Jul aug sep 2016

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ऄनुक्रमिणका सम्पादकीय बन्दे मं है दम

लघुकथा पंकज ि​िवेदी

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सुरेश ठाकु र अकांक्षा यादव

09 10

अलेख िवचारं की शि​ि लोकचेतना मं स्वाधीनता

किवताएँ तरू ऄसीमा भट्ट रं ग सुरेन्रसिसह 'रूह' तीन किवताएं डॉ. िववेक सिसह ग़ज़ल ऄिमत वाघेला 'काफ़ी' गीत डॉ. कृ पा शंकर शमा​ा िवचार वीिथका प्रो. बसन्ता किवता तन्वी सिसह कािलदास रे णु िमश्रा दो किवताएं नीित राठौर ग़ज़ल डॉ. सुलक्षणा ऄहलावत दोहे ऄशोक ऄंजुम दो किवताएं डॉ. साररका मुकेश ग़ज़ल ऄदम गंडवी अ िघर अइ दइ... ऄमीर ख़ुसरो मं किव हूँ एिववन नरीन- ऄनु. मीना ि​िवेदी मड़कम िहड़मे ऄि​िन कु मार पंकज पाँच किवताएं रे खा मैिेय ग़ज़ल आिलयास शेख दो किवताएं पारूल भागाव ग़ज़ल सािहल किवता सुरिरदर सिसह माँ प्रीती जैन 'परवीन' ग़ज़ल मंजुला सिशदे ऄरगड़े

08 15 20 20 21 21 23 23 29 37 42 42 49 51 52 52 53 53 54 57 63 64 64

कहानी कहाँ होगी वह? जल िबन दुःख ऄन्तोन चेख़व ऄनजानी मोहब्बत ख़ूबसूरत घाव पहचान ऄपनापन इदी दुभा​ाग्य से सौभाग्य

शेफ़ािलका वमा​ा मीना पाठक ऄनु. सुशांत सुिप्रय डॉली ऄग्रवाल तरसेम कौर अराधना राय िनशा के ला डॉ. िवमलेश शमा​ा डॉ. रमा ि​िवेदी

06 16 17 22 41 46 48 50 55

संस्मरण हम ऄहले सफा मदूद ा े हरम रोशनी के शहर सिसगापुर ISSN –2347-8764

िहमांशु पंड्या सररता भारिया

24 43

ऄपना ऄपना भाग्य नािक हॉिेल

िप्रयंका िप्रयदशी ककरीि गोस्वामी ककसलय दीिक्षत

19 45 54

साक्षात्कार चर्चचत रचनाकार- िवश्व गाथा के संपादक पंकज ि​िवेदी डॉ. ऄवनीश सिसह चौहान 32 डॉ. रामदरश िमश्र संदीप तोमर / ऄिखलेश ि​िवेदी 38

िनबंध व्यंग्य

िनजान वन मं

डॉ. श्रीराम पररहार

रे िडयो चाची गुपचुप गोलगप्पे

04

ऄचाना चतुवेदी सोमी पाण्डेय

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पीपल िबछोह मं

प्रीती 'ऄज्ञात'

57

ककताबनामा खुशवंतनामा ररपोिा

प्रभात रं जन

30

ओपन बुक्स ऑनलाइन

सौरभ पाण्डेय

40

नइ ककताब

शोधपि िहन्दी सािहत्य के प्रमुख व्यंग्यकार डॉ. जागृित पिेल 58 मृदल ु ा गगा के ईपन्यासं मं... डॉ. भगवान सिसह सोलंकी 60

सलाहकार संपादक सुभाष चंदर ✽ संपादक

रे खांकन िचि प्रवेश सोनी ✽ वार्चषक सदस्यता : 200/- रुपये पंकज ि​िवेदी 5-वषा : 1000/- रुपये ✽ (डाक खचा सिहत) सह संपादक ✽ ऄचाना चतुवद े ी सम्पादकीय काया​ालय ✽ िविगाथा परामशाक C/o. पंकज ि​िवेदी सौरभ पाण्डेय—मंजल ु ा ऄरगड़े सिशदे गोकु लपाका सोसायिी, िबन्दु भट्ट ✽ 80 फीि रोड, सुरेन्रनगर शोधपि संपादक 363002 -गुजरात डॉ. के तन गोहेल ✽ डॉ. संगीता श्रीवास्तव vishwagatha@gmail.com ✽ ✽ मुखपृष्ठ िचि Mo. 09662514007 सत्या अिा

िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

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ख़त-ख़बर पंकज सर, अज सुबह ही िमला िविगाथा का ऄप्रैल-जून 2016 ऄंक। बहुत अकर्चषत लगा। पहले ही पृष्ठ पर रं गं से मुलाकात हुइ। कहािनयं मं ऄिधक रुिच होने के कारण सबसे पहले वही ँ नज़र जाती है मेरी। डॉ मंजरी शुक्ल की 'सौदा' पढ़ चुकी हूँ। बहुत पसंद अइ। पंकज सर, बहुत बहुत बधाइ। पि​िका के िलए धन्यवाद । पढ़ना जारी है । अभार । -शिवानी कोहली चंडीगढ़ ~✽~ पंकज जी, अज ही पूरी पढी यह मैगेजीन । बहुत ऄच्छे अलेख और बकढ़या तरीके से सँवारा भी है । इिर से प्राथाना है कक यह अपके सतत प्रयास से और भी बकढ़या बनती जाएं और बहुत बहुत नाम हं । अशीवा​ाद के कु छ शब्द अपके िलए माँ के अँचल से िलपि रो ले कु छ तो दुसरे अँचल की ज़रुरत न पड़ेगी तुझको माँ का अँचल न हुअ दूर कभी ईसके अँचल की नमी तुम्हारे अंसूओं की है Blessings, Rose Angel Rajshree Kaul ~✽~ ि​िवेदी साहब, नमस्ते, िविगाथा िमली प्रसन्न हूं । शुकक्रया अपका । अपके सािहत्य-समपाण को नमन । पि​िका की िनयिमतता प्रशंसनीय है । अपने सम्पादकीय मं प्रिसि​ि कीभूख के तहत सािहत्य जगत मं लहलहानेवाली खरपतवार जैसी प्रवृि​ियं का िजक्र ककया है।आनसे एक तो ऄकारण कागज की बबा​ादी होती है दूजे पाठकं की मानिसकता प्रभािवत होती है।पहले ही िहन्दी का पाठक वगा छोिा है। कामयाब सािहत्यकार की पररभाषा चार चीजं से अँकी जाती है—1-िवदेश यािाओं की संख्या / 2-पुरस्कारं की संख्या / 3-ककताबं की संख्या / 4-चमचं की संख्या बड़ा सा घर और फोर व्हीलर के साथ िवदेश मं कायारत बच्चे भी शािमल हं। मूवयांकन की ये प्रणाली हम ही ने इजाद की है और हम ही िचवलाते हं। फणीिर नाथ रे णुजी सोने की कलम से िलखते थे। सारे िववेचन मं हस्तीमल हस्तीजी का शेर िनकलकर अता है—"आवजाम दीिजए न ककसी एक शख्स को। मुजररम सभी हं अज के हालात के िलए।।" आस बार लघुकथाएं पया​ाप्त प्रभाव डालने मं सक्षम हं । ईसकी गोद मं, दीपक का तेल, सुधार, दोहरा चररि, नमकीन पानी, ऄंितम श्रृंगार, ही नहं सारी लघुकथाएं ईम्दा हं । लस्ि फॉर लाआफ के भावानुवाद को िविगाथा का गौरव कहना होगा । देवेन्र अया की किवताएं सोचने पर मजबूर करती हं । रिव रतलामी का हास्य सामियक सन्दभं से प्रस्तुत हुअ है । पि​िका मं चयिनत सारे िचन्तनस्वर अपकी सािहत्य और िहन्दी के प्रित िनष्ठा का दपाण हं। ऄिभनंदन अपका । आिन्दरा ककसलय, नागपुर(महाराष्ट्र ~✽~ ISSN –2347-8764

यही ददा न जाने कहाँ से मुझे रास्ते मं िमल गया था और ईसने मुझे बताया था कक ऄब अपसे ईसने ऄपना नाता हमेशा के िलए ख़त्म कर कदया है ... तो – अप भी भूल जाओ ईसे और अने वाली खुिशयं को प्यार से गले लगाते रहो ! अज नया ऄंक 'िविगाथा' का िमला । अभार । सम्पादकीय लेख से प्रारं भ ककया । अपने ईसमं अज के समय की सािहत्य से संलग्न व्यापाररक वृि​ियं-प्रवृि​ियं पर जो प्रहार ककया है वो पसंद अया । अज कला के ककसी भी क्षेि मं देिखये – संगीत, नृत्य, मंच और सािहत्य – सभी मं से ईसका ऄसल ओजस लुप्त होता कदखाइ दे रहा है । कलाकार ऄपनी सस्ती प्रिसि​ि के पीछे पागल हो जाते है और ऐसी प्रवृि​ि करने लोगं की लुभावनी लालच के िशकार बन जाते हं । सािहत्य मं प्रकाशन और ऄन्य िवषयो मं बड़ी बड़ी घोषणा के िारा ध्येय प्रािप्त हो गइ हो ऐसा लग रहा है। मगर वो लोग भूल जाते हं कक धन के बल पर प्राप्त होने वाली िसि​ि क्षिणक होती है । मेरा िनजी मंतव्य है कक ऄच्छा सािहत्य िलखकर ऄपनी ओर से समाज को ईपहार के रूप मं देना चािहए। सच्चे कला प्रेमी और परखने वालं को ज्यादा कहने की अवश्यकता नहं है । 'अह' और 'वाह' के ईदगार ईनके ऄंतर मं से सहज ही िनकल अता है । - रशित दवे (ऄहमदाबाद) ~✽~ अदरणीय पंकज भाइ, िवि गाथा का ऄप्रेल-मइ-जून ऄंक प्राप्त हुअ ! आस ऄंक मं मेरी लघुकथा को स्थान देने के िलए ह्रदय तल से अपका अभार ! प्रितकक्रया देर से देने के िलए क्षमा चाहूंगी, नेि मं खराबी के चलते देर हुइ ! सम्पादकीय मं अपने प्रासंिगक मुद्दा ईठाया देख प्रसन्नता हुइ, राजनीित को सही कदशा और दशा देने के िलए हमारी भाषा, हमारा सािहत्य सांस्कृ ितक परम्पराएँ जरुरी हं ! पि​िका की कहािनयां, लेख, नज़्म, ग़ज़ल और शोधपि सभी ईच्च कोरि के लगे ! "ईसकी अत्महत्या"( सुरेश ईिनयाल जी ) ने िहलाकर रख कदया ! वही ँ कमलेश पाण्डेय जी के व्यंग "सर पर कू कते सिनदक" पढ़कर मज़ा अया ! यह देखकर ऄच्छा लगा कक अपकी पि​िका मं संस्मरण को भी स्थान कदया गया है जो कक अमतौर पर पि​िकाओं मं नहं िमलते ! बहुत सराहनीय योगदान है अपका सिहदी सािहत्य को ! िवि गाथा कदन दूनी, रात चौगुनु ईन्नित करे और हर घर मं पढ़ी जाए यही कामना है ! सादर ! पूर्चणमा शमा​ा, िारा डॉ राघव शमा​ा, बी-150 िजगर कॉलोनी, मोरादाबाद-२४४००१ ~✽~

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िादश ज्योितर्लिलग मं से एक सोमनाथ ( प्रभास पािन) गुजरात मंकदर के दिक्षणी ककनारे पर, समुर ति पर दीवार पर, वहाँ एक स्तंभ है। आसे 'बाणस्तंभ'् कहा जाता है । स्तंभ के शीषा पर पृथ्वी के एक ग्लोब रख कदया गया है और एक तीर के माध्यम से ईसे छे दकर कदखाया गया है । बताया जाता है कक – यह समुर के ऄंत तक दिक्षण ध्रुव पयंत ऄबािधत ज्योितमागा है । आसका मतलब है कक अप ऄरब सागर मं दिक्षण की ओर सोमनाथ मंकदर से यािा शुरू करते हं, तो अप ककसी भी देश तक यािा नहं कर पाओगे जब तक अप दिक्षण ध्रुव या ऄंिाका रिका तक न पहुँचे। मंकदर को ऐसे स्थान पर बनाया गया है जहाँ सोमनाथ मंकदर और ऄंिाका रिका के बीच कोइ भूिम नहं है ।

ISSN –2347-8764

सम्पादकीय

सूरज की ककरणं पंकज ि​िवेदी

सुबह मं सूरज की ककरणं िखड़की से अरपार शतरं ज की तरह फ़ै ल गइ । सिज़दगी देने वाली यह सूरज की ककरणं भी ऄजीब हं ! हर पल हमं नया जीवन और पेड़-पौधं को खुशहाल रखने वाली यह ककरणं...! शतरं ज की तरह फ़ै ली देखता हूँ तो लगता हं, जीवन का ककतना बड़ा सन्देश दे जाती हं यह ककरणं । पलपल हमारे ऄंदर चेतना जगाने वाली ककरणं हरपल हमं रौशनी देती हं, जीवन के अयामं को समझने के िलए...! ईसी रौशनी से हमारे कदलं-कदमाग मं से पैदा होती उजा​ा न जाने कै से तरोताज़ा रखती हं हमं...! हर कदन की सुबह नइ, सोच नइ, सन्देश नया और जीवन भी नया ही...! रात के गहन ऄंधकार मं सोया हुअ यह शरीर मानं िनश्चेत बनाकर िनष्प्प्राण बन जाता है... । कफर भी सुबह की यही ककरणं हमारे जीवन को ईजागर करती हुइ पंछीयं सी चहकने लगती है...! हर सुबह हमारा ईत्साह, अनंद और सत्काया करने की नइ ताकत देती हं यही ककरणं... । जो सूरज से िमला ऄमूवय ईपहार है हम सब जीवं के िलए । कै से चुका पायंगे ऊण हम ईस सूरज के ईिरदाियत्त्व का । जो िपता बनकर हमारा जीवन संवारता हं और

तिपश बनकर हमं सावधान भी करता हं ! सूरज की ककरणं शतरं ज की तरह फ़ै ली हुइ है । िखड़की से अती हुइ फशा पर िबखरी सी ... जो सीखाती हं हमं जीवन के संघषं की शतरं जी चाल से कै से बचाना है हमं । सूरज हमारा अराध्य देव है, परम िपता है, जीवनदाता भी है और ककरणं हमारी माँ बनकर सहलाती हं हमं । बहुत प्यार से जीवन मं ईजाला देती हं यह ककरणं। अओ, हम ईनके पथ पर चलते रहं... अओ तुम भी अओ... हम सब साथ-साथ चलं... !! ♦

एक बूढा अदमी है मुवक मं / या यं कहो – आस ऄंधरे ी कोठारी मं / एक रौशनदान है ! - दुष्प्यत ं कु मार माननीय प्रधानमंिीश्री नरे न्रभाइ मोदीने पीिरमेररत्ज़बगा रे लवे स्िेशन से एक ही बात कही थी – "आस जगह ने हमं मोहनदास से महात्मा कदया है । मेरे िलए यह यािा तीथायािा बन गइ है ।" गांधी व्यि​ि नहं, िवचार है और िवचार कभी मरता नहं । देश मं सरकार कोइ भी हो, महात्मा का िसक्का अज भी चलता है, चलेगा । ♦♦♦

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िनबंध

िनजान वन मं रमता जोगी डॉ. श्रीराम पररहार ऄमरकण्िक मं माइ की बिगया मं माँ नमादा का पूजन कर सोनमूड़ा होते हुए रे वाकु ण्ड के दशान करने अ जाता हूँ । रे वाकु ण्ड से पररक्रमावािसयं को जंगल के रास्ते पैदल सिडडोरी मागा तक अना होता है । मं भी नमादा की परकम्मा पर हूँ । सिडडोरी सड़क के दोनं ओर बहुत सुन्दर और घना हराकच्च जंगल है । सड़क ककनारे एक झोपड़ी है । अँगन मं कु अ है । थोड़ी-सी खुली साफ-सुथरी जगह है । झोपड़ी मं साधु रहता है । हम परकम्मावािसयं का भोजन वहं सड़क पर होता है । कदन चढ़ अया है । भूख भी िसर चढ़कर बोल रही है । सब भोजन करते हं। भोजन करने के बाद मं ऄपने वाहन मं बैठ गया हूँ । सड़क पर हमारे दल का भोजन वाहन खड़ा है। ईसी वाहन की छाया मं सड़क पर बैठकर हमारा भोजन बनाने वाले दल के लोग मन-मगन होकर भजन गा रहे हं । िनजान ककन्तु मोहक बन प्रांतर मं दल के एक ‘राजू’ नामक युवक के कण्ठ से एक भजन स्वर-स्वर, ऄक्षर-ऄक्षर, शब्द-षब्द, ऄथा-ऄथा खुलता है ‘ऄरे हाँ रे ! एक िनजान वन मं जोगी एक रमता था’ । भजन की एक-एक कड़ी खुलती जाती है । तन का सोिा, मन का लंगोिा सदा बगल मं दबाये रहता था । वह जोगी ‘िनगुणा रोिी, सबसे मोिी, ईसका भोग लगाता था’। भजन का ऄन्तरा-ऄन्तरा ऄखण्ड वन प्रदेश मं दूर तक गूँजता चला जाता है । एक ऄद्भुत वैराग्यमय सम्मोहन-स्वर मेरे भीतर तक ईतर जाता है । मं बेसुध और बावरा-सा बच्चे की तरह सुन रहा हूँ । सुन रहा हूँ और रो रहा हूँ । रो रहा हूँ और सुन रहा हूँ । मुझे कु छ नहं सूझ रहा है कक मुझे क्या हो रहा है । अँसू थम नहं रहे हं । अँखं मं ऄिनवा​ाच्य शीतलता पसर रही है । कफर अँखं का मन भी िवरागी होकर एक महािवस्मृित मं चला जाता है । ऄब मुझे मेरी ही सुध-बुध नहं है । भजन के बादल से भि​ि का जल बरसा और सारी वनराइ भीग गयी । धरती भीग गयी। पंिछयं के पंख भीग गये। गायं के रोम भीग गये। ISSN –2347-8764

परकम्मावािसयं की हथेिलयाँ भीग गयं । मं ऐसा भीगा कक ऄभी तक सूख नहं पाया । एक िनजान वन है और ईसमं मं चला जा रहा हूँ । कोयल नहं । पपीहा नहं । मृग नहं । बाघ नहं । फू ल नहं । पाती नहं । नदी नहं । सरोवर नहं । सूरज नहं । चन्रमा नहं । जल नहं । ऄिगन नहं । के वल अकाश है । गायक मगन होकर गा रहा है । वहाँ मंकदर नहं । मूरत नहं । अरती नहं । पूजन नहं । िविध-िवधान नहं । धरती है । धरती की हरी-नीली-सँवलाइ मुलायम-खुरदरी सतरं गी िबछी है । शब्द, स्वर और लय का ऐसा साित्वक संयोग हो रहा है कक क्षण-क्षण मं िनगुान-सगुण दुररत-प्रकि हो रहे हं । संगीत मं िजस ‘ऄवधान’ िस्थित को पाने के िलए साधना करनी पड़ती है, वह िस्थित ऄनायास लब्ध हो गयी है । ऄसीम, ऄजेय और ऄपररिमत के प्रित श्रिा का प्रकिीकरण सहज हो रहा है । यह भि​ि है । के वल संगीत है । या माि मनोरं जन ? यह नहं जानता । ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तीनं एक िबन्दु पर मुझे कदखाइ दे रहे हं । गायक, गायन और गेय वस्तु का सम्पुि मेरे भीतर के ऄहं को िनःशेष कर रहा है । देश, काल, जाित सब नाद मं समािहत हो रहे हं। सब नये-नये हो रहे हं । सब ऄपने भेदक रं गं को छोड़कर ऄभेद की िस्थित का वरण कर रहे हं । भजन-भि​ि सबको समान और स्वच्छ करती चलती है । ‘गुणाः पूजास्थानं गुिणषु न च सिलगं न च वयः’ । गुिणयं के गुण देखे जाते हं । ईनकी ईम्र क्या है ? वे स्त्री हं या पुरुष ? यह िवचारा नहं जाता है । भजन ही यह ऄभेद और ऄिैत भाव पैदा करता है । िनजान वन मं जोगी रमता है । वह योग से समािध तक जाता है । भि​ि संगीत के माध्यम से क्षण-क्षण की तन्मयता को समािध मं रूपान्तररत कर देती है । िचदाकाश मं व्याप्त सिा का ध्यान, स्मरण, ध्विन स्फु रण गायक और श्रोता दोनं को ऄपनी चरम ऄवस्था मं ‘नाद योग’ तक ले जाते हं । भि​ि का एक रूप ‘श्रवण’ भी है । कानं से सुनाइ देने वाली ध्विन अहत नाद है । अहद

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नाद जब शब्द, स्वर, लय की िनमाल भावझारी मं डू बकर िनकलता है और वह हृदय के कानं को अहत करता हुअ ऄनाहत नाद तक पहुँचता है, तो भि​ि भी योग की ईच्च िस्थित मं गायक और श्रोता दोनं को पहुँचाती है । जहाँ सारी आं करयाँ सम पर अकर गीत के भाव मं डू ब-डू ब जाती हं, तब तो सहज मं ही ‘िनर्चवकवप समािध’ लग जाती है । तब अनन्द ही अनन्द है । ऄखण्ड अनन्द है । पूज्यपाद ववलभाचाया कहते हं—जैसा सुख भिं को भगवान के गुणगान मं होता है, वैसा सुख भगवान के स्वरूप-ज्ञान की मोक्ष ऄवस्था मं भी नहं होता— गुणगाने सुखवािप्तगोिवन्दस्य प्रजायते । यथा तथा शुकादीनां नैवात्मिन कु तोन्यतः।। ऄनन्त कोरि योजन िवस्ताररत अकाश मं अकद भि की छिव ईभरती है । वह भि ऄनवरत, ऄकु ण्ठ, ऄिवराम भ्रमण करताकफरता है । ईसके एक हाथ मं वीणा है । दूसरे हाथ मं करताल है । मुख से ‘श्रीमन्न नारायण, नारायण’ वैखरी गा रही है । ईसके पाँवं की गित नृत्यमय है । वह चलता भी है तो नृत्य करता हुअ । ईसकी वीणा बजती है तो नादब्रह्म किम्पत होकर जाग्रत हो जाता है । ईसकी करताल की ताल से सृि​ि के सारे वाद्य ताल से ताल िमलाने मं अकद से ऄब तक लगे हुए हं । स्वर, ताल और लय (नृत्य) से कीतान हो रहा है । यह पहला भि और पहला कीतानकार सृि​ि मं भि​ि संगीत के पादप को रोपकर ईसकी अनन्दछाया मं भाविवभोर हो ईठता है । यह देवर्चष नारद है। परम भि। परम ज्ञानी। परम िवरागी। परम संगीतज्ञ । परम यािावर । परम स्वर ईच्चारक। परम ऄग्गम िवचारक। परम पराक्रमी। परम परामशादाता । परम मागादशाक । परम जनकवयाणक । परम अत्मीय । परम सवाज्ञ । परम एकाकी । परम अनन्दमागी । परम भगवदिप्रय । नारद की भि​ि जगिवश्रुत और िनष्प्काम है। ईनके िारा इिर का नाम-गायन भि​ि संगीत की ऄमरकण्ठी है । भगवान कह ईठते हं नाहं वसािम वैकुंठे योिगनां हृदये न च । मद्भिा यि गायिन्त ति ितष्ठािम नारदः।। ISSN –2347-8764

‘‘हे नारद ! न तो मं वैकुण्ठ मं रहता हूँ और न योिगयं के हृदय मं । मेरे भि जहाँ गान करते हं । मेरा भजन करते हं । वहं मं िनवास करता हूँ’’ । मंने बंगाल मं देखा - घोिमोि िसर वाले, लम्बी चोिीधारी, धवल वस्त्रधारी, हाथं मं झाँझ-मंजीरे िलये, लम्बा िेत ितलकधारी ऄनेक भि-दल, मृदंग बजाते, हरे रामा, हरे कृ ष्प्णा गाते-गाते भाव िवभोर होकर मागा मं, मंकदर प्रांगण मं, धमासभा मं नाचते-नाचते अत्मिवस्मृित की िस्थित मं पहुँच जाते हं । गा रहे हं । नाच रहे हं । पूरी देह ऄिभनय हो गयी है । अँखं से ऄश्रु िपक रहे हं । भि​ि देह धारण कर कइ-कइ स्वरूपं मं साकार हो ईठी है । अनन्दभाव की माला सबके गले मं सहज फब जाती है। ऄविन-ऄंबर एक हो जाते हं । प्रकृ ित-पुरुष अत्मस्थ होकर ऄपनी ही रचना की ईदािता पर गर्चवत होते हं । तुलसी-दल पूजा-कलश मं तैरने लगता है । शंख, घिड़याल, नगाड़े, झाँझ, मृदंग, घंिा, तैि​िरीय ईपिनषद् मं एक कथा है - भृगु ऊिष वरुण के पुि थे । एक बार भृगु ने ऄपने िपता वरुण से कहा - ‘हे तात ! मं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ’ । िपता वरुण ने पुि भृगु से कहा - ‘जाओ तपस्या करो’ । भृगु ने घोर तपस्या की और पाया कक ऄन्न ही ब्रह्म है । वरुण को संतोष नहं हुअ । ईन्हंने भृगु को पुनः तपस्या करने को कहा। भृगु ने करठन तपस्या की । आस बार ईन्हंने पाया कक प्राण ही ब्रह्म है । वरुण ने और तपस्या करने का अदेश कदया । भृगु ने कठोर तपस्या की । ऄब की पाया कक मन ही ब्रह्म है । वरुण ने िनमोही भाव से पुनः तपस्या करने की अज्ञा दी । भृगु ने आस बार घनघोर तपस्या की । पाया कक िवज्ञान ही ब्रह्म है । वरुण आस पर भी संतुि नहं हुए । ईन्हंने ऄिवचिलत होकर भृगु को परम तपस्या करने को प्रेररत ककया । भृगु ने ऄनन्त काल तक ऄिवचल तपस्या की और ऄनुभव ककया - अनन्द ही ब्रह्म है । ऄखण्ड अनन्द न सही; परन्तु पल, क्षण, घड़ी भर का अनन्द तो भजन ऄवश्य देता है । भजन-भि​ि ऄखण्ड अनन्द की प्रािप्त का साधन भी है । भजन गाने वाला कलाकार ककतना अत्मस्थ होकर भाव िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

समुर मं नहाता है, यह तो कलाकार ही जाने; पर भजन सुनकर जो अत्मिवस्मृित से होते हुए अत्मचेता िस्थित को प्राप्त कर लेते हं, अनन्द का ऄतुल मोदक ईन्हं ही िमल पाता है । यह ‘अनन्द रस’ मं भंजने की दशा िजतनी देर भी रहे, वह अत्मा को िनजान वन मं योगी-सा रमने की ऄनुकूलता रचती है । भजन के शब्द-शब्द पाँखुरी-से झरते हं । जोगी सौरभ-सौरभ छक लेता है। पाँखुरी-पाँखुरी धूल मं झर जाती है । िू किू क होती पाँखुरी के ऄिस्तत्व और महत्व का भी भान है जोगी को । जोगी अत्मा से देखता है । िमि भाव से देखता है । िमि नाम सूया का है । सूया का प्रकाश सबको समान रूप से प्रकािशत कर सुख पहुँचाता है । सुख-दुःख, राग-िेष, असि​ि-िवरि​ि, जन्म-मरण के परे जाकर जो सोचता है, िवचार करता है, देखता है, करता है और स्वयं मं मगन रहता है, वह ही िनजान वन मं रमता है । जीवन की झील मं वृक्ष पर वृक्ष बनते जाते हं । प्रत्येक वृक्ष मं ऄलगऄलग िचि ईभरते हं । ति तक अते-अते वृक्ष िू ि-िू िकर िवलीन हो जाते हं । िचि डू ब जाते हं । के वल झील रह जाती है । िनमाल जल से भरी हुइ झील । भजन गायक का स्वर, ढोलक पर पड़ती थापं और भि​िरस पगे स्वर पूरे अकाश मं फै ल गये हं । भि नाच रहे हं । मेरी बगल मं बैठे हुए िमि ‘दीप’ की देह िवगिलत हो चली है । ति के वृक्ष गा रहे हं । पंछी गा रहे हं । चाँद-सूरज गा रहे हं । गायं-बछु ए गा रहे हं । पत्थर-कं कड़ गा रहे हं । वसुन्धरा गाने लगी है । नभ गाते-गाते स्वयं अकाष हो गया है । क्षण भर के िलए ही सही ‘नादब्रह्म’ ऄमरकण्ठ के झाड़-झंखाड़ं मं िबरम रहा है । ऄविन-ऄम्बर मं िवस्फोि होता है - ‘ऄलख िनरं जन’ । क्षण-भर की चुप्पी और युग-युग की प्रतीिक्षत प्रकाशप्रभा का ऄवतरण । ईसी प्रकाश-प्रभा के वलय मं िनजान वन मं एक जोगी ऄनाकदऄनन्त से रम रहा है । ~✽~ अजाद नगर खण्डवा 09425342748 ~✽~

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कहानी

कहाँ होगी वह...? शेफ़ािलका वमा​ा समाचार पि की सुर्चख़यं पर नज़र पड़ा, साथ ही एक छोिा सा समाचार जो ककसी कोने मं महत्वहीन की तरह छपा था – 'रिहरी डैम काम करने लगा । ईसके सभी फािकं को धीरे धीरे खोला गया । पुराना रिहरी का सम्पूणा ऄिस्तत्व भीलांगना नदी मं समािहत हो गया...!' ऄन्य लोगं के िलए वह महज एक समाचार था परन्तु मेरे समस्त शरीर मं जैसे काँिा चुभ गया । मेरे सम्पूणा मन को ईस पुरानी रिहरी की तरह भीलांगना की ऄतल गहराइ मं समािहत कर कदया । अँखं के सामने चंचल ककशोरी पहािड़यन रे खा – मस्त बाला, का चेहरा दृि​िगोचर होने लगा । कहाँ होगी वह? पुरानी रिहरी के िेढ़े-मेढ़े रास्ते पर पहाडी झरने की भांित ईछलते-कू दते मेरे साथ चल रही थी । गौर वणा, रिाभ चेहरा, गोल-ठोल नाक, ऄनिगनत स्वप्न से भरी हुइ छोिी-छोिी अँखं, पतले-पतले नाज़ुक होठं से फू लं सी हँसी के साथ कोमल काय, ईस रिहरी गाँव की समस्त संस्कृ ित को ऄपने मं समेिी हुइ थी । चलते-चलते रास्ते मं कोइ पेड़-पौधा अ जाता तो मुझे रास्ता कदखाते हुए बगल हो जाती थी । छोिा-मोिा पत्थर का िु कड़ा अ जाता तो ईस पर चढ़कर कू द जाती थी और पैर से धक्का देकर ईसे ककनारे करके मेरे िलए रास्ता साफ़ कर देती थी । कहं बड़ा पत्थर अ जाता तो ईसे भी धक्का देने का प्रयास करती थी, सफल नहं होने पर िववश दृि​ि से मेरी ओर देखते हुए ऄपनी ऄसमथाता पर शरमा जाती थी । मं भी हँस देती थी – रे खा, मेरे िलए क्यं आतना परे शान हो रही हो, मं धीरे -धीरे चल ही रही हूँ न । आस उँची-नीची, पतली-चौड़ी पहाडी रास्ते पर चलने का ISSN –2347-8764

ऄभ्यास मुझे था नहं – परन्तु रे खा ऄपने ध्यान मं मग्न थी – अप देख रही हं दीदी, अकाश को छू ते हुए िजतने भी पहाड़ हं, सभी डैम बनने के बाद डू ब जायंगे – पता भी नहं चलेगा कक यहाँ पर कोइ शहर ऄथवा कोइ पहाड़ था । भय और अतंक से वह काँप रही थी – आस पहाड़ की गोद मं बसा हुअ रिहरी जल समािध ले लेगा । रास्ते के दोनं ककनारे एक बड़ा सा विवृक्ष था – देिखए दीदी, लगता है कक ये दो वृक्ष हं, परन्तु यह आस विवृक्ष की जिा से ईत्पन्न दूसरा वृक्ष है – अकाश मं एक-दूसरे से असिलगन करते हुए – एक तोरण िारा बनाये हुए है । दीदी, जहाँ पर एक वृक्ष भी सृजन करता है, एक बीज से दूसरा वृक्ष ईत्पन्न हो जाता है वहं पर मनुष्प्य क्यं िवध्वंस करता है? ईसके िनदोष प्रश्न पर मं भीतर से काँप ईठी थी – आसका ईिर मेरे पास नहं था, िवशेष कर ईस ऄबोध बाला के भावुक प्रश्न का । रिहरी गाँव के सड़क के ककनारे दुकानं लगी थं, पिना के स्िेशन माके ि की तरह, कदवली के कमला नगर की तरह – उनी कपड़ा, कै सेि, काडा, अभूषण, साग-सब्जी, ठे लं पर छोले भिू रे, गमा-गमा चाय, पंि​िबध्ध हम पाँच-छह लोग एक साथ थे । हमलोगं के झुण्ड को देखर वहाँ के िनवािसयं का चेहरा शंककत हो गया – ऄब ये कौन ऄनजान लोग अ गए, पता नहं कौन सा कहर बरसाएँगे – और कौन सा दुःख बाकी रहा गया है ? ताबा तक एक सुंदर व्यि​ित्व, भव्य चेहरा... ईजला कु ता​ा-पैजामा पहने व्यि​ि हमलोगं के स्वागत हेतु पहुँच गये – हमलोगं का पररचय पूछकर सतीश बाबू हमलोगं को ऄपने घर ले गये । हमलोग डैम के िलए अये हं । हँसते हुए सतीश बाबू बोले –

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पचास वषा पूवा हमलोग यहाँ अये थे, ईस समय कठपुवला से लेकर ईस पार तक बहुत बड़ा बाज़ार था । यहाँ से श्रीनगर, ईिरकाशी, रुरप्रयाग ऄभी नजदीक है । मेरी अँखं मं कठपुवला को स्पशा करता हुअ नदी का जल चमक ईठा – आस नदी मं ऄभी ककतना पानी होगा? भागीरथी का जल छब्बीस मीिर नीचे था, ऄभी दो सौ मीिर उपर अ गया है । नयी िेहरी के िवस्थापन हेतु सड़क के ककनारे िजतनी भी दुकाने हं सभी दुकानं मं सरकार के िारा ताला लगा कदया है । परन्तु, कोइ ऄपना घर-िार छोड़कर जाने के िलए तैयार नहं है । तब तक एक सुन्दर सी पहाडी बाला गमागमा चाय, िबस्कु ि और ऄनेक प्रकार के नमकीन लेकर पहुँच गइ- शमा​ाते हुए हमलोगं के सामने चाय की प्याली रखने लगी । यह मेरी बेिी रे खा है – हमलोगं के ईत्सुक नयनं का समाधान करते हुए सतीश बाबू बोले । वह शमा​ाकर दुपट्टा ऄपने िसर पर रखने लगी – सचमुच पहाड़ी की सुंदरता के िलए ककसी एस्नो-पाईडर की जरुरत नहं होती है । अप पढ़ती हं रे खा – मेरे प्रश्न के ईिर मं वह िसर झुकाये 'हाँ' नहं बोलते हुए कु छ बोली – हम समझ नहं पाये । यह क्या पढेगी? िजस कदन से डैम बनना अरम्भ हुअ है और सभी लोगं का िवस्थापन नइ िेहरी मं हो रहा है ईसी कदन से आसकी हँसी -खुिी ख़त्म हो गई । मुस्कु राते हुए रे खा वहाँ से भाग गइ । सतीश बाबू की पत्नी, पुि, बहू सभी हमलोगं के स्वागत मं लगे थे । जानते हं, यह गाँव या किहए कक शहर बहुत समृि था । मुख्यत: सभी लोग व्याप्त मं लगे थे । कु छ डॉक्िर, कु छ वकील भी थे। यह शहर 1804 मं बसा था । किकवदंती है कक राजा सुदशान शाह का घोडा भैरव मंकदर के पास अकर खड़ा हो गया । तब राजा सुदशान ने आस शहर का िनमा​ाण ककया। कइ लोग यह भी कहते हं कक यकद वषा दो हजार पाँच तक यह डैम नहं बना तो... एक ग्रामीण बोल ईठा – कभी नहं बनेगा यह डैम । जगह जगह पर सीपेज हो ISSN –2347-8764

रहा है । और बात करते हं.... ! सतीश बाबू के घर मं गाँव के सभी लोग ऄपना दुखड़ा सुनाने के िलए अ गए थे, जैसे हमलोग भगवान हं – जैसे हमारे हाथ मं बहुत पावर हो – रे खा घर के एक कोने मं पदा​ा पकड़ कर खड़ी थी और मेरी ओर िकिकी लगाये हुए थी, पता नहं ईसके मन मं कौन सा भाव-ऄनुभाव चल रहा था। अपको मं सैर करा देती हूँ – यहाँ के मंकदरं की कलाकृ ितयाँ अप देखंगी तो अश्चयाचककत हो जाएँगी । लेककन सभी व्यथा हं, जोर से साँस लेते हुए सतीश बाबू बोले । रे खा मेरे कान मं धीरे से बोली – मं भी अपके साथ चलूँ? – हाँ, हाँ, क्यं नहं ! मुझे भी ऄच्छा लगेगा । मं ईत्सािहत हो गइ । कोयल जैसी ईस ककशोरी मं मुझे ऄपनी छिव कदख रही थी । स्वगा का जंगली फू ल, ऄके ले पडा हुअ वायलेि, जैसे अधी िछपी – अधी कदखती हुइ, धृत गंगा,

'अप जानती हं – जब डैम शुरू होने लगेगा, गाँव से सभी लोग भाग जाएंग,े मं आस भैरव मंकदर मं अकर िछप जाउंगी । मंने संकवप िलया है कक गाँव के साथ ही मं भी चली जाउँगी ।' भीलांगना, भागीरथी तीनं नकदयं के संगम स्थल पर सत्येिर महादेव का मंकदर, िवशाल प्रांगण मं जगमगा रहा था । हमलोग आस मंकदर को पशुपित नाथ का मंकदर समझते हं । सतीश बाबू बोले – मंकदर के प्रांगण के एक कोने मं बाँध िवरोधी संगठन धरना पर बैठा था । वहाँ पर एक बड़ा सा बैनर लगा हुअ था... । 'हम तो आस झील की गहराइ के पार जाएंगे लेककन हमारे वो ऄपने कहाँ जाएंगे, हमं तो ऄपनं ने ही ले डू बा, आस बात का गम ककसे है, ऐसा कौन सा शख्स है जो हमसे नज़र िमलाए ! लोग िू ि जाते हं एक घर बनाने मं, कोइ थकता नहं, बिस्तयाँ ईजाड़ने मं... रिहरी ईजड़े हुए लोगं का शहर है... ।' अँखं भर अयी है, रे खा ने धीरे से मेरी उंगली पकड़ ली । ईस स्पशा मं जैसे दुिनया भर की व्यथा िछपी हो । मं िसहर गइ । िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

तब तक कोइ अगे अकर हमारे सम्मोहन को भंग कर कदया – हम सभी ईजड़े हुए लोग हं । व्यि​ि एक किोरी खरीदता है तो ईससे ईसे स्नेह हो जाता है । ये तो हमारा जन्मभूिम, हमारा गाँव है । आसकी िमट्टी पानी मं जन्म लेकर हम लोग पेड़-पौधे की तरह बड़े हुए हं । बरी के दार के मंकदर से हमलोगं का संस्कार बना है । माता की तरह पूजा है हमने आस शहर को । यहाँ के पत्थरं मं सिज़दगी का गीत गाया है हम सभी ने । सबकु छ नि हो जाएगा, सबकु छ ख़त्म । ईसकी अँखं की रोशनी बुझ रही थी, चारं ओर गगनचुम्बी पवात श्रृंखला, नीचे तीनं नकदयं की िमलती धाराएं, बीच मं बसा हुअ िेहरी, ईजड़े हुए लोगं का शहर । एक संस्कृ ित ककस प्रकार नि होती है । सतीश बाबू के छोिे भाइ िप्रयव्रत बोले – हमलोगं ने तो यह भी सुना है कक स्वामी रामतीथा ने ऄपना ऄंितम कदन आसी क्षेि मं व्यतीत ककया था । आस पवात श्रृख ं ला के दस हजार फीि की उंचाइ पर ऄनेक बस्ती बसी हुइ है – के वल रिहरी गाँव की जनसंख्या दस हजार से ऄिधक है – ऐसा गाँव जलमग्न हो जाएगा । एक बुज़ुगा व्यि​ि भावुक होकर बोलने लगे – रिहरी गाँव तो बाँध का स्थान बन ही जाएगा साथ ही ऄनेक तहसील आसकी चपेि मं अ जाएंगे – हमेशा भूकंप की अशंका लगी रहती है – वहं पर यह डैम? ईनकी झुरा​ाती हुइ उंगली सूखी हुइ अँखं के अँसूं से भीगने लगी । रे खा मेरे हाथ की उंगली को और जोर से पकड़ रही थी । आस िहमालय की धरा पर सघन ऄरण्य के मध्य िनर्चमत आस गाँव के कोने-कोने को मं ऄपने हृदय के कै मरे मं कै द कर रही थी । भिवष्प्य की िवकरालता की कवपना कर हमलोगं की अँखं मं भी अँसू अ गए । बरी के दार सत्येिर का ऐितहािसक िवशाल मंकदर िवखंिडत होने के बावजूद भी प्राचीन कलाकृ ित का ईत्कृ ष्ठ ईदाहरण था । जैसे ककसी पुरातन युग की कथा मौन-मूक ईजागर हो रही हो । चिलए न, मं अपको भैरव मंकदर कदखा देती हूँ – रे खा कफर धीरे से कान मं बोली – रे खा बहुत कम बोलती थी, वह भी बहुत

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कम बोलती थी, वह भी बहुत धीरे से – हाँ, हाँ चिलए । सभी लोग ऄपने-ऄपने मं मग्न थे और रे खा मुझे ऄपनी ओर अकृ ि करती रही – यह हृदय का कौन सा संबंध है ? मं ईसके साथ समर्चपत भाव से चलती रही । पीपल के िवशाल वृक्ष के नीचे छोिा-सा भैरव मंकदर था । लोग झुककर वहाँ प्रणाम करते हं । यह भैरव मंकदर मेरा सबसे िप्रय स्थान है । जब मं ईदास होती हूँ तो यहं पर अकर बैठ जाती हूँ – रे खा बोली । गाँव के बाहर शांत एकांत स्थान पर यह भैरव मंकदर था जहाँ पर सुदशान शाह का घोड़ा खड़ा हो गया था और आस गाँव का िनमा​ाण हुअ । आस पुरातन मंकदर मं श्रिा से मेरा िसर झुक गया परन्तु रे खा मेरा हाथ पकड़े रही जैसे दोनं की अत्मा एक साथ प्राथाना कर रही हो । मौन भी आतना मुखर होता है कक एक स्पशा भी आतना जीवंत कथा-कहानी बन जाता है । यह ऄनुभूित रे खा के स्पशा से मुझे हुइ । आतनी देर मं पहली बार रे खा मुखर हुइ किकतु ऄंितम बात जो बोली ईसे सुनकर मेरा समस्त तन-मन काँप ईठा । जैसे भू-रक्षण ईस आलाके मं नहं, मेरे समस्त तन-मन मं हो गया हो । 'अप जानती हं – जब डैम शुरू होने लगेगा, गाँव से सभी लोग भाग जाएंग,े मं आस भैरव मंकदर मं अकर िछप जाउंगी । मंने संकवप िलया है कक गाँव के साथ ही मं भी चली जाउँगी ।' ईस समय ईसकी बातं पर मंने ईतना ध्यान नहं कदया था – बालमन है – ऐसा नहं बोलो रे खा । एक रास्ता जहाँ ख़त्म होता है वहं से दूसरा रास्ता स्वयं खुल जाता है । ध्वंस पर भी िनमा​ाण होता है । एक नये सूया का नव प्रभात होता है । परन्तु, ईसका चेहरा पूवावत् भावहीन, पत्थर सा बना रहा । जैसे रे खा नहं, वह समस्त रिहरी गाँव हो । ऄपनी िमट्टी पानी का साकार ऄिस्तत्व । जब मंने ऄखबार मं पढ़ा – 'समस्त रिहरी गाँव भािगरथी मं समािहत हो गया तो जैसे मेरे मानस मं ऄचानक भयंकर भूचाल अ गया – कहाँ होगी वह – कहाँ होगी वह...? ~✽~ ISSN –2347-8764

तरु देती है तरु की बच्ची और माँ से कहती है ऄब आसे ईवलू की पट्ठी दूध िपलायो करती रहती कदन भर बकबक आसको भी भूख लगी है खाती सबके कान ईसकी माँ कहती है आतना दूध नानी से करती मस्ती कहाँ से अएगा सबसे लड़ती तुमको भी िपलायं और तुम्हारी मचाती है घर मं शोर गुिड़याँ को भी सवाल आतने कक कभी ख़त्म ही तो हमको मत िपलाओ किवता-जन्म नहं होते लेककन यह दूध नहं पीयेगी तो कदन पर फू लं पर बैठी िततली के मर जाएगी. पीछे पीछे भागती कफरती है ऄपनी गुिड़या के रखती है प्यारे िततली डर कर ईड़ जाती है प्यारे नाम ऄसीमा भट्ट तो फू ल पर गुस्सा करती है ख़ुशी, जूही, रूही, िमट्ठू और पूछती है सबको एक लाआन से सुलाकर ढकती है कहाँ गयी िततली ? दुप्पिे से निखि तरु कहती है एक तरफ़ खुद सोती है दूसरी तरह लगाती बम्बइ से बोलने वाली गुिड़या लाना है तककया एहितयात से गुिड़या देखकर बहुत खुश होती है कक ईसकी गुिड़याँ कहं िगर न जाए. लेककन तुरंत ईससे ईब जाती है और कहती और ऄगर िबस्तर से िगर जाये तो लगाती है है फिकार ऄरे ककतना बोलती है तू ? िगर गयी न, चोि लगी न, ऄपना ख्याल ईसे लगता है ईससे भी ज़्यादा कोइ कै से नहं रख सकती बोल सकता है ऄब चुप रहो. रो मत. चाकलेि दूंगी. तरु बनती है सबकी दादी ऄम्मा प्यारी तरु, दुिनया के भयावह दौर मं कौअ, कु ता, िबवली सबको रोिी और तुम्हारे ऄंदर की मासूिमयत और मनुष्प्यता िबिस्कि िखलाती है मुझे जीने की ताकत और ईम्मीद से भर कहती है सब भूखे हंगे। देता है. ईसको कौन खाना िखलायेगा? तुम्हारी मासूिमयत और मनुष्प्यता करती ईिपिांग फरमाआश दुिनया मं हमेशा कायम रहे मुम्बइ से समुंदर लाना खुश रहो और िजयो खूब प्यार से । कहती हूँ पसा मं समन्दर कै से अएगा? ~✽~ तो कहती है ऄच्छा छोिी िबवली का (जन्मकदन 19 julay पर) बच्चा लाना मं कहती हूँ आतनी दूर ट्रेन मं कै से अयेगी? दूध के िबना भूखी मर जाएगी वह कहती है तुम नहं जानती ट्रेन मं बोतल वाला दूध िमलता है मंने िपया है आलायची वाला और के सर वाला वह सबको देती है सीख हर बात पर पूछती है आससे क्या होगा? ईसकी माँ जब ईसे ऄपना दूध िपलाती है तो बारी बारी से ऄपनी गुिड़याँ ईठाकर

तरु

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सिचतन अलेख

िवचारं की शि​ि सुरेश ठाकु र

िवचारं की शि​ि ऄब आसमं ज़्यादा बहस की गुंजाआश नहं है कक हम क्या हं ? 'शरीर' या 'िवचार' वास्तव मं हम 'िवचार' ही हं । शरीर तो ईन िवचारं की सांकेितक, वाचक और / ऄथवा कमामय ऄिभव्यि​ि का माध्यम है। हमं समझना होगा कक 'िवचार' (Thought) एक प्रकार की उजा​ा ही है । हमारा मिष्प्तष्प्क हर क्षण तरह तरह के ऄनेक िवचार ईत्पन्न करता है और लगातार जीवन पयंत करता रहता है । दूसरे शब्दं मं कहं तो हमारा मिष्प्तष्प्क िवचारं के रुप मं जीवन पयंत उजा​ा का ईत्पादन करता रहता है । ये उजा​ा मुख्य रुप से दो प्रकार की होती है - (1) सकारात्मक (Positive Energy) और (2) नकारात्मक (Negative Energy)। ये उजा​ा हमारे अंतररक और बाह्य दोनं वातावरणं को बड़े गहरे से प्रभािवत करती है । यकद हम आसकी शि​ि और ईपयोग के तरीके को ठीक से समझ लेते हं तो िनश्चय ही ऄपने जीवन को अनंदमय बना सकते हं । ऄपने चारं तरफ़ के वातावरण और पूरी दुिनया को खूबसूरत बना सकते हं । आसके िलए अवश्यक होगा कक हम नकारात्मक िवचारं से बचं। नकारात्मक िवचारं का मतलब है नकारात्मक उजा​ा। नकारात्मक उजा​ा का सबसे पहला जो दुष्प्प्रभाव पड़ता है वो हमारे मन और हमारे शरीर पर पड़ता है । घृणा, क्रोध, इष्प्या​ा, सिहसा अकद िवचारं से ईत्पन्न उजा​ा नकारात्मक होती है । आस बात को और ऄच्छे से समझने के िलए हम एक ऄनुभव कर सकते हं । एक व्यि​ि जो घृणा, क्रोध, इष्प्या​ा, सिहसा अकद के भाव से भरा हो ईसके चेहरे को गौर से देखं । ईसकी चेहरे पर एक िवकृ ित नजर अयेगी । ईसकी मुखाकृ ित से लगेगा जैसे ककसी ने ईसे कोइ कड़ुवा पदाथा चखा कदया है । िमिं, चेहरा तो मॉिनिर माि है । ऄसली कायावाही तो CPU ऄथा​ात हमारे ऄन्तर मं चल रही है । जरा सोिचये िजस ISSN –2347-8764

कायावाही की ऄिभव्यि​ि आतनी िवकृ त है । वह् कायावाही ककतनी िवकृ त होगी । और वह् ऄन्तर मं िजस जगह चल रही है ईसकी क्या दशा कर रही होगी । ऄिभव्यि होकर ऄपने चारं तरफ़ ककतना िवकृ त वातावरण सृिजत कर रही होगी, ज़रा कवपना कररये । आसके िवपरीत सकारात्मक िवचार ऄथवा सकारात्मक उजा​ा हमारे ऄन्तर को भी अनंद से भरती है और ऄपने चारं तरफ़ भी ईसी प्रकार का वातावरण सृिजत करती है । िवचारं की शि​ि ऄद्भुत है । जाने-ऄनजाने हम ऄक्सरऄपने िवषय मं लगातार िनराशा, दुख, ईदासी और ऄसफलताओं से भरी बातं ही सोचते और कहते रहते हं । ईस समय हम भूल जाते हं कक हम लगातार ऄपने िवचारं के ऄनुरूप ही उजा​ा का सृजन कर रहे हं । और ऄपने जीवन को वही पररिणित दे रहे हं जैसा कक हमने लगातार सोचा है ऄथा​ात एक दुःख, ईदासी, ऄसफलताओं और िनराशा से भरी सिजदगी । हमं नहं भूलना है कक हम ऄपने जीवन के िनमा​ाता स्वयं हं । बाहरी िस्थितयं पररिस्थितयं को भूल जाआये । हमारा जीवन ठीक वैसा ही है, जैसा कक हम आसके बारे मं सोचते हं । यकद हम लगातार ऄपने जीवन के िवषय मं ऄच्छा सोचते हं तो िनश्चय ही हमारा जीवन ऄच्छा ही होगा । बाह्य िस्थितयं पररिस्थितयं की अंतररक वैचाररक प्रितकक्रया ही दुःख ऄथवा सुख है । सुख ऄथवा दुःख घिनाओं मं नहं बिवक ईनके प्रित हमारे दृि​िकोण मं है । िवचारं की शि​ि को पहचान कर और सकारात्मक िवचार शि​ि का सृजन करके हम िनश्चय ही ऄपने जीवन को श्रेष्ठ बना सकते हं। ~✽~

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अलेख स्वतंिता कदवस (15 @ ऄगस्त) पर िवशेष

लोक चेतना मं स्वाधीनता की लय अकांक्षा यादव

स्वतंिता और स्वाधीनता प्रािणमाि का जन्मिसि ऄिधकार है। आसी से अत्मसम्मान और अत्मईत्कषा का मागा प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीघा​ाविध िवदेशी शासन और सिा की कु रिल-ईपिनवेशवादी नीितयं के चलते परतंिता का दंश झेलने को मजबूर होना पडा था और जब आस क्रूरतम कृ त्यं से भरी ऄपमानजनक िस्थित की चरम सीमा हो गइ तब जनमानस ईिेिलत हो ईठा था। ऄपनी राजनैितक-सामािजकसांस्कृ ितक-अर्चथक पराधीनता से मुि​ि के िलए सन् 1857 से सन् 1947 तक दीघा​ाविध क्रािन्त यज्ञ की बिलवेदी पर ऄनेक राष्ट्रभिं ने तन-मन जीवन ऄर्चपत कर कदया था। यह क्रािन्त करविं लेती हुयी लोकचेतना की ईिाल तरं गं से अप्लािवत है। यह अजादी हमं यूँ ही नहं प्राप्त हुइ वरन् आसके पीछे शहादत का आितहास है। लाल-बाल-पाल ने आस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने आसे ऄपूवा िवस्तार कदया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिसह व अजाद जैसे क्रािन्तकाररयं िारा पराधीनता के िखलाफ कदया गया आन्कलाब का ऄमोघ ऄस्त्र ऄँग्रेजं की सिहसा पर भारी पड़ा और ऄन्ततः 15 ऄगस्त 1947 के सूयोदय ने ऄपनी कोमल रिश्मयं से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत ककया। आितहास ऄपनी गाथा खुद कहता है। िसफा पन्नं पर ही नहं बिवक लोकमानस के कं ठ मं, गीतं और किकवदंितयं आत्याकद के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवािहत होता रहता है। वैसे भी आितहास की वही िलिपबिता साथाक और शाित होती है जो बीते हुये कल को ईपलब्ध साक्ष्ययं और प्रमाणं के अधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। जरूरत है कक आितहास की ईन गाथाओं को भी समेिा जाय जो मौिखक रूप मं जन-जीवन मं िवद्यमान है, तभी ऐितहािसक घिनाओं का साथाक िवश्लेषण हो सके गा। लोकलय की अत्मा मं मस्ती और ईत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभािवक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कक पूरे ISSN –2347-8764

देश मं एक ही कदन 31 मइ 1857 को क्रािन्त अरम्भ करने का िनश्चय ककया गया था, पर 29 माचा 1857 को बैरकपुर छावनी के िसपाही मंगल पाण्डे की शहादत से ईठी ज्वाला वक़्त का आन्तज़ार नहं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का अगाज़ हो गया। मंगल पाण्डे के बिलदान की दास्तां को लोक चेतना मं यूँ व्यि ककया गया है- ‘’जब सिाविन के रारर भआिल/ बीरन के बीर पुकार भआल/बिलया का मंगल पाण्डे के / बिलवेदी से ललकार भआल/मंगल मस्ती मं चूर चलल/ पिहला बागी मसहूर चलल/गोरिन का पलि​िन का अगे/ बिलया के बाँका सूर चलल।‘’ कहा जाता है कक 1857 की क्रािन्त की जनता को भावी सूचना देने हेतु और ईनमं सोयी चेतना को जगाने हेतु ‘कमल’ और ‘चपाती’ जैसे लोकजीवन के प्रतीकं को संदेशवाहक बनाकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजा गया। यह कािलदास के मेघदूत की तरह ऄितरं जना नहं ऄिपतु एक सच्चाइ थी। क्रािन्त का प्रतीक रहे ‘कमल’ और ‘चपाती’ का भी ऄपना रोचक आितहास है। किकवदिन्तयं के ऄनुसार एक बार नाना साहब पेशवा की भंि पंजाब के सूफी फकीर दस्सा बाबा से हुइ। दस्सा बाबा ने तीन शतं के अधार पर सहयोग की बात कही- सब जगह क्रािन्त एक साथ हो, क्रािन्त रात मं अरम्भ हो और ऄँग्रेजं की मिहलाओं व बच्चं का कत्लेअम न ककया जाय। नाना साहब की हामी पर ऄलौककक शि​ियं वाले दस्सा बाबा ने ईन्हं ऄिभमंि​ित कमल के बीज कदये तथा कहा कक आनका चूरा िमली अिे की चपाितयाँ जहाँ-जहाँ िवतररत की जायंगी, वह क्षेि िविजत हो जायेगा। कफर क्या था, गाँव-गाँव तक क्रािन्त का संदेश फै लाने के िलए चपाितयाँ भेजी गईं। कमल को तो भारतीय परम्परा मं शुभ माना जाता है पर चपाितयं को भेजा जाना सदैव से ऄँग्रेज ऄफसरं के िलए रहस्य बना रहा। वैसे भी चपाितयं का सम्बन्ध मानव के भरण-पोषण से है। िवचारक वी. डी. सावरकर ने एक जगह िलखा है- “िहन्दुस्तान

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मं जब भी क्रािन्त का मंगल काया हुअ, तब ही क्रािन्त-दूतं चपाितयं िारा देश के एक छोर से दूसरे छोर तक आस पावन संदेश को पहुँचाने के िलये आसी प्रकार का ऄिभयान चलाया गया था क्यंकक वेवलोर के िवरोह के समय मं भी ऐसी ही चपाितयं ने सकक्रय योगदान कदया था।” चपाती (रोिी) की महिा मौलवी आस्माइल मेरठी की आन पंि​ियं मं देखी जा सकती है- ‘’िमले खुश्क रोिी जो अजाद रहकर/तो वह खौफो िजवलत के हलवे से बेहतर/जो िू िी हुइ झंपड़ी वे जरर हो/भली ईस महल से जहाँ कु छ खतर हो ।‘’ 1857 की क्रािन्त वास्तव मं जनमानस की क्रािन्त थी, तभी तो आसकी ऄनुगूँज लोक सािहत्य मं भी सुनायी पड़ती है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम िसफा व्यि​ियं िारा नहं लड़ा गया बिवक किवयं और लोक गायकं ने भी लोगं को प्रेररत करने मं प्रमुख भूिमका िनभायी। लोगं को आस संग्राम मं शािमल होने हेतु प्रकि भाव को लोकगीतं मं आस प्रकार व्यि ककया गया‘’गाँव-गाँव मं डु ग्गी बाजल, बाबू के कफरल दुहाइ/लोहा चबवाइ के नेवता बा, सब जन अपन दल बदल/बा जन गंवकइ के नेवता, चूड़ी फोरवाइ के नेवता/सिसदूर पंछवाइ के नेवता बा, रांड कहवार के नेवता।‘’ राजस्थान के राष्ट्रवादी किव शंकरदान सामोर ने मुखरता के साथ ऄँग्रेजं की गुलामी की बेिड़याँ तोड़ देने का अह्वान ककया- ‘’अयौ औसर अज, प्रजा परव पूरण पालण/अयौ औसर अज, गरब गोरां रौ गालण/अयौ औसर अज, रीत रारवण सिहदवाणी/अयौ औसर अज, िवकि रण खाग बजाणी/फाल िहरण चुक्या फिक, पाछो फाल न पावसी/अजाद िहन्द करवा ऄवर, औसर आस्यौ न अवसी।‘’ 1857 की लड़ाइ अर-पार की लड़ाइ थी। हर कोइ चाहता था कक वह आस संग्राम मं ऄँग्रेजं के िवरुि जमकर लड़े। यहाँ तक कक ऐसे नौजवानं को जो घर मं बैठे थे, मिहलाओं ने लोकगीत के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेररत ककया- ‘’लागे सरम लाज घर मं बैठ जाहु/मरद से बिनके लुगआया अए हरर/ पिहरर के साड़ी, चूड़ी, मुह ं वा िछपाइ लेहु/ रािख लेइ तोहरी पगरआया अए हरर।‘ ISSN –2347-8764

1857 की जनक्रािन्त’ का गयाप्रसाद शुक् ‘सनेही’ ने भी बड़ा जीवन्त वणान ककया है। ईनकी किवता पढ़कर मानो 1857, िचिपि की भाँित अँखं के सामने छा जाता है- ‘’ सम्राि बहादुरशाह ‘जफर’, कफर अशाओं के के न्र बने/सेनानी िनकले गाँव-गाँव, सरदार ऄनेक नरे न्र बने/लोहा आस भाँित िलया सबने, रं ग फीका हुअ कफरं गी का/िहन्दूमुिस्लम हो गये एक,रह गया न नाम दुरंगी का/ऄपमािनत सैिनक मेरठ के , कफर स्वािभमान से भड़क ईठे /घनघोर बादलं-से गरजे, िबजली बन-बनकर कड़क ईठे /हर तरफ क्रािन्त ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था जोरं का/पुतला बचने पाये न कहं पर, भारत मं ऄब गोरं का।‘’ 1857 की क्रािन्त की गूँज कदवली से दूर पूवी ईिर प्रदेश के आलाकं मं भी सुनायी दी थी। वैसे भी ईस समय तक ऄँग्रेजी फौज मं ज्यादातर सैिनक आन्हं क्षेिं के थे। स्वतंिता की गाथाओं मं आितहास प्रिसि चौरीचौरा की डु मरी ररयासत बंधू सिसह का नाम अता है, जो कक 1857 की क्रािन्त के दौरान ऄँग्रेजं का सर कलम करके और चौरीचौरा के समीप िस्थत कु सुमी के जंगल मं ऄविस्थत माँ तरकु लहा देवी के स्थान पर आसे चढ़ा देते। कहा जाता है कक एक गद्दार के चलते ऄँग्रेजं की िगरफ्त मं अये बंधू सिसह को जब फाँसी दी जा रही थी, तो सात बार फाँसी का फन्दा ही िू िता रहा। यही नहं जब फाँसी के फन्दे से ईन्हंने दम तोड़ कदया तो ईस पेड़ से रिस्राव होने लगा जहाँ बैठकर वे देवी से ऄँग्रेजं के िखलाफ लड़ने की शि​ि माँगते थे। पूवांचल के ऄंचलं मं ऄभी भी यह पंि​ियाँ सुनायी जाती हं- ‘’सात बार िू िल जब, फांसी के रसररया/गोरवन के ऄककल गइल चकराय/ ऄसमय पड़ल माइ गाढ़े मं परनवा/ऄपने ही गोकदया मं माइ लेतु तू सुलाय/बंद भइल बोली रुकक गआली संिसया/नीर गोदी मं बहाते, लेके बेिा के लिशया।‘’ भारत को कभी सोने की िचिड़या कहा जाता था। पर ऄँग्रेजी राज ने हमारी सभ्यता व संस्कृ ित पर घोर प्रहार ककये और यहाँ की ऄथाव्यवस्था को भी दयनीय ऄवस्था मं पहुँचा कदया। भारतेन्दु हररश्चन्र ने आस दुदश ा ा का मार्चमक वणान ककया है- ‘’ िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

रोऄहु सब िमिलकै अवहु भारत भाइ/हा हा ! भारतदुदश ा ा न देखी जाइ/सबके पिहले जेिह इिर धन बल दीनो/सबके पहले जेिह सभ्य िवधाता कीनो/सबके पिहले जो रूपरं ग रस-भीनो/सबके पिहले िवद्याफल िजन गिह लीनो/ऄब सबके पीछे सोइ परत लखाइ/हा हा! भारतदुदश ा ा न देखी जाइ।‘’ अजादी की सौगात भीख मं नहं िमलती बिवक ईसे छीनना पड़ता है। आसके िलये ज़रूरी है कक समाज मं कु छ नायक अगे अयं और षेश समाज ईनका ऄनुसरण करे । ऐसे नायकं की चचा​ा गाँव-गाँव की चौपालं पर देखी जा सकती थी। गुररवला शैली के कारण कफरं िगयं मं दहशत और अतंक का पया​ाय बन क्रािन्त की ज्वाला भड़काने वाले तात्या िोपे से ऄँग्रेजी रूह भी काँपती थी कफर ईनका गुणगान क्यं न हो। राजस्थानी किव शंकरदान सामौर तात्या की मिहमा ‘िहन्द नायक’ के रूप मं गाते हं‘’जठै गयौ जंग जीितयो, खिकै िबण रण खेत/तकड़ौ लिडयाँ तांितयो, िहन्द थान रै हेत/मचायो िहन्द मं अखी,तहल कौ तांितयो मोिो/धोम जेम घुमायो लंक मं हणूं घोर/रचाओ उजली राजपूती रो अखरी रं ग/जंग मं कदखायो सूवायो ऄथग जोर।‘’ आसी प्रकार शंकरपुर के राना बेनीमाधव सिसह की वीरता को भी लोकगीतं मं िचि​ित ककया गया है- ‘’राजा बहादुर िसपाही ऄवध मं/धूम मचाइ मोरे राम रे / िलख िलख िचरठया लाि ने भेजा/अब िमलो राना भाइ रे /जंगी िखलत लंदन से मंगा दूं/ ऄवध मं सूबा बनाइ रे ।‘’ 1857 की क्रािन्त मं िजस मनोयोग से पुरुष नायकं ने भाग िलया, मिहलायं भी ईनसे पीछे न रहं। लखनउ मं बेगम हज़रत महल तो झाँसी मं रानी लक्ष्यमीबाइ ने आस क्रािन्त की ऄगुवाइ की। बेगम हज़रत महल ने लखनउ की हार के बाद ऄवध के ग्रामीण क्षेिं मं जाकर क्रािन्त की िचन्गारी फै लाने का काया ककया- “मजा हज़रत ने नहं पाइ/ के सर बाग लगाइ/कलकिे से चला कफरं गी/ तंबू कनात लगाइ/पार ईतरर लखनउ का/ अयो डेरा कदिहस लगाइ/असपास लखनउ का घेरा/सड़कन तोप धराइ।‘’ रानी लक्ष्यमीबाइ ने ऄपनी वीरता से ऄँग्रेजं के दाँत खट्टे कर कदये। ईनकी मौत पर जनरल

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ह्यूगरोज ने कहा था कक- “यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो िव्रदोही मं एकमाि मदा थी।” ‘झाँसी की रानी’ नामक ऄपनी किवता मं सुभराकु मारी चौहान 1857 की ईनकी वीरता का बखान करती हं- ‘’ चमक ईठी सन् सिावन मं/वह तलवार पुरानी थी/बुन्देले हरबोलं के मुह ँ /हमने सुनी कहानी थी/खूब लडी मदा​ानी वह तो/ झाँसी वाली रानी थी/खूब लड़ी मरदानी/ ऄरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपं लगा दइ/ गोला चलाए ऄसमानी/ऄरे झाँसी वारी रानी/ खूब लड़ी मरदानी/सबरे िसपाआन को पैरा जलेबी/ ऄपन चलाइ गुरधानी।‘’ 1857 की क्रािन्त मं शाहाबाद के 80 वषीय कुँ ऄर सिसह को दानापुर के िवरोही सैिनकं िारा 27 जुलाइ को अरा शहर पर कब्जा करने के बाद नेतृत्व की बागडोर सौपी गयी। िबहार और पूवी ईिर प्रदेश के तमाम ऄंचलं मं शेर बाबु कुँ ऄर सिसह ने घूम-घूम कर 1857 की क्रािन्त की ऄलख जगायी। अज भी आस क्षेि मं कुँ ऄर सिसह को लेकर तमाम किकवदिन्तयाँ मौजूद है। आस क्षेि के ऄिधकतर लोकगीतं मं जनाकांक्षाओं को ऄसली रूप देने का श्रेय बाबु कुँ ऄर सिसह को कदया गया है- ‘’बक्सर से जो चले कुँ ऄर सिसह पिना अकर िीक/ पिना के मिजस्िर बोले करो कुँ ऄर को ठीक/ऄतुना बात जब सुने कुँ ऄर सिसह दी बंगला फुं कवाइ/गली-गली मिजस्िर रोए लाि गये घबराइ।‘’ 1857 की क्रािन्त के दौरान ज्यं-ज्यं लोगो को ऄँग्रेजं की पराजय का समाचार िमलता वे खुशी से झूम ईठते। ऄजेय समझे जाने वाले ऄँग्रेजं का यह हश्र, ईस क्रािन्त के साक्षी किव सखवत राय ने यूँ पेश ककया है- ‘’िगि मेडराइ स्वान स्यार अनंद छाये/ कसिह िगरे गोरा कहं हाथी िबना सूड ं के ।‘’ 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने ऄँग्रेजी हुकू मत को िहलाकर रख कदया। बौखलाकर ऄँग्रेजी हुकू मत ने लोगं को फाँसी दी, पेड़ं पर समूहं मं लिका कर मृत्यु दण्ड कदया और तोपं से बाँधकर दागा - ‘’झूिल गआलं ऄिमली के डररयाँ/बजररया गोपीगंज कइ रहिल।‘’ वहं िजन जीिवत लोगं से ऄँग्रेजी हुकू मत को ज्यादा खतरा ISSN –2347-8764

महसूस हुअ, ईन्हं कालापानी की सजा दे दी। तभी तो ऄपने पित को कालापानी भेजे जाने पर एक मिहला ‘कजरी’ के बोलो मं कहती है- ‘’ऄरे रामा नागर नैया जाला काले पिनयां रे हरी/सबकर नैया जाला कासी हो िबसेसर रामा/नागर नैया जाला काले पिनयां रे हरी/घरवा मं रोवै नागर, माइ और बिहिनयां रामा/से िजया पैरोवे बारी धिनया रे हरी।‘’ 1857 बंगाल िवभाजन के दौरान स्वदेशीबिहष्प्कार- प्रितरोध का नारा खूब चला। ऄँग्रेजी कपड़ं की होली जलाना और ईनका बिहष्प्कार करना देश भि​ि का शगल बन गया था, कफर चाहे ऄँग्रेजी कपड़ं मं ब्याह रचाने अये बाराती ही हं- ‘’कफर जाहुकफरर जाहु घर का समिधया हो/मोर िधया रिहहं कुं अरर/ बसन ईतारर सब फं कहु िवदेिशया हो/ मोर पूत रिहहं ईघार/ बसन सुदेिसया मंगाइ पिहरबा हो/ तब होआहै िधया के िबयाह।‘’ 1857 जिलयाँवाला बाग हत्याकाण्ड ऄँग्रेजी हुकू मत की बबारता व नृशंसता का नमूना था। आस हत्याकाण्ड ने भारतीयं िवशेषकर नौजवानं की अत्मा को िहलाकर रख कदया। गुलामी का आससे वीभत्स रूप हो भी नहं सकता। सुभराकु मारी चौहान ने ‘जिलयावाले बाग मं वसंत’ नामक किवता के माध्यम से श्रिांजिल ऄर्चपत की है- ‘’कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर/किलयाँ ईनके िलए िगराना थोड़ी लाकर/अशाओं से भरे हृदय भी िछन्न हुए हं/ऄपने िप्रय-पररवार देश से िभन्न हुए हं/कु छ किलयाँ ऄधिखली यहाँ आसिलए चढ़ाना/करके ईनकी याद ऄश्रु की ओस बहाना/तड़प-तड़पकर वृि मरे हं गोली खाकर/शुष्प्क पुष्प्प कु छ वहाँ िगरा देना तुम जाकर/यह सब करना, ककन्तु बहुत धीरे -से अना/यह है शोक-स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।‘’ 1858 कोइ भी क्रािन्त िबना खून के पूरी नहं होती, चाहे ककतने ही बड़े दावे ककये जायं। भारतीय स्वाधीनता संग्राम मं एक ऐसा भी दौर अया जब कु छ नौजवानं ने ऄँग्रेजी हुकू मत की चूल िहला दी, नतीजन ऄँग्रेजी सरकार ईन्हं जेल मं डालने के िलये तड़प ईठी। 11 ऄगस्त 1908 को जब 15 िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

वषीय क्रािन्तकारी खुदीराम बोस को ऄँग्रेज सरकार ने िनमामता से फाँसी पर लिका कदया तो मशहूर ईपन्यासकार प्रेमचन्द के ऄन्दर का देश प्रेम भी िहलोरं मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर ऄपने घर लाये तथा कमरे की दीवार पर िाँग कदया। खुदीराम बोस को फाँसी कदये जाने से एक वषा पूवा ही ईन्हंने ‘दुिनया का सबसे ऄनमोल रतन’ नामक ऄपनी प्रथम कहानी िलखी थी, िजसके ऄनुसार- ‘खून की वह अिखरी बूँद जो देश की अजादी के िलये िगरे , वही दुिनया का सबसे ऄनमोल रतन है।’ ईस समय ऄँग्रेजी सैिनकं की पदचाप सुनते ही बहनं चौकन्नी हो जाती थं। तभी तो सुभराकु मारी चौहान ने ‘िबदा’ मं िलखा कक- ‘’िगरफ्तार होने वाले हं/अता है वारं ि ऄभी/धक-सा हुअ हृदय, मं सहमी/हुए िवकल अशंक सभी/मं पुलककत हो ईठी! यहाँ भी/अज िगरफ्तारी होगी/कफर जी धड़का, क्या भैया की /सचमुच तैयारी होगी।‘’ अजादी के दीवाने सभी थे। हर पत्नी की कदली तमन्ना होती थी कक ईसका भी पित आस दीवानगी मं शािमल हो। तभी तो पत्नी पित के िलए गाती है- ‘’जागा बलम गाँधी िोपी वाले अइ गआलं…./ राजगुरू सुखदेव भगत सिसह हो/तहरे जगावे बदे फाँसी पर चढ़ाय गआलै।‘’ सरदार भगत सिसह क्रािन्तकारी अन्दोलन के ऄगुवा थे, िजन्हंने हँसते-हँसते फासी के फन्दं को चूम िलया था। एक लोकगायक भगत सिसह के आस तरह जाने को बदा​ाश्त नहं कर पाता और गाता है- ‘’एक-एक क्षण िबलम्ब का मुझे यातना दे रहा है – तुम्हारा फं दा मेरे गरदन मं छोिा क्यं पड़ रहा है/मं एक नायक की तरह सीधा स्वगा मं जाउँगा/ ऄपनी-ऄपनी फररयाद धमाराज को सुनाउँगा/मं ईनसे ऄपना वीर भगत सिसह माँग लाउँगा।‘’ आसी प्रकार चन्रशेखर अजाद की शहादत पर ईन्हं याद करते हुए एक ऄंिगका लोकगीत मं कहा गया- ‘’हौ अजाद त्वं ऄपनौ प्राणे कऽ /अहुित दै के मातृभूिम कै अजाद करै लहं/तोरो कु बा​ानी हम्मै िजनगी भर नैऽ भुलब ै /े देश तोरो ररनी रहेत।े ‘’ सुभाष चन्र बोस ने नारा कदया कक“तुम मुझे खून दो, कफर क्या था पुरूषं के

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साथ-साथ मिहलाएँ भी ईनकी फौज मं शािमल होने के िलए बेकरार हो ईठ- ‘’हरे रामा सुभाष चन्र ने फौज सजायी रे हारी/ कड़ा-छड़ा पंजिनया छोड़बै, छोड़बै हाथ कं गनवा रामा/ हरे रामा, हाथ मं झण्डा लै के जुलस ू िनकलबं रे हारी।‘’ महात्मा गाँधी अजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने िारा ईन्हने स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नौजवान ऄपनी-ऄपनी धुन मं गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानते और एक स्वर मं गाते- ‘’ऄपने हाथे चरखा चलईबै/ हमार कोउ का कररहं/गाँधी बाबा से लगन लगईबै/हमार कोइ का कररहं।‘’ 1942 मं जब गाँधी जी ने ‘ऄँग्रेजं भारत छोड़ो’ का अह्वान ककया तो ऐसा लगा कक 1857 की क्रािन्त कफर से िजन्दा हो गयी हो। क्या बूढ़े, क्या नवयुवक, क्या पुरुष, क्या मिहला, क्या ककसान, क्या जवान…… सभी एक स्वर मं गाँधी जी के पीछे हो िलये। ऐसा लगा कक ऄब तो ऄँग्रेजं को भारत छोड़कर जाना ही होगा। गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने आस ज्वार को महसूस ककया और आस जन क्रािन्त को शब्दं से यूँ सँवारा- ‘’बीसवं सदी के अते ही, कफर ईमड़ा जोश जवानं मं/हड़कम्प मच गया नए िसरे से, कफर शोषक शैतानं मं/सौ बरस भी नहं बीते थे सन् बयालीस पावन अया/लोगं ने समझा नया जन्म लेकर सन् सिावन अया/अजादी की मच गइ धूम कफर शोर हुअ अजादी का/कफर जाग ईठा यह सुप्त देश चालीस कोरि अबादी का।‘’ भारत माता की गुलामी की बेिड़याँ कािने मं ऄसंख्य लोग शहीद हो गये, बस आस अस के साथ कक अने वाली पीकढ़याँ स्वाधीनता की बेला मं साँस ले सकं । आन शहीदं की तो ऄब बस यादं बची हं और आनके चलते पीकढ़याँ मुि जीवन के सपने देख रही हं। किववर जगदम्बा प्रसाद िमश्र ‘िहतैषी’ आन कु बा​ािनयं को व्यथा नहं जाने देते- ‘’शहीदं की िचताओं पर जुड़ंगे हर बरस मेल/े वतन पर मरने वालं का यही बाकी िनशां होगा/कभी वह कदन भी अएगा जब ऄपना राज देखग ं /े जब ऄपनी ही जमं होगी और ऄपना असमाँ होगा।‘’ देश अजाद हुअ। 15 ऄगस्त 1947 के ISSN –2347-8764

सूयोदय की बेला मं िवजय का अभास हो के मारल हमरा गाँधी के गोली हो/धमाधम रहा था। कफर किव लोकमन को कै से तीन गो/कवहीए अजादी िमल/अज चलल समझाता। अिखर ईसके मन की तरं गं भी गोली/गाँधी बाबा मारल गआले/देहली के तो लोक से ही संचािलत होती हं। किव गली हो/धमाधम तीन गो/पूजा मं जात सुिमिानन्दन पंत आस सुखद ऄनुभूित को यूँ रहले िबरला भवन मं/दुशमनवा बआठल सँजोते हं- ‘’िचर प्रणम्य यह पुण्य ऄहन्, रहल पाप िलए मन मं/गोिलया चला के जय गाओ सुरगण/अज ऄवतररत हुइ बनल बली हो/धमाधम तीन गो (किव चेतना भू पर नूतन/नव भारत,कफर चीर रसूल िमयाँ)।‘’ युगं का तमस अवरण/तरुण-ऄरुण-सा अजादी की कहानी िसफा एक गाथा भर ईकदत हुअ पररदीप्त कर भुवन/सभ्य हुअ नहं है बिवक एक दास्तान है कक क्यं हम ऄब िवि, सभ्य धरणी का जीवन/ज खुले बेिड़यं मं जकड़े, ककस प्रकार की यातनायं भारत के संग भू के जड़ बंधन/शांत हुअ हमने सहं और शहीदं की ककन कु बा​ािनयं ऄब युग-युग का भौितक संघषाण/मुि के साथ हम अजाद हुये। यह ऐितहािसक चेतना भारत की यह करती घोषण!’’ घिनाक्रम की माि एक शोभा यािा नहं देश अजाद हो गया, पर ऄँग्रेज आस देश की ऄिपतु भारतीय स्वािभमान का संघषा, सामािजक-सांस्कृ ितक-अर्चथक व्यवस्था को राजनैितक दमन व अर्चथक शोषण के िछन्न-िभन्न कर गये। एक तरफ अजादी की िवरुि लोक चेतना का प्रबुि ऄिभयान एवं ईमंग, दूसरी तरफ गुलामी की छायाओं का सांस्कृ ितक नवोन्मेष की दास्तान है। डर…… िगररजाकु मार माथुर ‘पन्रह अजादी का ऄथा िसफा राजनैितक अजादी ऄगस्त’ की बेला पर ईवलास भी व्यि नहं ऄिपतु यह एक िवस्तृत ऄवधारणा है, करते हं और सचेत भी करते हं- ‘’अज जीत िजसमं व्यि​ि से लेकर राष्ट्र का िहत व की रात, पहरुए, सावधान रहना/ खुले देश ईसकी परम्परायं छु पी हुइ हं। जरूरत है के िार, ऄचल दीपक समान रहना/उँची हम ऄपनी कमजोररयं का िवश्लेषण करं , हुइ मशाल हमारी, अगे करठन डगर है/शिु तद्नुसार ईनसे लड़ने की चुनौितयाँ हि गया, लेककन ईसकी छायाओं का डर है/ स्वीकारं और नए पररवेश मं नए जोश के शोषण से मृत है समाज,कमजोर हमारा साथ अजादी के नये ऄथं के साथ एक घर है/ककन्तु अ रही नइ सिजदगी,यह सुखी व समृि भारत का िनमा​ाण करं । िविास ऄमर है।‘’ किव रसूल िमयाँ ‘पन्रह ~✽~ ऄगस्त’ की बेला पर ईवलास भी व्यि िाआप - 5, िनदेशक बंगला, पोस्िल करते हं और सचेत भी करते हं –‘’पंरह ऑकफससा कॉलोनी, जेडीए सर्ककल के ऄगस्त सन् संतािलस के सुराज िमल/बड़ा िनकि, जोधपुर, राजस्थान- 342001 करठन से ताज िमल/सुन ला िहन्दू- मो.- 09413666599 मुसलमान भाइ/ऄपना देशवा के कर ला ई-मेलः akankshay1982@gmail.com ~✽~ भलाइ/तोहरे हथवा मं िहन्द माता के लाज िमल/बड़ा करठन से ताज िमलल।‘’ अजादी भले ही िमल गइ पर देश मं मुनव्वर राना सांप्रदाियकता व नफरत के बीज भी बो संग्रह: कफर कबीर /बदन सराय गइ। ‘बांिो और राज करो’ की तजा पर ✽ ऄंग्रेजं ने जाते-जाते देश के दो िु कड़े कर ककसी का पूछना कब तक हमारी राह देखोगे कदए। अजादी के जश्न से परे महात्मा हमारा फ़ै सला जब तक कक ये बीनाइ रहती है गांधी िनकल पड़े ऐसे ही दंगाआयं को समझाने पर ईनकी िनयित मं कु छ और िगले-िशकवे ज़रूरी हं ऄगर सच्ची महब्बत है ही िलखा था। ऄंततः 30 जनवरी जहाँ पानी बहुत गहरा हो थोड़ी काइ रहती है 1948 को गाँधी जी की गोली मारकर ✽ हत्या कर दी गइ। कफर भला लोक-किव (बीनाइ- अंखो की रौशनी) का अहत मन भला कै से शांत रहता- ‘’ िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

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व्यंग्य

रे िडयो चाची ऄचाना चतुवद े ी

हमारे महवले का चलता कफरता रे िडयो । गोल मिोल सी, छोिा सा कद गोल मुहँ पर िवराजमान बड़ी सी समोसे के साआज की नाक और ईसमं सुसोिभत सात नग वाली संक, माथे पर बड़ी सी लाल सिबकदया, सिसदूरी मांग, मुहँ मं हर दम ठुं सी सुपारी और सीधे पवले की साड़ी, कु ल िमला कर ऄच्छी खासी सेठानी िाआप कदखती हं, हमारी बिो चाची । वैसे तो ईनका भला सा नाम है सरला और सरल तो आतनी कक कोइ भी बात हो पूरे महवले मं बांिती कफरती हं कफर वो बात चाहे ईनके पररवार की ही क्यं ना हो । एक बार ककसी के घर मं घुस जाएँ तो सबरा कदन खत्म हो जाये, पर चाची की बात खत्म ना हं, सो महवले वालं ने नाम कदया है बिो । पहले घर मं कमाने वाले िसफा चाचा थे सो रो पीि के गुजारा होता था । जब से चाची के दोनं बेिे कमाने लगे हं तब से घर के दिलद्दर तो दूर हुए ही हं संग मं चाची की गदान भी ऄकड गइ है । ऄब चाची भी क्या करे जो चीजं देखी तक नहं वो ईनके घर मं अ गइ हं सो ना तो चाची के पैर रुकते हं और ना ही जुबान । जो चाची पूरे मह्वले की चचा​ा करती थी ऄब वो िसफा ऄपने बडबक्करे मारती कफरती हं । ईनके पित और बेिे लाख समझा लं पर ईनके कान पर जूँ तक नहं रं गती मजाल है घर मं सुइ भी अइ हो तो भी महवले वालं से छु पा लं । ईनका तका ये था कक ऄब हम राजा हो गये हं यािन हम पर पैसा अ गया है, तो क्यं ना सबको कदखाए । सारी दुिनया कदखाती है, हम कोइ पहले आं सान तो हं नहं । बेचारे पित,और पुि मूक भाव से चाची को िनरखते रह जाते और चाची बन ठन के िनकल पड़ती, मोहवले भर मं ऄपना अिडयो िवजुऄल प्रदशान करने यािन हर चीज का नादीदापन करने जैसे चाची के घर िी.वी अया तो चाची ने एक एक को बुलाबुलाकर कदखाया और तो और छत पर ले जाकर एंिीना तक कदखाया । ISSN –2347-8764

ईनका बड़ा बेिा दुबइ मं नौकरी करता था और समय दुबइ की बड़ी मिहमा थी । जो दुबइ मं काम करता था, ईसे बड़े आज्जत से देखा जाता और जब वो कइ साल मं, वहां से लदा फदा अता, तो पूरा शहर देखने अता । सबका सपना होता कक बेिा बड़ा हो और दुबइ भेजं कमाने को । खैर ईनका बेिा िेपररकाडार खरीद कर लाया, जो ईस समय नए नए थे, कोइ भी कायाक्रम होता तो लोग ईसे कं धे पर ईठा कर ररकार्लिडग के िलए लेकर जाते । ऄरे भाइ कै से कदखेगा हम भी िेपररकाडार वाले हं । चाची तो ईसमं सुबह पांच बजे से फु ल अवाज मं गाने चला देती । “अिखर िेपररकाडार वाले हं सबको पता भी तो चले । सब कु डकु ढाते, पर मजाल है चाची से कु छ बोल सकं वरना महाभारत का युि िछड़ने का डर, सो सब मन मसोस कर रह जाते और भगवान से िेपररकाडार को फूं कने की दुअ करते । चाची ऄब कदखावा करने के चक्कर मं, जब तब बेबकू फी करती कदख जाती जैसे ईनके घर फोन लगा, क्यंकक बेिा दुबइ से फोन करे गा, तो कहाँ करे ? पहले वह ककसी ररश्तेदार के यहाँ फोन करता था पर िपछली बार दुबइ से वह ईन ररश्तेदार जी के िलए कु छ भंि नहं लाया, सो ईन्हंने चाची को बुलाने से आं कार कदया । सो अनन फानन मं फोन लगवाया गया । चाची ने िजद करके फोन बैठक यािन बाहरी कमरे मं लगवाया । ऄरे ! ऄंदर फोन होगा तो महवले वालं को कै से पता लगेगा ? मजा तो तब अता, जब ईनका बेिा फोन करता और चाची जोर जोर से ऄपनी बात कहती और फोन रख देती । बेिा कु छ कह ही नहं पाता । पर चाची को तो कदखावा करना था, बेिे की बात थोड़े ही सुननी थी। यकद ईनसे कोइ कहता कक आतनी जोर से क्यं बोल रही थी तो वो कहती “ऄरे आिी दूर बैठा है, जोर से नहं बोलंगे, तो अवाज कै से जायेगी ?

िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

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खैर ! चाची की हरकतं से परे शान बेिे ने ऄपने िपता को पि िलखा, िजसका नतीजा ये हुअ कक चाची को ऄब फोन नहं ईठाने कदया जाता, जब सब बात कर लेते तब चाची को फोन कदया जाता और चाची िबना ये सुने कक बेिा फोन रख चुका है ऄपना भाषण शुरू कर देती । ईन कदनं घर घर गैस अ चुकी थी । तभी चाची को खबर िमली कक ईनका बेिा अिोमैरिक चूवहा ला रहा है, जो िबना मािचस के जलता है, बस कफर क्या था, चाची िनकल पड़ी, ऄपनी शेखी बघारने । वो कह रही थी कक ईनका बेिा ऐसा चूवहा ला रहा है, जो िबना मािचस, िबना सलंडर के जल जायेगा । सब ईनकी बातं पर हँस रहे थे पर ईन्हं क्या ? ईन्हं तो ऄपनी बढ़ाइ से मतलब । तभी एक मजेदार घिना और हुइ चाची के बड़े बेिे का ररश्ता तय हो गया । बेिे के ससुराल से ईनके घर किज अया । जो ईन्हंने पहली बार देखा था । ईनके छोिे बेिे ने ईन्हं ईनकी भाषा मं समझाया कक, “ये ठं डी ऄलवारी है, िजसमे कु छ भी खाने पीने का सामान रखो, ठं डा हो जायेगा । पर चाची को तो दूसरं की बातं कम समझनी होती थी । सो एक स्िेप अगे िनगल गइ और वो गमा ठं डे की अलवारी बन गइ । एक दो कदन बाद किज खराब है ये सन्देश समिधयाने मं पहुंचा । वो लोग किज वाले को पकड़ कर लाए पर किज मं कोइ खराबी नहं कदखी, तो किज वाले ने पूछा, “बहन जी अप बताआए क्या हुअ ? चाची बोली “भइया कल मंने आसमं ब्यालू (शाम का खाना, पराठे ) सेक के रखी, पर मेरे तो सारे पराठे जम गये गमा ही न रहे ।" आतना सुन कर, किज वाले का पारा चढ़ गया, वो गुस्से मं बोला “अपको आतना भी नहं पता कक ये किज है, आसमं ठं डा होता है गरम नहं, वािपस कर दो मेरा किज आस्तेमाल करना तक नहं अता । बताओ खाना िीजर मं रख कदया और कह रहं हं जम क्यं गया ।" समधी बेचारे ने बड़ी मुिश्कल से, ऄपनी हंसी पर काबू पाकर किज वाले को रोका कफर ईन्हं भी समझाया । ये ककस्सा सुनकर पूरा महवला हंसा, पर आसमं भी मजेदार बात ये थी कक ISSN –2347-8764

चाची खुद ऄपनी हरकत पूरे महवले को बता रही थी, सरल जो ठहरी वे कह रही थी, “हमं क्या पता, ये अजकल की चीजं कै से आस्तेमाल करी जाएँ ।” खैर चाची के बड़े बेिे की शादी तो हो हवा गइ, खूब दहेज के साथ पर चाची के छोिे बेिे के ररश्ते की बात कही नहं बन पा रही थी । वो भी खूब कमाता था पर ऄच्छे ररश्ते नहं अ रहे थे । ऄब तो चाची परे शान रहती, कोइ भी ऄच्छी लड़की कदखती या कोइ ईनके बेिे की जन्मपिी ले जाता तो चाची ईन्ही के घर जा धमकती, ये जताने कक तुम्हारी बेिी को सवासुख िमलने वाला है और ईसी कड़ी मं, वे घुमाकफराकर ईनके घर क्या क्या सुख सुिवधा है ? बता डालती । और तो और ईनके बताने का तरीका भी बड़ा मजेदार होता जैसे वो ककसी के घर गइ और वहां िीवी चल रहा है, तो चाची वही से शुरू हो जाती जैसे “ऄच्छा रामायण अ रही है, पर तुम्हारा िीवी काला-सफ़े द है, आसमं ऄच्छी ना कदखेगी, मेरे घर के रं गीन िीवी मं बड़ी बकढ़या कदखेगी या जवदी से घर जाउ, हे भगवान ककतनी गमी है, जाकर कू लर चला दूंगी कफर किज से ठं डा ठं डा पानी िनकाल कर िपउँगी | बेिे को कहूँगी, जवदी से स्कू िर पर जाकर दही ले अएगा लस्सी ही पी लूंगी” अकद ईनकी आन बातं पर सब हँसते और ईनके जाने के बाद कहते “क्या करे लक्ष्यमी जी सवारी ईवलू है सो लक्ष्यमी जी ईवलुओं पर मेहरवान हं ।” वैसे तो चाची की हर हरकत मजेदार थी पर एक मजेदार ककस्सा और याद अया चाची के छोिे बेिे ने ईनके िलए माइक्रोवेव खरीदा, ऄबके बेचारी चाची ने ध्यान लगाकर समझा कक आसमं जो भी रखो गमा हो जाये । पर दो चार कदन मं ही चाची को िशकायत हुइ कक ये तो खराब है । ऄबके तो चाचा और बेिे को भी नहं पता था कक आसे कै से आस्तेमाल करं । सो दुकानदार तक िशकायत पहुचाइ गइ । दुकानदार ने अदमी भेजा पर ईनकी िशकायत बनी रही । दो तीन बार आं िजिनयर ईनके घर होकर अया और बोला, “सर हमं तो खराबी नहं लगती । जो रखते हं, सब बनता है ।" सर्चवस संिर वाले भी िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

माइक्रोवेव ले गये पर ईसमं कोइ खराबी नहं िमली । जब ऄगली बार कम्प्लंि हुइ, तो कम्पनी का सीिनयर आं िजिनयर अया । ईन्हंने चाची से पूछा कक “वो क्या गमा करना चाहती हं, जो नहं हो पा रहा । आस पर चाची बोली “बेिा मेरे घुिने मं ददा रहे, सो मं ईंि गमा करना चाहू संक के िलए पर आसमं तो ईंि गमा ही ना होवे ।” ईनका बेिा बोला “सर जी मंने माँ के संक के िलए ही ये मशीन खरीदी है । दुकानदार ने कहा जो रखोगे गमा हो जायेगा पर ये तो बेकार है ।” ईनकी बातं सुनकर आं िजिनयर साहब को बड़ा गुस्सा अया, पर वो खुद पर काबू रखकर बोले, “ऄच्छा ईंि गमा करनी, तो एक बाविी पानी लेकर अओ ।" चाची पानी लाइ तो आं जीिनयर साहब ने पहले ईंि को पानी मं डु बोया, कफर माइक्रोबेब मं रख कदया । िाआमर सेि ककया और कु छ देर बाद चाची से बोले, “ईठाआए ! जैसे ही चाची ने ईंि को हाथ लगाया जोर से चीखी,और ईछल पड़ी । वो आं जीिनयर मुस्कु राते हुए बोला “मैडम ऄब तो गमा हो गइ ना ईंि” ऄब तो कोइ िशकायत नहं अपको ? चाची के मुहँ से बोल नहं फू ि रहे थे । वो आं िजनीयर चला गया और चाची बेचारी ऄपने हाथ पर फूं क मार रही थी जो जल गया था । अिखर ईंि गमा जो हो गइ थी । देखो भाइ हमारी बिो चाची के कारनामे बहुत हं, बताने को, जो ककस्से- कहािनयां बन चुके हं । पर वो हम कफर कभी सुनायंगे ऄभी के िलए िसफा आतना ही । ~✽~

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अलेख

जल िबन...! मीना पाठक

चारं तरफ से पानी..पानी..पानी की अवाज सुनाइ दे रही है । िजधर देखो ईधर पानी के िलए लम्बी कतारं व पानी के िलए जूझते लोग, पानी ढोते िंकर से लेकर ट्रेन तक कदखाइ दे रहे हं । हैण्डपम्प, कुँ ए सूख गए हं और तालाब ऄब रहे नहं, ईस पर कं क्रीि के जंगल खड़े कर कदए गए हं । पानी के िलए चारं तरफ हाहाकार मचा हुअ है । देश की रीढ़ ककसान अस भरी नजरं से असमान की ओर देख रहा है । प्यास से घरती का कलेजा फि रहा है । िवकास के नाम पर वन प्रदेश खत्म होते जा रहे हं, वृक्षं की ऄंधाधुध ं किाइ हो रही है क्यं की हम िवकास कर रहे हं ! हरे -भरे जंगलं, वृक्षं,तालाबं और बाविड़यं को खत्म कर हम रं ग-िबरं गे, चमकीले कं क्रीि के जंगल खड़े करते जा रहे हं क्यं कक हम िवकास कर रहे हं ! ऄपने घरं से ले कर शहरं और आं डिस्ट्रयं की सारी गंदगी को हमने सीधे नकदयं मं डाल कर ईनका अिस्तत्व ही खतरे मं डाल कदया है क्यं कक हम िवकास कर रहे हं ! सब से ज्यादा प्रकृ ित के साथ छेड़छाड़ हम मनुष्प्यं ने ही की है बाकी के जीव-जंतु तो प्रकृ ित पर ही िनभार रहते हं । हमारा जीवन भी प्रकृ ित पर ही िनभार है ये बात हम भूल गए हं और प्रकृ ित का िजतना दोहन हम कर सकते थे ईससे कहं ज्यादा हम कर रहे हं िजसका नतीजा जल संकि के रूप मं हमारे सामने हं । िजसे देखो वही के न्र सरकार की ओर मुँह ककये सूखे या जल संकि से िनपिने के िलए मुअवजे की मांग करता कदखाइ दे रहा हं । क्या पैसे (मुअवजे) से पानी की ककवलत दूर की जा सकती है और ऄगर की भी जा सकती है तो कब तक ? तभी तक ना जब तक कहं भी जल की एक बूँद बची है । आसके बाद क्या होगा ? कहाँ से अएगा जल ? क्या ये सारी िजम्मेदारी सरकार की है ? क्या प्रकृ ित के संसाधनं का ईपयोग के वल सरकारं ही करती हं ? हम नहं करते ? तो क्या हमारा भी दाियत्व नहं बनता कक जल संकि को हम गंभीरता से लं ? पानी देने या पानी की व्यवस्था करने की िजम्मेदारी सरकार की और सुिवधाएँ भोगं हम ! ISSN –2347-8764

हम जल की तलाश मं मंगल तक पहुँच गए पर ऄपनी धरती के जल को संरिक्षत नहं कर पा रहे । िवकास के नाम पर जरूरत से ज्यादा भूगभीय जल का दोहन करना, हमारी जीवनदाियनी नकदयं को दूिषत करते जाना हमारी प्रवृि​ि बन गयी है । प्रकृ ित की संतान हो कर भी हमने ईसके साथ ककतने ऄन्याय ककये हं तो प्रकृ ित हमं वरदान तो नहं दे सकती ना ! प्रकृ ित के आस बदलते स्वरूप के िलए िजम्मेदार हम ही हं । हम ऄपनेऄपने िनजी स्वाथा हेतु प्रकृ ित को पूरी तरह से ऄनदेखा कर देते हं । हमारे देश मं हर वषा लगभग तीन से चार ऄरब लीिर पानी बरसता है पर वह ज्यादा से ज्यादा बह जाता है । हम बहुत ही कम माि मं ईसे सहेज पाते हं । पहले वन प्रदेश, कुं ए, तालाब, बावड़ी अकद आसे संरिक्षत कर िलया करते थे पर ऄब कहंकहं ही आनका ऄिस्तत्व नाम माि को ही बचा है । देश-प्रदेश की सरकारं , स्थानीय िनकायं और पंचायतं तक ने पानी की सुरक्षा के प्रित गंभीरता नहं कदखाइ है । सुिवधाएँ और ठािबाि सबको चािहए पर पानी की सुरक्षा नहं । एक बात और जो मेरी छोिी सी बुि​ि मं अ रही है । पानी िसफा सरकार की िजम्मेदारी नहं है । प्रकृ ित ऄपने संसाधन हम सब पर एक समान लुिाती है तो प्रकृ ित की तरफ िजम्मेदारी भी हम सब की बराबर है । घर-घर, गाँव-गाँव, शहर-शहर हर जगह लगातार बढ़ते जल संकि से यह साफ़ जािहर हो गया है कक जल से जुड़ी समस्याएँ हम सब की हं िसफा सरकारं की नहं । हमं ऄपने अज के िलए, हमं ऄपने कल के िलए, जल का प्रबंध करना होगा क्यं कक जल है तभी तो कल है । अज जल की ये हालत है तो अने वाले वषं मं क्या हालात हंगे ? ऄनुमान कर ही रंगिे खड़े हो जाते हं । आस िलए जल संरक्षण के ईपाय और जल के सीिमत ईपयोग का संकवप हम सब को िमल कर करना होगा चाहे सरकार हो, सामािजक संस्थान हो या समाज के लोग । यह हम सभी की िजम्मेदारी है । ऄगर हम अज भी नहं चेते तो कल कु छ भी नहं बचेगा । ~✽~

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ऄनूकदत रूसी कहानी

दुःख ऄन्तोन चेख़व ऄनुवाद : सुशांत सुिप्रय

"मं ऄपना दुखड़ा ककसे सुनाउँ ? " शाम के धुँधलके का समय है । सड़क के खम्भं की रोशनी के चारं ओर बफ़ा की एक गीली और मोिी परत धीरे -धीरे फै लती जा रही है । बफ़ा बारी के कारण कोचवान योना पोतापोव ककसी सफ़े द प्रेत-सा कदखने लगा है । अदमी की देह िजतनी भी मुड़ कर एक हो सकती है, ईतनी ईसने कर रखी है । वह ऄपनी घोड़ागाड़ी पर चुपचाप िबना िहले-डु ले बैठा हुअ है । बफ़ा से ढँका हुअ ईसका छोिा-सा घोड़ा भी ऄब पूरी तरह सफ़े द कदख रहा है । वह भी िबना िहले-डु ले खड़ा है । ईसकी िस्थरता, दुबली-पतली काया और लकड़ी की तरह तनी सीधी िाँगं ऐसा अभास कदला रही हं जैसे वह कोइ सस्ता-सा मररयल घोड़ा हो । योना और ईसका छोिा-सा घोड़ा, दोनं ही बहुत देर से ऄपनी जगह से नहं िहले हं । वे खाने के समय से पहले ही ऄपने बाड़े से िनकल अए थे, पर ऄभी तक ईन्हं कोइ सवारी नहं िमली है । "ओ गाड़ी वाले, िवबोगा चलोगे क्या ? " योना ऄचानक सुनता है, " िवबोगा ! " हड़बड़ाहि मं वह ऄपनी जगह से ईछल जाता है । ऄपनी अँखं पर जमा हो रही बफ़ा के बीच से वह धूसर रं ग के कोि मं एक ऄफ़सर को देखता है, िजसके िसर पर ईसकी िोपी चमक रही है । "िवबोगा ! " ऄफ़सर एक बार कफर कहता है । " ऄरे , सो रहे हो क्या ? मुझे िवबोगा जाना है । " चलने की तैयारी मं योना घोड़े की लगाम खंचता है । घोड़े की गदान और पीठ पर पड़ी बफ़ा की परतं नीचे िगर जाती हं । ऄफ़सर पीछे बैठ जाता है । कोचवान घोड़े को पुचकारते हुए ईसे अगे बढ़ने का अदेश देता है । घोड़ा पहले ऄपनी गदान सीधी करता है, कफर लकड़ी की तरह सख़्त कदख रही ऄपनी िाँगं को मोड़ता है और ऄंत मं ऄपनी ऄिनश्चयी शैली मं अगे बढ़ना शुरू कर देता है । योना ज्यं ही घोड़ा-गाड़ी अगे बढ़ाता है , ऄँधरे े मं अ-जा रही भीड़ मं से ईसे सुनाइ देता है, "ऄबे, क्या कर रहा है , जानवर कहं का ! आसे कहाँ ले जा रहा है, मूखा ! दाएँ मोड़ ! " ISSN –2347-8764

"तुम्हं तो गाड़ी चलाना ही नहं अता ! दािहनी ओर रहो !" पीछे बैठा ऄफ़सर ग़ुस्से से चीख़ता है । कफर रुक कर, थोड़े संयत स्वर मं वह कहता है, " ककतने बदमाश हं ... सब के सब ! " और मज़ाक करने की कोिशश करते हुए वह अगे बोलता है, "लगता है, सब ने क़सम खा ली है कक या तो तुम्हं धके लना है या कफर तुम्हारे घोड़े के नीचे अ कर ही दम लेना है ! " कोचवान योना मुड़ कर ऄफ़सर की ओर देखता है । ईसके होठ ज़रा-सा िहलते हं । शायद वह कु छ कहना चाहता है । "क्या कहना चाहते हो तुम ? " ऄफ़सर ईससे पूछता है । योना ज़बदास्ती ऄपने चेहरे पर एक मुस्कराहि ले अता है, और कोिशश करके फिी अवाज़ मं कहता है, "मेरा आकलौता बेिा बाररन आस हफ़्ते गुज़र गया साहब ! " "ऄच्छा ! कै से मर गया वह ? " योना ऄपनी सवारी की ओर पूरी तरह मुड़ कर बोलता है, " क्या कहूँ, साहब । डॉक्िर तो कह रहे थे, िसफ़ा तेज़ बुखार था। बेचारा तीन कदन तक ऄस्पताल मं पड़ा तड़पता रहा और कफर हमं छोड़ कर चला गया ... भगवान की मज़ी के अगे ककसकी चलती है ! " "ऄरे , शैतान की औलाद, ठीक से मोड़ !" ऄँधेरे मं कोइ िचवलाया, "ऄबे ओ बुड्ढ,े तेरी ऄक़्ल क्या घास चरने गइ है ऄपनी अँखं से काम क्यं नहं लेता ?" "ज़रा तेज चलाओ घोड़ा ... और तेज ..." ऄफ़सर चीख़ा, “नहं तो हम कल तक भी नहं पहुँच पाएँगे ! ज़रा और तेज !" कोचवान एक बार कफर ऄपनी गदान ठीक करता है, सीधा हो कर बैठता है और रुखाइ से ऄपना चाबुक िहलाता है । बीचबीच मं वह कइ बार पीछे मुड़ कर ऄपनी सवारी की तरफ़ देखता है , लेककन ईस ऄफ़सर ने ऄब ऄपनी अँखं बंद कर ली हं । साफ़ लग रहा है कक वह आस समय कु छ भी सुनना नहं चाहता । ऄफ़सर को िवबोगा पहुँचा कर योना शराबख़ाने के पास गाड़ी खड़ी कर देता है, और एक बार कफर ईकड़ूँ हो कर सीि पर दुबक जाता है । दो घंिे बीत जाते हं । तभी फु िपाथ पर पतले

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रबड़ के जूतं के िघसने की ' चूँ-चूँ , चं-चं' अवाज़ के साथ तीन लड़के झगड़ते हुए वहाँ अते हं । ईन ककशोरं मं से दो लंबे और दुबले-पतले हं जबकक तीसरा थोड़ा कु बड़ा और नािा है । "ओ गाड़ीवाले ! पुिलस िब्रज चलोगे क्या?" कु बड़ा लड़का कका श स्वर मं पूछता है । "हम तुम्हं बीस कोपेक दंगे ।" * * * योना घोड़े की लगाम खंचकर ईसे अवाज़ लगाता है, जो चलने का िनदेश है । हालाँकक आतनी दूरी के िलए बीस कोपेक ठीक भाड़ा नहं है, पर एक रूबल हो या पाँच कोपेक हं, ईसे ऄब कोइ एतराज़ नहं ... ईसके िलए ऄब सब एक ही है । तीनं ककशोर सीि पर एक साथ बैठने के िलए अपस मं काफ़ी गाली-गलौज और धक्कम-धक्का करते हं । बहुत सारी बहस और बदिमज़ाजी के बाद ऄंत मं वे आस नतीजे पर पहुँचते हं कक कु बड़े लड़के को खड़ा रहना चािहए क्यंकक वही सबसे रठगना है । "ठीक है, ऄब तेज़ चलाओ !" कु बड़ा लड़का नाक से बोलता है । वह ऄपनी जगह ले लेता है, िजससे ईसकी साँस योना की गदान पर पड़ती है । "तुम्हारी ऐसी की तैसी ! क्या सारे रास्ते तुम आसी ढंचू रफ़्तार से चलोगे ? क्यं न तुम्हारी गदान ... !" "ददा के मारे मेरा तो िसर फिा जा रहा है," ईनमं से एक लम्बा लड़का कहता है ।" कल रात दंकमासोव के यहाँ मंने और वास्का ने कंयाक की पूरी चार बोतलं चढ़ा लं ।" "मुझे समझ मं नहं अता कक अिख़र तुम आतना झूठ क्यं बोलते हो? तुम एक दुि व्यि​ि की तरह झूठे हो !" दूसरा लम्बा लड़का ग़ुस्से मं बोला । "भगवान क़सम ! मं सच कह रहा हूँ ! " "हाँ, हाँ, क्यं नहं ! तुम्हारी बात मं ईतनी ही सच्चाइ है िजतनी आसमं कक सुइ की नोक मं से उँि िनकल सकता है !" "हं, हं, हं ... अप सब ककतने मज़ाकक़या हं !" योना खीसं िनपोर कर बोलता है । "ऄरे , भाड़ मं जाओ तुम !" कु बड़ा क्रुि हो जाता है।" बुढ़उ, तुम हमं कब तक पहुँचाओगे? चलाने का यह कौन-सा ISSN –2347-8764

तरीका है ? कभी चाबुक का आस्तेमाल भी कर िलया करो ! ज़रा ज़ोर से चाबुक चलाओ, िमयाँ ! तुम अदमी हो या अदमी की दुम !" योना यूँ तो लोगं को देख रहा है, पर धीरे धीरे ऄके लेपन का एक तीव्र एहसास ईसे ग्रसता चला जा रहा है । कु बड़ा कफर से गािलयाँ बकने लगा है । लम्बे लड़कं ने ककसी लड़की नादेज़्दा पेिोवना के बारे मं बात करनी शुरू कर दी है । योना ईनकी ओर कइ बार देखता है । वह ककसी क्षिणक चुप्पी की प्रतीक्षा के बाद मुड़कर बुदबुदाता है, "मेरा बेिा...आस हफ़्ते गुज़र गया ।" "हम सबको एक कदन मरना है ।" कु बड़े ने ठं डी साँस ली और खाँसी के एक दौरे के बाद होठ पंछे ।" ऄरे , ज़रा जवदी चलाओ ... खूब तेज ! दोस्तो, मं आस धीमी रफ़्तार पर चलने को तैयार नहं । अिख़र आस तरह यह हम सबको कब तक पहुँचाएगा?" "ऄरे , ऄपने आस घोड़े की गदान थोड़ी गुदगुदाओ ! " "सुन िलया... बुड्ढे ! ओ नका के कीड़े ! मं तुम्हारी गदान की हि​ियाँ तोड़ दूँगा ! ऄगर तुम जैसं की ख़ुशामद करते रहे तो हमं पैदल चलना पड़ जाएगा ! सुन रहे हो न बुढ़उ ! सुऄर की औलाद ! तुम पर कु छ ऄसर पड़ रहा है या नहं?" योना आन शािब्दक प्रहारं को सुन तो रहा है, पर महसूस नहं कर रहा । वह 'हं, हं' करके हँसता है । "अप साहब लोग हं । जवान हं... भगवान अपका भला करे !" "बुढ़उ , क्या तुम शादी-शुदा हो?" ईनमं से एक लंबा लड़का पूछता है । "मं? अप साहब लोग बड़े मज़ाकक़या हं ! ऄब बस मेरी बीवी ही है... वह ऄपनी अँखं से सब कु छ देख चुकी है । अप समझ गए न मेरी बात । मौत बहुत दूर नहं है ... मेरा बेिा मर चुका है और मं सिज़दा हूँ ... कै सी ऄजीब बात है यह । मौत ग़लत दरवाज़े पर पहुँच गयी ... मेरे पास अने की बजाए वह मेरे बेिे के पास चली गयी ... " योना पीछे मुड़कर बताना चाहता है कक िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

ईसका बेिा कै से मर गया ! पर ईसी समय कु बड़ा एक लम्बी साँस खंच कर कहता है , "शुक्र है खुदा का ! अिख़र मेरे सािथयं को पहुँचा ही कदया !" और योना ईन सबको ऄँधेरे फािक के पार धीरे -धीरे ग़ायब होते देखता है । एक बार कफर वह खुद को बेहद ऄके ला महसूस करता है । सन्नािे से िघरा हुअ... ईसका दुख जो थोड़ी देर के िलए कम हो गया था, कफर लौि अता है, और आस बार वह और भी ताक़त से ईसके हृदय को चीर देता है । बेहद बेचैन हो कर वह सड़क की भीड़ को देखता है, गोया ऐसा कोइ अदमी तलाश कर रहा हो जो ईसकी बात सुने । पर भीड़ ईसकी मुसीबत की ओर ध्यान कदए िबना अगे बढ़ जाती है । ईसका दुख ऄसीम है । यकद ईसका हृदय फि जाए और ईसका दुख बाहर िनकल अए तो वह मानो सारी पृथ्वी को भर देगा। लेककन कफर भी ईसे कोइ नहं देखता। योना को िाि लादे एक क़ु ली कदखता है । वह ईससे बात करने की सोचता है । "वक़्त क्या हुअ है, भाइ?" वह क़ु ली से पूछता है । "नौ से ज़्यादा बज चुके हं । तुम यहाँ ककसका आं तज़ार कर रहे हो? ऄब कोइ फ़ायदा नहं, लौि जाओ ।" योना कु छ देर तक अगे बढ़ता रहता है, कफर ईकड़ूँ हालत मं ऄपने ग़म मं डू ब जाता है । वह समझ जाता है कक मदद के िलए लोगं की ओर देखना बेकार है । वह आस िस्थित को और नहं सह पाता और 'ऄस्तबल' के बारे मं सोचता है । ईसका घोड़ा मानो सब कु छ समझ कर दुलकी चाल से चलने लगता है । *** लगभग डेढ़ घंिे बाद योना एक बहुत बड़े गंद-े से स्िोव के पास बैठा हुअ है । स्िोव के अस-पास ज़मीन और बंचं पर बहुत से लोग खरा​ािे ले रहे हं । हवा दमघंिू गमी से भारी है । योना सोये हुए लोगं की ओर देखते हुए खुद को खुजलाता है... ईसे ऄफ़सोस होता है कक वह आतनी जवदी क्यं चला अया । अज तो मं घोड़े के चारे के िलए भी नहं कमा पाया -- वह सोचता है ।

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एक युवा कोचवान एक कोने मं थोड़ा ईठकर बैठ जाता है और अधी नंद मं बड़बड़ाता है । कफर वह पानी की बालिी की तरफ़ बढ़ता है । "क्या तुम्हं पानी चािहए?" योना ईससे पूछता है । "यह भी कोइ पूछने की बात है ?" "ऄरे नहं, दोस्त ! तुम्हारी सेहत बनी रहे ! लेककन क्या तुम जानते हो कक मेरा बेिा ऄब आस दुिनया मं नहं रहा ... तुमने सुना क्या? आसी हफ़्ते ... ऄस्पताल मं ... बड़ी लम्बी कहानी है ।" योना ऄपने कहे का ऄसर देखना चाहता है , पर वह कु छ नहं देख पाता । ईस युवक ने ऄपना चेहरा िछपा िलया है और दोबारा गहरी नंद मं चला गया है । बूढ़ा एक लम्बी साँस ले कर ऄपना िसर खुजलाता है । ईसके बेिे को मरे एक हफ़्ता हो गया लेककन आस बारे मं वह ककसी से भी ठीक से बात नहं कर पाया है । बहुत धीरे -धीरे और बड़े ध्यान से ही यह सब बताया जा सकता है कक कै से ईसका बेिा बीमार पड़ा, कै से ईसने दुख भोगा, मरने से पहले ईसने क्या कहा और कै से ईसने दम तोड़ कदया । दफ़्न के वक़्त की एक-एक बात बतानी भी ज़रूरी है और यह भी कक ईसने कै से ऄस्पताल जा कर बेिे के कपड़े िलए । ईस समय ईसकी बेिी ऄनीिसया गाँव मं ही थी । ईसके बारे मं भी बताना ज़रूरी है । ईसके पास बताने के िलए आतना कु छ है । सुनने वाला ज़रूर एक लम्बी साँस लेगा और ईससे सहानुभूित जताएगा । औरतं से बात करना भी ऄच्छा है, हालाँकक वे बेवक़ू फ़ होती हं । ईन्हं रुला देने के िलए तो भावुकता भरे दो शब्द ही काफ़ी होते हं । चलूँ ... ज़रा ऄपने घोड़े को देख लूँ - योना सोचता है । सोने के िलए तो हमेशा वक़्त रहेगा । ईसकी क्या परवाह ! वह ऄपना कोि पहन कर ऄस्तबल मं ऄपने घोड़े के पास जाता है । साथ ही वह ऄनाज, सूखी घास और मौसम के बारे मं सोचता रहता है । ऄपने बेिे के बारे मं ऄके ले सोचने की िहम्मत वह नहं जुिा पाता है । "क्या तुम डिकर खा रहे हो?" योना ऄपने घोड़े से पूछता है ... वह घोड़े की चमकती अँखं देखकर कहता है, "ठीक है , जमकर खाओ । हालाँकक हम अज ऄपना ऄनाज नहं कमा सके , पर कोइ बात नहं । हम सूखी घास खा सकते हं । हाँ, यह सच है । मं ऄब गाड़ी चलाने के िलए बूढ़ा हो गया हूँ ... मेरा बेिा चला सकता था । ककतना शानदार कोचवान था मेरा बेिा । काश, वह जीिवत होता !" एक पल के िलए योना चुप हो जाता है । कफर ऄपनी बात जारी रखते हुए कहता है, " हाँ, मेरे प्यारे , पुराने दोस्त । यही सच है । कु ज्या योिनच ऄब नहं रहा । वह हमं जीने के िलए छोड़कर चला गया । सोचो तो ज़रा, तुम्हारा एक बछड़ा हो, तुम ईसकी माँ हो और ऄचानक वह बछड़ा तुम्हं ऄपने बाद जीने के िलए छोड़कर चल बसे । ककतना दुख पहुँचेगा तुम्हं, है न?" ईसका छोिा-सा घोड़ा ऄपने मािलक के हाथ पर साँस लेता है, ईसकी बात सुनता है और ईसके हाथ को चािता है । ऄपने दुख के बोझ से दबा हुअ योना ईस छोिे-से घोड़े को ऄपनी ISSN –2347-8764

सारी कहानी सुनाता जाता है । ~✽~ A-5001, गौड़ ग्रीन िसिी, वैभव खंड, आं कदरापुरम, ग़ािज़याबाद 201014(ई.प्र.)मो: 8512070086 sushant1968@gmail.com

लघुकथा

ऄपना ऄपना भाग्य िप्रयंका िप्रयदशानी

'सब पूवा जन्म के कमं का फल है भाइ ! जो उपर वाले की मज़ी है वो होकर रहेगा, चाहे कोइ कु छ भी कहे मं तो यही मानता हूँ। ' काशीनाथ ने ऄपने िमि रामदयाल से कहा। 'ऄब देखो तुम्हारी िसफा एक बेिी है और मेरे चार बेिे हं, सब ऄपना ऄपना भाग्य है, कोइ आसे िमिा नहं सकता…' कहते हुए काशीनाथ ने एक व्यंग भरी कु रिल मुस्कान िबखेर दी। ये बातं सुनकर रामदयाल का चेहरा गुस्से से लाल पड़ गया, ईसके पैरं तले की ज़मीन िखसक गइ। ईसे ऄपने करीबी िमि से ऐसी ईम्मीद नहं थी, ऐसा लगा जैसे ईसे ककसी ने सामने से तमाचा मारा हो। खैर, समय वायु के वेग से ईड़ गया। ऄब बीस साल बाद। रामदयाल ने ऄपने हाथं मं िनमंिण पि िलए काशीनाथ के दरवाजे पर दस्तक कदया। दरवाजा खुला । सामने काशीनाथ थे । रामदयाल को देखकर वह थोड़ा हड़बड़ा गए लेककन ऄगले ही पल ईनके चेहरे पर मुस्कान तैर गइ । ऐसा लगा जैसे ककसी मुदे मं जान अ गइ हो । 'कहो कै से अना हुअ रामदयाल?' काशीनाथ ने जवदबाजी मं प्रश्न ककया । मानं वह ऄपने िमि को शीघ्र यहाँ से रवाना कर देना चाहता हो कक कहं ईसका कोइ भेद न खुल जाए। रामदयाल ने िनमंिण पि देते हुए कहा; 'अज मेरा 60वां जन्मकदन है, मेरी बेिी और दामाद आसे भव्य तरीके से मनाने की तैयारी मं हं। मंने रोका भी कक आसकी क्या जरुरत है, लेककन अजकल के बच्चे कहाँ मानने वाले हं ! कहते हुए रामदयाल हंस पड़े। तभी काशीनाथ के घर से ककसी मिहला की कका श सी अवाज़ अइ…. आस बूढ़े को फु सात नहं है मिरगश्ती करने से । बाज़ार से सामान लाना तो दूर, झाड़ू -पोछा भी नहं ककया ऄभी तक । रामदयाल को समझते देर न लगी कक ईसका िमि चार बेिे और बहुओं के होते हुए भी नका भरा जीवन गुजार रहा है। ईसने ऄपने िमि को गले से लगा िलया, लेककन काशीनाथ बेहद शर्लिमदा था। बीस साल पहले ककये गए ऄपने वता​ाव पर... लेककन ईसने कफर वही बात दुहराइ 'सबका ऄपना ऄपना भाग्य है !' किकतु अज बीस साल बाद ईस बात के मायने बदल गए थे। ~✽~

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तीन किवताएं डॉ. िववेक सिसह 1. सपनं मं सीमाओं के परे सपनं मं सीमाओं के परे ईन्मुि होकर िसफा तेरा िवचरण है जाने ऄिभव्यि​ि की ये कै सी पररभाषा है जब तक तुम से यूँ िमला न था सब कु छ िबखरा हुअ सा था शब्द भाव ऄथा सब गौण थे..... नये ऄहसास, मेरा मौन और मन पर तेरी महक तेरी सांसं की नमा अहि मेरी धड़कनं से सुर िमला रही है धड़कनं के धीमे और तेज होते सुर गीत नया गुनगुना रही है क्या तुम ईन्हं सुन रही हो मेरे सपनं मं रोज अकर ऄपनी मुस्कराहि की खनक से पल मं खुशबू सी महका जाती हो ऄचानक ये क्या हो रहा है मुझे कै सा ये ऄजनबी ऄहसास है आसे क्या नाम दूं या सब कु छ भूलकर खुद को सौप दूं आसे.... ऄब बस एक आं तजार है शायद जब तुम मेरे साथ हो तरं गो को थाम लूं तेरे चेहरे को छू लूं देखो ना कै सी एक नयी दुिनया बसा ली है, हमने ! जहाँ दूर दूर तक िसफा सिजदगी बहती हो ऄनवरत ऄिवरल बस यही मेरी सारी दुिनया है तुमसे तुम तक मुझमं मुझ तक सुनो मेरे आन शब्दं को ISSN –2347-8764

ऄपने मन के ककसी कोने मं सहेज लो शब्दं के भाव स्मृितयं की महक जीवन के गुरुत्वाकषाण तक अती रहंगी.....'बैरागी' ♦ 2. प्रकृ ित मं समता के स्वर प्रकृ ित मं समता के स्वर महासागरं रे िगस्तान जंगल दलदली भूिम पहाड़ं पर दूर तक फै ली घारियं मं पिक्षयं का चहकना कलरव करती नकदयां लहराते पेड़ ओस की बूंदं पर प्रितसिबिबत होता सूरज प्रकाश का एक क्षेि चीड़ के पेड़ं के बीच समपाण और मुस्कान सा कल का स्पशा िलए अज आस हवा मं साँस लेकर खुद को जीिवत महसूस कर रहा हूँ क्या ऄद्भुत जीवन है.....'बैरागी' ♦ 3. एक मूक कोलाहल एक मूक कोलाहल मन भर देश भर मं नफरत की ज्वाला मं धधक रही मानवता है... गूँज पकड़ने प्रकाश पुंज की राख हुअ लावा है िु कड़ा िु कड़ा िबखरा है कानून बेचारा ऄंधा है सबका ऄपना धंधा है आसे अरम्भ कहूँ या ऄंत या कफर कह दूँ ऄलिवदा.....'बैरागी' ♦ इ.मेल : vivek.views@gmail.com िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

गज़ल ऄिमत वाघेला 'काफ़ी'

प्यार के दो ताज थे ख़त मं वि के सब राज़ थे ख़त मं । कै द होकर भी खयालं मं पंख सं अजाद थे ख़त मं । साफ मुझको कदख रहा था ये अज वो हैरान थे ख़त मं । दोनं ने िमलकर िलखा होगा चाँद के भी दाग थे ख़त मं । पढ़ के , कदल को चुभने ही थे काँच के ऄवफाज़ थे ख़त मं । ~✽~

Plot no.119,Apang Pariwar Vasahat, Sidsar road, Bhavnagar-364002 (Gujarat) ~✽~

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गीत

िवचार वीिथका प्रो. बसन्ता

डॉ. कृ पा शंकर शमा​ा 'ऄचूक'

सर पर मुकुि रखे जो राजा कांिो की भी चुभन रहेगी । सुन्दर-सुन्दर शैया पर भी सिचताओं की तपन रहेगी ।।

एक और भ्रम जी लो भाइ, शाम सुनहरी है रात ऄमावस की ऄंिधयारी, ककतनी गहरी है ।। पता नहं दरपन मं तेरा रूप ऄरूप लगे चन्दन सी मधुमस्त सुगंधी शायद धूप लगे डाल-डाल औ पात-पात भी, लगता बहरी है एक और भ्रम जी लो भाइ, शाम सुनहरी है ।।

ऄगर दुि राजा बन बैठा जनता को भी घुिन रहेगी । यकद राजा ईदार हो जाये सभी जगह सुख शांित रहेगी ।। नारी यकद कु लिा हो जाये समाज-शुिचता नहं रहेगी । दया-क्षमा यकद लुप्त हो गयी मानवता ऄवरुि रहेगी ।।

जाने कै सी हवा वह चली सूखी कली-कली छू कर नहं देख हम पाते हाथं से मसल कब से जाने समय खड़ा बनकर के प्रहरी है एक और भ्रम जी लो भाइ, शाम सुनहरी है ।।

बेिा यकद कु पुि हो जाये िपता की गररमा नहं रहेगी । बेिा यकद सुपुि हो जाये कइ पीकढयां गवा करे गी ।।

डेरा डाले ति पर बैठे कब से मछु अरे अँख िमचौली कौन खेलता हारे के हारे दाना पानी खूब ति पड़ा, िहरना शहरी है एक और भ्रम जी लो भाइ, शाम सुनहरी है ।। बीत रही बे-होश ईमररया सारी की सारी कं िक भरा 'ऄचूक' रास्ता कै सी लाचारी पूजा िजसकी करते अए िवषधर ज़हरी है एक और भ्रम जी लो भाइ, शाम सुनहरी है ।। ~✽~ 38-ए-, िवजय नगर, करतार पुरा, जयपुर- 302006 kripashankarachuk@gmail.com Mo. 099838 11506 ~✽~

ISSN –2347-8764

बादल यकद िनष्ठु र हो जाये हररयाली भी नहं रहेगी । मानव यकद दयालु हो जाये सभी जगह रसधार बहेगी ।। मन पर यकद ऄंकुश हो जाये ऄमल अत्मा बनी रहेगी । परिहत भाव ऄगर अ जाये कदव्य ज्योित जलती रहेगी ।। लालच लोभ ऄगर िमि जाये शुि चेतना बनी रहेगी । इिर स्मृित बनी रहे तो काल सर्चपणी नहं डसेगी ।। ~✽~ ऄध्यक्ष, ऄंग्रेजी िवभाग, सरदार ववलभभाइ पिेल महािवद्यालय, भभुअ (कै मूर), 821101 (िबहार) Mo. 09430581246 basanta533@gmail.com

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कहानी

ऄनजानी मोहब्बत डॉली ऄग्रवाल

मौसम बड़ा ही ख़ुशगवार हो गया था, नेहा कॉलेज के िलए तैयार हो रही थी । गुनगुनाते हुए बाल बनाते हुए माँ से बोली अज एक्स्ट्रा क्लास है देर हो जायेगी । ककताब ईठा घर से िनकल पड़ी, मौसम की रुमािनयत मं अधे रास्ते पहुँची ही थी की ऄचानक से हलकी सी बाररश तेज़ हो गयी । नेहा खुद को कोस रही थी की जवदी मं छाता लाना भूल गयी, और हवा आतनी तेज़ की सब ईड़ा कर ले जाने को तैयार । नेहा दुपट्टा कस कर पकड़ कु छ सोच ही रही थी की सामने सड़क के ईस पार ककसी का ऑकफस नजर अया । ईसने ऄपने तेज़ कदम ईसी और बढ़ा कदए । ऑकफस की िखड़की के नीचे, एक तरफ खड़ा होकर ईसने दुप्पिे से चेहरा पूछा और बालो को भी िनचोड़ िलया । सूि थोडा गीला हो गया था । नेहा का कदमाग बाररश रुकने और क्लास िमस होने मं लगा था, बार बार घड़ी देख रही थी । कही दो िनग़ाहं ईसे देख रही थी । ऑकफस के ऄंदर बैठा राज नेहा को ऄपलक देखे जा रहा था । गेि पर काले शीशे होने से वो बहार का देख सकता था, बाहर वाला ईसे नहं । गीले गीले बालो मं नेहा का मासूम चेहरा और भी प्यारा लग रहा था । थोड़ी देर मं बाररश रुकी तो नेहा ककताबो को हाथ मं ईठा तेज़ी से कॉलेज की तरफ भागी । ऄभी भी दो पीररयड बाकी थी । M. Com. का फाआनल साल था । तेज़ी से जाते हुए ईसका लाआब्रेरी का काडा वही िगर गया िजस पर ईसका ध्यान नही गया । ईसके जाने के बाद राज जैसे ही बहार अया ईसकी नजर काडा पर पड़ी । ईसकी फ़ोिो और फ़ोन नंबर और पता ईसे िमल गया था । ईसने काडा नोकर के हाथ कॉलेज मं जमा करवा कदया । ऄब राज रोज ईसका आं तजार करता और अते जाते देखता था, ISSN –2347-8764

नेहा ईसके मन को भा गयी थी । नेहा के िपता को वो जानता था । एक बहुत ही सज्जन आं सान थे आसिलए वो कभी सामने अने की िहम्मत न कर सका । एग्जाम से पहले कॉलेज बन्द हो गए नेहा का अना भी बन्द हो गया । 2 कदन से ईसने नेहा को नही देखा था िहम्मत कर ईसने फ़ोन कर कदया । अप कौन ? नेहा की अवाज पहली बार सुनी । जी, बस यूँही फ़ोन लग गया था । हद है बतमीजी की, अप लोगं को बहाना चािहए, लड़की की अवाज सुनी नहं और ड्रामे शुरू । अआन्दा यहाँ फ़ोन ककया तो ऄच्छा न होगा । नेहा की एक दोस्त थी, वीणा ! एक बार नेहा ने वीणा के घर ककसी लड़के को देखा था, सुंदर, हंडसम ! पहली ही नजर मं वो ईसे भा गया था ! वीणा से पता चला वो ईसके भाइ का दोस्त है । जब से ईसने ईसे देखा था तो दुअ करती की वो ईसे िमल जाए । एक बार िपकिनक का प्रोग्राम बना ईसमे नेहा और दूसरी लड़ककया भी शािमल थी! वीणा की माँ ने वीणा के भाइ राहुल से कहा ऄके ली लड़ककया जायेगी । दूसरी गाडी से तू भी चला जा, जमाना ऐसे ही ख़राब है । राहुल ने राज को फ़ोन करके चलने को कहा । ऄके ले बोर हो जाउंगा । नदी के ककनारे पहुचे तो राहुल और राज सामान िनकालने लगे। नेहा ने राज को देखा तो मन ख़ुशी से झूम ईठा । ईधर राज भी नेहा को वहा देख खुश था । लेककन दोनं एक दूसरे के कदल से ऄन्जान ? राज को देख नेहा के मन मं ख्याल अया -"कभी कभी दुअऐं ऐसे पूरी हो जाती है जैसे पलको का अँखं से िमलना" ऄब हर वि ख्वाबो मं िमलना पर ऄनजाने मन ! नेहा राज को और राज नेहा को प्यार करते रहे पर बेखबर ! क्या बताये

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होते ही ईसे घर मं ऄपनी शादी की बात सुनाइ देने लगी । मन डू बने लगा नेहा का । कइ बार मन हुअ माँ को राज के बारे मं बता दे पर िहम्मत ना हुइ । रात ककतनी बार यूँही अँखं मं कि जाती थी, कु छ कदन बात पता चला की आतवार को देखने लड़के वाले अएंगे । पहले िसफा माँ िपता ही पसंद करं गे । ईनकी हां के बाद ही ईनका लड़का िमलेगा । कही ककसी होिल मं लड़के के माँ बाप अये और नेहा को िमले । नेहा तुम बहुत प्यारी हो, मेरे बेिे की पसंद हो और हमे भी पसंद हो । लड़के की माँ ने कहा तो, नेहा सुन कर मन ही मन परे शान हो ईठी, नेहा को बहुत रोना अ रहा था। एक ख्याल गुनगुना ईठा राज के िलये तुम िबन गुम सी बेरंग सी मं साथ मेरे पर साथ नही, तुमसे हारी मं अधे मुझ मं तुम हो बसते तुम िबन अधी - ऄधूरी सी मं ! लड़के के िपता बोले; हमे नेहा पसंद है एक बार हमारा बेिा ऄके ले मं बात करना चाहता है, वो नीचे गाडी मं है । िपताजी की सहमित के बाद लड़के को फ़ोन कर उपर अने को कहा और खुद सब कमरे से बहार अ गए । सबके बहार जाते ही नेहा की अँखं से ऄिके अँसू िपक पड़े । ककसी की दरवाजे पे अहि सुन कमर घूमा नेहा अँखे साफ़ करने लगी । तभी कमरे मं अवाज गूँजी - अप कौन ? जी बस यूँही फ़ोन लग गया था । ईफ़्फ़्फ़ ऄपनी अवाज सुन नेहा पलिी तो सामने राज को देख नेहा अश्चया से भर ईठी थी । भाग कर नेहा राज के गले से लग कर रोने लगी और बोली; राज मं तुमसे प्यार करती हूँ, बहुत ज्यादा । मुझे यहाँ से ले जाओ । ऄब चौकने की बारी राज की थी, और कफर राज ने वो सब कहा जो नही कह सका था। फ़ोन, बाररश मुलाकात सब । और नेहा राज िखलिखला ईठे । प्यार की चमक नेहा के गालो को छू रही थी ! ~✽~

ISSN –2347-8764

नइ कलम

किवता तन्वी सिसह लौि अओगे क्या तुम ईन रास्तं पर, जहाँ हर वि मै तेरा आंतजार करती थी! कफर रहने अओगे ईस िूिे अिशयाने मं, अँखे जहाँ हर वि तेरा दीदार करती थी! बंजर जमं पे कफर फू ल िखलाओगे क्या, जो हर रोज़ राहं को खूशबूदार करती थी! सूखे पौधं पे कफर से बरसात करोगे क्या, जो हर ककसी राही को छायादार करती थी! ईस ऄँधेरी रात मे चाँद की रोशनी भरोगे क्या, जहाँ बैठ हर कदन मं तुझसे आजहार करती थी! ऐ जानेवाले एक बार सामने अकर तो देखो, खामोशी बयाँ करे गी ककतना प्यार करती थी ! ~✽~

किवता

कािलदास रे णु िमश्रा

अह्ववाकदत हुअ िवि व ईपकृ त तुमसे हुअ पर तुम्हारे ईस खिण्डत मन का क्या हुअ क्या कोइ मलहम लगा ईस ठे स को हो ितरस्कृ त और ऄपमािनत हुइ क्या पूर्चत ईस ऄवहेिलत प्रेम की िवद्योिमा से .., िवि को तुमने कदया यूँ तो बहुत मूखाता के अक्षेप से तुम बिहष्प्कृत हुए!! पर क्या तुम्हारी अत्मा भी तृप्त हो सकी हो व्यिथत,खिण्डत व्याकु ल मन िलए , मूवय तुम्हारा िवद्योिमा को क्या ऄवगत काली के चरणं मं तब शरणागत हुए ! हुअ हुइ कृ पा देवी की तुम पर जब ऄसीम ऄपनी गलती का भान ईसे कोइ हुअ ? संस्कृ त के प्रखर िविान बन अलोककत हुए जैसे िवि को तुमने अह्लाकदत ककया , कर ती रचना तुमने कइ महाकाव्य की क्या तुम्हारा मन भी प्रफु िवलत हो सका ? महाकिव कालीदास नाम से भािषत हुए ईस संताप से मुि क्या कभी तुम हो सके मेघदूत, ऄिभज्ञानशाकुं तलम् धरोहर हुए यह प्रश्न ज़हन मं मेरे ऄनवरत रहा !! रघुवंशम् व कु मारसम्भव भी संभव हो सके ! ~✽~ िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

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संस्मरण लेख मेरे मरने के बाद मेरी कहािनयं का नोरिस िलया जाएगा - अलमशाह खान

हम ऄहले सफा मदूद ा े हरम िहमांशु पंड्या 70 के दशक मं िजन्हंने 'साररका' पि​िका पढ़ी होगी वह कथाकार अलमशाह खान को नहं भूल सकता । ईनकी एक कहानी 'ककराए की कोख' के िखलाफ ककतने पि छपे थे, ईनको धमककयाँ िमला करती थी । ईनकी हर कहानी से ईस दौर मं सामािजक संतुलन का नािक भंग होता था । वे सच्चे ऄथं मं सबाविना के लेखक थे, दुभा​ाग्य से अज ईनको लगभग भुला कदया गया है । प्रखर युवा अलोचक िहमांशु पंड्या का यह लेख पढ़ा तो ऄचानक ईनकी कहािनयं की याद अइ जो एक ज़माने मं खूब वाद-िववाद पैदा करती थी । अप भी पकढ़ए । यादगार लेख- पंकज ि​िवेदी वी शुड नॉि डेजिा ऄवर ओन क्लास ! हम यकद गरीब मध्य वगा अलमशाह खान ने आनकी सिजदिगयं को नज़दीक से देखा और मं पैदा हुए हं तो ईसकी भाव िस्थितयं को जरूर बताएंगे। ईनके सच्चे िचि हमारे सामने प्रस्तुत ककये हं। प्रश्न िवषय का भी है और दृि​िकोण का भी। हममं से बहुतेरे हािशए के आं सान को लेकर िलखी गयी िहन्दी की कालजयी उपर की श्रेणी मं िमल गए हं। वे हमारी भावनाएं प्रकि नहं कृ ितयाँ याद कीिजये। दाज्यू, सिज़दगी और जंक, गुलकी बन्नो, करते, कोइ दूसरी दृि​ि प्रकि करना चाहते हं । साग मीि, िेपचू, नैनसी का धूड़ा..... आन सभी कहािनयं मं ग.मा.मुि​िबोध, एक सािहित्यक की और अलमशाह खान िारा िलखी गयी सभी डायरी आतना सजग और संवेदनशील (और मं ये बात जोर देकर कह रहा हूँ, सभी) व्यि​ि जब कहानी िलखता है तो ईसकी कहािनयं मं एक मूलभूत ऄंतर है। ये सारी िीस ककराए की कोख का सृजन करती है कहािनयां या तो ककसी मध्यवगीय पाि के और िगि दृि​ि अवाज़ की ऄरथी जैसी ईवाच मं िलखी गयी कहािनयां हं या आनमं ऄथापण ू ा कहानी का सृजन करती है। ईसकी स्वयं लेखक नैरेिर बनकर बतकही के ऄंदाज़ भाषा मं एक पररश्रमी कलाकार का मं घिनाओं-पररिस्थितयं का िववरण प्रस्तुत पसीना बोलता है और ईसकी सूक्ष्यम करता है। यह मध्यवगीय दृि​ि, िनम्नवगीय िनरीक्षण शि​ि दूसरे रचनाकारं के िलए पाि की दारुण जीवनपररिस्थितयं के प्रित इष्प्या​ा का िवषय हो सकती है। करुणा पैदा करने मं सफल रहती है, दो िभन्न स्वयं प्रकाश, हमसफ़रनामा अलमशाह वगा के पािं के कारण ऄंतर्चवरोध ( कं ट्रास्ि ) खान हािशए के लोगं के जीवन संघषा के भी ईभर पाता है और मध्यवगीय सचेतनता गायक हं। हमारे िहन्दी संसार मं सदा ही के कारण बहुधा एक वैचाररक पररप्रेक्ष्यय भी जनपक्षधरता की बात की जाती रही है। िमल पाता है। लेककन - िजस हािशए के अलमशाह खान डीक्लास होना अदशा चाहे हो ककन्तु आं सान की व्यथा कथा कहने की कोिशश आस स्वातंत्र्योिर िहन्दी कहानी मध्यवगीय पररिध को यदा कदा कहानी ने की, ईसके मन की थाह नहं िमल पाती। ही लांघती कदखी है। ऐसे िगने चुने नाम जब भी िलए जायंगे आसी सिबदु पर अलमशाह खान सबसे ऄलग हं। िविशि । िजन्हंने िनम्नवगीय पािं को के न्र मं रखकर कहािनयां िलखं अलमशाह खान की कहािनयं मं कोइ नैरेिर नहं है। वे पािं तो ईनमं अलमशाह खान का नाम हमेशा अएगा। ईनकी की ऄपनी भाषा मं ईनकी व्यथा कथा कहते हं। रे णु के यहाँ भी कहािनयं का ऄस्सी फीसदी संसार सिज़दगी की तलछि मं जी ऐसे पाि ऄपनी भाषा बोली के साथ अये लेककन ईनके यहाँ रहे लोगं से बना है। ईन्हंने ऐसे ऐसे पािं को ऄपनी रचना आस जीवन की रूमानी मुग्धकारी तस्वीरं हं, ईनकी जहालत का िवषय बनाया िजन्हं हम ऄपनी रोजमरा​ा की सिजदगी मं दो का ईवलेख प्रायः नहं है। अलमशाह खान की कहािनयं के पल ठहरकर ध्यान से भी नहं देखते। कु वफीवाले, कब्र पाि िनम्नवगीय सिज़दगी की तलछि मं जीने वाले हािशए के खोदनेवाले, स्वांग कदखाकर भीख मांगनेवाले, नालबंदी लोग हं। आनके पास ऄपनी दुःख-तकलीफ के वास्तिवक कारण करनेवाले, धूलधोए, कबाड़ी, कप-प्लेि मांजने वाले,यौनकमी - की िवश्लेषणात्मक समझ चाहे न हो पर ऄपनी तकलीफं को ISSN –2347-8764

िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

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बयान करने की भाषा जरूर है। यह भाषा बेहद लाईड है। झंकती-कलपती,गािलयाँ बकती, रोज की लड़ाइ के िलए ितकड़मं िभड़ाती भाषा। आस भाषा मं ऄपने प्रित करुणा पैदा करने का भी कोइ खास अग्रह नहं है, क्यंकक िजन लोगं से आनका संसार बना है, वे सारे आसी तलछि के सहभागी हं। ‘अवाज़ की ऄरथी’ मं यह संसार ऄपने पूरे तेवर के साथ मौजूद है. एक दूसरे के प्रित संशय रखते िमयाँ-बीवी, बेिे के सहारे ऄपनी पार लग जाने का जुगाड़ करते माँबाप, सौतेले बेिे को पोस्त िपलाकर रोकर रखने वाला बाप - क्या यह ऄितरं जनायुि यथाथावाद है ? या हमं आस दुिनया की पूरी ताब झेल सकने मं ऄसमथा हं ? कहं यह हमारा ग्लािनबोध तो नहं ? आन पािं की संवेदना का स्रोत आसिलए तो नहं सूख गया कक आन्होने हमसे जो पाया , प्रत्युिर मं अगे बढ़ाया ? ‘अवाज़ की ऄरथी’ का नरसिसघा जब ऄपनी माँ से एक बार ऄपने िहये की बात कहता भी है, “माइ री ! मं तो हंसने बोलने को तरस िगया। आस कठगोले से जबड़ा िपरा गया। ककसी दूसरे िहवले लगा दे न !” तो छग्गी का जवाब - “दूजा िहवला ? ऄपनी जनती को नचा चौपड़ पे। पर आस डायन को कौन देखे ?तू कौन मर जाएगा जो एक तनी दड़ी-गंद मूँ मं रख लेगा ?” स्पि कर देता है कक जहाँ खुद को बचाए रखना ही रोज की लड़ाइ है, वहाँ ककसी भी ऄपने के िलए करुणापूणा भाषा की ईम्मीद बेमानी है। भाषा का किखनापन दरऄसल पािं के जीने-जागने की पहचान है। यह ईनकी ऄदम्य िजजीिवषा है । हो सकता है कक मध्यवगीय वाचक ऄथवा पाि के िारा संप्रेिषत कु छ वाक्य कहानी की पक्षधरता, लेखक की प्रितबिता और सबसे बढ़कर एक व्यापक वैचाररक पररप्रेक्ष्यय दे पाते लेककन आस दृि​ि का प्रवेश न होने देना लेखक का एक सायास िनणाय है। आसके पीछे कहं न कहं ये िविास है कक िजस पररवेश को ऄपनी सम्पूणाता मं ईसने िचि​ित ककया है, ईसके बाद ककसी सामािजक-अर्चथक-राजनीितक िवश्लेषण की पृथक अवश्यकता नहं है। यह ऄपने पाठकं पर िविास की बात है । ISSN –2347-8764

प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ कहानी मं कदखाया था कक यह कामचोरी नहं है जो भूख का बायस बनती है बिवक यह भूख है जो जब देखती है कक मेहनत का िसला रोिी हो ही, यह कतइ जरूरी नहं – तो कामचोरी की ओर बढती है। अलमशाह खान की सतका नज़र ईन सामािजक-अर्चथक पररिस्थितयं को कदखाती चलती है िजनके चलते एक मनुष्प्य सामािजक पददिलतता की ढलान पर लुढकता जाता है. प्लािस्िक के िखलौनं से पिा बाज़ार ‘अवाज़ की ऄरथी’ के कागज़ के िखलौने बनाने वाले पररवार को बेरोजगार कर देता है तो ‘लोहे का खून’ के करीम का पुश्तैनी नालबंदी का पेशा बाज़ार मं िमलने वाले रे डीमेड पुजं की बिल चढ जाता है। बाज़ार की खािसयत यह है कक ईसके िनयम सदा ही छोिे िखलाड़ी के लाभांश को संकुिचत करते हुए बड़े िखलािड़यं की रक्षा मं सन्नि रहते हं। ‘सांस भइ कोयला’ की रमली आस राजनीित को जानती है, खेल के िनयम बदल भले न पाए, “मं बापुड़ी लगाउंगी अग ? वो भी हाि-बजार मं...देखो नी; अज तो एक ककलो कोयले का पूरा एक रुपा खुलवा िलया आस सिसधी मुए ने... हम बढ़ाएँ मजूरी मं एक चवन्नी तो िगराक के माथे सात सल चढं और बजार मं एक के दस ले ले बिनया तो कोइ नी पूछे ! यूं ही तो मर ररये हम; हाड़ तोड़ मजूरी करके भी।” स्वाभािवक है कक अलमशाह खान की कहािनयं मं प्रत्यक्ष खलनायक प्रायः नहं होते। ‘पंछी करे काम’ का सेठ या ‘दंडजीवी’ के महाराज जैसे पाि ईँ गिलयं पर ही हं। बहुतायत तो ‘अवाज़ की ऄरथी’ के फन्ने, ‘मुरादं भरा कदन’ के सिार या ‘ितनके का तूफ़ान’ के जबरे जैसे पािं की है जो स्वयं आस व्यवस्था के सताए हुए हं, आसका स्पि संकेत अलमशाह खान ऄपनी कहािनयं मं देते चलते हं। ‘जबरा, मंगत तोले का अगेवान। डीलडौल से ड्योढा होकर भी अधा अदमी था। एक पैर छोिा सिपडली तक; दूजा बड़ा और गंठला। एक हाथ ईसका सही तो दूसरा कोहनी तक ठूं ठ। एक अँख नापेद तो दूसरी अधी बंद, पर चमकदार और खाउ। वह एक मोिे लट्ढ के सहारे कू द कू द कर चलता था। लठ की गाँठ िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

उपर फं दी रुकी छोिी परिया पर रिकाकर िीले के भूख-े भीरू, नशेड़ी लतखोरे छोराछोरी, डंगे-हरामखोरं को हांकता था। सभी ईसकी डबक मं थे। ईसका लगाव जुड़ाव ककसी से था तो खुद से। वह कहता, “जब ईस ऄजाने-ऄनदेखे पत्थर मं पैठे देवभगवान ने मुझे अधा अदमी बनाकर जनम कदया तो मं ककसी दूसरे को क्यं पूरा देखूं-रखूँ। सबकी खंडत करूँगा। सबको तोडू ंगा-बखेरूंगा ।” (‘ितनके का तूफ़ान’) ‘अवाज़ की ऄरथी’ की छग्गी जब फन्ने को कोसती है कक वह नरसिसघा को हनुमान बनाकर ईसपर जुलुम आसिलए कर रहा है कक वह ईसका ऄपना बेिा नहं है तब फन्ने का कथन ईसकी प्रकि ऄमानवीयता के पीछे की िववशता को हमारे सामने रख देता है, “ऄरे ! मेरा तुखुम होता तो कौन राज करता ? आधर-ईधर मोिे-मानुस की सेवा-िहल मं खुिता, िमिमयाता डोलता या तेरी मेरी तजा पर भूखं मरता..... तू नी चाहे तो मुझे क्या पड़ी ? मं कफर छंके सिपजरे गढ़-गाँठ दूग ं ा, रद्दी कागज़-गिे के कफर मोर-िचिड़या बना दूंगा। िलए डोलना ईन्हं ईड़ाने-बेचने को... तू जाने ऄपनी तो डेढ़ िांग है, ईसे लेकर लंगड़ाता-लरठयाता चल भर सकूं हूँ ।” और आस संवाद के तत्काल बाद कहानीकार का व्यंग्य

गरीबी-संतोष-मेहनत-तरक्की की हमारी ककताबी समझ की कपालकक्रया कर देता है, ‘आतना बोल फन्ने ने पास िबखरे ‘मजबूत आरादा, कड़ी मेहनत, पक्का ऄनुशासन’ वाले पोस्िरं को सहेज िलया और िखलौनं के िलए क़तर-ब्यंत करने लगा।’ ‘अवाज की ऄरथी’ के स्वांग रचने वाले िभखमंगे हं या ‘लोहे का खून’ मं ट्रकं पर नाल िांकने वाला करीम - ये मेहनत से रोिी कमाने के पररिचत रास्तं पर ठोकर खाने के बाद ही आस रास्ते पर अये हं। ‘लोहे का खून’ के करीम को हम एक के बाद एक ककतने ही रोजगारं मं जुिते और ऄसफल होते देखते हं। सीमंि की बोररयां िसलने का धंधा माँ-बेिी के िलए खून की कै लाता है तो काले घोड़े की नाल िांगने का धंधा करीम के िलए ग्लािन। जहाँ िबरादरी

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से करीम को िधक्कार िमलती है वहं कचरू मोची और रामलखन से वह िमलता है िजसे समझना करीम जैसं के िलए सबसे जरूरी है – वगीय एकता की पहचान। यह िवडम्बना ईवलेखनीय है कक फन्ने (अवाज की ऄरथी) और करीम (लोहे का खून) को सबसे हुनरमंद हम तब पाते हं, जब वे अस्था के नाम पर झांसा देने का बूता लेकर िनकलते हं। वो जो बस स्िंड पर एक गूंगी होने का स्वांग करती लडकी अपके हाथ मं एक काडा थमा देती है, िजस पर ककसी फादर या मौलवी की ओर से अपके नाम मदद की ऄपील िलखी होती है या वो गांधी सर्ककल की रे ड लाइि पर शिनवार को एक तेलभरा बताननुमा लेकर लड़का अपको रोकता है, ऄब आन्हं कफर ध्यान से सुिनए। वे दरऄसल ये कह रहे हं कक झांसा देना ईन्हंने अपसे ही सीखा है। अज ऄगर वे झांसा देने मं आतने कु शल हो गए हं तो तय मािनए अपकी तालीम बहुत ऄच्छी रही। ‘दण्ड-जीवी’ सामंतवाद के िखलाफ िलखी गयी िहन्दी की सवाश्रेष्ठ कहािनयं मं से एक है। आसे भी एक राजस्थान के लेखक िारा ही िलखा जाना था क्यंकक राजस्थान मं सामंतवाद ऄपने प्रत्यक्ष और क्रूरतम रूप मं औपिनवेिशक काल तक िवद्यमान रहा है। बहुत से लोगं को नहं पता होगा कक जब औपिनवेिशक सिा के साथ जजार होते सामंतवाद ने दुरिभसंिध की थी तब कइ अधुिनक संस्थाओं या पदं के साथ पुरातन दण्डप्रकक्रया नहं जारी रखी जा सकती थी, सो ऐसे मं आस छद्म अधुिनकता के साथ ऄपनी ऐंठ बरकरार रखते हुए जीने के िलए दिक्षणी राजस्थान मं ये खास पद ऄिस्तत्त्व मं अया ‘मारखावण्या’ ऄथवा ‘मारबख्शी ।' अज भी जब ताकतवर के प्रित पैदा हुइ खीझ ककसी कमज़ोर पर िनकाली जा रही हो तब मेवाड़ मं लोग आस शब्द को मुहावरे की तरह आस्तेमाल करते हं। अलमशाह खान ने आसे िबलकु ल लोककथाओं की शैली मं ही िलखा है। ऄिभधा को ऄपने सशितम रूप मं काम लेते हुए ऄन्याय को िवरूपतम रूप मं प्रस्तुत ककया गया है। पूंजीवाद, कवयाण का नकाब ओढकर अता ISSN –2347-8764

है और न्याय, बराबरी के नारं के साथ ऄपना शोषण का जाल िबछाता है आसिलए पूंजीवादी छल-छद्म को ऄरह्स्यीकृ त ककया जाना ऄिभप्रेत होता है। आसके ठीक ईलि सामंतवाद आस स्तरीकृ त समाज मं परम्परा से प्राप्त ‘दैवीय’ प्रभुता के मद मं आतराता हुअ ऄपने ऄन्यायी बल के साथ ही रिकता है। यहाँ ऄन्याय का प्रत्यक्ष वणान सिीक होता है जो करने वाला रचनाकार ‘बहुत कला’ का नहं ‘पररवतान’ का अकांक्षी होता है. हमारे आस अधुिनक प्रतीत होते समय मं भी जब जब सामंती संस्कृ ित के िचह्न कदखाइ दं, तब तब एक नागाजुान िारा ‘अओ रानी हम ढोयंगे पालकी / यही हुइ है राय जवाहरलाल की’ िलखकर ऄिभधा मं तंज ककया ही जाता है। यह न भूला जाए कक िजस शहर मं बैठकर अलमशाह खान कहािनयाँ िलख रहे थे, ईस शहर के लोगं के िलए आस राजा को पहचानना मुिश्कल न था। खुद ऄपने को ‘राजािधराज योगेन्रसिसह जी के . सी. एस. अइ. जी .सी. एस. अइ.’ कहने वाले आस राजा की ऄपने राज्य की जानकारी का स्तर यह है कक ‘कल रात खेमली ( गाँव ) लुि गयी’ सुनकर ईसकी प्रितक्रया होती है, “वा रांड घर छोड़ एकली राते बारे क्यूं िनकली ?” महाराजाओं और महारािनयं को िवधाियका और संसद मं ऄपना प्रितिनिध चुनकर भेजने वाले राज्य मं ऐसी ऄनेक कहािनयं की जरूरत थी और अज भी है। राजा की मदांधता, मूखत ा ा और रं गरे िलयं का स्पि िववरण करती हुइ यह कहानी ऄंत मं ‘दैवीय प्रभुता’ के ईस मूल िसिांत पर ही करारी चोि करती है जब हत्यारा राजा ऄंत मं कहता है, “राजा धरती पे इिर-ऄवतार होवे। ऄन्याव वो कदी नी करे । ऄन्याव ने वो न्याव मं ढालै। जो होणी थी सो कल हुइ। न्याव अज भी राजरे हाथ है। राज हुक्म करे के गुजरा मारबख्शी रो बेिो अज और ऄब सूं नवो ‘मार-बख्शी’ है। राज ने भान है के नवो ‘मार-बख्शी’ मुरियार नी छोिो है, बारह बरस रो, भगवान भूतनाथ रे भरोसे राज री मार खावेगा तो काल बड़ो वे जावेगा।” राज की मार -का ज्ञान, ऄबोधता को लुप्त िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

कर- जवदी ‘बड़ा’ बनाता है। (यहाँ ‘राज’ को ककसी भी प्रभुत्वशाली शोषक संस्था से िवस्थािपत कर दीिजए, वाक्य की ऄथाछिवयाँ रे िडकल हो जायंगी।) अलमशाह खान की ऄिवस्मरणीय कहानी ‘पराइ प्यास का सफर’ भी ऐसे ही जवदी बड़े हो गए बच्चे की कथा है। लखना बाल श्रिमक है और जीवन के थपेड़ं ने ईसे िसखा कदया है कक कोइ भी दुःख बड़ा नहं होता क्यंकक पता नहं अगे ईससे ककतना बड़ा दुःख और प्रतीक्षा कर रहा हो। कहानी मं जब होिल पर बैठे कु छ लोग ऄपने काम की एकरसता के िलए हायतौबा कर रहे हं, ठीक तभी हम आस लंबे प्रभावी दृश्य मं लखना को तेरह बार ‘अडर’ पूरा करने के िलए उपर-नीचे करते देखते हं। चककत ग्राहक पाते हं कक लखना सुख-दुःख के प्रित िनर्चवकार हो चुका है। कहानी मं ऄपने साथी बड़के के सामने भी जब वह ज़रा सा खुलता है तब हम पाते हं कक भाइ की मृत्यु, माँ की बदहाली, स्वयं का शोषण, िु िनया की याद ये सब मामूली से ईिेग के साथ स्वीकार लेने वाले लखना का कदल िू िा तो तब जब एक छोिी बच्ची ने ईसके िलए कह कदया- “गंदा...हुस्S !” अश्चया है कक िवकराल दुखं का सूचनाओं की तरह अना-जाना प्रिसि कथालोचक मधुरेश को रचनात्मकता की कमी लगता है और वे आस कहानी को ‘यथािस्थितवाद की पोषक’ मानते हं। ( िहन्दी कहानी का िवकास, पृ. 158) ऄश्रुिवगिलत भावुक वणान की चाशनी चढाये िबना अलमशाह खान ने कहानी मं आस िासदी को बखूबी कदखाया है जहाँ िवकरालता भी दैनंकदन का िहस्सा बन जाती है। ‘इदगाह’ मं हािमद के िखलौने की बजाय िचमिा खरीद लेने पर िबछ िबछ जाने वाले लोग यह नहं सोचते कक प्रेमचंद वहाँ हािमद के बचपन के नि होने और ईसके एक झिके मं बड़ा होने की हाहाकारी कथा कह रहे थे। ऄिवस्मरणीय कफवम ‘लाआफ आज ब्यूिीफु ल’ की सबसे बड़ी सुंदरता ये थी कक वहाँ एक िपता न िसफा ऄपने बेिे की रक्षा करता है बिवक वो सारे नाजी कै म्प को एक खेल बताकर आस सारी वीभत्सता की खरंच ऄपने बेिे के

बचपन पर पड़ने से बचाता है। ‘पंछी 26


करे काम’ के सनीचरा,ऄब्दू, गफू र, रमजू और मसीता के पास ऐसा कोइ भी नहं है जो ईनके बचपन को घायल न होने दे आसिलए वे खुद ऄपने नन्हे हाथं ईसे संभालने की कोिशश करते हं। ये सारे , और आनमं ‘भूखे फररश्ते : खुशबू की दावत’ के राधू, जनकू , नूरा, ममदू को भी जोड़ लं सब अपस मं भूखे रहने की शता बदते हं और एक दूसरे को चुनौती देते हं। यह शता नहं मजबूरी है -आस सच से सामना न हो, आस कोिशश मं सारे पंछी ‘धरसिमदर-हेमा की कफिलम’ देखना ज्यादा महत्त्वपूणा मान रहे हं, पर, क्या सच से सामना नहं हुअ है, या रोज-ब-रोज नहं होता आनका ? ऐसा लगता है जैसे आन सब बच्चं के भीतर एक बड़ा बैठा हुअ है जो दूसरे हाथ से ऄपने बच्चे को थपकी दे रहा है। गौरतलब है कक आनमं से कोइ भी कहानी खुद के प्रित करुणा जगाने की कोिशश करते बेचारे बच्चे की कथा नहं है। तमाम दारुण दुखं के बावजूद यह धंगामस्ती करते, ऄसम्भाव्य सपने देखते और खुशबू की दावत का शाहं की तरह िनमंिण देते लड़ाकं की कथा है। िनधान-दिलत-ऄवपसंख्यक-ऄवपसंख्यकं मं दिलत, अलमशाह खान शोषण की बहुअयामी स्तरीयता को जानते थे। बच्चं के बारे मं जैसे ईनकी कइ कहािनयां हं वैसे ही िस्त्रयं के बारे मं भी क्यंकक वे भी दोहरे शोषण की िशकार हं। ‘ककराए की कोख’ ईनकी सवा​ािधक िववादास्पद कहानी कही जा सकती है.यह साररका के जून,77 ऄंक मं प्रकािशत हुइ थी और साम्प्रदाियक शि​ियं ने आस कहानी को ‘िहन्दू धमा पर चोि’ करने वाली कहानी बताते हुए िनशाने पर िलया। कमलेिर ने अगे एक सम्पादकीय आस पूरे प्रसंग को ईठाते हुए अलमशाह खान के पक्ष मं िलखा। कहानी एक स्त्री के बारे मं है और स्त्री देश-धमा की पहचानं से पहले एक स्त्री होती है। मदावादी समाज का ऄंितम ईपिनवेश स्त्री, ईसकी तमाम दररन्दिगयं, शोषण का दंश ऄपने शरीर और मन पर झेलती स्त्री और कफर ऄंत मं अकदम पाप के िलए स्वयं ऄके ली पािपन करार दी जाकर पत्थर खाती स्त्री। ‘ककराए की कोख’ की कु इ, आस मदावादी समाज की मारी, बार बार छली ISSN –2347-8764

गयी स्त्री ऄंत मं ऄपने बेिे के सामने एक स्त्री की तरह पसर कर ईसे ऄपनी मदा​ानगी कदखाने की चुनौती देती है। आसे माँ-बेिे के ररश्ते को कलंककत कर देने वाला करार देकर ही सारा नैितक पाखण्डपूणा िवतंडा खड़ा ककया गया। कहानी का ऄंितम संवाद जबकक स्वयं स्पि था कक “ईजाले मं नी परचे, अ ऄँधेरे मं तू भी अ और कदखा ऄपनी मरदानगी !” कहकर कु इ ऄससे ठीक िपछले प्रसंग मं - जब िबरजू पत्थर खाती पगली कु इ को बचाने ईसका बेिा बनकर नहं अया था - की याद कदलाकर ईसे कोस रही है। वह कह रही है कक ऄंततः ईसका बेिा भी एक पुरुष ही है। अलमशाह खान की कइ कहािनयं मं यह प्रिविध है। ठीक ऄंत मं पाि कोइ ऐसा कदम ईठाता है जो थोड़ा नािकीय लगता है लेककन ईससे कहानी खत्म होने के साथ ही ईसके पाठक के कदमाग मं जारी रहने के दरवाज़े खुल जाते हं। कु इ का कथन िनमंिण था या िधक्कार ? स्त्री की िधक्कार मं आस समाज को ऄपनी बदसूरती अइने की तरह कदख जाती है और यही तकलीफदेह होता है। ‘मुरादं भरा कदन’ कहानी मं सिार िारा ऄपनी पत्नी को देहव्यापार मं ईतारने का दृश्य और कारक जो ईपिस्थत ककया गया है वह बड़ा औचक और आसिलए ऄिविसनीय सा लगता है। सिार को िजन पूवावती पररिस्थितयं मं कदखाया गया है, जािहर है देहव्यापार का फै सला तात्कािलक लगता हुअ भी तात्कािलक नहं ही होगा, ईसके पीछे कइ सामािजक-अर्चथक पररिस्थितयाँ रही हंगी, लेककन ईन्हं कदखाने का प्रयास लेखक ने नहं ककया है। आसके बावजूद, कहानी यकद ऄिवस्मरणीय बनती है तो सिार और नूरी के संबंधं की ईस उष्प्मा से जो देहव्यापार की कािलख मं दबकर भी नि नहं हुइ है और राख से िनकलकर ऄपनी लपि कदखाती है। सिार सुहाग के जोड़े को सात बार दरूद शरीफ फूं ककर नूरी को पहनाता है और आस तरह ईसे ‘पाक’ करता है, दूसरी ओर नूरी के सामने ग्राहकं और शौहर की एक दूसरे मं डू बती ईतराती परछाआयां तैर रही हं। िहन्दी मं यौनकर्चमयं के जीवन पर बहुत िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

थोड़ी कहािनयां ईपलब्ध हं और जो हं ईनमं भी पापमुि​ि, सुधारवाद अकद की ही छाप कदखाइ देती है। ‘मुरादं भरा कदन’ दैिहक पिविता, स्वच्छता के परम्परागत शुिचतावादी मानदंडं को नकारती हुइ नूरी जैसा ऄिवस्मरणीय चररि हमारे सामने रखती है। एक यौनकमी मं सतत शोषण का िशकार होने के बावजूद गुनाहगार होने का ग्लािनभाव और आस कारण ऄपनी देह के प्रित पैदा हुइ िवरि​ि और आसके बाद भी आसी देह के सहारे ऄपने दाम्पत्य के िबखरे सूिं को संभालना आस कहानी को ऄपने समय से अगे की कहानी बनाता है। यह कहानी साररका के जनवरी, 74 ऄंक मं प्रकािशत हुइ थी. आसी साल मथुरा नाम की एक लडकी के साथ थाने मं दो पुिलसवालं िारा ककये गए बलात्कार के मुकदमे मं फै सला सुनाते हुए सि न्यायालय ने आस अधार पर ऄिभयुिं को बरी ककया था कक लड़की यौनानुभव की ऄभ्यस्त थी और ईसका पया​ाप्त प्रितरोध न करना रजामंदी का सूचक था। आस फै सले के बाद भारत के स्त्रीवादी अंदोलन मं एक जलजला अया और मया​ादा, शुिचता जैसे िपतृसिात्मक मूवयं से बंधी संरक्षणीय प्रवृि​ि को चुनौती देते हुए स्त्री की सहमित ऄसहमित के ऄिधकार को के न्रीय प्रश्न मानने का अंदोलन शुरू हुअ। आस कहानी मं जब सिार जान पर खेलकर मन्ना पहलवान का रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है, तब आसके पीछे दैिहक सुख की अकांक्षा से कहं ऄिधक ऄपने भीतर के खासिवद के मरे हुए ऄहसास को िजलाने की ख्वािहश है और नूरी, एक यौनकमी के िलए-ऄपने मरद के बांकपन -को पहली बार देखने (भोगने?) का सुख। यकद आस कहानी के बरक्स ‘एक और सीता’ की नाियका सीती के आस कथन को भी रखकर देख लं, “रुकं ठाकु र ! ... ईनके रहते मेरी लाज के धनी वे ही थे। ऄपने रहते ऄपनी बसत ईन्हंने तुम्हं दी। ईनके बीतने पर ऄपनी लाज की पहरू मं हूँ। सुहाग ईनका था। ईन्हंने लुिवाया। दुहाग मेरा है, मं तुम्हं न दूंगी। प्राण देकर और लेकर भी ईसे सहेजग ूं ी।” तो कोइ संदेह नहं रह जाता कक अलमशाह खान लाज को देह, योिन से परे रखकर देखने की बात

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कर रहे थे जो आन कहािनयं के िलखे जाने के चालीस साल बाद भी ‘आज्जत लूि ली’, ‘मुंह काला ककया’ जैसी शब्दावली का प्रयोग करने वाले भारतीय मीिडया की समझ से परे है. 16 नवंबर,2013 की ऄंधेरी रात ऄपनी जान पर खेलकर लड़ जानेवाली ‘िनभाया’ के समथान मं ईमड़े ऄसाधारण जनसैलाब िारा बुलंद अवाज़ मं कफर आसे दोहराया गया कक बलात्कार का िशकार हुइ स्त्री के कपड़ं, चालचलन अकद पर रिप्पणी करनेवाली मदावादी मानिसकता को भी वे बलात्कारी मानिसकता ही मानते हं। ‘एक और सीता’ की सीती िारा खंची ‘लखन-रे खा’ ककसी पुरुष िारा लगाया गया मया​ादा का बंधन नहं है बिवक एक स्त्री िारा ‘ना’ कहने के ऄिधकार की ईद्घोषणा है। आसे रे खांककत ककया जाना चािहए कक अलमशाह खान को भारतीय परम्परा मं ऄनेकानेक रूपं मं समाइ िपतृसिा का िनरं तर ऄहसास है। िहन्दी कहानी की प्रगितशील परम्परा मं चोर कोनं से झांकने वाला पौरुषीय दंभ अलमशाह खान के यहाँ ज़रा भी नहं है. (‘रणराग’ एकमाि दुखद ऄपवाद है.) 1963 मं ईन्हंने ‘ऄनार’ जैसी कहानी िलखी िजसकी नाियका ि​िसिलगीय पहचान के दायरे से बाहर की है। अज भी हमारी भाषा के पास आन बहुल यौिनक ऄिस्मताओं के िलए ईिचत शब्द नहं हं, िवमशा की तो बात ही छोिड़ये। ‘ऄबला जीवन का गिणत’ कु लगौरव के नाम पर रि​िपपासु बनकर लड़े और जान गँवा बैठे बेिं के पीछे रह गयी माँ-पत्नी का िवलाप है तो ‘हरा ठूं ठ : प्यासी बेल’ यौिनक ऄक्षम होने के बावजूद िववाह करलेने वाले पुरुष की पत्नी के ऄपने पित के सुलगते घावं को बुझाने के प्रयास मं स्वयं भी ठं डक से पररिचत हो जाने की कथा है। अलमशाह खान के यहाँ स्त्री-पुरुष सम्बन्ध प्रचिलत रै िखक दायरं मं बंधे हुए नहं हं। नूरी और सिार का ईवलेख पहले अया है। ‘ितनके का तूफ़ान’ की दामली जो ककतने ही लोगं िारा ईत्पीिड़त होकर अज ऐसी हो गयी है - “ऄब वह फकत मांगती और िभखाररन थी। डाल से िू िी पिं-झड़ी सूखी -लक्कड़ टहनी. पीली जदा​ा थी धूल-पसीना ISSN –2347-8764

पुती, ठूं ठ-ठहरी ठोड़ी पर रूअं नहं। देह पर िपचके दो िछछड़े और कपाल पर काली कु ितया की पूछ ं -से बाल लीतरे । बस आसके नार होने के यही लक्खन।” तो दूसरी ओर घीसू है - ‘बौडम लार िपकाता, िेड़ी अँखनाक, एक बाजू तनी गदान, गन्ने की गाँठ तक गए हाथ और बांस-खंड की सी िांगं को घसीि घुिनं के बल रं गता’ घीसू। दोनं के बीच चाहे अर्चथक समझौतं के चलते ‘प्रेम’ हुअ हो लेककन यही ितनका दामली के िलए तूफ़ान खड़ा कर देता है और दामली को लगता है कक “कोइ एक है जो ईसकी लाज का पहरू है।” कहना न होगा कक अलमशाह खान के यहाँ िवषम पररिस्थितयं मं प्रेम पनपता है। भट्टी मं तपकर सोना िनकलता है। ‘मेहद ं ी रचा ताजमहल’ भी संस्कारं की दीवारं को धक्का देकर हमारी प्रेम की बनी बनाइ स्वीकृ त छिव को ध्वस्त कर देने वाली कथा है जहाँ जवानी मं धमा की दीवार को न लांघ पाए दो जन अिखरकार बुढापे मं ऄपने प्रेम का सावाजिनक स्वीकार कर सहजीवन प्रारम्भ करते हं और पररवार से भी आस फै सले के प्रित ईिचत सम्मान पाते हं। यहाँ आस कहानी की तुलना ‘पगबाधा’ कहानी से करं तो कदलचस्प िनष्प्कषा सामने अते हं। ‘मेहद ं ी रचा ताजमहल’ के मुश ं ी और दुलारी ऄपने ररश्ते को कोइ समाजस्वीकृ त नाम कदए बगैर भी एक दूसरे मं असरा पा जाते हं वहं ‘पगबाधा’ की किवता और अलोक के बाकायदा िववाह कर लेने के बाद भी किवता यह पाती है कक अलोक के िलए लोक-लाज-मया​ादा के सामने प्रेम और िविास का कोइ महत्त्व नहं। पहली कहानी िनम्नमध्यम वगीय पृष्ठभूिम की है िजसके पाि पया​ाप्त अधुिनकता बोध से युि हं जबकक दूसरी के नायक-नाियका ऄिभजात वगा से अते हं कफर भी पुरातन िपतृसिात्मक संस्कारं से पीछा नहं छु ड़ा पाए हं। यह कहा जाए तो गलत न होगा कक लेखक के िलए अधुिनकता बोध जीवनदृि​ि का िहस्सा है, कोइ नारा नहं। ठीक यही बात संदयाबोध के बारे मं है। अलमशाह खान वणान के नहं िचिण के ईस्ताद हं - बात बोलेगी, हम नहं। ईनका िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

संदयाबोध हमारे सुरुिचपूणा मानदंडं की सीमाओं को सामने रख देता है। ‘जूतं का कफ़न’ मं पुराने जूतं की बदबू से घर का रुं धकर बासना या ‘लोहे का खून’ मं सीमंि की ईड़ती धूल से सनी मिहलाओं का खंखार कर थूकना या ‘साँसं का रे वड़’ मं िजनावरं के रगड़े खाते डील से फै लती चमड़गंध, उपर से झरते मंगनी-मूत और तल मं रमी गंदगी- अलमशाह खान हािशए के लोगं की सिज़दगी के यथाथा का साक्षात्कार रूप-गंध-स्पशा के स्तर तक कराते हं। ( ‘िघन तो नहं अती है ?’ ) और िववरण की सूक्ष्यमता आतनी कक एक तसले का धूलधोए के िलए क्या महत्त्व है, ये भी पाठक को ठीक से समझ अये, “मडगाड़ के िु कड़े से सनीचरा ने यहाँ-वहाँ नािलयं मोररयं को ईलीचा पर तलछि की ठीक ठीक िोह तसले मं फै लाकर ही की जा सकती थी। बारीक तार - िु कड़े कापे-ककरपे तसले के तल पर ही रिपते थे और तसला पंडत ने दाब िलया था।” (पंछी करे काम) यह हर कदन की लड़ाइ है, सिज़दगी की रस्सी पर संतल ु न और कलाबाजी की खेल है, यहाँ तक कक भीख मांगना भी एक पेशा है िजसमं मेहनत और कला दोनं दरकार है, “जहाँ ईसने ‘दाता’ को देखा नहं कक धरती पर मत्था िेक ऄपने डंठल से बाजू कु हिनयं को उपर ईछाल ऐसी दया ईपजाउ िचरौरी चमकाता कक सामने वाला िपघलकर कु छ-न-कु छ देने को बेबस क्यं न हो जाए. कौड़ी सी िेड़ी-ितरछी पिनयल अँखं मं बेबसी-बेचारगी लाकर वह ऄपना िूंरिया हाथ माथे के अगे ले जाकर ऐसी ऄबोली गुहार करता कक राहगीर ईसकी तरफ िनगाह ककये िबना अगे न बढ़ पाता। और जहाँ ककसी ने ईसे नज़र भर देखा नहं कक वह दामली के मजीरं की धुन पर िबलिबलाकर मुंह मं कौर न जाने का सांग धर ऄपना धंसा पेि ईसे कदखा देता। यूं करते हुए ईसके सकोरे मं िना-िन होने लगती और दोपहर तक पेि-भराउ कमाइ हो जाती, उपर से कु छ पवले भी बंध जाता दामली के ।” (ितनके का तूफान)दिलत चेतना की दस्तक से पहले हमारी िहन्दी का संसार आन िवरूप सच्चाआयं के चंिधया देने वाले प्रत्यक्ष वणान के िलए तैयार नहं था।

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क्या अलमशाह खान वि से अगे के रचनाकार थे ? ईन्हंने साठ के दशक मं कहािनयां िलखना शुरू ककया था। सिर के दशक मं समान्तर कहानी अंदोलन के समय ईनका नाम धूमके तु की तरह िहन्दी कहानी के पिल पर चमका पर समान्तर कहानी के ऄवसान के साथ ही कहं िबला गया। समान्तर कहानी के ऄपने अग्रहदुराग्रह और आसके कारण अलोचकंआितहासकारं के ईसके प्रित अग्रह-पूवा​ाग्रह का खािमयाजा अलमशाह खान को भी भुगतना पड़ा। बीसवं सदी के अिख़री चार दशक ईनकी रचनाधर्चमता के दशक हं। आसी दौरान भारत बंकं के राष्ट्रीयकरण से िवदेशी पूंजी के सुस्वागतम की ओर बढ़ चला। अकदवािसयं का ऄपनी जमीन से बेदखल ककया जाना संस्थागत रूप से प्रारम्भ हो गया। साम्प्रदाियकता राजनीित ऄपने डैने फै लाती हुइ हमारे घरं तक घुस अयी और भारत सरकार के अला ऄफसरं ने बताया कक अलमशाह खान की कहािनयं के पररवारं को चािहये महजबिीस रुपये। क्या ऄब आस लेखक की कहािनयं को कफर से नहं पढ़ा जाना चािहए ? अलमशाह खान ने कमर मेवाड़ी से कहा था, “कमर, मेरे मरने के बाद मेरी कहािनयं का नोरिस िलया जाएगा।” ~✽~ सौजन्य : प्रभात रं जन (जानकी पुल) ♦

ख़त-खबर िप्रय पंकजभाइ, कु शल हंगे । 'िविगाथा' िनरं तर िमल रही है । 'िविगाथा' मं मेरी गज़लं प्रकािशत हुइ थी, ईसके बाद कम से कम 15-20 फोन-कॉवस अए थे । अपके शहर सुरेन्रनगर से श्री जगदीश ि​िवेदी के अलावा भारत के िहन्दी भाषी राज्यं मं से भी कॉवस िमले थे। बहुत बहुत धन्यवाद । 'िविगाथा' पररवार को हार्कदक शुभकामनाएं । अपका, सािहल सादर वंदन सह (राजकोि-गुजरात) ~✽~ ISSN –2347-8764

दो किवताएँ

आतना भरोसा / ऐ हवा नीित राठौर

आतना भरोसा * तस्वीर तुम्हारी बनाती हूँ ऄक्सर मं ख्यालं मं, पाक सा एक चेहरा ईभरता है कदल की दीवारो मं । तैरती अंखं मं तुम्हारी जैसे डू बने लगी हूँ, ये कै सी डोर है कक मं खंचने लगी हूँ । मेरी खामोिशयं मं जब नाम से बुलाते हो, कदल के तारं मं झंकार नइ भरते हो । मीलं के फासले हं पर दूर नहं हो, एहसास मेरे कहते हं तुम यहं हो यहं हो । ना है तुम्हं देखा ना ही छु अ स्पशा को तुम्हारे कफर भी िजया है, कै सा है ररश्ता क्या ये हुअ कक तन मन हार ऄब तुम पे कदया है। ऄन्जान डगर ना मंिजल पता है हाथ मं तुम्हारे हाथ खुद का कदया है थाम के रखना तूफानं मं मुझको आतना भरोसा बस तुम पे ककया है । ~✽~

िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

ऐ हवा * ऐ हवा तुम तो अती हो ईनके देस से, छू कर ईनको, कै से कदखते है जरा मुझको बताओ के सँवार लूँ खुद को जो ईन को भा जाउँ।। महक ईनकी कभी संग ऄपने ले अओ के साँसो मं भर लूँ जो ईन सी हो जाँउ।। प्यार के रं गं की ईनके कभी कु छ तो खबर लाओ वैसा खुद को मं रं ग लूँ जो ईनमं डू ब जाँउ।। ऐ हवा तुम तो जाती हो ईनके देस मं, छू कर मुझको, बेचैन आं तजार मेरा जरा ईन तक पहुँचाओ के बादल से वो अयं और धरती मं हो जाँउ।। ~✽~ neeti4268@gmail.com

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ककताब नामा

खुशवंतनामा : मेरे जीवन का सबक ऄनुवाद : प्रभात रं जन

मेरी पड़ोसन रीता देवी वमा​ा ने मुझे एक फु ि उंचा लैम्प कदया है िजसके चारं तरफ शीशे लगे हं । ईसके ऄन्दर मोम का दीया है । चूँकक वह चारं तरफ से बंद है आसिलए ईसकी लौ शायद ही कभी कांपती है, कभी-कभार वह हलके से िहलकर कफर िथर हो जाती है । जब शाम मं मं ऄके ला होता हूँ तो बैठकर ईसे घंिं देखता हूँ । ईसे मेरे कदलो-कदमाग को शांित िमलती है । मुझे बताया गया कक यह एक तरह का ध्यान है. लेककन मेरा कदमाग िथर होने से बहुत दूर होता है। आसके ईलि, वह कु छ और ऄिधक सकक्रय होता है । मं 98 साल का हूँ, मेरे पास अगे देखने के िलए कु छ ख़ास बचा नहं है, लेककन याद करने को काफी कु छ बचा है । मं ऄपनी ईपलिब्धयं और ऄसफलताओं का जमा खचा खाता बनता हूँ । जमा के खाते मं मेरे नाम ऄस्सी से ऄिधक ककताबं हं : ईपन्यास, कहािनयं के संग्रह, जीविनयाँ, आितहास की पुस्तकं , पंजाबी और ईदूा से ऄनुवाद, तथा ऄनेक लेख । खचा के खाते मं मेरा ऄपना चररि है । कइ शाम मं मं ऄपने ईन पापं के बारे मं सोचते हुए िबताता हूँ जो मंने ऄपने अरं िभक सालं मं ककये थे । एयर गन से मंने दजानं गोरै याओं को मार कदया था जबकक ईन्हंने मेरा कु छ नहं िबगाड़ा था । मैएँ एक बतख को तब गोली मार दी थी जब वह ऄण्डं के उपर बैठा हुअ था । वह उपर की तरफ ईड़ा, तब तक ऄपने पंख फड़फड़ाता रहा जब तक कक वह िगर नहं गया। जब मं ऄपने चाचा के साथ िमयां चन्नू मं रह रहा था, जब ईनका रुइ का कारखाना एक महीने के िलए बंद था, हर शाम मं कबूतरं का िशकार ककया करता था । ईनको बच्चे खाने के िलए ईठा लेते थे. मं िशकार करनेवालं के साथ जाता था और मंने ऄनेक िनदोष िचिडयं का खून ककया । एक आसी तरह की अयोिजत िशकार पािी मं भरतपुर मं मंने दो घंिं के ऄन्दर एक दज़ान से ऄिधक बतखं को मार कदया । ककसी ने मुझसे यह नहं कहा कक ऐसा करना गलत था और यह एक ऐसा पाप था िजसकी कोइ माफ़ी नहं थी । मं ऄपने कमं की कीमत दे रहा हूँ और शाम दर शाम ईन िनदोष जंतओं ु की यादं मेरा पीछा करती हं । मं आस दुखद नतीजे पर भी पहुंचा हूँ कक मं कु छ कामुक ककस्म का आं सान रहा हूँ । चार साल की कम ईम्र से लेकर अज तक ISSN –2347-8764

जबकक मंने ऄपने जीवन के सिानवे साल पूरे कर िलए हं, कामुकता ही मेरे कदमाग मं सबसे उपर रही है । मं कभी भी आस भारतीय अदशा को कबूल करने के योग्य नहं रहा िजसमं औरतं को माँ, बहन और बेरियं के रूप मं देखा जाता है. चाहे ईनकी ईम्र जो भी हो वे मेरे िलए कामुकता का िवषय रही हं। दो साल पहले मंने यह फै सला ककया कक ऄब मेरे िलए ऄपने अप मं िसमिने का समय अ गया है । कु छ लोग आसे ररिायरमंि कहते हं । मंने भारतीय शब्द संन्यास का चुनाव ककया । लेककन यह वह संन्यास नहं था जैसा कक अम तौर पर आसे समझा जाता है, दुिनया से पूरी तरह से िनर्चलप्तता- मं ऄपने अरामदायक घर मं रहना चाहता था, स्वाकदि भोजन और सिसगल मावि का अनंद ईठाना चाहता था, ऄच्छा संगीत सुनना चाहता था, और ऄपने ज्ञानेिन्रयं को ईसमं सराबोर करना चाहता था, ईनका जो भी बचा हुअ है ईसको । मंने दुिनया के धंधं से थोडा बहुत खुद को ऄलग ककया : मंने िीवी और रे िडयो कायाक्रमं मं अने से मना कर कदया । ऄगला कदम था कक मंने िमलने वालं की संख्या बहुत हद तक कम कर दी । यहाँ, मं सफल नहं हो पाया । वैसे पहले के मुकाबले बहुत कम हो गया, लेककन वे अते रहते हं । मं ईनका स्वागत करता हूँ लेककन ईनसे यह प्राथाना भी करता हूँ कक ऄपने दोस्तं को ऄपने साथ न लायं । ईनको लगता है कक मेरा कदमाग आतना चढ़ गया है कक मं ऄपने बारे मं ह सोचता रहता हूँ. यह सच नहं है; बात बस यही है कक मं ऄब ऄजनिबयं से बात करने की थकान नहं झेल सकता । ऄब मं ऄख़बारं और पि​िकाओं के िलए आं िरव्यू नहं देता हूँ । हालाँकक, कु छ लोग हमारी बातचीत को आं िरव्यू का रूप देने मं सफल हो जाते हं । मं समझ गया हूँ कक अिखर मं जब मुझसे यह पूछा जाता है, ‘अपको जीवन मं कोइ ऄफ़सोस है?’ यह ईनका अिखरी िघसा िपिा सवाल होता है । बजाय आस बात के उपर गुस्सा होने के मुझे ककस तरह से फं सा कर आं िरव्यू िलया गया, यह सवाल मुझे सोचने के िलए िववश कर देता है : ‘क्या मुझे सचमुच ईन बातं का ऄफ़सोस है जो मंने ककये या जो नहं ककये?’ जािहर है, है !

िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

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मंने काफी डाल कानून की पढ़ाइ पढने और वकालत करने मं लगाए िजससे मुझे नफरत थी । मुझे आस बात का भी ऄफ़सोस है कक मंने देश-िवदेश मं सरकार की सेवा करते हुए िबठाये, और वे साल जो मंने यूनेस्को के साथ पेररस मं काम करते हुए िबताए । वैसे तो मंने दुिनया देखी और जीवन का अनंद ईठाया, और, कु छ करने के िलए ख़ास नहं था, तो िलखना शुरू कर कदया, मं यह काम काफी ऄिधक कर सकता था िजसमं मं बहुत ऄच्छा था । मं काफी जवदी िलखना शुरू कर सकता था । हालाँकक, मुझे सबसे ऄिधक ऄफ़सोस आस बात का है कक मंने िजन औरतं की प्रशंसा की ईनके साथ कु छ ख़ास कर नहं पाया, लेककन मेरे ऄन्दर आतना सहस नहं था कक मं ईनके साथ प्यार-मोहब्बत जैसा कु छ कर पाता । तो छह एक तरफ हं, तो अधा दजान दूसरी तरफ । जैसा कक ग़ािलब ने आसको लेकर सही िलखा है : ‘ना कदा​ा गुनाहं की भी हसरत की िमले दाद या रब! ऄगर आन कदा​ा गुनाहं की जज़ा है।’ और चूंकक मं ऄपने गुजरे जीवन को दुबारा नहं जी सकता, ऄिधक से ऄिधक मं यह कर सकता हूँ कक ईसको भूल जाउं । जो दूध बह गया ईसके उपर क्या रोना? ककसी अदमी की जब ईम्र होती जाती है तो ईसकी पांच ज्ञानेिन्रयं मं से चार समय के साथ जवाब दे जाती हं, के वल एक, भोजन का स्वाद, बाककयं से ऄिधक कदन तक बनी रहती है । मं यह जानता हूँ कक मेरे मामले मं यह सच है । जैसे जैसे मं बूढा होता गया हूँ मं यही सोचता हूँ कक मंने सुबह के नाश्ते मं क्या खाउंगा, कदन के खाने मं, रात के खाने मं क्या खाउंगा । तीन भोजनं मं, पहले दो तो नाम भर के ही होते हं : सुबह के समय मक्खन लगा िोस्ि एक ग्लास चाय के साथ, दोपहर मं एक किोरा सूप या दही; लेककन रात का खाना एक पेिू को खुश करने वाला होना चािहए. आसमं के वल एक मुख्य भोजन होता हं, साथ मं सलाद, अिखर मं पुसिडग या अआसक्रीम । मंने यह भी पाया है कक ईस भोजन का ISSN –2347-8764

अनंद ईठाने के िलए मुझे भूखा होना चािहए और पेि भी साफ़ होना चािहए । भोजन का अनंद सबसे ऄिधक ऄके ले और ख़ामोशी मं खाने मं अता है । आसी तरह से हमारे िहन्दू पूवाज कु लिपता खाया करते थे। ईनके पास ऐसा करने के बेहतर कारण थे, और मं ईनकी परम्परा का ही पालन कर रहा हूँ । दोस्तं के साथ या पररवार के सदस्यं के साथ बैठकर खाने से दोस्ती को गहरा बनाने और पररवार को साथ रखने मं मदद िमलती है, लेककन यह अपके सुस्वादु खाने का बहुत सारा स्वाद खत्म कर देता है । खाते समय बात करने से आं सान खाने के साथ बहुत सारी हवा भी पी जाता है । मं खाने और पीने की अदत के मामले मं ऄपने अदशा ऄसदुवला खान ग़ािलब का ऄनुसरण करता हूँ । वह हर शाम स्कॉच िव्हस्की की बोतल खोलने से पहले नहा-धोकर धुले हुए कपडे पहनते थे, कफर िगलास मं ऄपने िहसाब से शराब ढलते थे, कफर ईसमं सुराही से सुगिन्धत पानी डालते थे– और पूरी ख़ामोशी मं पीते थे जबकक शराब और औरतं की प्रशंसा मं ऄमर शायरी िलखते थे । ईन्हंने आस बात को दजा नहं ककया कक रात के खाने मं वे क्या खाते थे । जब मं ऄके ले खाली पेि पीता हूँ तो मं यह महसूस कर सकता हूँ कक िव्हस्की मेरी अँतं तक को गरमाहि देती है । जब मं औरं के साथ पीता हूँ तो मुझे ऐसा महसूस नहं होता है । आसी तरह जब मं दूसरं के साथ बैठकर खाता हूँ तो मुझे शायद ही ईस भोजन का स्वाद पता चल पाता है जो मं मुंह मं डालता रहता हूँ । ऄके ले खाते हुए मं अँखं बंद ककये हुए ऄपनी ऄंतदृिा ि ईसके उपर लगा देता हूँ िजसको मं धीरे धीरे चबाता रहता हूँ जब तक कक वह हलक से नीचे नहं ईतर जाता । मुझे महसूस होता है कक मं भोजन के साथ न्याय कर रहा हूँ, ठीक ईसी तरह जैसे वह भोजन मेरे साथ न्याय करता है जो मं खा रहा होता हूँ । खाना ख़त्म करने मं कभी भी जवदबाजी न करं ; ऄपना समय लीिजये और ईसका अनंद ईठाआए । मं मांस खाता था, खाता हूँ । मं यह मानता हूँ कक शाकाहारी होना प्रकृ ित की व्यवस्था के िखलाफ है क्यंकक शाकभक्षी होने के िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

ऄलावा सभी जानवर िचिड़यं, कीिं और मछली को खाते हं और एक दूसरे को खाते हुए जीिवत रहते हं । मुझे बदल-बदल कर खाना पसंद है । चन्दन, जो िपछले पचास साल से मेरा ख़ास खानसामा है, नए नए खाने बनाने के िलहाज से बहुत बूढा हो चुका है । आसिलए मं ऐसे भोजनालयं के मेनू घर मं रखता हूँ जो खाना घर पहुंचाते हं । मं एक-एक करके ईनको अजमाता हूँचाआनीज, थाइ, फ़्रांिससी, आिैिलयन, दिक्षण भारतीय । मेरे पास ईन मिहलाओं के फोन नंबर भी हं जो ऄलग-ऄलग तरह के भोजन पकाने की िवशेषज्ञ हं और ऄपने घर मं खाना पकाती हं और ईन लोगं को पहुंचाती हं जो पहले से ऑडार देते हं । सुश्री ऄशी धूिपया हं जो शानदार कु आचे लोरयाँ और चौकलेि के क बनाती हं । और क्लेयर दि हं जो हर वह चीज बेहतरीन ढंग से पकाती हं जो िजसकी मं तमन्ना करता हूँ, स्िफ्ड रोस्ि िचके न से लेकर ब्रांडी बिर के साथ प्लम पुसिडग तक । ‘अप मुझे बता दीिजये कक अप क्या खाते हं और मं अपको यह बता दूग ं ा कक अप क्या हं’, प्रिसि फ़्रांिससी स्वाद लोलुप िब्रलाि सवाररन ने यह दावा ककया था । ऄगर मंने ईनको यह बताया होता कक मं ककतने तरह के खाने खाता हूँ तो शायद ईन्हंने यह कहा होता कक मं सूऄर हूँ । लेककन मं भकोसता नहं हूँ । मं नपी-तुली मािा मं खाता हूँ । मं ईस बात से पूरी तरह सहमत हूँ जो िब्रलाि सवाररन ने दावा ककया था : ‘एक नए तरह के खाने की खोज आं सान को ऄिधक खुश करता है बजाय िसतारे के खोज के ।’ लॉडा बायरन की तरह मं ऄपने शाम के खाने के बारे मं ऐसे देखता हूँ जैसे ऄपनी जवानी के कदनं मं मं ऄपनी प्रेिमकाओं से िमलने का आन्तजार ककया करता था : सब कु छ शांत कर देने वाला तेज अवाज का घंिा,रूह की चेतावनीरात के खाने के घंिा । चेतावनी का एक अिखरी शब्द: आस बात का ध्यान रिखये कक अप ज्यादा न खा जाएँ । खराब पेि और ऄपच खाने का मजा ककरककरा कर देते हं । ~✽~

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साक्षात्कार

चर्चचत रचनाकार और 'िवश्व गाथा' के संपादक

श्री पंकज ि​िवेदी डॉ. ऄवनीश सिसह चौहान ऄवनीश सिसह चौहान : पंकज जी, सबसे पहले मं अपको बधाइ देना चाहूँगा कक अपका िनबंध संग्रह ‘झरोखा’ गुजरात िहन्दी सािहत्य ऄकादमी से पुरस्कृ त हुअ है । अपको चाहने वाले िहन्दी के पाठकं के िलए यह सुखद सन्देश है । ककन्तु गुजराती भाषा मं भी अपने काफ़ी कु छ िलखा है । संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन-गुजराती), भीष्प्म साहनीनी श्रेष्ठ वाता​ाओ (भीष्प्म साहनी की श्रेष्ठ कहािनयाँ-सिहदी से गुजराती ऄनुवाद), ऄगनपथ (लघुईपन्यास-सिहदी), अिगया (जुगनू-रे खािचि संग्रह -गुजराती), दस्तख़त (सूशियाँ-गुजराती), माछलीघरमां मानवी (मछलीघर मं मनुष्प्य-कहानी संग्रह-गुजराती), झाकळना बूँद (ओस के बूंद - लघुकथा संपादन-गुजराती), कथा िवशेष (कहानी संग्रह संपादन गुजराती), सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के िलए अज़ादी की लड़ाइ मं सूचना देनेवाली ईषा मेहता, ऄमेररकन सािहत्यकार नोमान मेलर और िहन्दी सािहत्यकार भीष्प्म साहनी के साक्षात्कार पर अधाररत संग्रह), ममावेध (िनबंध संग्रह-गुजराती), होलो बुलबुल ऄने अपणे (घूघू बुलबुल और हम – िनबंध संग्रह) तथा झरोखा (िनबंध संग्रह-िहन्दी) अकद कृ ितयाँ काफ़ी चर्चचत हुइ है । गुजराती भाषा के पाठकं को ऐसा सुखद सन्देश पहले िमलना चािहए था... क्या कारण रहा कक गुजरात सािहत्य ऄकादमी और गुजराती सािहत्य पररषद का ध्यान अपकी रचनाधर्चमता की ओर न जा सका? पंकज ि​िवेदी : ऄवनीश जी, पहले तो मं ऊण स्वीकार करूँगा कक अप सभी सािहत्य प्रेिमयं का स्नेह-अशीवा​ाद मुझे िमलता रहा है और मं गुजराती से िहन्दी सािहत्य मं काया करते हुए ऄपनी छोिी-सी पहचान बना पाया हूँ । गुजराती सािहत्य मं मंने गद्य की सारी िवधाओं मं लेखन ककया और मेरी पहचान भी गद्यकार की ही रही है । जहाँ तक गुजरात सािहत्य ऄकादमी और सौ साल पुरानी संस्था ISSN –2347-8764

गुजराती सािहत्य पररषद की बात है, पररषद से गांधीजी और गोवधानराम ि​िपाठी जैसे महानुभाव जुड़े हुए थे, यह दोनं संस्थानं के िारा प्रितिष्ठत पुरस्कार और सम्मान कदया जाता है । वैसे पुरस्कारं का मामला तो ऐसा है कक वो कहाँ िववादस्पद नहं रहा? आसे पानेवाला प्रत्येक गुजराती सािहत्यकार ऄपने अप को धन्य समझने लगता है । मेरा सौभाग्य समिझए या दुभा​ाग्य कक गुजरात की दो प्रितिष्ठत संस्थाओं के पदािधकारी के रूप मं मेरे बड़े भाइ सािहत्यकार हषाद ि​िवेदी संलग्न रहे थे । अपका यह िसिांत रहा है कक सावाजिनक संस्थाओं का िनजी मंच के रूप मं ईपयोग न हो । आसके चलते भी मं आन संस्थाओं के पुरस्कार से दूर रहा । यह मेरे िलए अश्चया की बात है कक आतने वषं बाद गुजरात की िहन्दी सािहत्य ऄकादमी ने मेरी रचना को पुरस्कृ त ककया । तात्पया यह कक मूल रचना मं दम होना चािहए । पुरस्कारं से रचना बड़ी नहं होती । गुजरात के समथा सािहत्यकार चंरकांत बक्शी को गुजरात की एक भी संस्था ने पुरस्कृ त नहं ककया लेककन ईनके ऄवसान के बाद अज भी गुजरात की प्रितिष्ठत पि​िकाएँ और समाचार पि ईनके लेखन का पुनमुारण िनरं तर कर रही हं । बंधुवर, बताइए प्रेमचंद का लेखन ककस पुरस्कार का मोहताज़ रहा ! सच कहूँ तो ककसी भी ऄवाडा किमिी को सािहत्य के बदले सािहत्यकार ही कदखाइ देने लगं तो परखने की दृि​ि ही खत्म हो जाती है । ये बात िसफा सािहत्य क्षेि तक सीिमत नहं है, िशक्षा और कला क्षेि मं भी ज्यादातर यही होता है । ऄवनीश सिसह चौहान : यकद पररवार का कोइ सदस्य ककसी सािहित्यक संस्थान मं ईच्च पदािधकारी है भी तो क्या संस्थान के ऄन्य पदािधकाररयं का ये धमा नहं कक वे अपकी रचनाओं/ कृ ितयं को संज्ञान मं लेवं और ईन्हं समादृत/ पुरस्कृ त करं ?

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पंकज ि​िवेदी : अपके आस प्रश्न का ईिर देने के िलए मुझे कईं सालं का मौन तोडना होगा । पहली बात यह है कक गुजराती सािहत्य मं राज्य के सभी िजलं मं से मेरा सुरेन्रनगर िजला ऄहम् मुकाम पर हं । िजले के सािहित्यक प्रदान को ऄगर िगनती मं न िलया जाएँ तो गुजराती सािहत्य मं कम से कम 40 प्रितशत सािहित्यक मूवय कम हो जाएगा । यह बहुत बड़ा सत्य है । मेरे बड़े भाइ गुजराती सािहत्य के ऄिग्रम सािहत्यकार-संपादक हं । पहले वो गुजराती सािहत्य पररषद मं पदािधकारी थे और बाद मं वे गुजरात सािहत्य ऄकादमी के महामाि (रिजस्ट्रार) रहं । हमारे पररवार मं यह संस्कार है कक जहाँ भी ऄपने पररवार का कोइ सदस्य काया करता हो, वहाँ से कोइ िनजी काया नहं करं गे । जहाँ तक सािहत्य पररषद मं भाइ की ईपिस्थित थी तब तक की बात और थी । मगर पररषद छोड़कर ईनके गुजरात सािहत्य ऄकादमी मं जाने के बाद पररषद के साथ मेरा पाररवाररक कोइ संबंध नहं रहा । गुजराती सािहत्य पररषद के ऄवाडा की बात तो दूर रही, ईनके मुखपि ‘परब’ मं भी मेरी रचनाओं को स्थान देना बंद कर कदया गया । ‘परब’ के विामान संपादक को जब भी हमने रचनाएँ भेजं, तो न ईनका प्रत्युिर िमला और न ही रचनाएँ प्रकािशत हुईं । हालांकक पूवा के संपादकं ने मेरी रचनाओं को जरूर स्थान कदया था । हमने सम्पादकश्री से फोन पर पूछा तो जवाब िमला कक मं यहाँ ऑनररी काया करता हूँ । मंने ईन्हं खुला पोस्िकाडा पि िलखकर साफ़ कर कदया कक ऄगर अप सािहत्य के बदले पैसं को महत्वपूणा मानते है तो अपको यह काया छोड़ देना चािहए । पररषद के मुखपि ‘परब’ के िलए दूसरे संपादक भी िमल जाएंगे । कफर तो बड़े भाइ के साथ सािहत्य पररषद के मतमतान्तर की बातं भी अने लगं, मगर मं सच से वाककफ़ नहं हूँ । हो सकता है कक ईसी के चलते पररषद के पदािधकाररयं ने मुझे एक सािहत्यकार की नज़रं से देखने के बजाय श्री हषाद ि​िवेदी के भाइ के रूप मं ज्यादा देखना शुरू ककया और दरककनार कर कदया होगा । हाँ, ईन्हंने चुनाव के समय मुझे हमेशा याद ककया है क्यंकक मं पररषद का अजीवन सदस्य हूँ । और यही एक कारण भी है कक मंने गुजराती सािहत्य से िहन्दी की ओर रूख कर िलया । गुजरात मं गुजराती, िहन्दी, संस्कृ त, सिसधी, ईदूा अकद ऄकादमी भी हं । सभी भाषाओं के मान्यवर सािहत्यकार ऄवाडा या श्रेष्ठ पुस्तक प्रकाशन चयनकता​ा के रूप मं ऄलग होते हं । गुजराती भाषा के पुस्तक के िलए मंने कभी अवेदनपि नहं कदया । क्यूंकक बड़े भाइ वहाँ पदािधकारी थे । ईनके पदभार संभालने से पूवा मुखपि ‘शब्दसृि​ि’ के कईं संपादक रह चुके थे । िजन्हंने मेरी रचनाएँ प्रकािशत की थी । िजतने सालं से भाइ ने महामाि (रिजस्ट्रार) और मुखपि का संपादक का पदभार संभाला, मंने कभी ईन्हं एक भी रचना नहं भेजी और न ईन्हंने कभी माँगी । हाँ, एक ऄपवाद जरुर है कक जब िहन्दी कथाकार भीष्प्म साहनी जी का देहावसान हुअ तब मेरे िारा ईनकी ऄनुवाद की गइ कहानी ईन्हंने जरूर प्रकािशत की थी, क्यूंकक मंने भीष्प्म जी का पूरा कहानी संग्रह गुजराती भाषा मं कदया था । ऄब अप समझ सकते हं कक गुजराती ISSN –2347-8764

सािहत्य पररषद, गुजराती सािहत्य ऄकादमी या ऄन्य सािहित्यक संस्थान के पदािधकाररयं ने हमारी सािहित्यक यािा को संज्ञान मं क्यूं नहं िलया होगा? एक और बात स्पि कर दूं कक जब अप ककसी सािहित्यक संस्थान के पदािधकारी बनते है तब अप सभी सािहत्यकारं को संतुि नहं कर सकते । ऐसे मं हो सकता है कक कु छ ऄसंति ु सािहत्यकार दूसरे संस्थान मं पदािधकारी हं और वो ऄपना िहसाब चुकाने का मौका भी नहं छोडते । मुझे ऄपने लेखन से िनजानंद िमलता है वो कोइ ऄवाडा से कम नहं । मं ऄवाडा का मोहताज नहं और कु र्चनश बजाना मेरा स्वभाव नहं । ऄवाडा ककसी व्यि​ि को नहं, ईसकी सािहित्यक रचना को िमलता है, हमं यह नहं भूलना चािहए । ऄवनीश सिसह चौहान : अपने बताया कक अपके भाइ साहब सािहत्यकार हं । अपके िपताजी भी सािहत्य से जुड़े रहे । यानी कक लेखन अपको िवरासत मं िमला है । ज़ािहर है कक आन सबका प्रभाव अप पर पड़ा ही होगा? ऄपनी आस पृष्ठभूिम के बारे मं कु छ बताना चाहंगे? पंकज ि​िवेदी : प्रभाव घर के माहौल का है । मेरे िपताजी ने सािहत्य सृजन िजतना भी ककया ईतना प्रकािशत नहं करवाया । वो गीत और गज़ल के स्वरूप को खूब समझते थे । वो गाँव के स्कू ल मं अचाया पद पर थे । देशभि​ि ईनकी रगं मं थी, अजादी का संग्राम और गांधीयन िवचारधारा मं जीते थे । ईन्हंने जीवनपयंत खादी पहनी । वो जब भी गीत-गज़ल िलखते, तो ईसे गाते थे । ईनकी लय अज भी हमारे कानं मं गूंजती है । बड़े भाइ चुपके से ईनकी किवताओं को पढते थे और धीरे -धीरे खुद भी िलखने लगे । मगर मं गुजराती मं कभी किवता कर न सका । कारण यही था कक छन्द मं बंधना मुझे रास न अया । मंने सहज ऄिभव्यि​ि को ही स्वीकार ककया । संवेदना तो छन्द और छन्दमुि रचनाओं मं भी होती ही है । मंने शुरू मं कु छ चररि िनबंध िलखे और ईसे लघुकथा का नाम देकर गुजराती सािहत्य के लघुकथा स्वरूप के जनक श्री मोहनलाल पिेल को भेज कदए । ईन्हंने िलखा – ‘पंकज, मुझे तुम्हारी एक ईिम शि​ि की ओर िनदेश करने का मन है । तुम चररि लेखन मं िसिहस्त कलाकार हो और ऄभी भी ईच्च कोरि के लिलत चररिं को दे सकते हो । ऄगर यही चररिं को तुम कहानी का रूप दे सको तो सोने मं सुगध ं िमल जाएगी । तुम्हारे चररिं को पढकर लगता है कक मिडया (सुप्रिसि गुजराती सािहत्यकार श्री चुनीलाल मिडया) के पास जो ‘अंचिलक’ घिनाओं को बहलाने की शि​ि थी और ईनके पास लोक बोली का वैभव था ईसका दशान तुम्हारे लेखन मं भी नज़र अता है ।’ मेरे िपताजी के वल किवता ही नहं िलखते थे, ईन्हंने लोककथाएं भी िलखी । यूँ कहं कक वो पद्य-गद्य को समान्तर िलखते थे । यही कारण था कक मेरे सािहत्य सृजन का पौधा िविक्सत होता रहा । िपताजी के कारण गुजराती भाषा के कईं बड़े सािहत्यकारं का हमारे घर अना-जाना रहता था । आन्हं मुलाकातं से ईभरती चचा​ाएं मेरे कानं को पिवि करती हुइ हृदयस्थ होती थी । ऄवनीश सिसह चौहान : पंकज जी, अपकी मातृभाषा गुजराती है लेककन अपने गुजराती के साथ िहन्दी मं भी लेखन ककया है और

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कर रहे हं । दोनं भाषाओं मं संतुलन बनाये रखना असान नहं । सिहदी मं िलखने की प्रेरणा कै से िमली? पंकज ि​िवेदी : बचपन मं िहन्दी िवषय मं िनबंध िलखने होते थे । तब मुझे आतनी रूिच नहं थी । मगर मेरी माँ का जन्म वाराणसी मं हुअ था । आस कारण मेरी मातृभाषा तो िहन्दी ही हुइ और िपतृभाषा गुजराती (हंसते हुए) । वो जब ऄपने बचपन की बातं करती थी तब हमारी नज़रं के सामने गंगाघाि, अरती, कदए और वाराणसी की गिलयं का एक कावपिनक दृश्य खड़ा हो जाता था । एक तो ईनके कहने का ऄंदाज़ और ईनकी भावनाओं का स्त्रोत अँखं से छलकता था । जो मेरे बाल मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ गया । िपताजी गुजराती थे । आस तरह दो संस्कृ ितओं का िमलाप और दोनं पररवेश की िस्थित के ऄनुसार ईभरती भावनाओं का साक्षात्कार मेरे बाल मानस को होता था । समझ से ज्यादा ऄनुभूित प्रबल थी क्यूंकक माँ के कहने मं िचिात्मकता थी । जो मुझे ऄपने गद्य-पद्य लेखन मं भी मुखररत करने लगी । ‘प्रेरणा’ शब्द मेरी भावनाओं से मुझे ऄलग कर देता है । मं हमेशा कहता हूँ कक ककसी भी व्यि​ि से तुरंत प्रभािवत होना ठीक नहं है और सच मं प्रभािवत हुए है तो वहाँ ऄभाव का प्रश्न ईठाना ठीक नहं है । मं मानता हूँ कक ककसी एक व्यि​ि या पररवेश का प्रभाव नहं होता मगर समय और जीवन के साथ जो माहौल बनता है ईससे प्रेररत होकर सािहत्यकार या कलाकार ईभरता है । बिवक ये कहूँगा कक ऄिभव्यि​ि के िारा रचनाकार खुद ईस वि कौन-सी मनोदशा और कालखण्ड मं है यह साफ़ झलकता है । ऄवनीश सिसह चौहान : अपने ‘नव्या’ इ-पि​िका का संचालन एवं संपादन ककया है । आसमं रचनाओं का संपादन कलात्मक, मनमोहक और स्तरीय रहता था । ऄब यह पि​िका वेब पर कदखाइ नहं देती । पाठकं और सािहत्यकारं के िलए यह ककसी अघात से कम नहं, क्या कारण रहा? पंकज ि​िवेदी : ऄवनीश जी, अज का दौर आं िरनेि का है । ऄगर अप कागज़-कलम से ही चलंगे तो ज़माने के साथ चल नहं पाओगे। संपादन करने के िलए मेरा स्पि हेतु यह है कक विामान प्रवाह के सािहत्य और सािहत्यकारं से अप रूबरू हो सकते हं । जो ग्रंथस्थ है ईन्हं तो हमने समय के ऄभाव मं या हमारी िविता प्रदर्चशत करने के िलए ऄलमारी की शोभा मं िबठा कदए हं । ‘नव्या’ इ-पि​िका मंने दो साल चलाइ । आं िरनेि पर वो काफ़ी चर्चचत रही । मगर एक कदन ऐसा अया कक ईसे हैकसा के िारा हैक कर दी गइ । मं िेकिनकली आतना समथा नहं हूँ । मंने वेबसाइि कं पनी और दोस्तं की मदद से पुन: शुरू करने का प्रयास ककया मगर सफलता न िमली । आस दौरान मंने ऄपनी सिप्रि पि​िका शुरू कर दी थी । सम्प्रित, सािहत्य सृजन के साथ पि​िका और पुस्तक प्रकाशन के कारण समय की कमी महसूस होने लगी है । कफलहाल तो वेबसाइि शुरू करने का कोइ आरादा नहं है मगर अने वाले वषं मं ‘िविगाथा’ के नाम से जरूर शुरू करूँगा । ऄवनीश सिसह चौहान : अपने सिहदी से कहं ऄिधक गुजराती मं संपादन-लेखन ककया है । विामान मं अप ‘िविगाथा’ िहन्दी िैमािसक सिप्रि पि​िका का संपादन कर रहे हं और जो वेब पि​िका ISSN –2347-8764

शुरू करने का आरादा है वह भी सिहदी मं ही होगी । ये गुजराती मं न होकर िहन्दी मं क्यं ? पंकज ि​िवेदी : हाहाहा ... मं भारत की सभी भाषाओं का सम्मान करता हूँ । अपके पूवा प्रश्नं मं कहं न कहं गुजराती से िहन्दी भाषा की यािा का प्रत्युिर िमल जाता है । िहन्दी भाषा ने मुझे किव और संपादक की पहचान दी है । िहन्दी के कारण मेरी सृजनात्मकता को प्रदेश से परदेश तक का खुला असमान िमला है। आं िरनेि की भूिमका हम सब के िलए बहुत ही महत्वपूणा सािबत हुइ है । कईं मान्यवर शुरू मं आसे पसंद नहं करते थे वो ऄब फे सबुक जैसे सोशल मीिडया पर कदखाइ देने लगे है । यह ज्ञान और िवज्ञान का संगम है । और संयम ऄपने हाथ मं हं । ऄवनीश जी, भाषा तो के वल माध्यम है ऄिभव्यि​ि के िलए । अप आसे लेखन, संपादन या ऄन्य लिलत कलाओं के माध्यम से ऄिभव्यि करं । मंने देखा कक मेरा लगाव बड़ी सहजता से िहन्दी की ओर बढता है, िहन्दीभािषयं की तरह शब्दवैभव नहं है । मगर मेरी रचनाओं की सादगी के बावजूद ईस रचना की संवेदना हर ककसी के कदल तक पहुँच पाती है, ईन्हं प्रभािवत करती या िप्रय लगती है और प्रितकक्रयाँ बेशुमार अती हं तो सोचा कक क्यूं न मं ऄपनी पि​िका िहन्दी मं प्रकािशत करूँ? सबसे बड़ी बात यह है कक देश-िवदेश के सािहत्यकारं को एकि​ित करने का यह एक मंच होगा । आसिलए ‘िविगाथा’ िैमािसक सिप्रि पि​िका प्रारम्भ की । गुजराती भाषी होने के बावजूद िहन्दी मं भी सािहत्य सेवा करने का मन है । आतना ही नहं, ऄन्य भाषाओं से ऄनुवाकदत रचना के माध्यम से ईन रचनाकारं को भी जोड़ना है । यही तो अदानप्रदान और भाषा की सेवा है । ऄवनीश सिसह चौहान : अपने भीष्प्म साहनी, ऄमरीकन लेखक नोमान मेलर, क्रांितकारी ईषा मेहता पर एक संयुि पुस्तक – ‘सामीप्य’ तैयार की थी । िजसमं आन तीनं के महत्वपूणा जीवनानुभवं को जाना-समझा जा सकता है । तीनं व्यि​ित्व ऄलग-ऄलग पृष्ठभूिम के होने के बावजूद आन्हे एक साथ रखा गया है । अिखर क्यं? पंकज ि​िवेदी : अपने िबलकु ल सही कहा कक यह तीनं लग-ऄलग पृष्ठभूिम के हं । मुझे आस पर िवस्तृत जवाब देना होगा । ऄसल मं यह तीनं महानुभावं के दीघा साक्षात्कार िहन्दी मं मंने पढ़े थे, िजसे मंने गुजराती पाठकं के िलए ऄनूकदत ककया था । कफर तीनं को िमलाकर एक ककताब करना ही मुनािसब समझा । आस योजना के बारे मं अपको िवस्तार से बताउँ तो 1988 से मंने गुजराती लेखन शुरू ककया । ताज्जुब की बात यह है कक मंने एक सामािजक कायाकर शांताबहन देसाइ के िलए गुजराती मं अलेख िलखा था । ईसी का िहन्दी ऄनुवाद करके मंने भेज कदया और मृणाल पाण्डेय ने 'साप्तािहक सिहदुस्तान' (1988-89) मं प्रकि ककया था । मतलब कक ईस वि से मुझे मेरे िहन्दी लेखन कौशवय पर अत्मिविास बढ़ा । 1990 से मेरे लेखन को नइ ईड़ान िमली । कईं गुजराती ऄखबारं मं स्तंभ लेखन और पि​िकाओं मं मेरे अलेख, कहािनयाँ और िनबंध प्रकािशत होते रहते थे । एकबार भीष्प्म साहनी जी की कहानी ‘बबली’ मेरे हाथ मं अइ । तब मं गुजराती ‘जनसिा’ मं

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स्तंभ लेखन और पि​िकाओं मं मेरे अलेख, कहािनयाँ और िनबंध प्रकािशत होते रहते थे । एकबार भीष्प्म साहनी जी की कहानी ‘बबली’ मेरे हाथ मं अइ । तब मं गुजराती ‘जनसिा’ मं स्तंभ िलखता था । वो कहानी मुझे छू गइ क्यूंकक ईसमं ‘बबली’ का चररि मेरे पुराने चररि लेखन से सुसंगत था । यूँ कहं कक एक चररि िचिण था । और मंने ईस कहानी का गुजराती ऄनुवाद ‘जनसिा’ को कदया । प्रकािशत होते ही ईस कहानी के िलए कईं पाठकं के पि अए । मेरी मौिलक कहािनयं का स्तंभ ‘माछलीघरमां मानवी’ के साथ मेरे िारा ऄनूकदत कहािनयाँ भी छपने लगी । दूसरा कारण था कक बलराज साहनी मेरे िप्रय ऄिभनेताओं मं से एक रहे हं । बलराज जी का गुजरात और मेरे शहर से पुराने तावलुकात थे । िप्रय होने का कारण ईनका मंच से लगाव । भीष्प्म जी भी कदवली की नाट्ड संस्थान ‘आप्िा’ (IPTA) से जुड़े हुए थे । जब मंने भीष्प्म जी से ईनकी कहािनयं के ऄनुवाद की ऄनुमित माँगी तो शीघ्र ही िलिखत ऄनुमित िमली । मेरे िलए यह बहुत खुशी की बात थी । कफर तो हम प्रित सप्ताह अपस मं पोस्िकाडा िलखते थे । मेरा दुभा​ाग्य यह था कक जब मं पहली बार कदवली ईनसे िमलने गया ठीक ईसी कदन ईनकी पत्नी का देहांत हो गया था और दूसरी बार जाना हुअ तो वो खुद ..... ! ईषा मेहता की अज़ादी के संग्राम मं ईद्घोषक के रूप मं महत्त्वपूणा और रोचकता से भरपूर भूिमका थी । एक ऄथा मं यह साक्षात्कार अज़ादी के आितहास के पृष्ठं को सजाने के िलए पया​ाप्त था । क्यूंकक गांधी िवचार धारा के लोग ऄसिहसा के माध्यम से संघषा कर रहे थे । दूसरी ओर सुभाषचन्र, भगत सिसह, खुदीराम, चंरशेखर अकद क्रांितकारी ऄपनी अक्रमकता से ऄंग्रेजं को चुनौती दे रहे थे । ऐसे माहौल मं ऄंग्रेजं ने सरकारी रे िडयो प्रसारण को ऄपने हाथ मं ले िलया था । हमारे क्रांितकारी पूरे देश मं से लड़ रहे थे । ऐसे समय गांधी जी या ऄन्य नेताओं की योजनाओं की सूचना एवं सन्देश को त्वररत गाँव-गाँव पहुंचाने के िलए एक िनजी रे िडयो स्िेशन भूगभा मं बनाया गया था, िजसे ‘हेम रे िडयो’ नाम कदया गया था । यह काया आतना जोिखम भरा था कक ज़रा सी चूक हो जाएँ तो पूरा रे िडयो स्िेशन ऄंग्रेजं के कब्जे मं अ जाएँ और महत्त्वपूणा योजनाएं िवफल हो जाएँ । ऐसे समय गुजराती मिहला ईषा मेहता ने ऄपनी जान जोिखम मं डालकर हेम रे िडयो का संचालन करते हुए प्रथम ईद्घोषक के रूप मं क्रांितकारी की भूिमका िनभाइ थी । ऄमरीकन सािहत्यकार नोमान मेलर बहु अयामी व्यि​ित्व के धनी थे । जो ईपन्यासकार, पिकार, िनबंधकार, नािककार, कफवम िनमा​ाता, ऄिभनेता और राजनीितक ईम्मीदवार थे । ईनका पहला ईपन्यास 1948 मं The Naked and the Dead था, जो ि​ितीय िवि युि मं ऄपनी सैन्य सेवा पर अधाररत था । "The White Negro: Superficial Reflections on the Hipster" मूल रूप से Dissent 1957 के ऄंक मं प्रकािशत नॉमान मेलर िारा एक 9000 शब्दं का िनबंध है । ईनके िारा जीवनी पर अधाररत लेखन मं पाब्लो िपकासो, मुहम्मद ऄली, गैरी िगलमोर, ली हावे ओसवावड और मर्चलन मुनरो शािमल थे ।

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नोमान मेलर का जीवन और प्रितभा का समन्वय साक्षात्कार पढने वाले को प्रेरक और अकर्चषत करने वाला था । आसिलए मंने सोचा कक िविवध पृष्ठभूिम के तीन महान व्यि​ियं की पहचान गुजराती पाठकं तक पहुंचानी चािहए । ऄनुवाद िविवध पि​िकाओं मं प्रकािशत होने के बाद बहुत सारे पि िमले थे । िजसमं कईंयं का सुझाव था कक आसे एक ककताब का रूप दीिजए और कु छ ऄन्य िवभूितयं को भी जोड़ं । मगर ईस वि मं नौकरी के िलए संघषा कर रहा था तो संभव नहं हो पाया और यह तीनं को लेकर ककताब बनी ‘सामीप्य’ । ऄवनीश सिसह चौहान : नैितक मूवयं की वकालत कमोबेश सभी सािहत्यकार करते रहे हं । ऐसे मं अप ऄपनी रचनाओं मं मूवय परक अशयं का प्रस्तुतीकरण कै से करते हं? पंकज ि​िवेदी : मं अपसे कु छ हद तक सहमत हूँ । मगर नैितक मूवयं की वकालत करना और जीना ऄलग बात है । न के वल सािहत्यकारं बिवक ककसी भी प्रकार के मौिलक सृजन से जुड़े हुए लोगं के िलए यह चुनौतीपूणा शब्द हं । ऄसल मं ईनकी भावुकता और संवेदना भावकं को प्रभािवत करती है । ऐसे मं दोनं तरफ़ की भावुकता और संवेदनाओं को कहं न कहं ऄनछु ए ऄहसासं से संतृिप्त िमलती है । दूसरी चीज है कक रचनाकार या कलाकार अिख़रकार एक आं सान भी है और आसी समाज मं ईसे जीना पडता है जो कवपनाओं से हिकर वास्तिवकता की कठोरता कदखाता है और ऐसे मं ईसे जूझना पडता है ऄपने िवचारं से, समाज के िनयमं से और भावनाओं से भी.... मेरी रचनाओं मं मानवीय मूवय और भाव-संवेदन को सहजता से प्रस्तुत होती मेरी ऄनुभूित है । ‘प्रेम’ के कईं अयाम-ऄथा है । रचनाकार के िलए आस शब्द के आदािगदा रहना स्वाभािवक प्रकक्रया है । अप चाहं आसे करुणा, संवद े ना या भावनाएँ ही कह दीिजए । व्यि​ि के माध्यम से व्यि​ि के प्रित प्रेम की ऄिभव्यि​ि और आरादे बदल जाते हं । मंने समाज के दायरे के मद्देनज़र जो जीवन को िजया या समझा है, मंने जहाँ कहं से िविवध रूप मं प्यार और नफ़रत को पाया है ईसे ही ऄपनी रचनाओं मं ऄिभव्यि​ि का स्वरूप कदया है । अमतौर से सभी यही करते हं । ऐसा भी होगा कक कहं समाज के ढाँचे को बदलने की ज़रूरत को विामान समय के पररप्रेक्ष्यय मं परखकर क्रािन्त की अवाज़ भी ईठाइ होगी । ऄपने िवचार को ऄिभव्यि करने का सभी को ऄिधकार है मगर ऄपने िवचारं को सकारात्मक सोच के साथ प्रस्तुत करना भी ऄिनवाया है । सकारात्मक िवचार िचरं जीव रहता है । ऄवनीश सिसह चौहान : अपने िहन्दी मं काफ़ी किवताएं िलखी हं । अपका किवता संग्रह - ‘हाँ ! तुम ज़रूर अओगी’ प्रकािशत हुअ है । ये किवता संग्रह नाियका को कं र मं रखकर रचा गया है । जब कक अपने ऄन्य िवषयं पर भी बखूबी कलम चलाइ है । आस संग्रह को पहले प्रकािशत करने की क्या वजह रही ? पंकज ि​िवेदी : मेरा प्रथम िहन्दी किवता संग्रह ‘हाँ ! तुम जरुर अओगी’ फरवरी 2014 मं प्रकािशत हुअ है । िहन्दी भावकं ने मेरी किवताओं का स्वीकार ककया है और हमेशा अग्रह करते रहे हं कक जवदी ही अपका किवता संग्रह अना चािहए । बहुत जवद

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दूसरा किवता संग्रह भी िमलेगा । आसके ऄलावा गुजराती िनबंध संग्रह ‘होलो, बुलबुल ऄने अपणे’ (घू घू, बुलबुल और हम) भी अ गया । और बाद मं मेरा िहन्दी कहानी संग्रह भी अपको िमलेगा । आस किवता संग्रह मं िसफा नाियका प्रधान किवताएं ही नहं है । आस किवता संग्रह के बारे मं आलाहाबाद के सुप्रिसि सािहत्यकार श्री नन्दल िहतैषी ने जो िलखा है वो सुिनए – ‘पंकज ि​िवेदी ने ऄपने आस संग्रह मं सामािजक, राजनैितक, धार्चमक, अर्चथक समीकरणं की खोज की है लेककन रागात्मक सन्दभा ही ईनकी के न्रीयता रही है । नाियका के प्रित किव का अकषाण रचनाओं मं िनश्चय ही िसर चढ़कर बोलता है । पेड़ पौधे, फू ल-पि​ियं पर भी ईनकी दृि​ि हं, वे ईनसे भी वाता​ालाप करते चलते हं, ईन्हं छू ते भी हं और सहलाते भी हं, यही वे िबन्दु है, जहाँ रचनाकार की संवेदनाएँ, मनुष्प्य की थाती बनती है ।’ िनबंध िलखना िजतना असान कदखता है ईतना होता नहं । वो मेरी प्यारी िवधा है । िहन्दी सािहत्य लेखन मं किवता मेरे पास एक नदी के बहाव सी सहज और तरल रूप मं अ गइ । िनबंध के बारे मं मं ऄक्सर कहता हूँ कक जो ‘िनबंध’ है वोही िनबंध है । गुजराती सािहत्य से िहन्दी सािहत्य की यािा के दौरान मंने खुद को एक ‘िवहग’ के रूप मं महसूस ककया, ऐसा लगा कक मेरे िलए खुला असमान है और मं ऄपनी मािी-गाँव-शहर-पररवार से ईठकर समि​ि को समदृि​ि से देख रहा हूँ और तब भी मेरे ऄंतस का तार मेरी ज़मं से जुडा हुअ होता है । क्यूंकक मं जानता हूँ– िमट्टी से वास्ता है पुरखं की िवरासत का ईसी िमट्टी से पैदा हुए ईसी मं दफ़न हूँ मं ऄवनीश सिसह चौहान : क्या गुजराती सािहत्य और िहन्दी सािहत्य का वैचाररक धरातल एक ही है या ईनमं कोइ ऄंतर कदखाइ पडता है ? पंकज ि​िवेदी : ऄवनीश जी, क्या गुजराती और क्या िहन्दी ? रचनाकार अिखर तो आं सान ही है न? दुिनया के ककसी भी कोने मं जाएंगे तो धरातल तो एक ही होगा । आं सािनयत, धमा, प्रेम, नफ़रत, इष्प्या​ा, प्रकृ ित, प्राण और हमारे छोिे से स्वाथा के बीच मं व्यि​िगत सोच । मगर जो सजग सािहत्यकार है, पररपक्व है वो ऄपने धरातल पर रहकर भी िवचार से उपर ईठ सकता है । ऄगले प्रश्न के जवाब मं मंने कहा है, िबलकु ल ईसी प्रकार से रचनाकार ‘िवहग’ होना चािहए । मंने भारत की सभी भाषाओं के वैचाररक धरातल मं ज्यादा फका महसूस नहं ककया है मगर एक बात स्पि कर दूं कक हमारे देश मं जाित, धमा, रीित-ररवाज़ और संस्कृ ित के ऄनुसार जो वैिवध्य है ईसका संदया देखते ही बनता है । ईसका वणान ऄलग हो सकता है मगर भावनाएँ और संवेदना मं कोइ ऄंतर नहं होता । सभी को देशप्रेम, पररवार, गाँव, खेत-खिलहान से प्यार होता है, वो चाहं गुजरात मं हो या बंगाल या कना​ािका मं... । िविवधता मं एकता की बात हम करते हं वोही हमारी वास्तिवकता है । ऄवनीश सिसह चौहान : पंकज जी, मंने अपको तो सबसे पहले किव के रूप मं देखा आं िरनेि पर । फे सबुक पर भी अपकी किवताएं ही ज्यादा पोस्ि होती है । ककन्तु अपकी ऄिधकतर पुस्तकं गद्य से हं । ISSN –2347-8764

अपको ककस िवधा मं िलखना ज्यादा ऄच्छा लगता है । और ककस िवधा (और भाषा की) पुस्तकं पढना अपको िप्रय है? ककस पुस्तक को अपने िवशेष माना ? पंकज ि​िवेदी : 1988 से 2010 तक मंने जो भी सृजन ककया वो गुजराती गद्य मं ही । मगर 1990 से मं िहन्दी सािहत्य के साथ ऄनुवाद के माध्यम से सकक्रय हो गया | बीच मं कु छ साल िहन्दी मं िलख नहं पाया मगर िपछले अठ-दस वषं से मं िहन्दी के प्रित पूणा समर्चपत हो गया हूँ । ईसी के फलस्वरूप मेरा िनबंध संग्रह ‘झरोखा’ और ऄब किवता संग्रह अपको िमला है । आं िरनेि पे गूगल गुरु और फे सबुक ने अज के समय मं िजस तरह से ऄपनी पैठ जमाइ है वो कािबले तारीफ़ है । हम सोच नहं सकते ईतना सािहत्य और सन्दभा हमं एक पल मं िमल जाता है । मेरे िलए एक गुजराती भाषी होकर िहन्दी सािहत्य मं प्रवेश करना, वो भी ऄपने चंद शब्दं की गठरी िलए... मेरी ईम्र गुज़र जाएँ तो भी मं िवशेषज्ञं और पाठकं तक नहं पहुँच सकता था । आं िरनेि और सोशल िमिडया के कारण मेरे िलए यह असान हो गया । सबसे बड़ी बात तो यह भी है कक ऄब हर कोइ आं िरनेि के माध्यम से कहं भी पहुँच पाता है मगर अप िजसके बलबूते पर खड़े होना चाहते हं वो ताकत अपके ऄंदर ककतनी है ? ऄगर सच मं अप ऄंदर से समृि है तो अपके िलए न भाषा और न प्रांतवाद की ऄडचनं अएंगी । जब अप कु छ हांिसल करने के िलए अते हं तो अपको डर रहेगा कक मं ककतना सफल रहूँगा ? मगर अप ऄपने अनंद के साथ सबको साथ लेकर चलंगे और ककसी प्रकार का लालच नहं होगा तो दुःख होने की गुंजाइश ही खत्म हो जाएगी । पहले मुझे िनबंध और कहानी िलखना िवशेष पसंद था, ऄब िहन्दी सािहत्य मं भी किवताएं और िनबंध प्रमुख हं । गद्य लेखन के िलए अपके पास िवशेष समय, धैया, समझ और चुस्तता होना ऄित अवश्यक है । मुझे सारी िवधाएं िप्रय है मगर ककसी भी रचना को शुरू करने से पहले मन की शांित होनी चािहए । ऄपने िवचारं को गढने की अवश्यकता तब होती है जब अप ईस घिना या कथाबीज से अत्म साक्षात्कार नहं कर पाएं हो । जबतक यह नहं हो पाता तबतक अपको िलखना भी नहं चािहए । ऄगर पाठक के रूप मं रचना और रचनाकार से अप पूणा रूप मं साक्षात्कार करना चाहते हं तो ईनकी रचनाओं से ईनके िवचार और ईनके व्यि​ित्व की पहचान की जा सकती है । मेरे िलए कोइ एक पुस्तक िवशेष नहं है क्यूंकक सभी पुस्तकं ने मुझे कु छ न कु छ देकर समृि ककया है । मं दो-चार बड़े रचनाकारं के नाम देकर ऄज्ञात रचनाकारं के िवशेष प्रदान को ऄनदेखा करना नहं चाहता । एक छोिा सा िवचार या घिना हमं पूरी कहानी िलखने को मजबूर कर दे या ककसी का ददा या प्रेम को महसूस करके हम किवता िलख दं तो हम ककसे िवशेष योग्यता दंगे? िजस वि जो पढने को िमला, हमं ऄच्छा लगा, ईसे स्वीकार ककया और कदलंकदमाग मं संजोकर ऄपने अप रह गया, कफर कहं न कहं वो ऄलग स्वरूप मं हमारे लेखन मं सहायक की भूिमका िनभाएगा । ऄवनीश सिसह चौहान : अपका जन्म गुजरात के सुरेन्रनगर के पास खेराली गाँव मं हुअ । गाँव और शहर के बीच की आस यािा

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को अप ककस प्रकार से देखते हं ? िवशेषकर ऄपने लेखन मं ? पंकज ि​िवेदी : ऄवनीश जी, मेरा जन्म खेराली गाँव मं हुअ, मगर मेरे िपताजी वहाँ से चार ककलोमीिर दूर लीमली गाँव के स्कू ल के अचाया थे । मेरा बचपन वहाँ बीता । लीमली से सुरेन्रनगर शहर मं जाते समय मेरे ऄपने गाँव खेराली से ही गुज़रना पडता था । हमारे गाँव का तालाब आतना सुंदर है कक ऐसा लगे कक यहं स्वगा है । चारं तरफ़ ऄनिगनत बरगद के पेड़ की शाखा-प्रशाखाएँ फ़ै ली हुइ है, शायद ही ककसी गाँव मं ऐसा ऄदभूत नज़ारा देखने को िमले । अपने गाँव और शहर के बीच की यािा का िज़क्र ककया है तो मं दोनं के बारे मं ऄपनी किवता के माध्यम से ही प्रत्युिर दूँगा । किवताओं मं शहर और गाँव के जनमानस का प्रितिबम्ब नज़र अएगा । पहले शहर मं रहकर गाँव तक के सन्दभा की किवता की ऄनुभूित ‘अशीवा​ाद’ मं सुिनए – िखडकी से अती हुइ धूप मेरे ऄंदर तक ईतर जाती है और एक नइ ताकत के साथ कदन भर की उजा​ा भर देती है मुझमं.... ककताबं के पन्नं पर िखलती धूप से काले ऄक्षर भी सुनहरी बन जाते हं मन समृि​ि से भर जाता है ऄच्छे िवचारं से ईभरते शब्द मेरे ऄंदर जी रहे आं सान को अगे बढ़ने को प्रोत्सािहत करते हं सदा... यही सुनहरी धूप मेरे गाँव के खेतं मं िमली थी मुझे लहलहाते पौधं को नया जीवन देती ठं डी हवाओं की झिप्पयं मं डोलते हुए ईन्हंने ही तो मेरा स्वागत ककया था ... यही धूप मेरे गाँव के तालाब मं पानी पर नृत्य करते हुए मेरी अँखं को चकाचंध कर रही थी मेरे भीतर कदव्य ईजास फै लाती हुइ मेरी प्रसन्नता बढ़ाती हुइ वही धूप अज भी मुझ पर बरस रही है जैसे कक मेरी मेहनतकश माँ का अशीवा​ाद हो ! ISSN –2347-8764

और ऄब मेरे अध्यात्म रं ग की किवता 'बूद ं !' ♦ बूंद ! एक बूंद जो मेरे जन्म से लेकर ऄंत तक साथ देती बूंद ! बचपन की खेलकू द मं पसीना बहाकर मुझे मजबूत शरीर देती थी ! बूंद ! जो मेहनत की अग से रोिी सिज़दगी का सूकून देती और पहुंचाती एक अयाम तक ! बूंद ! मेरी संवेदनाओं के कारण ककसी के सुख-दुःख के िलए अँखं को सजाती-बहाती मुझे ! बूंद ! जो मेरे जीवन को साफवय की नइ पहचान देती और ऄनिगनत लोगं की चाहत पे खरा ईतारती ! बूंद ! जो मेरी अत्मा की मुि​ि के बाद मेरे निर देह की िमट्टी को जलाने के िलए अहूित का रूप बनकर अती घी की बूंद ! ऄवनीश सिसह चौहान : विामान मं अप क्या िलख रहे हं और क्या कु छ िलखने की अपकी योजना है ? पंकज ि​िवेदी : विामान मं कु छ कहािनयं पर काया कर रहा हूँ । ऄभी भी बहुत कु छ सीखना है, समझना है और िलखना है मुझे। मंने हमेशा सिज़दगी की चुनौितयं का स्वीकार ककया है और ईससे लड़ते हुए ऄपने कदम अगे बढ़ाएँ है । मगर चाहता हूँ कक चलते-कफरते मेरे कदम रुक जाएं या िलखते-िलखते मेरी कलम थम जाएं। मेरा एक बहुत ही प्रचिलत िवधान है; 'िजस कदन थक गया, समझ लेना मं नहं रहा।' िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

ऄवनीश सिसह चौहान : पंकज जी, अपसे बात करते हुए बहुत खुशी हुइ । धन्यवाद । पंकज ि​िवेदी : ऄवनीश जी, मं भी बहुत अभारी हूँ । धन्यवाद । ~✽~

संपका : Pankaj Trivedi Gokul park Society, 80 Feet Road, Surendranagar- 363002 Gujarat / Mobile : 096625 14007 vishwagatha@gmail.com ~✽~

Abnish Singh Chauhan E-264/A , Prem Nagar, Line Par, Majhola, Moradabad- 244001, U.P. / Mobile : 094560 11560 abnishsinghchauhan@gmail.com ~✽~

गज़ल डॉ. सुलक्षणा ऄहलावत हर रोज रं ग आं सान बदलने लगा, ऄपनं को सरे अम छलने लगा। बेच कर इमान चंद िसक्कं मं, बन पैसे वाला वो ईछलने लगा। ठग कर दूसरं को हर रोज यहाँ, गुनाहं के रास्ते पर चलने लगा। मेहनत की अदत को छोड़कर, हराम की कमाइ पर पलने लगा। हर कदम पर ले झूठ का सहारा, मूँगफली बता काजू तलने लगा। िगरिगि भी अज शमा​ाने लगा, छलने को हर रं ग मं ढ़लने लगा। कह देती है कड़वा सच मुँह पर, आसीिलए सुलक्षणा से िलने लगा। ~✽~

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साक्षात्कार

लेखक ऄपने अप को सीमाओं मं नहं बांधता

डॉ. रामदरश िमश्र से संयि ु बातचीत संदीप तोमर और ऄिखलेश ि​िवेदी 'ऄके ला' डॉ रामदरश िमश्र जी एक ऐसे लेखक हं जो कभी िववादं मं नहं रहे । सतत िलखते रहे । लगभग 60 वषं से ऄिधक लेखन करने के बाद भी ईनमे एक बच्चे की भांित िजजीिवषा है । ईन्हंने ऄपने लेखन के लम्बे कालक्रम मं ऄनेक बदलाव देखे । भारत के लोकतंि के शैशव से प्रौढ़ होते काल के वो साक्षी रहे। आस दौरान सािहत्य गाँधीवादी िवचारधारा से लोिहयावाद, समाजवाद, माक्सावाद से यािा करते हुए राष्ट्रवाद तक का साक्षी रहा है और आस यािा का प्रभाव भी सािहत्य मं प्रत्यक्ष ऄप्रत्यक्ष प्रकि होता रहा है । यह कहना ऄितश्योि​ि न होगी कक डॉ. रामदरश आस लम्बे कालक्रम मं िविभन्न सोपानो को ऄपने लेखन मं समेिते रहे । सािहत्य के आस बड़े हस्ताक्षर से लेखक संघ के संस्थापक और सािहत्यकार संदीप तोमर और कथाकार ऄिखलेश ि​िवेदी “ऄके ला” ईनके िनवास स्थान पर िमलने गए । सािहत्य ऄकादमी पुरस्कार की औपचाररक बधाइ के पश्चात जो ऄनोपचाररक बातचीत हुइ ईसे कलमबि करके पाठको के सम्मुख प्रस्तुत ककया जा रह है ऄके ला जी : अपके समवती लेखकं मं ऄिधकांश िववादं मं रहे या कफर घेरेबंदी मं िलप्त रहे। अप आस तरह के लोगं के बीच भी तठस्थ रहे । ऐसा कै से कर पाए अप? िमश्रजी: लेखक ककसी एक का नहं होता। लेखक न संघी होता है न ही कांग्रेसी या कोइ ऄन्य । लेखक की स्वयं की दृि​ि होती है। लेखक का काम होता है गलत का िवरोध करना । अप स्वयं को ककसी एक िवचारधारा मं नहं बांध सकते । लेखक की नजर मं सब रहता है.ईसकी दृि​ि मं कु छ िछपा नहं होता, ईसका फजा होता है कक वो तठस्थ होकर िलखे । ऄके लाजी : मं कु छ ऄच्छे रचनाकारं को जानता हूँ जो ऄच्छी रचना करने का मांदा रखते हं तथािप ककसी एक िवचारधारा

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से प्रभािवत होकर ऄपने िवचारं की व्यापकता को कुं द कर रहे हं। िमश्रजी: अप कोइ भी हं अप भले ही लोिहयावादी हं भले ही माक्सावादी है या कफर गांधीवादी अपकी दृि​ि मं समाजवेदना होगी। अप समज के िलए िलख रहे हं। कथ्य जीवन है, समाज ही कथ्य है, किवता जीवन से बनती है । ये िजतने भी िसिांत हं ईन िसिांतं पर किवता नहं िलखी जाती है। िसिांतं से जीवन देखा जा सकता है । यही वजह है कक रचना ककसी भी वाद से प्रभािवत होकर िलखी जाये रचना मं ऄंतर नहं कदखता । आसिलए रचना मं सभी िवचारधाराओं मं समानता पररलिक्षत होती है। संदीप तोमर : नए रचनाकार भी आन वादं से प्रभािवत हं। अपकी दृि​ि मं अपके युग के रचनाकरं मं और नए लेखकं मं अप क्या ऄंतर पाते हं..हालाकक अपको ककसी युग मं बांिकर नहं देखा जा सकता। िमश्रजी : (हँसते हुए) नया लेखक ऄच्छा िलख रहा है। िविभन्न िवधाओं मं िलख रहा है। ऄभी लोग ऄतुकांत िलख रहे हं। िजसे मं गद्य छं द कहता हूँ। ऄभी गद्य छं द का का दौर है। छंद िलखने वालो की संख्या बहुत कम है। िलखते तो बहुत हं लेककन रिक नहं पाते. बचते कम ही हं। हर समय मं ऄच्छा बुरा सब िलखा जाता रहा है.. आस बीच कु छ नयी िवधाएं भी अइ हं। ऐसी ही एक िवधा है हाआकू जो जपान से अइ है। हाआकू िलखने की भी एक भेड चाल सी अइ है.. कु छ लोगं ने िलखना शुरू ककया बाकक सब भी देखादेखी िलखने लगे हं। संदीप तोमर : हाआकू जैसी िवधाओं का भारतीय सािहत्य पर क्या प्रभाव पररलिक्षत हो रहा है? आसे अप ककस रूप मं देखते हं। कम शब्दं की िवधा है। िबना मेहनत के कोइ िलखता है तो बुराइ क्या है? िमश्रजी : हाआकू करठन िवधा है। कम शब्दं मं ऄपनी बात कहना मुिश्कल काम है लोग िलख भी रहे हं । आस शैली मं

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ज्यादा कु छ कहने को नहं है। बहुत सशि िवधा मं आसे नहं मानता। चंद शब्दं (नौ या दस) मं कोइ क्या सन्देश दे सकता है । ऄनेक िवधाएं हं िजनमं लोगो ने सन्देश कदया है ऄपनी बात कही है। दोहा, गजल के साथ किवता मं भी ऄनेक िवधाएं हं, गीत, नवगीत, छं दमय, छं दमुि लोगो ने सबमे ऄपनी बात कही है, कह भी रहे हं । ऐसे मं मुझे आस िवधा का भिवष्प्य ज्यादा ईज्ज्वल नहं लगता। संदीप तोमर : अपने ऄभी गीत, नवगीत, आत्याकद का िजक्र ककया । मंने अपके कु छ गीत पढ़ं हं लेककन वो अपके शुरुवाती लेखन के समय के हं। अपका गीत लेखन से ऄन्य िवधाओं की ओर पलायन या कफर लगाव का कोइ िवशेष कारण? िमश्रजी : मेरे लेखन मं किवता की शैिलयाँ बदलती रही। गीत पहले िलखे लेककन बाद मं किवता के ऄन्य रूप मंने ऄिधक िलखं । आसका तात्पया ये नहं कक गीत िलखना बंद कर कदया..गीत ऄभी भी िलखं हं लेककन गीत मं सारी बातं नहं कही जा सकती। गीत ऄभी गया नहं है. ऄभी भी चल रहा है। बहुत हं जो गीत िलख रहे हं. ऄच्छे गीत िलखे जा रहे हं। किवता िवधा ऄभी गद्य छं द वाली िवधा बन गयी है। सभी िवधाओं मं लोग ऄपनी बात कह रहे हं। ऄके ला जी : क्या लेखक वामपंथी, माक्सावादी या भाजपाइ हो सकता है? आस बात के क्या मायने हं?ऄगर कु छ लोग ऐसा करते हं तो क्या वो सही हं? िमश्रजी: ककसी वाद से प्रभािवत होकर दल बनाना मं ईिचत नहं मानता । ककसी के साथ ईठाना-बैठना ऄलग बात है । अचरण मं ककसी वाद से प्रभािवत होना ऄलग बात है। ककसी भी िवचारधारा से िबम्ब िलए जा सकते हं लेककन लेखक ऄपने अपको सीमाओं मं नहं बांधता। ि​िलोचन ने भी भारतीय जनता पािी से िबम्ब िलए तो क्या वो भाजपाइ हो गए ? ऄगर संदीप तोमर लेफ्ि से िबम्ब लेते हं तो ईन्हं वामपंथी कहना न्याय नहं होगा। ककसी को सम्मान िमलता है तो िववाद होता है । मुझे सम्मान िमला तो िववाद नहं हुअ। मुझे िमले सम्मन को सराहा गया.. ISSN –2347-8764

संदीप तोमर: अपके लेखन मं समाजवादी दृि​िकोण कदखाइ देता है ऐसे मं अपको ककस िवचारधारा के लेखक के रूप मं माना जाये? िमश्रजी : ऄगर अपके पास लेखन दृि​ि है तो अप गांधीवादी भी हं लोिहयावादी भी हं, माक्सावादी भी हं। मेरा माक्सावाद गांधीवाद और लोिहयावाद का िवरोध नहं करता। लोिहया के पास एक िवजन था लोिहया इमानदार िवचारक थे। लोिहया की इमानदारी पर ककसी को संदेह नहं है। अप ककसी भी वाद के हं अपके िवचार ऄन्य िवचारधाराओं का िवरोध न करं । अपका काम है रचनाकमा, अप आसे इमानदारी से िनभाएं। ऄके लाजी : जाितगत भेदभाव पर अपके िवचार ? िमश्रजी : िववाकदत मुद्दं पर बोलना मुझे ऄच्छा नहं लगता। मं स्वयं को िववादं से दूर रखता हूँ। मेरी एक किवता है िजसमं एक आं सान का ददा है शायद अपको ऄपने प्रश्न का जबाब िमल जाये— ये ककसका घर है िहन्दू का ये ककसका घर है मुस्लमान का ये ककसका घर है आसाइ का सुबह से ही भिक रहा हूँ मं खोजता वो एक आन्सान का घर कहाँ गया?...... जाितयां ख़त्म हो जाएँ तो ककतना ऄच्छा हो? ऄभी भी ऐसा है कक ईच्च वगा के लोग नीचे से ईठे लोगो को बदा​ास्त नहं कर पा रहे हं। ईनके साथ मार-पीि होती है तो हृदय अहात होता है। संदीप तोमर : आसकी पररणित धमांतरण के रूप मं देखी जा सकती है। िमश्रजी: अपने ठीक कहा, जब कु छ जाितयं को िहन्दू होने का लाभ नहं िमला तो वो धमा​ान्तररत हो गए.आस प्रकार की पररघिनाओं से बचने के िलए ईन्हं िविास कदलाना होगा कक वो समाज का एक िहस्सा हं। ईनकी ऄपनी ईपयोिगता है.. ऄपनी पहचान है। िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

ऄके लाजी : ऄभी गॉव पर कम िलखा जा रहा है। अपने कभी गॉव पर बहुत कु छ िलखा था। “जल िू िता हुअ”, “ऄपने लोग” जैसी कालजयी रचनाएँ अपने की हं । ऄब ऐसा क्या है कक लोग गॉव पर नहं िलख रहे? िमश्रजी : ऐसा नहं है। ऄभी भी गॉव पर िलखा जा रहा है.. िववेकी राय गॉव पर िलख रहे हं। अपके ईपन्यास “अवं की अग” की भूिमका मंने िलखी है वो भी गॉव पर िलखी रचना है तो गॉव पर ऄभी भी िलखा जा रहा है। ऄनतर िसफा आतना है कक पहले सब कु छ सहेजा जा रहा था ऄभी ऐसा नहं हो पा रहा है। संदीप तोमर : अपकी एक रचना पढ़ी थी– ऄभी भी अँखं को खंचते हं फू ल, पिे, मौसम , ऊतुएं और मं संवाद करता करता महकने लगता हूँ.. एक अिखरी सवाल – कहाँ से िमली प्रेरणा कक अप ये रचना िलख गए? लगता है आस ईम्र मं भी वो “मं” िजन्दा है? िमश्रजी: मन कहता है । मन कहता है कक मं अज भी छोिा बच्चा हूँ। मन मं ऄभी सृजनात्मकता है, मन मं बचपन है। प्रकृ ित के सौन्दया से मं ऄभी भी ताजगी महसूस करता हूँ। गॉव को जीने के िलए मं तत्पर रहता हूँ। ऄब गॉव जाना नहं हो पाता। तो यहं मकान के एक िहस्से मं बगीचा बना िलया है। ईसमं प्रकृ ित से जुडाव महसूस कर लेता हूँ। लेककन गॉव को नहं भूला जा सकता गॉव जो मन मं बसा है जो प्रकृ ित से लगाव है वही प्रेरणा देता है कक मं ऄभी भी िजन्दा हूँ। शरीर िशिथल है, तन कहता है चुप बैठे रिहये, शरीर स्वस्थ है लेककन ऄब थकान हो जाती है। अप लोग नव लेखन कर रहे हं। िलिखए, ऄच्छा िलिखए, िववादं से बिचए, मेरी शुभकामनायं अपके साथ हं। ऄच्छा ऄब िवदा चाहूँगा, मेरे िवश्राम का समय हो गया। (सािहत्य ऄकादमी पुरस्कार की शुभकामना के साथ संदीप तोमर और ऄिखलेश ि​िवेदी “ऄके ला” ने िवदा ली) ~✽~

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ररपोिा

ओपन बुक्स ऑनलाआन लखनउ चैप्िर वार्चषकोत्सव 2016 सौरभ पाण्डेय सुपररिचत सािहित्यक-संस्था “ओपन बुक्स ऑनलाआन डॉि कॉम” (ओबीओ) के लखनउ चैप्िर ने आस चैप्िर के संयोजक डॉ, शरकदन्दु मुकजी के िनदेशन मं कदनांक 22 मइ 2016 को ऄपना चतुथा स्थापना-कदवस स्थानीय िडप्लोमा आं जीिनयसा संघ, लोक िनमा​ाण िवभाग के प्रेक्षागृह मं मनाया। यह एक-कदवसीय कायाक्रम तीन सिं मं सम्पन्न हुअ। पहला सि ईिरप्रदेश हेवथ िमशन के वररष्ठ ऄिधकारी एवं सािहत्यकार डॉ. ऄिनल िमश्र की ऄध्यक्षता मं सम्पन्न हुअ. ओबीओ के संस्थापक एवं महा-प्रबन्धक श्री गणेश जी ‘बाग़ी’ तथा प्रधान-सम्पादक श्री योगराज प्रभाकर सि के िविशि ऄितिथ थे। सि का प्रारम्भ सरस्वती -वन्दना एवं दीप -प्रज्ज्वलन से हुअ। िजसके बाद ओबीओ, लखनउ चैप्िर की स्माररका ‘िससृक्षा’ के ि​ितीय ऄंक का िवमोचन एवं लोकापाण हुअ। अगे, ओबीओ, लखनउ चैप्िर के संयोजक डॉ. शरकिददु मुकजी ने ‘ऄंिाका रिका और भारत : ककतनी दूर, ककतने पास’ शीषाक के ऄंतगात ऄपने बेहतरीन स्लाआड-शो के माध्यम से भारत सरकार के ऄंिाका रिका ऄिभयान का रोचक िववरण प्रस्तुत ककया. ज्ञातव्य है, कक डॉ. शरकदन्दु मुकजी लगातार तीन बार भारत– सरकार के ’ऄंिाका रिका ऄिभयान’ के वैज्ञािनक-सदस्य रहे हं। दूसरे सि की ऄध्यक्षता वररष्ठ ग़ज़लकार ISSN –2347-8764

जनाब एहतराम आस्लाम साहब ने की। सि के िविशि ऄितिथ वररष्ठ सािहत्यकार श्री कुँ वर कु सुमेश तथा सिहदी सािहत्य के प्रिसि अलोचक डॉ. निलन रं जन सिसह थे। आस सि मं आलाहाबाद से अये िहन्दी तथा भोजपुरी भाषा के सािहत्यकार एवं वररष्ठ किव श्री सौरभ पाण्डेय ने ‘नवगीत : तथ्यात्मक अधार एवं साथाकता’ पर व्याख्यान प्रस्तुत ककया, िजसमं नवगीत िवधा से सम्बिन्धत कइ पहलुओं पर चचा​ा हुइ। आसी सि मं तीन पुस्तकं “ऄिहवयाएक सफर” (लेिखका – कुं ती मुकजी), “नौ लाख का िू िा हाथी” (लेखक – डॉ. गोपाल

नारायण श्रीवास्तव) एवं “मनस िवहंगम अतुर डैने” (लेखक – डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव) का िवमोचन हुअ। आन पुस्तकं पर क्रमश: डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव, डॉ. निलन रं जन सिसह तथा डॉ. बलराम वमा​ा ने सारगर्चभत समीक्षा प्रस्तुत की। साथ ही, श्री के वल प्रसाद ‘सत्यम’ िवरिचत “छं द कला के काव्य सौष्ठव” पर गीितका िवधा के प्रविाक एवं वररष्ठ सािहत्यकार श्री ओम नीरव ने समीक्षा प्रस्तुत की। तीसरे एवं ऄंितम सि मं ’लघुकथा’ िवधा पर एक कायाशाला अहूत थी, िजसका संचालन लघुकथा िवधा के जाने-माने िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

िविान परियाला, पंजाब से अये श्री योगराज प्रभाकर ने ककया। कायाशाला के ऄंतगात पंरह कथाकारं िारा लघुकथाओं का पाठ ककया गया। आन प्रस्तुितयं पर समीक्षा करने के साथ-साथ श्री प्रभाकर ने आस िवधा के मूलभत िनयमं और लेखकीय बारीककयं की चचा​ा करते हुए कहा कक “लघुकथा िवधा मं ’काल-खण्ड’ एक ऐसा प्रभावी िवन्दु है, जो लघुकथा को ककसी छोिी कहानी से ऄलग करता है”. कायाशाला का समापन प्रश्नोिरी से हुअ िजसके ऄंतगात रचनाकारं और श्रोताओं की आस िवधा से सम्बिन्धत िविभन्न शंकाओं का िनवारण ककया गया। आसी सि के ऄंितम भाग मं अमंि​ित किवयं िारा काव्यपाठ हुअ। पद्यिवधा की िविभन्न शैिलयं हुए काव्यपाठ ने सुिनयोिजत ईत्सव को स्मरणीय बना कदया। किव-सम्मेलन की ऄध्यक्षता ग़ािज़याबाद से अए हुए वररष्ठ सािहत्यकार एवं सुप्रिसि गीतकार डॉ. धनंजय सिसह ने की। किव-सम्मेलन के मुख्य ऄितिथ थे वररष्ठ सािहत्यकार एवं शास्त्रीय छन्द-ममाज्ञ श्री ऄशोक पाण्डेय ‘ऄशोक’ तथा नवगीत िवधा सशि हस्ताक्षर श्री मधुकर ऄष्ठाना। कायाक्रम का समापन ओबीओ, लखनउ चैप्िर के सह-संयोजक श्री के वल प्रसाद ‘सत्यम’ िारा धन्यवाद ज्ञापन से हुअ। ~✽~

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कहानी

ख़ूबसूरत घाव तरसेम कौर

एक बड़ा सा अलीशान पुराना घर था। वहाँ करीब चालीस बरस की एक औरत ऄपने पित, एक बेिे और एक बेिी के साथ रहती थी। ईसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान धरी रहती थी । सुन्दर सी साड़ी और ईससे मैसिचग करती सिबदी और हवके से गुलाबी रं ग की िलिपस्िक हर समय ईसपर सजी रहती थी । ऄपनी ईम्र की गहरी होती लकीरं को फाईं डेशन की परत से छु पाने की कोिशश करती वह एक चलतीकफरती सुन्दर तस्वीर ही लगती थी । घर के छोिे से बगीचे मं हरे भरे सुंदर फू लं के पौधे करीने से गमलं मं लगे थे। मेन दरवाजे से ऄन्दर घुसते ही भगवान जी की एक सुंदर बड़ी सी मूर्चत स्थािपत थी और मोगरा ऄगरबिी की खुशबू का झंका यकायक साँसं को महकाने लगता । एक कोने की ितकोनी मेज पर ताजे ऄखबार और पि​िकाएँ थं। दूसरी ओर शेवफ़ पर रखी हुइ अधुिनक िे मं मं जड़ी कु छ तस्वीरं बड़े ही सलीके से रखी थं। ईस बड़े से हाल मं से एक दरवाजा ककचन की ओर खुलता था, जहाँ सलीके से रखे बतान और वहाँ की साफ़ सफाइ ईस औरत की सुघड़ता को कदखला रहे थे । सामने वाली कदवार पर एक बड़ी सी पंिसल स्के च वाली एक ड्राआं ग िे म मं लगी बड़ी प्यारी लग रही थी और ईसके कोने मे ईस औरत का नाम िलखा था । ऄपने हाथ मं एक कपड़ा िलये वह डायसिनग िेबल पर रखी प्लेिं को पंछ कर सजा रही थी । सलाद की प्लेि को सजाना, और फलं को किज से िनकाल कर िेबल के संिर मं रखना। यह सब काम हो रहे थे कक ऄचानक से ईसके मोबाआल की बेल बजी और ईसने झि से बोला; "हैलो…" "पर मैने तो खाना बनाया है " ........और फोन कि गया । कफर ईसके चेहरे पर थोड़े मायूसी के बादल अए पर दूसरे ही पल वह सहज हो गइ, क्यंकक बच्चं के स्कू ल से वािपस अने का समय था । आसी कदनचया​ा मं से समय िनकालकर वह औरत बाहर भी ISSN –2347-8764

जाती - बच्चं की ककताबं लेने, साहब की पसंद की सिब्जयाँ लेन,े घर को घर बनाए रखने का सामान लेने। स्कू ल से लौिते ऄपने बच्चं को दोनं बाँहं मं भर लेती और बच्चं के साथ पित का आं तजार करने लगती। बच्चं की अँखं मं ऄपनी मासूम माँग के पूरे होने की चमक होती कक माँ कदनभर कहं भी रहे, पर ईनके स्कू ल से लौिने से पहले ईन्हं घर मं ईनके पसंदीदा खाने के साथ माँ हािजर िमलनी चािहए। यही िहदायत पित जी की भी थी। यह सारी कदनचया​ा एक घर की रहती ही है अमतौर पर । और हर दूसरी औरत के पूरे कदन की कहानी भी यही रहती है । पर ईस औरत की एक बड़ी मुिश्कल थी कक ईसकी ऄपनी हँसी, जो कभी िखलिखलाहि से गूँजती थी, वह नदारद थी ईसके चेहरे से । जो संतुि​ि के भाव होते हं, वे ईसकी फाईं डेशन की परत के नीचे कहं दबे थे । वह ढू ँढती थी ऄपनी वह हँसी, पर नहं िमलती थी वह ईसे ऄपने पास । बच्चे, जो ऄब बच्चे नहं रहे थे, हँसकर पूछते, "क्या खो गया है मैम? हम मदद करं ?" "नहं, मं खुद ढू ँढ लूग ँ ी।" ...वह ऄपनी झंप िमिाती हुइ कहती। "यहाँ, आस कमरे मं तो नहं है न !!!" ...बच्चे शायद ईसका मजाक ईड़ाते कफर ऄपनी पढ़ाइ मं व्यस्त हो जाते और माँ को भूल जाते, पर जब ककसी चीज की जरूरत होती या भूख लगती तो माँ की याद अती । बेिी जो ऄब यौवन की दहलीज पर खड़ी थी, पूछती, " हे मम्मी, जस्ि िचल् ..!!", तब लगता कक अज की ये पीढ़ी ककतनी सहजता से बातं को कह लेते हं, और एक हम हं कक ऄपने आमोशनल मन के चक्रव्यूह मं ही फं से रह जाते हं । ऐसे ही चक्रव्यूह मं फं सी वह औरत, जो एक सहज हँसी नहं हँस पाती थी, ईसे लगता था कक वह एक मुखौिा औढ़े रहती है हर पल । ऄपनी बहन से बात करते हुये, ऄपनी सबसे प्यारी सहेली से भी वह ऄब वैसी सहजता महसूस नही करती थी, मन खुल नहं पाता था ईसका । कु छ था, जो ईसे खुश होने से

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रोकता था । शाम हुइ, और बच्चे घर से कमरा बच्चं का था । वह रात एक और बाहर खेलने िनकले तो वह चुपचाप ऄपने नया घाव छोड़ गइ थी ईसकी अत्मा पर कमरे मं गइ । साड़ी ईतारी और ऄपने और शरीर के घाव को और गहरा गइ थी । ब्लाईज की दािहनी बाजू को जरा सा सुबह ऄलामा बजा । रसोइ मं से अवाजं िखसकाया और सामने की िेबल पर रखी अने लगं । " बच्चं .....चलो ईठो, स्कू ल के बेिनोवेि की िस्कन क्रीम को दािहने कं धे िलये देरी हो जायेगी । ....अप भी ईरठये पर कदख रहे गहरे लाल रं ग के बड़े से चाय बन गइ. है ।".....वह औरत एक सुन्दर िनशान पर मला और वािपस ब्लाईज को सी साड़ी पहने, धुले लम्बे बालं को ठीक से पहन कर दोबारा साड़ी ओढ़ समेिती चाय का कप िलये बेडरूम की ली, कफर से थोड़ा फाईं डेशन लगाया और तरफ चली गइ । पलकं के कोनं पर जो नमी अ गइ थी, ~✽~ ईसे पंछा और अँखं को ऄच्छा कदखाने के Tarsem Kaur c/o, Amarjit Singh िलये काजल का एक स्ट्रोक लगा िलया । M-14, Kirti Nagar, New Delhi कफर से वही गुलाबी रं ग की िलपिस्िक 110015 लगाइ और ऄपने होठं पर एक मुस्कान को भी सजा िलया । तो क्या यह एक घाव था जो ईसे हँसने से, िखलिखलाने से रोकता था ? शादी के ऄट्ठारह सालं मं जाने ककतने ऐसे घावं को ऄशोक ऄंजम ु वह छु पा छु पा कर रखती रही है, चुपके से मलहम लगा कर एक झूठी मुस्कान सजा मँहगाइ ने थामकर हाथं मं बंदक ू कर सहज होने की कामयाब कोिशश करती रही है । शरीर के घाव तो वह बेिनोवेि दुिखया से खुलवा िलया पुरखं का संदक ू लगाकर भर लेती थी पर ईसकी अत्मा पर जो ज़ख्म थे, ईनके िलये कोइ दवा नही थी। होरी ककडनी बेचता, धिनया बेचे लाज वह ररसते थे, ददा भी करते थे पर कदखते नही थे ककसी को भी । बाजारं की रािगनी, मँहगाइ का साज रात को जब बच्चं का खाना िनपि गया, तो पितदेव की कार का हाना सुनते ही वह लपक कर दरवाजा खोलने गइ, " अमदनी तो बढ़ रही, कफर भी रहे ईदास अज कु छ ज्यादा काम था ? " ....थोड़ा सब सिचितत कै से बुझे, मँहगाइ की प्यास िहचककचाहि के साथ पूछा । कोइ जवाब नहं। पत्नी का कदन कै से बीता, बच्चं की पढाइ की कोइ सिचता नहं। एक सुघड़ पत्नी थके -थके ईत्सव लगं, बुझे-बुझे त्यौहार के होने का यही अराम रहता है जीवन भर जरूरतं के कहकहे, मँहगाइ की मार पितदेव जी को । खैर, कफर से रात का वह पल अया जब पितदेव का हाथ ईस औरत के शरीर पर चलना शुरू हो गया । ईस क्या ईसका व्यि​ित्व है, क्या ईसकी औकात घाव पर भी गया तो एक अह के साथ ईस पानी पूछे प्यास से, पहले बतला जात औरत ने मुँह मोड़ िलया । वह घाव ऄभी दो कदन पहले का ही तो था । थोड़ी देर मं कफर वही खंचातानी । वह औरत ऄपनी मरूथल-मरूथल बफा है, पनघि-पनघि अग दबी सी अवाज़ मं िससक रही थी पर गलत-सही मं मत पड़, भाग यहाँ से भाग पितदेव को आस बात से कोइ फरक नही ~✽~ पड़ता । यह खंचातानी ज्यादा देर तक संपादक : ऄिभनव प्रयास नही चल पाइ क्यंकक िबवकु ल साथ वाला ashokanjumaligarh@gmail.com

दोहे

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दो किवताएं डॉ. साररका मुकेश 1 गम मं रहकर खूब िलखा ददा ग़ज़ल का गहना िलख चाहकर भी ना बोल सका ऄथा गरीब का सहना िलख ऄंधा है ऄब क़ानून यहाँ पर झूठ वकील का कहना िलख ऄथा जीवन का और नहं िमलझुल कर रहना िलख िचिड़यं-सी चहकं कु छ कदन घर मं बेिी और बहना िलख छोड़ के दुिनयादारी 'मुकेश' ककस्सा तोता और मैना िलख 2 माना तेरी माँग बहुत है मेरे भी खरीदार बहुत है कफ़सला ऄगर आमान ज़रा-सा िबकने को बाज़ार बहुत है ईसको देखा तो ये जाना मुझ जैसे खुद्दार बहुत है तुम हो एक ऄनार के जैसे िजसके िलए बीमार बहूत है नहं जरुरत हमं मेलं की ऄपने ही त्यौहार बहुत है हम क्यं देखं ताजमहल एक तेरे दीदार बहुत है ~✽~

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संस्मरण

रोशनी के शहर सिसगापुर मं सररता भारिया

यािा करना एक शौक के आलावा मुझे ईत्सािहत करता है वहां की ऄलग भाषा, संस्कृ ित, पररवेश, अबोहवा, को पास से महसूस करने को, िवदेश की वनस्पित, मौसम, बोल चाल, रहन सहन, ईनकी सोच ककस तरह से ऄलग है ऄपने देश से मुझे प्रेररत करते हं कु छ िलखने को आसिलए अपके समक्ष है मेरा सिसगापुर यािा संस्मरण ... मं सररता भारिया कदवली से हूँ ..अआये दोस्तं अप को भी ले चलूँ ऄपनी पहली िवदेश यािा पर । मेरे सपनं का शहर सिसगापुर । कु छ खट्टे और ज्यादा मीठे ऄनुभवं के साथ .... सिसगापुर : सिसगापुर दिक्षण एिशया मं आं डोनेिशया और मलेिशया के बीच िस्थत एक अधुिनक, संपन्न, अत्मिनभार, ऄनुशािसत, िवकिसत, सवा सुिवधा युि बहुत से धमं, संस्कृ ितयं, भाषाओं को एक जुि समेिे एक स्वतंि लेककन महँगा शहर है। यह 1965 मं मलेिशया से ऄलग होकर एक स्वतंि राष्ट्र बना । ऐसा कहा जाता है कक सुमािा का राजकु मार यहाँ िशकार के िलए अया तो ईसने यहाँ सिसहं को देखकर आसका नाम रखा सिसहं का पुर यािन सिसगापुरा । जो बाद मं सिसगापुर कहलाया । सिसह यहाँ का मुख्य प्रतीक भी है िजसे यहाँ पर मर्चलयोन कहा जाता है । सिसगापुर िवि की प्रमुख बंदरगाहं मं से एक और एक प्रमुख व्यापाररक कं र भी है। आसे प्रकृ ित का वरदान प्राप्त है यहाँ ऄपार सम्पदा है।

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भारतीय यहाँ कइ कारणं से सिखचे चले अते हं । सबसे पहले तो यह भारत के नजदीक है, यहाँ भारतीय अबादी भी काफी है, यहाँ मुख्य चीनी और ऄंग्रेजी भाषा बोली जाती है। आसिलए बातचीत मं असानी रहती है। सबसे ज्यादा यहाँ चीनी जनसंखया है, 8%यहाँ भारतीय रहते हं। सिसगापुर को सपनं का रोशिनयं का शहर कहं तो ऄितश्योि​ि नहं होगी। िलरिल आं िडया :- आसे छोिा भारत कहं तो कोइ गलत नहं होगा आस बाजार मं भारितयं की संख्या सबसे ऄिधक है,यहाँ हर तरह के पकवान ईपलब्ध हं,भारतीय पोशाकं , भारतीय खाना और िमठाआयाँ, भारतीय रे स्तरा वगेरह, छोिी छोिी दुकानं, संकरी सड़कं । आसी मं एक अधुिनक माल भी है मुस्तुफा माल । तैयार होने के बाद हम घूमने िनकल गए । हमं होिल के बाहर ही िैक्सी िमल गइ थी पहले से ही तय था हमं सेन्िोसा जाना है । संिोसा िीप : सिसगापुर का पया​ाय है संिोसा िीप जोकक एक प्रमुख पयािक कं र और मुख्य अकषाण है सिसगापुर का । यहाँ पहुँचने के िलए अप बस, के बल कार, MRT [मास रै िपड ट्रांिजि] यािन यहाँ की मेट्रो और िनसंदेह िैक्सी का प्रयोग तो कर ही सकते हं। यहाँ पर आतना कु छ है देखने को और ऄनुभव करने को कक अपको दो कदन भी आसे पूरा देखने के िलए कम ही लगंगे। आसके मुख्य अकषाण ऄग्रिलिखत है । यूिनवसाल स्िू िडयो : यहाँ प्रवेश के िलए 70$ से 200$ तक कइ तरह के पैकेज हं । लगभग 1 बजे हमने रिकि लेकर जैसे ही प्रवेश ककया तो मुँह से ऄनायास ही िनकला 'वाह' ऄद्भुत नजारा हॉलीवुड की दुिनया मं हम पहुँच गए थे। एक लैगून के आदािगदा एक कफ़वमी दुिनया बसाइ गइ है। आसमं लगभग 30 रे स्तरां और फू ड कोिा हं । सड़क पर हाकर भी हं, िजनसे अप पानी कोवड सिड्रक्स कु छ स्नैक्स भी ले सकते हं । लेककन िवदेश मं अये हं और अप शाकाहारी हं तो अपको घूमते हुए कु छ खाने को नहं िमलने वाला दुिनया की सबसे उँची रोलर कोस्िर, द लॉस्ि ववडा, फार फार ऄवे, क्रेन डांस, लेक ऑफ़ ड्रीम्स यहाँ पर भी लेजर शो होता है, फे िस्िव पाका , प्राचीन िमस्र के यादगार क्षेि ..वगेरह वगेरह यूिनवसाल स्िू िडयो की शान हं ।

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संिोसा के ऄन्य अकषाण : दुिनया का सबसे बड़ा ऄंडरवािर ववडा एक्वेररयम, िजसमं पानी मं एक लम्बी सुरंग मं अप घूमते है और ग्लास के बाहर सभी समुरी जानवर यािन एक तरफ पानी के नीचे की दुिनया मं अप स्वयं को समुर मं महसूस करते हं तो दूसरी तरफ पानी के उपर की दुिनया मं डोिवफन के साथ समय िबताकर अप रोमांिचत हो जाते हं, ररसॉट्सा ववडा [सबसे मंहगा कै िसनो], संिोसा िसनेब्लास्ि, फ्लाआं ग ट्रैपीज, गो ग्रीन साआककल, वेव हाईस संिोजा यहाँ नए लोगं को लहरं के दांवपेच िसखाये जाते हं और भी बहुत कु छ ...लेजर शो देखने के बाद हम वािपस होिल चले गए । दूसरा कदन अज हमने पहले से ही िू र एंड ट्रेवल से पता कर िलया था अज सिसगापुर जू जाने की तैयारी थी, आसके साथ ही है ररवर सफारी और नाइि सफारी । सिसगापुर जू : सिसगापुर जू की खािसयत यह है कक यहाँ सभी जानवरं को खुले मं रखा गया है कोइ भी सिपजरा हमं नजर नही अया । छु पी हुइ गहरी खाइ या काँच की कदवार से ईनकी पयािकं से दूरी बनाइ गइ है । अप अमने सामने ईनको देख सकते हं। हम कु छ देर पैदल चले और कफर हमने ट्राम से ही घूमना बेहतर समझा । ररवर सफारी : ररवर सफारी सिसगापुर जू और नाइि सफारी के बीचं बीच िस्थत है । आसका समय वही है सुबह 8.30 से शाम 6बजे तक । एक नदी अधाररत जू है ऄमेज़न नदी के असपास बड़े बड़े एक्वेररयम और कु दरती नजारं से सजा यह जू ऄपनी तरह का दुिनया मं पहला जू है । आसमं लगभग 5000 जानवर हं । बोि राआड के िबना ररवर सफारी ऄधूरी है । बोि राआड 10 िमनि की है.. पहली बोि राआड 11 बजे शुरू होती है और अिखरी 5.30 बजे ..यह मौसम अधाररत होती है । नाइि सफारी : यह संसार का पहला 'राि​ि जू 'है यहाँ पर अप जानवरं को खुले मं घूमते हुए देख सकते हं । अप ट्राम मं बैठते हं तो अपको िहदायत दी जाती है कै मरे की मोबाआल की फ़्लैश ऑन नहं करं और कोइ शोर नहं करं । यहाँ की रौशनी भी आस ISSN –2347-8764

तरह रखी गइ है जैसे चाँद की चाँदनी हो । एिनमल शो देखने लायक हं । तीसरा कदन दो कदन काफी गमी और ईमस भरे थे अज सुबह से मौसम सुहावना था । काफी देर से ईठे और तैयार होने के बाद हमने सबसे पहले अज पेि पूजा कर के ही कहं भी िनकलने का सोचा । बाररश मं सिसगापुर की खूबसूरती और भी बढ़ जाती है ईज्जवल चमकते हुए पेड़ और गगनचुम्बी आमारतं मन को छू जाती हं । क्लाका क्वे [CLARK QUAY]: यह एक ऐितहािसक जगह है िजसका नाम सिसगापुर के दूसरे गवनार एंड्रू क्लाका के नाम पर रखा गया है भी िमल चुका है । यहाँ 50 से ज्यादा होिल हं, लगभग 20 पब, बार िडस्को वगेरह हं । यहाँ रात को संगीत गूँजता है । नाच गाना खाना पीना ठं डी ठं डी हवा के साथ अप आस का अनंद ले सकते हं । बोि क्वे : पयािकं के िलए खास आं तजाम हं, यहाँ का सिहदी म्यूिजक लाईन्ज बहुत लोकिप्रय है । यहाँ भारतीय नताककयं को बॉलीवुड के गानं पर नाचते हुए देख सकते हं । ररवर क्रूज : बम बोि जो पहले मालवाहक का काम करती थी वेयरहाईस और जहाज के बीच ऄब लोगं को नज़ारे [साइि सीआं ग ] कदखाने का काम कर रही थी। एक घंिे का यह ररवर क्रूज और सुहावने मौसम से हमारा ईत्साह दोबारा लौि अया था जो दो कदन की गमी से हमने खो कदया था । मर्चलओन पाका : सिसगापुर िू ररज्म की ख़ास िनशानी है सिसह का बुत ..िजसे यहाँ पर मर्चलओन कहा जाता है । यह 8.6 मीिर उँचा है । संड्ज स्काइ पाका : यह दुिनया का सबसे मँहगा कै सीनो है, आस मं 2561 होिल के कमरे , 800,000 वगा फु ि का माल, अिा साआं स म्यूिजयम, दो िथएिर, दो तैरते हुए कक्रस्िल पवेिलयन, 500 िेबल के साथ दुिनया का सबसे बड़ा कै सीनो, आसकी छि पर 340 मीिर लम्बा स्काइ पाका है िजसमे 3900लोगं की व्यवस्था है, िस्वसिमग पूल और क्लब है। संसार का सबसे बड़ा छि पर बना यह ऄपनी तरह का एक ही िस्वसिमग पूल है । ऄगर आतना काफी नहं है िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

तो यह कह सकते हं आसने सिसगापुर की पहचान मर्चलओन की जगह ले ली है। ऄब स्काइ पाका सिसगापुर की पहचान बन चुका है। िलफ्ि के ऄंदर जाने के बाद हम मुिश्कल से 2 िमनि के ऄंदर स्काइ पाका की 56वं मंिजल पर थे। यहाँ कदखाइ कदया पूरा का पूरा सिसगापुर । बस कफर शुरू हुअ हर तरह पोज बनाकर ऄच्छा ख़ासा फोिो सेशन। एक तरफ उँची उँची आमारतं, एक तरफ समुन्र का नजारा, ईसमे रं ग िबरं गे क्रूज। एक तरफ गाडान्स बाय बे के ऄद्भुत नज़ारे । अनंद ही अनंद । गाडान्स बाय दी बे :-- यह 101 एकड़ मं बना हुअ है , यहाँ प्रवेश शुवक 8डॉलर से लेकर 28 डॉलर तक है । बािहरी गाडान्स की कोइ रिकि नही है। कु छ कु दरती पेड़ं के बीच कृ ितम पेड़ं से सजा हुअ बे जब लाआि एंड म्यूिजक शो मं चमचमाता है तो सबकी धडकनं रुक जाती हं । सुपर ट्रीज :--सुपर ट्रीज पेड़नुमा स्ट्रक्चर जोकक 25 मीिर से 50 मीिर तक उँचे हं यह विीकल गाडान्स हं जो कइ प्रकार के काम अते हं । छाया देने के , पौधे ईगाने के और बगीचे के एनवायनामंिल आं जन का काम करते हं । लम्बे लम्बे पौधं के बीच फ़ना, अर्ककड और बहुत सारे पौधे ईगाये गए हं । ये सोलर एनजी पैदा करते हं जो आनको लाआि देने के काम अती है, बरसाती पानी आकट्ढा करने के काम अते हं िजससे सिसचाइ की जाती है। सुपर ट्रीज को अपस मं जोड़ता हुअ स्काइवे लगभग 22 मीिर उँचा और 128 मीिर लम्बा है िजसके उपर जाकर आसे पास से महसूस करने के िलए आसकी 5 डॉलर की रिकि ऄलग से है। डोम गाडान्स [ग्लास हाईसेस ]:-- ये ऐसे हाईस हं िजनकी दीवारं और छि ग्लास की बनी हुइ हं िबना ककसी भी कॉलम के ..यहाँ दो ठन्डे कॉम्पेक्स हं दी क्लाईड फारे स्ि और दी फ्लावर डोम .. क्लाईड फारे स्ि ज्यादा उँचा लेककन 2 एकड़ मं बना हुअ है ,लेककन फ्लावर डोम नीचा और 3 एकड़ मं बना हुअ है । हम बुरी तरह थक चुके थे ऄब वािपस पैदल अने की िहम्मत नहं थी आसिलए हमने वही से िैक्सी ली और होिल पहुँच गए ।

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चौथा कदन : ECP : अज हमं इस्ि कोस्ि पाका जाना था यािन एक ओपन बीच आसिलए हम अराम से तैयार होकर िनकले । पहले पेि पूजा की और कफर िैक्सी ले कर वहां पहुँच गए। लगभग 15 ककलोमीिर लम्बा बीच कइ भाग मं बंिा हुअ है, आसमं िसफा D और G मं ही अप कं प लगा सकते हं वो भी ऄनुिमित के िबना नहं । यह बीच सिसगापुर वालं मं काफी चर्चचत है। धूप काफी थी लेककन बीच के ककनारे ककनारे पूरे पेड़ ही पेड़ थे आसिलए आतना महसूस नही हो रहा था। यहाँ साआककल पर हम बीच के ककनारे काफी दूर तक घूमे और कफर ओर्चचड रोड की िैक्सी ले ली। ओर्चचड रोड : सुना था यह शोसिपग के िलए बहुत ऄच्छी जगह है यहाँ बहुत सारे बड़े बड़े खुबसूरत मॉल हं और शानदार बड़े बड़े होिल भी। पयािक यहाँ ख़ास खरीदारी के िलए अते हं । बुगीज जंक्शन : बुगी स्ट्रीि जो कदखने मं पािलका बाजार और जनपथ की तरह लग रही थी। बहुत सारी शॉप्स और बहुत सारी बारगेसिनग भी िबलकु ल भारत जैसी । यहाँ अप सस्ते मं काफी कु छ खरीद सकते हं लेककन आतना सस्ता नहं । ऄन्य दशानीय स्थल : जूरंग बडा पाका : एक ऄन्य जूलॉिजकल गाडान है जो पिक्षयं पर कं करत है। ररवर थीम वाआवड लाआफ पाका : यह दुिनया भर की प्रिसि नकदयं के नाम पर बनाया गया है ,बाहर एक बोडा पर िलखा है ''दुिनया की नकदयाँ ''भारत के िहस्से मं गंगा नदी, िमस्सीिसप्पी नदी, मं पेडल कफश ,मेकंग नदी मं के ि कफश, यांत्ज नदी मं पांडा दशा​ाए गए हं । संग्रहालय : समं िवक्िोररया िथएिर मं सिसगापुर के प्रितिष्ठत कायाक्रम होते हं।नेशनल म्यूिजयम ऑफ़ सिसगापुर िजसे स्िोरी ऑफ़ द लायन भी कहा जाता है । आसमं बुि के दृश्यं एवं आितहास को दीघा िचिं सािहत्य प्रदशानी के रूप मं कदखाया गया है । िजसमं 'लाआफ अफ्िर डेथ 'को नीली रौशनी से और युि दृश्य सिसदूरी रौशनी से कदखाए गए हं, आसके आलावा भी यहाँ ढेरं म्यूिजयम हं । मंकदर : यहाँ िहन्दू चीनी, बौि मंकदर भी बहुत हं िजनमे ऄद्भुत कारीगरी के नमूने पेश ककये गए हं । आसके आलावा ISSN –2347-8764

मिस्जद, चचा भी हं समय हो तो आनको भी देिखये । पर्चलयामेि हाईस और बहुत सारी आमारतं ऄपने मं ऄपार खजाना समेिे हं । क्रूज : यहाँ कइ तरह के क्रूज हं जो एक कदन से लेकर कइ कदनं तक की समुरी यािा अपको करवाते हं । अपके समय,धन के ऄनुसार । सिसगापुर क्रूज अधुिनकता की और भव्यता की िमसाल हं ।अिखर वो समय अ ही गया जब घर वािपसी का कदन अया । हम भारत अने वाले िवमान मं बैठ गए । िैक्सी लेकर हम ने घर पहुँच कर चैन की साँस ली । सही ही कहते हं ..जो सुख छज्जू दे चौबारे वो बलख ना बुखारे । ध्यान योग्य िवशेष बातं: पासपोिा 6 महीने की समय सीमा तक वैिलड होना चािहए । वीजा की कारवाइ लगभग एक महीना पहले शुरू करं । करं सी बदलवा कर जाएँ सिसगापुर और यू एस डॉलर मं और बहुत जरुरी ईसका ईिचत िबल हमेशा साथ लेकर जाएँ। ऄन्तराष्ट्रीय ईड़ान के िलए ईड़ान से लगभग 3 घंिे पहले पहुँचं । सामान कम और घर से तोल कर ईतना ही ले जाएँ िजतना भार अपकी रिकि मं ऄंककत है । कोइ भी के िमकल या कोइ भी तरल पदाथा जो 100 ml से ज्यादा की बोतल हो अप नहं ले जा सकते चाहे कोवड सिड्रक,पानी ही क्यं ना हो और चाहे वो अधी खाली हो तो भी नहं । * कोइ भी नुकीली चीज कं ची, रे जर वगेरह अप हैण्ड कै री मं नहं ले जा सकते, आसिलए आसे लगेज मं पैक करं । खाने का कु छ भी खुला हुअ सामान नहं ले जा सकते पैक्ड सामान भी लगेज मं ही पैक करं । ऄगर अप मैनेज कर सकते हं तो पॅकेज लेकर ना जाएँ यह िनसंदेह काफी मँहगा रहता है और अपको ईनके ऄनुसार बंकदश मं घूमना पड़ता है । घूमने के िलए जूते बहुत ही अरामदायक लेकर जाएँ । मनपसंद खाने का सामान, नमकीन, मट्ठी, थेफ्ले वगेरह लेकर जाएँ शाकाहारी पयािकं को काफी सुिवधा होगी । क्रेिडि काडा या ट्रेवल काडा भी बहुत जगह ईपयोग हो जाता है, लेककन आसे छोिे छोिे मूवय चुकाने मं प्रयोग ना करं , क्यंकक हर बार कु छ िैक्स किता है । छाता लेकर जाएँ,बाररश कभी भी होने लगती है । काल कर के ककसी भी िैक्सी को बुलाएँगे तो िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

ईसके तीन डॉलर ऄितररि देने होते हं । दूसरे देश मं कहं भी घूमने जाएँ तो ऄपना पासपोिा साथ लेकर ही जाएँ । जनवरी फरवरी और जुलाइ से िसतम्बर बकढ़या हं सिसगापुर भ्रमण के िलए । सीखने लायक कु छ बातं : सफाइ कै से रखी जाये । पया​ावरण संरक्षण कै से ककया जाये। िबना ऄवरोध, िबना ट्रैकफक पुिलस के सुचारू सुव्यविस्थत यातायात । पैदल याि​ियं के िलए हर सड़क पर ज़ेबरा क्रासिसग। फु तीली, चुस्त, दुरुस्त, िनयमबि, समयबि खुशनुमा सिजदगी कै से िजयं । सख्त सुचारू कानून व्यवस्था, िबना ककसी पुिलस के , जो पांच कदन मं हमने कहं नहं देखी। एक महीने की यािा मं से कु छ ऄिवस्मरणीय पलं को पाँच कदन की यािा मं समेि पाए हमारा सौभाग्य था ।ककसी ने सही कहा है बहुत िनकले ऄरमान लेककन कम िनकले ख्वािहश ऐसी कक हर ख्वािहश पे दम िनकले । ~✽~

लघुकथा

नािक

ककरीि गोस्वामी 'स्त्री स्वातंत्र्य' िवषयक एक पररसंवाद मं से घर अइ हुइ रे खाबहन थक गइ थी । अठवं कक्षा मं पढ़ रही ईनकी बेिी मनीषा ने घर का सारा काम कर िलया था । माँ के अते ही वो पानी लेकर हािज़र हो गइ । पानी पीते हुए रे खाबहनने कहा; 'अज रसोइ मं भी हाथ बँिाना ।' रे खाबहन ऄखबार हाथ मं लेते हुए बोली; 'गाँव के लोग तो ऄभी भी पशु जैसे ही हं । ऄपने घर की औरतं को चार कदवारी से बाहर िनकलने ही नहं देते ।' मनीषा ने रसोइ मं से कहा; "माँ, स्कू ल मं एक नािक होने वाला है और मुझे प्रमुख भूिमका िमलने वाली है । मं िहस्सा लू? ं ' 'ख़बरदार ! ऄगर नािक-वािक की बात की तो ! लड़ककयं को यह शोभा नहं देता ।' रे खाबहन ने ितलिमलाते कहा । 'जी, माँ...' कहकर मनीषा चुपचाप रसोइ मं चली गइ । ~✽~ Mo. 98794 01852

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कहानी

पहचान अराधना राय 'ऄरु'

कल कक ही बात है मानो ऐसा लगता है कु छ बदला ही नहं, पित और बच्चं के साथ छोिे से शहर मं रहती थी, जीवन िनवा​ाह के िलए छोिी सी नौकरी मं संतुि सिजदगी जीने कक कला शायद इिर ने मुझे िसखा दी थी । शादी के दस साल बाद बसी गृहस्थी यत्न से बनाये बया के घोसलं जैसी ही थी, जो छोिा और सुंदर होता है । घर सँवारने-बुहारने मं सारा समय चला जाता था , समय ही नहं िमल पाता था कक कोइ और काम कर के हदय की अर्चथक िस्थित सुधार सकूँ , कभी - कभी ग्लानी से मन भर ईठता था। ऄपने अप को ऄपराधी मानती थी, आसिलए ऄपने काया दक्षता से प्रभा ने घर संभल रखा था । दो फिी चादरं को जोड़ कर ईस पर पेच वका कर बैठक कक चौकी पर मसनद लगा कर, सज़ा देती तो प्रभा मन ही मन ऄपनी तारीफ कर ईठती थी । काम से वि िनकाल कर बच्चं को पढ़ाने बैठती तो ईस के हाथ मं कशीदाकारी करने का सामान होता, कभी बच्चं के बचे कपडं को जोड़ कर ऄपने िलए ही कु छ बना रही होती थी। शाम को ह्रदय अये तो साथ मं एक लड़के को भी लेते अए, िजसकी वयस होगी कोइ 10 - 12 साल की । "आसे कु छ काम करा के देख लो प्रभा कफर बता देना," जूते ईतारते हुए हदय ने कहा "गरीब है रह जाएगा तो तुम्हारे घर के कामो मं हाथ बंिा देगा " । बगीचे कक सफाइ करने के बाद भूरा बोला -"माइ खाना दे दा", ईसकी गवइ भाषा सुन कर मेरे तीनं बच्चे ईस के अस पास बैठ कर यूँ मुँह ताकने लगे मानो ककसी नए जीव-जंतु को देख रहे हो। खाने के िलए भूरा ने हाथ बढाया ही था कक प्रभा ने कहा पहले हाथ धो लो कफर खाना नहं तो बीमार पड़ जाओगे । "माइ पानी ले अवा नहं तो काहे से धो ऄब" सा ऄिधकार भूरा ने प्रभा से कहा । ISSN –2347-8764

हाथ धुलाते हुए , प्रभा को भूरा कक फिी मैली कमीज़ िबलकु ल ऄच्छी नहं लगी । शायद यह माइ शब्द का चमत्कार था कक प्रभा भूरा के बारे सजग हो गइ थी, मन्नू की पुरानी शिाऔर मन्नू की हाफ पंि भूरा के िलए िनकाल कर एक तरफ रख दी । कागज़ कक प्लेि मं दो रोिी डाल कर बची -कु ची सब्जी रख कर प्रभा ने ईसे खाने को दे कदया । भूरा को चाव से खाना खाते देख पांच वषीय बबलू बोल ईठा "माँ मुझे तो यह सब्जी ऄच्छी नहं लगती, भूरा को कै से ऄच्छी लगी । भूरा ने खाना खा कर प्रभा को दोनो हाथ जोडकर ककसी व्यस्क कक भांित प्रणाम ककया । जाते हुए मुस्कु रा कर बोला हमारी मतारी -बाप ना हुये ना एही से हम सब खा लेइ ला । ऄगले कदन भूरा अया तो एक गठरी मं कु छ सामान था । कदन भर प्रभा के साथ काम करता स्वभाव से मृदल ु था भूरा और प्रभा के साथ व्यवहार कु शल भी होता गया । प्रभा कक एक नज़र बच्चं पर तो दूसरी भूरा पर रहती , कही िसगरे ि तो नहं पीता , दुसरे नौकरं कक तरह पैसे तो नहं चुराता । भूरा भी बालक ही था,पर िजसकी माँ नहं होती वो ही जान पाता है कक माँ क्या होती है । जब प्रभा बच्चं को पढ़ाती तो भूरा दूर बैठ कर देखता रहता , बीच बीच मं प्रभा के िलए चाय बना लाता , सर दबा देता, गरीब होने पर भी भूरा चररिवान है यह बात प्रभा कक तीखी नज़रं से बच नहं सकी । धीरे - धीरे नौकर और मालककन सच मं माँ बेिे सरीखे हो गए, ररश्तं मं सच्चाइ हो तब ही ररश्ते कदल से जुडते है । बेिा था आसिलए प्रभा भूरा को घर मं पढाइ करवाती रही । मैरट्रक और आं िर का आम्तेहान ओपन स्कु ल से पास कर भूरा ने जब सेना मं जाने की आक्छा प्रकि की तो वह प्रभा ही थी जो पित के सामने ऄड़ गइ, बात पैसो कक थी आतने हो ही जायेगे की ईसे

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परीक्षा कदलवा सके । मैरट्रक मं प्रभा ने व्यंग्य की नइ कलम भूरा को नाम कदया था, मान । िजस कदन भूरा सेना मं गया, ईस कदन प्रभा कक अँखं मं अँसू अ गए जा अज तेरी पहचान भूरा से मान हो गइ । मेरा क्या है. मुझे कौन सा डॉक्िर-आं जीिनयर बनना है ऄब सामान बाँधते हुए प्रभा ने सोमी पाण्डेय कहा बस याद रखना की कोइ थी । भूरा के पि अते रहे और प्रभा हसरत से सुनती रही । ना चाह कर भी अँसू िनकल कर गालो पर लुढ़कते जा रहे थे, "अँसू पोछने पर भीकमबख्त िनकलते जा रहे है ऄभी भी " प्रभा हँस कर ऑकफस से िनकली ही थी कक सामने ठे ले पर मं छे द करके , िजससे की सारा पानी बह बड़बड़ाइ, अँसू से भीगी रुमाल से लाल पानीपूरी की पापिड़यं मं खुसर फु सर शुरू जाए। हो चुकी नाक को पोछ कर, प्रभा ने हो गयी। खैर अज मंने ये सारा षड्यंि ऄपने कानो से अत्मिवभोर हो कर पसा से सरकारी ये लो, अ गयं सोमी महारानी, ऄब शामत देखा और अँखं से सुना। मंने भी सबक िचट्ठी िनकाली । "ईस पर िलखा थाशुरू..! िसखाने का दृढ़ िनश्चय ककया। माँ, दूसरी पापड़ी- ऄबे काहे की महारानी, सबसे पहले दोने के छे द को ऄंगल ु ी से बंद कर तूम ना होती तो मं ना होता और नहं भुक्खड़ है भुक्खड़, ऄब ऄपने पचीस तीस कदया। भरी पापड़ी का पहला वार ही िवफल बन पाती मेरी पहचान, पर कै से भूलू लोग तो शहीद हो ही जायंगे आसके मुंह मं। हो गया। मुंह मं बेचारी की कचर कचर चीख आस ऄनाथ तूम ने ही ऄपनाया था । पापड़ी की बरसाती मं भयंकर धक्कम पेल शुरू सुन कर मेरे भीतर के शैतान को बहुत मेरे पािसग अईि परे ड और रे िज़ग डे हो गयी। ईधर आमली वाला पानी ऄलग तसवली िमली। हालांकक िमची का वार बहुत पर अप को अना है, माँ तूम ही मेरी भुनभुना रहा थाही जबर था लेककन मंने ऐसे कदखाया कक पहचान हो । मान ईस वि प्रभा को -ससुरी जो खाती है वो तो खाती ही है बाद मं ईसका कोइ ऄसर नहं है मुझ पर, लेककन लगा मानो ईसकी भी पहचान बन गइ ऄलग से पानी भी मांगती है... (बाद मं भीतर ही भीतर मं ऄपनी सहेली मीठी चिनी हो माँ जो ऄपने बच्चं को खुद िमि कर तिनक जोर से) ऐ िमचा​ा भाइ! तिनक और ईसके यार दही को भी तलाश रही थी। पहचान देती है वही माँ होना, एक स्त्री िनकालो तो ऄपना सबसे तीखा वाला कु छ देर मेरा भक्षण जारी रहा। ईस ठे ला कक पहचान है । पाईडर, अज ऐसा मजा चखाते हं कक आस संग्राम भूिम मं मं काली की तरह िवचरती हुइ ईसने दरवाजे कक काल बेल बज़ाइ और समय तो रोये ही सुबह ऄलग से रोना पड़े आस कभी पापिड़यं को चूर चूर करती तो कभी दरवाज़ा खुलने पर तनु ने दरवाज़ा गोलगप्पा भक्षी चुड़ैल को... । खट्टे तीखे पानी का पान करती। प्याज और खोला आतनी देर लगा दी माँ मान मीठी चिनी कु छ कहना चाह रही थी कक दही छोलं की तो हालत ही खराब हो चुकी थी। भइया के पािसग अईि पर जाने की ने िमची को आशारा ककया और िमची और ऄंततः ठे ले वाले को ईन पर तरस अ ही गया तैयारी भी करनी है । लाल होकर डपिते हुए बोली, और ईसने कहा, - हे गोलगप्पा मर्कदनी, कल शायद वही हो जो जगत मं होता तू तो चुप ही रह। के वल मेरा लाल रं ग पायी पानीपूरी संहाररणी, छोला दही िनवाररणी अया है या कफर नहं क्योकक प्रभा को है बाकी साथ हमेशा ईस गोलगप्पा भक्षी ऄब शांत हो जाओ। आन्हं आनके ककये की बहुत ऄपने कदए संस्कारं पर नहं ईस प्रेम चुड़ैल का देती है। ही भयंकर सजा िमल चुकी है ऄब आन्हं माफ़ कक डोरी पर िविास था जो कभी 8 - चल फु ट ककनारे ! करो देवी। सालं मं मान और प्रभा के बीच बंधी िमची ने बेचारी मीठी चिनी को एकदम कोने तब जाकर मुझे तरस अया। चलते चलते थी । सच्चा ररश्ता मन का होता है खून मं धके ल कदया जहां से वह िबलकु ल नजर तीन चार पापिड़यं को ऄपने पेि के नका मं का नहं । नहं अ रही थी।तभी आमली बोली- आस दही पहुंचा कर ही कदमाग शांत हुअ मेरा। ऄंततः को भी छु प जाने को बोलो सािथयं। माना मंने चेतावनी देते हुए कक कल कफर अईं गी कक यह हमारी गंग का है लेककन ऄक्सर मीठी वहां से ऄपनी िवजय के ईन्माद मं गर्चवत चिनी के साथ भी सेि हो जाता है।नमक और ऄपने महल को प्रस्थान ककया। बाकी मसालं ने भी ऄपने ऄपने हिथयार पर ~✽~ धार चढ़ाना शुरू कर कदया और सबसे पहला बिलदान कदया पिे वाले दोने ने। ऄपनी तली

गुपचुप गोलगप्पे

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कहानी

ऄपनापन िनशा के ला

शीतल हमेशा की तरह पांच बजे जवदी ही ईठ गइ थी । ऄपने घर के कामकाज से िनपिने के िलए यह जरूरी भी था । घर मं ऄभी माँ-बाबूजी, राजू और गुिडया भी सो रहे थे । ऄपने पित िवजय को तो हमेशा ईन्हं ही जगाना होता है । ककतनी सुकून की नंद ले रहे हं सभी ! शीतल ने चैन की सांस ली । मगर मेरी ककस्मत मं यह सब नहं... गहरी सांस छोड़ते हुए वो बाथरूम की तरफ चली गइ । बाथरूम मं नहाने के िलए बाविी भरने नल चालू ककया, मुंह मं िू थब्रश और कु कर मं रखे छोलं के िलए गैस चालू कर कदया । जबतक नहाकर लौिूंगी, चने पाक जायंगे । आसी हडबडाहि मं ईसे याद अया कक अज तो ईसका जन्म कदन है। एकिीस साल पूरे हो गए थे । ईसने तैयार होते हुए ऄपने चेहरे को गौर से िनहारा । ईन्हं हवकी सी हँसी अ गइ। क्यूंकक अज भी ईनके चेहरे की चमक बरकरार थी। पढ़ाइ, कफर शादी, नौकरी पाने के िलए ऄनिगनत कोिशशं और ईसी के बीच दो बच्चे को जन्म देना । शीतल को लगा कक बीस से तीस तक के दस साल कै से बीत गए यह पता ही न चला ! ऄब तो स्िेि बंक मं ऄच्छी नौकरी थी । मगर शीतल महसूस करती कक िपछले दस सालं मं ईन्हं ने आं सान बनकर नहं, एक मशीन की तरह सिज़दगी को िजया है । िजम्मेदाररयं के बोज मं वो थम सी गइ थी । शादी के बाद िसफा नौ साल मं ककतना कु छ देख िलया था ईसने । सास की ऄस्थमा की बीमारी मं ईन्हं संभालना, ससुर जी सेवािनवृि होने के कारन घर पर ही रहते थे । गुिडया बड़ी और बेिा तो ईससे दो साल छोिा था । सुबह के काम और ऄपने िवचारं की दौड़ के बीच शीतल ऄपने पित िवजय को दो बार जगा चुकी थी । ईनका रिकफन भी ऄब तो तैयार हो गया था । घर के काम करते हुए खुशी थी कक अज ईनका जन्म कदन है । दोनं बच्चे को नहाने भेज कदया । आस बीच िवजय जाग गया था । माँ-बाबूजी मोर्लिनगवॉक पर जाने के िलए िनकले तो ISSN –2347-8764

शीतल ने ईनके पैर छु ए । माँ-बाबूजी चुपचाप चले गए । िवजय के िलए चाय बनाते हुए सोच रही थी कक िवजय ककचन मं अ गया । ईसे लगा कक िवजय पीछे से पकड़कर गले लगाकर ईन्हं जन्म कदन की बधाइ देगा । िवजय ऐसे ऄके लेपन के पलं का फायदा ईठाना कभी नहं भूलता था । िवजय ने किज से पानी की बोतल िनकली और चलते बनं । ऄब शीतल से रहा न गया । अँसूं डबडबा कर पलकं तक रह गए ... ईसने ऄपने अपको संभाल िलया । बच्चं को स्कू ल बस के स्िंड तक छोड़ने के िलए घर से बाहर िनकली । रास्ते मं दोनं बच्चे भी खामोश थे । वो जब घर लौिकर अइ तो माँ-बाबूजी भी घर पे अ गए थे । ईन दोनं का नाश्ता िेबल पर रखते हुए शीतल तेज़ कदमं से ऄपने कमरे की ओर बढ़ी । कपडे वोसिशगमशीन मं डाल कदए थे । कामवाली बाइ अकर दूसरे काम कर लेगी । शीतल ने ऄपना मोबाइल देखा । ककसीका भी िमसकॉल या मैसेज नहं था। मोबाइल को पसा मं डालकर वो ऑकफस की जरुरी फाआलं समेिती हुए ऑकफस जाने की तैयारी मं लग गइ । िवजय ने भी नाश्ता कर िलया था । शीतल ने ककसी के सामने एक नज़र भी न डाली और जवदी ही घर से बाहर िनकलने लगी । अज वो अधा घंिा जवदी जा रही थी । फ़्लैि से बाहर िनकलते ही पीछे से अवाज़ सुनाइ दी; "शीतल, मेरी दवाइ ख़त्म हो गइ है, लौिते वि ले अना ।" शीतल ने िबना पीछे मुड़े जवाब दे कदया; "जी, ले अईं गी ।" पार्किकग मं ऄपना स्कू िर चालू करके िनकल गइ । कदल पर बहुत दबाव सा महसूस हो रहा था । ऑकफस के िलए ऄभी थोडा वि था, वो मंकदर मं दशान करने पहुँच गइ । मन को शांत करके बैठ गइ । ऄपने अँसूं मुिश्कल से रोक पाइ । ऑकफस मं जाते ही वो ऄपने काम मं लग गइ । हाँ, बीच-बीच मं वो ऄपने मोबाआल को भी देख लेती थी। आसबार तो पापामम्मी या भैया का भी कॉल नहं अया और ईसकी दो ननंदे

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जो रात को बारह बजे कॉल करती थी, ईनका भी कॉल नहं अया था । वो मेरे जन्म कदन को कै से भूल गयी होगी? ऑकफस मं ककसी से कोइ ख़ास बात नहं की । दो-तीन सहकमी थे, िजन्हं जन्म कदन का पता था मगर अज ईन्हंने भी िसफा काम की बातं ही की थी । मानं अज शीतल का वि किता ही न था । ऑकफस ऄवसा ख़त्म होते ही वो स्कू िर को लेकर समंदर के ककनारे एक बड़ी सी चट्टान पर जा बैठी । ईन्हं घर जाने की इच्छा भी नहं हो रही थी । समंदर की हर लहर जैसे ईन्हं खुशी देने की बजाय िचढ़ाने को अ रही हो ऐसा महसूस कर रही थी । मन मं ऄजीब सी हलचल थी, क्या कु छ नहं ककया ऄपने पररवार के िलए ! सुबह पांच बजे से घर के कामकाज, नौकरी, मेहमान, दोनं नानंदं की शाकदयाँ, माँ की बीमारी का खचा, िवजय के साथ कं धे से कं धा िमलाकर िज़म्मेदारी िनभाइ है । दोनं ने ितनके -ितनके िमलाकर घर बसाया है । नौकरी करते हुए भी माँ-बाबूजी को ईनके समयानुसार पूरी तरह संभाला है । मगर अज... सभी ने जैसे ईसे एक मशीन समझ ली है । बच्चं, िवजय, माँ-बाबूजी को संभालने वाला एक रोबोि हो जैसे ! िजसे ऄपनी को भावनाएं नहं और न प्यार-मोहब्बत भरे जज़्बात ! ऐसी सिज़दगी से क्या? जैसे मेरी खुशी के िलए ककसी के पास न वि है न मायने । न जाने ककतने सवाल शीतल के मन मं घुमड़ रहे थे । बस, बहुत हो गया । मं ऄपनी सिज़दगी, ऄपने तरीके से और ऄपने िलए िजउँगी । आतनी कमाइ करके बचत ककसके िलए करती हूँ? सभी को मेरी कमाइ और मेरे काम से मतलब है । कोइ भी मेरा नहं है । ऄब तो िसफा मं ऄपने िलए िजउंगी । मन मं ऄजीब से िवरोह के भाव ईमड़ रहे थे और साथ ही अँखं से अँसूं बहने लगे थे । ईसने ऄपने अँसूं पंछे और स्कू िर ऄपनेअप घर की ओर चल कदया । िनजीव स्कू िर मं भी जैसे सजीव की तरह ऄपने घर लौिने की भावना हं ! ऄब तो रात का खाना भी कमलाबाइ बनाकर चली गइ होगी । शीतल ऄब जन्म कदन को भूलकर घर की डोरबेल दबाने लगी । जबतक दरवाज़ा खुले, वो ऄपने अप को संभलने मं लगी । कफर से बेल बजाइ पर दरवाज़ा खुला नहं । शायद दरवाज़ा खुला ही है । ईसने धीरे से दरवाज़े को धके ला । बैठक मं ऄँधेरा छाया हुअ था । दो कदम बढ़ाएं कक ऄचानक बैठक रौशनी से झगमगाने लगी । चारं तरफ से अवाज़ गूँज ईठी; "हैप्पी बथा डे िु शीतल..." शीतल की अँखं फिी की फिी रह गइ । यह कोइ ख़्वाब तो नहं...?? ईसने ऄपने अपको चूंिी भरकर माना कक ख़्वाब नहं, हकीक़त है । िवजय, माँ-बाबूजी.... भाइ राजू ! ओह गॉड ! सभी को मेरा जन्म कदन याद था । आतनी बड़ी पािी और आतना बड़ा सरप्राआज़ ! िवजय से अँखं िमलाने की सिहमत ईनमं नहं थी । आतने सारे मेहमानं को न्यौता कदया था कक पूरा घर भर गया था । बच्चे िलपि गए थे और माँ-बाबूजी और िवजय ने ही सारी व्यवस्था की थी । देर रात तक जन्म कदन का जश्न चला । मेहमानं के जाते शीतल ऄपने अँसूंओं को रोक नहं पाइ । वो न जाने क्या कदम ईठाने जा रही थी । ईसकी बीमार सास उठकर ने खुद स्पेश्यल खाना बनाया था । ससुरजी ने फू लं से कमरा सजाया था । िवजय, ननंदं ने मेहमानं की व्यवस्था संभाली थी । आतना बड़ा सरप्राआज़ ISSN –2347-8764

तो यह था कक पररवार के सभी सदस्य मुझसे बेशुमार प्यार करते हं और मं ही समझ न पाइ । शीतल के पास कोइ शब्द नहं थे, ऄपने बच्चं के साथ वो िवजय की बाँहं मं िसमि गइ । ~✽~

ग़ज़ल ऄदम गंडवी

तुम्हारी फाआलं मं गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये अंकड़े झूठे हं, ये दावा ककताबी है ईधर जम्हूररयत का ढोल पीिे जा रहे हं वह आधर परदे के पीछे बरबररयत है, नवाबी है लगी है होड़ सी देखो, ऄमीरी और गरीबी मं ये गांधीवाद के ढाँचे की बुिनयादी खराबी है तुम्हारी मेज़ चांदी की, तुम्हारे जाम सोने के यहां जुम्मन के घर मं अज भी फू िी रकाबी है

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कहानी

इदी डॉ. िवमलेश शमा​ा

शबाना दी कहना शुरू ईसने यूँही नहं ककया था ईसे..वह चाहती थी कक ईसके मन की सारी कलुषता शाय़द यह शब्द धो डालेगा पर कु छ मनं की मिलनता स्याही की तरह गाढ़ी होती जाती है और समय िमलते ही वह अपके मन के ईन सबसे पाक पलं को भी अगोश मं ले लेती है जो ऄभी कु छ देर पहले ऄबोध बालक से होठं पर मुस्कु रा रहे होते हं। सुजाता ऄक्सर दुिनया की बातं से परे शान होकर सजल हो जाया करती थी। जीवन के बहुत सारे ग्रे शैड्स देख लेने के बाद उँचाइयाँ ईसके िलए बहुत नीची हो गयी थी औऱ आसीिलए िजन ऄवसरं को सजोकर वो ऄपनी लेखनी से ईन्हं जीिवत करती चलती थी, वे ईसे भी बदले मं जीवन जीने की उजा​ा दे जाते थे। पर मानव मनोिवज्ञान बहुत कठोर होता है। वह ईन समतलं को भी उँचास मानने की भूल कर बैठता है जो वास्तव मं होते ही नहं और जाने ककतने डाह पाल बैठता है। सिज़दगी कदये की भाँित जलने का नाम है पर कोइ आस रीतने को भी प्रकाश का एकमाि रठकाना मान दीपक से ही इष्प्या​ा कर बैठे तो कफर अत्मा सुलगती रहती है लगातार और कफर ईस पर तमाम व्यावहाररक औषिधयं का लेप नाकाफी होता है । वो िवभाग मं पूणा मनोयोग से काम कर रही थी कक शबाना जो ईससे लगभग पन्रह बरस वररष्ठ थी ऄचानक दािखल हुइ। ईसकी नजरं मं ईसकी नकारात्मकता की शहतीरं हमेशा की ही तरह तेज थी। ईसने हँसकर ऄिभवादन ककया औऱ ऄपनी ऄकादिमक ईपविब्धयं की जानकारी, ईसे देने का ऄनुरोध ककया। बेहद ऄिधकाराना ऄंदाज मं ईसने हामी भरी और कॉलेज पररसर के ककसी कोने मं ओझल हो गयी। कइ कदनं के बाद ईसे एक मेल िमला जो ककसी ऄपररिचत फॉण्ि मं था। काम के दबाव मं वह खीझ ईठी थी। ईसे याद अया कक ईसने बात करते समय फॉण्ि का िज़क्र भी ककया था। सो ईसने बात ISSN –2347-8764

करने की बजाय फोन पर संदेश भेज कदया कक कृ पया आस फाँण्ि मं िाआप करवा दं, प्रत्युिर ऄसामान्य था, जवाब कफर से देना पड़ा कक मं ऄभी नहं कर पाईँ गी…कॉलेज का बहुत काम है । यह जबाव ईनकी वररष्ठता को कहं चुभ गया औऱ कफर जो जबाब पलिकर सामने अया वह ईनकी मानिसकता को ज़ािहर करने के िलए काफी था। कदन बीतते गए और सुजाता भी सहजता के भरसक प्रयास करती औपचाररकता के अड़ मं व्यावहाररकता िनभाती रही। पर िस्थितयाँ ऄनवरत बोिझल होती जा रही थी। काया​ालय संस्कृ ित का यह तकाजा होता है कक जो काम करता रहे ईसे काम के बोझ से आतना लाद कदया जाता है कक ईसकी सांसे बोिझल हो ईठती है और जो नहं करता वहाँ से हँसी के औऱ वाहवाही के आतने ठहाके गूँजते नज़र अएँगं कक लगेगा यह कोइ काया​ालय नहं वरन ककसी ककिी पािी का ऄिा है। आन सबके बीच वह िजए जाने का भरसक प्रयास करती िजसमं ईसका िलखना-पढ़ना शुमार था। अभासी जगत ईसकी वो िखड़ककयाँ थी जो िसफा ईन दृश्यं को देखती थी िजनसे वह प्रेरणा ले सकती थी। आन्हं िखड़ककयं मं एक िखड़की शगुफ्ता के दालान मं खुलती थी । जहाँ कक नैकीयत आतनी पुरऄसर और सादा थी कक सुजाता और वो कब दो िजस्म एक रूह हो गए पता भी नहं चला। दोनं मंसेजर पर तब तक बातं करते रहते जब तक तमाम हरी बि​ियाँ गुम हो जाया करती थी। ईसी की बातं मं ऄक्सर एक खंफ तारी हुअ करता था िजसे वो चाह कर भी नहं पूछ पाती थी। ईनकी इद और दीवाली यहं रोशन हुअ करती थी। यहं िसवैआयाँ बँिती और यही घेवर भी। इद यहाँ हर रोज गले िमलकर हँसा करती थी और जाने ककतने चाँद चैि बॉक्स मं एक साथ िखलिखला ईठते थे। जीवन की धूप मं यह सखा भाव ईसके जीने के िलए ईतना ही जरूरी था िजतना कक िलखना-

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पढ़ना। ईस शाम वह िखड़की देर तक हरी नहं हुइ थी। ईसके मन मं एक ऄनजाना खंफ़ ईतर अया था। रमजान का महीना था और लाहौर मं अतंकी धमाकं की खबर थी। ईसका नम्बर बंद अ रहा था। ईसके फोन ना करने की िहदायत के बाद भी ईसने फोन लगाकर ईसकी खैररयत जाननी चाही थी। पर फोन लगता तो बात भी बनती। रात 11.30 के असपास वो हरी बिी अिखरकार जली िजसका सुजाता को बेसब्री से आं तज़ार था। चैिबॉक्स हरा होते ही ईसने सवालं की झड़ी लगा दी थी–कै सी हो? कहाँ थी ऄब तक? ककतना फोन लगाया तुम्हं, ठीक तो हो? जवाब मं सेड इमोजी था । शगुफ्ता ने िलखना शुरू ककया, िाआसिपग का िैग चलते देख ईसके मन मं राहत थी। “सुजाता ! मं तुम्हं कु छ बताना चाहती हूँ। कहं यह सब सुनकर तुम मुझ से नफ़रत तो नहं करने लगोगी। “मं तुम्हं पहले भी बताना चाहती थी, पर एक भय मेरे भीतर पैठा रहता था। यहाँ िपछले साल जो हमले हुए थे, िनयाज़ ईसमं शािमल था। कु छ िपक्चसा से यह पुि​ि हुइ है और वो तब से लापता है। आन हमलं मं भी वह शािमल हो सकता है क्यंकक ईसने एक ऄलग राह चुन ली है। सवाल िपछली बार भी पूछे गए थे और आस बार भी पूछे जाएँगं। जवाब मेरा आस बार भी वही होगा कक मेरा ईससे कोइ वास्ता नहं, पर वास्ता कभी था तो... ।” यह सब सुनकर सुजाता कक ईं गिलयाँ की-बोडा से िचपक गयी थी। िनयाज ईसका भाइ था, िजसका िजक्र जाने ककतनी बार ईसकी बातं मं होता था। राखी पर ईसकी अभासी कलाइयं पर दो ऄदृश्य रािखयाँ ऄपनेअप ही बँध जाया करती थी पर िनयाज के आन कृ त्यं ने सुजाता के मन मं रोष भर कदया था। वह शगुप्ता की ईस पीड़ा के िशद्दत से महसूस कर रही थी। वह जानती थी की शगुफ्ता वहाँ सब ऄके ले जूझ रही है। ईसने िबना देर लगाए कह कदया था कक तुम िजतना ज़वदी हो सके यहाँ अ जाओ। ईसके िपताजी बड़े पद पर रह चुके थे सो ईसे आतनी परे शानी नहं होगी वह जानती थी। पर कफर भी तमाम िहदायते देकर ईसने ईसे अने के िलए बुला िलया था। ईसे खुशी थी कक वो पहली बार िमल रहे हं पर ईसकी खुशी पर एक स्याह ददा हावी था। अज ईसने तमाम ईदािसयं को तह करके कॉलेज जाने की सोची थी। कु छ देर प्रजंन्िेशन तैयार ककया और कफर एडिमशन प्रकक्रया मं ईसकी ड्यूिी की ईसे जानकारी िमली। वो हतप्रभ थी पर कफर भी सहजता से ईसने सब स्वीकार ककया। कु छ देर बाद िवभागीय बैठक की एक सूचना िमली जहाँ एक बार कफर ईसे शबाना के चुभते शहतीरं का सामना करना था। ईसने ईसके कु तकं का डिकर सामना ककया और ईन बातं का जबाब भी कदया जो देना जरूरी था। यह सब कहते सुनते हुए ईसके भीतर तुफान था, अत्मा पर ना जाने ककतनी ही खुरचनं के िनशान थे और अँखं थी ISSN –2347-8764

कक जाने ककतनी सुनािमयं को रोके थी पर ईसने ईसके स्तर पर अना ठीक नहं समझा। ईसकी जवाबी कायावाही मं ईसने ईसे बदतमीज और ऄहंकारी का तमगा दे कदया था। ईसे ईन्हं पलं मं डबडबाए मन मं पापा मुस्कु राते हुए नज़र अ रहे थे और ईनकी कही बात कक-“ िवरोध औऱ प्रितरोध अपको ऄलग खड़े कर देता है परन्तु ईस ऄलग खड़े होने की ऄपनी ज़रूरतं हं नहं तो अपका शोषण होता रहेगा। अदर सभी का करना चािहए पर सम्मान ईसी का जो ईसका वास्तिवक हकदार हो।” वो िथर थी, ईसने बाँध रखा था ऄपने िबखरते मन को । बैठक चलती रही ...काम से ईसे कभी समस्या नहं थी। पर ऄब ईसकी भी एक िजद थी कक काम सभी करं , एक ऄके ला नहं। हालांकक वह जानती थी कक आस परे शान करने वाली बैठक का कोइ हल नहं िनकलेगा और पररणाम भी वैसा ही रहा पर वह ऄपने प्रितरोध से संतुि थी औऱ संति ु थी इष्प्या​ा से जलती हुइ एक बचकानी मानिसकता के बेनकाब होने से। अज ईसे कहे गए कका श शब्द भी पुरसुकुन दे रहे थे पर वह खुश थी कक ईसने सिज़दगी की पाठशाला का एक ऄहम पाठ अज सीखा था कक ऄपने िलए कभी-कभी ना कहना भी ज़रूरी होता है और ऄगर बात ईसूलं की हो तो िकराना भी ज़रूरी हो जाता है। िवभाग से बाहर िनकलते हुए ईसकी अँखं डबडबा गयी थी पर सामने जो था ईसे देखकर ईसकी अँखं खुशी से छलछला गयं । कोइ मुस्कु राता हुअ ईसके अँसुओं को पढ़ने की कोिशश कर रहा था। गुलाबी िलबास मं िलपिी शगुप्ता ईसे ककसी फररश्ते से कम नहं लग रही थी। ईसने खुशी से कहा था इद मुबारक... शबाना यह सुन कर चंक पड़ी थी ...पर ये शब्द कहे ककसी और के िलए गए थे। ईसने एक मुस्कु राहि ईसकी चुभती नज़रं पर फं की और दौड़कर शगुफ़्ता के गले लग गइ। इद कल थी पर ईसे ईसकी सबसे मीठी इदी अज ही िमल गयी थी। ~✽~

किवता

अ िघर अइ दइ मारी घिा कारी ऄमीर खुसरो अ िघर अइ दइ मारी घिा कारी। बन बोलन लागे मोर दैया री बन बोलन लागे मोर। ररम-िझम ररम-िझम बरसन लागी छाइ री चहुँ ओर। अज बन बोलन लागे मोर। कोयल बोले डार-डार पर पपीहा मचाए शोर। अज बन बोलन लागे मोर। ऐसे समय साजन परदेस गए िबरहन छोर। अज बन बोलन लागे मोर। ~✽~

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किवता

किवता

मड़कम िहड़मे

मं एक किव हूँ

ऄि​िन कु मार पंकज

एिववन नररन भावानुवाद : मीना ि​िवेदी ऄपने शब्दंसे मंने सौन्दया की छिव बनाइ है क्या तुमने आसे देखा है? मेरे शब्दोने संगीत के सूरं की लड़ी सजाइ हं क्या तुमने आन्हं सुना है? मेरे शब्दंसे मै तुम्हारे कदलको छू ता हूँ क्या तुमने महसूस ककया? मै एक किव हूँ मेरे शब्द गुलाब की सुगिन्धत सुन्दरता सजाते हं क्या तुमने आन्हं सूघ ं ा है? मेरे शब्द ग़म के अंसू बहाते है क्या तुमने आसने चखा है ? मै एक किव हूँ मै गम की कहािनयां कहता हूँ मै शब्दं से सुन्दरता के गीत सजाता हूँ, मै सच्ची खुशीको शब्दो मं ढालता हूँ मेरे शब्द ऄन्याय के अक्रोश को अवाज़ देते है मै एक किव हूँ तुम मेरी भावनाओं पे हंसकर मेरे कदल को कै से झुिला सकते हो ? आतनी कठोरता से तुम मेरे कदल की ईमंगो की हँसी कै से ईड़ाओगे ? मंने तो मेरे हृदय को तुम्हारे सामने खोला संवेदन को तुम्हारे तक पहुँचाया तुम कै से आसे िीकाओं से चोि पहुँचाओगे तुम कर लो ऄपना िहस्सा मै करू ऄपना क्यूंकक मै किव हूँ .... ~✽~ (ि​ि​िनदाद-पोिा ऑफ़ स्पेन -िोबागो) ~✽~

मड़कम िहड़मे हमारे भी सपने हं सपने तुम्हारे भी हं क्या सपने कु चल जाते हं जब देह पर चढ़ अती हं कं पिनयां घर-पररवार से किी कुं रठत फौज मनोरं जन के िलए खेलने लगती है फु िबॉल न्यायालय मं वषं होती रहती है िजरह फु िबॉल खेलना संिवधानसम्मत है या नहं मड़कम िहड़मे तुम भी जनती बच्चे बच्चे हम भी जनना चाहते हं पर क्यं बच्चे जनने से पहले ही शुरू हो जाता है हमारी देहं का ईत्खनन दुिनयाभर के लोग लेकर चले अते हं फावड़े और शॉवेल मशीन और ईवार धरती जनने से पहले ही बना दी जाती है ऄनुवरा मड़कम िहड़मे तुम्हारी बलत्कृ त देह संिवधान की तरह पड़ी है िनष्प्प्राण हमारी जीिवत देह भी दबी हुइ है संिवधान से िजसके भीतर रोज दम तोड़ते रहते हं ऄक्षर एक अदमी ईसकी शपथ ले ले कर हर कदन कु चलता रहता है स्त्री जमीन कं पिनयां करती रहती हं ईत्खनन का िवस्तार फौजी लक्ष्यमण कािते रहते हं सूपानखा की नाक पांच सौ चालीस लोग हनुमान बने रहते हं सेवा मं ऄगर जीिवत रही तो बताउंगी ऄगली पीढ़ी को हर काल मं कै से बना रहा स्त्री देह युि का मैदान ~✽~ (एक हफ्ते पहले छिीसगढ़ के गोमपाड़ गांव की अकदवासी युवती मड़कम िहड़मे को ऄिासैिनक बलं ने घर से ईठाया और बलात्कार करने के बाद बीस गोिलयां मार कर हत्या कर दी. नक्सली वदी पहनाया और कहा कक मुठभेड़ मं मारी गइ. ) ~✽~ Editor, Johar Sahiya Flat No. 203, MG Tower, 23, East Jail Road, Ranchi834001, Jharkhand India

ISSN –2347-8764

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पाँच किवताएँ

सुबह होने तक

ग़ज़ल

रे खा मैिय े 1 यािा

3 सेनहोज़े [के िलफोर्चनया ]

ऄके ला कोइ िजए भी कै से ? ऐसा ही लगा था पहले । कफर चेतना का प्रकाश झरने लगा एक पल की तेज़ कंध बता गयी ईसे कक यािा स्वयं से स्वयं तक ही है अस - पास अने वाले भिकन ही देते हं पैरं की गित को धीमा ही बनाते हं सत्य की आस पकड़ ने रफ़्तार दे दी ईसे ! ✽ 2 िखड़की

रे त के घरंदं से पीले - पीले पहाड़ िजसमे कहं - कहं ईगे वनस्पित कु छ ऐसे लगं कक जैसे ककसी गंजे की िवरल के श रािश ऄपने सािथयं से िवदा लेती सी.... ! ✽

वातायन भी तुम्हारा कु छ ऄलग - सा माि पवन का ही अना - जाना नहं होता यहाँ पहाड़ - वृक्ष सबके सब झुण्ड बनाकर बितयाते हं वहां रोशनदान और वातायन की िमली जुली कृ ित तुम्हारी वो िखड़की कु छ बोलती -सी कु छ गुमशुम - सी ! ✽

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4 एक और पड़ाव

डगमगाता -सा चलने लगा कफर दौड़ने लगा । रुका , देखने पीछे कक कोइ पुराना साथी है या सब छू ि गए ? कफर ख़याल अया कक यहाँ तो नइ िमट्टी मं कफर ईसे िखलना है नया अकार देना है और..... वह जुि गया नए िसरे से पनपने की कोिशश मं ! 5 चांदनी रात चाँद का दोना जो लुढ़का चांदनी ढरक गयी दूर तक चली गयी असमान की खुली सड़क जो िमली सैर को िनकल गयी चाँद बेचारा िु कुर िु कुर ताकता ही रह गया ! ~✽~

आिलयास शेख और बेहतर भी कु छ हुअ होता मंने ग़र तुझको न छु अ होता । कल िमले थे वहाँ पे हम ईस वि धूप न होती, पर धुअ ँ होता । िगर गया होता हाथ से खंजर हाथ तेरा भी, हाँ दुअ होता । कू द जाता मं तेरी अँखं मं ग़र वहाँ पे कोइ कु अँ होता । हार ही जाता जानबूझ के मं प्यार हमारा ग़र जुअ होता ~✽~

हर बार जब एक नइ ज़मीन पर पहुँची पाँव ने ऄपनी ताक़त तौली । नन्हं बच्चे-सा िवश्व गाथा : जुलाइ-ऄगस्त-िसतंबर-2016

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लघुकथा

नइ कलम

दो किवताएँ

हॉिेल

पारूल भागाव

ककसलय दीिक्षत

सीतापुर छोिी जगह है । छोिी जगह के ऄपने फायदे और नुकसान हं । यहाँ प्यार भी बहुत िमलता है और इष्प्या​ा िेष भी । मन की क्षुरता कभी कभी लोगं पर हावी हो जाती है और बड़ी लकीर को िमिाने का ऄसफल प्रयास लोग करने लगते हं । तो हुअ यूँ कक हमारे आस प्यारे शहर मं एक सािहित्यक संस्था ने समारोह अयोिजत ककया । एक सिप्रिसपल के तौर पर मेरे पास पि भी अया कक मं ऄपनी छािाओं को अयोजन मं भेजूं । क्यंकक पि सिप्रिसपल को था मुझे एक सािहत्यकार के तौर पर बुलाया नहं गया था, तो मं कायाक्रम मं नहं गयी । ऄब हमारे शहर मं पीकढ़यं के सािहत्यकार ज्यादा हं, यािन बाप किव तो बेिा महा किव पोता तो स्वतः सािहत्यकार हो गया । ऐसे मं मेरे जैसी चप्पल चिकाने वाली बहनजी छाप देहाती लेिखका का स्पेस ही कहाँ है? ऄब करे ला नीम चढ़ा कक मं ऄवधी मं िलखती हूँ िजसको लोग भाषा ही नहं समझते । ऄब चाहे मेरी ककतनी ककताबं छपी हं, अकाशवाणी मुझे बुलाती हो, सािहत्य ऄकादमी भी कभी याद कर लेती हो, पर ईनको क्या ? तो जो सािहत्यकार बाहर से अये वे फ़ोन घुमाने लगे । मंने हंस कर िाला । तुम्हारे शहर का कै सा कायाक्रम है िजसमं सािहत्यकार ही नहं । मंने हंस कदया पर मं वहां गयी नहं । ऄगले कदन सन्डे था, एक गाड़ी भर कर सािहत्यकार मेरे घर अ गए । ईनमं लोकल लोग भी थे । अते अते फरमाआश हुइ सुबह से चाय नहं पी है । चाय िपलाओ । मं घर का काम खुद करती हूँ तो रसोइ मं घुस कर याद करने लगी क्या क्या कहा गया है । िबना दूध की चाय, िबना चीनी की चाय, िबना पिी की चाय, नीबू की चाय, मेरा सर चकराने लगा । ऄपने को ककसी तरह संभाल कर मंने सबके अडार पूरे ककये । ईनके साथ दो बच्चे भी थे, जो दोनं हाथं से आस तरह खा रहे थे जैसे जनम जनम के भूखे हं । ककसी तरह मंने बैठने का सौभाग्य पाया तो मेरे िलए प्लेिं मं कु छ शेष नहं था । तब तक अयाितत लेिखका के मोबाआल पर फ़ोन अ गया, अ जाओ पुरस्कार िवतरण का समय हो गया । सब ईठ पड़े । मं ईन्हं िवदा करके लौिी तो समझ मं नहं अया कक कहाँ से शुरू करू । घर कु रुक्षेि का मैदान था । मं सोच रही थी कक क्या मेरा घर होिल था जहाँ लोग िसफा खाने पीने अये थे? क्या यही सािहत्य है िजसके हम कसीदे पढ़ते हं? ~✽~ ISSN –2347-8764

1)

पहचान

समय के पिहये चलते रहे चलती रही जीवन की रफ्तार भी पहचानती हूँ खुद को आसी वहम मं जीती रही मं भी ताईम्र तराशती रही खुद को दूसरं की िनगाहं से समझाती रही मन को ऄक्सर वजूद मेरा नहं ककसी और की पनाहं से धूल ईड़ाती,चलती रही िजन्दगी तलाशती रही ऄपनी पहचान दुिनयाँ की भीड़ मं खो गइ दफनाती रही ऄपने ऄरमान ।।

2) दाँस्ताने िजन्दगी ऄजब दाँस्ता है िजन्दगी ऄनबुझे से हं ऄहसास न जाने ककतने ककस्से न जाने ककतनी कहािनयाँ कु छ ऄधूरी सी गज़लं कु छ कदल की पशेमािनयाँ ऄनसुलझी सी जीवन की राहं डगमगाती सी चल रही कहाँ है ठौर ,कहाँ है ककनारा मंिजल पता नहं , बस चलते जाना ऄनिगनत रचनाओं से िलखा जीवन का ये कोरा ईपन्यास बेतरतीब सा संग्रह है.... कु छ खट्टी मीठी यादं का कभी गम मं रं ग गए तो कभी खुशी से भर गए िजन्दगी के पन्ने यूँ ही किवताओं मं ढल गए ।।

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कहानी

दुभा​ाग्य से सौभाग्य डॉ. रमा ि​िवेदी

प्रकृ ित का खेल भी ककतना ऄजब है ककसी को जन्म लेने के िलए ईपयुि कोख का चुनाव करने का कोइ हक़ नहं है कक ईसे ककस घर मं या ककस तरह के माता िपता के घर मं जन्म लेना चािहए । बाग़ का माली ही यह तै करता है कक ककस पौधे को कहाँ रोपना है और वह रोप भी देता है चाहे वह जमीन पौधे के ऄनुकूल हो न हो । असना का जन्म भी कु छ ऐसी ही िवषम पररिस्थितयं मं हुअ था । ईसकी माँ अस्था ट्डूशन पढ़ने के िलए एक िशक्षक के घर जाती थी और ईस िशक्षक ने ईसके साथ बलात्कार ककया था । िनयित की क्रूरता देखो कक वह गभावती हो गइ । माँ -बाप ने लोक -लाज के डर से ईसे बंगलोर मं ले जाकर रखा और जब असना का जन्म हुअ तो वे ईसे एक ऄनाथाश्रम के िार पर छोड़ अए । बेबस अस्था को समझ ही नहं अ रहा था कक ईसके साथ यह क्या हो रहा है और क्यं हो रहा है ? लेककन ईसके वक्षस्थल का ममत्व ठाठं मार रहा था । वह ऄपनी बच्ची को ऄनाथाश्रम मं नहं छोड़ना चाहती थी लेककन वह तो ककसी प्रकार से भी समथा नहं थी । वह बहुत रोइ, घर वालं से िमन्नतं की कक ईसे ईसकी बच्ची दे दी जाय लेककन ईसकी सुनने वाला कोइ नहं था । कमिसन और मजबूर माँ अस्था को अिखर मं मन मसोस कर रह जाना पड़ा कक जब वह समथा हो जाएगी तब वह ऄपनी बेिी से िमल पाएगी । अस्था मेिडकल की पढ़ाइ कर रही है । समय िमलने पर वह ईस ऄनाथाश्रम मं जाने लगती है, जहाँ पर ईसकी बेिी पल रही है । कु छ समय असना के साथ खेलकर वापस अ जाती है । यह क्रम चल ही रहा था कक एक कदन अस्था को पता चलता है कक कोइ िवदेशी दम्पित असना को गोद लेना चाहते हं, यह सुनकर ईसका मन िवचिलत हो जाता है लेककन वह ककसी प्रकार से ऄपने मन को समझाती है कक - "ईसकी बेिी को माता -िपता का प्यार -दुलार और समाज मं जायज नाम तो िमल जाएगा ''। यह सोचकर ऄपने मन को कदलासा देती है, जहाँ भी रहे ईसकी बेिी खुश रहे, आससे ज्यादा ईसे कु छ नहं चािहए। जब कभी वह डॉक्िर बन जायेगी तब वह ऄपनी बेिी से िमलने ISSN –2347-8764

जरूर जायेगी । असना की अँखं बड़ी -बड़ी और बहुत सुन्दर थी ककन्तु रं ग बहुत काला था । आसिलए वह लगभग डेढ़ साल की हो गइ लेककन ककसी ने भी ईसे गोद लेने की पहल नहं की थी । क्यंकक सब लोग तो सुन्दर बच्चा ही गोद लेना चाहते हं लेककन ये िवदेशी दम्पित ने पता नहं असना मं ऐसा क्या देखा कक ईन्हंने ईसे ही पसंद कर िलया । िवदेश से बच्चा गोद लेने की कागजी कायावाही बहुत पेचीदा होती है और बहुत सारी औपचाररकताएँ िनभानी पड़ती हं । ऄत: रायना और डेिवड को जरुरी कागजात जमा करने मं काफी समय लग जाता है, कभी फ़ाआल अगे नहं बढती तो कभी यह प्रमाण पि तो कभी कु छ और कागज़ चािहए आसी मं समय िनकलता जाता है । छै माह की कड़ी मशक्कत के पश्चात अिख़रकार वह कदन भी अ ही गया जब भारतीय कोिा ने ईन्हं बच्ची सौपने के िलए भारत बुलाया । रायना और डेिवड अश्रम के ऄन्य बच्चो के िलए चॉकलेट्स, कपड़े एवं ऄन्य ईपहार लेके अये । जब ईन्हंने बच्चं को कदया तो बच्चे बहुत खुश हुए लेककन अस्था को दुःख हुअ कक ऄब वह ऄपनी बेिी से िबछु ड़ने जा रही है । बेिी से िबछु ड़ने के एक कदन पहले वह ऄपनी बेिी के िलए चाँदी की पायल और बहुत सुन्दर ड्रेस लेकर अती है और ईसे पहना कर बहुत देर तक ईसके साथ खेलती रहती है । बहुत प्यार-दुलार करती है । अज ईसका ममत्व ईमड़ -ईमड़ पड़ता है । कल से वह ईसके साथ नहं खेल पाएगी यह सोच- सोच कर ईसका कलेजा िसहर-िसहर जाता है लेककन वह ऄपने मन को ढाढस बंधाती है कक जब कभी वह समथा हो जायेगी वह ईससे िमलने ऄवश्य जायेगी । ऄगले कदन कोिा मं जज के समक्ष कागजी कायावाही पूरी हो जाती है । रायना और डेिवड कानूनी कागजात पर ऄपने हस्ताक्षर कर देते है तत्पश्चात तमाम िलिखत शतो के बाद ईन्हं असना संप दी जाती है । रायना और डेिवड ने असना को गले लगाकर बहुतबहुत प्यार ककया, ईनका ईत्साह और ख़ुशी देखने लायक थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था कक जैसे दुिनया का कोइ ऄनमोल

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रत्न ईन्हं िमल गया हो । असना का दुभा​ाग्य पलकते झपकते ही सौभाग्य मं बदल गया । पहली बार ईस मासूम की हवाइ यािा अरं भ हुइ और असना देखते -देखते यूनाआिेड स्िेि ऑफ़ ऄमेररका के कै िलफोर्चनया स्िेि, सैन होजे शहर पहुँच गइ । मेरी बेिी ऄचाना ने बताया कक अज हम बेबी असना से िमलने होिल जा रहे है । हम दोनं जब होिल पहुंचे, मंने देखा कक रायना और डेिवड दोनं असना के पीछे -पीछे दौड़ रहे हं, ईसे पकड़ -पकड़ कर खाना िखला रहे हं। यह दृश्य ऄत्यंत मनभावन था। दोनं पित पत्नी दूध के समान गोरे और असना का रं ग कोयले सा काला । ईसे देख कर होिल के मािलक ने पूछ ही िलया कक - "साहब ! क्या यह अपकी बच्ची है '' । डेिवड ने गवा से कहा; "जी, हमारी ही बेिी है'' । ककन्तु होिल मािलक के अँखं के हाव-भाव यह बता रहे थे कक वह ईनके ईिर से संतुि नहं हुअ । तब डेिवड ने ईसे बताया – हमने आसे भारत जाकर गोद िलया है तब कहं जाकर ईस की शंका का समाधान होता है । एक कदन ऄचाना के हाथ मं बहुत सुन्दर िनमंिण काडा देख कर मंने पूछा –"यह ककसका िनमंिण है''? तब ईसने बड़े ही ईत्साह से बताया कक अपको याद है न हम एक बेबी से िमलने होिल गए थे । मंने कहा – "हाँ हाँ ईसका नाम असना था"। तब वह बोली – "अज ईसी बेबी असना की वेलकम पािी है''। हमं वहाँ जाना है । हम दोनं ईस पािी मं गए तो मंने देखा कक दोनं पित पत्नी राजस्थानी परं परागत पोशाक मं ऄितिथयं का स्वागत कर रहे हं और असना को भी चिनया चोली पहना रखी है और ईसने पैर मं पायल भी पहनी है । वह खूब आधर-ईधर दौड़ रही है और सब लोग ईसके साथ खेलने की कोिशश कर रहे हं । मं अश्चया चककत रह गइ कक िवदेशी दम्पित भी आतना खुश हो सकते है ? कइ सवाल मन मं ईठे और जवाब पाने की ईथल पुथल मन मं मची रही । पािी बड़े ही धूमधाम से हुइ। बड़ो ने और बच्चो ने खूब लज़ीज़ खाना एन्जॉय ककया। बच्चं ने गेम्स खेले, ढेर सारे बैलून ईड़ाए । मिहलाओं और बच्चं को ररिन्सा िगफ्ि चूिड़याँ सिबदी, संिेड साबुन, चॉकलेट्स, बैलून्स और के क भी िमला । सब लोगं ने पािी खूब एन्जॉय की और ख़ुशी-ख़ुशी सब ऄपने घर चले गए । असना से मेरी एक और मुलाक़ात रायना के घर पर हुइ । मंने वहाँ पर देखा कक रायना सिहदी मं बोल -बोल कर असना को आडली,चिनी और सांबर िखला रही है । मंने अश्चया चककत हो पूछ ही िलया – "रायना तुमने साईथ आं िडयन खाना बनाना, कब और कै से सीखा"? रायना ने बड़ी सरलता से ईिर कदया – "असना को लाने से पहले मंने साईथ आं िडयन खाना बनाने का कोसा ककया क्यंकक आसे यही खाना खाने की अदत थी"। तब मंने पूछा – "तुमने सिहदी बोलना कब सीखा"? ईसने ईिर कदया – "बस थोड़ा -थोड़ा रोमन मं िलख कर बोलना सीख िलया"। ISSN –2347-8764

क्यंकक असना को आं िडया का वातावरण, रहन सहन, वेश भूषा एवं खाना -पीना जो देना था वना​ा नए वातावरण मं बच्ची सहज नहं हो पाती और ऐसे मं ईसके बीमार पड़ जाने की संभावना बढ़ जाती । हम नहं चाहते थे कक बच्ची के साथ ऐसा कु छ हो। तब मंने यह भी नोरिस ककया कक रायना पंजाबी ड्रेस पहने हुए थी । मेरे मन मं कइ प्रश्न ऄब भी कु लबुला रहे थे पर संकोचवश पूछ न सकी । मंने घर अकर ऄपने ऄचाना से पूछा – "रायना की ईम्र बहुत कम है, वह खुद भी बच्चा पैदा कर सकती थी क्यं नहं ककया?" मेरी बेिी ईसके जीवन के बारे मं सब जानती थी ईसने बताया कक रायना की फे िमली मं ईम्र बढ़ने पर ऄंधे होने की वंशानुगत बीमारी है, ईसके फादर पचास वषा मं ऄंधे हो गए । रायना ने आसिलए खुद का बच्चा नहं ककया क्यंकक डॉक्िर का कहना था कक ऄगर ईसने बच्चा ककया तो ऄंधे होने का प्रोसेस और भी जवदी शुरू हो जाएगा ऄत : ईसने खुद का बच्चा नहं ककया और बच्चा गोद ले िलया । ईसके पित ने भी ईसका साथ कदया और वे आं िडया से बच्चा गोद ले अये क्यंकक ईनके पास पैसे कम थे और यहाँ की ऄपेक्षा वहाँ कम पैसे से भी बच्चा गोद ले सकते है । भिवष्प्य मं ईसे ऄभी एक और ऄँधी बच्ची गोद लेनी है और वे जरूर लंगे । ईसने एक ऄंधी िबवली भी पाल रखी है । मं यह सब सुन ऄवाक रह गइ और सोचने लगी वो आतनी संवेदनशील कै से बनी? जो ऄंधे जानवर की भी देखरे ख करती है। और मंने ऄचाना से पूछ ही िलया कक क्या ईसके जीवन मं कोइ ऄनहोनी घिना घिी है ? तब ऄचाना ने बताया कक ईसके बॉय िं ड ने ईसके साथ रे प ककया था िजससे वो गभावती हो गइ थी लेककन ईसकी माँ ने ईसकी मज़ी के िखलाफ ईसका ऄबॉशान करवा कदया था और कफर ईसकी शादी करवा दी । मंने पूछा - "क्या ईसका पित ईसका ऄतीत जानता है?" ईसने बताया – "ईसका पित ईसके भाइ का दोस्त था और ईसे सब पता था क्यंकक यहाँ पर यह सब बहुत कॉमन है और कोइ छु पाता नहं है । ईसके पित का ऄतीत वह भी जानती है, ईसकी पत्नी ईसे छोड़ कर ऄपने बॉय िं ड के साथ चली गइ लेककन ये दोनं ऄब बहुत खुश हं ।" मेरे मन ने भी सारे तार जोड़ने शुरू कर कदए कक रायना की संवेदना का ईद्गम कहाँ है? पर ऄब मं बहुत खुश थी कक रायना ने ऄपने दुःख को भी ऄपनी सकारात्मक सोच के िारा न के वल खुिशयं मं बदल कदया बिवक जीवन मं सही समय पर सही िनणाय लेकर ऄपनी समस्याओं का सही समाधान भी ढू ंढ िलया। मं सोचने लगी, यह सच मं यशोदा माँ है । खुद ने बच्ची को जन्म नहं कदया तो क्या हुअ लेककन गोद ली हुइ बच्ची का पालन -पोषण ककतनी लगन, प्रेम और इमानदारी से कर रही है, आसे देखकर कोइ ऄनुमान भी नहं लगा सकता कक आस बच्ची को आसने जन्म नहं कदया । मन से ऄनायास ही िनकला-धन्य है माँ की ममता । माँ देशी हो या िवदेशी ईसका ममत्व एक समान ही होता है । काश ! हर ऄनाथ बच्चे का सौभाग्य असना जैसा बन जाता तो देश के तमाम ऄनाथ बच्चं की समस्या हल हो जाती। ~✽~

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नइ ककताब

पीपल िबछोह मं प्रीती 'ऄज्ञात' नयनािभराम मुखपृष्ठ और ईत्सुकता ईत्पन्न करने वाला शीषाक िलए 'पीपल िबछोह मं' पुस्तक, पहली ही झलक मं अपका ध्यान अकर्चषत कर पाने मं सफल हो जाती है। िछयासठ रचनाओं से सुसिज्जत आस पुस्तक मं रचनाओं का चयन ऄत्यन्त सुरुिचपूणा तरीके से ककया गया है। कहं कोइ जवदबाज़ी नहं और न ही ऄनावश्यक दोहराव है। नौरियाल जी की रचनाएँ समसामियक घिनाओं और समाज के िविवध पहलुओं पर खुलकर बोलतं हं। आसके साथ ही ये प्रकृ ित की छु ऄन तले सहजता से िवचरण करते हुए, ऄत्यन्त सहृदयता से मानवीय ररश्तं को स्पशा करती चलतं हं। आस संग्रहणीय 'काव्य-संग्रह' के िलए पुन: मेरी शुभकामनाएँ "अदरणीय ओमप्रकाश नौरियाल जी की रचनाएँ िपछले दो वषं से पढ़ रही हूँ। कभी स्पि रूप से तो कभी ऄपने व्यंग्यात्मक चुिीले ऄंदाज़ मं, िक्लिता की ईबाउ दुिनया से परे रहकर; एक अम आं सान की भाषा मं िलखे गए आनके मुिक और छं दमुि रचनाएँ मुझे सदैव ही अकर्चषत करती रहं हं। सामािजक िवसंगितयं, राजनीितक िंि, जीवन की जद्दोजहद से जूझते मानव की समस्याओं, ईलझनं और नैितक मूवयं के पतन पर आनकी लेखनी खूब चली है। ये किाक्ष भी करते हं तो एक मुस्कान के साथ! आनके शब्द, अपके साथ एक सोच छोड़ जाते हं और यही ईनकी साथाकता भी है। 'पीपल िबछोह मं' संग्रह जीवन और समाज के आन्हं मूवयं को स्पशा करता है। आनकी रचनाओं मं समाज के सभी वगं को समान रूप से समािहत करने की कोिशश है और ईसे एक नइ कदशा व जागरूकता प्रदान करने की हठ भी साथ ही दृि​िगोचर होती है। नौरियाल जी दोहे, नवगीत, घनाक्षरी और छं दमुि िवधाओं मं पूणा सहजता और प्रभावी ढंग से िलखते रहे हं। यह काव्य-संग्रह ईनकी आसी ऄसाधारण ऄिभव्यि​ि क्षमता का सजीव ईदाहरण है। आस पुस्तक मं कइ ऐसे तत्वं को समािवि ककया गया है, जो ऄन्यि दुलाभ हं। सामािजक सरोकारं से ओतप्रोत यह पुस्तक ऄिधकािधक पाठकं तक पहुँच ईन्हं रुिचकर लगे तथा नौरियाल जी आसी सकक्रयता और तन्मयता से सािहत्य सृजन की आस ऄत्युवार भूिम को दीिप्तमान कर हम सभी को लाभािन्वत करते रहं। ISSN –2347-8764

पृष्ठ संख्या 136 की सिजवद पुस्तक शुभांजिल प्रकाशन, कानपुर से प्रकािशत हुइ है और Flip cart तथा Amazon पर ईपलब्ध है, आस संबंध मं श्री नौरियाल (मो. 9427345810, Email ompnautiyal@yahoo.com) से सीधा संपका ककया जा सकता है । पुस्तक की भूिमका ऄंतराष्ट्रीय ख्याित प्राप्त सािहत्यकार अदरनीय डा.कुँ ऄर बेचैन जी ने िलखी है । मेरी शुभकामनाएँ, मंगलकामनाएँ !" ~✽~

गज़ल

सािहल

खुशी के साथ हुये सारे हादसं से पूछ छु पा कदए हं कहाँ ऄक्स अइनं से पूछ बयान होने से पहले जो बोल िबखरे हं ईसी की गूँज का मायना खववातं से पूछ पता चलेगा - है कौन ककतने पानी मं खुदा का हुिलया कभी पीरं-मुर्चशदं से पूछ जो पैदा पानी मं होके भी तरसे पानी को तरस है क्या—सूखे दररया की मछिलयं से पूछ ग़मं के ककतने सरोवर वो पी गइ होगी जआफ चेहरे की बेबाक झुर्ररयं से पूछ ये ख्वाब-ख्वािहशं-जज़्बे-तमन्ना-ईम्मंदे खामोश क्यं है- खतं की ईदािसयं से पूछ हुवा क्या हश्र मेरी भीगने के सपनं का कभी तो शोभा-नुमा मेरे सावनं से पूछ ~✽~ सािहल : 'नीसा', 3/15, दयानंद नगर, राजकोि-360002 Mo. 94287 90069

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शोधपि

िहन्दी सािहत्य के प्रमुख व्यंग्यकार डॉ. जागृित ए. पिेल गुजराती िवभाग, अट्सा कॉलेज शामलाजी (गुजरात) Email : jagu772020@gmail.com

अज सािहत्य की ऄनेक कृ ितयं मं व्यंग्य ककसी न ककसी रूप मं ऄवश्य मौजूद है और ऄब तो व्यंग्य को एक ऄलग िवधा ही माना जाने लगा है, क्यंकक आसका ऄपना िवधागत स्वतंि ऄिस्तत्व है । व्यंग्य की आस व्यापकता को स्वीकार करते हुए िहन्दी के प्रितिष्ठत व्यंग्यकार हररशंकर परसाइ कहते है कक— “व्यंग्य की प्रितष्ठा आस बीच काफी बढ़ी है । वह शूर से क्षि​िय मान िलया गया है । व्यंग्य सािहत्य मं ब्राह्मण नहं बनना चाहता, क्यंकक वह कीतान करता है ।”1 हमारा वतामान समाज ऄन्याय, ऄनाचार, पाखंड, काला बाजारी, छल, दोमुँहापन, ऄवसरवाद, ऄसामंजस्य तथा अर्चथक, सामािजक, धार्चमक एवं राजनीितक िवसंगितयं से िघरा हुअ है । स्वतंिता के पश्चात् देश का माहौल ही बदल गया । स्वतंिता–पूवा संजोये गये सपने एक एक करके िू िने लगे । लोग अजादी की लडाइ लड़ने का दावा करके सिा हडपने मं जुि गये थे । देश मं राजनीितक, सामािजक, धार्चमक, अर्चथक एवं नैितक िवसंगितया और िवकृ ितयाँ पनपने लगी । भ्रिाचार–ऄनाचार ही िशिाचार बन गया । ऄंगूठा छाप नेता देश के सूिधार बन गये । वे देश के नव-िनमा​ाण एवं गरीबी हिाने के नारे लगाकर ऄपनी जंबे भरने लगे । घूसखोरी, कालाबाजारी, चािु काररता, भाइ-भतीजावाद ऄन्याय अकद कदन-प्रितकदन बढ़ता ही गया । कहा जाता है की सािहत्य समाज का प्रितसिबब होता है । िहन्दी सािहत्यकारं ने ऄपना कताव्य िनभाते हुए व्यंग्य के माध्यम से आन िवकृ ितयं और िवसंगितयं का पदा​ाफाश ककया । पररणाम स्वरूप स्वातंत्र्योतर िहन्दी व्यंग्य –लेखन तीव्र प्रहारक एवं धारदार बनता गया । व्यंग्य ने नंगे को नंगा कदखाना शुरू ककया । यही से िवशुि व्यंग्य –लेखन की परम्परा अरं भ होती है । िहन्दी के प्रमुख व्यंग्यकार जो ऄपनी िनजी रचनाओ के कारण से ख्यात हुए है, वो आस प्रकार है 1–हररशंकर परसाइ :- श्री हररशंकर परसाइ अधुिनक िहन्दी व्यंग्य के सही मायने मं सशकत व्यंग्यकार है । ईन्हंने व्यंग्य को हास्य से ऄलग कर एक तीक्ष्यण हिथयार के रूप मं ऄिख्तयार ककया । कथ्य एवं िशवप की रि​ि से िहन्दी व्यंग्य को एक नयी और िनिश्चत कदशा देने का श्रेय परसाइजी को ही है । िहन्दी व्यंग्य को एक साथाक पररभाषा भी ईन्हंने दी । ईन्हंने जब िलखने की शुरुअत की थी, तब ईन पर व्यि​िगत दुःख हाबी था, लेककन धीरे -धीरे यह स्वपीडा युग की पीडा बन गइ ISSN –2347-8764

और िहन्दी मं व्यंग्य के माध्यम से ईभरने लगी । व्यंग्य के बाद हररशंकर परसाइ की लेखनी ऄमोघ ब्रह्मास्त्र है, िजसने ऄपने काल-खंड के प्राय: सभी ईच्चस्थ िशखरं को अमूलतया िहलाकर रख कदया । परसाइजी ने समग्र सािहत्य मं सवा​ािधक रूप से राजनीितक, सामािजक, शैिक्षक, सांस्कृ ितक,प्रशासिनक िवरूपताओं के रहस्यमयी ितिलस्मो का रहस्योदघािन ककया है –जैसे िहन्दी सािहत्य मं कथाकार प्रेमचंद को कलम का िसपाही कहते है । वैसे ही परसाइ को कलम का ‘तोपची’ कहा जा सकता है । स्वतंिता के बाद भारत मं भौितक स्पधा​ा के कारण नैितक पतन तो हुअ ही, लाल फीताशाही, भ्रिाचार और साम्प्रदाियक िेष ने अकार लेना प्रारं भ कर कदया । तो ये सब सुरसा के मुख-गहवर की तरह फै लते ही गये । राजनीित नीितिवहीन होने लगी । शासन-तंि मं मनमानी, ईच्छृ ं खलता, कु सीवाद अकद के िवषाणु फै लने लगे । राजनीित के आस ऄध:पतन के फलस्वरूप देश मं ऄनेकानेक राष्ट्रीय, सामािजक, अर्चथक समस्याओं ने ऄपने रं ग कदखाने प्रारं भ कर कदए । भला एक संवेदनशील िनभीक लेखक-पिकार यह सब िु कुर-िु कुर कै से देख सकता था? लेखनी चली तो कफर चलती ही रही, ऄनवरत । देश की हो रही दुदश ा ा पर किाक्ष ककए ‘ऄंग्रेज आं िडया आज ए ब्यूिीफु ल कन्ट्री’ और छु री कांिे से आं िडया को खाने लगे । जब अधा खा चुके तो देशी खाने वालोने कहा‘ऄगर आं िडया आतना खुबसूरत है तो बाकी का हमं खाने दीिजये। ऄंग्रेज ने कहा ऄच्छा हमं दस्त लगने लगे है । हम तो जाते है तुम खाते रहना । सच पूछो तो यह ट्रांसफर ऑफ़ िडश हुअ । थाली ईनके सामने से आनके सामने अ गइ । वे देश को पिश्चमी सलाद के साथ खाते रहे ।’ देश का एसा मार्चमक िचि ईके रना माि परसाइ की ही सामथ्या रही । 2-शरद जोशी :- स्वातंत्र्योतर िहन्दी व्यंग्य –लेखन के प्रमुख हस्ताक्षरं मं जोशीजी का नाम ईवलेखनीय है । ईन्हंने समाज मं व्याप्त पाखंड, भ्रिाचार, राजनीितक सड़ाध, दोगलेपन एवं िु च्चे स्वाथो पर ितलिमला देनव े ाले किु व्यंग्य ककयं है । ईनके

व्यंग्य मं तीक्ष्यणता एवं पैनापन के साथ-साथ िशवप की िविवध भंिगमाओ एवं भाषा का ऄनूठापन भी देखने योग्य है । ईनकी व्यापक व्यंग्य–दृि​ि ने जीवन के िविभन्न क्षेिो को ऄनेकिवध िवकृ ितयं और िवसंगितयं को

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ऄनावृत ककया है । बाढ़ और ऄकालग्रस्त िवस्तारो का दौरा करने के पश्चात् लंच या िडनर मं मुगा​ा खानेवाले संवेदनहीन एवं िनमाम नेताओ को बेपदा​ा करते हुए वे कहते है- “बाढ़ और ऄकाल से मुगा​ा बाख जाये, मगर वह मंि​ियो से सुरिक्षत नहं रह सकता । बाहर भयंकर बाढ़ और ऄन्दर लंच चलता है l”44 अज जगह-जगह भ्रिाचार फ़ै ल गया है । मंिी से लेकर दफ्तर के बाबू तक कोइ आससे बच नहं पाया । अज मानवीय मूवयं का हास हो रहा है । डाकु ओ पर कभी संदेह नहं ककया जाता, ककन्तु चररिवान को शंका की रि​ि से देखा जाता है । यही कारण है की लोग चररिवान और इमानदार बनने से ज्यादा डाकू पसंद करते है। 3-रवीन्रनाथ त्यागी :- स्वातंत्र्योतर युग के प्रमुख व्यंग्यकारो मं रवीन्रनाथ त्यागी का नाम ईवलेखनीय है । ईनके संघषा और िवडम्बनापूणा जीवन का प्रभाव ईनके व्यंग्य मं कदखाइ देता है । त्यागी जी तीखे से तीखे व्यंग्य को हास्य के अवरण मं व्यि करते है, लेककन ईनका हास्य िशि और सरल है जो अधुिनक युग की िवकृ ितयं को बेनकाब कर देता है । ऄपनी व्यंग्य रचनाओ मं त्यागीजी ने ऄपने ही उपर व्यंग्य ककया है । स्वतंिता के पश्चात् नेताओ की स्वाथालोलुपता ने ऄनेक राजनीितक िवसंगितयं को जन्म कदया । ऄवसरवादी, ढंगी और दोगले नेताओ को बेनकाब करते हुए त्यागी जी कहते है –“माचा मं बुलबुल हूँ और जुलाइ मं परवाना हूँ, जैसा मौसम हो, मुतािबक ईसके मं दीवाना हूँ ।”47 अज हर क्षेि मं भ्रिाचार फै ल गया है । न्याय का क्षेि भी आससे बाकी नहं बचा । अज न्याय-मंकदर मं ही न्याय का सौदा होता है । 4-श्रीलाल शुक्ल :- श्रीलाल शुक्ल अज के प्रमुख व्यंग्यकारो मं से एक है । आनका ‘ऄंगद का पाँव’ व्यंग्य संग्रह 1959 मं प्रकािशत हुअ, िजसने ईन्हं िहन्दी के समथा व्यंग्यकार के रूप मं प्रितिष्ठत कर कदया । आनके व्यंग्य लेखन मं एक िविशि तनाव बना रहता है । ईन्हंने सामािजक सम्बन्धो के िबख्राव्का संयमपूणा िचिण प्रस्तुत ककया है, साथ ही देश की िू िती ऄथाव्यवस्था को ईभारने का प्रयास भी ककया है । सामािजक, राजनीितक, सािहित्यक िवसंगितयं और िवकृ ितयं को ईन्हंने ऄपने व्यंग्य का िवषय बनाया है । शुक्ल जी की व्यंग्य–रचनाओ मं िपिपेषण नहं िमलता है । सािहित्यक लफ्फाजी, भाषणबाजी, शहर देहात की समस्या, बेरोजगारी, ऄंग्रेिजयत जैसे िवषयं पर ईन्हंने कठोर व्यंग्य ककयं है । 5-नरे न्र कोहली :- स्वतंिता के पश्चात् के कु छ िविशि व्यंग्यकारो मं नरे न्र कोहली का नाम बहुचर्चचत है । ‘मं बच्चो से धृणा करता हूँ’ ईनका पहला व्यंग्य िनबंध है, जो 1957-58 मं प्रकािशत हुअ। ईनका प्रारं िभक व्यंग्य लेखन िनजी पररवेश और वैयि​िक ऄनुभूितयो को िलए हुए है, ककन्तु बाद की व्यंग्य रचनाओ मं ईनकी दृि​ि का िवस्तार हुअ है । ईन्हंने जीवन की ऄनेकिवध िवसंगितयो और िवरूपताओं को ऄपने व्यंग्य का माध्यम बनाया । झूठे बचन देकर झूठे िसिांत बनाकर ऄपना काम चलाने वालो एवं भाषणं पर जीनेवालो पर वे तीखा प्रहार करते है । कोहलीजी ने चररिहीन दोगले एवं स्वाथी नेताओ पर किु व्यंग्य ककयं है । पाश्चात्य सभ्यता एवं ऄंग्रेिजयत के मोह पर भी कोहली जी ने तीखे ISSN –2347-8764

व्यंग्य ककये है । कोहली जी ने धूता, स्वाथी एवं िविेष से पीिड़त सािहत्यकारं की भी िखवली ईड़ाईं है । धमा के नाम पर होनेवाले ऄनाचार एवं कु कमी को भी कोहली जी ने बेनकाब कर कदखाया है। जैसे की ‘कताव्यिनष्ठ पड़ोसी’ नामक व्यंग्यरचना मं ऄपने अपको िवशुि धार्चमक एवं सत्यिनष्ठ बतानेवाले ब्राह्मणं के चररि के ढंग को ईन्हंने बेपदा​ा कर कदया है –“जैसे धमा के नाम पर लोगो को नंगे रहने, सशस्त्र रहने और एक से ऄिधक पित्नयाँ रखने का ऄिधकार था, वैसे ही शमा​ाजी को धमा के नाम पर साहब के पास चुगली करने का भी पूरा ऄिधकार था । धमा तो आस देश मं ‘वीिो’ हैईसके सामने न कोइ तका चलता है, न िनयम, न कानून ।”57 कोहली जी ने देश की िविभन्न िवसंगितयो पर किु व्यंग्य ककये है । 6-डॉ.शंकर पुणतांबक े र : डॉ. शंकर पुणतांबेकर की प्रथम व्यंग्य रचना ‘तमाचा’ मइ 1957 के ‘सररता’ ऄंक मं प्रकािशत हुइ थी । आसके पश्चात् ऄिवरत रूप से व्यंग्य –सृजन होता रहा है । अपने सामािजक, राजनीितक, धार्चमक, अर्चथक िवसंगितयो के साथ-साथ िशक्षा, सािहत्यकला, संस्कृ ित की िवरूपताओं को भी ऄपने व्यंग्य का िवषय बनाया है । ईनके व्यंग्य लेखन मं देश की तीखी ऄनुभूित के साथ-साथ अंतररक िवरोह की प्रहारात्मक सरं चना भी है । “मानुष हो तो...जो पशु हो तो” नामक व्यंग्य रचना मं पुणतांबेकर जी ने स्वाथी, दोगले और दल-बदलू राजनेताओ पर तीखे प्रहार ककये है । ‘गृहलक्ष्यमी के साथ पहली दीवाली कै से मनायी’, ‘राज पररवारी’, ‘पहली रात के संवाद’, ‘गोपी दही बेचन को चली’, जैसे ऄित सामान्य, ककन्तु लुभावने और रूमानी लगने वाले शीषाको के ऄंतगात पुणतांबेकर जी ने मनुष्प्य के चाररि​िक ऄध:पतन, भौितक प्रलोभन, राजसिा की लोलुपता जैसे गंभीर िवषयं पर तीखे व्यंग्य ककये है । 7-लतीफ़ घंघी:- लतीफ़ घंघी ने सामािजक, राजनीितक, सािहित्यक िवसंगितयं को ऄपने व्यंग्य का िवषय बनाया है । सरकारी दफ्तरं से लेकर सािहत्य जैसे पिवि क्षेि तक मं व्याप्त भ्रिाचार को वो नजरऄंदाज नहं कर पाये । लतीफ़ घंघी ने पहली बार मुिस्लम समाज के रीित-ररवाजो और स्खलनो का िविनयोग व्यंग्य लेखन मं ककया है । बढती हुइ अबादी और ईससे ईत्पन्न सामािजक, अर्चथक िवरूपताओं पर किु व्यंग्य ककया है । 8-के .पी.सक्सेना :- के .पी.सक्सेना के व्यंग्य लेखन मं मनोरं जन एक ऄिनवाया संगित है । ईन्हंने कक्रके ि और िसनेमा, पडोस और िवदेश, सािहत्य और तस्करी, देश और अँगन की ऄनेकिवध िवसंगितयं को ऄपने व्यंग्य का िवषय बनाया है । आस प्रकार ऄनेक व्यंग्यकारोने िहन्दी व्यंग्य को समृि करने का साथाक प्रयत्न ककया है । अज ऄनेक नये व्यंग्यकार िहन्दी व्यंग्य लेखन मं जुिे हुए है । िनष्प्कषात: कहा जा सकता है की िहन्दी सािहत्य मं व्यंग्य लेखन की एक समृि परम्परा रही है और िनरं तर िवकिसत हो रही है ।

संदभा सूिच :- 1 हररशंकर परसाइ रचनावली,खंड-6 पृ-25 1985 / 2 िहन्दी सािहत्य के िविवध स्वर –पृ-44-डॉ.भरत पटे ल / 3 दूसरी सतह,शरद जोशी-पृ-5 1915 / 4 आस देश के लोग- रिवन्रनाथ त्यागीपृ-25 / 5 जगाने का ऄपराध,नरे न्र कोहली-पृ-37-38, 1973

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शोधपि

मृदल ु ा गगा के ईपन्यासं मं नारी डॉ. भगवान सिसह सोलंकी प्राचाया, एम. बी. पिेल सायन्स कॉलेज, सरदार गंज रोड, अणंद-388 001 गुजरात दुिनया की अधी अबादी नाररयं की और ईस पर राज पुरुषं का कहा है। यह अज की कहानी नहं, सकदयं से चली अ रही पररपािी रही है। पुरुष-प्रधान संस्कृ ित की यह सवॅमान्य िवकृ त प्रवृित रही है। आसका िवरोध भी बहुत पहले होता रहा हैपाश्चात्य देशो मं और भारत वषँ मं भी। पाश्चात्य देशं मं यह िवरोध नारी-मुि​ि, नारीवाद की घंषणओं मं होता रहा है। यह सच है कक अजादी के बाद नारी चेतना मं तेजी से पररवतॅन हुअ, लेकिकन ईसकी क्षमताओं और चुनंितयं को स्वीकारने मं, पुरूष समाज ईस ऄनुपात मं ऄपने अपको नहं बदल सकता। पररविततॅ सामािजक, अथिथक पररिस्थितयं मं मिहलाओं की िशक्षा, रोजगार के ऄवसर, मान्यताओं, मूवयं और मानिसकता मं भी पररवतॅन हुअ। लेककन आस पररवतॅन को अधुिनक समाज पूरी तरह से स्वीकार नहं सका। पहले से ही स्त्री लेखन की और मेरी रुची रही है। समाज मं स्त्री की दोयम िस्थती को देखकर मं काफी िवचलीत होती थी। ऄकदकतर लेिखकाओं ने स्त्रीयं के आस दुसरे दजॅ को नकारना चाहा है। और ईसकी ऄिस्मता को प्रितिष्ठत करना चाहा है। िनिश्चत ही यह बात मेरे ऄनुकूल थी। आसिलए स्त्री लेखन के प्रित मेरी िजझासा बढ़ती गयी थी। आस सािहत्य का ऄध्ययन करना तथा ईसकी गहराइ मं डु बकी लगाना मेरे िलए अत्मीयता की बात थी। ऄंतः मंने यह तय ककया मेरा लेख ककसी मिहला लेिखका पर ही िलखा जाय। ' मृदला गगॅ ' की रचनाओं मं स्त्री की नये रूप मं प्रस्तुत करने की बात की मंने महसूस ककया था। िहन्दी मिहला ईपन्यास सािहत्य मं मृदल ु ा गगॅ का स्थान िवशेष हं। मृदल ु ा जीने िविभन्न िवधाओं मं ऄपनी िसध्य हस्त लेखनी का पररचय कदया था। चाहं कोइ भी िवधा हो; हर िवधा के माध्यम से वह स्त्री की नयी छवी गढ़ने का प्रयास कर रही है। ईनके ईन्यासं मं िचि​ित स्त्री स्वतंि रूप से ऄपनी साथॅकता की तलाश कर रही है। ईनकी रचनाओं का सार एक सूि मं देना है तो यह कहा जा सकता है की ISSN –2347-8764

औरतं" मं आस पुरूष के िलए क्या हूँ " यह नहं देखती बवकी" मं क्या हूँ ? " यह दखती है। जब तक नारी ऄपनी पहचान ऄपने अप नहं बना पायेगी तब तक समाज भी ईसे सम्मान की नज़रो से नहं देखेगा। यह वाक्य िस्त्रयं को प्रितिष्ठत करने का सूि वाक्य है। यहं आनके सािहत्य की िवशंषता है। मृदल ु ा गगॅ ऄपने ईपन्यासो के माध्यम से नारी की सांस्कृ ितक और सामािजक छिव के ितलस्म की तोड़ नयी चेतना को जन्म देना चाहती है। आिसलीए मृदल ु ा गगॅ मं िचि​ित नाररयं ऄपने सोच िवचार ऄपना सिचतन, ऄपनी प्रितभा, ऄपनी संवेदनशीतता के कारण पाठकं पर ऄिमि छाप छोड दी है। आनके ईपन्यासं के नारी चररि लोक से दिकर नया मागॅ ढू ँढ रहे है। आस मागॅ पर चलने का िविास ईनमं है। ' ईसके िहस्से की धूप ' की मिनषा अत्मसाथॅकता की तलाश करती है। ' वंशज ' की रे वा ऄपने िपता की लाड़ली बेिी हंने के बावजूद जायदाद से बेदखल की जाती है, क्यंकक वह ' लडकी 'है। ' िचताकोबरा ' की मनुके िलए प्रम सिजदा रहने की शतॅ बन जाता है, ऄपने प्रेमी के साथ होना ईसे भगवान के साथ होना है। ईसका प्रेम ईिरोिर व्यापक होकर मानवता की भूिम तक पहूँचता है। ' ऄिनत्य ' की काजल बनजी ँ और प्रभा ऄपने िसध्धांतो एवं ईसुलो के कारण पाठकं पर ऄिमि छाप छंडती है। ' मं और मं ' की माधवी प्रितभाशाली लेिखका है, लेककन खुदगजॅ आतनी कक ऄपने स्वाथॅ के िलए मानवीय ररश्तं का िहस्सा आस्तेमाल करती है। ' कठगुलाल ' की नाररयाँ का ददॅ पाठको के ऄंतॅमन कं छू लेता है। लेिखका ने एक एक चररि मूतॅ कर, आन नाररयं के एक-एक अयाम को स्पि ककया है। मृदल ु ा गगॅ के ईपन्यासं मं िचिक्ित नारी चररिं के स्वरूप की िनम्न रूप से देखा जा सकता है। मृदल ु ा गगॅ के प्रमूख ईपन्यास है - 'ईसके िहस्से की धूप', 'वंशज', 'िचतकोबरा', 'मं और मं','ऄिनत्य' तथा 'कठगुलाल' ईसके िहस्से की धूप ' ईपन्या मं लेिखका ने ईपन्यास के माध्यम से नारी की प्रचिलत को बदलना चाहा है।

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"मं आस पुरूष के िलए क्या हुँ ? " यह पूछने वाली स्त्री यह प्रश्न पूछने लगती है कक " मं क्या हुँ ? " यह ईपन्यास स्त्री को ऄपने अप से पररिचत कराता है और िसफॅ पररिचत ही नहं कराता बिवक स्त्री जीवन की साथॅकता का नया मागॅ भी तलाश करता है। मनीषा िजतेन से तलाख लेने के बाद, साढ़े चार साल बाद ऄचानक नैिनताल मं िजतेन से िमलती है। ऄतीत और वतॅमान को गूँथते हे ईपन्यास धीरे -धीरे अगे बढ़ने लगता है। आस ईपन्यास मं मनीषा एवं िजतेन नामक दम्पित है, जितन की कायॅ व्यस्तता के कारण मनीषा की और ध्यान दे नहं पाता। मनीषा आस नीस्सता के कारण मधूकर की और अकथिषत होती है। यह बात वह िनःसंकोच भाव से ऄपने पित को बता देती है। और मधूकर से दुसरा िववाह कर लेती है। दूसरे के बाद मधूकर के साथ ईसने जीवन को भरपूर िजया; परं तु धीरे -धीरे मधूकर के साथ भी वह ईबबने लगी थी। मधीकर के साथ साढे चार साल का वैवािहक जीवन िजने के बाद एक बार कफर िजतेन की और अकथिषत हंने लगी। िजतेन के प्यार मं ईसे वह चमक कदखाइ देने लगती है जो मधूकर के प्यार मं नहं है। मधूकर और िजतेन दोनं मं से ककसी एक को चुनाव नहं कर पाती। ईसकी िस्थती ईस गंद की तरह हो जाती है जो कभी मधूकर कक और लुढ़कती है और कभी िजतेन की और। ईसे पित के रूप मं मधुकर चािहए और कभी कभार के िलए िजतेन; जो ईसकी रोजमरॉ सिजदगी की बैिरी को चाजॅ करे , नयी स्फू ती ँ भरे , नया ईवलास दे। वह िजसके ईसके िहस्से की धूप से िजसे देना चाहती है। वास्तव मं आस ईपन्यास मं मिनषा का चररि िचिण ईसकी मानवीय कमजोररयं के साथ पूरी यथोथॅता से िचि​ित ककया है। मृदल ु ा गगॅ ने 'वंशज' ईपन्यास मं स्त्री की पैतृक संपित के ऄिधकार की लडाइ का ईपन्यास है। हमारे समाज मं यह मान्यता है की " वंश पुरूष से िह चलता है, स्त्री से नहं। " सारी योग्यता हंने के बावजूद ईिरािधकारी नहं बन सकतं, क्यंकक वह लडकी है और लड़के का 'लड़का' होना यही ईसकी सबसे बडी योग्यता है। आस ईपन्यास मं सुधीर एवं ईसके िपता शुक्ला ' जो कानपूर सेशन कोिॅ के महामान्य जज है की कहानी है। ईनका पूरा व्यि​ित्व ऄंग्रेजीयत है। ऄनुसाशन िप्रय समय के पाबंद, एवं ऄत्यंत न्यायिप्रय है। ईसकी बेिी है रे वा, िपता यह मानते है की बेिी पराया धन होती है। रे वा मं ऄपने रं ग, रूप, व्यि​ित्व देखकर हथिषत होते थे तथा वे ईसे चाहते भी बहुत थे। दुसरी और सुधीर ईसके िपता से अतंककत रहता था। सूधीर को िपता का स्नेह कभी नहं िमला। िमला है तो एक ऄनुसाशन िप्रय जज। आस ईपन्यास मं मृदल ु ा जीने िपता-पूि के मनमुिाव को लेकर कहनी का ढ़ाचा तैयार ककया है....संक्षप े मं सूधीर के िपता शुक्ला सापब सारी जायदाद का वाररस सूधीर को बनाकर स्वॅग िसधारतो है। िजस रे वा को जान से िभ ज्यादा िाहते थे, ईसके नाम कु छ उ नहं रखा। 'सिवता' शमॉ साहब की बेिी है जो पेशे से व्यापारी है। सिवता ने आितहास िवषय के साथ स्नातक की िडिग्र प्राप्त की है। सिवता को ऄंग्रेजी नोवेल पढ़ने का शोख है। खनदानी बहू होनं के सारे लक्षण थे। सबका मन मोह लेने की कला है। शादी के बाद खाना बनाने की ISSN –2347-8764

रस्म िनभाकर ईसने ऄपनी पाक कला की िनपुणता का पररचय कदया था। सिवता कमजोर औरत नहं थी। चतुर, व्यवहार, कु शल, ँ , दुरदशी ँ थी। हर कदम सोच समझकर ईठाती थी। िनभीक जवदबाजी करमा ईसके स्वभाव मं नहं था। वह जानती थी। " व्यापारी की बिी थी, घािे का सोदा वह कभी नहं करती थी। व्यापारी िसफॅ लेना जानता है, देना नहं। सिवता मं भी यह प्रवृित कू ि-कू िकर भरी थी एक बार रे वा को सिवता की एक साड़ी बहूत पसंद अ गआ थी। ईसे िसफॅ पैसा कमाना मालूम था, सूधीर के िबजनेस के तौर तरीके फसे पसंद नहं थे। "ऄपने पित सुधीर के िबजनेश को लेकर सिवता कहती है-" कफर तो चल िलया िबजनेश। दुिनया जहान की सेवा करते कफरोगे तो छः महीने मं रुपया जूबा समजो ।" यहॉ पर सिवता की व्यापारी समज एवं दुरंदेिश बुिध्व एवं व्यवहार कु शलता का पता चलता है। जहं तक सुिधर और सिवता के दाँपत्य जीवन का सवाल है वहं यहं कहं जा सकता है कक दोनं का दाँपत्य जीवन ऄसफल, ऄनमेल है। ईम्र का बेमल े होना ही ऄनमेल िववाह नही मगर िवचारं का बेमेल होना भी ऄनमेल िववाह है। सिवता व्यि​ि चररि है। साथ-साथ वह कॉ चररि भी हो सकती है। जहं पर पैसे की प्रािप्त के िलए मानवीय संहध ं ो की बली दी जाती है। सिवता ईन्हं मं से एक है। लेिखका ने यहं पर वतॅमान समय का ऄसर बताया है। रे वा आस ईपन्यास का दुसरा महत्वपूणँ पाि है। लेिखका ने रे वा का चररि भारत की सामान्य नारी की भंित िचि​ित ककया है। रे वा मं कोआ ईतार – चढ़ाव नहं, पररिस्थती के ऄनुसार ऄपने को ढ़ालकर संति ु जीवन जीनेवाली बात रे वा मं देखने को िमलती है। रे वा जज साहब तथा सुधीर दोनं के संबंध को सहज बनाने वाली स्त्री है। रे वा की मासूिमयत ने हंमेशा सुधीर का साथ कदया है। रे वा हंमेशा यह चाहती है कक ईनके िपता एवं सुधीर के िबच सूलाह हो जाये। रे वा आतनी अत्मके िन्रत है कक ऄपनं के सुख दुःख से िभ ईसे कोइ लेमा देना नहं है। जहं परवररश मं िभ आतना ऄंतर हो जाता है तो रे वा जेिस कमजोर लड़ककया ही िनमॉण होगी। वह कानपूर से चुपचाप देहली चली जाती है। िवमला जब साहब के ककरांयेदार कफिलप की बेिी है। वह मास का सौ रुपैया कमाने वाला क्लकॅ है। शराबी है, वख्त पर ककराया न देना, चार बच्चे है। िवमला हाइस्कू ल मं पढ़ाती है। जो कू छ कमाती है, ईनमं से ककराया दे जाती है। स्कू ल मं पिाखा फू ि ने से अँख मं घाव होता है, जो ऄस्पताल जा कर अँख बचती है। िवमला भी एक नारी हंने के कारण ईसे सुधीर के प्रित न सहानूभुित है, न लेने का हक है। जो कू छ कमाती है, ईससे ईसका बाप डराकर धमकाकर मारकर पैसा लुँि लेता है। िवमला के िपता ईसे ताने देता है, गािलयाँ बकता है कफर िभ िवमला चुप-चाप सहन कर लेती है। यहंपर लेिखका ने भारतीय समाज की नारी का रुप बताया है। जो सब कु छ जानते हुऐ भी ऄपनी मयॉदा का ईवलंघन नहं करती है। समाज की व्यवस्था ही कु छ आस प्रकार की है कक एक पराइ लड़की को कोइ िभ पुरुष ऄपने घर मानवीयता के नाते से नहं रख सकता। मृदल ु ा गगॅ ने सिवता का चाररत्र्य स्वाथॅ के िन्रत रुप से ककया है।

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परं तु एक नारी हंने के नाते ईसके प्रित सहानुभूित भी व्यि करती है। यह सहानुभूती सिवता के प्रित कम और नाररयं के प्रित ज्यादा है। सारी िनपुणता के बावजूद भी मूलयं के ऄभाव मं यह चररि पाठको से कोइ सहानुभूित नहं पाता। रे वा वह भारितय नारी है, जो ऄपनी ही गृहस्थी मं डु बी है। वंशज ईपन्यास ईिरािधकार की िवषय व्यवस्था का िचिण करता है। ईपन्यास का शीषॅक भी आसी बात की और संकेत करता है। 'िचतकोबरा' ईपन्यास मं मृदल ु ाजी ने प्रेम के दशॅन की ऄिभव्यि​ि करनेवाला ईपन्यास बताया है। आस ईपन्यास मं प्रेम का दशॅन िबखरा पड़ा है। प्रेम मनु।य के जीवन का शा।वत सत्य है। जब दोनं एक दूसरे की बहुत ज्यादा चाहने लगते है तो जीवन गगद़ब की वस्तु हन जाता आसी प्यार की पूरी गहराइ के साथ तथा पूरी ताकत के साथ आस ईपन्यास मं ऄिभव्यि​ि की गइ है। प्रेम के वल शारररीक तादात्म्य का नाम नहं, बिवक ईसका संबंध मन की एकात्मकता से है। ईपन्यास की कथावस्तु के के न्र मं मनु है। मनु महेश गोयल नामक ईध्योगपित की पित्न है। दो बच्चे है, भरा-पूरा पररवार है। गोरखपूर मं लोग ईनहं ऐदशॅ दंपित के रुप मं पहचाने जाते है। मनु ऄपना दीवन औसत भारतीय नारी की तरह व्यतीत कर रही थी; मगर कभी कभी ईसे यह प्रश्न सताता था की क्या महेश ईससे प्यार करता है ? वास्तव मं महेश ईससे प्यार नहं करता था। ईपन्यास मं तीन चररि मं से मनु ही के न्रीय है चररि है। मनु के नजररये से ही प्रेम का िवश्लेषण ककया गया है। यहं स्त्री के न्र मं है। प्रेम के कारण ही आस वृि​ि मं पररवतॅन अया है। मनु का पित महेश ईसे प्यीर नहं करता था। भारतीय स्त्री की तरह मनु ईसे प्यार करती है। मनु सब कु छ ऄपने पित पर न्योछावर कर देती है। जो ईसका पित चाहता है। सुंदर, सुचार, गृहस्थी, स्वतंि, स्वस्थ, बच्चे, दोस्तं, की खाितरदारी, सामािजक मेल-जोल। गोरखपूर मं ईन्हे अदशॅ दंपित के रुप मं जानते रहते है। परं तु ररचडॅ और मनु प्रेम के धागे से आस कदर बंध गये कक जोनं के िमलने के ये कु छ क्षण, सहवास से कु छ कदन, संपूणॅ जीवन मं फै ल गये। मनु ऄतीत को वतॅमान मं भोग रही थी। स्त्री मनोनुकुल पुरूष को पाने के बाद ही संभोग के समय ईसके साथ एकरस हो सकती है, परं तु बात एसी है कक ईसकक जैिवक बनाविी ही कु छ ऐसी है की ईसकी आच्छा हो या ना हो वह संभोग की प्रकक्रया मं शािमल हो सकती है। मृदल ु ा जी ने मनु के माध्यम से समग्र भारतीय समाज की नारी को अज़ाद करने की बात पर जोर कदया है। कहा जा सकता है कक मनु सकक्रयता की रि​ि से सशि चररि नहं है। पर खुद प्रेम मागॅ पर चलकर औरं को प्रेम के मागॅ पर ले जाने का िविास ईससं जरुर है। यहं िवशेषता मनु को काकफ ईचा ईठा देती है। "ऄिनत्य" ईपन्यास मं लेिखकाने काजल बनजी ँ को चररि को ईभारा है। काजल एक क्रांितकारी मिहला के रुप मं हमारे सामने अती है। काजल एक क्रांितकारी मिहला के रुप मं हमारे सामने अती है। यहं पर ईपन्यास की स्थापना काजल के मूवयं के अधार पर हुअ है। काजल आितहास की प्राध्यािपका है। बदसुरत होते हुए ISSN –2347-8764

भी भोली, और मेधापी है। तेजस्ॅ वी िवचारं को धारण करने वाली, क्रांित की बात करनेवाली, स्पिता, कोइ लुकाप छीपाव नहं, और सबसे बड़ी बात ऄपने िसध्धांतो पर ऄिड़ग रुप से चलनेवाली। कोइ ररश्ता, कोइ मोह का पाक्ष ईसे रोक नहं पाता। ऄपने के लेजे मं आितहास पढ़ाते समय वह सतके रहती है। काजल का मानना है कक आितहास वही लोग िलखते है, िजनके हाथ मं ताकत होती है। वह िब्ररिश नज़ररये से िलख़े गये आितहास को पढ़ाने से आन्कार करती है। काजल के चररि के माध्यम हमे यह पता चलता है कक वह भगतसिसघ की ककतनी बड़ी समथॅक है। वह अजादी की लडाइ तब तक जारी तक जारी रखना चापती है जब तक वतॅमान समाज व्यवस्थ बदल नहं जाती। 'ऄिनत्य' ईपन्यास मं दूसरा स्त्री पाि प्रभा है। प्रभा अम अदमी की लड़ाइ लड़ने वाली स्त्री है। खुशिमजाजी ईसका स्वभाव है। अजाद़ खयालं की है। अम अदमी स्त्रीयं की तरह िजम्मेदारी लेना और ता-ईम्र ईसे ढोते रहना ईनका स्वभव है। अजाद खयालं की है। अम िस्त्रयो की तरह िजम्मेदारी लेना और ता-ईम्र ईसे ढोते रहना ईनका स्वभव नहं है। स्पि विा है। ईसे जो कदखाइ देता है ईसे स्पि शब्दं मं व्यि करती है। ऄपने िपता के बारे मं वह कहती है कक सब बुिध्धजीवी पुरुष बेवकु फ लड़ककया से शादी करते है। िपताजी को ही देख लो। वह िनथिभक एवं नीडर भी है। वह सभी गलत तरीके से हो रहे कायोँ को बदला चाहती है। वगॅ भेद को, और नइ व्यवस्था की बदला ईनका स्वप्न है। आसके ऄलावा ईपन्यास मं संगीता और श्याम का पाि भी ऄपनी महावता रखता है। मगर स्त्री चररि को ईजागर करने ईनका यंगदान महतेवपूणॅ न होने के कारण ईन सभ़ी पािो की चचॉ को यही पर समाप्त ककया है। ऄन्य गौण पािो मं ईभा, स्वणॉ, रं जना, चमेलीबाइ खोखी अकद चररि है। िजसकी चचॉ यहाँ की नह़ी है। "मं और मं " ईपन्यास मं माधवी के चररि को न्याय देने का प्रयास ककया है।लेिखका ने माधवी को चीर फाड़ रुप मं प्रस्तुत ककया है। ईसका बाह्य व्यि​ित्व एवं भीतरी कु रुपता को िनमॅमता के साथ िचि​ित ककया है। माधवी वास्तव मं जैसी है ईस रुप मं वह ऄपने को औंरो के सामने प्रस्तुत नहं करती। ईसका बाह्य रुप धोखे से भरा है। एक समय एसा अता है कक ईसकी संवेदना ही मर जाती है, और ईसकी सजॅना क्षमता भी समाप्त हो जाती है। वह खुदगजॅ मिहला है। ऄपने स्वाथॅ की पूथित के िलऐ मानवीय संबंधो का आस्तेमाल करने मं भी वह परहेज नहं रखती। ' मृदल ु ा गगॅ ' का यह ईपन्यास शोषण और दोहन की कथा है। आस कथा के माध्यम से वतॉमान समाज का िवकृ त चहेरा लेिखकाने बेददी ँ से प्रस्तुत ककया है। "कठगुलाब" को मृदल ु ा गगॅ ने िस्मता के माध्यम बनाकर 1996 मं िलखा है। लेिखका ने स्वयं स्पि ककया है कक सब तरह की ऐितहािसक, राजनीितक और व्यावसाियक ईठापिक से ईतपन्न वैखीकरण , मंडलीकरण और यंिीकरण का मूल प्रभाव हम पर आतना हुअ है कक हमारी भूिम और भावभूिम दंनो बंजर होती जा रही है। िस्मता कश्यप एक िशिक्षत बुिध्धजीवी, पौट़ा संवेदनशील एवं जीवि व्यि​िपय की स्त्री है। माता-िपता के िनधन के बाद बड़ी

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बड़ी बहन निमता के घर मं रहकर जीजा जी की नजरं का भी सामना करना पड़ता है। और एक ईसी जीजा जी ने ईसे खाि से बांधकर मपँह मं रपडा ठुँ सकर, बड़े अइने के सामने ईस पर बलात्कार करता है। मगर ऄपने चश्मं के ज्यादा नंबर हंने की वज़ह से वह ईस बलात्कारी को पहचान नहं पाती। वह घर छोड़ देती है या ईसकी बड़ी बहन ईसे घर से भगा देती है। िस्मता ऄपने अपको ऄपराधी मानकर बलात्कारीत स्त्री है। हमारे यहाँ बलात्कार कोइ करता है, सजा कोइ और पाता है। हमारी समार व्यवस्था ऐसी बनाइ गइ है कक ज्स पर बलात्कार ककया गया वह जीने के लायक नहं है। समाज धृणा की नज़र से देखता है और स्त्री भी ऄपने अपको ऄपराधी समज़ने लगती है। समाज का नजररया बदलने से भी कु छ नहं होगा। सबसे पहली सी कोही मुि होना होगा, तभी तो ईसके मन मं जीने की ललक िनमॉण होगी। ' मृदल ु ा गगॅ' ने िस्मता के माध्यम से पीिड़त नारी सहनशि​ि पररचय कदया है। िस्म ता मं ताकत भी कमाल की है। जीजा िारा बलात्कार जारिवस िारा ऄवमानना, शारररीक शोषण, मारपीि, हिथयार के रुप मं आस्तेमाल, गभॅस्थ िशशु का िगर जाना, बहन का जूठ, सबकु छ वह सकती है। आस प्रकार लेिखका ने िस्मता के माध्यम से एक पीिड़त नारी को िचि​ित ककया है। 'कठगुलाब' ईपन्यास मं लेिखकाने िस्मता के पाि के साथ 'माररयान' के पाि को भी न्याय देने का प्रयास ककया है। माररयान ब्रुक एक प्रबल कमॅ और संवेदन मिहला है। माररयान एक प्रबल औरत ही नहं बिवक एक सजॅनशील लेिखका भी थी। ईनका मन ऄत्यंत संवेदनशील था। ईसमं प्रपंच बुिध्ध का ऄभाव था। मनुष्प्य पर सहज िविास करनेवाली वह औरत थी। ऄपने पित को भी भरपूर प्यार कदया था। ईसके मनमं पित को कु छ बना देने की नारी सुलभ चाह थी। ईसके पास बुिध्ध कौशल नहं था। आसिलए वह आथिवग और गैरी कपूर का िशकार हो जाती है। वह संवेदनशील स्त्री प्रािप्त के िलए भी वह ककसी प्रकार का संघषॅ नहं करती।ऄपनी वेदनाओं को मूक रुप से सहती हुइ वह एक कदन लेिखका बनने मं सफल हो जाती है। आस प्रकार ' मृदल ु ा गगॅ ' ने ऄपने ईपन्यासं मं वैवािहक जीवन को एवं बंधन को नकारा है। ' मृदल ु ा गगॅ ' बोवड लेिखका है। ईनका लेखन बोवड माना जोतो है। वह सहानुभूित नहं चाहती है, और न ही सहानुभूित बंिती है। स्वािभमान ईनमं कू ि-कू ि कर भरा हुअ है। वह सत्य के एक ऄंश को लेकर ग्लोरीफाइ नहं करती, बिवक ईसको संपूणॅता मं लेती है। जीवन मं दुराव-िछपाव वह जानती नहं है। ऄपने लेखम को भी ईन्हंने आसी के ऄनुरुप चाला है। ईनकी जैिवक तृष्प्णाओं की ऄिभव्यि​ि भी ऄपने प्रित बोला गया सच है। एक सूक्ष्यम पारदशी ँ वेदना- धारा ईनके लेखन और व्यि​ित्व मं बहती हुइ कदखाइ देती है। वह कभी शुध्ध िासदी बनकर, ईभरती है। 'वंशज', 'ईसके िहस्से की धूप', 'िचतकोबरा', 'मं और मं', 'ऄिनत्य', 'कठगुलाब', अकद ईपन्यासो मं िवस्तार से िववेचन का पूरा प्रबंध ककया है। संदभॅ संकेत : (1)

किवता

ईसके िहस्से की धूप – मृदल ु ा गगॅ पृ. 94 (2) 'िचतकोबरा' पृ. 37 (3) भूिमका से (4) मृदल ु ा गगॅ के कथा सािहत्य मं नारी डॉ. रमा नवले (5) पृ. सं 215 (6) पृ. सं 207 (7) स्त्रीवाद और मिहला ईपन्यासकार डॉ. वैशाली देशपांडे पृ. सं 16 (8)पृ. सं 76 ~✽~ ISSN –2347-8764

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किवता

गज़ल

माँ ! प्रीित जैन 'परवीन'

मंजल ु ा सिशदे ऄरगड़े

माँ हमेशा यूँ ही हँसती-मुस्कु राती रहो, ममता की छाँव तले हमे यूँ ही दुलारती रहो। हमारे जीवन का हशीन ख़्वाब हो तुम, त्याग-करुणा का कोमल ऄहसास हो तुम । माँ हम है फू ल तो तुम हो के शर की क्यारी, आस क़ायनात मे तुम ही हो सबसे प्यारी। तू ही काशी है, तीरथ है, चारो धाम हं अत्मा के मंकदर मे वैकुंड का ऄंजाम है।

ईमस से दूर सुहाना मौसम, अज चलो कोइ गीत िलखं मौसम न हो जाए बेगाना, अज चलो कोइ प्रीत िलखं हवा मदभरी, भीगी मािी घुलती गंध कफजाओं मं भोले बचपन की चाहत मं ईलझा हुअ ऄतीत िलखं सर पर ओढ़ चुनररया रोकं ईड़ती िगरती बूंदं को बैठ ककनारे जलप्रपात के ऄपने मन की जीत िलखं बीत गए कदनरात सुहाने, मौज-ओ-मस्ती के अलम वतामान के आस मौसम मं, चलो प्रेम की जीत िलखं ईलझे के शं पर मोती से जलकण, िझलिमल शोभा जलतरं ग की मधुर ध्विन और बाररश का संगीत िलखं..

राह के काँिे फू ल बन गले का हार बने, हर कदन त्यौहार हो..रव हर दुःख दूर करे ।

~✽~

माफ़ करना गर हमने ज़रा भी घाव कदए, हमेशा मुशीबते तुमसे कइ कोसो दूर रहे । स्वस्थ तन,प्रफ़ु िवलत मन-दपाण हो, दुअएं मेरी माँ तुम्हारे चरणं मे ऄपाण हो। ~✽~ श्री मनीष जैन, D-175, मोती मागा, बापू नगर, जयपुर राजस्थान, पीनकोड- 302015 preeti jain110@gmail.com 'िवश्व गाथा' मं सभी सािहत्यकारं का स्वागत है। अप ऄपनी मौिलक रचनाएँ ही भेज,ं साथ मं ऄपना िचि और पररचय भी। रचनाएँ भेजने से पहले, पूवा ऄंकं का ऄवलोकन जरूर करं । प्रकािशत रचनाओं के िवचारं का पूणा ईिरदाियत्व लेखक पर होगा। िववाकदत या ऄन्य सामग्री चयन ऄिधकार संपादक का होगा । प्रकािशत रचनाओं पर कोइ पाररश्रिमक भुगतान नहं होगा । पि​िका मं प्रकािशत सामग्री रचनाकारं के िनजी िवचार हं । संपादक मंडल-प्रकाशक का ईनसे सहमत होना ऄिनवाया नहं है । ~✽~ © Editor, Printer & Publisher : Pankajbhai Amrutlal Trivedi , Gokulpark Society, 80 Feet Road, Surendranagar-363002 (Gujarat) Owner by : Pankajbhai Amrutlal Trivedi, Printed at Nidhiresh Printery, 23, Medicare Complex, Nr. A-One Garage, Surendranagar. Published at Gokulpark Society, 80 Feet Road, Surendranagar-363002 (Gujarat) Jurisdiction : Surendranagar (Gujarat)

ISSN –2347-8764

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