Vishwagatha : Oct-Nove-Dec-2015 -व्यंग्य विशेषांक

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ऄनिक्रमऽणक़ ऄऽतऽथ सम्प़दकीय व्यंग्य क़ संक्रमण क़ल

सिभ़ष चंदर

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व्यंग्य तान व्यंग्य प़सपोर्ट नहं तो कि छ नहं भंसं क़ ऱष्ट्रायकरण स़ऽहत्य के ऄधबाच मं झ़ंकी झीठ न बोले कबीतर की घर ि़ऽपसा स़क्षर होने की पाड़़ ऄहिहसक देश क़ बंदक ी प्रेम झोले भ़रत म़त़ की गठरा अदमा ररपेयर संर्र ऄंगरी माठे थे ऄमन चैन और िॉहिशगमशान प्रम़णपत्र की म़ंग ककऱयेद़रं की पाड़़ ठग ज़ने की ठग भ़ष़ व्यंग्यक़ररत़ के ऽबग-बॉस सफ़र मं ऄख़ब़र बड़े ब़बी ईफ़ट सड़े ब़बी हिनद़ की चर्पर्ा च़र् दऽलत हो तो द़ित ऽखल़ओ ख़ला ह़थ अये थे ब़ल की ख़ल ऽनक़लऩ बहू बऩम क़मि़ला म़य़ की ममत़ लोन

स़धऩ क़ ऄमुतक़ल शंकर पिणत़म्बेकर 04 ऄरऽिन्द ऽति़रा 05 श्रिणकि म़र ईर्ममऽलय़ 06 ब्रजेश क़नीनगो 09 ऽिनोद शंकर शिक्ल 10 सिभ़ष चंदर 12 सिधार ओखदे 15 पं. सिरेश नारि 16 सिभ़ष क़बऱ 19 शऽशक़ंत हिसह 20 ऄनीप शिक्ल़ 23 आन्रजात कौर 24 ऽनमटल गिप्त 25 िारं र सरल 27 ऄलंकर रस्तौगा 29 संजय जोशा 31 ऱजेश सेन 32 ऄरऽिन्द खेड़े 34 ऄशोक गौतम 36 भ़िऩ शिक्ल़ 38 ऽिक़स ऽमश्र 39 अलोक खरे 40 नारज दआय़ 41 सऽित़ ऽमश्ऱ 42 अश़ शैला 43 कि म़र गौरि ऄऽजतंद ि 44

व्यंग्य कऽित़एँ कऽित़ क़ भ़ि बिऽधय़ हर कदन जोड़ घऱ्ता सरक़र और कल़ (जमटन) अरक्षण ऄप्रैल फी ल कऽित़ गाऽतक़ ि़ह ! मेऱ देश ककधर

क़क़ ह़थरसा कल्पऩ मनोरम़ बेर्ोल्र् ब्रेष्ट प्राता जैन ‘परिान’ ऄनीप मऽण ऽत्रप़ठा ऄल्हड बाक़नेरा ऄरुण ऄणटि खरे कु ष्ण मऽलक

08 08 14 22 26 35 42 48

ऄचटऩ चति​िेदा

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ISSN –2347-8764

ऽिनात शम़ट

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सिरेख़ ऄग्रि़ल

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डॉ. मंजरा शिक्ल

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कऽित़ मिस्क़नं क़ दाप

कह़ना सच्चा दाप़िला

शोधपत्र डॉ. ऽिनयकि म़र प़ठक क़ जािन-दशटन - संजयभ़इ चौधरा 51 ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ और ऽशक्षक - डॉ. संगात़ श्राि़स्ति 53

संप़दक की कलम से मेरा ब़त

पंकज ऽत्रिेदा 56

आस ऄंक के ऄऽतऽथ संप़दक सिभ़ष चंदर ऄचटऩ चति​िद े ा ✽ सल़हक़र संप़दक सिभ़ष चंदर ✽

संप़दक

स़क्ष़त्क़र डॉ. सीयटब़ल़

दाप़िला ऽिशेष अलेख

पंकज ऽत्रिेदा ✽ सह संप़दक ऄचटऩ चति​िद े ा ✽ पऱमशटक ऽबन्दि भट्ट सौरभ प़ण्डेय मंजल ि ़ ऄरगड़े हिशदे ✽ vishwagatha@gmail.com

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

शोधपत्र संप़दक डॉ. के तन गोहेल डॉ. संगात़ श्राि़स्ति ✽ Mo. 09662514007 मिखपुष्ठ-क़र्ीटन ऽचत्र मस्त़न हिसह ✽ ि़र्मषक सदस्यत़ : 200/- रुपये 5-िषट : 1000/- रुपये (ड़क खचट सऽहत) ✽ सम्प़दकीय क़य़टलय ऽिश्वग़थ़ C/o. पंकज ऽत्रिेदा ॎ, गोकि लप़कट सोस़यर्ा, 80 फीर् रोड, सिरेन्रनगर 363002 -गिजऱत ✽ 1


ख़त-ख़बर पंकज जा, अज नय़ ऄंक प्रऽतऽष्ठत पऽत्रक़ ऽिश्वग़थ़ जिल़इ– ऄगस्त-ऽसतंबर-2016 क़ प्ऱप्त हुअ। पऽत्रक़ मं हर तरह की स़ऽहऽत्यक ऽिध़ मं रचऩएं प्रक़ऽशत हं आनके संयोजन करने क़ श्रेय संप़दक को ज़त़ है स़दर सम्म़न सऽहत बध़इ। खीबसीरत कलेिर से सजा पऽत्रक़ मं मेरा भा तान कऽित़ओं को स्थ़न देने के ऽलए अ. पंकज ऽत्रिेदा जा और र्ाम ऽिश्वग़थ़ को हृदय से अभ़र। ऄसाम़ भट्ट जा की कऽित़ जन्म कदन पर 'तरु' सिन्दर भ़ि ऽलए रचऩ पढ़ने को ऽमला। स़थटक अलेख 'लोक चेतऩ मं स्ि़धानत़ की लय' बड़़ हा स़रगर्मभत है और स्ितंत्रत़ कदिस पर ऽिशेष महत्त्ि रखत़ है। व्यंग्य रे ऽडयो च़चा क़ तो कहऩ हा क्य़ ब़तं ब़तं मं पते की ब़त कहऩ ि़ह। कऽित़ओं मं तन्िा हिसह....रे णि ऽमश्ऱ जा की क़ऽलद़स बेहद ईत्तम ऽशल्प से सजा हं...नाऽत ऱठौर जा कऽित़यं खीबसीरत जज्ब़तं मं डी बा कलम से ऽलखे हो जैसे। आस स़ऽहत्य सम़गम मं अ. पंकज ऽत्रिेदा स़क्ष़त्क़र और डॉ. ऱमदरश ऽमश्र क़ स़झ़ स़क्ष़त्क़र संदाप तोमर और ऄऽखलेश ऽि​िेदा 'ऄके ल़' जा स्ियं मं माल क़ पत्थर हं । ऽिऽभन्न पहलिओं पर ऽिस्त़र से चच़ट आस स़क्ष़त्क़रं मं हुइ बहुत ल़भ ऽमल़। 'खीबसीरत घ़ि' बड़ा हा बेजोड़ कह़ना पढ़ने को ऽमला, ऄशोक ऄंजिम जा दोहे और सररत़ भ़रर्य़ क़ संस्मरण ने पऽत्रक़ को क्य़ खीब म़यने कदए हं....जय हो। अऱधऩ ऱय जा की कह़ना 'पहच़न' संऽक्षप्त लेककन गीढ़ ऄथट ऽलए बहुत कि छ बय़ं कर रहा है। और ऄंत मं डॉ. ऽिमलेश की कह़ना पढ़ा 'इदा' सहा म़यनं मं ऽमठ़स को पररभ़ऽषत करता यह कह़ना हमेश़ य़द रहेगा। कि ल ऽमल़कर पीरा तरह स़ऽहत्य को समर्मपत आस पऽत्रक़ को कदल से नमन करत़ हूँ। सभा रचऩक़रं को नमन शिभक़मऩयं। - डॉ. ऽि​िेक हिसह 'बैऱगा' (मेरठ) ~✽~ अदरणाय पंकज जा , ऽिश्वग़थ़ क़ ऄंक (जिल़इ ऄगस्त ऽसतम्बर 2016) ऩऽिन्य से भरपीर िैऽिध्यपीणट स़ऽहऽत्यक स़मग्रा से ओतप्रोत रह़ । अपक़ संप़दकीय एक तरफ सीरज की ककरणं की म़निज़त पर मेहरब़ंऽनयो को य़द कदल़त़ हं िहा ँ प्रध़नमंत्रा नरे न्र मोदाजा की स़उथ अकिक़ के ऽपर्रमेररत्ज्बगट के रे लिे स्र्ेशन पर हुया घर्ऩ को य़द करत़ हं जह़ँ से मह़त्म़ ग़ँधा क़ ईदय हुअ । अपने सहा फ़रम़य़ – ग़ँधा ऽिच़र हं जो कभा मरत़ नहं । ऄनिकदत रुसा कह़ना 'दिःख' (ऄन्तोन चेखोि ) बहुत ऄच्छा लगा । ऄनि​ि़दक सिश़ंत सिऽप्रय को धन्यि़द । ककत़बऩम़ मं ‘खिशिंतऩम़' – मेरे जािन क़ सबक : प्रभ़त रं जन ऄत्यंत प्रभ़िश़ला और लेखक के प्रऽत अदर बढ़़नेि़ल़ हं । निोकदत लेऽखक़ ऽप्रयंक़ ऽप्रयदर्मशना की लघिकथ़ ‘ऄपऩ ऄपऩ भ़ग्य' चोट्द़र लगा। ग़ज़ल और कऽित़ओ ने ऄंक को और भा कदलचस्प बऩ कदय़ । पीऱ ऄंक रसपीणट स़मग्रा से भऱ हं । सत्य़अर्ट ि़ऱ कदय़ गय़ मिखपुष्ट ऄंक को और भा अकर्मषत ISSN –2347-8764

बऩत़ हं । अपको बध़इ । - अर अर हष़टऩ, 31, ऽि​िेक़नंद सोस़यर्ा-2, ऄंध ऽिद्य़लय म़गट, सिरंरनगर- 363001 (गिजऱत) ~✽~ अपकी पऽत्रक़ ऽिश्वग़थ़ ऽमला । धन्यि़द । आतना ऄच्छा पऽत्रक़ के सम्प़दन के ऽलए स़धि​ि़द । अज के समय मं पऽत्रक़ ऽनकलऩ बड़ा से बड़ा चिनौता है। अपक़ सम्प़दकीय हर दुऽष्ट से ईत्तम। ऽिशेषकर ये पंऽक्तय़ँ तो हृदय को छी गया -- "हम अचानक ममल गये........। जो महसूस ककया मलखा ।" ऄऽत सिंदर । लघिकथ़एं, ह़आकि , नज्मं अकद सब सऱहनाय है । अपके सिंदर चयन के ऽलए अप बध़इ के प़त्र हं । शिभम् । - चन्द्रकान्द्ता अमिहोत्री ~✽~ अदरणाय ऽत्रिेदाजा, संप़दक "ऽिश्वग़थ़", ऽिश्वग़थ़ क़ जिल़इ-ऽसतंबर 2016 ऄंक अय़ अकषटक और ऄपीिट बनकर । ऄनिक्रमऽणक़ मं संप़दकीय क़ शाषटक ' बन्दे मं है हम ' है जब कक पुष्ठ-3 मं अप ने ' सीरज की ककरणं ' ऽबखेरा है, मेरा समझ मं कि छ नहं अय़ । 'ऽनजटन िन मं रमत़ जोगा' मं डॉ श्राऱम पररह़र ने पऽत्रक़ की श्रािुऽि करने मं ऽिच़र, शब्द, दुऽष्ट, शैला तथ़ ईद्देश्य सब को तैऩत कर रख़ है ऱज़ के ऽसप़ऽहयं तरह । ऽनबंध कइ ब़र पढ़़, हर ब़र लऽलत ऄऽत लऽलत लगत़ गय़ । पऽत्रक़ ईत्तरोत्तर ईत्कु ष्ट होने के पथ पर संघषटशाल लगा । लेककन संप़दन की नज़र तेज बऩने की जरूरत है। - मिखख खडका डि िसेला (द़र्मजहिलग) ~✽~ अदरणाय पंकज ऽत्रिेदा जा, 'ऽिश्व ग़थ़' क़ निानतम ऄंक (जिल़इ ऄगस्त ऽसतम्बर 2016) ऄंक ऽमल़ । सिंदर किर पेज और सम्प़दकीय लेख ने मन मोह ऽलय़ । सिबह की सीरज की ककरणं की व्य़ख्य़ और ईनकी तिलऩ म़ँ के स्नेह से करऩ सिंदर लग़ । मेरा कह़ना को स्थ़न देने हेति अपक़ बहुत धन्यि़द । सभा स़था सचऩक़रं की रचऩएँ , कह़ऽनय़ँ, अलेख, कऽित़एँ , व्यंग अकद सभा ईच्च कोरर् के हं । सभा को शिभक़मऩएं एिम् बध़इ । अपक़ स़क्ष़त्क़र ईल्लेखनाय है, ऽजससे अपकी कइ स़ऽहत्यक ईपलऽब्धयं क़ पत़ चल़ । 'ऽजस कदन थक गय़, समझ लेऩ मं नहा रह़ ।' अपक़ यह कहऩ हा अपके सम्पीणट व्यऽक्तत्ि को दश़ट ज़त़ है । और ह़ँ, ककत़बऩम़ मं श्रा प्रभ़त रं जन जा ि़ऱ ऄनि​ि़कदत 'खिशिंतऩम़ - मेरे जािन क़ सबक' रोचक लग़ । अपके जािन की ईपलऽब्धयं पर अपको ढेरं बध़इ और ह़र्ददक शिभक़मऩएं । - तरसेम कौर ~✽~

A complete magazine. Really loved reading it. I know it was a late reading but just wanted to read it at one go in relaxed mode. Thank you for sharing. Blessed be Rose Angle Rajashree Kaul Toronto. Ontario

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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सम्प़दकीय

व्यंग्य क़ संक्रमण क़ल सिभ़ष चंदर

मिझे यह कहने मं कतइ संकोच नहं है कक यह समय व्यंग्य क़ संक्रमण क़ल है । व्यंग्य मं िह सब कि छ देख़ ज़ रह़ है जो पहले कभा नहं देख़ गय़। घ़तप्रऽतघ़त, चमच़ऽगरा, पिरस्क़र लोलिपत़, येन के न प्रक़रे ण मह़न रचऩक़र क़ ठप्प़ लग़ने की ललक और भा बहुत कि छ । कहऩ ऩ होग़ अज व्यंग्य के क्षेत्र मं ऽजतना ऱजनाऽत है, ऄऱजकत़ है, पहले कभा नहं था । रचऩक़रं मं स्िस्थ प्रऽतस्पध़ट पहले भा था पर अज की तरह बहुत ऽछछला होकर सोशल माऽडय़, ऄखब़रं मं ईछल नहं रहा था । मजे की ब़त यह है कक बेहतर लेखन, स़रगर्मभत लेखन, क़लजया लेखन बहुत कम कदखने मं अ रह़ है। ऽिषयं और ऽशल्प पर प्रयोगधर्ममत़ की जगह, छाछ़लेदर के नए प्रयोग ककये ज़ रहे हं । यह भा सच है कि छ िररष्ठ लेखकं ने ऄपने ऩम प्रऽतष्ठ़ क़ दिरूपयोग ककय़ थ़, पिरस्क़र लोलिपत़ कदख़इ था, आसके ऽलए दजटनं समझौते ककये थे । कम प्रऽतभ़ ि़ले ऄपने ऽशष्यं को य़ ऽजनसे ल़भ ऽमलने की ईम्माद था ईन्हं अगे बढ़़ने की कोऽशशे की था। पर ऐसे लोग सबकी नजरं मं थे और ईनपर छंऱ्कसा भा होता रहा था । ये भा सच है कक ईन लोगं के ऽखल़फ अि़ज ईठना च़ऽहए था, ईनके मिखौर्े हर्ने च़ऽहए थे, िे हर्े भा । पर यह़ँ तक चाजं एक हद तक ठाक थं । पर धारे धारे आस सबके स़थ और बहुत स़रा चाजं जिडता गया । िे चाजं भा ऽजनकी श़यद जरुरत नहं था। यि​ि़ रचऩक़रं ने भा आस यि​ि मं ऄपने ऄपने स्तर पर अहुऽतय़ँ दा। गिर् बने और जैस़ कक होत़ है एक दीसरे पर कीचड़ ईछ़ल़ गय़ और आस सब कीचड़ को सोशल माऽडय़ के म़ध्यम से सब ओर ऽछतऱ कदय़ । ISSN –2347-8764

अज ऽस्थऽत यह है कक व्यंग्य मं हर कोइ फतिे दे रह़ है। व्यंग्य क्य़ होऩ च़ऽहए, कै से ऽलख़ ज़ऩ च़ऽहए । व्यंग्य क्य़ नहं है –आस पर बोल रह़ है । िररष्ठं को ऽजन्हं पढ़कर, ऽजनसे ऽमलकर कि छ साखने की कोऽशश होना च़ऽहए ईन पर अरोप लग़ए ज़ रहे हं कक ईन्हंने यि​ि़ओं के मील्य़ंकन के ऽलए कि छ नहं ककय़ । गोप़ल चति​िेदा और ज्ञ़न चति​िेदा जैसे कदग्गजं के ऽखल़फ ि़क् ब़ण चल़ये ज़ रहे हं। ऄट्टह़स लखनउ के क़यटक्रम मं ज्ञ़न चति​िेदा जैसे रचऩक़र को भा बैकफि र् पर अऩ पड़़ । ईनकी गलता यह था कक ईन्हंने नए रचऩक़रं की रचऩओं पर सच बोलने क़ दिस्स़हस ककय़ थ़ । समझ मं नहं अत़ कक व्यंग्य मं यह सब हो क्य़ रह़ है ? ऄदब ऩम की चाज ग़यब होता ज़ रहा है । िररष्ठ लोग क्य़ ऽबऩ क़म ककये अगे अये हं । ईन्हंने ऐस़ कि छ जरुर ऽलख़ है न, ऽजसके क़रण िे यह़ँ तक पहुंचे । क्य़ नए लोग कल िररष्ठ नहं हंगे? खैर .....एक ब़त और अज व्यंग्य मं ऐसे बहुत से लोगं ने प्रिेश ककय़ है ऽजन्हं आस ब़त की समझ नहं है कक स़म़न्य लेख और व्यंग्य लेख मं बिऽनय़दा फकट क्य़ है ? मजे की ब़त ये है कक िे पत्र पऽत्रक़ओं मं व्यंग्य कॉलम के ऄन्तगटत छप भा रहे हं। आन्हा कि छ क़रणं से व्यंग्य के ऩम ऄधकचरा रचऩओं की संख्य़ बढता ज़ रहा हं । यहा ह़ल रह़ तो प़ठक व्यंग्य के ऩम पर दीर भ़गने लगेग़ कइ ऱष्ट्राय सम़च़र पत्रं से व्यंग्य के कॉलम बंद हुए हं, कि छ मं कम हुए हं तो कि छ मं शब्दं की साम़ कम कर दा गया है । ऄऽधक़ंश संप़दकं क़ अरोप रहत़ है कक बकढ़य़ रचऩएँ अ नहं रहा हं । सच तो यह है कक प़ठक को ऄगर सप़र् रचऩ पढना है तो िो लोग ऽनबंध पढंगे, कह़ना पढंगे,

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य क्यं पढंग? े मिख्यतौर पर शैला हा तो िह क़रक जो व्यंग्य को व्यंग्य क़ स्िरूप प्रद़न करत़ है। व्यंग्यकथ़ मं शैला क़ क़म प्रसंगिक्रत़ ऽनभ़ लेता है । ककस्स़ कोत़ह यह है कक व्यंग्य मं ऐसे बहुत से लोगं क़ प्रिेश हो चिक़ है ऽजनके ऽलए व्यंग्य बस ऄख़ब़रं मं ऄपऩ ऩम चमक़ने क़ म़ध्यम है । आनको ऩ व्यंग्य की परम्पऱ क़ ज्ञ़न है, ऩ ये पढऩ पसंद करते हं, न िररष्ठं से साखकर खिद को समुि करऩ च़हते हं । ये ऽसफट ऽलखते हं और ईसे व्यंग्य मनि़ने के ऽलए अम़द़ हं । आन लोगं ने खिद को 250 -500 शब्दं के ऄखब़रा ढ़ंचे मं कफर् कर ऽलय़ है ऽजसमं िे कभा चर्क़रे द़र ऱजनैऽतक रर्प्पऽणय़ँ परोस रहे हं तो कभा व्यंग्य के शाषटक तले स़म़न्य लेख ऽजनमं दो च़र जगह व्यंग्य की शैला जैस़ कि छ ऽमल ज़त़ है । आनकी एक और ख़ऽसयत है कक िे ऽसफट ऄखब़रा ढ़ंचे मं ज़नत़ हूँ कक मं ऽलखते समय कडि़ हो रह़ हूँ, पर क्य़ करूं व्यंग्य को जो भा प्य़र करे ग़ ईसे व्यंग्य की ऽस्थऽत देखकर कदक्कत होगा । परस़इ, जोशा, शिक्ल ने व्यंग्य को जो जमान दा ईस पर अगे खेता करने की ऽजम्मेद़रा हम सबकी था । व्यंग्य को हमं ऽमलकर अगे ले ज़ऩ थ़। व्यंग्य के प़ठकं की संख्य़ मं गिण़त्मक िुऽि करना था । ईनसे कहलि़ऩ थ़ कक व्यंग्य क़ ऽिक़स हो रह़ है । पर खेद........कि छएक ऄपि़दं को छोड़कर व्यंग्य कह़ँ ज़ रह़ है? व्यंग्य के प़ठक धारे धारे कम हो रहे हं। संप़दको क़ कहऩ है कक ऄच्छ़ व्यंग्य कम अ रह़ है । ऐसा ऽस्थऽत देखकर पत़ नहं अपको कोफ़्त होता है य़ नहं पर मिझे तो हो रहा है । च़हूँग़ की व्यंग्य की ऽस्थऽत पर अप भा हिचऽतत हं, परे श़न हं, श़यद आसा मं से कि छ ऱस्त़ ऽनकले ...व्यंग्य पर सचमिच हिचऽतत होने की जरुरत है ।

ISSN –2347-8764

तान व्यंग्य

अम अदमा / रोर्ा / और िह मर गइ शंकर पिणत़म्बेकर

ऩि चला ज़ रहा था। मँझद़र मं ऩऽिक ने कह़, 'ऩि मं बोझ ज्य़द़ है, कोइ एक अदमा कम हो ज़ए तो ऄच्छ़, नहं तो ऩि डी ब ज़एगा।' ऄब कम हो जए तो कौन कम हो ज़ए? कइ लोग तो तैरऩ नहं ज़नते थे : जो ज़नते थे ईनके ऽलए भा तैरकर प़र ज़ऩ खेल नहं थ़। ऩि मं सभा प्रक़र के लोग थे ड़क्र्र, ऄफसर, िकील, व्य़प़रा, ईद्योगपऽत, पिज़रा, नेत़ के ऄल़ि़ अम अदमा भा। ड़क्र्र, िकील, व्य़प़रा ये सभा च़हते थे कक अम अदमा प़ना मं की द ज़ए। िह तैरकर प़र ज़ सकत़ है, हम नहं। ईन्हंने अम अदमा से की द ज़ने को कह़, तो ईसने मऩ कर कदय़। बोल़, 'मं जब डी बने को हो ज़त़ हूँ तो अप मं से कौन मेरा मदद को दौड़त़ है, जो मं अपकी ब़त म़नीँ?' जब अम अदमा क़फी मऩने के ब़द भा नहं म़ऩ, तो ये लोग नेत़ के प़स गए, जो आन सबसे ऄलग एक तरफ बैठ़ हुअ थ़। आन्हंने सब-कि छ नेत़ को सिऩने के ब़द कह़, 'अम अदमा हम़रा ब़त नहं म़नेग़ तो हम ईसे पकड़कर नदा मं फं क दंगे।' नेत़ ने कह़, 'नहं-नहं ऐस़ करऩ भील होगा। अम अदमा के स़थ ऄन्य़य होग़। मं देखत़ हूँ ईसे। मं भ़षण देत़ हूँ। तिम लोग भा ईसके स़थ सिनो।' नेत़ ने जोशाल़ भ़षण अरं भ ककय़ ऽजसमं ऱष्ट्र, देश, आऽतह़स, परं पऱ की ग़थ़ ग़ते हुए, देश के ऽलए बऽल चढ़ ज़ने के अह्ि़न मं ह़थ उँच़ कर कह़, 'हम मर ऽमर्ंगे, लेककन ऄपना नैय़ नहं डी बने दंगे... नहं डी बने दंग.े .. नहं डी बने दंगे...। सिनकर अम अदमा आतऩ जोश मं अय़ कक िह नदा मं की द पड़़।

रोर्ा भगि़न ने हमसे कह़, 'हम़ऱ यह मंकदर खोद ड़लो। यह मंकदर नहं, स़क्ष़त भ्रष्ट़च़र खड़़ हुअ है।' हमने कह़, 'हम़रे प़स ऽसफट कलम है। आससे जल्दा नहं खोद प़एँगे। ऽजनके प़स सहा हऽथय़र हं, अप ईनसे क्यं नहं कहते' आस पर भगि़न ने कह़ कक 'िे भीखे हं, ईनके प़स त़कत नहं है' 'आस पर हमने कह़, 'अप ईन्हं रोर्ा देकर त़कत क्यं नहं देते? ' भगि़न बोले, 'मं ईन्हं रोर्ा दे तो दी,ँ पर िह ईनके ऄऽधक़र की नहं, भाख की चाज होगा। भाख की रोर्ा अदमा को क़ऽहल बऩ देता है और क़ऽहल लोग जड़ नहं खोद सकते।'

और िह मर गइ सत्य ने म़ँ, नाऽत के प़स अकर कह़, 'अज मंने एक बहुत बड़़ प्ऱणा देख़।' 'ककतऩ बड़़...?' नाऽत ने पेर् फि ल़कर कदख़य़। 'नहं, आससे बड़़।' नाऽत ने कफर पेर् फि ल़य़। 'नहं, आससे भा बड़़ म़ँ!' सत्य ने कह़। नाऽत पेर् फि ल़ता गइ और सत्य कहत़ गय़ -आससे भा बड़़। सत्य ने ऽजस प्ऱणा को देख़ थ़, भ्रष्ट़च़र थ़। नाऽत ईसके दसिं ऽहस्से ऽजतऩ पेर् नहं फि ल़ प़इ कक िह फी र् गय़। नाऽत बेच़रा मर गइ। ~✽~ ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

प़सपोर्ट नहं तो कि छ नहं ऄरऽिन्द ऽति़रा पत्ना से कदनभर ऽझक-ऽझक होता रहा। िह च़हता था कक मं ऄपऩ और ईसक़ प़सपोर्ट बनि़ दीं। मंने कह़ जब हम ऽिदेश य़त्ऱ के ल़यक हा नहं हं तो प़सपोर्ट बनि़ने से क्य़ फ़यद़। ईसक़ तकट थ़ कक ऽिदेश से हम दोनं कस्र्म ड्यीर्ा िी चाजं ल़यंगे तो ककऱय़ िसील हो ज़येग़। ऱत के तान बजे मोब़आल बज़ तो नंद ईचर् गइ। मिझे त़ज्जिब हुअ कक स़ढेऺ प़ँच क़ ऄल़मट तान बजे कै से बज गय़। दिब़ऱ घंर्ा बजा तो मन मं अशंक़ हुइ। आस िक्त की घंर्ा कहं कोइ कोइ बिरा ख़बर तो नहं है! ईधर मोब़आल पर एक मंचाय कऽि ऽमत्र कह रहे थे ‘‘तिम्ह़रे प़स प़सपोर्ट है य़ नहं।’ मं समझ गय़, मेऱ यह ऽमत्र कऽि सम्मेलन खत्म करके कफर ‘रसरं जन’ मं जिर् गय़ होग़। ‘रसरं जन’ के ब़द िह आसा तरह ऽमत्रं को तंग करत़ है। गलता मेरा हा था। कि छ कदनं पहले मंने आस ऽमत्र से कह़ थ़, अजकल मेरे प़स कऽि सम्मेलनं क़ र्ोऱ् है। कि छ जिग़ड़ हो तो मेऱ ऩम प्रस्त़ऽित कर देऩ, क्यंकक मेरे एक दजटन कि ते प़यज़मे भा मेरे स़थ कऽि सम्मेलन को ऽिसीरते रहते हं। ऽमत्र कह रह़ थ़, तिम्ह़रे प़स प़सपोर्ट हो तो के लोफोर्मनय़ मं कऽि सम्मेलन पढ़ने की तैय़रा करो। नंद र्ी र्ने से बौखल़य़ हुअ मं बोल़, ऄपने प़स प़सपोर्ट नहं है, ह़ँ ऱशनक़डट जरूर है। िह बोल़, ल़नत है तिम पर और तिम्ह़रा कऽित़ पर। मंने पहले हा कह़ थ़ प़सपोर्ट बनि़ लो। ऽिदेश के कऽि सम्मेलन ब़र-ब़र नहं ऽमलते। मंने कह़, ऱशनक़डट बनि़ने मं आतने पसाने अए कक प़सपोर्ट बनि़ने की ऽहम्मत हा नहं पड़ा। िह बोल़ ऄरे ऽचरकि र् कऽि! आस जम़ने मं ऱशनक़डटको कौन पीछत़ है। ब़ंगल़देश और प़ककस्त़न से अए घिसपैरठए तक भ़रत मं ऱशनक़डट बनि़ लेते हं! प़सपोर्ट क़ ऄपऩ क्रेज है। अजकल कऽि लोग कऽित़ ब़द मं ऽलखते हं, प़सपोर्ट पहले बनि़ते हं। कोइ भा स़ऽहत्यक़र तब तक मिक़म्मल स़ऽहत्यक़र नहं होत़, जब तक िह प़सपोर्ट नहं बनि़त़। मिझे लग़ ऽमत्र की ब़तं मं दम है। ऽपछले एक स़ल से भ़रताय ISSN –2347-8764

स़ऽहत्यक़रं क़ एक ग्रिप प़ककस्त़न य़त्ऱ की प्रताक्ष़ कर रह़ है। ऽिऽभन्न क़रणं से यह य़त्ऱ र्लता रहा है। आस य़त्ऱ के ऽलए मेरे एक ईम्रदऱज स़ऽहऽत्यक ऽमत्र ने प़सपोर्ट बनि़य़ थ़, मगर ईनकी कक़स्मत देऽखए प़ककस्त़न ज़ने क़ संयोग हा नहं बन रह़। ऽमत्र कहने लगे हं, आससे ऄच्छ़ थ़ प़सपोर्ट हा नहं बनि़त़। एक ऄन्य मंचाय कऽि ने मिझे समझ़य़ कक ककसा के झ़ंसे मं मत अ ज़ऩ। ‘रसरं जन’ के समय कहा हुइ ब़तं को कभा गंभारत़ से मत लेऩ। गलता से प़सपोर्ट बन भा गय़ तो भा ऽिदेष य़त्ऱ नहं हो प़येगा। ऄगर मंचाय कऽि अपके आतने हा ऽहतैषा होते, तो पीऱ भ़रत घिम़ देते। ये च़र गाऽतय़ मंचाय कऽि छपने ि़ले स़ऽहत्यक़रं से ऽिषेष इष्य़ट रखते हं। मिंह पर ि़ह-ि़ह कहते हं, मगर पाठ पाछे क्य़ कहते हं, िह मं अपको बत़ नहं सकत़। मंने आस ऽमत्र के कथन को भा गंभारत़ से नहं ऽलय़ क्यंकक अजकल स़ऽहत्यक़रं मं चोर को चोरा करने के ऽलए ईकस़ने तथ़ स़हूक़र को स़िध़न करने की प्रिुऽत्त पनप गइ है। यहा ऽमत्र ब़द मं मेरा हैऽसयत बत़येग़। कहेग़ घर मं नहं द़ने ऄम्म़ चला भिऩने। प़सपोर्ट बनि़कर ऄच़र ड़लेग़ क्य़! बहरह़ल मंने ऽनणटय ऽलय़ है कक मं प़सपोर्ट ज़रूर बनि़उंग़। जेब मं प़सपोर्ट रख़ हो तो ऽिदेश य़त्ऱ के झीठे संस्मरण सिऩए ज़ सकते हं। कोर्ट कचहरा क़ चक्कर फँ स ज़ये तो अप ‘सेऽलऽब्रर्ा’ बन सकते हं, क्यंकक ऄद़लत सबसे पहले अपक़ प़सपोर्ट जब्त करे गा। अज तक ककसा क़ ऱषनक़डट ज़ब्त होने की ख़बर हमने नहं सिना। प़सपोर्ट ज़ब्त होने के ब़द यह प्रम़ऽणत हो ज़येग़ कक अप ऄमेररक़, यीरोप बगैरह घीमते रहे हं। और जो लेखक -कऽि आस तरह घीमत़ रह़ हो, िह ‘ऽचरकि र्’ हर्मगज नहं हो सकत़। ~✽~ रोडिेज ऽडपो के पाछे , मेहऱ कॉलोना, ऽशकोह़ब़द-283135, ऽजल़-कफरोज़ब़द (ई.प्र.), मोब़. नं.- 09414712709

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

भंसं क़ ऱष्ट्रायकरण श्रिण कि म़र ईर्ममऽलय़ भंसं के ब़रे मं मेऱ व्यऽक्तगत और स़िटजऽनक ऄनिभि हमेश़ से हा ऽनम्न स्तर क़ रह़ है। भंस क़ले रं ग की होता है, हरा घ़ंस ख़ता है और सफ़े द दीध देता है, भंसं के ब़रे मं मेऱ ज्ञ़न बस आसा पररभ़ष़ तक हा साऽमत रह़ है ऄभा तक। आसक़ मिख्य क़रण है कक स्की ल मं भा भंसं की ऄिहेलऩ की गइ और ऽसफ़ट ग़य पर हा ऽनबंध ऽलखि़ए गए। स़ऽहत्य मं भा 'क़ल़ ऄक्षर भंस बऱबर', 'ऄकल बड़ा य़ भंस' य़ 'भंस के अगे बान ब़जे, भंस खड़ा पगिऱय' य़ 'ऽजसकी ल़ठा ईसकी भंस' आत्य़कद कऽतपय मिह़िरं तक हा भंसं क़ सम़िेश साऽमत रह़। 'गइ भंस प़ना मं' मिह़िरे को ज़रूर थोड़़ महत्ि कदय़ गय़ है और देश मं मॉल संस्कु ऽत अने के ब़द पत्ना की तिलऩ भंस से करते हुए कह़ ज़ने लग़ है-'गइ बाबा मॉल मं'। ऄपना ऄिहेलऩ पर भंसं ने कभा ऽिरोह भा नहं ककय़। क़श, मेरे देशि़सा ऄमेररक़ से सबक ले प़ते। ऄमेररक़ि़ऽसयं ने तो भंसं को आतना आज़्ज़त दा है कक ऄपने एक शहर क़ ऩम हा 'बफै लो' रख कदय़ है। और यकद भंसं आतना भ़रा-भरकम न होतं तो दो-च़र भंसं को ऄंतररक्ष की सैर भा कऱ चिके होते। बहरह़ल मेरा ककस्मत मं ऽलख़ थ़ कक भंसं के ब़रे मं मेरे ज्ञ़न मं िुऽि हो, आसऽलए क़स्बे के एकम़त्र बंक मैनेजर मेरे पड़ोसा बन गए। चीकँ क बंक से, भंसे खरादने के ऽलए, ककस़नं को ऊण बंर्ते थे, आसऽलए बंक मैनेजर भंसं के बहुत क़राब थे। और आसा बह़ने, ईनके सौजन्य से, मिझ पर भा भंसं ह़िा होता चला गईं। बंक से भंसं खरादने के ऽलए ऊण स्िाकु त होते। ककस़न और प़ना ऽमले दीध क़ व्यिस़य करने ि़ले भंसं ख़रादते और प्रम़ण के ऽलए ईन्हं बंक तक ल़ते। बंक मैनेजर के स़मने भंसं के क़न मं पहच़न-ऽचन्ह ऱ्ंके ज़ते। भंसं को दिहकर भा देख़ ज़त़ त़कक क़ग़ज़ पर ऽलखा ईनकी दीध देने की क्षमत़ को सत्य़ऽपत ककय़ ज़ ISSN –2347-8764

सके । दीध क़ बड़़ ऽहस्स़ मैनज े र पा ज़त़। बच़ हुअ दीध बंक कमटच़रा अपस मं ब़ँर् लेते। आन सब ब़तं से बेख़बर भंसं खड़ा जिग़ला करता रहतं और गोबर-धन मं िुऽि करता रहतं। आसा बाच भंसं के सौजन्य से बंक मैनेजर की श़दा हो गइ। ईनकी पत्ना अइ तो ईसे देखकर यह स्पष्ट हो गय़ कक बंक मैनेजर पीरा ऽनष्ठ़ से भंसं को समर्मपत थे। ईनकी गुहस्था चल ऽनकला, ऽजसमं उँचा तनख़्ि़ह और भंसं के सहयोग क़ योगद़न रहने लग़। क़स्बे के ऽिक़स ऄऽधक़रा चौबेजा से मंने एककदन पीछ़, "ऽप्रय चौबेजा, अजकल ककस़निगट बड़ा त़द़द मं भंसं खराद रह़ है। कु पय़ बत़एं कक यह ककस़नं क़ ऽिक़स है य़ भंसं क़?" चौबेजा भिनभिऩते हुए बोले, "आस स्स़ले बंक मैनेजर क़ ऽिक़स हो रह़ है, समझे? मोऱ् कमाशन म़रत़ है ब़स्र्डट !" मंने ईन्हं कि रे दते हुए अगे पीछ़, "पर चौबेजा, कमाशन देत़ कौन है?" चौबेजा बोले, "भ़इ मेरे, बंक मैनेजर जब तक भंस खरादने ि़लं से कमाशन नहं प़ ज़त़, तब तक ऊण हा स्िाकु त नहं करत़। और ससिऱ जब से श़दा कर अय़ है, ऄपना कमाशन क़ रे र् भा बढ़़ कदय़ है ईसने। स्ि़आन कहं क़ !" चौबेजा क़ मीड ईखड़ गय़। ईनक़ मीड फ़्रेश करने के ऽलए मंने पीछ़, "बंक मैनेजर की बाबा के ब़रे मं अपके क्य़ ईच्च य़ तिच्छ ऽिच़र हं, चौबेजा?" ह़ल़ँकक हम़रे यह़ँ दीसरं की बाबा य़ नौकऱना क़ ऽज़क्र करके मीड िे श करने क़ ररि़ज़ है, पर भातर से तपे हुए चौबेजा ने एक मध्यम श्रेणा की भड़़स ऽनक़ला, "ऄरे , ईस छम्मक-छल्लो की ब़त न हा करो तो ऄच्छ़ ! ईसक़ िश चले, तो भंसं क़ गोबर आकट्ढ़ करे और कण्डे बऩकर बेच दे !"

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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सिनकर मिझे लग़ जैसे चौबेजा साधे भंस को ग़ला दे रहे हं। ईनके चेहरे पर भंसं क़ अतंक स्पष्ट नज़र अय़ मिझे। आधर भंसं की दा हुइ बरक्कत से मैनेजर के घर एक कन्य़-रत्न ने जन्म ऽलय़। ऽसज़ेररयन ऑपरे शन करऩ पड़़।मैनेजरना ने आतऩ दीध ऽपय़ थ़ कक बेर्ा गभट मं हा जि़न होते-होते रह गइ था । बेर्ा के पैद़ होने की ख़ुशा मं मैनेजर ने श़नद़र प़र्ी दा। मेरे ऽहस्से मं भा भंसं क़ थोड़़ प्रस़द ऽलख़ थ़ आसऽलए मिझे भा ऽनमंत्रण ऽमल़। बड़ा रौनक़ था प़र्ी मं। ऐस़ लग़ जैसे सजा-संिरा भंसं के बाच मं अ गय़ होउं। मं ईनके ि़त़टल़प क़ अनंद लेने लग़। ऽमसेज़ कऱ्रे ने ठि नकते हुए मैनेजरना से पीछ़, "सच्चा बहन, दहा बड़े बहुत स्ि़कदष्ट बने हं। घर मं हा बऩए हं क्य़?" मैनेजरना फी लकर गिब्ब़ऱ होते हुए बोला, "और नहं तो क्य़ ! घर के दहा की ब़त हा कि छ और होता है ! एक दहा बड़़ और लो न, बहन।" मिंहलगा श्रामता शम़ट ि़त़टल़प मं प्रिेश करते हुए बोलं, "ऄच्छ़, दहा भा घर क़ है? बड़़ ऄच्छ़ दीध अत़ है तिझे तो, ऽडयर?" मैनेजरना शरम़इ, "धत् ! बेशमट कहं की ! ऄरे , मेरे िो हं न, ईन्हंने हा लगि़य़ है दीधि़ल़। सच सखा, एकदम ऽनख़ऽलस दीध देत़ है।" ऽमसेज़ मह़जन चहककर बोलं, "य़र, हमं भा लगि़ दे न िहा दीधि़ल़। ह़य, ककत्ता ऄच्छा खार बना है !" श्रामता हिसह बोलं, "ह़ँ-ह़ँ, हमं भा लगि़ दे न, य़र, िहा दीधि़ल़?" सभा की फ़रम़आशं सिनकर मैनेजरना अशंककत हो गईं। म़नो दीसरं के घर मं भा ऄच्छ़ दीध अने लगेग़ तो ईनक़ क़द घ़र् ज़एग़। िे कहं की भा नहं रहंगा। िे उपरा सौजन्यत़ कदख़ते हुए बोलं, "ऄच्छ़ ब़ब़, मं ऄपने ईनसे ब़त करुँ गा। पहले तिम लोग ठाक से ख़ओ तो।" ऽमसेज़ कऱ्रे कहं पाछे न रह ज़एं, आस डर से बोलं, "तेरा कसम, ककत्ता बकढ़य़ अआसक्रीम जमा है। हम़रे ऽलए भा दीध क़ जिग़ड़ करि़ न, बहन?" ISSN –2347-8764

मैनेजरना गद् गद् हो गईं। ऄपने पऽत पर ईन्हं बहुत प्य़र ईमड़ अय़। ईनकी सहेऽलयं ने एक़एक ईनके पऽत को ऽिऽशष्ट बऩ कदय़। ईन्हं ऽिश्व़स हो गय़ कक ईनके पऽत दीधि़ले को कह दंगे कक और दीध च़ऽहए, तो दीधि़ल़ भा भंसं से कह देग़ कक स़हब लोगं की दीध की म़ंग बढ़ गइ है। और देखते हा देखते यह ब़त भंसं के बाच सरक़रा घोषण़ की तरह फ़ै ल ज़एगा। गि़टऽभभीत हो ईठं मैनेजरना ऄपने पऽत पर। पऽतव्रत़ ऩरा को पऽत से हा गिट और गभट, दोनं होऩ च़ऽहए, ऐस़ श़स्त्र कहते हं। प़र्ी मं चौबेजा भा अए, सबसे बकढ़य़ ईपह़र लेकर। मंने ईन्हं कोने मं ले ज़कर धारे से पीछ़, "गिरु, अप तो मैनेजर को गररय़ रहे थे? यह मस्क़ब़जा क्यं?" िे ऽखऽसय़ना हंसा हंसकर बोले, "य़र, िो तो प़र्ी के ब़हर की ब़त था। पर प़र्ी के तो ऄलग मैनसट होते हं न? अऽख़र आन्हं के बाच तो रहऩ है, आसऽलए ज़ऱ पऱ्कर रखऩ पड़त़ है। स्स़ल़ मैनेजर जल्दा जल्दा ऊण नहं मंज़री करे ग़ तो ऽिक़स कै से होग़? उपर ि़ले मेरा क़़बऽलयत पर शक़ नहं करने लगंग,े बोलो?" चौबेजा के चेहरे पर ट्ऱंसफ़र की पाड़़ ईभरा। और मं ईनकी स्पष्ट ऽिक़स-नाऽत से ऄऽभभीत हुअ। मं क़स्बे क़ ऽिक़स देख रह़ थ़ और देश पर गिट कर रह़ थ़। आसा बाच भंस हम़रे ऽिभ़ग मं भा घिस गइ। एक कदन हम़रे सिपरिरर्ंहिडग आं जाऽनयर(एस. इ.) स़हब ने एक्जाक्यीरर्ि आं जाऽनयर (इ.इ.) ऽमस्र्र िम़ट से पीछ़, "भंसं के ब़रे मं तिम्ह़रा क्य़ ऱय है, िम़ट जा?" बड़़ ऄफ़सर छोर्े ऄफ़सर से मौसम की ब़तं भा करत़ है तो हड़क़कर। िम़टजा हड़बड़़ते हुए बोले, "सर जा, मं समझ़ नहं। हुकम करं , सर जा? भंसं के ब़रे मं जो ऱय अपकी होगा, िहा मेरा भा हो ज़यगा, सर। कहं तो ककसा से भंस पर प्रोजेक्र्-ररपोर्ट बनि़ दीँ?" एस. इ. स़हब दह़ड़े, "व्ह़र् नॉनसेन्स ! ककसा भा ऽिषय मं मेरा और तिम्ह़रा ऱय एक कै से हो सकता है? अफ़्र्र ऑल, अय ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

एम सिपरिरर्ंहिडग आं जाऽनयर ! ऐंड ऽशर् ऽिद योर प्रोजेक्र्-ररपोर् ! ऽमस्र्र िम़ट, अप ऽडप़र्टमंर् नहं चल़ सकते। कै से कै से लोगं से प़ल़ पड़ गय़ है मेऱ ! आतऩ भा नहं म़लीम कक भंसं क़ दीध मोऱ् और स्ि़स्​्यि​िटक होत़ है। नॉनसेन्स ! नॉई गेर् लॉस्र् !" ऽमस्र्र िम़ट भ़गे भ़गे मेरे प़स अए और बोले, "य़र, एस. इ. कह रह़ है कक भंसं क़ दीध मोऱ् और स्ि़स्​्यि​िटक होत़ है। ज़ऱ ऄऩल़आज़् करके बत़ओ कक ईसक़ मतलब क्य़ है?" मंने आस गित्था को ऽिभ़ग की क़यटप्रण़ला के ऄनिस़र नाचे सरक़ कदय़। देखते हा देखते ऽिभ़ग क़ हर ऄफ़सर और क़मग़र रर्ने लग़ कक भंस क़ दीध मोऱ् और स्ि़स्​्यि​िटक होत़ है। गहन ऽिच़र मंथन के ब़द सभा कऽनष्ठ ऄऽधक़ररयं ने एक जैसा ररपोर्ट दा कक एस.इ. स़हब को एक ऐसा भंस च़ऽहए, ऽजसक़ दीध मोऱ् और स्ि़स्​्यि​िटक हो।" िम़ट जा ऽिभ़ग की क़यटकिशलत़ देख बहुत प्रभ़ऽित हुए और खिश होकर बोले, "फं ऱ्ऽस्र्क ! पर ऄब अगे क्य़ ककय़ ज़य?" मंने सल़ह दा, "सर, कि छ नक़ला मस्र्ररोल भर लेते हं, ईन पैसं से भंस खराद लंगे।" िम़ट जा मिझे ड़ँर्ते हुए बोले, "और हम सब घ़ंस छालंगे क्य़? नहं, हम ऄपने पेर् पर ल़त नहं म़रं गे। ठे केद़र को बिल़ओ?" ठे केद़र अ गय़ और ह़थ जोड़कर बोल़, "सर जा, हुकम करो जा?" िम़टजा स्नेहपीिटक धमक़ते हुए बोले, "बेऱ्, यकद ऄगले क़म क़ ठे क़ च़हते हो, तो एस. इ.स़हब को एक ऐसा भंस क़ नज़ऱऩ पेश करो, ऽजसक़ दीध मोऱ् और स्ि़स्​्यि​िटक हो !" ठे केद़र ख़ुश हुअ। जब एस. इ. क़ क़म भंस से चल ज़एग़, तो नाचे ि़ले भेड़बकररयं से तसल्ला कर लंगे। िह भ़ग़ भ़ग़ भंस बेचने ि़लं के प़स पहुंच़। भंस के म़ऽलक ने पीछ़, "बंक से लोन िगैरह भा ऽलय़ है, य़ यीँ हा मिंह ईठ़ए चले अए भंस खरादने? सरक़र को बेिकी फ़ बऩऩ च़हते हो?"

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ठे केद़र बोल़, "मिझे लोन की क्य़ ज़रुरत? मं ठे केद़र हूँ। मं ऄपने पैसे ख़चट कर सकत़ हूँ।" भंस-म़ऽलक बोल़, "मं जनत़ हूँ कक ठे केद़रं के प़स क़ला कम़इ होता है, पर मं तिम्ह़रा क़ला कम़इ लेकर ऄपना क़ला भंस नहं बेचींग़। ज़ओ, पहले बंक से लोन ऽनकलि़ के ल़ओ।" बेच़ऱ ठे केद़र भ़गकर बंक मैनेजर के प़स पहुंच़ और बोल़, "मैनज े र स़हब, मिझे लोन दे दाऽजये। एक भंस खरादना है।" मैनेजर मिस्कऱए, "ठे केद़र जा, अपको भंस की क्य़ ज़रुरत पड़ गइ? क्य़ ककसा ऄफ़सर को ओब्ल़आज़ करऩ है? खैर, मिझे क्य़, बस अप बा.डा. ओ. स़हब से ऽलखि़ ल़आए कक अपको भंस की ज़रुरत है। कफ़र बंक अपक़ लोन संक्शन कर देग़।" ठे केद़र बा.डा.ओ. चौबेजा के प़स पहुंच़ और ईन्हं ऄपना ज़रुरत बत़इ। चौबेजा गिऱटए, "तिम तो ऄच्छे हट्टे-कट्टे हो, य़र ! नहं, मेरे ऽहस़ब से तिम्हं दीध की कोइ ज़रुरत नहं। सरक़र भंस ज़रुरतमंदं को हा ख़रादि़ता है।" ठे केद़र ऽगड़ऽगड़़य़, "जऩब, मिझे तो भंस की ज़रुरत नहं, पर ककसा ऄफ़सर को भंर् देऩ है। बस, अप मिझ पर मेहरब़ना कर दो और ऽलख कर दे दो कक मिझे भंस की ज़रुरत है। मिझे बंक से लोन ऽमल ज़एग़।" चौबेजा व्यंग्य से मिस्कऱए, "ि़ह ! ठे केद़र हो न ! ख़ुद को बड़़ च़ली समझते हो, है न? ज़नते नहं, सरक़र भंस खरादने के ऽलए ऽसफट ककस़नं को हा ऊण देता है? आसऽलए तिम्हे ऄपने ककस़न होने क़ सबीत देऩ होग़। ज़कर सरपंच से ऽलखि़ ल़ओ कक तिम ककस़न हो।" दिऽनय़द़र ठे केद़र समझ गय़, "बोल़, जऩब, मिझे मत भर्क़आए। जो कि छ भा हमसे बन पड़ेग़, अपकी सेि़ कर दंगे।" आस तरह ऄंततोगत्ि़ ठे केद़र क़ क़म बन गय़। हर तरफ ऽिक़स ब़ंर्ता भंस अ गइ। ऽमस्र्र िम़ट चेहरे पर ऽिजया मिस्क़न ऽलए और च़पलीसा की भ़िभंऽगम़ सज़ए, भंस को ह़ंकते हुए, एस.इ. स़हब के बंगले पर पहुंचे और गिट से बोले, "सर, मं अपकी ISSN –2347-8764

भंस ले अय़। स्पेशल नस्ल की भंस है, सर व्यंग्य कऽित़ जा। आसक़ दीध ख़ीब मोऱ् और स्ि़स्​्यि​िटक है।" िम़टजा के चेहरे की ख़ुशा देखकर लग रह़ थ़ म़नो प़ंडि रौपदा को जात ल़ए हं। भंस को देखते हा आस.इ. स़हब दह़ड़े, "व्ह़र् नॉनसेन्स ! मेरे घर क्यं ले अए भंस कल्पऩ मनोरम़ को? भंस तो चाफ़ आं जाऽनयर स़हब को च़ऽहए था। ज़नते नहं, ऄभा मेरा ल़ठा आतना बड़ा नहं हुइ है। ज़ओ, भंस को चाफ़ के घर ब़ँध अओ।" भंस ने आस.इ. स़हब की ब़त सिन ला और ईसने ऄपऩ रुतब़ बड़़ कर ऽलय़। पर िम़ट जा क़ ईत्स़ह मर गय़। ऄब स़ऱ क्रेऽडर् ससिऱ एस.इ. झर्क लेग़। ईन्हंने मन हा मन सोच़। कफ़र भ़रा मन से िे भंस को चाफ़ के घर पहुंच अए। पिरे ऽिभ़ग मं सम़च़र फ़ै ल गय़ कक चाफ़ स़हब के घर पर ऄब दो भंसे हो गईं। ईनकी बाबा तो पहले से था हा। बिऽधय़ हर कदन जोड़ घऱ्ता लोग यह भा समझ गए कक यकद ह़था के रुपय़ अने को ब़रे मं ऱय म़ंगा ज़य, तो समझ लेऩ मँहग़इ क़ भीत खड़़ है च़ऽहए कक चेयरमैन क़ म़मल़ है। ईसे डऱने को ॥ मिझे लग़, जैसे सरक़र ने बंकं के स़थस़थ भंसं क़ भा ऱष्ट्रायकरण कर कदय़ त़र-त़र बचता है जब तक हो। ~✽~ पहने स़ड़ा िो 19/207 ऽशिम् खंड, िसिंधऱ, कफ़र भा नहा ँ चल़ प़ता है ग़़ऽज़य़ब़द-201012 मो. 9868549036 घर की ग़ड़ा को धिरा प्रगऽत की गढ़ा ि़र पर ईसे ऽचढ़़ने को ॥

बिऽधय़ हर कदन जोड़ घऱ्ता

कऽित़ क़ भ़ि क़क़ ह़थरसा

सम्मेलन के मंच पर क़क़ ककय़ ककलोल कि श्ता लड़ने लग गए रूपक, ईपम़, श्लेष। रूपक, ईपम़, श्लेष, लग़कर तिक के धक्के, छं द छोड़, छः छः ल़आन के म़रे छक्के। ऄनिप्ऱस, कल्पऩ, कऽित्ि, कम़ल देऽखए, यह तो मेरा ‘दिलकी’ है, ‘रोह़ल’ देऽखए। ~✽~ ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

नंद खड़ा है दीर कोस भर हिचत़ गले पड़ा ऽससके चील्ह़ रोये पताला ऽबखर गइ ऽखचड़ा ऽबऩ चीन क़ कि ऱ् कनस्तर धऱ बज़ने को ॥ मन से मनभर रोज़ पासता भीखा सो ज़ता सपनं मं कि छ और न कदखत़ रोर्ा हा अता क्य़ कोइ अयेग़ कफ़र से ? ल़ज बच़ने को ॥ ~✽~

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व्यंग्य

स़ऽहत्य के ऄधबाच मं ईनकी कश्ता ब्रजेश क़नीनगो

स़ऽहत्य और जािन के समिर मं स़धिऱम जा की कश्ता ऄधबाच मं खड़ा है। िररष्ठ िे हुए नहं हं क्यंकक नौकरा के ऄभा स़त स़ल ब़की हं। चींकक ऽसर के स़रे ब़ल दीऽधय़ हो चिके तो यि​ि़ ईन्हं ऄपने िगट मं स्िाक़र नहं करते। दफ्तर मं ईन्हं लेखक के रूप मं ज़ऩ ज़त़ है और स़ऽहत्य ऽबऱदरा मं एक म़मीला ऽहन्दा ऄऽधक़रा, ऽजसके क़रण देश मं ऽहन्दा की ऄिनऽत हुइ । जो कि छ थोड़़ बहुत िे रचऩत्मक ऽलखते हं िह य़ तो संप़दक ऄपने प़स दब़ कर बैठ ज़त़ है य़ कफर ककसा यि​ि़ लेखक क़ ऽलख़ समझकर ईसक़ पिनलेखन कर के आस तरह छ़प देत़ है कक पत़ हा नहं चलत़ कक िह कभा ईन्हंने हा भेज़ थ़। यह भा गौर करने ि़ला ब़त है कक िररष्ठ की तरह ऽहम्मत जिऱ् कर सम्प़दक को िे यह भा कह नहा प़ते कक रचऩ मं कोइ कतर ब्यौन्त की तो ऄखब़र क़ बऽहष्क़र कर दंग।े कइ िररष्ठ लेखकं की ऄपना ऽिशेष हेकड़ा होता है कक एक शब्द की हेऱ-फे रा भा िे मंजीर नहं करते।ऐस़ कर प़ऩ स़धिऱम जा के स्िभ़ि मं हा नहं। स़ऽहत्य की प्रमिख पऽत्रक़एं ईन्हं घ़स नहं ड़लतं। कह़ना ऽलखकर िह़ं भेजते भा हं तो संप़दक रपर् कह कर लौऱ् देत़ है। ईसा कह़ना को रपर् बऩकर ऄखब़र मं भेजते हं तो संप़दक कहत़ है कक यह तो ईनके ररपोर्टर क़ क़म है। कोइ खोजा स्र्ोरा भेऽजए। सम़च़र पत्रं मं स़ऽहत्य की गिंज़आश खोजते रहते हं और स़ऽहत्य पऽत्रक़ओं मं स़ंस्कु ऽतक सम़च़र भेजकर हा संतोष कर लेते हं। य़ने िे ऄब तक पीरे स़ऽहत्यक़र भा न हो सके और न हा पत्रक़र जैस़ तेज-तऱटर और चमकद़र चोल़ पहन सके । ह़ल़ंकक ईनके कराबा ईन्हं ऄब िररष्ठ यि​ि़ स़ऽहऽत्यक पत्रक़र की तरह सम्म़न देते हं। स़म़न्यतौर पर जो कि छ िे ऽलखते हं, ऄखब़रं के संप़दकीय पुष्ठं के मध्य मं स्थ़न प़त़ है। कहने को भले हा ये आन्हं ऽतरछा नजर, ईलर्ब़सा, कि ल्हड़ मं हुलहड़, ऽचकोर्ा, चिर्की य़ व्यंग्य अकद ऩमध़रा शाषटकं ि़ले कॉलमं मं छ़प़ ज़त़ हो, मगर आनमं ISSN –2347-8764

छपने ि़ल़ हरे क रचऩक़र निोकदत व्यंग्यक़र होने क़ सिख जरूर यह़ं प़ लेत़ है। ह़ल़कक दो दशक से कलम ऽघसते हुए भा िे यह़ँ भा ऄधबाच मं हा हं.न स्थ़ऽपत हुए,न निोकदत कहे ज़ सकते हं. ऽिडंबऩ है कक बड़े स़ऽहत्यक़र ऐसे कॉलमं मं छपे अलेख को व्यंग्य हा नहं म़नते और ऄनेक अलोचक तो व्यंग्य ऽिध़ को हा नक़रने के ऄऽभय़न मं जिर्े हुए हं। मिऽश्कल तो यह भा कि छ कम नहं कक दीरदुऽष्ट से कोइ ऽिषय चिनकर ऽलख़ ज़ए तो ईसक़ समय नहं अय़ होत़, िह प्ऱसंऽगक नहं है, प्रक़शन योग्य नहं है । ऄखब़रं की त़ज़ सिर्मखयं को ऽिषय बऩकर ऽलखते हं तो 'अज ऽलख़, कल छप़ और परसं मऱ,' जैस़ अरोप लग ज़त़ है। स़धिऱम जा सचमिच बड़े परे श़न हं. परस़इ की तरह चोर् कर नहं सकते, शरद जोशा की तरह शब्दं की ऽिहिब्लग कोइ समझत़ नहं, के पा क़ ककहऱ दीर की कौड़ा है, श्राल़ल शिक्ल की तरह सम़ज को गहरे से समझ़ नहं। ऄब क्य़ ककय़ ज़ए। ईपन्य़स ऽलखने जैस़ धैयट नहं ईनमं, कऽित़ कोइ छ़पत़ नहं, व्यंग्य सप़र् बय़ना हो ज़त़ है, कह़ना ररपोत़टज की तरह हो ज़ता है। बहरह़ल, जह़ं च़ह है, िहं ऱह भा होता है. जह़ं कि छ नहं होत़, िह़ं सब कि छ होत़ है। एक जम़ने की फ़मीटल़ हिहदा कफल्मं के ब़रे मं जऱ सोऽचए! कि छ नहं होने के ब़िजीद सब कि छ होत़ थ़ िह़ं। बस ऐसे हा होते हं हम़रे ये लोकऽप्रय कॉलम। भले हा कोइ स़ऽहऽत्यक अलोचक ईनके मील्य़ंकन पर ध्य़न दे य़ न दे। ईनक़ ऄपऩ ब़ज़र है। ककसा ऽि​ि़न ने कह़ भा है, ये स़ऱ ऄधबाच लेखन एक तरह से सेति स़ऽहत्य होत़ है, जो लक्ष्य की कदश़ मं अगे बढ़ऩ सिगम करत़ है। बेशक स़धिऱम जा अज ऄधबाच मं हं, ईम्माद करं , एक कदन स़ऽहत्य की दिऽनय़ क़ ककऩऱ छी हा लेग़ ये कोलंबस । ~✽~ 503,गोयल ररजंसा,चमेला प़कट , कऩऽडय़ रोड, आं दौर-452018 मो न.09893944294

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

झ़ंकी झीठ न बोले ऽिनोद शंकर शिक्ल

गणतंत्र कदिस की झ़ंककयं ने मिझे हमेश़ मिग्ध ककय़ है। यह ऄिसर देश के ऽिक़स को सज़-धज़कर प्रस्तित करने क़ है। स़रे सरक़रा ऄमले ऄपने-ऄपने ऽिक़स की स़ज-सज्ज़ मं गले तक डी ब ज़ते हं। सिसऽज्जत ऽिक़स को भव्य रथं पर अरूढ़कर जनत़ के स़मने यं पेश करते हं जैसे अऽशक घिर्नं के बल बैठकर महबीब़ को फी लं क़ गिलदस्त़ भंर् करत़ है। आस कदन देश क़ अम अदमा भा कु ऽष, ईद्योग, ऽशक्ष़, स्ि़स्​्य, पिऽलस, िन, जेल अकद के क्षेत्र मं हुए बहुमिखा ऽिक़स को एक स़थ, एक जगह देख सकत़ है। कदव्य रथं पर भव्य ऽिक़स को देख ईसक़ साऩ गिट से गज भर चौड़़ हो ज़त़ है। ऽिक़स के स्िगट की झलक कि छ देर के ऽलए ईसे ऱशन, महंग़इ, बेक़रा जैसे रोजमऱट की मिसाबत से ब़हर ऽनक़ल ल़ता है। गणतंत्र कदिस सरक़र के ऽलए ऽिक़स क़ ढोल पार्ने क़ सिटश्रेष्ठ ऄिसर होत़ है। जो लोग ऽनजा ऄनिभिं के अध़र पर सरक़र के क़म-क़ज से क्षिब्ध रहते हं, झ़ंककयं की चक़चंध ईनकी क्षिब्धत़ को भा मिग्धत़ मं बदलने मं सफल हो ज़ता है। िैसे के न्र और ऱज्य सरक़र के प़स ऽिक़स के नग़ड़े बज़ने के ऽलए और कइ ि़द्ययंत्र होते हं जैसे अक़शि़णा, सरक़रा दीरदशनट और पत्र-पऽत्रक़ओं के रं ग़रं ग ऽिज्ञ़पन िगैरह। अक़शि़णा से तो ऽिक़स क़ भऽक्त संगात ऄनिरत प्रस़ररत होत़ रहत़ है। खबरं तो ऽिक़स के भ़र से आतना दबा होता है कक एंकर क़ दम फी लने लगत़ है। ईनके ऄल़ि़ जब-तब प्रध़नमंत्रा और मिख्यमंत्रा भा ऽिक़स क़ ऱग पक्के गिैआये की तरह ऄल़पते रहते है। अक़शि़णा के प्रगऽत संगात के स़मने च़हे कफल्म संगात हो, रिान्र संगात य़ कऩटर्क संगात यं फीके पड़ ज़ते हं जैसे खार के अगे ऽखचड़ा और ऄफसर के स़मने अदऽमयत। दीरदशटन क़ सरक़रा चैनल तो जैसे ऽिक़स क़ अके स्ट्ऱ बज़ने के ऽलए हा पैद़ हुअ है। भगि़न कु ष्ण ने जैसे ISSN –2347-8764

ऄपने श्रामिख मं ऄजिटन को ब्रम्ह़ण्ड के दशटन कऱ कदये थे, िैसे हा दीरदशटन के छोर्े पदे पर सरक़र के ऽिऱर् ऽिक़स के दशटन कऱ देत़ है। ऽिक़स की दिंदऽभ सरक़र पत्र-पऽत्रक़ओं के म़ध्यम से भा खीब बज़ता है। आतना ज्य़द़ की ईनक़ पीऱ पुष्ठ भा छोऱ् पड़ ज़त़ है। पररण़म स्िरूप सरक़रं पीरे ऄखब़र को हा पोस्र्र बऩ ड़लता है। सरक़र की लोककल्य़णक़रा योजऩएं ऄत्यंत लोक लिभ़िन होता है। ऐसा कक ईन पर कि ब़टन होने के ऽलए मन मचलने लगत़ है। ये ऄलग ब़त है कक ऄखब़रं से ईतरकर िे जमान पर कभा कदम नहं रख प़ता। कमबख्त ऐसे सिनहले सपने कदख़ता है कक सरक़र से कहने क़ मन होत़ है-‘हूजीरेि़ल़‘ अपकी मनभ़िन योजऩएं पढ़ा, बहुत खीबसीरत है। आन्हं जमान पर मत ईत़ररयेग़, मैला हो ज़एंगा। झ़ंककयं मं मिझे पिऽलस ऽिभ़ग की झ़ंकी सबसे ऄच्छा लगता है। ईससे पिऽलस ऽिभ़ग की श़नद़र प्रगऽत क़ पत़ चलत़ है। ऽपछले स़ल की झ़ंकी मं मं पिऽलस की प्रगऽत की रफ्त़र देखकर दंग रह गय़ थ़। झ़ंकी मं प़ंच सौ की अब़दा ि़ले एक देह़त के थ़ने को प्रस्तित ककय़ गय़ थ़। ऽिभ़ग ने गिट से बत़य़ थ़ कक देह़त मं न ऽबजला पहुँचा है, न प़ठश़ल़ और न हा ऄस्पत़ल लेककन पिऽलस पहुँच गइ है। थ़ने की दाि़र पर ऽिभ़ग क़ ऩऱ (मोर्ो) भा ऄंककत थ़-‘ऽिक़स पल -प्रमतपल, पुमलस प्रत्येक से अव्वल‘ आस जबदटस्त रफ्त़र ने मिझे थोड़़ भयभात भा कर कदय़ थ़। डर लग़ कक कहं यहा गऽत रहा तो ऽिभ़ग हर घर के पाछे एक थ़ऩ स्थ़ऽपत न कर बैठे? आस ब़र की झ़ंकी पिऽलस के अचरण मं सिध़र पर के ऽन्रत था। ष़यद आसऽलए कक भ़रताय पिऽलस जन्म से हा ररश्वतखोरा, क़मचोरा और नेत़ओं की खिश़मदखोरा के ऽलए ‘ऽिख्य़त‘ है। झ़ंकी मं बत़य़ गय़ थ़ कक पिऽलस के द़ग-धब्बं की धिल़इ के ऽलए ऽिभ़ग ने ‘अदशट थ़ऩ योजऩ‘ संच़ऽलत की है। झ़ंकी

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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मं एक अदशट थ़ने क़ एक मॉडल भा प्रस्तित ककय़ गय़ थ़। अदशट थ़ने के लॉकऄप मं पन्रह-बास सफे दपोश कदख़ये गये थे। निकीला मींछ और थिलथिल पेर् ि़ल़ थ़नेद़र ईन्हं आन शब्दं से डपर् रह़ थ़-‘तिम सब श्राम़न श़ऽतर और ऽसरकफरे हो। पिऽलस को ररश्वतखोर समझते हो। एफ अइ अर ऽलखने के ऽलए ररश्वत की पेशकश करते हो। यह अदशट थ़ऩ है। यह़ं थ़ने के च़रो ओर सौ गज तक ररश्वत क़ प्रस्त़ि, उपरा पहुँच की धमकी-चमकी और पिऽलस के क़म मं रूक़िर् पिऽलस के बद़टस्त के ब़हर है। अदशट थ़नं मं पिऽलस के अचरण की पऽऺित्रत़ को प्ऱथऽमकत़ दा ज़ता है। यह़ं हर कदन ‘रघिपऽत ऱघि ऱज़ ऱम‘ के भजन से क़म शिरू ककय़ ज़त़ है। ब़पी की फोर्ो हमं ऽनमटल अचरण की प्रेरण़ देता है। तिमने हमं भ्रष्ट करने की कोऽशश की आसऽलए ऄंदर हो। थ़नेद़र ने च़र सेकंड क़ ब्रेक ऽलय़ क्यंकक दम फी लने लग़ थ़। कफर ईसके कठोर चेहरे पर हल्की मिस्क़न ईभरा। ईसने अगे कह़-‘ ऽचन्त़ मत करो। सौ गज के ब़हर ऽनमटल अचरण की ब़ध्यत़ सम़प्त हो ज़ता है। यह़ं लेन-देन और क़नीन की रर्क्क़बोर्ा ज़यज है।‘ ‘अदशट थ़ऩ योजऩ‘ मिझे ऄच्छा लगा। सौ गज के क्षेत्र मं हा सहा, पिऽलस की ऽनमटल अचरण क़ प्रयोग मिझे चम़त्क़ररक लग़। स्ि़स्​्य ऽिभ़ग की झ़ंकी मं भा अकशटण प्य़टप्त म़त्ऱ मं थ़। ईसकी प्रगऽत क़ भा ओर-छोर मिझे कहं कदख़इ नहा कदय़। झ़ंकी मं एक सरक़रा ऄस्पत़ल के ऽचककत्सक स्िस्​्य हो चिके मराजं को ऄस्पत़ल छोड़ने के ऽलए कह रहे थे। दजटन भर मराज ऽचककत्सक के पैर पकड़कर छि ट्टा न देने के ऽलए ऽगड़ऽगड़़ रहे थे। ईनक़ कहऩ थ़ कक आतना श़नद़र सिऽिध़एं ऐस़ श़ऽलन व्यिह़र, ऐसा ऄपीिट सेि़, आतऩ पौऽष्टक भोजन, आतना ईत्कु ष्ठ दि़एं हमं घर क्य़ कहं भा ईपलब्ध नहं हो सकता। हम अजािन आसा स्िगट मं रहऩ च़हते है। यकद हमं छि ट्टा दा गइ तो हम स़मीऽहक अत्महत्य़ कर लंगे। झ़ंकी देखकर मेरा अंखे फर्ा की फर्ा रह ISSN –2347-8764

गइ। ऽिश्व़स नहं हुअ कक दिऽनय़ मं ऐसे सरक़रा ऄस्पत़ल भा हो सकते है? मेरे मन मं भा बाम़र होकर ऄस्पत़ल मं भती होने की आच्छ़ ने जन्म ले ऽलय़। ऽशक्ष़ ऽिभ़ग की झ़ंकी भा श्रेष्ठत़ के प्रदशटन मं पाछे नहा था। श्रेष्ठत़ के नमीने के तौर पर ऽिभ़ग ने एक सरक़रा प़ठश़ल़ को प्रस्तित ककय़ थ़। श़ल़ बच्चं को मिफ्त मं ऄसाऽमत ज्ञ़न-ऽिज्ञ़न ब़ंर् रहा था। आतऩ कक बच्चे ब़ढ़ मं बहते कदख रहे थे। ऽशक्षकं की कतटव्य पऱयणत़ क़ ह़ल यह थ़ कक िे ऄिक़श के कदनं मं भा पढ़़इ स्थऽगत नहं करते थे। बच्चं क़ श़ल़ से आतऩ लग़ि बत़य़ गय़ थ़ कक सीयट के पहला ककरण फी र्ते हा िे म़ं-ब़प से स्की ल भेजने की ऽजद करने लगते थे। श़म को सब ऽमलकर भगि़न भि​िन-भ़स्कर से ऄनिरोध करते थे कक िे दो-ढ़इ घंर्े देर से ऄस्त हं त़कक ईन्हं श़ल़ मं ज्य़द़ से ज्य़द़ रहने क़ ऄिसर ऽमल सके । झ़ंकी यह भा सीऽचत करता था कक माऽडय़ की ऽशक्षकं और ईपकरणं की कमा की खबरं बेऽसरपैर की है। ऽिभ़ग के प़स ऽशक्षकं और ईपकरणं क़ जंगा स्ऱ्क मौजीद है। आतऩ कक म़ंगने पर पड़ोसा ऱज्य को भा ऽशक्षकं की सप्ल़इ कर सकते है। स्ऱ्क के बहुतेरे ईपकरणं मं जंग लग रहा है। ईन्हं खप़ने के ऽलए ऽिभ़ग ने श़ल़ओं के बाच ‘ईपकरण म़ंगो और पिरस्क़र प़ओ‘ स्पध़ट शिरू की है। जेल ऽिभ़ग की झ़ंकी क़ ठ़ठ भा देखते हा बनत़ थ़। एक बड़़-स़ कक्ष कदख़य़ गय़ थ़। ऽजसमं ऽतप़आयं पर ऄनेक मह़पिरुषं की फी लम़ल़ओं से सिसऽज्जत तस्िारं रखा था। कै कदयं से कह़ गय़ थ़ कक जो ऽजस मह़पिरूष जैस़ बनऩ च़हत़ है, ईसकी फोर्ो के स़मने बैठकर ईस जैस़ बनने क़ शपथ ले। मह़त्म़ ग़ंधा जैस़ बनने ि़लं की संख्य़ सबसे ज्य़द़ था। कै दा घिर्नं तक ख़दा की धोता पहनकर पहले शपथ लेते थे कफर र्ोला मं बैठकर ‘िैष्णिजन तो--कऽहए‘ भजन ग़ने लगते थे। एक भीतपीिट डकै त कै दा ने प्रस्त़ऽित तम़म मह़पिरूष को ठि कऱते हुए भगि़न बि​ि बनने की आच्छ़ प्रकर् की। ईसके ऽलए जेल ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

ऄऽधक़ररयं ने ककसा तरह भगि़न बि​ि की फोर्ो की ब्यिस्थ़ की, जो ऄसल मं भगि़न मह़िार की था। डकै त ने ‘बि​िम षरणम् गच्छ़ऽम‘ क़ ईदघोश ककय़ तो ग़ंधा, नेहरू, पर्ेल प़ले के कइ कै दा बि​ि शरण मं अ गए। जेल लगभग बि​िमय हो ईठ़। जेल को‘ मह़पिरुष ऽनम़टण़लय‘ बनते देखकर मेरा खिशा क़ रठक़ऩ न रह़। मेरा नजरं मं जेल ऽिभ़ग की आज्जत एक़एक बढ़ गइ। जैसे बाऽसयं ि़यदं मं एक़ध भा पीऱ करने ि़ले मंत्रा की आज्जत जनत़ मं ऄच़नक बढ़ ज़ता है। झ़ंककय़ं देखकर सरक़रा ऽिभ़गं के संबंध मं मेरे मन मं बैठा ऄनेक गलत ध़रण़एं ध्िस्त हो गइ। पहले यहा ध़रण़ ध्िस्त हुइ कक पिऽलस और ररष्ितखोरा क़ संबंध नेत़ और नोर् जैसे प्रग़ढ़ और ऄऽिच्छे दय है। मेरा यह सोच भा गलत ऽसि हुइ कक सरक़रा ऽचककत्स़लयं और मराजं क़ संबंध माऽडय़ और सम़ऽजक सरोक़रं की तरह ऽिरोधा है। मंने यह भा ज़ऩ कक ऽशक्ष़ ऽिभ़ग और ऽशक्ष़ क़ संबंध भगि़न और भोग तथ़ मंडा और ऽमल़िर् की तरह ऄखंड और ऄर्ी र् है। जेल और ऄपऱऽधयं क़ संबंध ऽशशि और सोहर तथ़ हुस्न और आश्क की तरह प्य़ऱ लग़। कइ चतिर सिज़नं ने मेरे अंऽखन देखे सत्य से ऄसहमऽत व्यक्त की। ईन्हंने कह़ कक कु ऽष ऽिभ़ग की झ़ंकी को ऄसला तभा म़ऩ ज़एग़ जब ऐस़ पेड़ प्रदर्मशत ककय़ ज़ए, ऽजसकी हर श़ख फलं की जगह ककस़नं के शि लर्क रहं हं। और जेल की झ़ंकी मं हर कै दा र्ाबा क़ मराज होते हुए पत्थर तोड़ रह़ हो। मिझे सिज़नं की सोच बड़़ नक़ऱत्मक लगा। मंने ईनसे कह़-‘‘भ़इ मेरे! ककस़न कजट से नहं मकदऱ के मजट से मर रहे है और ऄगर र्ाबा के मराजं से पत्थर तिड़ि़ए ज़ रहं हं तो ईनके फफड़ं के पराक्षण के ऽलए कक ईनमं ककतना ज़न ब़की है? ऄक्ल के दिश्मनं! ऄच्छा तरह ज़न लो कक दपटण की तरह झ़ंककय़ कभा झीठ नहं बोलता। ~✽~ 35 संस्कु ऽत, मेघ म़के र् के स़मने, बीढ़़प़ऱ, ऱयपिर-492001

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व्यंग्य

कबीतर की घर ि़ऽपसा सिभ़ष चंदर

प़ठको अज अपको एक कह़ना सिऩत़ हूँ । एक कबीतर बीढ़ हो रह़ थ़ । द़ऩ चिगने कहा ज़ नहं प़त़ थ़। असप़स के कबीतर लोग ईसे दित्क़रते थे। ईनसे छोर्ा ज़त क़ जो थ़। कबीतरा, बच्चे सब परे श़न थे - ख़एंगे क्य़ ? प़स मं ऩ थे द़ने, ऄम्म़ क्य़ ज़ता भिऩने । सब परे श़न के कबीतर जब कहा ँ ज़एग़ हा नहा ँ तो सब ख़यंगे कै से ? घंसल़ चलेग़ कै से ? एक कदन ईसक़ पडोसा कौअ अय़। ईसने कबीतर की ह़लत देखा ईसे तरस अय़। ईसने कबीतर से कह़, “देख भ़इ कबीतर परे श़न मत हो, मेरा म़ने तो ती ऄपने मजहब को बेच दे। ऄच्छे से द़ऩ प़ना जिग़ड हो ज़एग़, तेरे कदन तो क्य़ ऱतेँ भा सिधर ज़एगा ।” कबीतर ने सोच़ मरने से बेहतर है कक मजहब बेच देते हं। मजहब ससिर क्य़ ख़ने को द़ऩ पाने को प़ना देत़ है । रोज कम़ऩ रोज ख़ऩ, ब़की सब कि छ झीठ़ ब़ऩ। बदल लेते है ँ मजहब । मजहब क़ क्य़ ? ईसने ह़ँ कर दा । कौए ने ईसकी ‘ह़ँ’ अगे प़स कर दा ऄगले कदन हा कि छ ठे केद़र कबीतर अ गए । हरा र्ोपा, स़फ मींछे, लंबा द़ढ़ा । िे अये, अते हा ईन्हंने कबीतर को समझ़य़, “ऽमय़ं कबीतर, ऄभा तक ती ऽजस मज़हब मं पड़़ थ़, िो बड़़ खऱब थ़, थडट के र्ेगरा क़ थ़। हम़रे प़स अएग़ तो फस्र्ट क्ल़स बन ज़येग़ । हम़रे यह़ँ सब बऱबर हं । हम़ऱ मजहब ब्ऱहमण, बऽनय़, ऱजपीत, ज़र्, गिज्जर शीर-िीर नहा ँ म़नत़, सबको बऱबरा क़ ऄऽधक़र देत़ है, ती हम़रा बऱबरा हो ज़एग़ हम तिझे द़ऩ दंग,े प़ना दंगे। ईसे सोच कर देख कर एक द़ढ़ा बडबड़इ, “ऽमय़ँ कबीतर सोच मत, हम तिझे च़र श़कदय़ँ करने क़ मौक़ भा दंगे ।” कफर दीसरा द़ढ़ा ने अँख म़रा और बोल़, “कबीतर देर मत कर, जल्दा से ह़ँ कर दे । तेरा कबीतरा िैसे भा बीढा हो गया है,जब च़हे कबीतरा बदल लाजो।” कबीतर ने कफर सोच़ । कबीतरा को देख़, बच्चो को देख़ घोसले की जाणट शाणट ऄिस्थ़ देखा, ईसके ब़द पाठ से ISSN –2347-8764

लगे ऄपने पेर् को देख़ ईसके ब़द द़ढ़ा की बत़इ सिऽिध़एँ देखा । सिऽिध़एं यकीनन भ़रा था । ह़ँ, करऩ तो जैसे ल़च़रा था। कबीतर ने कबीतरा से ऽमस्कोर् की ।कबीतरा को बस च़र कबीतरा रखने ि़ले म़मले पर ऐतऱज थ़ । कबीतर ने समझ़ कदय़, “आस बिढ़़पे मं भल़ कह़ँ की च़र श़दा” कसम-धरम ख़इ, कबीतरा म़न गया। कबीतर ने ह़ँ कर दा । बस द़कढ़य़ँ ऽखलऽखल़ पड़ा। कबीतर को मिब़रकब़द दा।ईसको ब़जरे से भऱ बोऱ कदख़य़, प़ना क़ मर्क़ कदख़य़, नय़ घंसल़ कदख़य़। द़नो मेँ कबीतर चंच म़रने हा ि़ल़ थ़ कक लंबा द़ढ़ा बोला, “रुक.... थोड़ रुक, ऽमय़ं कबीतर... सब ऽमलेग़ पहले थोड़ क़म ऽनपऱ् लं । एक द़ढ़ा ने कलम़ पढि़य़, दीसरा ने पऽित्र ककत़ब से कि छ पढ़कर सिऩय़, तासरा ने ईसके घंसले मं रखा मीर्मत शिर्मतय़ँ हऱ्इ । चौथे ने ईसक़ लिलग कि तर ड़ल़ और प़ंचिे ने ईसक़ ऩम बदल ड़ल़ । कबीतर की कि छ समझ मेँ नहा ँ अय़। िह र्ि किर र्ि किर ब़जरे के बोरे को हा देखत़ रह़ । ईसके ब़द शोर मच़..... लो भ़इ कबीतर मिसलम़न हो गय़। ठे केद़र कबीतर ने ऄपना बहा मेँ नोर् ककय़-- एक क़कफर कम हुअ एक मिसलम़न बढ़ गय़ । ऄब कबीतर मिसलम़न इम़न ि़ल़ य़ना मिसलम़न हो गय़ थ़ । आसके ब़द सब ईसे नए मजहब के क़यदे क़नीन ऽसख़कर चले गए । ये त़कीद भा कर गए “देखो ऽमय़ं गलता से भा क़कफरो क़ संग स़थ मत कररयो, िे कतइ ऄच्छे ऩ हं। ईन के ज़ते हा कबीतर मय कबीतरा और बच्चो के ऄऩज के बोरे पर र्ी र् पडे । खीब पेर् भर ख़य़, स़फ प़ना ऽपय़, ऱत को कबीतरा के संग अऽशकी भा झ़ड़ा । ऄगले कदन से क़म भा ऽमल गय़ । क़म थ़ सेल्समैना क़ ऄपने जैसे कबीतरोँ की पहच़न करऩ, ईन्हं दिक़न

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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तक ल़ऩ ब़की क़म द़ड़ा ि़ले दिक़नद़रोँ क़ थ़। स़ऱ म़मल़ सहा चल रह़ थ़ । पर कहते है ऩ कक भरे पेर् ऄंघ़इ सीझता है सो कबीतर को भा ऄंघ़इ सीझा । िह पिऱने कबीतरं से बऱबरा के स्तर पर ब़त करने लग़ । ऄपना ब़त पिरजोर तराके से रखने लग़ पर िह रखत़ हा तो थ़, ईसकी सिनत़ कौन थ़ ? एक कदन ककसा ब़त पर पिऱने मिसलम़न कबीतर से ईसक़ पंग़ हो गय़ । पंग़ बढ़ गय़।पिऱऩ कबीतर बोल़, “ऄबे चल बे ती कल क़ अय़ कबीतर, हम़रे बऱबर कै से हो सकत़ है?” कबीतर ने गिस्से मं जोर जोर से गिर्र गीं की और गदटन पकड़ ला पिऱने ि़ले कबीतर की। पिऱने कबीतर ने पहले ऄपना गदटन छि ड़़इ और कफर चंच को ऽहल़ ऽहल़कर बोल़, “क्य़ बे स़ले, दो कौड़ा के ,ऄपना औक़त भील गय़ । ऄबे बोऱ भर ब़जरे मं ऽबकने ि़ले ऩम़की ल, ती हमसे र्क्कर लेग़ तेरा औक़त क्य़ है ? कबीतर क़ पेर् भऱ थ़, भरे पेर् मं भा अत्मसम्म़न जोर न म़रे तो भरे पेर् क़ फ़यद़ क्य़? ऄपऩ कबीतर भड़क गय़, चोर् साधा कलेजे मं लगा । िह ईद़स हो गय़। कबीतरा ने ल़ख पीछ़ प्य़र से, दिल़र से ...रूठकर पर कबीतर चिप, बच्चे भा परे श़न हो गए । ह़रकर कबीतरा पड़ौसा कौव्िे के प़स पहुंचा, कबीतर की ईद़सा क़ ऱज ईससे शेयर ककय़, कौअ भग़ भग़ अय़। ईसने ह़ल च़ल पीछ़ । कबीतर की अँखं मं अंसी अ गए, अंसिओं के स़थ हा ब़त भा अ गया । कौअ समझद़र थ़ बोल़, “हिचत़ क्यं करत़ है ? िो मज़हब पसंद नहं तो दीसऱ ले ले । मेरा म़ने तो मज़हब को कफर बेच दे । दिगन ि ़ द़ऩ प़ना कदलि़उंग़, बस ती ह़ं कर दे। कबीतर ने कफर सोच़ । मजहब है, आसक़ क्य़ ऄच़र डलऩ है, ऽजतना ज्य़द़ कीमत ऽमल ज़ये ठाक । िैसे भा कदल की चोर् कसक दे रहा था, ईसने ह़ं कर दा। आस ब़र ब़जरे के दो बोरे ऽमले, प़ना के घड़े तो च़र ऽमल गए ह़रा बाम़रा के ऽलए डॉक्र्र की सिऽिध़ क़ अश्व़सन भा । ISSN –2347-8764

ऄबकी ब़र स़रा क़यटि़हा चचट मं हो गया। चचट की स़फ सफ़इ देख कर हा कबीतर क़ मन प्रसन्न हो गय़। सफ़े द कपडे ि़ले प़दरा कबीतर ने चचट मं कि छ ख़ऩ पीरा कऱइ| ह़थ मं पऽित्र ककत़ब लेकर कि छ पढ़़, कि छ ईससे पढि़य़ । कबीतर के ऽलए क़ल़ ऄक्षर ठहऱ भंस बऱबर । जैसे प़दरा कबीतर कहत़ गय़, िो करत़ गय़ ऄलबत्त़ नजर ईसकी ऄऩज के बोरो पर हा था । थोड़ा देर के ब़द प़दरा कबीतर ने घोषण़ कर दा, “बध़इ ब्रदर कबीतर ऄब तिम इस़इ कबीतर हो गय़ । दिऽनय़ के स़रे बड़े ऄमार देशं के धमट ि़ले । ऄब तिम्ह़ऱ स़ऱ दिःख दीर हो ज़येग़,तिम्ह़रे जािन मं खिऽशयं की िो फसलं ईगेग़ कक तिम क़र् नहं प़येग़, गॉड तिम्ह़ऱ कल्य़ण करे ग़ । कबीतर सिन कर खिश हो गय़। ईसने ब़क़यद़ चचट के चक्कर लग़ये। ज़ते ज़ते सफ़े द कोर् ध़रा कबीतर बोल़, “देखो ब्रदर कबीतर ....ऄब तक तिम ऽजस धमट, मजहब ररऽलजन मं रह़, सब ख़ऱब थ़। हम़ऱ ररऽलजन बैस्र् है । आससे बढ़कर दिऽनय़ मं कि छ नहं है, ऄब तिमको आसा धमट मं रहने क़ है, ि़पस पिऱऩ धमट की तरफ नहं देखने क़ है, समझ़ । हम तिमको पैस़ देग़, द़ऩ प़ना देग़, क़म देग़, नय़ घंसल़ देग़, सब देग़ ।” प़दरा कबीतर ने कसम ऽखल़इ, कबीतर ने द़नं की तरह कसम भा चिग ला । पर कहते हं कक कबीतर क़ धमट हो य़ कसम आनक़ क्य़ बदलऩ, क्य़ ऩ बदलऩ। कि छ कदन कबीतर सफ़े द कपडे पहन कर मजे से चचट गय़ । नए घंसले मं याशि, मदर मेरा की तस्िार क़ जिग़ड़ कर ऽलय़ । हर सन्डे को चचट मं प्रेयर करने भा गय़ । द़ऩ प़ना क़ जिग़ड़, क़म, सब चक़चक चल रह़ थ़। पर जब भा कबीतर इस़इ कबीतरं मं बैठत़, िे सब ईससे थोड़ा दीरा बऩकर रखते। डेऽिड ऩम क़ कबीतर तो ईसे देखकर मिहं दब़कर हँसत़। कबीतर ऄन्दर से झिलसत़। ईसे कहं कि छ खर्क रह़ थ़ । कि छ कदन ब़द कबीतर को कफर ईद़सा के दौरे पड़ने लगे । कबीतरा ने देख़, घबऱ गया । मिल्ल़ की दौड़ मऽस्जद ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2015

तक। कबीतरा कौए के प़स पहुंचा। एक कदन कौअ ऽमलने अय़ । कबीतर ने कौए क़ स्ि़गत ककय़ । कौए ने देख़ कबीतर के पंख तो झक्क सफ़े द लग रहे हं,पर त्िच़ क़ मर्मैल़ रं ग ऄब भा कहं कहं झ़ँक रह़ है। कोए की अँखं मं चमक अ गया । बोल़, “कबीतर ब्रदर, हम देखत़ है कक तिम ऄबकी ब़र भा खिश नहं लग रह़, कफर ररलाजन बदलने क़ है क्य़ ?” कबीतर ईद़स स्िर मं बोल़, “ऄब कह़ँ ज़ने क़ है भ़इ, ऄब क्य़ मजहब मतलब ररऽलजन ऽबकने को सकत़ ?” कौअ हंस़। बोल़, “कबीतर ब्रदर ...मजहब और इम़न आनक़ क्य़ ? जब च़हे बेच लो। िैसे भा ऽतलक चोर्ा ि़ले कबीतर मेरे चक्कर क़र् रहे हं कक तिमसे ब़त कऱ दीँ । दिगिऩ द़ऩ प़ना दंगे, आज्जत दंगे और कफर तिम्ह़रे सब भ़इ बंद ज़त -ऽबऱदरा ि़ले सब िहा ँ तो हं .......िह़ं तिम्ह़ऱ मन लग ज़एग़, कहो तो ब़त करूँ ?” कबीतर ऽमनऽमऩय़ बोल़, “पहले तो ईन लोगं ने भीख़ मर ज़ने कदय़ । छोर्ा ज़त क़ कबीतर कहकर दित्क़रे रख़, छि अ छी त कदख़इ । ऄब िो मिझे क्यं लंगे भल़?” कौअ कफर हंस़ । हंसने से फि सटत प़कर बोल़,“ऄजाब ऄहमक हो ब्रदर कबीतर ... तिम जब तक ईनके स़थ थ़ ईन्हं तिम्ह़ऱ कीमत पत़ नहं थ़ । तिमने मजहब क़ बोला लगि़य़। कक्रस्त़न, मिसलम़न लोग तिमको खराद ऽलय़ । ऄब ईनको लगेग़ ऩ की ईनक़ कबीतरं क़ नंबर कम हो गय़ । ईस निक्स़न की भरप़इ तो करऩ होयेग़ ऩ ? बस िो तिमको ग़ज़ ब़ज़ के स़थ कफर ऄपऩ लेग़ । द़म भा ऄच्छ़ ऽमलेग़। बोलो, क्य़ कहत़ है ब़त करूँ ?” कबीतर के मन मं कफर से ऽबछि ड़े भ़इ बहनं से ऽमलने अश़ ऽहलोरं लेने लगा कफर ज्य़द़ ऄऩज और प़ना क़ ल़लच तो थ़ हा ईसने ह़ँ कर दा । ऄगले कदन दजटनं ऽतलक चोरर्यं, तलि़रं, तऱजी ि़ले कबीतर अ धमके । मन्त्रं क़ ईच्च़रण हुअ । नह़िन धोिन हुअ । गंग़ जल ऽछड़क़ गय़ । जल आतऩ ठं ड़ थ़ कक कबीतर को जिक़म हो गय़। िह ऽमनऽमऩते हुए बोल़, “ये क्य़ कर रहे हं, ऐसे तो मं बाम़र हो ज़उँग़ । आस सबकी

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क्य़ जरुरत है ?” ऽतलकध़रा कबीतर बोल़, “पगले ती ऄशि​ि हो गय़ है ,मलेच्छो और कक्रस्त़नं ने तिझे ऄशि​ि कर कदय़ थ़ । हम तिझको शि​ि कर रहे हं, शिऽि के ब़द हा तो ती मह़न ऽहन्दी धमट मं ि़पस अ प़येग़। ये तेरा घर ि़ऽपसा है प्रभि की कु प़ म़न, कक ती लौर् अय़, िरऩ तो तिझे नरक मं भा जगह नहं ऽमलता। कि म्भाप़क, रौरि पत़ नहं कै से कै से नरक देखने पड़ते । बच गय़ लल्ल़ ती।” ये ब़तं सिनकर कबीतर ऽसहर गय़ ईसने चिपच़प स़रे कमटक़ंड कऱ ऽलए। ईसके ब़द लम्बे ऽतलक ि़ले ने ढोल नग़ड़ं की अि़ज के स़थ घोषण़ कर दा, “ऄब कबीतर शि​ि हो गय़ है, ऄब ये कफर से ऽहन्दी कबीतर कहल़येग़ ।” कबीतर खिश थ़,पर कफर भा मन मं शंक़ था । ईसने लम्बा द़ढ़ा ि़ले, भगि़ कि रते ि़ले कबीतर से ब़त की बोल़, “म़इ ब़प, ब़की सब तो ठाक है, पर पहले आस धमट मं ज़ऽत-प़ंऽत क़ बड़़ चक्कर थ़ । ऄब तो ऐस़ नहं होग़ ऩ ..........? लम्बा द़ढ़ा हंसा, बोला, “ती पगल़ गय़ है क्य़, हम़रे मह़न धमट मं आसके ऽलए जगह ऩ था, ऩ होगा । ती हिचत़ मत कर । पहले कभा कि छ ऐस़ हुअ भा हो तो ऄब कतइ नहं होग़ । मं ऄपना द़ढ़ा और ऽतलक की कसम ख़त़ हूँ, ऐस़ नहं होने दींग़ ।” कहकर िह ऄपने स़ऽथयं समेत चल़ गय़ । ऽहन्दी बन चिके कबीतर ने ईनके ज़ते हा कफर ऄऩज मं मिहं म़ऱ, छककर जल ऽपय़। ऄब िह सच्चा मं खिश थ़ । ईसे लग़ ऄब सच्चा मं ईसके ऄच्छे कदन अ गए । िह बहुत कदन खिश रह़ । एक कदन कबीतराबोला, “सिनो जा, ऄब बच्चे बड़े हो रहे हं।ईनकी श़दा ि़दा भा करना है कक नहं ? दोनं कबीतर बच्चं के ऽलए दिल्हन ढी ढना है, तानो बऽच्चयं के ऽलए भा दिल्हे खोजने हं । ऄपना ज़ऽत ऽबऱदरा मं तो ऄच्छे ररश्ते ऽमलने िैसे भा मिऽश्कल हं।” कबीतर हंस़ बोल़, “पगला,क्यं हिचत़ करता है । ऄब ज़त ऽबऱदरा की क्य़ ब़त ऄब पहले ि़ला ब़त ऩ है । खिद अच़रज जा ने ये ब़त कहा है। मं ईनसे ब़त ISSN –2347-8764

करूँग़, उँचा ज़ऽतयं मं ब्य़हुंग़ ऄपने पर भल़ कब तक नहं म़नेगा ? बकरे की बच्चे । खिद अच़रज क़ छोऱ बड़़ मलीक म़ँ कब तक खैर मऩएगा । ईसे और ईसके है, ब्य़ह के ल़यक भा । ईनसे ब़त बच्चं को ऄधमी बन कर कौन जाने देग़ ? करूँग़,ती हिचत़ मत कर ।” ऄधमी कबीतर क़ हश्र तो ईसने देख हा ईसा श़म को ऽहन्दी कबीतर अच़रज जा के ऽलय़ है ऩ ! प़स पहुंच़ । ऄपना लड़की के ऽलए ररश्त़ म़ँग़, अच़यट जा भड़क गए। चोर्ा मं ग़ंठ ब़ंधते हुए ऽचल्ल़ये, “स्स़ले तेरा ये औक़त ...ऽनचला ज़ऽत के कबीतर, हम ब्ऱह्मण कबीतरं के छोकरे क़ ररश्त़ म़ंग रह़ है ।” कबीतर क़ मन ऽखन्न हो गय़। िह तऱजी, तलि़र सबके प़स गय़। सबने दित्क़र जमटन व्यंग्य कऽित़ कदय़। एक ऽबन म़ंगा सल़ह सबने दा, “ब्य़ह ऄपना ज़त मं हा करऩ च़ऽहए, िरऩ बड़़ कि ज़त़ हो सकत़ है।” बेर्ोल्र् ब्रेष्ट जब कबीतर श़म को घंसले मं लौऱ् तो बहुत गिस्से मं थ़ । ईसने कौए को बिल़य़ । ईससे क़ऩ फीं सा की कफर ककऱए पर एक ल़ईडस्पाकर ल़य़ और ईसमं ऄपना चंच लग़कर घोषण़ कर दा – “मं कबीतर पीरे होशो हि़श मं घोषण़ करत़ हूँ कक मं ऄपऩ धमट त्य़ग रह़ हूँ । मं यह भा घोषण़ करत़ हूँ कक मं ऄब कोइ भा धमट नहं ऄपऩउंग़ । मेऱ ऄब कोइ धमट नहं रहेग़, मं ऄब से ऄधमी हूँ ।” मंकदर, मऽस्जद, ऽगररज़घरं मं बैठे कबीतरं बेपऩह दौलत खचट कर दा ज़ता है के ठे केद़रं ने भा ये घोषण़ सिना । िे चंक ऄट्ट़ऽलक़एँ और स्र्ेऽडयम बनि़ने पर। गए ! ऱम ऱम ....य़ ऄल्ल़ह ....ओह गॉड ....ये क्य़ हुअ ? हम़रे रहते कोइ ऐस़ करते हुए ऽबऩ धमट के कै से रह सकत़ है ? ऐसे नाच, सरक़र एक यि​ि़ ऽचत्रक़र की तरह क़म कमाने, ऱस्कल को हम जाने नहं दंगे। करता है, खंजर, तलि़रं , ररि़ल्िर तन गयं। कबीतर को धमकी दा गया पर कबीतर ठहऱ ऽजद्दा, जो भीख की परि़ह नहं करत़, ऩ म़ऩ । कफर क्य़ थ़ एक स़थ खंजर, ऄगर ऩम कम़ने के ऽलए ऐस़ करऩ पड़े। तलि़र, गोला सब चला । ऄधमी कबीतर म़ऱ गय़ ।जमान ईसके खीन से ल़ल हो िैसे भा, गया। द़ढ़ा, ऽतलक, कोर् पंर् सबको श़ऽन्त सरक़र ऽजस भीख की परि़ह नहं करता ऽमल गया । िह है दीसरं की भीख, जनत़ की भीख। कबीतरा ने कबीतर की ल़श देखा तो रोने लगा। ईसक़ रोऩ सिनकर ऽतलक, द़ढ़ा, ~✽~ कोर् पंर् सब ईसके प़स आकट्ठे हो गए । ऄब ये सब ऽमलकर कबीतरा को ऄपने ऄनि​ि़द : सत्यम ऄपने धमट की ऄच्छ़इय़ँ ऽगऩ रहे हं । कबीतरा ईद़स है, ऩऱज है, रूठा हुइ है

सरक़र और कल़

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

स़क्षर होने की पाड़़ सिधार ओखदे

आधर कि छ कदनं से ईनकी कदनचय़ट मं ऄंतर अय़ है। िे सिबह ईठते हं हिचऽतत चेहऱ बऩकर हिचतन मं खो ज़ते हं । च़य पाते हुए हिचतन करते हं,कदश़ मैद़न मं हिचतन करते हं, हिचतन मं हा नह़ते हं, हिचतन मं हा ख़ते हं,हिचतन मं हा सोते हं । हिचतन करऩ ईनकी ऄऽनि़यट अिश्यकत़ हो गया है । ईस कदन सरपंच़आन बोला, “आसऽलए कहता था आस पढ़इ –ऽलख़इ के चक्कर मं मत पड़ो, हम तो ऽनरक्षर हा ऄच्छे हं, ऩ ककसा की हिचत़ ऩ ककसा क़ गम, अदमा जैसे जैसे स़क्षर होत़ ज़त़ है आसा प्रक़र ऄसम़न्य होत़ ज़त़ है । मंने हर पढ़े ऽलखे अदमा को आसा प्रक़र ऄस़म़न्य ऄिस्थ़ मं भ्रमण करते देख़ है पर तिम ऩ म़ने और स़क्षरत़ ऄऽभय़न मं श़ऽमल हो गए और मेरा सौत ऽशक्ष़ को घर ले अये । ऄब तो तिम दोनं आतने एकरूप हो गए हो कक मेऱ ऄऽस्तत्ि नगण्य स़ हो गय़ है। प्रेम के ऩजिक क्षणं मं भा तिम हिचतन करते रहते हो। आस ऽशक्ष़ ने तो तिम्ह़ऱ बेड़ गकट करके रख कदय़ है। सरपंच़आन झीठ नहं कह रहा था। सरपंच जा जब ऽनरक्षर थे तब कहं ज्य़द़ सिखा थे, ब़प द़द़ओं की जमान ज़यद़द था। ख़ते पाते और ऐश करते थे। चौप़ल पर बैठ कर बिऽि से ककऩऱ की हुइ ब़तं करने मं ईन्हं बड़़ मज़ अत़ थ़ । ऽनरक्षर थे ऄत: बंधन नहं थे । ऽशक्ष़ क़ बंधन व्यऽक्त को जह़ँ संस्क़रा बऩत़ िहा ँ बिजकदल भा बऩत़ है । ऄभा ईसा कदन की ब़त है, रघि ने ब्य़ज ऩ चिक़ प़ने के ऽलए ह़थ जोड़े और सरपंच जा हिचतन मं खो गए। ईन जिड़े ह़थं के हिचतन मं रघि को कि छ और कदन की मोहलत ऽमल गया । पहले कतइ ऐस़ नहं होत़ थ़। ब्य़ज नहं तो जमान पर कब्ज़, श़राररक य़तऩ ISSN –2347-8764

आत्य़कद दंड ऽनध़टररत थे, कोइ क़नीना पेचादगा नहं सरपंच जा ने ह़थ ईठ़य़ और ककस़न की जमान जब्त। सरपंच जा ने अँखे तरे रा और गराब की ख़ल ईधेड़ने क़ क़यटक्रम अरम्भ । पर ऽजस कदन जिड़े ह़थं के हिचतन ने मोहलत क़ फै सल़ कदय़ ईसा कदन से सरपंच़आन हिचऽतत हो ईठा । ईनकी हिचत़ ऽशक्ष़ऽिहान था, ि़स्तऽिकत़ था । प़गल व्यऽक्त भा ऽिपरात परऽस्थऽत मं ऄपने अप हिचऽतत हो ईठत़ है । यह प्रऽतिती कक्रय़ है, यह ऽिज्ञ़न के एक ऽसि़ंत पर अध़ररत है। ऽजस प्रक़र अँखं के स़मने ऄच़नक ह़थ ऽहल़ने से पलकं ऄपने अप झपकता हं ठाक ईसा प्रक़र हिचत़ भा ि़स्तऽिकत़ि़दा होता है। ऽशक्ष़ की अिश्यकत़ ईसमं नहं होता। सरपंच़आन को ग़ंि मं ऄपने ऄऽस्तत्ि पर संदेह ईत्पन्न होने लग़। ग़ंि मं रौब-द़ब और प्रभ़ि कहं ऐसे हिचतन करने से ऽमलत़ है? जब तक सरपंच की दहशत ग़ंि मं ऩ हो ईसे कोइ बड़़ क्यं म़ने ? ईस कदन सरपंच़आन ने आस सम्बन्ध मं बड़ा ऽहम्मत करके सरपंच से ब़तं की। ईसकी ब़त सिनकर सरपंच पिन: हिचतन मं खो गए। ईन्हंने बड़े प्य़र से सरपंच़आन को ऄपने प़स ऽबठ़य़ और ईसकी हिचत़ को श़ंत भ़ि से सिऩ । यह ब़त सरपंच़आन को और भा हिचत़ दे गया, यह अदमा तो गय़ क़म से ...ऽशक्ष़ ने तो आसकी बिऽि को भ्रष्ट कर कदय़ है । मंने आससे आतना मिहज ँ ोरा की और ये श़ंत भ़ि से सिनत़ रह़ । ईसे तो अश़ था कक िह बोलेगा और सरपंच “चिप ..हऱमज़दा ...” कहकर चढ़ दौड़ेग़ । पर यह तो र्ािा के मदं की तरह कहकर चढ़ दौड़ेग़ । पर यह तो र्ािा के मदं की तरह पत्ना की बकि़स सिन रह़ है, ऐसे तो हो गय़ संस़र ।

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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जब तक ग़ला गलौज और म़रपार् ऩ हो लगत़ हा नहं अदमा श़दा शिद़ है । यह तो पत्ना क़ ऄऽधक़र है। आस हिचतन ने तो मेऱ ऄऽधक़र हा मिझसे छान ऽलय़ है, सब औरतं ग़ऽलय़ँ ख़कर आतऱयंगा और मं चिपच़प बैठा रहूंगा । ऐस़ नहं थ़ कक सरपंच ऄपना ऽस्थऽत से संतिष्ट थ़ िह ज़नत़ थ़ कक यह जो कि छ चल रह़ है,गलत चल रह़ है । ऽशक्ष़ ने मेरा बिऽि भ्रष्ट कर दा है साने मं अग की जगह संिेदऩ और मिहं मं ग़ला की जगह कोमल िचन लेकर भा कभा कोइ श़सन कर सक़ है ? ईसे ऄपने कमजोर होने क़ ऄहस़स धारे धारे होने लग़ थ़ । स़क्षर होने के पीिट िह दान दिऽनय़ की खबरं से बेखबर रहत़ थ़। पंच़यत मं अनेि़ले सम़च़र पत्र क़ ईपयोग सरपंच़आन अग जल़ने ऄथि़ सिबह – सिबह छोर्े सरपंच को ईस पर बैठ़ने के क़म मं हा ल़य़ करता था । पर जब से िह स़क्षर हुअ है सम़च़र पत्र मं ऽलखा खबरं समझ मं अने लगा हं । अतंकि़द, चोरा, डकै ता, दहेज़ प्रत़ड़ऩ, ऽनराह हत्य़एं, बल़त्क़र आत्य़कद की खबरं ने ईसे संिेदनशाल, हिचतनशाल और कमजोर बऩ कदय़ है । ऄब लग़न िसीला के समय िह पहले के हथकं डे प्रयोग मं नहं ल़ प़त़ है । जब कोइ ककस़न ईससे ऄपना बेर्ा के ब्य़ह की ब़त करत़ है तो िह दहेज हत्य़ओं के सम़च़रं को स्मरण कर हिचऽतत हो ईठत़ है । ग़ंि की लड़ककयं से छे ड़छ़ड़ को िह ककसा बड़े ि़सऩक़ंड की दुऽष्ट से देखत़ है। िह बेरोजग़रा से दिखा है, अतंकि़द से त्रस्त है और भ्रष्ट़च़र से व्यऽथत है । िह त़ऽलब़न समस्य़, मिक्त व्य़प़र नाऽत, भ़रत प़क सम्बन्ध, शेयर ब़ज़र की ऽस्थऽत, डंकल प्रस्त़ि और गेर् समझौते पर भा हिचतन करत़ रहत़ है। िह हिचतन करत़ है और बस हिचतन करत़ है। सरपंच़आन ऄब एक ऐसे ओझ़ की तल़श मं है जो सरपंच के ऽसर से ऽशक्ष़ क़ भीत ईत़र सके । ~✽~

ISSN –2347-8764

व्यंग्य

ऄहिहसक देश क़ बंदक ी प्रेम पंऽडत सिरेश नारि

बि​ि, मह़िार और ग़ंधा के ऄपऩ अदशट म़ननेि़ल़ ऽिश्वगिरू भ़रत सचमिच एक सिपर गिरू देश है। जब़न पर ऄहंस़ परमो धमटः और कं धे पर बंदक ी दोनं को एक स़थ स़धने की ऽसऽि ऽसफट भ़रति़ऽसयं को हा प्ऱप्त है। बंदक ी क़ प्रेम ऐस़ कक बच्चे क़ जन्म हो तो बंदक ी के फ़यर । बच्चे क़ मिंडन हो तो बंदक ी के फ़यर। बच्चे की श़दा हो तो बंदक ी के फ़यर।चिऩि जाते तो बंदक ी के फ़यर। चिऩि ह़र गए तो बंदक ी के फ़यर। ईद़र लेकर नहं चिक़य़ तो बंदक ी के फ़यर। पीज़ करने दा तो बंदक ी के फ़यर। पीज़-आब़दत नहं करने दा तो बंदक ी के फ़यर। जमान पर कब्ज़ करने के ऽलए बंदक ी के फ़यर। कब्ज़ छि ड़़ने हो तो बंदक ी के फ़यर। बंदक ी मं हा भ़रति़सा के प्ऱण बसते हं। बंदक ी प्रध़न देश मं तो महबीब़ के ऽलए बंदक ी हा िेलंऱ्आन ऽगफ्र् है। बंदक ी से ऽलपर्-ऽलपर्कर महबीब़ ग़ता है- ब़ंके ऽपय़ मेऱ कदल अय़ तेरा दंबीक पे। मिहब्बत मं बंदक ी दंबीक हो ज़ता है। और सबसे बड़ा ब़त ये कक मेहबीब़ क़ कदल मेहबीब पर नहं मेहबीब की दंबीक पर हा अत़ है। हर भ़रताय के कदल की हूक-ओठं पर मीछ ं ं ,कं धे पर बंदक ी । चंबल के ककऩरे तो ग़ंिं के डु श्य और भा कदलचस्प होते हं। क़न पे जनेउ,ह़थ मं लोऱ् और कं धे पर बंदक ी । बंदक ी बह़दिर कदश़-मैद़न को ज़ रहे हं। लड़को की ब़ऱत ज़ना है। लड़कीि़ले क़ प्रश्न है-ब़ऱत मं ककतना बंदक ी ं अएंगा। ब़ऱता नहं बंदक ी की संख्य़ ज़नने को ईत़िल़ है लड़कीि़ल़। बंदक ी की संख्य़ बढ़़ने के ऽलए लड़के ि़ले ने फरम़न ज़रा कर कदय़ है कक ब़ऱता दोनं कं धं पर एक-एक बंदक ी लर्क़कर चलेग़। मींछ क़ सि़ल है। ब़ऱत लड़कीि़ले के गरि़जे पर पहुंच रहा है। ऱस्तेभर फ़यररग करते ज़ रहे हं बऱता। द़रू बंचना शिरू हो गइ है। हर पईए के ब़द एक फ़यरिरग। कफर पैर लड़खड़़ रहे हं। खड़़ हुअ नहं ज़ रह़ फ़यरिरग मगर च़ली है। ऄच़नक पत़ लग़ कक गोला दील्हे को हा लग गइ। एक–दो बच्चे भा ब़ऱत के समर मं िारगऽत को प्ऱप्त हो गए। आत्ता ध़ंसी फ़यरिरग तो भ़रत-प़क ब़डटर पर भा नहं होता होगा।ऽजत्ता यह़ं ब्य़ह-ब़ऱत मं हो ज़ता है। शहऩइ की जगह शोकधिन बजने लगता है। लड़कीि़ले की खिद ं क ज़नलेि़ हो चिकी है। ऐन श़दा के कदन लड़की ऽिधि़ हो गइ। ऄब क़हे की श़दा।क़हे के बऱता। लड़कीि़लं ने भा जि़बा फ़यरिरग शिरू कर दा। तान-च़र बऱता ढेर कर कदए। र्क्कर बऱबरा पर छी र्ा। एक-दीसरे के ख़नद़न को खत्म करने की भाष्म-प्रऽतज्ञ़ के स़थ श़दा क़ मंगल ईत्सि ऽनर्मिध्न ऽनबर् गय़। ईत्सि भा ऽनबऱ्। स़थ मं कि छ घऱता-बऱता भा ऽनबर्े। बंदक ी ने स़म़ऽजक समरसत़ क़ ऱयत़ फै ल़ने क़ क़म कि शलत़पीिटक संपन्न कर कदय़। ऽिरोधा पक्ष ने खिशा मं प़गल होकर ऄपने घर मं कऽथत शोकसभ़ क़ अयोजन कर ड़ल़। भगि़न के घर देर है,ऄंधेर नहं। ककतने कदन ब़द मन की मनौता अज पीरा हो रहा था। खिशा दब़ए नहं दब रहा था। ऄच़नक िह़ं से भा फ़यरिरग शिरू हो गइ। ग़ंि मं रमणाक ि़त़िरण बन गय़। ऄट्ट़ऽलक़ओं से ऽस्त्रय़ं झ़ंक-झ़ंक कर मंगल ईत्सि के दंगल क़ अनंद ले रहा हं। ककसा श़ंऽतऽप्रय ऩगररक ने श़ंऽतभंग हो ज़ने की शिभक़मऩएं से त्रस्त होकर पिऽलस को फोन कर कदय़। आस दुश्य को देखकर पिऽलस ने भा फ़यरिरग शिरू कर दा। श़ंऽत स्थ़ऽपत करने के ऽलए फ़यरिरग। श़ंऽत भंग करने के ऽलए फ़यरिरग। फ़यरिरग य़ना बंदक ी ब़जा। बंदक ी ब़जा य़ना फ़यरिरग। दोनं तरफ है एक-सा ह़लत दोनं तरफ ऽबजला-सा ऽगरा है। बंदक ी े आठल़ रहा है। बंदक ी े लहऱ रहा हं। बंदंक ी े श़ंत हं। बंदंक ी ं ज़ग गइ हं। ऄब तो समझद़र चोर भा बंदक ी ं चिऱने मं ज्य़द़ आं र्रे स्र्ेड रहते हं। क्यंकक चोरा करते पकड़े गए तो अत्मरक्ष़ मं बंदक ी क़ सेिन तो कर सकत़ है। बंदक ी की यहा तो महत्त़ है। ~✽~ अइ-204, गोहि​िदपिरम, ग़ऽज़य़ब़द ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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स़क्ष़त्क़र

ऽजसमं अह और ि़ह एक स़थ ऽनकले िो व्यंग्य है - डॉ. सीयब ट ़ल़ ऄचटऩ चति​िद े ा

प्रऽसि मऽहल़ व्यंग्यक़र और कह़नाक़र ईपन्य़सक़र ड़. सीयब ट ़ल़ से हम़रा सह-संप़दक और व्यंग्यक़र ऄचटऩ चति​िद े ा ने की कि छ चच़टएँ ईनकी लेखन य़त्ऱ की और व्यंग्य की । प्रश्न 1- ऄपना ऽजन्दगा के शिरूअता समय के ब़रे मं बत़एं कक लेखन की तरफ अपक़ झिक़ि कै से हुअ ? मं ऄपने बचपन को साधे साधे दो भ़गं मं ऽिभक्त कर सकता हूँ। पहले मं – एक मध्यमिगीय खिशह़ल पररि़र की तासरा बेर्ा, च़र बहनं एक छोऱ् भ़इ। बेरर्यं पर भा भरपीर ल़ड प्य़र लिऱ्ने ि़ले म़त़ ऽपत़ । प्रक़ंड ऽि​ित़ ऩ होने पर स़म़न्यत: संगात कल़ स़ऽहत्य से सिरुऽच, सलाके से संपन्न थ़ मेऱ पररि़र । म़नस की चौप़इय़ं, लोकगातं की धिनं और छं द कऽित्तं के स़थ ईदीट द़ं शेरो श़यरा भा। घर मं संस्कु त ग्रन्थं की र्ाक़एँ, ऄंग्रेजा, हिहदा और ईदीट की पिस्तकं से भरा अलम़ररय़ं पत्र पऽत्रक़एँ। गमलं मं हरे भरे पौधे, हिपजरं मं र्ंगे तोते, ललमिऽनय़ और छोर्े हौज मं रं गऽबरं गा मछऽलय़ँ भा। शौककय़ शेर श़यरा के स़थ, ब़ंसिरा ह़रमोऽनयम पर ऱग भैरिा और यमन की धिनं ऽनक़लने ि़ले ऽपत़ और ईदीट क़ सिद़म़ चररत्र पढने ि़ला म़ँ । लेककन आसा बचपन क़ दीसऱ पक्ष– जब ऄच़नक ऽपत़ नहं रहे मं संभितः छठा कक्ष़ मं पढ़ता था । हम खिले असम़न के नाचे ऄऩथ थे । हम बच्चो से ज्य़द़ म़ँ के संघषो क़ दशकं दशक लम्ब़ तकलाफ-देह आऽतह़स मेरा स्मुऽत मं अज अधा सदा ब़द भा सिरऽक्षत है । आन ऽस्थऽतयं मन: ऽस्थऽतयं के बाच हम सब से छि प कर रोते और सबके स़मने खिल कर हँसते थे । ऄपने दिखं ऄभ़िं को झेलते, ठे लते ईसा ईम्र से खिद पर हँसऩ भा साख़। हम़ऱ ह़स-पररह़स व्यंग्य–ऽिनोद और ISSN –2347-8764

पैरोड़ानिम़ तिकबंकदय़ँ चलता रहता । मेऱ म़नऩ है कक बचपन मं हम ऽजस स्तर के सोच –संस्क़र ररश्तं ऩतं और म़नऽसकत़ के बाच बड़े होते हं िहा ऄनज़ने मं ऄपना कलम से ब़ंर्ते भा हं । बहरह़ल ईस म़हौल की त़सार मं कि छ थ़ ऄिश्य शिरुअत अठ नौ िषट की ईम्र मं ऄच़नक ऄऩय़स बनता चला गया । एक कऽित़ से हुया लेककन जल्दा हा कह़ना और व्यंग्य से जिडता चला गया । कि ल ऽमल़कर स़ऽहत्य, लेखन, महत्िक़ंक्ष़ जैसे शब्द हम़रा ऽडक्शनरा से पीरा तरह ग़यब थे । लेककन ऽलखऩ ककसा न ककसा रूप मं चलत़ रह़ ह़ं मेरे बचपन के सबसे महत्िपीणट क्षण िे थे जब मेरा निा दसिा मं पढने ि़ला दस िषट बड़ा जाजा मिझे ऄपना प़ट्णपिस्तक से एक से एक म़र्ममक और ह़स–पररह़स से भरा "इदग़ह’, बीढा क़की, स़इककल की सि़रा, बड़े भ़इ स़हब जैसा ऄऽिस्मणीय कह़ऽनय़ं सिऩय़ करता था । मेरा कलम सतत, सदैि ईन लम्हं की ऊणा रहेगा । प्रश्न 2 - अपकी पहच़न एक बेहतर कह़नाक़र और ईपन्य़सक़र के रूप मं रहा ब़द मं अप एक सशक्त व्यंग्यक़र के रूप मं ईभरा, अपको व्यंग्य ऽलखने मं ज्य़द़ अनंद अत़ है य़ कह़ना और ईपन्य़स? ईत्तर – सबसे पहले तो ये स्पष्ट कर दीँ कक कथ़क़र और व्यंग्यक़र के रूप मं मं लगभग स़थ हा पहच़ना गया और सम़हृत भा हुइ । अगे पाछे क़ संशय श़यद लोगं को आसऽलए लगत़ है क्यंकक लेखन की शिरुअत के कि ल तान िषट मं हा मेरे पहले ईपन्य़स ‘संऽध पत्र’ एक तरह से धमट यिग मं धम़के द़र एंट्रा ला और ब़रह ककश्तं मं छपत़ रह़ और आस तरह कथ़क़र ने ब़जा म़र ला । िैसे भा व्यंग्य रचऩएं छोर्ा होने की िजह से मेऱ व्यंग्य संग्रह देरा से अय़ लेककन ये भा सच है कह़ऽनयं

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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और ईपन्य़सं की तिलऩ मं मेऱ व्यंग्य लेखन क़फी कि छ घ़र्े मं रह़। ऄब जैसे लम्बे ऄरसे से ऄपने नये ईपन्य़स ‘िेणि की ड़यरा‘ को पीऱ करने मं लगा रहने की िजह से व्यंग्य ऽबलकि ल भा नहं ऽलख प़या...लेककन ईसक़ जऱ भा मल़ल नहं। जो रचऩ जब चलकर मेरे प़स अता है िहा ऽलख प़ता हूँ मं । प्रश्न-3 व्यंग्य को एक ल़आन मं पररभ़ऽषत करने के ऽलए कह़ ज़ए तो क्य़ कहऩ च़हंगा ? ईत्तर - मेरे ऄन्दर ककसा प्रश्न ईत्तर झंको की तरह अते । ऄभा ऄभा तान ि़क्य सीझे मनच़ह़ चिन लाऽजये – ऄ) ऄपने ऽशल्प की बेधकत़ और म़सीऽमयत मं बेजोड़ गध्य लेखन क़ ऽनष्कषट म़नता हूँ मं व्यंग्य को । ब) स़ऽहत्य की िह ऽिध़ जो एक ढेले से हथगोले क़ क़म ले सकता है । (यह ब़त मंने श्राल़ल शिक्ल के व्यंग्य –ऽशल्प के सन्दभट मं कहा था) । स) ऽजसे पढने सिनने के स़थ हा मिहँ से अह और ि़ह एक स़थ ऽनकले, िह ऽिध़ व्यंग्य है । प्रश्न-4 क्य़ अप समक़लान व्यंग्य पररदुश्य से संतिष्ट हं ? ईत्तर --ऄसंतष्ट ि होने क़ तो कोइ प्रश्न नहं क्यंकक छोर्ा रचऩओं से लेकर बड़े कै निस के ईपन्य़सं तक ने व्यंग्य के ितटम़न पररदुश्य को समुि ककय़ है। लेककन समस्य़ ऽसफट यह है कक स़ऽहत्य ब़ज़र मं खऱ-खोऱ् सब एक स़थ एक भ़ि मं ऽबक रह़ है। लेखन से ज्य़द़ सेल्समैन ऽशप कम़ल कदख़ रहा है। दीसरा तरफ ‘क्व़ऽलर्ा कं ट्रोल’ के ऩम पर ऽबल्ला के गले मं घंर्ा ब़ँधने क़ खतऱ कोइ मोल लेऩ नहं च़हत़। लेककन स़रे व्यंग्य़लोचन और ऽिमशो से ज्य़द़ महत्िपीणट यह है कक स्ियं हम व्यंग्यक़र, 'ऄहो रूपम ...ऄहो ध्िऽन' की अत्ममिग्धत़ से ऄलग ऄपना व्यंग्य़त्म़ की अि़ज सिनं । स़थ हा स़फ़ ऽनयत ि़ले हिनदकं की ब़त पर ध्य़न कदय़ ज़ए। अिश्यकत़ आस ब़त की है कक हम ईनके ऽलए ‘कि र्ा छि़ने’ क़ बंदोबस्त करं और िे ऄपना चलना मं जरुरत से ज्य़द़ छे द ऩ ISSN –2347-8764

होने दं । पीरा नेकनायता, ऽनष्पक्षत़ तथ़ प़रदर्मशत़ से की गया समाक्ष़ओं को सऱहने की सल़ऽहयत भा हम रचऩक़रं को साखना होगा । प्रश्न-5 हम देखते हं व्यंग्य मं मऽहल़ओं की हमेश़ कमा रहा है, आसक़ क्य़ क़रण है ईत्तर--व्यंग्य शैला मं कहूँ तो मऽहल़एं हमेश़ से नफ़सत पसंद रहा हं और यह़ँ व्यंग्य को तो शिर ऽिध़ तक क़ ऽख़त़ब ऽमल चिक़ है । ऐसे मं कौन संभ्ऱंत,ऽशष्ट लेऽखक़ व्यंग्य ऽलख कर ऽबऱदरा मं ऄपऩ हुक्क़ प़ना बंद करब़ता ? ऄब ब़त गंभार ... एक - मिझे लगत़ है ऄपने ऽजस शिरूअता दशकं मं ितटम़न व्यंग्य लेखन परि़न चढ़ रह़ थ़, स्त्रा लेखन सकदयं की पऱधानत़ की बेऽड़य़ँ क़र्, घिर्न से मिऽक्त के स्िऽिल ऄहस़स ऄपना कलम से ऄऽभव्यक्त कर रह़ थ़ । ब़द के दशक क्रमशः स्त्रा मन की कशमकशं की शोधं और ईसके तेज़ होते संघकं तथ़ मोह्भंगो क़ आऽतह़स दजट करने मं लग गए । संभितः व्यंग्य आन ऄनिभीऽतयं के असप़स मेल नहा ख़ रह़ होग़ (िरऩ अमतौर पर ऽस्त्रय़ँ जन्म से त़ऩकशा और कऱ्क्ष कल़ मं म़ऽहर होता हं) दो – सबसे हर्कर ऽजस सम़ज मं स्त्रा को ऽसर ईठ़ कर चलने और खिल कर हँसने बोलने की भा छी र् न रहा हो ईसमं मऽहल़ओं से ह़स्य व्यंग्य ऽलखने की ईम्माद कै से की ज़ सकता है ? और तान –ऄब सौ ब़त की एक ब़त व्यंग्य एक करठन ऽिध़ है । आसके ऽलए पैद़आशा प्रकु ऽत करठन पररश्रम,सम़ज के च़रं तरफ की ऽिरूपत़ओं ,घर्ऩओ क़ ज्ञ़न और समझ तथ़ एक ऽिऽशष्ट ऄंद़जेबय़ं भा होऩ च़ऽहए । यह प्रज़ऽत परुषं मं भा और स़ऽहत्य हा नहं जािन मं भा ज्य़द़ कह़ँ कदख़इ देता है? ऄलबत्त़ मुदल़ गगट, ममत़ क़ऽलय़, सिध़ ऄरोड़़ जैसा लेऽखक़ओं के लेखन मं व्यंग्य की तड़कद़र छंक-बघ़र देखने को ऽमलता है। लेककन ऄलग से व्यंग्य पर आनमे से ककसा ने कलम नहा चल़इ मल्र्ा जोशा ने ऄिश्य बहुत थोड़े हा सहापर ऄपना कलम की अजम़आश की ऄिश्य है । ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

प्रश्न-6 पिऱने और नए व्यंग्यक़रं के बाच क्य़ ऄंतर प़ता हं ? नए व्यंग्यक़रं को क्य़ कहऩ च़हंगा ? ईत्तर- नए व्यंग्यक़र बहुत तेजा और ईत्स़ह से ऽलख रहे हं । कि छे क ऄच्छ़ भा ऽलख रहे हं और ऄपना ऽिऽशष्ट शैला से व्यंग्य की नइ जमान तोड़ते नजर अ रहे हं लेककन मिझे लगत़ है िे बहुत जल्द बहुत ज्य़द़ ईपलब्ध कर लेऩ च़हते हं । ईन्हं दोष भा नहं कदय़ ज़ सकत़। व्यंग्य लेखन हा नहं समग्र स़ऽहत्य की दिऽनय़ (ऽजसे हम कभा ताथट समझते थे) अज रे स के मैद़न मं तब्दाल हो चिकी है । बऽल्क ऄख़ड़ कहऩ ज्य़द़ ईपयिक्त होग़ । ऄस्िस्थ प्रऽतस्पध़ट गलत ि़हि़ऽहयं, पिरस्क़रं की ईठ़पर्क और ईठ़ने ऽगऱने की ऱजनाऽत के बाच ऄन्य ऽिध़ के लेखकं की तरह अज यि​ि़ व्यंग्यक़र भा ऄपने द़ंि अजम़ने के ऽलए ल़च़र हं । उपर से व्यंग्य की बढता लोकऽप्रयत़ ने ऽडम़ंड और सप्ल़इ ि़ले मसले को और ज्य़द़ जरर्ल बऩ कदय़ है । ऄंध़धिंध सप्ल़इ हो रहा है अपने ऄपने म़ल पर ‘अइएसअआ’ की मिहर लग़ कर । यह घम़स़न हम़रे सम़ज मं नहं था । यद्यऽप यह ‘हम़ऱ हा’ समय है पर तब हम एक एक रचऩ पर बहुत मेहनत करते थे । धमटयिग से अये पोस्र्क़डट पर तो स़फ ऽलख़ होत़ थ़ लेककन ऽिनम्रत़ पीिटक ... की धमटयिग क़ कलेिर ऄत्यंत साऽमत है अपको ऄपना रचऩ की गिणित्त़ पर ऽिश्व़स हो तभा भेजं ..अकद । ऐसा पंऽक्तय़ँ हमं एक चेलंज की तरह लगता था। ऄपना हर रचऩ के स़थ हम जैसे ककसा पराक्ष़ मं ईतरते थे । हम़रे ऽलए ‘ऽलखऩ’ हा स़ध्य थ़ स़धऩ नहं । मंने कहं कह़ है कक एक ऄच्छा तुऽप्तकर रचऩ पीरा करऩ जैसे च़रं ध़म की य़त्ऱ होता है। ऩम चच़ट िगैरह तो ब़इ- प्रोडक्र् हुअ करते थे। आस यंत्र समय ने हम़ऱ आत्माऩन और एक़ग्रत़ छान ला है । अज ऽलखऩ ज्य़द़ बड़ा ज्य़द़ करठन चिनौता बन गया है । कफर भा स्िस्थ प्रऽतयोऽगत़ मं श़ऽमल रहते हुए भा हमं श़र्टकर् की संस्कु ऽत से बचऩ है ऄपने रचने क़ सिख सिरऽक्षत रखऩ है । ~✽~

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व्यंग्य

झोले सिभ़ष क़बऱ

पच़स के प़र क़ पिरुष, दो प़र्ं के बाच, स़बित बऩ रहने की क़मऩ करत़ हुअ, एक ‘ऽपसनशाल’ पद़थट है। एक ओर ऄऽत िुि म़त़-ऽपत़, घर को मंकदर बऩने मं जिर्े रहते हं, तो दीसरा ओर ऄऽत यि​ि़ पित्र और पिऽत्रय़ं, घर को ‘ऽमना ऽथएर्र’ बऩने मं। ऄपना चोर्ा और क़न की ब़ऽलय़ं नौजि़नं को संपकर, पिरुषोऽचत व्यिह़र करता हुइ बेरर्य़ं, और संस्क़रं की र्ोपा को नए ररबॉक के जीतं से रंदते हुए बेर्े। दो-दो पाकढ़यं के बाच ऽत्रशंकि बऩ ये ऄसह़य, सह़यत़ की गिह़र लग़त़ हुअ क़त़र ऽनग़हं से पत्ना की ओर ऽनह़रत़ है। लेककन पच्चास स़ल पिऱना पत्ना भा कभा ककसा पऽत के बस मं अइ हं? िह समस्य़ को सिलझ़ने की बज़य और ईलझ़ देता है। बीढ़े म़त़-ऽपत़ को िुि़श्रम कि ररयर कर देने की सल़ह देता है, और नौजि़न पाढ़ा के ऽलए घर मं ब़र बऩने की ऽहम़यत करता है। पऽत तो ईसकी नजरं मं है हा ऄनपढ़, ऄधेड़ और गंि़र। पत्ना से सहयोग की क़मऩ करने करने ि़ल़ ये पचपन िषीय पिरुष, ऄपने हा घर मं ऄपना पसंद के ख़ने तक को तरस ज़त़ है। ईसके स़मने सिबहो-श़म य़ तो बीढ़े म़त़-ऽपत़ के ऽलए बऩ दऽलय़ परोस़ ज़त़ है, य़ बच्चं के ऽलए बऩय़ गय़ बगटर। बिजिगं के कमरे से ‘ऱम धिन’ सिऩइ देता है, तो बच्चं के कमरे से अआर्म स़ंग। और ह़ल मं बैठ़ हुअ ये पिरुष सोचत़ रह ज़त है कक मिकेश के ग़नं क़ नंबर कब अएग़? पिरुष को ऄपऩ ऄतात य़द अत़ है। ब़प की एक अि़ज़ पर दौड़ दौड़ कर क़म करने ि़ल़ ये पिरुष, बचपन मं क़म करने पर भा ऄपने ऽपत़ से ड़ंऱ् ख़त़ थ़। अज भा ख़त़ है, पर अज, बच्चं को कोइ क़म बत़ने पर ईनकी मम्मा से ड़ंर् ख़त़ है। ‘‘तिम्हं तो कोइ क़म-ि़म है नहं। ऄब बच्चे खेलं कीं दं, एन्जॉय करं , य़ तिम्ह़ऱ ये दो र्के क़ ऽबजला क़ ऽबल भरने ज़एं। ’’ बहस क़ ऄंज़म ये होत़ है कक ऽबजला के ऽबल स़थ, ऄपऩ और बच्चं क़ र्ेलाफोन क़ ऽबल, क्रेऽडर् क़डट क़ ऽबल, सोस़यर्ा क़ ऽबल, सब घीम-कफरकर आसा ऄधेड़ ISSN –2347-8764

के ह़थं मं अ ज़ते हं। िो ज़नत़ है कक ककसा से भा, ककतना भा ब़र कह ले, पर ल़आन मं खड़े होकर ये स़रे ऽबल, भरने ईसे हा हं। कभा फि रसत मं ऄपना पा.एफ. बिक, य़ जम़ पींजा क़ ऽहस़ब लग़ने लगत़ है, तो फौरन म़ं-ब़बीजा क़ फरम़न अ ज़त़ है।’’ सिध़ ि़ले बड़के की श़दा है, तिझे भा ज़ऩ है और ये-ये करऩ है। ‘‘य़ऽन बास-पच्चास हज़र की चपत। म़ं-ब़बीजा बाम़र, बच्चे बाजा, भ़इ ज़ऩ नहं च़हत़, च़हे भा तो ईसकी पत्ना ज़ने देगा ईसे? नहं, कभा नहं। क्यंकक जो मदट पहला हा ऱत से ऄपना बािा की प़जेब मं ईलझ ज़ते हं, ईन्हं ऽजन्दगा भर म़ं क़ मंगलसीत्र कदख़इ नहं देत़। भ़इ भा ईन्हं मं से है। पत्ना से पीछत़ है तो कहता है आस म़मले मं मं क्य़ कर सकता हूं? तिम्ह़रे आन्हं दंद-फं द की िजह से तान स़लं से ऄपने म़यके तक नहं ज़ प़इ। मेरे मम्मा -पापा तक 3-3 महाने यह़ं अकर रह ऽलये, पर मेऱ ज़ऩ नहं हुअ।’’ पिरुष कफर से ऽहस़ब लग़त़ है क्य़ करूं? ककससे म़ंगी? आतऩ कम़य़ ईम्र भर, पर आस मोड़ पर कम लग रह़ है। िो सोच-सोच कर पसाऩ पंछ हा रह़ है, कक तभा अआर्म गलट जैसा बेर्ा ओर रे ऽडय़ जॉकी जैस़ बेऱ् अ धमकते हं। ऄपना फरम़आशं की ऽलस्र् लेकर । ये बच्चं की की ओर से ऽनिेदन नहं है, अदेश है। जो पिरुष को म़नऩ हा है, क्यंकक बच्चं के ठाक पाछे, कमर पर ह़थ रखकर, ईनकी मम्मा खड़ा है और पिरुष ज़नत़ है कक ये औरत, आस ईम्र मं, मेरे म़त़-ऽपत़ के प्ऱण भा ले सकता है, और मिझे तल़क दे भा सकता है। सब ऄपऩ ऄपऩ ऽहस्स़ लेकर ऽनकल ज़ते हं। प़ंच फि र् प़ंच आं च क़ ये स़ध़रण स़ पिरुष, और भा ऽसकि ड़ ज़त़ है। परे श़न है। पत़ हा नहं चल रह़ कक ददट कह़ं कह़ं हो रह़ है? ऄंद़ज से दि़ की एक गोला ख़कर थोड़ा एनजी लेत़ है। सोचत़ है महेश के यह़ं हो अउं। अऽखर मिसाबत मं दोस्त हा दोस्त के क़म अत़ है। गहरा स़ंस भरकर पिरुष पीछत़ है ‘‘और बत़। नात़ की

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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श़दा की ब़त कहं चला क्य़?’’ महेश कहत़ है - हर हफ्ते चलता है कफर रुक ज़ता है। कोइ लड़क़ नात़ को पसंद नहं अत़ तो नात़ ककसा लड़के को पसंद नहं अता।’’ ‘‘य़र ये संबंध बऩऩ भा ककतऩ मिऽश्कल हो गय़ है?’’ पिरुष अह भरकर कहत़ है ‘‘मिऽश्कल तो प्य़रे दोनं हा क़म हो गये है। नये संबंध बऩऩ, और पिऱने संबंध ऽनभ़ऩ।’’ घंऱ्घर की घड़ा मं अठ बजते हं तो दोनं को य़द अत़ है कक प़ि खरादने हं, िऩट बेकरा बंद हो ज़एगा। बच्चं को भीख भा लग रहा होगा। ऽबऩ कि छ कहे सिने दो जोड़ा पैर, दो ऽिपरात कदश़ओं मं चल पड़ते हं। िो पैर, ऽजन्हंने कभा ऽज़न्दगा भर स़थ स़थ चलने की कसमं ख़इ था। और म़फ कीऽजएग़ स़हब, भ़रा-भ़रा कदमं से ऄपने ऄपने घरं की ओर ज़ते हुए रमेश और महेश, दो पिरुष नहं हं। दो झोले हं। एैसे झोले, ऽजन्हंनंे​े पीऱ घर ज़दीगर पा.सा. सरक़र क़ झोल़ समझत़ है। जब जा च़हे, आसमं ह़थ ड़लो और मनच़ह़ स़म़न ऽनक़ल लो। ये आं क़र नहं करे ग़। और ह़ं, भीले से भा कभा आन पच़स स़ल पिऱने झोलं मं, कि छ ड़ल मत देऩ। आन पच़स स़ल पिऱने खिद्द़र झोलं को, कभा कि छ प़ने की अदत जो नहं है। अपने आनमं कि छ ड़ल कदय़ तो आनके बाच सड़क पर हा फर् ज़ने क़ डर है। ~✽~

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व्यंग्य

भ़रत म़त़ की गठरा शऽशक़ंत हिसह 'शऽश' कऽि​िर पंत के ज़म़ने से ग़ंि मं रहते-रहते भ़रत म़त़ को लग़ कक ईनकी सिध लेने ि़ल़ कोइ नहं है और ऄब नगरं को स्म़र्ट बऩय़ ज़ रह़ है तो ईन्हंने ऄपना गठरा ईठ़इ और ऽनकल पड़ं ऱजध़ना की ओर। ईन्हंने तय ककय़ कक ऽिक़स क़ ह़ल-च़ल पीछ कर हा अयंगा। अऽखर ग़ंि क्यं नहं अत़ ? ककतना ब़र शोर मच़ कक ऽिक़स अयेग़। नेहरू जा के समय मं तो सम़जि़द के स़थ अने ि़ल़ थ़ लेककन ऐऩ मौके पर सम़जि़द की तबायत खऱब हो गइ ओर ऽिक़स नहं अ सक़। आं कदऱ जा के समय मं ऐल़न ककय़ गय़ कक गराबा ज़येगा तो ऽिक़स अयेग़। न गराबा गइ न ऽिक़स अय़। गराबा भा बड़ा गरबाला होता है। आधर ऽपछले दो स़लं से हल्ल़ मच़ है कक ऽिक़स अइ िे और ह़इ िे से ज़ रह़ है। पहुंच़ हा नहं। म़त़ क़ मन नहं म़ऩ , छोर्ा-छोर्ा तान च़र गठररय़ं ईठ़ये भ़रतम़त़ नगर मं अ गईं। मह़नगर मं एक भल़-स़ अदमा कदख़ तो भ़रत म़त़ ने पीछ ऽलय़- -’’ बेऱ्, मं भ़रत के ग़ंिं से अइ हूं। तिम ऽिक़स को ज़नते हो, कह़ं रहत़ है ?’’ -’’ तिम हो कौन ?’’ -’’ मिझे ग़ंि के लोग भ़रत म़त़ कहते हं।’’ भल़ अदमा ह़थ मं म़इक-ि़इक ऽलए अ धमक़। ईसने अते हा पीछ़-’’ और आन गठररयं मं क्य़ है ? -’’ बेऱ् आन गठररयं मं ग़ंि की समस्य़एं हं। यह पहला गठरा है ऽजसमं सड़क, प़ना, ऽबजला की समस्य़ है। दीसरा गठरा मं बेरोज़ग़रा है और यह तासरा गठरा है ऽजसमं कजट से मर रहे ककस़नं की पाड़़ है। लेकर अइ हूं कक आनको ऽिक़स कदख़ दींगा।’’ िह अदमा हंस़। बोल़-’’ अप हमं बहल़ नहं सकतं क्यंकक देश की अंखं तो हमं हं। अप भ़रत म़त़ तो कतइ नहं है। भ़रत म़त़ के ह़थ मं ऽत्रशिल होत़ है और एक ब़घ ईनके ब़जी मं खड़़ रहत़ है।’’ -’’ बेऱ् ! तिम करते क्य़ हो ?’’ -’’ हम माऽडय़कमी हं म़त़ जा। देश िहा सोचत़ है जो से़चने के ऽलए हम ईन्हं कहते हं। अप भ़रत म़त़ नहं हो सकतं।’-’’ बेऱ् ये ऽत्रशिल और ब़घ ि़ला ब़त तो मिझे नहं म़लीम पर मं ग़ंि मं बैठे-बैठे ऽपछले सत्तर स़ल से ऽिक़स की ब़र् जोह रहा था सो अ गइ । तिम मेरा ब़त सरक़र तक पहुंच़ दोगं ? एक ब़र आन गठररयं को खोलकर देख लो। देश की समस्य़ समझ मं अ ज़येगा। ’’ -’’ म़त़जा हम ईन्हं गठररयं को खोलते हं ऽजनके ऽबकने की संभ़िऩ होता है। हम धमट, ज़ऽत, ईन्म़द, दंगे, आत्य़कद की गठररयं को खोलते रहते हं। आन गठररयो को ह़थ भा लग़य़ तो हम़रा नौकरा गइ। सच पिऽछये तो आनकी जरूरत हा नहं है। देश मं ऽपछले दो स़लं मं नब्बे कफसदा सड़के बन गइ हं। ग़ंि-ग़ंि मं ऽबजला अ गइ है। प़ना की समस्य़ तो म़नसीन अते हा सिलझ ज़येगा और बेरोजग़रा है हा नहं। ग़ंि के लोग नगरं मं अकर नौकरा तो कर हा रहे हं न म़त़जा। रहा ब़त ककस़नं की तो ईनको मरने क़ शौक है। अत्महत्य़ क़यरत़ है। अप ऽनयऽमत र्ा िा देख़ कीऽजये। देश क़ स़ऱ ऽिक़स ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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र्ा िा मं घिस गय़ है। -’’ बेऱ्, ती ककस ग़ंि की ब़त कर रह़ है ? मं ऽजस ग़ंि मं था िह़ं तो ऽपछले दो स़ल क्य़ पच़स स़ल से ऽबजला नहं अइ। न सड़कं हं। ती कभा गय़ है हम़रे ग़ंि मं ?’’ ब़रब़र बेऱ् कहने और भ़रत म़त़ की शऱफत से बेच़ऱ भल़ अदमा प्रभ़ऽित हो गय़। ईसने धारे से कह़-’’ म़त़ जा हमं तो ऽलखकर कदय़ ज़त़ है कक बोलऩ क्य़ है ? हम ब़ल-बच्चे ि़ले अदमा हं। म़ऽलक से लड़कर कह़ं ज़यंगे। ऽबजला तो हम़रे ग़ंि मं भा नहं अइ है और सीखे क़ स़मऩ पीऱ ग़ंि कर रह़ है।’’ भ़रत म़त़ ने ऽहक़रत की नज़र से भले अदमा को देख़ और बोलं- -’’ तिमलोग देश को ठग रहे हो।’’ अगे चल पड़ं। ऄभा दस कदम गईं हंगा कक एक ऄद्भित नज़़ऱ कदख़ लोग ह़थं मं तऽख्तय़ं लेकर ऩरे लग़ रहे थे-’’ नहं चलेगा, नहं चलेगा, त़ऩश़हा नहं चलेगा।’’ च़र-प़ंच लोग ऩरे लग़ रहे थे और ब़की लोग कं रर्न मं बैठे समोस और च़र् ख़ रहे थे। भ़रत म़त़ को ककसा ने बत़य़ कक यह संसद है और स़ंसद अज ’क़मरोको अंदोलन’ कर रहे हं। बाजेपा की सरक़र है तो यह क़म क़ंग्रेस कर रहा है। क़ंग्रेस की होता तो यहा क़म बाजेपा करता। मैच कफक्स है। बिकढ़य़ बेच़रा ने एक स़ंसद को पकड़़ और बोला-’’ बेऱ्, ज़ऱ आन गठररयं को खोलकर देख लो। एकब़र संसद मं कदख़ देऩ।’’ -’’ ऄम्म़ं, हम ईन्हं गठररयं को खोलते हं ऽजनसे िोर् ऽमलते हं। जनत़ को ऄब आन चाजं मं कदलचस्पा नहं रहा। िह जिमले और ऩरे सिनऩ च़हता है। हम िहं देते हं। ईन्हं तान घंर्े क़ सपऩ देखऩ होत़ है हम कदख़ते हं। तिम ऽनकलो नहं तो पिऽलस अ ज़येगा।’’ मन मसोस की सत्तर स़ल की बिकढ़य़ अगे बढ़ा तो नज़़ऱ रोचक थ़। दो सज्जन कलम से एक दीसरे को गोद रहे थे और तीती, मं-मं कर रहे थे। म़त़ होने के ऩते ईन्हंने दोनं को श़ंत कऱय़। -’’बेऱ्, अपस मं क्यं लड़ रहे हो। मेरा ISSN –2347-8764

गठररयं मं देश की ऄसला समस्य़ है। आनसे लड़ो।’’ ईन्हंने गौर से भ़रत म़त़ को देख़ और एक बोल़-’’ अपको कहं देख़ है !’ -’’ ह़ं बेऱ् मं भ़रत म़त़ हूं। ग़ंिं मं सत्तर स़ल से सड़ रहा था। दो स़ल पहले सरक़र बनं तो हल्ल़ मच़ कक ऽिक़स ग़ंि-ग़ंि मं ज़येग़। मेरे ग़ंि मं नहं अय़ तो खोजता हुइ मं हा अ गईं। तिमलोगं को पत़ है कह़ं रहत़ है ?’’ -’’ऄच्छ़-ऄच्छ़ तो अप कऽि​िर पंत ि़ला भ़रत म़त़ हं। अपक़ चिनर तो ध़ना नहं है। स़ड़ा फर्ा सा है। खेतं मं अपक़ अंचल फै ल़ नहं कदखत़। बहरह़ल अपको प्रण़म। अप ककस ऽिक़स की ब़त कर रहा हं समझ मं नहं अ रह़। संसेक्स ईछल रह़ है, ऽनफर्ा रोज छल़ंग लग़ रहा है। बिलेर् रे लं चलने ि़ला है। अइ अइ र्ा मं संस्कु त की पढ़़इ होने ज़ रहा है। अप कफर भा खिश नहं हं। अप संघऽिरोधा म़नऽसकत़ से पाऽड़त लगता हं। मोदा ऽिरोध अपक़ एकम़त्र ध्येय है। तत्क़ल दीसऱ कलम ि़ल़ लपक़-’’ अप ककसा की जिब़न नहं बंद कर सकते। सरक़र के ऽिरोध क़ ऄथट मोदा जा क़ ऽिरोध नहं है। अपलोग अरता ईत़ररये हम तो लोकत़ंऽत्रक ऽिरोध करते रहंगे।’’ -’’अपक़ यह लोकतंत्र ऽपछले स़ठ स़लं से कह़ं सोय़ थ़ । तब तो कभा ऽिरोध करते नहं कदख।’’ दोनं कफर घनघोर ककस्म की ग़ला-गलौज करने लगे। भ़रत म़त़ ने ईन्हं रोक़ और समझ़य़ । -’’ बेऱ्, एकब़र आन गठररयं को खोल कर देखो तिम्हं समस्य़ओं की सहा ज़नक़रा ऽमल ज़येगा। मं बिकढ़य़ भल़ ककसा क़ ऽिरोध क्यं करूंगा ? तिमलोग हो कौन ?’’ -’’ हम बिऽिजािा हूं म़त़ जा। रहा ब़त गठररयं की तो हम ऽबऩ मतलब की गठररयं नहं खोलते। हम तो के िल ऩम, ऩम़, पद और पिरस्क़र की गठरा खोलते है।’’ -’’ यह क़म अप करते हंगे हम तो जन समस्य़ओं के ऽलए जाते अये हं।’’ ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

दोनं कफर एक दीसरे की म़ं-बहन करने लगे। ऄभा झगड़़ हो हा रहा थ़ कक एक भाड़ भ़रत म़त़ की जय क़ ऩऱ लगता हुइ अता कदखा। भ़रत म़त़ क़ मन गदगद हो गय़। अऽखरक़र बेर्ं को म़ं की य़द अ हा गइ। ईन्हंने बिऽिजािा की ओर गिट से देख़ और बोलं-’’ ऄब समझ मं अय़ कक मं कौन हूं ?’’ -’’ म़त़ जा ये लोग अपकी नहं झंडे की जयजयक़र कर रहे हं। कोइ के सररय़ झंडे की जयक़र करत़ है तो कोइ हरे रं ग ि़ले झंडे की। स़रा बहस और लड़़इ झंडे को लेकर है अदमा की चच़ट करऩ जिमट म़ऩ ज़त़ है। अदमा बहस के कं न्र मं है हा नहं। अपने यकद कह कदय़ कक अप भ़रत म़त़ हं तो जेल की हि़ ख़ना पड़ेगा।’’ बिऽिजािा जोर-जोर से ऩरे लग़ने लगे-’ भ़रत म़त़ की जय’ और भाड़ मं घिस गये। बिकढ़य़ भ़रत म़त़ अगे बढ़ं। कनॉर् प्लेस मं अऽखरक़र फि र्प़थ पर एक पेड़ कदख हा गय़ जह़ं बैठकर भ़रत म़त़ ऄपना ईखड़ा स़ंसं को दिरस्त करने लगं। ईन्हंने ऄपना गठररयं को हिचत़ से देख़ और ग़ंि के ब़रे मं सोचने लगं। तभा स़यरन बज़तं दो ग़ऽड़य़ं िह़ं अकर रुकं और च़र पिऽलस ि़ले की द कर ईतरे । एक ने भ़रत म़त़ की ब़ंह पकड़ा दो ने ईठ़ लं गठररयं को और ग़ड़ा मं ड़ल अये। ग़ड़ा चल पड़ा। भ़रत म़त़ ऽचल्ल़ईं-’’ ये क्य़ कर रहे हो ? तिम्हं पत़ नहं कक मं भ़रत म़त़ हूं। तिमलोग मेरे स़थ आस तरह पेश नहं अ सकते।’’ -’’ चिप ! ऽबल्कि ल चिप! ऽपछले दो घंर्े से र्ा िा ि़ले यहा कदख़ रहे हं कक ऱजध़ना मं बलिे की अशंक़। एक बिकढ़य़ जो ऄपने अप को भ़रत म़त़ कह रहा है। सरे अम सड़कं पर छोर्ा-छोर्ा गठररय़ं ऽलये घीम रहा है। ईसकी ज़ंच नहं हो रहा। हो सकत़ है कक आन गठररयं मं बम हो। यह भा हो सकत़ है कक बिकढ़य़ पड़ोसा देश की एजंर् हो। ऄऽधक़ंश चैनल ि़ले तिम्हं म़ओि़दा बत़ रहे हं। ती तो ऄब जेल मं हा सड़ेगा।’’ द़रोग़ ईन्हं थ़ने लेकर अय़ और लॉकऄप मं ड़लकर जरूरा क़म ऽनपऱ्ने लग़। भ़रत म़त़ ने ऄंदर से अि़ज दा-

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-’’बेऱ्, ती एकब़र आन गठररयं को खोलकर तो देख ले। ककसा मं बम, ब़रूद व्यंग्य कऽित़ नहं है के िल ग़ंि-गंिइ की समस्य़ है। मं तो सरक़र को कदख़ने ल़इ था। ती ने मिझे हा थ़ने मं ड़ल कदय़।’’ द़रोग़ हंस़ और जोर से हंस़। ईसने भा ईतना हा तेज अि़ज मं जि़ब कदय़- -’’ म़त़जा हमं भा पत़ है कक ऑररजनल भ़रत म़त़ हं पर अप जो गठररय़ं लेकर घीम रहा हं, िे बम से भा ऄऽधक खतरऩक हं। अपको लॉकऄप मं रखने के अदेश मं मिझे ऽमले हं तो ड़ल कदय़। अपको यह़ं कोइ परे श़ना नहं होगा। दो कदन के ब़द छोड़ दंगे। च़य ऽभजि़त़ हूं।’’ प्राता जैन ' परिान' -’’ पर तीने तो गठरा खोला हा नहं। तीझे कै से पत़ आनमं क्य़ है ?’’ -’’ हमं बत़य़ गय़ कक आनमं जनत़ की समस्य़एं हं। यकद आन्हं आस तरह सरे अम सड़क पर खोल़ गय़ तो बलि़ हो ज़येग़। तभा तो देश को ि़दं, देखो अरक्षण कै से करे ,प्रऽतभ़ क़ भक्षण। ऩरं, जिमलं, और झगड़ं मं फं स़ कर रख़ गय़ है। अप यकद गठरा फं क दे दे रह़ है ऽसफट ज़ऽतगत भेद को संरक्षण।। तो मं अपको छोड़ दींग़। यहा अदेश है।’’ -’’ गठरा तो कभा नहं फं की गा। ’’ ये म़नऽसक कि श़ग्रत़ को धील चऱ् रह़ है। -’’ तो सड़ो ।’’ ऽिद्य़र्मथयं मे नफरत के बाज बो रह़ है।। सिऩ है तबसे भ़रतम़त़ लॉकऄप मं बंद है। गठररय़ं कोइ खोल नहं रह़।

अरक्षण : एक ऄऽभश़प

~✽~ जि़हर निोदय ऽिद्य़लय, शंकरनगर, ऩंदेड़, मह़ऱष्ट्र, 431736, मो.-7387311701

ऽसफट ज़त से होत़,योग्यत़ क़ अंकलन। देश को दामक स़ खोकल़ करे अरक्षण।।

मिस्क़नं क़ दाप जल़एं

हर क्षेत्र की प्रगऽत मे ि़धक बन रह़ है। ऄयोग्य हाऄपने लक्ष्य स़धक बन रह़ है।।

अओ ऽमलकर दाप जल़ऐ चौतरफ़ ऄँऽधय़ऱ भग़एं अओ छेड़े एक मंगल त़न ग़एं ऽमलकर एक सिंदर त़ल जिगनी करते जंगल मे मंगल

सिरेख़ ऄग्रि़ल

दापम़ल़ओं की लड़ा लग़एँ बस्ता बस्ता मं रौशना फै ल़एँ हर हँसा को हम ऽखलऽखल़एं

दिऽनय़ं के ककसा देश मे नहं ऐस़ संरक्षण। 'ऱजनाऽत'मे कफर क्यीँ नहं होत़ अरक्षण।। अमजन को कर्पितला स़ नच़ रह़ है। झिनझिऩ पकड़़ ऽिकल़ंग बऩ कदय़ है।। योग्यत़ साऽमत कर ये रोक रह़ पररितटन। 'अरऽक्षत' को पंगि सम बऩ रह़ अरक्षण।।

कदए क़ ईज़स घर-अँगन फै ल़एँ म़नं ऽसत़रे धरता पर ईतर अएं जैसे जिगनी बनकर ईऽजय़ऱ फै ल़एं बच्चं के मिख पर मिस्क़न कदल़एँ होगा जब भा खिशा की अऽतशब़जा न फ़ै ल प़एंगा कहं पर भा ईद़सा

हमे ज़ऽतगत भेद भिल़,च़ल समझऩ है। नेत़ओ की की र्नाऽत मे नहं ईलझऩ है।। अपसा फि र् ड़लकर नच़ रहे नेत़गण। ऄथट-धमट से मोहत़ज बऩ रह़ अरक्षण।। ये अम-जन के गले की फ़ँस बन गय़ है। ..िरद़न न होकर ऄऽभश़प बन गय़ है।।

चलो बऽस्तयो को हम जगमग़एँ ऄऩर पऱ्खं से मिस्क़न सज़एँ अक़श सिनहऱ प़त़ल सिनहऱ नन्हा झोपडा से आम़रतं तक

ऄरम़नं क़ बऽलद़न हो रह़ प्रऽतक्षण। ज़हर स़ धामं-धामं फै ल रह़ है अरक्षण।

अओ ऽमलकर दाप जल़एँ मिस्क़नं क़ एक दाप जल़एँ

~✽~

~✽~ ISSN –2347-8764

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

अदमा ररपेयर संर्र ऄनीप शिक्ल़ हम़ऱ मोब़आल महाने भर से ररपेयरिरग के ऽलये ’मोब़आल ऄस्पत़ल’ मं भती है। प़ना चल़ ज़ने के चलते ईसकी च़र्जिजग होऩ बन्द हो गय़ थ़। ऄन्ध़, गींग़, बहऱ हो गय़ है मोब़आल। ररपेयरिरग संर्र ि़लं ने बत़य़ कक च़र्जिजग होने लगा, रोशना भा अ गया लेककन अि़ज ऄभा नद़रद है। मदरबोडट बदलऩ पडेग़। हमने कह़ -बदल दो। बत़य़ गय़ कक ररपेयरिरग के पहले अधे पैसे जम़ करि़ने हंगे। हमं लग़ कक ससिर मोब़आल न हुअ अइसायी मं भती अदमा हो गय़। अपरे शन तभा होग़ जब एडि़ंस पैस़ जम़ करोगे। ऄस्पत़ल क़ डर होत़ होग़ कक अदमा ठाक होकर फ़ी र् ऽलय़ तो पैसे डी ब ज़यंगे। लेककन मोब़आल के तो पैर नहं है। ररपेयरिरग च़जट से कइ गिने ज्य़द़ क़ मोब़आल जम़ है लेककन अध़ पैस़ एडि़ंस मं च़ऽहये। खैर गये। मोब़आल देख़। कमर मं क़गज बंध़ थ़, पट्टा की तरह। अन ककय़ तो सब ड़ऱ्, फोर्ो कदखे। लेककन अि़ज गोल। मोब़आल बेच़ऱ न बोल प़ रह़ थ़ न सिन प़ रह़ थ़। लेककन ऐस़ लग रह़ थ़ हमं यह़ं से ले चलो। हमने ईसको प्य़र से सहल़ते हुये कदल़स़ कदय़- ’ले चलंगे बेऱ्, बस जऱ ठाक हो ज़ओ।’ ये तो हुइ मोब़आल की ब़त। जो प़र्ट खऱब हुअ बदल कदय़ गय़। कफ़र से र्ऩर्न चलने लगेग़। बडा ब़त नहं कल को अदमा की ररपेयरिरग भा आसा तरह होने लगे। अदऽमयं के भा ररपेयर संर्र खिल ज़यं। अदमा ररपेयर संर्र मं हर ऄंग को बदलने की सिऽिध़ होगा। अदमा मोऱ् हो गय़ लेककन ऱ्ंगे पतला हं तो बदल ज़यंगा। स़ंस की तकलाफ़ है, फ़े फ़ड़े नये ड़ल दंगे। नजर कमजोर है, नइ अंख लगि़ लो। चेहरे पर द़ग हं, ऽस्कन बदलि़ लो। कोइ मऽहल़ ऄपने बच्चे को ले ज़येगा और कहेगा- "भ़इ स़हब बेर्े को चाजं जल्दा य़द नहं होता। आसकी मेमोरा ऽचप बदल लो।" ऽपत़ लोग ऄपना बेरर्यं को जम़ कऱयंगे-’आसके कदम़ग से प्य़र क़ भीत आरे ज कर दो। ख़नद़न की आज्जत क़ सि़ल है।’ मिकदमं मं फ़ं से लोग ऄपने ऽखल़फ़ गि़ह की मेमोरा ऽचप मं ऄपने ऽहस़ब से य़दं ठे ल दंगे। बच ज़यंगे। कोइ अदमा ऄपना औरत की चेहरे की ऽस्कन चमकद़र करि़ने के भती कऱयेग़ और ब़द मं फोन करके ईसकी अि़ज भा थोड़़

ISSN –2347-8764

धामे कर देऩ। ऽचल्ल़ता बहुत है। पैसे की ऽचन्त़ न करो। मं दे दीग ं ़। कोइ औरत ऄपने अदमा को लेकर अयेगा -"आनकी ख़ंसा ठाक हा नहं हो रहा। फ़े फ़ड़े बदल दो।" ऄलग से कहेगा "भ़इ स़हब आनकी मेमोरा फ़़आल से आनकी प्रेऽमक़ क़ ऩम ऽडलार् कर दो। जब देखो तब ईसा को पढ़ते रहते हं।" कोइ नेत़ सैकडं लोगं को ऽलये अयेग़ और कहेग़- " आनके कदम़ग मं हम़रा प़र्ी की ऽिच़रध़ऱ और हम़रे नेत़ की जयक़र फ़ीड कर दो। चिऩि अने ि़ले हं।" कफ़र तो स्कीम भा चलंगा। पिऱऩ अदमा ल़ओ, नय़ ले ज़ओ। अफ़र साऽमत। भिगत़न ककस्तं मं। एक्साडंर् मं बहुत र्ी र् फ़ी र् हो गया तो नय़ शरार ऽमल ज़येग़ ऄस्पत़ल मं। अदऽमयं की क़हिस्र्ग, फ़ोरहिजग मौजीद हंगे ऄस्पत़लं मं। अदमा के ऽहस़ब से शरार की मशाहिनग हो ज़येगा। मेमोरा और दागर चाजं ऽचप मं क़पा करके कफ़र् कर दा ज़यंगा। पत़ चल़ ररपेयर होने के ब़द अदमा के स्िभ़ि मं कोइ बदल़ि अय़ तो पररि़र ि़ले कहंगे- ’जब से ररपेयर होकर अये हं तबसे ऽचड़ऽचड़े हो गये हं। पहले श़ंत रहते थे! य़ कफ़र यह कक-’ ररपेयर होने के ब़द सिधर गये हं। स़रे खिऱफ़़ता ि़यरस ि़यरस ऽनकल गये!’ कभा-कभा कि छ बि़ल भा हं श़यद। पत़ चल़ कक ड़क्र्र ने तम़म ऽहन्दी अदऽमयं के कदम़ग मं कि ऱन ड़ईनलोड कर दं। ऽहन्दी अदऽमयं के कदम़ग से गात़ के श्लोक ऽमऱ् कदये। पत़ चल़ कोइ म़क्सटि़दा अदमा ररपेयर होकर अय़ तो ईसके कदम़ग से ’द़स कै ऽपर्ल’ ग़यब है और ईसकी जगह’ ’एक के बदले च़र फ़्री’ तथ़ ’अफ़र साऽमत जल्दा करं ’ की तम़म स्कीमं भरा हं। सरक़रं को भा सिऽिध़ होगा। नया सरक़र के अने पर ऱज्यप़ल बदलने नहं पड़ंगे। के िल पिऱना प़र्ी की ऽचप ऽनक़लकर ऄपना प़र्ी की ऽचप लगि़ दंगे। ऄफ़सरं के तब़दलं की जगह ईनकी ऽचपं के तब़दले हंगे। सब लोग नया सरक़र के मसौदे के ऽहस़ब से क़म करने लगंगे। सरक़रं को सहूऽलयत होगा कक िे ऄपने ऽहस़ब से माऽडय़ और बिऽिजाऽियं के कदम़ग मं ऄपने ऽहस़ब से ऽचपं कफ़र् करि़ लेगं। देश च़हे बरब़द हो रह़ हो लेककन िे देश को बत़ते रहंग-े " देश क़ ऽिक़स हो रह़ है। सबके ऄच्छे कदन अ रहे हं।" ~✽~

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

ऄंगरी माठे थे आन्रजात कौर

बहुत पहले लोमड़ा ने जब कह़ थ़ कक ऄंगरी खट्टे हं एिह श़सन व्यिस्थ़ कि छ और रहा होगा। ऄब लगभग कआट देशं मं लोकतंत्र की स्थ़पऩ हो चिकी है। नया पाढ़ा की लोमड़ा पीरा तरह अश्वस्त है। आस ब़र िह स़रे ऄंगीर ख़ ज़ऩ च़हता है। ईसने भा ऄपने च़रं तरफ लोकत़ंऽत्रक व्यिस्थ़ क़यम कर दा। कोआ ऐस़ अड़ ढी ँढ रहा था ऽजसके सह़रे िह स़रे के स़रे ऄंगीर पेर् मं ड़ल तो ले पर लंगं की नजरं मं खिदगजट भा न बन प़य। स़ँप म़रकर भा ल़ठा बच़ने ि़ल़ ऽनयम. धरम पिऱऩ पड़ चिक़ थ़। ईसने लोकतंत्र के निान ि पऽित्र ऽसि़ंत क़ मनन ककय़। सभा के स़मने स़ँप म़रने क़ कदख़ि़ तथ़ ल़ठा बच़ने की सोचा। ऄपने क्षेत्र के स़रे दान-हान ज़निरं को आकट्ठ़ करके कह़ए िह पेड पऱ र्ंगे ऄंगीर तोड़ेगा। सभा को ब़ँर्ेगा। ये ऄंगीर माठे हं। आट म़नद़र हं। खट्टे ऄंगरी भ्रष्ट होतं हं। ऄत: मं आन माठे ऄंगीरं को तोड़ीँगा। अप सभा को ब़ँर्ीगा। सभा ने त़ऽलय़ँ बज़यं। त़ऽलयं की गड़गड़़हर् से लोमड़ा ने ऄपना जाभ ब़हर की और च़रं ओर देख़। बगल मं खड़ा ईसकी मौसेरा बहन ने भा ईसा भ़ि से च़रं तरफ देख़। लोमड़ा ने लोकतंत्राय श़न से कह़ “अप सभा श़म को मेरे स़थ चऽलये। मिझे सभा से प्य़र है। अप सब मेरा त़कत हं।“ आतऩ सिनते हा सभा ने ऄपने-ऄपने स्िर मं यथोऽचत ऄऽभि़दन ककय़। कि छ लोगं ने पीँछ ऽहल़या तो कि छ ने पीऱ शरार। कोआट च़रं तरफ चक्कर लग़य़। कि छ ने तो ऄपऩ शरार हा च़र् कदय़। ककसा ने ककसा और क़। अऽखरक़र िह समय अ हा गय़ जब लोमड़ा माठे ऄंगरी तोड़ने को चला। पेड़ के प़स भाड़ और भाड़ मं ईत्सिकत़। सभा के मिँह मं प़ना भऱ हुअ थ़। लोमड़ा ने बड़े श़न से कमर मर्क़ते हुये सभा को देख़ और मिँह खोलकर ऄऽभि़दन ककय़। मिँह खोलते हा ईसकी ल़र ऽगर पड़ा। यह ब़की ज़निरं के मिँह के प़ना से ज्य़द़ था। आसे अगे के लोमड़ा के ऄऽतऽप्रय ज़निरं ने पत्ते के दोनं मं भर ऽलय़। ये दोने ऄंगीर के ऽलये सभा लोग ल़ये थे। लोमड़ा धारे -धारे लर्क रहे गिच्छे के नाचे चला गया। एक ब़र कफर ईसने ऄपना नजरं दौड़़यं। गदटन उपर ISSN –2347-8764

की। ऄंगीर पहुँच से दीर थे। ईसने गदटन थोड़ा और उपर की। ऄंगरी पहुँच से ब़हर थे। कफर जह़ँ तक हो सकत़ थ़ गदटन उपर कर ड़ला पर ऄंगीर थे कक ऄकड़े हुये थे। ईसने ऄपने दोनं ऽपछले पैरं पर पीऱ भ़र ड़ल़। लगभग खड़ा सा हो गया था। ऄंगरी दीर हा थे। ऄब पीिट प्रकक्रय़ ऄपऩकर िह थोड़़ ईछला और अगे के दोनं ह़थे़ं से छी ने क़ प्रय़स ककय़। ऄंगीर ह़थ की बड़ा ईँ गला से छी हा प़ये थे। र्ी र्े नहं। लोमड़ा थक गया। ईसने सभा के स़मने घोऽषत कर कदय़ “ऄंगीर खट्टे हं ऄत: मं अप सब को नहं दे सकता। मिझे अपक़ कल्य़ण करऩ है। खट्टे ऄंगरी ं से अपके द़ँत खट्टे हो ज़यंगं। आससे अप ख़ऩ ठाक से नहं ख़ प़यंगं। अप सब कमजोर हो ज़यंगं। मं अपको कमजोर और भीख़ नहं देख सकता। कु पय़ अप खट्टे ऄंगीर मत ख़आये। आतऩ कहकर िह चला गया। सब कि छ देखने के ब़िजीद भा सभा ने लोमड़ा की ब़त पर ऽिश्व़स कर ऽलय़। अगे ि़ले ज़निरं ने कर्ोरे मं जो ल़र आकट्ठा की था सभा को थोड़़-थोड़़ ब़ँर् कदय़। सभा ने ईस प्रस़द को श्रि़पीिटक म़थे से लग़कर छक़ और श़ंऽत से घर चले गये। ऱत हो गया था। च़ँद पीरे अक़र मं थ़। ऐसे मं लोमड़ा ऄपना मौसेरा बहन को लेकर कफर ईस पेड़ के प़स गया। ईसने ईसे जमान पर ऽबठ़य़। ईसके उपर खिद चढ़ने हा ि़ला था कक बगल मं एक पतला सा बकरा र्हलता हुया कदखा। लोमड़ा रठठक गया। पहले तो ईसक़ मन ककय़ कक म़र दे पर बकरा की चाख ब़की ज़निरो के क़नं तक ज़ सकता था। च़ँदना ऱत था। एकदीसरे को पहच़नऩ भा अस़न थ़। ऐसा पररऽस्थऽत मं लोमड़ा ने लोकत़ंऽत्रक व्यिस्थ़ मं कमजोर जनत़ पर ककये ज़ने ि़ले सद्व्यिह़र पर ऽचन्तन ककय़। ऄगले पल ईसने कि छ भ़ग बकरा को देने की ब़त कर ला। शतट यह रखा कक ईसे जमान पर बैठऩ पड़ेग़। बकरा ख़ुशा—ख़ुशा ऱजा हो गया। िह ऄपने अपको ब़की सभा ज़निरं से भ़ग्यश़ला समझ रहा था। ईसे ल़र तो ऽमल गया था, ऄब ऄंगीर भा ऽमलने ि़ले थे। लोमड़ा ने बड़े स्नेह और श्रि़ दश़टते हुये बकरा को नाचे ऽबठ़य़। श्रि़ की भ़िऩ ईसने मन मं हा रखा। ईसके उपर मौसेरा बहन ि कफर खिद चढ़कर ऄंगरी तोड़ ऽलये। िह धारे से नाचे ईतरा कक बहन को चोर् न पहुँचे। ईसके ब़द ईसकी बहन जोरं से की दकर नाचे ईतरा। ऄब बकरा की ब़रा था पर िह ईठ नहं प़या। दोनं ने खीब जमकर माठे ऄंगीर ख़ये और ररश्तेद़रं को कदये। ब़की ज़निर माठा ल़र के मद मं ऄंगीर भील चिके थे। ऄगला सिबह लोमड़ा ने ऄंगरी और मरा बकरा को ब़हरा ऽशक़रा की करतीत बत़ कदय़। भरे गले से सह़निभीऽत के कि छ शब्द भा कहे। ऄगले कदन ईसने ऽशक़ररयं के ऽखल़फ अन्दोलन की घोषण़ कर दा। भाड़ ने जोरं से त़ला बज़या। ऄब लोमड़ा के नेतुत्ि मे बकरा को न्य़य कदल़ने के ऽलये अन्दोलन हो रह़ है .....जनत़ ऄंगरी ं की चोरा भील चिकी है। ~✽~ 915/ए सेक्र्र-अआट , ऄलागंज लखनउ-226024/ मो.8604106788

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

ऄमन चैन और ि़हिशग मशान ऽनमटल गिप्त

प़ककस्त़न और ऄफग़ऽनस्त़न मं हुए श़ंऽतपीणट धम़के होने की खबर है । यह श़ंऽतमय आसऽलए म़ने ज़यंगे क्यंकक मरने ि़लं की संख्य़ 15-20 से ज्य़द़ नहं है।ये हमल़ सद़च़रा दीतं क़ पीरा दिऽनय़ मं ऄमन बह़ल करने की कदश़ मं एक स़थटक कदम है । धऱ पर ऄमन चैन को श़यद आसा तरह अऩ है । पीरा दिऽनय़ मं सेक्यिलररज्म भा आसा तरह ऄपना जड़े जम़ प़येग़ । िैसे भा धम़के ब़रूद,अरडाएक्स और ऱ्आमर अकद के जररये होते हं और र्ेक्नोलोजा क़ कोइ ऄलग से धमट य़ धमटग्रंथ नहं होत़।ध़र्ममक भ़िऩ क़ कोइ स्थ़पत्य नहं होत़ । अस्थ़ क़ कोइ ऱष्ट्र नहं होत़ । अस्थ़ कहं भा कभा भा धम़के के स़थ प्रकर् हो सकता है । अदमा क़ हिजद़ रहऩ य़ कफर मर ज़ऩ, यह सब ऽिऽध ह़थ है य़ ऽनयऽत और प्ऱरब्ध की िजह से है । श़ंऽत के आन ऽशखर पिरुषं के ह़थ ऄदुश्य होते हं।आन ह़थं की भा कोइ ऱष्ट्रायत़ नहं होता । आनके मंतव्य बड़े गीढ़ होते हं । आनको ऽसफट िोन की ऄत्य़धिऽनक समझ हा देख प़ता है।ये म़निाय समझद़रा से परे होते हं । आनके ह़थं मं जब तब जो ऄसॉल्र् ऱआफल य़ रॉके र् लॉन्चर कदख ज़ते हं, िे ि़स्ति मं सद्भ़िऩ के श्वेत कपोत होते हं । कोइ ईन्हं ऽिध्िंस क़ स़म़न न समझे।श़ंऽत के आन ऄग्रदीतं को कोइ अतंकी समझने की चीक न करे । ऄब तक स़रा दिऽनय़ ज़न गया है कक ऄमराक़ मं डब्ली. र्ा. ओ की ऽबहिल्डग ईसके कराब से गिज़रे दो हि़इ जह़जं से हुइ ऄनिगींज की िजह से ध़ऱश़हा हुइ थं। ईन हि़इ जह़जं मं तो समस्त ऽिश्व क़ देने के ऽलए ऄमन-चैन क़ पैग़म थ़ । ईनके प़यलर्ं को क्य़ पत़ थ़ कक ऄमराक़ जैसे मिल्क के आं जाऽनयर ऐसा आम़रत बऩते हं कक जो जऱ –सा ि़आब्रेशन से भरभऱ कर ऽगर ज़ता हं। पेररस से लेकर कऱचा और मिंबइ से लेकर क़बिल तक जो हुअ, िह भा ऽसफट आसऽलए हुअ

ISSN –2347-8764

क्यंकक मरने ि़लं ने श़ंऽत प्रय़सं मं ऄडंग़ ड़लने की कोऽशश की। यह भा सबको म़लीम है कक दिऽनय़ मं ककस कदर ऄऩच़र बढ़ गय़ है। ऄब ह़ल़त आतने बदतर हो गये हं कक घड़ा की सिइयं को ऽिपरात कदश़ मं घिम़ऩ जरूरा हो गय़ है। कलयिग मं ऄंधरे से भरा दिऽनय़ मं अगे बढ़ने क़ कोइ औऽचत्य नहं है। मध्ययिगान स्िर्मणम समय मं सबको ि़पस ले ज़ऩ होग़ । श़ंऽत सद्भ़ि के ऽहत़थट यह तो करऩ हा होग़। सद्भ़िऩिश कि छ लोग मर ज़ते तो आससे क्य़? श़ंऽत दीत ऄब चप्पे चप्पे पर फ़ै ल कर ऄपऩ क़म कर रहे हं। िे आतने कमज़फट नहं कक ऄन्य़य और ऄपऱध से भरा आस क़ला दिऽनय़ को ईसके ह़ल पर छोड़ दं । आन्हंने धमट ऽिरोधा ऽजद्दा धब्बं को छि ड़़ने के ऽलए क़रगर स़बिन और ऽडर्रजंर् आज़़द कर ऽलए हं । िे क़यऩत को झ़ड़ पंछ कर नार् एंड क्लान कर दंगे । यह ब़त एकदम सहा है कक आन श़ंऽत के क़रिरदं क़ ईसा तरह से कोइ मज़हब नहं होत़ जैसे झीठे बतटन धोने ि़ले ऽडश- िॉशर य़ कपड़े धोने ि़ला ि़हिशग मशान क़ कोइ धमट नहं होत़। ये मशानं ऽनर्मलप्त भ़ि और प्रोग्ऱहिमग के ऄनिरूप ऄपऩ क़म करता हं । श़ंऽत क़ ऽिश्वव्य़पा प्रस़र ऄब़ध गऽत से हो रह़ है। साररय़ तिकी, ऄफग़ऽनस्त़न से लेकर न्यीय़कट , पेररस, कऱचा, मिंबइ और पठ़नकोर् तक श़ंऽत पसर रहा है । कु पय़ आसे कोइ ऄन्यथ़ न ले और न ऐस़ समझने की भील करं ।‘

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

~✽~ 208,छापा र्ंक ,मेरठ- 250001 मोब. : 08171522922 ~✽~

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व्यंग्य कऽित़

ऄप्रैल फी ल ऄनीप मऽण ऽत्रप़ठा

हम़रे एक ख़उ ऽमत्र कल हम़रे घर अए और फरम़ए, ‘ऄम्म़ कोइ ईप़य ध़ंसी बत़ए कक हम ऄप्रैल फी ल कै से मऩए!’ हमने ईन्हं बत़य़ ऄपने ज़ऽनब एक ऱस्त़ सिझ़य़, ‘देऽखए! अप ठहरे सरक़रा ब़बी प्रश़सन के मजबीत प़ए, कल जब ककसा की फ़आल अपके स़मने अए तो ऽबऩ घीस ख़ए, ईसको अप अगे बढ़़ए ऐस़ देख फरय़दा अश्चयट से भर ज़एग़ और अपक़ ऄप्रैल फी ल मन ज़एग़...’ मेरा सल़ह सिन कर पहले तो िे चिप रहे कफर हंसे हं हं हं... प़न मिंह मं बडेऺ कराने से ड़ल़ थोड़़ आधर ऽहल़य़ थोड़़ ईधर डि ल़य़ चपर चपर चब़ते हुए बोले, ‘ऽमत्रिर अप है भोले िैसे तो सिझ़ि अपक़ ऄच्छ़ है पर ऄप्रैल फी ल बऩने क़ अपक़ प्ल़न थोड़़ कच्च़ है!’ मंने कह़ कक कु पय़ अप हा समझ़ए ऄप्रैल फी ल बऩने क़ ऄपऩ फि लप्रीफ प्ल़न बत़ए! ऄब तक ईनके मिंह मं प़न की पाक क़फी भर गइ था आस ब़त की चिगला ईनकी झक सफे द कमाज कर गइ था िे बोल, ‘जैस़ तिमने बत़य़ है ऄक्षरशः िैस़ हा करूंग़ परं ति आसमे थोड़़ स़ ऄपना तरफ से संशोधन भा करूंग़!’ ISSN –2347-8764

िे ऄप्रैल फी ल बऩने क़ करने ि़ले थे खिल़स़ ऽजसक़ ईन्हंने ऄपना नजरं से कदय़ हमको कदल़स़ िे अगे बोले,‘ कल जब कोइ गरजी हम़रे ऽिभ़ग अएग़ तब हम ईससे घीस की म़ंग नहं करे ग,ं और म़ंग पीरा होने की फौरन मिऩदा कर देगे यह सिनते हा िह खिश हो ज़एग़ और ऄपना ि़णा से हम़रा त़राफं के फी ल हम पर बरसएग़ तब हम ईसको जोर क़ झर्क़ देगे धारे से खाच कर ल़एगे दलदल मं स्िऽिल नकदय़ के तारे से,‘ ऄरे ! हमने तो ऄपने ब़प को भा नहं बक्श़ तो ती ककस खेत की मीला है! सिन बेऱ् गरजी ल़ल! ल़ल फीते से बंधा फ़आल दरऄसल एक सीला है। आसऽलए हल्के लोगं के प्रस्त़ि ऄकसर ऄर्क ज़ते हं ऽजसकी ऽगरह खोलने के चक्कर मं तिम जैसे ककतनं के प़ंि क्रब मं लर्क ज़ते हं आस लर्कन से बच़ने के ऽलए हा हम शराफ लोग तिमसे थोड़़ खच़ट-प़ना म़ंग लेते हं आसके एिज मं हम तिम्हं सीला पर लर्कने और तिम्ह़रा ईम्र घर्ने से तिमको बच़ लेते हं ऽबऩ ऽलए कदए क़म हो ज़ए तो हमे पीछेग़ कौन! यह सब सिनते हा, ज़ऽहर है गरजी हो ज़एग़ मौन व्यिह़ररक ज्ञ़न की हम़रा ब़तं सिनकर ऄब तक ऽहल चिकी होगा ईसकी ऄस्थ़ की चील तब हम बत़एगं ऄपना ब़तं क़ मील भइय़! ि़स्तऽिकत़ के सीरज पर कि छ देर के ऽलए भले हा अदशं की छ़इ बदला था पर सच यह है कक हम़रा नायत न बदला ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

है, न बदला था हम तो तम्हं बेिकी फ बऩ रहे थे दरऄसल तिम्ह़रे स़थ हम ऄप्रैल फी ेील बऩ रहे थे!’ ऄपऩ प्ल़न बत़ने के ब़द िे गिट से मेरा तरफ देखे और बोले, ‘कहो कै सा रहा भ़इ!’ हमने कह़, ‘म़फ कीऽजए!मौज नहं अइ!’ ये सिनकर िे म़यीस हो गए अिेग मं पीरा की पीरा पाक पा गए मोर्े हंठं के स़थ ईनक़ फी ल़ मिंह गिस्से ल़ल हो गय़ मेरे घर ईनक़ अऩ जा क़ जंज़ल हो गय़ ऽिन्रमशाल होकर अने ि़ले मेरे ख़उ ऽमत्र ऄब पीरा तरह से ज्िलनशाल हो चिके थे आससे पहले िे जल के ऱख हो ज़ते और मं ख़क मं हो ज़त़ तब्दाल मंने दा एक प्य़रा सा दलाल मं बोल़,‘ ऽचल भ़इ स़हब ऽचल! प्लाज हो ज़ए की ल! मं तो एंडि़स मं अपको बऩ रह़ थ़ ऄप्रैल फी ल! भ़इस़हब! क्य़ गजब की अपने है योजऩ ग़ंठा स़ंप भा मर गय़ और न र्ी र्ा अपकी खीन पाने ि़ला ल़ठा!’ यह सिनकर िो मिझसे ऽपल पडेऺ तनतऩ कर हुए खडेऺ गरजे, कफर बरसे,‘तिम्ह़रा ऄज्ञ़नत़ पर मेऱ ह्नदय तरस ख़त़ है ऄरे मीढ! ल़ठा को खीन नहं तेल ऽपल़य़ ज़त़ है।’ मं बोल़,‘पर िहा तेल पाकर अपकी पिष्ट हुइ व्यिस्थ़ की ल़ठा जब पड़ रहा होता हैेै ककसा मजलीम के म़सीम ऄरम़नं को लहुलीह़न कर रहा होता है म़फ कीऽजएग़ भ़इ स़हब! तब अपकी ल़ठा तेल नहं खीन पा रहा होता है।’ ~✽~

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व्यंग्य

प्रम़णपत्र की म़ंग िारे न्र सरल

ईस भिन के प्रिेश ि़र पर बहुत बड़़ बोडट लग़ थ़। ऽजस पर स्िच्छ भ़रत ऽमशन क़ बहुत सिन्दर पोस्र्र ऽचपक़ हुअ थ़ और नाचे सिनहरे ऄक्षरं मं स्िच्छ भ़रत स्िस्थ भ़रत क़ खीबसीरत स्लोगन ऽलख़ हुअ थ़। मगर पररसर मं कचड़े आधर.ईधर ऽबखरे पड़े थे। शौच़लय की ओर से अता हुइ दिगंध हि़ मं ऐसे घिल ऽमल गइ था जैसे ऽिक़स क़यट और जनकल्य़णक़रा योजऩओं मं भ्रष्ट़च़र । दाि़रं की प्ल़स्र्र जगहजगह से ईखड़ा हुइ था। लगत़ थ़ कक दाि़रं को ऽलप़इ-पित़इ से एलजी है तभा तो ऽनम़टण के समय के ब़द से ऄब तक ईसकी ऽलप़इ-पि त़इ नहं हुइ था। कि छ कमरं की छत भा र्पकने लगा था। पत़ नहं ऄब तक मरम्मत के ऽलए प्ऱप्त ककतना धन ऱऽश की हा मरम्मत हो गइ था पर भिन क़ मरम्मत नहं हुअ थ़। ईखड़े हुए प्ल़स्र्रं पर िैसे हा ऽलप़पोता कर दा गइ था जैसे ज़ँच के ऩम पर ककसा हि़ल़ य़ घोऱ्ल़ क़ंड की कर दा ज़ता है। कमरं के भातर के छतं पर ऄपना हा कल़कु ऽतयं मं ईलझकर मरा हुइ मकऽड़यं के ज़ले झीमर की तरह लर्के हुए थे। ऽखड़ककयं के शाशे क्षत-ऽिक्षत हो गये थे। ऽखड़ककयं के ईस प़र कि छ एक्सप़यरा डेर् की दि़आय़ं पड़ा हुइ ऄपना दिदश ट ़ पर अँसी बह़ रहा था श़यद ईन्हे ऄपना ईन सहेऽलयं से इष्य़ट हो रहा था जो ऄभा भा स्र्ोर रूम की शोभ़ बढ़़ता हुइ ऄपने भ़ग्य पर आठल़ रहं था। स्र्ोर रूम की दि़आय़ं बस ईन प़िन कर कमलं की आं तज़र मं था ऽजनके ह़थं ककसा मराज क़ कल्य़ण होने ि़ल़ थ़। पत़ नहं कौनए कबए ककसकी कु प़दुऽष्ट क़ ऽशक़र हो ज़यए कि छ नहं कह़ ज़ सकत़ थ़। मराज ईपच़र की च़ह मं च़तक की तरह दरि़जे की ओर ऄपलक ऽनह़र रहे थे। बऱमदे मं स्ऱ्फ के लोगं की ऽखलऽखल़हर् गीँज रहा था। ISSN –2347-8764

पहला ब़र ईस भिन की पररक्रम़ करने पर ककसा प्ऱकु ऽतक ईपच़र के न्र होने क़ भ्रम जरूर होत़ थ़ पर स़रा पररऽस्थऽतय़ँ चाख.चाख कर सबीत दे रहा था कक यह स्थ़न सरक़रा ऄस्पत़ल के ऽसि़य कि छ और हो हा नहं सकत़। आसे कि छ और समझऩ आसकी श़न मं गिस्त़खा करने के सम़न है। आसा भिन के कक्ष क्रम़ंक दो मं नम्बर दो के डॉक्र्र ऄथ़टत के ब़द ि़ले सबसे िररष्ट डॉक्र्र ऄपना कि सी पर शयऩसन की मिऱ मं थे। ईनकी अँखे ध्य़ऩिस्थ़ मं था। कमरे मं भ्ऱमरा प्ऱण़य़म जैसा ध्िऽन गिँज़यम़न था। ईसा समय ईस कमरं मं ऄच़नक एक ऄधेड़ दिखाऱम क़ प्रिेश हुअ। दिखा ऱम स़हब की सम़ऽध को भंग करने क़ िैसे हा प्रय़स करने लग़ जैसे पौऱऽणक क़ल मं ऄप्सऱएं ककसा ऊऽष के तप को भंग करने के ऽलए करता रहा हंगा। पहले िह मेज को तबले की तरह थपथप़य़ पर कोइ प्रत्यित्तर न प़कर िह मेज को ढोल की तरह िैसे हा पार्ने लग़ जैसे चिऩि के समय प्रत्य़शा ऽिक़स के ि़दे क़ ढोल पार्ते हं। ज्य़द़ नहं के िल अठ.दस प्रय़स मं हा दिखाऱम को सफलत़ ऽमल गइ। स़हब के मिँह से हुंह शब्द ऽनकल़। दिखाऱम को आतना प्रसन्नत़ हुइ म़नो समिर मंथन के ब़द कौष्तिभ मऽण ईसके हा ह़थं लग गय़ हो। स़हब ने ऄंगड़़इ लेते हुए कह़ “क्य़ ब़त है भ़इ ? अप तो आस तरह मेज थपथप़ रहे हं जैसे ऄपने िेतन और भत्तं की बढ़ोत्तरा की ब़त पर हम़रे म़ननाय स़ंसद और ऽिध़यकगण मेज थपथप़कर समथटन करते हं। पहले मिझे लग़ कक अप मेरा आस मनमोहना मिऱ क़ समथटन कर रहे है। आसऽलए हुँह कहने मं कि छ ऽिलंब हुअ। मिझे क्षम़ करं और बत़ने की कु प़ करं मं अपकी क्य़ सेि़ करूँ घ?”

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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ऄंतत: के स़ल बम्बइमुकी अ गइ सन है। मै1997 तो अपके प़समंऄपऩ त्यि रम़ब़इ कॉलोना प्रम़णपत्र बनि़ने अय़ मं डॉ.हूँ।अम्बे अपडमेकर ऱ यह की प्रऽतम़ ऽनिे दन को स्िाक़र खऽण्डतकर करने लेतके​े तो म़मले बड़ामं कुजब प़ देशभर मिकेझदऽलत होता। पर दय़ भड़ककीऽजए ईठे , ईसा स़हबए ऽसलऽसले मेऱ मंत्यि मु ऄहमद़ब़द प्रम़णपत्र और बऩ गि दाऽजए। जऱत मं भा 'बंद' के एल़न केकदए । ऽनकलने ईस ऱतहादऽलतं के स़हब मिँह गये से बस ि़ल़ थ़ गिस्स़एं गिर् ऱस्तं । यि​िकं कक स्ि़स्थ संबंधपर ा ईतर सभाअयेप्रम़ण-पत्र कोऽडकल ऄपऩ थ़,जन्मपर मे बोडटअक्रोश से बऩयेऽनक़लऩ ज़ते हं और ऽनकले मु त्यि प्रम़ण-पत्र ककस तरह? अजकल अऽखर लोक से ककसा ि़ के न्रं को कदल्लगा सीझसे ा तोबऩये ईसने ज़ते हाऱल़ल की च़ल के म़ध्यम हं। पर ईन्हं के प़ख़ने ध्य़न तोड़ने क़ प्रस्त़ि कफर ऄच़नक अय़ ऄरे !रख़ एकऔरऽजन्द़ तो समीचऄपने ा ि़नर र्ी र्प्रम़ण-पत्र पडा । पलभर मं अदमा ऽलएसेनमु़त्यि बऩने तो ब़त की प़ख़ने कर रह़ नेस्तोऩबी है। द हो गये । ईनकी मल से दिसना ईंर्ं भा घरहुए ले स़हब खा ऱम को लोग घीर ईठ़कर कर देखते गये । कहं तिम प़गल तो नहं हो गये हो बोल़, कईं कदनं तक बहकी-बहकी चच़ट चला कक घ्जो आस तरह ब़तंयह़ँ करक्य़ रहे बनि़य़ ज़ये? प़ख़ने च़ल की ऄपना हो। ऽमऽल्कयत था । डरे सो च़ल ब़हिशदेअप जो तय दि खाऱम ऽबऩ बोल़के स़हब! तो करंझे िहा । एकहं मत थ़ऄच्छे कक ऄब तो घर मि ऐसे सहा घीर रहे म़नो कदनं क़ -घर मं पाखाने िन हो। गए मंहैतोइसमलए ि़द़ ने हा ककय़ आस देश वहाँ क़ दिब़ऱ प़ख़ने क्य़ मतलब? तो गराब ककस़न बऩने हूँ जोक़ऄपने और ऄपने कि छ लोग ब़ऱगय़प़ख़ऩ पररि़र की ईसा ऽचन्त़जगह मं हा दिमर हूँ। मं बऩऩककसा च़हतेसेथेि़द़ । ऄंतत: एन्ड क्य़ करूिह़ँ ँ ग़। 'पेमहं ग़इयीजसे' शौच़लय योजऩ के तहत प़ख़नेऽसर बऩने कमर र्ी र् गइ है। कजट क़ बोझ पर क़ ऽनणट । स़लभर मं गइ तो चढ़़ हुअयहैऽलय़ । मेरा गय़ जाने की आच्छ़ मर बकढ़य़ य़रऄथी हो ऄपने गये । हा दाि़रं है । ऄपनेशौच़लय ऄरम़नं तैकी कं धो और ईठ़कर फशट पर चमकते प्रिेशअय़ ि़र पर पर अपके ऱ्इल्स, चौखर् पर हूँ सि द ं र फी लं के गमले , नये रं ग -रूप के स़थ स़हब। मिझ पर दय़ कीऽजए मेऱ मुत्यि नय़ हिसग़र प्रम़ण-पत्र बऩ करके दाऽजए।खड़ है अज ये शौच़लय ईसके महसी रं ग-रुप कर िह़ँ दि खाऱम की। पाड़़ स करदेखकदख़िे के शौचकक्रय़ के बदले सोच-ऽिच़र की ऽलए हा सहा पर स़हब की अँखकरने ं भा नम प्रेरण़ ऐस़समझ़ते हं । ईसमं ऽलए हो गइ।ऽमल़ ईन्हंने हुए ज़ने कह़ के“आतऩ नकद एक रूपय़ चि क ़ऩ पड़त़ है । ऽमल ऽनऱश नहं होते दिखाऱम। मं तिम्ह़रा बंद है, क़रख़नं मंदा हूँहै। ।ऩम पीऱ आल़क़ भ़िऩ को समझमं रह़ अपक़ गराबा रोजग़रा मं सबसे है । दि खाऱमऔर है परबेति म्ह़रा ब़तंचपेसिर्नकर आसऽलएदिख'पेा मंएन्ड यीज' हूँ।शौच़लय क़ ज्य़द़ हो रह़ भइ! जाऽित ईपयोग श़यद हा होत़ । अदमा के ऽलए मित्यि है प्रम़ण-पत्र नहं जब-जबज़ऱजपि र ज़त़ हूँ, को तबसमझने हाऱल़ल बऩय़ सकत़ आस ब़त की की च़ल के प़ख़ने की जगह खड़़ ये रखो। नीतन कोऽशश करो। उपरि़ले पर भरोस़ शौच़लय मेरतो ा अत्म़ को अयं कचोर्त़ कभा न कभा ऄच्छे कदन गे।‘ है । हम़रे आल़के मं आतने सिंदर-स्िच्छ रं ग-रूप दि खाऱम ऄधार होकर बोल़ “कब तक ि़ले मक़न बहुत नाचे कमि़ले है कहते । आसऽलए भरोस़ रखं स़हब! हं कक सिशोऽभत शौच़लय हमने यसट सब उपर ि़ले कर रहे को हं और उपर'मेि़ले बंगल़'हंऩम कदय़नाचे है । सेऄहमद़ब़द ऄब कहतं कक सब हो रह़ है।मंऄधर तोतोएक ऄने क जगहं परहाऐसे सट मं हमनहं मजदी र और ककस़न लर्के'मेय हुए बं।गलो' खत़ हम हूँ । ऄपना हाऱल़ल च़ल के हं एक देओर ईपजकी को सस्ते प़ख़ने के सपने ऱत-बेऱत मिझे नंद से ISSN –2347-8764

द़मं पर जग़ते हं और बेचनेऄपने य़ सड़क ब़रे पर मं किफेछकनेऽलखने के ऽलए के ऽलए मजबी मजबी र हं रतोकरते दीसरा हं । ओर ईसा ईपज को ग्ऱहक महंगे द़मं *मं* खरादने पर ऽि​िश । * मौज कर रहे हं तो के िल ऽबचौऽलये। क्य़ ऄनि​ि़द : ऽबन्दि भट्ट कोइ ऐसा नाऽत नहं बन सकता ऽजससे हमं ऄपना ईपज क़ ईऽचत द़म ऽमल सके ? अपको तो पत़ हा है, यह़ँ कजट के बोझ तले ककसा ककस़न के अत्महत्य़ कर लेने के ब़द भा जनसेिक ईसके पररि़र के प्रऽत संिेदऩ और सह़नीभीऽत दश़टने के बज़य ईल-जलील बय़न देकर मरने ि़ले की अत्म़ तक को घ़यल करने से ब़ज नहं अते। ऽजनके हृदय की संिेदऩ तक मर गइ है ऐसे उपर ि़लं पर अऽखर हम कब तक भरोस़ रखे स़हब। दय़ कीऽजएए मेऱ मुत्यि प्रम़ण-पत्र बऩ दाऽजए” । डॉक्र्र ईन्हं समझ़ते रहे पर दिखाऱम आतऩ दिखा थ़ कक ऽबऩ मित्यि प्रम़ण-पत्र ऽलए लौर्ऩ नहं च़हत़ थ़। दिखाऱम ऄब डॉक्र्र स़हब से कहने लगे कक “स़हब बिऱ ऩ म़ने तो एक ब़त कहूँ। ऄपने यह़ँ जब ऄमार अदमा क़ भा गराबा रे ख़ क़डट बन सकत़ है। स्िस्​्य अदमा के ऽलए ऄस्िथत़ क़ ऽचककत्स़ प्रम़ण-पत्र बन सकत़ है। पिऽलस के ऩक के नाचे रहने ि़ले रसीखद़र ऄपऱधा को फऱर घोऽषत ककय़ ज़ सकत़ है। सरक़रा बंकं से भ़रा भरकम कजट लेकर नहं पऱ्ने ि़ले कजटद़र ऄपने अप को कदि़ऽलय़ य़ प़गल घोऽषत कऱ के कजट पऱ्ने से बच सकत़ है। द़गा ऄपऱधा भ्रष्ट और गिण्डे-मि़ला तक के ऽलए जब ऄच्छ़ चररत्र क़ प्रम़णपत्र बन सकत़ है तो जाऽित अदमा के ऽलए मुत्यि प्रम़ण-पत्र क्यं नहं बन सकत़ ?दीसरा ब़त यह कक जब गराबा रे ख़ य़ जनगणऩ जैसे ऄन्य महत्िपीणट क़यट के सिेक्षण के समय गणक को स्पष्ट ऽनदेश कदय़ ज़त़ है कक ऄंऽतम रूप से पररि़र के मिऽखय़ के ि़ऱ दा गइ ज़नक़रा को हा सत्य म़नऩ च़ऽहए तो कफर अप मेऱ मुत्यि प्रम़ण-पत्र बऩने से क्यं ऽहचक रहे है। मं ऄपने पररि़र क़ मिऽखय़ हूँ और अपसे ब़र ब़र कह रह़ हूँ कक मं मर चिक़ हूँ”। दिखाऱम के कि तकट से डॉक्र्र ऄपऩ ऽसर पकड़कर सोचने लग़ कक ...अऽखर आस ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

अदमा को कै से समझ़उँ ? ऄऽन्तम प्रय़स करते हुए डॉक्र्र ने कह़ ‘अऽखर तिम ऄपऩ मुत्यि प्रम़ण-पत्र बनि़ने के ऽलए प़गलं की तरह मेरे पाछे क्यं पड़े हो दिखाऱम ? मेरा ब़त समझने की कोऽशश क्यं नहं करते घ?” दिखाऱम फफकते हुए बोल़, “यह़ँ सब मिद़टपरस्त हो गये हं डॉक्र्र स़हब। माऽडय़ ककसा ककस़न के अत्महत्य़ क़ जािंत प्रस़रण कर सकता है, ईसे बच़ने क़ प्रय़स नहं कर सकता। ईसे ऄपना र्ा अर पा से मतलब है। माऽडय़ ककसा ककस़न की मुत्यि की खबर ऽमचट मस़ल़ लग़कर कइ ब़र प्रस़ररत करता है। ऽजससे प्रश़सन ऄपना किं भकरणाय ऽनऱ से ज़ग ईठत़ है। नेत़ओं के हृदय से संिेदऩ क़ स़गर ईमड़ पड़त़ है। ऽिपऽक्षयं के हृदय मं सह़निभीऽत की लहरं ईठने लगता है। ऄपना ऱजनाऽत चमक़ने और ऄपने स्ि़थट की रोर्ा सेकने के ऽलए ईन्हं अग ऽमल ज़ता है। पाऽड़त पररि़र को कि छ अर्मथक सह़यत़ ऽमल ज़ता है। ऽजससे दो च़र कदन हा सहाए पररि़र भीखं मरने से बच ज़त़ है। भीख से मरते हुए अदमा से ज्य़द़ ऽचन्त़ भीख से मरे हुए अदमा की होता है। ऄब अप आसे मेरा मजबीरा कहं य़ मेऱ लोभ। बस आसा क़रण मं ऄपऩ मुत्यि प्रम़ण-पत्र बनि़ऩ च़हत़ हूँ। ऄब तो अप मिझ पर दय़ कीऽजए”। स़हब दिखाऱम को समझ़ते रहे और दिखाऱम ऄपना पाड़़ से छर्पऱ्ते हुए फी र् फी र्कर रोत़ रह़। अश़ अश़ और ऽिश्व़स की भा एक साम़ होता है अऽखर मजबीर अदमा कब तक धैयट रखे ? ~✽~ पत़ः.ग्ऱम बोड़ऱए, पोस्र्-भोथाडाहए व्ह़य़-मगरलोड़ए, ऽजल़-धमतरा (छत्तासगढ़) मो. नंबर-0782824337 ~✽~

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व्यंग्य

ककऱयेद़रं की पाड़़ ऄलंक़र रस्तौगा

जैसे हा मंने चौथा के ब़द प़ँचिा ब़ल्र्ा भरने के ऽलए लग़या िैसे हा मक़न म़ऽलक की खींख़र और क़ऽतल ऽनग़हं ने आस तरह घीर कर देख़ कक मं सि़ च़र ब़ल्र्ा से ज्य़द़ प़ना भरने की ऽहम्मत न कर सक़। मेरा हर हरकत पर मेरे मक़न म़ऽलक की आतना पैना नजर रहता है ऽजतना खिकफय़ं एजंऽसयं की ईपरऽियं पर नहं रहता होगा । ईनक़ बस चले तो मेऱ हर अऩ -ज़ऩ छोऽडये हर अने -ज़ने ि़ला स़ंस तक क़ ऽहस़ब म़ंग ले । ऐसे न ज़ने ककतने ज्िलंत ईद़हरण है ककऱयेद़रं की दिदश ट ़ के । ककऱयेद़र ऩम के प्ऱणा क़ जािन तो बस आसा ल़आन को दोहऱते बात ज़त़ है कक ‘ऄगले जनम मोहे ककऱयेद़र न कीजौ‘। अज के जम़ने मं ककऱयेद़र क़ रोल ऽनभ़ प़ऩ ईतऩ हा चैलंहिजग है ऽजतऩ ऄऽमत़भ बच्चन के ऽलए ‘प़‘ क़ रोल। बस अप को सब कि छ ज़नते समझते हुए भा म़नऽसक रूप से बाम़र रहऩ पड़त़ है। श़यद ऽिकल्प के रूप मं अपको ईसा मक़न म़ऽलक की शरण और ईसके चरण कदख़इ पड़ने लग ज़ते हं । ककऱये क़ मक़न लेते हा सबसे पहले अपको एक मौऽखक संऽिध़न बत़य़ ज़त़ है । यह संऽिध़न आं ग्लैण्ड के मौऽखक संऽिध़न से ककसा म़यने मं कम नहं होत़ है । ‘आस संऽिध़न मं ब़क़यद़ जरर्ल ऱ्आप के ऄनिच्छे द ि ऄनिसीऽचय़ं तक होता हं। सबसे खतरऩक ब़त तो यह होता है कक आसके ऽनयमं मं संशोधन क़ भा कोइ प्ऱऽिध़न नहं होत़ है। सबसे पहले तो ऄगर मक़न म़ऽलक श़क़ह़रा है तो ककऱयेद़र को ऄण्ड़ और मार् क्य़ होत़ है ईसे ख़ऩ तो छोड़, ईसकी पररभ़ष़ और शकल तक तक भीलना पड़ता है। ऄगर अप नाचे के ऽहस्से मं हं तो अपको ख़ऩ छंकलेस बऩऩ पड़त़ है त़कक अपके मक़न म़ऽलक को छंकरूपा अपद़ क़ स़मऩ न करऩ पड़े। ऄगर अप उपर के ऽहस्से मं हं तो अपके कदम धमक प्रीफ होने च़ऽहए। हर कदम आस तरह से फीं कफीं ककर रऽखए जैसे कोइ दिल्हन िरम़ल़ ड़लने ज़ रहा हो। आस ऽनयम को प़लन करने के चक्कर मं अपकी भ़गम भ़ग कब कदव्य़ंग मं बदल ज़ता है अपको पत़ हा नहं ISSN –2347-8764

चलत़। ऄभा तक अपने जो सलाके साखे िह सभा ककऱये क़ मक़न लेते हा ऄप्ऱसंऽगक हो ज़ते है। अप भले हा ऄपने घर मं के िल संस्क़र चैनल देखने क़ ऄनिभि बत़ते हंगे । एम् र्ािा क्य़ होत़ है ईसे सिनकर ऐसे चौकते हंगे म़नो अपने ककसा दीसरे ग्रह के चैनल क़ ऩम सिन ऽलय़ हो । आन सब स़िध़ऽनयं के ब़िजीद मक़न म़ऽलक की एक्स्ट्ऱ क्ल़स जो लगभग हर कदन चलता है ईसमं अपको लेर्ेस्र् मैनसट ऽसख़ये ज़ते हं। मसलन ख़ंसने और छंकने क़ सहा तराक़ क्य़ हैऺ और डक़र लेऩ तो गैर जम़नता ऄपऱध की श्रेणा मंश़ऽमल कर कदय़ ज़त़ है। दरि़जे और ऽखड़ककय़ं ककस तरह खोलो और बंद करो कक ईनमं खर् तक की स्ि़भ़ऽिक अि़ज भा न हो। नल की र्ंरर्य़ आस स़िध़ना के स़थ बन्द करो कक ज्य़द़ ऱ्आर् न होते हुए भा एक बीँद तक ईसमं र्पकता न रह ज़ये। और तो और ऽबजला क़ ऽस्िच कै से ऑन - ऑफ ककय़ ज़ये ब़क़यद़ ईसकी भा ट्रेहिनग दा ज़ता है। घर मं झ़ड़ी भले हा अप महाने मं एक ब़र लग़ए ऄलबत्त़ घर के ब़हर झ़ड़ी लग़ने की ऽजम्मेद़रा ककऱयेद़र की हा होगा । मक़न म़ऽलक के खिद के बच्चे ऄपना हरकतं के क़रण भले हा शहर से तड़ाप़र कर कदए गए हं लेककन ककऱयेद़र के बच्चं की हर हरकत पर ईनकी पैना नजर रहता है। मक़न म़ऽलको क़ बस चले तो ऐसे ककऱयेद़र रखं ऽजनके कोइ बच्च़ न हो और न हो भऽिष्य मं पैद़ करने क़ ख्य़ल रखते हं । यह दागर ब़त है कक ईनको ऄपने घर के शैम्पी और स़बिन मंगि़ने के ऽलए ईन्हा बच्चं क़ ख्य़ल अत़ है। मक़न म़ऽलक के ऽलए ककऱयेद़र गिल़म िंश के ककसा िंशज से ज्य़द़ औक़त नहं रखते हं । ऄसाऽमत सीचा मं सबसे उपर होत़ है अपको मोहल्ले के ईन लोगं से बोलने की मऩहा ऽजनसे मक़न म़ऽलक की तऩतना हो। आनसे दिअ सल़म भा मक़न म़ऽलक की नजरं बच़कर करना पड़ता हं। दाि़र पर कील ठंकने क़ दफ़ तान सौ दो ऱ्आप मह़पऱध भीले से भा करऩ ऄक्षम्य ऄपऱध की श्रेणा मं अत़ है। अप ऄपने जीतं मं

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कील भा ठंकं गे तो भा मक़न म़ऽलक को लगत़ है कक कहं ईनकी दाि़र मं संध तो नहं लग रहा है। ऽबजला चले ज़ने पर भले हा सड़ा गमी मं अप कमरे मं हा गश ख़कर मर ज़यं लेककन छत पर ज़ने क़ सि़टऽधक़र और लेर्ने क़ ऽिशेष़ऽधक़र के िल मक़न म़ऽलक के हा प़स हा सिरऽक्षत होत़ है। ऄगर अपने खिद क़ ऽबजला क़ मार्र नहं लग है तो समझ लाऽजये अपके ऽबजला के ईपक़रणं पर मक़न म़ऽलक की ध़ऱ एक सौ चि़लास कभा भा तत्क़ल प्रभ़ि से ल़गी हो सकता है । अपके पंखे ने ककतने चक्कर ऽलये है आसक़ तक ऽहस़ब ऽबऩ ककत़ब के मक़न म़ऽलक ऄपने प़स रखत़ है। धोखे मं भा ऄगर जारो प़िर क़ बल्ब तक ब़थरूम मं खिल़ छी र् ज़ये तो समझ लाऽजए ऄगले कदन मक़न म़ऽलक की ऽबजला अप पर ऽगरऩ तय है। आन सबके ब़िजीद जैसे हा पहला त़राख होता है मक़न म़ऽलक ऄपने ककऱयेद़र को ऐसे देखऩ शिरू कर देत़ है म़नो िह ककऱयेद़र न हो बऽल्क ईसक़ पिश्तैना कजटद़र हो। ईसकी घीरता ऽनग़हं हर ब़र यह एहस़स कऱ देता हं कक ऄब अपके जेब मं जो पैस़ है ईसक़ भा म़ऽलक ऄब मक़न म़ऽलक हा है । और ऩहक हा ईसके ऽलए ऄपऩ हक जत़ रहे हं । अप ककऱये के रूप मं हर महाने मक़न म़ऽलक को एक ऐस़ योगद़न करते हं ऽजससे भले हा ईसकी रोर्ा न चले लेककन अपके पररि़र की रोर्ा जरूर ह़ंफने लग ज़ता हं । लेककन आसक़ एक दीसऱ पहली भा है । ऐसे मक़न म़ऽलक ऽजनकी बदौलत हा लोग ऄपने घर की ख्ि़ऽहश कर प़ते है। नहा तो लोग दय़ली प्रिुऽत्त के मक़न म़ऽलक के दोस्त़ऩ बत़टि के क़रण हा ऄपऩ घर नहं बनि़ प़ये। तो ककऱयेद़रं की आस पाड़़ मं हा िह कीड़़ छि प़ होत़ है जो ईन्हं ईनके मक़न की मऽजल तक पहुंच़त़ है। य़ना ऄगर कह़ ज़ए कक हर क़मय़ब ककऱयेद़र के पाछे एक क्रीर मक़न म़ऽलक क़ ह़थ है तो गलत नहं होग़। ~✽~ 448/733, ब़ब़ ब़लक द़स पिरम, ठ़कि रगंज, लखनउ, मो-09838565890 ISSN –2347-8764

मस्त़न की मस्ता मस्त़न हिसह

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व्यंग्य

ठग ज़ने की ठग भ़ष़ संजय जोशा

बसंत जा ऄपने क्षेत्र मं एक मिखर िक्त़ के रूप मं ज़ने ज़ते हं। ऽपछले तास िषं से देश - प्रदेश की ऱजनाऽतक नब्ज़ को समझने की कोऽशश करते रहं हं लेककन िे ऄभा भा आसे पीरा तरह से नहं समझ प़ए हं और हमेश़ ठगे से रह ज़ते है ऄक्सर परे श़न रहते हं कक अश्व़सन और ि़दं मं ठगऩ अऽखर कब तक चलेग़? झीठे अंकड़ो से जनत़ क़ मन कब तक बहल़ते रहंग? े ऽजसको भा चिऩ, देश को चीऩ हा लग़य़ य़ने कक ऄपिन सब ठगे रहं और लगत़ है कक ठग़ते हा रहंगे । ठग ज़ने ठग की भ़ष़, सभा माठे ठग है हम जनत़ तो खरबीजे की तरह है तलि़र खरबीजे पर ऽगरे य़ खरबीज़ तलि़र पर ऽगरे कर्ऩ तो खरबीजे को हा है । िे ऄपने ऄनिभि क़ स़ऱ ऽनचोड़ ऽनचोए ज़ रहे थे और हम ईनके ऄनिभि से ऄमुत ज्ञ़न की ईम्माद लग़ए बैठे थे । ठग और ड़की मं एक हा ऄसम़नत़ है ड़की हऽथय़र क़ ईपयोग करते है और ठग कदम़ंग क़, ड़की डकै ता करते है और ठग -ठगेऽत। ईदेश्य ऽसफट और ऽसफट ऄथट क़ संग्रहण करऩ। हिजदगा क़ एक हा मकसद -ऄथट ऽबऩ सब व्यथट है ऄथट के ऽलए ठगेऽत करऩ, आस कि नबे से जिड़े सब ये भला भ़ंऽत ज़नते है और समय समय पर ठगमन्त्र क़ ईपयोग करते है । झीठ बोलऩ प़प है कक कसम ख़कर झीठ पर झीठ बोलऩ आन्हं खीब भ़त़ है क्योकक चिऩि तो प़ंच स़ल ब़द अत़ है ऐस़ लगत़ है, जैसे ठगने क़ ल़आसंस ले ऽलय़ हो। ऄसफलत़ क़ ठाकऱ फोड़ने मं मह़रथ ह़ंऽसल होता है । कहने लगे जो ऽजतऩ माठ़ बोलत़ है िह सबसे बड़़ श़लान ठग की श्रेणा मं ऽगऩ ज़त़ है और लोगब़ग मन्त्र मिग्ध होकर कहते है कक क़म करं य़ न करं , प्य़र से ब़त तो करत़ है और िे माठ़ स़ अश्व़सन देकर कदल पर क़ऽबज होकर ठगेऽत कमट को चल़यम़न रखते है । और ऄपना इम़नद़रा क़ ऽबगिल तो आस तरह बज़ते है, लगत़ है कक ईनके ऄल़ि़ तिम्ह़ऱ ऽहतैषा कोइ हो हा नहं सकत़। हम ठग सकते है पर ठग़ नहं सकते के

ISSN –2347-8764

मिग़लते दीर करने मं भा कसर नहा छोड़ते, कभा उंर् पह़ड़ के नाचे तो अत़ है ईसा तरह ठग भा । िे कहते चले ज़ रहे थे कक हम हर जगह ठग़ते है और डॉ तो आमोशनल ब्लेकमेल कर आतऩ ठग लेते है कक कभा तो स्िग़टरोहण हो ज़त़ है और पत़ हा नहं चलत़ । झीठ कहे सो लड्डी ख़य स़ँच कहे सो म़ऱ ज़य, कभा -कभा आन ठगेतो से आतऩ परे श़न हो ज़ते है कफर भा क्य़ करं , भगि़न के ब़द आन पर ऽिश्व़स करऩ मजबीरा है । ठगऩ भा -ज़दी है -ज़दी िहं, जो ऽसर चढ़कर बोले । धमट गिरु भा ऄपने-ऄपने तराकं से ठगऽन्त कर हा लेते है ऄच्छे-ऄच्छे पढ़े ऽलखे भा सम्मोहन के ऽशक़र हो ज़ते है और सब कि छ लिऱ्ने को तैय़र हो ज़ते है यहं तो ठगने की कल़ है । ठग के तराके और पररध़न ऄलग हो सकते है पर मिख्य ईदेश्य तो ठगऩ और द़न के ऩम पर करोड़ो लेकर चेरैर्ा क़ ढंग करऩ और अशाि़दट के ऩम पर ब़ब़जा ठि ल्ली देकर आऽतश्रा कर लेते हं । ठग सिटत्र प़ए ज़ते है हर फील्ड मं ठगऩ सिोपरर हो गय़ है, ठग पग –पग पर ऽमलने लगे है शोरूम से मॉल तक । ठगने के ऄपने ऄपने द़ंि है, एक के स़थ एक िी 70 से 80 प्रऽतशत ऽडस्क़ईं र्, झिठे ि़दे। झीठे द़िे, मखमला अश्व़सन, प्य़रे ख्ि़ब, आमोशनल ब्लैकमेल की कल़, कथना और करना मं ऄंतर, गिड़ ख़ए और गिलगिलं से परहेज, समय अने पर पलर्ने की कल़, पहले पोषण की ब़त और ब़द मं शोषण यह सब ठग ऽिद्य़ की पऱक़ष्ठ़ है । घोषण़ पत्र बऩम ठगने क़ ऽचट्ठ़ । हर दल मं दल –दल सब एक दीसरे को म़त देने को बेकऱर रहते है सब ठग है, ठग हा ज़ने ठग की भ़ष़ । हम क्य़ ज़ने ठगेऽत, हम तो ज़ने मॉल खरादऩ और िोर् देऩ और ब़द मं सर पार्ऩ । ~✽~ 78, गिलमोहर क़लोना रतल़म [म.प्र]

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

व्यंग्यक़ररत़ के ऽबग-बॉस और मठ़धाशत़ ! ऱजेश सेन

व्यंग्यक़ररत़ के ‘ऽबग-बॉस’ एक लम्बे-से ऩि निम़ सोफे पर ऽिश्ऱम फरम़ रहे थे । प़स हा र्ेबल पर रखे रे ऽडयो पर गात बज रह़ थ़ ‘चिपके -चिपके ऱत-कदन अंसी बह़ऩ य़द है...हमको ऄब-तक अऽशकी क़ िो जम़ऩ य़द है !’ िे गात के ममट मं खोए छत पर र्कर्की गड़ए ऄपने पिऱने कदनं को य़द करने लगे। पिऱने-कदन य़ने कक ऄपऩ ऐश्वयटश़ला ऄतात। ऄतात होत़ हा ऐस़ है माठे ख़ज के जैस़ । ईसे ऽजतऩ खिज़ओ ईतना माठा कऽशश देत़ है। एक ऄंतहान कऽशश । ईसे ब़र-ब़र य़द करने य़नेकक खिज़ने क़ मन होत़ है । ईनकी पिऱना य़दं मं ऄपने प्ऱरं ऽभक लेखन क़ल के संघषट क़ ऽपऱ्ऱ जो छि प़ थ़ । और ईस ऽपऱ्रे मं रखा ऄच्छे –कदनं की ऱयल्र्ा को िे अज तक भिऩ रहे थे । िे पहले-पहल एक संघषटशाल निोकदत लेखक थे । ऄनगढ़, लऽलत ऽनबंध ऱ्आप लेखक । मगर कफर िे बाते कल मं लेखन जगत की एक ऩमचान सनसना बन गए । स़ऽहत्य़क़श के ईदायम़न नक्षत्र। और अज ...? अज िे ऽलक्ख़ड़ जगत के स्ियं-भी किकग-मेकर हं। नए और मध्यम ग्रंऽथ ि़ले लेखकं के अदशट गॉड-फ़दर । ईनके अलोचक ईन्हं लेखन जगत मं मठ-मठ़धाशा, जोड़ऽतकड़म और चेल-े चप़र्ा बऩने के ‘रट्रकी-ईस्त़द’ कहते हं। ईनके चेल-े चप़र्ा ईन्हं ‘ऽबग-बॉस’ के ऩम से पिक़रते हं । और िे आन ईप़ऽधयं के स्ियं-भी नशे को अत्म़ की गहऱइ तक ऄपने ‘इगो’ के रूप मं जाते हं । िे आस नशे को न ऽसफट जाते हं, बऽल्क जरुरत-बेजरूरत ख़ते-पाते और ओढ़तेऽबछ़ते भा हं । िे गात के ममट मं पीरा तन्मयत़ से डी बे भा नहं थे कक दरि़जे पर हडबड़हर् से सऱबोर एक दस्तक होता है । िे अश्वऽस्त से सोफे पर लेर्े-लेर्े हा कहते हं –‘कम आन प्लाज, मने कक अ ज़ओ भ़इ !’ ईनक़ ये अदेश सिनते हा ल़परि़हा से दरि़ज़ धककय़ते हुए एक लंब़ और एक ऩऱ् कद क़ अदमा भातर प्रिेश करते हं । ईनकी शक्ल देखकर कोइ भा सहज ऄंद़ज़ लग़ सकत़ है कक ये सभ्यजन ककसा सभ्य-ऽिध़ के ऄऽभज़त्य गिंडे-मि़ला लोग हं । और ऄंद़ज़़ लग़ने ि़ले क़ ऄंद़ज़ आस म़यने मं सहा भा ऽसि होत़, क्यंकक िे दोनं ि़कइ ऽबग-बॉस के परम चेले ‘सिरेश और रमेश’ जो थे। ऽबग-बॉस के द़एँ-ब़एँ सेिकगण। ईनकी िचटस्िा व्यंग्य मठ़धाशा की ऽिऱसत के एकमेि ऽिऱसत-द़ं । ऽजनक़ क़म के िल और के िल ऽबग-बॉस को ISSN –2347-8764

खिश रखकर ईनके अदेश क़ ऄंध प़लन करऩ भर थ़। िे ऽबग-बॉस के अदमा, सेिक, खबरचा, एजंर् से लग़कर िे सब कि छ थे जो िे च़हते तो स़ऽहत्य की सेि़ के ऽलए भा हो सकते थे, मगर ऄपने ि स़ऽहत्य के दिभ़टग्य से िे कतइ थे नहं । िे के िल और के िल ऽबग-बॉस के ऽलए क़म करते थे। और ऽबग-बॉस कऽथत तौर पर स़ऽहत्य की सेि़ के ऽलए क़म करते थे । जबकक स़ऽहत्य ईन तानं के ऽलए क़म करने को ऄऽभशप्त थ़। ऄब चीँकक लोक-लेखकीय कदख़इ के ऽलए बाच-बाच मं ऽबग-बॉस को स़ऽहत्य की सेि़ भा करना होता था, ऄतः ईन्हं खिद को स़ऽहत्य के परम सेिक के रूप मं स्थ़ऽपत करऩ ऽनत़ंत अिश्यक थ़ । और स़ऽहत्य जगत मं ऄपने स्थ़पन के ऽलए ईन्हं एक ऄदद मठ को स्थ़ऽपत करने की जरुरत अन पड़ा था, ऽजसके बिजट पर खड़े होकर िे स़ऽहत्य की ऽिजय पत़क़ को ऽनह़र सकं । जबकक मठ स्थ़ऽपत करने के ऽलए ईन्हं कि छ चेले-चप़रर्यं की जरुरत पड़ता था, जो ऽबग-बॉस के आस मठ़धाशा प्रकल्प मं ईनक़ ह़थ बऱ् सकं । समय-समय पर ईनक़ मऽहम़मंडन कर सकं । जरुरत पड़ने पर ईनक़ जोरद़र जयक़ऱ लग़ सकं । ईन्हं कदन-ऱत स़ऽहत्य जगत क़ ऄजेय -योद्धा िताकर चक्रवती सम्राट के रूप मं प्रचाररत कर सकं । ईनके मठ के ऽलए जरुरत पड़ने पर नये-नये लेखक छोकरं की चेले-पट्ठं के रूप मं फ़ौज तैय़र कर सकं । रमेश-सिरेश आस भीऽमक़ के ऽलए सि-योग्य प़त्र होकर ऽबग-बॉस के ख़़स ऽिश्वसनाय अदमा थे । रमेश-सिरेश ने ऽबग-बॉस के कमरे के भातर प्रिेश करते हा बगैर एक भा स़ंस ऽलए समिेत-स्िर मं बिदबिद़य़ –‘ऽबगबॉस ऽबग-बॉस ! व्यंग्य की दिऽनय़ मं ऄभा-ऄभा एक नय़ छोकऱ अय़ है । बहुत ऄच्छ़ ऽलखत़ है । ईसकी पैना कलम मं बल़ की ध़र है । िह सप़र्बय़ना भा नहं करत़ है । और तो और सरोक़रा लेखन भा कर लेत़ है । िह व्यंग्य़क़ररत़ के ककसा ऄन्य मठ से भा नहं जिड़ है । क्य़ हम ईसे ऄपने मठ मं भती करने के ऽलए ईस पर डोरे ड़ल सकते हं ?’ रमेश-सिरेश को भरोस़ थ़ कक ऽबग-बॉस ये खबर सिनकर बहुत खिश हंगे। ईन्हं श़ब़शा दंगे । मगर ऽबग-बॉस ने ईलर्े ईन दोनं को डपर्ते हुए कह़ –‘तिम दोनं आतने बड़े हो गए मगर ऄक्ल से तिम्ह़ऱ हो गए मगर ऄक्ल से तिम्ह़ऱ अज तक भा प्ऱरं ऽभक स़क्ष़त्क़र नहं हो सक़ है।

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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ईम्रदऱज होने पर भा रहे िहा ऽनरे के ऽनरे ढपोल-शंख हा । ऄरे मिख़टनंदं, आस शिभ क़म को करने के ऽलए भा अज्ञ़ लेने अने की जरुरत था क्य़ ? ऄभा तक तो ऄपऩ क़म शिरू कर ऽनबऱ् भा देऩ थ़ । ऄपना मिखटत़ मं समय न गंि़ते तो हो सकत़ है ऄब तक ईस मछला को ज़ल मं फ़ंस भा चिके होते । ऄब मेऱ मिँह क्य़ तक रहे हो, तिरंत ज़ओ और यह शिभ क़म ऄऽिलम्ब ऽनबऱ्कर अओ ।’ यह सिनकर रमेश-सिरेश के मिद्द़म हा मिँह ईतर गए । ईन्हं ईम्माद नहं था कक आतना ऄच्छा ब़त सिनकर भा ऽबग-बॉस हम पर खिश नहं हंगे, ईलर्े ऩऱज़ हो ज़यंगे । ईन्हंने ऽबग-बॉस को सफ़इ देते हुए समझ़य़ –‘ऽबग-बॉस ऐस़ कि छ नहं है, िो ब़त ये था कक कइ ब़र नए लड़के भले ऄख़ब़रं मं रोज-रोज छप रहे होते हं, मगर होते सप़र्बय़ना हं । ईनके व्यंग्य मं क्य, ऽशल्प, व्यंजऩ, ऄऽभध़, ऽिम्ब और रूपक जैसे व्यंग्य अिश्यक तत्िं क़ बड़़ लोच़ होत़ है । ऐसे लोगं को ऄपने मठ मं भती कर लेऩ मठ की श़न के ऽखल़फ हो सकत़ है । ह़ल़ँकक ये लड़क़ आन सब खीऽबयं से पररपीणट नज़र अत़ है । कफर भा सोच़ अपसे पहले आज़जत ले ला ज़ए ।’ आस ब़र ऽबग-बॉस ने ईन्हं पररिक्वत़पीिटक धैय-ट ध़रण कर समझ़ते हुए ईनक़ ज्ञ़न पररम़र्मजत ककय़ –‘देखो ऐस़ है कोइ लेखक सप़र्बय़ना हो य़ ऄल्प-ऽिकऽसत, आससे हमं कोइ फकट नहं पड़त़। हम़ऱ के िल एकमेि लक्ष्य है ऄऽधक से ऄऽधक नए लेखक छोकरं को ऄपने मठ मं भती करऩ और मठ की िचटस्िा त़द़द बढ़़ऩ। ऄब ईस सप़र् लेखक को एक स्थ़ऽपत लेखक ऽसि करि़ऩ, य़ ईसके सप़र्बय़ना लेखन को उँचे दजे क़ लेखन ऽसि करऩ, यह हम़रे ब़एँ ह़थ क़ क़म है । आसा के तो हम ‘रट्रकी ईस्त़द’ हं । हम ईसे ईभरता प्रऽतभ़ क़ एक़ध सम्म़न कदलि़कर ईसे ऄपने मठ क़ होनह़र लेखक कभा भा ऽसि कर सकते हं। बस थोड़े बहुत मऽहम़मंडन की दरक़र होगा, िह खिद-ब-खिद ऽसि व्यंग्यक़र कह़ने लगेग़ । हमं तो बस ककसा भा कीमत पर ऄपने मठ मं ऄऽधक से ऄऽधक संख्य़ बल ISSN –2347-8764

च़ऽहए, त़कक ईनके सपोर्ट ि मऽहम़मंडन को हम भऽिष्य मं ककसा ऱष्ट्राय पिरस्क़र के पक्ष मं ऄपने ऽलए म़हौल बऩकर भिऩ सकं । व्यंग्यक़ररत़ की दिऽनय़ मं बरसंबरस चक्रिती सम्ऱर् की तरफ ऱज कर सकं । और कफर तिम दोनं ये क्यं भील ज़ते हो कक तिम भा तो अज तक नारे सप़र् लेखक हा हो । तम़म तरह क़ आत्र लपेर्कर भा अजतक तिम्हं सम्म़नजनक गध़ तक नहं बऩय़ ज़ सक़ है । मेरा ऄर्मजत गिडऽिल क़ कलेि़ ख़-ख़कर अऽखर तिम लोग कब तक व्यंग्यक़ररत़ की दिऽनय़ मं व्यंग्यक़र बने रहोगे। िो तो गनामत है मेरे मठ से जिड़कर तिम्ह़ऱ कि छ ऩम-ि़म बऩ हुअ है। िऩट तिम दोनं के लेखन को कोइ कौड़ा स़ठे नहं पीछत़ । ब़त समझ मं अइ य़ नहं अइ, मिख़टनंदऽशरोमऽणयं ।’ रमेश-सिरेश ने तत्क़ल सहमऽत मं ऽसर ऽहल़य़। ऽबग-बॉस की ड़ंर् भा ईनके ऽलए खिद़ क़ फरम़न जो होता है । िे ऽबगबॉस क़ मंतव्य भला-भ़ंऽत समझ चिके थे । मगर कफर भा एक ऽजज्ञ़स़ रमेश के मन मं कि लबिल़ रहा था। ईससे रह़ नहं गय़। ईसने ऽबग-बॉस से एक सि़ल पीछ हा ड़ल़ –‘ऽबग-बॉस ये सब ब़त तो ठाक है, मगर अप ये बत़एं कक नये-नये लेखक छोकरं पर डोरे ड़लने क़ अस़न और ऄनिभीत तराक़ क्य़ है ?’ ऽबग-बॉस ने रमेश की ऽजज्ञ़स़ क़ सम़ध़न यह कहते हुए ककय़ कक –‘देखो ऐस़ है रमेशजा, ककसा मठ की सफलत़ के ऽलए अिश्यक है कक हम़रे ऽिश्वसनाय लोग स़मीऽहकत़ की भ़िऩ के स़थ प्रोफे शनल होकर अगे बढ़ं । ईसके ऽलए हमं छोर्ा-छोर्ा ‘दिकड़ा-ऽतकड़ा’ र्ि कऽडय़ं बऩकर एक दीसरे के लेखन क़ मऽहम़ग़न करऩ होत़ है । सतत एक दीसरे के पक्ष मं म़हौल बऩऩ पड़त़ है । त़कक नए लोगं को लगे कक स़ऽहत्य जगत मं के िल ये लोग हा ऄग्रणा और स्थ़ऽपत लेखक हं । िहा ँ ऄन्य महता लेखकं के ऩम हम़रे मऽहम़मंडन के हो-हल्ले मं दब-छि प कर रह ज़ऩ च़ऽहए । तब ऄन्य लेखक भा हम़रे अभ़मंडल के िशाभीत होकर हम़रे प्रभ़ि िल्य मं स्ितः खंचे चले अयंगे । आस क़म ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

के ऄल़ि़ कि छे क छोर्े-मोर्े र्ोर्के भा निऽलक्ख़डं को ररझ़ने के ऽलए अजम़ए ज़ सकते हं, जैसे –सोशल माऽडय़ पर कोइ नय़ लेखक छोकऱ ऄपना प्रक़ऽशत रचऩ ड़ले तो ईस पर आस ऄंद़ज़ मं ईसकी कमाबेशा को सिध़रने ि़ला र्ाप ड़लो त़कक ऄन्य मठं के लेखकं को ये लगे कक यह हम़रे हा प़ले क़ ऽखल़डा है । और ईस छोकरे को भा लगे कक हम हा ईसके सच्चे खैरख्ि़ह हं । एक ब़र जब ईस पर हम़रे मठ क़ ठप्प़ लग ज़एग़, और ईसक़ हम पर ऽिश्व़स गहऱ ज़एग़, तो कफर हमसे जिड़कर रहऩ ईसकी ऽनयऽत हो ज़एग़। कफर िह ककसा ऄन्य मठ की ईड़़न नहं भर सके ग़। कभा-कभा फे सबिक पर ईसकी पोस्र् को भा शेयर करते रहो। ईसक़ म़न बढ़़ते रहो । ईसके लेखन पर सद़ ऄपना प्रशंस़-बोधक रर्प्पणा ड़लते रहो। ईसकी पोस्र् पर कोइ ऽिपरात रर्प्पणा करे तो ईसक़ खिलकर प्रऽतक़र करो । दरऄसल, ये िे छोर्े-मोर्े र्ोर्के हं रमेश-सिरेश, जो श्रमस़ध्य तो हं मगर मठ़धाशा की के नि़हिसग के प्ऱथऽमक और ऄनिभीत सीत्र हं । आन्हं अजम़ते रहंगे तो सफलत़ ऽमलऩ एकदम तय है । तभा सिरेश ने भा ऄपना ऽजज्ञ़स़ प्रकर् की –‘एक ऄंऽतम प्रश्न पीछऩ है ऽबग-बॉस ! हम़रे मठ के लेखकं की ऽशक़यत रहता है कक हमं ऽबग-बॉस कभा कदख़इ नहं देते ? िे सदैि गिमऩमा के पदं की औंर् मं छि पे रहते हं, ईन्हं हम क्य़ जि़ब दं ? ऽबग-बॉस ने सिरेश के ऄज्ञ़न को ऽशऽक्षत करते हुए कह़ -’ईनसे कऽहए, ऽबग-बॉस ईन्हं नहं कदख़इ देते तो क्य़ हुअ, ऽबगबॉस को ईनके जरे -जरे की खबर रहता है। जो हो रह़ है िह ऄच्छे के ऽलए हो रह़ है, और जो होग़ िह भा ऄच्छे के ऽलए हा होग़ ! तथ़स्ति !!! आतऩ कहकर ऽबग-बॉस ऄपने सिख-स्ि​िं के संस़र मं दोब़ऱ ऄंतध्य़टन हो गए । िे कफर एकर्क होकर छत को ऽनह़रने लगे। रे ऽडयो पर बज रह़ गात ऄपऩ संदश े ा प्रभ़ि छोड़कर ऄब ऽिऱम प़ चिक़ थ़ । ईधर, ऽबग-बॉस क़ ये कदव्य-ज्ञ़न सिनकर रमेश और सिरेश खड़ेखड़े हा धन्य हो ऽलए थे। ~✽~ 75, ऄऽम्बक़पिरा एक्सर्ंशन, एरोिम रोड, आं दौर

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व्यंग्य

सफ़र मं ऄखब़र ऄरऽिन्द खेड़े

ग़ड़ा लोकल हा था । आधर लोकल से मतलब होत़ है कदम-कदम पर रूकने ि़ला । और छोर्े-मोर्े स्र्ेशन पर रुककर सि़ररयं की लम्बा प्रताक्ष़ करनेि़ला । और जब तक ऄन्दर ठीं सा-ठं सा सि़ररय़ं ख़ुद ऄपऩ सर फोड़ते हुए ऽमन्नतं न करने लग ज़ए कक, “भ़इ ऄब चलो भा ।” ढेड़ ब़य ढेड़ की सार्ं, जो दो ब़य दो क़ ज़दी ऽबखेर रहा था । सार्ं पर सि़ररय़ं धंसा-दिबकी बैठा था, जो सार् ऽमलने की ख़ुशा कम, दिःख ज्य़द़ मऩ रहा था । ईनक़ ऐस़ म़नऩ थ़ कक ऐसे ऽसकि ड़ कर बैठने से खड़े-खड़े और लर्कते हुए सफ़र करऩ कहं ज्य़द़ ऄच्छ़ है । बाच ऱस्ते ि़ले स्थ़न पर सि़ररय़ं लर्क-झर्क रहा था । अगे के दरि़जे पर खड़़ पररच़लक सि़ररयं को अगे की ओर धके ल रह़ थ़। पाछे के दरि़जे से पररच़लक क़ सह़यक भा यहा क़म कर रह़ थ़ । बाच-बाच मं च़लक भा ऄपना गदटन घिम़कर ईन दोनं मं हि़ भर रह़ थ़, कक देखं पाछे पीरा ग़ड़ा ख़़ला पड़ा है । दोनं ओर से भेड़-बकररयं की तरह घके ले ज़ने के ब़द ऽस्थऽत यह हो गया था कक, प़ंि धरने को जगह न बचा था, प़ंि एक-दीसरे के ईपर पड़ रहे थे । ऐसा मदहोशा की ऽस्थऽत मं ऽखड़की की ओर सिरऽक्षत धंस़ हुअ ऄपने कपड़ं की आस्तरा को बच़ने के चक्कर मं ऐंठ़-स़ बैठ़ थ़ । मं ईसके ठाक बगल मं, अधा सार् पर मेरे शरार अ अध़ ऽहस्स़ सार् की पहुंच के ब़हर थ़ । भइ ! मिझे तो सार् ऽमलने की जो तसल्ला था, ईसक़ क्य़ कहने ? क्यंकक मेऱ म़नऩ है कक हम़रे देश मं अस़ना से सार् क़ ऽमल ज़ऩ परम सौभ़ग्य म़ऩ ज़त़ है । बस चल पड़ा था । ऄब ईसने ऄपने झोले मं से ऄखब़र ऽनक़ल ऽलय़ थ़ । जब ईसने ऄखब़र ऽनक़ल़ थ़ तो, मिझे ईम्माद जगा था कक, जब िह फै ल़कर पढेऺग़ तो मोर्ा-मोर्ा खबरं मं भा पढ़ लीग़ं। ज़न लीग ँ ़ कक, अज कश्मार घ़र्ा मं हिहस़ और झड़प की ि़रद़तं हुइ होगा य़ नहं ? पड़ोसा देश ISSN –2347-8764

ऄपना प़क-ऩप़क हरक़तं से ब़ज अय़ होग़ य़ नहं? अज लोक़यिक्त मं बेच़ऱ कौन ग़राब-गिरब़ धऱय़ होग़? फ़जीि़ड़ं के म़स्र्र-म़इन्डं को जम़नत ऽमला होगा य़ नहं? अज दऽलतं के स़थ म़रपार् से हा तो संतोष नकर ऽलय़ हो? ईन्हं नग्न कर घिम़य़ भा होग़ य़ नहं ? अज लीर्प़र् की कह़ँ घर्ऩएँ हुइ होगा? कजट से परे श़न अज ककसा ने फ़सा लग़इ होगा य़ नहं? अज ड़क्र्रं न हड़त़लं की होगा य़ नहं? कहं जनना ि़हन आतना जल्दा न पहुँच गय़ हो कक ि़डट मं हा प्रसीऽत न हो गइ हो? य़ कहं जनना ि़हन समय पर पहुँच गया होगा तो... बेच़रा प्रसीत़ ब़ररश और कीचड़ मं प़ंच-छः ककलोमार्र पैदल चलने से िंऽचत न रह गया है ? य़ मुत पत्ना के शि को कं धे पर रख ब़रह ककलोमार्र तक बेच़ऱ पऽत पैदल न चल़ गय़ हो ? संघा-जनसंघा की अपसा खंचत़न मं सत्य और ऄहिहस़ के चाथड़े- चाथड़े न हो गए हो? ऽज़म्मेद़रं ने एक दीसरे पर क़ऽलखकीचड़ पोता होगा य़ नहं ? आस तरह की ख़बरं जब तक पढ़ न लीँ, मन बड़़ हा बैचैन रहत़ है । डर सत़ने लगत़ है कक कहं ऽिदिर ब़ब़ ..ओह सॉरा ऽिधिर ब़ब़ की धिल जब़न फलाभीत न हो गया हो ? कहं ब़ब़ की भऽिष्यि़णा सच न हो गया हो ? कक कहं सचमिच ऄच्छे कदन न अ गए हो ? हिचत़ सत़ने लग ज़ता है कक आन ऄच्छे कदनं मं मं स़ँस कै से ले प़उँग़ ? कै से ऽज़न्द़ रह प़उंग़ ? ईसने मेरा मिफ्त के म़ल क़ मज़ लेने की ऽनयत को भ़ंप ऽलय़ थ़ । कह़ कि छ नहं, ऽसफट देख़ । ईसने ऄखब़र क़ पन्ऩ खोल़, मंने नजरं ईठ़इ था । लेककन यह क्य़ ? ईसने मोड़ कर अध़ ऽहस्स़ ऄखब़र के पाछे ऽचपक़ कदय़ । मेरा नजर ऽसकि ड़ गया । कफर ईसने अधे ऽहस्से को ईपर की ओर मोड़ कदय़। यहं तक नहं रूक़, कफर अध़ ऽहस्स़ मोड़ कदय़। ऄखब़र ऄब ए-फोर स़इज मं ऽसमर् कर रह गय़ थ़ और मेरा नजरं से

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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ओझल हो गय़ थ़ । कदन दह़ड़े डंके की चोर् पर मिझे मीखट बनते देख ईसने मेरा ओर ऄपना नजरे ईठ़इ, और यीं देख़ ‘‘ऄपना ऄंर्ा से पीरे ऄढ़इ रूप्ये खचट कर खराद़ है । और अप फोकर् मं पढ़ लोगे ? म़ऩ कक अप हज़रं रूप्य़ खचट करने क़ म़द्द़ रखते होगं । लेककन ऄखब़र पर ऄढ़़इ रूप्य़ खचट करो तो ज़ने ? कलेज़ सीख ज़त़ है जऩब ।’’ िह ऄढ़़इ रूपय़ खचट करने की बह़दिरा और िारत़ के ज़ोश से भर ईठ़ । िह मिझे यीँ देखने लग़ थ़ जैसे ऱतं-ऱत कदि़ऽलय़ हो गय़ हूँ । पहले मेरा ऑंखं ऽसकि ड़ा, कफर छ़ता, कफर शरार की स़रा नसं । सफर मं ऄखब़र पढ़ने की धमक और ध़क क्य़ होता है ? यह अज मंने ज़ऩ थ़ । अप देश के सबसे बड़े ऽज़म्मेद़र और ज़गरूक ऩगररक म़ने ज़ते हं । ऄखब़र मं ऄपने अस-प़स की, ऄपने क्षैत्र की, प्रदेश की, देश, की और दिऽनय़ं-जह़न की खबरं अता है। अपक़ बौऽिक स्तर जमान से साधे असम़न छी लेत़ है । अप असप़स बैठे लोगं की ऽनग़ह मं खिद को तौलने लग ज़ते हो । ईनकी ओर यीं देखते हो, ‘‘हमं क्य़ ऄइस़-िइस़ ईठ़आऽगर समझ रख़ है? सब की खबर रखते हं । सब पे नजर रखते हं । क्य़ देश ? क्य़ परदेश ? दिऽनय़ं ऄपना मिट्ढा मं ।’’ ईसा अक़र-प्रक़र मं ईसने पीऱ ऄखब़र पढ़ ड़ल़ थ़ । छोर्े-बड़े िगीकु त ऽिज्ञ़पनं तक, बरसं से लेकर ईठ़िनं तक । पश्च़त ईसने अऽहस्त़ से ऄखब़र को व्यिऽस्थत ककय़ और सहेज कर ि़पस ऄपने झोले मं झर् से रख ऽलय़ थ़ कक, कहं मं यह समझ कर म़ंग न बैठी कक ऄब आसमं बच़ क्य़ है ? ऄब यह रद्दा हो गय़ है । कफर ईसने मेरा ओर यीं देख़, ‘‘क्य़ बोलते हो?’’ ज्ञ़ऩजटन के त़प से ईसक़ मिख मंडल दमकक-दमक कर मिझसे कह रह़ थ़ कक, ‘‘कि छ बोलो प्रभि? बोलता क्यं बंद हो गया?’’ ऄब मिझे बैचैना होने लगा था । घबऱहर् बढ़ा । मऽहनं क़ भीख़-प्य़स़ यकद एक बैठक मं हा गले-गले तक जाम ले तो ऄपच होऩ स्ि़भ़ऽिक है। िमन की प्रबल ISSN –2347-8764

संभ़िऩ से आं क़र नहं ककय़ ज़ सकत़ थ़ । मंने सार् बदलने के ऽलए अस-प़स नजरं दौड़़इ और पल भर की देरा ककये ऽबऩ पाछे ख़ला सार् पर बैठ गय़ थ़ । ऄब मं ईसके िमन और दमन दोनं से मिक्त थ़। ऄब िह क़र्ऩ च़हे तो, द़ंत नहं होने की ऽस्थऽत मं थ़। हतप्रभ और हतभ़गा । ऽहचकोले ख़ता ग़ड़ा मं भेड़बकररयं की तरह ऽमऽमय़ते शोर मं श़ंत और एक़ग्रऽचत्त होकर ऄखब़र पढ़ऩ क्य़ हंसा खेल की ब़त है? ईसकी आस कष्टस़ध्य तपस्य़ क़ एक म़त्र मं स़क्षा थ़। गि़ह ने देख़ सब, ज़ऩ सब और एनिक्त पर ऄपना गि़हा से मिकर गय़ थ़ । अज ईसने ज़ऩ कक, दोषा बच क्यं ज़ते हं? ऄपऱधा छी र् क्यं ज़ते हं ? बचकर और छी र्कर ख़ुलेअम ईत्प़त क्यं मच़ते हं? व्यिस्थ़ आतना ल़च़र क्यं है? ह़ल़त आतने लचर क्यं है ? िह ऄपने हा ह़थं से तोते ईड़़ने की गलता कर चिक़ थ़ । मिझ जैसे दग़ब़ज गि़हं के क़रण हा देश अज गतट मं ज़ रह़ है । ईसे बेहद ऄफसोस हो रह़ थ़ कक, ईसने मिझ जैसे झीठे और फरे बा गि़ह के दम और भरोसे पर सफर मं ऄखब़र पढ़ने क़ ऄपऱध कर ड़ल़ थ़। आस देश मं मिझ जैसे लोग रहंग,े तब तक देश क़ कि छ भा भल़ नहं हो सकत़ ? देश के ऄसला दिश्मन कोइ ब़हरा नहं, ऄन्दर हा है । मं ज़नत़ थ़, यह एक किं रठत अदमा क़ अत्म-प्रल़प भर है जब तक कदल ब़गब़ग हो तो पतझर के मंजर भा सिह़ने लगते हं और ऄन्दर बसंत न हो तो चर्क कऽलय़ँ भा चिभता है । ‘‘ऄब ती भिगत । बड़़ सय़ऩ बन रह़ थ़ न? कर बैठ़ न ऄपऩ ह़जम़ खऱब ? घर मं बाबा-बच्चे तीझे ईगलने नहं देने । श़म को चौप़ल पर तीझे कदन भर के ऄघ़ये और भन्ऩएं लोग ऽमलेगं । कह़ं बच के ज़एग़ बच्ची ?’’ ‘‘ऄब आसने क्य़ ककय़ क़ऽलय़ ? ’’ ‘‘सरद़र, अज आसने ऄक्ख़ ऄखब़र ब़ँच ड़ल़ है । ’’ ‘बस्स...... ।” आससे अगे सरद़र एक भा शब्द नहं सिनेग़। तत्क़ल ठोक देग़, ‘‘ऄब आसे ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

जिल़ब की गोऽलय़ं ऽखल़ क़ऽलय़।’’ कफर ऄपना गदटन घिम़कर ऄपना हंसा को रोकने क़ भरसक प्रय़स करे ग़ । लेककन, सरद़रं की हंसा कभा रूकी है क्य़ ? िह ऄपना गदटन गड़ए जमान मं थ़ । ~✽~ 20, श्रा ऽिऩयक कि न्ज कॉलोना, म़ंडी रोड़, ध़र, ऽजल़-ध़र, मध्यप्रदेश– 454001 मो. नंबर- 09926527654

ऄल्हड़ बाक़नेरा हफ़्तं ईनसे ऽमले हो गए ऽिरह मं ऽपलऽपले हो गए सदके जीड़ं की उँच़इय़ँ सर कइ मंऽजलं हो गए ड़ककए से ‘लि’ ईनक़ हुअ खत हम़रे ‘ऽडले’ हो गए परसं श़दा हुइ, कल तल़क क्य़ ऄजब ऽसलऽसले हो गए ईनके ि़दं के उँचे महल क्य़ हि़इ ककले हो गए नौकरा रे ऽडयो की ऽमला

गात ईनके ‘ररले’ हो गए ह़ऽशये पर छपा जब ग़ज़ल दीर ऽशकिे-ऽगले हो गए

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व्यंग्य

बड़े ब़बी ईफ़ट सड़े ब़बी ऄशोक गौतम

बड़े ब़बी ईफट सड़े ब़बी ऽजस तरह से ररऱ्यरमंर् से पहले जनत़ की फ़आलं ऄपना जंऽगय़इ ऄलम़रा के नाचे छि प़य़ करते थे िैसे हा ररऱ्यरमंर् के ब़द िे ऄपना फ़आल भा यमऱज के ऑकफस मं ऽछपि़ने मं क़मय़ब हो गए। भ्रष्ट़च़रा कह़ं नहं स़हब ! ककसा भा लोक मं चले ज़ओ । िह़ं कोइ ऽमले य़ न पर भ्रष्ट़च़रा जरूर ऽमल ज़एंगे जेबं मं झ़ंकते हुए। आसा क़ नताज़ थ़ कक ईनके स़थ ि़ले ईनके दफ्तर के इम़नद़रा के ब़द भा यमऱज की नजरं मं एक एक कर अते रहे और पंशन पत्ना के ऩम कर ज़ते रहे। पर िे जमे रहे तो जमे रहे। ईस कदन यमऱज पत़ नहं क्य़ ढी ंढ रहे थे कक ऄच़नक ईनके ह़थं से बोफोसट घोऱ्ले सा बड़े ब़बी की फ़आल अ र्कऱइ। ईन्हंने ईसकी धील झ़ड़ा तो देख़ कक ये तो बड़े ब़बी की च़र स़ल पहले एक्सप़यर हो चिकी फ़आल है। जब ईन्हंने फ़आल ध्य़न से खोला तो हैऱन रह गए कक आस बंदे को तो फ़आल के ऽहस़ब से ईसके प़स च़र स़ल पहले अ ज़ऩ च़ऽहए थ़। घोर ऄनथट हो गय़! आतना बड़ा भील ईनसे कै से हो गइ ईनसे? कहं िे भा ररऱ्यरमंर् पर ज़ने क़ऽबल तो नहं हो गए? लगत़ है ऄब ऄपने ऽलए मुत्यिलोक से य़दद़श्त बऩए रखने के ऽलए शंखपिष्पा मंगि़ना हा पड़ेगा। य़ कफर ब्ऱह्मा क़ सेिन करऩ पड़ेग़। बड़ा देर तक पश्च़त़प की ऄऽग्न मं जलते हुए तब ईन्हंने ऄपने दीतं को अदेश कदय़,‘ ऽमत्रो! मुत्यिलोक के प़ना महकमे से ररऱ्यर बड़े ब़बी को क़यदे से च़र स़ल पहले अ ज़ऩ च़ऽहए थ़। िे तो नहं अए पर अप लोगं ने भा मिझे आस ब़रे मं नहं बत़य़?’ ‘सर! हम कै से बत़ते? स़ऱ ररक़डट तो ऽिनोद सर के प़स है। हम तो बस अपके और ईनके अदेशं की त़ऽमल करते हं।’ ‘तो आसक़ मतलब ईस कमाने ररक़डट कीपर ने भा हमं नहं बत़य़। कहं िह बड़े ब़बी से ऽमल़ तो नहं होग़?’ ISSN –2347-8764

‘सर हो भा सकत़ है और नहं भा। पर ऄसल मं सब ब़बी होते एक से हं। पर चलो, कोइ ब़त नहं। अपक़ आतऩ बड़़ स़म्ऱज्य है। ऐसे मं गलता तो हो हा ज़ता है।’ ‘तो ऄब ऐस़ करो। ऽजतना जल्दा हो सके , बड़े ब़बी को ले अओ। ईन्हं ऐस़ न लगे कक िे अज तक जनत़ क़ तो ईल्ली बऩते हा रहे, ऄब मेऱ ईल्ली बऩने मं भा क़मय़ब हो गए हं।’ और यमऱज के अदेश प़ दीत कदल्ला के प्रदीषण क़ ख्य़ल रख गधे को लेकर धरता पर अए और ईस पर बड़े ब़बी को लेकर यमलोक के ऽलए रि़ऩ हो गए। बेच़रं को ककसा से ब़त करने क़ मौक़ भा न ऽमल़। जैसे हा िे यमलोक को की च ककए तो स़ऱ मिहल्ल़ हतप्रभ रह गय़। हद हो गइ य़र ! बंदे ने ज़ने क़ पत़ तक न कदय़। सोच़ न थ़ कक आतऩ श़ऽतर अदमा पलक झपकते चल़ ज़एग़। जब बड़े ब़बी यमऱज के स़मने पहुंचे तो ईनसे डरने की बज़य जेब से फोन ऽनक़ल ईसमं ककसाक़ नंबर ढी ंढने लगे तो यमऱज को ईन पर बड़़ गिस्स़ अय़। हद है य़र ! बंद़ मर गय़ पर मोब़आल ह़थ से नहं छी र् रह़। मोब़आलोकोहऽलक लग रह़ है। जब यमऱज से रह़ न गय़ तो िे बड़े ब़बी को हड़क़ते बोले, ‘बड़े ब़बी ! य़र, ये मोब़आल ऄब तो मरने के ब़द परे रख दो। ऄब ये यह़ं क़म नहं करे ग़। ककसे फोन कर रहे हो?’ ‘सऽचि़लय कर रह़ थ़। िे ऽशक्ष़ ऽिभ़ग के सऽचि हं न ! मिझे ढी ंढ रहे हंगे। ऄसल मं मं ईनको बत़ कर नहं अय़ हूं।’ ‘यह़ं ककसाको कोइ बत़ कर नहं अत़। ल़ऩ पड़त़ है। ऄब छोड़ो आनकी-ईनकी हिचत़। ऄब तिम हिचत़ से उपर ईठे बंदे हो। चलो, तिम्हं तिम्ह़रे ककए कमो की आस्र्मैन कलर, मल्र्ा ड़आमंशनल कफल्म बत़त़ हूं। बिऱ मत म़नऩ, तिम्ह़रे ऽलए नरक तय करने मं मिझे तो क्य़, तिम्हं भा देर न लगेगा ।

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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तिम्ह़रे क़रऩमे हा ऐसे हं कक....’ कह यमऱज ने बड़े ब़बी को ऄपने पाछे अने क़ संकेत ककय़। यमऱज के मिंह से जब बड़े ब़बी ने यह ब़त सिना तो िे डरने की बज़य यमऱज पर प़स़ फं कने की तैय़रा मं जिर् गए। बड़े ब़बी मं और च़हे ककतना हा कऽमय़ं क्यं न हं, बड़े ब़बी की सबसे बड़ा ख़सऽयत यहा है कक िे हर ऽस्थऽत क़ मिक़बल़ पीरे झीठ के बल पीरा इम़नद़रा से करते हं। पीरे दम खम के स़थ झीठ बोलकर हर ककसाको कं हि​िस ि आं पे्रस करऩ ईनकी नेचर क़ ऄहम ऽहस्स़ है। ब़द मं जो होत़ हो, होत़ रहे । ईनको सिनने ि़ले हरे पहले को ईनसे पहले ऽमलन मं ऐस़ लगत़ है कक आस बंदे से ऄऽधक सच्च़ तो धमटऱज भा नहं हो सकत़। ‘चलो स़हब! ऄपने कमं क़ फल तो सभा को भिगतऩ हा है। आसके ऽलए मं तैय़र हूं पर.....’ ‘पर क्य़?’ हद है य़र! बंद़ यमऱज के सम़ने भा साऩ त़नकर? ‘मेऱ तो जो होऩ है , होत़ रहे, पर मं नहं च़हत़ कक अप अगे से घ़र्े मं रहो।’ ‘मं और घ़र्े मं?? मं तो नफे - निकस़न से उपर ईठ़ हुअ बंद़ हूं य़र।’ ‘ऄच्छ़ तो सर! ब़तं की ब़त। बिऱ न म़नं तो एक ब़त बत़ने क़ स़हब कष्ट फरम़एंगे?’ ‘पीछो!’ ‘अप ककतना ब़र भ़रत भ्रमण पर गए?’ ‘ऄनेकं ब़र। कभा पंरह ऄगस्त को तो कभा छब्बास जनिरा को। कभा हररि़र तो कभा... बहुध़ स़ंप्रद़ऽयक दंगं के िक्त तो कइ– कइ कदन िहं रहत़ हूं। ऄभाऄभा ईज्जैन किं भ नह़ने गय़ थ़ जह़ं स़धिओं के बाच गोला चला था।’ ‘गिड! घीमते रहऩ सेहत के ऽलए बेहतर होत़ है। मेरे द़द़ जा कह़ करते थे,’ तब पत़ नहं कै से यमऱज की बंदे मं कदलचस्पा बढ़ने लगा। हद है य़र! जह़ं पर अकर भगि़न भा डरत़ है िह़ं ये जाि खिलकर ब़तं कर रह़ है। नरक से कतइ भा नहं डर रह़?? ‘तो अप भ्रमण पर ज़ते कै से हं? सरक़रा ि़हन से हा ज़ते हंगे?’‘नहं, मं सरक़रा ISSN –2347-8764

संपऽत्त को जनत़ की संपऽत्त म़नत़ हूं। आसऽलए सरक़रा ग़ड़ा मं नहं ज़त़।’ ‘आसाऽलए तो अप यमऱज हं स़हब! िरऩ मेरा तरह होते। मन करत़ है अपकी अरता ईत़रूं । पीज़ की थ़ला ऽमलगा यह़ं कहं सर??’ ‘छोड़ो ये सब! यह़ं स़हब भऽक्त, च़पलीसा पर प़बंदा है। पर तिम क्य़ कह रहे थे कक...’ ‘तो सर ,मं कह रह़ थ़ कक सरक़रा संपऽत्त क़ सिदपयोग करऩ ऄच्छा ब़त है। ऐस़ करने से मन को बड़ा श़ऽन्त ऽमलता है। पर ऄपने ऄऽधक़रं के प्रऽत ज़गरूक होऩ भा जरूरा है।’ ‘मतलब??’ ‘अप भ़रत भ्रमण पर पऽब्लक ि़हन से ज़ते हं। ऐस़ हा होऩ च़ऽहए एक अदशट कमटच़रा। पर अपने कभा अकर ऄपऩ र्ाए ऽबल ऄपने अप भऱ?’ ‘नहं!’ यमऱज कि छ शर्जिमदगा सा फील करने लगे। ‘बस सर! यमऱज होने के ब़द भा ख़ गए न यहं पर म़त! सरक़र के प्रऽत िफ़द़र होऩ ऄच्छ़ है। पर....’ ‘पर क्य़....???’ ‘अपको पत़ है र्ाए ऽबल कै से भरते हं? श़यद नहं। ककतने ककलोमार्र ब़द ह़ल्र् ऽमलत़ है? पत़ है? श़यद नहं! स़हब ज़नते हं कक पैदल चलने क़ पर ककलोमार्र रे र् क्य़ है? श़यद नहं, डाए के नए रे र् क्य़ हं? कदल्ला मं ककस होर्ल मं रूकने के ऽलए अपकी आं ऱ्आर्ल्मंर् है? पर डरो मत स़हब! ऄब हम अ गए हं न! अपको सब साख़ कर हा रहंगे।’ ‘मं तो ऽजसके जह़ं मन करे िहं रूक ज़त़ हूं। पर ये सब तो मंने कभा सोच़ हा नहं बड़े ब़बी! मेऱ र्ाए ऽबल तो मेरा पाए हा भरता रहा अज तक।’ ‘मतलब जो िो भरता रहा, ईसे अप ठाक म़नते रहे। हो सकत़ है िह अपक़ डाए कम हा भरता रहा हो । जो ऐस हुअ होग़ तो अज तक ककतऩ निकस़न हो गय़ होग़ अपको? कभा के लकि लेर् ककय़ अपने? सरक़रा पैस़ न ख़ऩ ऄच्छा ब़त है। पर सरक़रा धन की रक्ष़ करते-करते ऄपने को चीऩ लगि़ऩ कह़ं की ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

भलाम़नसा क़ क़म है सर? बिऱ न म़नो तो चलो अपको र्ाए - डाए के रूल हा बत़ देत़ हूं त़कक अगे से ...... सर ! अपको कि छ अए य़ न पर मेऱ म़नऩ है कक र्ाए-डाए भरऩ जरूर अऩ च़ऽहए। ऄपना पाए पर कब तक ऽनभटर रहंगे अप? अप भा सद़ य़द रखंगे कक ककसा बड़े ब़बी से ि़स्त़ पड़़ थ़ अपक़!’ ‘तो??’ ‘देखो सर! बड़े कदनं ब़द ऽमले हं! ऄब तो ऐसे मं अपसे एक च़य तो बनता हा है। च़य के स़थ-स़थ एन ओिर व्यी ऑफ र्ाएडाए रूल्स हो ज़एग़ तो अगे से ककसाकी क्य़ मज़ल जो कोइ अपक़ गलत र्ाए ऽबल भरने-भरि़ने क़ स़हस करे । हिजदगा मं ककसाको कि छ अए य़ न, पर र्ाए- डाए रूल्स हर ह़ल मं अने च़ऽहएं। मरे से मऱ जाि कहं ज़ए य़ न, पर आस लोक से ईस लोक तो ईस लोक से आस लोक तो अत़- ज़त़ हा रहेग़ न सर? सो दैर्, अइ एम सॉरा र्ी से यी कक.... ....,’ बड़े ब़बी ने च़य की अता खिशबी की ओर ऩक ककए पिरजोश कह़ तो यमऱज ऄसमंजस मं आधर-ईधर की बगलं झ़ंकने लगे। जब ईन्हं लग़ कक ईन दोनं को कोइ ऄंधा अंख तक नहं देख रहा तो िे भागा ऽबल्ला से ऽबऽल्ल़य़ते स़मने ि़ले रे स्तऱं मं बड़े ब़बी को च़य ऽपल़ने न च़हते हुए भा ले गए। ईस समय मरे होने के ब़द भा बड़े ब़बी के चेहरे की चमक देखने ल़यक था। हे सड़े ब़बी, तिम्ह़रे मरने के ब़द भा तिम्ह़रे चरण पीरा अस्थ़ से ढी ंढ रह़ हूं। ऄपने चरणं के दशटन कऱ ऽनह़ल करो हे बड़े ब़बी ईफट सड़े ब़बी ! ~✽~ गौतम ऽनि़स, ऄप्पर सेरा रोड, सोलन-173212 ऽह.प्र. ~✽~

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व्यंग्य

हिनद़ की चर्पर्ा च़र् भ़िऩ शिक्ल

च़र् क़ ऄपऩ मज़ है । च़र् के ठे ले को देखते हा सबकी ल़र र्पकने लगता है । घर के भोजन को छोड़ ठे ले की मस़लेद़र च़र् क़ ज़यक़ पेर् की क्षिध़ को श़ंत कर देत़ है और जाभ को यह ऽनऱल़ अनंद घर पर कह़ँ ऽमलत़ है ? यह तो हुइ च़र् की ऽनऱला ऄद़ । लेककन जब पेर् मं भऱ्(बैगन )चिरते है तब जब तक ईलर् न दो तब तक पेर् की क्षिध़ श़ंत नहा होता । य़ना ककसा की हिनद़ करने मं जो ऄसाम अनंद की ऄनिभीऽत होता है िो ककसा और मं कह़ँ ? हिनद़ तो चर्पर्ा च़र् को भा पछ़ड़ अगे ऽनकल ज़ता है य़ना च़र् से ज्य़द़ चर्पर्ा तो हिनद़ होता है और चर्पर्ा हिनद़ तो आस दिऽनय़ मं सबसे मह़न म़ना ज़ता हं । आस ऄद़क़रा मं ऄकबर बारबल को मह़रथ ह़ऽसल था । अज यकद ऄकबर बारबल होते तो ईन्हं जरुर सरक़र ककसा न ककसा ऄलंकरण से सिशोऽभत जरुर करता । हिनद़ ऐस़ रस है ऽजसने आसक़ प़न कर ऽलय़ समझो, ऄमुत प़न ककय़ और िह आसक़ अदा हो ज़त़ है । हर कोइ एक दीसरे की हिनद़ मं चौगिऩ अनंद लेत़ है ईस पर हिनद़ जब चर्पर्ा हो तो समझो सोने पर सिह़ग़। सबसे ऄहम् ब़त यह है की चर्पर्ा हिनद़ मं न सिनने मं और न सिऩने मं पैस़ खचट होत़ है लेककन मस़लेद़र च़र् ख़ने के ऽलए च़र पैसे खचट होते है और तो और ठे ले तक क़ ऱस्त़ तय करऩ पड़त़ हं । चर्पर्ा हिनद़ की चर्पर्ा च़र् अनंद घर के अस प़स, मिहल्ले मं पररि़र मं, ऩते-ररश्तेद़रं मं, सम़ज मं स़ऽहत्य मं, ऱजनाऽत मं कहं भा ऽलय़ ज़ सकत़ है । ऐसा च़र् ख़ने ि़लं ने आस ऽिषय मं ररसचट की है िह ऄपने लोगं की खोज अस़ना कर लेते है और मौक़ ऽमलते हा चर्पर्ा च़र् यीँ परोसते है म़नो दोब़ऱ मौक़ हा नहं ऽमलेग़ यीँ मेहम़ननि़जा करने क़ । च़हे सिबह से श़म हो ज़ये ईन्हं आसकी परि़ह नहं । जब तक पेर् ख़ला नहं कर लेते तब तक ठाक से स़ंस भा नहं लेते, ये लोग ऄपने कोइ न कोइ ग्ऱहक रोज हा ISSN –2347-8764

ढी ंढ लेते हं ऽजनको ये हिनद़ की चर्पर्ा च़र् परोस सकं और गलता से ककसा ने आन्हं हिनद़ करते र्ोक कदय़ तो िो आनक़ सबसे बड़़ दिश्मन होत़ है । िैसे कह़ भा गय़ है ये ककसा के सगे नहा होते, ऽजसे आस च़र् क़ स्ि़द चख़ते है । ईस समय देखने से ऐस़ लगत़ है दोनं मं ककतऩ ऄथ़ह प्य़र है और ईससे हर्ते हा दीसरे के प़स ज़कर ककसा तासरे की च़र् क़ तड़क़ आधर से ईधर करते हं और ऐसा मस़लेद़र चर्पर्ा च़र् तैय़र करते है । ईसकी महक च़रं कदश़ओं मं फ़ै ल ज़ता हं । एक त़जा घर्ऩ सिऩते है । एक ऽमत्र के स़थ हम संस्थ़ की ओर से स़ऽहऽत्यक य़त्ऱ पर गए । ट्रेन के तान च़र ऽडब्बे मं स़ऽहत्यक़र य़त्ऱ कर रहे थे । हम दो दोस्तं ने सोच़ चलो बोररयत हो रहा यह़ँ बैठे बैठे चलो दीसरे ऽडब्बे मं और ककसा को बोर करते है । धारे -धारे अगे बढे ,सोच़ कहं कऽि गोष्ठा तो नहं चल रहा...देखते क्य़ है हर जगह च़र- च़र, प़ंच- प़ंच के समीह मं कऽि गोष्ठा के स्थ़न पर हिनद़ गोष्ठा पक रहा था । कि छ देर हमने भा सिऩ पर हमं मज़ नहा अय़ । हम तो अनंद लेते लोगो देख रहे थे भइ ि़ह क्य़ खीब जगह मौक़ और दस्तीर सब एक स़थ ऽमल गए और ईनकी चर्पर्ा च़र् के अनंद से सब सऱबोर हो रहे हं और जो ईस य़त्ऱ पर न ज़ सके िे भा आस च़र् से िंऽचत न रह सके । क्योकक जो गए िे िह़ं से लब़लब पेर् भरकर अये है बऽल्क पेर् फर्ने की नौबत अ रहा हं । हिनद़ रस को हिहदा स़ऽहत्य मं कबारद़स जा ने ऽिशेष स्थ़न कदय़ है। ईन्हंने “हिनदक ऽनयरे रऽखये अँगन कि र्ा...ऽलखकर हिनदकं के स़मने हऽथय़र ड़ल कदए । स़ऽहत्य की दिऽनय़ मं स़ऽहत्यकरं ने भले हा हिनद़ पर ह़स्य, व्यंग्य, कऽित़, कह़ना कि छ भा ऽलखकर जनत़ को ज्ञ़न क़ र्ॉचट जल़य़ हो कफर भा यह ऐस़ रस है ...जो नौ रसं से उपर । ~✽~ w z /21 हरर हिसह प़कट , मिल्त़न नगर, पऽश्चम ऽिह़र (पीिट) नइ कदल्ला ..110056

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

दऽलत हो तो द़ित ऽखल़ओ ऽिक़स ऽमश्र

ऱमभरोसे दरि़ज़ खोलो, मं नेत़ सितील़ल। ऱमभरोसे-नेत़जा अज गराब के घर क़ ऱस्त़ कै से भील गए । सितील़ल-तिम गराब नहं हो, तिम्ह़रे प़स िोर् की दौलत है। स़रा ब़तं छोड़ो, मिझे ख़ऩ ऽखल़ओ। मं तिम्ह़रे घर ख़ऩ ख़उंग़, देखो ब़हर कै मऱ र्ाम भा अइ हुइ है, फोर्ो भा हिखचेगा। ऱमभरोसे-हुजीर मं समझ़ नहं, अप और मेरे घर ख़ऩ..। कोइ ख़स ब़त सरक़र..। सितील़ल-ख़स ब़त ये है कक तिम दऽलत हो, मेरे ऽलए फऽलत हो, क्यंकक मं नेत़ हूं। तिम्ह़रे घर ख़ने से मिझे िोर् ऽमलंगे। चलो ख़ने पाने क़ आं तज़म करो ऱमभरोसे-हुजीर, हम़ऱ ख़ऩ अप ख़ प़एंग,े क्यंकक घर मं कि छ भा ख़ने पाने को नहं है। बच्चे खेतं मं चीहे पकड़ने गए हं। हम लोग तो िहा ख़कर हिजद़ हं। सितील़ल-बह़ने मत बऩओ, द़ल रोर्ा, और च़िल सब्जा क़ आं तज़म करो। ऱमभरोसे-हुजीर, 100 रुपये ककलो द़ल, 25 रुपये ककलो अऱ्, 20 रुपये ककलो अली। आतना महंगा चाज हम कह़ं से ल़एंगे। हम़रे घर तो ताज त्योह़र पर भा आतऩ नहं बनत़। सितील़ल-चलो पीड़ा सब्जा हा ऽखलि़ दो। ऱमभरोसे-सरक़र क्यं गराब क़ मज़क ईड़़ते हं, हम़रे घरि़लं ने तो बरसं से पीड़ा की शक्ल भा नहं देखा। श़यद अप गलत घर मं अ गए हं। अपको दऽलत के घर हा ख़ऩ है तो पड़ोस मं दाऩ च़च़ के घर चले ज़आए। ईनक़ बेऱ् कलक्र्र है, घर मं ख़ने पाने क़ सब कि छ है। मेरा झोपड़ा मं अपको क्य़ ऽमलेग़ सरक़र। सितील़ल-नहं, मिझे ऐसे दऽलत के घर ख़ऩ है, जो कदखने मं दऽलत लगे। तिम्ह़रे ब़रे मं पक्क़ पत़ करके अय़ हूं। सिऩ है कक घासी म़धि* तिम्ह़रे हा ख़नद़न के थे। ऱमभरोसे- ह़ं हुजीर, हम़रे परद़द़ थे घासी और म़धि। जिग जम़ऩ बदल़, लेककन हम़रा ख़नद़ना ह़लत ऽबल्कि ल िैसा हा है। हम पर रहम करो। ISSN –2347-8764

सितील़ल-ऱमभरोसे, झीठ मत बोलो, तिम्ह़रे प़स पैस़ है, सरक़र ने कि छ तो कदय़ होग़, िहा ऽनक़लो। ऱमभरोसे-ह़ं, चिऩि से पहले एक नोर् और एक िोर् म़ंग़ थ़। हमने कदय़ भा। सरक़र बन गइ। ऄब नेत़जा से कहत़ हूं कक कि छ भल़ करो, तो कहते हं कक लखनउ अओ, प़कट मं घीमो। ह़था देखो। पहले तिम्हं सम्म़न नहं ऽमलत़ थ़, ऄब ह़था करे ग़ तिम्ह़ऱ सम्म़न। हुजीर, हम कहते हं कक बच्चे भीखे हं तो नेत़जा कहते हं कक बच्चं को प़कट मं घिम़ओ, ह़था कदख़ओ, भीख प्य़स खिद हा ऽमर् ज़एगा। सितील़ल-ब़तं मत घिम़ओ..। कहं से ईध़र म़ंगकर ल़ओ, मिझे ऽखल़ओ। हम तिम्हं ह़था नहं, कम्प्यीर्र दंगे। तिम्ह़रे ऽलए अंसी बह़एंगे। ऱमभरोसे-अपके त़उजा यह़ं अए थे, तब अपक़ जनम नहं हुअ थ़, िह कहते थे कक िोर् दो, हम तिम्हं रोर्ा कपड़़ और मक़न दंगे। पंसठ स़ल से उपर हो गए, न तो भर पेर् रोर्ा ऽमला, न तन ढंकने को कपड़े ऽमले और मक़न के ऩम पर यहा झोपड़ा है। अपसे पहले भा एक नेत़जा अए थे, ख़ऩ म़ंग रहे थे। कहते थे कक ख़ऩ ऽखल़ओ, िोर् कदलि़ओ, हम मंकदर बनि़ दंगे। सरक़र हम तो ठहरे ऄनपढ़ अदमा। जबसे होश संभ़ल़, रूख़ सीख़ िो भा अध़ पेर् ख़कर हिजद़ हं। मगर अपलोग तो पढ़े ऽलखे हं। मंकदर देते हं, कम्प्यीर्र देते हं, ह़था और प़कट देते हं। भीख क़ कोइ आं तज़म क्यं नहं करते। घंर्ं की ब़तचात क़ कोइ फल नहं ऽनकल़, नेत़जा गिस्से मं तमतम़ते हुए चले गए। ऱमभरोसे हैऱन हं कक ज़ने कबसे ख़ रहे हं, ककतऩ ख़ रहे हं, लेककन नेत़ओं की भीख है कक ऽमर्ने क़ ऩम नहं लेता। *घासी-म़धि प्रेमचंद की कह़ना कफन के प़त्र हं।

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

ख़ला ह़थ अये थे ख़ला ह़थ ज़एंगे अलोक खरे

कइ मतटि़ जो चाज़ हम़रे जािन की अध़रऽशल़ होता है, ईसा चाज़ के ऽसि़न्तं क़ प़लन ऄपने ऽहस़ब से करने से िह ऄऽभश़प बन ज़ता है! आसमं ईस िस्ति के गिण दोष से ज्य़द़ हम़रा सोच ऄऽधक म़ने रखता है! ऄब अप सोच रहे हंगे की मं ये क्य़ बड़बड़़ हूँ, जा नहा मं बड़बड़़ नहा रह़ बऽल्क गात़ की ब़त कर रह़ हूँ! गात़ मं कह़ गय़ है की ' कमटणये ि़धेरस्ति म़ँ फलेषि कद़चने'! हम़रा तम़म व्यिस्थ़एं , सरक़रे , ऄऽधक़रा , ऽखल़डा अकद अकद समस्त लोग गात़ के आसा मील और सीत्र ि़क्य को अध़र म़न ऄपना जािन शैला को रचते हं! जह़ँ तक सरक़र और आसकी व्यिस्थ़ की ब़ते करे तो िो आनकी क़यटशैला क़ ऄनीठ़ प्रम़ण है! अप सरक़र से सि़ल करं गे की क्य़ हुअ ऄभा तक कि छ नज़र नहा अ रह़ है? तो सरक़र कहेगा की हम कमट रूपा प्रय़स लग़त़र और ि़रि़र कर रहे हं लेककन फल रूपा पररण़म ऄगर नज़र नहा रह़ हो आसमं हम क्य़ कर सकते हं! ज़आये पहले अप गात़ को पढ़कर अआये, ऽजस कदन अपने गात़ को पढ़ समझ ऽलय़ कफर अप हमसे ऐस़ ि़ऽहय़त सि़ल दिब़ऱ नहा करं ग!े अपको अपके आन ब़ऽहय़त सि़लं क़ जि़ब ईसमे ऽमल ज़एग़! अजकल ररयो ओहिलऽपक क़ मह़समर ऄपने गन्तव्ये की और ऄग्रसर है और भ़रत देश ने ईम्मादं पर खऱ ईतरते हुए ऄपने अप को पदक त़ऽलक़ से दीर हा रख़ है! अम बिऽिजािा सोशल माऽडय़ मं आसके पक्ष ऽिपक्ष मं ऄपने ऄपने ऽिच़रो के ऄच़रो से लोगो को स्ि़द चख़ रहे हं! लेककन हम़रे ऽखल़डा भरसक प्रय़सं के ब़बजीद पदक रूपा मोह मं फं सने को तइय़र नहा हो रहे हं! ये सब ऽखल़डा गात़ के ऽसि़न्त पर चल रहे हं! कहते हं हम प्रय़स रूपा कमट करने मं कोइ कोत़हा न बरत रहे ऄब पदक रूपा पररण़म नहा अ रहे तो ये श्रा कु ष्ण़ की मज़ी पर है! तो हे प़थट दिःख के स़गर मं गोते लग़ने से ऄच्छ़ है की गात़ के ऽसि़न्तं क़ प़लन करो, ये अपको आन ओहिलऽपक रूपा म़य़िा दिखो से दीर कर एक ऄलौककक सिख की प्ऱऽप्त करि़येगा! एक ऽखल़डा को जीते नसाब नहा हुए िो म़ंग म़ंग कर ISSN –2347-8764

थक गइ, सिऩ है सरक़र बहुत पैस़ खचटता है खेलो के ऩम पर, लेककन जीते नहा खराद प़ता! जब एक ऄऽधक़रा के संज्ञ़न मं यह ब़त ल़इ गइ तो ईन्हंने गात़ क़ ज्ञ़न बघ़रते हुए कह़, सब बकब़स है यह, सिद़म़ को देखो िो नंगे पैर ककतना दीर से श्रा कु ष्ण़ से ऽमलने पहुंचे, क्यंकक सिद़म़ की आक्ष़ शऽक्त था तो पहुँच गए! म़त्र कच्चे च़िल ऄर्मपत करने भर से ईनको स्िणट महल की प्ऱऽप्त हो गइ! जबकक हम तो ऄपने ऽखल़ऽड़यो को पके हुए च़िल ऽखल़ते हं, लोग फर्े हुए जीतं क़ बह़ऩ बऩते हं, आनसे सोऩ नहा तो कम से कम एक क़ंसे क़ पदक हा ले अये, आनसे िो भा नहा होत़! हे प़थट! व्यिस्थ़ओ क़ रोऩ कमजोर लोग करते हं! और जह़ँ तक व्यिस्थ़ के कमजोर होने य़ मजबीत होने की ब़त है, िो तो तब होगा जब कोइ व्यिस्थ़ ऩम की ऽचऽड़य़ ऄपने स्िरुप मं होगा! जो चाज़ है हा नहा तो ईसके होने य़ ऩ होने के ब़रे मं सोचकर परे श़न क्यं होऩ? हे प़थट! पिऱतन क़ल मं भ़रत देश सोने की ऽचऽड़य़ कहल़त़ थ़, ये ऄपने अप मं ककतने गिट की ब़त है! हमं ये ब़त भा ध्य़न मं रखना च़ऽहए की आन छोर्े मोर्े पदको से हम़ऱ पिऱऩ स्र्ेर्स न लौर्ने ि़ल़, और ऽजस देश के मंकदरो मं र्नो सोऩ पड़़ हो िो देश आन पदको के ऽलए लड़ेग़? आसमं देश और ऽखल़डा दोनं की हा तौहान है! जह़ँ तलक ओहिलऽपक मं भ़ग लेने की ब़त है यह तो म़त्र सैरग़ह करने क़ स्थ़न म़त्र है, ऽजसमे ऽखल़ऽड़यं के ऄल़ि़ ऄफसर, मंत्रा, कोच और मेनेजर के रूप मं ररश्तेद़र अकद आत्य़कद को आसा बह़ने सरक़रा खचे पर मीड िे श करने क़ मौक़ ऽमल ज़त़ है! हम यह नहा भीले की ये देश ऱजे -मह़ऱजं क़ देश रह़ है, ऽजत्त़ सोऩ ओहिलऽपक मं न बंर्त़ ईत्त़ तो हम़रे एक एक ऱज़ के शरार की शोभ़ बढ़़त़ थ़ ! और अप आन कौड़ा के पदको की ब़त करते हो! ~✽~ इस्र् आं ऽडय़ ट्ऱंसपोर्ट एजंसा, बा–283, ओखल़ आं डऽस्ट्रयल एररय़, फे ज–1, न्यी डेल्हा–110020

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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व्यंग्य

ब़ल की ख़ल ऽनक़लऩ नारज दआय़

‘ब़ल की ख़ल ऽनक़लऩ’ क़ ऄथट अप के ऽलए भले ‘व्यथट तकट करऩ’ ऄथि़ ‘व्यथट क़ दोष ऽनक़लऩ रहे’, पर मेरे ऽलए कि छ ऄलग है। यह मेरे ऄनिभि की ब़त है। मेरे ब़ल बहुत कम है और जो ब़ल मेऱ स़थ छोड़कर चले गए हं ईनमं से कोइ भा ब़ल ऄपना ख़ल स़थ लेकर नहं गय़। कोइ गय़ भा है तो मिझे आसकी खबर नहं। श़यद यहा क़रण है कक मं कभा ककसा के ब़ल की ख़ल नहं ऽनक़लत़। ब़ल शब्द ब़ल-गोप़ल से जिड़ कर मिझे अनंकदत करत़ है। बो कु ष्ण कन्हैय़, म़खनचोर मर्कीफोड़ जैसे भातर हा भातर गिदगिद़त़ है। ऄब िैसे ब़ल-गोप़ल और अनंद कह़ं। अंकड़ं की ब़त करं तो िषट 2011 की जनगणऩ के ऄनिस़र हम़रे भ़रत देश मं िषट 5 से 14 तक के ब़लगोप़लं की संख्य़ं 25.96 करोड़ है, और आनमं से 1.01 करोड़ ब़लक-ब़ऽलक़ओं की ख़ल कदन-प्रऽतकदन ऽनक़ला ज़ रहा है। ऄब तक तो ब़ल की ख़ल ऽनक़लने ि़लं की आस संख्य़ मं ऽनऽश्चत रूप से क़फी बढ़ोत्तरा हो गइ होगा। मं तो ककसा एक ब़ल-गोप़ल की ख़ल अंखं के स़मने ऽनकलते देखत़ हूं तो मेऱ खीन खोल ईठत़ है। मेरे जैसे भ़इ-बंधिओं क़ खीन आतऩ खौल़ और खौलत़ है कफर भा अलम यह है कक ऄब तक हम कि छ भा कर नहं सके हं। ककसा होर्ल, ढ़बे, मैकेऽनक, दिक़न ऄथि़ स़िटजऽनक संस्थ़न मं क़म करते हुए देश के नन्हं-नन्हं ब़लक-ब़ऽलक़एं जािन की अग मं समय से पहले हा पक रहे हं। हम आन क़म करने ि़ले ब़लं-गोप़लं और गोऽपक़ओं की ख़ल आतना ऽनक़ल लंगे कक िे ख़ल रऽहत हो ज़एंगे। मोर्ा चमड़ा और ख़ल रऽहत लोग देश को कह़ं से कह़ं तक पहुंच़एंगे यह कहने-सिनने क़ ऽिषय नहं है। ऄब ऄगर अपकी समझ पर आतऩ भा शक करूं तो हो गय़ बेड़़ गकट । ऽशक्ष़ और स़क्षरत़ क़ भले ऄसर नहं हो पर अपक आस देश मं रहने क़ ऄनिभि क्य़ क़फी नहं है, आन सब ब़तं के ऽलए। बचपन मं हा हम आतना बड़ा अब़दा के आतने बड़े ऽहस्से को ऽबऩ ख़ल क़ बऩ दंगे तो ये ऽबऩ ख़ल ि़ले भ़िा नौजि़न देश के ऽलए कै से सपने और भऽिष्य की ISSN –2347-8764

कल्पऩ करं गे। कऽि ऱजेश जोशा ने ऄपना कऽित़ मं ऽलख़- “स़रा चाज़ं हस्बम़मील/ पर दिऽनय़ की हज़़रं सड़कं से गिजते हुए/ बच्चे, बहुत छोर्े-छोर्े बच्चे/ क़म पर ज़ रहे हं।” बच्चे क़म पर ज़ नहं रहे ईनको ज़ऩ पड़ रह़ है। कऽि की भ़ंऽत मेऱ भा यह कहऩ है कक ऄब दिऽनय़ मं श़यद कि छ भा बच़ नहं है। दय़-शमट, प्रेम-सद्भि़ऩ, ऽनयम-क़नीन सब जैसे होते हुए भा बेऄसर हो गए हं। ब़लश्रम के स़रे क़नीन धरे के धरे रहते हं और म़त़-ऽपत़ बच्चं को क़म पर भेज रहे हं। और ऽजनके क़म है िे आस ब़त से बेपरि़ह कक कभा कहं ईनकी भा ख़ल कोइ तो ऽनक़लेग़ हा। म़न ऽलय़ कक अपके प़स ऐस़ हुनर है कक कोइ ऄप़क़ ब़ल तक ब़ँक़ नहं कर सकत़। हे लक्ष्मा पित्रं हम अपसे ऄनिनय करते हं कक ब़ल की ख़ल ऽनक़लऩ बंद करो। म़ऩ सब की ऄपना ऄपना मजबीररय़ं हं। गराबा, बेरोजग़रा के आस अलम मं जब पढ़े-ऽलखं और समझद़र लोग ऄपऩ शोषण कऱने के ऽलए ऽि​िश है तो ऐसे ब़ल-गोप़लं को तो ऄपने भऽिष्य के ब़रे मं पीऱ पत़ भा नहं है। हम़रे सब के ऄपने ऄपने क़म है। समय हा कह़ं है। आस दौड़-भ़ग मं बस फि सटत आतना है कक ऐसे ब़ल-गोप़ल जह़ं कहं ऽमलते हं ईन्हं देख भर लेते हं। हम़रे मशान होते शरार मं बचा-खिचा थोड़ा संिेदऩएं ज़ग्रत हुइ तो बस ईनके बल पर ऄऽधक से ऄऽधक छोऱ् स़ संि़द भर होत़ है। हम़रे सब के ऄपने ऄपने क़म है। समय हा कह़ं है। आस दौड़-भ़ग मं बस फि सटत आतना है कक ऐसे ब़ल-गोप़ल जह़ं कहं ऽमलते हं ईन्हं देख भर लेते हं। हम़रे मशान होते शरार मं बचा-खिचा थोड़ा संिेदऩएं ज़ग्रत हुइ तो बस ईनके बल पर ऄऽधक से ऄऽधक छोऱ् स़ संि़द भर होत़ है। - िेटा तू ककतने िरस का है? य़ भ़ष़ भा ऐसा कक ‘ऐ तेरा ईम्र ककतना है?’ हम़रे देश और ईनके सपनं से हमं क्य़ लेऩ-देऩ। आतने हम़रे क़म-क़ज के बाच हम मन मं यह जो आतऩ सोचते भर है िह बहुत है। ककसा से बैर करने मं क्य़

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फ़यद़। हम ऽबऩ मतलब के फजाहत करने मं ऽिश्व़स नहं रखते। ह़ं हम़ऱ मतलब हो तो हम हम़रे दो रुपये के ऽलए फजाहत कर सकते हं। देश क़ जो क़नीन है िह ऄपने अप चलकफर भा नहं सकत़। ईसे चल़ने-कफऱने ि़ले क़नीन को घिम़ने-कफऱने के ऐसे लेनदेन मं ईलझे हं कक कोइ ईम्माद की ककरण कदख़इ नहं देता है। अऽखर ईनक़ भा तो ऄपऩ घर-पररि़र है और महंग़इ है जो देश मं आस कदर बढ़ता चला ज़ रहा है। कभा कोइ ऽसरकफऱ कि छ करत़ भा है तो कह़ना क़ ऄंत सभा पक्षं की तरफ बस एक-स़ हा होत़ है कक य़र ब़ल-ब़ल बच गए। िऩट लपेर्ने ि़ले बहुत है। हम ब़लब़ल बचते अएं है और मेरे ब़रे मं तो अपको बत़ दीं कक मेरे तो ब़ल भा बहुत कम बचे हं। जो भा बचे हुए ब़ल है ईनको ब़ल-ब़ल बच़ऩ बहुत जरूरा है। पंच क़क़ कहते हं कक जो कोइ सम़जसिध़रक बनकर सम़ज को सिध़रने चलत़ है, तो ईसे यह सम़ज और आसके क़नीनं से यह संस़र ऄपने पहले हा ऄनिभि मं आतऩ कि छ सिध़र कर ठाक कर देत़ है कक कफर अगे कभा िह ककसा सिध़र क़ ऩम लेने की ऽहम्मत नहं करत़। क़क़ तो बड़े ऄनिभिा हं। कहते हं- बच्चं, हमं बस ऄपऩ ध्य़न रखऩ है। यह हम़ऱ मसल़ कभा नहं होऩ च़ऽहए कक क्यं कोइ ककसा ब़ल की ख़ल ऽनक़ल रह़ है? ऄगर ऐस़ ऽिच़र अए तो मेरे प़स ऽिगत घर्ऩओं क़ भंड़र है। ज़न लं सभा ब़ल ब़ल बचे हं। ईन कह़ऽनयं को सिनकर अपके रंगर्े खड़े नहं हो ज़ए तो कहऩ। ~✽~ सा-107, िल्लभ ग़डटन, पिनपिरा, बाक़नेर-334003 (ऱजस्थ़न)

लघि व्यंग्य

बहू बऩम क़मि़ला सऽित़ ऽमश्ऱ

"ईम्र हो गया बेऱ् , श़दा कर ले ।" "ऄच्छा लड़की तो ऽमले! तब तो करूँ ऩ मम्मा !!" "बेऱ् च़लास की बढता ईम्र मं ऄब तिझे ऄच्छा लड़की कह़ ऽमलेगा । थोड़़ ऄडजस्र् कर । " "तो क्य़ म़ँ ! अप च़हता है ये र्ेढ़े मिहं ि़ला से य़ ये ऐस़ लग रह़ है जैसे सकदयं से बाम़र है , और आस तस्िार को देऽखये ह़थ ऐसे लग रहे जैसे घरं मं बतटन म़ंजने ि़ला के । आनमं से ककसा एक से श़दा कर लीँ ?" "बिढ़़पे मं मिझसे ऄब होत़ नहं । क़म ि़ला भा ऽमलऩ मिऽश्कल है । जो ऽमलता है िह महाने भर भा नहं रर्कता । कै से करे ग़ , क्य़ ख़येग़ तेरे भऽिष्य की हिचत़ मं घिला ज़ रहा हूँ मं । कब बिल़ि़ अ ज़ये मेऱ, पत़ नहं । तेरा देखरे ख करे गा , यहा समझ कर कर ले !!! " "तो क्य़ मम्मा अप बहू नहं ..।"

गाऽतक़ ऄरुण ऄणटि खरे

देखे तरह-तरह के बचक़ने लोग । अँखं ि़ले ऄंधे औ क़ने लोग । ज़रूरत पड़ा तो सब कन्ना क़र् गए ऐसे ऽनकले ज़ने-पऽहच़ने लोग । मेरे ज़ख़्म कदखे तो लेकर अ गए, मेरे ज़ख़्मं पर नमक लग़ने लोग । धीप मे चलते-चलते थक गए जह़ँ, खजीर तले ज़ बैठे सिस्त़ने लोग । आनने, ईनने, सबने तिम्हं चिऩ थ़, कफर क्यीँ अ ज़ते हमं डऱने लोग । कै से स़फ़ होगा ये गंग़ हम़रा , गिऩह कर अते यह़ँ नह़ने लोग । ह़थं मे ख़ंजर लेकर अते हं ऄब, मज़हब क़ मतलब हमं समझ़ने लोग ।

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w/o देिेन्र ऩथ ऽमश्ऱ (पिऽलस ऽनराक्षक ) फ़्लैर् नंबर – 302, ऽहल हॉईस, खंद़रा ऄप़र्टमंर् , खंद़रा, अगऱ-282 002

डा-1/35, द़ऽनश नगर होशंगब़द रोड भोप़ल (म०प्र०) 462 026 मोब़० 9893007744 ~✽~

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व्यंग्य

म़य़ की ममत़ अश़ शैला

पहले मंने सोच़ थ़, श़यद मिझे सिनने मं धोख़ हुअ हो पर नहं जा, ब़त एकदम सच था। हम़रे शहर मं कऽि सम्मेलन होने ज़ रह़ थ़। हम़ऱ छोऱ्-स़ कस्ब़निम़ शहर और कऽि सम्मेलन? आस सम़च़र को झीठ़ समझने क़ क़रण शहर क़ नारस ि़त़िरण थ़। ककन्ति गंग़ऱम जा जो खबर ल़एँ िह झीठ कै से हो सकता था? खबर एकदम सोलह अने नहं सौ पैसे सच था। अयोजक गण एकदम कऽित़-शीन्य और क़व्य ऄरऽसक लोग थे आसाऽलए मिझे लग़ कक खबर झीठा होगा। हुअ दरऄसल यीँ कक ईस कदन गंग़ऱम जा ऄच़नक हा मेरे कमरे पर अ धमके । िे साकढ़य़ँ चढ़ते हुए ह़ँफने लगे थे, कफर भा बोलने क़ प्रय़स कर रहे थे। ऄऽन्तम साढ़ा पर प़ँि रखते हुए मिझे स़मने देखकर िे हकल़ने लगे, ‘‘ऄरे मैडम जा...सिऩ अपने... कऽि....कऽि ...सम्मेलन! ‘‘ऄरे गंग़ऱम जा! अप दम तो ले लाऽजए।’’ मंने कह़ तो ईन्हंने ह़थ से ऄपने ठाक होने क़ संकेत देते हुए कफर कह़, ‘‘डेढ़....डेढ़ ल़ख क़ ठे क़.....गय़ है...मैडम जा.....कऽि सम्मेलन क़।’’ मंने ईन्हं दोनं कं धं से पकड़कर कि सी पर बैठ़ कदय़। प़ना पाकर िे कि छ स्िस्थ हुए तो कफर कहने लगे, ‘‘देख़ अपने.....सहा क़मं पर आन लोगं को च़र पैसे भा खचट कऱऩ ककतऩ करठन होत़ है और ये कऽि सम्मेलन.....?’’ ‘‘पर हुअ क्य़ गंग़ऱम जा? ऄच्छा हा तो ब़त है कक हम़रे छोर्े -से शहर मं भी कमव सम्मेलन होने जा रहा है। वह भी आतने बड़े बजर् क़। क्य़ अप नहं च़हते कक कऽित़ को बल ऽमले?’’ ‘‘ऄरे मैडम जा। ऐस़ होत़ तो सबसे ज्य़द़ खिशा मिझे हा होता पर अप क्य़ समझ रहा हं कक ये ऽछछोरे लोग सचमिच ऄच्छे कऽियं को बिल़ रहे हं? भ़ण्ड आकट्ठे ककए ज़ रहे हं, भ़ण्ड। सब स़ले घरर्य़ चिर्कलेब़ज और ऽछछोरे लोग हं। आन्हं कऽित़ की क्य़ समझ? और ऄपने अप को बड़़ ऽि​ि़न समझते हं।’’ गंग़ऱम जा ने ऄपना पीरा भड़़स ऽनक़ल दा। ‘‘चऽलए! हम भा चलंगे सम्मेलन मं।’’ ‘‘अप को कौन बिल़एग़? ईनकी पोलं नहं खिल ज़एँगा अपके ज़ने से?’’ ‘‘ज़ने दाऽजए न । न बिल़एँ । क्य़ हमं प़ण्ड़ल मं ज़ने से रोकं गे? ऄच्छ़ ये बत़आए कौन-कौन अ रह़ है?’’ मंने कह़ तो गंग़ऱम जा ने बिऱ-स़ मिँह बऩकर कि छ ऐसे ऩम ऽगऩए जो कभा सिने भा नहं थे और गंग़ऱम जा कफर ऽभनऽभऩने लगे। मंने बड़ा करठनत़ से गंग़ऱम जा को श़न्त ककय़ और ऽनयत समय पर हम भा श्रोत़ओं के ऽलए ऽनऽश्चत कि र्मसयं पर ज़ बैठे। ISSN –2347-8764

सोलह शुंग़र से नख-ऽशख सजा कि छ ब़ल़ओं ने मंच की शोभ़ ऽिगिऽणत की तो कि छ चिर्कि ले-ब़ज ऄपने हुनर क़ प्रदशटन करके ब़र-ब़र श्रोत़ओं से त़ऽलयं की भाख म़ँग रहे थे। हम़रे अगे की कि र्मसयं पर बैठे कि छ लोग अपस मं चच़ट कर रहे थे। ईनक़ ध्य़न मंच की ओर कम और अपस की चच़ट की ओर ऄऽधक थ़। एक ने कह़, ‘‘जोशा जा! ऐसे हा कऽि सम्मेलन होते हं क्य़? हम तो कि छ और हा समझे थे।’’ ‘‘ऄरे भ़इ! ये सब तो ल़फ्र्र चैलन के चिर्कलेब़ज हं।’’ जोशा जा ने ईत्तर कदय़। ‘‘कम़ल है। आसा के ऽलए हमसे चन्द़ म़ँग़ है आन्हंने? यह क़यटक्रम तो हम लोग र्ािा पर िी मं रोज देखते है।’’ एक ऄन्य व्यऽक्त बोल़। ‘‘आतऩ चन्द़ कदय़ है ऄब चिपच़प बैठकर ऩर्क देखो।’’ चौथे ने कह़। ‘‘और आन औरतं को देखो।’’ जोशा जा बोले, लगत़ है जैसे ककसा ऩर्क मं भ़ग लेने अइ हं। य़ ऄपऩ कपड़़-जेिर कदख़ने अइ हं।’’ मंच पर ह़ि-भ़ि के स़थ कऽित़ पढ़ता एक कन्य़ को लक्ष्य करके जोशा जा बोले। तभा क़ले से एक व्यऽक्त ने कऽित़ प़ठ करता लड़की पर छंऱ्कशा शिरू कर दा। लड़की ने ब़क़यद़ ईसा ऄंद़ज़ मं ईसे ईत्तर देऩ शिरू कर कदय़। थोड़ा हा देर ब़द श्रोत़ धारे -धारे जब कम होने लगे तो मंने गंग़ऱम जा को कि हना म़रा। गंग़ऱम जा ऐसे ईछले जैसे ऽबच्छी ने डंक म़ऱ हो, ‘‘हो गय़ क्य़ खतम?’’ गंग़ऱम जा ब़क़यद़ झपकी ले चिके थे। ‘‘नहं गंग़ऱम जा। ऄभा तो आन लड़ककयं से पीऱ पैस़ िसील़ ज़एग़।’’ लड़की बैठ गइ था। तभा एक बिजिगट कऽि को कऽित़ प़ठ के ऽलए मंच पर बिल़य़ गय़। बेच़ऱ जैसे हा मंच पर पहुँच़। लोग ईठने लगे। अयोजक श्रोत़ओं से ऄध्यक्ष को सिनने क़ अग्रह करने लगे परन्ति प़ण्ड़ल तो ख़ला हो चिक़ थ़। ‘‘हम चलं?’’ हम भा ईठ खड़े हुए। ऄभा हम कि छ कदम हा चले थे कक पाछे से शोर सिऩइ कदय़ और हम िहं रुक गए। पत़ चल़ कक भिगत़न को लेकर कऽियं और अयोजकं मं ख़सा ऽझकऽझक हो रहा था। गंग़ऱम जा ऽखन्न थे, ‘‘क्य़ हो गय़ है मैडम जा आनलोगं को? स़ऽहत्य को भा नहं बख़्शते।’’ ‘‘म़य़ की म़य़ है गंग़ऱम जा।’’ ‘‘क्य़ मतलब?’’ ‘‘ऄरे भोले अदमा! यह भा तो ऽबजनेस बन गय़ है। समझे कि छ?’’ ‘‘ह़ँ.....ह़ँ....’’ और गंग़ऱम जा प़ण्ड़ल से ब़हर ऽनलते हुए गिनगिऩ रहे थे.... ‘‘गंग़ऱम की समझ मं न अए....न अए तो न अए.....गंग़ऱम की समझ मं न अए।’ ~✽~ क़र रोड, हिबदिखत्त़, पो. ल़लकि अँ, ऽजल़ नैनात़ल-262402 मो. 9456717150 / 895811053 ha.shailly@gmail.com

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व्यंग्य

लोन कि म़र गौरि ऄऽजतेन्दि

छि ट्टा क़ कदन थ़। दँतिल ब़बी अऱम से नह़कर तंदपर ह़थ और ब़लं मं कं घ़ फे रते अइने के स़मने खड़े हुए हा थे कक मोब़आल र्नर्ऩ ईठ़। "हैलो, कौन?" "सर मं जेडा आं र्रप्ऱआजेज से महेश कि म़र बोल रह़ हूँ, अप हम़रे भ़ग्यश़ला ग्ऱहक बने हं और अपके ऽलए हमने एक लोन क़ बड़़ पैकेज ऽनऽश्चत ककय़ है जो अप अज संध्य़ छः बजे हम़रे श़ऽमय़ऩ ऄप़र्टमंर्, एन. के . मेहत़ रोड ऽस्थत क़य़टलय मं पध़रकर प्ऱप्त कर सकते हं ।" "ऄरे क़हे लं लोन-िोन? ये कोइ ऽगफ्र् हुअ? चिक़ऩ भा तो हमहं को पड़ेग़!" "ईसकी हिचत़ तऽनक भा न करं सर, जब भा च़हं चिक़ दं ऄथि़ न भा चिक़ऩ हो तो कोइ ब़त नहं, शेष ब़तं श़म को करते हं, धन्यि़द ।" आसके ब़द फोन ईधर से कर् हो गय़। दँतिल ब़बी के पैर ऄब जमानपर नहं थे। ऽजस मिऽफ्तय़ गोि़ समिरातर् के सपने देखते-देखते बचपने से पचपऩ अ गय़ िह ऄब एकदम अँखं के स़मने ऩचने लग़, मिल़यम रे ताला भीऽम, ऄठखेऽलय़ँ करतं जलपररय़ँ, ज्ि़रभ़ऱ्। सिखस्ि​ि मं लान सीरत के मिस्कि ऱते खिले मिख मं अगे के दो खरगोश ब्ऱंड द़ँत ऽजन्हंने ईनको द़त़ऱम से दँतिल ब़बी बनि़य़, शोभ़यम़न हो रहे थे। तभा प़ना के मोर्े से थपेड़े ने हड़बड़ि़ कदय़ । "ए कौन है, कौन है?" चंकते खड़े हुए। बािा चर्परर्य़ की हऽथना क़य़ ह़थ मं लोऱ् ऽलए खड़ा ऽमला। "यह़ँ सोफे पर मिँह फ़ड़े क्यं ऽगरे हो? ककसक़ फोन थ़?" "ऄरे तिमको च़ँय-च़ँय के ऄल़ि़ कि च्छो और अत़ है कक नहं? के तऩ बकढ़य़ सपऩ देख रहे थे।" "सपऩ गय़ चील्हे मं, ककसक़ फोन थ़ उ बत़ओ ।" ऽखऽसय़ए दँतिल ने पीरा ब़त बत़इ। चर्परर्य़ ईछल पड़ा । "ऄरे तऻ ईस समय से नहं बत़ऩ थ़ ।" दँतिल जा कि ड़कि ड़़ ईठे , हुँह, ऄभा-ऄभा फोन अय़ और ऽसरपर सि़र हो गया तब भा कहता है कक ईस समय से नहं बत़ऩ थ़, जआसे प़ँच घंर्े पहले क़ मैर्र सब। आतने ISSN –2347-8764

मं ईनकी सबसे छोर्ा स़ला जो िहं रहके पढ़़इ करता था, ऄपने कमरे से दौड़ा अइ । "जाज़, अज तो प़र्ी ले के रहंगे ।" "ए देखो कल्य़णा, हमको एहा सब ऄच्छ़ नहं लगत़ है, ब़त-ब़तपर प़र्ी दं, अँय?" "नहं दोगे! ऄभा बत़ते हं ।" कल्य़णा ने ईनको ि़पस सोफे पर धके ल़ और गिदगिदा शिरू कर दा । "ए-ए हाहाहाहा, उ-उ ह़ह़ हूहू छ...छोड़...छोड़ो...ह़ह़हाखाखा" गिदगिद़स्त्र ने दँतिल ब़बी के मिख से हँसाऩक चाखं ऽनकलि़ना अरं भ कर दा। पल दो पल मं िह़ँ पहुँचा ईनकी सिपित्रा फि लौरा ने भा ऄपना मौसा के कं धे से कं ध़ ऽमल़ कदय़। ऩराशऽक्त के दोहरे अक्रमण को झेलते पऽतपर दय़ कदख़ने की बज़ए चर्परर्य़ ऄपने समिद़य क़ ईत्स़ह बढ़़ने मं कोइ कसर नहं छोड़े था । "ह़ँ-ह़ँ, कमर के प़स कर, बहुत िाक प्ि़आं र् है आनक़, कं जीस-मक्खाचीस, ऄपने ऑकफस क़ बड़़ ब़बी और यह़ँ एक रुपय़ खचटने मं अऩक़ना..." तभा सबकि छ सिन रह़ भताज़ छन्नी गिसलख़ने से तार की तरह ऽनकल़ और दँतल ि की लिग ं ा चारहरण के स्ऱ्आल मं सरट रट से खंच के ि़पस भ़ग़ । "चच़, ककतनाब़र बोल़ है कक कपड़े मिझे दे कदय़ करो ऄपने धोने के ऽलए ।" "एऻ हाहाहा...ह़ह़ स़ल़ एक ठो रुम़ल कभा नहं धोय़ अईर अज लिंगा क़ ब़त...खाखाहूहू...उ भा पहऩ हुअ ईत़रे ग़ रे ? पगल़ गय़ है । ससिऱ...ह़ह़ह़" ऄब म़त्र गंजा-कच्छे मं ऄपना आज्जत को लपेर्े, हँसा की पाड़़ सहते दँतिल क़ द़रुण स्िर फी ऱ् लेककन ऽत्रदेऽियं को ऽपघल़ने मं ऄसफल रह़। प़ँच ऽमनर् होते-होते दँतिल भैय़ ज़न गये कक ऄब यकद ये सब न रुक़ तो ईनक़ लघिशंक़ रूपा समपटण तय है ऄतः हऽथय़र ड़ल गये । "ऄबे...खाखाखा...रु...रुक...हाहाहाहा...क...ककतऩ पआस़ च़ऽहए?" "ओह ऄब क्य़ मिसाबत अ मरा?" सोचते घबऱ दरि़ज़ खोल़। पड़ोसा र्ि न्ऩमल कि नबे के स़थ खड़़ थ़।

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"ह़ँ, ऄब अए रस्तेपर" कल्य़णा ऽिजया भ़ि चेहरे पर सज़ए खड़ा हुइ "कोइ पैस़िैस़ नहं, हम अज ब़ज़र ज़कर ऄपनेऄपने पसंद की शॉहिपग करं गे और जो ऽबल होग़ ल़कर दे दंग,े भर अऩ, बड़़ पैकेज ऽमल रह़ लोन क़ और दस-प़ँच देकर र्रक़ रहे ।" "ठाक है हम्फ...हम्फ ज़ओ जल्दा" ह़ँफते हुए दँतिल ब़बी ने मिसाबत को तत्क़ल दीर करऩ हा ईऽचत समझ़। तानं बोराशेप के कइ झोले ईठ़के चल पड़ं। ईनके ज़ने के ब़द नया लिग ं ा ब़ँध ब़ल-ि़ल सँि़र के दंतिल जा ऽबस्तर पर बैठे हा थे कक कॉलबेल बज ईठा । "हंहह ं ं दँतिल भैय़, बध़इ हो, छतपर अपक़ अज्ञ़क़रा भताज़ छन्नी कपड़े सिख़ रह़ थ़, ईससे हा पत़ चला अपके िी लोन ऽगफ्र् ऽमलने की सिखद खबर, आसा खिशा मं अपके स़थ ऩश्त़रूपा प्रस़द हम भा ग्रहण कर लंग,े यहा सोचकर चले अए" दँतिल ब़बी परे श़न। देऽिय़ँ तो ऽबऩ कि छ पक़ए हा खराद़रा करने भ़ग गया थं सो प़स के महँगे होर्ल से सबकि छ मँगि़ऩ पड़़। ऽतसपर भा र्ि न्ऩमल के दस स़ल के बेर्े की ऽडम़ंड बाच-बाच मं फि ल त़ि के स़थ । "ऄंकल, कचौररय़ँ और मँग़ओ...जलेबा से मन नहं भऱ...लड्डी भा" र्ि न्ने की पत्ना तो अठ रसगिल्ले ख़कर भा कहता, भ़इस़हब, बस च़र हा और मँग़आग़" और तो और, ज़ते-ज़ते ईनकी ल़डला र्ेबलपर रखा कीमता क्लॉक भा ईठ़ गया। दँतल ि कि छ कहते आससे पहले हा र्ि न्ने ने प्लेर् मं बचा अऽखरा पीरा ईठ़कर मिँह मं ठीँ स दा, हंहह ं ं ले लो बेर्ा, ले लो, च़च़ प्य़र से दे रहे हं। बेच़रे दँतल ि ब़बी के पीरा ऽनगलते-ऽनगलते िे लोग नौ दो ग्य़रह हो चिके थे। जैसे-तैसे स़ऱ म़मल़ ऽनपऱ्। र्ोर्ल ऽहस़ब देख़ तो प़ँच हज़र क़। गररय़ते मन से बैरे को रुपये पकड़़ए और ि़पस बेडपर लेर् गये। नंद मं खोते हा सिह़ने ख्ि़बं ने पिनः ऱग छेड़ कदय़। ऄच़नक पाठपर मस़ज की ऄनिभीऽत प़ नयन खिले तो भताज़ सेि़भ़ि से रत ऽमल़। "चच़, अज तो ब़आक के पैसे दे हा दो" ISSN –2347-8764

"घंची कोइ पच़स हज़र की ब़आक खराद...ह़य रे ऻ" ब़त पीरा होने से पहले ददट क़ ऄहस़स पीऱ हो गय़। न की गिंज़आश ने हा भताजे के ह़थ जऱ जोर से चलि़ कदये थे । "कब से कह रह़ हूँ और अज तो श़म को ल़खं रुपये ऽमलने हा ि़ले" िो द़ँत पासते हुए गिऱटय़ "समझते नहं हो अप न! ककसा कदन लोकल बस से ऽगर के मरमिऱ गय़ तो पिऽलस अपको हा ले ज़एगा कक ग़ँि क़ खेत हऽथय़ने के ऽलए च़च़ ने भताजे की हत्य़ करि़ दा ।" ईसकी आसब़त मं ऽछपे गीढ़थट को त़ड़ते हा दँतिल को सचमिच घबऱहर् होने लगा। अज ये नहं म़नेग़, सोचकर पीरा शऱफत क़ प्रदशटन करते हुए ऄलम़रा से पच़स हज़र ऽनक़ल के पकड़़ कदय़, "ले भ़ग !" छन्निअ ईनको जोरद़र ककस कर ब़हर की ओर दौड़ गय़। तलमल़ते दँतल ि भैय़ पाछे से मिक्क़ कदख़ के ि़पस सो गये। थोड़ा देर ब़द चर्परर्य़, कल्य़णा और फि लौरा संग घर लौर्ा। एक चपत घिसते हा लग़इ । "ओय ईठो जा" "ह़ँय क्य़ हुअ" हकबक़ के ईठे । "इ लो पकड़ो, स़म़नं की रसाद, सब ऽडस्क़ईं र् ऑफर सेल मं से ल़ये हं हम खच़ट बच़के ।" रसाद देखा तो ह़र्ट ऱजध़ना एक्सप्रेस हो गय़, एक ल़ख दस हज़र रुपये ! "कदम़ग खऱब हो गय़ क़ रे तिमसब क़? स़त-स़त हज़र क़ सीर् ऽलय़ ज़त़ है?" "ओ प़प़, ये सब दस-दस हज़र क़ थ़, छी र् से ल़ए हं स़त मं" फि लौरा आठल़ता बोला । "भेज़ मत ख़ओ, कौन स़ तिम्ह़रा ऽतजोरा से ज़ऩ? फोकर् की लॉर्रा लग हा गया है तो कब क़म अएगा?" कल्य़णा ईँ गऽलय़ँ नच़के सिबहि़ला गिदगिकदय़ त्ऱसदा की य़द त़ज़ कऱते धमक़ गया। दँतिल ने अगे कि छ न हा बोलऩ सहा ज़ऩ। दोपहर क़ ख़ऩपाऩ हुअ। ईतना देर मं छन्नी नया ब़आक ऽलए अ गय़। "ि़ओ भैय़, नया मोर्रस़आकल!" फि लौरा ईछल के ऽपछला सार्पर सि़र हो गया। मोहल्ले के ऱईं ड म़रते-म़रते स़ढ़े प़ँच ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

हो गये। सभा फऱ्फर् तैय़र होकर बत़ए पतेपर पहुँचे। च़रं ओर नजरं घिम़ लं। कोइ बंकिकग संस्थ़ जैसा चाज सीझ नहं रहा था। िहं की एक ककऱऩ दिक़न से पीछ़ । "भ़इ ये जेडा आं र्रप्ऱआजेज क़ ऑकफस ककधर है?" ऄंदर बैठे तेरे ऩम मीिा के सलम़न कर् जिल्फंि़ले बंग़ला ब़बी चहक ईठे । "ऄरे ये हा तो ह़य जेडा आं र्रप्ऱआजेज, देखो बोडट भा बनि़ के म़ँगि़ रख़, कल र्ँग़य लेग़ ।" "क्य़? ये है जेडा आं र्रप्ऱआजेज?" कोने मं पड़़ बोडट देख सब के सब चंक पड़े । "ह़ँ-ह़ँ बंधि, य़हा ह़य जेडा आं र्रप्ऱआजेज, हम झिनझिऩ द़, औपने हा ऩमपर आस दिक़न क़ ऩम तो सोच़ ।" "लेककन हमको तो सिबह ककसा जेडा-िेडा के दफ्तर से फोन अय़ कक लोन क़ बड़़ पैकेज ऽमलनेि़ल़ िी मं.." मिँह मं अते कलेजे को ककसा प्रक़र बैक ऽगयर मं ऽनगल दँतल ि ब़बी दानभ़ि से बोले । "ईड़ा ब़ब़, अप द़त़ऱम जा? बैठोबैठो, कॉल हम़ऱ हा स्ऱ्फ ककय़ थ़, उ प़ऽहले ककशा कॉल संर्र मं थ़ सो आश नया दिक़न के एडिरऱ्आजमंर् के ऽलए ऐश़ अआऽडय़ सोच़, देखो सक्सेसफि ल हुअ, ककत्त़ श़ऱ लोग एकस़थ अ गये हंहंहंहं !" "मगर िो लोन..." दँतिल प्य़रे को दिऽनय़ घीमता नजर अने लगा था । "अरे ह़ँ ब़ब़, लो प़कड़ो औपऩ लोन क़ पैकेज" कहते हुए नमक के ढ़इ-ढ़इ सौ ग्ऱम के प़ँच पैकेर् पकड़़ कदये । "ये क्य़ नमक?" चर्परर्य़ हैरत से बोला, दँतिल जा तो बस ईछलते कदल को ककसा तरह से थ़मे ईस बंग़ला को त़क रहे थे । "ह़ँ लिण, ऄशल मं हम़रे स्ऱ्फ क़ हिहदा बहुत त़गड़़ ह़य, िह लिण को ख़ँर्ा हिहदा मं लोन बोलत़ ।" चकऱ के ऽगरते दँतिल ब़बी को झिनझिऩ द़ के शब्द र्ी र्े-फी र्े से सिऩइ कदये "इ बेहोश क़आको हो गय़?" ~✽~ पत़ - c/o श्रा निेन्दि भीषण कि म़र श़हपिर (ठ़कि रब़ड़ा मोड़ के प़स), द़ईदपिर (पोस्र्) द़ऩपिर (कं र्), पर्ऩ -

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दाप़िला ऽिशेष

स़धऩ क़ ऄमुतक़ल है दाप़िला ऽिनात शम़ट दाप़िला पिट स़धऩ क़ ऄमुतक़ल है। धन-ध़न्य की देिा लक्ष्मा की अऱधऩ क़ पिट। समिर मंथन से ऽनकला लक्ष्मा के दो रूप हं। एक भगि़न ऽिष्णि के स़थ गरुणि़ऽहना, ऽजन्हं ऄथिटिेद मं पिण्य लक्ष्मा कह़ गय़ है। दीसरा एक़ंत स्थ़न पर ऄंधेरे मं ईलीक पर सि़र प़प लक्ष्मा। प़प लक्ष्मा रोग और मुत्यि की देऽिय़ं हं, तो पिण्य लक्ष्मा स्ि़स्​्य, सिख और यश की। ऄथिटिेद मं िर्मणत सौ लऽक्ष्मयं को प़प और पिण्य लक्ष्मा के िगं मं रख़ गय़ है। क़र्मतक कु ष्ण ऄम़िस्य़ के ऄंधक़र मं श्रम, स्नेह और ऽिश्व़स क़ दाप जल़कर हम ऽिष्णि के स़थ गरुण पर सि़र लक्ष्मा क़ अह्ि़न करते हं। लक्ष्य के ऽबऩ लक्ष्मा नहं ऽमलता और लक्ष्य हा प्रगऽत क़ अध़र है। प्रगऽत के ऽलए ज्ञ़न और ज्ञ़न के ऽलए एक़ग्रत़ क़ होऩ जरूरा है। ऄमुतक़ल मं दाप़िला पर आसा एक़ग्रत़ को स़धने की जरूरत है। ऄमि़स की ऱतभर अत्मबल की ज्योत से जलत़ दाय़ पौ फर्ते हा सीयट को ऄपना ज्योऽत क़ प्रऽतद़न कर पीणट हो ज़त़ है। दाये और सीयट के बाच क़ यह संबध ं ऄंधेरे से संघषट मं अत्मद़न की परं पऱ को पिष्ट करत़ है। दाप़िला शब्द दाप और अिला की संऽध से बऩ है। अिला ऽजसे पंऽक्त कहते हं य़ना दापं की पंऽक्त। दायं की आन कत़रं मं ब़ता की ज्योत के स़थ न ज़ने ककतना दिअएं, श्रि़, भऽक्त और स्नेह एक स़थ स़क़र होते हं... आनके संस्क़रं की उष्म़ पाकढय़ं को संचता है। दाये मं जलता ब़ता ऄंधेरे के ऽिरुि संघषट क़ मंत्र देता है। आसाऽलए दाप़िला को ऄंधेरे अक़श मं नन्हा सा ज्योत के संघषट और ऽिजय क़ ईत्सि कह़ गय़ है। तमसो म़ ज्योऽतगटमय’ ऄथ़टत् ऄंधरे े से ज्योऽत ऄथ़टत प्रक़श की ओर ज़आए, यह ईपऽनषदंकी अज्ञ़ है। दाप़िला के अयोजन से जिड़़ श्राऱम के लंक़ऽिजय क़ प्रसंग हमं ऽिश्व़स कदल़त़ है कक सत्य की सद़ जात होता है। आं रजात मेघऩद, िैज्ञ़ऽनक किं भकणट और मह़बला ऱिण की सेऩ के प़प को दो िनि़सा यि​ि़ओं के तेज की ज्ि़ल़ से भस्म करने क़ पिट। रौशना, खेल-तम़शे, मेल-े ठे ले और ऄऩर-फि लझऽडय़ं के बाच दाप़िला के अध्य़ऽत्मक पक्ष को समझऩ भा महत्िपीणट है। दाप जलत़ है ऄपना ज्योऽत क़ अलोक ऽबखेर कर ऄंधक़र को भग़ने के ऽलए। दाप़िऽलय़ँ ऄपने प्रक़श से ऽतऽमर क़ ऩश ISSN –2347-8764

करता हं। ज्ञ़न और सतोगिण के प्रक़श के समक्ष तमोगिण और ऄज्ञ़न क़ ऄंधक़र ठहर नहं प़त़। ऄज्ञ़नत़ के ऄंधेरे मं व्यऽक्त जघन्यतम प़प करत़ है। ज्ञ़न के प्रक़श मं जब स्ियं के ऄऽस्तत्ि क़ बोध होत़ है, प़प क़ भ़ि नष्ट हो ज़त़ है। दापक प्रक़श पिंज है जो ऄंधक़र मं भर्के हुए को पिण्य की ऱह पर ल़त़ है। दापक की उपर ज़ता हुइ लौ ऽलम़ क़ पररत्य़ग करता है। अलोककत होने ि़ला दाप़िऽलय़ँ हमं बत़ता हं कक ज्ञ़न प्रगऽत क़ ि़र है और एक़ग्रत़ ि तन्मयत़ आसकी सहेला। ब़ता रूइ की बनता है, ऽजसक़ सफे द रं ग सतोगिण क़ प्रताक है। रूइ को क़मऩ और ि़सऩ पर ऽनयंत्रण क़ बल देकर गींथने से सद़च़र की ब़ता बनता है। यहा ब़ता दापक क़ अध़र है, ऽजसे तेल क़ सहयोग ऽमलत़ है और तेल को कदए मं अश्रय ऽमलत़ है। ब़ता क़ ऄपऩ ऄऽस्तत्ि होते हुए भा िह तेल को ऄपऩ ऄग्रज म़नता है। तेल हा है जो ब़ता के प्रक़श को स्थ़या बऩत़ है। तेल आतऩ तरल है कक िह स्ियं को ककसा भा प़त्र के अक़र के ऄनिरूप संयोऽजत कर लेत़ है। यह आस ब़त क़ संदेश है कक ि़त़िरण के ऄनिकील बनकर रहऩ हा ऄपने ऄऽस्तत्ि की किं जा है। स़मंजस्यत़ म़नि के जािन मं सफलत़ की किं जा म़ना ज़ता है। तेल स्नेह क़ पररच़यक है। स्नेह से शत्रि को भा ऽमत्र बऩय़ ज़ सकत़ है। ऽमट्टा क़ दाय़ तेल को अश्रय देत़ है। कच्चा ऽमट्टा की तिलऩ बचपन से की ज़ सकता है। किं भक़र जैस़ च़हत़ है कच्चा ऽमट्टा को कोइ भा अक़र दे देत़ है। यह आस ब़त क़ संकेत है कक बचपन मं जो संस्क़र कदए ज़ते हं, िहा जािन मं स्थ़या बन ज़ते हं। ऽमट्टा क़ प़त्र, तेल तथ़ ब़ता क़ संगम हा दापक को सदैि अलोककत कर सकत़ है। कोमलत़, स्नेह और सद़च़र की ऽत्रिेणा मं हा ज्ञ़न क़ ऽिक़स संभि है। कोमल हृदय, स्नेहशाल और सद़च़रा व्यऽक्त हा ज्ञ़न के अलोक क़ ि़हक होत़ है। दाप़िला के स़ंस़ररक पक्ष की चच़ट करं तो यह क़ला लक्ष्मा के ईज़ले क़ पिट बनत़ ज़ रह़ है। ग्लोबल अक़ंक्ष़ओं को पीऱ करने के ऽलए व्यऽक्त को लक्ष्मा च़ऽहए, च़हे कै से भा ह़ऽसल हो। जािन से जिड़े हर ईप़द़न, परं पऱ और मील्य के मील मं लक्ष्मा है। आस दौड़ मं स़ंस्कु ऽतक मील्य पाछे छी र् गए। ~✽~

पत्रक़र, ऱजस्थ़न पऽत्रक़, सीरत (गिजऱत)

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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कह़ना

सच्चा दाप़िला डॉ. मंजरा शिक्ल

दाप़िला क़ पिट नजदाक अ रह़ थ़ और स्की ल मं सभा बच्चं के मन मं म़नं खिऽशयं के पंख लग गए थे और िे तम़म तराके से रोज नए पऱ्खं की ऽलस्र् बऩते और कफर ऄच़नक दीसरे पऱ्खे य़द अ ज़ते तो पहला ऽलस्र् के हिचदे करके च़रं ओर ईड़़ देतेI कोइ ऄपने ऽलए नए कपड़े खरादने क़ सोच रह़ थ़ तो ककसा ने स़ल भर बचत करके पऱ्खे खरादने क़ सपऩ देख रख़ थ़ I ककसा-ककसा क़ तो ये ह़ल थ़ कक कदन-ऱत पऱ्खं के ब़रे मं सोचते रहने के क़रण ईसे सपने मं भा रं गऽबरं गा फि लझऽड़य़ और अऽतशब़ऽजय़ं कदख़इ देता था I अज सभा बच्चे बहुत खिश थे क्यंकक दाि़ला की छि रट्टय़ होने ज़ रहा था I तभा हिप्रऽसपल सर ने सभा बच्चं को हॉल मं बिलि़य़ और दाि़ला की शिभक़मऩ देते हुए कह़"मंने अज एक महत्िपीणट घोषण़ करने के ऽलए तिम सबको यह़ँ बिलि़य़ हं I" यह सिनकर सभा छ़त्र ईत्सिक हो ईठे और एक दीसरे की तरफ प्रश्नि़चक रऽष्ट से देखने लगे I छ़त्रं की ईत्सिकत़ देखकर हिप्रऽसपल सर मिस्कि ऱकर बोले-" जो भा छ़त्र सबसे श़नद़र और धीमध़म तराके से दाप़िला क़ पिट मऩयेग़, ईसे ऽिद्य़लय की तरफ से प़ँच हज़र रुपयं क़ इऩम कदय़ ज़एग़ I" आतने रुपयं की ब़त सिनकर तो म़नं छ़त्रं क़ ईत्स़ह हज़र गिऩ बढ़ गय़ और िे खिशा से ऐसे झीम ईठे म़नं ईनके ह़थ मं प़ँच हज़़र रुपये अ हा गए हो I िे अपस मं ऄपना तैय़ररओं के ब़रे मं ब़त करते हुए और एक दीसरे को दाप़िला की बध़इय़ देते हुए स्की ल से घर ज़ने के ऽलए दौड़ पड़े I सबसे बेहतर करने की होड़ मं बच्चं ने जोरो -शोरो से नए नए तराकं को ऄपऩकर ऄपना कमर कस ला था I ऽझलऽमल करने ि़ला झ़लरं घरं की मिड ं े रो ISSN –2347-8764

की शोभ़ मं च़र च़ँद लग़ने लगा I नाला, ल़ल, हरा, पाला और भा ऩ ज़ने ककतने रं गं की मेल की रं गोला ईनके घरं के अगे सजकर एक नइ अभ़ ऽबखेरने लगा म़नं असम़न से ईतरकर आन्रधनिष धरता पर अ गय़ होI ऽजस कदन दाि़ला था ईस कदन हिप्रऽसपल सर श़म को ऄपने स्की ल के अस प़स के बच्चं के घरं की तैय़ररय़ देखने ऽनकल पड़ेI बच्चं ने सच मं आऩम प़ने के ल़लच मं जा ज़न लग़ दा था और सभा ने बहुत मेहनत की था I ककसा के घर मं रं गान ऽसत़ऱ ऐसे ऩच रह़ थ़ म़नं िो अक़श मं रर्मरर्म़ते हुए त़रं को म़त दे रह़ हो तो ककसा के घर की छत पर छोर्े -छोर्े जगमग़ते बल्बं से बना झ़लर मन को बरबस हा मोह ले रहा था I खीबसीरत ऽमट्टा के दायं की कत़रं क़ तो कोइ जि़ब हा नहं थ़ I ऽजन घरं की सज़िर् ईनको बहुत पसंद अ रहा था,ईन बच्चं के ऩम िह एक सीचा मं ऽलखते ज़ रहे थे I तभा ईनकी नजर एक बहुत हा छोर्े और स़ध़रण से मक़न पर पड़ा I ऽजसमे रं ग रोगन तो दीर की ब़त, दरि़जे के ब़हर एक कदय़ तक नहं जल रह़ थ़I ईत्सिकत़िश िह ईस घर की ओर चल पड़ेI प़स ज़ने पर ईन्हंने देख़ कक कमरे के ऄन्दर से कदए की मऽिम रौशना क़ प्रक़श अ रह़ थ़I ऽखड़की से झ़ँकने पर ईन्हंने देख़ कक ऽबस्तर पर एक कमजोर सा औरत लेर्ा हुइ था और ईसके बगल मं एक लड़क़ खड़़ थ़ I ऄच़नक ईन्हं ध्य़न अय़ कक िह लड़क़ तो रोहन हं,ऽजसने आस स़ल पीरे ऽजले मं र्ॉप करके ईनके ऽिद्य़लय क़ ऩम रोशन कर कदय़ थ़ I िह ऄन्दर ज़ने हा ि़ले थे कक तभा िह औरत रोहन से बोला-"बेऱ्, ईधर अले मं कि छ पैसे रखे हं I ती ज़कर ऄपने ऽलए कि छ ऽमठ़इ और पऱ्खे तो ले अ I सिबह से त्यौह़र के कदन भा मेरे प़स भीख़ प्य़स़ बैठ़ हं I हिप्रऽसपल सर ने सोच़ जब रोहन पऱ्खे लेने ऽनकलेग़ तो िह भा ईसे कि छ पैसे दे दंगे I पर तभा रोहन बोल़-"नहं म़ँ, ईन पैसो से मं तिम्ह़रे ऽलए दि़ और फल ल़उंग़, त़कक तिम जल्दा से ऄच्छा हो ज़ओ I" यह सिनकर ईसकी म़ँ की अँखं से अँसीं बह ऽनकले और िह बोला-"बेऱ्,तिझे तो पऱ्खे बहुत पसंद हं ऩ Iआतने स़रे पऱ्खं की अि़जे अ रहा हं ,क्य़ तेऱ मन नहं कर रह़ है कक कम से कम ती एक फि लझड़ा हा जल़ ले ?" रोहन यह सिनकर ऄपना म़ँ के अँसीं पंछते हुए रूंधे गले से बोल़-"तिम जल्दा से ऄच्छा हो ज़ओ म़ँ, हम लोग ऄगले स़ल स़थ-स़थ पऱ्खे फोड़ंगे I”

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ईसकी म़ँ ने खाचकर ईसे ऄपने गले से लग़ ऽलय़ और फी र् फी र्कर रोने लगा I यह देखकर हिप्रऽसपल सर सन्न रह गए I ईस ऄँधरे े कमरे की रौशना ने ईनके मन मं एक ऐस़ ईज़ल़ भर कदय़ थ़ ऽजसकी चमक के अगे स़रे शहर की रौशना फीकी पड़ गइ था I िह ऄन्दर ज़कर रोहन से ब़त करऩ च़हते थे ,ईसे स़ंत्िऩ देऩ च़हते थे पर ब़र -ब़र ईनक़ गल़ भर अत़ थ़I आसऽलए िह चिपच़प ऄपने अँसीं पंछते हुए िह़ँ से चले गए I दीसरे कदन सभा बच्चे इऩम के पाछे जल्दा हा स्की ल पहुँच गए और हिप्रऽसपल सर क़ आं तज़़र करने लगे I जैसे हा सर अये ,बच्चे ईत्सिकत़ से ईनसे की द की द कर इऩम क़ पीछने लगे I हिप्रऽसपल सर ने प्य़र से बच्चं के सर पे ह़थ फे ऱ और मंच पर ज़कर म़आक पकड़ कर कह़ -"कल मंने जो देख़ और सिऩ, िह मं अप सबको बत़ऩ च़हत़ हूँ I" और यह कहकर ईन्हंने सभा बच्चं के घरं और मेहनत की त़राफ़ करते हुए जब रोहन के ब़रे मं बत़य़ तो ईनके स़थ स़थ सभा बच्चं कक अँखं नम हो गइ I सभा छतं क़ कदल रोहन के प्रऽत श्रि़ और सम्म़न से भर ईठ़ I ईन्हंने कभा सपने मं भा नहं सोच़ थ़ कक रोहन ने पीरे ऽजले मं र्ॉप कदए कक मऽिम रौशना और तम़म ऄभ़िं के बाच न ज़ने ककतना मिसाबते झेलते हुए ककय़ थ़ I ईसके म़ँ के प्रऽत ऄसाम प्रेम ने सबको अज ऽनरुत्तर कर कदय़ I ईन्हं एहस़स हुअ कक िो ऄपने मम्मा प़प़ के बहुत महंगे कपड़े और पऱ्खे खरादने के ब़द भा कभा खिश नहं होते बऽल्क ईन्हं स़रे स़ल कहते है कक ईन्हं कदि़ला मं तो ख़़स मज़ हा नहं अय़ थ़ I हिप्रऽसपल सर ने रुं धे हुए गले से पीछ़ "बच्चं, ऄब यह फै सल़ मं तिम सब पर छोड़त़ हूँ कक आस आऩम क़ ऄसला हकद़र कौन हं ?" सभा छ़त्रं एक स्िर मं जोर से ऽचल्ल़ये -"रोहन" और कफर िे सब एक कोने मं खड़े ख़ुशा के म़रे रोहन को ख़ुशा के म़रे ईठ़कर मंच की और ले चले जह़ँ पर हिप्रऽसपल सर त़ला बज़कर ईसे गले लग़ने के ऽलए खड़े थे ओर ऄब बच्चं को भा घर ज़ने की ISSN –2347-8764

जल्दा था क्यंकक अज ईन्हं ऄपने मम्मा प़प़ से म़फ़ी भा तो म़ंगना था और यह कदि़ला रोहन के स़थ स़थ सभा के जािन मं बहुत खिऽशय़ँ लेकर अइ था .. ~✽~ व्यंग्य कऽित़

ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है कु ष्ण मऽलक

ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । अदमा की च़दर है अधा, पैर दिगिने पस़र रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है। पाएचडा ि़ले चल़ते हं दिक़नं, च़य ि़ल़ देश चल़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । कपड़ं की फै क्ट्रा क़ हो म़ऽलक जो ऄपना बेर्ा को सबसे कम कपड़े पहऩ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । पहले रुल़त़ थ़ प्य़ज ऽजनको, अज ईन्हं र्ािा रुल़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । म़ँ ब़प पढ़े च़रप़इ पर, बेर्ा को सपनं की ऽजद ऄड़़ रह़ है। ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । िंश चल़एग़ बेऱ् जो, नशे मं खिद को डी ब़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । बेर्ा क़ पढ़ऩ है जरूरा म़ऩ पर कौन स़ ऽसलेबस फजं से दीर भग़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । दिपट्ट़ सलि़र कमाज पहच़न था ऽजसकी अज जान्स और र्ॉप खीब फै शन चल़ रह़ है। ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । रखा हो मय़टद़ कॉलेज मं ऽजस बेर्ा ने कपड़ं की, सम़ज ईसे हा भंजा बतल़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । तरक्की की ऱग धिन मं संस्कु ऽत क़ गल़ घोर्त़ ज़ रह़ है । ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

क्व़र्टर नंबर D-1433, आं ऽडयन ऑयल क़रपोरे शन ऽलऽमरर्ड, ररफ़़आनरा ऱ्ईनऽशप, ऽिलेज एन्ड पोस्र् -बहोला, प़नापत (हररय़ण़)-132140

~✽~ ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । जो ग़त़ थ़ गात देश की श़न से अज िहा देश के ब़रे मं ईलर्े बोल गिनगिऩ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । पैस़ हा बन गय़ प्य़स हर अदमा की, भ़इ भ़इ मं फी र् डलि़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । म़ँ ज़ रहा नौकरा शंकीय़ पाछे ऽशशि म़ँ म़ँ ऽचल्ल़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । अदमा ने बऩ ऽलए चेहरे ऄनेकं द़न को नहं रुपय़ एक, संस्थ़ओं से फी लं के ह़र पहनि़ रह़ है। ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । स्िच्छत़ क़ ऱग सिऩ दो स़ल से, व्यथट प्रबन्धन क़ न ऱस्त़ नजर अ रह़ है। ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । कफल्मं ने कदख़ कदय़ पीणट नाचत़ को बेऱ् ब़प के स़मने हा आमऱन ह़श्मा चल़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । पढ़़इ करत़ है देश मं कोइ, पैस़ ऽिदेशं मं कम़ रह़ है । ि़ह! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । सब्र हुअ खत्म ऽबलकि ल कै से भा करके , बस झर्पर् हर कोइ पैस़ कम़ रह़ है। ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । फै शन क़ बिख़र नंग़पन ल़ रह़ है । थक गया कलम ददे बय़ं करते करते। ऽलख कदए लफ्ज बेशक अंसी भरके कतऱ कतऱ मेरे कदल क़ यहा ऽचल्ल़ रह़ है । ि़ह ! मेऱ देश ककधर ज़ रह़ है । ~✽~

ऄम्ब़ल़, हररय़ण़

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अलेख

िो ब़ंस की कत़इ िो घ़स की बिऩइ रं जात

सकदयं तक संघषट करता हं पाकढ़य़ं, तो कहं ज़कर एक सभ्यत़ अक़र लेता है। ऐसा सभ्यत़एं ऄपना जरूरतं और ईपलब्ध संस़धनं के बाच मं गजब क़ संतिलन बऩकर अगे बढ़ता है। एक ऐस़ संतिलन जो म़नि और प्रकु ऽत के बाच संघषट की ऽस्थऽत पैद़ नहं करता। ऐसा सभ्य़त़एं परमिख़पेक्षा भा नहं होता। िे ऄपने असप़स की अिोहि़ से ऽनदेऽशत होता है। िे ऄपना ऽमट्टा मं ईपजने ि़ले ऄन्न से ऄपने भोजन व्यिह़र, राऽत-ररि़ज, भेषभीष़, पहऩिे-ओढ़़िे अकद ऽिकऽसत करता है। ईनके प़स स्िदेसा तकनाकं होता हं, ऽजनसे िे ऄपना स़रा जरूरतं को पीरा कर लेता हं। लेककन अधिऽनक सभ्यत़ ने आस क़ंसेप्र् को तहसनहस कर कदय़ है। ब़ज़र ने िस्ति म़त्र क़ िैश्वाकरण नहं ककय़ है, बऽल्क आसने मनिष्य की अदतं क़ भा िैश्वाकरण कर कदय़ है। हम ऐसे ख़नप़न के अकद हो रहे हं, ऽजसक़ ऽनम़टण हमसे हज़रं ककलोमार्र दीर होत़ हो। हम ऐसे कपड़े पहनने लगे हं, जो कह़ं बनते, हमं नहं पत़। हम ऐसे स़म़न के आस्तेम़ल के ऄभ्यस्त हो गये हं, ऽजन्हं ऽसफट बड़े क़रख़ने और ऽिकऽसत देशं मं हा बऩये ज़ सकते हं। आसक़ नताज़ स़मने हं। हम़रे सकदयं पिऱने लोक-तकनाक ल़पत़ हो रहे हं। बिऩइ-कत़इ क़ हम़ऱ प़रं पररक ज्ञ़न खत्म हो रह़ है। ऽस्थऽत तो यह हो गया है ऽिगत 30-35 िषं मं हा हमने कराब प़ंच दजटन लोक-तकनाकं को खो कदय़ है और जो कि छ बचा-खिचा लोक-तकनाकं हं िे भा तेजा से ऽिलिऽप्त की दिख़ंत प्ऱप्त कर रहा हं । अने ि़ले िषं मं ऄगर हम़रा कोइ पाढ़ा आन देसा-तकनाकं क़ पिनज्ञ़टन ह़ऽसल करऩ भा च़हे तो नहं कर प़येगा, क्यंकक हम़रे देश मं लोक-तकनाकं और लोक-हुनर स्मुऽतयं के म़ध्यम से हा अगे बढ़ते रहे हं । कभा कोइ सरक़र ने आन तकनाकं और कौशलं के ड़क्यीमंर्ेशन क़ प्रय़स नहं ककय़ । आसक़ मतलब यह हुअ कक ऄगर बाच की कोइ एक पाढ़ा ककन्हं क़रणं से ऄपना प़रं पररक लोक-तकनाक को त्य़ग दे तो िे तकनाक, िे कल़, िे प्रौद्योऽगकी सद़ के ऽलए सम़प्त हो ज़यंगे। हम़रे देश मं यहा हो रह़ है। आस क्रम मं मिझे पीिी और ईत्तरा ऽबह़र ख़सकर कोशा ऄंचल की कि छ लोक-तकनाकं क़ स्मरण हो रह़ है. महज 20-25 िषट पहले तक आस ऄंचल मं दजटनं लोक-तकनाकं हिजद़ थं । कु ऽष अध़ररत ISSN –2347-8764

कोशा ि माऽथल़ ऄंचल की सभ्यत़एं ऄपना जरूरतं के ऽलए लगभग हर सम़न खिद बऩ लेता थं. च़हे िह दैऽनक जरूरत क़ स़म़न हो य़ कफर दीरग़मा जरूरत के कु ऽष यंत्र । आसऽलए यह़ं ब़ंस, जीर्, घ़स, कप़स, लकड़ा अध़ररत हस्तकरघ़ ईद्यम घर-घर मं चलते थे । ब़ंस, लकड़ा, फी स और पर्सन की मदद से यह़ं के लोग एक-से-एक सिंदर, अलाश़न, अऱमद़यक बंगले बऩते थे। आसकी कभा आतना प्रऽसऽि था कक ऄंग्रेज ऄऽधक़रा को जब कोशा ऄंचल मं भेज़ ज़त़ थ़, तो िे आल़के के क़रागरं को बिल़कर फी स के अऱमद़यक बंगले बनि़ते थे। ये बंगले प्ऱकु ऽतक रूप से एयरकं डासंड होते थे, जो गमी के मौसम मं ठं ड और सदी के मौसम मं गमट होते थे। लेककन अज र्ॉचट जल़कर खोजं, तो भा आन बंगलं के क़रागर नहं ऽमलं। ब़ंस से बनने ि़ले दैऽनक घरे ली जरूरतं के स़म़न मसलन सिप,र्ोकरा, कि सी अकद बऩने की देसा तकनाकं भा गिम हो रहा हं। लेककन सबसे तेजा से जो लोक-तकनाक खत्म हुइ है िह है - क़स और घ़स से बनने ि़ले ऽिऽभन्न प्रक़र के बरतन बऩने की हस्त-तकनाक । ज्य़द़ समय नहं बाते हं-जब िष़ट ॠति के खत्म होते हा कोशामाऽथल़ ऄंचल की यि​िऽतय़ं-मऽहल़एं क़स की कंपलं बर्ोरने मैद़नं मं ऽनकल ज़ता थं। क़स के आन कंपलं को मींज कह़ ज़त़ थ़। आन मींजं को सीख़कर बत्तटन बऩये ज़ते थे. ईनकी गिणित्त़ और खीबसीरता को शब्दं मं बय़ं नहं ककय़ ज़ सकत़। आन बरतन मं गहने रखने के ऽलए पौता (अभीषण मंजीष़), रुपयेपैसे रखने के ऽलए बर्ि अ , बच्चं के ख़ने के ऽलए कर्ोऱनिम़ बरतन- मईना, फी ल रखने के ऽलए फी लड़ला, ऄऩज ढोने-ईठ़ने और ईन्हं पस़रने के ऽलए द़ईरा, गोबर ईठ़ने और फं कने के ऽलए द़ईऱ अकद श़ऽमल है। आन ित्तटनं पर तरह-तरह की छऽिय़ं ईके रा ज़ता थं। मींजं और घ़सं को ऽिऽभन्न िनस्पऽतयं की जड़ं,कं द-मील, फल-फी लं से तैय़र ककए गये रं गं से रं गान बऩय़ ज़त़ थ़। लोग आन छऽियं को देखकर हैऱन रह ज़ते थे। आनमं देिा-देित़ओं, पररयं, जंतओं ि की मोहक तस्िार कदखता था। यह एक प्रक़र की लोक-कल़ था, ऽजसे हम़रे पिरखं ने दैऽनक जरूरतं मं जोड़कर ऽिकऽसत ककय़ थ़। हस्त ऽशल्प क़ यह ऄनोख़ ईद़हरण थ़, जो दिऽनय़ मं कहं भा देखने को नहं ऽमलत़। आन तकनाकं और हस्त कल़ओं पर मऽहल़ओं कोशा ऄंचल मं जीर् (पर्सन) की ईपज बहुत ऄच्छा होता है। आसऽलए यह़ं सकदयं से पर्सन अध़ररत हस्त ऽशल्प की तकनाकं चलता अ रहा हं।

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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पर्सन से तरह-तरह की रऽस्सय़ं बऩने की तकनाकं आस सम़ज मं मौजीद रहे हं। आन रऽस्सयं मं ऐसे-ऐसे ग़ंठ बऩये ज़ते थे कक जैसे ये ग़ंठ नहं बर्न हो। आन रऽस्सयं से खरर्य़ बिनने, घर बऩने से लेकर तम़म तरह के कु ऽष क़यट ककए ज़ते थे। लेककन अज रस्सा बिनने की कल़ भा आल़के से खत्म हो रहा है। पर्सन की रस्सा की जगह तेजा से प्ल़ऽस्र्क और मशान ऽनर्ममत ऩररयल की रस्सा ले रहा है। लोक-कल़ और देसा तकनाकं के आस पतनोन्मिख प्रिुऽत्त को देखकर रोने क़ मन करत़ है। ऽजसे हम़रे पिरखं ने सकदयं मं ह़ऽसल ककय़ ईसे हम चंद िषं मं भील़ बैठे। ऄतात की आन थ़ऽतयं क़ ऐस़ ऄंज़म भा होग़, श़यद हम़रे पिरखं ने सोच़ भा न होग़। ग्य़रह स़ल पहले की ब़त है। पर्ऩ के महंर ी मोहल्ल़ मं छ़त्रं ने एक ऽिच़र गोष्ठा क़ अयोजन ककय़ थ़। गोष्ठा क़ ऽिषय थ़- िैऽश्वक ब़ज़रि़द और स्िदेशा। आसमं अज़दा बच़ओ अंदोलन के एक ऄत्यंत समर्मपत क़यटकत़ट, संजय ने क़फी ऽिच़रोत्तेजक भ़षण कदय़ थ़। लेककन यह गोष्ठा मिझे आसऽलए अज तक य़द है क्यंकक आसमं दसिं िगट के एक छ़त्र ने एक क्ऱंऽतक़रा ब़त कहा था। ईसने कह़ थ़- ब़ज़रि़द पहले हम़रे मील्यं, संस्कु ऽतयं, कल़ओं और स़ऽहत्य को स़फ करता है और ईसके ब़द पॉके र् को। ब़ज़रि़दा व्यिस्थ़ मं ऐसा तम़म चाजं बेमौत मर ज़ता हं, ऽजनकी कीमत नहं होता। अज जब गिम हो रहे लोक ऽशल्प, लोक तकनाक, लोक कल़ अकद के ब़रे मं सोचत़ हूं, तो ईस छ़त्र क़ कथन बरबस य़द अ ज़त़ है। कोशा ऄंचल और ईत्तरा ऽबह़र के खत्म होते हस्त ऽशल्प और लोक तकनाक की सबसे बड़ा िजह यहा है। ऽपछले कदनं मंने ऄपने ग़ंि के एक ब़ंस बिनकर से जब पीछ़ कक ईसने ब़ंस के बतटन बऩने क्यं छोड़ कदये, तो ईसक़ जि़ब थ़- गिज़ऱ नहं होत़ म़ऽलक। कि छ ऐस़ हा जि़ब कदय़ थ़ किफगल़स ग़ंि के म़धिल़ल कि म्ह़र ने। ईसने कह़ थ़- अब त स्र्ाल, प्ल़ऽस्र्क के जम़ऩ अऽब गेले ये, म़रर् के ितटन ककयो नै ककनै (खरादते)छै । ऄब म़धिल़ल को कौन समझ़ये कक एक कदन स्र्ाल खत्म हो ज़येग़ और प्ल़ऽस्र्क को ऄगर खत्म नहं ककय़ गय़ तो िह हमं खत्म कर देग़। तब म़र्ा हा स़थ रहेगा, श़यद म़धिल़ल जैसे म़र्ाक़र रहे य़ न रहे। ऄब लौर्त़ हूं कोशा ऄंचल की घ़स-क़स की कत़इ कल़ के पतन की ओर। ह़ल़ंकक मंने आसकी िजह पत़ करने के ऽलए हर ओर कदम़ग दौड़़य़। आस कल़ के ज़नक़र बिजग ि ं से ब़त की। प्ऱदेऽशक भ़ष़ के प्रोफे सरं से ज़नऩ च़ह़। यह़ं तक कक ऽमट्टा की महक सींघने ि़ले तथ़कऽथत बिऽिजाऽियं से ऱय ला, लेककन कहं से कोइ संतोषजनक ईत्तर नहं अय़। एक श़म को जब ऄपने ग़ंि की गऽलयं से गिजर रह़ थ़, तो ऄच़नक आसक़ एक संकेत-सीत्र ऽमल गय़। दरऄसल, ईस श़म एक बिकढ़य़ ऄपना िहु से झगड़ रहा था और आस क्रम मं िह ईसे क़मचोर, बेलीरा अकद-अकद की संज्ञ़ दे रहा था। बिकढ़य़ कह रहा था- पड़ोस की औरतं के स़थ गप्प लड़़ने से तो ISSN –2347-8764

ऄच्छ़ है घर मं बैठकर कि छ कढ़़इ-बिऩइ करऩ। क्य़ जम़ऩ अ गय़ है। अज की लड़ककयं को तो कि छ क़तऩ-बिनऩ भा नहं अत़। र्ेलाऽिजन क्य़ अ गय़, स़रा कढ़़इ -बिऩइ खत्म हो गया। आस बिकढ़य़ ने गिस्से-गिस्से मं हा मेरे सि़ल क़ जि़ब दे कदय़ थ़। ऄगर सच कहं तो लोक ऽशल्प और लोक तकनाकं को खत्म करने मं आलेक्ट्रॉऽनक माऽडय़ क़ बहुत बड़़ ह़थ रह़ है। एक तो यह पऽश्चमा और शहरा जािन-शैला क़ प्रच़र-प्रस़र कर रहा है, दीसऱ यह समय व्यतात करने क़ सबसे बड़़ म़ध्यम बन गय़ है। पहले ग़ंिं मं जब लोगं को ख़ला िक्त ऽमलत़ थ़, तो िे शौककय़ तौर पर हा सहा कि छ न कि छ कल़त्मक क़म करने लगते थे। दोपहर के समय लगभग हर मऽहल़एं कोइ-न-कोइ कढ़़इ-बिऩइ करता कदखता था। यह एक कल़त्मक रूऽच जैसा ब़त था। ऽिऽभन्न मौकं पर िे आसक़ प्रदशटन कर ि़हि़हा भा लीर्ता थं। लेककन जैसे-जैसे पऽश्चमा जािन शैला क़ प्रच़र-प्रस़र हुअ, सभा मऽहल़ओं ने एक स़थ ऄपना लोक कल़ओं, ऽशल्पं से तौब़ कर ला। कत़इ -िुनाई के िदले उन्द्हंने टेलीमवजन पर िैठकर सीररयल देखने को िरायत़ दा। ग़ंिं मं देख़-देखा क़ रोग बहुत तेजा से फै लत़ है। ईच्च और मध्यम िगं की देख़-देखा मं ऽनम्न मध्यम और ऽनम्न िगं ने र्ेलाऽिजन खरादऩ शिरू कर कदय़। कढ़़इबिऩइ ईनके जािन से ग़यब होते चला गया। पहले ऄगर ककसा लड़की की ससिऱल से ऽिद़इ के िक्त कल़त्मक स़मग्रा नहं भेजा ज़ता था, तो यह पीरे ग़ंि मं चच़ट क़ ऽिषय बन ज़त़ थ़ और लड़की के घरि़लं की भद्द पार् ज़ता था। लेककन अज आस ब़त क़ मल़ल ककसा को नहं होत़ कक ऽिद़इ मं कढ़़इ-बिऩइ क़ कोइ सम़न नहं अय़ है। अज बि़ल तब मचत़ है जब लड़की ऄपने म़यके से र्ािा, िीज, ि़हिशग मशान अकद लेकर ससिऱल नहं अता। ककसा भा लोक कल़, लोक ऽशल्प, लोक तकनाक के पतन की पहला शतट है कक िह ऄपने लोगं के बाच मं हा ऄपऩ कल़त्मक महत्ि को खो दे। करद़नं के ऽबऩ कल़ हिजद़ नहं रह सकता। ईत्तर ऽबह़र की लोक कल़ आसा क़ ऽशक़र है। दिखद ब़त यह है कक हम़रा म़नऽसकत़ पऱधान होता ज़ रहा है। हम ऄपने हा ककसा कल़, ऽशल्पं और कीर्मतयं को तब तक महत्ि नहं देते जब तक ईसे ऽिदेश मं महत्ि न ऽमल ज़ये। ऽमऽथल़ पेरिर्ग ऽपछले दो दशकं से आसऽलए चच़ट मं है क्यंकक आसे ऽिदेशं मं महत्ि कदय़ गय़। जबकक हकीकत यह है कक खिद ऽमऽथल़ मं यह िषं से ईपेऽक्षत था। ऽमऽथल़ पेरिर्ग तो एक नमीऩ है, ईत्तरा ऽबह़र मं ऐसा कल़ओं की संख्य़ कभा संकड़ं मं था। लेककन आसके करद़न नहं थे। घ़स ,क़स, ब़ंस, जीर् ऽमट्टा अकद की ऽशल्पक़रा भा आन्हं प्रिुऽत्तयं की ऽशक़र है। ~✽~ C/o- ब़ंस बन्नी ऱम स़हू स़ऽित्रा कॉलोना, ऄरगोऱ ब़य प़स रोड,ऱंचा – 834001 (झ़रखंड) 09334956437

ऽिश्ि ग़थ़: ऄक्ती बर-निंबर-कदसंबर-2016

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शोधपत्र

डॉ. ऽिनय कि म़र प़ठक क़ जािन-दशटन संजयभ़इ चौधरा

जािन दशटन की व्य़ख्य़ करते हुए डॉ.द़दील़ल जोशा ने ऽलख़ हं कक - "ऄपने भ़िं, ऽिच़रं और ऽचन्तनं क़ प्रज़पऽत स़ऽहत्य जो सुऽष्ट करत़ हं ईसक़ मील़ध़र ऄक्षर हं, आसऽलए ईसके ि़ऱ ऽनर्ममत शब्दं और ि़क्यं क़ संस़र ऄमर है। स़ऽहत्य क़ सुष्ट़ ऽत्रक़ल दूष्ट़ होत़ है। ईसकी सजटऩशककत ऽत्रमिखा होता है। स़ऽहत्य की ऽिध़ ईतना महत्िपीणट नहं होता, ऽजतना ईसके भातर से फी र्नेि़ला दूऽष्ट होता है, क्यंकक िहा ईसके सुष्ट़ की स़धऩ क़ परम् फल होता है। जािन-दशटन क़ निनात िहं होत़ है, ऽचन्तन और मनन क़ ऽनष्कषट भा िहा हं।"1 स़ऽहत्य को सम़ज से जोड़नेि़ल़ सबसे महत्िपीणट तत्ि िहा दूऽष्ट है, जो सुष्ट़ की अत्म़ क़ ऽनचोड़ है – परम सत्ि। आसऽलए मं म़नत़ हूँ कक जो स़ऽहत्यक़र ऽजतना उँचा दूऽष्ट रखत़ है, िह ईतऩ हा बड़़ है। यह दूऽष्ट क्य़ हं? जािन और जगत को अरप़र सहा ऄथं मे देखने की शऽक्त। जो प्रक़श रे ख़ ऄतात क़ कि ह़स़ स़फ कर दे, जो ितटम़न के सम्पीणट व्यककत्ि को ईसके शोभन-ऄशोभन, सिंदर-ऄसिंदर को पीरे अय़मं मं परख ले और जो भऽिष्य के बनते-ऽबगड़ते ऄस्पष्ट ऽचत्रं को सहा रूप मं देख ले, िहा स़ऽहत्यक़र की दूऽष्ट हं। िह ऊऽष है आस ऄथट मं लेककन ईससे बड़़ भा, क्यंकक िह ऄपना दूऽष्ट की सुऽष्ट भा करत़ चलत़ हं – देखं को लेखे से जोड़त़ है। ऄथट स़धऩ क़ स्िगीय पिष्प धरता पर पिऽष्पत करनेि़ल़ स़ऽहत्यक़र हा होत़ है।2 डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक जा ऐसे हा अषटस़धक, ऄपीिट दूऽष्ट-सम्पन्न स़ऽहत्यक़र हं, ऽजनकी रचऩओं मं ऽिऽभन्नत़ मं भा एक ऐसा ऄनीभिऽत होता है जैसे कोइ ऽिश़ल िर्िुक्ष गहरा धरता से ऄपऩ जािन-रस ऄमुत पा रह़ हो तथ़ धीप और स्िच्छ हि़ को ग्रहण करत़ हुअ ईपर नभ मं फै लत़-बढ़त़ रह़ हो। ईसकी प्रश़ख़एँ बड़ा-छोर्ा हो लेककन तऩ तो एक हा रहत़ है ईसा प्रक़र अपके स़ऽहत्य की ऽिऽभन्न ऽिध़एँ िर्िुक्ष की श़ख़-प्रश़ख़ओं की तरह अपकी ऽि​ित़ क़ प्रम़ण है। आऽतह़स, प्ऱचान भ़रताय संस्कु ऽत, लोक-जािन और सम़ज, भ़ष़-ऽिज्ञ़न के तल से रस संऽचत करके हर पल, हर क्षण नयं यिग की हि़ मं स़ँस लेते रहते हं। संघषो की धीप और िष़ट को ऽनरं तर सहते हुए फलत: अपक़ स़ऽहत्य हरे -भरे पत्तंि़ल़, पिष्ट फी लं-फलंि़ल़ और घऱ्द़र है। अपक़ सम्पीणट ि़ड़मय ईद़र, म़नित़ि़दा और लोक ऽिध़यना दूऽष्ट से भ़स्िर है। अपकी प्रऽतभ़ की ऽिशदत़ से ऽत्रक़ल ने अपके स़ऽहत्य को ऽत्रिेणा बऩकर ऄिग़हन से ऽमलनेि़ल़ श्रेष्ठ फल अपके रऽचत ऽिमशं क़ प्रत्य़यन हं। डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक की सजटऩत्मकत़ कभा सम़प्त नहं होता। अपके लेखन मं कि छ ऄऽधक कहने की, कि छ ऄऽधक ज़नने ISSN –2347-8764

की और कि छ ऄऽधक सोचने की अकि लत़ तथ़ ईऽिग्नत़ महसीस होता रहता है। अपके जािन दशटन के ऽिच़रं के अलोक को समझने के ऽलए, परखने के ऽलए ऽनम्ऩंककत प्रय़स द्ष्टव्य है। डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक क़ जन्म एिं प़लन-पोषण एक मध्यमिगीय सद्गुहस्थ पररि़र मं हुअ है। अपको बचपन से हा ऽशष्ट़च़र क़ संस्क़र कदये गये है। अपके व्यककत्ि ि कु ऽतत्ि मं एकरुपत़ सम़या गया है। अपकी सहज म़निाय संिेदऩ ने बौऽध्धकत़ को पाछे धके ल कदय़ है ऽजससे ऄपने ऄहम से अप ऽनरं तर संघषटरत रहते हं। अपकी म़निाय संलग्नत़ अपके संपीणट व्यककत्ि ि लेखन क़ मील़ध़र है। आसा प्रस्थ़न हिबदि से ऄपना सुजनय़त्ऱ क़ प्ऱरं भ होत़ है और ईसा पर सम़पन भा करते हं। डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक ने ऱमचन्र शिक्ल जा के आन ऽिच़रं को हमेश़ कह़ है कक - "कऽि-ि़णा के प्रस़द से हम संस़र के सिखदि:ख, अनंद-क्लेश अकद क़ शि​ि, स्ि़थट मिक्त रुप से ऄनिभि करते हं। आस प्रक़र के ऄनिभि के ऄध्य़य से हदय क़ बंधन खिलत़ है और मनिष्यत़ की ईच्चभीऽम की प्ऱऽप्त होता है।" ऄथि़ "क़व्य क़ जो चरम लक्ष्य सिटभीत को अत्मभीत करके ऄनिभि कऱत़ है, दशटन के सम़न के िल ज्ञ़न कऱऩ नहं, ईसके स़धन मं भा ऄहंक़र क़ त्य़ग अिश्यक हं।"3 डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक जा ने स्त्रा-पिरूष के सम्बन्धं क़ ऽिश्लेषण करते हुए कह़ है कक हम़रे देश मं अज भा ऽस्त्रयं के स़थ सम्म़नाय व्यिह़र नहं होत़ ईनसे ज्य़दता हो रहा है। अपने ऽलख़ है कक "स़म़ऽजक सम्बन्धं के हर ररश्ते मं पिरूष के स़थ एक स्त्रा क़ स्थ़न दीसरे नंबर क़ होत़ है। भ़रताय सम़ज मं ऐस़ ि़त़िरण बहुत कम ऽमलत़ है जह़ँ एक स्त्रा ककसा पिरूष को ऄपऩ दोस्त बऩ सके और ईससे म़त्र औपच़ररक य़ ऄंतरं ग, ऽबऩ श़राररक सम्बन्धं ि़ले दोस्त़ऩ सम्बन्ध रख सके । अज भा छोर्े शहरं य़ कस्ब़इ आल़कं से लेकर ग्ऱमाण ऄंचल तक कि छ ऄपि़दं को छोड़ कर कोइ स्त्रा ककसा पिरूष को ऄपऩ दोस्त नहं बऩ सकता। ईसे पिरूष के स़थ ऄपने पररचय को च़च़, म़म़, त़उ, भ़इ अकद ऩम से कोइ ररश्त़ देऩ पड़त़ हं।" ऽसिं, ऩथं एिं ध़र्ममक रूकढ़यं क़ खंड़न-मंड़न करनेि़ले भककतक़लान कऽियं भा स्त्रा के स़थ न्य़य न कर सके । कबार जैसे क्ऱंऽतक़रा कऽि भा स्त्रा को ऽिष की ख़न समझते रहे। स्त्राद़सत़ क़ एक लम्ब़ यिग बात चिक़ है। यिरोपाय स्त्रा अंऽशक रुप से मिक्त हो चिकी है ककन्ति मिऽस्लम देशं की ऽस्त्रयं मं एक छर्पऱ्हर् है और भ़रताय ऽस्त्रयं मं छर्पऱ्हर् के स़थ एक छोऱ् प्रऽतशत पिरूष िचटस्ि के ऽखल़फ़ तन कर खड़़ होने क़ प्रय़स कर रह़ है। अज भीमण्डलाकरण के दौर मं भा भ़रताय स्त्रा को ऄपना ऄऽस्मत़ के ऽलए ऄपना यौन-शिऽचत़ के ऽिरुि संघषट करऩ पड़ रह़ है। अज क़ पढ़़-ऽलख़ कऽथत प्रगऽतशाल बिऽिजािा िगट भा ऄपना पत्ना, प्रेऽमक़ य़ दोस्त से ऄपऩ ऄनिकीलन च़हत़ है। िह स्त्रा यौन-शिऽचत़ की प्ऱचान परम्पऱ क़ कदम़गारुप से आतऩ ऄभ्यस्त हो चिक़ है कक स्त्रा के प्रऽत ईस साम़ तक ईद़र नहं होऩ च़हत़, ऽजस साम़ तक िह स्ियं

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ईससे ईद़रत़ प़ऩ च़हत़ है। कहं न कहं िह हिलग भेद के प़रस्पररक मकड़ज़ल मं ईलझ़ हुअ स्त्रा-पिरूष संबंधं के प्रऽत ऄनिद़र बऩ हुअ है।4 डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक मध्ययिगान आऽतह़स के प्रक़ंड पंऽडत एिं ऽि​ि़न स़ऽहत्यक़र है। अपकी स़ऽहऽत्यक दूऽष्ट जनि़दा, ऄम्बेड़करि़दा रहा है। अपके ऽलए म़नित़ से बढ़कर कोइ दीसऱ बड़़ धमट नहं है। अप कबार की तरह अँऽखन देख़ सच को सत्य म़नकर ऽिश्व़स करते हं। अप ज़ऽत-प़ँऽत, उँच-नाच, ऽहन्दि-मिऽस्लम के भेद को नहं म़नते। अप दऽलतं, शोऽषतं, स्त्रायं और ऽिकल़ंगो के पक्षधर है। स्त्रा-ऽिमशट और दऽलतऽिमशट के लेखन मं अपकी ऐऽतह़ऽसक दूऽष्ट ब़र ब़र झलकता रहा है। अप तो ‘ऄऽिभ़ज्य सत्य’ के ईप़सक रहे हं। अप को खंड़ सत्य कभा स्िाकु त नहं रह़ ककन्ति अप की दूऽष्ट मं सत्य िहा है ऽजससे लोक क़ ऄत्यऽधक कल्य़ण हो सके । बौि-दशटन के व्य़िह़ररक सत्य(संिुऽत सत्य) और परम़थट सत्य मं अप ऽिश्व़स नहं रखते। डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक यहं पर तो ि़मपंऽथयं से ऄलग कदखते हं। अपक़ कहऩ है कक ‘ऄगर आन ि़मपंऽथयं ने सहा ढ़ंग से क़म ऽलय़ होत़ तो हम़रे देश मं छी अछी त, उँचनाच, ऄमार-गराब की ख़इ आतना गहरा चौड़ा नहं होता। डॉ.ऄम्बेड़कर को ि़मपंथा ऽिच़रध़ऱ से हर्कर बि​ि की शरण मं नहा ज़ऩ पड़त़।’ ि़स्ति मं भ़रताय सम़ज व्यिस्थ़ क़ मीलभीत ढ़़ँच़ हा स़मंत व्यिस्थ़ रहा है। स्त्रा ऽिमशट ि दऽलत ऽिमशट के ऽचन्तकं ने ऽनभटय होकर आस स़मन्त व्यिस्थ़ ि संस्कु ऽत को ललक़ऱ है और ईसे ऽमऱ्ने क़ प्रय़स कर रहे हं। डॉ.ऽिनय प़ठक जा क़ ऽचन्तन भा आस कदश़ मं क़यटरत रह कर अलोक बन चिक़ हं। डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक जा ने ऄपना पिस्तक ‘ऄम्बेड़करि़दा सौन्दयटश़स्त्र और दऽलत, अकदि़सा जन ज़ताय ऽिमशट’ मं ऽलख़ है कक "भ़रताय सम़ज अज भा िणट-व्यिस्थ़ के बल पर खड़़ है। अज भा हम़रे सम़ज मं ऄस्पुश्य, दऽलत एिं अकदि़सा को आन्स़न की ऽनग़ह से नहं देख़ ज़त़। अज भा ईसके स़थ पशि​ित् व्यिह़र ककय़ ज़त़ है। जो लोग बड़े ऄहम के स़थ कहते हं कक “स़ऽहत्य-स़ऽहत्य होत़ है, ईसमं ‘दऽलत-स़ऽहत्य’ जैसे ऽिशेषण की क्य़ जरुरत है? य़ ‘दऽलत-स़ऽहत्य’ स़ऽहत्य जैसे पऽित्र क्षेत्र मं नया दाि़र य़ ज़ऽति़द खड़़ कर रह़ है---।" ऐस़ कहनेि़ले स़ऽहत्यक़र यह भील ज़ते हं कक दऽलत, अकदि़ऽसयं की ह़ल़त अज भा पशि​ित् हा है। दऽलतो को ग़ँि के ब़हर क्यं ककय़ गय़? अकदि़ऽसयं को जंगल मं रहने के ऽलए ककसने ऽि​िश ककय़? सकदयं से ईनकी प्रज्ञ़ और प्रऽतभ़ को ज़ऽत के क़ऱग़र मं ककसने बंद कर रख़ है? िे कौन हं, ऽजन्हं ने ईनकी प्रभ़ और प्रऽतभ़ को ऽिकऽसत नहा होने कदय़? आन सब ज्िलंत प्रश्नं को ज़नते हुए भा ये स़ऽहत्यक़र ईसे नजर ऄंद़ज करके , दऽलत लेखन को एक सोचे-समझे षडयंत्र के तहत् गिमऱह कर रहे हं। लेककन अज ईन्हं आस सत्य को ज़न लेऩ च़ऽहए कक फी ले-ऄम्बेड़कर के ऽिच़ररुपा सीयट के ईकदत होने से दऽलतं क़ ऄंधक़र ऽमर् गय़ है। ऄब िे कदन की रोशना मं ISSN –2347-8764

अस़ना से ठगे नहं ज़यंगे। ईनक़ प्रज्ञ़ ि प्रऽतभ़रूपा स़ऽहत्य ऽिऽभन्न भ़ष़रूपा सरोिरं मं ऽखल रहे हं। ऽजनकी ि़णा क़र् ला गइ था, अज ईन्हं ने ईसे ऄपना ि़णा, ऄपने पिरूष़थट से प्ऱप्त कर ला है। ऽजनको ऄलग-थलग कर कदय़ गय़ थ़, िे अज दऽलत स़ऽहत्य के म़ध्यम से एक ऐस़ संस़र रच रहे हं, ऽजसमं स्ितंत्रत़, सम़नत़, बंधित्ि, न्य़य और धमट ऽनरपेक्षत़ क़ नय़ ऄम्बेड़करि़दा दऽलत सौन्दयट ऽनखर रह़ है। यह देखकर िणटव्यिस्थ़ ि ज़ऽत व्यिस्थ़ि़कदयं क़ पेर् दि:खने लग़ हं।5 डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक जा ने ऄपने ऽिच़रं को ऄऽधक सिस्पष्ट करते ऽलख़ हं, "स़ऽहत्य रचऩ और अलोचऩ के क्षेत्र मं दऽलतचेतऩ अज ऄपने स्ितंत्र सौन्दयट श़स्त्र के ऽनम़टण क़ प्रश्न लेकर समिपऽस्थत है। ऽिच़र और ऽचन्तन के क्षेत्र मं दऽलत-चेतऩ ऄपने ऽलए एक व्य़पक सम़जश़स्त्राय समझद़रा के तक़जे पर बल के स़थ मिस्तैद है। आऽतह़स च़हे स़ऽहत्य क़ हो, च़हे सम़ज क़, दोनं को ईसने कि छ बहुत बेधक और ि़स्तऽिक प्रश्नं से घेर कर िस्तिपरक जि़बं की म़ँग की है। दऽलत ऽिमशटक़र आऽतह़स शब्द के ईन प़रम्पररक ऄन्ियकत़टओं की ऄच्छा खबर लेते हं। जो आऽतह़स शब्द क़ ऄथट बत़ते हं – आऽत+ह्+अस्। ऄथ़टत् ‘ऐस़ हा थ़।’ आऽतह़स ऐस़ हा थ़ को ख़ररज करके दऽलत ऽिमशट यह स्थ़ऽपत करत़ है कक आऽतह़स ऐस़ नहं थ़ जैस़ मनि​ि़दा तत्िं ि़ऱ बत़य़ ज़त़ रह़। िह तो आऽतह़स नहं पररह़स थ़, ईपह़स थ़ ऽजसमं एहस़स नहं थ़। ऽजसमं एहस़स न हो, ईनकी पररणऽत क्रीरत़ मं हा होता हं। ऐसा हर क्रीरत़ क़ प्रऽतशोध संमत है। दऽलत ऽिमशट पर प्रऽतशोध परकत़ क़ अरोप लग़नेि़लं को यह सत्य समझऩ च़ऽहए।"6 समक़ऽलन पररिेश मं अज च़रं तरफ धमट क़ खोखल़ ऩऱ लग़य़ ज़त़ रह़ हं। धमट के प़खंडाओ ने ध़र्ममक स्थलं की पऽित्रत़ नष्ट करके ईसे यिध्ध स्थल मं बदल कदये हं। ककन्ति ि़स्ति मं धमट मनिष्य को म़नित़ से जोड़त़ हं। धमट मं चररत्र, सऽहष्णित़, दय़, तप, द़न अकद गिणं होते हं। दय़ धमट क़ मील़ध़र है। दय़ से बढ़कर कोइ बड़़ धमट नहं हं। लेककन डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक क़ ‘दय़’ से ऄपऩ एक ऄलग दूऽष्टकोण है जो ऄम्बेड़करि़द से प्रऽणत है। समक़लान यिग मं दय़ करनेि़ल़ व्यऽक्त ऄपने पिऽनत कमट पर गौरि़ऽन्ित न होते हुए अत्म संतोष, अत्मसिख के स़थ ऄहंक़र महसीस करत़ है। ‘दय़’ ऽसफट एहस़न जत़ने के ऽलए व्यऽक्त को नाच़ कदख़ने के ऽलए की ज़ता रहा है। आसा क़रण डो.प़ठक दय़ के संदभट मं ऄपने ऽिच़र प्रस्तित करते हं कक "मं ककसा पर दय़ नहं करत़। दय़ कदख़कर कोइ ककसा को ऄपऩ नहं बऩ सकत़ और दय़ से कोइ ककसा के नजदाक नहं हो सकत़। ‘दय़’ कहकर व्यऽक्त द़त़ बन ज़त़ हं, िह ऄहंक़रा और हदयहान हो ज़त़ हं।"7 संदभट : (1) समक़लान स्त्रा-ऽिमशट को डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक क़ प्रदेय – डॉ.द़दील़ल जोशा, पु.75 (2) अच़यट हज़रा प्रस़द ऽि​िेदा और समक़लान ऽिमशट – डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक एिं डॉ.डा.एल.ठ़कि र, प्रस्त़िऩ के ऄंतगटत पेज नंबर - 54 पे

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शोधपत्र

ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ और ऽशक्षक डॉ. संगात़ श्राि़स्ति

प्रस्त़िऩ : ‘स्र्ेशन म़स्र्र म़आं डस कद ट्रेन, स्की ल म़स्र्र ट्रेन्स कद म़आं ड ऑफ च़आल्ड' ऽशक्ष़ एक महत्िपीणट स़धन है ि सिटव्य़पा ऽिषय है । सम़ज के ईत्थ़न मं ऽशक्ष़ क़ बहुत योगद़न है। हर यिग मं ऽशक्ष़ ने सम़ज को कदश़ ि स्िरुप देने क़ क़यट ककय़ है। हम़रा ऽशक्ष़ व्यिस्थ़ सम़ज के ऄनिस़र पररिर्मतत होता रहा है पहले हम़रा ऽशक्ष़ क़ ईद्देश्य ज्ञ़न को ब़लक के मऽस्तष्क मं भरऩ थ़ लेककन ऄब ऐस़ नहं है अज ऽशक्ष़ क़ ईद्देश्य ब़लक की जन्मज़त शऽक्तओ क़ ऽिक़स करके ब़लक के जािन को सफल बऩऩ है । ऽशक्षण प्रकक्रय़ मं ऽशक्षक एिं ब़लक दोनं क़ सकक्रय होऩ अिश्यक एिं महत्िपीणट है। ब़लक को सकक्रय बऩने के ऽलए अिश्यक है कक ब़लक को ऐसा सिऽिध़ए प्रद़न की ज़ंए ऽजसके ि़ऱ ब़लक की अंतररक शऽक्तओ ि क्षमत़ओं क़ ऽिक़स ककय़ ज़ सके । ऱऽष्ट्रय ऽशक्ष़ नाऽत के ऄनिस़र ब़लक एक सक़ऱत्मक सम्पऽत्त एिं बहुमील्य है ऽजसे सहृदयत़ से पोऽषत एिं ऽिकऽसत करऩ च़ऽहए प्रत्येक ब़लक के ऽिक़स की ऄलग –ऄलग अिश्यकत़ होता है। ऄतः ब़लक की ऽशक्ष़ की व्यिस्थ़ ब़लक की अिश्यकत़ ऄनिस़र ि रूऽच के ऄनिस़र करना च़ऽहए। भ़िा पाढ़ा को एस प्रक़र ऽशऽक्षत करऩ होग़ कक ईनमे अत्मऽिश्व़स की एिं रढ़त़ से समस्य़ओं के रचऩत्मक सम़ध़न की योग्यत़ ऽिकऽसत हो सके एिं म़नि मील्यं ि स़म़ऽजक न्य़य के प्रऽत ऽनष्ठ़ं हो । एस संदभट मं ऱऽष्ट्रय ऽशक्ष़ नाऽत मं छ़त्र के ऽन्रत य़ ब़ल के ऽन्रत ऄध्ययन प्रकक्रय़ की ऄनिशंस़ की है। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ क़ ऄथट : ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ क़ कं रहिबदि ब़लक है ब़लक को ध्य़न मं रखकर ऽशक्ष़ की व्यिस्थ़ की ज़ता है अज की ऽशक्षण व्यिस्थ़ मं ब़लक सिोपरर है । ब़लक के मनोऽिज्ञ़न को समझते हुए ऽशक्षण की व्यिस्थ़ करऩ तथ़ ईसकी ऄऽधगम सम्बन्धा करठऩआयं को दीर करऩ ब़ल के ऽन्रत ऽशक्षण कहल़त़ है। ऄथ़टत ब़लक की रुऽचयं, प्रिुऽत्तयं, तथ़ क्षमत़ओं को ध्य़न मं रखकर ऽशक्ष़ प्रद़न करऩ हा ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ कहल़त़ है। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्षण मं व्यऽतगत ऽशक्षण को महत्त्ि कदय़ ज़त़ है। आसमं ब़लक क़ व्यऽक्तगत ऽनररक्षण कर ईसकी दैऽनक करठऩआयं को दीर करने क़ प्रय़स क्य़ ज़त़ है। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्षण मं ब़लक की श़राररक और म़नऽसक योग्यत़ओं के ऽिक़स के अध़र पर ऽशक्षण की व्यिस्थ़ ज़ता है आसऽलए ऽशक्षक को ऄध्य़पन प्रकक्रय़ से हर्कर ISSN –2347-8764

ऄध्ययन प्रकक्रय़ पर बल देऩ च़ऽहए। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्षण के ऽसि़ंत  ब़लकं को कक्रय़शाल रखकर ऽशक्ष़ प्रद़न करऩ. आससे ककसा भा क़यट को करने मं ब़लक के ह़थ, पैर और मऽस्तष्क सब कक्रय़शाल हो ज़ते हं।  आसके ऄंतगटत ब़लकं को मह़पिरुषं, िैज्ञ़ऽनकं क़ ईदह़रण देकर प्रेररत ककय़ ज़ऩ श़ऽमल है।  ऄनिकरणाय व्यिह़र, नैऽतक कह़ऽनयं, ि् ऩर्कं अकद ि़ऱ ब़लक क़ ऽशक्षण ककय़ ज़त़ है।  ब़लक के जािन से जिड़े हुए ज्ञ़न क़ ऽशक्षण करऩ।  ब़लक की ऽशक्ष़ ईद्देश्यपरक हो ऄथ़टत ब़लक को दा ज़ने ि़ला ऽशक्ष़ ब़लक के ईद्देश्य को पीणट करने ि़ला हो।  ब़लक की योग्यत़ और रूऽच के ऄनिस़र ऽिषय-िस्ति क़ चयन करऩ।  रचऩत्मक क़यट जैसे हस्त कल़ अकद के ि़ऱ ऽशक्षण। प़ट्णक्रम को छोर्े-छोर्े ऽहस्सं मं ब़ंर्कर ऽशक्षण। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ के ऄंतगटत प़ट्णक्रम क़ स्िरुप : ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ के प़ट्णक्रम मं ब़लक को ऽशक्ष़ प्रकक्रय़ क़ कं रहिबदि म़ऩ ज़त़ है. ब़लक की रुऽचयं, अिश्यकत़ओं एिं योग्यत़ओं के अध़र पर प़ट्णक्रम तैय़र ककय़ ज़त़ है. ब़लके ऽन्रत ऽशक्ष़ के ऄंतगटत प़ट्णक्रम क़ स्िरुप ऽनम्नऽलऽखत होऩ च़ऽहए:  प़ट्णक्रम जािनोपयोगा होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम पीिटज्ञ़न पर अध़ररत होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम ब़लकं की रूऽच के ऄनिस़र होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम लचाल़ होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम ि़त़िरण के ऄनिस़र होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम को ऱष्ट्राय भ़िऩओं को ऽिकऽसत करने ि़ल़ होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम सम़ज की अिशयकत़ के ऄनिस़र होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम ब़लकं के म़नऽसक स्तर के ऄनिस़र होऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम मं व्यऽक्तगत ऽभन्नत़ को ध्य़न मं रख़ ज़ऩ च़ऽहए।  प़ट्णक्रम शैऽक्षक ईद्देश्य के ऄनिस़र होऩ च़ऽहए। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ मं ऽशक्षक की भीऽमक़ : ऐस़ म़ऩ ज़त़

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है कक ब़लक कोरा स्लेर् के सम़न होत़ है ऽजस पर कि छ भा ऽलख़ ज़ सकत़ है य़ ब़लक य़ कच्चा ऽमर्र्ा के सम़न होत़ है ऽजसे मनच़ह़ अकर दे सकते है ऽशक्षक, ऽिद्य़थीयं क़ सहयोगा ि म़गटदशटक होत़ है। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ मं ऽशक्षक की भीऽमक़ और बढ़ ज़ता है। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ मं ऽशक्षक ऽभन्न भीऽमक़ओ क़ ऽनि़टह करत़ है िह म़गटदशटक, पऱमशटद़त़, ऽमत्र, ि पथ -प्रदशटक भा है आसऽलए ऽशक्षक क़ क़यट ऄध्य़पन के स़थ-स़थ ऄन्य भीऽमक़ओ क़ ऽनि़टह करऩ है। ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ मं ऽशक्षक को स्ितंत्र रह कर ऽनणटय लेऩ च़ऽहए कक ब़लक को क्य़ ऽसख़ऩ है? ऽशक्षक एक मनोिैज्ञ़ऽनक के रूप मं : ऽशक्षण की समस्त व्यिस्थ़ ब़लक को कं र मं रखकर करना च़ऽहए । आस कदश़ मं ऽशक्ष़ की भीऽमक़ बहुत महत्िपीणट है । ऽशक्षक को आस ब़त की ज़नक़रा होना च़ऽहए कक ब़लक ऄपना श़राररक एिं म़नऽसक शऽक्तयं क़ प्रयोग ककस प्रक़र करत़ है, ककस प्रक़र साखत़ है, क्य़ सोचत़ है। ब़लक क़ साखऩ ब़लक की क्षमत़ओ, हिचतन, तकट स्मरण ि आऽन्रय प्रत्यक्षाकरण पर ऽनभटर होत़ है। ऽशक्षक को ब़लक के मनोऽिज्ञ़न को समझकर ईसा प्रक़र क़ व्यिह़र करऩ च़ऽहए। यकद ऽशक्षक ब़लक की साखने से संबऽधत कऽमयो को दीर करने मं सह़यत़ करत़ है तो ब़लक की साखने की तत्परत़ को बढ़़य़ ज़ सकत़ है। आसके ऽलए ऽशक्षक ऽशक्षण की नइ ऽिऽधयं क़ प्रयोग करे , नइ तकनाक क़ प्रयोग करे , प़ट्णक्रम को लचाल़ बऩये स़थ हा स़थ ब़ल मनोऽिज्ञ़न क़ ज्ञ़न हो । ऽजससे ऽशक्षक ब़लक की समस्य़ क़ सम़ध़न कर सके । ऽशक्ष़ के यथ़थट ईद्देश्यं के प्रऽत पीणत ट य़ सजग रहऩ च़ऽहए। ऽशक्षक एक प्रेरक के रूप मं : ब़लक मं ऄनिकरण की प्रिुऽत प़या ज़ता है ब़लक ऽशक्षक के अचरण, व्यिह़र, स्ि़भ़ि ि रहनसहन क़ गहऱ ऄसर पड़त़ है। आसऽलए ऽशक्षक ऄपने अपको ब़लक के स़मने प्रेरक के रूप मं प्रस्तित करे । एक ऄच्छ़ ऽशक्षक ब़लक को ईऽचत ि़त़िरण देत़ है ऽजससे ब़लक साखने के ऽलए प्रेररत हो सके । खोजा िुऽत्त ऽिकऽसत करे ि स़म़ऽजकत़ की भ़िऩ ऽिकऽसत करे । ऽशक्षक एक म़गटदशटक के रूप मं : ऽशक्षक क़ द़ऽयत्ि के िल प़ट्णक्रम पीणट करने तक साऽमत नहं िरन ब़लक क़ सिंगाण ऽिक़स करऩ है, चररत्र क़ ऽनम़टण करऩ है, जािन मील्यं के प्रऽत अस्थ़ जग़ना है। ऽशक्षक को ब़लक के स़थ अत्माय संबंध स्थऽपत करऩ है ऽजससे िह ब़लक की समस्य़ समझे ि ईन समस्य़ क़ िैज्ञ़ऽनक सम़ध़न करने मं म़गटदशटन कर सके । ऄपने स़ऽथयं के स़थ कै स़ व्यिह़र करऩ है आसक़ म़गटदशटन कर सके । ऽशक्षक क़ ईद्देश्य के िल पिस्तकीय ज्ञ़न प्रद़न करऩ म़त्र हा नहं होत़ िरन ब़ल-के ऽन्रत ऽशक्ष़ क़ मह़नतम लक्ष्य ब़लक क़ सिोन्मिखा ऽिक़स करऩ है, ऄतः आस ईद्देश्य की पीती के ऽलए ब़लक की ऄऽधक से ऄऽधक सह़यत़ करना च़ऽहए। ISSN –2347-8764

ब़लकं क़ सभा प्रक़र से म़गटदशटन करऩ च़ऽहए तथ़ ऽिऽभन्न कक्रय़-कल़पं को कक्रय़ऽन्ित करने मं सह़यत़ करऩ च़ऽहए। ऽशक्षक एक ऽनदेशक के रूप मं : ऽिज्ञ़नं ि तकऽनकी के यिग मं ऽशक्षक क़ द़ऽयत्ि के िल ऽशक्ष़ देने तक साऽमत नहा है आसऽलए ऽशक्षक को ऽनदेशक की भीऽमक़ क़ ऽनि़टह करऩ है। ऽनदेशन िैयऽक्तक हो य़ स़मीऽहक, व्य़िस़ऽयक हो य़ शैऽक्षक ब़लक को ऽजस क्षेत्र मं अिश्यकत़ होता है ऽशक्षक ईसे ईऽचत ऽनदेशन देत़ है। ऽिऽभन्न स्तर पर ब़लक को ऽभन्न प्रक़र क़ ऽनदेशन कदय़ लत़ है जेसे प्ऱथऽमक स्तर ि म़ध्यऽमक स्तर पर ब़लको मं ऄच्छा अदतं क़ ऽिक़स, साखने के प्रऽत रूऽच, ि समीह मं रहने की ऽशक्ष़ दा ज़ता है। ईच्च कक्ष़ओं मं ऽिषयं के चयन, कक्ष़ सम़योजन ि व्यिस़ऽयक चिऩि मं ऽनदेशन देत़ है। ऽशक्षक एक पऱमशटद़त़ के रूप मं : ब़लक ओपच़ररक ऽशक्ष़ के ऽलए ऽिद्य़लयं मं अत़ है नइ समस्य़ओ क़ स़मऩ करऩ पड़त़ है ि नये पररिेश मे स़मंजस्य करऩ पड़त़ है आस नये पररिेश मं ब़लक को पऱमशट की अिश्यकत़ होता है ऽशक्षक को पऱमशटद़त़ के रूप मं ब़लक की हर समस्य़ क़ सम़ध़न करे ि ऽशक्षक ब़लक के स़थ ऽमत्रित व्यिह़र करे ि ब़लक को ईसकी क्षमत़ओ के ि़रे मं बत़ये और क्षमत़ओ क़ सम्पीणट ईपयोग करऩ ऽसख़ये। ईपसंह़र : आस प्रक़र हम कह सकते है कक ब़ल के ऽन्रत ऽशक्ष़ मं ब़लक को ऽशक्ष़ क़ कं रहिबदि म़नते है और ऽशक्ष़ की व्यिस्थ़ ब़लक को ध्य़न मं रख कर की ज़ता है आसऽलए ऽशक्षक को ितटम़न समय मं अिश्यकत़ ऄनिस़र हर प्रक़र की भीऽमक़ के िहन के ऽलये तत्पर रहऩ होग़, तभा ब़लके ऽन्रत ऽशक्ष़ स़थटक होगा । ~✽~ पेज नंबर -

52 से

(3) रस माम़ंस़, ऱमचन्र शिक्ल, पु.15 (4)समक़लान स्त्रा -मवमशख को डॉ.मवनय कु मार पाठक का प्रदेय – डॉ.द़दील़ल जोशा, पु.78 (5) ऄम्बेड़करि़दा सौन्दयटश़स्त्र और दऽलत, अकदि़सा जनज़ताय ऽिमशट – डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक, प्रस्त़िऩ ऄंतगटत पु.32 (6) िहं पु.32 से ऄम्बेड़करि़दा सौन्दयटश़स्त्र और दऽलत, अकदि़सा जनज़ताय ऽिमशट – डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक, प्रस्त़िऩ ऄंतगटत पु.32 (6) िहं पु.32 (7) श्रा द़दील़ल जोषा के स़थ डॉ.ऽिनय कि म़र प़ठक जा से व्यऽक्तगत ि़त़टल़प से ईद्धुत (26 फरिरा 2010) ~✽~ प्रस्तितकत़ट – श्रा संजय भ़इ चौधरा, 46,ऽशिशककत नगर-1, मिस़ रोड, क़नपिऱ व्य़ऱ. ऽज.त़पा, दऽक्षण गिजऱत394650, संपकट -9427151012, 9724339271

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ख़त-ख़बर अदरणाय, ऽिश्िग़थ़ पऽत्रक़ के ऄंक –3, जिल़इ ऄगस्त ऽसतंबर 2016 के ऄंक मं अपकी रचऩओं से जिड़ने क़ सौभ़ग्य ऽमल़। अपकी प्रक़ऽशत रचऩ के ऽलए अपको ह़र्ददक शिभक़मऩएं। अपकी रचऩ को पढकर बहुत ऄच्छ़ लग़ । म़ं सरस्िता की कु प़ अपकी लेखना मं यीं हा बना रहे, और स़ऽहत्य जगत मं अप और भा अय़म तय करं । आन्हं मंगलक़मनओं के स़थ। हिहदा की सेि़ से अप भा जिड़े हं और हम़ऱ जिड़़ि श़सकीय रूप से है और स़ऽहऽत्यक रूप से भा ऄतएि बरबस हा अपक़—हम़ऱ बंधित्ि बन ज़त़ है, श़यद यहा स़ऽहत्य की शऽक्त है। अग़मा पिं की ह़र्ददक शिभक़मऩओं सऽहत, रजनाश कि म़र य़दि प्रबंधक (ऱजभ़ष़), कोऱ् (ऱजस्थ़न) ~✽~ अदरणाय पंकज ऽत्रिेदा जा, ऄप्रैल-मइ-जीन-2016 क़ ऄंक ऽमल़, अपक़ ह़र्ददक अभ़र । अपने मेरे बऩये हुयं रे ख़ऽचत्रो को ऽिश्वग़थ़ मं स्थ़न कदय़ । ऽिश्वग़थ़ एक स्तराय पठनाय पऽत्रक़ है । सम्प़दकीय मं सदैि स़थटक ऽिषय पर सर्ाक ऽिश्लेषण पढने को ऽमलत़ है । संप़दन और भ़ष़ के स़मजस्य क़ ऽनि़टह अप बखीबा करते है । पऽत्रक़ मं प़ट्ण स़मग्रा क़ लेखन कौशल, अपके सीक्ष्म चयन और सघन ऽिश्लेष्ण स़म्यट क़ पररचय देत़ है । आस ऄंक की सभा कह़ऽनय़ ऄच्छा लगा, ”ईसकी अत्मह्त्य़..” ने ऽिचऽलत ककय़ । कह़ना क़ ऽिषय ितटम़न मं एक ज्िलंत समस्य़ बऩ हुअ है । संत़न के ईपर ऽपत़ क़ ऄऽिश्व़स संत़न के स़रे अत्मबल क़ हनन कर लेत़ है । यह कह़ना एक सन्देश है ईन ऄऽभभ़िकं के ऽलए जो संत़न से ऽमत्रित न रह कर शक की ऽबऩ पर दोनं के बाच ऄलग़ि की दाि़र बऩ लेते है । गहरे स़म़ऽजक बोध से ओतप्रोत कह़ना है यह ... संस्मरण और अलेख ने भरपीर ज्ञ़न क़ ऽिस्त़र ककय़ । बैण्डम़स्र्र पर ऽलखा कऽित़ ऽिशेष लगा । निनात प़ण्डेय जा की कऽित़ अज के बच्चं को सबक देता हुइ प्रेरक कऽित़ है । ज्योऽत खरे जा की छोर्ा मगर गहरा म़रक क्षमत़ की कऽित़ है, शऽश सहगल जा की कऽित़यं ररश्तं की भ़िऩओं को ऄथट देता है, ऄच्छ़ लग़ पढ़ कर । व्यंग कम़ल के लगे । स़क्ष़त्क़र मं िररष्ठ कऽि प्रत़प सहगल के लेखन को ऽिऽभन्न कोणं से ईनके क्य मं ज़नने समझने को ऽमल़ । लेखन मं ऄलग ऽिषय सदैि अकर्मषत करते है । शोध पत्र, शमशेर बह़दिर हिसह की कऽित़ओं पर .. डॉ भगि़न् हिसह जे० सोलंकी जा ने ऽिऽभन्न कोणं से ईनके ऽिलक्षण लेखन से पररचय करि़य़ । संजय भ़इ चौधरा क़ शोध पत्र भा ज्ञ़निधटक लग़, अंचऽलक ईपम़न और प्रऽतको को ज़नऩ ऄच्छ़ लग़ । स़दर । प्रिेश सोना (कोऱ्-ऱजस्थ़न) ~✽~

cle on feminist approach in Punjabi Drama. i had sent you a mail at that time also for expressing my gratitude but it was bounced back. Again I am expressing my sentiments of thankfulness with the hope that you will continue to patronize me. Regards, - Shalu kaur New Delhi

Respected Pankaj Trivedi ji, I am grateful to you for giving due space to my arti-

~✽~

ISSN –2347-8764

~✽~ श्राम़न पंकज भ़इ, ऄप्रैल-मइ-जीन-2016 क़ ऄंक प्ऱप्त हुअ । मिखपुष्ठ सद़ कीमता अतंररक शब्दं से अच्छ़कदत लेख / कह़ना / ऽिषय क़ प्रऽतऽबम्ब होत़ है, अकषटक है । श़ली कौर की पंज़बा ऩर्को मं मऽहल़ सरोक़र, कल्पऩ भट्ट, ऽत्रलोकहिसह ठकि रे ल़ की लघिकथ़एँ, रिा रतल़मा क़ व्यंग्य, डॉ. मंजरा शिक्ल की कह़ना -सौद़, ऄऽमत कल्ल़ क़ रं ग संयोजन पर कथन—"मं ऄपने अपको रं गं मं एकरूप होत़ प़त़ हूँ, ईनसे ब़त करत़ ईन्हं ऽनह़रत़ हूँ । ऄसल रूप मं ईन्हं प़कर कभा-कभा शब्दहान हो ज़त़ हूँ ।" सम्प़दकीय मं मौऽलक सुजन म़निाय ऽजजाऽिष़ के स़थ अज के स़ऽहत्य सुजक पर प्रह़र ऽनऽश्चत अइऩ कदखत़ है । ऽनभीक ि़णा के स़थ कऽित़एँ, शोधपत्र अकर्मषत करते हं । शिभक़मऩओं सऽहत प्रिेश सोना के ऽचत्रं ने रचऩओं को ज़गुत कर कदय़ है । - नरे न्र पररह़र (ऩगपिर) ~✽~ अदरनाय महोदय, ऄंक प्ऱप्त हो चिक़ थ़ । एक गैर ऽहन्दा भ़षा प्रदेश से आतना बकढ़य़ पऽत्रक़ क़ प्रक़शन होऩ बहुत हा प्रसन्नत़ क़ ऽिषय है। आसके ऽलए अप एिं सहयोगाजन िस्तित: बध़इ के प़त्र हं । कु पय़ स्िाक़रं । संप़दकीय लेख -"न ऄलग हुए न धिल गये" पढ़़ । सहमत हूँ कक, मौऽलक सुजन शब्दं की ऽगनता मं नहं होत़ । मौऽलक ऽिच़र जनऽहत़य होऩ हा च़ऽहये । लेख, कऽित़येँ, कह़ऽनय़ं अकद स्तराय है । ऄच्छे लगे । पऽत्रक़ ईत्तरोत्तर पगऽत पथ पर ऄग्रसर हो, यह क़मऩ करत़ हूँ । ओमप्रक़श प़ठक आन्दौर (म.प्र.) ~✽~ संप़दकश्रा, ऽिश्वग़थ़, नमस्क़र । मिझे बड़ा खिशा है कक अप गिजऱता होने के ब़िजीद न के िल ऽहन्दा स़ऽहत्य ऽलखते हं बऽल्क ऽहन्दा स़ऽहत्य की िैऽश्वक स्तराय पऽत्रक़ क़ ऽनरं तर प्रक़शन भा कर रहे हं । ‘ऽिश्वग़थ़’ ऄब गिजऱता-ऽहन्दा पिस्तक प्रक़शन के क़यट मं भा अगे बढ़ रह़ है । ककसा भा गिजऱता स़ऽहत्यप्रेमा के ऽलए यह बड़़ हा अनंद और गौरि क़ ऽिषय है । मेरा शिभक़मऩएं । - पिनात ऱिल (सिरेन्रनगर-गिजऱत)

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‘ऽिश्वग़थ़’ के सभा प़ठकं संप़दक की कलम से को दाप़िला-नीतन िषट की शिभक़मऩएं। त्यौह़र हम़रे जािन के ऽलए संजािना पंकज ऽत्रिेदा बनकर अते हं। अपस मं ऽमलऩ और अऱम से पररि़र के स़थ बैठने क़ ऄिसर श़यद हा हमं ऽमल प़त़ है । ‘ऽिश्वग़थ़’ गिजऱत की एक म़त्र ऄंतऱटष्ट्राय ऽहन्दा स़ऽहत्य की पऽत्रक़ है जो पररि़र के सभा सदस्य पढ़ सकते हं । स़ऽहत्य के स़थ हम़रा कल़-संस्कु ऽत को भा आस पऽत्रक़ मं महत्त्ि कदय़ ज़त़ है । हमने पऽत्रक़ को घर-घर पहुँच़ने के ऽलए सदस्यत़ लेकर प्ऱप्त करने की सिऽिध़ हा ईपलब्ध करि़इ है । प्रऽतिषट हमने ऽिशेष़ंक को ऄलग नज़ररए से प़ठकं के स़मने रखने के ऽलए कड़ा मेहनत की है । व्यंग्यक़र श्रा सिभ़ष चंदर और यि​ि़ व्यंग्यक़र श्रामता ऄचटऩ चति​िेदा क़ सहयोग ऄमील्य है। आन दोनं की ऽनगऱना मं ‘व्यंग्य ऽिशेष़ंक’ देखते हा बनत़ है । हमने गिजऱता स़ऽहत्य पर अध़ररत गिजऱता भ़ष़ ऽिशेष़ंक कदय़, ऽजसके ऽलए देश के कोने कोने से प़ठकं ने हमं प्रोत्स़हन देने मं कतइ कं जीसा नहं की। मंच-कफल्म-र्ािा ऄऽभनेत्रा ऄसाम़ भट्ट बेहतरान स़ऽहत्यक़र भा है । हमने ‘ऽिश्वग़थ़’ के तत्त्ि़ध़न मं गिजऱत के सिरेन्रनगर शहर मं ऄसाम़ भट्ट के ‘एकल ऩट्ड’ प्रयोग ककय़ तो लोगंने जोरद़र स्ि़गत ककय़ । ईसा ऄनिसंध़न मं कल़ को महत्त्ि देते हुए हमने ऄसाम़ भट्ट के जािन और लेखन पर अध़ररत ऽिशेष़ंक प्रक़ऽशत ककय़ थ़ । आस ऄंक की प्रऽतय़ँ अज भा लोगं की म़ंग है । बहुत जल्दा हा हम ‘ऽिश्वग़थ़’ के प़ठकं के ऽलए ऄसाम़ भट्ट के जािन के ऄनछि ए पहलिओं को ईज़गर करता हुइ ब़तं एक ककत़ब के म़ध्यम से प्रक़ऽशत करं गे । स़ऽहत्य, कल़ एिं एक संघषटशाल बिऽिजािा मऽहल़ के खट्टेमाठे ऄनिभिं के स़थ स़रा ब़तं सत्य के अध़र पर होगा। ‘ऽिश्वग़थ़’ को भ़ष़ प्रेऽमयं ने बहुत प्य़र कदय़ है । हम़रा कोऽशश है कक हम समपटण के स़थ देश के भ़ष़ प्रेऽमयं के ऽलए ईत्कु ष्ठ स़ऽहऽत्यक पऽत्रक़ बऩये रखंगे । भऽिष्य मं हम च़हते हं कक ‘ऽिश्वग़थ़’ के प्रत्येक ऄंक के लोक़पटण के ऽलए देश के ऽिऽभन्न शहरं मं हम ज़यंगे और स्थ़नाय स़ऽहऽत्यक संस्थ़न के तत्त्ि़ध़न मं क़यटक्रम क़ अयोजन भा हं। स़थ हा सभा शहरं मं ऄपने प्रऽतऽनऽध भा ऽनयिक्त करं गे । अप सभा ज़नते हं कक अज के आलेक्ट्रोऽनक्स माऽडय़ के समय मं पऽत्रक़एँ खरादकर पढ़ने ि़ले प़ठक भले हा कम होने लगे है मगर ऄच्छा पऽत्रक़ के ऽलए लोग अज भा तत्पर रहते हं । अप सभा ‘ऽिश्वग़थ़’ पररि़र के सदस्य हा है, आसऽलए पऽत्रक़ की अर्मथक ऽस्थरत़ के ऽलए भा अप ऄनिद़न य़ ऽिज्ञ़पन के ि़ऱ सह़यक बनकर ऄपऩ योगद़न जरूर दं ऐसा श्रि़ के स़थ नीतन िषट की मंगल क़मऩ करत़ हूँ।

मेरा ब़त...

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ISSN –2347-8764

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