Jan feb march 2016

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ऄनिक्रमऽणक़ ख़त-ख़बर सम्प़दकीय अज़़दा बोलने की

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पंकज ऽिवेदा

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अलेख कल़ओं क़ बदलत़ पररदुश्य नन्द भ़रद्व़ज

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कऽवत़एँ ग़ज़ल गिलमोहर दोहे तिम ऄगर लघिक़व्य कऽवत़ ररमऽझम ररमऽझम ग़ज़ल ग़ज़ल कऽवत़ स़गर

आऽन्दऱ शबनम (Cover) मात़ द़स डॉ. ऄशोक मैिेय ऱऽगना ऽिप़ठा डॉ. नरे न्र ऱवल पीनम सिसह पीनम मंजिल़ ऄरगरे ऽशन्दे ऄऽमत व़घेल़ 'क़फ़ी' जयऽनत कि म़र मेहत़ शिभेन्दि शेखर जयदेव शिक्ल

02 06 12 19 22 25 25 30 44 47 54

जंज़ारं तुप्त मछि अऱ (जममन) छटपट़हट दिःख बेटा ऩम मं क्य़ रख़ है? एक बदऩम औरत

देवा ऩगऱना ह़आनररश ब्योल अश़ गिप्त़ ' अशि' डॉ. डेज़ा प्ऱंजऽल ऄवस्था कऽवत़ ऽवक़स अऱधऩ ऱय 'ऄरु'

13 17 18 23 29 33 38

ककरण च़वल़ गौऱंग लसिवगाय़ चंरधर शम़म गिलरे ा शिभ्ऱन्शि प़ण्डेय आऽन्दऱ ककसलय ऽचि़ मिदगल

15 28 30 39 49 56

डॉ. जगदाश ऽिवेदा ऄचमऩ चतिवेदा संतोष श्राव़स्तव

09 16 26

सैयद एस. तौहाद

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सिभ़ष चंदर नारज शम़म

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कह़ना

लघिकथ़ सिज़दगा और मौत प़र्किकग ग़ऽलय़ं ऽखलौने व़ला गन मछला ईड़ मदम

स़क्ष़त्क़र मनहर ईध़स व्यंग्यश्रा - सिभ़ष चंदर कदनकर जोशा (गिजऱता)

किल्म कफ़ल्मक़र ऊऽत्वक घटक

ह़स्य-व्यंग्य स़वध़न ! ऄपऱध कम ऄथ श्रा झोल़ पिरनम् ISSN –2347-8764

माटिटग क़ मतलब

ऄरऽवन्द खेड़े

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समाक्ष़ बच्चे मन के सच्चे मनोज 'क़मदेव' भ़वऩ ऽतव़रा-बीँद बीँद गंग़जल सौरभ प़ण्डेय संवेदऩ के अच़यम संजाव वम़म

37 40 43

शोधपि आल़चंर जोशा के ईपन्य़स म़तुभ़ष़ और ऽशक्ष़ तमस-ईपन्य़स मं ... डॉ. सत्यव्रत श़स्त्रा

गात़ भट्टा डॉ. संगात़ श्राव़स्तव डॉ. भगव़न सिसह सोलंकी प्ऱ. डॉ. मधिसिदन व्य़स

45 48 50 53

✽ ✽ ✽

सल़हक़र संप़दक सिभ़ष चंदर ✽ संप़दक

पंकज ऽिवेदा

✽ सह संप़दक ऄचमऩ चतिवद े ा ✽ पऱमशमक ऽबन्दि भट्ट सौरभ प़ण्डेय मंजल ि ़ ऄरगड़े सिशदे ✽ शोधपि संप़दक डॉ. के तन गोहेल डॉ. संगात़ श्राव़स्तव ✽

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

Mo. 09662514007 ✽ मिखपुष्ठ ऽचि श्रा ज्योऽत भट्ट ✽ व़र्षषक सदस्यत़ : 200/- रुपये 5-वषम : 1000/- रुपये (ड़क खचम सऽहत) ✽ सम्प़दकीय क़य़मलय ऽवश्वग़थ़ C/o. पंकज ऽिवेदा ॎ, गोकि लप़कम सोस़यटा, 80 िीट रोड, सिरेन्रनगर 363002 -गिजऱत ✽ vishwagatha@gmail.com ✽ 1


ख़त-ख़बर ऽप्रय पंकज भ़इ, 'ऽवश्वग़थ़ क़ ऄक्टी बर-ददसम्बर '15 अंक ममला । गुजराती सजमऩत्मक कु ऽतओं को ऽहन्दा के द्व़ऱ समग्र देश के प़ठकं तक पहुँच़ने क़ प्रयत्न स्तित्य है । सिरेन्रनगर मं रह कर अप जो कर रहे हं वह अपकी स़ऽहत्य प्राऽत हा है । अप गिजऱता स़ऽहत्य की सेव़ हा करते हं । अपके द्व़ऱ चयऽनत रचऩएँ ईत्तम हं । ऄंक मोहक बऩय़ है । अने व़ले वषो मं अपकी यह य़ि़ गऽतमय रहं और ऄनिकील पवन अपको प्ऱप्त हो । मेऱ ऽप्रय लऽलत ऽनबंध अपने ऄनिकदत ककय़ ईसके ऽलए अनंद व्यक्त करत़ हूँ । पररव़र मं सभा को स्मरण । वह़ँ के ऽमिं की कि शलत़ च़हत़ हूँ । - प्रि​ि ल्ल ऱवल सेति C/o ऽवद्य़लय, व्य़य़मश़ऴ के स़मने, परकोट़, वारमग़ंव—382 150 ~✽~ म़ननाय संप़दक महोदय, 'ऽवश्वग़थ़ क़ जिल़इ-ऽसतंबर-2015 ऄंक प्ऱप्त हुअ । गिजऱता भ़ष़ की समक़लान रचऩओं के ऄनिकदत आस ऄंक मं कह़ना, ऽनबंध, लघिकथ़, ह़स्य-व्यंग्य आत्य़कद पढ़ कर लग़ कक प्ऱदेऽशक ऄन्य भ़ष़ की तिलऩ मं हमभा कि छ कम नहं ! रघिवार चौधरा को ज्ञ़नपाठ पिरस्क़रऽमल़.. वह गिजऱता भ़ष़ क़ गौरव हं । अपने ठाक समय पर लेखक क़ िोटो समेत क़फ़ी ज़नक़रा दा। बड़ा प्रसन्नत़ हुइ । समक़लान गिजऱता कह़ना के ब़रे मं हषमद ऽिवेदा ने बहुत गहन ऄध्ययन करके ऽलख़ है । ईनक़ स़ऽहत्य ऄक़दमा के मिखपि शब्दसुऽि पऽिक़ के स़लं क़ संप़दन ऄनिभव रह़ है, ईसके क़रण वो कह़ऽनयं के पोस्टम़टमम करने व़ले एक डॉक्टर बन गए है । हम़रे कऽव ल़भशंकर ठ़कर के ऽनधन के प्रऽत दिःख जत़य़ है । अपकी संप़दन दुऽि और संचय की दुऽि आस ऄंक मं कदल को छी लेता है। धन्यव़द और ऽवश्व ग़थ़ के ऽलए शिभक़मऩएँ ।- सिमत ं ऱवल, सिरेन्रनगर (गिजऱत)। ~✽~ म़ननाय संप़दक महोदय, ''गमतिं मळे तो ऄल्य़ गीज ं े न भररये, गमत़ंनो कराए गिल़ल ....ऽबलिकल यहा करऩ च़ऽहए मं भा कोऽशश यहा करत़ हूँ । अदरणाय पंकज ऽिवेदा जा, अपकी भेजा ऽवश्वग़थ़ क़ नय़ ऄंक कल हा ऽमल़, आस नये ऄंक के ऽलए अभ़र । ऄपना भ़ष़ पर हमेश़ गवम करऩ च़ऽहए । वहा हम़रा पहच़न है । गिजऱता कह़ऽनयं के ब़रे कम हा ज़नत़ थ़ । हषमद ऽिवेदा जा के समक़लान गिजऱता कह़ना लेख से ज़नक़रा मं वुऽि हुइ । बहुत हा ऄच्छ़ लेख है । लेरिन स़आको कह़ना पढा, ऄच्छा कह़ना है । ऄभा आतऩ हा पढ़, ऽनग़ह सब पर गया है । बहुत ऄच्छ़ ऄंक है । अदरणाय पंकज ऽिवेदा जा के स़थ सम्प़दक मण्डला के सभा सदस्यं को बध़इ । - अनन्द ऽवक्रम ऽिप़ठा ~✽~ ऽप्रय संप़दक श्रा, जावन की व्यस्तत़एँ जब ज़ले बिनने लगता हं तब ईनमं से ISSN –2347-8764

ऽनकलने को अतिर मन ककस प्रक़र स्वयं से यि​ि करत़ है, आस ब़त को लेखक से ऄऽधक भला प्रक़र और कौन समझ सकत़ है । और जब आन्हं व्यस्तत़ओं के ज़लं मं वह सिकीन प़ने लगत़ है, तब ईसकी कलम से ऽनस्सुत प्ऱकु ऽतक ध़र एक ऐस़ झरऩ तैय़र करता है ऽजसमं वह स्वयं तो नह़त़ हा है, ऄपने प़ठकं को भा सह्स्ऩन कऱत़ चलत़ है । यह ऩन मन की स़रा पाड़एँ भिलव़कर एक ऐसे लोक मं ऽवचरण करव़त़ है जह़ँ अलोक है, जावन है, अश़ है, ऽवश्व़स है । संभवत: ऐसे क्षणं मं मन के द़यरे मं से जब ककसा रचऩ की ऽनर्षमऽत होता है तब वह पीरे व़त़वरण को प्रक़ऽशत करता है । तब वह अलोक भातर को सहज ऽनग्धत़ से भर देत़ है और हम लेखक के प्रऽत नतमस्तक हो ज़ते हं । गिजऱत गिणा है, धना है, धन्य हं, ऽजनने सभा क्षेिं मं रत्न ईत्पन्न ककये हं । स्व़भ़ऽवक है, यह़ँ हम स़ऽहत्य क्षेि की ब़त कर रहे हं ऽजसमं एक नहं कइ स़ऽहत्यक़र ज्ञ़नपाठ सम्म़न से ऽवभीऽषत ककये ज़ चिके हं । अ. कऽवश्रा ईम़शंकर जोशा जा, अ. कऽवश्रा पन्ऩल़ल पटेल जा, अ. कऽवश्रा ऱजेन्र श़ह जा और ऄब अ. स़ऽहत्यक़र डॉ रघिवार चौधरा जा । ककतऩ सरल, सहज व्यऽक्तत्व ! और ककतऩ गहन सिचतन ! नतमस्तक हूँ । मं ऄपने जावन क़ ऄऽधक़ंश व बहुमील्य ऽहस्स़ आसा गिजऱत मं गिज़़र चिकी हूँ । आन सभा प्रऽतऽष्ठत, सरल, सहज ककन्ति गंभार लेखकं से ऽमलने क़, कभा-कभा चच़म करने क़ सौभ़ग्य हुअ है। नतमस्तक हूँ सभा के प्रऽत और गवम ऄनिभव करता हूँ । ऽवश्व ग़थ़ एवं पंकज जा को धन्यव़द देता हूँ तथ़ ईनके प्रऽत अभ़र प्रस्तित करता हूँ, कक मेरा ऄनिकदत रचऩ आस महत्वपीणम संकलन मं प्रक़ऽशत की । जाने को जा हा लेते हं सभा पर, संवेदऩ ऽजस कदल मं हो, वो ब़त और है --'ऽवश्वग़थ़ पीरे ऽवश्व मं ऄपना ग़थ़एँ ऽनरं तर सिरऽभत करता रहे। आसा प्रक़र महत्वपीणम स़ऽहऽत्यक ऽवशेष़ंक प्रस्तित करता रहे। आसा भ़वऩ व क़मऩ के स़थ - डॉ.प्रणव भ़रता 'लऽलत श्रिऽत , 31, ईमेद प़कम , सोल़ रोड़, ऄहमद़ब़द-61 ~✽~ सेव़ मं, सम्म़न्य संप़दक मंडल, ’ऽवश्वग़थ़’ । पऽिक़ क़ ऄक्ती बर-नवंबर-कदसंबर 2015 ऄंक प्ऱप्त हुअ । पुष्ठ दर पुष्ठ रोचकत़ के नये क्षेिं क़ भ्रमण कऱत़ गय़ । व़स्तव मं बहुत हा खीबसीरत ऄंक है, ऽजसमं ककराट दीध़त जा, ऽहम़ंशा शेलत जा की कह़ऽनय़ँ और पिऽनत ऱवल जा क़ ऽनबंध पिष्पपं की तरह सजे हुए हं । ऽवनोद जा क़ ह़स्य लेख तो हँस़ने के स़थ-स़थ बहुत कि छ गहऱ भा कह ज़ रह़ है । कि ल ऽमल़कर पीरे ऄंक क़ ब़र-ब़र अनंद लेने को जा च़हत़ है । अपकी स़ऽहत्य स़धऩ और सेव़भ़व को नमन। - कि म़र गौरव ऄजातेन्दि श़हपिर, द़ऩपिर कै न्ट, पटऩ, (ऽबह़र)। ~✽~

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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सम्प़दकीय

अज़़दा बोलने की पंकज ऽिवेदा

देशभऽक्त क्य़ है? अजकल ईसा सन्दभम मं देश के तथ़कऽथत बिऽिजावाओं को टा.वा. चैनलं पर चच़म करने क़ मौक़ ऽमलत़ है । सभा के कं धं पर झोले लटके हुए हं । ककसा के प़स ज़ऽतव़द है तो ककसा के प़स ऄपना प़टी क़ यशोग़न है । मगर ईनमं से ककसा के भा झोले मं न ऱष्ट्रव़द है, न ऱष्ट्र के प्रऽत वफ़़द़रा की ऽवच़रध़ऱ है । सभा एक दीसरे के स़मने सपेरे की तरह पेश अते हुए यहा कहऩ च़हते हं; "सिज़द़ कदख़उँ य़ मऱ हुअ? बन्दर कदख़उँ य़ स़ँप !" सभा के प़स एक दीसरे की चोटा खंचने की कि शलत़ है । क्यींकक कोइ दीध क़ धिल़ हुअ नहं है । JNU मं जो हुअ ईसकी जड़ं अज की नहं है । देश की जनत़ आतऩ तो समझता है कक व़णा स्वतन्ित़ के अध़र पर जो भा हुअ वो देश की बब़मदा क़ श्रा गणेश है । JNU के छ़िं की व़णा और श़राररक भ़ष़ के ऽलए JNU के मिट्ढाभर ऄध्य़पकगण स्पि रूप से ऽज़म्मेद़र हं । ऽवश्वऽवद्य़लयं मं सम़जश़स्त्रऱज्यश़स्त्र जैसे ऽवषय पढ़ये ज़ते हं । स्की ल क़ बच्च़ हो य़ ऽवश्वऽवद्य़लय क़ यिव़ वगम, देश के ऩगररक के रूप मं देश की ऱजनाऽतक व्यवस्थ़ और संऽवध़न को ज़नं, समझं और ईसाक़ ऄनिसरण करते हुए देश की ऄखंडत़ के ऽलए ऽजएं । देश मं अरक्षण के ऽलए अन्दोलन चले । क्यींकक ऱष्ट्रऽपत़ ग़ंधाजा और संऽवध़न के रचेयत़ डॉ. ब़ब़ स़हब अंबेडकर ने भा कह़ थ़ कक कि छ पाकढ़यं के ईि़र के ऽलए यह अवश्यक हो और ब़द मं सभा को सम़न हक्क ऽमले । त़त्पयम यहा कक ईन्हंने कभा भा ऱजनाऽतक ल़भ ईठ़ने हेति अरक्षण व्यवस्थ़ ल़गी नहं की था । देश की अज़़दा से ऄबतक जो भा प़र्टटय़ँ सत्त़ मं अइ ईन्हंने ऽसिम ऄपना वोट बंक के ऽलए वो सबकि छ ककय़ जो देश के ऽहत मं नहं थ़ । स़ऽहत्यक़रं ने ऄसऽहष्पणित़ के मिद्दे पर ऄपने पिरस्क़र-ऄव़डम लौट़ए । जब भा कोइ ऄच्छ़ क़यम ककय़ और ईसा के ऽलए स़ऽहत्य य़ कल़क्षेि मं पिरस्क़र-ऄव़डम ऽमल़ थ़, वो तो ईस क़म के प्रोत्स़हन ऽलए थ़ । ल़ंस ऩयक हनमनथप्प़ लगभग 6000 माटर की उंच़इ पर ऽसय़ऽचन ग्लेऽशयर मं अठ माटर बिम के भातर दबे हुए ऽमले थे। क्य़ जरुरत था ईन्हं वह़ँ पर रहने की? देश भऽक्त के भ़षण से ज्य़द़ ईनक़ मौन बोलत़ है – हम मर ज़यंगे मगर ऄपने देश से गद्द़रा नहं करं गे, हम़रे देशव़ऽसयं को चैन से रहने के ऽलए हम सबकि छ सहंगे । हनमनथप्प़ ऄगर ऽज़न्द़ रह़ तो कि छ क़रण हंगे । देशभऽक्त क़ जज़्ब़, अध्य़ऽत्मकत़ के क़रण मनोबल, पररव़र की ऽज़म्मेद़रा की सिचत़ और जावन के प्रऽत लग़व । ISSN –2347-8764

सोशल ऽमऽडय़ पर एक छोटा सा किल्म देखा था । जो ऽसिम दो ऽमनट, स़त सेकण्ड की था । ऽजसक़ लेखन-कदग्दशमन श्रा ऽववेक जोशा ने ककय़ है । जंगल मं देश की सिरक्ष़ करते हुए दो जव़न के बाच जो संव़द होत़ है, वो देशभऽक्त के ऽलए और गद्द़रं को संभल ज़ने प्रऽत बड़़ संदेश देने के ऽलए पय़मप्त है । जव़न-1 --ग़ंधाजा की बरसा कब है? जव़न-2 --30 जनवरा जव़न-1 --और भगतसिसह की? जव़न-2 --23 म़चम जव़न-1 --ऄफ़ज़ल गिरु की बरसा कब है? जव़न-2--कौन ऄफ़ज़ल गिरु? (कतऱते हुए...किर दोनं हंसते हं) जव़न-2-- कि छ सिऩइ कदय़? जव़न-1-- क्य़? जव़न-2 --ककसा की अव़ज़ अ रहा था... जव़न-1 -- ककसकी अव़ज़ ? (बड़़ शोर सिऩइ देत़ है) जव़न-2-- ऄपने देश की... (और किर ऄपने देश की ओर वो बन्दीक से ऽनश़ऩ स़धत़ है) जव़न-1-- ऄरे ! वह़ँ क्य़ बन्दीक कदख़त़ है? वह़ँ ऄपऩ देश है जव़न-2 --ऄच्छ़ ? तो किर दिश्मन के ऩरे की अव़ज़ यह़ँ से क्यीं अ रहा था? जव़न-1 -- हंम... ये फ्रीडम ऑफ़ स्पाच है, तेरा गोला से सब आन्स़न मरं गे पर आनकी सोच से स़ऱ देश मर ज़एग़ जव़न-2 --भ़रत तेरे टि कडे हंगे... मेरे ऽलए फ्रीडम ऑफ़ स्पाच है तो जो सिनने व़ले है वो गिल़म हंगे जव़न-1-- ककसको गोला म़रे ग़ ती? जो बोल रहे हं वो ऄपने भ़इ है ! जव़न-2 --ऽजसने ऄपना म़ँ को कदल से ऽनक़ल कदय़, ईसके स़थ ररश्ते ख़तम ! कि छ दल कहं; आस सरक़र ने भय िै ल़य़ है । सत्त़धाश दल कहं; 'प़ंच स़ल क़म तो करने दो, तबतक चिप रहो ।' गणतंि मं नइ-पिऱना सरक़रं के बाच अरोप-प्रत्य़रोप होऩ अवश्यक हं मगर देश की सिरक्ष़ हेती देश के सभा ऱजनाऽतक दलं को एकजीट होऩ पड़ेग़ । ऄगर ऐस़ नहं हुअ तो - संभव है कक हम़रे देश की रक्ष़ करने व़ले जव़नं मं से ककसा एक के मन मं गद्द़र पैद़ हो गय़ तो ईनके स़थ दीसरे जव़नं क़ मनोबल तोड़ेग़ । जैसे अतंककयं क़ कोइ धमम नहं होत़ वैसे गद्द़रं क़ भा धमम नहं होत़ । देश के दिश्मनं की तरफ़ बन्दीक त़कने व़ल़ जव़न कहं देश के नेत़ओं के प्रऽत बन्दीक त़ककर खड़ं न हो ज़एं ! क्यंकक वो ज़नते हं कक देश के अम ऩगररकं मं कोइ दोष नहं । जो कि छ है, मिट्ढाभर सत्त़धाशं के क़रण है । ऄंत मं दो ब़तं- ममिला ददवस पर लेमिका रे िाबा सरवैया ने ददए प्रवचन से एक म़र्षमक ऽवच़र - पिरुष को समझऩ च़ऽहए, स्त्रा को प्य़र देऩ च़ऽहए । सम़ज की अधा समस्य़एँ हल हो ज़एंगा । स़ऽहत्य से हट़कर देश की समस्य़ पर जो ऽलख़, के वल मेरे मह़न देश के प्रऽत मेरा भऽक्त, जज़्ब़त और कतमव्यऽनष्ठ़ है । 8 March 2016 (मऽहल़ कदवस) ~✽~

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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ख़त-ख़बर 'व्यंग्यश्रा' सम्म़न से ऽवभीऽषत ऽहन्दा स़ऽहत्य के व्यंग्य रचऩक़रं मं ऄग्राम पंऽक्त के रचऩक़र और ऽवश्वग़थ़ पऽिक़ के सल़हक़र संप़दक श्रासिभ़षचंदर को सवमश्रेष्ठ व्यंग्यश्रासम्म़न-2016 कदल्ला मं प्रद़न ककय़ गय़ । आस ऄवसर पर ऽहन्दा स़ऽहत्य के कइ ज़ने-म़ने स़ऽहत्यक़र एवं स़ऽहत्य प्रेऽमयं की बड़ा संख्य़ मं ईपऽस्थऽत था । ऽवश्वग़थ़ पररव़र की ओर से श्रा सिभ़ष जा को ऄनऽगनत शिभक़मऩएँ और कदला बध़इ देते हुए पररव़र भा गवम महसीस कर रह़ है । - पंकजमिवेदी ~✽~

अर्टसम कॉलेज, श़मल़जा मं यि०जा०सा० के तत्त्व़वध़न मं गिजऱता-ऽहन्दा भ़ष़ क़ दो कदवसाय सेऽमऩर श़मल़जा के लवणा मंडल संच़ऽलत अर्टसम कोलेज के द्व़ऱ यि०जा०सा० के तत्व़वध़न मं गिजऱता-ऽहन्दा भ़ष़ क़ दो कदवसाय ऱष्ट्राय सेऽमऩर क़ अयोजन ककय़ गय़ थ़ । सेऽमऩर क़ ऽहन्दा भ़ष़ के ऽलए ऽवषय थ़ - स्व़तंत्र्योत्तर कह़ऽनयं मं संवद े ऩ और कथ्य और गिजऱता भ़ष़ के ऽलए —कऽव श्रा ईम़शंकर जोशा समग्र स़ऽहत्य । ऽजसमं देश के ऽवऽभन्न ऱज्यं से कॉलेज-प्ऱच़यम एवं ऄध्य़पक ईपऽस्थत थे । क़यमक्रम के ईदघ़टन सि मं गिजऱता स़ऽहत्य पररषद् के ऄध्यक्ष डॉ० चंरक़ंत टोपाव़ल़ और ज़नाम़ना स़ऽहत्यक़र एवं गिजऱत ऽवद्य़पाठ के गिजऱता ऽवभ़ग़ध्यक्ष डॉ० ईष़ ईप़ध्य़य, डॉ० रऽतल़ल रोऽहत, डॉ० प्रदाप कि म़र सिसह, ऽप्र० मधिकर प़डवा, डॉ० ऄऽनल सिसह अकद मह़निभ़व ईपऽस्थत थे । आसा सि मं गिजऱत से श्रा पंकज ऽिवेदा के संप़दन मं प्रक़ऽशत होता ऽहन्दा स़ऽहत्य की िैम़ऽसक पऽिक़ – ‘ऽवश्व ग़थ़’ के नये ऄंक क़ लोक़पमण भा ककय़ गय़ । क़यमक्रम के अयोजक एवं श़मल़जा अटमस कॉलेज के प्ऱच़यम डॉ० ऄजय पटेल ने पऽिक़ की सऱहऩ के स़थ स्व़गत ककय़ ।  प्ऱ० डॉ० मधिसद ि न व्य़स ~✽~ ISSN –2347-8764

डॉ० जगदाश ऽिवेदा के द्व़ऱ ऄनिकदत ऽशक्ष़पिा की ऑऽडयो-साडा क़ लोक़पमण सिरंरनगर के ऄंतरऱष्ट्राय ह़स्य कल़क़र डॉ० जगदाश ऽिवेदा के द्व़ऱ कह़ गय़ कक स्व़माऩऱयण सम्प्रद़य की ऽशक्ष़पिा 200 वषम पीवम संस्कु त भ़ष़ मं ऽलखा गया था । गिजऱता-दोहरे के रूप मं आसके ऄनिकदत संस्करण को ऽहन्दा किल्म और गिजऱता ग़ज़ल ग़यक श्रा मनहर ईध़स ने ऄपना अव़ज़ दा है । ईस ऑऽडयो-साडा क़ लोक़पमण ऄंतरऱष्ट्राय ह़स्य कल़क़र जगदाश ऽिवेदा के गिरु श्रा श़हबिद्दान भ़इ ऱठोड़ के द्व़ऱ ककय़ गय़ । आस क़यमक्रम क़ अयोजन मिख्यतः शहर मं ड़यऽलऽसस सेन्टर हेति चंद़ आकट्ढ़ करने के ऽलए ककय़ गय़ थ़ । श्रा मनहर ईध़स आस सेव़ क़यम मं सहयोग देने के ऽलए अए थे । क़यमक्रम मं दऽक्षण अकफ्रक़ के मोज़़ऽम्बक से द़नवार ररज़व़न अडऽतय़, म़धव चेररटेबल िस्ट के द़नवार श्रा कदनेश गिप्त़ और वढव़ण चिऩव क्षेि के ऽवध़यक श्रामता वष़मबेन दोशा ख़़स तौर पर ईपऽस्थत थे । ~✽~ परम ऽप्रय पंकज प्य़रे , कि शल क़मऩएँ । जब पहला ब़र मंने अपके स़ऽहऽत्यक स़हस की ख़बर के ब़रे मं ज़ऩ थ़, तब पहला प्रऽतकक्रय़ ऐसा ईभरा था कक यह भर ऽप्रयजन गहन ऄंधक़र मं हा की द पड़़ है ! मगर ऄब देख रह़ हूँ कक वो ब़लक तान वषम क़ हो गय़ है और तन्दरुस्त भा हो गय़ है । आसकी ब़ल-लाल़ भा ऄच्छे ऄच्छं की धड़कन रोक देने व़ला है और जगह-जगह से ऄनऽगनत सल़म एकऽित करने लग़ है । दोस्त ! गिजऱता कु ऽतयं को ऽहन्दा भ़षायं के समक्ष प्रस्तित करने क़ ऽवच़र जो अपने ईत़ऱ है, वो व़स्तव मं गिजऱत क़ गौरव बढ़़ने व़ल़ है । अरम्भ मं रखे गए अप दोनं भ़आयं के अलेख पढ़ गय़ और मन एक गिजऱता के रूप मं अनंकदत हो गय़ । दिऽनय़ भर मं भ़रत क़ झंड़ िहऱते व्य़प़रा-गिजऱता च़हं तो स़ऽहत्य के झण्डे भा फ़हऱ सकते हं । ऽमि, आस ऄंक की ऽझलऽमल़ता कु ऽतयं के संग मिझे भा य़द रख कर लघिकथ़ को स्थ़न कदय़ वो अपके प्रेम क़ सबीत है । अभ़र म़न कर ऄलग नहं करूँग़ । कं धे पे ह़थ रख कर खिश होत़ हूँ । बन्धि, आस िै लता व्यस्तत़ के बाच अपक़ स्व़स्थ्य क़यम रहे । ऽवश्वग़थ़क़र : जिगजिग ऽजयो ! – इश्वर परम़र (द्व़ररक़)

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अलेख

कल़ओं क़ बदलत़ पररदुश्य और भऽवष्पय नन्द भ़रद्व़ज

अधिऽनक भ़रताय कल़ओं क़ पररदुश्य ऽजतऩ वैऽवध्यमय, व्य़पक और बहुअय़मा है, ईसके वतमम़न स्वरूप और भऽवष्पय को लेकर ईठने व़ले सव़ल ईतने हा चिनौऽतपीणम और एक़य़मा हं । यद्यऽप कल़ओं के भऽवष्पय पर ईठने व़ले सव़ल श़यद आसऽलए भा प्ऱसंऽगक हो गये हं कक आधर भीमंडलाकरण की प्रकक्रय़ ने कल़-कु ऽतयं और कल़-म़ध्यमं को ऽजस तरह ब़ज़र की ऽगरफ्त मं ले ऽलय़ है, ऽजस तरह अर्षथक प्रकक्रय़ओं ने हर कल़त्मक कमम को ईत्प़द मं बदल कदय़ है, मनिष्पय की कल़त्मक ऄऽभरुऽचय़ँ और स्वयं कल़-कु ऽतय़ँ भा ऐसे मं ऄपऩ वजीद बच़ प़ने करठऩइ ऄनिभव करने लगा हं । यं भा कह सकते हं, कक स्वयं कल़-सजमकं के बाच कल़ को लेकर ईनके सरोक़र और ईनकी प्ऱऽथमकत़एँ बदलने लगा हं। ऽवच़रणाय ब़त यह भा है कक ऽपछले कि छ दशकं से वैऽश्वक स्तर पर तकनाकक ऽवक़स और प्रौद्योऽगकी मं अए क्ऱऽन्तक़रा बदल़व के क़रण सम़ज की अर्षथक प्रकक्रय़ओं और मनिष्पय की जावन शैला मं ऽजस तरह के पररवतमन अए हं, ईन्हंने जावन की स़रा रूपरे ख़ हा बदल दा है । यह भा एक तथ्य है कक कल़ओं क़ ऄतात, वतमम़न और भऽवष्पय जावन की आस ऽवक़स-प्रकक्रय़ क़ हा ऄऽनव़यम ऽहस्स़ है । ऐसे मं ईनके भऽवष्पय को ईस म़नव-समिद़य के भऽवष्पय से ऄलग करके देख प़ऩ संभव भा नहं रह गय़ है । ऽवश्व की प्ऱचान स्‍यत़ओं के अकलन से यह ब़त हम भला-भ़ँऽत ज़न चिके हं कक मनिष्पय ने प्रकु ऽत के स़थ संघषम और स़हचयम मं सम़न रूप से ऄपना जावन-शैला को ऽवकऽसत और पररष्पकु त तो ककय़ है, ईसने ऄपने से ब़हर की दिऽनय़ को कि छ हद तक ऄपने ऄनिकील भा बऩय़ है । लेककन कहं स्वयं भा ईन बदलता पररऽस्थऽतयं के ऄनिरूप ढल गय़ है । वह ईस संघषम और बेहतर दिऽनय़ बऩने के ऱस्ते से ISSN –2347-8764

थोड़़ ऽवरत भा हुअ है । जो जैसा है, ईसा मं जा लेने क़ हुनर ढी ँढ़ने लग़ है । यह वहा मनिष्पय है ऽजसने समीचे प्ऱऽण-जगत के स़थ सह-ऄऽस्तत्व मं न के वल जाऩ साख ऽलय़ है, बऽल्क आस सुऽि को ऽवध्वसंस से बच़ए रखने के गिरूतर द़ऽयत्व से भा वह ऄनऽभज्ञ नहं है । म़नव स्‍यत़ क़ आऽतह़स और ईन स्‍यत़ओं मं मनिष्पय की ऄऽभरुऽच क़ ऄनवरत ऽवक़स आस ब़त क़ स़क्षा जरूर है कक कल़ के प्रऽत ईसक़ नैसर्षगक लग़व आसा पय़मवरण संतल ि न और व्य़पक लोक-कल्य़ण पर अध़ररत रह़ है । यहा म़नवाय भ़व ईसे सुऽि के ऄन्य प्ऱऽणयं से ऄलग करत़ है । देखऩ यहा है कक बदलते पररदुश्य मं वह ऄपने आस म़नवाय क़यमभ़र के प्रऽत ककतऩ संजाद़ रह प़त़ है । ऽवश्व स्‍यत़ के अरं ऽभक क़ल से लेकर ऄब तक ऽजन म़नवाय समिद़यं और ईनकी स्‍यत़ओं मं चति्दक ऽवक़स क़ पररदुश्य कदख़इ देत़ है, ईसमं भ़रताय ईप-मह़द्वाप मं ऽवकऽसत अयम और ऄऩयम स्‍यत़ओं क़ ऄपऩ संघषमपण ी म आऽतह़स रह़ है और ईन्हं स्‍यत़ओं मं जन्मा और ऽवकऽसत हुइ बहुअय़मा जावन-शैला और कल़एं क़ल़न्तर मं भ़रताय कल़ के रूप मं ऽवश्व मं ऄपना ऄलग पहच़न बऩने मं सिल भा रहा हं । मोटे तौर पर आन कल़ओं को दो वगम मं ब़ंटकर देख़ ज़त़ है – भ़व, स्वर और भंऽगम़ प्रध़न कल़एँ, ऽजनमं स़ऽहत्य, संगात, ऩट्ड, नुत्य जैसा कल़एँ अता हं, और दीसरा हं वे रूपंकर कल़एँ, ऽजनमं ऽचि़ंकन, रे ख़ंकन, मीर्षत-ऽशल्प, ऽभऽत्त ऽचि, छ़प़-कल़ अकद क़ सम़वेश होत़ है । आन रूपंकर कल़ओं मं मनिष्पय के हस्त-कौशल और ईसकी तकनाकक दक्षत़ क़ पररचय भा ऽमलत़ है । यद्यऽप मनिष्पय की संवेदऩ और चेतऩ के स़थ ईसके हस्त-कौशल और दक्षत़ के

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प़रस्पररक संबंध को आस तरह स्थील रूप से दो ऄलग वगं मं ब़ंटकर देखऩ कोआम बेहतर तराक़ नहं है, क्यंकक हर कौशल के पाछे मनिष्पय की संवेदऩ, भ़वप्रवणत़ और चेतऩ क़ जह़ँ गहऱ संबंध रहत़ है, वहं आस भ़व-प्रवणत़ और चेतऩ की ऄऽभव्यऽक्त मं मनिष्पय के हस्त-कौशल, श्रम और सिरुऽच क़ भा ईतऩ हा महत्वपीणम योग रहत़ है । आसा ऄथम मं सभा कल़ओं को एक-दीसरा की पीरक कह़ ज़त़ है । अधिऽनक क़ल तक अते-अते कल़ओं के ये सभा रूप भ़रताय पररदुश्य मं ऄपना ऄच्छा ख़सा पहच़न बऩ चिके हं । ऐऽतह़ऽसक दुऽि से हर यिग मं ऽजस तरह आन कल़ओं से जिड़ कल़कर्षमयं ने ऄपनेऄपने क्षेि मं ऽवक़स की प्रकक्रय़ओं को ऽनरन्तर गऽतम़न रख़ और हर क्षेि मं नये प्रयोग ककये हं, वहा प्रकक्रय़ अधिऽनक क़ल तक बदस्तीर ज़रा रहा है । ऽजनकी बदौलत अधिऽनक भ़रताय कल़एँ ऽवश्व मं ऄपना एक गररम़पीणम पहच़न बऩने मं क़मय़ब रहं हं । दीसरे ऽवश्व–यि​ि की सम़ऽप्त के ब़द ऽजस तरह दिऽनय़ भर मं, ऽवशेष रूप से तासरा दिऽनय़ के देशं मं ज़रा ऱजनैऽतक ईथल-पिथल और वैश्वाकरण की प्रकक्रय़ के जो प्रभ़व और पररवतमन पररलऽक्षत हुए, भ़रताय सम़ज और ईसकी कल़एं ईनसे ऄछी ता नहं रह सकी हं । जैसा कक भ़रताय सम़ज की ऄपना प्रकु ऽत है, ईसने ईन सभा प्रभ़वं को ऄपने भातर अत्मस़त तो कर ऽलय़, लेककन भीमंडलाकरण के ईस बढ़ते दब़व से वह ऄपने को बच़ प़ने मं ककतना सिल रहा है, आस पर कल़-क्षेि के लोगं की ऱय एक जैसा नहं है । स़म़ऽजक बदल़व की ISSN –2347-8764

आस प्रकक्रय़ मं ईस जम़ने की कल़- कऽवत़ ईपलऽब्धयं के प्रताक और प्रऽतम़न भा ऄब बदलने लगे हं । बेशक एक ऐऽतह़ऽसक धरोहर के रूप मं वे अज भा हम़रे बाच ऽवद्यम़न हं, लेककन आस हेररटेज क़ ऽजस तरह व्य़वस़ऽयक ईपयोग होने लग़ है, ऽजस तरह रूपंकर कल़एँ और प्रदशमनधमी लोक कल़एँ ब़ज़र मं निम़आश और मात़ द़स ररकक्रयेशन क़ ऽहस्स़ गिलमोहर क़ एक पेड़ बनने लगा हं, ईनके जह़ँ मै ऄक्सर खड़़ हो ज़त़ हूँ भातर के कल़-तत्व पर ऄब सिऩइ नहं देता मिझे को सिरऽक्षत रख प़ऩ रुनझिन प़यल, न हा अस़न नहं रह गय़ चिभते हं स़ंसं मं घिँघर है । हम ईनमं कोइ ऽवज़ताय प्रभ़व य़ ऽजन्हं मै चिऱ ल़य़ थ़ एक कदन ईस व़संता वेल़ मं पऱय़पन भले न वह था गिनगिऩता हुइ झाल देखते हं, लेककन वे श़ंत ऽनह़र रहा था ऄपने मील और कल़त्मक स्वरूप से ककऩरे पर डी बे ईसके गोरे प़ओं के घिँघरूओं को सिन ऽनश्चय हा दीर ज़ चिकी हं । स़ऽहत्य, सीरज भा रठठक चिक़ थ़ ईस प्रहर वक्त ऄब कटत़ नहं संगात और प़रं पररक लोक कल़एँ जह़ँ गिलमोहर ............. ईत्सव और मेलं क़ रूप ग्रहण करने लगा हं, वहं ऽचि़ंकन, रे ख़ंकन, मीर्षत-ऽशल्प, श़यद शहर की स़रा घऽड़य़ँ और क़ंटे भा चिऱ ले गइ वह ऽभऽत्त-ऽचि अकद व्य़प़ररक गऽतऽवऽधयं मेरा हा तरह चिपच़प के अकषमण क़ मिख्य के न्र । व्य़वस़ऽयक जैसे मै चिऱ ल़य़ थ़ ऽसनेम़ और ब़ज़रू टावा चैनल्स ने ऽजस ईसके प़ंव के घिँघर । तरह नुत्य और ऩट्ड-कमम को पहले हा ऄपने भातर सम़ऽहत कर एक स्वतंि कल़ ♦♦♦ -माध्यम के ूपप म काी कमजरर कर कदय़ है, ऐसे मं सरक़रा ऽशक्षण-संस्थ़नं, ऄक़दऽमयं य़ कऽतपय सिरुऽच-संपन्न संस्थ़नं के सहयोग से चलने व़ले कल़संस्थ़न ककतना ऽजजाऽवष़ बच़ प़ते हं, यह ऄभा भऽवष्पय के गभम मं है, ह़ल़ंकक ऽजस तरह वतमम़न और भऽवष्पय के प्रऽत सत्त़ और संस्थ़नं मं बैठे लोगं की सोच बदल रहा है, वह कल़-सजमकं और सहृदय गुहात़ समिद़य के ऽलए ऽनश्चय हा कम चिनौऽतपीणम नहं है । ♦♦♦

गिलमोहर

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व्यंग्य

स़वध़न ! ऄपऱध कम हो रहे हं ! सिभ़ष चंदर

मिख्यमंिा ने ऽवश़ल अम सभ़ मं घोषण़ की कक ऱज्य से ऄपऱध कम हो ज़यंगे। प्रदेश के डा.जा.पा. ने घोषण़ सिना। ए.डा.जा. को प़स कर दा। ए.डा.जा. ने अइ.जा. को। आस प्रक़र ये घोषण़ जिब़न की पटरा पर चलते-चलते थ़ऩ आं च़जम के क़नं मं पहुंचा। थ़ऩ आं च़जम को क़नं मं आन्िै क्शन क़ खतऱ लग़। सो ईसने थ़ने मं माटिटग बिल़इ। दरोग़ओं से लेकर मिंशा-ऽसप़ऽहयं, दाव़न जा के क़नं मं अदेश की सप्ल़इ हो गया कक च़हे जैसे भा हो ऄपऱध कम करऩ है। ऄब थ़ऩ आं च़जम ऽनसिंत थे। सबने अदेश सिऩ, गिऩ और क़रम व़इ शिरू हो गया। क़रम व़इ क़ कि छ अंखं देख़-क़नं सिऩ ट़आप क़ ऽववरण यह़ं प्रस्तित है: दुश्य-1: थ़ने के ऄन्दर एक मरऽगल्ल़ स़ अदमा घिस़ और अते हा ज़ोर से ऽचल्ल़य़: हुजीर म़इ-ब़प मेरा बच्चा को बच़ लो, वो नाच गिड ं ़ मेरा बच्चा को बरब़द कर देग़। स़हब... मेरा ररपोटम ऽलख लो स़ब... मर ज़उंग़... बरब़द हो ज़उंग़। ऄबे... क्यं हल्ल़ कर रह़ है? दीं क्य़ एक क़न के नाचे... ह़ं... बोल... कौन स़ पह़ड़ टी ट पड़़’... ककस ब़त की ररपोटम ऽलख़ना है’ थ़ने के मिश ं ा ने कदय़सल़इ की संक से क़न खिज़ते हुए िम़मय़। हुजीर... म़इ ब़प... मेरा 14-15 बरस की बच्चा को वो शेखी अये-कदन छे ड़त़ है। ईस पर गन्दा-गन्दा िऽब्तय़ं कसत़ है। अज... तो हुजीर... ईसने ईसक़ ह़थ पकड़ कर बदतमाजा भा की।‘’ कहते-कहते ईसकी रूल़इ छी ट पड़ा। स्स़ले.... कं स़ ब़प है ती... तेरा बेटा से छेड़ख़ना होता है और ती यह़ं टेसिए बह़ रह़ है । म़र स्स़ले को... ह़थ पैर तोड़ दे । हम स्स़ले की ररपोटम भा नहं ऽलखंग,े बोल ऄब तो खिश। आस ब़र मिंशा जा ईव़चे। स़हब... क्य़ कहते हो... मं झिग्गा-झोपड़ा मं रहने व़ल़... गराब... मरऽगल्ल़ स़ अदमा... कह़ं वो कल्ली कब़ड़ा क़ ISSN –2347-8764

स़ंड... क्य़ वो मिझ से ऽपटेग़... मिझे तो एक धक्क़ देग़, मं ऽगर ज़उंग़। स़हब, हम पर दय़ करो, ईस गिण्डे को ऄन्दर कर दो... ईसे तो पिऽलस हा सिध़र सकता है... वो भीख़-नंग़ किर ऽभन ऽभऩय़। स्स़ले, पिऽलस ने ठे क़ ले रख़ है सबको सिध़रने क़... चल भ़ग यह़ं से... वरऩ लग़उंग़ ऽपछव़ड़े पे डण्डे... ऩना य़द अ ज़येगा।‘’ मिंशा ने कहते हुए डंड़ टेऽबल पर हा िटक़र कदय़। हुजीर... म़इ ब़प... रहम करं... वो कमाऩ शेखी कर रह़ थ़ कक वो मेरा बेटा को ईठ़कर के ले ज़येग़... मं ईसक़ कहं ब्य़ह करूंग़ तो वो ईसे तेज़़ब िं ककर जल़ देग़... हुजीर... कि छ करो... वरऩ मं यहं भीख़-प्य़स़ ज़न दे दींग़... स्स़ले... तेरा म़ं की... पिऽलस को धमकी देत़ है। स्स़ले, तेरा लिऽऺडय़ हा ऽछऩल होगा। ईसके स़थ आश्क की कब्ा खेलता होगा, तभा तो कब़ड़ा क़ लिड़ पाछे पड़ रह़ है... ज़ के पहले ऄपना लिऽऺडय़ को संभ़ल, अ गय़, पिऽलस को तंग करने। हुजीर... म़इ ब़प... मेरा बच्चा तो मिऽश्कल से 13-14 स़ल की है... स़तवं मं पढ़ता है... वो... ये सब कै से करे गा... हुजीर... रहम करो। ईस शेखी को ऽगरफ्त़र कर लो वरऩ वो गिण्ड़... कि छ कर देग़ तो मं ककसा को क्य़ मिह ं कदख़उंग़...’’ मरऽगल्ल़ ि​िक-ि​िक कर रो पड़़। तेरा ऐसा की तैसा... स्स़ले... हम प्य़र से समझ़ रहे हं... समझ हा नहं रह़... ऄबे वो ऽगरध़रा... लग़ स्स़ले के ऽपछव़डे पे च़र डण्डे... ऄभा ऄक्ल अ ज़येगा...’’ मिंशा ने डण्ड़ एक्सपटम ऽगरध़रा को अदेश कदय़। ऽगरध़रा ने अदेश पर ऄमल शिरू कर कदय़। िट... िट... िट... िट... अह मर गय़... ह़य रे ... छोड़ दो... ऽसप़हा जा... ह़य... मर गय़... जैसा कि छ अव़जेऺ अइ। भीख़-नंग़ ऽपछव़ड़़ सहल़ते-सहल़ते भ़ग गय़।

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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मिंशा ने स़दे क़गज पर एन्िा की – एक ऄपऱध कम हो गय़। दुश्य-2 ब़रह बजे ऱत क़ समय है। थ़ने मं दरोग़ जा से लेकर ऽसप़हा जा तक नंद की पेिोसिलग ड्यीटा पर हं। तभा थ़ने मं िोन घनघऩय़। दरोग़जा ने ईं घते हुए िोन ईठ़य़ और ईब़सा और ग़ला एक स़थ ब़हर ऽनक़लते हुए ईव़चे-कौन है बे भीतना के म़दर... स्स़ले सोने भा नहं देते। ह़ं बोल.... कौन बोल रह़ है। और बत़ कौन स़ बम िट गय़ तेरे ऽपछव़ड़े मं...। ईधर से रौबद़र अव़ज अइ- सेठ ऱम दय़ल बोल रह़ हूं, ज्व़आं ट सेकेिा होम क़ स़ढी ं... दरोग़ जा ने नंद भरा अंखं पीरे जतन से खोलं, जिब़न मं ऽमश्रा घोला और बड़े अदर से ईव़चे- ‘’म़ि करऩ सेठ जा... कदन भर की भ़ग़ दौड़ा के ब़द यीं हा अंख लग गया था। सो नंद की कल्ल़हट मं कि छ बोल गय़। ऄच्छ़ बत़आये, क्य़ ब़त है, कै से िोन करने की जहमत की? दमद़र अव़ज क़ रौब कइ ग्ऱम बढ गय़। टेलािोन के ररसावर से किर अव़ज़ अया’’- सिनो हम़रे पिऱने बंगले मं अज श़म को डकै ता पड़ा है। ईस समय घर मं ऽसिम घर की औरते थं। ल़खं रुपये नकद और जेवर ऽमलक़र स़त-अठ ल़ख की लीट हुइ है। जल्दा अआये। दरोग़ ने मन मं ग़ऽलयं क़ प़ना भऱ और अदर के स़थ िोन के मिह ं मं ईलोच कदय़- ‘’सेठ जा, हम ऄभा पहुंचते हं- अप ऽचन्त़ ऩ करं । आन ड़कि ओं की तो हम... मं डंड़ घिसड़ े दंगे। स्स़लं ने बडं स़ब तक के घर मं डकै ता ड़ला हं- हम अ रहे हं सेठ जा... जय ऽहन्द।‘’ आसके ब़द िोन क़ ररसावर रख कदय़। दरोग़ जा ने थ़नेद़र जा को जग़य़। म़मले क़ िलसि़ समझ़य़। नताजतन थ़नेद़र जा को द़रू के च़र पैगं के ब़द बऽऺढय़ नंद की जगह नंबी प़ना क़ सेवन करऩ पड़़। सेठ जा के घर ज़कर थ़नेद़र जा ने सेठ जा को समझ़ने की भरपीर कोऽशश की कक वो एिअइअर के चक्कर मं ऩ पड़े।वे ऽबऩ एिअइअर के हा के स की म़ं-बहन एक कर दंगे। डकै तं को पकड़ लंग.े .. ISSN –2347-8764

वगैरह़... वगैरह़। पर सेठ जा नहं म़ने। ह़र कर थ़नेद़र जा को कहऩ पड़़ कक ररपोटम ऽलखने व़ले मिंशा जा के घर जच्चगा क़ म़मल़ है। कल सिबह रपट ऽलख़ दंगे। ऄगले कदन मिंशा जा के ह़थं मं ददम हो गय़। ईससे ऄगले कदन ईनके जोड़ं मं ददम ईभर अय़। तासरे कदन ईन्हं मलेररय़ क़ भयंकर ऄटैक पड़़। य़ना तान कदन तक मिंशा जा रपट नहं ऽलख सके । ह़रकर सेठ जा ने स़ढी भ़इ य़ना ज्व़आं ट सेक्रेटा को िोन खटखट़ कदय़। वह़ं से थ़नेद़र को िोन अय़। साऽनयररटा ने जीऽनयररटा को हड़क़ ऽलय़। थ़नेद़र जा को एिअइअर भा ऽलखना पडा और हफ्ते भर मं के स सोल्व करने क़ व़द़ भा करऩ पड़़। सेठ स़हब गर्षवत हुए। थ़नेद़र जा को ऽचऽन्तत होने क़ दौऱ पड़ गय़। ह़य.. रपट दजम हो गया। आल़के मं एक ऄपऱध की बढ़ोत्तरा हो गया। ईसा श़म ल़लपरा की बोतल के स़थ, थ़ने मं बैठक हुइ। थ़नेद़र जा, दरोग़ जा, दाव़नजा, मिंशाजा वगैरह ऽसर से ऽसर और होटं से ज़म लग़कर बैठ गये। हल ऽनकल अय़। पिऽलऽसय़ क़रम व़हा शिरू हो गइ। कदसम्बर की ठं डा ऱत मं तान बजे पिऽलस की जाप सेठ जा के बंगले के ब़हर था। सेठ जा को जग़य़ गय़। ईन्हं अदर सऽहत सीचऩ दा गया कक घर की मऽहल़ओं को थ़ने भेज दं। कि छ संकदग्ध लोग पकड़े गये हं। ईनकी पहच़न करना है। ठं ड मं सिसकि ड़ता-अधा सोता-ज़गता औरतं थ़ने पहुंचा। संकदग्धं की ऽशऩख्त की, पर ईनकी शक्ल-सीरत डकै तं से ऄलग ऽनकला। थ़नेद़र जा ने कष्पट के ऽलए क्षम़ म़ंगा। सेठ जा ने िट़क से दे दा। प़ंच कदन यहा होत़ रह़। आन प़ंच कदनं मं सेठ जा के घर की औरतं ने लगभग पच़स ब़र ऄपऱऽधयं की ऽशऩख्त की। दोपहर के भोजन के समय, सोने के समय, पीज़ के समय और ऱत के समय तो पक्क़ 10 बजे से तान बजे के बाच तान-च़र ब़र थ़ने की जाप अता, घर की औरतं क़ंखताकीं खता थ़ने ज़तं। किर वहा पहच़न कौन व़ल़ एपासोड खेल़ ज़त़। आन प़ंच कदनो मं सेठ जा के घर की औरतं बेज़र हो गया। ईन्हंने िै सल़ कर ऽलय़ कक ल़खं की ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

नकदा जेवर से ज्य़द़ कीमता चाज़ ईनक़ चैन और नंद है। ईन्हंने सेठ जा को िै सल़ सिऩय़, सैठ जा ने िै सल़ थ़नेद़र के क़नं मं ि़ंसिर कर कदय़। रपट व़पस लेने की ब़त कहा, पर थ़नेद़र जा कतमव्य पऱयण बन्दे थे, क़हे म़नते। ईन पर कतमव्य-प़लन, डकै त खोज ऄऽभय़न, स़हब खिश ऄऽभय़न क़ भीत सव़र थ़, ऐसे मं ररपोटम व़पस लेने क़ मतलब तो... बड़़ आल्ली-ऽबल्ली थ़। सो ईन्हंने सख्ता से आं क़र कर कदय़। सेठ जा ने बहुत समझ़य़ पर थ़नेद़र नहं म़ने। ऄब बड़े ऄिसरं को थ़नेद़र जा को मऩऩ पड़़। ईसा श़म सेठ जा क़ प्ऱथमऩ पि अ गय़ कक वह एिअइअर व़पस ले रहे हं। ईनके घर मं डकै ता हुइ हा नहं था, वो तो घर के लड़कं ने मज़़क ककय़ थ़। थ़नेद़र ने ईनके प्ऱथमऩ पि को शाशे मं फ्रेम कऱकर थ़ने के मिख्य दरव़जे पर लग़ कदय़। ऄब वो हर िरय़दा को ईसे कदख़ते । ह़ं ईसा कदन रऽजस्टर मं एक और ऄपऱध मिऽक्त की एन्िा बढ़ा। आस ब़र आसको थ़नेद़र जा ने सिल बऩय़ थ़। ऽसप़हा से दाव़न जा, दाव़न जा से दरोग़ और दरोग़ से थ़नेद़र तक श़म को जिड़ते हं।थ़नेद़र ऽहस़ब लग़त़ है कक ऄगर लीट, हत्य़ और अत्महत्य़ जैसा व़रद़तं रूक ज़यं तो एक कदन ईनक़ थ़ऩ व़स्तव मं ऄपऱध मिक्त थ़ऩ कहल़येग़। ऽजतने पिऽलस थ़ने हं, ईतने हा दुश्य हं। ऄपऱध मिऽक्त की रे ल, थ़नंचौककयं की पटररयं पर सरपट दौड़ रहा हं। प्रदेश को ऄपऱधमिक्त करने मं ऽसप़हा से एसएसपा, अइजा तक सब जिटे हं। सच! मिख्यमंिा सच कह रहे थे। प्रदेश से ऄपऱध सचमिच कम हो रह़ है। अप क्य़ कहते हं? ♦♦♦ जा-186-ए, एच.अइ.जा. फ्लैटुस, प्रत़प ऽवह़र, ग़ऽजय़ब़द (ई.प्र.) ऽपन201009मो. 09311660057

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स़क्ष़त्क़र ऽहन्दा किल्मं के प़श्वम ग़यक और गिजऱता ग़ज़ल ग़यकी के ऽशखर

मनहर ईध़स संव़द : डॉ. जगदाश ऽिवेदा

ऽहन्दा किल्मं के प़श्वमग़यक और गिजऱता ग़ज़ल ग़यकी मं ऽशखर पर ऽवऱजम़न श्रा मनहर ईध़स गिजऱत के सिरंरनगर शहर मं 25 कदसंबर 2015 को एक चैररटा क़यमक्रम के ऽलए अये थे । ऄपने मिल़यम स्वरं से ईन्हंने देर ऱत तक श्रोत़ओं को मिग्ध कर कदय़ थ़ । दीसरे कदन 26 कदसंबर को मनहर जा के स़थ ज़ने म़ने ह़स्य कल़क़र डॉ. जगदाश ऽिवेदा और ‘ऽवश्वग़थ़’ के संप़दक –पंकज ऽिवेदा को भा सिरेन्रनगर से ऄहमद़ब़द स़थ स़थ ज़ऩ थ़ मगर ऄऽनव़यम क़रणं से वह हम़रे स़थ जिड़ नहं प़ये । पंकज ऽिवेदा ने हा मिझे कह़ कक अप हा संव़द कर लाऽजये और मंने बाच ऱस्ते मं मनहर ईध़स के स़थ क़र मं जो संव़द ककय़ ईसा को ‘ऽवश्व ग़थ़’ के प़ठकं के ऽलए प्रस्तित कर रह़ हूँ । पंकज भ़इ ने सहषम स्वाक़र करते हुए मेऱ और श्रा मनहर ईध़स जा क़ तहे कदल से अभ़र व्यक्त ककय़ । - डॉ. जगदीश ऽिवेदा ♦♦♦ ज.ऽि. : मनहरभ़इ, अपक़ पैतुक ग़ँव कौन स़ है ? म.ई. : जगदाशभ़इ, लोग यह म़नते हं कक मेऱ पैतुकस्थ़न ऱजकोट है ऄथव़ कि छ भ़वनगर को म़नते हं । ईन दोनं शहरं के स़थ मेऱ कराबा ररश्त़ है । मगर हम़रे पिरखं क़ ग़ँव तो चरखड़ा है । ज.ऽि. : ऄरे व़ह ! मं भा भ़वनगर को हा अपक़ पैतुकस्थ़न समझत़ थ़ । तो किर चरखड़ा से भ़वनगर ज़ऩ कै से हुअ ? म.ई. : मेरे द़द़जा क़ ऩम थ़ डोस़भ़इ सिपगळशाभ़इ ईध़स । मेरे द़द़जा ने पीऩ की िग्यिमशन कॉलेज से बेचलर ऑफ़ एग्राकल्चर ककय़ थ़ । वो ऽशक्ष़ प्ऱऽप्त के ऽलए ऄऽत अग्रहा थे । ईस ज़म़ने मं वो कहते कक घर मं बेट़-बेरटयं को ऽशक्ष़ के ऽलए सम़न ऄवसर ऽमलऩ च़ऽहए । प्रत्येक व्यऽक्त कम से कम ग्रेज्यिएट तो होऩ हा च़ऽहए । ज.ऽि. : मनहरभ़इ, बेरटयं को भा ऽशक्ष़ कदलव़ने क़ ऽवच़र ISSN –2347-8764

अज से सौ स़ल पहले व्यक्त करऩ हा खिश होने जैसा घटऩ है। म.ई. : भ़वनगर मं प्रज़ वत्सल ऱजवा कु ष्पण कि म़र सिसह जा के ऽपत़ भ़वसिसह जा ने मेरे द़द़जा को भ़वनगर के बहावटद़र क़ पद कदय़ थ़ । ऄब अपके सव़ल क़ जव़ब दे रह़ हूँ । मेरे द़द़जा को भ़वनगर मं यह पद-प्रऽतष्ठ़ ऽमलने से हम ऄपऩ छोट़ स़ ग़ँव चरखड़ा छोड़कर भ़वनगर मं स्थ़या बस गये । ज.ऽि. : अपके द़द़जा रजव़ड़े के बहावटद़र होने के क़रण ईन्हं ऱज्य की ओर से सभा सिऽवध़एँ ऽमलता हंगा... म.ई. : भ़वनगर मं महल जैस़ घर ऽमल़ थ़ । द़द़जा एक ग़ँव से दीसरे ग़ँव ज़ने के ऽलए सागऱम रखते जो ईस ज़म़ने मं रॉयल व़हन म़ऩ ज़त़ थ़ । ऽजसमं ऱज़-मह़ऱज़ भा प्रव़स करते । मेरे द़द़जा जब ऽनवुत्त हुए तब भ़वनगर के मह़ऱज़ ने ईनक़ स़म़न ग़ँव तक पहुँच़ने के ऽलए ख़़स रे लवे िैन भेजा था। पीरा िैन भर ज़एँ ईतऩ स़म़न लेकर द़द़जा ऄपने ग़ँव लौटे थे । ईसके ब़द ईन्हंने पैतुक ग़ँव चरखड़ा मं ऄपऩ नय़ घर बऩय़ थ़ । ज.ऽि. : मनहरभ़इ, अजकल तो सरक़रा कममच़रा नौकरा करते-करते हा ऄपऩ घर बऩ लेत़ है । कि छे क कममच़रा तो तनख्व़ह के ईपऱंत भा प्रेऽक्टस कर लेते हं । नेत़ओं की तो ब़त हा क्य़ करं ? जब कक अपके द़द़जा ने भ़वनगर ऱज्य के बहावटद़र की नौकरा ककतना प्रम़ऽणकत़ से की होगा कक ऽनवुऽत्त के ब़द हा वो ऄपऩ घर बऩ सके । म.ई. : पिऱने ज़म़ने मं मक़न छोटे थे मगर ईसमं रहने व़ले बड़े कदल व़ले होते थे और अज के दौर मं मक़न बड़े होते है मगर ईसमं रहने व़लं के कदल बहुत छोटे हो गए हं । ज. ऽि. : ऽबलकि ल सच कह़ । द़द़जा को ककतना संत़नं थं ? म.ई.: मेरे द़द़जा को च़र बेटे थे, ईनमं के शिभ़इ मेरे ऽपत़जा

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हं । जो एक सरक़रा स्की ल मं नौकरा करते थे । ज.ऽि. : ...और अप ककतने भ़इ-बहन हं ? म.ई. : हम तान भ़इ हं । सबसे बड़़ मं और किर ऽनममलभ़इ और सबसे छोटे पंकजभ़इ (पंकज ईध़स) हं । ज.ऽि. : पंकजभ़इ भा कफ़ल्मा गातं और ऽहन्दा-ईदीम ग़ज़लं के ग़यक के रूप मं बहुत बड़े िलक पर ऄपने च़हनेव़लं क़ प्य़र प़ सके हं । म.ई. : ऽनममलभ़इ, भा बहुत हा ऄच्छे ग़यक हं । दिभ़मग्य से हमदोनं भ़इओं को लोगं क़ ऽजतऩ प्य़र और सम्म़न ऽमल़ ईतऩ ईन्हं नहं ऽमल प़य़ मगर ग़यकी मं तो वो भा ऄव्वल हा हं । ज.ऽि. : मनहरभ़इ, अपने कह़ँ तक ऽशक्ष़ प़या है ? म.ई. : जगदाशभ़इ, अपके बेटे मौऽलक की तरह मंने भा ऽमके ऽनकल आं जाऽनयर की पढ़इ की है । ज.ऽि. : अपकी और मौऽलक की ऱऽश भा एक हा है तो इि देवाजा को प्ऱथमऩ कीऽजये और अशाव़मद दाऽजये कक वह भा ऄपने ऽपत़ क़ ऩम रौशन करे । म.ई. : जगदाशभ़इ, मोर ऩ ईंड़ ने ऽचतरव़ न पड़े (मोर के ऄंडे को रं ग करने की जरुरत नहं !) वो भा बड़़ होकर ऄच्छ़ हा करे ग़ यहा प्ऱथमऩ करत़ हूँ । ज.ऽि. : इश्वर की ब़त ऽनकला तो बाच मं पीछ लीँ कक अपको इश्वर मं श्रि़ है य़ नहं ? म.ई. : जा । सम्पीणम श्रि़ है । मं प्रऽतकदन पीज़-प़ठ भा करत़ हूँ और ऽशरडा के स़ईं ब़ब़ मं मिझे ऄत्यऽधक श्रि़ है । ज.ऽि. : अपने भ़वनगर मं हा पढ़़इ की होगा... म.ई. : ह़ँ, भ़वनगर की भ़वसिसहजा पोऽलटेकऽनक आं स्टाट्डीट से आं जाऽनयर हुअ हूँ । ज.ऽि. : मनहरभ़इ, अपने आं जाऽनयटिरग क़ ऄ्‍य़स ककय़ और प़श्वमग़यक बन गए, यह सब कै से संभव हुअ ? म.ई. : मेरे द़दाजा प्रऽतकदन सिबह मं प्रभ़ऽतय़ (ध़र्षमक पदभजन) ग़ते थे । ईन्हं सिनने मं बड़़ अनंद अत़ थ़ । ईपऱंत द़द़जा ऄब्दिल कराम ख़न को सिनते और मेरे ऽपत़जा शौक से कदलरुब़ बज़ते थे । ज.ऽि. : गढ़वा य़ने कक च़रणं के खीन मं हा स़ऽहत्य, संगात और कल़ की ऽवऱसत होता है । च़रणं के बेटे के ऽलए कह़ ज़त़ है कक वो ऄगर रो भा दं तो सीर मं रोते है, संगात ईनके ऽजन्स मं होत़ है । अपके द़द़जा को संगात के प्रऽत लग़व, अपके द़दाजा भा बहुत ऄच्छ़ ग़ लेता थं और अपके ऽपत़जा कदलरुब़ बज़ते थे, य़ऽन घर मं हा संगात क़ म़हौल बचपन से ऽमल़ थ़, यहा सच है । म.ई. : ह़ँ, मेरे ऽपत़जा ने ऄपने शौक के ऽलए कदलरुब़ व़द्य खराद ऽलय़ थ़ । वो जब नौकरा से घर लौटते तब ऄपने अप को खिशा देने के ऽलए और थक़न ऽमट़ने के ऽलए कदलरुब़ बज़ते थे । ज.ऽि. : अप ऄपना म़त़जा के ब़रे मं कि छ कहंगे ? म.ई. : मेरा म़ँ सौऱष्ट्र मं ज़नब़इ की देरडा ऩम के छोटे से ग़ँव की बेटा थं । स़ळंगपिर के प़स गोध़वट़ ग़ँव ईनक़ नऽनह़ल थ़ ISSN –2347-8764

और वहं पर ईनकी परवररश हुइ था । ईनक़ ऩम जातीबहन थ़ । ज.ऽि. : अपक़ जन्म कह़ँ हुअ थ़ ? म.ई. : मेऱ जन्म स़वरकि ण्डल़ मं हुअ थ़ । ईस वक्त मेरे ऽपत़जा की नौकरा वहं पर था । अजकल तो स़वरकि ण्डल़ मं ‘मनहर ईध़स म़गम’ भा है । जो हम़रे पररव़र के ऽलए गवम की ब़त है । ज.ऽि. : अपके जावन मं सबसे पहले कौन से ग़यक ने प्रवेश ककय़ और कै से ? म.ई. : मं जब प़ँच स़ल क़ थ़ तब हम कि ण्डल़ (स़वर और कि ण्डल़ जिड़वे ग़ँव और बाच मं नदा) मं रहते थे । जो ऩवला नदा के ककऩरे बस़ थ़ । मं ऄपने चचेरे भ़इ के स़थ कि ण्डल़ से स़वर पढ़इ के ऽलए ज़त़ थ़ । वह़ँ पर वजन तोलने के तोलक़ंटे क़ बड़़ व्यवस़य थ़, वो अप ज़नते हं । तोलक़ंटे की हा दिक़नं हा पीरे ब़ज़़र मं देखने को ऽमलता थं । मं ऽजस प्ऱथऽमक ऽवद्य़लय मं पढ़त़ थ़ ईसके प़स हा तोलक़ंटे की दिक़न था । ईस दिक़न मं मरफ़ी कं पना क़ रे ऽडयो थ़ । मं दोपहर के ऄवक़श मं वहं ज़कर ऽनयऽमत रे ऽडयो सिनत़ थ़ । दीसरे बच्चे ख़ने-पाने और मस्ता करने मं समय व्यतात करते थे और मं स्की ल के प़स ईस दिक़न मं रे ऽडयो पर प्रस़ररत होते गात सिनत़ रहत़ । ज.ऽि. : ऐस़ कोइ गात य़द है जो अपको बचपन मं बहुत ऽप्रय हुअ करत़ हो । म.ई. : ईस वक्त के ०एल० सहगल के गात बहुत सिनने को ऽमलते थे । सहगल जा की अव़ज़ मं मिकेश जा ने जो गात ग़य़ थ़ – “जब कदल हा टी ट गय़, तो हम जा के क्य़ करं ग.े ..” वो मिझे बहुत पसंद थ़ । जगदाशभ़इ, अपके ह़स्य क़यमक्रमं मं कहने जैसा एक ब़त है, लगभग प़ँच वषम की ईम्र मं जब मं गात सिनत़ थ़ तब कदल टी टने की कल्पऩ भा कै से कर सकत़ थ़ ? मगर मं ऐसे समझत़ थ़ कक ‘कदल्हा’ टी ट गय़ होग़ और ईसकी ब़त आस गात मं है ... ह़ह़ह़ ... ! (ठह़क़ लगते हुए) जब कदलहा टी ट गय़... ज.ऽि. : (ठह़के से) ऄरे व़ह ! ये तो सच मं हँसने-हँस़ने जैसा हा ब़त है । मगर कदल्हा क़ कदल कब हुअ ? म.ई. : मंने ऄपने ऽपत़ से ऽजद्द की कक मिझे यह गात बहुत हा पसंद है तो मिझे ग्ऱमोिोन की रे कॉडम कदल़इये । ज.ऽि. : किर ? म.ई. : मेरे ऽपत़जा ने सव़ल ककय़ कक हम़रे प़स रे कॉडम प्लेयर तो नहं है, तिम कै से सिन प़ओगे ? मंने कह़ कक मं ऄपने मक़नम़ऽलक के घर ज़कर सिनीँग़ । हम ऽजस मक़न मं ईपरा मंऽज़ल पर रहते थे ईसा के तलघर मं मक़न म़ऽलक रहते थे और ईनके प़स प्लेयर थ़ । मं वह़ँ ज़कर ब़रब़र ‘जब कदल हा टी ट गय़...’ गात सिनत़ रहत़ । ज.ऽि.: अपने गात सिनने की शिरुअत तो बचपन से कर दा था मगर ग़ने की शिरुअत कै से हुइ ? म.ई. : मं भ़वनगर मं पढ़त़ थ़ तब कॉलेज मं यीथ िे ऽस्टवल मं ऽहस्स़ लेत़ थ़ । आसा तरह मं भ़वनगर, ऱजकोट और जेतपिर की प्रऽतस्पध़मओ मं पिरस्क़र प्ऱप्त ककए थे । ज.ऽि. : अप मिम्बइ तक कै से पहुँचे? म.ई. : अपके हा सिरेन्रनगर ऽजले के ऱजसात़पिर ग़ँव के श्रा

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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मनिभ़इ गढ़वा मेरे बहनोइ है... ज.ऽि. : ऄरे व़ह ! आस ररश्ते के ब़रे मं तो अज हा ज़ऩ । मनिभ़इ गढ़वा मेरे ऩऩ ईपन्य़सक़र स्व० देवशंकर मेहत़ जा के गहरे ऽमि थे । ईनक़ ग़ँव ऱजसात़पिर और ऩऩजा क़ ग़ँव गिजरवदा, पैदल ज़ने क़ हा ऄंतर है ! मं भा मनिभ़इ को ऽमल़ थ़ और मिम्बइ के क़यमक्रम मं मिझे भा ईनके स़थ ऄपना ह़स्य कल़ परोसने क़ ऄवसर प्ऱप्त हुअ है । म.ई. : मनिभ़इ गढ़वा की पत्ना लाल़बहन, जो किल्म ऽनम़मत़ संजय गढ़वा की म़त़जा है वो मेरा कऽज़न हं । 1963-64 मं मनिभ़इ कसिंबा नो रं ग गिजऱता किल्म बऩ रहे थे और सौऱष्ट्र मं ईसकी शीटिटग था । तब मिझे ऄपने स़थ रखते थे । ईन्हं मनिभ़इ गढ़वा ने मेरा ग़यकी सिनकर मिम्बइ बिल़य़ थ़ । ज.ऽि. : अप गिजऱत से मिम्बइ गए तो मनिभ़इ क़ हा बड़़ योगद़न म़ऩ ज़एग़ न ? म.ई. : ह़ँ, ईन्हं ने मिझे ऽमके ऽनकल आं जाऽनयर की ऽडग्रा पर नौकरा कदलव़इ और ईन्हं ने हा कल्य़णजा-अणंदजा के स़थ मेरा पहच़न करव़इ था । मनिभ़इ ने कल्य़णजा-अणंदजा के स़थ कं कि पगल़ं किल्म बऩइ था आसऽलए ईन्हंने कह़ थ़ कक यह मेऱ स़ल़ है और बहुत ऄच्छ़ ग़त़ है । ज.ऽि. : अप ऽहन्दा किल्मो मं प्लेबैक सिसगर कै से बन प़एं ? म.ई. : मनिभ़इ ने कल्य़णजा-अणंदजा के स़थ संपकम तो करव़ कदय़ थ़ और मं ऽनयऽमत ईनके घर ज़ने लग़ । एक कदन कल्य़णजा भ़इ क़ िोन अय़ कक कल सिबह मं एक गात क़ ररकोर्डिडग करऩ है और अपको वोइस टेस्ट देऩ होग़ । मं बहुत खिश हो गय़ । सिबह स्टी ऽडयो मं गय़ तो जातेन्र और ऄपण़म सेन की किल्म ऽवश्व़स क़ गात थ़ । शब्द थे – अपसे हमको ऽबछड़े हुए एक ज़म़ऩ बात गय़... । पहला ब़र मंने आस गात को सिमन कल्य़णपिर के स़थ ग़य़ और ररकोर्डिडग हुअ । कल्य़णजा भ़इ ने तान महाने के ब़द मेरे ईस गात की रे कॉडम मेरे ह़थ मं थम़ते हुए कह़ कक मंने अपक़ गात ऽवश्व़स किल्म के ऽलए कदय़ और ईसे पसंद ककय़ गय़ है । ज.ऽि. : ऽवश्व़स किल्म के सभा गात मिकेशजा ने ग़ये थे न ? म.ई. : ह़ँ, ईसमं भा ऽनयऽत क़म कर गइ था । आस गात क़ ररकोर्डिडग ऄजमन्ट करऩ थ़ और मिकेशजा ब़हर थे । कल्य़णजा भ़इ को लग़ कक ऄभा मनहर ईध़स के प़स ये गात ररकॉडम करव़ लं और किर जब मिकेशजा अयंगे तो ईनसे गव़ लंगे । जब मिकेशजा लौटे तो ईन्हं पत़ चल़ कक ईनकी जगह ककसा नये लड़के ने ग़य़ है तो ईन्हं ने ईस गात को सिऩ और कल्य़णजा भ़इ से कह़ कक, ईसने ऽबलकि ल सहा ग़य़ है और ऄब बदलने की जरुरत नहं हं । ज.ऽि. : व़ह मिकेशजा व़..ह ! जो मह़न कल़क़र होते हं ईनमं ऐसा दररय़कदला ऄवश्य देखने को ऽमलता है । और आस तरह प्लेबैक सिसगर के रूप मं अपकी एंिा हुइ और किर तो कईं किल्मं मं अपने ऄपना अव़ज़ दा । म.ई. : मंने लगभग 350 से ऄऽधक किल्मं मं ग़य़ है । ऽजसमं ऄऽभम़न, कि रब़ना, ज़ँब़ज़, हारो, कम़म, सौद़गर, खलऩयक, ISSN –2347-8764

क़गज़ की ऩव, अप तो ऐसे न थे – अकद हं । ज.ऽि. : मं ऄपने कल़गिरु श़हबिद्दान ऱठोड़ के स़थ 1997 मं ऄमेररक़ ज़ रह़ थ़ । ऄमराक़ हा नहं मेरा कोइ पहला ऽवदेश य़ि़ था । तब लंदन एरपोटम पर हमलोग ऽमल गए थे । म.ई. : मिझे बऱबर य़द है... और हमने स़थ मं कॉफ़ी पा था । ज.ऽि. : अप ईस वक्त परदेस मं ककसा क़यमक्रम से हा ज़ रहे थे । म.ई. : मं कल्य़णजा-अणंदजा ऩइट क़यमक्रम के तहत ऄमेररक़, कऩड़ और वेस्ट आं डाज़ ज़ रह़ थ़ । 1981 मं हमने बहुत-से शो ककये थे । ईस य़ि़ मं ऄऽमत़भ बच्चन भा हम़रे स़थ थे । आसके ईपऱंत लक्ष्माक़ंत-प्य़रे ल़ल, बप्पा ल़ऽहरा और ऽजतेन्र-श्रादेवा के क़यमक्रमं मं भा मं कइब़र परदेश ज़त़ रह़ थ़ । ईस समय मं मिझे स़ल मं दो-तान ब़र ऐसे टी र पे परदेस ज़ने क़ ऄवसर ऽमलत़ रहत़ थ़ । ज.ऽि. : अपक़ सबसे बड़़ और य़दग़र क़यमक्रम कौन स़ है ? म.ई. : कल्य़णजा-अणंदजा ऩइट मं ऄऽमत़भ बच्चन के स़थ न्यीयॉकम के मेऽडसन स्वे यर एराऩ मं 22,000 सार्टस की कै पेऽसटा था और वो शो ह़ईसि​ि ल रह़ थ़ । वो मेरे जावन क़ य़दग़र क़यमक्रम रह़ थ़ । अपको यह भा य़द होग़ की हम़रे प्रध़नमंिा मोदाजा भा वह़ँ गए थे । ईस ज़म़ने मं वेन्यि मं प्रथम आऽन्डयन ग्रिप ने परिोमम ककय़ थ़ वो हम़ऱ ग्रिप थ़ । ज.ऽि. : अप गिजऱता ग़ज़ल ग़यन के क्षेि मं कै से अये ? म.ई. :1970 मं मं ऽजस कं पना मं नौकरा करत़ थ़ ईस कं पना मं गिजऱता भ़ष़ के ऄग्रणा कऽव कै ल़श पऽण्डत भा नौकरा करते थे। दोपहर की छी ट्टा मं वो ऄपना गज़लं सिनव़ते । कै ल़श पऽण्डत के क़रण मं गिजऱता ग़ज़लं की ओर अकर्षषत हुअ थ़ । ईसके ब़द भवन्स, मिम्बइ मं आस म़ह के गात शाषमक से क़यमक्रम होत़ थ़। ऽजसमं ऽबलकि ल नए ग़यकं को प्रोत्स़हन ऽमलत़ थ़ । ईसमं ऽनयम यहा थ़ कक ऽबलकि ल नय़ गिजऱता गात खिद हा कम्पोज़ करके ग़ऩ होत़ थ़ । ईसमं मिझे मौक़ ऽमल़ और मंने 1970 मं कै ल़श पऽण्डत की गज़लं खिद कम्पोज़ करके पेश की था, जो गिजऱता ग़ज़ल ग़यन क्षेि मं मेरा शिरुअत था । ज.ऽि. : अपके ऄबतक के गिजऱता ग़ज़लं के 32 व़ल्यीम अ चिके हं । ग़ज़ल की साडा और कै सेर्टस कै से म़के ट मं अइ? म.ई. :1970 मं HMV एक हा ररक़डम कं पना था । ईसके स़मने जममना की पोलाडॉर कं पना अया । जो ऄब यिऽनवसमल के ऩम से चल रहा है । पोलाडॉर कं पना ने ऐसे कल़क़रं के स़थ क़ंिेक्ट करने थे जो HMVके स़थ ऄग्रामंट से जिड़ं न हं । ईनकी नज़र मिझ पर पडा और मंने 1970 मं ऄपऩ क़ंिेक्ट स़आन ककय़ । ज.ऽि. : अपक़ प्रथम वोल्यीम पोलाडॉर कं पना से हुअ ? म.ई. : ह़ँ, ईन्हं ऽहन्दा गात क़ अल्बम च़ऽहए थ़ मगर मंने कै ल़श पऽण्डत की गिजऱता ग़ज़लं क़ ऑिर ककय़ और ईन्हं ऽवच़र पसंद अय़ । 1970 मं ऽसिम च़र ग़ज़लं क़ अल्बम प्रात ऩ शमण़ं ऩम से म़के ट मं अय़ । ईसके ब़द तो प्रऽत वषम गिजऱता ग़ज़ल क़ एक अल्बम तैय़र करते गये । अज बत्तासवं अल्बम ऄमर तक क़ सफ़र हुअ है । ज.ऽि. : मनहरभ़इ, अपके पररव़र मं कौन-कौन हं ?

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दोहे ड़. ऄशोक मैिय े मौन पड़ा था ब़ंसिरा, मौन शब्द के शंख । कऽवत़ जब मिझको ऽमला, लगे सिरं को पंख ।। तोप नहं गोल़ नहं, है प़ना की ध़र । पत्थर को ब़ली करे , कऽवत़ वह हऽथय़र ।। कलमक़र की ऽजन्दगा, बसा कलम मं य़र । कलम ऽबकी तो मौत है, कलम थकी तो ह़र ।। लिप्त हुइ संवेदऩ, टी टे मन के त़र । म.ई. : मेरा पत्ना माऩक्षा । हम़रा दो बेरटय़ँ हं । एक म़नसा और दीसरा तनिश्रा । दोनं ऄपने-ऄपने बच्चं के स़थ ऄमेररक़ ऄपना ससिऱल मं हं । ज.ऽि. : मनहरभ़इ, ब़तं-ब़तं मं हम सिरेन्रनगर से ऄहमद़ब़द पहुँच गए । अऽख़र मं नइ पाढ़ा के ग़यकं के ऽलए कोइ ऽवच़र दाऽजए । म.ई. : व्यसन रऽहत स़द़ जावन, च़ररत्र्य शिऽि, इश्वर मं श्रि़ और ऽनयऽमत कसरत करना च़ऽहए । ररय़ज़ करने मं कभा अलस नहं करऩ च़ऽहए । ऄगर आतऩ य़द रखं तो प्रऽसऽि और धन दोनं ऽमलंगे, यह मेरा श्रि़ है । ज.ऽि. : अपकी यह ब़त ऄऽत महत्वपीणम है और ककसा भा क्षेि के कल़क़रं के ऽलए ऄमील्य हं । अपसे सिरेन्रनगर-ऄहमद़ब़द क़ यह सफ़र और यह संव़द हमेश़ य़द रहंगे । और हम़रा यह मिल़क़़त ऄ-ऽहन्दा क्षेि गिजऱत से एक गिजऱता-ऽहन्दा स़ऽहत्यक़र पंकज ऽिवेदा के द्व़ऱ प्रक़ऽशत होता पऽिक़ – ऽवश्व ग़थ़ के प़ठकं के ऽलए भा अनंद और ईपयोगा स़ऽबत होगा ।

धन्यव़द ।

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सिन्न पड़ा हं ईँ गऽलय़ँ, औंध़ पड़़ ऽसत़र ।। धारे धारे ऽमट रहा, धरता की पहच़न । पत्थर के जंगल ईगे, कह़ँ ईगेग़ ध़न ।। नकदय़ चला पह़ड़ से, पहुंच सकी ऩ ग़ँव । ईतना ईसने ब़ँट ला ऽजतऩ ऽजसक़ द़ँव ।। प़पा लाल़ रच रहे, मंच बऩ है देश । ऱवण घीमं ठ़ठ से, धरे ऱम क़ वेश ।। मीखम ऽशष्पय- ढंगा गिरु, सत्य ज्ञ़न की च़ह ? ऄंधे को ऄँध़ ऽमल़ कौन कदख़ए ऱह ? ऽचऽड़यं तिम एक़ करो, थ़मो चंच मश़ल । ब़ज ऽतऽमर घबऱ ईठं ,ऐस़ करो धम़ल ।।

डॉ. जगदाश ऽिवेदा श़रद़ सोस़यटा, ऽजऩतन रोड, सिरंरनगर - 363002 गिजऱत

अँख खोल चौकस रहो, प़खा रखऩ य़द । ज़ल ऽबछ़ए कब कह़ँ, बैठे हं सैय्य़द ।। ♦♦♦

ISSN –2347-8764

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कह़ना

ज़ंजारं देवा ऩगऱना

जावन मुत्यि के दो प़टं के बाच, पाड़़ को ऄपने भातर ज़ब्त करते हुए एक ऐसा ख़ुशा को जन्म देने की कग़र पर खड़ा सकीऩ ईस ईज़ले क़ आन्तज़़र कर रहा था, जो ईसके जावन की ऄँधेरा पगडंऽडयं को रौशन करने के ऽलये अम़द़ थ़ । डॉक्टर और नसम भा नया सिबह की एक नया मधिर ककलक़रा सिनने की ईम्माद मं ऄपना तरफ़ से ईसकी ऽगरता ह़लत से जीझ रहे थे । पर क़ि दरत के ककये पर ककसा क़ बस कह़ँ ? ऽनयऽत के हर मिक़म्मल फ़ै सले के स़मने सभा बेबस रहते हं ! ऩरा क़ ममत्व ईसकी ऽववशत़ नहं ईसकी कफ़तरत है । ऄपना कोख से जन्मे बच्चे क़ ल़लन प़लन करऩ, ऄपने अँचल की छ़ंव मं ऄपऩ स़ऱ व़त्सल्य ईसपर न्यौछ़वर करऩ ऩरा क़ सौभ़ग्य है, क़ि दरत की ओर से ऽमल़ वरद़न ! प्रसव पाड़़ के ईपऱंत जो ममत़ क़ स़गर ऩरा की छ़ता मं छोऽलय़ँ म़रत़ है, ईस ख़ुशा क़ ऄनिम़न फ़क़त वह म़ँ हा लग़ सकता है जो पाड़़ के दौर से गिज़रकर ईस ख़ुशा को ह़ऽसल करता है । यह एक अस्थ़ है जो हौसलं के परं मं संच़र के समस्त स़धन भरकर, बेपरव़ज़ पंछा को तव्वजी से ऄपऩ लक्ष्य प़ने के ऽलए मददग़र स़ऽबत होता है । ईसा ख़ुम़र भरे दौर से गिज़रता सकीऩ को कशमकश के दौर से झकझोर कर होश मं ल़ने क़ प्रय़स करते हुए डॉक्टर रम़क़न्त ने ईसकी ओर मिख़़ऽतब होते हुए कह़ - ‘तिम्हं बेट़ हुअ है ।’ सकीऩ ने अँखे खोलकर डॉक्टर के चेहरे पर ढलता मिस्क़न देखा और ईस सखेद स्वर की तहं मं एक ऄनच़ह़ ऄथम पढ़ने की कोऽशश की । किर ऄपने बगल मं नज़र किऱइ तो ईसके शरार मं जैसे ज़न लौट अइ ।

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‘मिझे ऄपऩ बेट़ दे दो, मं ईसे ऄपना छ़ता से लग़ लीँ ।’ ममत़ ने सब्र के स़रे ब़ंध तोड़ते हुए कह़ । डॉक्टर रम़क़न्त के आश़रे पर नसम ने रे शमा कपड़े मं ऽलपट़ ऽशशि ईठ़कर सकीऩ की गोद मं रखते हुए धामे से कह़- ‘यह ऽजसकी ऄम़नत था, ईसे ज़कर ऽमल गया ।’ सकीऩ ने जैसे कि छ सिऩ हा नहं । बस रे शम से नमम, मख़मला ऽशशि को ऄपना छ़ता से लग़कर अँखं मंचे लेटे रहा। ईसके चेहरे पर ऄनोखा स़ंत्वऩ क़ अलम रह़ । ऄपना ब़ँहे बेटे के ऩज़ुक शरार के इदम-ऽगदम लपेट लं, कि छ आस तरह जैसे वह ऄपने वजीद से एक़क़र हुइ हो । ‘सकीऩ यह बच्च़ मर चिक़ है’ ि​ि सि​ि स़हट करता अव़ज़ं ऄपने अस-प़स सिनकर ख़्य़लं के घोर ऄँधेरे मं डी बता रहं । ईसे लग़ जैसे सीरज की पहला ककरण के स़थ ईसक़ बच्च़ आस जह़न मं अय़ तो सहा पर रोशना मं अँख खोलने के पहले ऄंधरे े मं ऽवलान हो गय़ । पाछे छोड़ गय़ एक धिँधल़-स़ कोहऱ जो सोचं पर बेरहम कचोटते व़र करत़ रह़ । यह कै सा घोषण़ है ? सिनकर ईसे लग़ जैसे कोइ ख़य़ल पनप़, स़ँस लेकर परछ़इ की तरह लिप्त हो गय़ । ऄपना म़ँ के ममत्व क़ मममभेदा न बन सक़ । सकीऩ की अँखं से ऄश्कं की लऽड़य़ँ ग़लं से लिढ़कता, छ़ता से ऽलपटे नवऽशशि को नहल़ता रहा । पाऽड़त ममत़ जावन और मुत्यि के बाच की ख़आय़ँ ल़ँघते हुए ऄपने जावन क़ म़तम मऩता रहा । मीर्षछत दश़ मं भा सकीऩ की स्पंकदत अव़ज़ कि छ ऄस्पि शब्दं की हुँक़र मं जैसे अप बाता सिऩ रहा थं - ‘मं ज़नता हूँ मेरे बच्चे, ती मिझे लेने अय़ है, मौत की ऄंधरे ा गिफ़़ से ऽनक़लकर ऽज़न्दगा की रोशना मं ल़य़ है त़कक मं तिझे प़ सकीँ । चलो ककसा ऐसा जगह जह़ँ कोइ म़ँ ऄपने बच्चे से जिद़

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होने क़ ग़म न झेले, दिख की ऽससककयं की बज़य सिकीन की शहऩइ सिन सके ।’ और आसा ख़ुम़रा के अलम मं एक ऽहचकी की सरसऱहट हव़ओं मं िै ला और स़ंस की कड़ा जैसे टी ट गइ । व़त़वरण की ख़़मोऽशयं को तोड़ता हुइ दो अत्म़एँ एक दीजे के असिलगन मं बस गया । बस सिपजरे ख़ला हो गये । पंछा परव़ज़ कर गए । सिबह की पहला ककरण कमरे के दर-दराचं से झ़ंक कर ऄन्दर अया । ममत़मया म़ँ क़ श़न्त चेहऱ चीमकर चला गया । क्यंकक जावन पर ऄब श़म ह़वा था । दो तन एक दीसरे के अगोश मं ऐसे सम़ए जैसे कभा वो परस्पर जिद़ हा न हुए थे। आस ऄमर ऽमलन के मंज़र ने हर चश्म को तर कर कदय़ थ़ । ऽशशि म़ँ की छ़ता से ऽलपट़ हुअ ऄपना प्य़स बिझ़ रह़ है और सकीऩ एक क़ै दा म़ँ, ऽजसे वह बच्च़ ऄपने ऽपत़ ‘अलम’ के ज़ुल्मं की शहनश़हा ज़ंजारं की पऩह से मिक्त कऱने के ऽलए मसाह़ बनकर अय़ । ♦ यहा सकीऩ जब स़त स़ल की था, ईसकी म़ँ गिज़र गइ, ब़प म़ँ बन गय़ । यह सोये तो वह सोये, यह ज़गे तो वह भा ज़गे । ऽपत़ ने प्य़र व तव्वजो से संच़, किर भा सकीऩ के मिरझ़ए मन की कला िी ल न बन प़इ । गि्-े गिऽड़यं क़ खेल ब़ल मन को बहल़ न सक़ । स़रा क़यऩत म़ँ ऽबऩ सीना-सीना-सा लगता था । ऄपने ऄश्क छि प़ने की कोऽशश मं ईसकी ज़ब़न पर त़ले लगते गये । ईसकी सोचं पर पहरे लगे रहे । ईलझे ऽवच़रं की ज़ंजारं मं वह जकड़ा रहता । सब कि छ होते हुए भा ज़ने क्यं वह ख़ुद को दरररत़ की हान भ़वऩ की दलदल मं धँसत़ हुअ प़ता । ऽजन्दगा की स़थमकत़ के संदभम मं एक स़धक क़ कथन है - ‘हम़रे ऄसंख्य सिख हमं च़हे मनिष्पयत़ की पहला साढ़ा तक भा न पहुँच़ सकं ककन्ति हम़ऱ एक बीँद अँसी भा जावन को ऄऽधक मधिर, ऄऽधक ईवमर बऩए ऽबऩ नहं ऽगर सकत़ ।’ यहा सत्य ऽज़न्दगा के तवाल सफ़र मं संघषममय ऱस्तं पर चलने क़ हौसल़ प्रद़न करत़ है । अदमा की संघषमक्षमत़ और उज़म मं हा ईसकी ऄसला पहच़न और त़क़त छि पा ISSN –2347-8764

हुइ होता है । जब ईस पर बन अता है तो वह ऄपने बच्चं की ख़़ऽतर अँऽधयं मं एक रटमरटम़ते दाये के सम़न ईम्मादो के ऩम पर ऩईम्मादं से जीझते हुए ऽज़न्दगा की स़रा चिनौऽतय़ँ स्वाक़रत़ है । ऽपत़ ने म़ँ के नेह की पीर्षत करने की भरपीर कोऽशश की, पर म़ँ न बन प़य़। प्य़र मं कोइ बँटव़ऱ न हो आसऽलए दीसरा श़दा तक नहं की । ब़वजीद आसके जो ऄभ़व की दऱरं सकीऩ के कदल पर ईकरं, ईन्हं वक़्त भा न भर प़य़ । जैसेजैसे वह बड़ा होता रहा वैस-े वैसे ईसे यह अभ़स होने लग़ कक ऽबछड़ने की पाड़़ और ऽमलन की ऽमठ़स क्य़ होता है ? और आन ऄहस़सं को ऩरा मन ब़ँटऩ च़हत़ है, पर ककससे ? कौन थ़ जो ईसकी सिनत़, ईसकी अँखं मं बसे ददम को टटोलत़, ऄपने अँचल से ईसकी नम अँखं को सोखत़? वह ऽनऽंत रूप से यह ज़नता था कक ऽपत़ के ऽसव़ ईसकी भल़इ च़हने व़ल़ कोइ और नहं । स़रा ज़यद़द, ज़मान, मक़न तक ऽगरवा रखे हुए थे। श़यद म़ँ की बाम़रा ने ऽपत़ को कज़म की तहं मं दफ़्न कर कदय़ थ़ । पर वह बेटा पर ऄपऩ प्य़र ऽनछ़वर करत़ रह़ । ककतना ऱतं ज़गकर, ककतने कदन किं मं गिज़़रकर ईसने सकीऩ को बड़़ ककय़। ऽजतऩ हो सक़ ईसे पढ़़य़, ऽलख़य़, पर ऄपना टी टता हुइ कश्ता को प़र पहुँच़ने मं ऄसमथम रह़। सकीऩ को ऽपत़ क़ प्य़र ऽमल़, आससे आनक़र नहं। शबनमा सिदयम ईसके चेहरे पर जगमग़ रह़ थ़, पर वह कला कै सा, ऽजसकी मिस्क़न मं महक न हो, ऽजसके अगे पाछे कोइ भंवऱ न मंडऱए ? ऽजसे ऄपने होने क़ ऄहस़स हा न हो, ऄपना कक़स्मत पर भा भरोस़ न हो ? बच्च़ हो और म़ँ न हो, आस ख़़लापन ने ईसके हृदय के ख़़लापन को कभा भरने हा नहं कदय़ । ऄठ़रह स़ल की दहलाज़ प़र करते हा, सकीऩ के कदल क़ सिकिम़र कमल दिऽनय़ की िज़़ओं की चहल-पहल, ऄपने असप़स की रौनकं की गमी प़कर कि छ ऄंकिररत होने लग़ । ईस पर रं गत अना ऄभा ब़क़ी था । ऄपने हा ख़य़लं मं डी बा वह रोज़ जह़ँ समिर के ककऩरे सैर करने ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

ज़ता, वहं दीर खड़़ ‘अदम’ ऩम क़ एक नौजव़न हर रोज़ ईसकी सिन्दरत़ को ऽनह़रत़, रसप़न करत़, सऱहत़, और ऽनह़ल होत़। एक कदन सकीऩ की नज़र ‘अदम’ की नज़र से टकऱइ । क़ि दरत क़ ऽनयम ऄटी ट है - समय़निस़र धरता मं बोये बाज भा प़ना प़कर ऄंकिररत होते हं, ऐस़ हा एक ऩज़ुक ऽवस्िोट सकीऩ के कदल मं भा हुअ । ईसके कदल की धड़कन बढ़ा जब एक कदन ईसके बहुत क़राब अकर अदम ने कह़ - ‘मिझसे श़दा करोगा ?’ ‘............’ ‘मिझे तिम्ह़रा ह़मा क़ आन्तज़़र रहेग़, ख़ुद़ ह़ऺकिज़...।’ दो ककऩरं के बाच क़ फ़़सल़ बऩ रह़ । सकीऩ ने मन हा मन अदम के प्रस्त़व के द़मन को ऄपना चिनरा बऩ ला, ऽजसे ओढ़कर वह मन से जावन की प्य़र भरा ि​ि लव़रा मं ऄपऩ पहल़ क़दम रख चिकी था । ♦ जावन एक संघषममय चिनौता है ऽजसे स्वाक़रऩ आन्स़न की ऽनयऽत बन ज़ता है। क़ि दरत को भा जैसे कि छ और हा मंजीर थ़ । ‘मन्सीर’ ईसा शहर की दरग़ह क़ मिज़वर थ़, ऽजसक़ भताज़ ‘अलम’ शौक़ीन ऽमज़ज़ और रं गान तबायत व़ल़ थ़ । मन्सीर के कज़ं तले दब़ सकीऩ क़ ऽपत़ ऄब कज़म चिक़ने मं ऄसमथम-स़ हो गय़ थ़ । दब़व के क़रण तम़म ज़गार, मक़न नाल़म करने पर भा कज़म क़ भिगत़न ऩमिमककन स़ऽबत हुअ । बचने की एक हा ऱह स़मने खिला था - वह था सकीऩ ! एक कदन मौक़़ प़ते हा मन्सीर ने ऄपऩ पहल़ तार िं क़ - ‘क्य़ सोच रहे हो ऽमय़ँ, आस बढ़ता ईम्र मं क्य़ ऄके ले हा कज़म क़... बेटा क़... आतऩ स़ऱ बोझ ढो प़ओगे ?’ ‘नाल़मा से ऄगर ककसा तरह भरप़इ होता है तो मं ईसके ऽलये तैय़र हूँ ।’ सकीऩ के ऽपत़ ने जैसे ररह़इ की दरख़्व़स्त की ! ‘सकीऩ की श़दा ऄगर अलम से हो ज़ता है तो सब कि छ नाल़म होने से बच सकत़ है, दीसरा सीरत मं नाल़मा के पं़त तिम दोनं ब़प-बेटा को दर-दर की ठोकरं नसाब हंगा ।’

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ब़प बेच़ऱ ज़हर के प्य़ले पात़ तो ककतने ? सिज़दगा की ब़ज़ा वह ह़र चिक़ थ़। द़ँव पर रौपदा की तरह ईसके ऽजगर क़ टि कड़़ बेटा सकीऩ था, ऽजसकी ख़ुशा के ऽलये ईसने ऄपऩ घर नहं बस़य़ । वह ककस तरह ईसे बेघर होते हुए देख सकत़ थ़ ? ऽपत़ ने म़ँ बनकर जव़बद़रा ऽनभ़ने क़ प्रय़स ककय़ और ऄब सर पर लटकता तलव़र से ख़ुद को बच़ने की ख़़ऽतर सकीऩ भा ईनसे ऽवमिख नहं हो सकता । सकीऩ ने ख़ुद को मँझध़र मं प़य़ । दो नौक़ओं पर सव़र होकर न तो वह ख़ुद प़र पहुँच प़ता और न हा ऽपत़ को डी बने के ऽलये ककऩरे पर ऄके ल़ छोड़ प़ता । कदल की ऽनखरता कला ज़म़ने के ग्दश की धीप मं कि म्हल़ने लगा । अदम ईसके कदल की धड़कन थ़ और अलम ईसकी दिऽनय़ क़ ख़राद़र । भगव़न भा ककसा को सिदयम की दौलत से म़ल़म़ल करत़ है तो ककसा को पैसे की दौलत से म़ल़म़ल कर देत़ है । ऽनंय करऩ मिऽश्कल थ़ पर ऩमिमककन नहं । सकीऩ ने ऽपत़ की प़क मिहब्बत पर ऄपने कदल की धड़कन क़ि रब़न कर दा । श़दा हो गइ पर अब़दा के अस़र नज़र नहं अए। अलम एक रं गान ऽमज़़ज ब़वऱ भँवऱ, पैसं की झनक़र से सोए हुए ज़मारं को जग़ देत़, य़ कभा नशे की मदहोशा मं रक़्स करते लोगं को सिल़ देत़ । वक़्त पड़ते जब ईसको ब़प बनने क़ मौक़़ नहं ऽमल़ तो वह सकीऩ पर ऄपने गिस्से के ऄंग़रे बरस़ने लग़, च़बिकं की म़र से ईसकी कोमल क़य़ को लहूलिह़न करत़ रह़ । लेककन सकीऩ की ज़ब़न पर ज़ने क्यं ख़़मोशा के पहरे रहे ? ख़ुद को ब़ँझ कहलव़ने से वह मौत को गले लग़ऩ ज़्य़द़ पसंद करता । अलम की म़र ईसकी स़ँसं को तन से जिद़ न कर सकं, पर वह एक ऽनऱश, बेबस, बेपर पंछा की तरह ब़द कफ़स मं स़ंसं लेता रहा। आसा दौऱन ईसक़ ऽपत़ भा आस फ़़ना दिऽनय़ से की च कर गय़ । मजबीरा के हर बन्धन से ख़ुद तो अज़़द हो गय़, पर सकीऩ के मन को क़ै द से ररह़इ न कदल़ प़य़। एक कदन सकीऩ से ऽमलने अदम अय़ और ईसे कदल़स़ देत़ रह़ । ISSN –2347-8764

सकीऩ तिम ऄपने अप को कभा ऄके ल़ मत समझऩ ! कभा कोइ ज़रूरत हो तो अव़ज़ देऩ...!’ कहते हुए अदम ने ऄपना नज़रं ज़मान मं ग़ड़ दं । सकीऩ ऄपने ऽपत़ के ग़म मं वैसे हा बेह़ल हुइ ज़ रहा था, अदम के स्वर मं ऄपनेपन के ऄहस़स को महसीस करते, वह बहुत छटपट़इ, रोया । वह ऄपना चौखट की मय़मद़ की साम़ ज़नता था, आसऽलए ईसने अदम से ऄपना श़दा-शिद़ ऽज़न्दगा मं दख़ल न देने क़ वचन ऽलय़ । प्य़र करने व़ले मर ऽमटने क़ जज़्ब़ ऽलये किरते हं। अदम भा ऐसे हा एक परव़ने की तरह जलत़ रह़, ऽपघलत़ रह़, पर ऄपने वचन की साम़ओं क़ ईलंघन नहं ककय़ । ऽज़न्दगा मं ह़दसे तो होते हं, पर जो कररश्मे होते हं वे भा ऄपने अप मं बेऽमस़ल होते हं। जो सकीऩ ऄपना म़ँ की ममत़ के ऽलये पल-पल तरसा, ऄपने म़ँ न होने के ज़हर को ऽनरन्तर पाता रहा, वह ज़हर ऄमुत बऩ और ईसके गभम मं जावन क़ नवऄंकिर पलने लग़ । वह ब़ँझ न था, वह म़ँ था ! ♦ ‘सकीऩ यह बच्च़ मर चिक़ है, ऽजसकी ऄम़नत था, ईसे ऽमल गइ है ।’ ऽमला-जिला अव़ज़ं ईसे होश मं ल़ने की ऩक़म कोऽशशं करतं रहं । ऽशशि को छ़ता से लग़ए, ऄपना ममत़ की छ़ँव मं सोए ब़लक को जैसे लोरा सिऩते-सिऩते वह ख़ुद भा सो गइ। पटिरद़ पैरं मं पड़े रे शम के हर बंधन से अज़़द हो गय़ थ़, हर ददम से दीर, हर ग़ुल़मा के बन्धन से मिक्त ! अलम ने ऽपत़ बनने की ख़ुशा मं जो श़दम़ने और जश्ने-बह़रं की महकिलं सज़ईं, वे सब म़तम मं बदल गईं। ख़ुऽशयं क़ नक़़ब ओढ़े हुए ग़म की ध़रध़र चोट से वह खिद को बच़ न प़य़। श़यद हक़ीकतं से ऩत़ टी टने क़ अभ़स रह़, ईसे सब कि छ फ़़ना लगने लग़ । ईसकी रूह जैसे सकीऩ के तन के स़थ ईसकी क़ब्र मं दफ़न हुइ हो, किर भा पल-पल अलम क़ तन ऄपने बेटे की य़द मं एक तड़प क़ धधकत़ दररय़ बनकर, ईसके साने मं बस ऄनबिझा प्य़स ऽलये बहत़ रह़, ऽनरं तर बहत़ रह़ ! ♦♦♦ ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

लघिकथ़

सिज़दगा और मौत ककरण च़वल़ सिजदगा और मौत दोनो बहने थं। दोनं मं बहुत प्य़र थ़ आस संस़र मं अकर दोनं क़ मन बेकऱर थ़ । एक कदन दोनं चलं दिऽनय़ के मेले मं । आस ब़त से ऄनज़न कक कभा दोनं ऽबछड़ भा सकता हं । और दोनं ऽबछड़ गईं । सिजदगा अँखं मं अँसी ऽलए यह़ँ वह़ँ ऄपना बहन को तल़शता रहा । कभा मंकदर, कभा मऽस्जद, कभा ऽगरज़घर, कभा गिरुद्व़रे , कभा ऽवव़ह की शहऩआयं मं, कभा मइयत के चौब़रे मं, कभा िी लं मं कभा आं स़न की रूहं मं । सिजदगा ऄब ह़र चिकी था । ईसक़ पंचतत्वं से ऽनर्षमत शरार बीढ़ हो चल़ थ़ । ईसकी स़ँसे तेज चलने लगा थं श़यद ईसक़ ऄंऽतम समय अ चिक़ थ़ । हड़बड़़कर ईठा ऄपना ब़ँहं िै ल़ये स़मने ईसकी बहन मौत खडा था । ईन बहनं क़ प्य़र तो देखो ! सिजदगा ने मौत को गले से लग़ ऽलय़। ♦♦♦

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स़क्ष़त्क़र

व्यंग्यश्रा' सम्म़न से ऽवभीऽषत

सिभ़ष चंदर संव़द : ऄचमऩ चतिवद े ा

(सिभ़ष चंदर जा के ऩम से कोइ ऄनज़न नहं । ख़सकर व्यंग्य-जगत मं । अप ऽसिम व्यंग्यक़र हा नहं अलोचक भा हं । कि ल 41 ककत़बं मं व्यंग्य ईपन्य़स ऄक्कड़-बक्कड़, कइ व्यंग्य संग्रहं के ऄल़व़ "सिहदा व्यंग्य क़ आऽतह़स" के रूप मं अपक़ सबसे योगद़न है | ह़ल हा मं व्यंग्य के सवोच्च सम्म़न "व्यंग्य श्रा" से सम्म़ऽनत ककय़ गय़ | व्यंग्यक़र ऄचमऩ चतिवद े ा ने ईनसे व्यंग्य और ऄन्य मिद्दं पर ब़तचात की । प्रश्न - अपकी दुऽि मं व्यंग्य क्य़ है ? ईत्तर – मेरा दुऽि मं व्यंग्य वह गंभार रचऩ है ऽजसमं व्यंग्यक़र ऽवसंगऽत की तह मं ज़कर ईस पर ऽवट, अयरना अकद भ़ष़ शऽक्तयं के म़ध्यम से प्रह़र करत़ है । ईसक़ लक्ष्य प़ठक को गिदगिद़ऩ न होकर ईससे करुण़, खाज ऄथव़ अक्रोश की प़वता लेऩ होत़ है । आस प्रकक्रय़ मं ह़स्य क़ स़वध़ना से प्रयोग ककय़ ज़ऩ जरूरा है त़कक वह रचऩ की पठनायत़ मं वुऽि करके , ईसकी ग्ऱह्यत़ को तो बढ़ए पर ईसके प्रह़र के लक्ष्य को ऽवचऽलत न करे । मं व्यऽक्तगत रूप मं व्यंग्य मं ह़स्य के संतिऽलत प्रयोग को पसंद करत़ हूँ । प्रश्न – अपने व्यंग्य, अलोचऩ और ब़लस़ऽहत्य जैसा कइ ऽवध़ओं मं क़म ककय़ है । एक स़थ तानं पर क़म करऩ ककतऩ अस़न है ? ईत्तर – यह म़नऽसक स्थऽत पर ऽनभमर करत़ है । जब ककसा ककसा ऽवसंगऽत से टकऱत़ हूँ ,कि छ हॉण्ट करत़ है, तो व्यंग्य ऽलख़ ज़त़ है । जब मन शऱरता होत़ है तो ह़स्य कह़ऽनय़ं ईतरता हं और जब कदम़ग ऽबलकि ल ख़ला ISSN –2347-8764

होत़ है तो अलोचऩ ..ह़ ह़ .. । ब़लस़ऽहत्य की स़रा ककत़बं अने के पाछे क़ क़रण मेरे छोटे बेटे की रोज़ कह़ऽनय़ सिनने की अदत रहा । ईसे ऱत को कह़ऽनय़ँ सिऩत़ थ़, सिबह ईनमे से जो य़द रह ज़ता, ईसे क़गज़ पर ईत़र लेत़ थ़ । ब़की रह़ टा.वा. और रे ऽडयो क़ पटकथ़ लेखन तो यह ऄऽधक़ंशत मज़बीरा मं ककय़ य़ ककसा ऽनम़मत़ ऽमि ने ज़बदमस्ता कऱ ऽलय़ । अपको अंयम होग़ की मंने अज तक ऄपऩ ऽलख़ कोइ भा साररयल देख़ /सिऩ नहं है । मेरा अत्म़ तो मिकरत ऄक्षर मं बसता है । प्रश्न - ऱष्ट्राय और ऄंतऱष्ट्राय स्तर पर दो दजमन से ऄऽधक पिरस्क़र प़ चिके हं । क्य़ ऄच्छ़ ऽलखने के ऽलए पिरस्कु त होऩ जरूरा है ? ईत्तर – मं ऐस़ नहं म़नत़ । कबार, सीर, तिलसा आन्हं ककतने पिरस्क़र ऽमले ? पर ईन्हंने ऽलख़ और ऐस़ ऽलख़ कक अज सकदयं ब़द भा प़ठको के ज़ेहन मं सिजद़ हं । यह जरूर है कक इम़नद़रा से कदए गए पिरस्क़र ये ऄवश्य बत़ते हं कक अपके लेखन को नोरटस ककय़ ज़ रह़ है । दीसऱ ये कहं ऩ कहं अप पर ऄच्छ़ ऽलखने क़ दब़व भा बऩते हं, कक लोग अपसे बेहतर की अश़ कर रहे हं । सो मेहनत करो । प्रश्न - ऄपने दौर की और अज की पिक़ररत़ मं ककतऩ िकम प़ते हं ? ईत्तर – अज पिक़ररत़ क़ कै नव़स बहुत बढ़ गय़ है । अज क़ पिक़र बहुत स्म़टम है । ऄऽधक स्पि भा । वह हर क्षेि की ज़नक़रा रखत़ है । क्षेिाय समस्य़ओं से लेकर ऄंतऱमष्ट्राय संबंधो तक । हर तरि ईसकी नज़र है । ईसके प़स कमोबेशा हर साट पर क़म करने की ऽलय़कत है । पर पिक़ररत़ से ऽवशेषकर चैनलं की पिक़ररत़ से, एक चाज़ जरूर घट रहा है, वह है संवेदनशालत़ और सम़ज के प्रऽत द़ऽयत्व की भ़वऩ, जो सिचत़ क़ ऽवषय है । न्यीज़ चैनलं को तो एक ब़र जरूर आस ब़त पर मंथन करऩ च़ऽहए, वऩम वे जनत़ क़ ऽवश्व़स खो दंगे ।

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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ह़थ से गँव़ देने के क़रण ईसे ऽनऱश़ हुइ है । ’ओह, मिझे ऄफ़सोस है, अपकी तऽबयत ठाक नहं है क्य़ ?’ नोबेल पिरस्क़र ऽवजेत़ लेखक : ऄंत मं आश़रे छोडकर ह़आनररश ब्योल मछि अरे ने मिंह खोलकर ब़तचात की । ईसने कह़, ऄनिव़द : प्रऽतभ़ ईप़ध्य़य "मिझे बहुत ऄच्छ़ लग रह़ है । आससे बेहतर मिझे कभा यीरोप के पऽंमा तट के एक बंदरग़ह पर नहं लग़ ।” मैले कि चेले कपडे पहने एक अदमा मछला वह ईठकर खड़़ हो गय़, थोड़ पकडने की ऄपना ऩव मं लेट़ हुअ उँघ तऩ, म़नो यह कदख़ऩ च़हत़ हो कक वह रह़ थ़ । अकषमक पोश़क पहने एक ककतऩ पहलव़न है । मिझे बहुत ऄच्छ़ पयमटक ऽपक्चर लेने के ऽलए ऄपने कै मरे मं लग रह़ है । पयमटक के चहरे क़ भ़व और रं गान राल ड़ल रह़ थ़ : नाल़ ऽवदाणम हो गय़ । वह ऄपने प्रश्न को ऄऽधक अक़श, हऱ समिर, बिम से ढकी सफ़े द दब़ नहं सकत़, ऄन्यथ़ ईसक़ कदल बैठ लहरं की श़ंऽतपीणम क़त़र, क़ला ज़ने क़ खतऱ है । नौक़, मछला पकडने के ऽलए ल़ल टोपा । “किर अप ब़हर क्यं नहं ज़ते?” ऽक्लक.. और एकब़र ऽक्लक.. चीँकक सभा मछि अरे ने तप़क से ईत्तर कदय़ : “क्यंकक ऄच्छा चाज़ं तान होता हं, तासरा ब़र मं अज सिबह हा ब़हर ज़कर अय़ हूँ ।” किर ऽक्लक । “क्य़ कदन की शिरुअत ऄच्छा था ?” ककम श, ऽवपरात अव़ज़ के क़रण वह़ँ “आतना ऄच्छा था कक मिझे ऄब दोब़ऱ उँघने व़ल़ मछि अऱ ज़ग ज़त़ है । वह ब़हर ज़ने की ज़रूरत हा नहं है । मंने सोत़ हुअ हा ईठ बैठत़ है और नंद मं हा ऄपना टोकरा मं च़र झंग़ मछऽलय़ँ रख ऄपना ऽसगरे ट सिलग़त़ है । लेककन आससे ला हं और लगभग दो दजमन समिरा पहले कक यह समझ मं अये कक वह क्य़ मछऽलय़ँ भा पकड़ ला हं ।“ ढी ँढ रह़ है, ईत्स़हा पयमटक ने ईसकी ऩक ऄंत मं मछि अऱ पीरा तरह ज़ग ज़त़ के नाचे ऽसगरे ट क़ एक पैकेट रख कदय़ । है, थोड़ स़म़न्य होत़ है वह । पयमटक के साधे ईसके मिँह मं नहं । बऽल्क ईसके ह़थ कं धे पर स़ंत्वऩ पीवमक ह़थ रखत़ है । मं ऽसगरे ट थम़ दा और चौथा ब़र ऽक्लक पयमटक के चहरे की यह ऄऽभव्यऽक्त ईसे करते हा शाघ्र ईत्स़ह से ईसने ऽसगरे ट ऄनिऽचत किर भा म़र्षमक, सिचत़पीणम प्रतात ल़आटर बंद कर कदय़ । होता है । ऄजनबा की अत्म़ को तसल्ला ऄत्यऽधक ऽवनम्रत़ के चलते एक ऄजाब सा देने के ऽलए वह कहत़ है, “मेरे प़स अने ऽस्थऽत पैद़ हो गया, ऽजसे वह स्थ़नाय व़ले कल और परसं के ऽलए पय़मप्त है..” भ़ष़ मं ब़तचात के म़ध्यम से प़टने क़ “क्य़ अप मेरा एक ऽसगरे ट लंगे ?” प्रय़स करत़ है । “ह़ँ, धन्यव़द..” " अज अपके कदन की शिरुअत ऄच्छा मिँह मं ऽसगरे ट रखे हुए ऄजनबा ने प़ँचव़ होगा." ऽक्लक कदय़ । ऄपऩ ऽसर ऽहल़ते हुए वह मछि अरे ने ऄसहमऽत मं ऽसर झटक़।ककसा ऩव के ककऩरे पर बैठ गय़ और ईसने ने मिझे बत़य़ है कक मौसम सिह़वऩ है। ऄपऩ कै मऱ नाचे रख कदय़ , क्यंकक मछि अरे ने ऽसर ऽहल़य़ । अपको ब़हर ऄपने भ़षण पर जोर देने के ऽलए ऄब ईसे नहं ज़ऩ पडेग़ । मछि अरे के ऽसर ऽहल़ने दोनं ह़थं की ज़रूरत था । से पयमटक की बेचैना बढ़ता ज़ रहा था । वह कहत़ है, “मं अपके व्यऽक्तगत म़मलं आस बेच़रे मैल-े कि चैले कपड़े व़ले अदमा के मं हस्तक्षेप करऩ नहं च़हत़, लेककन कदल मं ज़रूर कि छ है और एक ऄच्छ़ मौक़ पहले अप ऄपऩ पररचय दं । अज अपने

जममन कह़ना

तुप्त मछि अऱ

ISSN –2347-8764

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

दीसरा, तासरा और श़यद चौथा ब़र भा क़म ककय़ है और अप तान, च़र , प़ंच और श़यद दस दजमन समिरा मछऽलय़ँ पकड लेते हं, आसे एक ब़र किर से बत़आये।” मछि अऱ ऽसर ऽहल़त़ है । पयमटक कहत़ है, “अप ऄऽधकतम एक वषम मं एक मोटर खराद सकते हं, दो वषम मं एक दीसरा ऩव, तान य़ च़र वषं मं अप श़यद एक छोट़ जह़ज़ खराद सकते हं । दो ऩवं य़ ज़ह़ज से अप स्व़भ़ऽवक रूप से बहुत कि छ कर सकते हं. एक कदन अपके प़स दो ज़ह़ज हो ज़यंगे , तो अप.....” ईत्स़ह के क़रण थोड़ा देर ख़मोश रहकर - “छोट़ कोल्ड स्टोरे ज बऩ सकं गे । श़यद एक धीम्र कक्ष भा। ब़द मं एक म़ंस, मछला पक़ने व़ला िै क्टरा, ऄपने ऽनजा हेलाक़प्टर द्व़ऱ ईड़ भा सकं गे। अप बहुत स़रा मछऽलय़ं एकि कर सकते हं और ऄपने जह़ज़ं को रे ऽडयो से क़बी कर सकते हं । अप मछऽलयं क़ प्ऱऽधकरण ले सकते हं । अप मछला क़ एक रे स्तऱं खोल सकते हं , ऽबचौऽलयं के ऽबऩ अप समिरा झंगे क़ पेररस ऽनय़मत कर सकते हं और किर....” ईत्स़ह से ईसके मिंह से शब्द नहं ऽनकल रहे थे । मछि अऱ ईस ऄजनबा क़ कं ध़ थपथप़त़ है, म़नो बच्चे ने कि छ ऽनगल ऽलय़ हो । मछि अऱ धारे से पीछत़ है, “तब क्य़?” पयमटक ने श़ंत ईत्स़हपीवमक मछि अरे से कह़, “तब अप ऽनसिंत होकर यह़ँ बंदरग़ह पर बैठ सकते हं और धीप मं उँघ सकते हं और आस भव्य समिर क़ नज़़ऱ भा ले सकते हं ।” “लेककन मं तो ऄभा भा यहा कर रह़ हूँ, सिकीन से बंदरग़ह पर बैठ़ हूँ और उँघ रह़ हूँ.. बस अपके ऽक्लक ने आसमं ऽवघ्न ड़ल कदय़ ।“ व़स्तव मं पयमटक आस पर ऽवच़रमग्न हो गय़ । एक ब़र पहले भा ईसने सोच़ थ़, कक वह क़म करत़ है, त़कक ईसे कदन मं एक ब़र से ऄऽधक क़म नहं करऩ पड़े । मैले-कि चैले वस्त्रं व़ले मछि अरे के प्रऽत पयमटक मं कोइ दय़ भ़व नहं रह़, ऄऽपति ईसे ऄब मछि अरे से थोड़ रश्क हो रह़ थ़ ।

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कह़ना

छटपट़हट अश़ गिप्त़ 'अशि'

ईसक़ जन्म लेऩ भा जैसे कोइ कय़मत थ़ । खबर सिनते हा ऽपत़जा िट पड़े और खिशखबरा सिऩने व़ला द़इ को हा ड़ंट कदय़; 'चिप कर... लड़की हुइ है तो क्य़ करूं, ये भा कोइ खिशा की ब़त है जो तिम्हं इऩम दीं। चल भ़ग यह़ं से।' बेच़रा क्य़ कहता, कि छ समझ हा ऩ प़इ कक सेठ जा को ऄच़नक क्य़ हो गय़। पर भातर कमरे मं लेटा सेठ़ ना को सब समझ मं अ गय़ थ़ । पहले हा दो बेरटय़ँ जन चिकी सेठ़ना ज़नता था कक सेठ जा को पि​ि की च़ह ख़ये ज़ रहा है, पर वो क्य़ करता। ककतऩ तो भगव़न से ऽमन्नतं की था, ह़थ-पैर जोड़े थे ईनके स़मने, द़न दऽक्षण़ की भा ह़मा भर ला था, पर किर भा भगव़न क़ कदल न पसाऩ, लड़की दे दा । अंखं मं बेबसा के अंसी ऽलए सेठ़ना ने ऄपना नवजन्मा ऽबरटय़ की तरि देख़। स़ंवला, गोल मटोल सा वो नन्हं मजे से स़रा सिचत़ओं से मिक्त हो कर सो रहा था। म़ं की ममत़ ऄपने ऽजगर के टि कड़े को ऄपने से ऄलग नहं कर सकता था। सो म़ं ने ऄपना बेटा के ऽसर पर नेह से ह़थ िे ऱ और चिपच़प ईसके प़स लेट गइ। कदन पंख लग़ये ईड़ने लगे। वषम ि​ि दकत़ हुअ ऽनकल रह़ थ़। म़ं ने ऄपना बेटा क़ ऩम बड़े प्य़र से कजरा रख़। कजरा घर-पररव़र की बेरूखा सेऄनज़न बड़ा होने लगा। नटखट और म़सीम, सबकी ह़ं मं ह़ं ऽमल़ने व़ला। कोइ क़म बोलो तो िट से दौड़ के कर देता। जबकक ईसकी दोनं बहने बहुत ऽसर चढ़ा थं। देखने मं गोरा ऽचट्टा सिंदर सा पर अदतं ऐसा जैसे कोइ क़टने को दौड़त़ हो। आस पर भा ऽपत़जा ईनके हा ऽसर पर ह़थ िे रते, सहल़ते, पिचक़रते। म़सीम कजरा दीर खड़ा सब देखता रहता। ईसक़ ब़लपन आन सब ब़तं को समझ नहं प़ रह़ थ़। किर एक कदन मंझला बहन ककसा बाम़रा की चपेट मं अकर चल बसा। म़ं खीब रोइ,ँ रोये तो ऽपत़जा भा थे, पर जल्दा हा ईन्हंने ऄपने अपको संभ़ल ऽलय़। ऄब ईनक़ स़ऱ प्य़र-दिल़र बड़ा बेटा ककरण पर अकर ठहर गय़ । कजरा ऄपेऽक्षत सा पलता रहा। तब आतना बिऽि हा कह ISSN –2347-8764

था कक ऄपना ऄपेक्ष़ को हा महसीस करता। वोतो खिश था, ईसकी म़ं था ईसके ऽपत़जा थे। ककरण ऽपत़जा की अँ खं क़ त़ऱ बना हुइ था। ब़त ब़त पर ऽपत़जा से झीठा ऽशक़यत कर कजरा को म़र-ड़ंट ऽखल़ने मं ईसे बड़़ मज़ अत़ थ़। धारे धारे यह ईसकी अदत मं शिम़र हो गय़। कजरा कभा समझ हा नहं प़इ कक ईसे ड़ंट़ क्यं ज़ रह़ है य़ क्यं म़र पड़ रहा है। ह़ं आतऩ जरूर हुअ कक समय बातने के स़थ स़थ कजराचिपच़प रहने लगा, ऄपने मं खोइ खोइ। ईसक़ न कोइ दोस्त थ़, न संगा। खिद से हा ब़तं करता और खिद से खिद को समझ़ लेता। म़ं से ऄगर ककरण की ऽशक़यत करता तो म़ं ककरण की धिऩइ कर देता था, जो कक ईसे ऄच्छ़ नहं लगत़ थ़ । अऽखर ककरण था तो ईसकी बहन हा । समय ने रफ्त़र पकड़ा, दोनं बड़ा होता चला गइ। कजरा को पिस्तकं से लग़व हो गय़। होत़ भा क्यं नहं, वहा ईसके संगा स़था थे। ईन्हं पढ़ता और ईनके ऄमीतम प़िं के स़थ कल्पऩ मं खोइ रह ता। ईसने ऄपना एक ऄलग हा दिऽनय़ बऩ ला था। आस दिऽनय़ से ब़हर ईसे दो हा चाज़ं ऄत्य़ऽधक ऽप्रय थं एक म़ं, दीसरा पढ़़इ। ईसने सोच ऽलय़ कक वह खीब पढ़ेगा और ऐस़ कि छ करे गा कक ईसके ऽपत़जा ईसे भा प्य़र करं , ऄपना गोद मं ऽबठ़यं। तरसता, लरजता कजरा ऄपना धिन मं रमा पढ़़इ मं डी बा तो बहन ककरण को जऱ भा ऄच्छ़ नहं लग़। वो ऄक्सर त़ने म़रता कजरा को“ओह तो क़लिटा ऄब कलेक्टर बनेगा। बड़ा अइ पढ़ने व़ला।" यह कहते हुए वो ईसकी ककत़बं ि़ड़ देता और ऽपत़जा से झीठा ऽशक़यत क र कजरा को हा म़र ऽखलव़ता। म़ं समझता तो था पर ऽपत़जा यह कह ईनक़ मिंह बंद कर देते कक-"तिम चिप रहो…जो बेट़ हुअ होत़। आसकी जगह, तो श़न से जात़।" ऄब ककरण क़लेज ज़ने लगा था और कजरा ह़इस्की ल मं। सब कि छ स़म़न्य हा चल रह़ होत़ ऄगर वो मनहूस कदन न अत़ कजरा के जावन मं। ऽपत़ की ल़ड़ला प्रेम के चक्कर मं पड़ कर ककसा अव़ऱ लड़के के स़थ भ़ग गइ । ऽपत़जा पर तो जैसे पह़ड़ हा ऽगर पड़़ ।

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बरसं की बना आज्जत पर प़ना िे र कदय़ लड़की ने। ककतऩ तो दिल़र प्य़र से प़ल़ थ़। कभा ककसा चाज़ की कोइ कमा नहं होने दा। जो कहता िट़िट अ ज़त़ थ़। ईसके एक अंसी पर ऽपत़जा न ज़ने क्य़-क्य़ न्यौछ़वर कर देते। अज ईसा लड़की ने ईनकी परव़ह ककये ऽबऩ आतऩ बड़़ कदम ईठ़ ऽलय़ थ़। ऄब क्य़ मिंह कदख़यंगे दिऽनय़ को। यहा सब सोच सोच कर वे दो कदन तक रोते रहे। म़ं भा रो रहा थं। कजरा क़ मन भा रो रह़ थ़ सबको दिखा देख कर परन्ति वो करता भा तो क्य़। ऽपत़जा नवमस ब्रेकड़ईन के ऽशक़र हो गये। गहरे ऽडप्रेशन मं चले गये। ऄब घर मं म़ं और कजरा। म़ं क़ रो रोकर बिऱ ह़ल थ़ । चौदह बरस की कजरा ऄच़नक जैसे 40-बरस की समझद़र हो गइ।ईसने ऽपत़जा को संभ़ल़, म़ं को समझ़य़ कक ऐसे रोय़ न करे ऽपत़जा के स़मने ईन्हं और ऄऽधक तकलाि होगा किर। वो ऄपने नन्हं ह़थं से घर क़ स़ऱ क़म करता। म़ं पीरे कदन ईद़स अंसी बह़य़ करत, ऽपत़जा गिससिम बस दाव़र को घीर रहे होते। ईफ्ि ककतऩ करठन समय अ गय़ थ़। एक एक पल पह़ड़ की तरह बात हा नहं रह़ थ़, बात़ऩ पड़ रह़ थ़। आन सब चक्करं मं वो स्की ल भा नहं ज़ प़इ। मन लग भा तो नहं रह़ थ़। सोच़ घर की ह़ल़त सिधर ज़यंगे तब सिच़रू कर लेगा ऄपना पढ़़इ। परन्ति भऽवष्पय तो ऄपना लेखना लेकर स़थ चलत़ है और वतमम़न ईसके गिल़म की तरह वहा करत़ है जो वो करने को कहत़ है, आसा मं भऽवष्पय क़ जावन है। ऽमट्टा मं दबे बाज को देख़ है ? ककतना छटपट़हट होता होगा ईसे ब़हर ऽनकलने की... खिद से लड़त़ भा होग़.... ऄपऩ उपर पड़ा ऽमट्टा हट़ने के ऽलए..... कण-कण हट़त़ भा है..... जो जात ज़त़ है आस लड़़इ मं वहा नये कोपलं के स़थ धरता क़ साऩ चार कर ऄंकिररत होत़ है... एक नय़ जावन.... आं स़न के जावन मं भा ऐस़ समय अत़ रहत़ है..... जब संस़र की तकलािं हा ईसे म़र देता हं....आसके ऽलए ईसे ऄलग से मरने की जरूरत नहं पड़ता.....यहा ऽपत़जा के स़थ हुअ। तान स़ल क़ लंब़ समय गिज़र कर अऽखर वो कजरा के ऄथ़ह सहयोग से म़नऽसक तऩव से ब़हर अ हा गये। ब़हर अते हा ईन्हंने सबसे पहल़ क़म यहा ककय़ कक कजरा की पढ़़इ यह कह कर बंद करव़ दा कक एक को आतने ल़ड से प़ल़ तो ईसने यह कदन कदख़ कदय़, ऄब तिझे पढ़ने नहं भेज सकत़। तिमने भा वहा ककय़ तो मं मर हा ज़उँग़ । कजरा तड़प ईठा। जैसे कोइ मछला को प़ना से ऽनक़ल कर तेज़ धीप मं छोड़ दे। ईसे ऄपना छटपट़हट एकपल भा चैन से रहने न दे रहा था। सब कि छ ऄंधेऱ ऄंधरे ़ स़ हो गय़। ककसा ने ईसके भऽवष्पय क़ सीरज ऽनगल ऽलय़ हो जैसे। क़ंटे हा क़ंटे कै से ईग अये च़रं ओर। कह़ं ज़ये, ककससे कहे। सब खिशा स्व़ह़ हो गइ। ईसने ऽपत़जा से ऽवनता की, म़ं के अगे ह़थ जोड़े। लेककन जो स्रोत सीख चिक़ हो वह़ं से ऄब क्य़ िी टत़ और क्यं। यह इऩम थ़ ईसकी सेव़ क़ । किर कि छ न कह़ कजरा ने, ऽसर झिक़ कर स्वाक़र कर ऽलय़ ईनके ऽनणमय को। ISSN –2347-8764

अवेग बहुत थ़ और स़मने कठोर चट्ट़न से ऽपत़जा। .....अह ऽवध़त़ एक हा सपऩ देख़ थ़ और भा पल भर मं हा छन्न से टी ट गय़ । कजरा ऽपत़जा को तो बच़ ल़इ पर वो स्वयं भातर हा भातर मरगइ ईसा पल। ऽबन सपनं के क्य़ कोइ जावन होत़ है भल़। एक झीठा मिस्क़न तले ईसने ऄपना छटपट़हट को कहं छि प़ ऽलय़ थ़। ♦♦♦

कऽवत़

तिम ऄगर..! ऱऽगना ऽिप़ठा

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

तिम ऄगर ऽलखऩ च़हो तो, कभा हम पे ऽलखऩ। हम़रे ददम के शोले य़ ऄश्क़-ए-शबनम पे ऽलखऩ। ऽलखऩ कि छ यीँ कक बेज़ुब़ना-ए-हफ़म बय़ं हो ज़ए.. हम़रे कदल की दबा एक-एक धड़कन पे ऽलखऩ। हमने लोगं की नज़र के बहुत से रं ज ईठ़ये हंसकर.. तिम मगर मिझमं चिभे थे जो वो खंजर पे ऽलखऩ। ब़त ये और है ज़म़ने मं कोइ ऩम तक नहा मेऱ... ह़ँ मगर तिम मेरे जज़्ब़त-ए-ग़म पे ऽलखऩ। ऽलख देऩ कक एक "ऱऽगना" मरकर भा न मर प़एगा। ईसके ऄहस़सं की लौ हर कदल तक जरूर ज़येगा। मेरे ऄरम़नो पे, ख्व़बं के क़फ़न पे ऽलखऩ। तिम ऄगर ऽलखऩ तो यीँ हम पे ऽलखऩ। ♦♦♦

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किल्म

किल्मक़र : ऊऽत्वक घटक सैयद एस. तौहाद

40 स़ल पहले आसा महाने जाऽनयस किल्मक़र ऊऽत्वक घटक क़ देह़ंत हुअ थ़ । अज ईनकी शऽख्सयत को, ईनके ऽसनेम़ को य़द करते हुए - स़त िरवरा 1976 कलकत्त़ की सिबह को ऊऽत्वक घटक की ऄस़मऽयक मौत ने झकझोर कदय़ थ़ । पीरे शहर ने एक दिखद ख़बर के स़थ अँखे खोला थं । ऽजस ककसा ने ख़बर सिना वो ऽवश्व़स नहं कर सक़ कक ऊऽत्वक ब़बी ऄब नहं रहे । ऄंऽतम य़ि़ मे लोगं क़ सैल़ब ईमड़ पड़़ थ़ । कलकत्त़ की सड़कं पर लोगं क़ एक हुजीम थ़ । 50 वषीय घटक क़ ऄंऽतम ऄरण्य प्रेसाडंसा ऄस्पत़ल से दोपहर मं ऽनकल़ । च़हने व़ले ईनके शव के अगे पाछे चलते रहे । ईन किल्मं के मशहूर ग़ने लोगं की जिब़ं पर बरबस यं हा अ रहे थे । ऊऽत्वक घटक की ऄंऽतम य़ि़ एक म़यने मे ऄऽद्वताय शऽख्सयत की ऄऽद्वताय य़ि़ था । ऄंऽतम संस्क़र के ईडत़ल़ घ़ट पर होऩ थ़ । पहला किल्म ऩगररक (1952) ऽनम़मण के 65 बरस बात ज़ने ब़द अज जब मिड़कर देखं तो यहा समझ अएग़ कक ऊऽत्वक घटक ऄपने यिग के सबसे वंऽचत किल्मक़र थे । अपकी दक्षत़ को हमेश़ कम कर अँकने क़ बड़ जिमम लोगं से हुअ । भ़रताय ऽसनेम़ मे जाते जा ऊऽत्वक ब़बी को ईऽचत सम्म़न समय से नहं ऽमल़ । अप अत्मघ़त के स्तर तक ऄऽवचल, सनकी एवं अवेगशाल शख्स थे । ऽसनेम़ के ऽलह़ज़ से ऊऽत्वक ऄऱजक थे । कफ़र भा भ़रताय ऽसनेम़ के आऽतह़स मं अप जैस़ सच्च़ स़धक कोइ दीसऱ नहं थ़ । किल्म ऽनम़मण के अऽधक़ररक व्य़करण से परे होकर भा अपने मह़नत़ को प़य़। आसऽलए हा श़यद कल की तरह अप अज भा प्ऱसंऽगक हं ! हमेश़ रहंगे । घटक ने ऄपने जावन क़ल मं कि ल अठ िीचर किल्मं एवं दस ISSN –2347-8764

डॉक्यिमंटरा बऩइ । आनमं से तान किल्मं अप के ऽनधन के पं़त ररलाज़ हो सकं । आन किल्मं को ऄपने कदन के ईज़ले की जिस्तजी मं बरसं आं तज़र करऩ पड़़ । आन बदनसाब किल्मं मं ऩगररक भा रहा । यह किल्म ह़ल़ंकक प़थेर पंच़ला से तान स़ल पहले बन चिकी था । लेककन ररलाज़ हुइ बरसं ब़द । ’ऩगररक’ के समय पर ररलाज़ ऩ होने से सत्यजात ऱय की किल्म को ऩम करने क़ ऄवसर पहले ऽमल़। स़ठ के दशक मं बना ’सिवणमरेख़’ (1962) को भा कदन क़ ईज़ल़ देखने के ऽलए तान स़ल आं तज़़र करऩ पड़़ । ’प़थेर पंच़ला’ ने भ़रताय ऽसनेम़ मं क्ऱंऽतक़रा यिग क़ अग़ज ककय़ । ’ऩगररक’ मं नौकरा के ऽलए संघषम करते यिवक की कह़ना था । रोज़ग़र के ऽलए जीझते आस यिवक क़ क्रऽमक ऽवघटन कदल पर ऄऽमट प्रभ़व छोड़त़ है । ऄिसोस ऩगररक समय पर ररलाज़ नहा हो सकी । नताजतन घटक क़ सपऩ टी ट गय़ । ऽवडम्बऩ, देरा के क़रण अप भ़रताय ऽसनेम़ मं सम़ऩंतर ध़ऱ के पथप्रदशमक होतेहोते रह गये । लिप्त से हो चिके किल्म सिप्रट को तल़श कर अऽखरक़र सत्तर के दशक मं ररलाज़ ककय़ गय़ । लेककन आस कदन को देखने के ऽलए घटक ब़की नहं थे । जो कि छ भा सिजदगा ऽमला, ईसमं दिख स़लत़ रह़ कक ऄपऩ िन दिऽनय़ को कदख़ नहं सके । शऱब की लत ने ऊऽत्वक की सिजदगा को नरक बऩ कदय़ थ़ । अप पाड़़द़यक ऄंत की ओर ऄग्रसर थे । बिजिमअ समाक्षकं ने अपको हमेश़ नज़रऄंद़ज़ ककय़ । किल्म ईद्योग से अपको ख़स सहयोग नहं ऽमल़ । अपकी क़ऽबऽलयत को हमेश़ कमतर देख कर अंक़ गय़ । अपके प्रय़सं को ऽमट़ने की कोऽशश भा हुइ । ऊऽत्वक की किल्मं कभा समय पर ररलाज़ नहं हो सकं ।

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घटक ने बहुत कि ईठ़ये । ऄपने क़म को लोगं तक नहं पहुंच़ सकने क़ ग़म अपको हमेश़ स़लत़ रह़ । समय पर किल्मं ररलाज़ नहं होने के ऄऽतररक्त अपके द्व़ऱ शिरू ककए गए बहुत-से प्रोजेक्टस अपकी सिजदगा रहते पीरे नहं हो सके । पय़मप्त धन नहं होने क़रण अप क़िी समय के ऽलए ऄधीरे पड़े रहे । अप ने हमेश़ ऄपना शतो पर क़म ककय़ । आसऽलए ज्य़द़तर ऽनम़मत़ओं से नहं बना । ब़ज़़र की म़ंग व च़हत के ऄनिरूप खिद को ढ़लने के ऽलए ऽबल्कि ल भा तैय़र नहं थे । ऊऽत्वक के ऄनीठे ऄऽभम़ना एवम ऄऽत स्पिव़दा व्यऽक्तत्व ने ईन्हं ह़ऽशए पर ड़ल कदय़ थ़ । अप ने लोगं से ककऩऱ कर ऽलय़ थ़ । क्यंकक अदशं क़ कभा ऽमल़न नहं हो सक़ । सत्यजात ऱय एवम मुण़ल सेन से ऊऽत्वक एक म़यने मं आसऽलए ऄलग कहल़ए क्यंकक अपने मेलोड्रम़ क़ बड़़ प्रभ़वपीणम आस्तेम़ल ककय़ । यह िाटमंट रं गमंच से प्रेररत थ़ । य़द करं मेघे ढ़क़ त़ऱ क़ ईप़ंत्य दुश्य - नात़ ऄपने भ़इ से कह रहा है : द़द़ मं जाऩ च़हता हूं.. ! घटक की मेलोड्रम़ ऽनर्षमत करने की मह़न क्षमत़ को कदख़त़ है । ह़ल़ंकक अपने ऄऽभनेिा को अँसी ऽनक़लने से मऩ कर के वल जोर से चाखने कदय़ । चाख नात़ की ऄप़र पाड़़ को सशक्त रुप से व्यक्त कर सकी । ’मेघे ढ़क़ त़ऱ’ मं एक ग़ने की शीटिटग करते वक्त ख़सा कदक्कत अया था, क्यंकक ईनके प़स प़श्वम तकनाक हेति मशान नहं थे । ग़ने मं प़श्वम आिे क्ट देने के ऽलए ऄऽभनेत़ को थोड़ा दीरा पर ग़ रहे ग़यक के होठं से ऄपना मिख मीवमंट ऽमल़ने को कह़ गय़ । आस ककस्म के सम़ध़न ऽनक़लने मं घटक को दक्षत़ ह़ऽसल था । पीरे ऽसने क़ल मं अपको हमेश़ प्ऱयोजकं एवं ईपकरणं एवं ऄन्य सहयोग की कमा रहा । कफ़र भा ऽसनेम़ के प्य़र के ऽलए अपने ऄपऩ संघषम ज़रा रख़ । अज ऊऽत्वक घटक ऽवश्व ऽसनेम़ के एक प्रऽतऽित ऩम हं । दिऽनय़ भर के किल्म सम़रोहं मं अपकी किल्मं क़ प्रदशमन होत़ रह़ है। अपकी किल्मं को ईस यिग क़ स़क्षा म़नकर पठन-प़ठन भा चल़ । घटक द़ की पि​िा समहात़ के शब्दं मं - क़िी निकस़न सहन करने ब़द भा ब़ब़ ज्य़द़तर अश़व़दा रहे । ऽनधन के कि छ कदन पहले हा ईन्हंने मिझसे ऽवश्व़स जत़य़ थ़ कक ईनकी किल्मं एक कदन ज़रूर ईज़ले को देखग ं ा । ऽपत़ की ऄनीठा शऽख्सयत से समहात़ बहुत प्रभ़ऽवत रहं । अपने ईन पर ककत़ब भा ऽलखा है । किल्मं मं सिजदगा बऩने की ऊऽत्वक को कोइ च़ह नहं था । ईन्हंने स्वयं आसे स्वाक़ऱ भा कक ब़ब़ ईन्हे अयकर ऄऽधक़रा बऩने च़हते थे । अपको अयकर ऽवभ़ग मे नौकरा ऽमल भा गइ था । लेककन न ज़ने क्यं पद से आस्ताि़ देकर ऱजनाऽत क़ रुख कर ऽलय़ । कम्यीऽनस्ट प़टी अि आं ऽडय़ से जिड़ गए । प़टी की सेव़ मे स़ंस्कु ऽतक प़ठ ऽलखने क़ महत्वपीणम क़म ककय़ । प़टी के स़ंस्कु ऽतक फ्रंट क़ ईद्देश्य कल़ एवं रं गमंच के जररए लोगं को संगरठत करऩ थ़ । प्रऽतवेदन को ऽलख कर अपने सन 1954 मं प़टी समक्ष प्रस्तित ककय़ । लेककन प़टी आससे सहमत नहा हुइ । ऱजनाऽत से मोहभंग होने ब़द अप लेखन की तरफ़ ऄग्रसर हुए । ISSN –2347-8764

कऽवत़एँ एवं कह़ऽनय़ँ ऽलखं । भ़रताय जन ऩट्ड संघ (आप्ट़ ) के सम्पकम मं अये । आप्ट़ मं अने पर किल्मं से सम्पकम बढ़ । ऊऽत्वक के ऽलए ऽसनेम़ व्यऽक्तत्व क़ ऽवस्त़र थ़ । ढ़क़ मं जन्मे घटक को यिव़स्थ़ मं हा कलकत्त़ पल़यन करऩ पड़़ । ऄपने घर से बेघर ककए ज़ने क़ ग़म, मिह़ऽजर होने क़ ग़म अपको स़लत़ रह़ । हर ब़ंग्ल़ बंधि ऽजसे बंग़ल के ऄक़ल (1942) मं ऄपऩ वतन छोड़ऩ पड़, वो हर कोइ ऽजसने बंग़ल ऽवभ़जन क़ दंश झेल़ कफ़र अज़़दा (1971) के ऽलए संघषम ककय़, अपके कदल के बहुत कराब थ़ । ऊऽत्वक घटक ने ऄपना किल्मं मं आन लोगं की व्यथ़ को प्रमिखत़ से स्थ़न कदय़ । शरण़र्षथयं ऄथव़ मिह़ऽजरो के जावन ऄनिभवं पर अपने तान किल्मं की कड़ा (िया) बऩइ । आनमं ’मेघे ढ़क़ त़ऱ’ एवं ’सिवणमरेख़’ के ऄऽतररक्त कोमल ग़ंध़र तासरा किल्म था । बरसं ब़द ब़ंग्ल़देश व़पसा पर अपने रटट़स एक्टा नदार ऩम क़ ऽनम़मण ककय़ । जाते जा ऊऽत्वक को ऄपना क़ऽबऽलयत क़ प्रम़ण भ़रताय किल्म एवं टेलाऽवजन संस्थ़ (पिणे) के ऽवद्य़र्षथयं से ऽमल़ । अपने प़ँच स़लं तक वह़ँ ऽनदेशन पढ़य़ । ऽनदेशन के ऄन्तगमत छ़िं को क्य़ पढ़ऩ च़ऽहए, यह भा अपने तय ककय़ । अप आस संस्थ़ से बहुत गहरे भ़व से जिड़े रहे । छ़ि अपको क़िी पसंद करते थे। ह़ल़ंकक अपक़ जाने क़ तराक़ बहुत ठाक नहं थ़ । ज्ञ़न के म़मले कफ़र भा ईन जैस़ ऽशक्षक ऽमलऩ मिऽश्कल थ़ । पढ़ने क़ ऄंद़ज़ लाक से हटकर हुअ करत़ । ल़आटिटग पर लेक्चर को वो क्ल़सरूम से अगे व़स्तऽवक ऄनिभवं तक ले गए । कि म़र श़हना, जॉन ऄब्ऱहम एवं मऽण कॉल सराखे कल की हऽस्तय़ं अपके ऽवद्य़थी थे । पिणे किल्म संस्थ़न मं ज्य़द़तर समय छ़ि अपको घेरे हा रहते । ऊऽत्वक क्ल़स रूम मं पढ़ने के बज़ए एक पेड़ की छ़य़ मं पढ़य़ करते थे । किल्म कदख़ए ज़ने ब़द ऽवद्य़र्षथयं स़थ ईनपर खिल़ ऽवच़र-ऽवमशम करते । यिव़-शऽक्त ऄथ़मत एफ़टाटाअइ की नया पाढ़ा ने देश को ऊऽत्वक की व़स्तऽवक दक्षत़ क़ एहस़स कऱय़ । अप ह़ल़ंकक अजावन यथ़थमव़दा किल्मं करते रहे, कफ़र भा मधिमता के रुप मं बदल़व अय़ । किल्म की पटकथ़ को ऽवमल ऱय के सहयोग से ऽलख़ थ़ । ’मधिमता’ पिनजमन्म के लोकऽप्रय सब्जेक्ट पर बऩइ गइ था । अप ’मधिमता’ की सिलत़ को लेकर थोड़े कम अश्वस्त रहे । आसके ऽवपरात किल्म ने क़िी ऩम कम़य़ । हृऽषके श मिखजी की किल्म मिस़कफ़र की कथ़ भा घटक ने ऽलखा था । कि छ समय के ऽलए अपने किऽल्मस्त़न स्टी ऽडयो मं भा सेव़एं दं । लेककन बम्बइ क़ ज़दी ऊऽत्वक को ब़ँध नहं सक़ । कलकत़ अपको ऄऽधक भ़य़ । यह़ं रहकर अपने ऽसनेम़ को एक से बढ़कर एक मह़न किल्मं दं । अपक़ ऽसनेम़ एवं अपकी शऽख्सयत नदा की तरह है । सेव़ स़पेक्ष जावन जाने की ख़ऽतर जाने क़ दीसऱ ऩम ऊऽत्वक घटक थ़ । ♦♦♦ passion4pearl@gmail.com

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क्षऽणक़एं

मौन / थक़न / सिबह डॉ. नरे न्र ऱवल

“मौन “

(1) मौन ! जंगल मं ऄके ल़ तनह़ मोरपंख जैस़ पंख िै लत़ ,ककलककल़त़... (2) मौन ! तिम्ह़रे संग मेरे ऄंतर के स्तर पर बहुत बहुत िै लत़... (3) मौन ! ऄथम, झाल पे बैठ़ शब्दं को पत्थर म़रत़... (4) हे मौन ! सच बत़ऩ तिम शब्दं से भा ज्य़द़ बोलते हो न ? (5) मौन य़ऽनमिख क़ कै दा ? ऄधरं क़ शुग ं ़र ? य़ मीक व़त़मल़प ? (6) चलो मौन, ऽन:शब्द कऽवत़ बऩएं...

थक़न

(1) खड़खड़त़ द्व़र खोलते मंने पीछ़ 'कौन? ISSN –2347-8764

अगंतिक ने कह़, थक़न मंने वहा ँ खरटय़ ऽबछ़ दा । (2) थक़न को पिऽलस ने ऽगरफ्त़र कर ऽलय़ क़रण थक़न खिद को ख़ रहा था ! (3) मं हर एक मं होता हूँ मं इश्वर हूँ ? य़ थक़न? (4) मीसल़ध़र गरजता िसल के बाच िी टिी टकर ऽबजीक़ रोये कक 'मिझे आं स़न के कपडे पहऩए तब से थक़न लगता है ! (5) ऄनवरत ईछलकी द करते बच्चे नदा मं नह़ते नह़ते ग़ते 'थक़न मर गइ ह़य ह़य ! ईन्हं ने थक़न की ऄरथा ऽनक़ला तब थक़न ऄरथा से खड़ा हो गया (6) थक़न ! पैर िै ल़कर औंधे मिंह पड़ा है आं स़न क़ शरार दि:खे, थक़न खिद दिखता है आं स़न क़ सर घीमे, थक़न खिद घीमता है थक़न अऱम मं है अज थक़न को मनिष्पय की छ़य़ लगा है ! ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

सिबह

(1) सिबह रं ग बदलता है मगर हम़रे दुऽिकोण ऽजतऩ... (2) त़ज़गा से लब़लब नवानत़ से भरपीर ख़ुशनिम़ सिबह ऽवश्व को प्रऽतकदन कि छ नय़ देता है चमकत़ प्रक़श और प्रऽतपल ऽवश्व़स (3) पत्थर पर चट्ट़ना रं ग की सिबह होताहै प़ना पर प़रदशी सवेऱ स़क़र और महकता सिबह “िी ल” पर होता है सभा के मन को भ़ते ख़़के मं भा सिबह ढल ज़ता... (4) पऽनह़ररन ने गहरे की एँ मं सिबह को ईत़ऱ है

♦♦♦

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लघि कह़ना

दिःख डॉ. डेज़ा

नए स़ल की पीवम संध्य़, बच्चे प़टी-व़टी करने कहं गए थे । मं त़म-झ़म से दीर हा रहत़ हूँ । एक नया कह़ना ऽलखने क़ मन बऩय़, तभा एक पिऱने ऽमि ऄमन क़ फ़ोन अ गय़ । ऄमन दो दशक पहले मेऱ सहप़ठा हुअ करत़ थ़ एमए मं । कइ स़ल से ब़त नहं हुइ था । सिऩ थ़ बहुत पाने लग़ है । फ़ोन ईठ़ते हा भा ईसकी अव़ज़ नशे मं लरजता सा लगा... पर ईसा पिऱना अत्मायत़ से, ऄपने ऽचर-पररऽचत सहज ऄंद़ज़ मं ईसने नए स़ल की मिब़रक देने के स़थ कि छ देर ब़तं कं । एक पल के ऽलए लग़ हा नहं कक हम आतने स़ल ब़द बऽतय़ रहे हं । कि छ हा देर मं यकीन हो गय़ थ़ कक ईसने बहुत ज़्य़द़ पा रखा है । और ऽजस तरह से वो घर-बच्चंपररव़र की ब़त ट़ल रह़ थ़, ईससे ज़़ऽहर थ़ कक जो ईसके ब़रे मं सिऩ, वो सहा थ़ । सिऩ थ़ वो ‘ऄतात’ मं, दोस्तं की दिऽनय़ मं हा, जाऩ च़हत़ थ़ । पत्ना और बच्चं को भा ऄपने और ऄपने दोस्तं के ककस्से सिऩ-सिऩ कर ऄपेक्ष़ रखत़ कक ऽबन रोक-टोक सिनते रहं । म़नो ऽज़न्दगा को अगे बढ़ने देऩ हा नहं च़हत़ थ़ । दोस्तं को फ़ोन कर ब़र-ब़र ऽमलने क़ अग्रह करत़—जो कभा पीऱ होत़, कभा नहं । धारे -धारे ईसे न मं हा ईत्तर ऽमलने लगे । पररण़म—सद़ दिखा रहने लग़ और पाने लग़ । बेहद ऽमलनस़र, सद़ दोस्तं के क़म अने व़ल़, कदल क़ सच्च़ और सबसे उपर एक ऄच्छ़ ‘आं स़न’ थ़ मेऱ ऄमन । ककसा की मदद करना होता तो जैसे-तैसे ऄपऩ निक्स़न ईठ़ कर भा करत़ । ये बे-क़रण हा नहं थ़ कक वह के वल ऄपना क्ल़स, ऄपने ऽडप़टममंट मं हा सबक़ च़हत़ नहं थ़, ऄऽपति पीरा यीऽनवर्षसटा मं मशहूर थ़ । जह़ँ ऽडप़टममंट की लड़ककय़ं ईन कदनं मं ब़की लड़कं से ब़त करने मं भा परहेज़ करता थं, ऄमन पर आतऩ भरोस़ करता थं कक ईसके स़थ आधरईधर घीमने, ऽपक्चर अकद ज़ने तक के प्रोग्ऱम बऩ लेता थं । हम सब लड़के जल कर ख़़क हो ज़ते थे । 'ऄमन ... मं ख्य़लं मं हा ईससे ब़त कर समझ़ने लग़... ती दिखा है... क्यंकक तिझे लगत़ है तिझे कोइ समझत़ नहं है... यहा ब़त है न ! ऄच्छ़ बत़ ... तीने ऄपना बावा को समझने के ऽलए क्य़ ककय़... क्य़ ऽजतना ब़तं तीने ईसे ऄपने दोस्तं ISSN –2347-8764

की बत़ईं, ईससे अधा ब़र भा ईसकी सिना ? हो सकत़ है ईसे ऄपना बहन य़ भ़इ पर ईतऩ हा गवम हो ऽजतऩ तिझे ऄपने दोस्तं पर है, ऽजनकी ब़त ती हमेश़ करऩ च़हत़ है, ऽजन य़दं मं ती जात़ है । य़र... तीने ऄपना ऽज़न्दगा को एक हा मिक़म पर क्यं रोक कर खड़़ कर कदय़ ? वे कदन... वे दोस्त... वो म़हौल... हम सब के ऽलए भा ईतऩ हा महत्त्व रखते हं, ऽजतने तेरे ऽलए... किर क्यं ती हा हर रोज़ अगे बढ़ता ऽज़न्दगा के संग कदम ऽमल़ने से मिकर गय़ ?" "क्य़ तिझे सचमिच ये लगत़ है कक तेरे ईन कदनं के दोस्त भा ऄब तेरा परव़ह नहं करते, आसाऽलए तेरे स़थ फ़ोन पर लम्बा ब़तं य़ लम्ब़ पाने-बैठने को ककसा भा बह़ने से ट़ल ज़ते हं?... नहं... ऐस़ कतइ नहं है । सब अता ऽज़न्दगा के स़थ ऄपने फ़ज़म ऽनभ़ रहे हं... जबकक ती जव़ना के कदनं की कभा न भीलग ं े हम व़ला क़समं मं हा खोय़ है । तेऱ ऄऽत-भ़विक होऩ कहं तेरे ऽलए कोइ ऄऽभश़प तो नहं बन गय़ ? दोस्त, दिःख क्य़ होत़ है ज़नते हो ? ऽजन पर पड़त़ है वो आस तरह श़ंत-सहज हो ज़ते हं कक स्वयं को सहा समझऩ तो छोड़ो, ऄपना ऽज़न्दगा के हर पल के अने और ज़ने क़ शिकक्रय़ सच्चे मन से उपरव़ले को करते हं । आस धरता से ले कर अक़श तक के छोटे से छोटे कण को प्रण़म करते हं, छोटे-बड़े सबक़ धन्यव़द करते हं और ऄपनं को तो हर दिःख से बच़ने के ऽलए ईनक़ रक्ष़-कवच बन ज़ते हं । दिःख के तोड़े लोग तो य़र ऄपऩ सब सय़ऩपन भील ज़ते हं क्यींकक वो सच मं ज़न ज़ते है कक ईनके प़स ककतने सिख हं ऽजनसे बहुत से वंऽचत हं।” ये सब मन-हा-मन समझ़य़ ईसको मंने । क्यं ? ईसा को क्यं नहं कह कदय़ फ़ोन पर ? श़यद आसऽलए कक वो ऄभा सिनने के ऽलए तैय़र नहं थ़, श़यद आसऽलए कक ईसे ऄभा समझ नहं अएग़ - ऽजतऩ कोइ टीटत़ है, ईतऩ हा ईसे जिड़ऩ अत़ है । श़यद आसऽलए कक ईसे दिःख ने ऄभा तोड़ नहं थ़… दिःख क़ ईसे पत़ हा नहं थ़ । ह़ँ, श़यद आसऽलए भा नहं कह़ ईसे कक ऄगर वो पीछ बैठत़ -- तिम्हं कै से पत़ ? ♦♦♦

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व्यंग्य

।। ऄथ श्रा झोल़पिऱणम् ।। नारज शम़म

"लो भील गए न झोल़ ! चल कदए ह़थ ऽहल़ते हुए ब़ज़़र को।" "ऄरे भ़इ! ज़ऱ झोल़ तो देऩ, ब़ज़़र ज़ रह़ हूं ।" "ऄब कह़ं से ल़उं झोल़? घर मं एक भा झोल़ नहं है ।" "स़हब ! झोल़ ल़आए, तब ऽमलेग़ स़म़न वऩम हमसे लंगे तो प़ंच रुपए प्रऽत झोल़ अपको ऄद़ करने हंगे ।" "हम क्यं दं प़ंच रुपए, तिम्हं देऩ च़ऽहए स़म़न के स़थ"जैसा नंक-झंक रोज़ क़नं से टकऱने लगा हं । आस प्ल़ऽस्टक, ब़ज़़र व सरक़र की करतीत है सब और भिगतना पड़ रहा है बेच़रा ऽनदोष, म़सी…म सा जनत़ को । पहले तो झोल़ लेकर चलने की अदत छि टव़ दा, ऄब वहा प़ठ य़द करने को मजबीर कर रहे हं । वो कदन भा क्य़ कदन थे, िट़ प़ज़म़ भा बेक़र नहं ज़त़ थ़ । असन िट़ नहं कक ट़ंगं के भ़ग ज़ग ज़ते थे । झट से झोल़ तैय़र ! एक पंथ दो क़ज। पर ऄब तो प़यज़मे भा नहं रहे। लोऄर, थ्रािोथम, चीड़ाद़र पत़ नहं ऄल़य-बल़य ककसककस ने हऽथय़ ऽलय़ प़यज़मे क़ घर और कर कदय़ बेदखल ईसे झटके से । ऄब तो ट़गं को जंस से ऽनकलकर ऽमऽनस्कटम मं खिलकर स़ंस लेने क़ मौक़ भा ऄक्सर ऽमल हा ज़त़ है। खैर! हम तो झोल़पिऱण पढ़ रहे थे न! कि छ के मसलन म़स्टर, कऽव, पंऽडत वगैरह के तो व्यऽक्तत्व की पहच़न हा झोल़ थ़, है व रहेग़ । दीर से देखकर हा पत़ चल ज़त़ है कक कौन ज़ रह़ है । झोले के स़थ लम्बे ब़ल हं तो कऽव, पाछे चोटा हो तो पंऽडत वऩम म़स्टर हा होग़। पर ह़ं, झोल़ सबमं कॉमन है य़ऽन कक हं सब झोल़छ़प हा । लेककन ईनके ऽलए भा ऄब तो पहच़न क़ संकट खड़़ हो गय़ है क्यंकक ऄब सभा एक जैसे हो गए हं झोल़छ़प । ISSN –2347-8764

कहते हं न आऽतह़स स्वयं को दोहऱत़ है । हम़रा मील संस्कु ऽत भा देखो झोले के बह़ने व़पस लौट रहा है । भगव़न ऱमजा भा वन को गए थे तो ईनके कं धे पर झोल़ ऽवऱजम़न थ़ । देख़ नहं िोटि ओं मं, एक कं धे पर धनिषब़ण व दीसरे पर झोल़ टंग़ रहत़ है । और तो और स़ंईंब़ब़ क़ तो हर समस्य़ क़ सम़ध़न झोले से हा ब़हर अत़ थ़। ब्रह्म़ जा भा क़िी दीरदशी व समझद़र थे । यिगं पहले हा ईन्हंने आं स़ना शरार क़ फ्रीहंड ऽडज़आन करते समय बगल क़ ऽनम़मण कर कदय़ थ़… झोल़ ट़ंगने के ऽलए । वहं ऩरद जा भा ककसा से कम नहं, झोल़ ट़ंगे, मंजाऱ बज़ते, ऩऱयण – ऩऱयण करते, ट़पते किरते हं आधर से ईधर । बेटे य़ बेटा के ब़प की बगल तो सद़ सिशोऽभत रहता है एक ऄदद झोले से, श़दा-ब्य़ह मं । वो ईसे एक क्षण के ऽलए भा ऄपने से ऄलग नहं करते, जब तक ब्य़ह न ऽनपट ज़ए । ऩमज़ी से हा सहा झोल़ तो ऄपऩऩ हा पड़ेग़। और कोइ हो न हो, शहर के नदाऩले, ग़य-भंस, ज़नवरं की खिशा क़ तो प़ऱव़र नहं है । नदा – ऩले तो ब़क़यद़ ईछल-ईछल कर ऄपना खिशा जत़ भा रहे हं । झोल़छ़प क़ सद़बह़र टैग यकद ककसा की झोला मं ज़त़ है तो वह है, तथ़कऽथत भगव़न क़ ऄवत़र धरता पर । नहं समझे - ऄरे भइ डॉ..क्ट..र !! वो भा ऽबऩ झोले के झोल़छ़प ! सबसे ररस्की क़म है ईनक़ । ये डरते नहं ककसा से भा । धड़ल्ले से कदम़ग के झोले से कोइ भा दव़ ऽनक़लकर दे ड़लते हं, किर च़हे जो हो, ऽबऩ डरे क्यंकक आनके मराज़ भा आन्हं की तरह होते हं – झोल़…छ़प। दोनं एक से… बेपढ़े… झोल़छ़प…।

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सबको झोल़ पकड़़ने व़ला सरक़र आनक़ झोल़ छानने पर अम़द़ रहता है हरदम । न ज़ने क्य़ दिश्मना है आनके झोले से। पर ये भा बड़े श़ऽतर होते हं, ऽछनते हा कि छ कदनं ब़द किर थ़म लेते हं झोल़, ह़थ मं । बचपन मं एक क़बिलाव़ल़ हुअ करत़ थ़, ईसके झोले से बच्चं को डऱय़ ज़त़ थ़ । घर से ब़हर न ऽनकलऩ वऩम क़बिलाव़ल़ झोले मं ड़लकर ले ज़एग़ । ककतने स़रे धमम एक स़थ ऽनभ़त़ थ़ झोल़। कोइ म़मीला चाज़ नहं है यह । झोले की महत्त़ ईसके वज़न पर भा ऽनभमर करता है । छोटे स्की ल ज़ने व़ले बच्चं क़ बस्त़निम़ झोल़ सबसे भ़रा होत़ है । ग्य़न क़ आतऩ भंड़र भऱ रहत़ है ईसमं कक ढोते ढोते कमर तक टी ट ज़ता है बेच़रं की, सबकी बल़ से । कोइ छोट़, कोइ बड़़ कइ ऩप के होते हं झोले । सबसे बड़़ होत़ है सत्त़ क़ झोल़ । स़ल मं एक ब़र हा, सत्त़ के घर मं खिलत़ है व ककसा को हंसा तो ककसा को अंसी दे ज़त़ है, पर नेत़ओं की लपलप़ता जाभ को सदैव अऱम देत़ है । हे ब्रह्म़जा ! अपने झोले के ऽलए बगल बऩइ है तो हम त़सिज़दगा ईसक़ म़न रखंग,े बस अप सबके झोले भरे रखऩ । ।। आऽत झोल़ पिऱणम् ।। ♦♦♦ सरल कि टार, अयम नगर, नइ बस्ता ऽबजनौर-246701 िोन- 09412713640

कऽवत़ पीनम सिसह पीनम ♦ बहुत हुइ ख़मोशा तेरा मेरा चल अ सिजदगा ! कि छ घड़ा स़थ ऽमल कोइ िस़ऩ ऽलख ज़एं । ♦♦♦

ISSN –2347-8764

कऽवत़

ररमऽझम ररमऽझम मंजल ि ़ ऄरगरे ऽशन्दे हर अहट पर झ़ँक झरोखे से मं व़पस हो लेत़ हूँ झड़ा लगा है स़वन की भा अस तिम्ह़रे अने की ऄब मन की तड़पन और बढ़़ए श्य़म सलोने बदऱ छ़ये ररमऽझम ररमऽझम प़ना अए लहऱकर जब अँचल ऄपऩ ,पवन कड़ा दर की खटक़ए मन की ठकठक की ऽचरपररऽचत ध्वऽन , अस स्मुऽत जग़ए सिमधिर स्वर ब़ररश क़ रुनझिन प़यल की झन्क़र सिऩए श्य़म सलोने बदऱ छ़ए ररमऽझम ररमऽझम प़ना अए देख घट़एं कजऱरा जब मन , क़नन मं किर किर अए नालकं ठ तब पंख पस़रे नुत्य करे और झीम के ग़ये गरजे बदऱ , चमके ऽबजिरा ब़ररश भा रफ़्त़र बढ़़ए श्य़म सलोने बदऱ छ़ए ररमऽझम ररमऽझम प़ना अए भागं वुक्ष लत़एँ देखो , पवन आन्हं झीलऩ झिल़ए द़दिर ईछल ईछल कर टेरं कोककल की क मल्ह़र सिऩए रुत भागा , तन मन भा भाग़ भागे रमणा , और लज़ये श्य़म सलोने बदऱ छ़ए ररमऽझम ररमऽझम प़ना अए चपल द़ऽमना चमक चमक कर क्षण भर ऄपऩ रूप कदख़ए ऄंगभंऽगम़ दश़म कर वो मेघं मं खो लिक छि प ज़ए ईसे पिक़रे श्य़म बदरव़ गरज गरज जग को थऱमए श्य़म सलोने बदऱ छ़ए ररमऽझम ररमऽझम प़ना अए ♦♦♦

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स़क्ष़त्क़र

गिजऱता स़ऽहत्य के मीधन्म य कथ़क़र

कदनकर जोशा संव़द : संतोष श्राव़स्तव

गिजऱता भ़ष़ के वररष्ठ कथ़क़र, ईपन्य़सक़र श्रा कदनकर जोशा क़ रचऩ संस़र बहुत व्य़पक है । एकत़लास ईपन्य़स, ग्य़रह कह़ना संग्रह और कइ संप़कदत पिस्तकं सऽहत ऄब तक ईनकी कि ल एक सौ दस पिस्तकं प्रक़ऽशत हो चिकी हं । स्वभ़व से हँसमिख और ऽवनम्र कदनकर जोशाजा से ऽमलने जब मेऱ ईनके ऑकफ़स ज़ऩ हुअ, तो मेरे मन मं ईनके लेखन और जावन को लेकर कइ सव़ल थे – प्रश्न- स़ऽहत्य की ओर अपक़ जन्मज़त झिक़व थ़ य़ कोइ ब़ह्य प्रेरण़ ? ईत्तर- स़ऽहत्य के प्रऽत झिक़व मं ऐस़ म़नत़ हूँ कक जन्मज़त हा होत़ है । जब तक ककसा कल़ के ऽलए ऄंदर से लग़व पैद़ नहं होग़, ब़ह्य प्रेरण़ के क्य़ म़यने हंगे ? मं जब नौ स़ल

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क़ थ़ तो भय़नक कमर ददम ने मेरे शरार को दबोच ऽलय़ जो अज भा मिझे परे श़न करत़ है । तब ईतना छोटा ईम्र मं ददम ऽनव़रण के ऽलए मिझे डेढ़ ि​ि ट चौड़े और छै: िीट लम्बे लकड़ा के तख़्ते पर ऽलट़य़ ज़त़ थ़ । लगभग दो स़लं तक वहा तख़्त़ मेरा शैय्य़ रह़ । ईस तख़्ते पर लेटे-लेटे मंने ऄपने ऄके लेपन को कलम के ज़ररए ऽनक़लऩ शिरू ककय़ । वहा मेरे लेखन की शिरुअत था । प्रश्न- प्रक़शन क़ ऽसलऽसल़.... अज जो अपकी आतना ककत़बं प्रक़ऽशत हुइ हं, पहला ब़र अपकी रचऩ कब, कै से प्रक़ऽशत हुइ ? ईत्तर- ईतना छोटा ईम्र मं ऄपऩ ऩम ककसा पऽिक़ मं छप़ देखऩ सबसे बड़़ अकषमण थ़ । ईन कदनं गिजऱत की एक ब़ल म़ऽसक पऽिक़ ऽनकलता था ‘रमकड़ी’ जो बेहद लोकऽप्रय था । ईसमं १२ से १६ स़ल के बच्चं की एक स्पध़म अयोऽजत की गया था, ऽजसमं मंने दीसऱ स्थ़न प़य़ थ़ । ऄपना िोटो को पऽिक़ मं देख मिझे जो नश़ चढ़़ ईसक़ बय़न मिऽश्कल है। ईन्हं कदनं मेरे ह़थ ‘ग़ँधाजा की अत्मकथ़’ पिस्तक लगा ऽजसे पढ़कर मंने सोच़ कक जब ग़ँधाजा ऄपना ब़त कह सकते हं तो मं क्यं नहं ? मंने भा ऄपना अत्मकथ़ ऽलखना शिरू की य़ना की जो क़म ऄंत मं करऩ च़ऽहए वो पहले ककय़ । ईसक़ प्रक़शन हा मेरा रचऩओं के प्रक़शन क़ ऽसलऽसल़ बऩ । प्रश्न- यह सिनकर तो मेरा अपके अरं ऽभक जावन के ब़रे मं ज़नने की ऽजज्ञ़स़ बढ़ गया ! बत़एँगे? ईत्तर- मं तो देह़ता हूँ। भ़वनगर ऽजले के ऩगधऽनब़ ग़ँव मं मेरा पैद़आश के समय भऱ पीऱ पररव़र च़च़, त़उ सभा थे ईसमं..... ऄंग्रेज़ं क़ ज़म़ऩ थ़ । ग़ँव ऽबल्कि ल ऽपछड़़ हुअ थ़ । प़ना, ऽबजला, ऄस्पत़ल, दव़एँ, प़ठश़ल़ सभा से वंऽचत ऐसे ग़ँव को छोड़कर मेरे ऽपत़ चौदह स़ल की ईम्र मं ऄके ले हा मिम्बइ अ गए और यह़ँ कपड़़ ब़ज़़र मं क़म करने लगे । कइ स़लं तक वे त्योह़रं मं ग़ँव अते-ज़ते रहे । 1940 मं हम पररव़र सऽहत मिम्बइ अ गए । मंने भ़वनगर से मैरिक प़स ककय़ थ़। मैरिक प़स करऩ भा मेरे ऽलये जोऽखम भऱ थ़ क्यंकक जेब मं रुपए नहं थे और मैरिक क़ िॉमम पंरह

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रुपए मं अत़ थ़ । ऽपत़जा ने मेऱ ऽवव़ह को समझ़ और यथ़थम को ऄपने कराब प्रश्न- ‘स्त्रा ऽवमशम’ जैसे मिद्दे पर अप कि छ भा कर कदय़ थ़ । मिझे पढ़़इ के स़थ-स़थ प़य़ । मंने मनिष्पय की खोज शिरू कर दा । कहऩ च़हंगे ? क्य़ व़कइ स्त्रा ऽवमशम को नौकरा की भा बेहद ज़रुरत था । वह़ँ के 1985 तक मंने कु ष्पण और ग़ँधा पर बहुत लेकर हुए अन्दोलन, य़, स्त्रा मिऽक्त कलेक्टर के बेटे के स़थ मेऱ ईठऩ-बैठऩ ऄऽधक क़म ककय़ । दो ईपन्य़स ऽलखे – अंदोलन अकद पर गरम़या चच़म से कि छ थ़ और ईसा के कहने पर कलेक्टर स़हब प्रक़शनो पडछ़यो और श्य़म किर एक पररवतमन हुअ है ? ने मिझे कलेक्टरे ट ऑकफ़स मं नौकरा दे दा । ब़र अओ ने अँगणे..... दोनं के ऽहन्दा ईत्तर- पहला ब़त तो ये कक ‘स्त्रा ऽवमशम’ नौकरा तो संतोषजा मंने कइ जगह की । ऄनिव़द अ चिके हं । ईसके ब़द मंने स्वयं और ’स्त्रा मिऽक्त अंदोलन’ को मं कोइ सौऱष्ट्र के चोटाल़ ग़ँव मं की, वारमग़ँव की खोज की जो अज तक ज़रा है । तो मेरे अंदोलन नहं बऽल्क ऄऽभय़न कहूँग़ । मं रे लवे मं की । रे लवे की नौकरा ने मिझे जावन के तान नज़ररए हं - ऄऽभव्यऽक्त, ऄऽभय़न अप ककसा भा ब़त पर चल़ व्य़वह़ररक ज्ञ़न क़ पहल़ प़ठ पढ़़य़ । मनिष्पय की खोज और स्वयं की खोज । सकते हं । मिझे य़द अ रह़ है जेनेन्र मेऱ क़म थ़ य़डम मं ज़कर वैगन की प्रश्न- चऽलए ऄऽभव्यऽक्त की हा ब़त करते कि म़र क़ ईपन्य़स ‘त्य़गपि’, ऽजसमं ऽगनता कर ररपोटम तैय़र करऩ । ईन्हंने एक ककशोर वय की लड़की की यह क़म श़म को छै : से ब़रह मन:ऽस्थऽत क़ वणमन ककय़ है । मह़देवा बजे ऱत तक करऩ पड़त़ । वम़म ने जेनेन्र कि म़र से प्रश्न भा ककय़ थ़ पथराला ज़मान पर आतना देर तक कक पिरुष होकर अपने कै से एक स्त्रा की दौड़-दौड़ कर वैगन की ररपोटम मनोदश़ ज़ना ? जेनेरजा ने कह़ कक क्य़ तैय़र करने मं एक हा कदन मं मेरा आसके ऽलए पिरुष होऩ अवश्यक है ? जह़ँ रबर की चप्पलं जगह जगह से टी ट तक स्त्रा मिऽक्त की ब़त है मंने कभा ऄपना गइ, दरक गईं । मंने चप्पलं पत्ना को घीघ ँ ट नहं करने कदय़, लड़के सऽहत जब पैरं मं रुम़ल ब़ँध़ तो लड़की मं फ़क़म नहं रख़... ईस ज़म़ने मं वह़ँ बैठे एक ऄधेड़ ईम्र के रे लवे स्त्रा मिऽक्त ऄऽभय़न की शिरुअत मंने ऄपने कममच़रा ने मिझे बैठ़कर च़य हा घर से की । अज हम ऽजस स्त्रा ऽवमशम ऽपल़इ, सल़ह दा कक जा०अर० की ब़त कर रहे हं स्त्रा लेखकं ने ढेर स़रा मं वैगनं की संख्य़ दज़म है... द़एं से संतोष श्राव़स्तव, कदनकर जोशा और हेम़ म़ऽलना ककत़बं ऽलखं । अपकी ककत़ब ‘मिझे ईसके ऽलए आतने परे श़न मत हो जन्म दो म़ँ’ को आस संदभम मं य़द म़नद् पाच.डा. ईप़ऽध लेते हुए । जा०अर० व़ला ब़त सैि़ंऽतक करूँग़ । अपने तो पीऱ शोधग्रंथ हा है और ल़आन (रे लवे) व़ला ब़त हं । स़ऽहत्य की गद्य और पद्य ऽवध़ओं मं ऽलख ड़ल़ । प्रभ़ खेत़न और मैिेया पिष्पप़ व्य़वह़ररक । ईस कदन मिझे पहला ब़र लेखक के ऽलए कौन सा ऽवध़ को की ककत़बं भा य़द अ रहा हं । पिरुष एहस़स हुअ कक जावन मं व्य़वह़ररक ऄऽभव्यऽक्त के ऽलए अप सहज म़नते हं, लेखकं द्व़ऱ भा स्त्रा प्रश्नं पर बहुत कि छ होऩ ककतऩ ज़रूरा है । मंने आस घटऩ क़ ईपयिक्त प़ते हं? ऽलख़ ज़ रह़ है । सबसे महत्वपीणम तो ईल्लेख ऄपने एक लेख मं भा ककय़ है । ईत्तर- मं तो कथ़क़र हूँ । कह़ना मं मन के ऱजेन्र य़दव ने हा ऽलख़ । गिजऱता, प्रश्न- लेखन के प्रऽत अपक़ नज़ररय़ क्य़ ऄच्छे बिरे भ़वं को हम प़िं के ज़ररए ऽहन्दा दोनं मं आस मिद्दे पर क़िी लेखन रह़ ? एक स़ऽहत्यक़र के रूप मं अपने ऽलख लेते हं । झीठे चररि भा गढ़ लेते हं । हुअ है और ऽनंय हा पररवतमन अय़ है । ऄपने नज़ररये को कै से प्रस्तित ककय़ ? कथ़क़र को ऽलखने के ऽलए एक बड़़ स्पेस स्त्रा ने सकदयं से बंद होठ खोले हं । ईत्तर- मेरे जावन मं कु ष्पण और ग़ँधा क़ ऽमलत़ है लेककन कऽवत़ मं थोड़े मं बहुत प्रश्न- ऄभा ह़ल मं हा अपको जे०जे०टा० बहुत महत्व रह़ । ऄगर मं कहूँ कक यहा कि छ कहऩ पड़त़ है । ऊग्वेद मं अच्छ़दन ऽवश्वऽवद्य़लय से पाएचडा की म़नद मेरे लेखन के दुऽिकोण के अध़र रहे तो शब्द अत़ है । अच्छ़दन य़ना छ़य़ हुअ ईप़ऽध ऽमला, पहले भा कइ ऱष्ट्राय स्तर के ग़लत नहं होग़ । जब मंने कलम पकड़ा तो ईस छ़ए हुए को हट़ दो तो सिदयम पिरस्क़र ऽमल चिके हं । क्य़ पिरस्क़रं से था तो बड़़ ऄसंभव लगत़ थ़ लेखक प्रगट होत़ है । अच्छ़दन छन्द है, य़ना लेखक क़ ईत्तरद़ऽयत्व बढ़ नहं ज़त़ ? बनऩ, अत्मऽवश्व़स की कमा महसीस कऽवत़ । कऽवत़ मं आसा सिदयम को खोजऩ ईत्तरजे. जे. टा. ऽवश्वऽवद्य़लय से करत़ थ़ लेककन ऄपना बाम़रा की वजह पड़त़ है । आसाऽलए तो कह़ गय़ है, जह़ँ पाएचडा की म़नद ईप़ऽध प्ऱप्त होऩ मेरे से ऽजस ऄके लेपन को मंने सह़ ईसा ने मिझे न पहुँचे रऽव वह़ँ पहुँचे कऽव । लेककन ऄब जावन की एक बड़ा ईपलऽब्ध है । वैसे मिझे ऽसख़य़ कक खिद को ऄऽभव्यऽक्त के द्व़ऱ गद्य मं कऽवत़एँ ऽलखा ज़ रहा हं, ऽजसने गिजऱत ऱज्य सरक़र के प़ँच पिरस्क़र, प्रस्तित करो । और जब मंने ऄपने ऄंदर के आस ध़रण़ को ग़लत स़ऽबत कर कदय़ है गिजऱता स़ऽहत्य पररषद् क़ ‘ईम़ नेह ईब़ल को ऄऽभव्यक्त ककय़ तो मेऱ कक छन्द के ऽबऩ कऽवत़, कऽवत़ नहं रऽश्म प़ररतोऽषक’ तथ़ गिजऱत अत्मऽवश्व़स दुढ़ हुअ । मंने जावन संघषम होता । ऽथयोसोकिकल सोस़आटा क़ ‘मैडम ISSN –2347-8764

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ब्लेवेर्टस्की ऄव़डम’ प्ऱप्त हो चिके हं । लेककन आससे मेरे लेखन के प्रव़ह मं कोइ ऄंतर नहं अय़ । जैस़ मं पहले ऽलखत़ थ़, अज भा ऽलखत़ हूँ । ऽलखऩ एक जन्मज़त प्रकक्रय़ है, आसऽलए जो स्व़भ़ऽवक होत़ चलत़ है वह होत़ हा है । ऄगर मं कहूँ कक पिरस्क़रं से लेखन के प्रऽत मेऱ ईत्तरद़ऽयत्व बढ़ गय़ है तो वह ऄनिऽचत होग़ । मिझे जब पिरस्क़र नहं ऽमले थे तब भा मं पीरा इम़नद़रा से लेखन करत़ थ़ और अज भा जब पिरस्क़र ऽमल चिके हं, ईसा लगन, इम़नद़रा और ईत्तरद़ऽयत्व को ऽनभ़त़ हुअ लेखन करत़ हूँ । लेखन मेरे ऽलए कि छ देने य़ प़ने की प्रकक्रय़ नहं बऽल्क मेऱ जिनीन है । प्रश्न- अपकी प्रऽतऽनऽध रचऩ कौनसा है? ईत्तर- प्रक़शनो पडछ़यो । आसे प़ठकं ने बहुत ऄऽधक पसंद ककय़ । आसक़ ऄनिव़द सीरज प्रक़श ने ईज़ले की परछ़इ ऩम से ककय़ है । वैसे मं ऄपना प्रत्येक रचऩ मं कहं न कहं स्वयं मौजीद रहत़ हूँ । तो यह बत़ऩ बहुत करठन है कक कौन सा रचऩ मेरा प्रऽतऽनऽध रचऩ है । जो ककत़ब बहुत ऄऽधक लोकऽप्रय हो ज़ता है वो भा तो प्रऽतऽनऽध रचऩ बन ज़ता है । प्रश्न- स़ऽहत्य मं माऽडय़ की भीऽमक़ को अप ककस हद तक म़नते हं? ईत्तर- नसिथग, माऽडय़ ऽसफ़म घटऩ को ईछ़लकर जनत़ को प्रवोक करता है, स़ऽहत्य से ईसक़ दीर-दीर तक कोइ ऩत़ नहं है । कदनकर जोशाजा से मेरा यह मिल़क़़त स़ऽहत्य के कइ अय़मं को ब़तचात के म़ध्यम से स़मने रखते हुए जब सम़प्त हुइ और जब मंने ईनसे ऽवद़ ला तो मिझे लग़ जैसे भ़रतेन्दि यिग की सैर करके ऄभा-ऄभा मेऱ लौटऩ हो रह़ है ।

♦♦♦ 101, के द़रऩथ को-ह़ईसिसग सोस़आटा सैक्टर-7, ऽनकट च़रकोप बस ऽडपो, क़ँकदवला पऽंम, मिम्बइ - 400067

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लघिकथ़

प़र्किकग गौऱंग लसिवगाय़

आस धरता पर सभा जगह पीरा तरह से भर गइ था । लेककन आस ‘ऄ’ को एक नइ जगह ढी ँढने की बड़ा जरुरत था, क्यंकक ईसक़ पररव़र ईसके स़थ थ़ । सिबह होते हा आस मह़क़य मह़नगर मं ‘ऄ’ ने ऄपने ऽलए नया जगह तल़शऩ अरम्भ ककय़ । ‘ऄ’ चिपके से दीरदऱज के छोटे-से कस्बे से आस मह़नगर मं घिस गय़ थ़ । घड़ा मं पौने अठ बज रहे थे । पर ऐस़ लगत़ थ़, जैसे व़हनं पर सव़र आं स़नं क़ बड़़ जिलीस अगे बढ़ने को ईत़वल़ हो रह़ है । जिलीस ऽसग्नल की ल़ल ल़इट के स़मने खड़़ घीरत़ नज़र अत़ थ़ । िैकिक को ऽनयंऽित करने के ऽलए कदन-ब-कदन िी टप़थं की चौड़इ मं कटौता हो रहा था। ऽबलकि ल स़मने हा ऑवर ब्राज क़ कं स्िक्शन चल रह़ थ़ । ‘ऄ’ अगे चल़ । मन मं प्रश्न िी ट पड़़ । सीरज ऄभा तक क्यीँ सोय़ हुअ है ? ‘ऄ’ ने गौर से देख़ तो सीरज ऽनकल अय़ थ़ ककन्ति अक़श को छी ने की स्पध़म लग़ता ह़इऱआज़ ऽबसिल्डग के पाछे वो चिपच़प छि प़ हुअ थ़ । वो श़यद आसऽलए चिपके से देख रह़ थ़ कक ज़मान पर आं स़नं ने कोइ जगह छोडा नहं था और ऄब वो अस़म़न को हड़पने की कोऽशश मं लग़ है । ‘ऄ’ और अगे बढ़़ । ईसने प़र्किकग प्लेस देख़ । वह़ँ पर बहुत स़रा मोटरक़र और मोटरस़इककल बड़ा ऽनऽंन्त होकर अऱम िरम़ रहा थं । श़म होने लगा । आस मह़नगर को क़ल़ ऄंधक़र ऄपना चपेट मं ले ले, ईससे पहले हा वो ऄनऽगनत ल़इटं से झगमग़ने लग़ । तब ‘ऄ’ थककर मह़नगर के दीसरे छोर पर पहुँच गय़ । यक़यक ‘ऄ’ की अँखं मं चमक अइ । वो ऄपने कद की एक दाव़र के प़स बैठ गय़ । ईसा वक्त एक चौकीद़र ‘ऄ’ के प़स अय़ । ‘ऄ’ ने वह़ँ से चलता पकड़ा । ज़ते ज़ते ‘ऄ’ को दाव़र के प़स से बहुत बड़ा, खिला सा ज़मान कदख़इ दा । ईसा वक्त चौकीद़र ने ऄपने ह़थ मं रहा ल़ठा से एक बोडम की ओर आश़ऱ ककय़ । ईस बोडम पर ऽलख़ थ़ – ‘नो प़र्किकग !’ *** श्रा वुन्द़वन, दिक़न नं. 36, ग़ंधा कोम्प्लेक्स, हनिम़न गेट के ऄंदर, मि. बोट़द पान – 364710

ह़पमर ला क़ ऽनधन 1960 मं ऽलखे गए ईपन्य़स टी ककल ए मॉकिकगबडम के ऽलए पिऽलत्जर पिरस्क़र ऽवजेत़ लेऽखक़ ह़पमर ला क़ ऽनधन हो गय़। ईन्हंने शिक्रव़र को ऄमेररक़ के ऄलब़म़ ऱज्य ऽस्थत ऄपने गुहनगर मनरोऽवले मं अऽखरा स़ंस ला। बत़ दं कक ह़पमर ऄपने टी ककल ए मॉकिकगबडम ईपन्य़स की वजह से दिऽनय़ भर मं ज़ना गईं और आन ईपन्य़स को दिऽनय़ भर के छ़िं को पढ़़य़ ज़त़ है। यह ईपन्य़स रं गभेद की पुष्ठभीऽम पर ऽलख़ गय़ थ़। बाते स़ल तक आस ईपन्य़स की 4 करोड़ प्रऽतय़ं ऽबक चिकी हं। आतऩ हा नहं ह़पमर के आस ईपन्य़स पर बना किल्म को ऽनदेशन और पटकथ़ के ऽलए 1962 मं ऑस्कर ऄव़डम ऽमल़ थ़। - वारे न्रसिसह सोलंकी (ऽसलव़स़-गिजऱत) ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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कह़ना

बेटा प्ऱंजऽल ऄवस्था

पीस की सदम अधा ऱत मं अज िटे कपड़ो से भा ठण्ड कलिअ की हऽ्यं को कँ पकप़ने मं ऩक़म था । ऄपना झोपड़ा के ब़हर चहलकदमा करत़ हुअ कलिअ ऄपने दोनं ह़थं को तेजा से भंचत़ और मलत़ ज़त़ और असम़न की तरि मिँह ईठ़ कर तेजा से बिदबिद़त़ ज़ रह़ थ़ - "हे देवा मय्य़ जा लड़क़ हा पैद़ हो हम़र जमिऽनय़ को ऽबरटय़ ऩ होय ।" जमिऽनय़ ददम से कऱह रहा था । कलिअ की हर िररय़द के स़थ ईसक़ ददम भा बढ़त़ ज़त़ थ़ और किर बस कि छ हा क्षण ब़द बच्चे क़ रूदन सन्ऩटे को चार गय़ । द़इ तेजा से झोपड़ा से ब़हर अइ, "रे कलिअ ! लक्ष्मा अया है तोह़र घर म़ँ" कलिअ को ऐस़ लग़ जैसे ककसा ने ईसके क़नं मं ऽपघलत़ शाश़ ड़ल कदय़ हो । वो अव़ज भा नहं ऽनक़ल सकत़ आतना ठण्ड मं भा चिहचिह़ अइ पसाने की बीँदो को स़िे से पंछते हुए बोल़, "क़की ऽधय़न से तो देख लओ कहं मोड़़ तो नहं ।" द़इ से कहत़ हुअ वो दौड़ कर जमिऽनय़ की च़रप़इ के प़स पहुँच़ । नन्हं सा बच्चा ऐसे ह़थ पैर चल़ रहा था, जैसे बस ऄपने ऽपत़ के गले लग ज़ऩ च़हता हो ऄपने बच्चे को ऐसे ऄपना अँखं के स़मने देख एक पल को कलिअ क़ हृदय प्रेम से भर गय़ । जैसे हा झिक कर वो ईसे ईठ़ने को हुअ, ईसको पड़ोस के रज्जन चच़ की दहेज की अग से जला ऽबरटय़ प़रो क़ चेहऱ अँखं के स़मने घीम गय़ । ईसकी भुकिरटय़ँ तन गईं ह़थं को झटक कर जमिऽनय़ को द़इ के स़थ छोड़ कर वो झोपड़ा से ब़हर ऽनकल गय़ । चौऱहे की ि​ि टप़थ पर तम्ब़की मलते ज़ते ईसके कदम़ग मे बस यहा थ़ कक कै से वो ऽबरटय़ ऩम के बोझ को ढोएग़ । ईसे य़द अय़ जिम्मन चच़ कहते थे कक तम्ब़की मं ऄिीम ऽमल़ कर चट़कर ईन्हंने आस बोझ से छि टक़ऱ प़य़ थ़। अज ईनके च़र बेटे हं कोइ पंक्चर जोड़त़ है कोइ परचीना की दिक़न करे है । चच़ ककतने सिखा हं। कम़य़ खचम ककय़ कोइ दहेज जोङने की ऽचन्त़ नहं । ख्य़ल अते हा वो तेज कदमं से ऄपना झोपड़ा की तरि चल कदय़ । ऄंदर पहुँच कर बोल़, "ल़ जमिऽनअ ऽबरटय़ देओ" "क़ऐ को", जमिऽनअ बोला । ISSN –2347-8764

"जे मोड़ा हम़र घर के ल़ऐं ऩहं है, मोड़ा तो ऄमारन के घर म़ नाक ल़गत है ", कलिअ ने सप़ट-स़ ईत्तर कदय़ । "तिम क़ कररहो ज़के संगे ? हमं तोह़र ऽनयत ठाक नहं ल़गत । हम न देव", जमिऽनअ समझ गइ था कलिअ के मन खोट है । "ऄरे दरद ऩ होइ बस तम्ब़की चट़ऐं ज़के और खेल खतम हुइ ज़व ।" कलिअ ने धारे से ईसे समझ़ते हुए कह़ । ऄपने बच्चे की मौत की अशंक़ से भा जमिऽनअ क़ हृदय क़ँप ईठ़ वो ऄपना बेटा को छ़ता से ऽचपक़ कर क्रोध से ि​िँ िक़रते हुए बोला, "हम ऩ देव हम मर ज़इ पर हम़र बेटा ऩ देव हम चला ज़इ कोन्हई और प़ल लेव हम़र मोड़ा । मजीरा करब पर तोह़र ऩ देइ ।" जमिऽनअ के क्रोध के अगे कलिअ की ऽहम्मत ऩ हुइ कक बेटा ईससे छान प़त़ और वो ऄपऩ-स़ मिँह लेकर बड़बड़़त़ हुअ चल़ गय़ । बेटा क़ ऩम बड़े हा प्य़र से लक्समा य़ना लक्ष्मा रख़ जमिऽनअ ने । ऄब वो भा कलिअ के स़थ मजदीरा करने ज़ने लगा था । लक्ष्मा स़थ हा रहता कि छ दीरा पर खेलता य़ सोता पर जमिऽनय़ ईसे अँखं से ओझल ऩ होने देता । धारे धारे कलिअ भा ऄपना बेटा को च़हने लग़। तोतला जिब़न मं जब ऽपत़जा दोदा (गोदा) ऽचल्ल़ता तो कलिअ ईसको साने से लग़ लेत़ । आसा तरह ल़ड़-प्य़र से बेटा क़ प़लन पोषण दोनं करने लगे । ऄब वो कक्ष़ प़ँच मं अ गइ था । जमिऽनअ ने ग़ँव की प्ऱआमरा प़ठश़ल़ मं लक्ष्मा क़ द़ऽखल़ करव़ कदय़ थ़ । ईस कदन कलिअ क़ साऩ ग़ँव व़लं के स़मने चौड़़ हो गय़ जब स्की ल के म़स्टर स़हब ने कह़ लक्ष्मा ने सबसे ज्य़द़ ऄंकं से कक्ष़ प़ँच ईत्ताणम की है । ऄब तो जमिऽनअ और कलिअ की अँखं मं एक हा सपऩ थ़ लक्ष्मा को पढ़़ ऽलख़ कर क़ऽबल बऩऩ । दोनं ऱत कदन मेहनत करने लगे ऽजससे बेटा क़ द़ऽखल़ शहर के बड़े स्की ल मं करव़ सकं । ऄब लक्ष्मा सिह स़ल की सिंदर सिशाल पढ़़की लड़की था आण्टर करने के ब़द वो कॉलेज मं द़ऽखल़ च़हता था । जमिऽनअ और कलिअ के ब़लं पर सिे दा की झलक कदखने लगा था । ऄथ़ह मेहनत से चेहरे कि छ ऽनस्तेज होते हुए भा संति ि थे कक

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बेटा की श़दा की भा ऽचन्त़ होने लगा था। दहेज के ऩम पर कि छ भा नहं जोड़़ थ़ ऄभा तक । कलिअ ने सब देखकर ऽनणमय ऽलय़ कक वो शहर ज़कर कि छ क़म धन्ध़ देखेग़ और ग़ँव मं जमिऽनय़ मजदीरा और सरपंच के घर मं क़म करे गा तभा कि छ हल मिमककन है । बेटा को पढ़़ने मं कोइ कसर नहं रखा पर ऄब खचे मिँह ब़ए स़मने खड़े थे कॉलेज की पढ़़इ और बेल की तरह बढ़ता ज़ता । बेटा की श़दा की भा ऽचन्त़ होने लगा था। दहेज के ऩम पर कि छ भा नहं जोड़़ थ़ ऄभा तक कलिअ ने । सब देखकर ऽनणमय ऽलय़ कक वो शहर ज़कर कि छ क़म धन्ध़ देखेग़ और ग़ँव मं जमिऽनय़ मजदीरा और सरपंच के घर मं क़म करे गा तभा कि छ हल मिमककन है । शहर मं कलिअ एक िै क्टरा मं मशान चल़ने क़ क़म करने लग़ । ऄब बेटा क़ द़ऽखल़ भा शहर के कॉलेज मं हो गय़ थ़ और कलीअ समय से घर पैसे भेज देत़ थ़ तान स़ल कब ऽनकल गए पत़ नहं चल़ । लक्ष्मा क़ ऩतक पररण़म घोऽषत हुअ । वो बहुत ऄच्छे ऄंको से ईत्ताणम हुइ था कक वह़ँ शहर मं कलिअ पर ग़ज़ सा ऽगर पड़ा िै क्टरा म़ऽलक ने रूपए चोरा क़ आल्ज़म लग़कर ईसे जेल मं डलव़ कदय़ थ़ । कलिअ को एक स़ल की सज़ हुइ था। कलिअ ने जमिऽनअ और लक्ष्मा को दिख के भवँर से और म़यीसा के ऄँधरे ं से बच़ने के ऽलए, ग़यब होने की खबर िै ल़ने के ऽलए, य़चऩ करके िै क्टरा म़ऽलक को मऩ ऽलय़ । ऄपऩ एक एक पल जेल मं ऽनदोष होते हुए भा वषम के सम़न क़टने लग़ । ऽचन्त़ यहा कक लक्ष्मा की श़दा क़ दहेज ऄब कै से जिट़एग़ श़दा तो करना हा है । बेटा पऱइ ऄम़नत है । ऄब क्य़ होग़ । और आसा तरह किक्र करते करते एक स़ल कट गय़ । ररह़ होकर वो साधे तेज कदमं से बस स्टॉप की तरि दौड़़ । ऄब ईसको ऽसिम ऄपना बेटा और पत्ना से ऽमलन की च़ह था । वो आसा ईधेड़बिन मं थ़ कक ऄब किर से मेहनत मजीरा करके ऽबरटय़ की श़दा क़ दहेज जोड़ेग़ । धीमध़म से ऄपना ल़डो को दिल्हन बऩकर ऽवद़ करे ग़ जब ज़गो तब सवेऱ ऄब वो समय बब़मद नहं ISSN –2347-8764

करे ग़ । यहा सोच रह़ थ़ कक ग़ड़ा क़ ह़नम बज़ और बस झटक़ देकर रूक गइ । ईसक़ ग़ँव अ चिक़ थ़ ऄब कलिअ पगडण्डा के ऱस्ते को पकड़कर जल्दा घर व़ला सड़क पर थ़ कक स़मने से जिम्मन चच़ और ग़ँव के कि छ लोगं ने ईसे अव़ज दा । बड़े हा सम्म़न से अवभगत करना शिरू कर दा जिम्मन चच़ द़ढ़ा पर ह़थ िे रते हुए बोले, "ओरे कलिअ ऽबरटय़ होय तो तोह़र जैस ग़ँव भर क़ ऩम रोशन कर दओ मोड़ा ने।" कलिअ हैऱन थ़ जिम्मन चच़ और ऽबरटय़ की त़राि ! “क़ हुअ चच़ हम तोह़र मतलब ऩ समझे", कलिअ ने अँखे िै ल़ते हुए पीछ़, "ऄरे तोह़र लक्समा कलक्टर बन गइ ।" बस जो कलिअ ईस ऱत असम़न मं मिँह ईठ़ कर ऽवनता कर रह़ थ़ ऽबरटय़ ऩ देव अज ईसके मिँह से ऄऩय़स ऽनकल हा गय़, "हम बेक़र ऄहा डरत रहे ऄपन ककस्मत खिद ल़वे हं जे ऽबरटय़ँ । देवा मय्य़ सबको ऽबरटय़ देव खिऽशय़ँ दे ।“ बस आतऩ सिनते हा ग़ँव व़लं ने ईसे हष़मऽतरे क से गोद मं ईठ़ ऽलय़ और कलिअ क़ चेहऱ अज गवम और खिशा से दमक ईठ़ । ♦♦♦

लघिकथ़

ग़ऽलय़ं चंरधर शम़म गिलरे ा

एक ग़ंव मं ब़ऱत जामने बैठा । ईस समय ऽस्त्रय़ँ समऽधयं को ग़ऽलय़ँ ग़ता हं । पर ग़ऽलय़ँ न ग़इ ज़ता देख ऩगररक सिध़रक ब़ऱता को बड़़ हषम हुअ । वह ग्ऱम के एक वुि से कह बैठ़, "बड़ा खिशा की ब़त है कक अपके यह़ँ आतना तरक्की हो गइ है ।" बिड्ढ़ बोल़, "ह़ँ स़हब, तरक्की हो रहा है । पहले गऽलयं मं कह़ ज़त़ थ़.. िल़ने की िल़ना के स़थ और ऄमिक की ऄमिक के स़थ.. लोग-लिग़इ सिनते थे, हँस देते थे । ऄब घर-घर मं वे हा ब़तं सच्चा हो रहा हं । ऄब ग़ऽलय़ँ ग़इ ज़ता हं तो चोरं की द़ढ़ा मं ऽतनके ऽनकलते हं । तभा तो अंदोलन होते हं कक ग़ऽलय़ं बंद करो, क्यंकक वे चिभता हं ।" ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

ग़ज़ल

ऄऽमत व़घेल़ ‘क़फ़ी’ ब़त छोटा सा समझ सकत़ नहं देखने मं ती बड़़ लगत़ नहं । बाच रस्ते छोड़ देते हं कभा क़किलं के स़थ मं चलत़ नहं । ढी ँढत़ है वो जगह महिी ज़ सा सब कदलं मं भा खिद़ बसत़ नहं । ती ऄगर होत़ तो किर भा सोचत़ वक्त पे ऽवश्व़स मं करत़ नहं । धड़कनं मं अ बस़ जब से सनम ि़सल़ खिद से कभा रखत़ नहं

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Plot No. 119, Apang Pariwar Vasahat, Sidsar Road, Bhavnagar-364002 (Gujarat)

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व्यंग्य

ऽमटंग क़ मतलब ऄरऽवन्द खेड़े दो-तान कदन की छि रट्टय़ं बात़कर देर ऱत को यह सोचकर लौट़ थ़ कक मं तो सरक़रा मिल़ऽज़म हूँ । कहं ह्ा-तोड़ क़म पर ज़ऩ तो है नहं । सिबह देर तक सोऩ है और सफ़र की थक़न ऽमट़ऩ है । लेककन ऄलसिबह हा िोन घनघऩ ईठ़ । बॉस क़ िोन थ़ । मेरा मॉर्डिनग ख़ऱब होने के ब़द भा मेरा गिड मॉर्डिनग क़ जव़ब कदए ऽबऩ वे ईधर से कह रहे थे कक ईन्हं ज़रूरा क़म से ब़हर ज़ऩ है. और अज की माटिटग मिझे लेऩ है । एक़एक मं चिक ईठ़ । ज़न ह़ऽज़र है,कहने मं क्य़ हजम है । यह सभा कहते भा अए है । म़ऩ कक यहा परम्पऱ है । लेककन आसक़ मतलब यह तो नहं की दे दो । मं बड़ा मिऽश्कल से ह़ँ कह प़य़ थ़ । क्यंकक मं नय़-नय़ रं गरूट थ़ । आसऽलए डर रह़ थ़ । ऄपने संऽक्षप्त ऽनदेश के ब़द हा ईन्हंने तिरंत फ़ोन रख कदय़ थ़ । यह ब़त बॉस भा ज़नते थे । आसऽलए कक कहं मं रोने-ग़ने न लग ज़उं? ऄब मं बड़ा ईलझन मं िं स गय़ थ़ । मिझे ऽबलकि ल समझ मं नहं अ रह़ थ़ कक मं माटिटग कै से ले सकीँ ग़ ?ऄब तक मंने बैठकं तो कइ ऄटंड की था । लेककन अज तक ला नहं था । क्यंकक अज तक मौक़ हा नहं ऽमल़ । य़ यीं कह ले कक मौक़ हा नहं कदय़ । मेरे ऽलए मिऽश्कल हो गइ.ऄब क्य़ होग़ ? मेरे ह़थ-प़ंव िी लने लगे थे । सोच़, बॉस को स़फ़स़फ़ बत़ दीँ कक मंने ऄभा तक माटिटग नहं ला है, आसऽलए मिझे मिऽश्कल होगा । लेककन कहने की ऽहम्मत नहं जिट़ प़ रह़ थ़ । पत़ नहं, बॉस को कि छ महसीस हुअ होग़ । मेरा परे श़ना को भ़ंपते हुए थोड़ा देर ब़द हा ईन्हंने मिझसे पीछ़ थ़ कक कोइ परे श़ना है क्य़ ?कोइ कदक्कत है ? मंने यह सोचकर कक ऄब मैद़न मं तो ईत़र हा कदय़ है, जो भा होग़ देख़ ज़येग़, ऄपना परे श़ना बत़ दा । बॉस ऩऱज होकर भा ऩऱज नहं हुए । जो बॉस ऩऱज न हो, वो बॉस हा कै स़ ? क़हे क़ बॉस ? बॉस की मज़बीरा था । एन वक्त पर ककसे कह़ ज़ए ? कहा ऩऱज होने से यह जो घोड़-गध़ ऽबचक गय़ तो...ककसे यक्ष बनकर ऽबठ़ कर ज़उंग़ । ऩऱज न होने क़ ईपक्रम करते हुए थोड़ दिल़र निम़ ऩऱज होते हुए बोले, ’’ ऄरे , कै से ऄऽधक़रा हो ? ऐसे हा ऄऽधक़रा बने किरते हो ?” कि छ पल रुककर किर बोले,’’ यकद प़ंच ऽमऽनट मं मेरे प़स अ सकते हो तो अ ज़ओ । माटिटग लेने के मं कि छ बेऽसक ISSN –2347-8764

िं डे बत़ दीग ं ़ । तिम्हं भऽवष्पय मं माटिटग लेने मं कभा कोइ कदक्कत नहं होगा ।” यह तो छप्पर ि़ड़कर ऽमलने व़ला कह़वत चररत़थम हो गइ । खिद़, ख़ुद पीछ रह़ है बन्दे से, बोल तेरा रह़ क्य़ है ? ‘ मत चीके चौह़न’ की तरह की तरह लपक़ भ़ग़ । ऄगले प़ंच ऽमऽनट मं बंद़ बॉस के दरब़र मं ह़ऽज़र । ऄंद़ज यीँ कक...भर दे झोला मेरा य़ मिहम्मद.... चीँकक बॉस को तिरंत ऽनकलऩ थ़ । आसऽलए ऽबऩ ककसा औपच़ररकत़ और भीऽमक़ के कहने लगे, ’अइ. ए. एस. ऄऽधक़ररयं को देखो । सरक़र ईन्हं ककतना सिऽवध़एं दे रहा है । अलाश़न दफ़्तर, अलाश़न बंगले । दफ़्तर के ऽलए चमचम़ता ग़ड़ा, और बंगले के ऽलए चमचम़ता ऄलग ग़ड़ा। दफ़्तर के ऽलए ऄलग दफ़्तरा, ऄदमला और बंगले के ऽलए ऄलग। सिख़-सिऽवध़ओं मं पगल़ए हुए । ये आतऩ सब कि छ भोग भा नहं प़ते हं, कक सरक़र ईनकी सिख-सिऽवध़ओं मं और आज़फ़़ कर देता है । वे ऄपऩ सर पाट लेते हं कक ये लो...पहले हा आतऩ कि छ भोग़ नहं ज़ रह़ है, सरक़र ने और सिख़-सिऽवध़एं ल़द दा । परे श़ना यह कक ऄब आनक़ क्य़ करं ? आतना सिऽवध़एं भोगने से ि​ि समत ऽमले तो सरक़र पर ध्य़न दं । जनत़ पर ध्य़न दं ? देखो, किर भा जब च़हे वे ककसा भा ऽवभ़ग की, जैस़ च़हे वैसा पिग ं ा बज़ देते है । ज़नते हो कै से ? यह़ँ तो मेरा पिग ं ा बज रहा था । आसऽलए दीसरे की पिग ं ा पर ध्य़न नैऽतक रूप से मिझे ऄनिऽचत लग़ । मेरा गदमन स्वतः हा नक़ऱत्मक रूप से ऽहल गइ । ऄब वे ककसा कि शल प्रश़सक की तरह बत़ रहे थे....... हर ऽवभ़ग मं पच़सं तरह की गऽतऽवऽधय़ँ चलता है । च़हे ईपलऽब्ध के बेहद क़राब हो,च़हे ईपलऽब्धय़ं शत-प्रऽतशत पीणम कर ला गइ हो,तब भा अप सिचत़ व्यक्त करे । और कहे कक थोड़े प्रय़सं की और गिंज़इश है। वेल...थोड़ और ध्य़न देऩ होग़ । कोइ ककतऩ भा ऄच्छ़ प्रस्तित क्यं न कर रह़ हो, अप के वल ठाक है..कहते हुए अगे बढ़ते ज़एँ । अप ईधर ऽबलकि ल न ध्य़न दं । अप ईसके नेगेरटव पॉआं टस की ओर ध्य़न दं । ईधर हा सोचं । भले हा अपको नेगेरटव पॉआं ट की रत्ताभर भा गिंज़इश न कदखे, लेककन अपको ककसा तरह से नेगेरटव पॉआं र्टस ढी ढ़ने होगे । च़हे वे दो कौड़ा क़ मील्य क्यं न रखे? अप

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ईनको लेकर ऐसे गरजे-बरसे कक ऄसम़न टी ट पड़े । ध्य़न रहे..जो ऽजतऩ नेगेरटव पॉआं ट ढी ढत़ है, ईतऩ सिल नौकरश़ह म़ऩ ज़त़ है । अप सोच रहे हंगे, कक आससे तो ईनको कदक्कत होगा । वे कहंगे, जऱ आनसे ऽमलो । पोऽजरटव पॉआं र्टस की ओर आनक़ ध्य़न हा नहं। त़क पर रख कदए.और ऽजन पॉआं र्टस क़ कोइ ऄथम नहं, कोइ मतलब नहं, ईन्हं लेकर आतना दंडपेल की ज़ रहा है? ऐस़ अपक़ सोचऩ है.बऽल्क आसक़ ज़दिइ आिे क्ट होग़ । वे सोचंगे कक देखो..बंद़ बहुत डाप नॉलेज रखत़ है । हमनं कभा सोच़ भा नहं कक आनक़ भा कोइ मील्य होग़, महत्व होग़ ? वे ऄपने को यहं ऩक़म म़नंगे और ऄफ़सोस ज़ऽहर करते हुए अपकी गहरा पकड़ और पैठ की द़द दंगे । अपके स़मने टॉप टी बॉटम अंकडे ऽडस्प्ले हंगे । अपको ऽसिम टॉप तक तक हा रहऩ है.बॉटम तक ऽबलकि ल नहं ज़ऩ है । भीलकर भा नहं । अपको के वल बॉटम व़लं को खड़े रखऩ है । सव़ल टॉपव़लं से पीछऩ है और देखऩ है बॉटम व़लं की ओर अपको बोलऩ है बॉटम व़लं को, लेककन सिऩऩ है टॉप व़लं को । मतलब अपको येन-के न प्रक़रे ण टॉप व़लं को हा घिड़क़ऩ है । टॉप व़लं को हा हडक़ऩ है । अप सोच रहे हंगे, आससे तो कफ़र कदक्कत खड़ा हो ज़एगा । टॉप व़ले सोचंग,े आतऩ करने के ब़द भा हम पर हा भिक़ ज़ रह़ है । और बॉटम व़लो को जऱ-सा भा दित्क़र-िटक़र तक नहं ? ख़ुद हा प्रश्न ककय़, ख़ुद हा ईत्तर देने लगे । बोले, ऐस़ अपक़ सोचऩ है । ऐस़ ऽबल्कि ल नहं होग़ । क्यं कक वे भा ज़नते हं कक जो प्रय़स कर रह़ है, ईम्मादं भा ईसा से की ज़ सकता है । चीँकक ईसे म़लीम है कक ईससे ऄपेक्ष़एं हं, आसऽलए वह और बेहतर करने की कोऽशश करे ग़ । और बॉटम व़ले सोचंगे कक जब आतऩ कम करने व़लं क़ यह ह़ल है तो हम़ऱ क्य़ होग़ ?वे आस ऽचन्त़ मं डी ब ज़यंगे और मन हा मन संकऽल्पत होकर की द पड़ंगे । एजंडे मं जो सिबदि श़ऽमल हं, ईन पर कम से कम ब़त कक ज़ए । ईन पर कम से कम चच़म कक ज़ए । और ज्य़द़ समय ईन ऽबन्दिओं पर चच़म कक ज़ए जो एजंडे से ब़हर कक हं । अप सोच रहे हंगे, ये क्य़ ब़त हुइ ? ऐस़ आसऽलए कक अपको एजंडे कक एबासाडा भा नहं म़लीम है । और वे पीरा तैय़रा करके अए हं । सिनो, आससे क्य़ होग़? आससे यह होग़ कक जो अए हं वे ऽसिम एजंडे कक तैय़रा के गिण़-भ़ग के ऽहस़ब से अए हं । एजंडे के ब़हर कक चाज़ं ईनके ऽलए की ड़़-ककम ट है । और यहा कचऱ अपके ऽलए श्रेष्ठ स़ऽबत होग़ । एजंडे से ब़हर ऽजतऩ फ़ं क सकते हो, िं कं । क्यंकक वे यहं ऄज्ञ़ना ऽसि हंगे, ऄसिल ऽसि हंगे, और अपकी धमक-ध़क जमेगा । और ऄंत मं अपने ऽजनको प्रत्यक्ष-ऄप्रत्यक्ष रूप से जमकर लत़ड़़ है, ईनकी पहच़न करना होगा । यह अपको सीघ ं कर पहच़नऩ होग़ । ईनको पिचक़रऩ होग़. क्यंकक पिचक़र हा सिहसक को प़लती बऩता है । और जो पहले से हा प़लती है, वे ऽनऽंत रूप से वफ़़द़र हंगे हा । ईनकी सिचत़ नहं । सिनकर मन प्रसन्न हुअ । मंने ईसा गदमन को....जो रे तने के क़म ISSN –2347-8764

अने व़ला है, ऽहल़-ऽहल़ कर कह़, ‘समझ गय़ सर । बस..थोड़ और बत़ दाऽजए सर कक, जब कोइ ज़नक़रा लेऩ च़हे,कोइ प्रश्न पीछऩ च़हे, कोइ ऽजज्ञ़स़ व्यक्त करऩ च़हे और ईसकी हमं कोइ ज़नक़रा न हो, तब क्य़ ककय़ ज़ए ? क्य़ कह़ ज़ए ?” वे ईत्स़ऽहत होकर बोले थे कक बस..यहा वह ऄवसर है, जो अपको क़ऽबल स़ऽबत करे ग़ । बस...यह समझ लाऽजये कक अपको ऄपना क़ऽबऽलयत स़ऽबत करने क़ आससे ऄच्छ़ ऄवसर नहं ऽमलेग़ । ऄव्वल तो अपको ईस ओर धय़न हा नहं देऩ है । और देऩ भा पड़े तो, चिककर आस ऄंद़ज मं देखऩ है कक पीछने व़ल़ ख़ुद यह महसीस करे कक कहं मंने कोइ बचक़ऩ सव़ल तो नहं पीछ ऽलय़ है ? कफ़र अप पीछे कक और ककसा को आसके ऄल़व़ कि छ पीछऩ तो नहं है ? यकीन म़नो, कोइ बेवकी फ़ हो होग़, जो स़वमजऽनक तौर पर ऄपने अप को बेवकी फ़ ऽसि करे ग़। ऐसे ख़़स मौक़ं-ऄवसरं के ऽलए ऄपना पोटला मं दो=च़र ब्रम्ह़स्त्र रख़ करं ऐसा ऽस्थऽत मं अप कहे कक, आस तरह की ज़नक़रा य़ ऽनदेश, श़सन से हमं प्ऱप्त नहं हुए हं । आन ऽबन्दिओं पर हमने भा श़सन से म़गमदशमन / ऽनदमश च़हे हं । मं लग़त़र हॉट ल़आन पर हूँ । जैसे हा ऽमलंग,े यथ़समय शेयर ककये ज़यंगे । य़ कहो कक ये प़ऽलसा मेटर है । सरक़र तय करे गा । जब भा तय करे । वे थोड़-स़ कन्फ्यीज हं, अप ईन्हं थोड़ कन्फ्यीज और कर दं। लेककन सर.... वे कि छ बत़ते कक, ऄन्दर से बॉस की बॉस...य़ना सिपर बॉस ने आश़ऱ ककय़ थ़ । बॉस आश़ऱ समझ गए थे । कह़,’ ऄच्छ़, मं समझत़ हूँ, ऄब तिम्हं कोइ कदक्कत नहं होगा । ” ऽवजयाभव के भ़व से अशाव़मद देते हुए मिझे मिक्त ककय़ । य़ यीँ कहे कक मिझ जैसे ऄऩड़ा से मिऽक्त प़या । ऄब अप हा ऄंद़ज़ लग़ लाऽजये, माटिटग कै सा रहा होगा ? पहले मं माटिटग के दो-तान पहले से हा माटिटग कक तैय़रा करत़ थ़। ज़नक़ररय़ं संकऽलत करत़, ऄपडेट होत़, प्रजंटंशन बनव़त़ और फ़ोल्डर तैय़र करत़ थ़ । लेककन ऽजस कदन से बॉस से दाऽक्षत हुअ हूँ, ईस कदन से मं माटिटग क़ फ़ोल्डर, माटिटग प्ऱरं भ होने के अध़ घंटे पहले लेत़ हूँ । यह भा संभव न हो तो ऄब फ़ोल्डर की परव़ह नहं प़लत़ । ऽजसने प्रजेन्ट ककय़ है, वो िसेग़ हा । और ऽजसने न ककय़, वह तो पहले से हा िस़ है । बच़कर कह़ँ ज़यंगे ?

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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मो- 09926527654

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कह़ना

ऩम मं क्य़ रख़ है ? कऽवत़ ऽवक़स

बहुत कदनं ब़द घर के क़मं क़ अज जल्दा ऽनबट़ऱ हो गय़ थ़ । ब़लकोना मं बैठ कर कइ कदनं से पड़ा हुइ ककत़बं और ऄख़ब़रं को देखऩ शिरू ककय़ । यीँ तो ब़सा ऄखब़रं को देखऩ ठाक नहं लगत़, पर ईनमं से ककसा ऄच्छा रे ऽसपा को क़ट कर रख लेऩ मेरा पिऱना अदतं मं श़ऽमल है । ऄभा कं चा ल़ने के ऽलए ईठऩ हा च़ह रहा था, कक ड़ककये की अव़ज़ अया । देख़, म़ँ की ऽचट्ठा था । म़ँ की ऽचट्ठा तभा अता है जब कोइ ऽवशेष सीचऩ देना होता है, वरऩ ईन्हं ऽचट्ठा ऽलखने की अदत नहं । ऽलफ़़फ़े को ि़ड़ते समय कदल धड़क रह़ थ़, ज़ने ककस पर क़य़मत अ पड़ा हो ! संऽक्षप्त स़ पि थ़ वह ," बल्ल़ की ह़लत बहुत खऱब है । वह जावन की ऄंऽतम घऽड़य़ँ ऽगन रहा है । डॉक्टर ने कह कदय़ है, ऽजसे बिल़ऩ च़हते हं, बिल़ लं । ईसने तिमसे ऽमलने की आच्छ़ ज़़ऽहर की है । ती ऽजतना जल्दा हो सके , अ ज़ ।" पर बल्ल़ मिझसे क्यं ऽमलऩ च़ह रहा है ? मेऱ कोइ ख़़स ररश्त़ य़ कोइ ज्य़द़ लग़व न थ़ । बस यीँ हा जब म़यके मं था, ईसके दिःख - सुि क बात सुनती । कभी वि ममल जाती तर सलािमशऽवऱ देकर ईसके ज़ख्मं पर मलहम लग़ देता । ऄब मिझे ज़ऩ हा होग़ । पर दोपहर तक तो आं तज़़र करऩ हा होग़, जब तक पऽतदेव लंच लेने न अ ज़एँ । अऽखर ग़ड़ा क़ आं तज़़म भा तो वहा करं गे । तब तक मंने ऄपने दो-च़र कपड़े और ज़रुरत की चाज़ं को समेटऩ शिरू कर कदय़ । बहुत ऄनमने भ़व से किर ब़लकना मं अकर बैठ गया । "बल्ल़" सहस़ एक क़ला पर अकषमक ऩक-नक्श व़ला अठ बरस की लड़की क़ ऽवच़र किध गय़ । किर तेरह स़ल की बल्ल़, ऄट्ठ़रह, किर ब़आस स़ल की बल्ल़ । जब-जब ईससे ऽमला था, तब-तब की वयस्क होता बल्ल़ की कइ तस्वारं और ककस्से जेहन मं ईमड़ने लगे । व़स्तव मं ईसक़ ऩम "बल़" थ़, पर शब्दं के ऄपभ्रंश ने ईसे "बल्ल़ " बऩ कदय़ थ़ । ISSN –2347-8764

श़दा से पहले और ब़द मं भा जब-जब म़ँ के घर रहा, बल्ल़ से ऄवश्य ऽमलऩ होत़ । मेरा ईत्सिकत़ ईसके ऩम मं था । भल़ कोइ म़ँ-ब़प ऄपना संत़न क़ ऩम "बल़ "क्यं रखेग़ ? बल्ल़ के म़ँ-ब़पी ने एक ऄरसे से मेरे म़यके की ररय़सत को संभ़ल रख़ थ़ । सैकड़ं एकड़ ज़मान मं लहलह़ते ध़न - गेहूँ के खेत और ईनकी झीमता ब़ऽलय़ं ईनकी हा नेमत था । प़प़ के ऄनेक रसीखद़र थे पर ईन्हं बल्ल़ के ऽपत़ ऱमप्रस़द और म़ँ ऽसमना पर सबसे ज्य़द़ ऽवश्व़स थ़ । एक पीऱ क़स्ब़ प़प़ की ज़मंद़रा से जिड़़ हुअ थ़ । बल्ल़ की म़ँ को ईस कस्बे मं सभा ऽसमना त़इ कह कर बिल़ते थे । स़ंवले रं ग की छरहरा क़य़ और बलख़ता चोटा, बहुत खीबसीरत था वह । म़ँ की रसोइ संभ़लने के ब़द ऄपने पऽत क़ ख़ऩ लेकर खेत चला ज़ता । कदन भर पसाने से तरबतर रहने व़ला ऽसमना त़इ की स़ड़ा बदन से ऽचपक ज़ता ,कभा लटं को संभ़लता तो कभा अँचल को । ईसके अस-प़स क़म करने व़ले मदं की अँखं मं चमक अ ज़ता । ईसके आदम-ऽगदम ऽचरौरा करने व़ले की कमा नहं था । ऽशबी कि म्ह़र तो ख़़स कर ईसक़ दाव़ऩ थ़ । ऽसमना आस क़ पीऱ ि़यद़ ईठ़ता । कभा-कभा ऄपने क़म भा ईसे सिप कर घिटने तक स़ड़ा ईठ़ कर बैठ ज़ता । किर क्य़ थ़, ढलके अँचल और गोरे -गोरे प़ँव के नशे मं ऽशबी कि म्ह़र बतमन म़ंजने से लेकर झ़ड़ी-बिह़रू भा कर ड़लत़ । त्योह़र-ईत्सव के समय ईसकी झोला क़न की ब़ऽलय़ँ, चीड़ा, सिबदा, प़यल अकद से भर ज़ता । ऱमप्रस़द को ईसकी यह अदत ऄच्छा नहं लगता, पर ऽसमना के ताखे तेवर के अगे ईसकी एक न चलता । ईनके ऽवव़ह के दो स़ल ब़द बल्ल़ क़ जन्म हुअ । बल्ल़ क़ चेहऱ न ब़प से ऽमलत़ थ़, न म़ँ से । पीरे कस्बे मं अग की तरह यह खबर फ़ै ल गया कक ऽसमना त़इ को एकदम क़ला

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लड़की पैद़ हुइ है । मं ईस समय कॉलेज मं पढ़ता था, पर आस हंग़मे की सीरत ऄब तक य़द है । चौप़ल पर बैठा औरतं दबा जिब़न मं ब़तं करतं कक ईसक़ रूप रं ग ऽशबी से ऽमलत़ है । एक कदन ऄरहर के खेत मं ईसे ऽनह़यत ऄके ल़ प़कर ऽशबी ने ऄपना माठा-माठा ब़तं मं ईसे िँ स़ ऽलय़ य़ यीँ कहं कक एक बड़े ल़लच मं िँ स कर ईसने अत्मसमपमण कर कदय़ । हफ्ते भर ब़द ऽसमना के ऄंगिला मं एक सोने क़ छल्ल़ देख़ ज़ने लग़ । ककसा के पीछने पर बड़ा आतऱ कर कहता, "हम थोड़ा न म़ँगे हं, ऽजसको देऩ है ऐसे हा दे ज़त़ है ।" ईसके ब़द ऽसमना त़इ की ईऽल्टय़ँ शिरू हो गईं । ब़त जो भा हो, ऱम प्रस़द ने आस बच्चा को कभा नहं ऄपऩय़ । ईसके जन्म के हफ्ते भर ब़द ऱमप्रस़द की म़ँ चेचक के चपेट मं अकर चल बसा। ऄब तो ऱमप्रस़द ईसे मनहूस समझने लग़ और एक बल़ समझ कर ईससे निरत करने लग़ । यहं से ईसक़ ऩम ’बल़’ पड़ गय़ । समय ऄपना रफ़्त़र से चलत़ रह़ । बल्ल़ ऄपना गोल-गोल अँखं को मटक़ कर खीब ब़तं करता । भरा दिपहररय़ मं ईसकी म़ँ ईसे बऱमदे मं ऽलट़ कर क़मं मं लग ज़ता । वहं बोरे पर पड़ा-पड़ा बल्ल़ ने करवट बदलऩ साख़ । किर बैठऩ और किर चल पड़ा । प़ंच स़ल की ईम्र मं स्थ़नाय ऽवद्य़लय मं ईसके द़ऽखले क़ वक़्त अय़ । आस बाच ऽसमना त़इ को एक बेट़ भा हो गय़ । ऽजस कदन द़ऽखले के ऽलए ईसक़ ब़प ईसे लेकर स्की ल गय़, ईसा कदन ईसे खबर ऽमला कक एक क़र दिघमटऩ मं ऱमप्रस़द के ब़पी की तत्क़ल मुत्यि हो गया । ऐन मौके पर खाज से भऱ ऱमप्रस़द ने बल्ल़ क़ ऩम ऽलखव़य़, "परलय"… म़स्स़ब ने ऄचरज से कह़, "यह कै स़ ऩम है?" ऱम प्रस़द बल्ल़ को वहं पर कोसते हुए कहने लग़, "और क्य़ ऩम रखीं ? जन्म के स़थ मेरा म़ँ को ख़ गया और ऄब ऽवद्य़ ग्रहण की शिरुअत मं ब़पी को। ज़ने अगे और क्य़-क्य़ गिल ऽखल़येगा ।" बल्ल़ से जिडा कइ ब़तं य़द अने लगं । दरव़ज़े पर कॉल बेल की अव़ज़ से ऽवच़रं से ब़हर अया । लंच ट़आम हो गय़ थ़, पऽतदेव अ गए थे । टेबल पर ख़ऩ लग़ते हुए म़ँ की ऽचट्ठा के ब़रे मं बत़इ । ख़ने के समय भा मन ऄनमऩ-स़ रह़ । पऽत ने कल सवेरे की ग़ड़ा ठाक कर दा । ख़ने के ब़द अँख बंद कर लेटने की कोऽशश करने लगा, पर य़दं क़ क़किल़ रुकने क़ ऩम हा नहं ले रह़ थ़ । पऽत के व़पस ऑकिस ज़ने के ब़द ऄलम़रा से पिऱऩ एलबम ऽनक़ल़ । एक तस्वार था बल्ल़ की, ऽजसमं वह ककत़बं के मध्य बैठा हुइ था । मिझे वह घड़ा य़द अ गया । बल्ल़ ऄपना म़ँ के क़म ख़त्म होने क़ आं तज़़र कर रहा था । आन सभा छोटे-छोटे ऄवसरं मं भा वह ख़ला नहं बैठता । ऄपऩ बस्त़ लेकर अता और बऱमदे मं बैठा पढ़़इ करऩ अरम्भ कर देता । ईस समय वह नवं कक्ष़ मं था । पढ़़इ मं खीब ऄव्वल । ककशोऱवस्थ़ मं प़ँव रखते हा गज़ब की चमक ईसके चेहरे पर अ गया था । एक ऐसा कऽशश था कक लगत़ थ़ देखता रहूँ । ईसा समय चिपके से यह तस्वार मंने ऄपने कै मरे मं ला था । एलबम बंद कर रख कदय़ । मंने ईस समय पीछ़ थ़, "कै सा पढ़़इ चल रहा है ISSN –2347-8764

बल्ल़ ?" ऄच़नक मिझे खड़़ देख कर वह चिक गया । "ठाक ,दादा । ऄब स़ल़ऩ पराक्ष़ है । जम कर मेहनत करना है । ऄच्छ़ दादा, एक ब़त बत़ओ । दसवं के ब़द मं कह़ँ ज़उँ ? यह़ँ तो आतना हा कक्ष़एँ हं । मंने कह़, "बाज़पिर सबसे नज़दाकी शहर है । तिम तो ऄच्छे नंबर ल़ता हा हो । वहं से आं टर कर लेऩ।" "लेककन दादा, मं ऄपऩ ऩम बदलऩ च़हता हूँ । क्य़ मं प्रलय हूँ दा ?" "नहं रे ! ती तो ककतना ऄच्छा लड़की है । खीब तेज, खीब मेहनता । यह तो ऄऽशऽक्षत म़ँ-ब़प की सोच है जो लड़की को बल़ समझते हं और ककसा ऄपशगिन से जोड़ कर देखते हं । ऽजसकी ऽजतना ऽज़न्दगा ऽलखा है, ईतना हा रहेगा, च़हे ककसा क़ जन्म हो, च़हे न हो । वैसे ती क्य़ ऩम रखऩ च़हता है ऄपऩ?" मंने पीछ़ । "रजनागंध़" "दादा, मं रजनागंध़ रखींगा । मंने म़स्स़ब को कह भा कदय़ है कक ऄगले स़ल वह मेऱ यहा ऩम रऽजस्टर मं ऽलखं । सब कहते हं, मं रजना की तरह क़ला हूँ । पर क़ला हूँ तो क्य़ हुअ मं पढ़़इ कर ऄपना खिशबी ऽबखेरूँगा । मं खेतं मं क़म नहं करुँ गा ।" ऄपने ऩम क़ आतऩ ऄच्छ़ ऽवश्लेषण ककय़ थ़ ईसने । बहुत से सपने थे बल्ल़ के । कोमल ईम्र की दहलाज पर प़ँव रखते हा जो सपने हर यिवता के मन मं होते हं । एक बड़े घर मं ब्य़ह रच़ऩ, दफ्तर व़ला नौकरा करऩ, घर मं ऐशो-अऱम के स़धन होऩ अकद-अकद। ईसके ब़द पत़ नहा ईसने ऄपऩ ऩम बदल़ भा की नहं ? किर मं शहर अ गया । ऄपना नौकरा और गुहस्था मं रम गया । म़यके ज़कर ज्य़द़ कदन रहऩ ऄब मिऩऽसब नहं होत़ । जब दशहरे की छि ट्टा मं म़यके ज़ऩ हुअ तब म़ँ से पीछ़, "बल्ल़ कै सा है म़ँ ? कह़ँ है वो, पढ़़इ पीरा हुइ कक नहं ?" म़ँ ने कह़, "ऄरे मत पीछ, वह तो अित की पिऽड़य़ था । कि छ न कि छ मिसाबत लगा हा रहता था ईसके स़थ। "क्यं क्य़ हुअ, शहर पढ़ने गया तो कि छ हो गय़ क्य़ ?" "शहर ? शहर कब गया वो ? दसवं कक्ष़ तक ज़ते-ज़ते यह़ँ के मनचलं से ऐसा ऽघरा रहता था कक म़ँ-ब़प ने ईसे घर से ऽनकलने पर प़बंदा लग़ दा । ईसकी ऽजद पर म़ँ ने दसवं प़स कऱने तक की ऽजम्मेव़रा ले ला । पर बरस़त क़ प़ना भल़ ककसा के रोके रुक़ है ? मिझे ऽजस ब़त क़ डर थ़, वहा हुअ । एक कदन स्की ल गया तो व़पस नहा अया । "क्य़ ?", मेरे मिंह से ऽनकल़, "पर वह तो बहुत पढ़ऩ च़हता था, शहर ज़कर" "के वल आच्छ़ होने से क्य़ हुअ, वैस़ म़हौल भा तो होऩ च़ऽहए। जव़न होता लड़ककयं को ऄच्छ़ समझ़ने व़ल़ कोइ न ऽमले तो पैर बहकते देर थोड़ा न लगता है । आस ईम्र मं बच्चं की ऄपना दलाल होता है", म़ँ ने कह़ । म़ँ की ब़त भा ठाक था । मंने पीछ़, "क्य़ हुअ म़ँ ? खिल कर बत़ओ ।“ म़ँ ने बत़य़, "एक कदन वह स्की ल गया तो व़पस नहं लौटा । पत़ चल़ चौधरा क़ बेट़ जो वहं स्की ल मं टाचर थ़, ईसा के

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स़थ भ़ग गया । चौधरा ने सवमि ऄपने अदमा िै ल़ कदए । यह़ँ से दो सौ तास ककलोमाटर दीर रोगद़ ग़ँव मं दोनो ऽमले । वह़ँ चौधरा की ऽवधव़ बहन रहता था । ईसा ने चिपके से भ़इ को फ़ोन करव़ कदय़ थ़ । चौधरा क़ गिस्स़ के म़रे बिऱ ह़ल थ़ । ऽमलाभगत दोनं की था, पर सज़़ के वल बल्ल़ को ऽमला । बाच सड़क पर ईसे नंग़ करके बंत बरस़ए गए ।" आतऩ सिऩते-सिऩते म़ँ क़ चेहऱ भा अवेश से भर गय़, म़नो चौधरा ने जो ककय़ वह एकतरि़ न्य़य थ़ । मंने कह़, "ककसा ने चौधरा को रोक़ नहा ?" "कौन रोकत़ ? सब को मऩहा था अगे बढ़ने की । लड़की भा ऐसा जावट था, देह छलना हो गय़ पर अँख से एक बींद प़ना नहं। कहता रहा, म़स्स़ब ने हा ईसे शहर घिम़ने और अगे पढ़़ने क़ व़स्त़ कदय़ थ़ । वह ईसकी ऽचकना-चिपड़ा ब़तं मं अ गया । बस यहा ईसकी गलता था । ऄधमऱ करके ईसे बाच ऱस्ते पर छोड़ कदय़ गय़ ।" म़ँ की ब़तं को सिनकर मन ईद़स हो गय़ । कै स़ दस्तीर है हम़रे सम़ज क़ ? ईच्च ज़ऽत के लड़के क़ कोइ दोष नहं कदखत़ । समरथ के नसिह दोस गिस़ईं । स़रा य़तऩ ईस म़सीम के ऽहस्से अया । म़ँ ने बत़य़ कक दीसरे कदन से ऽसमना भा क़म पर अऩ छोड़ दा । ऱमप्रस़द भा दो-तान महाने के ऽलए बेटे के प़स चल़ गय़ जो दीसरे ऽजले मं पढ़़इ कर रह़ थ़ । मंने सोच़ बेटा की बदऩमा से अहत होकर कि छ कदनं के ऽलए ये लोग ग़ँव छोड़ कर चले गए हं । ऱमप्रस़द तो लौट अय़, पर दो स़ल तक ऽसमना नहं लौटा । ईसके ज़ने के कराबन छह-स़त महाने के ब़द ऽसमना क़ एक खत अय़ । बड़े हा टी टे-िी टे ऄक्षरं मं ऽलख़ थ़, "ठकि ऱआन, मं बल्ल़ के स़थ ऄपना बिअ स़स के यह़ं अ गया हूँ । ईस कदन बेटा को म़र-म़र कर चौधरा ने लहूलिह़न कर कदय़ थ़। चौधरा क़ ऐस़ अतंक कक मन हा मन लोग ईसके बेटे को ग़ला दे रहे थे, पर ककसा ने अगे बढ़कर ईसे रोकने की ऽहम्मत नहं की । म़ँ की ज़त हूँ । चौधरा के पैर पकड़ ऽलए। मंने कह़ ’रहम करो,सरक़र’.. एक ब़र आसे ले कर यह़ं से चला ज़उँगा, किर कभा व़पस नहा अउँगा । छोटे सरक़र की कोइ गलता नहं है । सब ककय़-धऱय़ आसा कलंककना क़ है । बहुत ऽगड़ऽगड़़ने के ब़द ईसने ईसे छोड़़ और ऽहद़यत दा कक ऽजतना जल्दा हो सके तिम ऱतं-ऱत आसे ग़ँव से ब़हर ले ज़ओ । और ध्य़न रखऩ आसके प़ँव यह़ँ दिब़ऱ न पड़ं । मेऱ अदमा भा चौधरा क़ स़थ दे रह़ थ़,ठकि ऱआन । वह च़हत़ थ़ कस्बे के ब़हर क्यं ज़ए, यहं आसे जहर देकर म़र कदय़ ज़ए । मंने बड़ा मिऽश्कल से ईससे छि टक़ऱ प़य़ और ककसा तरह बल्ल़ को ऽलए कस्बे से ब़हर अ गया । साम़ प़र की एक ऄके ला औरत ने ईसकी ह़लत पर तरस ख़ कर हमं रहने की जगह दा । वहा ँ ईसक़ ईपच़र चल़ । तान कदन रहने के ब़द मं ब़लमपिर चला अया । बल्ल़ को छोड़ने क़ मन नहं होत़ थ़ । पहला ब़र ज़ऩ औल़द क़ प्य़र क्य़ होत़ है । मं यहं ठे क़ पर ब़ली ढोने क़ क़म करने लगा हूँ । ऄब तो बल्ल़ के ह़थ पाले कर सिरऽक्षत ह़थं मं सिप कर लौटीँगा। ---ऽसमना । म़ँ से बल्ल़ की यह कह़ना सिन कर मन दिखा हो गय़ । एक ISSN –2347-8764

ऄंज़ऩ स़ लग़व हो गय़ थ़ ईससे । म़यके से लौट कर ऄपना कदनचय़म मं रम गया । किर कभा ख्य़ल भा नहं अय़ ईसक़ । कभा कभा ककटा प़र्टटयं मं स्त्रा सशऽक्तकरण पर चच़मएँ होतं तो ऽवपरात पररऽस्थऽतयं मं जावट स्त्रा की प़रा खेलने व़ला मऽहल़ओं मं ईसक़ ऩम मं शिम़र करता । आससे ज्य़द़ और कि छ नहं । अज ऄच़नक प़ँच स़ल ब़द म़ँ के पि ने एक ब़र किर मिझे झकझोर कदय़ । ककतने परतं मं दबा पिऱना ब़तं चलऽचि की तरह गिज़र गयं । दीसरे कदन सवेरे हा क़र से ऽनकल पड़ा । ड्ऱआवर क़ पहच़ऩ हुअ ऱस्त़ थ़ और सिबह के समय ख़ला रोड ऽमलत़ गय़ । प़ँच घंटे के ब़द कराबन ग्य़रह बजे हम बेल़पिर पहुँच गए । म़ँ मेरा मनोऽस्थऽत समझ रहं थं । ईन्हंने कह़, "मंने ऱत को ऱमप्रस़द को सन्देश ऽभजव़ कदय़ थ़ कक तिम कल सिबह पहुँच रहा हो । वह ऄभा तिमसे ऽमलने अएग़ । तब तक तिम ख़-पाकर अऱम कर लो।" म़ँ से मंने ब़की ररश्तेद़रं की थोड़ा ज़नक़रा ला और ईनकी तऽबयत अकद के ब़रे मं ब़त करते-करते म़ँ के बगल मं लेट गया । किर पीछ़, "क्य़ हुअ है म़ँ बल्ल़ को जो भरा जव़ना मं मौत के एक-एक कदन ऽगन रहा है ? श़दा ब्य़ह तो ऽसमना त़इ ने करव़ दा था न ?" म़ँ ने कह़, "ह़ँ, दो-ढ़इ स़ल के ब़द ऽसमना यह़ं लौट अया था, बल्ल़ के ह़थ पाले कर के । पर बेटा, क्य़ ककस्मत लेकर अया था यह लड़की ! ऽजस ठे केद़र के यह़ं ऽसमना क़म करता था, ईसा के मिंशा क़ बेट़ बलवंत ईस पर राझ गय़ । पहले तो ईसके ब़प ने ऩ-निकिर ककय़, किर ऱजा हो गय़ । लड़के की ऽजद के अगे ईसे झिकऩ पड़़ । लड़के और ईसके ब़प ने यह ब़त छि प़इ था कक बलवंत पहले से हा श़दाशिद़ थ़ । वह औरत ब़ँझ ऽनकला । संत़न की च़ह मं आसने बल्ल़ से दीसरा श़दा रच़या । खैर जो होऩ थ़ हो गय़ ।" मंने पीछ़, "बल्ल़ तो बड़ा ईग्र हो गया होगा, वह तो छल-कपट ज़ऱ नहं बद़मश्त करता था ।" “ह़ँ, ऽसमना बत़ रहा था कक वह बलवंत को कहता था कक तिमने प्य़र भा ककय़ तो झीठ के अध़र पर... एक ब़र तो सच बत़ कदय़ होत़, किर मिझे दीसरा पत्ना होने क़ कोइ ऽगल़ नहं रहत़" शिरू से ऽवपद़ की म़रा बल्ल़ को सिरऽक्षत ह़थं मं सिप कर ऽसमना यह़ं अ गया । वह तो तान-च़र महाने के ब़द बल्ल़ की एक ऽचट्ठा से यह खिल़स़ हुअ । कभा न ऄपने दिभ़मग्य पर रोने व़ला बल्ल़ समय की म़र अगे पस्त हो गया था । ईसकी स़स और बलवंत की पहला औरत रे व़ ईसे नौकऱना समझतं थं । कदन भर क़म करव़तं और समय से ख़ऩ-प़ना कि छ न देतं । पर बलवंत ईसे बहुत म़नत़ थ़ । ईसके घर पर रहने पर सब ठाक रहते । ईसके दो माठे बोल कदन भर की ईसकी थक़न ईत़र देते । श़राररक रूप से बेहद कमज़ोर बल्ल़ पेट से था और छठे महाने के ब़द ईसे पाऽलय़ हो गय़ । ईऽचत ख़न-प़न न ऽमलने के क़रण ईसकी दश़ ऽबगड़ता गया । कहते हं, ईसे ऽलवर मं कं सर की ऽशक़यत था ऽजसके ब़रे मं थोड़े कदन पहले पत़ चल़ ।

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ईसने बेटा जऩ है ।" क्य़ ! एक ब़र किर से बल्ल़ क़ पीऱ जावन वुत्त मेरा अँखं के स़मने से गिज़र गय़ । बच्चे के जन्म के समय डॉक्टर ने जव़ब दे कदय़ थ़ कक ईसक़ बचऩ मिमककन नहं है । तब ऽसमना ईसे ज़ कर ऽलव़ ल़इ है । ऱमप्रस़द ईसे नहं ज़ने देऩ च़हत़ थ़ । कहत़ थ़, आस ब़र गया तो दिब़ऱ नहा अऩ । पर मंने हा समझ़य़, "ऄरे ,दिश्मन भा मर रह़ हो तो ऽशक़यतं दीर हो ज़तं हं । यह तो तिम्ह़रा बेटा है । ती भा ज़ ईसे ले अ और स़थ मं ईसक़ पररव़र भा अऩ च़हे तो रोककयो नहं।" मिझे म़ँ की ब़तं से लग़ कक परोक्ष रूप से म़ँ भा ऽसमना और बल्ल़ से क़िी जिड़ गया था । दोपहर मं ख़ऩ ख़ कर हम ईठे हा थे कक ऱमप्रस़द और बलवंत मेरे प़स अये । ऱमप्रस़द क़क़ मं ज्य़द़ बदल़व नहं अय़ थ़, बस यहा कक ब़ल पीरे सफ़े द हो गए थे । बलवंत मँझोले कद क़ सिन्दर लड़क़ थ़ । मंने ईसे गौर से देख़ । बल्ल़ की बाम़रा ने ईसे भा तोड़ कदय़ थ़ । बेहद ईद़स, ऽज़न्दगा से ह़ऱ हुअ आं स़न लग रह़ थ़ । मंने ईसे समझ़य़, "बल्ल़ की खिऽशयं के अध़र तिम हा थे । ईसके स़मने ऽहम्मत से क़म लेऩ । ऄब बच्चा की ऽजम्मेव़रा तिम पर है।" बहुत हा सिलझे हुए बच्चे की तरह ईसने सर ऽहल़य़ । वे दोनं मिझे लेने अये थे । ऱस्ते मं ज्य़द़ ब़त चात नहं हुइ । ऽजस कमरे मं बल्ल़ सोया हुइ था, हम साधे वहं गए । मेरे अने क़ अभ़स ईसे हो गय़ थ़ । ईसने पाला-पाला, ऽनस्तेज अँखं से मेरा ओर देख़ । लग़ जैसे मेरे चेहरे को पढ़ रहा हो । हमेश़ ऽखला -मिली रिने वाली बल्ला का देि माि एक गठरी म मसमट गया थ़ । मंने ऱमप्रस़द और बलवंत को ब़हर ज़ने क़ आश़ऱ ककय़ । टी टे-िी टे शब्दं मं ईसने कह़, "दादा, मं जन्म लेते हा द़दा को ख़ गया । ऽवद्य़रम्भ के स़थ ब़ब़ को । घर मं ऄनहोना अया तो मेरे क़रण, ब़हर भीकम्प अय़ तो मेरे क़रण । ज़ने ककस मिहूतम मं मेऱ जन्म हुअ थ़.. मेरा बेटा के जन्म के स़थ मिझे यहा सिचत़ है कक कहं ईसे भा अजावन आन्हं ईप़लम्भं के स़थ न जाऩ पड़े । मं तो नहं रहूँगा, पर दादा, मेरे अदमा को समझ़ऩ कक यह मनहूस नहं है।" - ईसने दीर ख़ट मं सोया हुइ बेटा की ओर आश़ऱ करते हुए कह़, "सब ऄपने कमं क़ िल है । वह ऄच्छ़ आं स़न है, वह समझ ज़एग़ कक मेरा बेटा मेरे मौत की ऽजम्मेद़र नहं है।" "ऐस़ हा होग़, बल्ल़", मंने ईसके सर पर ह़थ िे रते हुए कह़ । यह नन्हा सा ज़न तिम्हे स़रे दिखं से मिऽक्त कदल़ने अइ है।" "मेरे कदल से बोझ ईतर गय़ दादा, ऄब मं चैन से मर प़उँगा।" कहते हुए ईसने अँखं बंद कर ला । ईसके चेहरे पर ऽनसिंतत़ क़ भ़व देख कर मिझे ऄच्छ़ लग़ । मं ब़हर अ गया । ब़हर ऽसमना त़इ बलवंत के म़ँ-ब़पी को च़य ऽपल़ रहा था । ईसके क़म मं बलवंत की पहला पत्ना रे व़ भा ह़थ बँट़ रहा था । ऽसमना त़इ ने मिझे भा च़य पाकर ज़ने कह़, पर बल्ल़ से ऽमलने के ब़द और वह़ँ ठहरने क़ मन नहं हो रह़ थ़ । घर लौट कर मंने म़ँ को बल्ल़ की ह़लत के ब़रे मं बत़य़ । मेरा अँखं से अँसी ऽनकल पड़े । ज़ने कब मेरे प्रऽत बल्ल़ ने ऄग़ध प्रेम प़ल ऽलय़ थ़ । पीरे कस्बे मं और ककसा पर भरोस़ नहं थ़ ईसे, ISSN –2347-8764

आसऽलए मिझे प्रेमपीवमक बिलव़ भेज़ । मिझ पर एक बड़ा ऽजम्मेद़रा था । मंने ड्ऱआवर को भेज कर बलवंत को बिलव़ ऽलय़ । बलवंत आस अकऽस्मक बिल़वे पर हैऱन थ़ । मंने ईससे कह़, "तिम बेटा को प्य़र करते हो बलवंत ?" "बहुत ज्य़द़ जाजा, जो सिख मं बल्ल़ को नहं दे सक़, वो आसे दींग़" । किर एक लम्बा स़ँस लेकर कहने लग़, "बल्ल़ ने हा तो मिझे ऽपत़ होने क़ सिख कदय़ है । मं ईसे भा बहुत च़हत़ हूँ।" मंने ईसकी जाऽवक़, म़ँ-ब़प और ईसकी पहला पत्ना सबके ब़रे मं ज़नक़रा ला - "तिम्हं ऐस़ तो नहं लगत़ न कक तिम्ह़रा बेटा की वज़ह से बल्ल़ की ज़न ज़ रहा है ?" "नहं तो, बल्ल़ की बाम़रा के लक्षण तो बेटा के पेट मं अने के पहले हा हो गए थे । ईसक़ आल़ज चल रह़ थ़, पर वह़ँ के डॉक्टर को बाम़रा की पकड़ देर से हुइ । बल्ल़ के गभमवता होते हा मेरा पहला पत्ना क़ भा स्वभ़व बदल गय़ है । वह कहता है कक ईसकी संत़न से वह भा म़ँ कहल़ने क़ सिख भोगेगा ।" बलवंत सचमिच ऄच्छ़ आं स़न थ़ । मंने ईसे बेटा को ऄच्छे से प़लपोस कर बड़़ करने की सल़ह दा । ऄपऩ पत़ और फ़ोन नंबर भा कदय़ और कह़, " भऽवष्पय मं बच्चा के ऽलए कोइ मदद की ज़रुरत हो तो बेऽहचक मिझसे संपकम करऩ ।" बलवंत चल़ गय़ । श़यद मिझसे ऽमलने के ऽलए हा बल्ल़ जाऽवत था । दीसरे कदन तड़के हा ईसकी मुत्यि की खबर अया । मं ईस समय सो कर ईठा था । एक तरह से ऄच्छ़ हा लग़ कक ऽजस कि मं मंने ईसे देख़ थ़ ईससे मिक्त हो गया । जावन भर वह ऄऽभशप्त अत्म़ बना रहा । ज़ने ककस जन्म क़ दिःख क़ट रहा था । भगव़न ऄब ईसकी अत्म़ को श़ंऽत दे । ऽनत्यकमम से ऽनवुत हो कर मंने बऱमदे से हा देख़, ईसके घर के स़मने भाड़ जिट रहा था । बल्ल़ से आस कस्बे क़ हर कोइ जिड़़ हुअ थ़ । ऽसमना त़इ यह़ँ के सबसे पिऱने ब़सिशदं मं से था, आसऽलए ईसके सिख-दिःख को सबने ऄपऩ म़ऩ थ़ । मिझे खिद ऽवश्व़स नहा हो रह़ थ़ कक मेरे स़थ ईसक़ ज़ने ककस जन्म क़ ररश्त़ थ़ । घर मं क़म करने व़ले ब़की नौकरच़कर से पत़ चल़ कक सिबह के दस बजते-बजते ईसे लेकर सभा घ़ट चले गए थे । स़रे कममक़ंड सम़प्त कर दीसरे कदन बलवंत मिझसे ऽमलने अय़। बहुत दिखा थ़ । कह़, " जाजा, कल से भ़गवत प़ठ कऱ रह़ हूँ । अप भा अयं, बल्ल़ की अत्म़ की श़ंऽत के स़थ घर की शिऽि भा अवश्यक है । कहते हं मन्िं मं बड़ा शऽक्त होता है।" मंने कह़, "ठाक है । मं कल अ ज़उँगा । परसं मिझे व़पस लौटऩ है । मेरा के वल तान कदनं की छि ट्टा था ।" दीसरे कदन हम सब ऽसमना के घर गए । घर के एक बड़े कमरे मं बल्ल़ की तस्वार को एक मेज पर रख़ गय़ थ़ ऽजस पर िी लं की म़ल़ चढ़़इ हुइ था । एक दरा ऽबछा हुइ था, ऽजस पर बल्ल़ के म़यके , ससिऱल और पड़ोस के लोग बैठे हुए थे । म़ँ को ज्य़द़ देर नहं रुकऩ थ़ । आसऽलए वह ऽसमना त़इ को स़ंत्वऩ के दो शब्द बोल कर कि छ नगद दे कर ड्ऱआवर के स़थ लौट गया । मं कमरे मं पाछे चला गया और दाव़र से सट कर बैठ गया । बल्ल़

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की तस्वार व़ला मेज के बगल मं हा ईस की बेटा को गोद मं लेकर रे व़ बैठा हुइ था और बगल मं बलवंत । बल्ल़ के गभम से सहा, म़ँ कहल़ने क़ हक़ तो आसे ऽमल हा गय़ थ़ । कमरे से लगा हुइ ब़लकना मं हवनकि ण्ड थ़ ऽजसमं हवन की स़मऽग्रय़ँ ड़लते हुए मंिोच्च़रण चल रह़ थ़ । कि छ लोगं को छोड़कर पाछे बैठा हुइ औरतं मं धारे -धारे खिसिर-ि​ि सिर अरम्भ हो गय़ । कोइ बल्ल़ के ब़रे मं ब़त कर रह़ थ़ कक कै से ईसने तकलाफ़ मं अऽखरा स़ँसं लं, तो कोइ ईसकी बच्चा के परवररश पर । बलवंत अँखं नाचे ककये चिपच़प बैठ़ हुअ थ़ । तभा ककसा ने कह़, "आस लड़की क़ भा ऩम सोच लो, क्य़ कह कर पिक़ऱ ज़ए ?" बलवंत की म़ँ ने कह़, "कि छ भा पिक़र लो, क्य़ िकम पड़त़ है ? बल्ल़ की बेटा... ऄं.. ऄ.. ज़ैसे सभा सोचने लगे । आससे पहले की कोइ कि छ और ऩम बत़ दे, मं ज़ोर से ऽचल्ल़इ,"नहं.. क़ि छ भा नहं रखऩ है । कोइ ऐस़-वैस़ ऩम नहं चलेग़ ।" ऽसमना ने ईत्तेऽजत होकर पीछ़, "ऩम मं क्य़ रख़ है,बाबा ?" "ऩम मं जावन के सिख-दिःख की परछ़ईं ऽछपा होता है । तिमने बल्ल़ को "बल़" समझ़ थ़ न त़इ, सो जावन भर वह ऽवपद़ की म़रा रहा । और जब ऩम मं कि छ नहं रख़ है तो किर कि छ ऄच्छ़ हा ऩम क्यं न रखं। यह म़सीम तो आस बऽगय़ की िी ल है ।" आतना देर से ऄनेक लोगं की श़यद नज़र भा मिझ तक नहं पड़ा था । ऄब सभा पाछे मिड़ कर देख रहे थे । ऄपने ग़मगान चेहरे को ईठ़ कर बलवंत ने वहं से कह़, "तो अप हा बत़ओ जाजा, क्य़ रखीँ आस बच्चा क़ ऩम ?" ऄऩय़स हा मेरे मिंह से ऽनकल पड़़, "रजनागंध़..” बलवंत के चेहरे पर एक गहरा मिस्क़न ऽथरक गया, म़नो यह प्रस्त़व प़ररत हो गय़ । मिझे लग़ कक जैसे एक खिशबी ऽबखेरता हुइ हव़ की एक मिम लहर प़र कर गया हो । ऄब तक बल्ल़ की ऽजस तस्वार पर ददम की रे ख़एं छलक रहं थं, वह ग़यब हो गयं थं । ऽचर श़ऽन्त के प्रखर से देदाप्यम़न हो रहे चेहरे पर बेटा क़ ऩम सिनते हा एक ऽचर-पररऽचत मिस्क़न ईभरा और लिप्त हो गया । लग़ जैसे वह प्य़सा अत्म़ तुप्त हो गया हो । मंने झट ऄपऩ बैग ईठ़य़ और एक झटके से कमरे से ब़हर हो गया । दीर तक ऄंदर के कमरे से अ रहा मन्िं की अव़ज़ गींज रहा था... न ज़यते ऽम्रयते व़ न हन्यते हन्यम़ने शरारे .... । ♦♦♦

ड़. के वल कु ष्पण प़ठक सिकीर्षत प्रक़शन, करऩल रोड, कै थल(हररय़ण़) मील्य-150/-

ISSN –2347-8764

समाक्ष़

बच्चे मन के सच्चे मनोज 'क़मदेव ड़. के वल कु ष्पण प़ठक जा ने ऄपने कर कमलं द्व़ऱ ऄपना पिस्तक मेरे घर तक भेजा ऽजसक़ ऩम है बच्चे मन के सच्चे । यह पिस्तक ब़ल गात-संग्रह है। यह ब़ल कऽवत़ संग्रह मंने जब पड़ऩ शिरू ककय़ तो मं आस ब़ल ब़ल-गात संग्रह मं डी बत़ हा चल़ गय़ और ऄपऩ बचपन य़द अ गय़। प़ठक जा के प़स शब्दं की वो भ़ष़ है जो वो ऄपना ब़त को बहुत हा सरल शब्दं से अम प़ठक के जन म़नस मं ऄपऩ स्थ़न बत़ लेता है। आस पिस्तक मं 72ब़ल गात हं। बड़़ स़ऽहत्यक़र वहा होत़ है जो थोड़े शब्दं मं हा ऄपना ब़त को ऄपने प़ठकं तक पहुँच़ सके ऽजसमं ड़. के वल कु ष्पण प़ठक जा बहुत हा खरे ईतरे हं। सच कहूँ तो ड़. के वल कु ष्पण प़ठक जा ने आस ब़ल-गात संग्रह मं ऽवऽभन्न पहलिओं को छि अ है ऽवशेषकर पशि-प़िं, मह़पिरूषं और प्ऱकु ऽतक-ईप़द़नं के म़ध्यम से संस़र और ऄपने प़ठको को ज्ञ़न और ईपदेश प्रत्यक्ष रूप से देते कदख़इ देते हं। अज के दौर मं ब़ल-गात ऽलखऩ बेहद करठन क़यम है परन्ति ड़. के वल कु ष्पण प़ठक जा ने आस करठन क़यम को एक नये ऄंद़ज़ से ऽलख़ और ऄपने ब़ल गातं को एक नय़ अय़म भा कदय़। ऽजसे अने व़ले वक्त मं बड़े अदर के भ़व से स़ऽहत्य की दिऽनय़ँ मं पढ़़ ज़येग़। अपके द्व़ऱ ऽलखे कि छ ब़ल -गीत मेरे जैसे सामान्य व्यमि के स्मृमत पटल पर अपना सक़ऱत्मक प्रभ़व छोड़ने मं सिल रहे ऽजसक़ अपको बहुत-2 स़धिव़द। आस पिस्तक मं कि छ ब़ल-गात ऄऽत ईत्तम दजं की है ईन रचऩओं के कि छ ऄंश जो आस प्रक़र हं :- 1. अलस मं यह कभा न अता बच्चं के ऽलये भोजन ल़ता।(ऽततला) 2. सोन ऽचरै य़ सिन्दर ऽचऽड़य़, चं-चं गात सिऩताऽचऽड़य़।(सिन्दर ऽचऽड़य़) 3. पिस्तक मं क,ख,ग पढ़ के , च चीहे क़ ऽचि बऩउँ।(ऽबल्ला बोला) 4. गोबर भा है क़म मं अत़, ईपले से इधन बन ज़त, घर मं भा चौके -चील्हे को, गोबर हा तो शिद्व बऩत़।।(गौ म़त़ के गिण ऽनऱले) 5. तिम बरसोगे ऄन्न ऽनपजेग़, तिम बरसोगे घन बरसेग़।।(मेघ़ बरसो) 6. कु षक पसंने की बीँदं संग, घरता मं सोऩ ईपज़त़।(पवमत पर वष़म) 7. सबके ऄऽभन्न ऽमि हं वुक्ष, जावन के द़त़ हं वुक्ष।(वुक्ष) 8. मेरा म़ँ सबसे ऄदभित है, जो कहता वह हा हो ज़त़, ईसकी व़णा मं ज़दी है, मं तो देख खिश हो ज़त़।।(मेरा म़ँ) 9. नैऽतक-ऽशक्ष़ देते सबको, स्वयं भा करते सद-अच़र, ऐसे ऽशक्षक को मं करत़, सौ-सौ ब़र नमस्क़र।। (ऽशक्षक) 10. प्रभि प्रस़द है सिल स़धऩ, मन-ऽचत से जो करे य़चऩ। (ऐसा गिरू रऽवद़स की व़णा) 11. सिख-दिख तो बस धीप-छ़ँव है, अते हं और चले ज़ते हं।(सिख-दिख) 12. मन से हा म़नव कहल़त़, मन से ऽबऩ पशि बन ज़त़।(मन की म़य़) ऄंत मं यहा कहऩ च़हुँग़ कक अज के

स़ऽहत्य के क्षेि मं प़ठक जा बहुत हा ऄच्छ़ ऽलख रहे है और मं ईनके सिल भऽवष्पय की कमऩ करत़ हूँ। और अश़ करत़ हूँ वो यीँहं ऽनरन्तर ऽलखते रहे। यह ब़ल-गात संग्रह प़ठन योग्य है। पिनः अपको बध़इ। ♦♦♦ ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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कह़ना

एक बदऩम औरत अऱधऩ ऱय 'ऄरु'

"ज़दम चेहऱ गिम है रं गत कदल कहे कि छ और है बढ़ गइ मिऽश्कल खिद़य़ हैऱं मिस्लसल कौन है " सिंदर दो जोड़ा अँखे चेहरे पर रटक़ कर जब ईसने पीछ़ तो ऱजन मन हा मन मं शेर कह ईठ़, ह़ल़ंकक श़यर नहं थ़ वो पर ईवमशा को देख कर हो ज़ऩ च़हत़ थ़ । "दो ऽमनट रुकं गे.." , क़र मं बैठे ऱजन से ईसने कह़ । कोइ ब़त नहं अप ज़यं, मं आं तज़र करूँग़ । गोऱ सिंदर चेहऱ, सिडौल देहयऽि, ऽशिोन की नाला स़ड़ा से िै ल रहा नाल़भ अभ़ ! म़सीम मिस्कि ऱहट ऽलए ईवमशा दिक़न की ओर चला गया । ऱजन देर तक ईसे देखत़ रह़, न ज़ने क्य़ थ़ जो ईस की ओर सिखच़ चल़ गय़ । तान स़ल से ईसे देख रह़ थ़, पर बोलत़ नहं थ़ । ईसा के फ्लोर पर रहता था । रोज़ ईसा के अकफ़स मं ईसे कदख़इ देता रहा । पर ईससे ब़त करने की ऽहम्मत जिट़ नहं सक़ थ़ वो । अज भगव़न भा म़ँगे होते तो ऽमल ज़ते ! वो धारे से मिस्कि ऱ ईठ़ । ह़थ मं ढेर स़रे पैकेट ऽलए ईवमशा दीक़न से व़पस अकर क़र मं बैठ गया । "शॉसिपग हो गया?", एक ऽनरथमक स़ सव़ल जो श़यद जबरदस्ता कह़ ज़ रह़ थ़ । प्रऽतईत्तर मं ईवमशा ने धारे से सर ऽहल़ कदय़ । घर व़पस अ कर ईवमशा ऄपने फ़्लैट मं चला गया । आसके ब़द से ऱजन और ईवमशा ज़ने-ऄनज़ने ऽमल हा ज़ते थे । कभा साकढ़यं पर, कभा कॉररडोर मं । तो ऄक्सर घर से ऑकिस छोड़ते हुए । एक ऽबसिल्डग मं रहते हं, पर ऑकिस मं ऄज़नबा बन ज़ते । यहा ब़त देव ने जब देख़ तो बोल ईठ़, "..क्य़ ब़त है गिरु, गोटा ऄच्छा किट की है ? ऑकिस भा घर मं भा ?” ऱजन को ऄच्छ़ नहं लग़ थ़ ईसक़ यं बोलऩ, “अज तो कह कदय़, अगे मत कहऩ ?” ISSN –2347-8764

ईस कदन से ज़्य़द़ परे श़न रहने लग़ थ़ ऱजन । श़यद दीसरा नौकरा देख रह़ थ़ । ईसे एक गिल़बा क़गज़ मं ऽलपट़ एक नोट ऽमल़ । जो दरव़जे के नाचे से सरक़य़ गय़ थ़ – ’श़म को ऽमलो’ पत़ थ़ कक कह़ँ, सो तकलाि नहं हुइ । ईसको भा ढी ँढने मं कोइ कदक्कत नहं हुइ । हलके कत्थइ ऽलब़स मं वो व़कइ सिंदर लग रहा था । "क्य़ लोगा”, ऱजन ने पीछ़ । "ऽव्हस्की और स्कॉच तो नहं ले सकता अयररश टा चलेगा", ईवमशा ने मिस्कि ऱ कर कह़ । "सिऩ है, दीसरा नौकरा देख रहे हो ?”, ईवमशा ने ख़मोश ऽनग़हं से पीछ़ । "ह़ँ", ऱजन ने सर ऽहल़य़ । "ऄच्छ़ है कम से कम मेरे स़थ बदऩम होने से बच ज़ओगे..", ईवमशा ने एक ठं डा स़ँस ला । ईसकी अँखं मं अँसी थे। ऽजतना अस़ना से ईसने ये कह़, ईसे ऱजन ने सोच़ भा ऩ थ़ । "हम एक हा ऽबऽल्डग मं रहते हं, ऽमल सकते हं, पर ऑकिस क़ मेऱ कलाग तिम्हं देख चिक़ है.. ऄजब ऄसमंजस मं पड़ गय़ हूँ”, ऱजन ने कह़ । "ऄच्छ़", ईवमशा क़ चेहऱ झिक़ हुअ थ़ । ईवमशा नाचे सर कर कि छ सोचता रहा, किर ब़लं को झटक कर खड़ा हो गया । "ऄब चलो स़थ हा चलते हं, किर ऽबऽल्डग व़ले कि छ कहं तो ऄपऩ घर भा बदल लेऩ", ईवमशा ने कह़ । "क्यं ऐस़ क्यं कह रहा हो", कहत़ हुअ ऱजन पाछे -पाछे हो ऽलय़ । ईवमशा के क़र मं बैठ कर लग़, कि छ हुअ तो ज़रूर है, पर ईवमशा को क्य़ बिऱ लग़ पत़ नहं चल़ ।“ हम ऽजस तरह से ऽमलते हं, और तिम हा क्य़ ऱजन, मं और पिरुष ऽमिं से भा ऽमलता हूँ ।

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ऄके ला हूँ, एक ऄके ला औरत की मज़बीरा नहं ज़रूरत बढ़ ज़ता है जब स़थ मं एक बच्च़ प़लऩ हो और मेरे जैसा जो अज नौकरा करं कल छोड़ दे। मदद म़ँगता हूँ जह़ँ से ऽमलता है ,और दिऽनय़ँ मं कोइ चाज़ मिफ्त नहं ऽमलता मेरे म़ँ -ब़ब़ नहं की कोइ प़ल देग़ मिझे । "ऄब तीम च़हो तो नौकरा छोड़ दो । च़हो तो ऽबऽल्डग भा, अज भा सब ने देख़ है की तिमने मिझे ऄपने बगल की साट पर बैठ़य़ है ।" ईवमशा ने कह़ । अँखं मं अँखे ड़ल कर ईवमशा ने जो कह़, ईस से ऱजन ऄचकच़ गय़ । किर सम्हल कर ईसने पीछ़ "ऄगर कोइ ऐस़ ऽमल ज़ए की ककसा की मदद लेना हा नहं पड़े तब", ईवमशा को हँसा अ गइ ऽपछले स़त स़ल से हर कोइ प्रपोज़ तो कर रह़ थ़, पर ऽहम्मत ककस मं था सभा कीअँखं मं सव़ल थे पर जव़ब कोइ नहं बन सक़ ईसक़, पर ईसने ऱजन को कह़ कि छ नहं । "ऩ ब़ब़ मेरे दोस्त हा ऄच्छे जो ज़नते तो है कक मं कै सा हूँ,कम से कम वो कोइ ब़त ऽलह़ि मं छि प़ कर नहं कहते । "मं एक बदऩम औरत हूँ और मेरे दोस्त स़था सब मेरे जैसे, पऽवित़ क़ ढ़ोग करऩ नहं अत़ हमं । ऽजस कदन मेरा बेटा बड़ा हो ज़एगा वो दिऽनय़ँ की समझ से चलेगा ऄके ला नहं होगा वो मेरा बदऩमा भा ईसके हा क़म अएगा ऱजन,अजकल की दीऽनय़ँ मं बच्चे म़ँ-ब़प के कब है, अज सिऽप्रय़ बोर्डिडग मं है ईसकी पढ़इ ज्य़द़ ज़रुरा है मेरे घर बस़ने से कम से कम ईसके प़स म़ँ तो है । ईवमशा मिस्कि ऱता हुइ क़र से ईतर गइ जैसे दिऽनय़ँ को ठोकर म़र रहा हो, ऄच़नक ऱजन को लग़ ईवमशा ने ऄनोख़ सच बोल कर ईसे भा खिद ईसकी नजरं मं ऽगरने से बच़ ऽलय़ । दोस्त है मेरा तो प़ने की च़हत तो होगा ....किर क्य़ पत़ कल पररव़र व़लं को कऽन्वन्स नहं कर प़य़ तो ...? हर कोइ मज़बीरा बत़ कर हा म़सीम बन दीसरं पर द़ग लग़ ज़त़ है । ईसे लग़ जो औरत ऄपने अप को बदऩम कह कर चला गइ, वो दिऽनय़ँ के ह़ल़त की म़रा है । कोइ िे ऽमऽनस्ट नहं है...? ऄगले कदन ईवमशा साकढयं से नाचे ईतरा तो स़मने ऱजन खड़़ थ़, मिस्कि ऱ कर ईसने क़र क़ दरव़ज़़ खोल कदय़ । समझ लेऩ मं भा फ्लटम हूँ पर श़यद ये फ्लटम तिम्ह़ऱ दोस्त ऽनकले धोखे ब़ज़ नहं ...? ईवमशा ने मिस्कि ऱ के कह़ ईस की भा अदत है "किलह़ल ऄभा तीम मेरे स़थ हो आतऩ क़िी है पर वफ़़ की ज्य़द़ ईम्माद मत रखऩ" । सहा तो कह़ जो जैस़ कदखत़ है वैस़ होत़ कह़ँ है । दोहरे ख़ल ओड़ कर जाने से ऄच्छ़ है, जो जैस़ है स्वाक़र कर लो चोट कम पहुँचता है ।

लघिकथ़

ऽखलौने व़ला गन शिभ्ऱन्शि प़ण्डेय

“प़प़, वो व़ला गन ! देखो न, ककतना ऄसला सा लगता है !” – ब़ज़़र की भाड़-भ़ड़ मं ऽबर्टटी ईस ऽखलौने व़ला गन के पाछे हठ कर बैठ़ थ़ । “नहं बेट़.. हमं वो च़वल व़ला सेल के प़स चलऩ है । जल्दा करो, नहं तो वो खत्म हो ज़येग़..” “प़प़, आस पर भा सेल की बोडम लग़ रखा है.. प़प़ ले लो ऩ… प्लाऻ​ऻज..”, ऽबर्टटी की मनिह़र भरा अव़ज सिन कर ककसा क़ मन न राझ ज़ये। लेककन रमेश ऄपने एक म़ि हज़र रुपये के नोट को जेब मं हा कस के पकड़ रख़ थ़ । महाने के अखरा कि छ कदन थे । और किलह़ल यहा ईसकी पीँजा था । “प़प़ प्लाज….” “नहं बेट़, ये सहा नहं.. च़आऽनज है.. जल्द हा टी ट ज़येगा.. तिम्ह़रे ऽलये ब़द मं बकढय़ ले कर दंगे !” “प़प़ ये मजबीत लग रहा है..” रमेश की झिंझल़हट क़ प़ऱ चढ़ने लग़ थ़ । कक तभा, एक झटके मं ईसने ऽबर्टटी क़ ह़थ खंच कर ईसे ऄपने स़मने कर कदय़ और ईसकी अँखो मं देख़ । ऽबर्टटी ने ऄपना नजर अस-प़स ड़ला और धारे से कह़, “ह़ँ प़प़.. वो तनि है ऩ, शम़म ऄंकल क़ बेट़, ईसक़ तिरत टी ट गय़ थ़..” रमेश को ऄपऩ बचपन य़द अ गय़, जब वो ककसा ऽखलौने के ऽलये ऄपने प़प़ के स़मने जमान पर हा लोट-लोट कर रोने लगत़ थ़ । ईसके प़प़ ईसे भरे ब़ज़़र मं एक-दो थप्पड लग़ कदय़ करते थे । ईसे लग़ ऽबर्टटी बड़ऺ हो गय़ है । तभा तो एक हा ब़र मं ब़त को समझ कर ईसने ऽजद्द छोड़ दा । ईसे सहागलत खरादने की पहच़न हो गया है ! य़.. ईसे ऄपने प़प़ की अँखं से झ़ँकता मजबीरा पढना अ गया था ! ♦♦♦ एडवोके ट, चैम्बरनं- 74, ईच्च न्य़य़लय, आल़ह़ब़द (ईप्र)

♦♦♦

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समाक्ष़

भ़वऩ ऽतव़रा के प़स

ऄंतममन को खंग़लने की नैसर्षगक क्षमत़ सौरभ प़ण्डेय गात अत्माय भ़वं की गहनत़ के श़ऽब्दक स्वरूप होते हं । आसा क़रण, गातं मं प्रेम, वेदऩ, करुण़, अध्य़त्म अकद के ऽवऽभन्न अय़मं की ऽनत़ंत वैयऽक्तक ऄनिभीऽतयं क़ स्थ़न सवोपरर हुअ करत़ है । वस्तितः गातं के हो ज़ने क़ क़रण ईक्त भ़वऩओं के ऽवऽभन्न अय़मं की स़न्र स्व़निभीऽतय़ँ हा हुअ करता हं । आस तथ्य को पिनप्रमऽतस्थ़ऽपत करत़ है ऄंजम ि न प्रक़शन, आल़ह़ब़द से सद्यः प्रक़ऽशत भ़वऩ ऽतव़रा क़ गात-संग्रह ’बीद ँ बीद ँ गंग़जल’ ! ह़ल़ँकक, गातक़र क़ यह पहल़ गात-संग्रह है, ककन्ति, आस तथ्य को सहज हा स्थ़ऽपत कर देने मं सक्षम है, कक भ़वऩ ऽतव़रा के प़स ऄंतममन को खँग़लने की नैसर्षगक क्षमत़ है । संग्रह के म़ध्यम से गातक़र की ऽनत़ंत वैयऽक्तक भ़वऩएँ, सिख, दिख, प्रेम, भोग, टी टन, ईल्ल़स, अनन्द, पाड़़ अकद ऄऽभव्यऽक्तय़ँ शब्द-म़गम प़ गया हं । स़थ हा, ऄऽधक़ंश रचऩओं क़ स्वरूप सवमसम़हा संप्रेषण क़ ऐस़ ईद़हरण बन कर स़मने अय़ है, ऽजसके पररवेश मं अमजन की तदनिरूप भ़वदश़एँ संतिऽि प़ता हं । अजके स़ऽहत्य की म़ँग भा यहा है कक गात ऄपने नये कलेवर मं वैयऽक्तक मनोदश़ के ऽक्लि तत्त्वं को सहजत़ से ऄऽभव्यक्त कर प़यं, त़कक वे अमजन और प्रभ़ऽवत वगम की सशक्त ऄऽभव्यऽक्त बन प़यं – ऄधर पर पहरे हज़़रं हं लगे / प्राऽत के

च़ऽहए होता है । ब़ह्य-जगत की प्रताऽतयं से प्रभ़ऽवत आस गातक़र क़ ऄंतमिमखा स्वरूप ईन प्रताऽतयं के प्रभ़वा क़रणं को ऄपने भातर ऄपने ऄर्षजत हा नहं व़यव्य ऄनिभवं मं भा ढी ँढत़ है । कै से ? कठोपऽनषद की ईद्घोषण़ के स़पेक्ष आस दश़ को हम समझं पऱऽिख़ऽन व्यतुणत् स्वयम्भीः तस्म़त् पऱङ्पश्यऽत ऩन्तऱत्मन् । कऽंिारः प्रत्यग़त्मनं ऐक्षत् अवुत्तचक्षिः ऄमुतत्वं आच्छन् ॥ [कठ. 2.1.1] ईपयिमक्त कहे क़ ऽनऽहत़थम यहा है कक परमसत्त़ ने श्रोि़कद आऽन्रयं की ऽवषय-प्रक़शक रचऩ की है । आसा क़रण सभा ब़ह्य जगत से प्रभ़ऽवत हुए ब़हर की ओर देखते हं । कोइ धैयमव़न हा मील तत्त्व को ज़नने की आच्छ़ से ऄपने भातर झ़ँकत़ है । के द़र ऩथ सिसह के शब्दं मं - गात कऽवत़कमम क़ एक ऄत्यंत

य़ किर - संघषं के

करता / धरता ब़दल के ऄधरं को / छी कर दिगन ि ़ तड़पा / ब़ँध रहा ककतना अश़एँ / अने व़ले कल की / ऽवरह-ऽमलन के ख़ते खोलीँ, अँसी क़ व्य़प़र करूँ / मं आक नकदय़ जनम-जनम से, आक स़गर से प्य़र करूँ !

ऄब पि / कौन ब़ँचेग़ ?

बाच न ज़ने / कै से यौवन क़ट़ / य़द नहं ककतने ऽहस्सं मं / मंने खिद को ब़ँट़ / कोनेकोने दहक रहे हं / बेग़ने ऄंग़र / कबतक ढोउँ आकरि़ / आन सम्बन्धं क़ भ़र ? ऄंतममन की सीक्ष्म ऄनिभीऽतयं को परख कर ईसे श़ऽब्दक करऩ एक ऽक्लि प्रकक्रय़ है । आसके ऽलए ऄसाम धैय,म सहृद प़रखा दुऽि और ईत्कट प्रेषण क्षमत़ ISSN –2347-8764

हा ऽनजा स्वर है, ऽजसमं कऽव स़रे ब़ह्य ऄवरोधं और ऄसंख्य तहं को भेद कर साधे ऄपने अप से ब़त करत़ है ।

देख़ ज़य तो ऄपने अप से हुइ आस भ़वमय ब़तचात की ऄनिगीँज हा श़ऽब्दक हो कर गात के रूप मं प्रस्ि​ि रटत होता है । आस ऽवन्दि पर संग्रह क़ गातक़र भा ऄपने स्वर स़धत़ हुअ कदखत़ है - हृदय-प़ट खिल-खिल ज़त़ है, / स़ँकल क़म न

वस्तितः भौऽतक संस़र के उह़पोहा संज़ल और ईलझनं के ब़वज़ीद गाऽत-भ़व़ऽभव्यऽक्तयं मं जा सकने के सीि हुअ करते हं । ऄवगिंरठत वैच़ररकत़ आन्हं सीिं से प्रक़श एवं प्रव़ह प़ता है, जह़ँ अत्मतिऽि के ऽवन्दि सहल़ते और सह़ऱ देते हुए ककसा दुढ़ संबल की तरह व्यवह़र करते हं । गात-द़ऽयत्व गातक़र के ऽलए पल़यन कत्तइ नहं हं, बऽल्क स्थ़ऽपत समझ ऽलये गये व्यवह़र एवं दश़ से प्रत्यक्ष संव़द हं –ह़थ पस़रे

क़ल ऽनरं तर / एक छोर से ब़ँधे तन को / एक छोर मिझसे न छी ट़ / कौन हट़ये सम्मोहन को / ... / ककधर मिऽक्त है, मोक्ष ककधर है / है ऄज्ञ़त ऽक्षऽतज क़ ऽमलऩ / स़ँसे ऽशऽथल, हौसल़ घ़यल / पर प्ऱण़न्त-प्रलय तक चलऩ / आधर मोह क़ नभ ऽवस्त़ररत / ईधर भीऽम ककसकी बतल़ दो !

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ऽप्रयतम से संयोग की दश़ व़यव्य हा क्यं न हो, प्रस्तित संग्रह क़ गातक़र आन चरम़निभीऽतयं को गाऽत-ऄऽभव्यऽक्त के म़ध्यम से संप्रेऽषत होत़ है । ऐसे मं ऄपेऽक्षत अनन्द मं ककसा तरह के व्यवध़न के ऽवरुि आस गातक़र क़ चात्क़र ईठऩ ईसके ऄऽत स़न्र प्रेमभ़व क़ हा मिखर पररच़यक है । स्व़भ़ऽवक है, प्रेमाभ़व को जात़ हुअ गातक़र ईप़लम्भ भरे स्वर मं ऄपने प्रथम पिरूष को ईल़हने देत़ कदख रह़ है, जो ईसके अनन्दम़गम क़ हा स्थील सहभ़गा-य़िा है ! - तिम सबने समझ़ हम खिश हं / क्यीँ

भातर की पार न ज़ना / ऄपलक अँसी झरे नयन से / मिखर नहं हो प़या ब़ना / प़स हम़रे कहने क़ हक / होत़ तो / सब कि छ कह लेते .. य़ किर, ..प्य़र बहुत है आस धरता पर / दीर ऽक्षऽतज तक ऄपऩपन है / लेककन ऽजस पर ककय़ भरोस़ / वहा सग़ छल ज़त़ मन है / मन की दिखता रग़ छी ज़ये / ऽमलन ऄगर हो तो ऐस़ हो .. य़, आस गात़ंश को देखं - मिझ ऽबन चैन न अये पलभर / तिमको श़प लगे जावन क़ / ऽवरहा मन को छलने व़ले / तिमको श़प लगे ऽवरहन क़ ! ऐस़ नहं कक, ईस पिरुष के प्रऽत गातक़र क़ ईत्कट ककन्ति ऄवचेतनाय ऄनिऱग ककसा तौर पर ककसा संदेह के द़यरे मं है । बऽल्क, यह ऄनिऱग कइ ब़र ईस पिरुष के व़यवाय स़ऽन्नध्य मं भा अनन्द की सवोच्च दश़ को प्ऱप्त होकर ऽवऽशि भ़वदश़ की अवुऽतजन्य सतत ऄनिभीऽतयं क़ अनन्दमय क़रण बन ज़त़ है -

तिम अये ऽप्रय लेकर प्य़र / ऽसन्दीरा लगत़ संस़र / दिखद क्षणं मं ऽवहँस ऽमले तिम / महक ईठे ज्य़ीँ हरसिसग़र ..

कहऩ न होग़, हरसिसग़र के िी लं के टपक पड़ने क़ ऽबम्ब ऄन्यतम ऽनस्सरण-ऄऽभव्यऽक्त के ऄद्भित ऽबम्ब प्रस्तित करत़ है । हो सकत़ है, ईक्त पिरुष क़ व़यव्य स्वरूप भौऽतक स्वरूप से सवमथ़ ऽभन्न हो ! च़हे जो हो, परन्ति ऐस़ अम तौर पर होत़ रह़ है । प्रथम पिरुष के भौऽतक स्वरूप और प़रस्पररक यथ़थम से गातक़र कइ ब़र ऄसहज कदखत़ है, परन्ति, ऄपने ऄंतममन मं ईसाकी ऄऽभन्नत़ के चरम को भोगत़ भा है –जनम-जनम की

प्य़स ऄधीरा / सहा ऽनरं तर तिमसे दीरा / मं घिल ज़उँ हो ऽवलान ऽप्रय / ऽमटीँ, च़हऩ हो ये पीरा / बंध तोड़ दो, मिझे बिल़ लो, ऽनज स़ँसं के ग़ँवं मं / ऱत-ऱत भर जगीँ न अये, नंद पनाला अँखं मं !

भ़वदश़ की ऐसा प्रवहम़न ध़ऱ हा अध्य़ऽत्मक पहलिओं की ऄऽभव्यऽक्त क़ क़रण भा हुअ करता हं –ऄब न कोइ शेष आच्छ़,

ऄब न कोइ भ़वऩ / ऄब न कोइ अस मन मं, ऄब न कोइ य़चऩ / एक च़हत है तिम्ह़रे पंथ मं स़था बनीँ .. गातक़र क़ यहा स्वरूप प़ठकं की भ़वमय तुष़ को संति​ि करत़ है और स़ऽहत्य़ंगन को अश़ऽन्वत ! भ़वऩ ऽतव़रा के गातं से गिजरते हुए एक ब़त जो ब़र-ब़र पररलऽक्षत होता है, वह ये, कक ईनके ऄनवरत ईत्कट अह और ऽचर ऄतुप्त च़ह के ब़वज़ीद भ़व़ऽभव्यऽक्तयं मं नैऱश्य ककसा सीरत मं स्वर नहं प़त़ । गातक़र ब़र-ब़र व्यवह़र संतल ि न की ब़त करत़ हुअ जावन को भोगने एवं बरतने की ब़त करत़ है । आनके गातं मं ऽमट ज़ने य़ ऽनस़र हो ज़ने के भ़व ऄद्वैत समपमण ISSN –2347-8764

के भ़व क़ ऽनरुपण ऄऽधक हं –ऄधरं से गात ऽमल ज़ने दो /

स़ंसं से प्रात घिल ज़ने दो / मेरा पाड़़ मं अज प्ऱण / ऽनज ददम ऽवलय हो ज़ने दो / ऽप्रय, अज प्रणय हो ज़ने दो य़ अश़ क़ यह भ़वरूप देखं –ऱत ज़गंगे नयन किर / प्य़स ईपजेगा पिनः / और व्य़कि ल हो ईठे ग़ / मन ईसा भिजबन्ध को ! मनिष्पय के संप्रेषण ऄंतमिमखा हं ऄथव़ बऽहमिमखा, प्रत्येक दश़ मं प्रकु ऽत ऽवद्यम़न हा नहं, रुप़यम़न भा रहता है । प्रकु ऽत ऄपने वतमम़न स्वरूप मं भा म़नव की जावनदश़ को प्रभ़ऽवत करता है। प्रकु ऽत पर अऽश्रत ग्ऱमाण पररवेश की पिऱना जावन-दश़ से आतर लग़त़र रुक्ष होते हुए ग़ँव के ऽवरीप म़हौल हं ऄथव़ ईंटं के जंगलनिम़ शहर, आनमं जाने को ब़ध्य अज क़ अमजन ऄपने प्रऽतकदन के संघषम मं आसा के ऄव्यवऽस्थत स्वरूप को जात़ हुअ प्रकु ऽत की मौज़ीदग़ा को महसीसत़ है । कोइ संवेदनशाल गातक़र ऽबऩ प्रभ़ऽवत हुए रह हा नहं सकत़ –पौधे सीख गये हं / प़ना

नहं पड़़ है / जीहा, बेल़, गंद़ / सब पर गदम चढ़़ है / नहं कहं से अता . गंध-लवंडर व़ला / तिमसे ऽमलऩ / हुअ ऄसंभव / गय़ कलेण्डर ख़ला । कलेण्डर के ऽबम्ब से ऽजन आऽगतं को जात़ हुअ

ऩरा-मन ऄऽभव्यऽक्त प़त़ है, वह अजकी ऩरा के अत्म-ऽवश्व़स क़ हा पररच़यक है –ककस पऱजय से डर / च़ह ककस जात की /

व्यथम है ल़लस़ / ऱह मं मात की / क़ल ऽनत समर / लड़ते रहऩ ऄथक / थन न ज़ऩ कहं / मुत्यि क़ ध्य़नकर / रुक न ज़ऩ कहं, मात तिम ह़र कर ।

गेय होऩ गात की ऄऽनव़यम शतम है । गेयत़ की ऄंतध़मऱ के ऽबऩ गात की कल्पऩ हो हा नहं सकता । परन्ति, यह भा ईतऩ हा सहा है कक हर गेय रचऩ गात नहं हो सकता । ऄथ़मत, ऄऽभव्यऽक्त के गात के होने मं कमनाय ईद्वेलन के स़थ-स़थ भ़वमय संगठन क़ भा बहुत बड़़ ह़थ होत़ है । आस ऽवन्दि पर हम यह भा समझते चलं कक कोइ संगठन ऽबऩ ऄनिश़सन और ऽवध़जन्य ऄनिप़ऽलक़ के संभव नहं है । आसक़ ऄथम यहा हुअ कक गात की सरसत़ से प्रभ़ऽवत होने के पीवम गातक़रं को यह समझऩ हा होग़, कक गात सरस, प्रवहम़न भ़व़ऽभव्यऽक्त होने के पीवम शैऽल्पक रचऩधर्षमत़ के ऄनिप़लक हं । ईन्हं ऄनिश़सन की कसौटा से ऄवश्य गिजरऩ च़ऽहए, ऄन्यथ़ गातं को ऄन्य़न्य कइ क़रकं के स़थ-स़थ ऽवध़ को ले कर ऄपऩया गया ऄनिश़सनहानत़ से भा भयंकर चोट लगता है । क़रण यह है, कक ऄऩय़स प्रय़स से कि छ ऄऽभव्यक्त भले हो ज़य, गात प्रस्ि​ि रटत नहं होते । आस सम्बन्ध मं प्रखर जनव़दा गातक़र नऽचके त़जा को सिनऩ समाचान होग़ - ’

गातक़र रचऩ के म़ध्यम से के वल ऄपने को ऄऽभव्यक्त नहं करत़, वरन्, ऄपने ऄनिभवं को सम़ज के ऄनिभवं से संश्लऽे षत कर, (य़) ऄपने भातर ऽनऽहत अत्म को स़म़ऽजक सम्बन्धं के स़ँचे मं ऽस्थर कर स़म़ऽजक दुऽि से एक ऄत्यंत हा मील्यव़न वस्ति क़ हा ऽनम़मण नहं करत़, ऄऽपति वह ऄपने अत्म को हा नये स़ँचे मं ढ़ल कर एक नया सुऽि करत़ है ।’’ नऽचके त़जा ने सहज हा

गातं के भ़व, ईनकी दश़, ईनकी पहुँच, ईनके ऄथम और ईनके स्वरूप को भा ऽनरुऽपत कर कदय़ है । आस ऽवन्दि पर अगे कह़ ज़य, तो शैऽल्पक ऽशऽथलत़ ऄऽभव्यऽक्तयं की व्य़पकत़ को

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संकिऽचत करता है, जो गात के अचरण के ऽवरुि है । परन्ति, प्रस्तित संग्रह मं कइ स्थ़नं पर आस प्रखर गातक़र की ऄ्‍य़स-प्रकक्रय़ क़ ऄसहजपन ईभर अत़ है । आस ऄसहजपन के क़रणं मं से ऽवध़सम्मत ऽनयम़कद तो हं हा, पद्य स़ऽहत्य के ऄपने स्थील ऽवन्दि भा हं, ऽजनक़ ऄनिप़लन ककय़ ज़ऩ ऽबऩ शतम अवश्यक हुअ करत़ है । मंचाय प्रेषणायत़ को कइ ऽवध़जन्य ऽवन्दि अवश्यक न भा लगं, भले हा गातक़र द्व़ऱ ककय़ ज़त़ भ़वऽवभोर रचऩ-प़ठ कइ ऐसे ऽवन्दिओं को सहेजत़-समेटत़ हुअ प्रवहम़न होत़ ज़ये, ऽजनक़ स़ऽहऽत्यक पक्ष लसर हो, ककन्ति ईन ऄऽभव्यऽक्तयं की स़ऽहऽत्यक ग्ऱह्यत़ और ईनके प्रऽत सिधा प़ठकं की स्वाकु ऽत ऄवश्य ऄसहज हुअ करता है । मंच और स़ऽहत्य के बाच क़ यह ऄंतर ऽजतऩ शाघ्र कम हो, स़रस्वत-ऽवस्त़र ईतऩ हा ऽनरभ्र होग़ । आस ऽनरभ्रत़ क़ ल़भ ईसा सम़ज को ऽमलऩ है जो स़ऽहत्य क़ हेति है, य़ना अमजन । ऄतः आस ओर सभा गातक़रं को सचेत हो कर सोचऩ ज़रूरा है । यहा चेतऩ जनस़ऽहत्य की ऄपेक्ष़ भा है । भ़वऩ ऽतव़रा की संप्रेषणायत़ के ऄन्य़न्य पहली आतने प्रखर हं कक रचऩकमम मं ऐसा कोइ ऽवध़जन्य कमा बड़ा कदखने लगता है । परन्ति, अश्वऽस्त है कक ईनक़ गातक़र आसे बखीबा समझत़ है । वह आस ओर न के वल संवेदनशाल है, बऽल्क सम्यक सिचऽतत भा है –स़ऱ जावन / ऽशल्प

प्रेम क़ / गढ़ नऽह प़ये / पंथ थ़ दिष्पकर / भटक कर / ह़थ अइ वेदऩएँ / ... / व्य़करण मं हा ईलझ कर / रह गया सब भ़वऩएँ

वतमम़न पररऽस्थऽतयं मं गातं मं यकद प्रगऽतशालत़ के तत्त्व न हं, तो वे एक ऽवन्दि के ब़द लगभग ऄप्ऱसंऽगक हो ज़ते हं । प़ठकश्रोत़ के तौर पर अमजन भा ईनक़ लग़त़र अस्व़दन नहं कर प़त़ । प़ठक को भ़विकत़ की कोरा शब्द़वऽलय़ँ देर तक ब़ँधे नहं रह सकतं । गलदश्रि भ़वऩओं के ऽनवेदनं क़ ऄऽतरे क हा तो गातं के ह़ऽशये पर चले ज़ने क़ क़रण बऩ थ़ । यह प्रणयऽनवेदनं और कमनायत़पीजन क़ जिगिप्स़क़रा ऄऽतरक हा थ़, कक ऽजस सम़ज मं सऩतन क़ल से जावन क़ हर प्रक्रम पाढ़ा-दरपाढ़ा गातं पर अऽश्रत रह़ हो, हर तरह की भ़वऩ को ऄऽभव्यक्त करने के ऽलए ईसके प़स गातं क़ सरस अध़र रह़ हो, स्त्रापिरुष, अब़लवुि गातं की स्वऱवुऽतयं से संजावना प़ते रहे हं, ईस सम़ज मं गातं को हा त्य़ज्य समझने की कि ऽत्सत मिहाम चल़या गया । कि छ हद तक यह वगम सिल भा रह़ । वस्तितः अजक़ प़ठक व़यव्य भ़व-भ़वऩ और ऄऽत मऽहम़मऽण्डत ऽवगत की ग़थ़ से देर तक बँध़ नहं रह सकत़ । छ़य़व़दा प्रताकं और ऽबम्बं क़ रहस्य अजके प़ठकं को देर तक नहं लिभ़ सकत़, ऽजतऩ कक यथ़थमव़दा, वस्तिपरक, सम़ज स़पेक्ष ऽबम्ब और कथ्य अमजन को ब़ँध सकते हं । वस्तितः यहा गात-य़ि़ की नया शिरुअत है । अजके प़ठकं को तो गऽतशाल यथ़थम क़ बहुव़दा स्वरूप ऄऽधक अकर्षषत करत़ है ! जह़ँज़ऽत, सम्प्रद़य, भ़ष़, प्ऱन्त अकद की साम़एँ ऄपने प़रम्पररक संकीणम स्वरूप के क़रण टी ट रहा हं और गात व्य़पकत़ को ऄंगाक़र कर नये सम़ज की संरचऩ के ऽलए अग्रहा कदखत़ है । अवश्यक है, देश, क़ल, पररऽस्थऽत और सम़ध़न प़ठक हा नहं, गातक़र के ISSN –2347-8764

ऽलए भा ऄऽधक ऄथमव़न होने च़ऽहए । आस ऽहस़ब से यह देखऩ अवश्यक हो ज़त़ है कक रचऩक़र आन ऄपेक्ष़ओं के स़पेक्ष ककतऩ संवेदनशाल है । आस ऽवन्दि पर अजक़ प़ठक अजकी दश़, अजके ऽबम्ब और ऽवडंबऩओं के ऽवरुि स़मऽयक सम़ध़न च़हत़ है । ऄब गातक़रं के सचेत हो ज़ऩ च़ऽहए । गाऽत-क़व्य अज ऄपने कइ पहलिओं को स़थ ऽलए स़ऽहत्यकमम के के न्र मं है ! भ़वऩ ऽतव़रा के प़स आस चेतऩबोध से ईपजा ईवमर समझ ऄवश्य है । अवश्यकत़ है तो आस दुऽि को ताक्ष्ण करने की तथ़ ऄऽभव्यऽक्त हेति प्रयिक्त शब्दं को और प्रभ़वा बऩने की, ऽजनक़ स्वरूप व़यव्य हो हा नहं सकत़ । भ़वऩ ऽतव़रा की सचेत दुऽि को ऄनिमोकदत करते प्रस्तित संग्रह क़ एक गात़ंश देखं –धील, धिअँ,

धीप के स़ये / कं कराट-से ररश्ते प़ये / हव़ ऽवरोधा, अप़ध़पा / छ़य़ मं भा तन जल ज़ये / क्य़ प़ऩ थ़, क्य़ प़य़ है ? / खिद को कह़ँ ढके ल़ है ? / उँचे टाले पर बैठ़ / मन-पंछा बहुत ऄके ल़ है ! किर, एक अम गऽहणा की लस्त दश़ को प्रस्तित करता आन पंऽक्तयं को देखऩ समाचान होग़ –हर कदन कटे मशानं जैस़ /

स़ँझ सलोना सपन हुइ / चैन कह़ँ ऽगरवा रख अये / ऱत सजाला हवन हुइ / िी लं की ऄऽभल़ष़ करते / बाज शील के बोते हो ? य़ किर, बेरटयं की अज की स़म़ऽजक दश़ के प्रऽत संवेदनशालत़ की एक ब़नग़ा देखं –ब़ब़ के सत्क़र-सा / मय़मद़ पररव़र की /

क्यं लगता हं भ़र-सा / थोथ़ देता िटक, सीप, होता हं बेरटय़ँ / भोर लजाला भऽक्तरूप होता हं बेरटय़ँ ! कहऩ न होग़. कइ प्रस्तिऽतयं के ज़तायबोध क़ ऄंतर्षनऽहत भ़व ऄपने संकिऽचत द़यरे से ब़हर, सम्पीणम म़नवायत़ को स्वर देत़ हुअ प्रतात होत़ है । कि ल बहत्तर गातं के आस संकलन मं कइ गात भ़वऩ ऽतव़रा के रचऩकमम के प्रऽत ऄसाम संभ़वऩएँ जग़ते हं । ऽवश्व़स है, ईनक़ गातक़र ऄपना स़रस्वत क्षमत़ को पररम़र्षजत कर आस कदश़ मं और सचेि, और अग्रहा, और व्य़पक होग़ । आस संग्रह के म़ध्यम से गातक़र को डॉ. ऽशवओम ’ऄम्बर’, श्रा मनोज कि म़र ’मनोज’, श्रा सताश गिप्त़ की स़पेक्ष शिभक़मऩएँ ऽमला हं, जो संग्रह मं भीऽमक़ओं के रूप मं संग्रह क़ ऽहस्स़ हं । स़थ हा, ह़डम-कवर के फ्लैप पर गात-ऽचतेरे पद्मभीषण गोप़लद़स ’नारज’, डॉ. कि ऄँर बेचैन तथ़ डॉ. पंकज ऽिवेदा की प्रेरक शिभेच्छ़एँ हं । आन सभा क़ गातक़र भ़वऩ ऽतव़रा के प्रऽत अत्माय ऄनिऱग सहज हा ऄऽभव्यक्त हुअ है । ♦♦♦ क़व्य-संग्रह : बीद ँ बीद ँ गंग़जल / गातक़र : भ़वऩ ऽतव़रा कलेवर : ह़डम कवर / पिस्तक-मील्य : रु. 200/ प्रक़शक : ऄंजिमन प्रक़शन, आल़ह़ब़द इ-मेल : anjumanprakashan@gmail.com ♦ सौरभ प़ण्डेय एम-2 / ए-17, ए.डा.ए. कॉलोना, नैना, आल़ह़ब़द -211008 (ईप्र) संपकम : +91-9919889911 इ-मेल :: saurabh312@gmail.com

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समाक्ष़

संवेदऩ के : गात नवसिख-वेदऩ के अच़यम संजाव वम़म 'सलाल' गात-नवगात के म़नकं, स्वाक़यमत़ओं-ऄस्वाक़यमत़ओं को लेकर तथ़कऽथत मठ़धाशं द्व़ऱ छे ड़ा गया ऽनरथमक कव़यद से दीर रहते हुए ऽजन नवगातक़रं ने ऄपना कु ऽत गात-संग्रह के रूप मं प्रक़ऽशत करऩ बेहतर समझ़ जयप्रक़श श्राव़स्तव ईनमं से एक हं । सिहदा स़ऽहत्य मं ऩकोत्तर ईप़ऽध प्ऱप्त रचऩक़र गात-नवगात को भला-भ़ँऽत समझत़ है । ईनके वैऽशष्पट्ड, स़म्य और ऄंतर पर चच़म भा करत़ है, ककन्ति ऄपने रचऩकमम को अलोचकीय छाछ़लेदर से दीर रखने के ऽलये गात-संग्रह के रूप मं प्रक़ऽशत कर संति​ि है । आस क़रण नवगात के समाक्षकं-शोधछ़िं की दुऽि से ऐसे नवगातक़र तथ़ ईनक़ रचऩ कमम ओझल हो ज़ऩ स्व़भ़ऽवक है । 'पटिरदे संवेदऩ के शाषमक चिक़त़ है । पटिरदे ऄनेक, संवेदऩ एक ऄथ़मत एक संवेदऩ ऽवशेष से प्रभ़ऽवत ऄनेक भ़व पऽक्षयं की चहचह़हट ! ककन्ति संग्रह मं संकऽलत गातनवगात जावन की ऽवऽवध संवद े ऩओं सिख-दिःख, प्राऽत-घुण़, सजमन-शोषण, ऱग-ऽवऱग, संकल्प-ऽवकल्प अकद को ऄऽभव्यक्त करते हं । ऄत:, पटिरदे संवेदऩओं के शाषमक ईपयिक्त होत़ । जयप्रक़श अत्म़नंदा रचऩक़र हं । वे छं द के ऽशल्प पर कथ्य को वरायत़ देते हं । ईनके सभा गात-नवगात गेय हं, ककन्ति ऽवऽवध ऄंतरं मं सम़न संख्य़ ऄथव़ म़ि़ भ़र की पंऽक्तयं की स़म़न्यत: प्रचऽलत प्रथ़ क़ ऄनिकरण वे हमेश़ नहं करते । हर ऄंतरे के पं़त मिखड़े के सम़न तिक़ंता पंऽक्तयं की प्रथ़ क़ वे प़लन करते हं । ईनके नवगात कथ्यकं करत हं । प्रकु ऽतपय़मवरण, श़सनप्रश़सन, शोषणऽवल़स, ऽगऱव-ईठ़व, अश़-ऽनऱश़ अकद ईनके आन ५८ नवगातं मं ऄन्तर्षनऽहत हं । आन नवगातं की भ़ष़ ISSN –2347-8764

स़म़न्यत: बोला ज़ रहा शब्द़वला से संपन्न है । जयप्रक़श ऄलंकरण पर स्व़भ़ऽवक स़दगा को वरायत़ देते हं । वे शब्द चिनते नहं, नदा के जलप्रव़ह मं स्वयमेव अता लहररयं के तरह शब्द ईनके प़स ऄपने अप अते हं - अश्व़सन के घर /

खिऽशयं क़ डेऱ / ऽवश्व़सं के / दापक तले ऄँधरे ़ / बाज बच़ / रक्ख़ है हमने / ग़ढ़े वक़्त ऄक़ल क़ / हर संध्य़ / झंझ़व़तं मं बाते / नेह-प्य़र के / स़रे घट हं राते / संबंधं की / पगडंडा पर / ररश्त़ सहा कि द़ल क़ ज़ड़े के सीरज को ऄँगाठा की ईपम़ देत़ कऽव दुश्य को सहजत़ से शऽब्दत करत़ है -

एक जलता ऄँगाठा स़ / सीयम धरकर भेष / ले खड़़ पीरब कदश़ मं / भोर क़ सन्देश / कि नकि ना सा धीप / पत्ते पेड़ के ईजले / ज़गकर पंछा / ऽनव़ले खोजने ऽनकले / नदा धोकर मिँह खड़ा / तट पर ऽबखेरे के श जयप्रक़श मन मं ईमड़ते भ़वं को साधे क़गज़ पर ईत़र देते हं । वे ऽशल्ल्प पर ऄऽधक ध्य़न नहं देते । गाताय म़ि़त्मक संतिलन जऽनत म़धियम के स्थ़न पर वे ऄऽभव्यऽक्त की सहजत़ को स़धते हं । िलत:, कहं-कहं कऽवत़ की ऄनिभीऽत देते हं नवगात । ऄँतरे के पं़त मिखड़े की समतिक़ऽन्त-समभ़राय पंऽक्तय़ँ हा रचऩओं को गात मं सऽम्मऽलत कऱता हं संवेदऩयं / हुईं ख़ररज, पड़ा हं / ऄर्षज़य़ँ (९-१२-५) बद से बदतर / हो गये ह़ल़त (८-१०) वेदऩएँ हं मिखर / चिप हुए ज़ज़्ब़त (१२-१०) अश्व़सनं की / ब़ँटा गईं बस / पर्षचय़ँ (९-९-५) सोच के अगे / ऄऽधक कि छ भा नहं (९-१०) न्य़य की फ़़आल / रुकी है बस वहं (९-१०) व्यवस्थ़ओं ने / बय़नं की ईड़़ईं / धऽज्जय़ँ (१०-१२-५) प्रऽतऽष्ठत ऄपऱध / ऽबक चिकी है शमम (१०-१०) ह़थ मं क़नीन / हो रहे दिष्पकमम (१०-१०) मठ़धाशं से / सिरऽक्षत ऄब नहं / मीर्षतय़ँ (९-१०-५) स्पि है कक मिखड़़ तथ़ ईसकी अवुऽत्त ९-१२-५ = २६ म़िाय ऄथव़ ५-८-३ के वर्षणक बंधन मं अस़ना से ढ़ला ज़ सकता हं । किकति ऄऽभव्यऽक्त को मील रूप मं रख कदय़ गय़ है । आस क़रण नवगातं मं ऩदाय पिनऱवुऽत्त जऽनत सिदयम मं न्यीनत़ स्व़भ़ऽवक है ।

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जयप्रक़श जा के नवगातं क़ वैऽशष्पट्ड ऽबऩ ककसा प्रय़स के अंग्ल शब्दं क़ प्रयोग न होऩ है । कं राय ऽवद्य़लय मं ऽशक्षक होने के ऩते ईनके कोष मं ऄनेक अंग्ल शब्द हं, किकति भ़ष़ पर ईनक़ ऄऽधक़र ईन्हं अंग्ल शब्दं क़ मिहत़ज नईं बऩने देत़ जबकक संस्कु त मील के ऽशऱ, ऄवशेष, व़त़यनं, शतदल, ऄनित्तररत, नतमन, प्रऽतम़न, ईत्पाड़न, यंिण़एँ, श्रमिल अकद, देशज बिंदेला के समंदर, माड़, दावट, ऽबचरं , दिऱव, कदह़ड़ा, तलक, उसर अकद और ईदीम के ख़ररज, ऄर्षजय़ँ, बदतर, ह़ल़त, ज़ज़्ब़त, बय़नं, बह़वं, वज़ार, ज़मार, दरख्तं, दिश़ले, ऽनव़ले, दिश्व़ररयं, मंऽज़ल, ज़ख्म, बेनीर, ख्य़ल. दहलाज़ अकद शब्द वे सहजत़ से प्रयोग करते हं । शब्दं को एकवचन से बहुवचन बऩते समय वे ज़ज़्ब़ - ज़ज़्ब़त, ह़ल - ह़ल़त मं ईदीम व्य़करण क़ ऄनिकरण करते हं तो बय़न - बय़नं मं सिहदा व्य़करण के ऄनिरूप चलते हं । क़ले-गोरे , शह-म़त, िी ल-पत्ते, ऄस्त्र-शस्त्र, अड़ा-ऽतरछा जैसे शब्द यिग्म भ़ष़ को सरसत़ देते हं। आस संग्रह के मिरण मं पथ्य-शिऽि पर कम ध्य़न कदय़ गय़ है । िलत: अहूऽत (अहुऽत), दपमन (दपमण), ईपरा (उपरा), रुप (रूप), ऽबचरते (ऽवचरते), खड़त़ल (करत़ल), ईँ च़ (उँच़), संपकर (सिपकर), बज़ार (वज़ार), झंझ़ब़तं (झंझ़व़तं) जैसा ि​िरटय़ँ हो गया हं । जयप्रक़श के ये नवगात अम अदमा के ददम और पाड़़ की ऄऽभव्यऽक्त के प्रऽत प्रऽतबि हं । श्रा ऽशवकि म़र ऄचमन ने ठाक हा अकऽलत ककय़ है - आन गातं की लय़त्मक ऄऽभव्यऽक्त के

ग़ज़ल जयऽनत कि म़र मेहत़

गय़ है संचकर जो ब़ग़-ए-कदल को, आक नज़र कोइ ऽख़ज़़ओं क़ नहं होत़ दरख़्तं पर ऄसर कोइ कदलं के दरऽमय़ आक़ऱर कोइ हो गय़ थ़, पर न था ईनको ख़बर कोइ, नहं मिझको ख़बर कोइ मिक़द्दर हर ककसा पे मेह्रब़ं होत़ नहं य़रो कहं क़दमं मं है मंऽज़ल, भटकत़ दर-ब-दर कोइ

वलय मं प्रेम, प्रकु ऽत, पररव़र, ररश्ते, स़म़ऽजक सरोक़र, ऱजनैऽतक ऽवरीप, ऄसंगऽतयं क़ कि छ ज़ऩ, कि छ ऄनज़ऩ कोल़ज है ।

भरोस़ है हमं च़ऱगरा पर हद से भा ज़्य़द़ मराज़-ए-आश्क़ प़लेग़ न मज़म ऄब ईम्र-भर कोइ

जयप्रक़श जा पद्य स़ऽहत्य मं छं दबित़ से ईत्पन्न लय और संप्रेषणायत़ से न के वल सिपररऽचत है ईसे ज़नते और म़नते भा हं, आसऽलए ईनके गातं मं छ़न्दस ऄनिश़सन मं शैऽथल्य ऄय़ऽचत नहं सिऽवच़ररत है, ऽजससे गात मं रस-भंग नहं होत़ । ईनक़ यह संग्रह ईनकी प्रऽतबित़ और रचऩधर्षमत़ के प्रऽत अश्वस्त करत़ है । ईनके अग़मा संग्रह को पढ़ने की ईत्सिकत़ जग़त़ है यह संग्रह।

ऽसय़सत खीन पाने की बड़ा शौक़ीन लगता है छि ड़़ प़त़ ये चस्क़ खीन क़ ऐ क़श गर कोइ

♦♦♦

तड़पकर-चाखकर आंस़ऽनयत, है अज मरण़सन्न कोइ देत़ नहं क्यं, दे हा दे ऄब तो ज़हर कोइ ख़ऽलश-क़ंटो भरा है, जो डगर ज़ता ऽख़य़ब़ं तक न ऱह-ए-क़़मय़बा है ऄब आससे मिख़्तसर कोइ

समन्वयम, २०४ ऽवजय ऄप़टममंट, नेऽपयर ट़ईन, सिभऱ व़डम, जबलपिर ४८२००१, Mo. ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

♦♦♦ ग्ऱम-ल़लमोहन नगर, पो०-पहसऱ, थ़ऩ-ऱनागंज, ऽजल़-ऄरररय़, ऽबह़र-854312) मो०- 09199869986 इमेल- jaynitkrmehta@gmail.com

ISSN –2347-8764

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शोधपि

मनोवैज्ञ़ऽनक ईपन्य़सक़र एवं आल़चंर जोशा के मनोवैज्ञ़ऽनक ईपन्य़सं मं ऩराऽचिण गात़ भट्टा ऽहन्दा मनोवैज्ञ़ऽनक ईपन्य़स स़ऽहत्य पर फ्ऱयड़, एड़लर एवं यिंग ऽसि़ंत क़ प्रध़न ऄसर पड़़ है। मनोऽवश्लेषण से प्रभ़ऽवत होकर ईपन्य़सक़रं ने मन की कि ठ़ओं और दऽमत व़स़ओं क़ ईदघ़टन एवं अत्मऽनराक्षण करऩ शिरु ककय़। आस प्रवुऽत्त मं ऽलखनेव़ले प्रमिख ईपन्य़सक़रं मं आल़चंर जोशा, जैनन्े र, ऄज्ञेय अकद है। आन ईपरोक्त लेखकं के ईपन्य़सं मं मनोऽवश्लेषण़त्मक प्रवुऽत्त मं अनेव़ला ऩरा चररिं क़ ऽववरण़त्मक रूप से ऄध्ययन करऩ है। जैनन्े र कि म़र – परख (कट्टो) – आस ईपन्य़स मं ‘कट्टो’ एक ऽवधव़, अदशम ऩरा है। ग़ँव की साधा-स़दा, भोला-भ़ला, सहमा-सा लड़की कट्टो, ऽजसे यह भा पत़ नहं है कक कब ईसक़ ऽवव़ह हुअ और कब ऽवधव़ बन गइ। ‘ऽवधव़’ शब्द के ऽवश्लएषण ने कट्टो और सत्यधन को प़स-प़स ल़ने क़ क़म ककय़ है। कट्टो को संपीणम ऽवश्व़स है कक सत्यधन ईससे ऽवव़ह करे ग़, परं ति सत्यधन ऽबह़रा की बहन गररम़ से श़दा रचत़ है किर भा कट्टो ऄपने प्रेमा सत्यधन से के वल एक य़चऩ करता है कक ब्य़ह के ब़द सबसे पहेले गररम़ ईसके ह़थं क़ हा बऩ ख़ऩ ख़यंगा। सत्यधन के ‘ह़ँ’ कहने पर कट्टो ईसके पैरं मं झिक ज़ता है – “एक ब़र लौटा था। तब श़म था, ऄब दोपहर है। तब स्वगम के द्व़र खोले गये थे, अमंिण पीवमक। ऄब अमंऽित कट्टो के मिँह पर हा ढ़ँप कदये गये है। खिले थे तब भा वह आन पैरं मं लोटा था, बन्द कर कदये गये हं तब भा वह आनमं हा पड़ा है। ईसकी यह कै सा ऽस्थऽत है।” भोला-भ़ला कट्टो वैधव्य और मनोऽवज्ञ़न के सिह़ग के झिले मं ईसके म़नऽसक स्तरं क़ दोलन कल़क़र की ऽनपिणत़ क़ पररचय देत़ है। ईसके िल स्वरूप कट्टो ऽबह़रा को ऄपऩ स़था बऩकर ऄन्त तक सधव़-ऽवधव़ हा बना रहता है। जैनेन्रकि म़रजा क़ यह रऽिकोण ‘कट्टो’ के ब़रे मं बड़़ संकिऽचत-स़ लगत़ है। कट्टो के चररि की मह़नत़ के प्रभ़व से प़ठक प्रभ़ऽवत हुए ऽबऩ नहं रहत़। ईसकी यहा एक सबसे बड़ा सिलत़ है। ‘सिनात़’ – जैनेन्रकि म़रजा क़ ‘सिनात़’ ईपन्य़स ‘परख’ से थोड़़ ऽभन्न है। आसमं ईपन्य़सक़रने द़शमऽनकत़ को महत्व कदय़ है। हररप्रसन्न, श्राक़न्त और सिनात़ को ऽवऽशि पररऽस्थऽतयं मं ड़लकर ईपन्य़सक़र द़शमऽनक ऽववेचन द्व़ऱ अगे बढ़त़ है। ‘स्व’ और ‘पर’ के भेद-ऄभेद की ऽववेचऩ और

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‘मं’ और ‘मेऱ’ के जावन संघषम की कक्रय़-प्रऽतकक्रय़ओं क़ ऽचिण जैनेन्र ने मनोवैज्ञ़ऽनक धऱतल से ककय़ है। ऄज्ञेय : शेखर एक जावना (शऽश) – हम़रे सम़ज मं ऽस्त्रयं की दश़ ऄत्यन्त दयनाय है, ईसे ‘जीते की तला’ म़ऩ ज़त़ है। ऽबलकि ल वहा दश़ ‘शेखर : एक जावना’ मं देखने को ऽमलता है। शऽश के पऽत को ऄपने पिरुषत्व क़ बड़़ ऄऽभम़न है। ईसकी नज़रं मं ऩरा क़ कोइ भा मील्य नहं है। ऄज्ञेय - ‘नदा के द्वाप’ (रे ख़ और गौऱ) – ‘नदा के द्वाप’ मं अज के पिरुष की भ्रमरवुऽत्त क़ भा पय़मप्त वणमन ककय़ गय़ है। ऄज्ञेय क़ व्यऽक्तत्व ऽवरोह और करुण़ के तत्वं से ऽनर्षमत है। ईनके आस ईपन्य़स को पढ़ने के ब़द स्पि रूप से पत़ चलत़ है कक ऄज्ञेयजा क़ कऽव क़ सहृदय यह़ँ पर भा ऽबखर चिक़ है। “ऄज्ञेय के ईपन्य़सं मं एक प्रक़र की स़म़ऽजक शीन्यत़ है और ईनके प़ि ऄपने ऄंतर की भ़वतरं गो मं हा डी बते-ईभरते हुए नजर अते हं।” श्रा ईपेन्रऩथ ऄश्क के शब्दं मं ‘ऄज्ञेय’ क़ ड्ऱईंग रूम जैसे लखनउ और कदल्ला से ईठ़कर नकऽछय़ और तिऽलयन झाल तक चल़ गय़ है। सम़ज से दीर, प्रकु ऽत से दीर पिरुष और स्त्रा क़ यौन संबंध और बस ईसा मं ऄज्ञेयने नये स़रे क़व्य दशमन और कल़-कौशल को सम़ कदय़ है। ऄज्ञेय के प़ि क्षणं मं जाते हं। ईनके ऽलए नर-ऩरा क़ यौन अकषमण के वल क्षणं की ऄनिभीऽत है, जावन क़ एक व्य़पक सत्य नहं। आल़चंर जोशा – जैनेन्रकि म़र, ऄज्ञेय के ब़द तासरे सिप्रऽसि मनोवैज्ञ़ऽनक ईपन्य़सक़र हं – आल़चंर जोशा। मनोऽवश्लेषण की समस्त पिऽतयं क़ ऄनिशरण जोशाजाने ऄपने ईपन्य़सं मं ककय़ है। ऄपने ईपन्य़सं मं ऩरा प़िं के चिऩव मं जोशाजा ने एक ऽवशेष रऽि से क़म ककय़ है। ईनके प्रमिख ईपन्य़सं मं ‘संन्य़सा’, ‘पदे की ऱना’, ‘प्रेत और छ़य़’, ‘ऽनव़मऽसत’, ‘मिऽक्त पथ’, ‘सिबह के भीले’ और ‘ऽजप्सा’ है। यह़ँ पर जोशाजा के ईपन्य़सं के ऩरा प़िं पर एक नजर ड़ला गइ है। ‘संन्य़सा’ (श़ंऽत और जयन्ता) – आस ईपन्य़स के प्रमिख दो ऩरा चररि हं – श़ंऽत और जयन्ता। आस ईपन्य़स को कथ़नक की रऽि से दो भ़गो मं ऽवभ़ऽजत ककय़ ज़ सकत़ है। प्रथम भ़ग मं नंदककशोर एवं श़ंऽत क़ एकदीसरे के प्रऽत अकषमण। दीसरे भ़ग मं नंदककशोर क़ म़नऽसक पररत़प जयन्ता के प्रऽत अकषमण, ईसके स़थ श़दा, वैव़ऽहक जावन के प्रऽत सन्देह, कै ल़श क़ ऄपम़न, जयन्ता की अत्महत्य़ अकद

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ब़तं वणमत हं। ऄन्त मं नंदककशोर श़ंऽत के प्रऽत अकर्षषत होत़ है। ईसके बेटे से ऽमलत़ है और श़ंऽत के ईद़सान चेहरे से संन्य़स ग्रहण कर लेत़ है। ईपन्य़स को शिरुअत मं जब पढ़ने लगते हं तो श़ंऽत क़ चररि एक स़ध़रण ऩरा क़ लग़ है पर जैसे-जैसे ईपन्य़स सम़ऽप्त की ओर बढ़त़ है प़ठक महसीस करने लगत़ है कक श़ंऽत कोइ स़ध़रण ऩरा नहं है। यह एक बिऽिश़ला स्त्रात्व क़ दशमन करव़ता है। जयन्ता को प्रेम मं ऄहं क़ दशमन होत़ है। वह नंदककशोर से श़दा कर लेने पर भा दीर हा रहता है। आसऽलए जयन्ता के चररि पर सन्देह़त्मक उह़-पोह है। श़ंऽत के रूप के द्व़ऱ जोशाजा ने प्रत़ऽड़त ऩरा के म़ंगऽलक ऽवक़स क़ कदग्दशमन कऱय़ है। ‘पदे की ऱना’ (ऽनरं जऩ) – आस ईपन्य़स की ऩऽयक़ ‘ऽनरं जऩ’ है, जो वेश्य़ म़ँ और हत्य़रे ब़प की संत़न है। शाल़ भ़रताय मध्यम वगम की कन्य़ है। ऽनरं जऩ के जावन के प्ऱरं ऽभक कदनो मं पड़ा हानत़ की हररय़ला को लहलह़ते हुए देखता है तो ऄज्ञ़न मं ईसके भातर इष्पय़म की अग धधकने लगता है। आसा की प्रऽतकक्रय़ मं वह शाल़ की हत्य़ करने क़ षड़्यंि रचता है। वैसे तो शाल़ ईसकी सहेला है और आन्रमोहन की पत्ना। आन्रमोहन ऽनरं जऩ की ओर अकर्षषत होत़ है, तो ऽनरं जऩ स्पि रूप से कह देता है कक जब तक शाल़ को छोड़ नहं सकत़ तब तक वह ऽनरं जऩ क़ स़ंऽनध्य प्ऱप्त नहं कर सकत़। ईस समय से आन्रमोहन शाल़ को ऄनज़ने हा संऽखय़ क़ सेवन करव़त़ है। एक ऄवऽध के भातर वह मर ज़ता है। आन्रमोहन क़ एक म़ि लक्ष्य है कक ऽनरं जऩ के कौम़यम को भोगऩ। जब ईसके शरार को भोगत़ है तो आन्रमोहन क़ अकषमण क्रमशः कम होत़ ज़त़ है। तब से ऽनरं जऩ क़ सतात्व ताव्र रूप से ज़गुत हो ईठत़ है और आन्रमोहन को ऽधक्क़रता है। आसके पररण़म स्वरूप आन्रमोहन अत्महत्य़ कर लेत़ है। शाल़ ऄत्यन्त सहनशाल है। ईसमं सहनशऽक्त की ट-की टकर भरा गइ है। वह हंमेश़ ऄपने व़च़ल पऽत को मह़न बऩऩ च़हता था। जब ईसक़ पऽत ऽनरं जऩ की ओर अकर्षषत होने क़ ईसे पत़ चलत़ है, तो ज़न-बीझकर वह संऽखय़ क़ सेवन कर लेता है। वस्तितः जोशाजा ने ऩऽयक़ को वेश्य़ की पि​िा बऩकर भा ईसमं संस्क़र बित़ भरने मं ऽनष्ठ रहे हं। वे वेश्य़-पि​िा की नग्न ऄवत़रण़ नहं की है। ‘प्रेत और छ़य़’ (मंजरा) – प्रेत और छ़य़ ईपन्य़स की मिख्य प़ि मंजरा एक अत्मऽवश्व़सा, धैयमव़न एवं ईच्च़क़ंक्ष़ओं से संपीणम ऩरा है। प़रसऩथ मंजरा को ऽसिम ईसके शरार को और म़नऽसकत़ को देखकर अकर्षषत होत़ है। दीसरा और प़रसऩथ भीजौररय़ द्व़ऱ िस्त ऩरा नऽन्दना के संपकम मं भा अत़ है। नऽन्दना प़रसऩथ से ऽचिकल़ साखता है। प़रसऩथ को ऩरा ज़ऽत के प्रऽत ऽवरोह है क्यंकक ईसकी म़ँ चररिहान था। मंजरा क़ ऽवरोध करने के ऽलए वह नऽन्दना की ओर अकर्षषत होत़ है। एक कदन प़रसऩथ और नऽन्दना की प्रेमलाल़ मंजरा पकड़ लेता है। आधर मंजरा गभमवता हो ज़ता है। ईसकी सिचत़ छोड़कर प़रसऩथ नऽन्दना के स़थ लखनउ चल़ ज़त़ है। प्रसव क़ल मं ISSN –2347-8764

भा वह ईसके प़स नहं रहत़। जब ईसे पत़ चलत़ है कक नऽन्दना भा वेश्य़ है, तो ईसके आस ऽवश्व़स को वह ऩरा ज़ऽत से, वह भा सता-स़ध्वा जैसा ऩरा से बदल़ लेत़ है। आधर मंजरा पि​ि को जन्म देता है और ऩरा ऽनके तन मं ज़कर ईन्नता करता है। ईसे देखकर संच़ऽलक़ महोदय ईसे मेऽडकल कोसम करने हेति कलकत्त़ भेज देते हं। अगे कॉलेज के प्रवाण ऄध्य़पक ‘मन्मथऩथ’ से ईसकी श़दा हो ज़ता है। आधर प़रसऩथ नऽन्दना से ऽवमिख होकर ईसकी बहन हाऱ से श़दा कर लेत़ है। हाऱ बेटा को जन्म देता है। ईसकी तऽबयत ऽबगड़ने से प़रसऩथ ईसकी बेटा की तऽबयत कदख़ने मंजरा के प़स ले ज़त़ है। लेककन मंजरा प़रसऩथ से कठोरत़ से व्यवह़र करता है। आस ईपन्य़स मं स़ि-स़ि पत़ चलत़ है कक समय अने पर मनिष्पय मं कै से कै से बदल़व अते हं और एक ओहद़ ऽमलने पर सम़ज क़ रवैय़ है ईसक़ भा ख़स ऽचिण मंजरा के चररि द्व़ऱ स़ऽबत करव़य़ है। ‘ऽनव़मऽसत’ (नाऽलम़, प्रऽतम़, रूप़, श़रद़ देवा) –रूप़ क़ चररि ईतऩ ऽवकऽसत नहं लगत़। वह पररऽस्थऽत के ऄवसर मं लपेटा कठपितला म़ि रह ज़ता है। धारज से प्रेम करते हुए भा ठ़कि र स़हब के शोषण क़ ऽवरोध करने की क्षमत़ वह ऄपने प्ऱणं मं नहं बटोर प़ता। यह़ँ ईसक़ चररि एक प्रत़ऽड़त ऩरा के सम़न म़ि है। श़रद़ देवा क़ चररि भा धधकता हुइ ऄन्तऱल की ऽवरोहाणा से ओत-प्रोत है। वह स़रे ईपन्य़स की एक शोऽषत ऩरा म़ि है। ठ़कि र स़हब की पशित़ ईसे प्रऽतभ़ के स़थ ऽवरोह करने पर मजबीर करता है। नाऽलम़ क़ अरं ऽभक जावन चंचलत़ और व़कपटि त़ से पररपीणम है। के वल ऄपना म़ँ ऽमसेज की आच्छ़ को पररपीणम करने के ऽलए वह ठ़कि र स़हब से ऽवव़ह करता है। श़दा के ब़द ईनक़ म़नऽसक संतिलन ऽबगड़ ज़त़ है। ठ़कि र स़हब के स़थ टक्कर लेता है, परन्ति ईसके दि​ि मन के स़मने नाऽलम़ रटक नहं प़ता। ऽवऽवश होकर ईसको घर हा छोड़ऩ पड़त़ है। जोशाजा के ईपन्य़स ‘ऽनव़मऽसत’ मं स़म़ऽजक और मनोवैज्ञ़ऽनकत़ क़ एक स्व़स्थ्य भ़वभीऽम क़ ऽनरूपण हुअ है। ऽनरं तर चलने पर भा ऩरा प़ि ऄपऩ म़नऽसक संतल ि न खो बैठता है। श़रद़ देवा, प्रऽतभ़ अकद सभा ऩराय़ँ सम़ज मं ऩरा जावन के प्रऽत नय़पन ल़ने की आच्छि क कदख़इ देता है। ‘मिऽक्तपथ’ (सिनन्द़) –‘मिऽक्तपथ’ ईपन्य़स मं ऩरा य़ पिरुष की ऄवस्थ़ यह़ँ पर संपीणम रूप से लिप्त होता ज़ता है। ऩयक य़ ऩऽयक़ म़नऽसक स्व़स्थ्य क़ ल़भ ईठ़ते हुए सम़ज की प्रगऽत मं ऽनमग्न होते हुए नजर अते हं। ‘प्रेऽमल़’ अधिऽनक यिग की ऄपने अऽधक़रं और कतमव्यं को समझनेव़ला ऩरा है। ‘सिबर के भील’े (ऽगररज़) – ‘ऽगररज़’ एक पऽथक है, जो अधिऽनक प़ं़त्य ऽशक्ष़ के प्रभ़व से जावन को ऽवकऽसत करनेव़ले स्व़भ़ऽवक म़गम क़ ऱस्त़ भील चीकी है, परन्ति ऄसऽलयत ज़नते हुए भा वह ऄपने प्रवुऽत्त म़गम क़ ऄवलम्बन करता है, और ईसके

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जावन मं जो शिष्पकत़ – संघषम अकद क़ सम़वेश हो गय़ थ़, ईससे ऽवरक्त होता है। ब़द मं ऄपने स़था को पहच़नता है। लेखक ने ऽगररज़ के चररि द्व़ऱ ईन सभा गिणं को ईज़गर कर कदय़ है। जो एक सि-सिल यिवक य़ यिवता ऽनभ़ता है। झऽनय़ के प़ि मं सम़ज द्व़ऱ िस्त ऩरा क़ सिल ऽचि़ंकन हुअ है, वह ग्ऱमाण सम़ज की एक प्रऽतऽनऽध ऩरा प़ि है। ईसक़ जावन ऄत्यन्त सरल एवं सिन्दर नजर अत़ है। ‘ऽजप्सा’ (मऽनय़) – ‘ऽजप्सा’ ईपन्य़स के प्रमिख प़ि हं – मऽनय़, शोभऩ और ऽसऽल्वय़। मिऽनय़ एक सत्यऽनष्ठ ऩरा है। ईसकी योजऩएँ स़ंस्कु ऽतक और स़म़ऽजक धऱतल पर अध़ररत हं। ‘ऽजप्सा’ के ऩरा चररिं मं म़नऽसक द्वन्द्वं क़ ऄभ़व म़लीम पड़त़ है। वैसे सम्मोहन की प्रकक्रय़ओं क़ ऄवश्य आसमं सह़ऱ ऽलय़ गय़ है। ऩरा की मह़न सत्त़ क़ अभ़स ईपन्य़स के प्रत्येक भ़ग मं कदख़इ पड़त़ है। यौन-भ़वऩओं क़ भा आनमं ऄभ़व है। जोशाजा के आन परवती ईपन्य़सं मं म़नव की मौऽलक प्रवुऽत्तयं क़ ईदघ़टन ऄवश्य ऽमलत़ है। ऽनष्पकषम –आस प्रक़र ऩरा के जावन ऽवक़स मं ऽहन्दा मनोवैज्ञ़ऽनक ईपन्य़सक़रं क़ बहुत बड़़ योगद़न रह़ है। ऩरा की सव़ंगाण प्रगऽत के रश्य अज हम देख रहे हं, वे स़रा ब़तं ईपन्य़सं के क़रण भा बहुत स़मने अया है। ईपन्य़सं के प़ि ऽजतने गहऱइ तक प़ठकं के कदम़ग पर ऄसर करते हं ईतऩ श़यद स़ऽहत्य के ऄन्य ऽवद्य़ मं देखने को नहं ऽमलत़। प़ठक हंमेश़ ईपन्य़सं को पढ़कर ईन चररिं के सम़न बनऩ च़हत़ है, ईनके स़थ प्रव़ऽहत होऩ च़हत़ है। ऄपने जावन क़ भ़ऽव स्वप्न देखने लगत़ है। ऄतः ऽहन्दा प़ठकं को ऐसे हा ईपन्य़सं की जरुरत है, ऽजनको पढ़कर ऄपना म़नऽसक सबलत़ को प़ सके । संदभम ग्रंथ – 1. ऽहन्दा ईपन्य़सं मं ऩरा क़ ऽचिण, शैलज़ तिलज़ऱम होटकर, ऽहन्दा ऽवभ़ग, कऩमटक ऽवश्वऽवद्य़लय, ध़रव़ड़, नवभ़रत प्रक़शन, कदल्ला। 2. ऽहन्दा कथ़ स़ऽहत्य, गंग़प्रस़द प़ण्डेय। 3. मेरे स़ऽहत्य क़ श्रेय और प्रेम, जैनेन्र कि म़र। 4. ऽहन्दा ईपन्य़सं मं ऩरा ऽचिण, ऽबन्दि ऄग्रव़ल। 5. ऽहन्दा ईपन्य़सं मं ऩरा, डॉ. शैल रस्तोगा। 6. ऽहन्दा के मनोवैज्ञ़ऽनक ईपन्य़स, डॉ. धनऱज म़नधने। ईपन्य़सक़र आल़चंर जोशा : एक मील्य़ंकन, डॉ. सिधार कि म़र । ♦♦♦

M.D. Mahavidyalay, Gujarat Vidyapith, Girls hostel, Randheja.-382620. म़गमदशमक : डॉ. जशवंतभ़इ डा. पंड्य़ प्रोफ़े सर एवं ऽवभ़ग़ध्यक्ष, गिजऱत ऽवद्य़पाठ, ऄहमद़ब़द

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कऽवत़ शिभन्े दि शेखर

कर वरण वसिध़ गगन शुंग़र भीषण कनक सम । हेम बरसे अज कण कण ऊति बसन्ता है मगन ।। ऽगर गए सब अवरण खनखऩता हर कि सिम । सररत सरसं के कि मिद रचने लगे हं आक परण ।। वुक्ष क़ मदमस्त यौवन ऄल्हड़ बऩ हो के मगन । झीमत़ बन बन के बौड़म ऽप्रयतम़ है ये पवन ।। झीले सजे हं अज ईपवन चीड़ा बजे हं खनक खनखन । पंग भरते अज ऽप्रयतम प्रेयसा मीँदं नयन ।। ♦♦♦ शिभेन्दि शेखर "ऄवऽन्तक़" , गौरा शंकर नगर, नॉथम ऑकफ़स प़ड़़ ऱँचा—834002 झ़रखण्ड मोब़इल : 9199437747

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शोधपि

म़तुभ़ष़ और ऽशक्ष़ डॉ. संगात़ एन. श्राव़स्तव

ककसा ने सहा कह़ है कक, बच्च़ ऽजस भ़ष़ मं रोत़ है वहा ईसकी म़तुभ़ष़ कहल़ता है। जब भ़ष़ की ब़त अता है तब स्व़भ़ऽवक तौर पर ईससे जिडा हर ब़त भ़विकत़ से जिड ज़ता है। भ़रताय स्‍यत़ मं भ़ष़ को म़त़ क़ स्वरुप म़ऩ ज़त़ है। हर मनिष्पय की तान म़त़एँ होता हं। ईसकी म़तुभीऽम, ईसकी म़तुभ़ष़ और ईसको पैद़ करने व़ला म़त़ । आन तानं म़त़ओं क़ ऊण चिक़ऩ हर मनिष्पय क़ धमम है। जन्म लेने के ब़द म़नव जो प्रथम भ़ष़ साखत़ है ईसे ईसकी म़तुभ़ष़ कहते हं। म़तुभ़ष़, ककसा व्यऽक्त की स़म़ऽजक एवं भ़ष़इ पहच़न होता है । म़तुभ़ष़ मं ऽशक्ष़ ब़लक के ईन्मिक्त ऽवक़स मं ज्य़द़ क़रगर होता है। ऄंग्रेजा मं पढ़़ए ज़ने पर और करठऩइ होता है। ऽजनक़ पीऱ पररवेश हा ऄंग्रेजा भ़ष़मय हो, ऐसे पररव़र देश मं कम हा है। म़तुभ़ष़ के म़ध्यम से जब पढ़य़ ज़त़ है तो ब़लकं के चेहरे ईत्ि​ि ऽल्लत कदख़इ देते हं। एक तो ऄंग्रेजा साखना पड़ता है, वह पढ़ा हुइ नहं ऽमल ज़ता। लेककन सरक़रं ने ठ़न ऽलय़ है कक बच्चं को ऄंग्रेजा के म़ध्यम से हा पढ़़ऩ है। भ़ष़ साखऩ ऄच्छा ब़त है और गिणक़रा भा है। भ़ष़ हमं एक नये संस़र मं प्रवेश कऱता है। लेककन म़तुभ़ष़ की ईपेक्ष़ कर ऽशक्ष़ के म़ध्यम से ईसे हट़कर ऽजस तरह के भ़ष़-संस्क़र ड़ले ज़ रहे हं, वह खतरऩक है। ब़लक न ऄंग्रेजा ज़न प़ रह़ है, न म़तुभ़ष़। एक ऽखचड़ा भ़ष़ वह भा ऄधजला क़ संस्क़र ऽमल रह़ है। सेऽपर के ऄनिस़र, “म़नवाय ऽवच़रो एवं भ़वऩओ को ऄऽभव्यक्त करने व़ला ध्वऽनरुप व्यवस्थ़ को भ़ष़ कहते है।” दरऄसल ऽशक्ष़ क़ ऄऽधक़र क़ सव़ल म़तुभ़ष़ मं ऽशक्ष़ के स़थ जिड़़ है। ऄपना भ़ष़ मं ऽशक्ष़ प्ऱप्त करऩ बच्चे क़ ऄऽधक़र है। ईस पर दीसरा भ़ष़ ल़द देऩ ईसके स्व़भ़ऽवक ऽवक़स मं ब़ध़ ड़लऩ भा है। प्रऽतवषम 21 िरवरा को ऄंतऱमष्ट्राय म़तुभ़ष़ कदवस मऩय़ ज़त़ है। दिऽनय़ के और देशं मं म़तुभ़ष़ की क्य़ ऽस्थऽत है, म़तुभ़ष़ के संरक्षण, ईसकी समुऽध्द के ऽलए कह़ँ क्य़ हो रह़ है, यह तो दिऽनय़ भर मं घीमने व़ले बेहतर बत़ सकते हं। ऽशक्ष़ गभ़मवस्थ़ से अरं म होकर मुत्यिपयमन्त तक चलता है । गभ़मवस्थ़ मं ब़लक पर म़त़-ऽपत़ के संस्क़रं, व्यवह़रं, ऽवच़रं क़ प्रभ़व पड़त़ है। ब़लक ऽजस कदन जन्म लेत़ है ISSN –2347-8764

ईसा कदन से ब़लक की ऽशक्ष़ प्रत्यक्ष रूप से अरं भ हो ज़ता है। बचपन से ब़लक पररव़र के सदस्यं से बहुत सा ब़तं व शब्दं को सिनत़ है । वह आन शब्दं को प्ऱरं भ मं ऽबल्कि ल नहा समझत़। परं ति धारे –धारे वे शब्द ईसके ऽलए स़थमक बन ज़ते हं और आस प्रक़र वह म़तुभ़ष़ क़ ज्ञ़न प्ऱप्त करत़ है। आस प्रक़र जन्म से हा पररव़र मं म़तुभ़ष़ की ऽशक्ष़ अरं भ हो ज़ता है। ब़लक के म़त़-ऽपत़, भ़इ–बहन जो बोलते हं, वह सिनत़ है और धारे -धारे वह ईनक़ ऄनिकरण कर ईन शब्दं क़ ईच्च़रण करऩ अरं भ करत़ है। यहा म़तुभ़ष़ साखने की अरं ऽभक ऄवस्थ़ है । संयिक्तऱष्ट्रसंघ की एक ररपोटम मं दो ब़तं स़मने अइ हं 01. ऄऽधक़ंश बच्चे स्की ल ज़ने से कतऱते हं, क्यंकक ईनकी ऽशक्ष़ क़ म़ध्यम वह भ़ष़ नहं है, जो भ़ष़ घर मं बोला ज़ता है। 02. संयिक्तऱष्ट्र संघ के ब़ल ऄऽधक़रो के घोषण़-पि मं भा यह कह़ गय़ है कक बच्चं को ईसा भ़ष़ मं ऽशक्ष़ प्रद़न की ज़ये, ऽजस भ़ष़ क़ प्रयोग ईसके म़त़-ऽपत़, द़द़-द़दा, भ़इ-बहन एवं ऄन्य स़रे प़ररव़ररक सदस्य करते हं। म़तुभ़ष़ क़ ईद्देश्य यहा है कक ब़लक ऄपने मन की ब़त दीसरं से कह सके एवं दीसरं की ब़त सहा-सहा समझ सके । म़तुभ़ष़ की समिऽचत ऽशक्ष़ हा स़रा ऽशक्ष़ की नंव है । अधिऽनक ऽशक्ष़श़स्त्रा तथ़ मनोवैज्ञ़ऽनक भा स्वाक़र करते हं कक म़तुभ़ष़ मं ऽशक्षण क़यम होने पर ब़लक सहजत़, सरलत़ एवं शाघ्रत़ से साखते हं । बिऽनय़दा ऽशक्ष़ मं म़ँ की ऽशक्ष़ क़ ईद्देश्य जावन के ऽलए ईपयोगा है। क्यंकक यह जावन के ऽन्रत ऽशक्ष़ है। ग़ँधाजा ने भा बिऽनय़दा ऽशक्ष़ मं म़तुभ़ष़ को महत्वपीणम स्थ़न कदय़ है। ऄत: ब़लक को ऄपना भ़ष़ मं ऄऽभव्यक्त करने की स्वतंित़ दा ज़ना च़ऽहए। न के वल बोलने मं बऽल्क ऽलखने मं भा ईसे छी ट ऽमलना च़ऽहए। भ़ष़ एक म़ध्यम है ऽजसके तहत हम आस सुऽि के ऽवऽभन्न पहलिओं को ज़न प़ते हं । ऽजसके म़ध्यम से हम ऄपने ऽवच़रं को ऄऽभव्यकत कर प़ते हं। ऄपना संवेदऩओं को मीतमरुप दे प़ते हं। ऽशक्ष़ देते समय ऽशक्षक सवमप्रथम म़तुभ़ष़ द्व़ऱ ब़लक के हृदय मं ऄपने प्रऽत ऽवश्व़स ईत्पन्न करे । किर ईसे नया भ़ष़ की ओर मोड़ऩ च़ऽहए । म़तुभ़ष़ द्व़ऱ ब़लक नया भ़ष़

ऽवश्व ग़थ़: जनवरा-िरवरा-म़चम-2016

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भा साख सकत़ है, क्योकक म़तुभ़ष़ पर यकद ब़लक ऄपना पकड़ कर लेत़ है, तो दीसरा भ़ष़ ब़लक अस़ना से साख लेत़ है। ईसे ककसा करठऩइ क़ स़मऩ नहा करऩ पड़त़ है । अजकल ऽशक्षण पिऽत तथ़ ऽवद्य़र्षथयं की ईप्लऽब्ध के सम्बन्ध मं कह़ ज़त़ है कक ऽवद्य़थी ऽवषयवस्ति को ऽसिम रटते हं, समझते नहं । अत्मस़त नहं करते, ऽजससे ब़लकं मं ऽचन्तन शऽक्त क़ ऽवक़स नहं हो प़त़ है। म़तुभ़ष़ के द्व़ऱ शब्दं मं ऽनऽहत ऽवऽभन्न संकल्पऩओ को स्पि ककय़ ज़ सकत़ है—म़तुभ़ष़ के प्रऽत श्रि़ रखो, ऽवश्व़स रखो और हृदय मं ऽवश्व़स भरो और तेजऽस्वना बनो । ऄंत मं, यकद हम ऽवश्व के ऄन्य देशं क़ ऄनिकरण करं तो यह प्रतात होत़ है कक वे क्षेिाय भ़ष़ को ककतऩ महत्व देते हं । ऽस्वडन मं स्वाडाश, किन्लेन्ड मं किनाश, फ्ऱन्स मं फ्रेन्च, इटला मं आत़लवा, ग्रास मं ग्राक, जममना मं जममन, ऽब्रटन मं ऄंग्रेजा, चान मं मण्ड़ररन और ज़प़न मं ज़प़ना भ़ष़एँ ऽशक्ष़ क़ म़ध्यम हं । यकद हम यह सोचते हं कक ऽवक़स को बढ़व़ देने के ऽलये ऽशक्ष़ क़ म़ध्यम कोआ ऄंतरऱष्ट्राय भ़ष़ हा मददग़र स़ऽबत होगा, तो यह हम़ऱ भ्रम है। ज़प़न मं ज़प़ना क़ आस्तेम़ल होत़ है, किर भा वह देश तकनाकी दुऽि के ऽहस़ब से ऽवश्व मं अगे है। चान मं बोला ज़ने व़ला भ़ष़ क़ प्रयोग करने व़ले लोगं ने ऄपने देश को ऽवश्व की सवोत्तम मह़सत्त़ओं मं से एक बऩ कदय़ है। ♦♦♦ (डान ऽशक्षण ऽवभ़ग) सा. यि. श़ह यिऽनवर्षसटा, वढव़ण ऽसटा, सिरंरनगर (गिजऱत)

लघिकथ़

मछला ईड़ आऽन्दऱ ककसलय

प्रबात़ के िी ि़जा शहर के ज़नेम़ने क़र्षडयोलॉऽजस्ट हं । ईसने देख़ है ईनक़ जलव़ । अये कदन ऄखब़रं मं छ़य़ रहत़ है ईनक़ ऩम । कै से चैनल व़ले ईन्हं सर सर कहते हुए नहं थकते । कै से एम.अर. (मेऽडकल ररप्रेजंटेरटव्ज़) ऄपना दव़इ की ब्ऱण्ड प्रमोट करव़ने के ऽलए ईन्हं तोहिं से ल़द देते है । शटम, घड़ा, मोब़इल, कि कर, कि किकग रं ज, म़आक्रोवेव ओवन, फ्ऱयर, वोटर प्यीराि़यर, सोने के पेन और हर दीसरे महाने मं ऽवदेश क़ टी र । बथमडे हो य़ मैररज एऽनवसमरा स़रे अयोजन एम.अर. हा प्ऱयोऽजत करते हं । आतने वषो ब़द भा वो म्यीऽजकल के क नहं भिल़ प़ता है ऽजसे क़टते हा मधिर संगात बजने लग़ थ़ । पंरह वषम हो गए आस ख्व़ऽहश की परवररश करते हुए कक कि छ भा हो वह ऄपना आकलौता बेटा को डॉक्टर बऩ कर दम लेगा । पर दसवं तक पहुँचते-पहुँचते लहर ने प्रबात़ के बरसं पिऱने सपने पर प़ना िे र कदय़ । ईसने घोषण़ कर दा – वह ककसा भा मील्य पर डॉक्टर नहं बनेगा। प्रबात़ के मन मं ऄच़नक ईम्माद जगा । वह ड़यऽबटाज़ की पेशंट तो था हा । डॉक्टर के प़स चलने के ऽलए ईसने लहर से स़थ म़ँग़ । िे ऽमला फ्रंड डॉ. सक्सेऩ बेहद सहृदय हं । मज़म के ऄल़व़ ईनकी मनोवैज्ञ़ऽनकत़ वे म़न गये । ईन्हं ने लहर को ऄन्दर भेज देने के ऽलए कह़ । मज़म के ऄल़व़ ईनकी मनोवैज्ञ़ऽनक समस्य़एँ भा सिनते हं । प्रबात़ ने ईनसे लहर को समझ़ने के ऽलए ररवे स्ट की । वे म़न गए । ईन्हं ने पीछ़ – कौन सा क्ल़स मं पढ़ता हो? 'जा, दसवं 'तिम्ह़रा म़ँ कहता है कक न तिम ढंग से घर के क़म करता हो, न कदल लग़कर पढ़ता हो ! 'सर ! ये गलत है ! दस से प़ंच तक स्की ल, छ: से अठ तक ट्डीशन, किर होमवकम और थोड़ बहुत घर क़ क़म । 'डॉक्टर क्यं नहं बनऩ च़हता? 'सर, मिझे खीन से, आं जेक्शन से डर लगत़ है । जल़-कट़ भा देख नहं प़ता । एक ब़र ब्लड संपल लेने के ऽलए सिइ चिभोया गया तो मं बेहोश हो गया था । 'क्य़ बनऩ च़हता हो? 'सर, िै शन ऽडज़़इनर । ’ज़ओ – मम्मा को ऄन्दर भेजो ।’ डॉ. सक्सेऩ ने लहर से कह़ । डॉक्टर थोड़ा देर चिप रहे किर प्रबात़ से बोले – ’अप के वल मेरे दो प्रश्नं के ईत्तर दाऽजए – क्य़ ऽचऽड़य़ प़ना मं तैर सकता है ?’ 'नहं ’ऄगर अप मछला से कहं – मछला ईड़, तो वह ईडेगा क्य़ ?’ ’ऽबलकि ल नहं सर..’ – प्रऽबत़ क़ जव़ब थ़ । ’बस आतऩ हा कहऩ थ़ मिझे’, कहकर डॉक्टर दीसरे पेशंट को देखने मं व्यस्त हो गए । ♦♦♦ बल्ल़लेश्वर, रे णिक़ ऽवह़र, ऩगपिर -440027

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शोधपि

तमस' ईपन्य़स मं ऽवभ़जन की ि़सदा डॉ. भगव़न सिसह जे. सोलंकी

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ऄनिसध ं ़न पेज नं. - 46 से ♦ श्लोक – ३८ – परस्य भ़य़म योऻक़क्षदसन्ति​ि: स्वभ़यमय़ ι श्लोक – ४० – येन कु तौ ऱजरोहो देशरोहं गर्षहतौ ι सगम – १७ श्लोक – १६ - यो ऽनज़ऽश्रत जने न ऽह स़धीसत्य़ग एव खलि तस्य ति स़धि: ι श्लोक – १९ - ऄर्षथनं खलि ऽवरध्यिरुद़र बिध्यो जगऽत नैव ऽनऱशम् ι श्लोक – ४० - वेद: क: कपरटऩं खलि वुत्तम् ι श्लोक – ६२ – न ऽवश्वसेदऽवश्वस्तं ऽवश्वस्तेऻऽप न ऽवश्वसेत थ़इऱम़यणायेदं सत्यऽपयऽत सत्कथ़ ι ι सगम – १८ - श्लोक – ५ - ऽनजभ्ऱतुऱज्यं स्वकीयंऽवतन्वन नसौ स्व़थमक़मे वध़हो मत्तो मे ι श्लोक –२६- न कस्य़ऽप वायं पराक्ष्वं ऽगरै व सगम – २३ – श्लोक – २४ ऽचि़ऻऽस्त पिंस़ं मनसो गऽतनिम ι आस प्रक़र हमने यह़ँ पर देख़ कक श्लोक के एक चरण से लेकर श्लोकपयमन्त सिभ़ऽषतं के कइ दुि़ंत प्रस्तित मह़क़व्य मं कदख़इ देते है ι ऐसे श्लोक य़ सदिऽक्तय़ँ हा जावन को प्रेररत करता है एवं प्रज़ को स़ऽहऽत्यक मनोवुऽत्तपऱयण बऩ देता है ι व़स्तव मं जावन क़ ईद्देश ऄच्छे एवं सच्चे ऽवच़रं क़ जावन मं ऄनिसरण करऩ है यकद हम बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ़ते हं । ककन्ति ऄच्छे संस्क़र क़ प्रऽतऽबम्ब हम़रे ऽनत्य के व्यवह़रं मं नहं है तो जावन ऽनरथमक हो ज़त़ है । संस्कु त भ़ष़ एवं ईसक़ स़ऽहत्य यकद हमं योग्य मनिष्पय नहं बऩत़ है तो रट़-रट़य़ ऄध्ययन कोऱ प़ंऽडत्य क़ क़रण बन ज़त़ है ι यद्यऽप प्रस्तित कु ऽत के २७६ पुष्ठ पर कदय़ श्लोक भा सिभ़ऽषत एवं ग्रन्थ क़ ह़डम है ι न ऽवश्वसेदऽवश्वरतं ऽवश्वस्तेऻऽपनऽवश्वसेत ι थ़इ ऱम़यणाएदं सत्य़पयऽत सत्कथ़ ι ι सगम-१७, श्लोक-१६२ प़दटाप पुष्ठ-१०० ऱमकीर्षतमह़क़व्यम् (ऽहन्दा पद्य़निव़द) डॉ. ऽमऽथलेशकि म़रा ऽमश्र, प्रक़. इस्टन बिक सिलकसम, ५९२५, न्यी चंद़वल, जव़हरनगर, पो. कदल्ला -११०००७, प्रक़शन वषम-१९९९ पुष्ठ-१०४, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१०५, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-११६, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-११६, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-११६, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-११७, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-११९, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१४२, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१५०, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१५४, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१५६, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१५६, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-१९७, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१९९, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१९८, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-१९८, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-२१२, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-२२८, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-२२९, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-२६२, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-२७०, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-२७६, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-२८०, ईपयिमक्त ग्रन्थ, पुष्ठ-२८६, ईपयिक्त म ग्रन्थ, पुष्ठ-३६४, ईपयिमक्त ग्रन्थ ♦♦♦ जलदशमन सोस़यटा, म़लपिर म़गम, मोड़स़ -383315 (गिजऱत) िोन : 02774-241853 ऽवश्व ग़थ़: ऄक्ती बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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शोधपि

डॉ. सत्यव्रत श़स्त्रा के ऱमकीर्षतमह़क़व्य के सिभ़ऽषत श्लोक प्ऱ. डॉ. मधिसद ि न व्य़स

ऽजन्हंने अज से कराब स़ठ स़ल पीवम हा ऽवद्य़व़ररऽध की ईप़ऽध प्ऱप्त की था एवं संस्कु त के मह़न कऽवकि ल के ईपऱंत ईन्हंने अद्य़वऽधपयमन्त बोऽधसत्वचररतम् से लेकर ऱमकीर्षत मह़क़व्यम् तक के ऄनेक संस्कु त मह़क़व्यं क़ लेखन ककय़ है, जो कक संस्कु त जगत मं ऄनीठ़ म़नदंड है; आन मह़क़व्यं के ईपऱंत अपकी ऽचरईवमरक प्रऽतम़ ने बड़े बड़े ग्रंथो क़ लेखन, ऄनिव़द एवं संप़दन ककय़ है; स़थ हा अपने जावन की अत्मकथ़ भा ऽलखा है; देश-ऽवदेश के कइ ईच्चस्तराय पिरस्क़र भा अपने प़ए हं एवं बहुत स़रे शोध़थी छ़िं को अपकी ऽनश्ऱ मं ऽवद्य़व़राऽध ईप़ऽध-हेति संशोधन क़ मौक़ ऽमल़ हैι ऐसे है संस्कु त जगत के ज़ज्वल्यम़न नक्षि डॉ.सत्यव्रत श़स्त्र ι ऽवद्य़ के क्षेि मं अपक़ प्रद़न ऄनन्य एवं ऄतिल्य है ι अपके ऱमकीर्षत कह़क़व्य बहुत से गिणं से ऽवभीऽषत है एवं भ़ष़, भ़व, छं द आत्य़कद दुऽि से भा यह एक सिंदर मह़क़व्य है ι आसके ईपऱंत प्रस्तित मह़क़व्य के पठन से ज्ञ़त होत़ है कक यह़ँ पर ऄि-ति-सवमि सिभ़ऽषतगंधा श्लोकं क़ लेखनप्रणयन हुअ है ι यह एक ऄनीठा ऽवशेषत़ प्रस्तित मह़क़व्य के ब़रे मं प्रतात होता है ι आस मह़क़व्य हेति ककसा बोधप्रद भ़ष़ की सह़यकत़म ने नहं ला ककन्ति सिभ़ऽषत जैसे पीणम य़ ऄंश य़ एकचरण़त्मक श्लोक यह़ँ पर ऄनऽगनत ऽमल ज़ते हं, जो कक कभा-कभा क़ऽलद़स य़ संस्कु त के ऄन्य कऽवयं के श्लोकं से प्रभ़ऽवत कदख़इ देते हं ι जोकक प्रध़नत: आस मह़क़व्य की ऄनीठा ऽवऽशित़ म़लीम होता है ι अपके कह़क़व्य के ऄध्ययन से पत़ चलत़ है कक बहुत से सगो के ऄंत मं अपने छं द-पररवतमन ककय़ है, जो कक म़ह़क़व्य के लक्षणं क़ ऄनिसरण हं ι आसको प्रस्तित मह़क़व्य की ऽवशेषत़ कहना च़ऽहए ι कि ल ऽमल़कर प्रस्तित क़व्य मं पच्चास सगम हं, आनमं से ऽवऽवध दस सगो मं सिभ़ऽषत सदश श्लोक ऽवद्यम़न है, ऽजन्हं हम क्रमश: देखं ι नवम सगम : श्लोक -१ – ऄंऽतम पंऽक्त - धाऱ अपद्यऽप ऽनपऽतत़ नैव मिंचऽत धैयम् ι श्लोक – १३ – ऄंऽतम पंऽक्त - रज्जिच्छे दे घटऽमव नि को ध़रयेत् ISSN –2347-8764

सद्द्चोऻज्ञ: ι श्लोक – १८- ऄंऽतम पंऽक्त - स्व़ङ् ं चेत्स्य़द् वपीऽच गऽलतं तद् बऽधष्पक़यममेव ι श्लोक – ४३ - तपऽस्वऩं दशमनऽमव पिण्यं तेष़ं ऽगर: पिण्यतरस्ततोऻऽप ι श्लोक - ४४ ऄंऽतम पंऽक्त - सेव़ सत़ं सत्िलद़ऽयनास्य़त् ι श्लोक – ४५ – ऄंऽतम पंऽक्त - परोपक़ऱय मम़ऽस्त क़य: ι श्लोक – ४८ - ऽववेककनो नो सहस़ क्रमन्ते ι सगम – १० श्लोक – १६ – न सह्य़भवेन म़नह़ऽन: कथंऽचत ι सगम – ११ श्लोक – १९ – प्रोच स़ व़चं महत़ं वरे ण्य: ι श्लोक – १९ – आस श्लोक मं प्ऱचान क़ल के ककसा श्लोक के जैसा संरचऩ है तथ़ऽप नीतन ऄऽभव्यऽक्त ऄथम के संदभम मं पररलऽक्षत होता है ι देऽखये – सैन्य़ऽधप़वेव परस्परे ण, यद़ ऽवव़दे कि रूतो मन: स्वम् ι तद़ऻसैन्य़ऽन न किक प्रकि यिम: , मह़जनो येन गत: स पन्थ़: ι ι सगम – १२ श्लोक- १२ – ऄंऽतम पंऽक्त: - धार स्वक़येक पऱ भवऽन्त ι श्लोक – २५ – तदेवत़वऽिदध़ऽम भररक्ष़त्मनो नो भुषमेषणाय़ ι स्वरक्षण़न्ऩऽस्त परो हा धमम: स एव त़वत् पररप़ल्यतेऻि ι ι श्लोक – ३० - म़न्य़: सद़ नो गिरवो जगत्य़म् ι श्लोक – ३२ - अच़रहानं न पिनऽन्त वेद़: ι श्लोक – ३६ - पऽतर्षह ऩम परमेश्वरोऻऽस्त ι सगम – १३ - श्लोक – ६३ धममस्य लोपो न भ़वेद्यथ़ मे ι प्रवर्षतत्व्यं मयक़ तथ़ऻि ι ι सगम – १४ श्लोक – १५ – सौम्य़कु ऽत: प्रत्ययम़दध़ऽत ι श्लोक – १६ – सित: ऽप्रय: सवमजनस्य नीनम् ι श्लोक – १७ – ऄंऽतम पंऽक्त: - पि​िस्य शोको ह्यऽवषह्य एव ι श्लोक –५६ – ऽवक्त्थ़ऩ नैव भवऽन्त शीऱ:ι सगम – १५

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ऄनिसध ं ़न पेज नं. - 45

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ख़त-ख़बर

कऽवत़

स़गर जयदेव शिक्ल

'ऽवश्वग़थ़ पररव़र के श्रा ऄशोक ख़ंट और ऱजन िलदी को प्रि​ि ल्ल़ दह़णिकर अटम ि़ईन्डेशन क़ कल़नंद ऄव़डम ऽचिकल़ के कल़क़रं को प्रोत्स़हन देने व़ला संस्थ़ प्रि​ि ल्ल़ दह़णिकर अटम ि़ईन्डेशन -पिणे के द्व़ऱ शहर के यशवंतऱव ऩट्डगुह मं कल़नन्द ऄव़डम- २०१६ क़ क़यमक्रम अयोऽजत ककय़ गय़ थ़ । ऽजसमं ऽवश्वग़थ़ पररव़र के श्रा ऄशोक ख़ंट (वल्लभऽवद्य़नगर-गिजऱत) को पंटिटग ऽवभ़ग मं बज़ज आलेक्िाक्स ऽल. के द्व़ऱ अणंद साटा ऄव़डम के स़थ नगद 10,000/- रुपये और ि़आन अटम के छ़ि ऱजन िलदी को िोटोग्ऱिी मं बज़ज ऑटो ऽल. क़ वेस्ट झोन ऄव़डम स्कोलरशाप 50,000/- रुपये से सम्म़ऽनत ककय़ गय़ है । दोनं सौऱष्ट्र के भ़य़व़दर ग़ँव से है । - सम़च़र डेस्क ♦♦♦ संप़दक, स़ऽहत्य समथ़म इ-311, ल़लकोठा स्कीम, जयपिर-302015 sahityasamartha@gmail.com neelima.tikku16@gmail.com

स़गर ऄभा-ऄभा ऽहनऽहऩय़ चट्ट़न से टकऱकर नाल़ क़ंच चीर-चीर दीर खड़े जह़ज आंर धनिषा बौछ़र से छलके खिल गइ ऽखड़की ख़रा हव़ और स़गर के लगे थपेड़े दीज रे ख़ ऽबन पतव़र के तैरता रहा भरपीर । ♦♦♦

ऄनिव़द : इश्वर सिसह चौह़न ISSN –2347-8764

ऽवश्व ग़थ़: ऄक्ती बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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ख़त-ख़बर

प्रय़ग स़रस्वत किं भ आल़ह़ब़द ऽवश्वऽवद्य़लय के ऽनऱल़ सभ़ग़र मं ’सजमनपाठ’ के तत्त्व़वध़न मं 27 जनवरा को पिकदवसाय पररसंव़द क़यमक्रमसह-पिस्तकप्रदशमना प्रय़ग-स़रस्वत कि म्भ क़ ऽवऽधवत ईद्घ़टन हुअ । ईत्तरप्रदेश लोकसेव़ अयोग के पीवम-ऄध्यक्ष और नेहरू ग्ऱम भ़रता ऽवश्वऽवद्य़लय, आल़ह़ब़द के कि लपऽत प्रोफ़े सर कु ष्पणऽबह़रा प़ण्डेय की ऄध्यक्षत़ मं अयोजन क़ शिभ़रम्भ दाप -प्रज्ज्वलन के साथ हुआ। मुख्यअमतमथ, भाभा परमाणु अनुसन्धान के न्र, मिम्बइ के वररष्ठ ऽवज्ञ़ना और ऄन्तरऱष्ट्राय ऽशक्ष़ऽवद डॉ. के .पा. ऽमश्र ने पिस्तक-प्रदशमना क़ ईद्घ़टन स़म़न्य पररप़टा के ठाक ऽवपरात दो िीतं के खिले ऽसरं को जोड़ते हुए’ ककय़ । आस ऄवसर पर मिख्य ऄऽतऽथ डॉ. ऽमश्र ने अयोजकं की प्रशंस़ करते हुए कह़, कक प्रक़शकं द्व़ऱ पिस्तकं की प्रदशमना के अयोजन की ब़त तो अम है, ककन्ति लेखकं द्व़ऱ अहूत पिस्तक-प्रदशमना पहला ब़र देखने मं अ रहा है । सजमनपाठ के ऱष्ट्राय-संयोजक डॉ. पुथ्वाऩथ प़ण्डेय ने ज़नकरा देते हुए बत़य़ कक प्रदशमना मं च़लास से ऄऽधक लेखकं ने ऄपना पिस्तकं प्रदर्षशत कं । पहले कदन के पररसंव़द ऽवषय ऽशक्ष़ क़ ब़ज़़राकरण तथ़ देश क़ भऽवष्पय क़ ऽवषय-प्रवत्तमन करते हुए ऽशक्ष़ऽवद डॉ. ऽवभिऱम ऽमश्र ने ऽशक्ष़ क्षेि मं व्य़प गये ब़ज़़रव़द की चच़म की । आसा कदन क़यमक्रम के ऄगले चरण मं स़ऽहत्यऽशल्पा-समाक्षक सौरभ प़ण्डेय ने क़व्य-ऽशल्प पर ऽवशद वक्तव्य प्रस्तित ककय़ । दीसरे कदन ’पिस्तक पिरस्क़र और ऱजनाऽत’ पर ऽवऽशि-ऄऽतऽथ ऄध्येत़ श्रा सौरभ प़ण्डेय ने कह़ कक ’स़धन, मत तथ़ व्यवस्थ़ जब बदल ज़ता है तो आसक़ साध़ प्रभ़व स़ऽहत्य पर पड़त़ है।’ ईन्हंने कह़ कक ’ज्ञ़न और ऄऽभव्यऽक्त के क्षेि मं ईप़ऽधयं क़ वचमस्व स़ऽहत्य के स़थ ऽवश्व़सघ़त करने की तरह है ।’ ऽवषयप्रवत्तमन ककय़ वररष्ठ स़ऽहत्यक़र डॉ. प्रदाप कि म़र ऽचि़ंश ने, ऽजनके ऄनिस़र लेखकं द्व़ऱ होत़ कोइ व्यवस्थ़ ऽवरोध कलम के म़फ़म त हा होऩ च़ऽहए । मिख्य ऄऽतऽथ ऄन्तरऱष्ट्राय ऽवच़रक, ऽबड़ल़ ि़ईं डेशन के सदस्य श्रा ओमप्रक़श दिबे थे । पररसंव़द के ISSN –2347-8764

ऄगले चरण मं गद्य तथ़ पद्य की कइ ऽवध़ओं पर ऽशल्पगत ऽवशद चच़म हुइ । तासरे कदन ’सम़ज को बऩत़-ऽबग़ड़त़ माऽडय़-तंि’ ऽवषय के ऽलए ऄध्यक्षाय पद से बोलते हुए आल़ह़ब़द ऽव.ऽव. के ऽहन्दा ऽवभ़ग़ध्यक्ष डॉ. मिश्त़क ऄला ने ऽप्रण्ट माऽडय़ से ऄऽधक आलेक्िोऽनक माऽडय़ को तम़म ऽवरीपत़ओं के ऽलए ईत्तरद़या बत़य़ । डॉ. मिश्त़क ने ज़ोर दे कर कह़ कक ’ऽप्रण्ट माऽडय़ अज भा ऄपना नैऽतक ऽजम्मेद़ररयं के प्रऽत ऽनष्ठ़व़न है ।’ मिख्य ऄऽतऽथ वररष्ठ पिक़र-सम्प़दक डॉ. अशाष ऽिप़ठा ने आस पीरे ऽवषय पर ऽवस्तुत वक्तव्य कदय़ । ईन्हंने स्वाक़र ककय़ कक पिक़ररत़ के छ़िं को संतिऽलत ऽशक्ष़ नहं ऽमल रहा है । आस ऄवसर पर शहर के कइ प्रमिख सम़च़र-पिं से सम्प़दक तथ़ वररष्ठ संव़दद़त़ मौजीद थे । प्रबि​ि श्रोत़ओं ने भा ऽवषय सम्बन्धा कइ ऽवन्दिओं पर चच़म की तथ़ सम्प़दकं से प्रश्न ककये । चौथे कदन ’हम़रे दैऽनक जावन मं देवऩगरा ऽलऽप और ऽहन्दाभ़ष़’ ऽवषयक कममश़ल़ अयोऽजत हुइ । कममश़ल़ एक खिला चच़म को अह्स्व़न करता हुइ संच़ऽलत हुइ था । ऽहन्दा भ़ष़ की अजतक की य़ि़ क़ स़ऽहत्यऽशल्पा-ऄध्येत़ एवं समाक्षक सौरभ प़ण्डेय ने सिरुऽचपीणम वणमन ककय़ । चच़म मं भ़ग लेते हुए प्रख्य़त भ़ष़ऽवद् डॉ. पुथ्वाऩथ प़ण्डेय ने भ़ष़ को लेकर सम़ज को ज़गरुक रहने की ब़त की । ईनके ऄनिस़र जो सम़ज भ़ष़या तौर पर सचेत नहं रहत़, वह क़ल़न्तर मं ऄपने म़नवाय ऄऽधक़रं तक से वंऽचत हो ज़त़ है । ऽशक्ष़ऽवद् डॉ. ऽवभिऱम ऽमश्र ने भ़ष़ को संप्रेषण क़ स़धन म़ि न कह कर आसे मनन-मंथन के ऽलए भा अवश्यक बत़य़ । ऽशक्ष़ऽवद् डॉ. नरे न्रऩथ सिसह ने भ़ष़या शि​ित़ को एक ऽमथ बत़य़ । आस क़यमश़ल़ मं स़ऽहत्यक़र प्रेमऩथ सिसह तथ़ डॉ. ज्योताश्वर ऽमश्र की भा मिखर भ़गाद़रा रहा । प़ँचवं कदन कि ल ब़आस स़ऽहत्यक़रं को ऩररके ल तथ़ शॉल देकर स़ऽहत्य-सजमन-ऽशखर-सम्म़न से सम्म़ऽनत ककय़ गय़ । प़ँचं कदन सम़रोह के संच़लन क़ महता द़ऽयत्व अयोजन के संयोजक डॉ. पुथ्वाऩथ प़ण्डेय पर थ़ । दीसरे सि मं क़व्य-प़ठ हुअ ऽजसमं कि ल च़लास कऽव-श़आरं ने भ़गाद़रा की तथ़ आसक़ संच़लन मिकिल मतव़ल़ ने ककय़ । पंचकदवसाय प्रय़ग-स़रस्वत कि म्भ क़ क़यमक्रम – 27 जनवरा – पररसंव़द ऽवषय - ऽशक्ष़ क़ ब़ज़़राकरण तथ़ देश क़ भऽवष्पय / 28 जनवरा – पररसंव़द ऽवषय –’पिस्तक पिरस्क़र और ऱजनाऽत’ / 29 जनवरा – पररसंव़द ऽवषय - ’सम़ज को बऩत़-ऽबग़ड़त़ माऽडय़-तंि’ / 30 जनवरा – कममश़ल़ - ’ हम़रे दैऽनक जावन मं देवऩगरा ऽलऽप और ऽहन्दा-भ़ष़’31 जनवरा – सम्म़न सम़रोह एवं कऽव-श़आर सम्मेलन - सम़च़र डेस्क ♦ ♦ ♦

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ऽवश्व ग़थ़

लघिकथ़

मदम ऽचि़ मिदगल

प्रक़शन सन्दभम ज़नक़रा द पेपर रऽजस्िेशन ऑि न्यीज़ पेपर सेन्िल रूल्स-1955 के तहत ऽवश्व ग़थ़ : (िैम़ऽसक की म़ऽहता

अधा ऱत मं ईठकर कह़ं गइ था?" शऱब मं धित्त पऽत बगल मं अकर लेटा पत्ना पर गिऱमय़। "अंखं को कोहना से ढ़ंकते हुए पत्ना ने जव़ब कदय़, "पेश़ब करने!" "एतऩ देर कआसे लग़?" "प़ना पा-पाकर पेट भरं गे तो प़ना ऽनकलने मं टेम नहं लगेग़?" "हऱऽमन, झीठ बोलता है? साधे-साधे भकि र दे, ककसके प़स गया था?" पत्ना ने सि़इ दा-"कउन के प़स ज़एंगे मौज-मस्ता करने!" म़टा ग़ऱ ढोता देह पर कउन ऽपऱन ऽछनके ग़ ?"

स़मऽयक क़ ऩम स़मऽयक की भ़ष़ प्रक़शन की ऄवऽध अर.एन.अइ. नंबर पऽिक़ की कीमत संप़दक, प्रक़शक, म़ऽलक मिरक ऱष्ट्रायत़ मिरण स्थ़न

"कि ऽतय़.." "गररय़ब ऽजन, जब एतऩ म़लिम है ककसा के प़स ज़ते हं तो खिद हा ज़के क़हे नहं ढीढ ं लेत़?"

प्रक़शन स्थल

"बेसरम, बेहय़...जब़न लड़़ता है ! अऽखरा ब़र पीछ रहे हंबत़ ककसके प़स गया था?" पत्ना तनतऩता ईठ बैठा- "तो लो सिन लो, गए थे ककसा के प़स। ज़ते रहते हं। द़रू चढ़़के तो ती ककसा क़ऽबल रहत़ नहं..." "चिप्प हऱऽमन, मिह ँ झिस दीग ं ़, जो मिँह से अँय-ब़ँय बकी।

: ऽवश्वग़थ़ : ऽहन्दा : िैम़ऽसक : RNIGUJHIN/00602/2014 : 50 रुपये : पंकज ऽिवेदा : पंकज ऽिवेदा : भ़रताय : 23, मेडाके र कोम्प्लेक्स, सिरंरनगर– 363002 (गिजऱत) : गोकि लप़कम सोस़यटा, 80 ि​ि ट रोड, सिरंरनगर– 363002 (गिजऱत)

मं पंकज ऽिवेदा घोषण़ करत़ हूँ कक ईपयिक्त म बत़इ गइ म़ऽहता मेरा ज़नक़रा मं है और म़न्यत़ के ऄनिस़र सहा हं |

द़रू पा के मरद-मरद नहं रहत़?" "नहं रहत़..." "तो ले देख, द़रू पा के मरद-मरद रहत़ है य़ नहं?" मरद ने बगल मं पड़़ लोट़ ईठ़य़ और औरत की खोपड़ा पर दे म़ऱ ।...

कदऩंक : 31/03/2016

पंकज ऽिवेदा संप़दक - ऽवश्व ग़थ़

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ISSN –2347-8764

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