ने णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

ऄके ले मं रूपेश से बातचीत की। बातं ही बातं मं ईसे पता लग गया फक रूपेश की समस्या ऄपने घर से जुड़ी हुइ है। ईसने गुस्से मं अकर एक फदन ऄपना घर छोड़ फदया था और फफर लौटकर वहाँ नहं गया। पहले तो माता-णपता ईसे वाणपस अने के णलए कहते रहे पर ईसकी शादी हो जाने के बाद ईन लोगं ने भी बुलाना बंद कर फदया ईसे। गटरमा से नवीन के घर का पता पूछकर सौरभ ईसके घर णमलने पहुँच गया। नवीन ईससे णमलकर बहुत खुश हुअ। काफ़ी देर सलाह-मशवरा करके वे दोनं रुपेश के माता-णपता से णमलने ईनके घर जा पहुँचे। रूपेश के माता-णपता ऄब तक यही सोच रहे थे फक रणत रूपेश को ऄपने घर मं रखना चाहती है, आसणलए ही वे ईसे वाणपस घर लौटने को नहं कह रहे थे। नवीन से णमलकर ईनकी शंका दूर हुइ और ईन्द्होने रणत और सौरभ को सादर घर लाने का णनणवय फकया। रणत ऄस्पताल से छु ट्टी णमलने पर सीधा ऄपने ससुराल गइ। रूपेश और ईसके घरवालं को जैसे मुँहमाँगी मुराद णमल गइ हो। ऄपनी माँ से गले णमलकर रूपेश फू ट-फू ट कर रो पड़ा। ईसके ऄंदर की मानणसक पीड़ा अँसुओं मं कहं बह गइ। रणत को ईसके बाद रूपेश का एक सौम्य रूप देखने को णमला। गटरमा के मन मं सौरभ के प्रणत लगाव बढ़ रहा था। सौरभ की णमिता के छाया मं वह स्वयं को सुरणित महसूस कर रही थी। वह जान गइ थी फक धन के तराजू मं फकसी को भी तोला नहं जा सकता, चाहे वह टरतेश हो,रूपेश ऄथवा सौरभ। ऄच्छे संस्कार ही व्यणक्त को ऄच्छा बनाते हं। संस्कार ही वे गुण हं जो व्यणक्त के मन के भीतर पटरवार की सहायता से पनपते हं और फफर वह व्यणक्त स्वयं वृि के समान फल-फू लकर सबको छाया प्रदान करता है। गटरमा को संस्कार ऄब बेड़ी नहं बणल्क ऄच्छे कमं तक पहुँचने की सीढ़ी लगने लगे थे। सौरभ को ऄब वह जीवन-साथी के रूप मं पाना चाहती थी। गटरमा को ऄब ऄपनी स्वतन्द्िता मं थोड़े से संस्कार सणम्मणलत करने मं कोइ अपणत्त नहं थी। ~✽~ E-502, Central Govt. Residential Complex, Deen Dayal Upadhyay Marg, New Delhi- 110002

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संस्मरण—ऄनुवाद

गुरुदयाल सिसह

ईदास शामं का सूरज हरसिजदर सिसह सूरेवाणलया (पंजाबी कथाकार) ऄनुवाद : सुभाष नीरव 10 जनवरी 1933 को जैतो (पंजाब) के एक गांव मं जन्द्मे गुरदयाल सिसह जी ने 1957 मं ऄपनी कहानी ‘भागांवाले’ से ऄपना साणहणत्यक जीवन प्रारं भ फकया। बेहद सहज-सरल और मृदभ ु ाषी स्वभाव के आस लेखक ने ऄपने ईपन्द्यासं से पंजाबी साणहत्य मं एक ऄलग पहचान बनायी। 1964 मं णलखा आनका णलखा ईपन्द्यास ‘मढ़ी का दीवा’ एक क्लाणसक ईपन्द्यास माना गया णजस पर 1989 मं फफल्म भी बनी। आसके ऄणतटरक्त ‘ऄनहोये’ ‘रे त दी आक मुट्ठी’, ‘कु वेला’, ‘ऄध चाननी रात’, ‘ऄन्द्हे घोड़े दा दान’, ‘पौ फु टाले तं पणहलां’ तथा ‘परसा’ भी ईल्लेखनीय ईपन्द्यास हं। 12 कहानी संग्रह णजनमं ‘सग्गी फु ल्ल’, ‘कु त्ता ते अदमी’, ‘बेगाना सिपड’ और ‘करीर दी ढंगरी’, ‘धान दा बूटा’, ‘ओपरा घर’, ‘मस्ती बोटा’, ‘पक्का टठकाना’ के ऄलावा आन्द्हंने नाटक भी णलखे हं और बच्चं के णलए भी लेखन फकया है। साणहत्य ऄकादमी ऄवाडव, ज्ञानपीठ ऄवाडव, सोणवयत लंड नेहरू ऄवाडव, भाइ वीर सिसह फफकन ऄवाडव अफद ऄनेक राष्ट्रीय-ऄंतरावष्ट्रीय सम्मानं, पुरस्कारं से सम्माणनत आस महान पंजाबी लेखक का णनधन गत वषव 16 ऄगस्त 2016 मं हुअ। आस महान शणख़्सयत को याद करते हुए पंजाबी कथाकार हरसिजदर सिसह सूरेवाणलया का णलखा संस्मरण ऄपने पाठकं के णलए प्रस्तुत कर रहे हं णजसका णहन्द्दी ऄनुवाद कथाकार सुभाष नीरव ने फकया है। -संपादक 2 जनवरी 2016 को कहानीकार ज़ोरा सिसह संधू और मं

फकसी सामाणजक समारोह मं शाणमल होने के णलए जैतो के करीब ऐणतहाणसक गुरुद्वारे की ढाब गये। वहाँ से फु रसत पाकर हम सोच मं पड़ गये फक ऄब फकधर जाया जाये। “चलो, गुरदयाल सिसह से णमलकर अते हं।“ ज़ोरा सिसह संधू ने कहा और जेब मं से मोबाआल णनकाल णलया। “ठीक है, कइ बरस से तो मं भी नहं णमला। फोन करने की क्या ज़रूरत है ? वे घर ही हंगे।“ मंने कहा और कार जैतो की ओर मोड़ ली। “नहं यार, फोन पर आजाज़त लेकर ही चलते हं। मं तो हमेशा पहले पूछकर ही जाता हूँ। बड़ा अदमी है, आजाज़त लेकर ही जाना चाणहए।“ और वह फोन णमलाने लगे। बड़ा अदमी है ? हमारे तो फदमाग मं यह बात कभी अयी ही नहं। फोन करने बाद संधू साहब णनराश स्वर मं बोले, “प्रो. साहब हं तो घर पर ही, पर हमसे णमल नहं सकते। ईनके मेहमान अये हुए हं।“ हम तो सैकड़ं बार ईनके घर गये, कभी आजाज़त लेकर नहं गये और न ही णबना णमले वापस अये थे। मोबाआल फोन तो तब होते ही नहं थे। दुणनया फकतनी बदल गयी। 1982 से साणहत्य सभा, जैतो के साथ जुड़ा हुअ हूँ। साणहत्य सभा जो कभी गुरदयाल सिसह और पंजाबी कथाकार गुरबचन सिसह भुल्लर ने णमलकर बनायी थी। जैतो के बस ISSN –2347-8764

ऄड्डे के साथ बने पाकव मं हम घास पर बैठकर बैठकं करते, रचनायं पढ़ते, फकसी करीबी ढाबे से लेकर चाय पीते और बसं पकड़कर ऄपने ऄपने घरं को लौट जाते। ईन बैठकं मं कभी कभी जनाब दीपक जैतोइ भी अ जाते थे और ऄपने चेलं की ग़ज़लं को दुरुस्त फकया करते थे। प्रो. गुरदयाल सिसह फकसी णवशेष समारोह की ऄध्यिता करने ही अते थे। हम प्रायः ईनसे णमलने ईनके घर चले जाते। प्रो. गुरदयाल सिसह का घर रकबे के णहसाब से छोटी, परं तु ऐणतहाणसक दृणि से बड़े जैतो की मशहूर मंडी मं ईन चैड़ी और खुली गणलयं मं णस्थत है जो एक-दूजे को नब्बे के कोण पर काटती हं। घरं के अगे बने पक्के चबूतरं पर णनठल्ली औरतं सारा फदन बैठी बणतयाती नज़र अती हं। जैतो मंडी के नाम से पंजाब का बच्चा-बच्चा पटरणचत है। फकसी समय गांव मं लाईड-स्पीकरं पर बजने वाले गीतं और रे णडयो

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स्टेशन जालंधर से प्रसाटरत होते दीपक जैतोइ के गीतं मं ‘जैतो’ का नाम बोलता था। यहाँ लगने वाली पशुओं की मंडी भी पंजाब मं प्रणसि थी। मंडी मं पशु बेचने अये फकसान ऄपनी बाखड़ी गायं तथा ईनके बछड़ं को यहाँ छोड़ जाते थे जो मंडी की णस्त्रयं से अटे के पेड़ं का लुत्फ़ लेती गणलयं मं अवारा घूमती रहती थं। जट्टं द्वारा दुत्कारी आस तरह की चार-पाँच गायंबणछयाँ प्रो. साणहब की गली मं भी मौजूद रहती थं। कु छ साल पहले साणहणत्यक ऄणभरूणच रखने वाले एक ए.डी.सी. ने पशु मंडी के नज़दीक की आस गली के शुरू मं ‘ज्ञानपीठ मागव’ की तख्ती लगवा दी। मजे की बात यह है फक गुरदयाल सिसह के दरवाज़े पर अज भी ईनके नाम की कोइ तख्ती नहं फदखानी देती। आस ज्ञानपीठ मागव के ऄणधकांश णनवासी मारवाड़ी बणनये हं णजन्द्हं यह भी नहं पता फक ईनकी गली मं कोइ महान लेखक भी रहता है। एक बार दूरदशवन वाले जब प्रोफे सर साणहब पर फफल्म बनाने अये थे तो ईन्द्हंने एक घर के अगे बने चबूतरे पर बैठे मदव-औरतं से गुरदयाल सिसह के बारे मं पूछ णलया। वे सारे एक-दूजे का मुँह ताकने लगे। “कौन सो गुरदयाल सिसह ?“ और फफर एक अदमी कु छ सोचकर बोला, “ऄरे , वही सुकड़ू सा मास्टर ?“ साणहत्य सभा की मीरिटग के बाद हम चंदा लेने वालं की तरह चार-पाँच लोग प्रो. गुरदयाल सिसह के द्वार पर जा खड़े होते। हरदम मान के एक हाथ मं सभा की कारव वाइ वाला रणजस्टर होता और दूसरे हाथ से वह घंटी का बटन दबाता। दरवाज़ा खोलने वाली स्त्री मुस्कराकर णसर नवाती और एक तरफ हट जाती ताफक हम ऄंदर अकर सीफढ़याँ चढ़कर उपर जा सकं । प्रो. गुरदयाल सिसह का मकान पुराना, असपास के बाकी घरं से छोटा और दो मंणज़ला है। आसे नया रूप देने वाले फकरपाल कज़ाक (पंजाबी कथाकार) की भवन कला पर हैरान होते हम सीफढ़याँ चढ़कर प्रो. साणहब के कमरे मं प्रवेश करते। ऄपने बैड पर पड़े वह कोइ फकताब पढ़ रहे होते। माता जी ईनके पास एक तरफ बैठी होतं। हमं देख ईठकर चप्पलं पहन चुपचाप कमरे से ISSN –2347-8764

बाहर णनकल जातं। हम हाथ जोड़कर नमस्कार करते और कु र्ससयं पर णवराजमान हो जाते। प्रो. साणहब मुस्कराकर हमारा स्वागत करते, ऄपनी फकताब एकतरफ रख देते और ज्ञान-चचाव के णलए तैयार हो जाते। हम कोइ सवाल करते, वह कोइ जवाब देते और आस प्रकार वातावलाप शुरू हो जाती, जो बाद मं वातावलाप न रहती, प्रो. साणहब के प्रवचन मं बदल जाती। हम श्रोता बने मंिमुग्ध हो ईन्द्हं सुनते रहते। अधे-पौने घंटे बाद प्रो. साणहब की पुिवधु चाय के कप और णबस्कु ट वगैरह रख जाती। हम ईनके पास शाम के समय ही जाते थे और ईस समय ढलते सूरज की फकरणं सीधी ईनके चैबारे की णखड़फकयं के शीशं मं से होती हुइ अगे परदं से टकराकर कमरे को रौशन कर रही होतं। धीरे धीरे यह रौशनी कम होने लगती और साथ ही मेरे फदल मं भी धुकधुक होने लगती। मेरी णनगाह टटक टटक करते वॉल-क्लाक पर टटक जाती। मेरे गांव को जाने वाली ऄणन्द्तम बस का समय हो गया होता, मगर प्रो. साणहब की बात फकसी फकनारे न लगी होने के कारण मं ईठने का साहस भी न कर पाता। अणऺखरी बस णनकल जाती और ईस फदन मुझे रात हरदम मान के पास ईसके गांव डेणलयांवाली मं णबतानी पड़ती। महीना या फदन, साल का कोइ भी होता, पर होता हमेशा ऐसा ही। हरदम मान घंटी दबाता, प्रो. साहब की बहू दरवाज़ा खोलती, हम सीफढ़याँ चढ़ जाते, प्रो. साणहब के बैड पर बैठी ईनकी धमवपत्नी ईठ खड़ी होतं, हम हाथ जोड़कर ‘सणतश्री ऄकाल’ बुलाते, वे मुस्कराते, चप्पलं पहनते और चुपचाप बाहर णनकल जाते। हम अराम से कु र्ससयं मं धंस जाते। हमने घर मं कभी कोइ चौथा जीव नहं देखा था। यह तो पता था फक ईनका एक बेटा और दो पोते हं। बेटटयाँ ससुराल मं बसती हं। माता जी को भी हमने कभी बोलते नहं सुना था। एक फदन व्यंग्यकार दशवन बलाणड़या बोला फक बेबे तो बेचारी गूंगी प्रतीत होती है। माता बलवंत कौर, प्रोफे सर साणहब से काफ़ी छोटी अयु की हं और ऄनपढ़ हं, पर ईन्द्हंने प्रो. साणहब को णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

माता बनकर ही संभाला और हर समय ईनके कदमं मं बैठकर ईनकी ज़रूरतं का ध्यान रखा। प्रो. साणहब णलखने बैठ जाते तो वह चुपचाप चाय का कप लाकर पास मं रख देतं जो ऄक्सर पड़ी पड़ी ठं डी हो जाती। वह णबना बोले चाय का दूसरा कप बनाकर रख देतं। ‘कमजोर बैल, छत्तीस रोग’ की तरह प्रो. साणहब को छोटी-मोटी बीमाटरयाँ जैसे जुकाम, सरददव, दाढ़ ददव, कान ददव, पेट ददव अफद घेरे ही रखतं और माता ही ईनकी दवा-दारू फकया करतं। सर्ददयं मं ऄक्सर ही प्रोफे सर साणहब को जुकाम हो जाता और ठं ड लगती। वह ऄंगठी जलाकर ईनके णबस्तर के पास रखतं। प्रो. साहब कहते, “ऄंगीठी आतनी पास रख दी।“ कभी कहते, “ऄब आतनी दूर रख दी।“ माता जी णबना ईज्र फकये वैसा ही फकये जातं जैसा प्रो. साणहब हुक्म फकये जाते। जब प्रो. साहब को भारतीय साणहत्य ऄकादमी का पुरस्कार णमला तो साणहणत्यक मंच, कोटकपूरा की ओर से एक सम्मान समारोह फकया गया णजसमं संत सिसह सेखं(पंजाबी के वटरष्ठ लेखक) ने ऄपने स्वभाव के ऄनुसार शेखी बघारते हुए कहा था फक बलवंत कौर और गुरचरन कौर जैसी णस्त्रयाँ घर घर जन्द्म लेती हं, पर गुरदयाल सिसह और संत सिसह सेखं जैसे णवरले ही पैदा होते हं। ईनका आशारा ऄपनी और प्रो. साणहब की पत्नी की ओर था। पंजाब साणहत्य के बाबा बोहड़ (बरगद) को आस बात का पता नहं था फक बलवंत कौर जैसी णस्त्रयाँ कोइ कोइ ही पैदा होती हं जो ऄपने अदमी को ‘गुरदयाल सिसह’ बना देती हं। यह बात तो गुरदयाल सिसह खुद मानते रहे फक यफद कहं कोइ पढ़ी -लिखी लमिी होती तो उन्हहं ये प्रालियाँ, ये ईपलणब्धयाँ नहं णमली होतं। ईन्द्हंने तो यह भी कहा है फक मेरा णसर उँचा करने के णलए आसने ऄपना णसर झुका णलया था। फकसी ज़माने मं ईनके णलए बलवंत कौर को ऄपने सीसफू ल(जेवर) भी बेचने पड़े थे। हम नये नये साणहणत्यक िेि मं कदम रख रहे थे और हमं ईनकी बातं बहुत रोचक लगतं। अठवं दशक से णलखी जाने वाली णमनी कहानी (लघुकथा) ने रूप-रचना के स्तर पर यद्यणप णवकास नहं फकया था, फफर भी

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आस णवधा पर कलम णघसने वालं का काफफ़ला काफ़ी तगड़ा हो रहा था। परं तु प्रो. गुरदयाल सिसह लघुकथा से बहुत णचढ़ते थे और आस को साणहत्य की णवधा नहं मानते थे। जब पहली बार एक णवद्याथी ने लघुकथा पर पीएच.डी. की णडगरी प्राप्त की तो प्रो. साणहब हमं बताने लगे फक लो, कर लो बात। एक णसरफफरे ने लघुकथा पर पीएच.डी. कर ली। हमं जैतं मं साणहत्य सभा की ओर से कोइ भी समारोह करवाना होता, ईसकी ऄध्यिता प्रोफे सर साणहब से ही करवाते और ईन्द्हंने कभी आन्द्कार नहं फकया था। णनणित समय पर वह स्वयं ही पैदल माचव करते हुए पहुँच जाते। बाद मं, हम ईन्द्हं स्कू टर पर णबठाकर लाने लगे। सेहत और कमजोर हुइ तो ईन्द्हं हम कार मं लेकर अने लगे, पर वह अते ऄवश्य। ईनके अने से हमारे हौसले बढ़ जाते और समारोह की वाह-वाह हो जाती। ईनका ऄध्यिीय भाषण बहुत णवद्ववतापूणव और रोचक हुअ करता। पर समारोह भले ही फकसी भी फकस्म का हो, प्रो. साणहब के ऄध्यिीय भाषण का णवषय णपछले डेढ़ दशक से वही होता और कभी कभी ईनका भाषण लंबा और ईबाउ हो जाता। श्रोता ईबाणसयाँ लेने लगते और कइ तो वहाँ से णखसककर लंगर छकने को तरजीह देने लगते। णपछले एक दशक से तो प्रो. साणहब बहुत ही णनराशावादी हो गये थे। ईन्द्हं समाज मं चारं तरफ पसरा धुंधलका ही नज़र अने लगा था और कहं कोइ अस की फकरण फदखाइ नही दे रही थी। ‘णवज्ञान, टेकनोलोजी मं बेणमसाल ईन्नणत होने के बावजूद गरीब लोगं का हाल बहुत मंदा है। खेती ऄब लाभदायक धंधा नहं रहा और फकसान अत्महत्यायं कर रहे हं। अबादी तीव्र गणत से बढ़ रही है। बेरोजगारं की कतार और भी लम्बी हो गयी है। नौजवान नशं मं तबाह हो रहे हं। हर तरफ भ्रिाचार, टरश्वखोरी, बेआमानी का बोलबाला है। अदमी अदमी नहं रहा। फफरकापरस्ती का दैत्य मानवता को णनगल रहा है। सरकारं सो रही हं और जान बूझकर वोट बंक की राजनीणत मं डू बी हुइ हं। चारं तरफ छल-झूठ ही नज़र अ रहा ISSN –2347-8764

है। सत्य का चंरमा फदखायी नहं दे रहा।...अफद-अफद।’ और अणऺखर मं प्रो. साणहब ऄपना भाषण कबीर के एक दोहे से खत्म करते सुणखया सभ संसार है, खावे और सोवे दुणखया दास कबीर है, जागे और रोवे। साणहत्य साधना की बदौलत णजतने आनाम, सम्मान, नौकटरयाँ, पद, पदणवयाँ प्रो. गुरदयाल सिसह ने प्राप्त फकये, ईतने पंजाबी का कोइ लेखक प्राप्त नहं कर सका। भाषा णवभाग के आनाम, साणहत्य ऄकादमी का ऄवाडव, सोणवयत लंड नेहरू पुरस्कार, ज्ञानपीठ सम्मान, पदमश्री ऄवाडव अफद ऄनेक पुरस्कार-सम्मान ईन्द्हं हाणसल हो चुके हं। ईन्द्हं राज्य स्तर और ऄंतरावष्ट्रीय स्तर पर णमले पुरस्कारं की संख्या ईनके द्वारा ऄब तक णलखे ईपन्द्यासं की संख्या से ऄणधक है। नोबल पुरस्कार भी यफद कहं फदल्ली मं णमलता होता तो वह भी ऄब तक ईन्द्हं णमल गया होता। ईनके ईपन्द्यासं पर बनी फफल्मं को भी राष्ट्रीय और ऄंतरावष्ट्रीय स्तर के सम्मान णमल चुके हं। आतना कु छ णमलने के बावजूद पंजाबी का यह बड़ा लेखक ऄपनी नौकरी के ऄणन्द्तम समय तक सवाटरयं से ठुं सी बसं-रे लं मं ही सफ़र करता रहा। ऐसे कु छ ऄनुभवं तथा साणहत्य-सृजन के फलस्वरूप णमले मानसम्मान, पैसा, पदवी अफद के बावजूद वह हँसकर कहते रहे, “क्या पड़ा है लेखक बनने मं ?“ गुरदयाल सिसह के पूववज हाथं से श्रम करके जीवन-णनवावह करते थे और यही कारण रहा फक जब ईनके णपता और ताया ने ऄपना काम ऄलग फकया तो णपता ने ईन्द्हं पढ़ने से हटाकर ऄपने साथ काम पर लगा णलया। गुरदयाल सिसह ने स्कू ल से हटकर फदहाणड़याँ भी कं और लोगं के घरं मं जाकर तख़्ते भी जोड़े। ईन्द्हंने बढ़इ-लुहार का हर प्रकार का काम फकया। ईनके पास ऄपने हाथं से बनाया लकड़ी का एक बक्सा अज भी है णजस मं वह ऄपने कु छ कम ज़रूरी कागज़ात, पांडुणलणपयाँ, णचटट्ठयाँ वगैरह संभाल कर रखते थे। वह ऄपने णपता और ताया के साथ णमलकर टीन की पानी वाली टंफकयाँ भी बनाते रहे। एक बार ईन्द्हंने ऄके ले ही पानी की एक णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

ऐसी टंकी बना दी थी णजसके जोड़ं पर सफे दा न लगा होने के बावजूद पानी की एक बूँद तक लीक नहं होती थी। ईनकी बनायी ये पानी की टंफकयाँ राजस्थान तक मशहूर थं। एक बार जब वे पंजाबी यूणनवर्ससटी के रीजनल संटर बरिठडा मं पढ़ाते थे, वह कोट की णसलाइ के णलए बरिठडा के प्रणसि दजी के पास नाप देने गये। दजी बार बार ईनकी बाहं का नाप ले रहा था। फफर वह हैरानी से सूटटडबूटटड प्रो. गुरदयाल सिसह के मुँह की ओर देखने लगा। प्रो. साहब भी बात समझ गये, पर मंद मंद मुस्कराते हुए चुप रहे। दजी ने हौसला करके पूछ ही णलया फक अप कहं बचपन मं लुहारं वाला काम तो नहं करते रहे क्यंफक अपकी दायं बांह बायं बांह से एक आं च ज्यादा लंबी है। ईनके णवरोधी और अलोचक तो यह भी व्यंग्य फकया करते हं फक जैसे ईनकी दायं और बायं बाजू मं ऄंतर है, वैसे ही ईनकी रचनायं णवचारधारा से तो वामपंथी हं, परं तु अम जीवन मं ईनकी सोच दणिण-पंणथयं से मेल खाती है। फकसी सफल व्यणक्त के प्रणत ईसके साणथयं, सहयोणगयं और ईसके िेि से संबंणधत लोगं के ऄंदर इष्र्या और जलन का होना स्वाभाणवक है और प्रो. साणहब भी आससे बच न सके । ईन पर भी ऄनेक अरोप लगाये गये। फकसी ने ईन्द्हं शाणतर कहा, फकसी ने खुशामदी, फकसी ने सरकारणपच्छलग्गू और फकसी ने जुगाड़बाज़ कहा। लालची, धोखेबाज़, बातं का ठग, गरीब, चालाक, मक्कार, ऄणभमानी, बहानेबाज़ अफद ऄनेक घटटया णवशेषण ईनके नाम के साथ ईनके णवरोणधयं ने जोड़े। माँ जाये गुरचरन सिसह ने तो ईनकी कणथत पोल खोलता एक ईपन्द्यास ‘लोक कणहण दरवेश’ भी प्रकाणशत करवा फदया था। एक फदन गुरमीत सिसह ने प्रो. टी.अर. णवनोद से कहा फक अप ही समझाओ गुरचरन सिसह को। आस पर टी.अर. णवनोद ने ईसके कं धे पर हाथ रखकर भरे मन से कहा था, “जो बहुमूल्य साणहत्य गुरदयाल सिसह णलख गया है, यही रह जाएगा। आसकी महानता ही शेष बचेगी। गुरचरन सिसह के प्रो. साणहब पर लगाये दोषं को फकसने याद रखना है।

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णशव कु मार बटालवी को हर कोइ ऄपने घर मं घुसाने से डरता था, यह सोचकर फक या तो वह ईसकी घरवाली को ले भागेगा या फफर बहन को। परं तु णशव ऄपने गीतं के कारण लोगं के मनं मं अज भी णजन्द्दा है।“ प्रो. साहब के व्यणक्तव मं सलीका रचा-बसा था। ईनके हर काम और हर ऄदा मं सलीका था। वह सलीके से बोलते, सलीके के साथ हँसते, सलीके के साथ चलते, सलीके से कपड़े पहनते, सलीके से दाढ़ी बांधते, सलीके से ही पगड़ी भी। और तो और, णसर पर साफे के लपेटे भी बड़े सलीके से ही मारा करते थे। ईनके कमरे मं फकताबं सलीके से टटकाकर रखी होतं, मानो ईन्द्हं कभी छे ड़ा ही न गया हो। कमरे की हर चीज़ ऄपने स्थान पर पड़ी फदखाइ देती। ईनके णबस्तर पर साफ़-सुथरी चादर पर दाग तो क्या, एक सलवट तक नहं होती थी। वह तो ऄपने बैग मं कपड़े का एक टु कड़ा भी रखते थे। बस मं सीट णमल जाने पर बैठने से पहले ईस कपड़े से सीट साफ़ करके ही बैठते थे। इष्र्या करने वाले तो ऄच्छाइ मं भी बुराइ तलाश लेते हं। एक फदन प्रो. फदलावर सिसह ईनके दामाद जलौर सिसह खीवा से बोला फक तेरे ससुर साणहब के बैड की चादर तो बड़ी साफ़-सुथरी होती है। जलौर सिसह हैरानी के साथ फदलावर के मुँह की ओर देखने लगा फक वह कहना क्या चाहता था। “ईससे पूछो फक आस पर कभी ‘जगसीर’ को भी बैठने फदया है फक नहं ?“ पर ‘मढ़ी का दीवा’ के पाि ‘जगसीर’ के ममव को णजस णशद्दोत के साथ गुरदयाल सिसह ने पेश फकया है, ईससे यह रचना क्लाणसक रचना होने का गौरव प्राप्त कर सकी। प्रो. साणहब पंजाब, पंजाबी और पंजाणबयत के मुद्दोइ रहे। जब पंजाब के स्कू लं मं पहली किा से ऄंग्रेजी लागू की गयी तो आस फै सले के णवरोध और हक मं बड़ा हो-हल्ला मचा था और प्रो. साहब ने स्कू लं मं पहली किा से ऄंग्रेजी लागू करने के फै सले के णवरुि खुले मोचे मं ऄग्रणीय भूणमका णनभायी थी। प्रो. साहब यह बात भलीभाँणत जानते थे फक पहली किा से ही बच्चे को मातृभाषा की णशिा न देकर दूसरी भाषायं जैसे ISSN –2347-8764

ऄंग्रेजी या सिहदी मं णशिा देना बच्चे के मानणसक णवकास और माँ-बोली के णलए फकतना खतरनाक हो सकता है। क्यंफक प्रो. साहब के दोनं पोते सिहदी ऄंग्रज े ी स्कू ल मं पढ़े होने के कारण दसवं तक पंजाबी पढ़ने से ऄसमथव रहे थे। ईनके णलखे ईपन्द्यास तो वे क्या पढ़ते, ईन्द्हं तो यह भी नहं पता था फक दादा जी ने कौन कौन से ईपन्द्यास णलखे हं। सो, ईन्द्हंने और प्रो. प्रीतम सिसह ने पंजाबी ऄख़बारं मं पहली किा से ऄंग्रेजी लागू करने के णखलाफ़ धड़ाधड़ लेख णलखकर छपवाये। ईनके तकव युक्त लेखं ने पंजाबी के हक मं वातावरण तो तैयार फकया, पर आस फै सले को पूरी तरह बदलवाया न जा सका। णजन फदनं फोन नहं हुअ करते थे, प्रो. साहब णचटट्ठयाँ बहुत णलखते थे। ख़तं के द्वारा वे ऄपने साणहणत्यक णमिं, साणहत्यकारं, अलोचकं और प्रकाशकं से हमेशा ही सम्पकव मं रहते थे। पर णचट्ठी णलखकर पता ऄक्सर ही गलत णलख जाते थे। गुरबचन सिसह भुल्लर णलखते हं फक ईनके घर का पता प्रो. साहब प्रायः गलत णलखते रहे। एक बार ईन्द्हंने गुरमीत सिसह, कोटकपूरा को ख़त णलखा फक ख़त पढ़ते ही जैतो अ जाओ, पर पता णलखते समय कोटकपूरा की जगह जैतो ही णलख फदया था। ख़त वे हमेशा ही कु छ सतरं के णलखते थे और काम की बात ही णलखते थे। णचट्ठी मं अमतौर पर फकसी को काम कहा गया होता था। जैतांँे वाले जंग बहादुर गोयल, णजन्द्हंने णवश्व-प्रणसि ईपन्द्यासं को पंजाबी मं एक णभन्न ऄंदाज़ मं पेश करके ख्याणत प्राप्त की, प्रायः कहा करते थे फक गुरदयाल सिसह की णचट्ठी तो णडमांड का नोटटस ही हुअ करती है। प्रो. साणहब जब बरसिजदरा कालेज, फरीदकोट मं पढ़ाते थे, तब ईनके बारे मं एक टोटका बहुत प्रचणलत था। वह जैतो से फरीदकोट रे लगाड़ी पर ही अते-जाते थे। गाड़ी कालेज लगने के बाद पहुँचती थी और वापसी मं कालेज बंद होने से पहले अती थी। फकसी ने सिप्रसीपल से चुगली कर दी और सिप्रसीपल ने प्रो. साणहब को ऄपने दफ्तर मं बुलाकर कहा फक मुझे पता चला है फक अप कालेज देर से अते हं। आस पर, णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

प्रो. साणहब ने हँसकर ईत्तर फदया फक हाँ, मं देरी से अता हूँ, पर जाता भी तो पहले हूँ। प्रो. गुरदयाल सिसह शब्द -तराश थे। वे मिवई शब्दं को तराश कर प्रयोग मं लाते रहे। ईनके शब्द वाक्यं मं आस प्रकार प्रयुक्त होते हं जैसे णनपुण राजगीर दीवार खड़ी करते समय ईंटं की णचनाइ फकया करता है। माणहर बढ़इ द्वारा घड़ी गयी गुल्ली जैसे रे ते मं भी दोनं फकनारं से ईठी होती है, ईसी प्रकार गुरदयाल सिसह द्वारा प्रयोग मं लाये शब्द वाक्यं मं बड़ी खूबसूरती से फफट हुए ऄलग से दीखते हं। परं तु प्रारं भ मं ईनके ठे ठ मलवइ शब्दं के प्रयोग का बहुत णवरोध हुअ था और कहा गया था फक वह साणहणत्यक भाषा मं मलवइ शब्दं का ‘खोट’ णमला रहे हं। ईनके ईपन्द्यासं को पहले मलवइ भाषा के अँचणलक ईपन्द्यास कहा गया, पर धीरे धीरे जसवंत सिसह कं वल और राम सरूप ऄणखी जैसे समथव ईपन्द्यासकारं ने भी ‘माझी’ को पीछे छोड़कर मलवइ बोली के शब्दं का प्रयोग फकया तो मलवइ भाषा ने के न्द्रीय पंजाबी का रुतबा हाणसल कर णलया और अलोचकं के मुँह ऄपने अप बंद हो गये और गुरदयाल सिसह ऄपनी दुबवल टांगं से गड्ढ़े-टीले पार करते चले गये। गुरदयाल सिसह के गुरू ने ईन्द्हं चार णशिायं दी थं णजनमं से तीन को ईन्द्हंने सारी ईम्र के णलए पल्लू से बांधे रखा था। पहले णशिा थी फक शराब नहं पीनी। वह आं ग्लंड, जमवन, रूस, ऄमेटरका, कै नेडा अफद देशं मं घूम अये जहाँ शराब के दटरया बहते हं, पर ईन्द्हंने कभी बरांडी का चम्मच तक नहं चखा था। दूसरी णशिा थी फक कभी जुअ नहं खेलना और ईन्द्हंने जुअ तो क्या खेलना था, कभी लॉटरी की टटकट भी नहं खरीदी। तीसरी णशिा थी फक णजस भी ओहदे पर काम करो, ऄपनी नज़र हमेशा ईससे उपर वाले ओहदे पर रखो। वह प्राआमरी स्कू ल की मास्टरी से तरक्की करते करते यूणनवर्ससटी के प्रोफे सर पद से सेवामुक्त हुए।

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जैसे चाँद की सतह पर दाग है, ईसी तरह प्रो. साहब की शणख़्सयत पर भी दाग ईनकी स्वाभाणवक कमजोटरयं के कारण रहे। सबसे बड़ी कमजोरी तो ईनकी यही रही फक वह सामाणजक टरश्तं को पूरा करने मं बेहद अलसी रहे। यही कारण था फक ईनके ऄपने ही णवरोधी बने रहे। वह डॉ. के सर सिसह, जोगा सिसह और ऄपने एक समधी की ऄणन्द्तम रस्मं पर भी नहं गये थे। कोटकपूरा वाले गुरमीत सिसह की पत्नी को ईन्द्हंने धमव-बहन माना हुअ था और ईसके फकसी नज़दीकी टरश्तेदार की मौत पर वह दुख बांटने नहं गये, पर एक छोटीसी णचट्ठी णलख दी, “मुझसे दुखी लोगं के पास खड़ा नहं हुअ जाता जो देखने मं मेरे स्वभाव से ईलट बात लगती है। खुद दुख झेलने की मुझमं खूब ताकत है, पर दूजे का दुख बांट सकने का न मुझे ढंग अता है, न मुझमे सामथ्र्य है। मुझे कइ बार ऄनुभव हुअ है फक फकसी का दुख बांटने के णलए णजतने ऄच्छे शब्द मं णलख सकता हूँ, ईससे दस गुणा कम ऄच्छे शब्द मं जुबानी नहं बोल सकता।“ आसमं कोइ शक नहं फक प्रो. साहब का स्वास्थ्य ठीक नहं रहता था और ऄनेक साणहणत्यक और सामाणजक समारोहं मं नहं जा पाते थे, पर णवरोणधयं को यह प्रचार करने का ऄवसर णमल जाता फक प्रो. गुरदयाल सिसह तो वहाँ जाते हं, जहाँ मानसम्मान होना हो या पैसे णमलने हं, नहं तो ईनके पास बीमारी का पक्का बहाना मौजूद होता है। प्रो. प्रीतम सिसह का पटटयाला मं सम्मान-समारोह था और अयोजक चाहते थे फक आतने बड़े व्यणक्त के सम्मान समारोह मं गुरदयाल सिसह जैसी बड़ी हस्ती भी शाणमल हो, पर ईनके ऄंदर संशय भी था। आसणलए प्रो. दलीप कौर टटवाणा ने ऄपने णशष्य प्रो. साहब के दामाद प्रो. जलौर सिसह खीवा की ड्यूटी लगायी फक ईसे प्रो. गुरदयाल सिसह को आस समारोह मं ऄवश्य लेकर अना है, बेशक ईसको दामादं वाले हथकं डे ही क्यं न ऄपनाने पड़ं। सरकारी कालेज मं प्रो. गुरदयाल सिसह की णनयुणक्त करवाने मं प्रो. प्रीतम सिसह का हाथ रहा था। चुने हुए लेक्चररं की पहली सूची मं से प्रो. गुरदयाल सिसह का नाम गायब था और प्रो. ISSN –2347-8764

प्रीतम सिसह ने ही ईनके हक मं अवाज़ ईठायी थी फक णजस लेखक के ईपन्द्यास ‘मढ़ी का दीवा’ मं से हम प्रश्न पूछा करते हं, ईन्द्हं तो चुना ही नहं गया। सो, प्रो. गुरदयाल सिसह को समारोह मं जाना ही था, और वह गये भी। प्रो. साहब को माआक पर अमंणित करते हुए डॉ. दलीप कौर टटवाणा ने कहा, “ऄब मं ऐसी शणख़्सयत को बुला रही हूँ जो ऄक्सर ही णनमंिण पर बीमार होती है। पर अज हमारी खुशफकस्मती है फक वह तंदरु ु स्त है और हमारे बीच णवराजमान है। और अप सभी समझ ही गय होगे, वो है प्रो. गुरदयाल सिसह।“ प्रो. साणहब पर नुक्चाचीनी करने वालं का कहना है फक ईन्द्हंने ऄपनी बीमारी को भी कै श फकया और सब कु छ दया का पाि बनकर ही प्राप्त फकया। फकसी से काम करवाना हो तो वह णसफ़व दो पंणक्तयाँ णलख देते फक मं बीमार हूँ, तुम यह काम कर देना। ऄपनी बीमारी को वह बढ़ा-चढ़ाकर बताते थे। एक बार प्रो. रुणलया सिसह ईनके साथ फोन पर बात कर रहे थे और ऄपने फकसी टरश्तेदार की टांग के कट जाने का णजक्र कर रहे थे। प्रो. साणहब बोले, “यह कोइ खास सिचता वाली बात नहं, अजकल तो नकली टांग लगा देते हं। णबल्कु ल ही पता नहं चलता, ऄसली टांग जैसी ही लगती है।“ फफर जब रुणलया सिसह ने ईनकी सेहत का हाल पूछा तो कहने लगे, “मेरा हाल तो बहुत ही खराब है। लूज मोशन लगे हुए हं।“ एक बार बरनाला वाले साणहत्यकार जोणगन्द्दर सिसह णनराला, प्रीतम सिसह राही और जगीर सिसह जगतार ईनकी ख़ैर-ख़बर लेने जैतं अये तो प्रो. गुरदयाल सिसह ने ऄपनी बीमारी को बड़ा दशावने के णलए ईन्द्हं बताया फक मेरा तो डेढ़ फकलो वजन कम हो गया है। जगतार ने भी बनावटी हैरानी प्रगट करते हुए कहा, “ऄच्छा जी, फफर तो पीछे रहा ही कु छ नहं।“ प्रो. साणहब मृत्यु से बहुत डरते थे। बचपन से ही मौत ईनके साथ लुका-णछपी का खेल खेलती रही। डेढ़ साल की ईम्र मं ही ईन्द्हं सूखे की बीमारी हो गयी थी और ईस समय मं कोइ णवरला बालक ही आस बीमारी के णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

फं दे मं से णनकल पाता था। फकसी साधू-संत के बताये ऄनुसार ईन्द्हं मरे हुए काले नाग पर णबठाकर सात कु ओं के पानी से नहलाया गया था, तब वह ठीक हुए थे। जवानी मं कदम रखते ही तपेफदक की बीमारी का भय णचपट गया और ईन्द्हं पहाड़ी स्थान कसौली मं कु छ समय णबताना पड़ा और रोटी-पानी का खचाव चलाने के णलए वहं ऄपने औजारं के साथ फदहाणड़याँ भी करनी पड़ं। बीमारी और मौत का भय ईन्द्हं हमेशा ही बना रहा। एक बार ईनकी जीभ पर एक छाला-सा बन गया तो ईन्द्हं वहम हो गया फक ईन्द्हं कं सर हो गया है क्यंफक नवतेज सिसह (प्रीतलड़ी के संपादक) की जीभ पर भी छाला ही हुअ था जो कं सर था और बाद मं ईनकी जीभ काटनी पड़ी थी। आसी तरह एक बार ईन्द्हं वहम हो गया फक ईन्द्हं फदल की बीमारी हो गयी है। वह गुरमीत सिसह और ऄपने बेटे रसिवदर को साथ लेकर तुरन्द्त रासिजदरा होस्पीटल, पटटयाला अये। डाक्टरं ने दाणऺखल करके जनरल वाडव मं भेज फदया और टैस्ट शुरू कर फदये। मैडम दलीप कौर टटवाणा को जब पता चला तो वह तुरन्द्त ऄस्पताल पहुँचे और प्रो. साणहब को जनरल वाडव मं पड़ा देख वह डॉक्टरं को डांटने-फटकारने लगे फक तुम्हं पता नहं, यह हमारा पंजाबी साणहत्य का गोकी है। डाक्टरं ने ईन्द्हं तेरह नंबर कमरा ऄलाँट कर फदया और टैस्ट करते रहे। टैस्टं की टरपोटव के ऄनुसार प्रो. गुरदयाल सिसह को फदल की कोइ बीमारी थी ही नहं, पर ईन्द्हं तसल्ली न हुइ। वह गुरमीत सिसह से बोले फक ऄब डॉ. चुटानी को भी चंडीगढ़ मं फदखा ही अयं। गुरमीत सिसह तो पहले ही जानता था फक ईन्द्हं कोइ बीमारी नहं, णसफ़व वहम है। वह बोला, “प्रोफे सर साहब, अप चाहे चुटानी के बाप को फदखा अओ, मं तो चला वापस।“ आतना कहकर वह तो कोटकपूरे की बस चढ़ गया और वे दोनं बाप-बेटा चंडीगढ़ की बस मं बैठ गये। बाद मं गुरमीत सिसह दूसरं को स्पिीकरण देता रहा था फक प्रोफे सर साणहब को कोइ बीमारी नहं है, वे मैसोफकस्ट हं, बीमारी मं अनंद लेने वाले। ऄपने बड़े लेखकीय कद के कारण, बीमारी

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के कारण या ऄणधक ज़रूरी व्यस्तताओं के कारण वह ऄपनी टरश्तेदाटरयं के प्रणत बनने वाले फज़ं को पूरी तरह णनभा नहं सके । ईनकी एक समणधन ऄपने बेटे को ताना मारते बोली, “तेरा ससुर तो कु छ ज्यादा ही हठी है।“ समीप बैठा लड़के का णपता बोला, “नहं ईसको नावल णलखने का ऄहंकार है। नावल क्या है ? ये जो सारा कु छ ऄपने असपास हो रहा है, ये नावल ही तो है। हम सभी तो नावल के पाि हं। यह णलखना क्या मुणश्कल है ? जो देखा, णलख फदया। कटठन तो छं द कणवता होती है।“ वह खुद कणवता णलखता था। आसी समधी के भोग पर प्रो. साहब नहं जा सके थे। प्रो. गुरदयाल सिसह के समणधयं को सारी ईम्र णगला ही रहा फक बड़ा ईपन्द्यासकार बेटटयं को ब्याहकर ही ऄपने को को सुखुवरू समझने लगा है और यह भूल गया है फक बेटटयाँ तो मरी पड़ी भी माँबाप का आं तज़ार करती रहती हं। माँ-बाप द्वारा लाये गये कपड़े और कफ़न पहनाकर ही ईनका दाह-संस्कार फकया जाता है। एक फदन कालेज का सिप्रसीपल प्रो. जलौर सिसह खीवा से कहने लगा फक तू तो यार बहुत लाभ मं रहा। आतने बड़े लेखक के साथ टरश्तेदारी हो गयी। प्रो. खीवा तो चुप रहा, पर पास खड़े प्रो. फदलावर सिसह ने ऄपनी टटप्पणी कर दी फक यह तो समय ही बतायेगा फक कौन लाभ मं है। एक बार प्रो. साहब की बहू प्रो. जलौर सिसह खीवा के पास अँखं भरकर बोली, “वीरा, कै से ससुराल वाले ढू ँढ़कर फदये मुझे ?“ आस पर हँसते हुए जलौर सिसह कहा, “जैसे मेरे थे, वैसे ही तलाश फदये।“ पर यह कहते हुए ईसकी अँखं सजल हो ईठी थं। यफद प्रो. साणहब के कु छ ऄपने बेगाने बने तो यह भी सच्चाइ है फक ईन्द्हंने ऄनेक बेगानं को भी ऄपना बनाया। हमारी साणहत्य सभा, जैतं का सबसे छोटी अयु का सदस्य और प्रणतभाशाली कणव (स्व.) प्रो. रुसिपदर मान ईन्द्हं ऄपना णपता समझता था। ईनके पड़ोस मं रहती मुक्तसर की ऄध्यापक जोड़ी मोहन सिसह और हरिरदर कौर जब ड्यूटी पर चली जाती तो वह ऄपने सालभर के बेटे को माता बलवंत कौर के पास छोड़ जाती और माता ने चार ISSN –2347-8764

साल तक ईसको ऄपने पुि समान पाला और संभाला। प्रो. गुरमीत सिसह कोटकपूरा के णसर पर भी प्रो. गुरदयाल सिसह का हाथ सदैव ही रहा। प्रो. गुरदयाल सिसह एक ईपन्द्यासकार के तौर पर ही जाने जाते हं, परं तु ईनकी कहाणनयं की फकताबं की संख्या भी ईपन्द्यासं के बराबर ही है और कइ कहाणनयाँ पंजाबी की श्रेष्ठ कहाणनयं मं रखी जा सकती हं। प्रो. गुरदयाल सिसह पहले पंजाबी लेखक है णजसके ईपन्द्यास फदल्ली मं अयोणजत होने वाले णवश्व पुस्तक मेले मं ऄंग्रेजी के स्टालं पर सबसे ऄणधक णबकते हं। वह णहन्द्दी पाठकं के भी चेहते ईपन्द्यासकार हं। बड़े बड़े लेखकं के एक या दो क्लाणसक ऄमर पाि होते हं, पर गुरदयाल के चार क्लाणसक पाि जगसीर (मढ़ी का दीवा), णबशना (ऄनहोये), मोदन (ऄि चानणी रात) और परसा (परसा) हं। वह पंजाबी के पहले ईपन्द्यासकार हं णजन्द्हं राष्ट्रीय और बौणिक स्तर पर पंजाबी कणव णशवकु मार बटालवी जैसी सववपिीय मान्द्यता णमली। थोड़ी सी प्रणसणि णमलते ही कइ लेखकं के पैर धरती पर नहं लगते, परं तु प्रो. गुरदयाल सिसह के ऄंदर आतनी शोहरत पाने के बावजूद फकसी तरह की इगो का नामोणनशान नहं था। और ऄंत मं... 28 फरवरी 2016 को जैतो की णबखरी हुइ साणहत्य सभा के हम चार पुराने सदस्य ऄपने साथी यशपाल काले के ऄसमय णनधन पर ईसकी ऄणन्द्तम रस्म मं णहस्सा लेने के णलए कालू राम की बगीची(जैतो) मं एकि हुए तो मंने ईनके सामने प्रो. साहब से णमलने का सुझाव रखा। ऄमरजीत फढल्लं ने तो यह कहकर आन्द्कार कर फदया फक ईनसे णमलने के णलए तीन घंटे चाणहएँ, पर हमारे पास आतना समय नहं है। तब बातं और थं। और फफर प्रो. साहब वही बातं करं गे जो हम सैकड़ं बार सुन चुके हं। दशवन बलाड़ीया भी राज़ी न हुअ, पर जैतो अकर प्रो. साणहब से णमले णबना चले जाने को मेरा मन नहं माना। मंने हरदम मान के भाइ सुरजीत मान को संग णलया और णबना पूवव सूचना फदये प्रो.साणहब के घर की डोर-बेल बजा दी। नज़र की ऐनक पहने णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

एक औरत ने दरवाज़ा खोला। मुस्कराकर णसर नवाया और एक तरफ हट गयी। हम सीफढ़याँ चढ़कर प्रो. साहब के कमरे मं चले गये। माता जी बैड पर से ईठे और णबना बोले चप्पलं पहनकर बाहर णनकल गये। हमने प्रो. साहब का चरण-स्पशव फकया और कु र्ससयं पर बैठ गये। वह बहुत ही कमज़ोर फदख रहे थे और बहुत धीमा बोल रहे थे। हमने ऄपनी कु र्ससयाँ ईनके नज़दीक कर लं। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह एक कपड़े से ऄपने हंठ साफ़ करते रहे। ईन्द्हं बोलने मं तकलीफ़ हो रही लगती थी। पर वह बोल रहे थे। ईनकी बहू चाय की प्याणलयाँ और णबस्कु ट रख गयी। दो घंटे हो चले थे, मुझे लग रहा था फक ऄब वह हाथ जोड़ दंगे और हमं जाने के णलए कह दंगे। पर ऐसा तो ईनका स्वभाव ही नहं था। वह धीरे धीरे बोले जा रहे थे और अवाज़ और ऄणधक मिम होती जा रही थी। अणऺखर, मंने ही खड़े होकर हाथ जोड़ फदये और जाने की ऄनुमणत मांगी। एक मातम से लौटने के कारण फदल तो पहले ही ईदास था, प्रो. साणहब से णमलने के बाद और ऄणधक ईदास हो गया। हम सीफढ़याँ ईतरकर बाहर अ गये। गली मं खड़े होकर एकबार घर की तरफ ग़ौर से देखा। णपछले तीन दशकं से भी ऄणधक का समय हो गया होगा, पर घर मं एक भी नयी ईंट नहं लगी थी और साथ वाले खुले पड़े खंडहरनुमा प्लाट मं ईसी तरह ईंटं णबखरी पड़ी थं। फदन ऄभी णछपा नहं था, पर शाम का सूरज सुखव फकरणं समेटने की तैयारी करता और ऄणधक खूबसूरत हो गया था। ~✽ ~ हरसिजदर सिसह सूरेवाणलया बरिठडा-कोटकपूरा रोड, बायपास, णनकट: णमडवे रे स्टोरं ट मुक्तसर -152026(पंजाब) ~✽ ~ ऄनुवादक संपकव : सुभाष नीरव अर जैऺड एफ-30ए (दूसरी मंणज़ल) एफ ब्लॉक, प्राचीन काली माता मंफदर के पीछे , वेस्ट सागर पुर, पंखा रोड नयी फदल्ली-110046 मोबाआल: 09810534373

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संस्मरण - श्रिांजणल

मेरी स्मृणतयं मं मेरे व्यंग्य गुरु

णवनोद शंकर शुक्ल वीरे न्द्र 'सरल'

किा अठवी मं ही परसाइ जी की टाचव बेचने वाला पढ़कर व्यंग्य का चस्का लग गया था जो शरद जोशी की जीप पर सवार आणल्लयां से आतना प्रगाढ़ हो गया फक व्यंग्य पढ़ना मेरा सबसे बड़ा शगल हो गया। णवद्याथी जीवन मं अर्सथक तंगी के कारण व्यंग्य की फकताबं खरीदकर पढ़ने का शौक तो पूरा नही कर पाया मगर स्थानीय ऄखबारं और मुफ्त णमली फकताबं को पढ़कर यह शौक जरूर पूरा करता। महाणवद्यालयीन णशिा के बाद एक छोटी से नौकरी णमल गइ। अत्मणनभवरता अने पर यह शौक और परवान चढ़ता गया। फफर क्या था जब भी मौका णमलता व्यंग्य की फकताब खरीदकर जरूर पढ़ता। पढ़ने का यह शौक कब णलखने मं बदल गया मुझे पता ही नहं चला। मेरी भी कु छ व्यंग्य रचनाएं स्थानीय ऄखबारं मं छपने लगी तो मुझे भ्रम होने लगा फक ऄब मं भी व्यंग्य लेखक बन गया। आसी बीच रायपुर के एक बुक स्टाल पर मेरी नजर डायमंड पाके ट बुक्स फदल्ली से प्रकाणशत एक व्यंग्य संग्रह पर पड़ी णजसका नाम थाः मेरी आक्यावन श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं लेखक णवनोद शंकर शुक्ल। णवनोद जी को पि-पणिकाओं और ऄखबारं पर तो पढ़ता ही था पर संग्रह मं ईनको पढ़ना और ईनकी रचना धर्समता से पटरणचत होने का यह पहला ऄवसर था। मैने वह फकताब खरीद ली और पढ़ी। शुक्ल जी के आस संग्रह को पढ़कर मुझे यही ऄनूभूणत हुइ जो पहाड़ के नीचे से गुजरने के बाद उँट को होती है। मुझे ऄपनी ऄल्पज्ञता पर हँसी अइ। मं सोचने लगा ऄरे ! णजसे मं ऄपना व्यंग्य लेखन समझ रहा था वह तो हास्य की रम्य रचना के णसवाय कु छ है ही नहं। शुक्ल जी की व्यंग्य भाषा, शेली और णवषय वैणवध्य, कथ्य और णशल्प का जादू मेरे णसर चढ़कर बोलने लगा। व्यंग्य क्यं, कै से और फकसके णलए यह समझ मं अया। व्यंग्य का मूल और ईत्स क्या होता है। ये मंने शुक्ल जी के आस संग्रह को पढ़कर समझने की कोणशश करने लगा। मंने ऄपनी पुरानी रचनाएं नि कर दी और नये णसरे से व्यंग्य लेखन का प्रयास करने लगा। कु छ नइ रचनाओं का प्रकाशन जब पि-पणिकाओं मं हुअ तो कु छ प्रबुऺि पाठकं की ISSN –2347-8764

सकारात्मक प्रणतफक्रयाएं णमलने लगी। मेरा हौसला बढ़ा। आस तरह से मंने एक संग्रह के लायक व्यंग्य रचनाएं णलख ली। पर फदमाग मं फफर यही णवचार कंधने लगा फक मेरा लेखन व्यंग्य की कसौटी पर फकतना खरा ईतर पा रहा है। आसे तो कोइ ईच्चकोटी का व्यंग्यकार ही समझा सकता है। मनो मणस्तष्क पर बार-बार शुक्ल जी का ही नाम अने लगा। कारण शुक्ल जी रायपुर णनवासी है और मं रायपुर से माि ऄस्सी फकलोमीटर दूर एक छोटे से गांव से हूँ। रायपुर से ही मेरी महाणवद्यालयीन णशिा सम्पन्न हुइ थी आसणलए यह शहर मेरे णलए ऄपटरणचत नहं हं। ऄब तक शुक्ल जी के कृ णतत्व से पटरणचत होने का तो ऄवसर णमला था पर व्यणक्तत्व से पटरणचत होने का सौभाग्य प्राप्त नहं हुअ था। कोइ सम्पकव सूि भी नहं था णजसके माध्यम से शुक्ल जी तक पहुँच सकूँ । ऄके ले णमलने की णहम्मत नहं थी। मन मं एक ऄंजाना भय समाया हुअ था फक आतने बड़े व्यणक्त्व कहं णमलने से ही आं कार न कर दे या मेरी रचना पढ़कर डांट या णझड़क न दे। मं महीनं तक आसी ऄसमजंस मं था। आसी बीच मंने रायपुर के ही कणव ऄग्रज चेतन भारती से आस संबंध मं बात की। ईन्द्हंने कहा ठीक है ऄपनी पाडडु णलणप मुझे दे दो। मं शुक्ल जी को दे दूग ं ा। मंने ऄपनी पाडडु णलणप भारती जी को दे दी और शुक्ल जी की प्रणतफक्रया का आं तजार करने लगा। मुझे ऄच्छी तरह याद है, दो णसतम्बर दो हजार ग्यारह की बात है। मं ईस समय एस सी अर टी रायपुर मं बाल साणहत्य लेखन कायवशाला मं शाणमल था। ईस फदन लगभग संध्या चार बजे मेरे मोबाआल पर एक ऄंजान नम्बर से कॉल अया। मं टरसीव करते हुए के वल हैलो ही कह पाया था फक अवाज अइ ‘क्या मेरी बात वीरे न्द्र ‘सरल से हो रही है। मेरे हाँ कहते ही अवाज अइ, मं णवनोदशंकर शुक्ल बोल रहा हूँ, अप तो बहुत ऄच्छा व्यंग्य णलख रहे हं भाईं। कभी अना यार! रायपुर, फफर बैठकर व्यंग्य पर चचाव करं गे। मंने कहा- ‘‘सर! मं ऄभी रायपुर मं ही हूँ तो ईन्द्होने कहा-ऄरे ! ये तो और भी ऄच्छा संयोग है पाटवनर। समय है तो अ जाओ। मं भी घर पर ही हूँ । मुझे लगा मेरी लाटरी लग गइ । णजन

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खोजा णतन पाआं या की ईणक्त मुझ पर ऄिरसः चटरताथव हो रही थी। मंने तुरन्द्त ऄपने युवा रं गकमी णमि हेमन्द्त वैष्णव को फोन करके बुलाया और बाआक पर सवार होकर हम शंकर नगर रायपुर से पंतीस संस्कृ णत, मेघ माके ट, रायपुर की ओर णनकल पड़े। शुक्ल जी के णनवास पर पहुँचकर मंने डोरबेल बजाइ। कु छ ही समय मं एक दबंग व्यणक्त ने दरवाजा खोला। ईन्नट ललाट, गौरवणव, चेहरे पर तेजणस्वता। मुझे लगा कहं हम ऄंजाने ही फकसी फौजी ऄफसर के घर तो नहं पहुँच गए? फफर मुझे लगा फक मं ऄपनी जगह सही हूँ। शुक्ल जी भी तो एक णसपाही ही हं बन्द्दक ू की न सही, कलम का णसपाही। देश और समाज की णवकृ णतयं, णवरुपताओं और णवसंगणतयं पर ऄपनी कलम की धार से वार करने वाला कलमकार भी समाज का एक णसपाही ही होता है। सामने खड़े शुक्ल जी हंठो पर मधुर मुस्कान और णमश्रीघुली वाणी से स्वागत करते हुए कह रहे थे-अआये, मं अपका ही आं तजार कर रहा था। मं शुक्ल जी के चरण स्पशव करने के णलए जैसे ही झुका ईन्द्हंने हाथ पकड़कर गले लगाते हुए कहा-ऄरे ! नहं पाटवनर, पैर मत छु ओ। गले लगो यार! हम परं परा भंजक लोग हं एक ही पथ के राही। अणखर ऄपनी साणहणत्यक णवरासत अप जैसे युवाओं को ही देना है हमं। शुक्लजी मुझे हाथ पकड़े-पकड़े कमरे पर लाए और सोफे की ओर आशारा करते हुए बोले-अप लोग बैटठए। हम लोग बैठ गए। मंने देखा, शुक्ल जी के कमरे के एक कोने पर टेबल है णजस पर टेबल लैम्प जल रहा है। पेन के नीचे कागज के कु छ पन्ने दबे हुए है। मुझे समझते देर नहं लगी फक शुक्ल जी ऄभी भी व्यंग्य की साधना मं ही डू बे हुए थे। तब तक शुक्ल जी स्वयं दो णगलास पानी और णमठाइ का णडब्बा हमारी ओर बढ़ाते हुए कह रहे थे-लीणजए मुँह मीठा कीणजए। मं ऄचंणभत था। ईपलणब्धयं के फलं से लदे हुए णवशाल वृि की डाणलयां फकतनी झुकी हुइ होती है, आसे सािात देख रहा था। मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, कबीरा खड़ा चुनाव मं, ऄस्पताल मं लोकतंि, आक्यावन ISSN –2347-8764

श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, णजत देखू णतत व्यंग्य के रणचयता, एक बटे ग्यारह, णवणवधा, गद्यरं ग व्यंग्यशती के संपादक, मध्यप्रदेश णहन्द्दी साणहत्य सम्मेलन से वागीश्वरी सम्मान, सृजन सम्मान, वसुंधरा सम्मान से णवभूणषत, शासकीय छत्तीससगढ़ स्नातकोत्तर महाणवद्यालय रायपुर के णहन्द्दी और पिकाटरता के सेवाणनवृत णवभागाध्यि की णवनम्रता और अणत्मय व्यवहार से मं ऄणभभूत था। सादा जीवन ईच्च णवचार के अदशव का साकार स्वरूप मेरे सामने था। मं शुक्ल जी की सादगी और णवनम्रता का मुरीद हो गया। बातचीत के दौरान शुक्ल जी मुझे बार-बार अप सम्बोणधत कर रहे थे। मं ऄसहज महसूस कर रहा था। मंने णनवेदन फकया, सर मं तो अपका स्नेहाकांिी हूँ। ईम्र और ऄनुभव की दृणि से भी बहुत छोटा हूँ। यफद अप मुझे अप के बजाय तुम कहंगे तो मुझे ज्यादा ऄच्छा लगेगा। शुक्ल जी ने ठहाका लगाते हुए कहा, चलो मंने अपकी बात मान ली। फफर मेरे चेहरे पर अये हुए भावं को देखकर कहा-यार! लगता है तुम बहुत जल्दी नाराज हो जाते हो? ऄच्छा चलो ऄब हम ऄनौपचाटरक हो जाते है, ठीक है? फफर मेरे व्यंग्य लेखन पर, व्यंग्य की भाषा, णशल्प और शैली पर लगभग दो घंटे तक बातचीत हुइ। शुक्ल जी ने हास्य और व्यंग्य का ऄंतर समझाते हुए मुझसे कहा फक हास्य फफल्म कामेणडयन है और व्यंग्य फफल्म का नायक। कामेणडयन के वल तात्काणलक मनोरं जन करता है और नायक बुराआयं से लड़ता है। समाज मं जागरूकता लाकर बुराआयं से लड़ने की पृष्ठभूणम तैयार करता है। व्यंग्य मं हास्य का समावेश सब्जी मं नमक णजतना ही फकया जाना चाणहए। मुझे प्रसन्नता है तुम व्यंग्य की अत्मा को समझकर णलख रहे हो। मं तुम्हारी फकताब की भूणमका जरूर णलखूंगा, कब तक णलखना है बस मुझे आतना ही बता फदए रहो। एकाध माह चल जायेगा ना? यह शुक्ल जी से मेरी पहली मुलाकात थी। आसके बाद तो मुलाकातं का णसलणसला ही चल पड़ा। ईन्द्हंने मेरी फकताब की न के वल भूणमका ही णलखी बणल्क नाम भी सुझाया ‘कायावलय तेरी ऄकथ कहानी‘ आस फकताब णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

को यश प्रकाशन, फदल्ली ने प्रकाणशत फकया और मुझे देश के वटरष्ठ व्यंग्यकारं के बीच पहचान फदला दी। णहन्द्दी व्यंग्य जगत मं मेरी भी ईपस्थणत दजव हो गइ। आससे मुझसे ज्यादा शुक्ल जी को खुशी हुइ। वे बार-बार कहा करते थे पाटवनर तुम तो यार एक ही फकताब से चचाव मं अ गए। तुम लगातार ऄपनी लेखनी को माँजते रहना। व्यंग्यकार गूग ं ी प्रजा का वकील होता है भाइ। ईनकी पीड़ा को वाणी देना ही व्यंग्य का धमव है और करूणा व्यंग्य का मूल, समझ गये? मं तुममे मं काफी संभवनाएं देख रहा हूँ। मेरा स्नेह और अशीवावद सदैव तुम्हारे साथ है। आसके बाद तो मं जब भी रायपुर जाता शुक्ल जी मुलाकात जरूर करता। यफद व्यस्तता ज्यादा होती तो शुक्ल जी फोन पर बातचीत से बता देत,े वीरे न्द्र भाइ! अज मं बाहर हूँ यार। मुलाकत नहं हो पायेगी। फोन पर लगातार हमारा संबंध बना रहा। मेरी स्मृणतयं मं मेरे व्यंग्य गुरू की बहुत सारी यादं है पर सब को णलखने से यह लेख एक फकताब की शक्ल ऄणख्तयार कर लेगा। बस आस दीपावली के दूसरे फदन की यादं साझा कर रहा हूँ। ईन्द्होने मुबंइ से एक ऄलग नम्बर से फोन फकया और कहावीरे न्द्र भाइ! मं गंभीर रूप से ऄस्वस्थ्य हो गया हूँ। मेरे हाटव की बायपास सजवरी हुइ है। घाव भर नही रहा है आसणलए बेटे के पास मुबंइ मं रहकर ऄपना आलाज करा रहा हूँ। मुझे पता है तुम दीपावली मं मुझे णवश करने के णलए बहुत याद फकए होवेगे और मेरा नम्बर लगा नहं होगा। बेटे ने मेरे णलए दूसरा नम्बर ले णलया । ऄब आसी से हमारी बात होगी आसे सुरणित कर लेना। और क्या चल रहा है तुम बताओ। मंने ‘णवश्वगाथा’ के व्यंग्य णवशेषांक के प्रकाशन और प्रकाशन स्थल, संपादक और ऄणतणथ संपादक के बारे मं णवस्तार से जानकारी दी। तब शुक्ल जी ने कहा- ऄरे वाह ! ऄणहन्द्दी भाषी िेि से णहन्द्दी पणिका णनकालने वाला तो कोइ जीवट णहन्द्दी सेवी ही हो सकता है यार। पंकज जी को मेरा नमस्कार कहना और मेरी भी कोइ पुरानी रचना भेज देना नही तो आस बार मं चूक जाउँगा पाटवनर । मंने शुक्ल जी की एक

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पुरानी रचना ‘झांकी झूठ न बोल’ टाआप करके ऄचवना जी को मेल की और मेल णमलने की जानकारी ली। सन्द्तुि होने के बाद शुक्ल जी को फोन फकया तो शुक्ल जी फकसी बच्चे की तरह प्रसन्न हो गए और बोले तुमने ऄच्छा फकया भाइ। जहां भी आस तरह णवशेषांक णनकले ऄपनी पंसद पर मेरी रचना भी भेज फदया करना। मं बहुत जल्दी रायपुर अ रहा हूँ। अते ही तुमको फोन करूंगा तुम अना फफर दोनो भाइ बैठकर खूब सारी बातं करे गे। बहुत याद अ रही है रायपुर और ऄपने णमिं की। ऄभी तुमसे बस एक बात कह रहा हूँ वीरे न्द्र भाइ! कभी व्यंग्य का दामन छोड़ना मत यार पाटवनर। मेरा अशीवावद सदैव तुम्हारे साथ है। मुझे क्या पता था फक यह वाक्य मेरे व्यंग्य गुरू का फदया हुअ ऄंणतम गुरू मंि है। जब से पता चला फक शुक्ल जी हम सबको ऄलणवदा कह गए तो ईनकी कही हुइ बातं याद अती है। लगता ही नहं फक शुक्ल जी ऄब नहं रहे। मेरे व्यंग्य गुरू का स्नेह मेरी धरोहर, अशीष मेरा संबल, सुझाव मेरी प्रेरणा और बातं मेरी लेखनी की ईजाव। शुक्ल जी को ऄपनी ऄश्रुपूटरत श्रिांजली ऄर्सपत करते हुए भी जाने क्यं मुझे ऐसा लगता है फक मेरी स्मृणतयं मं बार-बार अकर शुक्ल जी मुझसे कहंग-े वीरे न्द्र भाइ! व्यंग्य का दामन कभी छोड़ना मत यार पाटवनर। मेरा अशीवावद सदैव तुम्हारे साथ है। ~✽~

वीरे न्द्र‘सरल‘, बोड़रा ( मगरलोड़) णजला-धमतरी ( छ.ग.) मो07828243377

ISSN –2347-8764

रूसी प्रवासी

रूसी संस्कृ णत तमारा व्लासोवा (रणशया)

रुसी संस्कृ णत एक णवशाल ऐणतहाणसक और सांस्कृ णतक णवरासत है। रुसी लोगं का धमव आसाइ हं। रुसी घर : रुसी पारं पटरक अवास माना जाता है आज़्बा, लाँग का णनमावण णिकोणीय छत के साथ। प्रवेश द्वार एक पोचव है और घर को ऄंदर मं ओवन ओर तहखाने थेा रुस के शहरं और गाँवं मं आस तरह के आज़बा असानी से देखने को णमलते हं। रुसी राष्ट्रीय पोशाक : प्राचीन रुस मं पुरुषं कदाइ के साथ शटव, पंट और सन्द्टी के जूते, जो "लाप्ती" कहा जाता है पहनते थे। औरत की पोशाक यह एक लंबी कद़ाइ लंबे बाज़ू की शटव ओर सानदरे स के शणमल णववाणहत मणहलाओं के णलए एक साफ़ा पहना—पोवोयणनक (povoinik ) काहा जता है। ईत्सव साफ़ा कोकोशणनक (kokoshnik ) था। रोज़मराव की सिज़दगी मं रुसी लोग आस तरह के सूट नहं पहनते हं। आस ड्रेस का सबसे ऄच्छा ईदाहरण नृवंशणवज्ञान संग्रहालय मं देखा जा सकता है और नृत्य प्रणतयोणगताएँ पर और रुसी संस्कृ णत के त्यौहार पर। पारं पटरक रुसी भोजन : रुसी भोजन ऄपने सुप के णलए जाना जाता है—स्ची, सोणलयान्द्का, ईहा, रस्सोणल्नक, ओक्रोश्का। एक दूसरे पकवान अमतौर पर काशा पकाते थे। "स्चा दा काशा—पीस्चा नाशा" पुराने समय से कहते थे। आसका मतलब यह हं फक हमारे भोजन—स्ची और काशा। ऄक्सर भोजन तैयार करने मं आस्तेमाल दही, णवशेष रुप से पीरोगी, सीर्सनफक और विुश्की पकाने मं। णवणभन्न ऄचार और मटरनादेस लोकणप्रय है । रुस खाना रुसी भोजन के ऄनेक रे स्तराँ मं स्वाद लेना सकते है। रुसी त्यौहारं : रुस मं धमवणनरपेि और धार्समक त्यौहारं सेणलणब्रटी लेते हं। सबसे बड़ी राष्ट्रीय छु ट्टी नया साल है (अधी रात के 31-ददसंबर)। नया साल की छु टट्टयं मेँ दस फदनं के णलए पूरे देश काम से अराम णमलता हं। रुस मं पसंदीदा के रुप मं छु टट्टयं हं जन्द्मभूणम फदवस के णडफ़ं डर (23-फ़रवरी), अंतरावष्ट्रीय मणहला फदवस (8-मइ)। प्रमुख आसाइ छु टट्टयं इस्टर और फक्रसमस हं। एक दुसरे से लगभग अणवभाज्य रुसी लोक संस्कृ णत और त्यौहार मसलेणनत्सा, जो एक लप्राह के णलए रहता है रोज़ा के पहले। आस त्यौहार बुतपरस्ती मं ऄपनी जड़ं की है। लेफकन ऄब यह व्यापक रुप से इसाइ लोग मनाया जाता है। मसलेणनत्सा (maslenitsa ) भी सर्ददयं के णलए णवदाइ का प्रतीक। ईत्सव ताणलका का मुख्य भोजन—पेनके क्स है। पटरवार की परं पराओं और रुसी लोगं के अध्याणत्मक मूल्य : पटरवार हमेशा रुसी लोगं के णलए मुख्य और णबना शतव मूल्य फकया गया है। यही कारण है फक प्राचीन काल से यह ईनके पूवज व ं की याद करने के णलए महत्वपूणव था। ऄक्सर बच्चं को दादी और दादा के नाम फदए गए हं, बेटं ईनके णपता जी के नाम देते जाते हं। आस तरह से टरश्तेदारं के सम्बन्द्ध फदखाने के णलए एह करते हं। महत्वपूणव परं परा है णवरासत मं णमली चीज़ं का संचरण और पटरवार के गहनं । तो आस चीज़ं तरह की पीद़ी से दूसरी पीद़ी की ले गए और ऄप नी कहानी लाभ। ~✽~

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व्यंग्य

कहावतं का लोकतांणिक दशवन ब्रजेश कानूनगो दादीमाँ मालवी मं कभी कभी एक मुहावरा ऄक्सर बोला करती थी- 'बोलने वाला को मुंडं थोड़ी बंद करी सकां।' अशय यही रहता था फक हमं तो सदैव ऄपने मन की करते रहना चाणहए। जरूरी नहं फक हम वही करं जो सामने वाले के मन की बात हो। आसणलए फकसी के कु छ कहने बोलने की सिचता फकये वे जो करना चाहती थं, घर पटरवार मं, जाणत-णबरादरी मं, गाँव-मुहल्ले मं और यहां तक फक शादी-ब्याह और जलसं तक मं जो फदल करता बेणझझक कर डालती थं। पीएम की ‘मन की बात’ से बरसं पहले दादी रे णडयो पर भी मन की बात फकया करती थी। वह समय ही ऐसा था जब अकाशवाणी पर हर कोइ ऄपनी बात करता रहता था। खेती-गृहस्थी और मणहला सभा मं वे बणतयाती भी थं और मालवी के लोक गीत भी सुनाया करती थं। अज की तरह के वल स्टू णडयं मं ही गूंजकर नहं रह जाती थी अवाज, बणल्क पीएम की 'मन की बात' की तरह पूरा आलाका ईसे सुनता था जहां तक तरं गं पहुँचती थं। दादी यह भी कहती थं फक ‘जो बोलता है ईसका कचरा भी णबक जाता है, जो नहं बोलता ईसका सोना भी नहं णबकता। वह ऄपनी गद्दोी पर बैठा बस मणक्खयाँ ही णगनते रह जाता है।’ दादी की मणक्खयाँ णगनने मं कोइ ख़ास रूणच नहं थी और वे खूब बोलती थं। ईनके बोलने पर कोइ कु छ णवपरीत प्रणतफक्रया देता तो वे दूसरी कहावत 'हाथी जाए बाजार, कु त्ता भूँके हजार' को एकलव्य के बाण की तरह चलाकर कहने वाले का मुंह बंद कर देती थं। दूसरं को मुंह बंद न फकये जाने की णववशता की कहावत सुनाने वाली दादी स्वयं दूसरं की बोलती बंद करने मं माणहर थं। कभी-कभी दादीमाँ की ‘कथनी और करनी मं ऄंतर’ अ जाता था। यह कोइ ऄटपटी बात भी नहं है। अआये, आसे ज़रा समकालीन सन्द्दभं मं समझते हं। कहावत मं 'कथनी' को यफद अप संसद मं बोले जाने वाले मंिी के वक्तव्य की तरह लं तो पणब्लक मीरिटग के ईनके 'अह्वान' और ‘जुमलं’ को 'करनी' माना जा सकता है। 'कथन' मं कायव का संकल्प और करने की बाध्यता होती ISSN –2347-8764

है, वहं करनी मं ‘ईद्घोष’ और ‘अह्वान’ की शानदार प्रस्तुणतके जटरये लोगं का फदल जीतने की महज अकांिा णनणहत होती है। संसद मं यथाथव की नदी बहती है जबफक बाहर अश्वासनं की नावं तैराइ जा सकतं हं। सदन के बाहर ‘माके रिटग’ का जलवा है और सदन के भीतर ‘मेन्द्युफेक्चरिरग’ का संयि ं लगा रहता है। यही बड़ा ऄंतर है। जब तक दोनं का तालमेल नहं बनता तब तक ऄवरोध णनणित है। पटरणाम यह होता है फक पि-णवपि एक दूसरे को बोलने मं बाधक बनते हं। बड़ी कटठन पटरणस्थणतयाँ पैदा हो जाती हं. जटटल हो जाता है बहस का रास्ता। संसद ठप्प हो जाती है। लेफकन यह भी सच है फक जो असानी से णमल जाए, ईसकी गुणवत्ता संफदग्ध हो सकती है। दादी माँ का मुहावरा यहाँ फफर हमारा संबल बढाता है। वह यह फक ‘स्थायी लाभ और लक्ष्य प्राणप्त के णलए हमेशा संघषं का कटठन रास्ता चुनना चाणहए।’ हम आसका पालन करने को प्रणतबि हं, पहले राह को दुगवम बनाते हं फफर संघषो से लक्ष्य हांणसल करने के णलए कं टक पथ पर अगे बढ़ते जाते हं। ~✽~

ब्रजेश कानूनगो 503,गोयल रीजंसी, चमेली पाकव , कनाणडया रोड,आं दौर-452018 मो न.9893944294

बेटी शोभना श्याम ईस ऄधेड़ ईम्र के अदमी ने बस मं ऄपने पास बैठी 2223 वषव की युवती को बड़ी ही कामुक दृणि से देखते हुए लम्पट ऄंदाज़ मं पूछा -"क्या नाम है तुम्हारा ?" युवती ने ईत्तर फदया -"बेटी" ~✽~

घर नं. 4, माके ट रोड, DLF फे ज़-1 गुरुग्राम-122002

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Phone -9953235840

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व्यंग्य

दीदी तीन… जीजा पाँच ऄशोक णमश्र अज अपको एक कथा सुनाने का मन हो रहा है। एक गांव मं बलभद्दोर (बलभर) रहते थे। क्या कहा...फकस गांव मं? अप लोगं की बस यही एक खराब अदत है...बात पूछंग,े बात की जड़ पूछंगे और बात की फु नगी पूछंगे। तो चणलए, अपको णसलणसलेवार कथा सुनाता हूं। णसलणसलेवार कथा सुनाने के णलए मेरा भी एक पाि बनना बहुत जरूरी हो जाता है।...तो मेरे गांव मं एक बलभद्दोर रहते थे। ऄब अप यह मत पूणछएगा फक मेरा गांव कहां है? मेरा गांव कोलकाता मं हो सकता है, लखनउ मं हो सकता है, अगरा मं हो सकता है, तणमलनाडु , के रल, णहमाचल प्रदेश या पंजाब के फकसी दूर-दराज आलाके मं भी हो सकता है। कहने का मतलब यह है फक मेरा गांव सिहदुस्तान के फकसी कोने मं हो सकता है, ऄब यह अप की बुणि-णववेक पर णनभवर है फक अप आसे कहां का समझते हं, कहां का नहं। हां, तो बात यह हो रही थी फक मेरे गांव मं एक बलभद्दोर रहते थे। ईसी गांव मं रहते थे छे दी नाइ। तब मं ईन्द्हं आसी नाम से जानता था। ईस समय मं यह भी नहं जानता था फक ‘छे दी बड़का दादा’ (टरश्ते मं णपता के बड़े भाइ) यफद शहर मं होते तो छे दी सणवता कहे जाते। ईन फदनं जातीयता का णवष आस कदर समाज मं व्याप्त नहं था। तब ब्राह्मण, ठाकु र,पासी, कु म्हार अफद जाणतयं मं जन्द्म लेने के बावजूद लोग एक सामाणजक टरश्ते मं बंधे रहते थे। यह टरश्ता जातीय टरश्ते से काफी प्रगाढ़ था। लोग आस सामाणजक मयावदा का णनवावह णबना कोइ संग-पूछ णहलाए करते रहते थे। ऄगर ऄमीरीगरीबी का ऄंतर छोड़ दं, तो जाणत कहं से भी सामाणजक टरश्तं मं बाधक नहं थी। तो कहने का मतलब यह था फक छे दी जाणत के नाइ होने के बावजूद गांव मं फकसी के भाइ थे, तो फकसी के चाचा। फकसी के मामा, तो फकसी के भतीजे। हर व्यणक्त ईनसे ऄपने टरश्ते के ऄनुसार बातचीत और व्यवहार करता था। छे दी बड़का दादा को तब यह ऄणधकार था फक वे फकसी भी बच्चे को शरारत करते देखकर ईसके कान ईमेठ सकं , दो धौल जमाते हुए सीधे रस्ते पर चलने की सीख दे सकं । कइ बार वे मुझे भी यह कहते हुए दो कं टाप जड़ चुके थे, ISSN –2347-8764

‘अने दो पंणडत काका को। तुम्हारी णशकायत करता हूं। तुम आन लड़कं के साथ णबलाते (बरबाद) जा रहे हो।’ पंणडत काका बोले, तो मेरे बाबा जी। असपास की चैहद्दोी मं मेरे बाबा ‘पंणडत काका’ के नाम से ही जाने जाते थे। यहां तक फक मेरे णपता, चाचा और बुअ तक ईन्द्हं पंणडत काका ही कहती थं। हां, तो बात चल रही थी बलभद्दोर की और बीच मं कू द पड़े छे दी बड़का दादा। बात दरऄसल यह थी फक एक फदन भांग के नशे मं बलभद्दोर की कथा छे दी बड़का दादा ने मुझे सुनाइ थी। और ऄब कागभुसुंणड की तरह यह कथा मं अप सबको सुनाने जा रहा हूं। अप लोग सुनकर गुणनये। हां, तो बात यह हो रही थी फक मेरे गांव मं एक बलभद्दोर रहते थे। ईनके आकलौते बेटे थे श्याम सुद ं र। श्याम सुंदर की ईम्र जब सोलह-सिह साल की हुइ, तो ईसके घर ‘वीणडयो’ अने लगे। वीणडओ का मतलब नहं बूझे। ऄजीब बुड़बक हं अप लोग। अप लोगं को हर बात बुझानी पड़ती है। वीणडओ का मतलब है ‘वर देखुअ ऄणधकारी।’ ईन फदनं लड़के -लड़फकयां दस-बारह साल के हुए नहं फक शादी का जुअ (हल का ऄगला भाग, जो बैल के कं धे पर रखा जाता है) ईठाकर ईनके कं धे पर रख फदया जाता था। लो बच्चू! फदन भर पगुराते रहते हो, ऄब बैठकर णमयां-बीवी पगुराओ। तो कहने का मतलब यह है फक श्याम सुंदर के पगुराने का समय अ गया था। नाकथूक बहाने की ईम्र से ही लड़फकयं के णपता, भाइ, जीजा -चाचा श्याम सुंदर को देखने आते रहे, जाते रहे। कई लोग तो दहेज की मांग सुनकर ही गांव के बाहर से ही णखसक लेते थे। कु छ लोगं ने णहम्मत की भी, तो कभी लड़का पसंद नहं अया,तो कभी लड़के के पटरवार की हैणसयत। कइ बार तो ऐसा भी हुअ फक बलभद्दोर को लड़की वाले ही पसंद नहं अए। और फफर एक फदन गांववालं को पता चला फक श्याम सुंदर की शादी तय हो गइ है। गांव वाले भी खुश हो गए फक चलो..कइ साल से टलता अ रहा था। आस बार पूड़ीतरकारी खाने को णमलेगी। शादी की बात तय होने की

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देर थी फक बर-बरीच्छा, णतलक अफद कायवक्रम भी जल्दी-जल्दी णनपटा फदए गए। बलभद्दोर को यह भी डर था फक कहं गांव का ही कोइ णवघ्न संतोषी शादी मं ऄडंगा न लगा दे। ईन फदनं अज की तरह लड़के का कमाउपन तो देखा नहं जाता था। बस, लड़के की सामाणजक हैणसयत,जमीनजायदाद और घर का आणतहास देखा जाता था। अज की तरह लड़फकयं को फदखाने का भी चलन नहं था। तब लड़की के भाइ और बाप को ही देखकर गुण-ऄवगुण, रूप-रं ग अफद का फै सला हो जाता करता था। तो साहब! मेरे गांव मं जो बलभद्दोर रहते थे, ईनके बेटे के णववाह का फदन नजदीक अ पहुंचा। नइ पीढ़ी को शायद ही पता हो फक अज से चार-साढ़े चार दशक पहले तक शादी-ब्याह, णतलक, मुंडन, जनेउ अफद जैसे धार्समक और सामाणजक समारोहं मं नाइ की क्या ऄहणमयत होती थी। नाइ महाराज गायब तो मानो, सब कु छ ठप। चलती गाड़ी का चक्का जाम। साल भर नाइ को बात-बात पर णझड़कने वाले गांव के बड़े -बड़े दबंग िोग भी नाई की उन ददनं लल्लो-चप्पो करते रहते थे। नाइ के हर नखरे दांत णनपोरते हुए लोग बदावश्त करते थे। भले ही मन ही मन कह रहे हं, ‘सरउ रहो। तणनक काम-काज णनपट जाय, फफर बताआत है नखरा के हका कहत हं। जब फसल मा णहस्सा लेय ऄआहो, तबसिह सारी कसर णनकाल लेब।’ शादी के फदन सुबह से ही छेदी नाइ की खोज होने लगी। यं तो छे दी बड़का दादा का पूरा पटरवार काम मं जुटा हुअ था। ईनकी धमवपत्नी यानी हमारी बड़की ऄम्मा अटा गूंथने मं लगी हुइ थं। ईनकी दोनं पतोहं भी कोइ न कोइ काम कर रही थं। छे दी बड़का दादा के दोनं बेटे कु छ ही देर पहले शादी से संबंणधत कामकाज णनबटाकर लौटे थे। छेदी बड़का दादा को हर दो णमनट बाद खोजा जाने लगता और ईन्द्हं घर के असपास ही मौजूद देखकर घरवाले चैन की सांस लेते। दूल्हे की मां कइ बार णचरौरी कर चुकी थी, ‘भआया छे दी! देखना समणधयाने मं कोइ बात णबगड़ न जाए। मेरा लड़का तो बुद्धू है। तुम जानकार अदमी हो, सज्ञान हो। तुम्हं ISSN –2347-8764

लाज रखना।’ छे दी ने गुड़ का बड़ा-सा टु कड़ा मुंह मं डालते हुए कहा, ‘काकी! तुम सिचता न करो। मं हूं न।’ छे दी बड़का दादा की बुणि का लोहा पूरे गांव-जवार के लोग मानते थे। ऄगर णपछले एकाध दशक की बात छोड़ दी जाए, तो पंणडत और नाइ को बड़ा हाणजर जवाब और चतुर माना जाता था। छे दी नाइ वाकइ चतुर सुजान और हाणजर जवाब थे। एक बार की बात है। वे मेरी छोटी दादी के नैहर गए। ईन फदनं दादी ऄपने नैहर मं थं। जब छे दी वहां पहुंचे, तब तक सब लोग खा-पी चुके थे। दादी की मां ने पानीधानी लाकर णपलाया और कहा, ‘बेटा! ऄभी थोड़ी देर मं खाना लाती हूं, तब तक तुम नहा-धो लो।’ छे दी यह कहकर वहां ईपणस्थत लोगं से बणतयाने लगे फक मं सुबह ही नहा धो चुका हूं। ईधर घर मं दादी की मां ने जल्दी-जल्दी अटा साना और तवे पर मोटी-मोटी रोटटयां बनाने लगं। चूंफक, सारे बतवन जूठे पड़े थे,तो दादी की मां ने चकला-बेलन पर रोटटयां बेलने की बजाय हाथ से ही‘थप्प-थप्प’ रोटटयां बढ़ानी शुरू कं। बातचीत के दौरान ईनका ध्यान रोटटयं पर ही लगा रहा। तवे पर ‘थप्प’ की अवाज के सहारे ईन्द्हंने ऄनुमान लगा णलया फक फकतनी रोटटयां बनाइ गइ हं। जब वे खाने बैठे, तो ईनके सामने दो रोटटयां, थोड़ा-सा भात, कटोरी मं सब्जी और ऄचार-णसरका फदया गया। ईन्द्हंने दोनो रोटटयां खा ली, तो दादी की मां ने पूछा, ‘बेटा! और रोटटयां चाणहए?’ छे दी ने मुस्कु राते हुए कहा, ‘हां नानी! दे दीणजए।’ दादी की मां ने दो रोटटयां और लाकर रख दं। अंगन मं बैठी मेरी दादी (गांव के टरश्ते से मेरी दादी ईनकी काकी और ईनकी मां नानी लगती थं) और ईनकी मां से बणतयाते-बणतयाते, गांवजंवार का हालचाल बताते-बताते वह दो रोटटयां भी चट कर गए। थाली मं जब रोटटयां खत्म हो गईं, तो दादी की मां ने एक बार फफर पूछा, ‘छे दी बेटा! और रोटटयां चाणहए फक नहं?’ छे दी ने मुस्कु राते हुए कहा, ‘नानी! एक रोटी और दे दीणजए।’ यह कहना था फक दादी की मां सन्न रह गईं। दरऄसल, ईन्द्हंने चार ही णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

रोटटयां बनाइ थं। ईन्द्हंने णखणसयाए हुए स्वर मं कहा, ‘बेटा..रोटटयां तो चार ही बनाइ थी। भात खा लो। नहं तो थोड़ी देर रुके , मं रोटटयां और सेक देती हूं।’ छे दी ने लोटे से गटागट पानी पीने के बाद कहा, ‘रहने दीणजए नानी.. ऄब बनाने की जरूरत नहं है। आतने से ही पेट भर जाएगा।’ मेरी दादी ने यह सुनकर छे दी को प्यार से णझड़कते हुए कहा, ‘ऄम्मा! आसका पेट भर गया है। यह आतना मुरहा है फक ओसारे मं बैठा यह रोटटयां णगनता रहा होगा। आसने जान-बूझकर और रोटी मांगी है।’ दादी की बात सुनकर छे दी ठहाका लगाकर हंस पड़े। जब दादी लौटकर ससुराल अईं, तो वे जब भी णमलतं,तो ईलाहना देत,े ‘काकी! तोहरे नैहरे मां हम्मै भर पेट खाना नहं णमला।’यह सुनते ही दादी मुस्कु राती हुइ खूब खरी खोटी सुनाती थं। ईनकी बुणि की एक और णमसाल अपके सामने पेश करता हूं। ईन फदनं मं लखनउ मं दसवं किा मं पढ़ता था। हर साल गमी की छु टट्टयं मं गांव जाना तय रहता था। एक फदन का वाकया है। मेरे छोटे भाइ के बाल छे दी बड़का दादा काट रहे थे। ईनके अगे मं ऄपना ज्ञान बघार रहा था, ‘बड़का दादा...अपको मालूम है? पृथ्वी सूयव के चारं ओर चक्कर लगाती है और चंरमा पृथ्वी का चक्कर लगाता है। और आतना ही नहं, पृथ्वी ऄपनी धुरी पर भी नाचती है। एकदम लट्टू की तरह।’ मेरे आतना कहते ही छे दी बड़का दादा णखलणखलाकर हंस पड़े, ‘तुम्हारा पढ़नाणलखना सब बेकार है। यह बताओ गधेराम...ऄगर पृथ्वी माता सूरज भगवान का चक्कर लगाती हं, तो हम सब लोगं को मालूम क्यं नहं चलता। ऄब तुम कहते हो फक धरती मआया ऄपनी धुरी पर नाचती भी हं। तो यह बताओ, ईन्द्हं नचाया फकसने? जैसे लट्टू थोड़ी देर नाचने के बाद रुककर णगर जाता है, वैसे ही ऄब तक धरती मआया क्यं नहं णगरं। और ऄगर वे णगरतं, तो ऄब तक चलते-चलते हम लोग फकसी गड़ही-गड़हा (गड्ढे) मं णगर गए होते। हमारे घर-दुवार फकसी ताल-तलैया मं समा गए होते।’

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ईनकी आस बात का जवाब मेरे पास नहं था। मं लाख तकव देता रहा,स्कू ल मं रटे गए सारे णसिांत बघारे , लेफकन वहां बैठे लोग छे दी नाउ का ही समथवन करते रहे। तब सचमुच मुझे सापेिता का णसिांत नहं पता था। या यं कणहए फक रेन मं बैठने पर णखड़की से देखने पर पेड़ं के भागने का ईदाहरण नहं सूझा था। अणखर था तो दसवं क्लास का ऄदना-सा स्टू डंट। खैर...। बात कु छ आस तरह हो रही थी फक मेरे गांव मं जो बलभद्दोर रहते थे,ईनके बेटे श्याम सुंदर की बारात दो घंटे लेट से ही सही दुल्हन के दरवाजे पहुंच गइ। थोड़े बहुत होहल्ला के बाद द्वारपूजा, फे रं अफद का कायवक्रम भी णनपट गया। आस झमेले मं दूल्हा और छे दी काफी थक गए। लेफकन मजाल है फक छेदी ने दूल्हे का साथ एक पल को भी छोड़ा हो। वैसे भी ईन फदनं दूल्हे के साथ साए की तरह लगा रहना, नाइ का परम कतवव्य माना जाता था। आसका कारण यह है फक तब के दूल्हे ‘चुगद’ हुअ करते थे। ससुराल पहुंचते ही वे साले-साणलयं से ‘हाय-हेल्लो या चांय-चांय’ नहं फकया करते थे। सालेसाणलयं से खुलते-खुलते दो-तीन साल लग जाते थे। हां, तो अंखं णमचणमचाते छे दी दूल्हे के हमसाया बने ईसके अगे-पीछे फफर रहे थे। सुबह के सात-अठ बजे कलेवा खाने के बाद कन्द्या पि की ओर से फकसी ने हल्ला मचाया, ‘दूल्हे को कोहबर के णलए भेजो।’ यह गुहार सुनते ही छे दी चंक ईठे । थोड़ी देर पहले ही दूल्हे के साथ ईन्द्हंने झपकी ली थी। लेफकन बलभद्दोर ने जैसे ही दूल्हे से कहा, ‘भआया, चलो ईठो। कोहबर के णलए बुलावा अया है।’ छे दी ने जमुहाइ लेते हुए दूल्हे के णसर पर रखा जाने वाला ‘मौर’ ईठा णलया और बोले, ‘श्याम भआया, चलो।’ जनवासे से पालकी मं सवार दूल्हे के साथसाथ पैदल चलते छे दी नाउ ईन्द्हं समझाते जा रहे थे, ‘भआया, शरमाना नहं। साणलयां हंसी-टठठोली करं गी, तो ईन्द्हं कराव जवाब देना। ऄपने गांव-जवार की नाक नहं कटनी चाणहए। लोग यह न समझं फक दूल्हा बुद्धू है, वरना ससुराल वाले तो भआया तुम्हं सिजदगी भर ताना मारं गे। साणलयांISSN –2347-8764

सलहजं हंसी ईड़ाएंगी।’ पालकी मं घबराए से दूल्हे राजा बार-बार यही पूछ रहे थे, ‘कोहबर मं क्या होता है, छे दी भाइ। तुम तो ऄब तक न जाने फकतने दूल्हं को कोहबर मं पहुंचा चुके हो। तुम्हं तो कोहबर का राइ-रत्ती मालूम होगा।’ ‘ कु छ खास नहं होता, भआया। णहम्मत रखो और करे से जवाब दो, तो साणलयां फकनारे नहं अएंगी।’ छे दी नाइ मुस्कु राते हुए दूल्हे को सांत्वना दे रहे थे। तब तक पालकी दरवाजे तक पहुंच चुकी थी। पालकी से ईतरकर दूल्हा सीधा कोहबर मं चला गया और छे दी कोहबर वाले कमरे के दरवाजे पर अ डटे। घंटा भर लगा कोहबर का कायवक्रम णनपटने मं। आसके बाद दूल्हे को एक बड़े से कमरे मं णबठा फदया गया। टरश्ते-नाते सणहत गांव भर की मणहलाएं और लड़फकयां दूल्हे के आदव-णगदव अकर बैठ गईं। लड़फकयां हंस-हंसकर दूल्हे से चुहुल कर रही थं। ईनके नैन बाणं से श्याम सुंदर लहूलुहान हो रहे थे। कु छ प्रौढ़ मणहलाएं लड़फकयं की शरारत पर मंद-मंद मुस्कु रा रही थं। तभी एक प्रौढ़ मणहला ने दूल्हे से पूछा, ‘भआया, तुम्हारे खेती फकतने बीघा है?’ सवाल सुनकर भी दूल्हा तो साणलयं के नैन मं ईलझा रहा, लेफकन छे दी नाइ सतकव हो गए। ईन्द्हं याद अया, चलते समय काका ने कहा था, ‘बेटा बढ़ा-चढ़ाकर बताना।’ सो, ईन्द्हंने झट से कहा, ‘बयाणलस बीघे।’ दूल्हा यह सुनकर प्रसन्न हो गया। मन ही मन बोला, ‘णजयो पट्ठे! तूने गांव की आज्जत रख ली।’ आसके बाद दूसरी मणहला ने बात अगे बढ़ाइ, ‘दूल्हे के चाचा-ताउ फकतने हं?’ रे डीमेड जवाब तैयार था छे दी नाइ के पास, ‘वैसे चाचा तो दो हं, लेफकन चाणचयां चार हं।’ यह जवाब भी सुनकर दूल्हा मगन रहा। वह ऄपनी सबसे छोटी साली को नजर भरकर देखने के बाद फफर मन ही मन बोला, ‘णजयो छे दी भाइ...क्या तीर मारा है।’ पहली वाली मणहला ने ब्रह्मास्त्र चलाया, ‘और बुअ?’ छे दी ने एक बार फफर तुक्का णभड़ाया, ‘बुअ तो दो हं, लेफकन फू फा साढ़े चार।’ सवाल णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

का जवाब सुनते ही दूल्हा कु नमुना ईठा। दूल्हे ने ऄपना ध्यान चल रहे वातावलाप पर कं फरत फकया और णनगाहं ही णनगाहं मं ईसने छे दी से ईलाहना फदया, ‘ऄबे क्या बक रहा है?’ लेफकन बात णपता के बणहन की थी, सो ईसने णसफव ईलाहने से ही काम चला णलया। तभी छे दी भी सवाल दाग बैठे, ‘और भईजी के फकतनी बणहनी हं?’ वहां मौजूद मणहलाएं चंक गईं। एक सुमुखी और गौरांगी चंचला ने मचलते हुए पूछ णलया, ‘कौन भईजी?’ छे दी के श्यामवणी मुख पर श्वेत दंतावणल ऄंधरे े मं चपलावणल-सी चमक ईठी, ‘ऄपने श्याम सुंदर भआया की मेहरारू...हमार भईजी...।’ आस बार दूल्हे ने प्रशंसात्मक नजरं से छे दी को देखा। दोनं की नजर णमलते ही छेदी की छाती गवव से फू ल गइ, मानो कह रहे हं, ‘देखा...फकस तरह आन लोगं को लपेटे मं णलया।’ सुमुखी गौरांगी चंचला ने आठलाते हुए कहा, ‘चार...णजसमं से एक की ही शादी हुइ है...तुम्हारे भआया के साथ। बाकी ऄभी सब कलोर हं।’ तभी एक दूसरी श्यामवणी बाला ने नाखून कु तरते हुए पूछ णलया, ‘हमरे जीजा जी के फकतनी बणहनी हं। सब मस्त हं न!’ छे दी के मुंह से एकाएक णनकला, ‘दीदी तो तीन हं, लेफकन जीजा पांच।’आधर छे दी के मुंह से णनकला यह वाक्य पूरा भी नहं हो पाया था फक दूल्हा यानी श्याम सुंदर ऄपनी जगह से ईछला और छेदी पर णपल पड़ा, ‘तेरी तो...नालायक! बप्पा ने आज्जत बढ़ाने के णलए कहा था फक आज्जत ईतारने के णलए? नणसयाकाटा..हमरी बणहन की इ बेआज्जती...ऄब तुमका सिजदा ना छोड़ब..।’ आसके बाद क्या हुअ होगा। आसकी अप कल्पना कर सकते हं। मुझे आसके बारे मं कु छ नहं कहना है, कोइ टटप्पणी नहं करनी है। हां, मुझे छे दी बड़का दादा का यह समीकरण न तो ईस समय समझ मं अया था और न ऄब समझ मं अया है। ऄगर अप मं से कोइ आस समीकरण को सुलझा सके , तो कृ पा करके मुझे भी बताए फक जब श्याम सुद ं र के दीदी तीन थं, तो जीजा पांच कै से हुए? ~✽~

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अलेख

बेऄसर होती नसीहतं रीभा णतवारी मनुष्य जीवन इश्वर का फदया एक ऄनमोल ईपहार है। आसे व्यथव न जाने देने की हमेशा नसीहतं दी जाती हं। ऄफसोस अज की भागदौड़ भरी णजन्द्दगी मं मनुष्य के णलए नसीहतं का कोइ मूल्य नहं रहा। ऄथव प्रधान युग मं जीवन पर ऄथव आस कदर हावी हो गया है फक एक पढ़ा-णलखा, णशणित-समझदार, स्वावलम्बी हर तरह की सुणवधाओं से पूणव व्यणक्त भी अत्मघाती कदम ईठाने से नहं णहचकता। अज का आं सान णबल्कु ल ऄके ला है। ईसका यही एकाकीपन और मानणसक संिास ईसे अत्मघाती णनणवय लेने को प्रेटरत करता है। कहने को मनुष्य योणन को समस्त प्राणण जगत की सववश्रेष्ठ योणन माना जाता है। आस सववश्रेष्ठता के कारण ही आं सान मनुष्य जन्द्म को लेकर गौरवाणन्द्वत महसूस करता है। मनुष्य की सववश्रष्ठ े ता का अधार ईसकी सदबुणि और णववेकशीलता है। मनुष्य की श्रेष्ठता का अधार है फक ईसने फकतना स्वाथव छोड़ा है। वेदशास्त्रानुसार वह फकतना मनुष्य बन पाया, ईसने फकतना जीवन परमाथव मं लगाया है। आस जगत के कल्याण मं वह फकतना णनणमत्त बना, पीड़ा से कराह रहे फकतने व्यणक्तयं मं ऄपनत्व देखकर ईन पर ऄपनी ओर से फकतनी करुणा णबखेरी, भूख-प्यास से णबलखते लोगं की चीत्कार सुनकर फकतनं के अंसू पंछकर गले से लगाया, फकतने भूख-े प्यासं के काम अकर ऄपने धनी होने का पटरचय फदया। दरऄसल, जीवन भर काम, क्रोध, मोह, लोभ, ऄहंकार, इष्याव, द्वेष, सिनदा, छल, कपट तथा ठगी करता आं सान जब स्वयं को समस्त प्राणणयं मं श्रेष्ठ योणनधारी होने का ऄहंकार पालता है, तब ऄफसोस और हैरत होती है। पशु-पिी स्वावलम्बी हं। मनुष्य परावलम्बी है। पशुपिी ऄपना अहार स्वयं खोज लेते हं जबफक मनुष्य को एक ऄच्छा जीवन णनवावह करने के णलए कटठनाइ का सामना करना पड़ता है। ईसे पथ-प्रदशवक चाणहए। पशुपिी बीमार हो जाते हं तो ऄपनी णचफकत्सा भी स्वयं खोज लेते हं, अदमी पराणश्रत है, णचफकत्सा के ऄभाव मं ISSN –2347-8764

वह मर भी सकता है। पशु-पिी ऄपना पेट भर जाने के बाद बचे भोजन की तरफ अंख फे र कर भी नहं देखते जबफक अदमी पेट भर जाने के बाद भी भूखा है। आं सान की यही ऄथव भूख ईसे न के वल कमजोर कर रही है बणल्क अत्महत्या का प्रमुख कारण भी है। समस्या और कारण जो भी हं पर समाज मं अत्महत्या की बढ़ती वारदातं कइ सवालं को जन्द्म दे रही हं। बदलते समाज का कटु सत्य यह है फक अज आं सान समस्याओं के सामने ऄसहाय है, ईसकी यही लाचारी और णववशता ईसे अत्मघाती कदम ईठाने को णववश कर रही है। ऄब सवाल यह ईठता है फक क्या कोइ भी समस्या मूल्यवान जीवन से भी जटटल हो सकती है णजसे वह व्यणक्त सहन ही न कर सके । अत्महत्या व्यणक्त तीन कारणं से करता है। एक तो तब जब ईसके हालात की वजह से ईसके आदव-णगदव के लोग दुखी हं और ईस दुख के णलए वह खुद को या खुद के हालात को कसूरवार मानता हो। दूसरा तब जब फकसी भी हालत मं हालात के बदलने की गुंजाआश नहं बचे। तीसरा यह फक ऄगर वो खुद स्वतंि रूप से फै सला ले तो भी ईसे णजनको वह ऄपना मानता है, ईनके दुखी हो जाने या खो देने का भय ईसे स्वतंि फै सला लेने नहं दे। कारण जो भी हो मन जब कुं टठत होता है और व्यणक्तस्वयं को ऄसहाय महसूस करने लगे तो भावावेश मं अकर आस तरह का फै सला लेने की सोच बैठता है। सुनने मं अता है व्यणक्त समाज के भय से ऐसा फै सला ले लेता है। ये कै सा समाज और कै सी सामाणजकता? यफद समाज ही सब कु छ है तो फफर कै सा डर, फकसका डर? क्या समाज हमं ऄपनी गलणतयं को सुधारने का मौका नहं दे सकता? क्या वह हमारे कमजोर िणं मं हमं अत्मबल प्रदान नहं करा सकता? णजस समाज के बारे मं हमं बचपन से ही णसखाया जाता है फक ऐसा न करो समाज के लोग क्या कहंगे। तो फफर क्यं हमारा समाज हमं ऄपने णवचारं के साथ जीने नहं देता। जीवन मं बहुत सारी मुणश्कलं अती हं और जो आन

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मुणश्कलं मं धैयव और साहस के साथ ऄपने मानणसक ईथल-पुथल की ऄवस्था मं भी ऄपने को मजबूत और सकारात्मक सोच के साथ जीने के णलए तैयार कर लेता है वही बहादुर है। ईसके पास ही जीने की कला है। कोइ खुशी-खुशी हर हाल मं जी लेता है और कोइ छोटी सी तकलीफ भी सहन नहं कर पाता और मौत को गले लगा लेता है। ये ऄलग बात है फक मरने के बाद हम ईसे कायर, बुजफदल तो कभी संवेदनशील न जाने फकन-फकन नामं से सम्बोणधत करते हं। यह भी समाज की एक णवडम्बना ही तो है फक जीते जी फकसी की व्यथा को सुनने और सुलझाने भर का समय अज फकसी के पास नहं है। हर व्यणक्तऄपने मं मशगूल है। ईसे दूसरं की फफक्र ही नहं है, क्या आसी का नाम समाज है जहां ईसके

अलेख

भय से लोग मौत को गले लगा लेते हं। यफद हर अत्महत्या के पीछे सामाणजक सरोकार ही णजम्मेदार हं तो फफर हमं ऐसे समाज को बदलना होगा। एक नये समाज की स्थापना करनी होगी जहां व्यणक्त एक-दूसरे की भावनाओं को समझे, ईसके दु:ख-ददव को सुने और अत्मघाती कदम ईठाते लोगं का अत्मबल बढ़ाये। मनुष्य संसार का सववश्रेष्ठ प्राणी तभी माना जाएगा जब वह प्रेम, दया, ईदारता, सहानुभूणत, सहयोग, परणहत, करुणा, संवेदना, मानवता, परोपकार अफद मानवीय मूल्यं के साथ णजए और मानवीय दुबवलताओं को ऄपने दैणनक जीवन मं कोइ स्थान न दे।

राजसमंद, सवाइ माधोपुर, टंक, झालावाड़, दौसा, बूंदी, णचत्तौडग़ढ़, दौसा, ऄजमेर, करौली, बारां, ऄलवर, पाली, नागौर, ईदयपुर और गगव प्रतापगढ़। एक ऄन्द्य टरपोटव के मुताणबक णपछले पांच साल मं प्रदेश मं अठ हजार बाल णववाह रुकवाए गए। ये तो वे अंकड़ं हं, जो णशकायत के बाद णलखा गया होगा। णजनकी णशकायत ही नहं हुइ, ईन मामलं की संख्या का ऄंदाजा शायद ही लग सके । बाल णववाह रोकने की फदशा मं सरकारं णनयम-कानून बनाकर ऄपनी आणतश्री कर रही हं। अपको जानकर ताज्जुब होगा फक राजस्थान मं बाल णववाह के समूल खत्मे का ऄणधकार णजस सरकार के पास है, ईसके 200 मं से 70 णवधायक कम ईम्र मं ही णववाह के बंधन मं बंध गए थे। आनमं 63 पुरुष णवधायक और 7 मणहला णवधायक शाणमल हं। मणहला णवधायकं मं सूयवकांता व्यास, सुशील कं वर, कमसा, णशमला देवी, गोलमा देवी, राजकु मारी और संजना अगरी शाणमल हं। राजस्थान की वतवमान 14वं णवधानसभा के सबसे युवा सदस्य कै लाश वमाव णववाह के समय 15 साल नौ माह के थे। प्रदेश मं लागू कानून के तहत णववाह को कानूनी मान्द्यता तब ही णमल सकती है, जबफक णववाह के समय लडक़ी की अयु 18 और पुरुष की 21 साल हो। प्रदेश के ग्रामीण आलाकं मं बाल णववाह को आसणलए सही ठहराया जा रहा है फक आससे लडक़े -लड़फकयं के कदम बहकते नहं। समाजं का तकव है फक लड़फकयां बड़ी होकर

राजस्थान मं बाल णववाहं की जय जय ऄणमत बैजनाथ

देश अजाद है, लेफकन सामाणजक बुराआयं की बेणडय़ां अज तक नहं टू ट पाइ हं। ऐसी ही एक बुराइ है बाल णववाह। आसमं मासूम बचपन को घंटने का काम अज भी जारी है। भले ही सरकारं बाल णववाह के समूल खात्मे का दावा करती फफरं , लेफकन सच स्याह है। बाल णववाह के मामले मं देश मं ईत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर अने वाले राजस्थान मं अज भी बाल णववाह हो रहे हं। ऄबूझ सावे अखातीज पर भी और ऄन्द्य फदनं मं भी। सरकारं ने बाल णवकास के नाम पर करोड़ं रुपए के बजट पाटरत कर फदए, लेफकन आस कु प्रथा से देश-प्रदेश को अज तक णनजात नहं फदला पाए। भले ही कानूनी रूप से बाल णववाह पर प्रणतबंध है, लेफकन सामाणजक और अर्सथक रूप से ये अज भी होते हं। यूणनसेफ की टरपोटव की मानं तो 20-24 की ईम्र वाली 47 फीसदी भारतीय मणहलाओं की शादी 18 साल की वैध ईम्र से पहले ही कर दी गइ। आसमं 56 प्रणतशत मणहलाएं ग्रामीण िेिं से थं। दुणनयाभर मं होने वाले बाल णववाहं का अंकड़ा ऄके ले भारत मं ही 40 फीसदी है। वहं राजस्थान मं राज्य णवणधक सेवा प्राणधकरण के ऄनुसार 17 णजले ऐसे हं, जहां बाल णववाह काफी संख्या मं हो रहे हं। ये हं भीलवाड़ा, ISSN –2347-8764

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ऄपने फै सले खुद लेती हं, णजससे समाज की ऄहणमयत कम हो जाती है। बड़ी होकर लडक़ी मनमजी से शादी कर लेगी, तो पटरवार और समाज की नाक कट जाएगी। सरकारं को आस मसले पर फौरी काम करने की जगह गंभीरता से सोचना होगा। आस िेि मं काम करने वाले लोग-संस्था बताते हं फक मणहला एवं बाल णवकास णवभाग को गंभीर मंिी-ऄणधकारी देने के साथ ही णजम्मेदार भी बनाना होगा। वहं बाल णववाह प्रणतषेध ऄणधणनयम-2006 मं भी बदलाव कर ईसे और ऄणधक व्यापक बनाए जाने की भी दरकार है। सामाणजक कायवकतावओं की सुरिा भी एक ऄहम मसला है। बाल णववाह णनरस्त करवाने की फदशा मं काम कर रही कृ णत भारती कहती हं फक कानूनं को लागू करने मं सरकार ने बेरुखी फदखाइ है। प्रदेश मं ऄब तक करीब 35 बाल णववाह ही णनरस्त हो पाए हं। वहं णशवजीराम यादव कहते हं फक सरकार-प्रशासन पर जाणत पंचायतं हावी हं, दबंगइ करने वाले एणक्टणवस्टं को सरे राह धमकी दे रहे हं। वहं पटरवार व जाणत पंचं के णखलाफ जाकर बाल णववाह तोडऩे-णनरस्त करने वाले मासूमं का पुनवावस भी काफी मुणश्कल से होता है। सरकारी स्तर पर ऐसे कोइ प्रयास नहं फकए जाते। आसके चलते दूसरे मासूम अगे अने की णहम्मत नहं जुटाते। सरकार को प्रशासन, समाज व संस्थाओं को साथ लेकर काम करना होगा, तभी आस फदशा मं साथवक पटरणाम सामने अ पाएंगे। ए-27, कृ णष नगर-ए, तरु छाया नगर, तारं की कू ट, टंक रोड, जयपुर, राजस्थान. णपनकोड-302011 मो.: +91 96808 71446

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नदी मरती नहं नारी सम्वेदना के मूल धरातल को बयाँ करता ईपन्द्यास णप्रयंवदा ऄवस्थी

नदी मरती नहं : गीतांजणल चटजी, प्रकाशक : यश पणब्लके शंस, फदल्ली, मूल्य : 395/ऄपने नए ईपन्द्यास- "नदी मरती नहं" के द्वारा नारी सम्वेदना को वास्तणवकता के धरातल पर ईके रने की कला मं पारं गत लेणखका गीतांजणल चटजी ने एक बार पुनः साणहत्य प्रेणमयं के मध्य अम भारतीय समाज के णभन्न णभन्न वगं की मानणसक समताओं णवषमताओं को एक साथ एक स्थान पर रखकर मथ सा फदया है। पटरणामतः आसी समाज से उपर ईथला अये, से कु छ णवणशि पािं को चुनकर यथाथव जीवन के बेहद नाज़ुक फकन्द्तु वैचाटरक णवमशव को बाध्य करती तमाम णवडम्बनाओं णवसंगणतयं को प्रस्तुत कर हर अयु तथा वगव से जोड़ने की वे पुनि कोणशश करती नजर अएंगी। कहानी की मुख्य पाि माया के द्वारा लेणखका ने जीवन के णभन्न णभन्न अयामो को बखूबी प्रस्तुत फकया है । कही वक्त के साथ बदलते पीफढ़यं के अपसी टरश्तं का सच, कहं कच्ची बस्ती की संकुणचत गणलयाटरयं की नारी पािा और ईसकी ऄथक पीड़ा, कहं खुले समाज की संकुणचत मानणसकता, तो कहं मानवीय मूल्यं को ईजागर करती सम्वेदना जगह जगह पर पसारती नज़र अइ। बेशक 'नदी मरती नहं' बणल्क हृदय के तारं को छू कर मणस्तष्क तक पहुंचती है । सुदढ़ृ सुगटठत सुणनयोणजत सरल सरस भाषा शैली रोचक प्रसंगं के माध्यम से वे पूवव मं भी वे सामाणजक पटरवेश से तकव संगत णवषयवस्तु ईठाकर णजस प्रकार सुदढ़ृ कथानक प्रस्तुत करती रही है अशा है 'नदी कभी मरती नहं' के माध्यम से वे पुनः हर तबक़े से गहरे जुड़ती हुइ भी फदखंगी। ISSN –2347-8764

सरल भाषा शैली का प्रयोग एवम ऄत्यंत सहज संवाद रुणचकर बने हं जो क्रमवार ऄग्रसाटरत कथा मं कु तूहल पैदा करता हुअ नजर अता है । संवादं मं शब्दं का समुणचत संयोजन देखने को णमलता है । आस समाज के चढ़ते बढ़ते जीवन के णभन्न णभन्न पड़ाव ऄनणगनत अयामं पर ऄपनी सूक्ष्म दृणि डालते हुए ईन्द्हंने ऄपनी बौणिक णवलिणता से पटरपक्व कर धरातल पर प्रस्तुत फकया है । पिं के वातावलाप सहज स्वीकृ त हुए से पटरलणित होते हं तथा कहं वे अणवष्कृ त तथा कहं पटरष्कृ त होते हुए भी फदखे । धाराप्रवाह शब्द सौष्ठव को लेकर चलती मानवीय सम्वेदनाओं को जोड़ती कहानी के भीतर से ईपजती और कहाणनयां ईनके जीवन के कु छ एक अधारभूत सत्य का ऄवलोकन कराती समूची कथा कइ कइ बार हर अयु हर वगव के समाज का मनोवैज्ञाणनक परीिण करता दीखता है और नैणतक भावनात्मक मूल्यांकन समाज को बहुत कु छ सोचने पर णववश भी करता है । कु ल णमलाकर यह कथा ऄपने अप मं समाज जीवन का वो प्रणतसिबब है फक जो हमारे असपास के जीवन को धरातल के मंच पर वास्तणवकता के अधार पर बयाँ करता है । लेणखका गीतांजणल चटजी को बहुत बहुत ऄणभनंदन । ~✽ ~ गीतांजली चटजी C/o. कमांडर देवाणशष चटजी 'हरणमटेज', 90, मनहर पाकव , नोवीनो-तरसाली रोड, बडौदा-390 010 ( गुजरात) ~✽ ~

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नक़्क़ाशीदार के णबनेट पुष्पा सक्सेना कल रात साढ़े बारह बजे सुधा जी का ईपन्द्यास समाप्त फकया। शुरू तो पहले फकया था, पर बीच मं दीपावली और ऄणतणथयं के कारण बीच-बीच मं छोड़ना णववशता थी। णवराम देने के बाद भी मन ऄटका रहता था, अगे क्या होने वाला है। ईपन्द्यास की पृष्ठभूणम पंजाब और ऄमरीका है। ईपन्द्यास का शीषवक ही एक रहस्यात्मकता का सन्द्देश देता सा प्रतीत होता है। आस के णबनेट के भीतर क्या है, जानने की ईत्सुकता होना स्वाभाणवक ही है। सारांश मं आसकी कहानी बताते हुए मं आसके ऄन्द्य पिं को ईजागर करूँगी; णजन्द्हंने आस ईपन्द्यास को पठनीय और रोचक बनाया। बेहद रहस्यनीय ईपन्द्यास है, शुरू से ऄंत तक हृदय और बुणि को बाँधे रखता है। ईपन्द्यास जब तक समाप्त नहं होता, बेचन ै ी बनी रहती है। गज़ब की फक़स्साग़ोइ है। णवदेशी प्रवेश और भारत की समस्याओं को लेकर यह ऄद्भुत ईपन्द्यास है; जो एक प्रवासी लेखक ही णलख सकता है। ईपन्द्यास के शुरू मं ही ऄफरातफरी का माहौल यह नहं बताता फक क्या होने वाला है। लोग घरं की तरफ जा रहे हं। बच्चं के स्कू ल, कॉलेज, ऑफफस सब बंद हो गए हं, पर क्यं? मन मं ईत्सुकता जागती है। ऄंतत: टी.वी पर अ रही सूचना से अने वाले णवनाशकारी तूफ़ान के णवषय मं जानकारी णमलती है। भारी बफीले तूफ़ान मं, सौ मील प्रणत घंटे की रफ़्तार से तेज़ हवाओं के साथ वषाव मानं प्रलय का दृश्य साकार करती है। आस तूफ़ान का आतना सजीव णचिण फकया गया है फक पाठक स्वयं को भी ईस तूफ़ान को झेलता ऄनुभव करता है। णखड़की से घर के ऄन्द्दर अया वृि डराता है। पानी की तेज़ बौछार से घर मं पानी भर जाने का संकट पाठक ऄनुभव करता है। ईस ऄँधेरी तूफ़ानी रात मं रोने- णचल्लाने की अवाज़ं, हवा मं ईड़ते कपड़े, णखलौने, तूफ़ान की भयंकरता स्पि करते हं। आस भयंकर तूफ़ान के बावजूद पुणलस द्वारा हेणलकॉप्टर से पहुँचने से मन को राहत णमलती है। चोरं को पकड़ने की फदशा मं पुणलस की दिता स्पि है। आस तूफ़ान ने घर मं सुरणित रखी गइ के णबनेट को नि कर फदया और ईसमं रखी गइ कीमती डेकोरे शन पीसेज़ बाहर णगर कर टू ट गए। मुख्य पाि सम्पदा को दुःख है फक आस देश से पटरणचत होने के बाद ऄनुभवं का ढेरं खज़ाना समेटने के ऄनंतर एक ISSN –2347-8764

डॉक्टर, सामाणजक कायवकताव के जीवन मं फकए गए कइ प्रयासं और प्रयोगं से भरी सामग्री के णबनेट मं पानी भर जाने के कारण नि हो गइ। के णबनेट को दीवार के सहारे खड़ा करने पर एक कोने मं एक काले कवर की डायरी णमलती है। ऄब आस डायरी मं क्या है, जानने को पाठक ईत्सुक हो ईठता है। सम्पदा को याद अता है, ईसे णजस लड़की ने यह डायरी दी थी, ईसने ईनसे ऄनुरोध फकया था फक वह ईस डायरी पर ईसके बारे मं कु छ णलखं, पर सम्पदा ने ईसे ईसकी डायरी लौटा कर कहा फक पहले वह स्वयं ईस पर कु छ णलखे; बाद मं सम्पदा ईसका नाम सोनल बताती है। सोनल ईनसे एक सामाणजक संस्था मं णमली थी। सोनल ने ऄपने जीवन मं बहुत सी घटनाओं, दुघवटनाओं, णवश्वासघात, धोखा और फरे ब देखा और सहा था, पर ईन सबसे बाहर णनकल कर ईसने ऄपने ऄणस्तत्व को जीणवत रखा और जो कर फदखाया वह सबको सहज प्राप्य नहं हो सकता। आसके बाद सोनल के पटरवार की कहानी शुरू होती है। गाँव मं ईसके बाबा णजन्द्हं सब बाउजी कहते थे, के दो पुि णिलोक चँद सोनल के णपता और मंगल ईसके चाचा थे। मंगल चटरिहीन व्यणक्त था। ईसका णववाह मंगला नाम की लड़की से हुअ, पर वह भी ऄच्छे चटरि की स्त्री नही थी। मंगल ने मंगला के भाइ के साथ णमल कर गाँव मं शराब का भट्टा खोल णलया था। गाँव वालं ने ऄपनी परे शानी बाउजी को बताइ। ईन्द्हंने मंगल को गाँव से णनकालने के णलए बाहर से अदमी बुलवाए; जो मंगल को गाँव से बाहर णनकाल दं और गाँव वालं की परे शानी दूर हो सके । मंगल ईसकी पत्नी, ईसके भाइ और णपता के कु कृ त्यं की चचाव णवस्तार मं की गइ है। सोनल के पटरवार के पास कु छ राजसी जेवर और धन था, आसका णववरण ईपन्द्यास मं णमलता है। आस खज़ाने के कारण सोनल के मनचंदा पटरवार पर लोगं की कु दृणि रहती थी। बाद मं सुक्खी द्वारा सोनल को बताया जाता है फक ईसके घर का खज़ाना ईसके बाउजी, पम्मी और णपता द्वारा सरकारी खाज़ाने को संप फदया गया था। सोनल की बड़ी बहन मीनल कॉलेज मं पढ़ने वाली साहसी लड़की थी। वह गाँव के युवक पम्मी से प्रेम करती थी। मीनल को मंगल के णवरुि की जाने वाली कारव वाइ का पता लग गया था। घर की नौकरानी ने यह खबर मंगल को दे दी और ईसकी मदद से मीनल की हत्या कर दी गइ। भ्रि पुणलस वाले मंगल के हाथं णबक चुके थे ऄत: पुणलस की मदद नहं णमल सकी। पम्मी मीणडया के लोगं को लाया था, ईसने ऄख़बारं मं पूरी घटना णचिं के साथ णलखी। ईसके बाद पुणलस हरकत मं अइ और

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मंगल को पकड़ा गया। पम्मी एक प्रणसि पिकार बन गया था, ईसकी लेखनी मं शणक्त थी। लोग ईसकी टरपोर्टिटग मन से पढ़ते। वह सोनल और ईसके पटरवार वालं की मदद करता था, ईसकी सलाह पर सोनल को चंडीगढ़ पढ़ने भेजा गया। सोनल ने वहाँ हॉस्टल मं रह कर बी.ए और साआकोलौजी मं एम.ए. फकया। लेणखका ने पंजाब को पीणड़त पंजाब बनाते देखा है। जहाँ पंजाब को भारत से ऄलग देश बनाए जाने की अग सुलग रही थी। खणलस्तान बनाने के दीवाने ऄंधाधुंध लोगं को गोणलयं से भून रहे थे। पम्मी के अतंकवाफदयं के णवरुि णलखे गए लेखं के कारण पम्मी की हत्या कर दी गइ। पम्मी के ऄलावा सोनल के बाउजी और णपता भी ईन दरिरदं की गोणलयं के णशकार बन गए। ऄके ली सोनल और ईसकी माँ, जीणवत बची हं। वह माँ को झाईं जी कहती थी सोनल और ईसकी माँ के ऄके ले रह जाने के कारण ईसके नाना का स्वाथी पटरवार ईनके साथ रहने अ गया। नाना सोनल की संपणत्त हणथयाने के ईद्दोेश्य से अए थे। ईन्द्हंने झाइ जी को ऄपने वश मं कर णलया और मनमानी करते। आस बीच सोनल और पम्मी के भाइ सुक्खी के प्रगाढ़ प्रेम की जानकारी दी जाती है। दोनं एक-दूसरे से सच्चा प्यार करते हं, पर प्रकट नहं करते। नाना सोनल को घर से दूर करना चाहते थे ऄत: ईसके णववाह करने पर ज़ोर देने लगे। सोनल ने सुक्खी से बात करने के णलए संदेशा भेजा, पर जब वह अया तो देर हो चुकी थी। वह पुणलस – सेवा मं एस.पी बन गया था। ईसकी रूणच साणहत्य मं थी, पर सोनल की सुरिा के कारण ईसने पुणलस की नौकरी स्वीकार की थी। ईसके अने के पूवव एक डॉ.बलदेव एक धोखेबाज़ व्यणक्त ऄमरीका से अ गया। सुक्खी के सामने नाना ने बलदेव की तारीफ़ं के पुल बाँधते हुए कहा फक सोनल ने णववाह के णलए हाँ कर दी है। सुक्खी णबना कु छ कहे वाणपस चला गया। सुक्खी से शादी ना करके बलदेव को शादी के णलए हाँ करने के ऄंतद्वंद को बखूबी ईभारा और णलखा गया है। यहाँ लेणखका के लेखन कौशल का कमाल है। फक़स्सागोइ को ISSN –2347-8764

कु शलता से वर्सणत फकया गया है। वैसे तो आस फक़स्सागोइ की कु शलता के प्रमाण ईपन्द्यास मं जगह-जगह णमलते हं। सोनल का णववाह हो गया, पर बलदेव के हाव-भाव से सोनल के मन मं शंका जागती है। ऄमरीका जाने के पूवव वह ऄपनी शंका सुक्खी पर प्रकट करती है। सुक्खी ईसे एक फ़ोन नम्बर देता है और सतकव रहने को कहता है। बलदेव के घर पहुँचने पर सोनल बलदेव के लड़फकयं के णवरुि षड्यंि की योजना सुन लेती है। ऄपने को बचाने के णलए वह णखड़की से कू द कर एक वृि दंपणत्त के घर शरण लेती है। आसके बाद वकील की मदद से सम्पदा सोनल को ऄपने घर ले अती है। सोनल प्रणतज्ञा करती है , वह जब तक बलदेव को सज़ा नहं फदलवा लेती, चैन से नहं रहेगी। सोनल सम्पदा के घर की सदस्या की तरह सबके स्नेह की पािी बन जाती है। पुणलस बलदेव की खोज कर रही है, पर कोइ सुराग नहं णमल रहा है। सोनल की सहायता के णलए सुक्खी ऄमरीका अ जाता है और भारत की नौकरी से त्यागपि दे कर ऄमरीका की यूणनवर्ससटी मं आं टरनेशनल लॉ की पढ़ाइ के णलए प्रवेश लेता है। सोनल भी ईसी णवश्वणवद्यालय से पीऍच.डी कर रही है। दोनं पढ़ाइ मं व्यस्त हं और साथ समय व्यतीत कतरे हं। आस बीच भारत से एक फ़ोटोग्राफर ने बलदेव की फ़ोटो भेज दी थी। सूचना णमलती है फक बलदेव फकसी लड़की के साथ णववाह कर के ऄमरीका अ रहा है। बलदेव पुणलस द्वारा पकड़ा जाता है। आस तरह से लड़फकयं को शादी के नाम से धोखा दे कर ईनका व्यापार करने वाले णगरोह का पदावफाश होता है। सोनल की प्रणतज्ञा पूणव होती है। सुक्खी और सोनल को ईनके णमि पाश नाम के कणव की ईग्रवाफदयं द्वारा हत्या की सूचना णमलती है। दोनं दुखी मन से पाश के णवषय मं बात करते हं.. पाश एक कणव, साणहत्यकार, संपादक और बुणिजीवी था। सिहसा का ईसने णवरोध फकया और स्वयं सिहसा का णशकार बना। सुक्खी पाश की कणवता की पंणक्तयाँ सुनाता है। आन बातं से सम्पदा पंजाब मं हो रही णवश्वणवद्यालयं के प्रोफ़े सर, णवद्याथी, बुणिजीवीयं की हत्या णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

से िुब्ध दीखती हं। सुक्खी और सोनल ऄपनी पढ़ाइ पूणव कर के भारत वाणपस जाते हं। मंगल के पटरवार और ईसकी लड़फकयं का दुखद प्रसंग अता है। मंगल ऄपनी चटरिहीन पत्नी को ऄपनी बबावदी का कारण बता कर झाइ जी से िमा माँगता है। सुक्खी और सोनल हवेली मं बच्चं का स्कू ल शरू करते हं। स्कू ल का दाणयत्व झाइ जी, मास्टर जी और माँ को फदया जाता है। तीनं को जीने की राह णमल गइ। सुक्खी और सोनल दोनं पेटरस चले गए और वहाँ णवश्वणवद्यालय मं पढ़ाते हुए भारतीय लड़फकयं को शोषण से बचाने, पंजाब के प्रणतभाशाली बच्चं को ईच्च णशिा फदलाने तथा गाँव मं डॉक्टरी सुणवधाएँ ईपलब्ध कराने जैसे कल्याणकारी कायव करते हं। ऄंत मं सम्पदा के कु छ णमिं के अ जाने से माहौल बेहतर हो जाता है। ये लोग काफी कटठनाइ के बाद ईन तक पहुँच सके हं। कणबनेट को टू टा देख कर वे दुखी होते हं। के णबनेट के साथ सोनल की यादं जुड़ी हुइ हं। ऄचानक के णबनेट से एक पि णनकलता है। यह पि सम्पदा ने ऄपनी माँ को णलखा था, पर मेल नहं फकया गया। मेरे णवचार मं के णबनेट से वह पि णमलना सबसे महत्वपूणव सौगात है। पि बहुत ही ममवस्पशी है, णजसमं सम्पदा के माध्यम से लेणखका ने भारत से ऄनजान देश मं पहुँचने पर ऄके लेपन की पीड़ा साकार की है। ऄंत मं यह णनर्सववाद सत्य है फक शीषवक की तरह ही ईपन्द्यास के रोचक तत्व पाठक को बांधे रखते हं। लेणखका की भाषा शैली सशक्त है। कटठन णवषय पर भी ईनकी कलम असानी से चलती है। भय और अतंक के बीच भी प्रेम की सिचगारी सुखद लगती है। सुक्खी और सोनल का सच्चा प्रेम खाणलस्तान के अतंक के भय से भी णवचणलत नहं होता। ऄंतत :नक़्क़ाशीदार के णबनेट टू ट जाने के बावजूद भी एक पि को सुरणित रख कर पुरानी यादं का साक्ष्य बनता है। ~✽~

सुधा ओम ढंगरा +1 919-801-0672

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फकताबघर

मेरी णप्रय कथाएँ पाटरवाटरक णवघटन की व्यथाएँ अचायव संजीव वमाव सलील [पुस्तक णववरण – मेरी णप्रय कथाएँ, स्वाणत णतवारी, कहानी संग्रह, ISBN 978-83-82009-49-8 अकार 22 से.मी. x 14 से.मी., अवरण बहुरं गी, सणजल्द, पृष्ठ 132, मूल्य 249/-, ज्योणतपवव प्रकाशन, 99 ज्ञान खंड 3, आं फदरापुरम, गाणज़याबाद 201012, दूरभाष 9811721147, कहानीकार सम्पकव इ एन 1/9 चार आमली भोपाल, चलभाष 9424011334 stswatitiwari@gmail.com ] * स्वाणत णतवारी णलणखत 20 सामणयक कहाणनयं का संग्रह ‘मेरी णप्रय कथाएँ’ की कहाणनयाँ प्रथम दृिया ‘स्त्री णवमशावत्मक’ प्रतीत होने पर भी वस्तुत: पाटरवाटरक णवघटन की व्यथा कथाएँ हं। पटरवार का कं र सामान्द्यत: ‘स्त्री’ और पटरणध ‘पुरुष’ होते हं णजन्द्हं ‘गृह स्वाणमनी’ और गृह स्वामी’ ऄथवा ‘लाज और ‘मयावदा कहा जाता है। कहानी फकसी के न्द्रीय घटना या णवचार पर अधृत होती है आसणलए बहुधा नारी पाि और ईनके साथ हुइ घटनाओं का वणवन आन्द्हं स्त्रीप्रधान बनाता है। स्वाणत बढ़ाइ की पाि आसणलए हं फक ये कहाणनयाँ ‘स्त्री’ को कं र मं रखकर ईसकी समस्याओं का णवचारण करते हुए भी कहं एकांगी, ऄश्लील या वीभत्स नहं हं, पीड़ा की गहनता शणब्दत करने के णलए ईन्द्हं पुरुष को नाहक कटघरे मं खड़ा करने की जरूरत नहं होती। वे सहज भाव से जहाँ-णजतना ईपयुक्त है ईतना ही ईल्लेख करती हं. आन कहाणनयं का वैणशष्ट्ड संणश्लि कथासूिता है। ऄत्याधुणनकता के व्याल-जाल से पाठकं को सचेि करती ये कहाणनयाँ पटरवार की आकाइ को परोित: ऄपटरहायव मानती-कहती ही सामाणजककता और वैयणक्तकता को एक-दूसरे का पयावय पणत हं। यह सनातन सत्य है की समग्रत: न तो पुरुष अततायी है, न स्त्री कु लटा है। दोनं मं व्यणक्त णवशेष ऄथवा प्रसंग णवशेष मं व्यणक्त कदाचरण का णनणमत्त या दोषी होता है। घटनाओं का सामान्द्यीकरण बहुधा णववेचना को एकांगी बना देता है। स्वाणत आससे बच सकी हं। वे स्त्री की पैरोकारी करते हुए पुरुष को लांणछत नहं करतं। प्रथम कहानी ‘स्त्री मुणक्त का यूटोणपया’ की नाणयका के माध्यम से तथाकणथत स्त्री-मुणक्त ऄवधारणा की फदशाहीनता को प्रणश्नत करती कहानीकार ‘स्त्री मुणक्त को ISSN –2347-8764

दैणहक संबंधं की अज़ादी मानने की कु धारणा’ पर प्रश्न णचन्द्ह लगाती है। ‘टरश्तं के कइ रं ग’ मं ‘णलव आन’ मं पनपती ऄवसरवाफदता और दणमत होता प्रेम, ‘मृगतृष्णा’ मं संबंध टू टने के बाद का मन-मंथन, ‘अजकल’ मं ऄणववाणहत दाणहक सम्बन्द्ध और ईससे ईत्पन्न सन्द्तणत को सामाणजक स्वीकृ णत, ‘बंद मुट्ठी’ मं अत्मसम्मान के प्रणत सचेि माँ और ऄनुत्तरदायी पुि, ‘एक फलसफा सिजदगी’ मं सुभरा के बहाने पैसे के णलए णववाह को माध्यम बनाने की दुष्प्रवृणत्त, ‘बूँद गुलाब जल की’ मं पाटरवाटरक शोषण की णशकार णवमला पाठकं के णलए कइ प्रश्न छोड़ जाती हं। णवधवा णवमला मं बलात गभववती कर बेटा ले लेनव े ाले पटरवार के प्रणत णवरोधभाव का न होना और सुभरा और शीरीन मं ऄणत व्यणक्तवाद नारी जीवन की दो ऄणतरे की फकन्द्तु यथाथव प्रवृणत्तयाँ हं। ‘ऄणस्तत्व के णलए’ संग्रह की मार्समक कथा है णजसमं पुिमोह की कु प्रथा को कटघरे मं लाया गया है। मृत जन्द्मी बेटी की तुलना ऄणभमन्द्यु से फकया जाना ऄप्रासंणगक प्रतीत होता है ‘गुलाबी ओढ़नी’ की बुअ का सती बनने से बचने के णलए ससुराल छोड़ना, णवधवा सुंदर नन्द्द को समाज से बहाने के णलए भाभी का कठोर होना और फफर ऄपनी पुिी का कन्द्यादान करना पटरवार की महत्ता दशावती साथवक कहानी है। ‘सच तो यह है फक अज फै क्ट और फफक्शन मं कोइ फकव नहं रह गया है- हम एक खबर की तरह हो गए हं’, एक ताज़ा खबर कहानी का यह संवाद कं सरग्रस्त पत्नी से मुणक्तचाहते स्वाथी पणत के माध्यम से समाज को सचेत करती है। ‘ऄचार’ कहानी दो णपटरयं के बीच भावनात्मक जुड़ाव का सरस अख्यान है। ‘अजकल मं णबलकु ल ऄम्मा जैसी होती जा रही हूँ। ईम्र का एक दौर ऐसा भी अता है जब हम ‘हम’ नहं रहते, ऄपने माताणपता की तरह लगने लगते हं, वैसा ही सोचने लगते हं।’ यह ऄनुभव हर पाठक का है णजसे स्वाणत जी का कहानीकार बयां करता है। ‘ ऊतुचक्र’ कहानी पुि के प्रणत माँ के ऄंध मोह पर के णन्द्रत है। ‘ईत्तराणधकारी’ का नाटकीय घटनाक्रम ठाकु र की मौत के बाद, नौकर की

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पत्नी से बलात-ऄवैध संबंध कर ईत्पन्न पुि को णवधवा ठकु रानी कणवता द्वारा ऄपनाने पर समाप्त होता है फकन्द्तु कइ ऄनसुलझे सवाल छोड़ जाता है। ‘बंगनी फू लंवाला पेड़’ प्रेम की सनातनता पर के णन्द्रत है। ‘सफदयं से एक ही लड़का है, एक ही लड़की है, एक ही पेड़ है। दोनं वहं णमलते हं, बस नाम बदल जाते हं और फू लं के रं ग भी। कहानी वही होती है। फकस्से वही होते हं।’ साधारण प्रतीत होता यह संवाद कहानी मं गुंथकर पाठक के ममव को स्पशव करता है। यही स्वाणत की कलम का जादू है। ना ‘मुट्ठी मं बंद चाकलेट’ पीटीअइ के प्रणत समर्सपत फकन्द्तु प्रेमी की स्मृणतयं से जुडी नाणयका के मानणसक ऄंतद्वंद को णवश्लेणषत करती है। ‘मलय और शेखर मेरे जीवन के दो फकनारे बनकर रह गए और मं दोनं के बीच नदी की तरह बहती रही जो फकसी भी फकनारे को छोड़े तो ईसे स्वयं णसमटना होगा। ऄपने ऄणस्तत्व को णमटाकर, क्या नदी फकसी एक फकनारे मं णसमट कर नदी रह पाइ है।’ भाणषक और वैचाटरक संयम की तणनक सी चूक आस कहानी का सौन्द्दयव नाश कर सकती है फकन्द्तु कहानीकार ऐसे खतरे लेने और सफल होने मं कु शल है। ‘एक और भीष्म प्रणतज्ञा’ मं नारी के के प्रेम को णनजी स्वाथववश नारी ही ऄसफल बनाती है। ‘स्वयं से फकया गया वादा’ मं बहु के अने पर बेटे के जीवन मं ऄपने स्थान को लेकर संशयग्रस्त माँ की मन:णस्थणत का वणवन है। ‘चंज यानी बदलाव’ की नाणयका पणत द्वारा णववाहेतर संबंध बनने पर ईसे छोड़ खुद पैरं पर खड़ा हो दूसरा णववाह कर सब सुख पणत है जबफक पणत का जीवन णबखर कर रह जाता है। ‘भाग्यवती’ कै शौयव के प्रेमी को माँ के प्रणत कतवव्य की याद फदलानेवाली नाणयका की बोधकथा है। ‘नौटंकीवाली’ की नाणयका फकशोरावस्था के अकषवण मं भटककर सिजदगीभर की पीड़ा भोगती है फकन्द्तु ऄंत तक ऄपने स्वजनं की सिचता करती है। कहानी के ऄंत का संवाद ‘सुनो, गाँव जाओ तो फकसी से मत कहना’ ऄमर कथाकार सुदशवन के बाबा भारती की याद फदलाता है जब वे दस्यु द्वारा छलपूववक घोडा हणथयाने पर फकसी से न कहने का अग्रह करते हं। स्वाणत संवेदनशील कहानीकार है। ईनकी कहाणनयं को पढ़नेसमझने के णलए पाठक का सजग और संवेदशील होना अवश्यक है। वे शब्दं का ऄपव्यय नहं करती। णजतना और णजस तरह कहना जरूरी है ईतना और ईसी तरह कह पाती न। ईनके पाि न तो परं परा के अगे सर झुकाते हं, न लक्ष्यहीन णवरोह करते हं। वे सामान्द्य बुणिमान मनुष्य की तरह अचरण करते हुए जीवन का सामना करते हं। ये कहाणनयं पाठक के साथ नवोफदत कहाणनकारं के सम्मुख भी एक प्रादशव की तरह ईपणस्थत होती हं। स्वाणत सूिबि लेखन मं नहं ईन्द्मक्त ु शब्दांकन मं णवश्वास रखती है। ईनका समग्रतापरक सिचतन कहाणनयं को सहज ग्राह्य बनाता है। पाठक ईनके ऄगले कहानी संग्रह की प्रतीिा करं गे ही। ~✽~

संपकव - अचायव संजीव वमाव ‘सणलल’, 204 णवजय ऄपाटवमंट, नेणपयर टाईन, जबलपुर 482001, चलभाष 94251 83244, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com ~✽~

ISSN –2347-8764

चंपा का फू ल संजय वमाव ’दृणि’

चंपा के फू ल जैसी काया तुम्हारी मन को अकर्सषत कर देती जब णखल जाती हो चंपा की तरह भोरे णततणलया के संग जब भेजती हो सुगध ं का सन्द्दश े वातावरण हो जाता है सुगंणधत और मन हो जाता मंि मुग्ध जब सँवारती हो चंपा के फू लो से ऄपना तन जुड़े मं, माला मं और अभूषण मं लगता है स्वगव से कोइ ऄप्सरा ईतरी हो धरा पर ईपवन की सुन्द्दरता बढती जब णखले हो चंपा के फू ल लगते हो जैसे धवल वस्त्र पर लगे हो चन्द्दन की टीके सुंदरता आसी को कहते बोल ईठता हूँ णप्रये तुम चंपा का फू ल हो ~✽ ~ 125, शहीद भगत सिसग मागव, मनावर-454446 णजला-धार, (म.प्र.) ~✽ ~

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ऄनूफदत लाणतनी ऄमेटरकी कहानी

दुणनया का सबसे रूपवान डू बा हुअ अदमी मूल लेखक :गैणब्रएल गार्ससया माखेज़ ऄनुवाद : सुशांत सुणप्रय णजन शुरुअती बच्चं ने ईस फू ले हुए ऄँधेरे और णचकने ईभार को समुर मं से ऄपनी ओर अते हुए देखा, ईन्द्हंने सोचा फक वह ज़रूर दुश्मन का जहाज़ होगा। फफर ईन्द्हंने पाया फक ईस पर कोइ झंडा या पाल नहं लगा था, आसणलए ईन्द्हं लगा फक वह कोइ व्हेल मछली होगी। लेफकन जब वह फकनारे पर अ कर लगा और ईन्द्हंने ईस पर लगे समुरी खर-पतवार के गुच्छे , जेलीफफ़श के जाल, मछणलयं के ऄवशेष और पानी मं तैरने वाले जहाज़ के टु कड़ं को हटाया तब जा कर ईन्द्हं पता चला फक दरऄसल वह एक डू बा हुअ अदमी था। पूरी दोपहर बच्चे ईससे खेलते रहे। कभी वे ईसे तट की रे त मं दबा देत,े कभी बाहर णनकाल लेते। पर संयोग से फकसी बड़े अदमी ने ईसे देख णलया और पूरे गाँव मं यह चंकाने वाली सूचना फै ला दी। जो लोग ईसे ईठा कर क़रीब के घर मं ले गए, ईन्द्हंने यह पाया फक वह ईनकी जानकारी मं अए फकसी भी ऄन्द्य मरे हुए अदमी से ज़्यादा भारी था। वह लगभग फकसी घोड़े णजतना भारी था, और ईन्द्हंने एक-दूसरे से कहा फक शायद वह काफ़ी ऄरसे से तैर रहा था, आसणलए पानी ईसकी हणड्डयं मं घुस गया था। जब ईन्द्हंने ईसे ज़मीन पर लेटाया तब ईन्द्हंने कहा फक वह ऄन्द्य सभी लोगं से ज़्यादा लम्बा था क्यंफक कमरे मं ईसके णलए मुणश्कल से जगह बन पाइ। पर ईन्द्हंने सोचा फक शायद मृत्यु के बाद भी बढ़ते रहने की योग्यता कु छ डू ब गए लोगं की प्रवृणत्त का णहस्सा थी। ईसमं समुर की गंध रच-बस गइ थी और के वल ईसका अकार ही यह बता पा रहा था फक वह फकसी आं सान की लाश थी, क्यंफक ईसकी त्वचा पर कीचड़ और पपणड़यं की परत जम गइ थी । मृतक एक ऄजनबी था, यह बताने के णलए ईन्द्हं ईसके चेहरे को साफ़ करने की भी ज़रूरत नहं पड़ी। गाँव मं लकड़ी के के वल बीस मकान थे णजनमं पत्थरं के अँगन थे, जहाँ कोइ फू ल नहं ईगे थे। ये मकान मरुभूणम जैसे एक ऄंतरीप के ऄंत मं बने हुए थे। वहाँ ज़मीन की आतनी कमी थी फक माँओं को हरदम डर लगा रहता फक तेज़ हवाएँ ईनके बच्चं को समुर मं ईड़ा ले जाएँगी। आतने बरसं मं थोड़े से मृतकं को णनपटाने के णलए ईन्द्हं खड़ी चट्टान से समुर मं फं क फदया जाता था। लेफकन समुर शांत और ईदार था, और सभी लोग सात नावं मं ऄँट ISSN –2347-8764

जाते थे। आसणलए जब ईन्द्हं डू बा हुअ अदमी णमला तो यह जानने के णलए फक वे सभी वहाँ मौजूद थे, ईन्द्हं के वल एक-दूसरे को देखना भर था। ईस रात वे सब काम पर समुर मं नहं गए। जहाँ पुरुष यह पता करने णनकल गए फक पड़ोस के गाँवं मं से कोइ लापता तो नहं है, वहं मणहलाएँ डू बे हुए अदमी की देखभाल करने के णलए ईसी मकान मं रह गईं। ईन्द्हंने घास के फाहं से ईसकी देह पर लगी णमट्टी को साफ़ फकया। पानी मं डू बे रहने के कारण जो छोटे-छोटे कं कड़पत्थर ईसके बालं मं ईलझ गए थे, ईन्द्हंने ईनको भी हटाया। फफर ईन्द्हंने मछणलयं के शल्क हटाने वाले ईपकरणं से ईसकी त्वचा पर जमी परतं और पपणड़यं को खुरचा। जब वे यह सब कर रही थं तो ईन्द्हंने पाया फक ईसकी देह मं णलपटी वनस्पणतयाँ गहरे पानी और दूर-दराज़ के समुरं से अइ थं। ईसके कपड़े णचथड़ंजैसी हालत मं थे। लगता था जैसे वह प्रवालं की भूलभुलैया मं से बहकर वहाँ पहुँचा था। ईन्द्हंने आस बात पर भी ध्यान फदया फक मृत होते हुए भी वह बेहद गटरमामय लग रहा था। समुर मं डू ब गए ऄन्द्य लोगं की तरह वह एकाकी नहं लग रहा था। नफदयं मं डू ब गए लोगं की तरह वह मटरयल और ज़रूरतमंद भी नहं लग रहा था। लेफकन ऄसल मं वह फकस फक़स्म का अदमी था। यह बात ईन्द्हं ईसकी देह की पूरी सफ़ाइ करने के बाद ही पता चली और तब यह देखकर वे णवणस्मत हो गईं। अज तक ईन्द्हंने णजतने लोग देखे थे, वह ईन सभी से ज़्यादा लम्बा, हट्टा-कट्टा और ओजस्वी था। हालाँफक वे सब हैरानी से ईसे णनहार रही थं पर ईसकी क़द-काठी और ईसके रूप की कल्पना कर पाना ईनके णलए सम्भव नहं था । ईसे लेटाने के णलए ईन्द्हं पूरे गाँव मं ईतना लम्बा णबस्तर नहं णमला, न ही ईन्द्हं कोइ ऐसी मज़बूत मेज़ ही णमली जो ऄंत्येणि से पहले की रात ईसके 'जागरण' संस्कार के समय ईसे लेटाने के काम अती। गाँव के सबसे लम्बे लोगं की पतलूनं ईसे छोटी पड़ गईं, सबसे मोटे लोगं की क़मीज़ं ईसे नहं अईं और सबसे बड़े पैरं के जूते भी ईसके पैरं की नाप से छोटे णनकले। ईसके णवशाल अकार और रूप से मोणहत हो कर गाँव की मणहलाओं ने

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एक नाव की पाल से ईसकी पतलून और फकसी दुल्हन के शानदार कपड़ं से ईसकी क़मीज़ बनाने का णनिय फकया ताफक वह मृत्यु के बाद भी गटरमामय बना रहे । जब वे एक गोल घेरे मं बैठकर बीचबीच मं लाश को देखते हुए कपड़े णसल रही थं। तब ईन्द्हं लगा जैसे आस रात से पहले हवा कभी णस्थर नहं थी, न ही समुर कभी आतना ऄशांत था और ईन्द्हंने मान णलया फक आन पटरवतवनं का मृतक से कु छ-न-कु छ लेना-देना था। ईन्द्हंने सोचा फक यफद यह प्रतापी व्यणक्त ईनके गाँव मं रहा होता तो ईसके भव्य मकान के दरवाज़े सबसे चौड़े होते, छत सबसे उँची होती, फ़शव सबसे मज़बूत होती, पलंग को फकसी जहाज़ के ढाँचे के बीच के णहस्से मं लोहे की कीलं ठोककर बनाया गया होता और ईसकी पत्नी सबसे प्रसन्न स्त्री होती। ईन्द्हंने सोचा फक ईस अदमी का रुतबा ऐसा होता फक वह महज़ ईनके नाम लेकर ही समुर के ऄंदर की मछणलयं को पानी से बाहर बुला लेता। ईस अदमी ने ऄपनी ज़मीन पर आतनी ज़्यादा मेहनत की होती फक पत्थरं के बीच से फू ट कर फ़व्वारे णनकल अते, णजससे वह खड़ी चट्टानं पर फू लं के पौधे ईगा सकता। ईन्द्हंने चुपके -से ऄपने मदं की तुलना ईस अदमी से की और आस नतीजे पर पहुँचं फक जो काम वह अदमी एक ही रात मं कर देता, ईस काम को ईनके मदव जीवन भर मेहनत करके भी न कर पाते। मन-ही-मन ईन्द्हंने ऄपने मदं को पृथ्वी पर मौजूद सबसे कमज़ोर, सबसे णनकृ ि और सबसे बेकार जीव मान कर ख़ाटरज कर फदया। वे सभी मणहलाएँ ऄपनी ऄनोखी कल्पनाओं की भूलभुलैया मं णवचर रही थं। जब ईनमं से सबसे बड़ी ईम्र की मणहला ने एक लम्बी साँस ली। सबसे बड़ी ईम्र की मणहला होने के कारण ईसने डू बे हुए अदमी को कामवासना से देखने की बजाए दयालु दृणि से देखा था । वह बोली " --आसका चेहरा तो एस्टेबैन नाम के अदमी से णमलता-जुलता है। " यह सच था । ईनमं से ऄणधकांश मणहलाओं के णलए ईसके चेहरे को के वल एक बार और देखने भर की ज़रूरत थी। वे यह जान गइ थं फक ईसका और कोइ नाम हो ही नहं सकता था। ईनमं से कम-ईम्र और ज़्यादा हठी मणहलाएँ फफर भी कु छ घंटं तक भ्रम की णस्थणत मं बनी रहं। ईन्द्हं लगा फक यफद वे ईसे पूरे कपड़े और चमड़े के बफढ़या जूते पहना कर फू लं के बीच लेटा दं तो शायद वह लौटैरो नाम से जाना जाए । पर यह एक ऄहंकारी भ्रम था। मणहलाओं के पास ज़्यादा कपड़ा नहं था। कपड़ं की कटाइ और णसलाइ ऄच्छी तरह नहं हुइ थी, णजसके कारण वह पंट ईस अदमी को बहुत छोटी पड़ रही थी। ईसके सीने मं मौजूद णछपी ताकत की वजह से ISSN –2347-8764

ईसकी क़मीज़ के बटन सिखच कर बार-बार खुल जाते थे। मध्य-राणि के बाद हवा का वेग कम हो गया और समुर फफर से ऄपनी बुधवार वाली णनरालु ऄवस्था मं चला गया। ईस नीरव सन्नाटे ने सारी शंकाएँ दूर कर दं --वह एस्टेबैन ही था। मणहलाओं ने ईसे कपड़े पहनाए थे, ईसके बाल सँवारे थे, ईसके नाखूनं को काटा था और ईसकी दाढ़ी बनाइ थी। जब ईन्द्हं मणहलाओं को यह पता चला फक ऄब ईस अदमी को ज़मीन पर घसीट कर ले जाया जाएगा, तो करुणा और खेद से ईनके रंगटे खड़े हो गए और तब जा कर वे सब यह समझ पाईं फक जो णवशाल अकार ईसे मृत्यु के बाद भी दुख दे रहा था, जीवन मं ईसने ईसे फकतना दुखी फकया होगा । ऄब वे ईसके जीवन की कल्पना कर सकती थं --ऄपने णवशाल अकार के कारण वह दरवाज़ं के बीच मं से झुककर णनकलने के णलए ऄणभशप्त रहा होगा, ईसका णसर बार-बार छत की अड़ी शहतीरं से टकरा कर फू ट जाता होगा। फकसी के यहाँ जाने पर ईसे देर तक खड़े रहना पड़ता होगा। सील मछली जैसे ईसके मुलायम गुलाबी हाथ यह नहं जानते हंगे फक ईन्द्हं क्या करना है। ईधर गृहस्वाणमनी खुद डरी होने के बावजूद ऄपनी सबसे मज़बूत कु सी अगे करते हुए ईससे बैठने का अग्रह करती होगी " --बैटठए न, एस्टेबैन जी !लेफकन वह मुस्कराते हुए दीवार के सहारे खड़ा रहता होगा " --अप तकलीफ़ न करं , भाभीजी। मं यहाँ ठीक हूँ। "हालाँफक ईसकी एणड़याँ दुख रही होतं और जब भी वह फकसी के यहाँ जाता, तब बारबार यही क्रम दोहराने के कारण ईसकी पीठ मं भी ददव होता " --अप तकलीफ़ न करं । मं यहाँ ठीक हूँ । " पर वह ऐसा के वल कु सी के टूटने की शर्मिमदगी से बचने के णलए कहता । और शायद वह कभी नहं जान पाता था फक वही लोग जो ईससे कहते थे " --नहं जाओ, एस्टेबन ै , कम-से-कम कॉफ़ी के बनने तक तो रुक जाओ" , वही लोग बाद मं फु सफु सा कर एक-दूसरे से कहते थे " --शुक्र है, वह बड़ा-सा बुद्धू अदमी चला गया । वह रूपवान बेवकू फ़ चला गया " ! ईस रूपवान अदमी के शव के बगल मं बैठी मणहलाएँ सुबह होने से थोड़ा पहले यही सब सोच रही थं। बाद मं ईन्द्हंने ईसके चेहरे को एक रुमाल से ढँक फदया ताफक रोशनी से ईसे कोइ तकलीफ़ न हो। आस समय वह आतना ऄरणित, सदा से मृत और ईन मणहलाओं के ऄपने मदं जैसा लग रहा था फक वे सभी यह देखकर रोने लगं। वह एक कम ईम्र की स्त्री थी णजसने रोने की शुरुअत की । फफर दूसरी मणहलाएँ भी रुदन मं शाणमल हो गईं। वे लम्बी साँसं भर

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रही थं और णवलाप कर रही थं। वे णजतना ज़्यादा सुबकतं, ईतनी ही ज़्यादा ईनकी रोने की आच्छा बलवती होती जाती। दरऄसल वह डू बा हुअ अदमी ऄब पूरी तरह से एस्टेबैन लगने लगा था। आसणलए वे बहुत ज़्यादा रोती रहं क्यंफक वह पूरी पृथ्वी पर सवावणधक दीन-हीन, सवावणधक शांत और सवावणधक कृ पालु अदमी लग रहा था, बेचारा एस्टेबैन। आसणलए जब गाँव के मदव आस ख़बर के साथ लौटे फक वह डू बा हुअ अदमी पड़ोस के फकसी गाँव का णनवासी नहं था, तो अँसुओं के बीच मणहलाओं के मन मं ईल्लास की रे खा सिखच गइ । "शुक्र है परमात्मा का, "वे सब लम्बी साँसं ले कर बोलं ," यह डू बा हुअ अदमी हमारा ऄपना है । " गाँव के मदं को लगा फक यह सारा फदखावा मणहलाओं का णछछोरापन था। वे रात के समय पूछताछ करने के मुणश्कल काम की वजह से थक चुके थे। वह एक शुष्क फदन था और हवा णबलकु ल नहं चल रही थी। वे के वल यह चाहते थे फक सूरज के णसर पर चढ़ अने से पहले वे नवागंतुक की लाश को हमेशा के णलए टठकाने लगाने की परे शानी से मुक्त हो जाएँ । ईन्द्हंने बचे हुए मस्तूलं के सामने के णहस्से और बरछेनुमा बाँसं से एक कामचलाउ ऄथी बनाइ , णजसे ईन्द्हंने पालं के कपड़े से बाँध फदया ताफक वह खड़ी चट्टान तक पहुँचने तक शव का भार ईठा सके । वे ईस अदमी के शव को एक मालवाहक जहाज़ के लंगर के साथ बाँध देना चाहते थे, ताफक वह गहरी लहरं मं भी असानी से डू ब जाए। ईस गहराइ मं मछणलयाँ भी ऄँधी होती हं और गोताखोर गृह-णवरही हो कर काल के गतव मं समा जाते हं । वे लोग यह नहं चाहते थे फक लहरं के थपेड़े ईस अदमी के शव को भी वैसे ही वापस तट पर ले अएँ, जैसे ऄन्द्य शवं के साथ हुअ था । लेफकन गाँव के मदव णजतनी जल्दी यह काम णनपटाना चाहते, गाँव की मणहलाएँ समय बरबाद करने के ईतने ही तरीके ढू ँढ़ लेतं। वे ऄपनी छाणतयं पर समुर से बचाव की तावीज़ं बाँधे हुइ थं और घबराइ हुइ मुर्सग़यं की तरह आधर-ईधर चंच मारती फफर रही थं। एक ओर ईन मं से कु छ मणहलाएँ ईस डू बे हुए अदमी के कं धं पर ऄच्छे शगुन का धार्समक लबादा डालने मं व्यस्त फदख रही थं, दूसरी ओर कु छ ऄन्द्य मणहलाएँ ईसकी कलाइ पर फदशा-सूचक यंि बाँध रही थं। "ऐ, वहाँ से हटो, रास्ते से हटो, देखो, तुम्हारी वजह से मं डू बे हुए अदमी पर लगभग णगर ही गया था"- जैसे शोर-शराबे के बाद गाँव के मदं को औरतं की नीयत पर संदेह होने लगा। वे बुड़बुड़ाने लगे फक एक ऄपटरणचत व्यणक्त को ऄंणतम यािा के णलए आतना ज़्यादा सजाने-सँवारने की क्या ज़रूरत है, क्यंफक शव के साथ अप फकतनी भी धार्समक रस्मं ऄदा कर लं, ऄंत मं तो लाश को शाकव मछणलयं के मुँह का णनवाला ही बनना है। पर मणहलाएँ आधर-ईधर दौड़ते-भागते और टकराते हुए भी ईस डू बे अदमी पर स्मृणत-णचह्नं के टु कड़े बाँधती रहं। वे ऄब रो तो नहं रही थं, पर गहरी साँसं ज़रूर ले रही थं। यह सब देखकर गाँव के मदं का ग़ुस्सा फू ट पड़ा, क्यंफक फकसी डू बे हुए नगडय अदमी की बह कर अइ ठं डी लाश पर आतना बतंगड़ पहले कब हुअ था? ईनमं से एक मणहला डू बे हुए अदमी की देख-भाल मं फदखाइ जा रही आतनी कमी से ऄपमाणनत महसूस कर रही थी। तब ISSN –2347-8764

ईसने मृत व्यणक्त के चेहरे पर पड़ा रुमाल हटा फदया। ईसके गटरमामय चेहरे को देखकर गाँव के मदव भी णवणस्मत रह गए। वह वाकइ एस्टेबैन था। ईनके द्वारा पहचाने जाने के णलए ईसका नाम दोहराए जाने की ज़रूरत नहं थी। यफद ईन्द्हं ईसका नाम सर वाल्टर रे णलघ बताया गया होता तो वे भी ईसके ऄमेटरकी लहज़े से प्रभाणवत हुए होते। ईन्द्हंने भी ईसके कं धे पर बैठे तोते और वहं टँगी नरभणियं को मारने वाली चौड़ी नाल की पुरानी बंदक़ ू को देखा होता। दिकतु णवश्व मं एस्टेबैन कोइ णवलिण ही हो सकता था और वह वहाँ पड़ा था --व्हेल मछली की तरह फै ला हुअ । ईसके पैरं मं जूते नहं थे और ईसने फकसी बच्चे की नाप की पतलून पहन रखी थी। ईसके कड़े नाखूनं को फकसी चाकू से ही काटा जा सका था । वह शर्मिमदा महसूस कर रहा है, यह जानने के णलए ईन्द्हं के वल ईसके चेहरे से रुमाल को ईठाना भर था। यफद वह आतना बड़ा या भारी या रूपवान था तो यह ईसकी ग़लती नहं थी। यफद वह जानता फक ईसके साथ यह सब होने वाला है तो वह ज़्यादा सावधानी से ऄपने डू बने की जगह चुनता। यह बात मं पूरी गम्भीरता से कह रहा हूँ। यफद यह सब ताम-झाम मुझे पसंद नहं, तो ऐसे मं लोगं को परे शानी से बचाने के णलए मं तो फकसी जहाज़ का लंगर ऄपने गले मं डालकर फकसी खड़ी चट्टान से लड़खड़ाते हुए नीचे कू द जाता। जैसा फक गाँव के मदव कह रहे थे, एक गंदी , ठं डी लाश की वजह से वे सब परे शान हो रहे थे जबफक ईससे ईनका कोइ लेना-देना नहं था । लेफकन डू बे हुए अदमी के अचरण मं आतनी सच्चाइ थी फक सबसे ज़्यादा शक्की मदव --वे जो ऄपनी समुर-यािाओं की ऄंतहीन रातं की कटु ता मं यह भय महसूस करते थे फक ईनकी ग़ैर-मौजूदगी मं ईनकी णस्त्रयाँ ईनके सपने देखते हुए थक जाएँगी और डू बे हुए लोगं के सपने देखने लगंगी --वे और ईनसे भी ज़्यादा णनष्ठु र लोग एस्टेबैन की सच्चाइ देखकर भीतर तक काँप ईठे । और आस तरह से ईन्द्हंने एक डू बे हुए पटरत्यक्त अदमी की आतनी शानदार ऄंत्येणि की, जो ईनकी कल्पना के ऄनुरूप थी। कु छ मणहलाएँ ऄंत्येणि के णलए फू ल लेने पड़ोस के गाँवं मं गइ थं। वे ऄपने साथ और मणहलाओं को भी ले अईं णजन्द्हं डू बे हुए अदमी के बारे मं बताइ गइ बातं पर यक़ीन नहं था। साथ लाइ गइ मणहलाओं ने जब डू बे हुए अदमी को देखा तो वे और फू ल लाने के णलए वापस ऄपने गाँवं मं गईं। वे ऄपने साथ और ज़्यादा मणहलाओं को ले अईं। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक वहाँ आतने फू ल और आतनी मणहलाएँ नहं हो गईं फक वहाँ चलने-फफरने की जगह भी नहं बची। ऄंणतम समय मं ईन्द्हं डू बे हुए अदमी को एक ऄनाथ के रूप मं लहरं के हवाले करते हुए तकलीफ़ हुइ। आसणलए ऄपने सवोत्तम लोगं मं से ईन्द्हंने ईस डू बे हुए अदमी के माता, णपता, चाचा, चाची और भाइ-बहनं का चुनाव फकया। णजससे ईसकी वजह से गाँव के सभी लोग अपस मं टरश्तेदार बन गए। कु छ नाणवकं ने दूर कहं रोने की अवाज़ं सुनं और वे समुर मं रास्ता भूल गए। लोगं ने तो यहाँ तक सुना फक ईनमं से एक

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नाणवक ने खुद को मुख्य मस्तूल से बँधवा णलया क्यंफक ईसने ईन मोणहणनयं के बारे मं पौराणणक कथाएँ सुन रखी थं णजनके सम्मोहक गीत सुन कर नाणवक रास्ता भटक कर मारे जाते थे। लोग ईसकी ऄथी को कं धे पर ईठा कर ढलान वाली खड़ी चट्टानं तक ले जाने का सौभाग्य पाने के णलए अपस मं लड़ रहे थे। ईसी समय ईन पुरुषं और मणहलाओं को पहली बार ऄपनी गणलयं के सूनेपन, ऄपने अँगनं की शुष्कता और ऄपने सपनं की संकीणवता का णशद्दोत से ऄहसास हुअ। क्यंफक ईनके सामने डू बे हुए अदमी की भव्यता और ईसका संदयव था। ईन्द्हंने ईसे फकसी लंगर के साथ बाँधे णबना समुर के हवाले कर फदया, ताफक यफद वह वापस अना चाहे तो अ सके और जब अना चाहे, तब अ सके । वे सभी सफदयं णजतने लम्बे पलं तक ऄपनी साँसं रोके खड़े रहे, णजतना समय ईसकी देह को ईस ऄगाध गत्तव मं णगरने मं लगा। यह जानने के णलए ईन्द्हं एक-दूसरे को देखने की ज़रूरत नहं पड़ी फक ऄब वे सभी मौजूद नहं थे फक ऄब कभी वे सभी मौजूद हंगे भी नहं। लेफकन वे यह भी जानते थे फक ईस समय के बाद सब कु छ ऄलग होगा। ईनके घरं के दरवाज़े पहले से ज़्यादा चौड़े हंगे। ईनकी छतं ज़्यादा उँची हंगी और ईनके फ़शव ज़्यादा मज़बूत हंगे ताफक एस्टेबैन की याद णबना शहतीरं से टकराए हर कहं अ-जा सके । तब भणवष्य मं कोइ फु सफु सा कर यह नहं कहेगा " —ऄरे , वह बड़ा-सा अदमी चल बसा। बुरा हुअ। ऄरे , वह रूपवान बुद्धू गुज़र गया ।" ऐसा आसणलए क्यंफक एस्टेबैन की याद को ऄनाफदऄनंत तक सुरणित रखने के णलए वे सभी ऄपने मकानं के सामने के णहस्से को चमकीले रं गं मं रं ग देने वाले थे। सोतं की खोज मं वे सभी हाड़तोड़ मेहनत करके पत्थरं के बीच खुदाइ करने वाले थे ताफक खड़ी चट्टानं पर फू ल ईगाए जा सकं । भणवष्य मं जब खुले सागर से अती बगीचं की गंध से णवचणलत णवशाल समुरी जहाज़ं के यािी सुबह के समय ईठं गे, तब जहाज़ का कप्तान ऄपनी वदी पहने ईनके पास अएगा। ईसके पास तारं की णस्थणत जानने वाला ईपकरण होगा, जो ईसे ध्रुवतारे के बारे मं बताएगा। ईसकी वदी पर युिं मं नाम कमाने के णलए णमले तमग़ं की क़तारं हंगी। णिणतज पर नज़र अते गुलाबं के ऄंतरीप की ओर आशारा करते हुए वह चौदह भाषाओं मं कहेगा —ईधर देणखए, जहाँ हवा आतनी शांत है फक वह क्याटरयं मं सोने चली गइ है, ईधर वहाँ, जहाँ सूरज आतना चमकीला है फक सूरजमुखी के फू ल यह नहं जानते फक वे फकस ओर झुकं । जी हाँ , वही एस्टेबैन का गाँव है। ~✽ ~

गीत

तेरे णबन सूना सावन है तारा सिसह 'ऄंशल ु '

आक तेरे णबन देख णप्रये फदल का सूना अंगन है, बीता मधुमास बहार णबना सूना मेरा गुलशन है । तेरे होने की खुशबू से मन अनणन्द्दत रहता था, बेपरवाह मस्त पवन सा ये चहुं ओर बहता था । तुम णबन मेरे फदलवर मेरा सूना सा णबछावन है । कारे कारे बदरा अते सांझ सवेरे जी भरमाते, मन मं फू टं अश कोपलं तेरा कब संदेशा लाते । टरमणझम टरमणझम बूंदं मं सूना मेरा सावन है । तेरे णवछडने से मेरे ये पायल णबछु अ भी रोते, यादं की बारात के संग वो भी सुध बुध खोते । तेरे प्यार की खुशबू से णनखरा मेरा तनमन है । झूमा करता था मन सुनकर मधुमय तेरी बोली,

A-5001, गौड़ ग्रीन णसटी, वैभव खंड, आं फदरापुरम, ग़ाणज़याबाद - 201014 युपी ~✽ ~

तेरे होने से घर घर था जहां धरे पग बने रं गोली । पतझर का अभास कराता तेरे णबन ये जीवन है । आक तेरा णबन… ~✽ ~

tarasinghcdpo@gmail.com ISSN –2347-8764

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कहानी

आं तज़ार मं सीमा ऄसीम सक्सेना कमरे मं एकदम शांणत छाइ हुइ थी, ऄगर सुइ भी णगरे तो अवाज हो ऐसे कु छ ! अनंद बेड पर सोया हुअ था और ऄर्सपता ईसी बेड पर ईसके पैरं की तरफ बैठी ईसे एकटक देखे जा रही थी ! फकतने भोले हं अनंद, एकदम से सच्चे, सरल, फकसी मासूम बच्चे की तरह ! शहर से बहुत दूर फकसी गाँव के पास बने आस घर मं वे दोनं ही ऄके ले हं वैसे ईनके पीछे पूरा कु नबा है फफर भी यहाँ कोइ ईनके साथ नहं, न ही यहाँ फकसी की अस ! लेफकन वो ऄके ले होकर भी ऄके ले नहं हं ! वे साथ साथ हं, अज से नहं हमेशा से ! यह कम तो नहं ! ऄचानक तेज़ गडगडाहट के साथ बादल णघर अये और बरसात शुरू हो गयी ! अनंद को बचपन से बाटरश बहुत पसंद है और वे ईसका पूरा लुत्फ़ लेते हं ! पहले तो खूब भीगते थे आतना फक जुकाम तक हो जाता था ! परन्द्तु वे ऄभी थके हुए हं और गहरी नंद मं हं, फकतनी णनदोष नंद है ! ईनको जगाना ईसने ईणचत नहं समझा जबफक ईसे पता था फक जब वे जागंगे तो ईससे नाराज़ जरुर हंगे ! वह भी नहं ईठी और यूँ ही बैठी रही अनंद को णनहारते हुए ! बाटरश तेज़ होती जा रही थी ! बीच बीच मं णबजली के चमकने के साथ ही बादलं का खूब जोर से गजवन, माहौल को थोडा डरावना बना रहा था ! ईसका जी चाहा की सोते हुए अनंद के सीने से लग जाए ! परन्द्तु ईनकी नंद खुल जाएगी यह सोच कर यूँ ही एक फकनारे से णसकु ड़ी हुइ बैठी रही ! सच है फक प्रेम मजबूर और बेबस बना देता है !! तेज होती बाटरश और णघर अये घने ऄँधेरे ने फदन मं ही ISSN –2347-8764

रात का माहौल बना फदया था ! तेज बाटरश नए बने कमरे की सीसिलग बदावश्त नहं कर सकी और एक जगह से पानी का टरसाव होने लगा ! ऄर्सपता का ध्यान ऄभी भी अनंद की तरफ ही लगा था वो ईसमं आतना डू बी थी फक एक पल को भी ईसका मन आधर ईधर भटक नहं रहा था, न ही णबचणलत हो रहा था ! टप टप टप टप... ये अवाज जब ईसके कानं मं पड़ी तो ईसकी भंणगमा भंग हुइ ! ऄरे यह तो कमरे से ही अवाज अ रही है ! ओह्ह छत से पानी टपक रहा है ! वह जल्दी से ईठी और वाशरूम से बाल्टी ईठा लाइ ! ऄर्सपता ने ईसे टपकते हुए पानी के नीचे रख फदया ! कहं अनंद की नंद न खुल जाये यह ख्याल माि ही ईसे बाल्टी को जल्दी से ईठाने के णलए काफी था ! खाली बाल्टी मं टप टप कर णगरता पानी और तेज प्रणतध्वणन पैदा कर रहा था ! ऄर्सपता ने पीछे मुडकर देखा, अनद ऄभी भी चैन की नंद सोया हुअ है कहं आस टप टप की अवाज से ईनकी नंद टू ट न जाये, ऐसा सोच कर णगरते हुए पानी के नीचे ऄपनी हथेली लगा ली ! पानी के टपकने का शोर कु छ कम तो हुअ परन्द्तु ईसकी हथेली पर उपर से णगरता पानी ददव पैदा कर रहा था ! ईसने एक हथेली को पानी के नीचे ही लगाये रखा और दूसरे हाथ को बढ़ा कर अनंद को चादर ईढ़ाने का ऄसफल प्रयास फकया ताफक वो णनर्सवघन सोते रहे और ये शोर ईनके कानं तक न पहुचे पर ऐसा हो न सका ! बणल्क ईसके चादर ईढ़ाने की ऄसफल चेष्ठा ने अनंद की नंद ईचाट दी ! ऄरे बाटरश हो रही है ! ऄर्सपता तुमने मुझे जगाया क्यं नहं ! अनंद थोडा नाराज़ होता हुअ बोला ! वाकइ सच्चे और सरल आन्द्सान के मन मं कोइ दुराव या छु पाव नहं होता, वो तो एकदम सीधी और सच्ची बात कह देते हं चाहे फकसी को बुरी लगे या सही ! ऄर्सपता णबना कु छ बोले मुस्कु रा भर दी ! अनंद कमरे के बाहर बनी गैलरी मं अकर खड़ा हो गया ! ऄर्सपता भी ईसके पीछे पीछे अकर फकसी साये की तरह खड़ी हो गयी ! अनंद बाटरश की बूंदं को देखते हुए बोला, पता है ऄपी अज ओले भी णगरं गे ! अपको कै से पता ?

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वो यूँ फक यह बूंदं बता रही हं फक अज तेज़ बाटरश ही नहं बणल्क ओले भी णगरं गे ताफक हमारी ऄपी को मौसम का दुगन ु ा अनंद णमले ! वो कै से भला ? वो ऐसे फक ओले णगरं गे तो ठं डक बढ जाएगी और फफर हमारी ऄर्सपता रानी हमारी बाँहं मं णसमट अएँगी ! अनंद ने शरारत से मुस्कु राते हुए कहा ! हम्म अपको तो सब पता होता है जी ! ऄर्सपता मुस्कु राती हुइ बोली ! हाँ, मं झूठ नहं बोलता, देख लेना तुम खुद ही ! ठीक है बाबा ! ऄपनी मुस्कान को यूँ ही होठं पर सजाये हुए कहा ! बाटरश लगातार बढती जा रही थी और ईसका पानी गैलरी मं भरने लगा था ! अनंद ने ऄपने भीतर ईस बाटरश को जैसे जज्ब करना चाहा ! ईसके हंठ गुनगुना ईठे , थोडा और तेज बरस बदरा फक डरकर यार मेरी मेरे सीने से लग जाये रे ! ऄर्सपता झूम ईठी, ईसका जी चाहा फक वह ऄपने पांव मं घुंघरू बांधकर आस बाटरश मं भीगती हुइ नाचती रहे और तब तक नाचं जब तक णगरकर बेहोश न हो जाये ! चहक ईठे णचणड़यं सी ! और अनंद को कसकर ऄपने सीने से लगा ले ! फकतनी मन्नतं, दुअओं और व्रतं के बाद ईसे ये फदन नसीब हुए हं ! आं तजार मं ऄपने बहते असुओं के साथ रात रात भर जागते हुए गुजारे हं ! तब जाकर तुम्हं पाया है मंने ! अनंद ने भी तो पूरी वफ़ा णनभाइ है ! दूर रहकर भी हर पल ईसके साथ रहा है ! हर साँस के साथ साँस लेते हुए ! ऄपनी जवानी दोनं ने तन्द्हां ही गुजार दी ! सच ही तो 52 बरस की ईमर मं कोइ जवान थोड़े ही न रह जाता है लेफकन जब प्यार सच्चा होता है तो ईसे कोइ भी दूर कर ही नहं सकता ! ईन दोनं की एक दूसरे को पाने की णजद बरक़रार रही, घर वालं खासतौर से माँ का ऄंतरजातीय णववाह के णलए तैयार न होना और अणखर वे णमल ही गए ! कहते हं न फक ऄगर हम फकसी भी चीज को णशद्दोत से पाने की ख्वाणहश करं तो कायनात का जराव जराव ईससे णमलाने मं ISSN –2347-8764

हमारी मदद करता है और ईन लोगं के साथ यह बात पूरी तरह से फफट बैठ गयी थी ! ऄर्सपता को करीब 40 साल पहले के वे फदन याद अ गए थे जब अनंद और वो एक साथ पढते थे ! स्कू ल और कालेज तक की पढाइ के दौरान हमेशा साथ रहे थे ! न जाने कब ईनका बचपन का साथ प्यार मं बदल गया, कहाँ पता चल पाया था ! हाँ बस एक दूसरे के णबना रहना ऄच्छा नहं लगता था ! दूर होते ही बेचैनी से भर ईठते थे ! कालेज की पढाइ के बाद जब अनंद अगे की पढाइ के णलए दूसरे शहर जाने का णनणवय ईसने ऄर्सपता को बताया तो ईसकी अँखं से स्वतः ही अंसू बहने लगे थे ! क्या हुअ? तुम रो क्यं रही हो ? पता नहं अनंद ये अंसू ऄपने अप अ रहे हं ! नहं जानती क्यं ? ईस वक्त वो भी खुद को संभाल न सका और ईसकी अँखं भी गीली हो ईठी थी ! ऄरे यार, एक साल की ही तो बात है और फफर यहाँ घर है तो बीच बीच मं अता ही रहूँगा ! ईसने ऄर्सपता को समझाने का ऄसफल प्रयास फकया था ! क्यंफक वह स्वयं भी तो भीतर ही भीतर टू ट रहा था ऄर्सपता से दूर जाने के ख्याल माि से ! कु छ पाने के णलए कोइ त्याग करना ही पड़ता है परन्द्तु यह नहं पता था फक यह त्याग आतना दुखद हो जायेगा ! अनंद णनयत फदन चला गया और ऄर्सपता ददव से भर ईठी ! वे फदन फकतने कि भरे होते हं जो फकसी के आं तजार मं पल पल या लम्हा लम्हा णगन णगन के णनकाले जाते हं ! एक दूसरे से दूर जाकर ईन्द्हं ऄहसास हुअ फक वे ऄलग नहं रह सकते, वे साथ ही णजयंगे और हो सका तो साथ ही मरं गे भी ! अनन्द्द ने छु ट्टी ली और घर अकर माँ को सब बता फदया था ! माँ मं ऄर्सपता से शादी करना चाहता हूँ ! कौन ऄर्सपता जो तेरे साथ पढ़ती थी ? हाँ माँ ! पर वो तो बणनए की लड़की है और हम ब्राह्मण लोग हं ईसके साथ शादी कै से हो सकती है ? अप कै सी बातं कर रही हो माँ ? णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

हमारे खानदान वाले फकसी दूसरी जाणत वाली लड़की को बहु के रूप मं स्वीकार नहं कर पाएंगे ! अज के दौर मं जांत पांत, वो फकसी नीच खानदान की तो है नहं, जो येसी बातं कर रही हो ? नहं हो सकती यह शादी ! माँ ने दोटू क एकतरफा णनणवय दे फदया था ! णपता तक बात भी नहं पहुँच सकी ! ईसकी हर बात मानने वाली माँ अज ऄपनी णजद पर ऄणडग थी फक मेरे जीते जी यह ऄंतरजातीय णववाह नहं होगा ! और वो ऄर्सपता से णबना णमले ही वापस चला गया ! फफर ऄपने शहर मं लौट कर नहं अया था ! ईसे बंक की जाब णमल गयी और मम्मी डैडी को भी ऄपने शहर मं बुला णलया था ! आकलौता बेटा अनंद दो बहनं का भी लाडला, सब कु छ ठीक ! णजन्द्दगी ऄपनी रफ़्तार से चल रही थी ! लेफकन जैसे ही अनंद से ईसकी शादी के णलए कोइ कहता वो फ़ौरन णबफर जाता ! नहं करनी मुझे शादी, मंरे सामने शादी का नाम मत णलया करो ! णचड है मुझे आस शब्द से ! ऄरे नहं बेटा, जीवन बहुत लम्बा होता है ! ऄके ले बहुत मुणश्कल होगी ! क्यं ? फकतने लोग णबना शादी के जीवन गुजार देते हं! मं भी ईनमे से ही एक हूँ ! अप लोग हं न ! हमलोग हमेशा थोड़े ही न बैठे रहंगे ! माँ, पापा, बहन या फकसी और के समझाने का कोइ भी ऄसर नहं ! माँ बीमार रहने लगी ! चलने फफरने मं भी तकलीफ ! घर के कामं के णलए नौकर रख णलए पर अनंद ऄपनी णजद से नहं हटा ! ऄब माँ पूरी तरह से बेड से लग गयी ! बेटा, ऄब तो तू शादी कर ले ! णजससे तेरा जी चाहे ! नहं माँ ऄब सब बेकार है ! क्या मेरी अणखरी आच्छा भी पूरी नहं करे गा? आच्छा अणखरी या पहली क्या ? आच्छा तो बस आच्छा होती है ! माँ चल बसी ! पापा और अनंद बस वे दोनं ही ऄके ले घर मं रह गये! आतने नौकर

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होने के बाद भी घर का सूनापन काटने को दौड़ता ! एक सा सामान्द्य जीवन चल रहा था ! ईन्द्हं फदनं णमले एक पि ने ऄचानक से जैसे शांत नदी मं तरं गे पैदा कर दी ! बरसं से दबी हुइ सिचगारी को हवा णमल गयी, सुलग ईठी फफर से ! ऄर्सपता का पि था ! मं आं तजार कर रही हूँ! कब अओगे? ऄरे आतने बरस बाद भी ऄर्सपता ऄभी भी ईसका आं तजार कर रही है ! तो पि डालने मं आतनी देरी क्यं की ? ईसने तो एक साल बाद ही लौटने का बताया था ! क्या वो भी ईसकी तरह णजद करे बैठी है ! वह गया था ईससे णमलने ! ईसका सौन्द्दयव ऄभी भी बरक़रार था ! बैसी ही भरी भरी बड़ी बड़ी अँखं ! तुम्हारी तो शादी का सुना था ! हाँ ! माि चार फदन रही थी फफर वापस लौट अइ थी ! ससुराल मं क्या हुअ क्या नहं ? आसने अज तक नहं बताया ! न आसकी ससुराल से कोइ अया न ही आसने हम लोगं को ही जाने फदया ! ऄर्सपता की माँ ने ईसे बताया ! अनंद ने एक नजर ईठा कर ऄर्सपता को देखा ! वह शांत भाव से बैठी हुइ थी ! जवान लड़की का घर लौट अना और मुँह से एक शब्द का न णनकलना कै से सहन करते ! णजन्द्दगी ठहर गयी थी ठहराव के साथ ! न अगे बढ रही थी न ही पीछे हट रही थी ! जैसे घड़ी की सुइ रुक गयी हो ! पर ऐसा कहाँ होता है? बस हमं महसूस होता है फक सब कु छ रुक गया है जबफक णजन्द्दगी और समय दोनं ही ऄपनी रफ़्तार से चल रहे होते हं ! बदलती तारीखं और गुजरते पलं के साथ ! ऄर्सपता ऐसे ही फदन गुज़ार रही थी ! मानं ऄपने राम के आं तजार मं पंचवटी मं बैठी सीता ! ईसने ऄपने णलये वनवास खुद ही चुन णलया था ! हाँ ये वनवास ही था ! लेफकन हर वक्त गुजरता है, आन्द्तजार का वक्त भी णनकल गया था ! दरवाजे की खट खट के साथ जब वह दरवाजा खोलने अइ थी तो रोशनी की एक फकरण भीतर घुसने को बेताव नजर ISSN –2347-8764

अइ थी ! भी ईनकी ख़ुशी मं शाणमल हो गयी थी ! अनंद, अनंद तुम अ गए ? लौट अये सफदयं से ऄतृप्त धरती, तृप्त हो झूम ईठी तुम? ऄनायास ही ऄर्सपता के मुँह से ये और वे दोनं जी ईठे थे !! ~✽~ शब्द णनकल गए थे ! 208-D, कॉलेज रोड, णनकट रोडवेज, ऄरे , मं गया ही कब था ? ऄपना मन तो बरे ली -243001 यहं छोड़ गया था तुम्हारे पास ! तुमने ही ~✽~ अवाज लगाने मं देर की, फक यह अवाज पहले लगायी होती ! दोनं की ही अँखं मं अंसूं थे ! कणवता मं तो अवाज लगा रही थी तुमने ही नहं सुनी ! सही कह रही थी ऄर्सपता ! ईसने कभी ईसके बारे मं जानने की कोणशश ही कब की थी ! राजेश शाणडडल्य वो तो ईसे शादीशुदा माने बैठा था ! ईनकी शादी हो गयी थी वे एक हो गये थे सबकी रजामंदी से ! ऄब माँ नहं थी, न बेरंग होकर मौसम ईनका साया था ! हो सकता है वे उपर से बहुरं ग होकर अदत देख रही हो और ऄपने अशीष भरे हाथं से शान्द्त होकर एकांत जीभर दुअएं दे रही हं ! कोलाहल मं गुम ध्वणन परन्द्तु णवदा के समय अनंद ऄर्सपता को पसीने से चूर श्रणमक ऄपने ईस घर मं नहं लेकर गया था जहाँ चौराहे पर पणथक पर माँ की यादं थी ! माँ की णनशाणनयाँ कृ ष्णपि मं मयंक थी ! वो शहर से दूर बने आस छोटे से घर मं ऄमावास मं फदनकर लेकर अ गया था ! जहाँ चारो तरफ प्रकृ णत और णनशा मं मधुकर फै ली हुइ थी ऄपने पूरे सौन्द्दयव के साथ ! कलम मं ईलझी अवाज हर तरफ फल फू ल के पौधे पेड़ ! प्रकृ णत भी पन्नं मं बहता भाव तो माँ ही होती है ! यही सोचकर ईनके णवचारं का समभाव अशीवावद तले रहने अ गया था ! शतरं ज मं णपटता प्यादा दूर से पीहू पीहू की अवाजं अ रही थी ! जीवन का टू टता वादा अम मंजटरयाँ ऄब फ़लं से लदने को तैयार कु छ करने का आरादा खड़ी थी ! कोयल के कू कने की मधुर धुन खामोणशयं मं डू बती बातं कानं मं रस घोल रही थी ! ऄर्सपता अनंद बन्द्द अँखं मं ईज्ज्वल रातं की बाँहं मं समाकर एक होने लगी थी ! और बनती णबगड़ती सौगातं अकाश मं तेज गरज के साथ कहं पर ... णबजली णगरी ! मानं खुश होकर ईनके ... णमलन पर ताणलयाँ बजा रही हो ! सब लेते हं एक ऄंतराल टप टप टप टप ! कमरे मं टपकता पानी खुद को पुननववा करने को सुरीले स्वर मं कोइ राग छेड़ रहा था ! लय खुद को साणबत करने को तान और सुमधुर धुन मं णपरो फदए गये दो जीवन ऄब एक होने जा रहे थे ! अत्मा मं परमात्मा का णवलय होने को अतुर हो गए थे ! बरसं से साधी गयी अस पूरी हो रही थी ! अणखर जीत णवश्वास की हुइ थी, ईनके प्रेम के णवश्वास की ! सब कु छ थम सा गया था, ठहर सा गया था, मानं प्रकृ णत

ऄंतराल

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कहानी

फफर वो क्या करती? आं दु पुरी गोस्वामी ईसका मुंह तमतमा रहा था। सांवला रं ग ताम्बइ हो गया था। णबना फकसी भूणमका के ईसने कहा -''अप से एक काम है। बहुत जरूरी काम।ये सब णलखना णवखना बंद करो और मेरे साथ चलो।ऄभी आसी समय चलो बस कह फदया अपको।'' ''ऄरे ! पर हुअ क्या चंदा? कु छ बताएगी भी....'' मंने पूछा। पडोस मं रहने वाली यह युवती दो तीन साल से ही ससुराल अने जाने लगी थी। तीखे नैन नक्श सांवला रं ग बीस बाइस साल की अयु। पर तेज तरावर तो लगती ही थी। न फकसी के घर जाना न फकसी को ऄपने घर बुलाना।रास्ते अते जाते कोइ णमला कु छ पूछा तो जवाब दे फदया वरना ऄपने हाल मं मस्त। मुझ से बातं करती थी कभी कभी। ईसका यूँ ऄचानक अते ही णजद पर ऄड़ना और ऄणधकारपूववक बोलना मुझे ऄच्छा ही लगा। अज आस को मेरी जरूरत क्यं पड़ गइ? रास्ते भर मं यही सोचती रही। ईसके घर पहुंची तो ऄपने श्रीमान जी को बैठे देखा। ईसके ससुर, पणत गाँव के कु छ प्रणतणष्ठत लोग भी बैठे हुए अपस मं बणतया रहे थे। फकस णलए ईन सबको बुलाया गया था कोइ नही जानता था। थोड़ी देर मं पडोस की है एक और युवती अकर खड़ी हो गइ। ईसके पीछे पीछे पड़ोस का एक और अदमी महेन्द्र कमरे के भीतर घुसा। हम एक दुसरे का मुंह ही देख रहे थे। चेहरे पर छोटा सा घूँघट डाले चंदा ने पास खड़ी लडकी से बोला – “हाँ ऄब सबके सामने बताओ फक आन्द्हंने अपको क्या कहा?” लड़की एक बार घबराइ -''छोड़ो न भाभी! ऄब कभी भी वो कु छ नही कहंगे अपको ।'' चन्द्दा एकदम शांत थी। तूफ़ान से पहले की शांणत की तरह शांत। “तुमने मुझे कहा। बहुत बड़ी बात है यह या तो तुम अज के बाद झूठ बोलना भूल जाओगी या 'ये' ......” ऄपने पड़ोसी महेन्द्र की और देखते हुए वो बोली। ''अप लोग मेरे णपता के समान हं। नही णपता हं। ऄपनी बात अप से न कहूँ तो फकसको कहूँ? ऄपराधी हूँ तो दंड दीणजये। नही तो...” चंदा ने बात जारी रखी। “हाँ बोलो जीजी !

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आन्द्होने क्या कहा अपको?” महेन्द्र के चेहरे का रं ग ईड़ गया। “बा ! महंफरयो म्हने बोल्यो फक चंदा ने कीजे फक पांच हजार रूपये दूग ँ ा एक रात के णलये…….” हम सब सन्न रह गये। “झूठ बोल रही है ये सुगना।” महंर ने णवरोध फकया। “म्हारा सामने बोल। मं झूठ बोल रही हूँ ? रख तेरे छोरे के माथे पर हाथ। मेरे बाप को मालूम पड़ गया तो वो मुझे गाड़ देगा णजन्द्दा ही फक मंने थारी ऐसी बात सुनी ही क्यं? झूठा ! झूठ बोल रहा है मेरे ही सामने। थारी (तेरी) बाइ और लुगाइ यहं हं पास के कमरे मं और तेरा छोरा भी। सब सुन रहे हं वो भी” - सुगना गुस्से से णचल्लाइ। महंर के घबराए पीले पड़े चेहरे पर पसीने की बूंदे तैरने लगी थी। तभी तफकये के नीचे से कु छ कागज णनकालकर चन्द्दा ने महेन्द्र की हथेली पर रख फदए। “ये मेरे खेत और मेरे घर के कागजात हं । तू रख । मं तेरे जैसी पैसे वाली नही हूँ। जो है ये है हमारे पास। पर जो ऄसल बामन की बेटी हूँ तो तुझ से दुबारा मांगु। बस एक बार तेरी लुगाइ को 'आनके ' पास भेज दे । तू पांच हजार मं मुझे खरीद सकता है न ? मं और मेरे पटरवार वाले हंसते हंसते ये सब तेरे नाम कर दंगे । तू भेज । चंदा चडडी के रूप मं थी पर... न चीखी न णचल्लाइ न कोइ हंगामा फकया। अवाज़ मं दृढ़ता थी। एक तेज ईसके चेहरे से फू ट रहा था। महेन्द्र हाथ जोड़े खड़ा कांप रहा था। ईसे ईम्मीद नही थी फक बात आतनी बढ़ जाएगी। ईसकी माँ की बुज़ुगव अँखे सब पढ़ चुकी थी। ''माफ़ कर दो आसे। मेरी बेटी है तू! मेरे बुढ़ापे को देख। आन बालं की सफे दी मं पड़े धूल को लेकर फकसे मुंह फदखाउँगी? देख मेरी णबन्द्दनी (बहु) भी थारे पैर पकड़ णलए हं।'' चंदा ने हम सभी के सामने हाथ जोड़े कु छ देर खड़ी रही । फफर णबना कु छ बोले कमरे के भीतर चली गइ । ईसकी अँखं मं अंसू थरथरा रहे थे । जाने क्यं? अपको मालूम?

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कहानी

नया सवेरा णनशा नरे श के ला नववधु बनकर जब ससुराल मं पहला कदम रखा, दस्तूर व स्वागत फक णवणध होते ही पटरचय का दौर चल सा रहा था। नववधु के रूप मं मेरा मन, सहमा सा और कु छ णजज्ञासु भी हो रहा था। सभी दूर पास के टरश्तेदार ऄपना पटरचय दे रहे थे, मं ऄनमन से हाँ मं हाँ णमलाये जा रही थी। तभी मेरी जेठानी ने एक मासूम सी सूरत से मेरा पटरचय करवाया। नाम था – रं भा । जैसा नाम ईससे भी ख़ूबसूरत, बड़ी सी अँखं, चेहरे से टपकती मासुणमयत, भरा-पूरा गठीला शरीर, रं भा हमारी कामवाली थी। परं तु आतने वषो मं एक पाटरवाटरक सदस्य सी हो गयी थी। ईसकी सूरत देख सहसा एक पल को लगा फक भगवान आन नाजुक ख़ूबसूरत हाथं मं क्यं बतवन, कपडे जैसे काम थमा देता है। धीरे धीरे मेहमान णबखरने लगे, मं ऄपने अपको नये माहौल, नयी भाषा के साथ ढालने लगी थी। क्यंफक मं जयपुर से थी और मुझे गुजराती पटरवार और खानपान मं ढलना था। परं तु आस रं भा ने मेरी बहुत सहायता की। पटरवार के हर सदस्य से णहन्द्दी बोलकर काम चल जाता था परं तु रं भा से गुजराती मं बात करना मेरी मजबूरी व आच्छा दोनं कह सकते हं। गलत बोलने पर मज़ाक बनने का डर ईसके सामने न था। वो रोज सुबह अठ बजे हमारे घर मं अ जाती व शाम को छह बजे तक घर के काम को बड़ी दिता से करती जाती। कइ बार आतनी कम ईम्र मं आतना काम करते देख, फदल णवचणलत सा हो जाता, पर काम के प्रणत तन्द्मयता गज़ब की थी। कु छ फदन बाद ही मं मायके अ गयी। मम्मी और सबको ईसकी कु शलता का वणवन कर रही थी फक मेरे ससुराल पि के एक टरश्तेदार ने ईसके जीवन के दुखद पहलू के बारे मं बताया तो फदल भर अया। जबतक मायके रही, हर पल ईसके णवषय मं सोचती रही । ससुराल पहुँची, रं भा की अँखं मं जो मेरे अने की खुशी थी, वो सबसे ज्यादा थी। पर मेरा फदल तो ईसके ऄतीत के हर पहलू को जानना चाह रहा था। सुबह का काम ख़त्म होते ही फदन मं वो बरामदे मं कपड़े समेट रही थी फक ऄचानक मं ईसके पास पहुँच गयी। ISSN –2347-8764

“रं भा, तुने कभी ऄपने घर-पटरवार के बारे मं बताया नहं.. ।” “बताने जैसा कु छ है भी तो नहं ।“ रं भा ने ईदास मन से जवाब फदया और फफर कपड़े समेटने मं लग गयी। मंने कपड़ा ईसके हाथ से छीनते हुए कहा; “पहले तू मुझे ऄपने बारे मं बता, फफर कु छ काम करना। हो सकता है फक मं तेरी कु छ मदद कर सकूँ ।” “क्या भाभीजी, क्यं मेरे दुःख को जानना चाहते हो, फफर भी सुनना चाहते हो तो सुनो; मेरा ब्याह सोलह वषव की ईम्र मं एक गाँव मं हो गया था। छह-अठ मणहना ठीक गुज़रा था फक मेरे अदमी ने शराब पीना शुरू कर फदया। घर अता, सुधबुध खोकर पीटना शुरू कर देता, धीरे धीरे काम पर जाना बंद कर फदया। सास-ससुर, जेठ कब तक बैठे बैठे णखलाते? वो भी सारा फदन कोल्हु के बैल की तरह काम करते, ताने देते वो ऄलग। मेरे घरवाले ने दो पैसे काम करके कभी हाथ मं नहं फदए। जो फदए वो तो एक के बाद एक चार साल मं तीन बच्चे।” “क्या? तुम्हारे तीन बच्चे भी है?” मं अियव मं चंख पड़ी। “हाँ ! दो छोरी और एक छोरा! ससुराल के तानं, घरवाले की मारपीट, बच्चं की भूख, ऐसे मं ससुराल मं जीना मुणश्कल हो गया। ऄपने चार कपडे बाँधे, तीनं को साथ णलया और यहाँ अ गइ माँ-बाप के घर। ऄब यहाँ काम करती हूँ, बच्चं और ऄपना पेट पाल रही हूँ। आस घर से खाने-पीने का आतना सामान णमल जाता है फक एक वक्त की रसोइ भी णनकल जाती है।” “तुम्हारे ससुराल से कोइ या तुम्हारा पणत लेने नहं अया?” मंने पूछा। “घरवाला अया पर लेने नहं, मारने की धमकी देने। ऄब मं कहाँ कमजोर थं, फफर से मार खाने के णलए ईस घर मं नहं जाना चाहती ऄब और न वो अता है। बस ऐसे ही सिज़दगी चलती है। ऄपनी कहानी कहते-कहते रं भा णससक ईठी। मंने बड़ी मुणश्कल से ईसको संभाला और फदल ही फदल मं ईसको न्द्याय फदलाने का सोच णलया। रातभर रं भा के णवचारं मं सो नहं पाइ। हम थोड़ी सी आच्छा पूरी न हो तो कै से बौखला जाते हं । पर रं भाने

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जैसे सिज़दगी से समझौता कर णलया हो ! ईसकी अँखं मं ददव छलकता मुझे हरदम परे शान कर देता था। मुझे पता चला फक ईनके पणत के पास बहुत सी ज़मीन जायदाद थी और नौकरी कर पाँच-सात हज़ार रुपये कमा भी लेता था। फफर भी रं भा को पेट पालने के णलए दूसरं के घरं मं काम करने जाना पड़ता था। ईसका ददव मुझे कु छ कह रहा था। दो-तीन फदन बाद ही मंने एक नोटटस ईसके पणत के पास पहुँचाया। ऄब वो अदर-सम्मान के साथ रं भा व ईनके बच्चं को ले जायं या महीने एक हज़ार रूपया पोषण के णलए राजीखुशी से दं। परन्द्तु वो भी औकात पर पूरा ईतर अया था । हमारे घर अकर, मुझे धमकाने लगा फक मं रं भा का साथ न दूं। एक तो नयी बहू और घर पर अकर ऐसी धमकी पर मेरे ससुराल वालं ने मेरा साथ फदया। मेरे पणत ने मुझे कहा; “कोइ व्यणक्त गलत करता है और ईस पर रौब जमाएं? हम कोटव मं रं भा को न्द्याय फदलायंगे। मंने वकालत फक पढाइ पूरी करने के बाद गृणहणी बनने का फै सला फकया था। शायद रं भा को न्द्याय फदलाने की तमन्ना ने मेरी सोयी हुइ आच्छा को फफर से जगा फदया हो ! मंने तुरंत ही ऄपना बार काईं णसल मं रणजस्रेशन कराया और मैदान मं अ गयी पूरी णहम्मत के साथ। क्यंफक रं भा के पणत की धमकी ने मुझ मं बदला लेने का जज़्बा जगा फदया था। मंने न्द्यायालय मं तलाक फक याणचका दायर की। दो-तीन माह तक वाद चला, ईसके बाद रं भा के पणत ने भी पूरी ताक़त लगा दी थी मगर हमारा दावा भारी पड़ा। वो फकसी भी कीमत पर तलाक नहं दे रहा था, मगर ऄंत मं तो सत्य की ही णवजय हुइ । रं भा को न्द्याय णमला और तलाक के साथ एक हज़ार रूपया भरणपोषण के देने का न्द्यायालय ने अदेश भी कर फदया। जीवन की भयावह पटरणस्थणत का एक ऄध्याय समाप्त हुअ। ऄब रं भा के नये जीवन की शुरुअत बाकी थी। साल डेढ़ साल यूंही गुज़रा तभी रं भा ने बताया फक हमारा ड्राइवर ऄशोक ईसको और बच्चं को ऄपनाना चाहता है। हमने सीधे ऄशोक से ही बात की। वो हमारे यहाँ ISSN –2347-8764

ही काम करता था। दुणनया मं ईनका ऄपना कणवता कह सकं ऐसा कोइ नहं था। हमं भी रं भा के फै सले से सहमणत हुयी। क्यंफक ऄशोक हमारे यहाँ ही काम करता था, आसणलए रं भा व ईनके बच्चं की सुरिा का डर न था। अज रं भा ऄपने तीन बच्चं के साथ खुशीखुशी सिज़दगी णबता रही है। और हमारे घर की णज़म्मेदारी भी बखूबी दोनं णनभा रहे हं। फकरण ऄब भी ईनकी अँखं मं अँसूं थे मगर वजह बदल गइ थी, वो खुशी के अँसूं थे।

दो कणवताएं

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मुसाफफ़र एकता ठाकर

मंणजले मुसाफफर कहाँ जाना तुझे..! हमने भनक सुन ली साथ अना मुझे.. देख छू ट गए मेरे भी अणशयाने सारे ऄब तो ओ बेखबर ऄपना ले मुझे। ~✽~

बरसात मं कोआ मुसाफफर भीगा जैसे खील ईँ ठा ईसका सुफफयाना। काफफला मं राह गुजर चल फदए फफर भी मुसाफफ़र धुल णमल गए। ~✽~

अणखर मं मुसाफफर का ये कहना .. मेरी ननामी के साथ मेरे ऄरमान मत बाँधना, हवा सी फफतरत मेरी मेरे साथ बस .. ईँ से तेज नही जलाना..! ~✽~

राजपुरोणहत णनणतला

लड़फकयां

णसलाइ बुनाइ करती लड़फकयां खोज लेती है एक असमां नया संवन ईधेड़न करती लड़फकयां रच रही ऄब एक आणतहास नया खुरपा चलाते हाथं मं है माईस तगारी वाले हाथं ने थामी पैन जग कर चल पड़ी लड़फकयां ईठ कर समझ रही लड़फकयां ✽

शब्द शब्द शब्द समेट कर जचा जचा कर रची थी कणवता समय को साथ बुनकर ऄसमय से लड़ते हुये वह काम अकर ऄपने ईद्दोेश्य मं जुंझार हुइ थी जग मं गूंज ईसकी पीड़ सहकर भी हंसती रही समयगत होकर चुप नही हुइ भोभर से ईठकर नइ उजाव के साथ जाग रही है… ~✽~

139-सी, सेक्टर, शास्त्री नगर,जोधपुर (राज)- 342001 मो_7568068844 ~✽~

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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कहानी

ऄसंभव णशवानी कोहली ‘तुम बैठो। मं णपताजी को बुलाता हूँ।’ ऄभी मदन मुड़ा ही था फक ईसकी नज़र ज़मीन पर बैठते हुए खुरपे पर पड़ी। ‘ऄरे ! तुम नीचे क्यं बैठ रहे हो। उपर कु सी पर बैठो।’ खुरपा कु सी पर बैठने के पटरणाम से भली-भांणत पटरणचत है। फफर भी ईसने पटरणाम को दोस्ती के अड़े नहं अने फदया और कु सी पर बैठ गया। मदन ईसे ऄपने णपता से णमलवाने लाया है. मदन के णपता कांत बाबू समाज के प्रणतणष्ठत व्यणक्तयं मं से हं। समाज सेवक होने के नाते, समाज की कु पोणषत मानणसकता को स्वस्थ बनाने का णज़म्मा ईनहंने ईठाया है और जाणत प्रथा नामक बरगद की जड़ं को ईखाड़ फं कने के णलए वो ऄनेकं प्रयास कर रहे हं। मदन ऄपने णपता के आस स्वरूप से बेहद प्रभाणवत है। ईसकी दोस्ती मं आस पेड़ का कोइ ऄणस्तत्व है ही नहं। है तो वो 15 साल का बच्चा ही, परं तु ऄपने गुणवान णपता के प्रभावाधीन वो सूझवान बुणि का माणलक भी है। कालीन वाली सीफढ़यं पर से सफे द कु ताव-पायजामा पहने, दायं हाथ मं छड़ी, बाएं कं धे पर णबस्कु टी रं ग का शॉल, पाँव मं कोलापुरी और गले मं सुच्चे मोणतयं की माला शोभा देती हुइ एक णखलणखलाता चेहरा ऄशव से फशव पर एक फ़टरश्ते की भांणत ईतरता नज़र अया। कांत बाबू हर ईस व्यणक्त के णलए फ़टरश्ता हं, णजसे समाज ने ठु कराया। ईनकी अँखं समाज सणहत हर ईस वस्तु का जायज़ा भी करती हं जो ईनके आदव-णगदव है। स्मरण शणक्त बहुत तेज़ है कांत बाबू की. एक णवराट साम्राज्य के महाराज ऄपने भव्य महल से णशरकत के णलए णनकलते हं ठीक वैसे ही कांत बाबू भी समाज का जायजे लेने के णलए णनकलने लगे। ‘णपताजी, ये मेरा दोस्त है खुरपा। अपसे णमलवाने लाया हूँ।’ खुरपे ने कांत बाबू के पाँव छू कर अशीवावद णलया। ‘खुश रहो. कहाँ रहते हो?’ ‘जी, स्टेशन के पीछे वाली बस्ती मं।’ वो धीरे से बोला। कांत बाबू ने ईसके भीतर-बाहर का जायजा णलया और रामदीन को अवाज़ लगायी। ISSN –2347-8764

‘ऄपनी मालफकन से कहना फक एक थैले मं मदन के पुराने कपड़े डाल दं और हां, खाने का कु छ बंदोबस्त करो।’ ‘जी मणलक, ऄभी लाया।’ ‘और कौन है तुम्हारे घर मं?’ ‘जी, मं और मेरी माँ।’ ‘और तुम्हारे णपता?’ ‘वो ऄब आस दुणनया मं नहं हं।’ ‘घर कै से चलता है?’ ‘माँ, लोगं के घर मं काम करती हं और मं चाय की दुकान पर।’ ‘पढ़ाइ नहं करते?’ ‘जी नहं। पढ़ने लगूँगा तो माँ की मदद कै से करूँगा।’ रामदीन एक थैले मं कु छ कपड़े और खाने के णलए गुणजया लाया। खुरपे ने गुणजया ईठाते हुए थैले की तरफ देखा। थैला णजतना भारी था खुरपे के मन की णहचफकचाहट ईससे कहं ऄणधक णवराट थी। ‘ क्या हुअ?’ कांत बाबू ने पूछा। ‘ जी… वो…’ ‘ ले लो। तुम्हारे काम अएँगे।’ खुरपा थैला ईठाकर वहाँ से चला तो अया परं तु घर लौटते समय वो यही सोचता रहा फक ‘माँ पूछेगी तो क्या कहूँगा? माँ को ये ऄच्छा नहं लगेगा। जो है, णजतना है, ईसी मं गुज़ारा करना ही माँ ने णसखाया है। परं तु मदन के णपताजी को भी मना नहं कर सकता था। फकतने प्यार से फदए है ये वस्त्र ईन्द्हंने। क्या करूँ? माँ को क्या कहूँ?’ सवालं की परतं चढ़ने लगं। आसी कशमकश मं गली तक तो पहुँच गया पर दुणवधा ऄभी भी वही ँ खड़ी थी। ‘ ये तेरे हाथ मं क्या है?’ मानो माँ गली के छोर पर मेरा ही आं तज़ार कर रही हो. ‘ कु छ नही माँ. वो… बस...’ ‘ वो, बस क्या... बता तो… क्या है आसमं...’ थैले का मुअयना करने पर कु छ पुराने कपड़े णमले जो पहनने लायक भी नहं थे। ‘ ये लीर - लपाट कहाँ से ईठाकर लाया है?

णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

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ऄंतत: सन मं बम्बइ की फकतनी बार 1997 कहा है केतुझसाल े फक लोगं से भीख रमाबाइ मत णलया कॉलोनी कर। तू समझता मं डॉ. क्यं अम्बे नहं।’ डकर की ‘प्रणतमा नहं को माँ, खणडडत मं लेनाकरने नहं केचाहता मामलेथा. मं जब पर देशभरकेके दणलत मदन णपताजीभड़क ने बड़े ईठे , ईसी प्यारणसलणसले से फदए मं ऄहमदाबाद और गुजरात मं भी 'बंद' के तो....’ एलानकभी प्यार फदएभीगये फटा। हुअ ईसनहं रातहोता।’ दणलतं के गुस्साएं नहं माँ।गुमदन ट रास्तं के णपताजी पर ईतरबहुत अये ऄच्छे । युवकं हं। कोहंने ईन्द् ऄपना मुझे कुअक्रोश सी पर णनकालना बैठाया औरथा, गुणजया पर णनकले भी खाने फकस को फदया।’ तरह? अणखर फकसी को फदल्लगी ये बड़े लोगं सूझी की तो ईसने बातं तेहीरालाल री समझकी मं चाल नहं के पाखाने अयं गं। येतोड़ने सोने का के ईस प्रस्ताव णसक्करखा े जैसऔर े होते फफर हं तो समू जो फदखने ची वानर मं तोसेनसोना ा टू ट पडी परं त।ु पलभर भीतर से मं तो पाखाने पीतल होता नेहैस्।तोनाबू ऄपने दऄनुहोभवगयेसे ।कहईनकी रही मलबेटसेा।’ सनी ईंटं भी लोग ईठाकर घर ले हूँ ‘गयेमाँ। , मदन के णपताजी सच मं बहुत ऄच्छे कईं हं । वोफदनं हम जै तक से लोगं चचाव की चलीबहुत फक मदद यहाँ करते क्या बनवाया हं । ग़रीबंजाये का?दुख पाखाने समझते चाल हं। की समाज ऄपनी मं णमणल्कयत बड़ा रुतबाथीहै ।ईनका। सो चालमदन के बासिशदे बता रहा जो तय था करं बहुत फक वही सही बड़े-बड़े । एकलोग मतईनके था फकघर ऄबखाने तो घर पर -घर हंपाखाने अते , णवचारबन होतेगए हं और है इसलिए ईन्द्हं ऄमलवहाँ मं दुबाराके पाखाने लाने णलए कोणशशं बनाने की का जाती क्या मतलब? हं।’ तो ‘कु छतुमलोग ऄभीईसीबच्चेजगह हो और दुबाराबातं पाखाना की बनाना चाहते राजनीणत तुम्हारी थे । समझ ऄंतत:केवहाँ परे 'पे है।एन्द् ’ ड यूज' शौचालय खु रपा थैलयोजना े को वहं के तहत फं ककरपाखाने बाहर बनाने चला का णनणव गया। मालती य णलया अवाज़ गया लगाती । सालभर रही मंपरंतो तु बफढ़या शौचालय लड़कपन के ऄहमतैय मंारममता हो गयेऄनसु । दीवारं नी हो और फशव गयी औरपरईसे चमकते अवाज़ टाइल्स, लगाते प्रवे -लगाते शद्वार पर वो सुंदरपुरफूानी खु लं अवाज़ं के गमलेमं , नये खो गयी... रं ग-रूप के साथ ‘नया मालती… सिसगार ओ... करके मालती… खडा है कहाँ अज हो ये शौचालय तु म…’ । ईसके रं ग-रुप देखकर वहाँ ‘शौचफक्रया बाबा...’ केऄपने बदले बाबा सोच-णवचार को चंकाने करने की के प्रयास पीछेऐसा से अवाज़ लगाती प्रेरणा से णमला हं । ईसमं जाने18केवषीय णलए नकद एकजोरूपया मालती सारा चुफदन कानाघर पड़ता मं ईछल-कू है । णमल द बंद है, रहती करती कारखानं है, मंसामने मंदी हैअइ. । पूरणपता ा आलाका का गरीबी गु रूर है वो। औरमाँबेभले रोजगारी फकतनाचपे भीटडांमंट लेहैपर। आसणलए बाबा की चहीती 'पे एन्द्हैड वो। यूज' शौचालय का ‘ईपयोग तुम आसे शायद णबगाड़ ही होता रहे होहै मालती । के बाबा। जब-जबबड़ी आतनी राजपु हो रगयी जाता है। ऄभी हूँ, तब तकहीरालाल बचपना की चाल नहं गयाकेआसका। पाखाने(हल्का की जगह सा खड़ा कान येपकड़ते नूतन शौचालय हुए) ऄगलेमेघर री जाएगी, अत्मा को वहाँकचोटता भी यही हैसब। हमारे करे गी आलाके तो क्या मं आतने सोचंगसुं ंदवो र-स्वच्छ लोग. ससु रं ग-रूप राल वाले तोमकान यही कहं बहुत गे नाकम फक माँ है ने। कुआसणलए छ नहं सुशोणभत शौचालय को हमने 'मेयसव णसखाया।’ बंगला'बाप-बे दोनं नाम टफदया ी ने एक है । ऄहमदाबाद दूसरे को चुप्मं पी ऄब का तो एक फकया। आशारा नहं ऄने फफर क ऄचनचे जगहं तपरहँसऐसे ी की'मेगू यँज सव बंगदोनं मं लो' देणखलणखलाने खता हूँ । हीरालाल लगे। की चाल के पाखाने के सपने रात-बेरात मुझे नंद से ISSN –2347-8764

‘ मेरी हंतोऔर जगाते कोइऄपने सुनता बारेहीमंनहं। कु छ जब णलखने आसके के णलएराल ससु मजबू सेर णशकायतं करते हं । अएँगी तो तुम ही सुनना सब। दोनं* *बाप-बे * टी ऄपनी ही दुणनया मं मगन रहते हं. मेरी तो परवाह है ऄनुवाद : णबन्द्द ु भट्ट ही नहं फकसी को।’ माँ बुदबुदाती हुइ बतवनं से बातं करने चली गयी। ‘ ठक… ठक...’ दरवाज़े पर दस्तक... ऄनजान चेहरं पर नज़रं पड़ते ही. मालती के णपता ने ईसे भीतर जाने का आशारा फकया। देबू का घर यही है?’ जी। मं हूँ देबू। कणहए, क्या काम है?’ गाँव के नये सरपंच तुमसे णमलना चाहते हं।’ देबू आस बात को ऄच्छे से समझता था फक नया सरपंच ईससे क्यं णमलना चाहता है। गाँव के दणलतं का मुणखया है देबू और गाँव मं करीब 65 प्रणतशत दणलत बसते हं। सरपंच को ऄपनी मतदान पेटी का ख़ास ध्यान रखना पड़ता है। आसणलए नये सरपंच ने देबू पर ऄपना प्रभाव जमाने हेतु मुलाकात का न्द्योता भेजा है।’ ‘ ठीक है। तुम चलो। मं शाम को अता हूँ।’ ‘ शाम को?’ ‘ हाँ। ऄभी कु छ ज़रूरी काम से बहार जा रहा हूँ। शाम तक लौटूंगा।’ ‘ सरपंच ने तुम्हं ऄभी बुलाया है, तो तुम्हं ऄभी चलना होगा।’ धमकी भरे लहजे मं। ‘ देखो, धमकी तो तुम मुझे दो ना और रही बात नये सरपंच की, तो ईसे सरपंच हम लोगं ने ही बनाया है। बहुत ज़रूरी काम है आसीणलए कह रहा हूँ।’ हाथ जोड़ते हुए द्वार की और आशारा फकया। सरपंच के कु त्ते णमचव मसाला लगाकर माणलक के सामने भंकने लगे। सरपंच की रगं मं खून ईबलने लगा। ‘ सरपंच जी, कहो तो ईठा लाएँ साले को?’ गमवजोशी मं वफ़ादार कु त्ता भंकने लगा। ‘ नहं। अने दो ईसे शाम को। देखते हं क्या चीज़ है वो।’ शाम को देबू सरपंच के घर पहुंचा तो वो घर पर नहं था। सरपंच की पत्नी ने ईसे थोड़ा आं तज़ार करने के णलए कहा। काफ़ी समय तक देबू वहाँ आं तज़ार करता रहा परं तु सरपंच नहं अया। देबू घर लौटा तो णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

ईसने देखा फक घर के बाहर एक गाड़ी खड़ी है और दो मोटे-तगड़े सांडनुमा पहरे दार घर के दरवाज़े पर ऄपना ऄणधकार जमाए खड़े हं। वो झट से भीतर गया तो देखा फक सरपंच वहाँ ऄपनी कुं डली जमाए बैठा है। ‘ तुम दोनं भीतर जाओ।’ एक कड़क अवाज़ मं देबू ने ऄपनी पत्नी और मालती से कहा। ‘ जब मैने कहा था फक मं शाम को अउँगा। तो फफर तुम यहाँ क्या लेने अए हो?’ एक ऐसा प्रश्न णजसका ईत्तर देबू जनता तो था परं तु सरपंच के मुँह से सुनना चाहता था, सरपंच भी जैसे आसी सवाल के आं तज़ार मं हो। ‘ हम अपके परम भक्त और दशवनाणभलाशी जो ठहरे . हमने सोचा क्यं न हम ही अपके दशवनं के णलए चले अएँ।’ देबू के कं धे पर हाथ रखते हुए ज़बरदस्ती का ऄणधकार जताते सरपंच बोला। ‘ मैनं कहा था फक मं शाम को अउँगा तो मतलब अउँगा।’ कं धे पर से सरपंच का हाथ झटकते हुए देबू ने मानो कोइ प्रस्ताव ठु कराया हो। ‘ ऄरे नाराज़ क्यं हो रहे हो देबू। हम तो तुम्हारे सहयोग का ऊण चुकाने अए थे। बस कु छ तोहफे ...’ कु छ णडब्बं की ओर आशारा करते हुए। ‘ नहं चाणहए तुम्हारी रहमफदली की कोइ भी सौगात। खुद भी जाओ और ये सब भी ले जाओ। जाओ...’ सरपंच कु छ न बोल सका। देबू परे शान था क्यंफक वो बखूबी जानता था फक सरपंच फकस णनयत का माणलक है और ईसकी दूरंदेशी सही भी णनकली। बहुत जल्द सरपंच के अदणमयं ने गली के चक्कर काटने शुरू कर फदए। एक फदन देबू और ईसकी पत्नी घर पर नहं थे तो सरपंच घर अ धमका। ‘ सुनो, तुम्हारे बाबा कहाँ है? थोड़ा काम था ईनसे।’ एक नाटकीय ऄंदाज़ मं। ‘ बाबा तो घर पर नहं हं। वो अएँगे तो मं बता दूँगी फक अप अए थे।’ घबराते हुए मालती ने दरवाज़ा बंद करने का प्रयास फकया। ‘ घबरा क्यं रही हो?’ कु छ नज़दीक जाते हुए।

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त: सनघबराओ 1997 नहं। के साल मं बम्बइ ‘ऄंतऄच्छा, मं चलता हूँ। तुकी म रमाबाइ बता देना कॉलोनी देबू को.’मंणसर डॉ.परअम्बे से डपीठ कर तक की प्रणतमा हाथ फे रते को हुए खणडडत एक मस्करे करने केके मामले ऄंदाज़मंमंजब वो देशभरकी बाहर के ओर दणलत चला भड़क गया। ईठे , ईसी णसलणसले मं ऄहमदाबाद मालती ईसके आरादं और गुजको रातसमझ मं भीतो 'बंदगयी ' के एलानपरंफदए थी। तु आसगयेभय। सेईसफकरात यफददणलतं वो ऄपने के गुस्साएंकोगुबताएगी बाबा ट रास्तं तो पर वो ईतर सरपं अये च की । युगदव वकं न को काट ही ऄपना दंगं और अक्रोश ईसकीणनकालना भी बदनामी था,होगी पर णनकले वो कु छ फकस कह नहं तरह? पाइ।अणखर परन्द्तु यफद फकसीईसने को फदल्लगी नहं अवाज़ सूझी ईठाइ तो ईसने तो हीरालाल सरपंच को की आसमं चाल के पाखाने मालती कीतोड़ने मज़ी का की प्रस्ताव मोहर फदखे रखागऔर ी। ईसके फफर तो समूचऔर हंसले ी वानर बुलंदसेनहो ा टू टजाएँ पडी गे।। और पलभर ठीक मं तोसापाखाने वै ही हुअ।नेस्तोनाबूद हो गये । ईनकी मल से हो “ग़लत सनीबात ईंटंतोभीकह लोग देनईठाकर ी चाणहए। घरस्त्री ले गये । चुप्पी साध लेती हं फक समाज क्या ऄक्सर कईंगफदनं कहे ा? पहले तक येचचाव देखोचली तुम्हारा फक यहाँ मन क्या बनवाया कहे गा..? जाये क्या ?वोपाखाने तुम्हं ग़लत चालकाकीसाथ ऄपनी देने णमणल्कयत की आजाज़तथी दे।तसो ा हैचाल ..? केक्या बासिशदे वो तुजो म्हारी तय करंप्पीवही चु कीसही गवाही । एक भरता मत हैथा ..?फकनहं ऄबना.. तो.घर तो -घर क्यं फफर पाखाने करतीबन हो ऐसे गए समाज है इसलिए की परवाह वहाँ दुबारा जो बसपाखाने तमाशाबनाने देखताकाहै.क्या ..? जब मतलब? तुम खुतो श कु छ लोग होती हो तोईसी समाज जगह जल-भु दुबनाराकोयला पाखाना हो बनानाहैचाहते जाता । तुम्हारी थे । अँ ऄंतखत: ं केवहाँ अंस 'पेू समाज एन्द्ड यूजके' शौचालय णलए फकसीयोजना त्यौहार के तहत से कम पाखाने नहं।बनाने और काम्हारे तु णनणवईस य णलया ददव भरे गया समं । सालभर दर मं सेमं भी तो बफढ़या तु म्हारा शौचालय ही दोष णनकाला तैयार हो जाता गयेहै। स्त्री दीवारं हो, और फशवऄथव आसका पर चमकते ये नहं टाइल्स, फक प्रवे आज़्ज़त शद्वार पर की सुंदर दफूाटरयं णज़म्मे लं के का गमले टोकरा , नये तुरंम्गहारे -रूपणसर के साथ पर नयाटटकता अ सिसगार है। कुकरके छ समाज खडाके हैठे केदारं अज को ये शौचालय भी करने दो। । ईसके समाज रंमंग-रुप बदनामी देखकेकरभयवहाँ से शौचफक्रया तु म कोइ भी के बदले कदम सोच-णवचार ईठाने से डरती करने हो। की प्रेरणा णमला क्यं...? समाज ऐसातोहं तु । म्ईसमं हारे णखलाफ जाने के णलए कोइ नकदकदम भी एकईठाने रूपयासेचुनहं काना णझझकता। पड़ता हैतो । णमल फफर बंम तु द है क्यं…?” , कारखानं मं मंदी है । पूरा आलाका गरीबी का मालती औरईदास बेरोजगारी चेहरा देब चपे ू की ट सिचता मं है का। आसणलएबना। कारण 'पे ईसे एन्द्डखबरयूजथी, ' शौचालय फक सरपंच का ईपयोगमालती अना शायद ही कोहोता परशान है । कर रहा है। जब-जब ले फकन वोराजपु ये नहं र जाता जानता हूँ, था तबफक हीरालाल सरपंच की चाल फकस हद केतकपाखाने णगर चुकी काजगह है। ऄब खड़ा तो येसरपं नूतच न शौचालय हर ईस मौके मेरी की अत्मा तलाश को कचोटता मं रहता हैजब। हमारे आलाके मालती घर मंपरआतने ऄकेसुली ंदर-स्वच्छ होती। रंसरपं ग-रूप च वाले मकान ऄक्सर देबू के बहुत घर से कम णनकलता है ।देखआसणलए ा जाने सुशोणभत लगा। देबू को शौचालय खबर पड़ते को ही हमने मालती 'मेयसव से बंगला' नाम सवालं काफदया णसलणसला है । ऄहमदाबाद शुरू हुअ... मं ऄब तो एक नहं ऄचानक से मालती ऄनेक जगहं के णगरपर जाने ऐसेपर'मेय सब सव बंगलो' केदेखखं सिचता ताडहर हूँ । मंहीरालाल णगर गयेकी । चाल वैद को के पाखाने के सपने रात-बेरात मुझे नंद से ISSN –2347-8764

बुलवाया जगाते हं और गया ऄपने तो पता बारे चला मं कु छफकणलखने मालती के णलएवती गभव मजबू है।र बदनामी करते हं ।का धब्बा लगना तय था। *** ‘ मं ना कहती थी आस लड़की को संभाल ऄनुवाद : णबन्द्द ु भट्ट लो। पर नहं, तुम तो कहाँ सुनते हो मेरी। ऄब भुगतो। क्या होगा ऄब? कु छ समझ नहं अ रहा।’ देबू ईठा और मालती के पास जाकर बैठ गया। ‘ सबसे पहले तेरी खुशी देखी गयी आस घर मं। तेरे णसवा मुझे दुणनया मं और कु छ भी नहं फदखा। बेटी नहं, बेटा माना तुझे। कहाँ कमी रह गयी मेरे प्यार मं जो तूने ये सब…’ अँखं से अंसओं ू का सैलाब थम नहं रहा था। शब्दं का भी साथ छू ट गया। हाथ जोड़ता एक लाचार बाप बेटी से ऄपनी आज़्ज़त की भीख माँगता हुअ नज़र अया। ‘ नही बाबा। कोइ कमी नहं थी अपके प्यार मं।’ काँपती अवाज़ और हाथं से ईसने देबू का हाथ थामा। ‘ तो फफर ये सब...?’ घबराइ हुइ मालती ने णहम्मत करके सारी सच्चाइ ऄपने णपता के सामने रखी। ‘ तूने ये सब हमं पहले क्यं नहं बताया… क्यं?’ जंग के मैदान मं णनहत्थे णसपाही की भाँणत देबू भी लाचार खड़ा रहा। समाज की नोकीली नज़रं से सवालं के तीर ईसकी और चलने लगे। ऄपने होने का वजूद खो बैठा था वो। फफर णबखरी हुइ णहम्मत समेटी और मालती के भणवष्य के णलए सरपंच के दरवाज़े पर घुटने टेकने चल फदया। ‘ देबू, तू यहाँ? ऄपटरणचत भाव से। ‘ ऄनजान मत बनो सरपंच। मेरी बेटी गभववती है और तुम ही आस बच्चे के णपता हो।’ ‘ क्या बकवास कर रहे हो। ना जाने फकसका पाप है जो तुम मेरे मत्थे मढ़ने चले अए। यही तो तुम नीच लोगं का धंधा है। णबस्तर फकसी और का और चादर फकसी और से डलवाने चले अते हो। बहुत खूब। ना जाने फकस हरामी का पाप है आसके पेट मं।’ ‘ नीच..., कमीने... तुझ जैसे हरामी के पाप को ही णबन णबयाही ढो रही हूँ। ऄच्छा णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

होता फक बाबा को सारी सच्चाइ ईसी समय बता देती।’ ऄमीरं के ईस मुहल्ले मं ग़रीब की कोइ सुनवाइ नहं हुइ। सरपंच का काम था देबू को तोड़ना और ईसमं वो कामयाब हुअ। देबू की पत्नी ने बदनामी के भय से मौत को चुना। देबू की साँसं का सफ़र भी थोड़े ही समय का रहा। परं तु मालती ने ईस बच्चे को जन्द्म भी फदया और ईसकी परवटरश भी की। पंचं के फै सले ने मालती को गाँव से जाने पर मजबूर फकया। रोटी और छत का सवाल खड़ा हुअ तो ईसने लोगं के घरं मं काम करना भी मंज़रू फकया। जाणत के ताज से ईसे काम न णमलता। ऄपनी पहचान छु पानी पड़ी और नयी पहचान से वो ऄपनी और ऄपने बेटे की भूख को शांत करती। फफर एक अवाज़ ने मालती को जगाया। ‘ माँ... ओ माँ... मं मदन के घर जा रहा हूँ।’ दरवाज़े से बाहर कदम रखता हुअ खुरपा बोला। ‘ मेरी बात तो सुन।’ वो नहं रुका। ‘ मुझे मदन से णमलना है।’ खुरपे ने दरबान से कहा। ‘ छोटे साहब घर पर नहं है. तुम जाओ फफर कभी अना।’ फदन, महीने और साल गुज़र गये। खुरपे की मुलाकात मदन से कभी न हो सकी। हाँ एक फदन वही नया कु सी-मेज़ हवेली के बाहर कबाड़ मं रखा गया। णजसपर खुरपे ने बैठकर गुणजया खाया था।

समाज मं ऄणधकतर चेहरे मुखौटाधारी होते हं, णजसकी उपरी सतह चमचमाती सफ़े द और भीतर से काले होते हं। कांत बाबू जैसे बहुत लोग हं, जो ऄपने स्वाथव के णलए आन कु रीणतयं की जड़ं को कभी भी कमज़ोर पड़ने नहं दंग।ं और खुरपे जैसे बच्चं पर ऄपना णनशाना साधते रहंग।ं आसीणलए तो चाह कर भी णवश्वास नहं हो पाता फक समाज सुधर रहा है। क्यंफक ये संभव फदखने वाला कायव ऄसंभव है।” ~✽~

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लघुकथा

आं तज़ार आं साफ का राजन कु मार “मुझे आं साफ चाणहए। अणखर कब तक मं चुप-चाप बैठा रहूँ? कब तक अप लोगं के भरोसे रहूँ? अणखर कब तक ईस ऄपराधी को सजा दंगे?” दशरथ ठाकु र अँखं मं अँसू णलए पुणलस चौकी मं फू ट-फू टकर रोए जा रहा था। ईसकी बातं पर फकसी का ध्यान नहं था। पुणलसवाले अपस मं ही मशगूल थे। एक चौकीदार ईसे कोने मं ले गया और ईसके कान मं बोला भाइ, पैसा बोलता ही नहं बणल्क सुनता भी है। ऄगर पैसे का आं तजाम कर सको तो मं बात अगे बढ़ाउँ। दशरथ ठाकु र रोते हुए बोला- “साहब पैसा कमाने वाला जो था, जो घर की दाल-रोटी चलाता था, णजसके सहारे हमारा पटरवार पलता था, ईसको गुजरे छः महीने हो गये। न तो ईसके काणतलं को सजा हुइ और न ही सरकार ने कोइ सुध ली, जो ईसको मुवाव़जा देने का वायदा फकया था, वह भी नहं णमला। मं और मेरी पत्नी रात-फदन आस ईम्र मं भी काम करके फकसी तरह से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाते हं। ऐसे मं मं अपको पैसे कहाँ से लाकर दूग ँ ा। आस गरीब पर रहम कीणजए, हमं आं साफ फदलाआए।” दशरथ को णगड़णगड़ाते देख हवलदार बोला- णबना लेन-देन के यहाँ न कोइ काम होता है न तो फकसी की मजबूरी सुनी जाती है। चलो णनकलो ऄब यहाँ से, सबेरे-सबेरे बोहनी का समय खराब कर फदया। दशरथ ठाकु र ईदासी णलए घर की तरफ चल पड़ा। वह ऄतीत की स्मृणतयं मं गोते लगाने लगा। एक ही संतान थी हमारी। हम छोटे से पटरवार मं बहुत खुश थे। हमारी खुशी तब दुगनी हो गइ जब मेरे बेटे की नौकरी लगी। तब हमारी खुशी का टठकाना नहं था। ऄब हम भी भर पेट खाना खाएंगे, हम भी ऄच्छे कपड़े पहनंग,े मुहल्ले मं हमं भी आज्जत णमलेगी। पर भगवान को हमारी खुशी मंजूर न थी। बेटा जब काम से लौट रहा था, तभी अतंकवाफदयं ने ISSN –2347-8764

ईस पर हमला कर फदया। ईस हमले मं मेरे बेटे की मृत्यु हो गइ। मं पूछता हूँ अणखर क्यं मारा अतंकवाफदयं ने मेरे बेटे को? क्या णबगाड़ा था ईसने ईन लोगं का? क्या अम आं सान को स्वतंितापूववक घूमने की स्वतंिता नहं है? फफर देश को अजाद क्यं करवाया? मंिीजी ने कहा था फक हम जल्द ही ईन अतंकवाफदयं को पकड़ लंगे और कड़ी से कड़ी सजा दंगे। मृतक के पटरवार को पाँच लाख की सहायता राणश प्रदान करं गे। आस घोषणा को हुए छः महीने से उपर हो गए। अतंकवादी पकड़े तो गये पर जेल मं ईन्द्हं सजा नहं बणल्क ईनके एशो-एअराम की सारी सुखसुणवधाएँ दे दी गईं। बस खाना पूर्सत के नाम पर तारीख दर तारीख ईन्द्हं कोटव मं पेश तो फकया जाता है, पर सजा नहं सुनाइ जाती। पूछने पर कहते हं, ऄभी जुमव साणबत नहं हुअ है। ऄरे , मं पुछता हूँ कै से जुमव साणबत नहं हुअ? पूरा देश जानता है वे अतंकवादी हं। मेरे बेटे के काणतल हं। ऄब और क्या सबूत चाणहए ईनको सजा फदलाने के णलए। वह ऄपने घर पहुचने ही वाला था फक रास्ते मं एक रक की चपेट मं अ गया और वह आं साफ का सपना णलए वहं पर दम तोड़ फदया-“ऄब ईसकी पत्नी का क्या होगा, फकसके सहारे णजएगी वह? अणखर हमारे देश मं ऐसा क्यं होता है? अणखर ये मौत से खेलने की राजनीणत कब खत्म होगी? न्द्याय का राज कब अएगा? जैसे ऄनणगनत प्रश्न पीछे छु ट गए। ~✽~

ग्राम : के वटसा, पोस्ट : के वटसा, गायघाट णजला : मुजफ्फरपुर- 847107 (णबहार) मो. 8792759778, 9771382290

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ऑस्कार ऄवाडव णवजेता फफल्म समीिा

संवद े नशील-सजवक बोटरस पास्तरनाक की ऄमर कृ णत

‘डॉ. णझवागो’ का फफल्मीकरण सुमत ं रावल ऄनुवाद : राजेन्द्र णनगम णब्रटेन के महान फफल्म णनमावता डेणवड ली ने रूसी क्रांणतकारी लेखक पास्तरनाक के प्रणसि ईपन्द्यास ‘डॉ. णझवागो’ पर अधाटरत फफल्म बनाइ है, जो मूल कृ णत के ऄनुरूप ही है। लेखक पास्तरनाक को आस ईपन्द्यास पर स्वीडन मं नोबल पुरस्कार फदया गया। लेफकन रूसी सरकार ने ईसे साम्यवाद के शीत युि को ईभारने की चाल समझा और ईन्द्हं देश से णनष्काणसत करने की सजा दी। वे मातृभूणम के चाहक थे। रूस के बाहर जाने से तो मरना बेहतर है! आस प्रकार आस कथा मं लेखक की स्वयं की ईनकी वेदना भी महसूस होती है। फदग्दशवक डेणवड ली ने ईपन्द्यास के मुख्य पाि डॉ. णझवागो के णलए कलाकार के चयन मं बहुत सूझबूझ फदखाइ है। ईसके णलए हॉलीवुड के प्रणसि ऄरब ऄणभनेता ईमर शरीफ को पसंद फकया गया। तुकव से चीन तक चढ़ाइ कर ईस प्रदेश के णवजेता बने चंगेझखान का पाि ईम्र शरीफ ने फफल्म चंगेझखान मं बड़ी ख़ूबसूरती के साथ णनभाया है। आसके ऄलावा एडवंचर से भरपूर फफल्म ‘मेकेनाझ गोल्ड’ मं सोने की शोध के णलए पहाड़ं व जंगलं मं भटकनेवाला और ग्रेगरी पैक पर दबाव बनानेवाला खलनायक प्रेिकं को याद रह जाता है..... लेफकन ‘डॉ. णझवागो’ मं ईनकी भूणमका एक संवेदनशील कणव व डॉक्टर की है। फफल्म की कहानी फ्लेशबेक के रूप मं अरम्भ होती है। रूस की अंतटरक णवग्रह की णस्थणत समाणप्त पर है। झार युग समाप्त हो गया है। फौजी छावणनयं मं शांणत है.... सेना के प्रमुख - डॉ. णझवागो के बड़े भाइ हं, जो णझवागो का पता लगाने की कोणशश कर रहे हं। लेफकन णझवागो की मृत्यु हो चुकी है| वे ईनकी कब्र पर फू ल चढ़ाकर लौट रहे हं। तब वहं एक सैणनक डॉ. णझवागो की एक माि जीणवत पुिी कात्या को ईनके समि हाणजर करता है। डॉ. णझवागो की अणखरी णनशानी ऄब यही एक पुिी बची है। यह डॉक्टर व ईनके साथ काम करनेवाली नसव लारा की संतान है। लेफकन ईसे ऄपने णपता के बारे मं बहुत जानकारी नहं है.....सेना प्रमुख (णझवागो के छोटे भाइ) ऄब ऄपने बड़े भाइ डॉ. णझवागो की जीवनकथा कात्या को कहना शुरू करते हं..... बस आसी दृश्य से फफल्म की शुरुअत होती है। भूतकाल ईजागर होने लगता है, आणतहास के पन्ने पलटते जाते हं... पहला दृश्य है- कणब्रस्तान का! यूरी एंडणवच णझवागो माि पाँच वषव के हं और तब ही ईनकी णवधवा माँ की मृत्यु हो जाती है। बफव बारी के बीच पन्द्रह लोग जनाजे के साथ कणब्रस्तान की ओर ISSN –2347-8764

जा रहे हं। सबसे पीछे एक पाँच वषव का बालक नन्द्ह-ं नन्द्हं क़दमं से अणहस्ते चल रहा था। ईसका नाम था यूरी एंडणवच णझवागो। ईसकी नजरं के सामने ही ईसकी माँ को कॉफफन मं बंद कर कब्र मं नीचे ईतार फदया जाता है। बफव बारी आतनी तेज हो रही थी फक जमीन पर बफव की पतं जम गइ थं। सब कब्र मं फू ल डालने लगते हं। पाँच वषव के ईस बालक ने भी वहाँ फू ल डाल फदए... सबने णमट्टी डालना शुरू फकया, तब पाँच वषव के ईस बालक ने भी णमट्टी डालना शुरू फकया। देखते ही देखते माँ धूल से अच्छाफदत हो गइ। लेफकन वह नासमझ बालक मासूणमयत से सब कु छ देखता रह गया... माँ तो जमीन मं ईतारी जा चुकी थी। यह प्रतीणत होने पर ईसकी अँखं छलकने लगती हं... आस जगत मं माँ के णसवा और कौन था? ऄब वह ऄके ला कहाँ जाएगा? फकसके असरे णजएगा? लेफकन ईसके मामा को दया अइ। वे णझवागो को ऄपने साथ मॉस्को ले गए... दूसरा दृश्य ऄत्यंत करुण है... मामा का णवशाल मकान और ईसमं एक बड़ा कमरा और ईस बड़े कमरे मं वहाँ पलंग पर ऄके ला पाँच वषव का णझवागो सो रहा है! ईसकी नजर काँच की णखड़की पर रहती है, जहाँ णखड़की के बाहर बफव का झंझावात चालू था और बाहर एक वृि की छोटी टहनी काँच की णखड़की के साथ टकरा रही थी। णझवागो यह सब सोते-सोते देखता रहता था... आस दृश्य के माध्यम से फफल्मकार अगे अनेवाली णवषम पटरणस्थणतयं के समि संघषव करने की प्रेरणा देता है। बगैर फकसी संवाद के फोटोग्राफर ने यहाँ बहुत कु छ आं णगत फकया है। णझवागो की ईम्र के बराबर ही मामा की लड़की थी, दोनं का बचपन साथ ही गुजरता गया और परस्पर एक दूसरे को चाहते गए। णझवागो के मामा ने होस्टल मं रखकर ईसे पढ़ाया और डॉक्टर बनाया। फफर बाद मं ऄपनी बेटी के साथ ईसकी शादी कर दी... णझवागो एक पुि का णपता बन गया। एक बार सब मकान के झरोखे पर खड़े थे, झरोखा अम रास्ते पर था... और ईस रास्ते पर से झंडा लहराते हुए, जोशीले नारं के साथ एक जुलूस णनकल रहा था, णजसे अगे बढ़ने से रोकने के णलए रूसी सैणनक शस्त्रं का ईपयोग कर रहे थे। बेतरतीब ढंग से तलवारं से प्रहार फकए जा रहे थे। संवेदनशील डॉक्टर णझवागो की अत्मा तब णचत्कार कर ईठी। वे ऄपना डॉक्टरी का बॉक्स लेकर रास्ते पर अ गए। फौज के मुणखया ने कहा, ‘डॉक्टर, भागो यहाँ से!’ लेफकन वे भागे नहं, आसणलए मुणखया ने ईन पर तलवार से प्रहार फकया।

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‘मं डॉक्टर हूँ और मेरा काम ईपचार करना है... तुम्हारा काम मारना है और मेरा काम सिजदा रखना है...’ णझवागो ने कहा और फफर स्वयं घायल होने के बावजूद रास्ते पर ही रक्तरं णजत क्रांणतकाटरयं की मरहम-पट्टी करते रहे... यह बात झार तक पहुँच गइ। फकसी णवघ्नसंतोषी ने झार के हाथ मं डॉ. णझवागो के क्रांणतकारी कणवताओं की एक पुस्तक दे दी... झार ने ईसे पढ़ा और ईसके तनबदन मं अग लग गइ। डॉ. णझवागो की णगरफ्तारी की राह देखी जा रही थी... अंतटरक युि जारी था, आसणलए चूल्हे जलाने के णलए लकणड़याँ नहं णमलती थं। रसोइ नहं होती थी। णझवागो एक बार एक पेड़ को काट कर ईसकी लकणड़याँ रसोइ के णलए लेकर अ रहे थे और तब सैणनकं ने पकड़ णलया। ईस वक्त णझवागो के छोटे भाइ ने ईन्द्हं छु ड़ाने मं मदद की... सौभाग्य से णझवागो के छोटे भाए झार की सेना मं भती हुए थे। ईन्द्हंने ऄपने संपकं का आस्तेमाल कर णझवागो को छु ड़ाया, लेफकन साथ ही भलमनसाइ की सलाह भी दे डाली... ‘भाइ साहब... ऄब मॉस्को मं अपके णलए रहना जोणखमभरा है। जान की सुरिा नहं है...’ ‘कारण क्या है?’ ‘कारण अपके णवचार- अपकी कणवता और अपका लोगं के प्रणत प्रेम!’ ‘तो मं क्या करूँ?’ ‘अप भाभी और बच्चे को लेकर रात को णनकल जाएँ... चार फदन और चार रात रेन मं गुजारनी हंगी... रूस के सुदरू ईत्तर मं वेटरका नामक प्रदेश है... वहाँ हमारा घर है... वहाँ चुपचाप पड़े रहना...फकसी को मालूम भी नहं पड़ेगा... और तुम्हं कोइ परे शान भी नहं करे गा...’ छोटा भाइ बड़ा बन गया, ऄनुभवी बन गया व समझदार बन गया। रात मं रे लवे-स्टेशन णहजरत करनेवाले टोलं से भर गया। णबस्तर और पोटणलयं के साथ युवा, बच्चे, बूढ़े लोग... रेन अए तब दौड़भाग और धक्कामुक्की, णचल्लाहट और णससफकयाँ ... सब मॉस्को से भागकर दूर कहं जाना चाहते थे, चेहरे पर व्याकु लता और अँखं मं जीने की ललक... ISSN –2347-8764

रे लवे प्लेटफामव तो मानो युि का मैदान बन गया था। झार की ओर से देखते ही गोली मारने के अदेश हो गए थे। लोग जान बचाने के णलए आधर-ईधर भाग रहे थे। णबस्तरं पर णसर टटकाए लोग टोलं मं सो जाते थे। ऄंत मं बहुत कोणशश के बाद फकसी तरह णझवागो को एक रेन की बोगी मं कु छ जगह णमलती है... ईसमं सब ठू सठोस कर भरे हुए थे, पत्नी कु छ दूर थी, लेफकन पुि (करीब चार वषव का) णझवागो के पास था। णझवागो ईसे ऄपने पेट पर णबठाकर ईसका मन बहला रहा था और स्टील आं णजनवाली रेन दौड़ रही थी। णडब्बे सरकते जा रहे थे, स्टेशन एक-एक कर गुजरते जा रहे थे- चार फदन और चार रात की यािा थी। बोगी मं ऄसह्य घुटन... णझवागो खुशफकस्मत था फक ईसके णसर पर णखड़की थी और वह णखड़की खोल कर बाहर के दृश्य देख सकता था। णखड़की मं से बाहर गुजर रहे दृश्यं को देखने के हावभाव का ऄणभनय जो ईमर शरीफ के चेहरे पर अता है, वह लाजवाब है। अशा -लनराशा, खुशी-गम और चेहरे पर पिपल बदलते भाव जो ईमर शरीफ द्वारा व्यक्त फकए गए हं, ईसके णलए कह सकते हं फक फफल्म का यफद सवावणधक अकषवण है तो वह रे ल्वे के सफर का दृश्य ही है! प्रेिक यफद वह देखने से चूक गया तो मानो वह पूरी फफल्म देखने से ही चूक गया- आस प्रकार के ऄद्भुत दृश्य कै मरे से णलए गए हं। मंने फकसी भी फफल्म मं आतनी लंबी दौड़ती हुइ रेन मं आतने भयभीत, भूखे, पीणड़त लोगं को अतवनाद करते हुए नहं देखा... ईस दृणि से फफल्म ने मैदान मार णलया है। बाहर मीलं तक णबछी बफव की सफ़े द चादर, बफव से अच्छाफदत मकान, बफव से ढकी छतवाला एक छोटा-सा स्टेशन। णनजवन, सूखे, वृि-णवहीन खेत... ये सब दृश्य पदे पर णझवागो की अँखं के माध्यम से बताए गए हं, जो णझवागो देखता है, वही प्रेिक देखते हं... एक-एक कर दृश्य सरकते जाते हं, रेन कहं भी रुकती नहं है। स्टेशन के अने पर रेन की गणत कु छ धीमी होती है और तब वहाँ बाहर खड़े लोग ऄंदर घुसने की कोणशश करते हं। कु छ णडब्बं पर लटक जाते हं णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

और कु छ नीचे णगर जाते हं। कु छ घायल हो जाते हं और कु छ का कचूमर णनकलने लगता है.. कु छ ऄंदर घुस जाते हं तो ऄंदर बैठे हुए जगह के ऄभाव मं ईसे फफर बाहर फं क देते हं, नीचे टकराते हं, कराहते हं और दबने-णपसने लगते हं! प्रेिकं को ऄंदर से पूरी तरह णहला दे, ईस तरह के अघातजनक दृश्य दस णमनट तक चलते हं... कहं तो बहुत उँचाइ से दृश्य णलए गए हं, आसणलए रेन एक सांप की तरह जमीन पर सरकती हुइ फदखाइ देती है। और कभी दृश्य पाश्वव से णलए गए हं, णजनमं मजबूर, लटके हुए, णचपके हुए और सरकते हुए णहजरत कर रहे लोग फदखाइ देते हं... जीने हेतु जी-तोड़ प्रयास.. सिजदगी और मौत का एकतरफा खेल... प्रेिकं के हृदय की धड़कनं को बढ़ा दं, ईस तरह से दृश्य ऄंफकत फकए गए हं। एक स्टेशन पर रेन रुकती नहं है, लेफकन रेन के साथ दौड़ती हुइ, एक ऄधेड़ ईम्र की औरत ऄपने तीन वषव के बालक को णडब्बे के ऄंदर फं कने की कोणशश करती है। मानव जीवन की यह कै सी लाचारी! ‘मं तो नहं बचूँ, लेफकन मेरे लाल को तो बचाना!’ बोगी मं बारं बार सैणनक अते हं, हाजरी दजव करते हं, नाम पुकार कर एकएक ईबला हुअ अलू खाने के णलए देते हं! एक स्टेशन पर फौजी टु कड़ी णझवागो को नीचे ईतारती है, पूछताछ होती है, तलाशी ली जाती है। णडब्बे के सभी यािी चुप! सन्नाटा छा जाता है। णझवागो की पत्नी व पुि भी गुमसुम! क्या होगा? लेफकन ऄंत मं णझवागो को ऄंदर जाने देते हं। फफर रेन मं बैठते हं, रेन चालू हो कर दौड़ने लगती है। स्टीम आं णजन द्वारा ईठते धुंए मं दृश्य णवलीन होते रहते हं। ऄंत मं चार फदन व चार रात के सफर के बाद रेन रुकती है, पटटरयां ऄब अगे नहं हं, अगे नो एंरी है... यह वेटरका है ! णबलकु ल ईजाड़ प्रदेश... जमीन मं घास का एक णतनका भी वहाँ ईगता नहं... स्टेशन से चार फकलोमीटर के फासले पर एक वीरान मकान है और ईस वीरान मकान मं डॉ. णझवागो और ईनके पटरवार का णनवास! णझवागो की पत्नी के दादा यहाँ रहते थे। चारं खेत मं मेहनत करते हं, अलू बोते

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हं। घर की साफ-सफाइ करते हं, कमरे को सजाते हं... एक सुबह णझवागो णखड़की खोल कर बाहर खेत मं देखते हं, तो चेहरे पर खुशी के भाव छा जाते हं। बंजर खेत मं अलू के कु छ ऄंकुर णनकल अए थे... णछतरी हुइ घास मं कु छ फू ल भी फदखाइ फदए... बस... ईसके ऄंदर लुप्त हुइ कणवता का झरना फफर से बहने लगता है। डायरी, कलम और कणवता-लेखन शुरु! वह कभी-कभी घोड़ा लेकर नजदीक के शहर मं खरीददारी करने के णलए जाता था। एक बार एक ऄनजान शहर मं, एक पटरणचत चेहरे से मुलाकात हो जाती है। ईसके सीधे हाथ जैसी नसव लारा से तब ईसकी भंट हो गइ। मॉस्को मं वह जब भी घायल लोगं के आलाज के णलए णनकल जाता था, तब लारा भी नसव के रूप मं ईसके साथ णनकल पड़ती थी। ईसे वे फदन याद अ गए, गुलाबी गाल और भूरी अँखं वाली लारा ने स्काफव बाँधा हुअ था। ईसके शरीर पर नसव का सफ़े द फ्रेाकवाला यूणनफामव था। अंतटरक णवग्रह के कारण आलाज के णलए शहर मं धनवान लोगं ने ऄपने खचव पर ऄस्पताल शुरु फकए थे। लारा ईससे जुड़ गइ थी। फफर तो हर सप्ताह खरीदारी के बहाने णझवागो शहर मं जाता, लारा से णमलता, बातं करता और फफर आस तरह ईसे सिजदगी मं एक मकसद णमल गया। कभी वह लारा के साथ ईसके णनवासस्थान पर रात भी गुजरता। आसके फलस्वरूप लारा गभववती हो जाती है- वह एक लड़की को जन्द्म देती है। वह कात्या है! वषव दर वषव गुजरते रहते हं। ईम्र बीतती जाती है। कात्या भी ऄब तीन वषव की हो चुकी है, तब वहाँ एक ऄनहोनी घटना घट जाती है। एक बार शहर से णझवागो घोड़े पर बैठ कर ऄपने घर की ओर अ रहा था, वहं रास्ते पर झार के सैणनक ईसे घेर लेते हं, अँखं पर पट्टी बाँध देते हं और घोड़े के साथ ईसे ऄपने साथ ले जाते हं, संिेप मं ईसका ऄपहरण हो गया था! दूर घनी झाणड़यं मं बैरेक थे और वहाँ घायल सैणनकं के आलाज के णलए णझवागो को नजरकै द मं रखा गया। वैसे तो यही ईसके जीवन का लक्ष्य था, घायल, बीमार, ISSN –2347-8764

पीणड़तं की सेवा करना... लेफकन पटरवार से दूर रहने के कारण वह हताश हो गया। बारं बार भागकर छू टने की कोणशश करता, लेफकन फफर पकड़ा जाता। चेहरे पर दाढ़ी बढ़ गइ, गाल बैठ गए, हृदयरोग की बीमारी लग गइ। लेफकन ऄंत मं एक फदन मौका देखकर वह वहाँ से भाग णनकला... सतत तीन फदन और तीन रात तक वह

भागता ही रहा... लेफकन वेराना का ऄपना घर न णमला... जंगल-झाड़ी, नदीकं दराएँ, पहाड़-टेकरी सब पर सतत चलने रहने से बूट फट गए। पैर मं चीरे पड़ गए, कपड़े फट गए, घुटनं मं सूजन अ गइ। कोइ यफद देखे तो दाढ़ीवाला और चीथड़े जैसे कपड़ं मं झीवागो, एक पागल अदमी ही लगता था। रास्ते मं जो भी णमले, वह खा लेता था, नदी-नाले का पानी पी लेता था... चलता रहता... ऄंत मं स्टेशन अया। वेरोनो प्रदेश का अणखरी स्टेशन! ईसकी अँखं मं चमक अ गइ। ऄपना घर अ गया, लेफकन घर खाली था। पत्नी नहं थी, पुि नहं था और वृि दादाजी भी नहं थे! खेतं मं डंठल जैसे सूखे पौधे थे। घोड़े पर बैठकर आधर से ही शहर जाता था। वह सब याद अ गया। ईस रास्ते पर चलता-चलता वह शहर पहुँच गया। ऄस्पताल गया। लारा नहं थी, घर पर भी लारा नहं थी। ईसकी पुिी कात्या भी नहं थी, कोइ भी नहं था। छाती मं ऐठन अ गइ, अँखं के अगे ऄँधेरा छाने लगा, फु टपाथ पर बैठ कर वह बकवास करने लगा... भयंकर अघात के कारण ईसे सणन्नपात रोग लग गया... फफर स्टेशन अया और चारं ओर णनराशा से णघरा णझवागो, मॉस्को की ओर जानेवाली रेन मं बैठ गया। मॉस्को की रौनक देख कर णवश्व गाथा: जनवरी-फ़रवरी-माचव–2017

ईसके चेहरे पर रं गत अ गइ| सलून मं वह दाढ़ी कराने के णलए गया, स्नान फकया, कपड़े बदले और फफर नए णसरे से सिजदगी शुरु करने का णनणवय फकया। लेणनन की जीत हुइ थी, जारशाही ऄब ख़त्म हो गइ थी। परोि रूप से णझवागो की भी जीत हुइ थी। आस दृणि से वह स्वस्थ हो गया। ऄस्पताल मं ईसे डॉक्टर के रूप मं काम णमल गया। एक बार राम मं बैठकर वह ऄपने काम करने के स्थल पर जा रहा था और वहाँ एक अियवजनक घटना घटी। वह णखड़की के पास बैठा था और णखड़की के बाहर फु टपाथ पर टहल रहे लोगं को देख रहा था, फक ऄचानक ईसने ईन लोगं के बीच लारा को देखा। हृदय मं बहुत रोमांच हुअ... लारा जीणवत थी! वही लारा... लंबा फ्रेाक, णसर पर स्काफव और हाथ मं बॉक्स... लंबे कदम चलती लारा की वही चाल.. वह णचल्लाया... लाअअरा! लेफकन ऄफ़सोस... राम का काँच बंद था। ईसकी णचल्लाहट लारा तक नहं पहुँच सकी... काँच की बंद णखड़की को खोलने की कोणशश की, लेफकन णखड़की नहं खुली, आसणलए वह खड़ा हो गया। और मागव के बीच खड़े मुसाफफरं को धके लता हुअ वह राली के दरवाजे तक पहुँचा, रोली को हर हाल मं रोकने के णलए वह ईतर गया... बाहर णनकल कर असपास देखा, लारा नहं थी! आतनी देर मं वह कहाँ गइ? ईसे संशय हुअ... वास्तव मं लारा थी या लारा का भ्रम था? वह फु टपाथ पर तेजी से चलने लगा, वहाँ ईसके अगे लारा चली जा रही थी, दोनं के बीच करीब बीस फु ट का फासला था... लाअअरा! वह णचल्लाया...लेफकन ईसकी अवाज गले मं ही समा गइ। बाहर नहं णनकल सकी... जोर-जोर से श्वास लेते हुए ईसने ऄपने तरीके से दौड़ लगाइ..... लारा तक पहुँचने के णलए... लेफकन वह रास्ते मं ही णगर गया... हृदयाघात का जोरदार हमला ऄपना काम कर गया... लोग जमा हो गए, लारा तो अगे णनकल गइ। ईसके पीछे फु टपाथ पर णझवागो का दम णनकल गया! जमा हुए लोगं ने ईसका सूटके स खोलकर जानकारी प्राप्त की,

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लारा तक पहुँचने के णलए... लेफकन वह रास्ते मं ही णगर गया... हृदयाघात का जोरदार हमला ऄपना काम कर गया... लोग जमा हो गए, लारा तो अगे णनकल गइ। ईसके पीछे फु टपाथ पर णझवागो का दम णनकल गया! जमा हुए लोगं ने ईसका सूटके स खोलकर जानकारी प्राप्त की, पुणलस अइ... लेणनन की सरकार ने णझवागो की कर की, ईसे संगमरमर की कब्र मं दफनाया और ईसकी जीवनगाथा के संणिप्त णववरण दशावनेवाली तख्ती भी ईसकी कब्र पर लगा दी गइ। यहाँ फफल्म का फ्लेशबेक पूरा होता है। णझवागो की कहानी समाप्त होती है। आणतहास करवट बदलता है। णझवागो का छोटा भाइ कथा पूरी करने के बाद पुिी कात्या को ईसके णपता की कब्र तक ले जाता है। कात्या कब्र पर फू ल चढ़ाती है और फफर तख्ती पढ़ने लगती है और तब ईसकी अँखं सहज ही छलकने लगती है। लौटते समय णझवागो का भाइ पूछता हैकात्या, तुम क्या करती हो? ‘मं नसव हूँ ... और ऄस्पताल के डॉक्टर के साथ शादी करनेवाली हूँ...’ कात्या, सगवव जवाब देती है। छोटा भाइ चफकत हो जाता है। वषं पहले कात्या की माँ लारा भी नसव थी और डॉक्टर णझवागो से प्रेम करती थी, आणतहास पुनः स्वयं को दोहरा रहा है। पुिी भी माँ की तरह मरीजं की सेवा कर रही है। वह डॉक्टर भी वहाँ अ जाता है... डॉक्टर और नसव एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर चलने लगते हं। णझवागो का छोटा भाइ ईनको जाते हुए देखकर संतोष का ऄनुभव करता है। यहाँ फफल्म पूरी हो जाती है... लेफकन जुल्म के समि बगावत की लड़ाइ तो कभी भी पूरी नहं होती है... वह तो सफदयं से चल रही है और चलती रहेगी! ~✽ ~

कणवता अमीन खान

धूएँ से णनकली आक लकीर …. और तस्वीर बन गयी धूअं णनकलता रहा, तसवीरं बनती गयी… ऄसंख्य तसवीरं ... बनती थी, लूप्त होती थी और मं ढू ँढ़ रहा था आक तस्वीर … णजसे चाहूँ, प्यार करूँ ...ऄपना सकूं … मगर हर तस्वीर बनते ही, हवा का आक झंका अता और तस्वीर को ऄपने संग बहाकर ले जाता हरे क झंके के साथ लुप्त हो जाती वो हर तस्वीर … ऄठखेणलयाँ करती, झंकं के गलेमं बाहं डाले धीरे धीरे लुप्त हो जाती, ऄसंख्य तस्वीरं …..और मं खडा रह जाता, देखता ईनकी चंचलता…… शाम के वक़्त मंदीर मं जलाया गया आक दीप ईस से प्रकट एक ज्योणत.... शांत, ऄखंड रूप से प्रज्वणलत ऄंधकार को दूर करती, णवश्वास का भाव जगाती ईस ज्योणत से णनकली आक धूए की लकीर……. ईससे ईभरी आक तस्वीर…. शांतचीत्त...... स्वच्छ, पावन, सुंदरता की मूरत .. लगा फक यही है वो मूरत…. जो प्रकट हुइ आक तेज दीप सी …..णजसे मं चाहूँ .... यही है वो तस्वीर ....… ~✽ ~ 304, स्वणस्तक ऄपाटवमेन्द्ट, अर.टी.ओ. के पास, णजला सेवा सदन, अणंद-388001 (गुजरात) Mo. 097 277 14251

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शोधपि

पुसिल्लगी समाज की णगरफ़्त मं हाँफती घरे लू औरत की कहानी

सिपजरे की मैना डॉ. समीर प्रजापणत सिहदी अत्मकथा के आणतहास मं सन 1641 मं रणचत ‘ऄधवकथानक’ (बनारसीदास जैन) को भले ही सिहदी की पहली अत्मकथा होने का गौरव प्राप्त हो, पर फकसी मणहला ने पहली बार ऄपनी पीड़ा को अत्मजीवनी के रूप मं ऄणभव्यक्त फकया, ईस मणहला का नाम है- ‘दुणखनी बाला’ और अत्मजीवनी का नाम है- ‘सरला एक णवधवा की अत्मजीवनी’ । यह अत्मकथा ‘स्त्री दपवण’ पणिका मं जुलाइ 1915 से माचव 1 916 तक के ऄंक मं धारावाणहक रूप मं प्रकाणशत हुइ थी । आस रचना मं स्त्री णवरोह प्रारणम्भक झलक देखने को णमलती है । दुणखनी बाला द्वारा रणचत आस णवणशि अत्मजीवनी के ऄलावा प्रारं णभक दौर की ऐसी कइ अत्मकथाएँ है जो स्त्री लेणखकाओं द्वारा णलखी गइ है और णजसमं ‘हम’ या ‘वह’ शैली मं अत्मानुभूणत एवं स्व-पीड़ा के साथ-साथ सामाणजक जीवन एवं पर पीड़ा का लेखा-जोखा वणवनात्मक ढंग से णनरुणपत हुअ है । हालाँफक यह प्रारणम्भक रचनाएँ भले अत्मकथा के ताणत्वक ढांचं मं फीट नहं बैठती लेफकन आसमं नारी णवरोह एवं नारी चेतना की प्रारणभक अहटं की जो गूंज सुनाइ देती है ईसे ऄनदेखा नहं फकया जा सकता । यही णवशेषता आन रचनाओं को महत्वपूणव बना देती है । यह सत्य है फक बीसवं शताब्दी के सातवं–अठवं दशक तक सिहदी अत्मकथा लेखन की न तो कोइ णवकणसत एवं समृध्ध परम्परा रही, न साणहणत्यक णवधा के रूप मं ईस पर कोइ ज्यादा बहस । दिकतु णपछले चार दशकं मं पीणड़त समुदाय (दणलत और स्त्री ) द्वारा सिहदी मं जो अत्मकथाए णलखी गइ, ईसने अत्मकथा की दृणि और फदशा को, या यो कहे की अत्मकथा की संस्कृ णत को ही बदल फदया है ! यही अत्मकथा तो पीणड़त-शोणषत समुदाय के णलए ऄपनी पीडा, अत्मानुभूणत और संघषव को ऄणभव्यक्त करने का सबसे सरल और प्रथम माध्यम बन चुकी है । नारीवादी अन्द्दोलनं की ऄनुगूंज और स्त्री णवमशव की बयार मं नारी समानता एवं सशणक्तकरण के भारतीय प्रयास तेज हुए तो णस्त्रयं ने इमानदारीपूववक स्वयं को, ऄपनी पीड़ादायक जीवन एवं संघषो को शब्दं मं बांधकर अत्मकथा के रूप मं ऄणभव्यक्त करने का सफल प्रयास फकया । वैसे अत्मकथा णलखना हर साणहत्यकार के बस की बात नहं है । ईसे णलखने के णलए जो भी कलम ईठता है ईसके णलए पहली शतव है ऄदम्य साहस, तटस्थता एवं इमानदारी का होना । रोणहणी ऄग्रवाल आसी सत्य को ईजागर करते हुए णलखती है ‘’अत्मकथा णलखना अग के दटरया कं डू बकर पार करने की ऄंधी जीद है । ऄपने को तीखी, णनमवम, ISSN –2347-8764

णन:संग नज़र से देखने की कड़ी साधना ।’’ ऐसी कड़ी साधना के साथ-साथ इमानदारी पूववक सिहदी की स्त्री लेणखकाओं द्वारा बड़े पैमाने पर अत्मकथाएँ णलखी जा रही है । लेफकन खतरनाक साहस के साथ अत्मकथा णलखने वाली लेणखकाओं की जहाँ तक बात है तो ऄणजत कौर का नाम सबसे पहले णलया जा सकता है । णजस खतरनाक साहस के साथ ईन्द्हंने ‘ख़ानाबदोश’ अत्मकथा णलखी है, ऐसा साहस बहुत कम स्त्री लेणखकाओं मं देखने को णमलता है । आस अत्मकथा के ऄलावा सिहदी की कु छ महत्वपूणव और प्रणसध्ध अत्मकथाओ का ईल्लेख करना हो तो ऄमृता प्रीतम की ‘रसीदी टटकट’, कमला दास की ‘मेरी कहानी’, फदनेश नंफदनी डालणमया की ‘मुझे माफ़ करना’, कृ ष्णा ऄणिहोिी की दो खंडो मं णवभक्त अत्मकथा –‘लगता नहं फदल मेरा’ तथा ‘और..और औरत’, मैिेयी पुष्पा की ‘कस्तूरी कु डडल बसे’, “झूला नट’ तथा ‘गुणड़या भीतर गुणड़या’, मन्नू भडडारी की ‘एक कहानी यह भी’, प्रभा खेतान की ‘ऄन्द्या से ऄनन्द्या’, कु सुम ऄंसल की ‘जो कहा नहं गया’, पदमा सचदेव की ‘बूंद बावड़ी’, कौसल्या बेसन्द्िी की ‘दोहरा ऄणभशाप’, रमणणका गुप्ता की ‘हादसे’ अफद है । आन सभी अत्मकथाओं की सबसे बड़ी णवशेषता है पूरी इमानदारी के साथ ऄपने व्यणक्तगत-सामाणजक एवं लेखकीय जीवन की णनसंग, णनमवम एवं तीखी ऄणभव्यणक्त ! पटरणामस्वरूप ये अत्मकथाएँ पुरुष लेखक द्वारा णलखी गइ अत्मकथाओ की ऄपेिा चौकाती ही नही बणल्क स्तब्ध होकर पाठकं को ये सोचने मजबूर भी करती है फक- ‘क्या ऐसा भी हुअ होगा ?’ पढ़ने वाले ऄणधकांश पाठक को स्त्री की अत्मकथा मं णवस्फोट और धमाके की गूंज सुनाईं देती है । णवशेष रूप से तब, जब लेखन के िेि से जुड़ी णस्त्रयाँ अत्मकथाएँ णलखती है । ‘हादसे’, ‘ऄन्द्या से ऄनन्द्या’, ’लगता नही फदल मेरा’ जैसी अत्मकथाओं मं णजस धमाके और णवस्फोट की गूंज सुनायी देती है, ऐसी गूंज भले ही चन्द्रफकरण द्वारा रणचत ‘सिपजरे की मैना’ मं न सुनायी देती हो, पर णजस ढंग से मध्यमवगीय साधारण स्त्री की व्यथा-कथा ईसमं णनरुणपत हुइ है, वह ईसे ऄन्द्य अत्मकथाओं से णभन्नता प्रदान करती है । लेफकन ईक्त सभी अत्मकथाओं मं एक णवशेषता समान रूपसे देखने को णमलती है फक पुसिल्लगी समाज द्वारा णनर्समत पाटरवाटरक मयावदाओ, नैणतकता के दोहरे मापदंड़ो, स्त्री के णलए णनर्समत लक्ष्मणरे खाओ एवं पणत के एकाणधकारत्व के जाल मं फं सकर बेबसी का जीवन जीने मजबूर णस्त्रयं द्वारा णलखी गइ है । मजबूर आस कदर है फक वह ऄपने घर-पटरवार एवं समाज को वे छोड़ भी

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दे तो भी ईन्द्हं न कोइ सम्मान की नजरो से देखनेवाला है न बराबरी का दजाव देनेवाला ईलटा ईसे कु लटा, चटरिहीन एवं बेहया अफद प्रमाणपिं से नवाजने वालं की संख्या ऄणधक है । आस दृिी से देखे तो पदमा सचदेव हो या कौसल्या बैसंिी, रमणणका गुप्ता हो या प्रभा खेतान, चन्द्रफकरण हो या मन्नू भंडारी.. सब नाणयकाओ की णवडम्बना एवं पीड़ा एक समान है । फफर ईस पीड़ा की ऄणभव्यणक्त का ढंग भले णभन्न –णभन्न ही क्यं न हो । अआए ऄब बात करे ‘सिपजरे की मैना’ की । चन्द्रफकरण द्वारा रणचत एवं 416 पृष्ठं मं फै ली हुइ आस अत्मकथा का कथा फ़लक ऄत्यंत व्यापक है । अयव समाजी पटरवार मं जन्द्म लेनेवाली चन्द्रफकरण को ऄन्द्य पटरवारं मं जन्द्म लेनेवाली लडफकयं की तुलना मं खुलापन एवं स्वतंिता ऄणधक णमली थी । ऄत: चन्द्रफकरण का बचपन खुली हवा मं णबना रोक-टोक के णबता था। ऐसी मुक्त-मनमौजी फकरण ने सपने भी बड़े-बड़े संजोएँ थे । आन बड़े-बड़े सपनं मं एक महत्वपूणव सपना था- ऄणधक पढ़-णलखकर कु छ कर फदखाने का । पर ये अकाशीय सपना यथाथव की जमीन को पैर छू ता ईससे पहले ही टू टकर णबखर जाता है । पहले ऄपनी माँ की फफर णपता की ऄसमय मृत्यु के चलते ईच्च णशिा प्राप्त करने का जो सपना था वह चन्द्रफकरण के णलए माि एक सपना बनकर ही रह गया ! पढने का सपना भले साकार न हो सका और ईसके णलए वह दोषी भी नहं थी |पटरणस्थणतयं के अगे वह णववश थी । पर णववश होने के बावजूद चन्द्रफकरण घुटने टेक हार माननेवाली लड़फकयं जैसी णबलकु ल नहं थी । जुझारूपन एवं स्वाध्यायी वृणत्त के बलबूते वह न णसफव साणहत्य रत्न की परीिा पास करती है, बणल्क ऄंग्रेजी, ईदू,व बांग्ला, गुजरती एवं गुरुमुखी भाषा पर ऄपनी पकड भी मजबूत कर लेती है । आतना ही नहं वह ऐसी दृणि एवं भाषा भी ऄर्सजत कर लेती है, णजसके माध्यम से मनुष्य समाज के साथ-साथ ऄपने दुःख-ददव ऄणभव्यक्त कर सके । यधणप वह लेखन की शुरुअत माि 13 साल की ईम्र मं ‘ऄछू त’ कहानी णलखकर ही कर चुकी थी तथाणप एक लेणखका के रूप मं पहचान और ख्याणत णमली ‘अदमखोर’ कहानी संग्रह से । पहचान और ख्याणत का ऄंदाजा आस बात से लगाया जा सकता है फक आस कहानी संग्रह के कारण लेणखका को सिहदी साणहत्य सम्मेलन मं ‘सेक्सटरया पुरस्कार’ एवं 1987 मं ‘सारस्वत सम्मान’ से सम्माणनत फकया गया । आतना ही नहं ईनके द्वारा णलणखत लगभग 300 कहाणनयाँ जो ऄपने समय की प्रमुख पिपणिकाओं मं प्रकाणशत हुइ थी ईसे सिहदी के वटरष्ठ अलोचकं तथा ईनके समकालीन रचनाकारं द्वारा सराही भी गइ । ईनके द्वारा णलणखत चार ईपन्द्यासं ने भी ईनकी प्रणसणध्ध मं श्रीवृणध्ध की । चन्द्रफकरण का साणहणत्यक सफरनामा भले यशस्वी रहा पर पाटरवाटरक-सामाणजक जीवन नकावगार ही बना रहा । फकरण के लेखकीय जीवन का गहराइ से ऄध्ययन करे तो यह ईजागर होता है फक साणहणत्यक प्रणतभा और ईत्कृ ि लेखन के जटरए फकरण को मन्नू भंडारी, प्रभाखेतान, मैिेयी पुष्पा एवं रमणणका गुप्ता की तरह यश-कीर्सत, मान्द्यता-ऄणस्मता के चौखट तक पहुचने मं ISSN –2347-8764

सफल जरूर होती है । बावजूद आसके चन्द्रफकरण को अजीवन आस बात का दु:ख रहा की ऄन्द्य लेणखकाओं की भांणत ईन्द्हं सुखद सहजीवन कभी नसीब नहं हुअ, णवफलताओ से भरी जीवन की करुण िासफदयाँ ही ऄपने हाथ मं अइ । चन्द्रफकरण ने भी कभी सही एवं योग्य जीवनसाथी की चाह रखते हुए अदशव एवं स्वगीय सहजीवन के सपनं संजंए थे । ईनके जीवन मं यह चाहत हक़ीकत का रूप लेती तब नज़र अइ, जब एक नवोफदत लेखक और ‘णवचार’ पणिका के ईप संपादक काणन्द्तचन्द्र का ईनके जीवन मं अगमन होता है । मनचाहे पुरुष को पणत के रूप मं पाकर मानो चन्द्रफकरण के सपनं को पंख णनकल अये ! वह मुक्त-गगन मं णवहार करने लगी । माता-णपता की मृत्यु के बाद भावनात्मक ऄभावं मं जीनेवाली एवं ऄनेक ईतर-चढ़ावं से गुजरने वाली चन्द्रफकरण के णलए तो यह शादी ऄंधकारमय जीवन मं रोशनी की एक नइ फकरण लेकर अती है । सपनं को साकार रूप देनेवाली ऄणवस्मरणीय घटना के बाद वह एक अदशव भारतीय पत्नी बनने के सारे सफल प्रयास करते हुए चाहती थी फक पणत काणन्द्तचन्द्र भी नेक पणत बन सहजीवन के सुख को चटरताथव करे । लेफकन लेणखका के सारे प्रयास तब णमटटी मं णमल जाते है जब पणत का ऄसली स्वभाव ईसके सामने प्रकट होता है । ईसके सारे सपने टू टकर णबखर जाते हं । णजस संकल्प एवं ऄपेिाओं के साथ फकरण ने सहजीवन का प्रारम्भ फकया था ईसकी पूर्सत होना तो दूर की बात थी ईल्टा ईन्द्हं ऄपमान, पीड़ा, दुःख, मानणसक शोषण के साथ चटरिहीनता के लांछन सहने पड़ते है । णववाह के फदन से णजस संघषव एवं यातना की शूरुअत होती है, वह संघषव एवं यातना मृत्यु के बाद ही ईनका पीछा छोड़ती है । आस नकावगार णजन्द्दगी के णलए यफद सबसे ऄणधक कोइ णजम्मेदार है तो वह है, फकरण का पणत और पुसिल्लगी समाज की मानणसकता। पढ़ी-णलखी चन्द्रफकरण मं आतनी ताकत तो ऄवश्य थी फक वह ऄपनी अर्सथक अवश्यकताओं को पूणव कर सके । ईसके भीतर ऄपने पणत और पुसिल्लगी समाज के णवरुध्ध बगावत करने का दम भी था और ईसके णलए वह सिम भी थी। पर वह णवरोह नही करती या नहं कर पाती। साल-दर-साल वह ईसे दबाती चली जाती है। सामाणजक प्रणतष्ठा को बनाये रखने की लालसा एवं ईसे खोने का डर तथा तथा एक भावुक पत्नी का मन ईसे हमेशा णवरोह करने से रोकता रहा । लेणखका का यह कथन आसी बात की ओंर आं णगत करता है- ‘ऄपनी बेटी और ऄपना पालन करने का सामथ्यव मुझ मं है.......पर हाँ यह जरुर सुनना पड़ेगा फक –फकरण के पणत ने ईसे छोड़ फदया ।’ (पृष्ठ-221) खोखली सामाणजक प्रणतष्ठा और सामाणजक डर के चलते बगावत करने या पणत को छोड़ने का साहस फदखाने की ऄपेिा फकरण के णलए पाटरवाटरक मयावदा एवं पाटरवाटरक ढांचं की सुरिा ऄणधक सवोपरी बन जाती है। पणत, पटरवार, मयावदा एवं प्रणतष्ठा के नाम पर सब-कु छ सहन करने की भावना बनाये रखने की बड़ी फकमत चुकानी पडती है। ईनकी देह पर ही नहं फदलोफदमाग एवं भीतरी-बाहरी दुणनया पर एकाणधकार बनाये रखनेवाली पुसिल्लगी मानणसकताओं का णशकार होना पड़ता है ।

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ईसका पटरणाम यह अया फक न चाहते हुए भी ईसे ऄपने भीतर मौजूद साणहणत्त्यक अत्मा का गला ऄपने ही हाथं घोटना पड़ा। पाटरवाटरक सुरिा एवं बच्चं को पढाइ-णलखाइ की णजम्मेदारी ऄपने कं धो पर ईठाकर जीना पड़ा, न चाहते हुए भी ईसे रे णडयो के णलए काम करना पड़ा । जीने की शणक्त एवं चाह तथा ऄपने वजूद को बनाये रखनेवाले लेखन दूर रहना पड़ा। ईसे पणत की गलणतयं को न चाहते हुए माफ़ करनी पड़ी। व्यणभचारी पणत के प्रेम-प्रसंगं को समाज-पटरवार से णछपाकर रखने पड़े। एणक्सडंट का के स रफा-दफ़ा करवाना पड़ा और पणत द्वारा ऄपने चटरि पर लगाए गये झूठे अरोपं को सहन करना पड़ा। फकरण के कं धो पर जान-बुझकर आतनी सारी पाटरवाटरक णजम्मेदाटरयाँ थोप दी जाती है फक वह चाहकर भी लेखन के णलए थोडा-सा समय भी णनकाल न पाए । समय णनकाल कर जो भी णलखा वह पणत के शक्की स्वभाव और आच्छा के ऄभाव मं छप नही पाया । ऄगर वह खुद छपवाती तो पणत महाशय का शक और भी मजबूत हो जाता। णपतृसत्ता की शोषणकारी प्रफक्रया मं वह कब दैणहकभौणतक गुलामी से मानणसक गुलामी मं रूपांतटरत हो जाती है ईसे पता ही नहं चलता । आस गुलामी के चलते ऄपने पत्नीत्व एवं सतीत्व की रिा हेतु वह ऄपने ही हाथं ऄपने णवकास की समस्त संभावनाओं को ऄवरुध्ध कर देती है लेफकन प्रश्न या णवरोह करने का साहस नहं जुटा पाती । यह वेदना खुद फकरण के शब्दं मं- ‘मंने दूसरा णनिय फकया फक, कहानी णलखूग ं ी, पर आन्द्ही को पकड़ा दूंगी। फफर चाहे जहाँ प्रकाशन के णलए भेज,े मेरा सीधा संपकव नही रहेगा, न सम्पादक के पि अयंग,े न झगड़े हंगे। शायद यहं वह अदशववादी, पणतव्रता का णनणवय था, णजसकी फकमत मेरे पूरे साणहणत्यक जीवन ने चुकाइ और अज गुमनामी के कगार पर खड़ी, ऄणभशप्त सरस्वती के वरदान-सी मै खड़ी हूँ ।’ (पृष्ठ– 224) सामाणजक-पाटरवाटरक ढांचं एवं पणतव्रता नारी के जीवनरुपी समुर मं फकरण के णलए साणहत्य रचना दूर-दूर टटमटटमाते अकाशदीप की तरह है, णजसकी रोशनी तक ईसके पास नहं पहुच पाती । भीतर ही भीतर ईमड़ती-घुमड़ती यह पीड़ा अत्मकथा णलखते वक्त बाहर फू ट पडती हं- ‘दंभ तो नही करती, परन्द्तु तथ्य ऄणभव्यक्त तो कर सकती हूँ । तेरह वषव की ईम्र से अज तक णजतना लेखन कायव फकया ईसका पचास प्रणतशत भी ऄगर समग्र रूप से ईपलब्ध होता,तो अज मं भी राज्य फक मनोनीत सदस्य होती, ऄकादमी की ऄवैतणनक ऄध्यिा होती ।” (पृष्ठ-391) आस शोषणकारी व्यवस्थाओं मं यफद फकरण भूल से भी पत्नीत्व के स्थान पर ऄणस्तत्व की माँग करती है या फफर ऄपनी सामाणजकसाणहणत्यक राहं स्वयं णनधावटरत करने का प्रयास करती है तो यह णपतृसत्ता फकरण को ईसकी औकात बतानेवाले मंि-श्लोक सुनाकर बोल्ड एवं बेहयाइ का णख़ताब देकर ऄनेक प्रकार के बन्द्धनं मं जकड़ती रहती है। ईसके मन और देह पर पणत काणन्द्तचन्द्र वचवस्व बनाये रखता है । ईसका शक्की फदमाग फकरण के मन-देह पर हर वक्त एकाणधकार करना चाहता है । पणत की यह चाहत फकरण के ऄन्द्तरं ग टरश्तं को भी लपेट मं ले लेती है । फकरण ऄपनी तरह से ISSN –2347-8764

आन टरश्तं को चाहे जैसे भी पटरभाणषत करे , सच्चाइ और पणविता के फकतने ही प्रमाण दे, पर ईसका णनजी और साववजणनक संसार हमेशा शक के दायरे मं रहता है। हर बार ईसके वजूद और ऄन्द्तरं ग को जासूसी और शक का णशकार होना पड़ता है । आस दृणि से देखे तो ‘सिपजरे की मैना’ अत्मकथा णसफव मध्यमवगीय फकरण के जीवन का ब्यौरा माि नही है, मध्यमवगीय पुरुष एवं ईसके द्वारा णनर्समत समाज का खाका भी पूरी तटस्थता के साथ खंचती है । सामन्द्ती संस्कारं वाला काणन्द्तचन्द्र ऄपने ऄहम की पूर्सत, ऄपनी सत्ता एवं एकाणधकार बनाये रखने एवं सुख-भोग की पूती हेतु ऄपनी पत्नी को हमेशा हाणशए पर धके लता रहा । ईसे न फकरण की दुणवधा या सुणवधा की सिचता होती है, न ईसके दुःख-ददव से कोइ सरोकार, न पत्नी के अत्मसम्मान की कोइ सिचता है, न ईसके सपनं-आच्छाओं से कोइ लेना देना । सब कु छ जानकर भी वह ऄनजान-सा बना रहता है । फकरण के जटरए पुसिल्लगी सत्ता का एक सत्य यह भी ईजागर होता है फक ऐसी स्त्री की हालत तो और भी बदतर हो जाती है, जो ऄपने पणत से ऄणधक मान-सम्मान, पद-प्रणतष्ठा प्राप्त कर लेती हो, प्रगणत और णवकास के मामले मं पणत से अगे णनकल जाती है । ऐसी णस्थणत मं पुरुष कुं टठत हो जाता है । फफर तो सामन्द्ती संस्कारवाला पणत ऄपनी स्त्री को पीछे धके लने का, ईसे नीम्न एवं हीन साणबत करने का एक भी ऄवसर हाथ से जाने नही देता । चन्द्रफकरण का पणत काणन्द्तचन्द्र ऐसे ही पुरुष का प्रणतणनणधत्व करता है । लेखन-संसार मं अगे बढनेवाली पत्नी की प्रगणत देख काणन्द्तचन्द्र ईसे प्रोत्साहन देने एवं खुश होने की बजाय फकरण के चटरि पर कीचड़ ईछालता है । वह चाहता है फक पत्नी ऄपने पणत मं ही ऄपना समग्र भावात्मक णनवेश कर देह को बस पणत के णलए सुरणित रखं । ईसका बफढ़या ईदाहरण है कहानी प्रकाणशत करने के स्वीकृ णत पि । फकरण के नाम यफद फकसी सम्पादक का कहानी की स्वीकृ णत का पि अता तो काणन्द्तचन्द्र का शक्की फदमाग तेजी से दौड़ने लगता। तब सारी हदं पार कर वह ऄभर शब्दं का ईच्चारण करने लग जाता... ईसकी एक बानगी.... ’ये साले सम्पादक भी लडफकयं को बड़े मीठे -मीठे पि णलखते है । ऄभी कोइ पुरुष णमि ऄपनी रचना भेजता तो ईत्तर पन्द्रह फदन बाद णमलता, या णमलता ही नहं... तुमने भी तो कहानी भेजते समय पि मं कु छ-न-कु छ तो णलखा होगा जरुर.. ईसके चूतडं मं घी मला होगा ।’ (पृष्ठ-220) चन्द्रफकरण घरे लू औरत के साथसाथ लेणखका भी बनी रहना चाहती है । ऄत: वह चाहती है फक ऄपनी रचनाएँ पणिकाओं मं छपं, वो भी पणत के जटरए । लेफकन पणत महोदय जटरया बनने के णलए क़तइ तैयार नहं होते । बणल्क सोची समझी चाल के तहत पत्नी को लेखन-कायव एवं अधुणनकता से ऄलग रखने के हर हथकं डे ऄपनाता है । ईसके हर हथकं डे का मकसद यही है फक पत्नी अगे न बढ़े, लेणखका के रूप मं ईसे ख्याणत न णमले । आतना ही नहं पणत काणन्द्तचन्द्र ऄपनी पत्नी को णवरोह की सभी संभावनाओं से दूर रखने का भरसक प्रयास करता हं। लेफकन पत्नी के सामने तो फदखावे का यही नाटक करता है फक ईसे पत्नी फक रचनाएँ प्रकाणशत करवाने के णलए फकतना

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सिचणतत और बैचेन है । फदखावे के आस छल का भांडा तब फु ट पड़ता, जब पत्नी फकसी पुरुष सम्पादक के साथ फोन पर बात करती है, रचना के संदभव मं पि णलखती है या ईनसे णमलती है । ईस वक्त काणन्द्तचन्द्र के सामन्द्ती संस्कार फकरण पर बेशमी से बरस पड़ते और हर पल हुक्म जारी होता फक फलाने सम्पादक के सम्पकव मं न रहो, फलाना सम्पादक के पास मत जाओ, ईससे बात न करो । सामन्द्ती संस्कारो से ग्रस्त एक मध्यमवगीय पुरुष ऄपनी पत्नी के प्रगणतमय पथ पर होणशयारी के साथ तमाम जोर लगाकर कै से नाकाबंफदयाँ करता है, चटरि पर लांछन लगाता है, पत्नी की भावनाओं एवं सपनं का दोहन करता है, ईसका जीवंत खाका खंचती है- ‘सिपजरे की मैना’ अत्मकथा। ऄपने पणत एवं पटरवार से बेहद ऄपमाणनत एवं णतरस्कृ त होने तथा शारीटरक-मानणसक शोषण का णशकार होने के बावजूद फकरण ऄपने पणत से णचपकी रहती है। न ऄपने पणत की तस्वीर काले रं गं मं णचणित करती है, न अलोचना करती है, न जीवन के अणखरी वक्त तक णवरोह की तलवार भंजती है। सारी णजन्द्दगी पणत की शंका के तीर के वार झेलती रहती है। सहनशीलता की मूर्सत बनकर हर ददव-पीड़ा को सहती रहती है। फकरण का मन भी वही संस्काटरत भारतीय मन है णजसे हर भारतीय स्त्री जीती है। पुसिल्लगी समाज द्वारा बनाए गये सुनहरे सिपजरे मं कै द होकर फकरण सचमुच सिपजरे की मैना बनकर रह जाती है । वह चाहती तो ऄपनी देह एवम संदयव के बलबूते या साणहणत्यक स्थान की हैणसयत से ऄपने पणत को छोडकर आणच्छत मंणजल प्राप्त कर सकती थी। ईसके पास णवरोह करने का समय भी था और ताकत भी, लेफकन वह बगावत नहं करती। आसका कारण शायद यह है फक एक लम्बे ऄरसे से ईसे ईपेिा झेलनी पड़ी है, ऄत: वह स्वयं भी ऄपने भीतर दबी हुइ है। यही तो ईसके जीवन की णवणचि णवडम्बना है । कै द मं रहने की पीड़ा को वह धीमी अँच पर खदबदाती णखचड़ी की भांणत ऄपनी णजन्द्दगी को पकाती रही। जीवन के ईत्तराधव मं ही वह अत्मकथा णलखने का साहस जुटा पाती है और आस अत्मकथा का प्रकाशन तो ईसकी मृत्यु के ठीक एक साल पहले ही संभव हो पाया । आसी बात से ऄंदाजा लगाया जा सकता है फक णववश फकरण ने कै द मं रहने की यातना को फकतना झेला होगा। सीधी, सरल और पारदशी भाषा मं णलखी गइ यह अत्मकथा पठनीय तो है ही ऄपनी मार्समकता मं पयावप्त प्रभावशाली भी। पुरुष वचवस्व के णवरोध मं चन्द्रफकरण ने प्रखर स्वर मं भले ऄपनी भावनाओं को ऄणभव्यक्त न फकया हो, पर ऄपने समय के सवालं से हुइ मुठभेड़ का जो वणवन फकया है, मध्यमवगीय पटरवार की स्त्री का बनने-णबगड़ने-णमटने एवं ईसके णलए णजम्मेदार पुसिल्लगी समाज की मानणसकता का जो प्रणतसिबब ऄंफकत फकया है, वह कम सराहनीय नही है। चन्द्रफकरण ने न णवरोह की अग का वणवन फकया, न पाटरवाटरक ढांचं को तोडकर अगे बढ़ने की लालसा को बढ़ावा फदया, न पणत द्वारा बनाये गए बन्द्धनं को तोड़ने की जीद की। णवरोध या णवरोह करके नही सबकु छ स्वीकार करके चलने की भावना ईसे णसर झुकाकर पुसिल्लगी समाज के ऄनुरूप जीने या ISSN –2347-8764

जीने के बहाने पल-पल मरने णववश करती है। आस रूप मं यह अत्मकथा एक णभन्न प्रकार की अत्मकथा बन जाती है, जो स्त्री णवमशव को एक नया अयाम देती है। लेफकन यह कथा सबकु छ स्वीकार कर सब कु छ सहने वाली चन्द्रफकरण की कथा माि नहं है, बणल्क भारत की मध्यमवगीय पटरवार की ईन लाखं नाटरयं की भी कहानी है, जो कणथत अधुणनकता के ऄंचल तले णशणित– स्वावलंबी होने के बावजूद पुसिल्लगी समाज द्वारा णनर्समत मयावदाओं के नाम पर सबकु छ सहजता से मौन रहकर स्वीकारती एवम सहती रहती है। ऐसी लाखं नाटरयाँ अज भी न तो मयावदाओं को तोड़ने का साहस जुटा पाइ है, न बराबरी का हक माँगने की भाषा ऄर्सजत कर पाइ है। चन्द्रफकरण एवं ईनकी अत्मकथा ‘सिपजरे की मैना’ परम्परागत समाज की ऐसी नाटरयं का प्रणतणनणधत्व करती है। चन्द्रफकरण ने भुक्तभोगी बनकर ऐसी नाटरयं की वेदना को वाणी प्रदान की है। मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान या मैिेयी पुष्पा की भांणत चन्द्रफकरण भले बगावत करने का दम न रखती हो, पर णजस ढंग से वह पुसिल्लगी समाज की मानणसकता का कच्चा णचट्ढा खोलती हं, मध्यमवगीय नारी की व्यथा का ख़ाका वर्सणत करती है, वह स्त्री-पुरुष सम्बन्द्धं पर फफर से सोचने एवं स्त्री जीवन के ऄन्द्तरं ग एवं बाहरी टरश्तं से पैदा होनेवाली णस्थणतयं पर फफर से गौर करने णववश करती है। चन्द्रफकरण का यह कथन ईसी बात का धोतक है- ‘‘हम वैसे कहाँ बदले है, जैसे की बदलने के दावं हो रहे है।’ ऄस्तु। अधार-संदभव : १ अशारानी व्होरा— भारतीय नारी : दशा और फदशा २ मृणाल पांडे - जहाँ औरतं गढ़ी जाती है ३ सुधा ऄरोड़ा— अम औरत : णजन्द्दा सवाल ४ ऄरणवन्द्द जैन— औरत होने की सजा ५ डॉ .मीनािी - नारी चेतना और सामाणजक णवधान ६ रोणहणी ऄग्रवाल— कटघरे मं खड़े ऄहं : हंस पणिका ; मइ-2007 ७ गीता गैरोला— अम औरत की खास कहानी: हंस पणिका; जुलाइ-2009 ~✽ ~ अट्सव, साईंस एडड कॉमसव कॉलेज, णपलवाइ (ई.गु.) प्रकाशन : Dt. 02/01/2017

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