Pdf oct nov dec 2015

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ऄनुक्रमिणका ख़त-ख़बर सम्पादकीय ‘गमतुं मळे तो ऄल्या...

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हास्य-व्यंग्य पंकज ि​िवेदी

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अलेख समकालीन गुजराती कहानी

हषषद ि​िवेदी

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चन्द्रकांत टोपीवाला रमेश पारे ख जयेन्द्र शेखाडीवाला ईसनस् सािहल जयदेव शुक्ल रे खा शुक्ला सॉिलड मेहता सुधीर पटेल

07 11 14 16 35 46 46 46 55

मोहम्मद मांकड़ ककरीट दूधात सुमंत रावल हषषद ि​िवेदी महेन्द्र सिसह परमार चंद ु महेररया िहमांशी शेलत सिबदु भट्ट

15 17 20 23 26 29 32 36

ऄिनरुद्ध ब्रह्मभट्ट भोलाभाइ पटेल रघुवीर चौधरी रमेश र. दवे कदगीश मेहता प्रफु ल्ल रावल वीनेश ऄंताणी पुिनत रावल

31 41 43 47 50 53 54 60

तलकशी परमार इश्वर परमार भगीरथ ब्रह्मभट्ट ऄतुल कु मार व्यास

22 25 28 49

गांधीजी

संकिलत

49

सत्य घटना

ट्रैकफक पुिलस का पि

55

किवताएँ पक्षीतीथष दो किवताएँ पानी मं मोमबत्ती तृण और तारक के बीच ग़ज़लं दो किवतायं अँसू भर अये ग़ज़ल ग़ज़ल

हाटष एटैक की ऐसी तैसी ऄनकफ़ट हँसना यानी झूला झूलना

िवनोद भट्ट भानुप्रसाद ि​िवेदी बकु ल ि​िपाठी

08 12 56

सौरभ पाण्डेय

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समीक्षा अँसू लावनी

कहानी ईस गाँव को स्टेशन नहं लुगाइयाँ लेट्रीन साआको झरोखा आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ मेयसष बंगला व्यथा के बीज मंगल सूि

िनबंध रहीम चाचा घर मोढेरा और राणकपुर वषाषकाले जलािधजल दूर के वे सुर लालटेन के ईजास मं बरसात ऄपनी ऄपनी घर : ऄँजुिल भर प्यार..

लघुकथा एंटीक्स जीवण लाल िपतृप्रेम कन्नी

प्रेरक प्रसंग

ISSN –2347-8764

सलाहकार संपादक सुभाष चंदर ✽ संपादक

पंकज ि​िवेदी

✽ सह संपादक ऄचषना चतुवद े ी ✽ परामशषक िबन्द्द ु भट्ट सौरभ पाण्डेय मंजल ु ा ऄरगड़े सिशदे ✽ शोधपि संपादक डॉ. के तन गोहेल डॉ. संगीता श्रीवास्तव ✽ Mo. 09662514007

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

मुखपृष्ठ िचि ज्योित भट्ट ✽ रे खा िचि वंदना पंवार ✽ वार्षषक सदस्यता : 200/- रुपये 5-वषष : 1000/- रुपये (डाक खचष सिहत) ✽ सम्पादकीय कायाषलय िवश्वगाथा C/o. पंकज ि​िवेदी ॎ, गोकु लपाकष सोसायटी, 80 फीट रोड, सुरेन्द्रनगर 363002 -गुजरात ✽ vishwagatha@gmail.com ✽ 1


ख़त-ख़बर

शामलाजी अर्टसष कॉलेज - डॉ. ऄजय पटेल की सफल शैिक्षक िवशेष यािा शामलाजी : तीथषक्षेि शामलाजी अर्टसष कॉलेज के प्राचायष डॉ. ऄजय पटेलने दशािधक वषं से यहाँ पर सफलतापूवषक ऄपनी सेवाएं प्रदान की है । सम्प्रित-िविभन्न संस्थाओं से संलग्न रहकर वे ऄपना कायषशांित रीित कर रहे हं एवं कॉलेज का चतुर्ददक िवकास हो ऐसे प्रामािणक प्रयत्न कर रहे हं । ईनके मागषदशषन मं ऄबतक सात छािं ने पीएच.डी. की ईपािध प्राप्त की है । 2 से 8 नवम्बर 2015 तक ईन्द्हं ने मोरे िशयस की यािा के दौरान 'िवश्व िहन्द्दी सम्मलेन' मं िहस्सा िलया था । िविभन्न सिं मं ईन्द्हं ने ऄध्यक्षता भी की थी । ईन्द्हंने वहाँ -'रामकथा की प्रासंिगकता' िवषय पर ऄपना शोधपि भी प्रस्तुत ककया था । ईसके बाद 28 से 31 कदसंबर 2015 तक श्रीलंका मं होने वाली ऄंतरराष्ट्रीय शोध-संगोष्ठी मं शािमल हुए थे । ईनकी आतनी सारी ईपलिधधयं से अकदवासी क्षेि की आस कॉलेज के ऄध्यापक और छािं को भी ऄध्यापनकायष एवं संशोधन क्षेि मं नए अयाम तक पहुँचाने के िलए ईनका मागषदशषन िमलता रहता है । (तसवीर : मोरे िशयस) ररपोटष : डॉ. मधुसद ू न म. व्यास (संस्कृ त िवभागाध्यक्ष), मोडासा ~✽~ पंकज ि​िवेदी, कल 'िवश्व गाथा' का जुलाइ-िसत. '15 ऄंक िमल गया है । ऄंक प्रेरक -पठनीय- संग्रहनीय-प्रशंसनीय है । अप की पि​िका समाज को कदशा दे रही है और सािहत्यकारं को आससे गगन िमल रहा है। एक श्रेष्ट पि​िका मं जो अवश्यक और ऄपेिक्षत है– वह सब है आसमं । यक़ीनन अप एक दुरूह-कष्ट साध्य-श्रम व् समय साध्य कायष कर रहे हं । ऄिहन्द्दी भाषी होकर भी सिहदी वांग्मय को समृद्ध करने मं तन-मन-धन से ऄपने भागीरथ प्रयास मं िनःस्वाथष भाव से जुटे हुए हं । मं आस नेक कायष मं, पूरी िनष्ठां से, पूवव ष त अप का हूँ और रहूँगा । अप व् अप की समथष टीम को हार्ददक बधाइ और शुभोज्ज्वाल भिवष्य की ऄशेष मंगलकामनाएं देता हूँ। ह्रदय से िनकले मेरे आस ईदगार को चाहं तो, समुिचत स्थान पर छाप कर, पाठकं तक पहुंचा सकते हं । धन्द्यवाद । डॉ. रघुनाथ िमश्र 'सहज' 3-k-30, तलवंडी, कोटा-324005 (राजस्थान) मो.– 09214313946 ~✽~ ISSN –2347-8764

महोदय, ''िवश्व गाथा'' का जुलाइ-िसतंबर 2015 ऄंक प्राप्त हुअ । दो-टूक संपादकीय पढकर खुशी हुइ । ''िवश्व गाथा'' खुला मंच है । पाठकं की िचरियां आसका सबूत हं । ककन्द्हं राष्ट्रवादी लेिखका ने िवश्व िहन्द्दी सम्मेलन की राष्ट्रवादी रपट िलखी है । अपने कलबुगी की हत्या पर शोक व्यक्त करके क्षितपूर्षत कर दी है । रूसी लेिखका साशा भारत का पररचय ककसने िलखा है ? अप दोनं ने िमलकर? ऄच्छी पि​िका के आतने ऄच्छे ऄंक के िलए साधुवाद ! बजरं ग िबहारी ितवारी (Mo. 9868261895) ~✽~ प्रितष्ठाथष, श्रीयुत संपादक महोदय जी, 'िवश्व गाथा', सुरंरनगर (गुजरात) मान्द्यवर, अप द्वारा प्रेिषत 'िवश्व गाथा' का जुलाइ-िसतम्बर-2015 ऄंक प्राप्त हुअ । ग्राम्य पररवेश से युक्त अवरण ने मन मोह िलया । सािहत्य की सभी िवधाओं (यथा अलेख, कहानी, लघुकथा, साक्षत्कार, व्यंग्य, गीत, ग़ज़ल अकद) मं स्तरीय रचनाओं का चयन सम्पादकीय मेहनत का पररचायक है । िहमकर श्याम का अलेख 'जनजातीय लोक िचिकला' पूणष व रोचक है । देवी नागरानी की कहानी 'घुटन भरा कोहरा', मीनाक्षी सिसह की 'मेरा वजूद', मंजरी शुक्ल की 'खुिशयं की दीपावली' कहािनयां ह्रदय को छू लेने वाली है । देश के िविभन्न राज्यं के रचनाकारं की सहभािगता 'िवश्व गाथा' की लोकिप्रयता व स्तरीयता का जीता-जागता सबूत है । मेरा एक िनवेदन है कक अप ऄपनी पि​िका मं दो पृष्ठ कमसे कम बच्चों के िलए ऄवश्य दं । क्यंकक अज के बालक ही कल के नागररक है और पररवार मं अइ पि​िका मं वे भी ऄपने िलए सामग्री की तलाश करते ही हं । कु ल िमलाकर साफ़ सुथरी छपाइ, ऄच्छा कागज़ और संयोिजत सामग्री से युक्त आस सुंदर पि​िका के िलए संपूणष 'िवश्व गाथा' टीम हार्ददक बधाइ की पाि है । दीपोत्सव / नववषष पर मंगलकामनाएं स्वीकार करं । राजकु मार जैन 'राजन' (प्रबंध संपादक—'सािहत्य समीर दस्तक')- भोपाल ~✽~ पंकज ि​िवेदी, 'िवश्व गाथा' पि​िका िमली । बहुत ही ईच्चो स्तरीय ऄंक बन पाया है। यह एक ऄनूठा अयना है । अपको तो हर स्तर पर ऄके ले ही झूझना होता है, आसके परीरुप को तैयार करने मं यह बात भी महत्वपूणष है । अप िहन्द्दी के सच्चोे प्रेमी और राष्ट्रभक्त हं । प्रभु अपको बल दं एवं सािहत्यकार-ग्राहक आस पि​िका हेतु धन-सहयोग भी दं ऐसी भगवान िवश्वश शामलाजी को मेरी प्राथषना है । डॉ. मधुसद ू न म. व्यास, मोडासा (गुजरात) ~✽~ बहुत ही ईत्तम है अपका संम्पादन और मैगजीन 'िवश्व गाथा'। अपकी पूरी टीम बघाइ की पाि है । अप जल्दी ही ईक्त क्षेि मे ऄपना लोहा मनवा लंगे मुझे पूरा यकीन है । डॉ. संध्या ितवारी, पीलीभीत (यु.पी.) ~✽~

िवश्व गाथा : ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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सम्पादकीय

‘गमतुं मळे तो ऄल्या गूज ँ े न भरीये...’

मं गुजराती भाषी हूँ यह मेरे िलए गवष की बात है और गुजराती सािहत्य मुझे संस्कार के रूप मं िमला । गुजराती सािहत्य मं मेरी क्षमता के ऄनुसार हर िवधा को मंने हस्तगत ककया । काफी हद तक सफल रहा । एक घटना ने मेरे जीवन मं पररवतषन ककया । मं आतना िवचिलत हो गया कक मंने गुजराती सािहत्य मं िलखना कम कर कदया और िहन्द्दी सािहत्य की ओर ऄग्रसर हुअ । िहन्द्दी मं मेरी माँ के अशीवाषद काम अए, क्यंकक ईनका जन्द्म वाराणसी मं हुअ था । आस कारण गुजराती मं िपता और िहन्द्दी मं माँ के नक्शेकदम पर चलना शुरू ककया । मंने एक ऐसी पि​िका का सपना देखा था, जो देश-िवदेश मं फै ले । जब मंने िहन्द्दी पि​िका शुरू की तो गुजराती भाषा के प्रित ऄपना ईत्तरदाियत्व िनभाने का भी सोचा था । यही कारण है कक अज अपके हाथं मं गुजराती सािहत्य के चुने हुए सशक्त हस्ताक्षरं को रख सका हूँ । ऄत्यंत िवनम्रता से कहूँगा कक िसफष 60 पन्नं मं समग्र गुजराती सािहत्य की ईत्तम रचनाओं को संजोना ऄसंभव ही है । समकालीन गुजराती सािहत्य की ये रचनाएँ गुजराती भािषयं के िलए गवष का िवषय हं तथा ऄन्द्य भाषा-भािषयं को सािहत्य मं नए ऄनुभव प्रदान करने मं सक्षम और पयाषप्त भी हं । गुजराती सािहत्य का आितहास इ.स.1000 से िमल रहा है, जो अज भी िवकास की ओर ऄग्रसर है । गुजराती सािहत्य मं हेमचंराचायष, नरसिसह, मीराबाइ, ऄखो, प्रेमानंद, शामळ, दयाराम, दलपतराम, नमषद, गोवधषनराम ि​िपाठी, गांधीजी, कनैयालाल मुनशी, ईमाशंकर जोशी, सुरेश जोशी, पन्नालाल पटेल, राजेन्द्र शाह, िनरं जन भगत, भोलाभाइ पटेल और रघुवीर चौधरी अकद है । गुजरात िवद्यासभा, गुजराती सािहत्य सभा, गुजराती सािहत्य पररषद् जैसी संस्थाएँ ऄहमदाबाद मं सकक्रय हं । भाषाओं का िवकास क्रम आस प्रकार है: संस्कृ त-प्राकृ त-ऄपभ्रंशगुजराती भाषा । िजसमं 10 से 14 वं सदी ऄपभ्रंश की है । नरसिसह मेहता के पूवष का समय यानी कक प्रागनरसिसह युग / हेमयुग / रासयुग / जैनयुग के नाम से जाने जाते हं । ईस वक्त किलकाल सवषज्ञ पंिडत हेमचंराचायषने 12वं सदी मं ‘िसद्धहेमशधद शासन ग्रंथ मं प्राकृ त व्याकरण से प्रेररत दोहा ऄपभ्रंश भाषा मं रचे हं, िजसमं शौयष और प्रेम रस के दोहे हं । ईमाशंकर जोशी ने आस दोहं की भाषा को ‘मारूं-गुजरष ’ भाषा की पहचान दी है । समय की दृिष्ट से वो मध्यकालीन गुजराती सािहत्य के प्रथम किव हं । फागुन काव्यो मं ‘वसंत मिहमा’ है । इ.स. 1456 मं रची गइ ‘कान्द्हड़े प्रबंध’ मं गुजराती और राजस्थानी भाषा का समन्द्वय देखने को िमलता है । गुजराती सािहत्य मं भारतीय भाषाओं का सवोच्चो ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ चार सािहत्यकारं को िमला है, यह ऄपूवष घटना है । किवश्री ईमाशंकर जोशी, श्री पन्नालाल पटेल, श्री राजेन्द्र शाह और हाल ही मं आस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले श्री रघुवीर ISSN –2347-8764

- पंकज ि​िवेदी

चौधरी ने ऄपने सािहत्य के द्वारा गुजराती भाषा को िशखर पर पहुँचाया है । गुजराती से बहुत सारे सािहत्यकारं की रचनाएँ भारतीय भाषाओँ मं तथा िवदेशी भाषाओं मं ऄनुकदत हुइ हं । बहुत से सािहत्यकार गुजराती भाषी होने के बावजूद सीधे िहन्द्दी मं ही िलखते हं । गुजराती भाषा पर संस्कृ त, पाली, ऄरबी, ईदू,ष फारसी, ऄंग्रेज़ी जैसी भाषाओं का भी ऄसर कदखाइ देता है । ऄंग्रेजं की गुलामी झेलने वाले आस देश के प्रत्येक प्रान्द्त पर ऄंग्रेज़ी भाषा का ऄसर होना स्वाभािवक भी है । एक ज़माने मं अज का रूस ‘सोिवयत सोशिलस्ट ररपिधलक्स' का समूह था जो अज िबखरे हुए देशं के रूप मं ऄिस्तत्व मं हं । मगर रूस के साथ भारत का संबंध पहले से ही करीबी रहा है और ईसका ऄसर सािहत्य क्षेि मं भी देखने को िमला है । दोनं देशं के बीच मं सािहित्यक संस्कृ ित अदान-प्रदान का ररश्ता स्तरीय था । मं बचपन मं ‘सोिवयत लैण्ड’ नामक िहन्द्दी पि​िका खूब पढ़ता था । शायद यही कारण है कक सिहदी सािहत्य के प्रित मेरा अकषषण अज ‘िवश्व गाथा’ के रूप मं अपके सामने है । गुजरात मं जन्द्म होने के कारण यहाँ की संस्कृ ित और रीित-ररवाजं के ऄनुसार जीने के साथ सािहत्य-संस्कृ ित के माध्यम से मराठी और राजस्थानी भाषा के प्रित मेरे मन मं हमेशा सम्मान रहा । क्यंकक गुजरात और महाराष्ट्र एक ज़माने मं ऄलग नहं थे । गुजरात-राजस्थान, सांस्कृ ितक दृिष्ट से लगभग समान हं । ईत्तर प्रदेश की िहन्द्दी लुभावनी है, शुद्धता के रूप मं भी । मं स्वयं को भाग्यशाली मानता हूँ कक मं अज ‘समकालीन गुजराती भाषा िवशेषांक’ पाठकं के िलए समर्षपत कर पा रहा हूँ । भाषाओं से बड़े ररश्ते होते हं, ऄहसास और ऄिभव्यिक्त ईनके बच्चोे हं । भाषा, ऄिभनय, संगीत... यह सब साधन माि है । सवोपरर है हमारा मानव होना और संवेदनशील होना, ऄपने अप मं बड़ी बात है । देश मं ऄनिगनत िहन्द्दी सािहत्य की पि​िकाएँ प्रकािशत होती हं । ऄिहन्द्दी क्षेि गुजरात से गुजराती भाषी होकर िहन्द्दी मं सािहित्यक पि​िका को प्रकािशत करना, ऄपनी ऄलग पहचान बनाना करठन तो था मगर मंने सोचा कक चुनौतीपूणष आस कायष के िलए समर्षपत हो जाउँ तो नामुमककन कु छ नहं । प्रितस्पधाष तो ककसी से सोच भी नहं सकता, मगर ऄपनी िवशेष ईपिस्थित दज़ष करवाना ऄपने अप मं खुशी की बात जरूर है । मेरे िलए आस पि​िका की सफलता मं देश-िवदेश के िविभन्न प्रान्द्तं के िहन्द्दी सािहत्यकारं एवं सािहत्यप्रेिमयं का सहयोग ऄमूल्य है । ऄगर ईनसे मुझे संबल नहं िमलता तो शायद ‘िवश्व गाथा’ पि​िका आस मुकाम पर नहं पहुँचती । ऄंत मं गुजराती सूफी किव श्री मकरन्द्द दवे की पंिक्तयं का अधार लेना चाहूँगा – ‘गमतुं मळे तो ऄल्या गूज ँ े न भरीये, गमतांनो करीए गुलाल...’ (जो पसंदीदा िमले ईसे ऄपने तक सीिमत न रखते हुए गुलाल की तरह खुशी से बाँरटये) और आतना ही कहूँगा कक मुझे सािहत्य के माध्यम से जो खुशी िमली है, जो ऄिभव्यिक्त िमली है, ईस खुशी मं अप सभी शरीक हो कर अनंद मनाआए । अप सभी की प्रसन्नता मेरे िलए इश्वर का अशीवाषद है ।

िवश्व गाथा : ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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अलेख

समकालीन गुजराती कहानी हषषद ि​िवेदी

1950 से पहले की गुजराती कहािनयं मं घटनाओं का गहरा रं ग ऄिधक है और मानव मन की संकुलताएँ बहुत कम हं । कहानी का ऄंत नाट्यात्मक या चंकानेवाला हो आतने माि से कहानी को कहानी कह कदया जाता था । एक दौर ऐसा भी अया जब ऄखबारी वृत्तांत और कहानी के बीच का भेद जैसे िमट गया था । कलात्मकता की बात तो बहुत दूर की बात थी, कोमल भावनाओं के ताने-बाने मं ईलझी हुइ कहानी घटनाओं की मोटी परत के कारण ऄपने ही बोझ तले झुक गयी थी । बीच-बीच मं सुिवचार-सूिक्तयाँ और सीधे-सीधे ईपदेश कथनं ने हद कर दी थी । ऐसी कहािनयं की सीमा लांघकर यूरोपीय अधुिनकता के िचह्न प्रकट कर सकं और कहािनयं के अतंररक-बाह्य स्वरूप को समूचा बदल सकं , ऐसी पहल सुरेश जोशी ने की । 1957 मं प्रकािशत सुरेश जोशी की कहानी 'गृहप्रवेश' गुजराती कहानी के क्षेि मं प्रवेश करती है और कहानी के िवकास मं मील का पत्थर िसद्ध होती है । सुरेश जोशी और ईस दौर के ककशोर जादव, प्रबोध परीख, राधेश्याम शमाष, ज्योितष जानी, भूपश े ऄध्वयुष और ऄन्द्य कहानीकार स्थूल घटनाओं के स्थान पर मनोव्यापार को महत्त्व देने के ऄलावा भाषा के लीला-व्यापार को भी महत्त्व देते हं। आन सभी कहानीकारं ने भाव-संवेदन और मानव-जीवन की स्थूल घटनाओं का माि अधार ही िलया और िविवध प्रयोगं द्वारा कहानी को जैसे कलास्वरूप देकर प्रकट करने की ठान ली । ईनके प्रयोगं मं फं टसी का प्रमुख स्थान रहा था । आस फं टसी को रूप िमला था काव्यमय सजषनात्मक गद्य का । अगे चलकर ईसका भी ऄितरे क हुअ और कहानी के िलए संप्रेषण के प्रश्न भी खड़े हुए । ईस समय की अलोचना ने पाश्चात्य मानदंडो द्वारा, कहानी से भी दुरूह अलोचना की । कहानी और अलोचना दोनं दुबोध बने रहं । हालांकक यह दौर चल रहा था ईसी समय ही परं परा से नाता तोड़े िबना कु छ कहानीकारं ने प्रयोगशील कहािनयाँ देने का भी प्रयास ककया । मधु ISSN –2347-8764

राय, घनश्याम देसाइ, िचनु मोदी, लक्ष्मीकांत भट्ट, हररकृ ष्ण पाठक, रवीन्द्र पारे ख और सरोज पाठक जैसे कहानीकारं की कइ कहािनयं मं जीवन और कलात्मकता का समन्द्वय है । फं टसी आन कहािनयं मं िबलकु ल नहं थी ऐसा नहं है, परन्द्तु ईन्द्हंने जीवन और मानवमन की संकुलताओं का ठीक ठीक िनवाषह ककया है । गुजराती मं अधुिनक और अधुिनकोत्तर कहािनयं का बहुत ऄध्ययन हुअ है । परन्द्तु ऐसी ऄंतररम कहािनयं का समय के सन्द्दभष मं मूल्यांकन करने की प्रकक्रया, जैसे शुरू होने से पहले ही रुक गइ है । रुपरचना और तथाकिथत कलात्मकता के व्यामोह से बाहर अने मं और ऄपनी मुरा धारण करने मं काफ़ी समय बीता । परन्द्तु आस दौर मं भी आवा डेव, चंरकांत बक्षी, रघुवीर चौधरी, भगवती कु मार शमाष, धीरे न्द्र महेता, धीरुबहन पटेल, वीनेश ऄंताणी, कुं दिनका कापिडया अकद कहानीकार सामािजक सरोकार और मानव-सम्बन्द्ध िवषयक ऄपने िनजी ऄनुभवं से ईपजी कहािनयाँ देते रहं । ये कहानीकार न तो अधुिनकता के िशकार हुए और न ही ईन्द्हं ने स्थूल घटनाओं का अलेखन ककया । ककसी भी प्रकार के ग्रह, ऄनुग्रह या पूवषग्रह के िबना माि ऄनुभूित के बल पर रिचत ये कहािनयाँ अज भी जीवंत और अस्वाद्य लगती हं । 1980 के बाद पररष्कृ त कहानी के नाम से जैसे बाढ़ अ गइ । एक साथ बहुत बड़ी तादाद मं कहानी और कहानीकार अये । मानं चारं ओर कहानी का ही बोलबाला रहा ! ऐसा लग रहा था कक गुजराती सािहत्य मं कहानी का नवयुग शुरु हुअ और ईसमं आयत्ता एवं गुणवत्ता भी कदखाइ देने लगी । छोटे-बड़े ऄनेक रचनाकारं ने जैसे आस स्वरूप को वश करने की मानो ठान ली थी । यहाँ नहं कदख रही है माि रूप की मिहमा या नहं कदख रहा है माि ककस्सागोइ का िसलिसला । दोनं मं ऄपूवष समन्द्वय िसद्ध करने के िलए अज का कहानीकार ईद्यत्त हुअ है । सुरेश जोशी द्वारा प्रितिष्टत कलात्मकता को दरककनार ककए िबना समाज

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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के साथ तालमेल साधना आन कहािनयं की िविशष्टता रही है । स्वरुप की दृिष्ट से देखं तो ये कहािनयाँ कथावस्तु को ऄिधक से ऄिधक ऄनुभूितजन्द्य रूप मं, कलात्मक रूप से प्रकट करने की जद्दोजहद मं नये-नये रूप धारण करती हं । ककसी एक ही कहानीकार की ऄलग ऄलग कहािनयाँ भी समान रचनारीित से युक्त नहं है । तो िवषयवस्तु की दृिष्ट से भी गुजराती कहानीकार का ऄनुभविवश्व व्यापक हुअ है । जीवन के ऄनेक जाने-ऄनजाने कोनं तक कहानीकार गया है, और ईसके सम्मुख ऄब भी अश्चयं की सीमा नहं है, ऐसा स्पष्ट लग रहा है । समाज के िविभन्न स्तर, िनजी व्यिक्तत्व रखने वाले पाि और ककिसम ककिसम की भाव िस्थितयाँ और ईसके ऄनुरूप ही नहं, बिल्क सशक्त और सरल रूप से व्यक्त कर सकं ऐसी भाषा की ऄिभव्यिक्त हािसल करने के िलए अज का कहानीकार सजग ऄंदाज मं औजार लेकर कहािनयाँ गढ़ने बैठा है । आन कहािनयं ने न तो समाज को हािशए पर धके ला है, न तो स्वरूप के प्रित ऄिभज्ञता गँवायी है । ककसी ऄंचल की भाषा या पररवेश को लेकर अनेवाली कहािनयाँ, ऄवैध सम्बन्द्धं की कहािनयाँ और तरह तरह के शोषणं को िवषय बनाकर रची जानेवाली कहािनयाँ अज भी िलखी जा रही है, परन्द्तु आन कहािनयं का पयाषवरण और व्याकरण बदल गया है । कहािनयाँ बहु अयामी बनी हं । कहानी दर कहानी नया अकार देने की प्रितबद्धता बढ़ी है । अज का सजषक ऄनुभव के कं र मं ही िघरा हुअ नहं है, ईसकी पररिध की ओर की गित के दौरान ऄनेक ि​िज्याओं द्वारा िनजी लय और अकृ ितयाँ प्रकट कर रहा है । पररणाम स्वरुप दो दशक पूवष की कहानी को 'धूल-धूसररत' की सायास गाली खानी पड़ी थी । ऐसी िस्थित अज नहं है। हालाँकक ऄपवाद तो हर जगह रहंगे ही । जैसे कक कहानीकारं का एक पूरा वगष एक दूसरे के प्रकट प्रभाव मं अए िबना ऄपनी िनजी मुरा प्रकट कर रहा है । आन कहािनयं मं स्पष्ट पररलिक्षत होता है पािं के मनोजगत के साथ-साथ िविधISSN –2347-8764

िवधान और समग्र पररवेश का जीवंत अलेखन । ये वणषन माि न रहकर कहानी को िनरं तर गित देने मं और चररिं को सुरेख ईजागर करने मं सहायक बन पड़े हं । कु छ पाि तो चररि की कक्षा से ईठकर संवेदना से युक्त, चुनौतीपूणष और रोचक भी होकर ईभरे हं । तो भाषा ऄंगरे जीदाँ वाक्य -रचनाओं से बाहर ननकलकर गुजराती भाषा की सही तासीर प्रकट कर सके ऐसी देह धारण कर सकी है । अरोह-ऄवरोह भले ही अयं, परन्द्तु नीित-रीित और गित सीधी-सरल और कलािनर्षमित ऄिभमुख होने के कारण भेद कम हुअ है । और आसिलए पाठक को भी एक प्रकार की सघनता का ऄनुभव प्राप्त होता है । सबसे अकषषक तत्त्व तो स्वाभािवक सजषनात्मकता का है । ऄिधकांश कहािनयं मं ऄखरने वाला अयास शायद ही देखने को िमलता है । ऄपने कहानीकार मं कहानी खंच लाने की तिपश के स्थान पर एक कलाकार का सहज धैयष प्रकट हुअ है, जो कहानी के ईज्जवल भिवष्य की ओर आं िगत करता है । मेरे कदए हुए िनष्कषं को पुिष्ट िमले ऐसी कु छ कहािनयं की चचाष भी यहाँ ऄिनवायष लगती है । िहमांशी शेलत की कहानी 'बारणुं'-दरवाजा कहानी मं एक स्त्री, दूसरी स्त्री को ऄपने ऄनैितक व्यावसाियक-स्वाथष के कारण बरबादी की ओर ले जाती है । सवली के घर मं शौचालय नहं है । खुले मं जाते हुए संकोच होता है । बाररश के मौसम मं तो गंदगी के कारण वैसे भी तकलीफ महसूस होती है । ईसे तो टी.वी. मं देखा था, ऐसा गुलाबी टाआल्स वाला स्वच्छ और ऄंदर से बंद हो सके ऐसे दरवाज़ं वाला शौचालय चािहए । एक बार वह मेले मं िबछड़ जाती है । एक स्त्री घर पहुँचाने मं ईसकी मदद करने के बहाने ईसे ऑटो मं िबठाती है । बाद मं कहती है, मेरे घर होकर जाएँ, बाद मं तुझे ऄपने घर छोड़ने अ रही हूँ । परन्द्तु ईस स्त्री का घर अते ही सवली को शौचालय जाने की आच्छा होती है । वह िपछले तीन कदनं से गइ भी नहं है । वह स्त्री सवली के स्वप्न के समान सुंदर, स्वच्छ टाआल्स वाला शौचालय कदखाती है । ऄंदर िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

से दरवाजा बंद तो होता है; परन्द्तु लेिखका ऄंत मं िलखती है कक हमेशा के िलए बंद ! पेशेवर िस्त्रयं के मोहल्ले का वह दरवाजा सवली के िलए ऄंदर से बंद हो गया है । वह ऄब कभी खुलने वाला नहं है । एक भोलीभाली लड़की सामान्द्य आच्छा के हाथं हमंशा के िलए जीवन से वंिचत हो जाती है। दिलत चेतना के कहानीकार मोहन परमार की 'अंध'ु (अंधी) कहानी मं सवणष और दिलतवगष के बीच व्याप्त ऄसमानता तथा वगष-संघषष का मनोवैज्ञािनक स्तर पर िनरूपण हुअ है । स्टेशन से सौदा खरीदकर लौटते पटेल भोलीदा खेतं मं ईठी अंधी मं फँ स जाते हं । तब ईन्द्हं उँटगाड़ी वाला शना शेनमा िमलता है । शना भोलीदा को गाड़ी मं िबठा लेता है । परन्द्तु भोलीदा ऄंत तक शंका-अशंकाओं से भयभीत रहते हं, िजसमं ईनका सवणष मानस और दूसरी तरफ यथाथष प्रकट होता है । साथ ही साथ यह भी प्रकट होता है कक ऄसल मं अंधी तो भोलीदा के मन मं ईठी थी । ऄद्भूत कलासंयम का पररचय देने वाली आस कहानी मं कहानीकार ने भोलीदा के मन की अंधी और वगष-संघषष को सुन्द्दर ढंग से ईभारा है । मजबूर अदमी मौत का िलहाज ताक पर रखकर या ऄपनी बेटी के मरने का दुःख भूलकर ककस प्रकार मुअवजा लेने के िलए लालची बनता है ऄथवा ऄप्रामािणक अचरण करता है ईसका प्रमाण है सुमंत रावल की कहानी 'ऄंत्येिष्ट' । बुखार मं मर जाने वाली बेटी का शव लेकर टैक्सी मं अने वाला गरीब बाप । दंगं मं भीड़ द्वारा टैक्सी को जला कदया जाता है । िपता ऄपनी जान बचाने के िलए बाहर कू द पड़ता है और ऄंत मं यह कहता है कक आस भीड़ ने मेरी बेटी को िज़न्द्दा जला कदया । पच्चोीस हजार रुपये का सरकारी मुअवज़ा हािसल करने के िलए ऄपने अप से धोखा करनेवाला िपता और ईसकी लाचारी मनुष्य के खून के ररश्ते को भी ककस तरह िछन्न-िभन्न कर देती है, ईसका ईदाहरण यह कहानी है । ऐसी ही दूसरी कहानी है – 'तपषण' । लेखक हं रवीन्द्र पारे ख । ऄगले वषष ररटायर होने

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वाले िपता दशरथ राय के लडके भरत को कहं भी नौकरी नहं िमल रही । ररश्वत देने के िलए भी तैयार होता है । पता चलता है कक नौकरी के दौरान ऄगर ककसी की मृत्यु हो जाएँ तो पररवार के ककसी एक सदस्य को रहमराह पर नौकरी िमल सकती है । हर तरफ से हारा हुअ और थका हुअ भरत लतीफ़ जैसे पेशेवर हत्यारे को ऄपने ही िपता को मारने की सुपारी देता है । नौकरी िमल जाने के बाद, िपता के जीपीएफ अकद के पैसे िमलने मं देर होती है । पररणाम स्वरूप लतीफ़ को पैसे देने मं िवलम्ब होता है, लतीफ़ धमकी देता है – "बच्चोे ! ऐसा न हो कक िजस नौकरी के वास्ते बाप को ईठावाया....वह नौकरी ही..." 'तपषण' शीषषक सम्बन्द्धं की व्यथषता और हमारी सामिजक मूल्यहीनता को सूिचत करने मं साथषक है । धरमाभाइ श्रीमाली की कहानी 'नरक' हमारे समाज के नग्न यथाथष को कलात्मक रूप से व्यक्त करती है । सुन्द्दर दिलत स्त्री रतन को शादी से पहेले गाँव मं ईसकी माँ मरा हुअ कु त्ता ईठाने के िलए कहती थी । तो ईसे ऄच्छा नहं लगता था । शहर मं रहने वाला सोम ईसे धयाहकर आसिलए ले अया था कक ईसे गाँव मं यह सब न करना पड़े । परन्द्तु िववाह के बाद धीरे धीरे वही काम करने की नौबत अ गयी, िजसे वह नकारती रही थी । गंदे शौचालयं की सफाइ, ठे केदार की बुरी नज़र अकद रतन को जीिवत ऄवस्था मं भी नरक का ऄनुभव कराते हं । मोहल्ले मं कांितभाइ के घर कफल्म कदखाने वाले अये हं यह जानकर ईसकी लड़की िज़द्द करके जाती है । पीछे पीछे वह खुद भी जाती है । टी.वी. मं गंदगी ईठाने वाली स्त्री के गले तक गंदगी अ जाती है यह दृश्य कं पकं पी ईत्पन्न करता है । ऄंत मं सोमा का पररवर्षतत होना, ईसकी ऄनुभूित के क्षण को लेखक ने सुन्द्दर ढंग से बचा िलया है । रतन के व्यिक्तत्व से साित्वकता और शील ऄनायास प्रकट हो सके हं । आसमं लेखक सफल रहा है । ककरीट दूधात की 'वंटी' (ऄंगूठी) कहानी मं होता यह है कक टी.बी. पेशंट रितमामा को लगभग ऄंितम दशा मं शहर से जंथरी (छोटा शहर) लाने वाले हं । रितलाल की ISSN –2347-8764

पहले ही कै लास के साथ सगाइ हो चुकी है और दोनं ने साथ मं एक तसवीर भी सिखचवाइ है । रितलाल का जीवनरस जबदषस्त है । वे बाह्य रूप से वास्तिवकता का स्वीकार नहं करते, परन्द्तु भीतर के यथाथष से ऄनिभज्ञ भी नहं है । आसिलए ऄगले वषष िववाह होने की बात, होली कू दने की आच्छा, ऄंगूठी वाले प्रसंग अकद को दोहराते रहते हं । ईसकी िजजीिवषा और आच्छाओं को लेखक ने मुखर हुए िबना संवादं और संकेतो के माध्यम से प्रकट ककया है, जो पाठक के मन मं ईसके प्रित ऄनुकंपा और पीड़ा समानान्द्तर रूप से पैदा करती है । ऄंगूठी का प्रतीक शायद बहुत साथषक नहं हो सका है, परन्द्तु मौत के मुख की और जानेवाले रितलाल और ईसकी पीड़ा हृदयस्पशी है । एक मास्टर पूरी सिज़दगी बच्चों को पढाता है, परन्द्तु जीवन के स्वाभािवक क्रम को न तो पहचान सकता है और न ही स्वीकार सकता है । ऐसी िवडम्बना प्रकट करने वाली माय िडयर जयु की कहानी 'मास्तर नो ओम' ईसकी भाषा की चुस्ती के कारण छू जाती है । गुजराती मं जयंत खिी, चुनीलाल मिडया और ऄन्द्यं ने भी पशु को कं र मं रखकर कहािनयाँ िलखी है । यहाँ ओम नामक कु त्ते के माध्यम से लेखक मनुष्य की स्वाभािवक प्रकृ ित को प्रकट करता है । मास्टर भादौ के सन्द्दभष मं न तो कु त्ते को समझ सकते है और न ही जमाल की के न्द्डी खा रही ऄपनी बेटी को । ईनका ऄनुशासन, संयम और संस्कार का दुराग्रह जीवन की स्वाभािवकता को ककस हद तक कु चल सकता है, ईसका ईदाहरण बनी ये कहानी पढ़ने योग्य ही नहं, बिल्क कहानी की गित कै सी होनी चािहए आसका िनदशषन भी हं । ऄिनल व्यास की कहानी 'नरवण' मं पंकज और रणवीर का समसिलगी सम्बन्द्ध िवलक्षण ढंग से िनरुिपत हुअ है । पुरुषत्वहीन पंकज का एक माि अलंबन रणवीर है । परन्द्तु रणवीर के िलए ककसी भी बात पर ऄंितम हद तक जाना नया नहं है । अक्रोश और अवेशपूणष दशा मं रणवीर पंकज की गुदा मं एक खूंटा डाल देता है । वहाँ से लेकर रणवीर के िववाह िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

का काडष देखने के बाद पंकज िजस तरह से स्त्री का वेश धारण कर लेता है वहाँ तक का समग्र वणषन गहरी पीड़ा का ऄनुभव कराता है । िहजड़ा बनने की प्रकक्रया यहाँ िजस तरह से िनरुिपत हुयी है वह और अरम्भ का िहस्सा कािबलेदाद होने के साथ-साथ ऄत्यंत ममषस्पशी भी है । िविध-िवधानं के वणषन ऄलग न कदखकर ऄिनवायष बन गये हं । छोटी-छोटी बातं का सजषनात्मक ईपयोग,भाषा की कसावट और चुनौतीपूणष कथावस्तु को कलारूप प्रदान करने मं कहानीकार का कौशल्य दीखता है। िजतेन्द्र पटेल की कहानी 'मामा नी घरे ' गहरी करुणा के अलेखन मं लेखक एक से ऄिधक ऄथष की संभावना छोड़ता चला है । दो मामाओं के घर के बीच बनी हुइ एक दीवार । ऄंदर से सबकु छ खोखला होने के बावजूद बाहर से सबकु छ दुरस्त, ज्यं का त्यं कदखाने के प्रयत्न स्वरुप िनपट यथाथष िजस तरह भांजे के सम्मुख अता है वह ककसी को िहला दे । वास्तिवकता का बोझ भानजे को ऄनेक तरह से बेचैन करता है । माँ और नानी की व्यथा वह जानता है कफर भी दोनं मं से ककसी को कु छ भी नहं बताता और आसिलए मामाओं की पररिस्थित का हू-ब-हू वणषन भानजे को ऄचानक पररपक्व बना देता है । गहरी छाप छोड़ने वाली आस कहानी मं स्थानीय बोली का ईपयोग साथषक बन पडा है । ये सभी कहािनयाँ यहाँ ईदाहरण के तौर पर मंने ली है । कहानी-रिसक, ऄध्ययनशीलं के िलए ये कहािनयाँ भी हं : खूणं (ऄिनल व्यास), बायुं / भाय (ककरीट दूधात), मयंक नी मा / दीकरी नु धन (धीरुबहेन पटेल), िविज़ट (प्रवीणसिसह चावड़ा), ग्रहण (िबिपन पटेल), ऄिभनंदन / मंगलसूि / बांधणी (िबन्द्द ु भट्ट), खंचायेलो वरसाद / पी.टी.सी. थयेली वहु (मिणलाल ह. पटेल), थळी / अंधु (मोहन परमार), शबवत (रमेश र. दवे), दीवाल / पार (रवीन्द्र पारे ख), सत्यावीस वषषनी छोकरी (िवनेश ऄंताणी), धंधो / ऄंत्येिष्ट (सुमंत रावल), अढ़ / िनयित / जािळयुं (हषषद ि​िवेदी), सुवणषफल / ऄंधारी गलीमां सफ़े द टपकां (िहमांशी शेलत), मुंझारो (दलपत चौहाण), छकड़ो (माय िडयर जयु),वसवाट

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(धरमाभाइ श्रीमाळी) तथा पोिलटेकिनक (महेन्द्रसिसह परमार) ‘बांधणी’ (िबन्द्द ु भट्ट) आत्याकद । डॉ. सुमन शाह ने कदसंबर 1982 के 'एतद्' पि​िका मं िलखा था - 'ऄनुभव के नाम पर स्थूलताओं मं लीन रहना या रूप के नाम पर कारण िबना सूक्ष्मताओं को तराशते रहने से चलेगा नहं । ऄब दोनं को लांघने वाली कहािनयाँ िलखनी पड़ंगं । समय के ईस पार जाने वाले या जानबूझ कर ज़ीरो िडग्री पर रहकर िलखनेवाले िनजी कहानीकार का गुजरात बेचैनी से आं तज़ार कर रहा है ।' यहाँ हमने िजनकी चचाष की वे और दूसरी कइ गुजराती कहािनयाँ जैसे कक आन िवधानं का प्रतीितजन्द्य और सजषनात्मक ईत्तर हं । यह ईत्तर कोइ सामुिहक प्रयत्नं से नहं, परन्द्तु समग्र गुजराती कहानी की गितिविधयं के सन्द्दभष मं, समय की मांग के ऄनुसार जाने-ऄनजाने ऄपनी ऄपनी िनष्ठा से ऄपने अप, सहज रूप से तय हुअ है । ग्राम और शहरी समाज के िविभन्न पहलू, पाि, पररिस्थितयाँ, तनाव समाज के ऄच्छे बुरे तत्त्व, मानवीयता के ईच्चो-मूल्य-प्रमाण, संकुल भावानुभाव, साफ़ और सटीक भावािभव्यिक्त, रचनारीित के नये नये प्रयोग और दूसरा बहुत कु छ कहानी मं कहानी की शतष पर, कलात्मकता को लुप्त ककए िबना िसद्ध कर देने वाली अज की कहािनयं का स्वर मोटे तौर पर करुण रहा है । यह करुणा-व्याकु लता के स्तर पर नहं, परन्द्तु संवेदनशीलता, संजीदगी और कलात्मक तटस्थता लेकर अयी है । हर समय होता अया है, कक आस तरह ऄनोखा मागष प्रशस्त करने वाले की मिहमा लुप्त हो जाये । आस सीमा तक ऄनुकरण और ऄनुरणन भी होने लगे हं । अंचिलकता की रुइ को खंच-खंचकर पूनी बनाते हुए एक पैर से तकली कातने वाले बढ़ गए हं । तो कफर, कु छ लोगं ने तो ऄंबर चरखे िनरं तर चलते रहं, ईसकी भी कामना की है । पररणाम स्वरुप अरं भमध्य और ऄंत सिहत की, ऄपने-ऄपने प्रदेशं की भाषा के िमज़ाज के पहले-दूसरे स्तर को ऄच्छी तरह प्रकट करने वाली भी ऄनेक कहािनयाँ िमली हं । ISSN –2347-8764

कोइ एक सजषक ऄनेक स्तर पर प्रयत्न करके कु छ नया िसद्ध करने की ओर गया, थोडा सफल हुअ ही था ऄथवा ईसकी चचाष शुरू ही हो रही थी कक ईसी प्रकार की दूसरी पाँच-पंरह कहािनयाँ अ जाती हं । ऐसे और ऄन्द्य ऄित ईत्साह के कारण अज कहानी के क्षेि मं ऐसा ऄबूझ कोलाहल सुनाइ दे रहा है । 'गुजराती कहानी ने ज़मीन बदली है' ऄथवा 'गरबा मं - रे लोल !’ िवशेष सुनाइ दे रहा है । तत्व को समझे िबना झूठी साधना ने भी गुजराती कहानी को घेर िलया है । यहाँ आतनी चेतावनी देना जरूरी आसिलए लगता है कक दिलत संवेदना और ग्राम्य चेतना प्रकट करने वाली कइ ईत्तम कहािनयाँ हमं मोहन परमार, हरीश मंगलम्, दलपत चौहान, बी. के शरिशवम्, धरमभाइ श्रीमाळी, दशरथ परमार अकद कहानीकारं से िपछले वषो मं िमली हं । ऐसे सक्षम सजषक भी प्राप्त हुए मगर तुरन्द्त ही ईसी को एक हवा या फै शन समझकर कु छ नासमझ और िनदोष बच्चोे जैसे (Innocent) कहानीकारं की भीड़ लग गयी । ऐसे रचनाकार रुके िबना, पवन की कदशा के ऄनुसार ऄवसरवादी होने के कारण फू लते-फलते भी बहुत है और ईन्द्हं एक या दूसरे कारणं से बढ़ावा देने वाले भी िमल जाते हं । परन्द्तु समग्रतया देखं तो गुजराती कहानी के िपछले तीन दशक ऄिधक ऄच्छे ढंग से गुजराती समाज को व्यक्त करते हं । कहािनयाँ ऄिधक कलात्मक और ऄन्द्य भाषाओं की तुलना मं सर ईठाकर सीना तानकर खड़ी रह सकं , ऐसी सक्षमता से िसद्ध हो कर एक मुकाम पर पहुँची है । ♦♦♦ 'सुरता', A-11, नेिमश्वर पाकष , तपोवन

किवता

पक्षीतीथष चन्द्रकांत टोपीवाला

कभी चट्टान ही ऄदृश्य हो गइ है चट्टान ऄगर कदखाइ दे तो सीकढयाँ ऄदृश्य हो गइ है सीकढयाँ कदखाइ पड़ी हं तो चट्टान पर चढ़ सका नहं चट्टान चढ़ गया हूँ तो ऄधबीच ही ऄटक गया हूँ और वापस ईतर गया हूँ चट्टान चढ़ भी गया हूँ तो मंकदर िमला नहं मंकदर िमला है तो दोपहर िमली नहं दोपहर िमली है तो कहा गया है कक ऄभी ऄभी पक्षी अकर ईड़ गया... ऄभी ऄभी ही..... पर हरबार मुझसे छू ट जाता है पक्षी !

सकष ल, ऄिमयापुर-382424, िजला-

♦♦♦

गांधीनगर (गुजरात) ♦♦♦ मो. +91- 9723555994

ऄनुवाद : नूतन जानी

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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हास्य अलेख

हाटष एटेक की ऐसी तैसी िवनोद भट्ट

कदल की बीमारी के ऄनुभवी नहं, पर िवशेषज्ञ माने जाते डॉक्टर मिणयार के मतानुसार िवषाद से िघरे हुए ऄजुषन को गीता के दूसरे ऄध्याय मं भगवान श्रीकृ ष्ण कहते हं; 'क्षुरं हृदय दौबषल्य त्यक्तोित्तष्ठ परं तप', ऄथाषत् हे परं तप ! कदल की मामूली कमजोरी छोड़कर खड़ा हो जा... । ऐसा पढ़कर लगता है कक मैदान-ए-जंग मं ऄजुन ष को ऄवश्य ही कदल की कु छ तकलीफ़ हुइ होगी। वैसे भी रौपदी और सुभरा जैसी दो-दो िसरकफरी भायाषओं से पाला पड़ा हो तो स्वाभािवक है कक ईसके कदल मं कु छ गड़बडी पैदा होगी ही । आस बात पर स्वानुभवी लोग भी ऄपनी मुहर लगाएँग,े आसे देखते हुए लगता है कक कदल की बीमारी महाभारत काल के समान पुराणी होगी । लेककन सन 1992 तक कदल की बीमारी जैसी कोइ बात ककसी िचककत्सा िवशेषज्ञ के पल्ले नहं पडी थी, रोग की जानकारी के िबना ईपचार का तो कोइ सवाल ही पैदा नहं होगा । ऄमेरीकन डॉक्टर जेम्स बी. हेररक ने हृदयरोग जैसे सरल शधद के िलए 'कोरोनरी थ्रोम्बोिसस' जैसी बोिझल टर्षमनोलोजी खोजकर आस बीमारी को एक रुतबा कदया है । ऐसे हसीन और बड़े नाम के प्रित अकर्षषत होकर पिश्चम के देशं मं आस रोग से मरनेवालं की तादाद बढ़ने लगी हं । िसफष ऄमेररका मं ही प्रित िमनट कम से कम एक व्यिक्त पर कदल का दौरा पड़ता है । ऄमेररका मं सफल जनतंि होने के कारण वहाँ का नागररक स्वयं अज़ादी से तय कर लेता है कक ईसे कार-एिक्सडेन्द्ट से मरना है या हाटष-एटेक से । साल भर मं कम से कम दस लाख से भी ज्यादा लोग वहाँ कदल के दौरे से मर जाते हं । पिश्चम के देशं की होड़ मं लगे हमारे देश के लोग भी ऄब बड़ी संख्या मं आसी रोग से मरने लगे हं.... वेस्टनष स्टाइल से जीना नसीब न हो तो कोइ हज़ष नहं, मर तो सकते हं न? कदल की बीमारी के िवशेषज्ञ सिचता के साथ बताते हं कक शहरीकरण, सामिजक क्रांित और ऄथषतंि मं अए पररवतषनं का ऄसर कदल ऄपने पर लेता है और ISSN –2347-8764

संवेदनशील कदलवाले सतकष ता के ऄभाव मं हृदयरोग नामक तकलीफ को न्द्यौता दे देते हं – कु छ लोगं को तो यह रोग नंद के दौरान ही सदा के िलए सुला देता है । पहले कहा जाता था कक शरीर को संभालने के िलए दो ही चीजं की अवश्यकता है : हवा और भोजन । ऄब ईसमं दवाइ को जोड़ना पड़ता है । सीने मं दो फे फड़ं के बीच बायं ओर िस्थत कदल वैसे तो आन्द्सान की बंद मुिी के कद की मासपेिशयं का सिपड है, पर जब वह बंद हो जाता है तब ईसकी मुिी ऄपने अप खुल जाती है । अदमी िसकं दर बन जाता है वैसे आस हृदय का वजन लगभग तीन सौ ग्राम है, लेककन तीन सौ ककलो वजनावाले व्यिक्त का चलना रोक देता है । यद्यिप कदल का धमष धड़कते रहना है । वह स्वावलंबी है और हमारा ईस पर कोइ जधत नहं है – ऄपने अप धड़कता रहता है । आन्द्सान का कदल यं तो मजबूत और सशक्त है, लेककन वह बीमारी, प्रेम रोग, ऄकस्मात और िववेकहीन जीवन जीने से क्षितग्रस्त होती है... काव्य मं िजस प्रकार खंडकाव्य, सोनेट और हाइकु जैसे भेद है ठीक आसी तरह हृदयरोग भी एक रोग का नाम है, ईसकी शाखाएँ भी है। ह्रदय से जुडी हुइ रक्त-निलकाओं की बीमाररयं को भी आसमं समािवष्ट ककया जाता है । आनमं से कु छ आस प्रकार है – उँचा रक्तचाप (हाइ धलडप्रेशर – आस्के िमक हाटष िडजीज़ (आसे आश्क के साथ कोइ संबंध नहं है) – िजसे हृदयशूल से पहचाना जाता है और ऄंग्रेजी मं ईसे एन्द्जाआना कहते हं, हाटष-एटेक और कदमाग मं स्क्ताघात (स्ट्रोक्स) । ध्यान रहे िसफष खेल-कू द मं स्ट्रोक्स नहं होता, रोग मं भी पाया जाता है । यूँ कदल बड़ा इमानदार होता है, ईसे संग्रहखोरी िबलकु ल पसंद नहं है । बड़े-बड़े संग्रहखोरं का कदल भी संग्रहखोर नहं होता आसीिलए सख्त और तंग बनी हुइ कोरोनरी धमनी की ककसी शाखा मं जब खून ऄड़ जाता है तब खफ़ा होकर वेदना के रूप मं नाराज़गी प्रकट करता है – अत्मपीडन करता है । ऐसे मं जब ईनकी सहने की शिक्त

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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सीमा लाँघ जाती है तब ऄपनी धड़कने की प्रवृित्त से हाथ धो देता है । ऐसा होने से डॉक्टर ईसे मृतक घोिषत कर देते हं लेककन ऐसे मं मरने की वजह मं डॉक्टर ककसी दवाइ के नाम की बजाय कोरोनरी थ्रोम्बोिसस िलख देते हं । रक्तचाप बढ़ने से कदल को परे शानी होती है। रक्तचाप बढ़ने के कइ कारण होते हं । खुद के पररवार को लेकर भी ऐसा होता है। शादीशुदा पुरुषं की तुलना मं कुँ वारे लोगं का रक्तचाप ठीक-ठीक रहता है । घर मं माँ या िपता मं से ककसी को भी हाइपरटेन्द्शन होता है तो पचीस प्रितशत बच्चों को आसका लाभ ऄनायास िमल जाता है । ऄथाषत् चार बच्चोे हं तो ककसी एक को यह रोग होता है, और कहं माता-िपता दोनं को आस रोग ने ऄपना िशकार बनाया हो तो चार मं से तीन बच्चोे भी ईसका िशकार हो जाते हं – लेककन बचा हुअ चौथा नाजायज़ औलाद की तरह ऄपने अप को 'िगल्ट' 'कफल' करता है । शारीररक कारण से भी रक्तचाप की परे शानी होती है । चौड़ा सीना, नाटा कद और साँड़ जैसी छोटी गदषन वाले मोटे लोगं को रक्तचाप िवशेष पसंद करता है । लेककन ऄपनी गदषन छोटी होने पर भी ककसी साँड़ को रक्तचाप नहं होता है । मेिडकल सायंस मं ऐसा मामला ऄभी तक दजष नहं हुअ है कक कोइ साँड़ रक्तचाप बढ़ने से चकराकर िगर गया हो । आसका मतलब यह नहं कक पतले बदनवाले लोगं को धलडप्रेशर ने ऄभय वचन दे कदया है । ऄभी-ऄभी मुंबइ मं एक सवीक्षण हुअ था, आसके ऄंतगषत दशाषया गया है कक प्रत्येक दस लोगं मं से एक व्यिक्त को रक्तचाप की तकलीफ होती है पर आसकी जानकारी जब वह बीमा लेने जाता है तब होती है या कफर पररवार से हमेशा के िलए ऄलिवदा हो जाने के बाद डॉक्टरं द्वारा सदस्यं से कहा जाता है कक जो गया वह बी.पी. का मरीज़ था । यह बी.पी. गेरीला तरीके से हमला करता है । आसे लेकर नधबे प्रितशत लोग आससे ऄनजान होते है, और जब ईनको पता चलता है तब बहुत देर हो गइ होती हं – बी.पी. के साथ लुका-छीपी खेलते हं । ISSN –2347-8764

सीने मं ददष होते ही कु छ लोग घबराकर ऄपनी विसयत बनाने के िलए कोरे कागज़ माँगने लगते हं–चीखकर–िचल्लाकर ही । ऐसे मं पररवार के लोग हड़बड़ा जाते हं। लेककन सीने मं ददष होते ही ईसे कदल का दौरा मान लेना (या न मान लेना भी) ईिचत नहं है । कभी-कभी तो ऄच्छीखासी डकार अ जाने के बाद तुरंत ही ददष गायब हो जाता है । लेककन आसे कररश्मा न मानते हुए ऄसली एटेक का आं तज़ार करना

चािहए । कदल है, तो कभी ज़ोरं से धड़के गा भी, कभी ऐसा भी प्रतीत होगा कक िबना धुलाइ ककये कोइ ईसे िनचौड़ रहा है। शाम को थकान महसूस होने पर भेइ ईसे कदल का दौरा न समिझए । जब तक कोइ िवशेषज्ञ डॉक्टर ऄपना चेहरा गंभीर बनाकर जानकारी न दं तब तक मान लेने की ज़रुरत नहं है कक कदल का दौरा अया है । कदल के दौरे के िलए कोलेस्ट्रोल, हाइ बी.पी., धूम्रपान, मेद जैसे िभन्न-िभन्न नौ कारण दशाषए गए हं, लेककन कभी-कभार आन नौ को छोड़कर दसवाँ कारण भी एटक के िलए हो सकता है । यूँ तो िस्त्रयं का कदल नाज़ुक माना गया है कफर भी कदल के दौरे का िशकार िस्त्रयं की तुलना मं पुरुष ऄिधक होते हं । ईद्योगपित, डॉक्टर (िवशेष रूप से हाटष स्पेश्यािलस्ट) वकील और बड़े प्रबंधको को कदल के दौरे का ऄसर िवशेष होता है । पिश्चम के देशं मं मैनेजरं के कदल आसके ऄिधक िशकार होते हं, आसे लेकर वहाँ आसे मैनेजसष िडजीज़ के रूप मं पहचाना जाता है । संवेदनशील लोगं के िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

कदल पर आसका िवशेष ऄसर होते हुए भी बहुत कम कवी आस रोग के कारण मरते हं – बेच्चोारी किवता ! पक्के अदशषवाकदयं के प्रित आस रोग को िवशेष प्रेम होता है आसिलए ऐसे लोगं को मशवरा कदया जाता है कक आस रोग से बचना हो तो िसद्धांत – अदशं मं समझौते का रूप ऄपनाना चािहए । ऄिधक िशिक्षतिवद्वानं को भी हृदयरोग होता है, जब कक ऄनपढ़ भी आस से बच नहं पाते । आसके ऄलावा खुद के िलए (और दूसरं के िलए भी) गलत ऄिभप्राय बाँधनेवाले लोग भी आस रोग के िशकार होते हं । िजस तरह मानवजात के प्रित प्रेम जतानेवाले लोगं को आसकी तकलीफ़ होती है तो दूसरं के प्रित नफ़रत, ितरस्कार और दुश्मनी के भाव दशाषनेवाले को भी आस बीमारी का कष्ट सहना पड़ता है । आन शोटष, यह रोग सज्जनं को भी होता है या कफर ईसकी मौत के बाद यार-ररश्तेदारं को आस बात का एहसास होता है कक जो चला गया वह बड़ा ही सज्जन था । मानिसक तनाव भी कदल की बीमारी मं ऄहम् भूिमका ऄदा करता है । भीखमंगे से लेकर िवदेश मं अर्षथक सहाय के िलए जाते िवत्तमंिी को भी यह रोग होता है । अगे से अरक्षण करवा िलया गया हो कफर भी रे लगाड़ी मं ऄपनी अरिक्षत जगह बदमाश लोग हिथया तो नहं लंगे, ऐसी सिचता करनेवाले याि​ियं को भी आस बीमारी का लाभ िमलता है जब कक ट्रेन मं िबना रटकट सफ़र करते रहते खुदाबक्श आस सिचता मं डू बे रहते हं की ककस दरवाजे से रटकटचैकर घुस अएगा? ऐसे मं यह कदल का रोग ईनके पीछे पड़ जाता है – यं कु ल िमलाकर देखा जाएं तो यह रोग पूरा समाजवादी है, ईसके मन चक्रम-जीिनयस, प्रधान-चपरासी, नायक-खलनायक, वकील - जेवकतरा सब समान है । वह सबके प्रनत एक अँखवाले कु ए की तरह समान दृिष्ट से देखता है । वह ककसी के प्रित ऄपने पराए की नीित ऄिख्तयार नहं करता है, वह कभी पक्षपाती नहं बनता । मेिडकल सायंस की खोज के अधार पर ऐसा पाया गया है कक कदल पर ऐसा जानलेवा हमला रात को दो बजे के

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असपास होता है । ऐसे मं जो आस से बचना चाहते हो ईन्द्हं रात को दो बजे से चार बजे तक ईसके हमले का आं तज़ार करते हुए जागते रहने की सलाह दी जाती है । ऄगर रात का समय ईसे ऄनुकूल न अया तो कफर सुबह के दस से ग्यारह का समय वह ऄिधक पसंद करता है – दूध या ऄखबार वाले की माकफ़क वह समय का बड़ा पाबंद होता है पर कफर भी है तो वह मनमौजी हो – जब चाहं ककसी पर भी हमला कर देता है । ऄन्द्य पेशेवर लोगं की तुलना मं डॉक्टरं को कोरोनरी हाटीिडज़ीज़ ऄिधक होते हं । डॉक्टरं के प्रित बेहद लगाव के कारण आस रोग को डॉक्टसष िडज़ीज़ के नाम से भी पहचाना जाता है । डॉक्टरं पर यह हमला िवशेषकर रात को तीन बजे के असपास अता है । डॉक्टर-मरीज़ं को एक िवशेष सूचना : ऄपने अप ककसी ईपचार का जोिख़म ईठाने की बजाय होिशयार डॉक्टर से आलाज करवाना चािहए, ऐसा करने से नतीजे मं तो शायद कोइ फकष नहं पड़ेगा पर लापरवाही या बेवकू फी का दोष ऄन्द्य पर थोपा जा सकता है, मुकद्दमा भी दायर ककया जा सकता है – हमारे पीछे बचे हुओं को आसका फायदा भी िमल सकता है । िसफष डॉक्टरं पर ही नहं वैद्यं के प्रित भी कदल की बीमारी को ईतना ही लगाव होता है । मज़े की बात तो देिखए, जो वैद्य ऄखबारं मं अयुवेकदक औषिधयं के प्रचार के लेख िलखते रहते है ईन पर जब कदल का दौरा पड़ता है तब वे पूरी श्रद्धा के साथ एलोपथी की शरण मं पहुँच जाते हं, अयुवेद के औषधं का प्रयोग वे खुद पर नहं करते । बड़े पहुँचे हुए ज्योितिषयं के बस मं भी यह रोग नहं रहता है, ईनके भिवष्य-कथन गलत िसद्ध कर देता है । यह रोग फौलादी सीना रखता है । क्या अप जानते हं कक हमारे लोहपुरुष सरदार वल्लभभाइ पटेल पर आसने सहसा ही धावा बोल कदया था । पचास प्रितशत मामलं मं व्यिक्त जब काम मं रत होता है या खड़ा होता है तब यह रोग हमला कर देता है, लेककन जब दुिनया से ईठाने की नौबत खड़ी होती है तब ऐसा व्यिक्त खड़ा नहं रह पाता । हाँ, हाथी खड़े ISSN –2347-8764

-खड़े मर जाता है, ऐसी सुनवधा नसफ़फ़ हाथी को ही नसीब होती है । आस बीमारी की जानकारी समय पर हो जाए आस वास्ते खून मं कोलेस्ट्रोल, यूररया और शकष रा की मािा, रक्त का एस. जी. जो. टी. टेस्ट, आलेकट्रोकार्षडयाक और एक्स -रे आदद को ठीक से जाँच करवा लेनी जरूरी है । लेककन बाद मं कभी-कभी ऐसा होता है कक ऐसी जाँच का िबल देखकर व्यिक्त पर कदल का भारी हमला अ जाता है । लेककन कदल का दौरा अ जाने पर बड़ी घात अइ ऐसा समझने के बजाय ऐसा मान लेना चािहए कक बड़ी घात गइ । कइ सरकारी पेन्द्शनखोर कदल के सात-सात दौर का अनंद लेते हुए बचे रहते हं, ईन्द्हं मज़े से पेन्द्शन खाते हुए हमने देखा है । आस रोग का मरीज़ अहार के प्रित सतकष होकर हाटषएटक की ऐसी तैसी करते हुए बड़े आत्मीनान से जी लेता है । हमारे मान्द्यवर डॉक्टर िमि िशवप्रसाद ि​िवेदी के मशवरे के मुतािबक़. ‘आन्द्सान को चािहए कक सुबह मं राजा की तरह नाश्ता लेना चािहए, दोपहर को राजकु मारं की माकफ़क भोजन करना चािहए और शाम को भीखारी की तरह पेट भरना चािहए... ।‘ ऄथाषत् सुबह, दोपहर, शाम – िभन्न तीन प्रकार की भूिमकाएं ऄदा करनी चािहए लेककन राजाओं के सािलयाने (टैक्स) जब से छीन िलये गए तब से स्वयं राजा भी बादशाहं की तरह नाश्ता नहं कर पाते हं – हाँ, ककसी शहर के रइसी आलाके के िभक्षुक ऄवश्य ही राजाओं की माकफ़क नाश्ता कर पाते हं । जब कक अहार िवशेषज्ञ मेक्केररसन का कहना है : ‘हम िसफष जीिवत रहने के िलए ही नहं खाते, लेककन ऄच्छी तरह सिज़दा रहने के िलए खाते हं...’ पर हमारी कमनसीबी है कक जब हम भोजन करते हं – खासतौर से दूसरं का – तब हमं आस बात का ध्यान नहं रहता है । चौबीस घंटो के दौरान हमारे शरीर मं कम से कम 1800 के लेरी का खचष होता है । के लेरी को िहन्द्दी मं आं धन लेने पर अहारिवशेषज्ञ चेतावनी देते हं । आसिलए कहा जाता है कक िजसके कमर का पट्टा छोटा िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

ईसकी अयुरेखा लंबी होती है । िजस व्यिक्त के पेट का नाप ऄपनी छाती से दो इच ऄिधक होता है ईस व्यिक्त को मेदस्वी कहा जा सकता है । गुजरात प्रदेश के लोग बढ़ती हुइ तंद को ऄमीरी का संकेत मानते हं – हो सकता है बड़े पेट के कारण धनसुखलाल बना जा सकता है, लेककन ऐसे मं कोइ भी व्यिक्त तनसुखलाल कतइ नहं हो पाएगा... स्वास्​्य की भाषा मं मेद को रोग ही माना गया है । ऄत: मेद की वृिद्ध करते रहनेवाले पदाथष नहं खाने चािहए । ऐसा मानकर चलना है कक घी, मक्खन, मलाइ जैसे पदाथष िसफष खाने से ही नहं, ईसके प्रित देखने से भी मेद बढ़ जाएगा । आस रोग के मरीज़ को क्या खाना है बजाय आसके क्या नहं खाना चािहए आसकी सूिच बड़ी लंबी है । भारत मं गुजरात के लोग सबसे ऄिधक शक्कर खाते हं, मेरे पिकार-िमि वासुदेव मेहता का कहना है कक सौराष्ट्र मं तो लोग आतनी मीठी चाय पीती हं कक ईसकी चासनी के कारण ओंठ िचपक जाएँगे । गुजरात के लोग ऄपने िविशष्ट भाषा प्रयोग के रूप मं गुस्सा प्रकट करते हुए करते हुए कहते हं कक ‘तुं तारा मनमां खांड खाय छे !’ ऄथाषत् ‘तू ऄपने अपको क्या समझता है?’ क्यंकक गुजरात के िनवािसयं के तन मं ही नहं, मन मं भी शक्कर का स्टोक िमल जाएगा । अहार-िवशेषज्ञं के मतानुसार शाकाहारी लोगं की तुलना मं मांसाहारी लोगं के रक्त मं कोलेस्ट्रोल की मािा ऄिधक पाइ जाती है, लेककन ऐसे मं िहपोपोटेमस के समान ऄपवाद िमल जाएँगे – ईड़द और तुवर से कोलस्ट्रोल और फोस्फोिलट की मािा कम होने की बात चूहे पर ककये गए प्रयोगं से सामने अइ है । आसमं हम दावे के साथ कह सकते हं कक आन दो पदाथं से चूहे का कोलस्ट्रोल कम होता है । कदल के मरीज़ को धूम्रपान नहं करना चािहए । ऐसे मं ऄगर बाज़ार मं िमलती हो तो दो फु ट लम्बी िसगारे ट पीनी चािहए िजससे मन मं आतनी तो राहत होगी कक धूम्रपान से मं दो फु ट दूर रहता हूँ । और कफ़ल्टरवाली िसगारे ट िबना कफ़ल्टरवाली िसगारे ट से कम नुकसानदेह है ऐसा भ्रम

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पालने मं भी मन को बेहतर प्रतीत होगा । परकीया संबंध को लेकर िसफष िवदेश मं नहं हमारे देश मं भी कदल की बीमारी होती है । कु छे क हादसं मं तो पुरुष स्त्री की गोद मं ही ऄपने कदल से हाथ धो लेता है । ऐसे मं ऄगर कदल पर एकाध बार भी दौरा अ गया हो या अने की दहशत बनी हुइ हो तो परकीया संबंधो का त्याग करने से कदल सलामत रहेगा । िसफष ‘गुनगुनाने के िलए यह ख़याल ऄच्छा है मरीज़’ कक, कदल है कक मानता नहं ।‘ ऄगर ईन संबंधं का त्याग न ककया तो िजस नारी की गोद मं पुरुष लुढ़क गया होगा, बाद मं वह नारी ईस पुरुष के पूरे पररवार पर लुढ़क जाएगी। िविभन्न प्रकार की कसरतं करने से आस रोग मं फायदा होता है, िवशेषकर शवासन करने से, लेककन यह शवासन जो शबासन के नाम से भी पहचाना जाता है, ईसका प्रयोग िसफष तीन िमनट के िलए करना ही मरीज़ के िलए िहतकारी रहेगा, वनाष पररवारवालं को कु छ ऄमंगल की दहशत होने पर घर मं रोना-धोना और भगदड़ मच जाएगी । िचककत्सािवज्ञान मं एक ऐसा सूि भी प्रचिलत है कक, ‘ऄिधक चिलए, ऄिधक जीिवत रही ।‘ चलते वक्त बातं नहं करनी चािहए । जहाँ तक संभव हो चलने की कक्रया के दौरान ककसी स्त्री को साथ मं नहं रखना चािहए । चलने की की गित प्रित घंटा चार िमल की ऄपेिक्षत है । न आससे ऄिधक न कम- ऄगर संभव हो तो पैर मं स्पीडोमीटर लगा लेना ईिचत रहेगा । यह लेख हम सािथकार िलख पाए हं । आसका ठोस सबूत भी हमारे पास है । सन 1977 की एक शाम को हम ऄपना यह लेख ऄपने दोस्त को सुनाकर तंग कर रहे थे, तब िनशस्त्र हमारा वह दोस्त ऄपनी बेबस अँखं से हमारी ओर देख रहा थाऔर तभी हमारे कदल मं शूल-ददष शुरू हो गया था, ऄथाषत् हम पर कदल का भारी दौरा पड़ा था- क्या सािहत्य की नज़रं मं आसे ही ‘पोएरटक जिस्टस’ कहते हंगे?

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ऄनुवाद : नवनीत ठक्कर ISSN –2347-8764

किवश्री रमेश पारे ख की दो किवतायं रमेश पारे ख

हथेली बहुत संदह े भरी जगह है ♦

हथेली बहुत संदेहभरी जगह है, यहाँ बसे जो स्पशष वे प्रेत बने हं । ऄब पलकं मं लगेगी ऄदालत, मंने स्वप्न िनहारने के गुनाह ककए हं । मुझे आस नगर मं बेसहारा छोड़कर, रास्ते सारे ककसके पीछे गये हं । आस घूप मं अँखपना भी सूख गया, थी अँख और फकत गड्ढे रहे हं । है, अकाश मं है और अँखं मं भी है, सूरज के ईगने के स्थान बहुत हं । कहते हं कक तू पार लग गया है, परं तु ऄसल मं वह सागर ही कहाँ है । मुझे खाइ सी प्रतीित हुइ है, कक मं हूँ और चारं तरफ पहाड़ हं । ग़ज़ल मं िलखता हूँ और मेरे असपास, तमाम मेरे चेहरे हं, जो कक सो रहे हं ।

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मरणोत्तर ♦

मं मर गया । भीतर गहरे ईस शव का कौन दावेदार ? वह तो आधर-ईधर भटकने लगा । कु त्ता हाथ चबा गया तो चील अँतिड़यं का लोथ खंच ले गइ कौए मजे से अँख नोचं अवाजाही करं चीरटयाँ कान के अर-पार साला, िबलकु ल राम राज चलता है... िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

दुगंध से िस्त हवा छू -मन्द्तर हो गइ कक बाल तक नहं ईड़ता - और आस ओर सांझ गहराती जाय । घर तो जाना था नहं । समूचा पथ पैर के पास टू टा हुअ पड़ा था । मं ऄच्छा अदमी था । नाख़ून मं भी न था रोग तो भी मर गया । किवता िलखते हुए । चश्मा पहनते हुए । पेड़-पत्ता सदमा खाने की िस्थित मं खड़े हं । पीछे घर करूण क्रंदन कर रहा होगा । और यूँ तो सब रोज़मराष की तरह । सच्चोा प्रेम है मक्खी का जो ऄभी तक मुझे छोड़ती नहं है मं लावाररस । और प्राण साले, ककसी की खुशामद कर कोमल सुकोमल मौज कर रहा होगा पर बच्चू कफर से जनम लेगा और अदिमयत बताएगा देश हा हा हा... - आस तरह िवचारबाजी कर रहा था कक तभी ठीक सीने पर ही नहं नहं, क्षण भर तो लगा कक खुराफ़ाती ककरण होगी । परं तु नहं थी सीने पर िततली बैठी थी... िततली... यह ले... रोएँ खड़े हो गए सर पर... खून खळ खळ बहने लगा ऄनायास चीख़ िनकल गइ कक मं मर नहं गया... सोनल, तब “मं” पुन: िज़न्द्दा हुअ होगा ?

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व्यंग्य

ऄनकफ़ट भानुप्रसाद ि​िवेदी

नौटंकी मत कर बे गुटली ! कु अ िनकाल ! साला समझता आ ज नहं ! मोबाआल िनकाल, मोबाआल ! और कबूतर भेज तेरे घर पे ! मतलब, एस.एम.एस. भेज ! एक खोखा िभजवा दं शाम तक ! ऄबे साले, बूट का खोखा नहं, एक करोड़, रूपये ! हाँ, करोड़ रूपये ! िभजवा दं ! नहं तो – ये घोडा देखा? तेरे सर से ऄनार के दाने िबखेर देगा ! नआ समझा बे खबूषजा ? ऄबे ओ िचकना, आसकु नौ नंबर की चप्पल का काटषन कदखा दे ! ऄभी ऄभी अया है ! ऄबे खजूर ! ये चप्पल की दुकान कदखती है तुझे? िपस्तोलं हं आसमं ! तेरी घरवाली को समझा देना कक ऄगर पुिलस को आत्तला दी, तो – खल्लास ! तेरी तो खोपड़ी के पुरजे ही िबखर जायंगे ! क्या हुअ बे िचकने ! बाराती अये? नहं? ऄच्छा... ! वो प्रोफ़े सर अया? ऄबे ऄखरोट ! ये तुझे मैरेज-हॉल लगता है ? बाराती मतलब पुिलस ! ऄबे देख, ये प्रोफ़े सर – ककरायेदार खाली कराने के िलए कोटष मं गये थे । सात बरस तक कोटष मं लड़े, कफर भी मकान खाली नहं हुअ ! हमने सामान बाहर फं क कर ककरायेदार को भगा कदया ! तब से ये हमारे फे न बन गये हं ! चल, ऄब माल िनकलवा दे घर से – जल्दी ! फ़ालतू िखट िखट नै मंगता ! क्या...? तेरे पास करोड़ तो क्या, दस हजार भी नै ? स...साले सब ऐसा आ ज बोलते हं ! ऄबे खबुषजे ! हमं भोपू समझता है क्या? क्या...? क्या... बोला तू ? तू करोड़पित होता तो भी नहं देता ? धहोत चरबी है तेरे भेजे मं ? कौन सी कफिलम का डायलोग मार रहा है ? हकीकत है? क्यूं ? क्यूं नइ देता? बड़ा भाइ लोग है? बाहर-ऄंदर ऄलग धंधा वाला? ऄंदर का धंधा वाला? ISSN –2347-8764

क्या क्या...? स... स... सािहत्यकार? 'सािहत्य' नाम की भी कोइ कार होती है ? स...साला, हमकु ईल्लू बनाता है ? ये तेरी सािहत्य-कार ककतनी एवरे ज देती है, बोल ! तुम क्या बोले प्रोफे सर? सािहत्यकार मतलब राआटर? ऄबे ओ राआटर के बच्चोे ? कफिलम की िस्कररप्ट िलखता या टीवी की? 'िलखता' नहं ? तो क्या करता है ? कम्प्युटर ? क्या? स...सरजन...? मतलब डॉक्टरी? चीर-फाड़? क्या...? खुद की चीर-फाड़ करता है? एनकाईन्द्टर? ऄबे, पुिलस वाला है क्या? नै? खुद के साथ एनकाईन्द्टर करता है? साला पागल तो नहं हो गया? ऄबे ओ टप्पू ट्रोली ! तू ककसके बदले ककसकु ईठा लाया? हं ? िमस्टेक? देख, बे खूबानी के िलये, टप्पू ट्रोली तेरेकु िमस्टेक से ईठा लाया ! लफड़ा नै करने का ! क्या? हाँ ! ऄभी क्या बोलता था तू? सरजन मतलब देखना-कदखाना, ऄनुभव करना-कराना, ऄवगाहन करना, रस मं रूपांतर करना – ऄबे आतना फास्ट क्यूं बोलता है ? हमं कन्द्फुज़ कर के डराना मंगता? क्या...? फे धमलेस कु फे धम करने का? कहाँ कहाँ से लधज़ ईठा लाता है साला ! ऄपुन की खोपड़ी मं तो घूसता आ ज नहं ! ऄबे ओ प्याज के िछलके ! तेरे वो – क्या बोले? स...सािहत्य ! सािहत्य मं क्या क्या अता है? 'किवता' आितयादी ? वो किवता करती क्या है? 'कवर' करती है? नहं? कवर करके ऄनकवर करती? तो तो तेरा 'राम नाम सत्य' हो जाय ! वो ही ज होता है? किवता बाहर से ज्यादा भीतर को कदखाती? 'भीतर' बोले तो ?

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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'ऄंदर' ? वो किवता साली ऄंदर का भी कदखा देती ? तू लकी है साला ! ईसका एड्रेस दे दे ! नहं तो, तू ही ईस किवता के साथ हमारा भी मामला कफट करावा दे ! तू वोही ज करता है ? तू तो साला 'गुरु' िनकला ! 'लेककन' क्या? ये उपर वाला 'ऄंदर' नहं है? तो क्या बॉटम वाला 'ऄंदर' है? 'बॉटमलेस' ?! साला खालीपीली कायकु मगजमारी करता है ? ऄबे ऄखरोट ! भेजा खाने के बजाय सॉटष मं समझा दे फ़टाफ़ट ! हाँ, हाँ ! तो 'सायरी' बोल ना ! ये 'किवता'... 'किवता' क्या लगा रखा है ? ये 'सायरी' नहं? भासबाजी से तुझे नफ़रत है? तेरेकु तािलयं के डोज़ की जरुरत नहं? तू नसीले ड्रग्झ का ट्राकफकिकग करने वाला नहं ? डायािबरटक सधदं से तूझे िघन चढ़ती है ? तो क्या गीत िलखता है? 'गीत भी' ? समझता है रे ! कफिलम वाले गीत नहं, सािहत्य वाले गीत ! 'मगर' क्या? 'आ...स्त...रै ...ण ? स्त्रैण गीत नहं िलखता? मतलब? बायला (कायर) गीत नहं िलखता ? ये कौन सी भासा के शधद बीच मं घुसाड देता है साला चपड़गंजु ! भाड़ मं जाय वो सब ! तू स्टोररयं िलखता है कक नहं? िलखता है ! नाटक भी िलखता ! नॉवेल भी ! कै सी नॉवेल नहं िलखता? 'फै क्टरीनॉवेल'? तू पुरजे एसेम्बल करनेवाला िमकै िनक तो नहं है ? कं स्ट्रक्शन करने वाला मेमार तो नहं? बागीचा बनाने वाला माली भी नहं ? ऄपने अपको 'ईगाता' है ? तरतीव से िलखा सािहत्य नहं होता ! सािहत्य, वेस्टनष फे सनं या रे डीमेड माल की आम्पोटेड गठररयाँ, साआकॉलेजी की पेटंटो के बोक्स, पंिडत अलोचकं के रोटले संकने के चूल्हे, वोट-वेगनं की खुसामतं ISSN –2347-8764

की भिीयाँ जलाने के िलए कोयले बगैर खंच लाने वाली गुड्ज़-ट्रेन नहं है ! न तो वो जीवदया वालं के डोनेसन पर नभने वाली कोइ सिपजरापोल – िजसमं खंड़ा ढोर (पशु) जैसी िलखावटं का गुज़ारा चलं ! यह सधदं का डेडस्टॉक नहं, सधदं की परे ड नहं, सधदं की बारात नहं, सधदं का िजमनेिस्टक नहं, सधदं का डेकोरे सन नहं, सधदं का कोस्मेरटक नहं... सधद आस्तेमाल की चीज नहं, िसद्ध करने का तप है ! ऐसा सधद, िजसके ऄंदर से लहू फू टे ! क्या...? क्या बोला तू? लहू? तो क्या सािहत्य मं भी लहू मंगता ? लहू ही ज चैये ? तब तो घोडा मंगता, रट्रगर दबाना मंगता, िनसाना लगाना मंगता – क्या...? िनसाना खुद को बनाने का ? कन्द्रन्द्टेसन ऄपने अप के साथ होता है ? ईधार एकिस्पररयंस नहं चलता? खुद कफल करना पड़ता है, गेहरी पीड़ा से गुज़रना पड़ता है, बीच मं से खुद को हटा देना मंगता ! बीज बन कर स्वयम् को िमटा देना मंगता ! मतलब? ऄपने अपकु खल्लास कर देने का? क्या बकता है साला ! ऄबे पागल ! माल िनकलवाने के िलये कोइ आतनी हद तक जाता? हद तक नहं, ऄनहद तक? िनकलवाने का नहं, िनकालना? ऄपने ही ऄंदर से ? जो ऄखूट और ऄमूल्य है? हथौड़ा नहं, संवेदन चैये ? ककतने का होता है ये 'संवेदन?' एक खोखा? दो खोखा ? खोखं के घूरं (कू ड़े का ढेर) से नज़र ईखाड़ कर ररधम एन्द्जॉय करने का? मतलब िडस्को? नहं? ये कानं से सुनाइ देने वाली चीज नहं, भीतर मं होने वाली ऄनुभूित है ? हमारे ऄंदर भी ररधम है ? ब्रह्माण्ड मं ररधम हं ? मतलब ऄंडा का फं डा ? नहं ? तारे - िनहाररकायं – ऊतूयं – ईसा – िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

संध्या... पंछी...पणष... सारी सृिष्ट की कोरीयोग्राफ़ी ? के मेरा नहं, ऄन-पॉल्युटेड िचत्त चैये ? ये 'िचत्त' कौन सी कं पनी की प्रोडक्ट है ? तू कं पिनयं की प्रोडक्ट वाला... दुकान वाला नहं सृजक है ? आस धंधे मं तुझे िमलता क्या है? अनंद? ऄरे भोपू ! अनंद को क्या करे गा तू ? एक कप चाय भी नहं िमलेगी ! हमारे धंधे मं सािमल हो जा ! ऐश करे गा ! क्या...? ऐश से तुझे सूग है ? 'सूग' मतलब सेक्स-ऄपील? नफ़रत? ऄरे ओ घनचक्कर ! ऐश भी कोइ नफ़रत करने की चीज है ? तेरे कदमाग का आलाज करवाना मंगता ! क्या बोला? ऐयाशं को आमजषन्द्सी वॉडष मं एडिमट करके धलड-बोतल चढ़ाना मंगता ? स...साला ऄखरोट ! ऄरे प्रोफ़े सर ! ये तुम्हारी लेण (लाआन) का लगता है ! पेचानाते हो आसे ? नहं ? कोइ नहं पेचानाता ? क्यूँ? क्या नहं रखता वो ? 'कटोरी-व्यवहार' ? सािहत्य मं ठे केदारं के दरबार मं जाता नहं? मान्द्धाताओं की िखदमत नहं करता ? आसकी कोइ कॉमोिडटी – वैल्यू नहं ? नूसन्द्स वैल्यू भी नहं ? आस िलए ईसकु भूल जाना, भूला देना सलामत है ! ईसकु ऄज्ञातवास मं ढके ल देने के और भी कइ कारण हं ! वो फरमायशी किव या फरमायशी लेखक भी नहं बनना चाहता ! सेक्युलररस्ट, वाममागी भी नहं ! ककसी एन.जी.ओ. वाला भी नहं ! वोट-बंको की चापलूसी नहं करता; िहन्द्दओं ु – ईजिलयातं – बराह्मणं को, गुजरात को नीचा नहं िगरने देता – ईनकु गािलयाँ नहं देता, अरोपी नहं बनाता, ईन पर अक्रामक नहं बनता... या कफर आम्पोटेड माल की गठररयं पर ऄपना लेबल िचपका के बाज़ार मं खाली नहं करता, पोिलरटक्स भी नहं खेलता... और सबसे ख़राब बात तो यह है, कक वो सजीव कृ ितयं – मतलब ऄपनी कलम मं

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स्याही नहं, धलड पुरता है ! आन सब वजहं से ईसकु – ऄँधेरे मं ढके ल तो क्या कदया, टोट्टली िमटा कदया है ! कम्मल है ! तुम्हारी सािहत्य की दुिनया मं भी टपका देने का ररवाज़ है ? कफर तो ये साला िबलकु ल िनकम्मा है ! यहाँ भी ऄनकफट, वहाँ भी ऄनकफट, दुिनया मं भी ऄनकफट... चल, बे िचकना, ईसकु ईसके घर पहुंचा दे ! क्या बोला? खुद जायगा ? ऄरे ओ... ! क्या नाम तेरा ? न-नामी ? मतलब जनाज़ा ? तेरी जेब मं बस भाड़े के पैसे हं? या दे दूं दस का नोट ? चलता जायगा? स..साला ! आतना मामूली ऑमिधलगेसन का भी परहेज रखता है ? हराम के माल का परहेज़ रखता है ? स...स...सा...ल्ला ! तेरी त्तो...?

ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी

♦♦♦

किवता

पानी मं मोमबत्ती जयेन्द्र शेखडीवाला

महायुद्धं की िवश्वव्यापी िग्रकफ़टी के हमारे ईन्द्माद ने ईटपटांग लपेड़ं से घर, गली, गाँव, नगर और महानगरं को खीन्द्चोखंच रं ग कदया है ।

एक ही जवाब होगा : 'मोमबत्ती डू ब गइ पानी मं हमसे, हमारे युद्ध परक ईन्द्मादं को माफ़ करो । न कहंगे भूलकर भी भूल से ऄब युद्ध मं कल्याण है ।

पृ्वी के कोने-कोने मं न करं गे ज़ुरषत ईभर अये हं मारकर जीवन दान देने की िचतकबरे ऄन्द्जाने रं ग, अकार और रे खायं, ककसी सभ्यता-संस्कृ ित या व्यिक्त को !' िजसने पृ्वी के काम्य चेहरे पर ♦♦♦ (किव, पंटिटग और ऄनुवाद : चेचक की भाँित ईपसाये हं जयेन्द्र शेखडीवाला) एिसड रे न, ग्लोबल वॉर्मिमग ♦ और वल्लभिवद्यानगर (गुजरात) ओज़ोन हॉल के तके तमंचे ।

अनेवाली पीकढ़यं के मन, शरीर और अत्मा की दीवारं को यह ईन्द्मादी िग्रकफ़टाआजेशन िनगल जायेगा तब श्रद्धांजिल हमारे ओटखाये ईन्द्मादं के बीच रात के िनिबड़ ऄंधकारं मं, जलती त्वचादाह से पीिड़त पीकढ़याँ हमं पूछंगी गुजरात के सुप्रिसद्ध सािहत्यकार श्री लाभशंकर िवरासत मं िमली मोमबत्ती, ठाकर का 6 जनवरी 2016 को ऄहमदाबाद मं िनधन हुअ । लाभशंकर ठाकर गुजराती भाषा िनजषल कु एँ, के जानेमाने सािहत्यकार एवं नाट्यकार भी थे। बाँझ हो गइ बावड़ी, ईसके ऄलावा वो अयुवेकदक िचककत्सक भी थे। प्यास से मरे हुए पोखर माणसनी वात, लघरो, तड़को अकद ईनकी और सुप्रिसद्ध किवताएँ है । रे मक, मरी जवानी अँसुओं मं डू बकर सूख गइ मजा, बाथटबमां माछली, पीळुं गुलाब ऄने हुं जो अकद सुप्रिसद्ध नाटक और आनर लाइफ, एक ईन नकदयं का पता-रठकाना । िमनट, मारी बा सुप्रिसद्ध पुस्तक है । आसके ऄलावा 'ऄकस्मात्' ईनका ऄत्यंत लोकिप्रय तब ईपन्द्यास रहा । हमारे पास 'िवश्व गाथा' पररवार की ओर से सदगत को प्यास से मर रहे बच्चों को िवनम्र श्रद्धांजिल । अँसूं चटाती माँ की ♦♦♦ बेबस ज़ुबान जैसा ISSN –2347-8764

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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कहानी

ईस गाँव को स्टेशन नहं मोहम्मद मांकड़

ऄधदुल ने आं िजन की िहहसल दबाइ । भाप दबकर बाहर िनकली और तीव्र अवाज़ वातावरण के अरपार िनकल गइ । गदषन खंचकर ऄधदुल ने पीछे देखा । गाडष हरी झंडी कदखा रहा था । करसन की ओर मुड़कर ईसने कहा; ‘कोयला डाल ।‘ करसन मशीन के ककसी पुजे की तरह िखसका । कोयले की पावडी भरकर ईसने आं िजन मं डाली । ईसके पास बटु क खड़ा था । ईसने बीड़ी जलाइ । ऄधदुल ने कफर से िहहसल बजाइ और गाड़ी चल पड़ी । लगभग हर वक्त होने वाली पहली अवाज़ ऄधदुल ने सुनी, भूख्ख... वो खंखारा । भूख्ख, भूख्ख, भूख्ख... कफर एक बार ईसने गदषन खंचकर पीछे की ओर नज़रं घुमाईं । गाडष गाड़ी मं चढ़ रहा था । गाड़ी धीरे धीरे गित मं अइ । झटपट झटाक् , झटपट झटाक् ... । करसन ने कहा; ‘ऄब गमी शुरू हो गइ !’ ‘हाँ’, बटु क ने िसर िहलाया । ईसने बीड़ी फ़ं क दी । पसीना पंछा । ऄधदुल की नज़र पटरी पर थी । थोड़ी देर बाद वह ऄपनी उँची बैठक पर बैठ गया । गाड़ी ऄब बराबर गित मं अ गइ थी । झटपट, झटपट झटाक् झटपट झटपट, झटपट, झटपट, झटाक् झटपट... करसन और बटु क बातं करने लगे । रे लवे लाआन के असपास के पेड़-पत्तं के बारे मं बातं कर रहे थे । ऄधदुल वह सुन रहा था, मगर ईनके साथ बातं मं जुड़ा नहं था । बीच मं यकायक एक सुलगता कोयला लेकर ईसने पास मं ईगे हुए घास मं फं का और बटु क की तरफ देखकर मुस्कु राया । गाड़ी चलती रही । झटापट, झटापट झटापट झटापट झटापट झटापट झटापट..... ISSN –2347-8764

एक छोटा स्टेशन अया, मगर वहाँ गाड़ी रोकनी नहं थी । अगे जाना था । और अगे जाने के िलए लाआन िक्लयर है ऐसा कागज़ स्टेशन मास्टर से प्राप्त कर लेना था । ऄधदुल ने वह चलती गाड़ी से ही प्राप्त कर िलया, और लगभग हमेशा की तरह कागज़ िनकालकर बायर को झुलाकर फं क कदया । गाड़ी अगे जा रही थी । गमी शुरू हो गइ है । असपास की िसवान सूख गइ है । ऄधदुल कभी करसन के साथ, तो कभी बटु क के साथ हँस रहा था । कभी ईनके ईच्चो ऄिधकाररयं को गाली दे देता था । एक सी सिज़दगी मं थोड़ा सा तीखापन भर लेता था । सूखे, वीराने मं गाड़ी चल रही थी । ऄधदुल ने खंखारा । िसवान मं मानो सजीव िहलता हो ऐसे दूर एक हररयाली का झुंड कदखने लगा । ऄधदुल ने िहहसल बजाइ । और कोइ िविचि भाव पैदा हो गया । हररयाली ज्यादा नज़दीक अ रही थी । एक छोटा सा गाँव था । ऄधदुल हमेश यहाँ से गुज़रता था । ईस गाँव का नाम....नाम याद अया नहं। ईस गाँव मं स्टेशन नहं था। ऄधदुल ने कफर से नाम याद करने का प्रयत्न ककया । ईस गाँव मं स्टेशन कहाँ था? वो गाँव लाइन पर नहं था । लाइन से दूर था । दूर से हररयाता था । एक कदन ईस गाँव का एक शख्स ऄधदुल को िमल गया था । ईसका नाम कानजी था । खेती करता था । ऄधदुल के साथ ईसने ऄपनी खेती के बारे मं बातं की थी । ऄधदुल को ईसमं ज्यादा ही रूिच पैदा हुइ थी । कानजी ने ईसे पूछा था, होता है िवचार खेती करने का? ऄधदुल ने ईस वक्त िसर खुजाया था । आस वक्त भी वो िसर खुजा रहा था । ऄब गाड़ी ईस गाँव

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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से लगभग सीधी लाइन मं अ गइ थी । ऄधदुल के मन मं वोही िवचार तैर रहा था, खेती करनी है? ... एक पल, ईसे नीचे ईतरने की आच्छा हो गइ । मगर गाड़ी रोक नहं सकते थे । और गाड़ी मं वो ऄके ला नहं था । हररयाली पर ईसकी नज़रं ठहर रही थं । वो िसर खुजा रहा था । गाड़ी गुज़र रही थी । ईसके बूढ़े बाबा बीमार थे । बीमारी पहचान मं नहं अ रही थी । माँ की अँख मं मोितयासिबद हो गया था । तुरंत ऑपरे शन कराने की जरुरत थी । लडके को स्कू ल मं दािखला कदलवाना था । बड़ी बेटी की शादी करवानी थी । ईसकी पत्नी को बच्चोा होने वाला था... ईसने खंखारने का प्रयत्न ककया, मगर गले मं से अवाज़ न िनकली । **** गाड़ी हररयाली के पास से गुज़र रही थी । प्रितकदन हररयाली के पास से ही गुज़रती थी । मगर वहाँ स्टेशन न था । ऄधदुल को, पता नहं क्यूँ, प्रितकदन गाड़ी मं से ईतर जाने की आच्छा हो जाती है – कू द जाउँ? प्रितकदन हररयाली की तरफ वो ताकता रहता था । ऐसा हररयाला गाँव आस तरफ कोइ दूसरा नहं था । मगर यह गाँव लाआन से थोडा दूर ही था । ईसकी ओर िसफष नज़र ही जा सकती थी । और ऄधदुल की नज़र वहाँ रोज पड़ती थी । वह ज़ोर से खंखारा । पटरी पर सामने कोइ न था कफर भी िहहसल बजाइ । गाड़ी ईस हररयाली की सीधी लाआन मं कु छ देर चलती रही कफर अगे िनकल गइ । अगे जाना था । ऄधदुल ने कफर िहहसल बजाइ । गाड़ी अगे जा रही थी । ऄधदुल को ईसे रोक देने की आच्छा हुइ । हर-बार रोज़ ऐसी आच्छा होती थी । मगर गाड़ी मं वो ऄके ला नहं था । ईसे व्याकु लता होने लगी । वह गाड़ी को चला रहा था या गाड़ी ईसे ? वह व्याकु ल होने लगा । ऐसा िवचार क्यं अया? मगर िवचार तो ऐसा ही अया । कफर से अया । गाड़ी को वो चलाता था या गाड़ी ईसे चलाती थी? करसन की तरफ़, बटु क की तरफ़, ईसने देखा । ऐसे िवचार ईसे क्यूँ अ रहे थे? पागल तो नहं हो गया था न? आस गाँव से गुज़रते हुए ईसे ऐसा क्यूँ हो जाता है ISSN –2347-8764

बटु क ने ईसकी तरफ़ देखा । कु छ बोला । ऄधदुल ने िसर िहलाया मगर ईसने कु छ सुना नहं था । कु छ समझा नहं था । ईसके बूढ़े बाबा बीमार थे । बीमारी पहचान मं नहं अ रही थी । माँ की अँख मं मोितयासिबद हो गया था । तुरंत ऑपरे शन कराने की जरुरत थी । लडके को स्कू ल मं दािखला कदलवाना था । बड़ी बेटी की शादी करवानी थी । ईनकी पत्नी को बच्चोा होने वाला था... ईसने खंखारने का प्रयत्न ककया, मगर गले मं से अवाज़ न िनकली ।

बटु क ने बीड़ी िनकालकर ईनके सामने धरी । गाड़ी अगे चलती रही ।

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153/B, सेक्टर-20, ज-रोड, राजभवन के पास, गांधीनगर-382 020 गुजरात

ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी

किवता

तृण और तारक के बीच ईसनस्

कइ बार मध्य रािी को जाग जाग कर मं देखता रहा हूँ स्फरटक िनमषल ऄंधकार, बहुत बहुत तारक-िपघला हुअ, ककसी सत्व सा चेतन िवस्फु ररत, पृ्वी की पीठ पे खड़ा होकर; भूपृष्ठ और व्योम बीच ककसी वस्त्र सा फराफराता िवशाल छू ता रहे छोर िजसका रे शमी; ऄंधकार मंने ऄनुभूत ककया कइ बार पृ्वी पर रोमांच के सघन-कानन-ऄंतराल मं वायु की लहरी सा मृद ु ममषररत अकाश के तारकतंतु और धरा की नुकीली तृणपित्तयं से बुना हुअ वस्त्र ही है यह ऄंधकार; मंने देखा है कइ बार वक्त बेवक्त रात मं कक तारक झुकते एकदम नीचे धरा पे, तारे ककतने ही टू ट जाते, छलांग लगाते आस तृण की नोक से सिबध कर िपरोकर मोती बनने, सूरज-तेज का पेय िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

पीने; िजसे तुम ओस कहते हो प्रभात मं – और देखा है मंने तृणपित्तयं को उँचे उँचे ईठते नभ-पीठ पर बोइ हुइ (अकाश मं भी धरती का पौधा !) तारं का खेत बन फिलत हो जाने को तारं जैसी बािलयाँ कइ मंने देखी है; - और देखा है मंने मुझ मं पनपते िमट्टी और तेज के चक्रवात को हरी और ईज्जवल अभावाली ! मंने ऄंधकार मं मुझ को देखा है कायहीन के वल पारदशषक कोइ, सूक्ष्म संवेदनशील माध्यम कोइ स्तंभ ट्रांसमीटर का िसवान मं खड़ा हुअ ? तब मुझे कु छ ज्ञात गहरे गहरे होता; मानो मं कोइ ग्रह हूँ तृण-तारकं का आस अभ और ऄवनी के ऄधबीच कहं, मानो मं तारक और तृण बीचोबीच, हूँ तारक और तृण से खचाखच ।

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कहानी

लुगाइयाँ ककरीट दूधात

'सारा आं तजाम ठीक-ठाक हो गया है न जादव?' सवजी बापा ने पूछा । जादव मामा ने जवाब कदया, 'हाँ, बापा' 'रसोइ मं क्या चल रहा है?' 'वहाँ आन लुगाआयं को ही एतराज है न ! ऄभी भी मेरी माँ और चाची तो कहती हं कक मंजू को नहं भेजना है ।' सवजी बापा गुस्सा हुए, 'ये सािलयाँ गधी की गधी ही रहं । कहा था कक बात का बतंगड़ मत बनाओ, कफर भी नहं मानती । लगता है, ऄब तो आन्द्हं झाडना पडेगा ।' कहकर सवजी बापा बैठके से िनकल कर रसोइ की ओर चले । 'आन लुगाआयं ने तो हद कर दी', कहकर जादव मामा बैठक की कच्चोी फशष पर ितनके से खेल के िलए अटापाटा खंचने लगे । कफर मुझे देखकर बोले, 'भानजे, तेरी नानी को कह देना कक कल बड़े सवेरे ही तुझे तैयार कर दे, कहं तेरी वजह से देर न हो ।' ऐसे मं जादव मामा के िपताजी रामजी दादा बाहर से लौटे । ईन्द्हंने पूछा; 'कहाँ है बड़े भैया? कफर क्या हुअ ईस बात का ?' 'देिखए न मेरी माँ और चाची ऄभी भी नहं मानतं, ताईजी चौराहे की ओर गये हं ।' 'आसका मतलब कक कल ऄमरे ली जाने की बात रद्द। ऄरे , अज ही बटु क मेडीगाँव गया है । ईसके हाथ खबर भेजी है कक कल की बात तय है ।' 'मेरी माँ कहती है कक भाड़ मं जाये यह सगाइ, हमं तो िवराणी के ऄलावा और भी बड़े घर के ररश्ते िमल जायंगे, एक वही तो नहं है !' 'तेरी माँ की तो मित मारी गइ है, यह कोइ छोटी जाित का घर है जो ज़रा-सी बात मं सगाइ तोड़ दं? क्या हमं मंजू नहं है? मं मगन दरजी से कह अया हूँ कक गुरूवार से हमारे बैठके मं िसलाइ का काम शुरू कर दं । िवराणी का एक पूरा कमरा हमारी मंजू के दहेज से भर जाना चािहए । हम चार भाआयं मं आकलौती बेटी है िबचारी मंजू !' ISSN –2347-8764

आतने मं सवजी बाबा हाँफ़ते-हाँफ़ते बैठक मं अये और िसर की पगड़ी ईतारकर खरटया पर पटकी और बोले; 'ये व्यवहार – ये नाते-ररश्ते तौबा, तौबा ' 'क्या हुअ बड़े भैया?' रामजी बापा ने पूछा । 'माँ को रुलाना पडा, और क्या? मंने तो साफ़ साफ़ कह कदया कक माँ, तुम और ये चारं लुगाइयाँ बस, रास्ता पकड़ो यहाँ से, ककसी की जरुरत नहं है हमं। कफर तो माँ रोइ और बोली कक ऐसा है तो करो ऄपनी मनमानी और धके ल दो बेटी को कु एँ मं, कल भोर मं मंजू को तैयार कर दंगे । जादव, ये व्यवहार यानी कक बस !' 'कफर वाघजी बापा और मथुर मामा ट्रैक्टर लेकर अये । वाघजी बाबा-मंजू के सगे िपताजी, पर वे आस झंझट मं नहं पड़ते कक ईनकी सगी बेटी की बात हो रही है । ईनका एक ही िसद्धांत था कक ररश्तेदारी के व्यवहार सँभालना सवजीभाइ का काम है सो वे देख लंगे । ऄपने को तो बस खेती-बारी देखनी है । परं तु सवजी बापा के बेटे मथुर मामा बड़े मजाककया । ट्रेलर पर से नीचे कू दते हुए पूछने लगे, 'क्यं भानजे, क्या कह रहे हं कामरुपदेश के सेनानी?' जादव मामा ने कहा, 'बड़ी मुिश्कल से माने हं, ऄब कल की बात िनपट जाये तो चैन अये ।' वाघजी बापा बैठके मं अकर बैठे, चुपचाप । वाघजी बापा जैसा ही था भगत का । वे तो सारा कदन राम नाम का ही सुिमरन करते रहते । भगत पहले तो तीनं भाआयं की तरह संसारी थे । परं तु ऄब भगत के नाम से ही जाने जाते हं । पहले संसार मं रूिच लेते पर एक कदन ऄपनी घरवाली चंचल को बुलाकर कह कदया कक कल से मं भला और मेरा भगवान भला । संसार की दृिष्ट से मेरा नया जनम है । कल से संसार के सारे काम बंद । बस, वे भगत हो गये । गाँव के लोग बातं करते हं कक भगत को तो इश्वर की लगन लग गइ है। परं तु आस िवषय मं एक ऄन्द्य मत भी था कक भगत, भगत बने ईसके पहले गाँव के कदहाड़ी, मजदूर जैसे लोगं से माँगकर बीड़ी पीते थे आसिलए ईन दहािडयं का कहना था कक भगतके कदमाग

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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मं मुफ्त की बीिड़यं का धुँअ चढ़ गया है, भगती का तो नाटक है । भगत भगवान से नीचे की श्रेणी के ककसी भी व्यिक्त से बात नहं करते । हाँ, कभी-कभार मुझे बच्चोा समझ बातं करने बुलाते । मं अँगन मं खेल रहा होउँ तो पुकारते, 'अओ, भानजे ।' मं जाता तो कहते कक अज तो मीराबाइ के एक भजन की रचना की है । भगत कइ बार मीराबाइ या नरसिसह मेहता के भजनं की रचना करते ! मुझे पूछते, 'सुनाउँ?' मं गरदन िहलाता कफर िपटारे के जंग लगे लोहे की चादर पर ढोलक बजाकर भजन गाकर सुनाते, कफर पूछते, 'कु छ समझ मं अया?' मं िसर िहलाकर ना कहता तो भगत खुश होकर हँसते हुए कहते, 'कै से समझोगे, ये तो भगती है भगती, क्या?' जवाब मं मं कहता, 'भगती ।' ऄसल बात यह थी कक ऄपना भजन सुनाने के बाद मुझे खचष करने के िलए दस पैसे देते ! आसिलए जब तक वे पैसे िमलते रहे तब तक वह पूरी बात भगती हो कक पागलपन, मुझे कोइ एतराज़ नहं था । 'दादी को रुलाया, ये बात ठीक नहं ।' मथुर मामा बोले । बात सही थी । जकल माइ पूरे गाँव मं सलाह-मशवरा लेने का स्थान मानी जातं । घर मं भी जकल माइ असपास मं हं तब ऄपने बच्चों को पीटते समय औरतं गािलयाँ नहं बोलती । सवजी बापा नाते-ररश्तेदारी मं ककसी ईलझन मं फँ सते तो जकल माइ से ही सलाह-मशवरा करते । लेककन यह बात तो ऄलग ही थी । मंजू की सगाइ बचपन मं ही मेड़ीगाँव के सरपंच रितभाइ िवराणी के बेटे कदनेश के साथ हो गइ थी । कदनेश ऄपने बाप की आकलौती संतान था । बचपन मं ही ईसकी माँ का िनधन हो गया था । आतने साल सबकु छ ठीकठाक चला और ऄब शादी के दो-तीन महीने बाकी है और ककसी ने ईसके मन मं ठूं स कदया है कक मंजू की जांघ पर कोढ़ है । आस आलाके मं पहले एक-दो लड़ककयं के ऐसे दाग सुहागरात पर पता चलने पर ईनके दूल्हं ने ईन्द्हं घर से िनकाल कदया था । सो कदनेश भिवष्य मं ऐसा-कोइ तमाशा न हो आसिलए पहले से सारी जाँच कर लेना चाहता है । ईसने संदेश भेजा था कक ऄगर अप कहं तो मं ISSN –2347-8764

खुद अकर जाँच कर लूँ या कफर अप मंजुला को यहाँ भेिजए । गर्षमयं की दोपहर मं मं पढाइ िनपटाकर सवजी बापा के घर खेलने जाता । एक ऄँधेरे सीलन भरे कमरे मं दोपहर का कामकाज कर, नहा-धोकर वह बाल सँवारती या कदनेश को िचठ्ठी िलख रही होती और मं जा पहुंचता । पूछता, 'मंज,ू क्या कर रही हो?' मंजू जरा शरमाती हुइ कहती, 'देखो न, कदनेश को िचठ्ठी िलख रही हूँ ।' 'ईसमं मेरा नाम िलखा कक नहं?' आन अने -जाने वाली नचठ्ठियों मं मेरे नाम का मं अग्रह रखता । मंजू आतराकर कहती, 'तेरी घरवाली तुझे िचठ्ठी िलखेगी ईसमं तेरा नाम िलखेगी ।' पर मं ऄपनी मुिश्कल बयान करते हुए कहता, 'मेरी घरवाली ही नहं है ।' मंजू कहती, 'एक कदन तेरी बीवी भी अयेगी । बड़ी जल्दी मची हो तो घर जाकर मटके मं पत्थर डालने का टोटका कर ।' मं घर लौटकर नाना से पूछता, 'बापा, मेरी बीवी कब अयेगी?' नाना खुश होकर कहते, 'तू कहे तो कल ले अएँ । बोल, एक चोटी वाली लानी है या दो चोटी वाली?' मं ईलझन मं पड़ जाता और कफर नानी से पूछता कक आसमं क्या फरक पड़ेगा? नानी समझाती कक एक चोटी वाली बहुत काम करती है जब कक दो चोटी वाली सजने-धजने मं लगी रहेगी तो घर का काम क्या करे गी ! मं थोड़ी देर सोचकर संजीदगी से कहता, 'ऄपने को एक चोटी वाली बीवी चािहए, घर का काम न करं ऐसी घरवाली ककस काम की?' मंजू दो चोरटयाँ बनाती और घर का कामकाज कु छ ख़ास करती नहं । मंजू की माँ ऄक्सर कहती, 'िनगोड़ी, यहाँ बाप के घर तो कु छ कामकाज सीख ले, वरना ससुराल मं तू तो गािलयाँ खायेगी और हमं भी िखलायेगी ।' पर भगत की पत्नी चंचल दादी कहतं, 'मंजू तो हमारे घर की लक्ष्मी है, ईसके जनम के बाद ही हमारा सारा करजा ईतारा है, ईससे काम थोड़े न करवाएंगे?' आस बात का घर मं कोइ िवरोध नहं िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

करता। ईसका कारण यह भी था कक चंचल दादी ऄपनी ऄन्द्य देवरानी-जेठानी जैसी संस्कारी नहं मानी जाती । सवजी बापा कइ बार कहते, 'यह तो कदहाड़ी मजदूर की बेटी है, ईसे क्या पता? कदन मं चार-पाँच बार पेट जल जाए ऐसी गरम-गरम चाय पीएँ और जानवर की तरह कदनभर मजदूरी करं । ये तो हमारे िपताजी और ईसके बचपन दादा बचपन से दोस्त थे आसिलए हमारे िपताजी ने ऄपने दोस्त की बात रख ली ।' वैसे तो चंचल दादी थोड़ी ऄसंस्कारी पर जवाब देने मं ककसी से डरती नहं । हाँ, जकल माइ का िलहाज़ करती । कभीकभार पुराने संस्कार िसर चढ़ जायं तो मुँह से गंदी गािलयाँ भी िनकल जातं । जकल माइ समझातं, 'चंचल बहू, यह ठीक नहं है, तो सास की बात को िसर-अँखं पर लेती, ईन्द्हं ने आस बार गािलयं की बौछार कर दी थी । कदनेश और ईसके बाप का टंटुअ दबाने की आच्छा व्यक्त करते हुए साफ़ कह कदया था, 'मंजू मेरी बेटी है । अये तो सही, कोइ ईसकी जाँच करने । मुंह नंच कर रख दूग ं ी ।' आस बात पर घर की सभी लुगाआयाँ एक हो गइ थं । जकल माइ जैसी समझदार स्त्री भी काँप ईठी थी । सारी लुगाआयं ने कहा, 'चाहे यह सगाइ क्यं न टू ट जाये, हमं मंजू की जाँच नहं करवानी है ।' सवजी बापा तुरंत मेड़ीगाँव गये थे । ईन्द्हं ने रितभाइ से कहा था, 'भले मानुस, हमारे आतने साल के सम्बन्द्ध और मं अपको नकली मोटी थोड़े न पकडाउँगा ? परं तु रितभाइ का एक ही जवाब था, 'कदनेश छोटा-सा था और ईसकी माँ मर गइ थी । राजा की तरह वह पला है । गर वह कहं कदन तो हमारे िलए कदन और कहं रात तो हमारे िलए रात !' आस जवाब के बाद घर के सारे मदष आकठ्ठे हुए और सोचने लगे कक क्या करं ? रामजी बापा ने कहा, 'ऄब आसका एक ही आलाज है, कदनेश की बात मान लं ।' सवजी बापा ने कहा, 'जादव, माँ को बता दे कक कल सुबह मंजू को तैयार कर दं । कल ईसे ऄमरे ली डॉ. खोखर के ऄस्पताल भेजना है । कोइ पूछे तो कहना कक मंजू की मामी बीमार है और ईन्द्हं डॉ. खोखर के ऄस्पताल भती करवाइ है, आसिलए मंजू

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हाल-चाल पूछने जा रही है । वहाँ कदनेश को जो भी जाँचना-परखना हो... जाओ, िनपटा दो ये बात ।' जादव मामा गए थे ईससे दुगनी तेजी से लौटे, लुगाआयाँ तो कहती हं कक 'यह सगाइ तोड़ दो ।' आतनी हैरानी मं सवजी बापा कदनेश की बात सुनकर भी नहं पड़े थे । 'लो, फरमाया, सगाइ तोड़ दो । दूसरी जगह जब सम्बन्द्ध करने जाओगे तो पहला सवाल यही होगा कक ऄगली सगाइ क्यं टू ट गइ?' वाघजी बापा के चेहरे पर मयाषदा पुरुषोत्तम श्री रामचंर जी का तेज छा गया। वे बोले, 'जादव, बैलगाड़ी िनकाल और छोड़ अ तेरी चाची को ईसके मायके ।' बाबा ने कहा, 'बड़े भैया, चलो ऄपने कल से ये सब व्यवहार की बातं छोड़ रसोइ मं बैठ जायं ।' जादव मामा ने कहा, 'भानजे, लुगाआयं की ऄकल का एक जगह पर एन्द्ड अ जाता है । ईनसे बहस करना मतलब खुद को मूरख सािबत करना । बड़ा होने पर ये बात गाँठ बाँध लेना, समझे?' सवजी बापा ने कहा, 'आस घाघरा पलटन के क्या कहने !' कफर सब गहरी साँस लेकर जोर से हँसे । 'भवाइ देखने जायं और भांड गले मं ढोल लटकाकर सवजी बापा जैसे आज्ज़तदार लोगं को, 'पैसा दीिजए माइ बाप, हम तो अपके मेहतर, बदले चालाकी से पैसे दीिजएगा, माइ बाप अपके मेहतरकहकर गाली दे तब भी ऐसा मजा नहं अता था । यह तो मं पास मं बैठा था वरना बाहर से कोइ देखं तो समझे कक सब िमलकर जकल माइ का मातम मना रहे हं। दूसरे कदन मंजू को ऄमरे ली भेजने का िनणषय ककया । जादव मामा बैलगाड़ी लेकर जायंगे और सबकु छ िनपटने पर शाम को लौट अयंगे । मंने कहा कक ऄमरे ली मं जेसल-तोरल कफल्म लगी है । मुझे वह देखनी है । सो मुझे भी साथ ले जाना तय ककया । सुबह मंजू रो रही थी और एक कमरे मं पालथी मारकर ऐसे बैठ गइ थी कक ईठने का नाम ही लेती नहं थी । आसिलए सवजी बापा गुस्सा हुए, 'माँ, ऄब ककतनी देर है? फ़टाफ़ट िनपटाओ न सारी बात !' ISSN –2347-8764

जकल माइ की अँखं मं अँसूं अ गए । ईन्द्हंने मंजू को बाँह पकड़कर ईठाया और कहा, 'जा ऄभागी, आनकार करने से क्या होना है ?' मंजू की िहचककयं और बैल की ईसासं के िसवा सब शांत था । के वल भगत मानं भगवान छज्जे पर चढ़कर बैठे हं, आस तरह उपर देखकर बोले, 'बहन, मंजू तो नासमझ है आसिलए रोती है । वैसे सब को ऄपने-ऄपने करम भोगने पड़ते हं, हे न भगवान?' कहकर भगत खुश हुए आसिलए लगा कक भगवान ने ईनकी हाँ मं हाँ िमलाइ होगी । मंजू ने रोते-रोते जादव मामा से कहा, 'भैया, बैलगाड़ी वापस मोड़ लो ।' एक बार तो जादव मामा से कहा, 'कफर तुझे मेरी भाभी की सौगंध, मं दूसरी ले अउँगा । पर यह गाडी लौटेगी नहं ।' कफर तो पूरे रास्ते भर मंजू ने जादव मामा से कु छ नहं कहा । डॉ. खोखर के ऄस्पताल सब पहुँचे तब वहाँ कदनेश की मोटरसाआककल पडी थी । जादव मामा ने मुझसे कहा, 'मं तम्बाकू लेकर अता हूँ भानजे, तू यहं रहना ।' आतने मं एक कमरे से कदनेश बाहर अया और मंजू को कमरा कदखाकर बोला, 'यहाँ अ जा ।' मंजू ने ऄपने दोनं हाथं से मुझे जोर से पकड़ रखा था । 'तू मेरे साथ ही रहना ।' कदनेश ने कहा, 'आसका कु छ काम नहं है ।' कफर मुझसे कहा, 'तू यहं रहना ।' वह मंजू को कमरे मं ले गया और एकाध िमनट बाद सीटी बजाते हुए बाहर अया और ऄपना बुलेट स्टाटष कर चला गया । मंने पूछा, 'क्या हुअ मंजू?' तो बोलं, 'आससे तो मर जाना बेहतर ।' मंने और भी पूछा पर ईसने जवाब नहं कदया, बस रोती ही रही । कु छ देर मं जादव मामा अए । ईन्द्हं ने मुझसे पूछा, 'क्या हुअ भानजे?' मंने कहा कक कदनेश तो चला गया और मंजू तो रो रही है । 'ठीक है, कोइ बात नहं । चलो जल्दी, वरना कफल्म मं देर हो जायेगी ।' लौटते वक्त पूरे रास्ते मंजू रोती ही रही । घर पहुंचने पर सब - 'क्या हुअ? क्या हुअ?' - पूछने लगे । जादव मामा ने कहा, 'कदनेशकु मार तो मेरे अने से पहले ही चले गए । और मंजू तो तब से रो रही है ।' दूसरे कदन सुबह मं दस बजे जादव मामा नाररयल और पेडे लेकर बाजार से घर अये िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

और समाचार कदया कक रितभाइ ने सायत िनकलवाने को कहा है ।' कफर नाररयेल लेकर मंजू रसोइ घर मं बैठी थी वहाँ गए और बोले, 'लाआए ये नाररयल मंजू के िसर पर फोड़ं । वैसे तो सारी लुगाआयं के िसर पर फोड़ना चािहए । साली सब िमलकर हाय तौबा मचा रही थं ।' कफर तो बारी-बारी से वाघजी बापा और रामजी दादा रसोइ मं जाकर लुगाआयं को धमाका अयं । 'िबलकु ल ऄकल नहं है । देखो, तुम लोगं की मित पर चलं होते तो होती भडैती पूरे समाज मं !' ऄंत मं, सवजी बापा डाँट गए । 'जब कभी कोइ समस्या खड़ी हो तब ऄकल से काम लेना चािहए, गािलयाँ नहं बकनी चािहए। समझे? पर तुम लोगं के अगे समझदारी की बातं करं तो भी क्या? पत्थर पानी, साली, लुगाआयाँ लुगाआयाँ ही रहंगी ।' जकल माइ कोने मं बैठकर चुपचाप माला फे र रही थं । वे कु छ नहं बोलं पर सवजी बापा ने पलटकर बैठक की ओर जाने के िलए कदम बढाए और ऄभी अधे रास्ते मं हंगे कक बाजरे की रोटी बनाती चंचल दादी ने चूल्हे से एक जलती लकड़ी ईठाइ और खड़ी होकर िचल्लाने लगी, 'ऄपनी माँ के खसम, ऄब अये हो ऄकल बघारने, तुम्हारे दोनं चूतडं को दाग देना चािहए, मेरी रतन जैसी बेटी' – कहकर चंचल दादी ने जोर से लुअठी िबना पुती काली पपिड़यं वाली दीवाल पर पटक दी । ईसकी कािलख़ चारं ओर ईड़ी, कफर नीचे बैठकर चंचल दादी पक्का फाड़कर रो पड़ं । एक िहचकी पूरी करके दूसरी िहचकी लं, तब तक तो तवे पर रखी बाजरे की रोटी जलाकर कोयला हो गइ थी ।

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ऄनुवाद : िबन्द्द ु भट्ट

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कहानी

लेरट्रन साआको सुमत ं रावल

ईसका पूरा नाम जगदीश चंर दयाराम । मगर ईनका िमनी नाम जे.डी. । सभी ईन्द्हं जे.डी. के नाम से ही जानते । कॉलेज के पहले वषष से ही ईसे यह नाम िमल गया था । ग्रेज्युएट होने के बाद सभी को िवचार अता है वैसा ही ईन्द्हं भी अया था। वह एक ऑकफसर बनेगा । पत्नी होगी । सरकारी जीप होगी । घर पे फोन होगा । मगर ऐसा कु छ भी न हुअ । वह ग्यारह से छ: तक पंखे की हवा मं डू ब जाती दुिनया मं क्लकष बन गया । नइ फे शन के एक जोड़ कपड़े पहनकर बूट की अवाज़ को क्रमश: सुनते हुअ ऑकफस पहुँचता । सभी के सामने मुस्कु राते हुए बातं करता। कभी कभी वो मज़ेदार बात भी कर लेता और सहकमीयं की प्रशंसा के दो शधद ईसे सुनने को िमलते – ऄरे ! गुड थॉट, जे.डी. तुम्हारा ब्रेआन तो आं कदरा गांधी की तरह तीव्र है । वह मुस्कु राता । ऄहम् की संतुिष्ट का अनंद होता । उँची अवाज़ मं बातं करता । ररसेश मं के न्द्टीन मं जाकर सभी को चाय िपलाता और कफल्म, राजनीित, सािहत्य पर बोलने लगता । के न्द्टीन मैनेजर से लेकर वेआटर तक मन ही मन हँसते । कफल्म ऄच्छी लगी है । सहकमीओं का माखौल समझ सकं ईतनी ऄकल जे.डी. मं नहं थी । ईसे तो िवधवा बुअ ने बड़ा ककया था । िवधवा बुअ हमेशा पड़ोिसयं के पास प्रशंसा ही करती रहती । जे.डी. आक्कीस वषष तक प्रशंसा की दुिनया मं ही जीता रहा था । ऄब वास्तिवकता की दुिनया मं कदम रखं तो प्रशंसा ईसे छोड़कर चली गइ थी । नहं, ऄभी भी प्रशंसा थी, ऑकफस मं । सहकमीयं को चाय पीने की तलब लगती और ऄपनेअप बाररश मं ईगते घास की तरह प्रशंसा ईगती । प्रशंसा की छाँव मं छु पी हुइ ऄपेक्षाओं को समजने की शिक्त जे.डी. मं नहं थी । बुअ के संस्कार सिसचन से हुइ परवररश मं पला जे.डी. भला, भोला और प्रेमसभर था । बुअ ने ईसे दुिनयादारी का ख़याल अने ही नहं कदया था । बुअ के सूि रामायण युग के थे । िमिता नहं, ईनसे िबगड़ सकते हं । पान ISSN –2347-8764

नहं खा सकते । िसगारे ट नहं पी सकते । रास्ते पे चलते समय ककसी स्त्री के सामने देखना पाप समान होता है । ककसी जूथ मं खड़े लोग बातं करते हं तो ईससे दूर दूर ही रहना । कदमाग के स्क्रीन पर से बुअ की स्लाआडं हट नहं सकती थी । जब वो बी.ए. मं था तब बुअ चल बसं । पूरे घर का वाररस वो ऄके ला था । बुअ धार्षमक यािा से लौट सके ऐसी िस्थित नहं थी । बुअ की एक भी फोटो नहं थी । फोटो सिखचवाने को भी वो पाप समझ रही थं । हाँ, रामायण, महाभारत, गीता के ग्रंथ छोड़ गइ थी । जे.डी. के आकोनोिमक्स और लोिजक के ग्रंथं के नीचे कहं दब गए थे । जे.डी. को भ्रम होने लगा था । घर खाली है । घर खाली है? नहं । घर मं कोइ संचार हो रहा है । शरीर मं शीतल रोचकता फ़ै ल जाती । मगर वो ‘कोइ’ लाउँ कहाँ से ? पड़ोस मं एक सुंदर लड़की रहती थी । पूरा कदन वो खम्भे को टेककर बैठी रहती और कु छ बुनाइ-कढ़ाइ करती रहती । जे.डी. ईसे देख लेता और बस- खुश हो जाता । जे.डी. को लगता, वो लड़की मेरे िलए हं । ईसका कोइ ओर हो ही नहं सकता । वो मेरी है । बस, वो मेरी ही है ! जे.डी. शाम तक कफ़ल्मी गीत गाता रहता । घर मं आधर-ईधर घूमता रहता और युगल गीत ददष भरे राग मं गाता । मन मं होता कक वो सुनती होगी । खैर, ईसने गीत सुना या नहं वो जे.डी. को पता नहं मगर जे.डी. ने महीने के बाद सुना कक ईस लड़की की शादी होनेवाली है । खल्लास, कफर से जे.डी. ऄके ला होने वाला है । बुअ ऄके ली ऄके ली चली गइ थी और वो भी एक कदन जानेवाला है । जे.डी. को साथ देनेवाला कोइ न था । आस फ़ानी दुिनया मं ककसीका कोइ नहं और जे.डी. यूँही ऄस्वस्थ बन जाता । ऐसा महसूस होता तब बुअ की याद अ जाती ।कफर मन मं होता; आस ईम्र मं तो.... तो... ! और वो बेचारा कान के एटिरग की तरह लटक जाता। फकष िसफष आतना था कक एटिरग्स लटकते हुए भी शो कर सकते हं, मगर जे.डी. लटकते हुए भी शो

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नहं कर सकता था ! लड़की शादी करके ससुराल चली गइ। जे.डी. के िलए यह समय ऄित वजनदार पिहयं जैसा हो गया । पहले तो जे.डी. कदन मं एकबार ईस लड़की को देख लेता और लारी करते कु त्ते के तरह हाँफने लगता। समय जल्दी से कटता जाता, मगर ऄब क्या? बेकार ग्रेज्युएट हमेशा ऄखबारं मं Wanted का आश्तहार पहले पढ़ते हं । जे.डी. भी नुक्कड़ के कोने की हॉटेल मं जाता; अधी बदबूदार कॉफ़ी पीता । खुरदुरी दाढ़ी पे हाथ फे रते हुए शेसिवग कराने को सोचता । शेसिवग तो नए शादीशुदा के िलए जरुरी है ऐसा फालतू हवा जैसा ख़याल अ जाता.... और कफर ऄके ले ऄके ले हँसी अ जाती । दीवार पर लगे कफ़ल्मी पोस्टसष देखता, और यकायक खुद हीरो बन गया है ऐसे िवचार के साथ खड़ा हो जाता, पेशाबघर मं जाता, पेशाब के साथ साथ िवचारं को भी छोड़कर वह बाहर िनकलता । बाहर िनकलने के बाद ईसे साँस लेने मं ख़ास कोइ कदक्कत नहं होती थी । लगातार रात कभी कभी कु छ समझ मं न अएं ऐसा बन जाता । नंद का बाष्पीभवन हो जाता । गंदे और हलकट िवचार अते । सुबह मं अँखं मं जलन होती । बहुत ही बेचैनी महसूस होती । सर भारी लगता और समज के प्रित नफ़रत होने लगती । ऐसा ऄहसास होता कक खुद को ककसी ने समंदर मं फं क कदया हो । वो खुद ऄभी तैरना भी नहं जानता । धीरे धीरे पानी की सतह पर छटपटाहट मारता है और अश्चयष ! ईसे तैरना अ गया । जब से ईसे तैरना अ अ गया तब समंदर का पानी सूख गया है ! जे.डी. छोटा था तब गली के लड़कं के साथ बाहर जाता । गाँव से दूर रे लवे की नेरोगेज लाआन थी । जे.डी. और ईसके िमि ट्रेन के समय से पहले पटरी पर पैसं का िसक्का रखते । ट्रेन चली जाती । िसक्का लंबगोल हो जाता । जे.डी. को महसूस होता कक ईन्द्हं भी ककसी ने ट्रेन के पिहये के नीचे रख कदया है । वह खुद धीरे धीरे लम्बा और पतला होने लगा है । यह ट्रेन ISSN –2347-8764

भी बहुत लम्बी है । जल्दी ख़त्म ही नहं होती । अकु लाती भयानक वेदना महसूस करता, सुबह-शाम । आस शहर की एक ही प्रकार की पहचान से ईन्द्हं िासदी हो रही थी । ईनके सहपाठी भी नौकरी िमलने से ऄन्द्य जगहं पर चले गए थे । ऄब जे.डी. ऄके ला-ऄके ला ही छटपटा रहा था । ख़ंजर लेकर शहर के एक-एक व्यिक्त का िसर धड़ से ऄलग कर देने का िविचि ज़ुनून ईनकी नसं मं ईफन रहा था । शहर के सभी लोग ईन्द्हं बदमाश-गुंडे लगते-मवाली लगते... मगर कोइ बात नहं, वह ऄके ला तो शरीफ था न ? शहर की एक सरकारी कचहरी मं कदए आं टरव्यू मं सफल हुअ । ककसी प्रकार की िसफ़ाररश के बगैर ही ईन्द्हं स्थान िमल जाने से जे.डी. को पहली ही बार ऄपनी कदमागी शिक्त का ऄिभमान जगा । ऄपने ऄंदर छू पा व्यिक्तत्व गहराइ से मछली की तरह धीरे -धीरे बाहर अने लगा था । सभी ईनकी ओर सम्मान की नज़रं से देखते.... बुअ की याद सुबह मं िनयिमत अ जाती । आतने बड़े घर मं बुअ ने शौचालय बनाया नहं था, आसिलए सुबह जागकर टू थब्रश करते ही हाआवे के पीछे म्युिनिसपािलटी के शौचालय की मुलाक़ात ऄिनवायष हो जाती थी । खुले मं ऄब जा नहं सकते थे । सामने ही सोसायटी का काम चल रहा था । मज़दूर सुबह मं काम पे लग जाते और हाआवे पर वाहनं की अवाजाही भी बढ़ गइ थी । साल्ली तकलीफ़ तो थी.... तड़के ही बुअ को गाली के साथ याद करना पड़ता था ! नए नए तैयार ककए गए थे तब शौचालय गंदे और सुवाक्यं से भरे हुए नहं थे, मगर तैयार होने के बाद एक 'वीक' भी नहं हुअ होगा तबतक तो हहाआटवॉश मानो धलेकबोडष हो गया ! कोयले का ईपयोग बढ़ गया । कामशास्त्र के िचिं से दीवारं सुशोिभत होने लगी ! जे.डी. कभी-कभी ऑकफस मं बातं करते हुए कह देता – ऄगर कोइ िवदेशी मुझे िमले और पूछ बैठे कक भारत की संस्कृ ित क्या है? तो मं सीना ठोककर कह दूँ कक शौचालय मं देखने को िमलेगी ! सेन्द्सरबोडष वाले 'ए' सर्टटकफके ट देकर पुख्त वयस्कं के िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

िलए कफल्म ररलीज़ करते हं, मगर शौचालयं के िलए तो ऐसे सर्टटकफके ट कदए नहं जाते । सभी के िलए होते हं, और शौचालयं की कफ़ल्मं तो 'ए' सर्टटकफके ट से भी बहुत बेहूदी और गंदी होती हं । सचमुच शौचालयं के सािहत्य पर तो पीएच.डी. भी कर सकं । सुनने वाले सहकमी ठहाके लगाने लगते यार, मेरा मानो तो घर पे शौचालय बनवा लो न- ऄब तो सरकार सबसीडी भी देती है। और सीमंट का परिमट तो हमारी ऑकफस मं से ही आश्यू होता है न ! – मेहता एक अँख मंचकर सलाह देता । जे.डी. गले सलाह ईतर गइ । शाम को घर अकर एक ऄज़ी िलखी । शौचालय कम थे और लोग ज्यादा थे । सुबह मं बस की 'क्यू' जैसा माहौल खड़ा हो जाता । िनयिमत सफाइ भी नहं होती थी। 'क्यू' मं खड़े-खड़े सभी बातं करने लगते । महंगाइ की, पढाइ की, ररवाजं की... कोइ पररिचत न कदखं तो – फलाना अज लेट लग रहे है । कु छ अदत वाले बीड़ी जलाते, बंद शौचालय मं से भी माचीस के साथ कदयासलाइ घीसने की, खाँसी की, थूंकने की अवाजं अती । जे.डी. ईनके तय ककए हुए शौचालय मं जाता । दीवारं को देखता... नए आजाफ़े वाले िचिं को और नइ िलखी शायरी को पढ़ता । अदत सी हो गइ थी... नये िचि का ऄसर मन पर एक नशे की तरह छा जाता । सप्ताह के बाद शौचालय की मंज़ूरी िमल गइ और जे.डी. ने तुरंत काम भी शुरू करवा कदया । ऑकफस मं गूफ्तगू शुरू हो गइ । कंग्रेच्यूलश े नककसिलए? शौचालय बना रहे हो ईसका । ... लेटर – ऑर्षडनरी - ऄजंट.... अज हो जायं... क्या? अआसक्रीम । मगर यह ऄजंट लेटर है । हमारे मन तो अआसक्रीम ऄजंट है । रूखेसफ़े द बाल वाले, सदा सिचितत बाबू हँसने लगते ।

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जे.डी. को लगता कक वो िजिनयस है और यह सभी ईनके चेले है । थोडा-सा खचष करके भी चेलके प्राप्त कर सकते हं । बातंबातं मं जी, हाँ-जी करनेवाले चेलके – शौचालय तैयार हो गया । फ्लश-टाआप । ऄंदर लाइट लगवाइ । नल लगवाया । चेआन वाली टंकी बनवाइ, वंटीलेशन रखवाया । चूने के हहाइटवॉश की गंध अने लगी । 30, जनवरी और मंगलवार से जे.डी. ने ईपयोग शुरू ककया । ऑकफस वाले मज़ाक करने लगे । घर पे लेरट्रन बनाने के बाद शरीर सुधर गया है । भइ, लेट्रीन और शरीर को क्या सम्बन्द्ध? बहुत है ! अपकी समझ मं नहं अएगा । अप लोग कु छ भी बोलं तो भी अज मं चाय िपलाने वाला नहं हूँ । चपरासी फ़ाआल लेकर चला गया । क्यूँ? अज मेरी तिबयत ठीक नहं है । हा हा हा हा । ट्रीन ट्रीन... ककसी ने घंटी बजाइ । ओझा को कहो, उँची अवाज़ मं हँसे नहं, िडस्टबष होता है । अपको िडस्टबष होता है, मगर जे.डी. को पूछा तो ईसे मरोड़ा (पेिचश) हो गया है । नहं तो ! नहं तो क्या... छू ट्टी की ररपोटष दी है न ? हं जे.डी.... ! चपरासी पानी का िगलास ले गया । जे.डी. को आस समाज पर दया अने लगती - जो हमेशा दूसरं पर ननर्फ़र होते । वो ईठकर बाहर िनकल जाता । किधज़यात के कारण पेट मं ददष होने लगता । लेट्रीन खोलकर दरवाजा बंद करता, दीवारं की सफे दी को देख लेता, कोइ पेट मं कं ची चला रहा हो ऐसा लगता । वह बाहर िनकलता । अँखं के कोने पर ईभरे पानी को पंछता । स्वस्थ होने का ढ़ंग करता, कु छ ऄभाव सा जीवन मं महसूस हो रहा था । पेट मं गड़बड़ होने लगी । डायजेसिस्टग पावर लूज़ हो रहा था । लेट्रीन कु छ कमी थी... हाँ, कु छ कमी थी । क्या कमी थी? िबजली की तरह कदमाग मं चमक पैदा ISSN –2347-8764

हो गइ थी । म्युिनिसपािलटी के शौचालय की िचिात्मक दीवारं कदखने लगी । चारं ओर से िचिं ने ईन पर हमला ककया । ओह नो ! - जे.डी. मुठी बंद करके र्ागने लगा, मगर - वह र्ाग नहं पायोा । - डॉक्टर ने चश्मे को ऊपर-नीचे करते हुए शरीर की जाँच की । - र्ाई, ददफ़ समझ मं नहं आता । - कनज़ियोात रहती है, पेट साफ़ नहं होता। ऄच्छा, गुड । पेट साफ़ नहं हो रहा ईसमं डॉक्टर को 'गुड' क्या लगा होगा ! हेष्मासीड सीरप लेना । कागज़ की पची पर अड़ी-टेड़ी रे खायं खंचकर िप्रिस्क्रप्शन िलख कदया । सप्ताह हो गया, तिबयत ज्यादा ही लड़खड़ाइ । कु छ समझ मं नहं था । ईसने कहं सूना था । िबस्तर बदल जाय तो ऄनजानी जगह पर नंद नहं अती । ईसने लेट्रीन बदला आसिलए ही । शायद मरोड़ा हो सके । नॉ ... पॉिसबल... शायद वो िमि,वो शायरी, वो... ईसका ऄसर हो तो अश्चयष नहं । वह कं प गया । ककसी मनोवृित्त का भोग तो नहं बन गया न ? दूसरी सुबह से ही ईसने हाआवे के पीछे म्युिनिसपािलटी के शौचालय की मुलाक़ात लेना शुरू ककया... हाय, सप्ताह मं तो ककतना सारा िलखा गया था... ! िचिं का भी आज़ाफा हो गया था । मन हलका फू ल-सा हो गया – जुलाब िलया हो ऐसे ! ऄब घर के लेट्रीन को ताला लगा कदया है । हमेश की माकफ़क सुबह सात के बाद जे.डी. म्युिनिसपािलटी के शौचालय की लाआन मं देखने को िमलता है ।

♦♦♦ ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

लघुकथा

एंरटक्स

तलकशी परमार

राहुल और ईसकी पत्नी िशल्पा ऄपनी कार से टूर पे िनकले थे । घूमते हुए ऄपने िमि सुरेश के घर जा पहुंचे । चाय-नाश्ता करने के बाद सुरेश, दोनं को दूसरे कमरे मं ले गया । सभी ने कमरे मं प्रवेश ककया । ईसमं बैठे सभी का पररचय करवाते हुए सुरेश ने कहा; 'नधबे साल पूणष कर चुके दादाजी और दादीमाँ हमारे साथ ही रहते हं । पंसठ वषष पूणष करने वाले माँ-िपताजी और ऄब तो साठ वषष पूणष करने वाले चाचाजी और चाचीजी भी । पररवार मं रहते सभी का पररचय कदया । पररवार वालं को भी राहुल और िशल्पा का पररचय कराते हुए कहा; 'यह िशल्पा और राहुल हं । ये लोग एंटीक्स के बहुत शौक़ीन है ।' सभी साथ बैठे और बातं करने लगे । पूरा कमरा अनंद-ककल्लोल से गूज ँ ईठा । राहुल और िशल्पा वहं पर दो कदन रुके । बुजुगं के सािनध्य मं प्यार, भावनाएं और सहारे का वातावरण देखकर ऄपने घर को ही भूल गए । तीसरे कदन शाम को ऄपने घर पहुँचे । राहुल को बचपन से ही एंटीक्स का शौक होने से सभी कमरे मं सजावट की थी । घर अने के बाद भी राहुल एंटीक्स के बारे मं ही सोचता रहा । दूसरे कदन सुबह से ही एंटीक्स बेचना शुरू कर कदया । ईन चीजं से कमरे मं जगह भी बनी और पैसे भी खूब िमले । राहुल िशल्पा के साथ ऄपने पुरखं के गाँव की ओर चला, जहाँ ईनके दादाजीदादीजी और माँ-िपताजी रहते थे । ♦♦♦ माधवनगर, सुरंरनगर-363002 (गुजरात) ♦ ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी ♦

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कहानी

झरोखा हषषद ि​िवेदी

नूरभैया ने ककराए के पैसे नहं िलए । कहने लगे, "बौरा गये हो क्या भले मानुस, तेरे से ककराया लूग ँ ा? ककतने सालं बाद देखा है तुझे ! िबत्तेभर का था तब भी तेरे से ककराया नहं िलया है तो ऄब कै से िलया जाय?" ईन्द्हं ने फतुही की जेब से बीड़ी िनकालकर सुलगाइ । खट से लाइटर बंद ककया और बोले, "लौटोगे कब?" "कु छ तय नहं, गर बुअ जाने देगी तो कल वरना परसं तो पक्का ।", ईनके मुँह से धुंएँ का गुबार िनकला । "ऄच्छा ! कफर तुम कल ही चलना चाहो तो ग्यारह बजे यहाँ पे खड़े रहना और परसं चलना हो तो सुबह साढ़े सात बजे ! " मंने िसर िहलाया । चाबुक की अवाज़ और कफर चरषरष...मररष... तांगा चल पडा । मुझे ईस घर को देखने की बड़ी बेसब्री थी । ईड़ते हुए कदमं से मं गली तक पहुंचा । ऄचानक सबकु छ जाग गया हो वैसे ककसी के घर से बछड़े के रम्भाने की अवाज़ अयी । जैसे ही मंने घर की चौखट पर कदम रखा कक बुअ भागती हुइ लेने अयी । मंने झुककर पैर छु ए । पर बुअ बलैया ले ईससे पहले ही मंने िसर उँचा कर कदया । सो ईनके माथे से मेरा िसर टकराया, धडाम-सी अवाज़ अयी । हमदोनो को बराबर-बराबर की चोट अइ । मं कु छ बोलूँ ईसके पहले वे बोल ईठी, "हाय रे मुए ! तू तो ऄब भी वैसे का वैसा ही रहा । नासपीटे, तूने तो मेरी मुंडी ही तोड़ डाली ।" मंने ईनके माथे पर हाथ रखा । वे हँस पड़ी । मं झूले पर बैठ गया । बुअ ने पूछा, "बेटे, तुझे ठीक से खाने को नहं िमलता क्या?" ईनकी अवाज़ मं सिचता थी । कफर अगे जोड़ा, "एकदम सूखकर कांटे सा हो गया है ।" मंने बात बदलते हुए कहा; "बुअ, मेरी बात को जाने दीिजए पर तुम आतनी दुबली क्यं हो गयी हो, ये तो बताओ ।" ईन्द्हं ने िसर पीटते हुए कहा, "ऄब मुझे तो मसाण मं जाना है, मोटी होकर मुझे कौन से काम करने हं ? बैठ, तेरे वास्ते मं चाय बनाउँ ।" बुअ ऄंधेरी सीलन भरी रसोइ मं गयी । मं खडा हुअ । भगवान की तसवीर के ISSN –2347-8764

पीछे फँ साये हुए पोस्टकाडष को िनकाला । सुगंधी के हस्ताक्षर कु छ-कु छ िबगड़ गए हं, पर मं पहचान गया । कु शल समाचार के ऄलावा कु छ नहं था । वह बुअ को बुला रही है ताकक बीमारी-शीमारी मं ईनकी देखभाल हो और ऄपने बच्चोे भी सँभल जायँ । पर ये बुअ – ईनसे ये घर कै से छू ट सकता है ! बुअ चाय ले अयी । मंने पोस्टकाडष परे रखा ।ईन्द्हं ने िसर पर ली हुइ सफ़े द सूती साड़ी मं से काफी सारे छोटे छोटे बाल कदखाइ दे रहे थे । ईनकी बढ़ी हुइ हजामत देखकर मंने पूछा; "बुअ, यह गणेशी ऄब नहं अता ?" एक हाथ मं थाली पकड़कर और दूसरा हाथ फै लाते बोली, "ऄरे ! ईस गणेशी ने जोरावरनगर मं नइ दुकान डाल ली है । बीवी-बच्चोे सबको लेकर चला गया वहाँ रहने ।" कफर थाली से चाय का घूँट लेते बोली, "है एक कलुअ, ईसका चचेरा भाइ । बड़ा तीसमार खां बनता है। मन हो तो अकर मूड ं जाता है वरना कफर रामराम ।" मुझे ईनके िसर पर हाथ फे रने का मन हुअ पर पता नहं ऄब ईन्द्हं ऄच्छा लगे या नहं – यही सोचकर चुपचाप चाय पीने लगा । व्यालू (रात का खाना) करने के बाद थोड़ी बातं हुइ । बुअ ने पूरे गाँव का बही-खाता सुना कदया । कफर ईन्द्हं ने ऄपनी खरटया दालान मं डाली । मुझे तो ड्योढ़ी के िनकसार मं खुले अकाश के नीचे ही सोना ऄच्छा लगा । आतने वषो मं पहली बार आस घर मं रातभर रुका था । वैसे तो यहाँ से तीसरा घर हमारा था । वह अखरी था । ईसके बाद गली बंद हो जाती थी । जब यहाँ रहते थे तब िजतनी भी बार बाहर जाना होता था तो हमं आसी ड्योढ़ी के पास से गुज़रना होता था । कौन ककतनी बार मैदान को गया से लेकर सारी हरकतं आन दो-तीन घरं की िनगाहं से बाहर नहं होती थं । पहले तो हर हफ्ते मं यहाँ अता था । कफर पढ़ाइ और नौकरी की िज़म्मेदारी बढ़ी, आसिलए अना कम हो गया। कफर भी कदल तो आसी ओर सिखचा रहता । अखरी बार कब अया था ! हँ, सुगंधी की शादी मं । लड़की का भाइ

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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जो था । सब राह देख रहे थे । सुगध ं ी ने मुझे एक तरफ़ बुलाया कफर मेरा हाथ पकड़कर बोली, "मेरे मन मं कहं था कक शायद तुम न अओ ! ईसकी मेहद ं ी रची लाल सूखष हथेिलयाँ देखकर घड़ीभर तो मेरे रंये खड़े हो गए । पर तुरंत गला खंखारते हुए कहा, "बड़ी अइ तुम ! तुम्हारे जैसी बहन की शादी हो और मं न अउँ? ये कै से हो सकता है?" वह डबडबाइ अँखं लेकर भीतर के कमरे मं चली गयी । सुगंधी नाम ईसके िपताजी ने रखा था । यूं किहये कक नाम रखते ही गुज़र गये । कु छ साल ठीकठाक चला कफर ईसकी माँ पगला गयी। अठ-दस साल पहले वो भी मुक्त हो गयी । यानी ऄसली मदष तो थी ये बुअ । खुद बाल िवधवा थं सो सबकु छ छोड़-छाड़कर यहाँ अ गयं । ईन्द्हं ने सुगंधी को तो पाला ही, साथ ही साथ ईसकी माँ का भी अिख़र तक ख्याल रखा । बुअ ने मेरी ओर करवट बदली । खरटया सिचिचया ईठी । मेरा ईस ओर ध्यान गया । वे ईठं और पानी पीया । ईन्द्हं पता था कक मं जाग रहा हूँ । मुझे पूछा – "बेटा, तुम्हं पीना है? तो ले अउँ । मंने ना कहा कफर भी लोटा भर लायी, ईस पर कटोरी ढककर मेरी खाट के नीचे रखते हुए बोली, "रात मं प्यास लगे तो घूँटभर पी लेना । जाते-जाते मेरे िसर पर हाथ फे रती गयी, "ऄब तुझे शादी कब करनी है ? ऐसे ही रहेगा तो कफर रोटी कौन पकाएगा ? मंने कु छ जवाब नहं कदया सो धीरे धीरे पैर घसीटते हुए खरटया पर गयी । मेरे सामने सुगंधी के ऄक्षर तैर रहे थे । कफर एकबार पोस्टकाडष पढ़ने की इच्छा हुइ, पर खड़ा नहं हो सका । सुगध ं ी आस घर मं और मं पास के घर मं । तीन-चार वषष के थे तब से साथ साथ बड़े हुए । स्कू ल भी साथ ही जाते थे । मं तो शुरू से ही शरारती माना जाता । मेरी शरारत के बाद सुगंधी कभी िखलिखलाकर, कभी खुराफ़ात से तो कभी कनिखयं से हँस लेती । स्कू ल से लौटते कइबार मं ऄपना बस्ता सुगध ं ी से ईठवाता । घर िनकट अते ही बस्ता वापस ले लेता । ऄगर बुअ देख लं तो शामत ही अ जाये ! हाइस्कू ल मं भी हम साथ साथ थे । पर बाद मं लगता था कक सुगंधी का ISSN –2347-8764

व्यवहार कु छ बदलने लगा है । एक-दूसरे को छू कर बात करना या बातंबातं मं धोल-धप्पा करना हमारे िलए सहज था । जब बुअ ने अँखं तरे री तब जाकर होश अया कक बड़े हो रहे हं । एक बार मं सीधे ही ड्योढ़ी मं घुसा । सुगंधी सामने ओसारे मं बैठी थी । मं भागकर वहाँ पहुँचा । ईसका हाथ पकड़कर ईठाने ही जा रहा था कक बुअ िचल्लाइ, "छू ना मत !" मं हडबडाकर रुक गया । कफर ख़याल अया कक सुगंधी तो टाट का बोरा िबछाकर बैठी थी । ईसके पास पानी का िगलास पड़ा था। ईसने एकदम िसर झुका कदया और दोनं हाथ अँखं पर रख कदये । मं हैरत मं पड़ गया । अगे दो-तीन कदनं तक मंने देखा कक बुअ को मेरा अना ऄच्छा नहं लगता था । सुगंधी भी मानं मुझे न पहचानती हं ऐसे मुझे देखती । ईन कदनं मं झूले से अगे बढ़ नहं सकता था । बीच मं ही बुअ बैठी रहती । कफर तो सुगंधी मुझसे पहले हाइस्कू ल चली जाती । मं िनकलता और झरोखे मं से झाँकने पर पता चल जाता कक सुगंधी घर मं नहं है । भीतर जाने की जरुरत ही नहं रहती । स्कू ल मं तो वही पुराना घुलना-िमलना । परन्द्तु सुगंधी ऄब अँखं िमलाकर बात नहं करती थं । कु ते के बटन से खेला करती या कु ते का गला उपर सिखचती रहती । कभीकभी तो अँख ईठाकर देखती भी नहं । पैर से ज़मीन पर लकीरं सिखचती रहती । एक कदन अइना लेकर मं ऄपने ओसारे मं ईठं ग बैठे-बैठे चेहरा देख रहा था । गाल पर चुटकी मं अ जाये ऐसे रंये को सहला रहा था । थोड़ी-थोड़ी देर मं मूँछ पर उँगली और ऄँगूठा फे रता रहता । गोपाल मंकदर की अरती के िलए रूइ की बाितयाँ बहुत बाँटी हं, पर यह मूँछ का ऄनुभव – साल्ला मजा अ गया । सुगध ं ी सामने खड़ी-खड़ी कब से मुझे टु कुर-टु कुर ताक रही है आसका ख़याल तो जब वह िखलिखलाकर हँस पडी तब जाकर अया । मं झंप गया । चड्डी को ठीक से समेटकर दोनं पैर सटा िलए । मंने देखा, ईसकी नज़र िसफष मूछ ँ पर ही नहं, मेरी चड्डी और जाँघं पर कदखाइ देते रंओ पर भी थी । ईसकी अँखं पर शीशा िचलाकाकर मं खडा हो गया । ऄपनी िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

एकमाि पतलून पहनकर बाहर िनकल गया । मंने देख िलया था कक सुगंधी ने मुझे झरोखे से देखा है । दूसरे कदन मंने माँ से कह कदया, "मेरी सारी चड्डीयाँ ककसी को दे देना, मं नहं पहनूंगा।" मेरे चड्डी-िवरोध के दंगे की ख़बर पूरी गली मं सबको हो गयी थी । सुगंधी भी जानती होगी न ? तो कफर ईसने क्यं कु छ नहं कहा ! पर वह तो कदन-ब-कदन बदलती ही जा रही थी । पहले की तरह िलपट नहं जाती थी और िबना ककसी काम से ज्यादा बोलती भी नहं थी । पारे जैसी बनती जा रही थी । ऄगर मं आस ओर से ईसके सामने जाता तो वह ईस ओर से होती और ऄगर मं ईस ओर से जाता तो वह.. ! एकबार मंने पूछ ही िलया, "सुगी, तू मेरे से नाराज़ है क्या ?" "ना रे ! तुमसे कै सी नाराज़गी ?" वह अगे कु छ नहं बोली, बस अँखं झुका ली । कफर मं भी कु छ नहं बोल पाया । वह चली गयी। मं घर से िनकलते समय ककवाड़ खोल जैसे ही गली मं कदम रखता कक सीधे ही बुअ की ड्योढी के पासवाले झरोखे मं लॉक लगा जाती । कफर पूरा-पूरा ड्योढ़ी मं कदखाइ देता ! ड्योढ़ी बंद हो कफर भी सुगंधी को झरोखे से पता चल जाता कक मं गली मं हूँ । हमारे बीच कॉिपयं का लेनदेन आसी झरोखे से होता । वैसे मं सुगंधी मं बदलाव जरूर महसूस कर रहा था । मुझे लगता था कक ईसकी िनगाह हर घड़ी मेरी प्रतीक्षा मं रहती हं । ऄपनी सहेिलयं के बीच िघरी होने के बावजूद वह मुझे देख लेती । कफर बाद मं पता चलता कक ईनकी बातं का के न्द्र तो मं ही होता था । कदन मं चार-पाँच बार तो ईसके घर जाना ही पड़ता – कभी कु छ देने या लेने या बुअ को बाज़ार से कोइ चीज़ ला देनी हो । हालाँकक मंने देखा कक ऄब ईसका चेहरा पहले-सा स्वस्थ प्रसन्न नहं लगता था । एक रात नंद मं कु छ ऄजीब बात हुइ । कदनभर दूर-दूर रहने वाली सुगंधी मेरी खाट की पाटी पर बैठी है । मं चैन से सो रहा हूँ । वह मेरा माथा सहलाती है तो लगता है कक जल रहा है । सो ईसने मेरे गले पर हाथ फे रा । कु छ देर यूंही रहने कदया तो लगा कक जैसे ईसमं झुलसती हुइ

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धरती की प्यास तड़प रही है । ईसका हाथ धीरे -धीरे मेरी छाती पर फे र रही है । लगता जैसे वह गाजर के छोटे से पौधे पर हाथ फे र रही हो । मुझे लगा कक आतने सारे बाल मेरे सीने पर ऄचानक कै से ईग अये ? ईसका हाथ लगातार घूम रहा था । मंने अँखं नहं खोली तो वह गुस्सा हो गयी । मेरे िसर के बाल दोनं हाथं से कसकर पकड़े और कफर माथे पर ऄपना माथा रख कदया । कफर मुझे भंचने लगी । ईसकी छाती का दायाँ िहस्सा मुझे छू रहा । दोचार कदन का जन्द्मा कोइ बछड़ा धीरे -धीरे ऄपना िसर छाती से रगड़ रहा हो ऐसा लगा । मेरी साँस एकदम बढ़ गयी । ऄचानक पूरी देह महक ईठी, कफर सकु चायी, तंग हुयी और समग्र ऄिस्तत्व एक ही जगह पर आकठ्ठा होकर, बँध कर कफर एक साथ िबखर गया... ईस कदन की तरह अज भी जाग पड़ा । मंने खाट के नीचे से पानी का लोटा िलया । घूँट भर पीया । लगा कक ऄब नंद नहं अयेगी। पर ऐसे ही लेटे रहने के ऄलावा कोइ चारा नहं था । सामने खरटया पर बुअ सोयी थी। यहाँ से सीधे-सीधे ईनका िसफष िसर कदखाइ दे रहा था । हल्के ऄँधरे े मं ईनकी बढ़ी हुइ हजामत के कारण िसर के बदले एक बड़ी सी साही हो ऐसा लग रहा था । खेत मं जाते कइ बार साही देखने को िमलती । मं ईसे पकड़ता तो वह ऄपना मुँह ऄंदर खंच लेती । पूरा बदन ऐसे तो समेट लेती कक ईसके सारे कांटे हथेिलयं मं चुभ जाते । तुरत हाथ खुल जाता और धप्प से साही घूल मं िगर पड़ती । देर तक िहलती भी नहं । गंद की माकफ़क पडी रहती । बुअ ने करवट बदली । सफ़े द साड़ी का पल्लू िसर पर िलया । मंने ईन पर से ऄपनी िनगाह हटायी । सामने झरोखा कदखाइ दे रहा था । ईसमं सुगध ं ी का चेहरा हँस रहा था । मं जब बाहर से गुज़रता था तब ऐसे ही सुगंधी मुझे देखती होगी ! मंने अज तक बाहर से झरोखे के भीतर देखा था पर भीतर से बाहर देखने का यह पहला ऄनुभव था ! मं झरोखे की ओर ताकता रहा – आस सुगध ं ी का चेहरा एकदम क्यं लटक गया? ईस कदन राखी थी । सुगंधी ने सुबह से ISSN –2347-8764

कलपना शुरू कर कदया था । ईसे एक भी भाइ नहं था कफर भी राखी खरीद लाइ थी। बुअ ने देवघर की ओर हाथ बढ़ाकर कहा, "गोपाल को बाँध दे !" पर सुगंधी को हाथ बढ़ाकर सामने खड़ा रहे ऐसा भाइ चािहए था । रोते-रोते बोली, "मुझे एक भाइ देने मं भगवान का क्या जाता था ?" ईसका रोना चालू था कक मं पहुँचा । बुअ की अँख मं नाराज़गी कदखाइ दे ईससे पहले वह बोल ईठी, "सुबह से भाइ-भाइ की रट लगायी है, लो यह अ गया तेरा भाइ ! बाँध आसे राखी ! ये भाइ ही तो है । ऄरे , कहावत मं कहा है न कक साथ-साथ रहे वो भाइ !" सुगंधी खड़ी नहं हुइ । ईसकी िहचककयाँ बढ़ गयं । खुद चलकर बुअ पानी के मटके के पास रखी हुयी राखी ले अयी और सुगंधी को जबरज़स्ती पकड़ा दी । पहले तो मुझे कु छ समझ मं नहं अया कफर बाद मं ईन्द्हं ने सुगध ं ी को हाथ पकड़कर खड़ा कर कदया । वह अँख ईठाकर देख ही नहं सकी । चुपचाप मुझे राखी बाँध दी । पोपले मुंह से बुअ 'हं हं हं हं’ जैसा कु छ हँसी, "देखो, ककतनी बकढ़या सज रही है ! ऄब तू आसका भाइ हुअ ! दे, ईसे अिसरबाद तो दे !" मं झंप गया । ईल्लू की तरह खड़ा रहा । हाथ पर नज़र गयी, राखी बहुत सुंदर लग रही थी पर हाथ तो मानं बबूल का ठूँ ठ ! बुअ का ’हं हं हं हं’ हँसता हुअ चेहरा मेरी अँखं मं कै द हो गया । मुझे अँखं फोड़ देने की तीव्र आच्छा हुयी । ईन्द्हंने मुझ पर मुस्कु राती हुइ अँखं जड़ दं । मुझे सामने की दीवार से िसर पटकने का मन हुअ । मेरे माथे पर ईन्द्हं ने हाथ फे राया तो ईनके हाथ की सारी लकीरं वहं िचपक गयी । मेरा राखी बंधा हाथ मुठ्ठी बन गया । पलभर मं तनकर सूखे हुए तालब जैसे बुअ के माथे पर टू ट पडू ँ ईससे पहले ड्योढ़ी के बाहर िनकल गया । दूसरे कदन सुबह नहा-धोकर बाहर िनकला। मुझे था कक सुगंधी झरोखे पर िनगाह जमाये बैठी होगी । पर यह क्या ? सुगंधी ने झरोखे मं एक बड़ी सी ईंट रख दी थी । ईस पर दूसरी ईंट रखने को ईसका हाथ बढ़ा हुअ था । अधे खुले झरोखे मं से ईसने मेरी ओर देखा । ईसकी अँखं मं से नूर िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

गायब हो चुका था । वह दूसरी ईंट रखे और झरोखा बंद हो जाएं, ईससे पहले मं वहाँ से हट गया । थोड़े कदनं पहले बुअ ने अगे की दीवार कफर से बनवाइ और झरोखा पूरी तरह बंद हो गया । पर मुझे अज भी वो जगह ज्यं की त्यं याद है । एय रहा... यहाँ पर था... – बडबडाता झरोखा टटोलने मं खाट से खड़ा हो गया कक बुअ बोली; "भैया, ऄभी तो सुबह होने मं बहुत देर है । बड़ी मुिश्कल से तीन-साढ़े तीन हुए हंगे । सो जा । खाट बदल गयी है, आसिलए शायद नंद नहं अ रही होगी ।" खड़े होकर मंने लोटे मं से पानी पीने लगा । ♦ ऄनुवाद : सिबदु भट्ट

गुजराती भाषा की सबसे छोटी लघुकथा

जीवण लाल इश्वर परमार "सुना अपने? जीवण लाल मर गये...! " "क्या...? जीवण लाल सिज़दा थे...!!"

िसद्धनाथ के सामने, देवभूिम द्वाररका, गुजरात

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कहानी

आं टेलक् े चुऄल आन्द्दभ ु ाइ महेन्द्र सिसह परमार

हे....य ! डोन्द्ट गो ऄवे ! अप सही हो मेरे भाइ ! शीषषक ऄटपटा और भ्रामक ही है । यवन भाषा से परहेज और भरंभर िजतनी न हो तो थोड़ी-सी भी ‘ऄपशोच’ ले िबना शीषषक ‘जस्टीफाय’ होता है या नहं यह कहना ही । मेरी कसम ! .... बात ही ऐसी है कक क...हा...नी... न भी बनं । तो क्या बनेगा? ‘बनना’ ककया – यह .... आस समय मुझे ईल्लू बना रही है, आस तरह ! लेर्टस सी ! देखते हं ! हाँ ... तो, शीषषक साला, भूल ही जाता हूँ ! – पहले तो ईसका पूवष पद ! ‘आं टेलेक्चुऄल’ । यानी? अप हंगे तो, - हं हं ! आप तो हंगे ही मेरे र्ाई ! – समझ ही गए हंगे ! पर तकदीर वाले ‘एवरे ज’ लोगं के िलए कहना तो पड़ेगा ही । भाआयं; आं टेलेक्चुऄलयानी बौिद्धक ! ऐसे लोग, कक जो कामू, काफ्का, रोआड, राजनीित, धमष... अकद अकद ऄसंख्य िवषयं पर कभी भी, कु छ भी कारण से, तकाषबद्ध ढंग से, चार-पाँच भाषाओं मं फराषटे से ‘ईगल देते’ हं । ये लोग ककसीको भी बात ही बात मं िमिडयोकर मान लेते हं । ईनके आं टेलेक्चुऄल सोकफस्टीके शन के – (मूअ ! आसका गुजराती तो मुझसे भी नहं होता !) – िसलिसले मं ओशो, रा.शु., िप.यु., गु.शा. के नाम बारबार ‘ईनके ओष्य पर खेलते रहते हं । ईनके ड्राआं ग रूम मं डेकोरे टेड सुनहरे -रूपहले बाआं सिडग वाली पुस्तकं के अधार पर ये लोग परस्पर आं टेलेक्चुऄल ग्राफ की कसौटी कर लेते होते हं... मरने दो, ऐसे िमिडयोकर आं टेलेक्चुऄलं की बातं करते रहंगे तो हमारे आन्द्दभ ु ाइ जी ‘कहानी’ एक तरफ रह जाएगी । नहं, नहं.... तो तो ऄब आन्द्दभ ु ाइ ही । आन्द्दभ ु ाइ यानी, आन्द्दभ ु ाइ ! ऄवटेक ?... बवटेक ? ऄरे , ऄवटेक बवटेक ईनके आं टेलेक्चुऄलपन मं लटक मटक घुल गया है। ‘होने’ के िलए है वह हो ! – कक, आन्द्दभ ु ाइ द आं टेलेक्चुऄल, ऄभी है । सिज़दा है । ISSN –2347-8764

हाय, हाय ! लो ! मं भी ! यह सब तो अप अगे चलकर जानने ही वाले हो । ऄभी से कहाँ कहने लगा? सोरी हं ! ऄभी तो आन्द्दभ ु ाइ । ऄके ला आन्द्दभ ु ाइ रुसवा लगता है । आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ । तुम्हं आतना लम्बा बोलने मं तकलीफ हो तो संक्षेप मं ‘आ.आ.’ कर लेना भाया ! मुझे तो जीभ की कफसलपट्टी से सररर... सरकते आं टे...लेक...च्यु...ऄल – के अरोह-ऄवरोह एक्च्युली बहुत ऄच्छे लगते हं आसिलए मं तो ऐसे ही बोलूग ँ ा; आं टे...लेक...च्यु...ऄल आन्द्दभ ु ाइ । आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइको आं टेलक् े चुऄल बनाने मं सबसे बड़ा योग ईनके बालं ने कदया था । मुिश्कल से चारपाँच बालं की कलगी फहराती है । बाकी चमकती झगमगाता चाँद । माथे पर िनरा तेज़ ही कदखता । आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइकी अवाज़ यानी ! गहरी.. बेजवाली । ऄिभताभ बच्चोन जैसी । (मं बारी जाउँ !)... ईस गहरी अवाज़ से आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ क्लास रूम मं प्रेमानंद, नरसिसह, मीरा, आिलयट, ररल्के की बात करते होते तब ईनकी वाणी के प्रभाव मं ककसकी है मज़ाल कक िहले? कफर भी एकबार कक्षा मं एक लड़का िहला ! आन्द्दभ ु ाइ का लेक्चर चल रहा था । लडके ने सुन्द्दर लड़की को छे ड़ा । आन्द्दभ ु ाइ की चालाक भूरी अँखं ने लडके को पकड़ िलया । ललकारा लडके को । लड़का खड़ा होकर भागा । पीछे आन्द्दभ ु ाइ । लड़का बारह कफट उँची िखड़की से कू दकर बाहर । पीछे आन्द्दभ ु ाइ । लडके को पकड़कर ही दम िलया ! कॉलेज मं आन्द्दभ ु ाइ के नाम का डंका ! – धत ! िसक्का ! परीक्षा मं नक़ल करने के आरादे से छू री लेकर बैठते लडके ; आन्द्दभ ु ाइ की अँख घूमती की यु.पी. के डकै त जे.पी. के चरणं मं शस्त्र समपषण कर देते आस तरह फ़टाफ़ट िचरठ्ठयं और छु ररयं का ढेर कर देते । ऐसी धंस आन्द्दभ ु ाइ की ! ऐस्से आं टेलेक्चुऄलआन्द्दभ ु ाइ ! देखो, भूल मत करना ! ईन िमिडयोकर आं टेलेक्चुऄलं से हमारे आं टेलक् े चुऄल आन्द्दभ ु ाइ दो तरह से ऄलग ।

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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एक तो, ईनके ड्राआं ग रूम मं सजाइ गइ पुस्तकं माि प्रदशषन के िलए नहं रखी गइ थी । पुस्तक के पन्ने पन्ने पर ईनकी आं टेलेक्चुऄल नज़र लाल पेिन्द्सल के साथ घूमी हुइ थी । दूसरी, ईनकी संवेदनशीलता । रास्ते पर िभखारी को देखकर अरष हो ईठते । जेब मं िजतने िसक्के होते दे देतं । ऄखबार मं प्राकृ ितक संकट की या टीवी पर भूकंप की खबर देखते तो बेचैन हो ईठते । कच्छ के भूकंप के समय पत्नी हसुमती ने राहत कायष मं जाने नहं कदया तो ‘रे की’ द्वारा भी ईन्द्हं ने मदद पहुंचाइ थी । हाश, माँ ! ऄब साँस ठीक हुइ । आं टेलेक्चुऄलआन्द्दभ ु ाइ का, क्या कहते हं? आसिलए यह थोडा बहुत कहा । ‘आस तरह’ कहे िबना नहं चल सकता था । आसिलए ‘आस तरह’ कहा । हाय हाय लो ईनके बारे मं िजतना जानता हूँ ईतना कहने बैठँू गा तो ईपन्द्यास की रचना हो जाएंगी ! नहं भाइ नहं, मूअ ईपन्द्यास ! हम तो कहानी कहंगे, हाँ ! ऄब ऄपनी (?) – ऄगर बन रही हो तो – कहानी मोड़ लेती है । ईसकी गित ऄब पररणामलक्षी बनने वाली है । यहाँ तक पहुँचने मं तुम उब गए हो तो भी ऄब बीच मं मुझे बेसहारा मत छोड़ना । कफर मेरा कौन ? ऄब हालांकक मं भी बीच बीच मं ज्यादा ‘आं टरकफयर’ नहं करूंगा । कफयर एक ही है कक कहं ‘लाईड’ न बन जाउँ ‘आम्पिल्सव’ न बन जाउँ ! वास्तव मं कौम और जाित के नाम लेना हािनकर सेक्युलर ऄिभगम रखूँगा । तुम तो भीतर का भेद भेदते हो, सबकु छ समझ लेना; भा....इ ! मेनोररटी और माआनोररटी जैसा कु छ नहं था तब, ऄबुधाबी मं बसे हुए एक माआनोररटी ने मेनोररटी वाली सोसायटी मं घर बनाया था । आन्द्वेस्टमंट के िलए Ι हमारे आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ और हसुमती बहन ईसी मकान मं ककराये पर रहते थे । ईनके ख़ास दोस्त जगदीश भाइ का मकान िबलकु ल बगल मं । आसिलए शेक्सिपयर और सािष, ररल्के और रामायण की बातं चुकती ही नहं थी । फरवरी – ध क्रूऄलेस्ट मन्द्थ – मं आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ ऄथषघटन मीमांसा िवषय पर व्याख्यान देने मुंबइ गए थे । ISSN –2347-8764

हसुमती देवी भी साथ थं । आस तरफ ट्रेन जली । कफर जूनन ू । घर, दुकान, स्कू टरररक्शा, मोटर, शरीर.... सबकु छ ट्रेन का िडधबा बनकर जला । जूनून आसका नाम ! आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ की सोसायटी मं भी यह जूनून जोश मं था । ईस पर सवार भीड़ की नज़र बंद मकान पर पड़ी । ‘यह मकान िवपक्ष का है । जला दो साले का मकान !’ ‘पर आसमं तो हमारे आन्द्दभ ु ाइ रहते हं ।’ ‘कोइ भी रहता हो, मकान तो िवपक्ष का है न, जला दो सबकु छ !’ चीखना िचल्लाना । पेट्रोल मं भीगे चीथड़े। हाहाकार । भड भड भड ! पूरे शहर मं साआरन बजा बजाकर ढीला-ढाला फायरफाआटर अता, तब तो .... आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ का ड्राआं गरूम और िजसका एक एक ऄक्षर वे अकं ठ पी चुके थे वे सारी पुस्तकं ऄिग्न मं स्वाहा । रामायण और महाभारत, डा-के िपटल और ग्रामर ऑफ़ पोिलरटक्स की लपटं । ‘पाटण की प्रभुता’ और ‘गुजरात का नाथ’ .... समाप् । ‘कृ ष्ण का जीवन संगीत’ और ‘ऄिस्तत्व का ईत्सव’ ख़तम । ‘सत्य के प्रयोग’ और ‘सरस्वती चंर’ ... ममाषन्द्तक काला भूरा चुरा बनकर ढेर । जगदीश भाइ ने फोन करके तत्कालीन मुंबइ से आन्द्दभ ु ाइ को बुला िलया । अते ही यह सब देखकर हसुमती ज़ोर ज़ोर से मातम मनाने लगं । ‘ऄरे रे ! कै सी बकढ़या ऄलमाररयाँ थं । ऄभी लेने जाए तो तीस हजार हो !’ आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ ऄवाक ! पूरी िज़न्द्दगी िजसके सहारे गुजारी थी ईन पुस्तकं को भूरे-काले धधबं मं पररवर्षतत देखकर टप टप अँसूं िगर पड़े । ममाषन्द्तक राख़ के ढेर मं कु छ ढू ँढ ने लगे । मुठ्ठी भरी, कांपते हाथं से खोली । खरष .. खरष.. ! अघात मं िसर-चेहरे पर हाथ फे र कदया । तेज़ से भरी चाँद राख से .... िधग्धी बंधी अवाज़ से ईन्द्हंने पूछा; 'जगदीश, तू तो पास मं ही था । देखता रहा सबकु छ ? ककसीको रोका भी नहं?' 'क्या करता आन्द्दभ ु ाइ? लाचार था । बहुत कहा, कोइ सुनता तब न? मं खुद माआनोररटी मं था । क्या करता?' घुटनं के बल बैठे हुए आन्द्दभ ु ाइ के िन:श्वास िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

ने राख ईड़ाइ । अँसूं भरी अँखं से धुंधली दुिनया को आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ देखते रहा । जगदीश भाइ की पत्नी बड़ी मुिश्कल से सबको समझकर ऄपने घर ले गइ । कचौटते मन से आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ ममाषन्द्तक भस्म की थेली सीने से लगाकर घर छोड़ने के िलए तैयार हुए । जूनून ऄभी ईसी रूप मं था, क्या मेनोररटी या क्या माआनोररटी – दोनं तरफ से धुँए के बगूले उपर अकाश मं खंजर घंपने की जल्दबाजी हो आस तरह धँसते कदख रहे थे । जगदीश भाइ की छत पर खड़े हुए मूढ़ आन्द्दभ ु ाइ सबकु छ देखते रहते । अकाश मं एक होता धुँअ हबसी पहलवानं की तरह कु स्ती करता दीखता और आन्द्दभ ु ाइ अँखं मंच देते । अँखं खुलती तब, कॉलेज मं िजन लड़कं के हाथ मं कॉपी-पेन देखी थी ईन्द्हं खंजर और एिसड बम के साथ देखकर आन्द्दभ ु ाइ को क्या से क्या हो जाता । ‘आन सबको मंने पढ़ाया ? क्या... पढ़ाया मंने ? ... यह?’ नहं, नहं, मं कहूँगा तो मां जाएँगे सब... ।’ फ़टाफ़ट सीकढयाँ ईतरकर नीचे अए । सबको रोका; ‘बच्चों ! तुम क्या कर रहे हो; तुम्हं कु छ होश है? छोडो यह सब, चलो !’ लडके कु छ देर देखते रहे कफर एक बोला; ‘सर ! यह ऄिभताभिगरी कॉलेज मं चलेगी। ऄगर जान प्यारी है तो ऄभी बीच मं मत अना !’ जान प्यारी थी आसका आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ को तब पता चला । लौट अएं । महात्मा गांधी और आसी और खंजर और अग और.... सबकु छ एक दूसरे मं िमलकर गोल-गोल घूमने लगा । चक्र बड़ी मुिश्कल से िस्थर हुअ यहाँ सामने वाली दुकान तोड़ने वाली भीड़ को आन्द्दभ ु ाइमुँह बाए देखते रहे । ताले टू टे कक हो हल्ला । ऄब ऄपने ऄपने नाप के कपडे लेने के िलए मार -झपट करते थे । ‘मारुित’ और ‘टोयटा’ गाडी धारक ‘धलु लगुन’ और ‘ककलर’ िजन्द्स मार रहे थे । खाकी कपडे वाले कोड्रॉय ले जाने की कफराक मं थे । तभी िमलटरी की गाडी अइΙ सब लोग रफू चक्कर । आन्द्दभ ु ाइ दौड़कर रोकने जा रहे थे । जगदीश भाइ ने ईन्द्हं पकड़ रखा था । ‘आन्द्दभ ु ाइ, यह

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कॉलेज की परीक्षा नहं है ।’ नीचे एक अदमी लूटा हुअ माआक्रोवेव ऑवन िसर पर रखकर जा रहा था, आन्द्दभ ु ाइ ने ईसे रोका । ‘भाइ, यह क्या लेकर चला?’ ‘यह तो घर जाकर देखना है । ऄभी तो जो हाथ मं अया वही !’ ‘पर... पर.. तुम्हं यह ककस काम अएगा?’ ‘मं जो चाहूँ वह करूँ । आसमं जूते भरूँ या गोबर भरूँ । तुम्हारे बाप का क्या? आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ ने हिथयार दाल कदए । चौबीस नंबर के पारटये पर नधबे लोगं को िजन्द्दा जला देने के समाचार से आन्द्दभ ु ाइ जड़ मूल से ईखड गए । ईनके आं टेलेक्चुऄलपन की अिख़री पहचान से दो -तीन बाल र्ी उन्हहंने नंच डाले । चौथे कदन थोड़ी बहुत शांित हुइ थी तब शहर के िमिडयोकर आं टेलेक्चुऄल अग अए। शांित सिमित बनाइ, अग्रहपूवषक आन्द्दभ ु ाइ को खंच ले गए । पुिलस चौकी की बगल मं सेआफ जगह ढू ँढ़कर सरदार पटेल की प्रितमा के असपास मानव श्रृंखला रची गइ। शांित और भाइचारे के सूि आन्द्दभ ु ाइ के िलए ऄसह्य हो पड़ा । आसिलए वहाँ से भागे । ररफ्यूजी के म्प ईनसे सहन नहं हुअ। फू ली हुइ साँसे िलए घर अए । हसुमती ने पानी का िगलास देकर माथे पर अया पसीना पंछते हुए पूछा; ‘कहाँ जाकर अएं? कहती हूँ क्या हो गया है तुम्हं?’ ‘गागी, ऄब कु छ पूछो मत !’ ‘हं ! हं ! गागी ! आं द ु चाचा हसुमती चाची का नाम भी भूल गए ।’ ‘ए... ए... िचबल्ला निचके ता ! तुम चूप मरो !’ ‘आन्द्दभ ु ाइ, नरे श है; मेरा लड़का । ईसे निचके ...ता ?’ ‘कफर भाइ जटायु । तुम तो कु छ करो ।’ जगदीशभाइ, नरे श, हसुमती सबलोग हक्के बक्के होकर आन्द्दभ ु ाइ की यह हरकत देखते रहे । हसुमती ने पानी का िगलास बढ़ाया तो ईसे हाथ से झपट मारकर फं क कदया और आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ ऄपने जले हुए घर मं राख़ से भरे कमरे मं दौड़ गए । कु छ समय तक चुपचाप खड़े रहे । बाहर िनकलकर रास्ते पर अए । मुँह टेढ़ा हो ISSN –2347-8764

गया । मुँह दानी कान तक खंच अइ थी । रास्ते से िनकलने वाले लोगं ने रोककर िहजड़े की तरह ताली बजाते जाते और कहते जाते : ‘हाय हाय रे ! ए मुअ डारिवन ! मेरे ऄंगने मं तुम्हारा क्या काम है !’ ‘मर जा मुअ िमल्टन ! ... यह... तेरा सत्यानाश जाए ... नासपीटे माक्सष !’ - ताली की आवाि दठ्ठरयोापुर के देशी बम जैसी लगती । बम फोड़ते । डर कर भागते। कफर कोइ िनकलता तो री अवाज़ से पुकारकर कहते; ‘ए मुअ ररल्के ! तुम टीशटष का नाप मत लो । बड़ा पड़ता है तुम्हं मूअ ! ... हाय हाय िनत्शे ! तुम भगवान बन जाओ ।’ - दठ्ठरयोापुर का देशी बम । रास्ते पर चलने वाले ‘िमल्टन’ और ‘िनत्शे’ कु छ देर खड़े रहते। बम सुनकर तािलयाँ बजाकर हँसते : ‘कहाँ से चले अटे हं ऐसे । -जगदीश र्ाई ने तत्काल डॉक्टर को बुलाया । डॉक्टर को देखकर ईसकी बलआयां लेते हुए बदली हुइ अवाज़ से आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ बोले; ‘अ, अ, मूअ लुट पाश्चर ! माँ बहुचर तेरी रक्षा करे । डोक्टर ने स्टेथोस्कोप हाथ मं िलया तो ईन्द्हं ने रोका; ‘रहने दे, रहने दे, यह संहार, युवान तुम ! देश तो अबाद होते हो गया; तुमने क्या ककया?’ - दठ्ठरयोापुर का देशी बम । दो बार । भयभीत हुए डॉक्टर ने ‘के स मनोिचत्सक का है’ – कहकर नौ-दो-ग्यारह होने मं ही भलाइ समझी । - .... आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ ईनकी ज्ञान मीमांसा की राख के ढेर पर तािलयाँ बजाते, दररयापुर के देशी बम फोड़ते हुए ऄभी तो बैठे हं । कहानी ऄभी अगे बढ़ सकती है । कफर आन्द्दभ ु ाइ का क्या हुअ? मनोिचककत्सक ने या कहा?... तुम्हारे आन सब आं टेलेक्चुऄल सवालं के जवाब आस समय मं तुम्हं नहं दे सकता । ..... क्या कहा? आं टेलेक्चुऄल आन्द्दभ ु ाइ के बारे मं आतना सब ओथेन्द्टीकली मं कहाँ से जानता हूँ यह ? ऄरे ... मं...रे ... भा...इ... ! तुम तो कफर बड़े आं टेलेक्चुऄल ! मूए.... नहं कहता जाओ । क्या कर लोगे? ♦ ऄनुवाद : िनयाज़ पठान िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

लघुकथा

िपतृप्रम े भगीरथ ब्रह्मभट्ट

िभखारी के रूप मं वो ऄपनी बेटी की 'कन्द्या िवदाय' के ऄवसर पर चुपचाप अया था । ऄमाप ऄतीत ईनकी बूढ़ी अँखं के सामने से सरकता था । वह बेटी को अशीष देने के िलए अया था । पत्नी का स्वाभाव और खुद ऄशक्त होने के कारण एकबार ईसने घर छोड़ कदया था । बरसं पहले एक ढलती शाम को वो ककसी को बताये िबना घर छोड़कर चला गया था। पत्नी के िजद्दी स्वभाव को ईसने ितलांजिल दे दी थी । ईनकी ककसी ने खोज न की, वो भटकता रहा । गाँव-गाँव । बाद मं तो ईनकी मृत्यु हो गइ है ऐसी घोषणा भी हो गइ । घरवाले भी ईसी तरह अदती बन गये । और.. अज वो बेटी ससुराल जा रही थी । वो खबर ईन्द्हं सपने मं िमली, और मानो बात भी सच हो गइ, गाँव मं बारात अइ थी । चार फे रे बाकी थे। वह दूर से देख रहा था । ईनकी अँखं मं अँसू थे । वो दूल्हा और कन्द्या को दूर से ही अशीष देकर चला गया ।

♦♦♦ ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी

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कहानी

मेयसष बंगला चंद ु महेररया

जब से गांधीनगर मं रहने लगा हूँ, तब से दो ही बातं के सपने अते हं, एक पुिलस के और दूसरे पाखाने के । मेहनतकशं की लगातार बढ़ती रहती बस्ती जैसे ऄहमदाबाद की पूवी पट्टी का राजपुर क्षेि, मेरा घरगाँव या वतन । बाबूजी बताते कक मजदूरी नहं िमलने पर ऄपना गाँव छोड़कर यहाँ अना पड़ा । सो जहाँ रहं वहं ऄपना गाँव । बाबूजी रिखयाल की बिनयन िमल मं काम करते । पूवी ऄहमदाबाद मं िमल-कारख़ाने की एक -एक िचमनी की छाँह मं एक-एक चाल पलती । ऐसी ही एक चाल यािन की राजपुर-गोमतीपुर की ऄबु कसाइ की चाल । वहं मेरा घर । मेरे ऄिस्तत्त्व के साथ िजस तरह से मेरा श्वसनतंि जुड़ा है । ईसी तरह ईत्सगाषतंि भी जुड़ा हुअ है । यादं को जन्द्म समय के काफ़ी करीब खंच ले जाता हूँ तो स्मृित मं तुरंत जो ईभरकर अता है, वह तो है ऄपने पड़ोस की चाल के हीरालाल के पाखाने । पेट का गड्ढा तो जैसे-तैसे भरा जा सकता पर रोज कदन िनकलने के साथ ईठती आस हाजत का क्या ककया जाये ? समस्या िवकट थी । बात दरऄसल यह थी कक हमारी चाल मं ऄपने पाखाने नहं थे । सो पड़ोस की चाल के पाखाने आस्तेमाल करने पड़ते थे । हम छोटे बच्चोे तो फु टपाथ पर कहं भी बैठ जाते पर बड़ं का क्या ? औरतं का क्या ? हमारी चाल मं ऄिधकांश लोग खेड़ा िजले के रोिहत जाित के थे, जब कक ऄन्द्य चालं मं ऄिधकत्तर लोग मेहसाणा के बुनकर जाित के थे । ये हीरालाल की चालवाले मािलकाना ऄंदाज़ मं हमं 'चणोतरा' (खेड़ा िजला चरोतर के नाम से भी जाना जाता है, याने कक खेड़ा िजले का) कहकर तंग करते । ... और वे पाखाने भी कै से? कदमचा न तो मारबल का था या न टाइल्स का । दरवाजं का रठकाना नहं । दरवाजं की िसकडी या कुं डी के नाम पर राम भजो भइ राम । कदमचे के बदले दो तरफ दो पत्थर । ईसमं भी एकाध तो टू टा हुअ होता या टू टने की कगार पर । आसिलए लगभग ितरछे होकर बैठना पड़ता । उपर से ISSN –2347-8764

दरवाजे की सांकल हाथ मं पकड़नी होती और जब बाहर कतार बढ़ जाती तो बाहर से िचल्लाना चालू हो जाता... ऐसे मं ऄगर कोइ कहता कक भीतर तो 'चणोतरा' बैठा है तो खंचकर धडाम से दरवाजा खोल डालते, लोटे का पानी िगरा देते । कतार मं खड़े हं और ऄपना नंबर अया हो लेककन ईसी समय ऄगर हीरालाल की चाल का कोइ िपद्दा सा बच्चोा भी अ जाये तो पहले ईसे जाने देना पड़ता । अप खड़े रहो कतार मं, टाँगे बदलते । सामािजक ऄसमानता का पाठ सब से पहले मंने यहं पाखाने की की कतारं मं ऄनुभव ककया था । कइबार मं सोचता हूँ कक हम दिलत लोग 'सुगंध' या 'सुवास' के बदले गंध शधद का ही प्रयोग क्यं करते हं ? दिलतं की िडक्शनरी मं 'सुगध ं ' या 'सुवास' शधद ही नहं है । गुलाब की भी बास और आि की भी गंध । कफर लगता है कक िजसने मलमूि की गंध को झेला हो ईसके संवेदनतंि मं 'सुगंध' या 'सुवास' शधद का कहाँ स्थान ? हमारी चाल के ही नहं, अज भी चालं, झुिग्गयं के पाखाने मल से भरे पड़े होते हं । और कफर हमारे पाखानं मं चूहे भी छोड़े जाते । जब पाखानं मं बैठं हो और ईसी समय चूहे मामा बड़ी बड़ी मूंछे िहलाते अ धमकते तब हम हकबका जाते । ईस पाखानं मं जब ऄपना मल िगरता तब ईसके छंटं से पूरा बदन सन जाता । जब-जब पाखानं ईफनते तब ईसकी गंध ऄसह्य हो जाती । परं तु मंने शायद ही ककसी को मुँह पर रुमाल लपेटते या हाथ से नाक बंद करते देखा होगा । जब पाखाने सडकं पर बह िनकलते तब वहाँ से गुज़रते धमाषन्द्तररत इसाइयं को मुँह पर रुमाल लपेटे देख दिलत िस्त्रयाँ हँसती और कहतं, देखो तो आन कक्रस्तानं को हीक अ रही है... पाखानं के अगे खुली जगह रहती । छोटे बच्चोे और ककशोर वहं टट्टी करने बैठते । सुबह हाजत के समय ईनके गू मं से राह बनाते बच्चोे लक्ष्य तक पहुँचने की करठन साहस यािा अज भी अँखं के अगे तैर जाती है।

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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वैसे तो पाखाने का धंधा कदनभर जोरं पर रहता परं तु जवान लड़ककयाँ और बहुएँ प्राय: रात को ही हाजत रफा करने जातं । बहु पल्लू से पानी के लोटे को ढँके रहती । ऄिधकांश िस्त्रयाँ पाखाना खुला छोड़ बैठती और साथ मं अइ ननद-भाभी या सहेली दरवाजा पकड़े पकड़े आत्मीनान से बितयाती रहती । रोज शाम ढलते पाखानं के असपास चाल के जवान लडके क्यं मंडराते रहते थे ईसका पता तो बड़े होने पर चला । चाल मं रहनेवाली ऄपनी प्रेिमका या पत्नी से िमलन-मुलाकात के िलए ईन्द्हं ककसी रे स्टोरं ट या गाडषन की दरकार नहं थी । रात होने पर पाखाने के पास खड़े रहने पर सारी िस्त्रयं का नज़ारा िलया जा सकता था । हीरालाल की चाल के पाखाने यािन आनका लव-गाडषन ! हीरालाल की चाल का बस-स्टंड आन पाखानं के पास था । ए.एम.टी.एस. ऄथाषत ऄहमदाबाद म्युिनिसपल ट्रान्द्सपोटष सर्षवस की बसं आन्द्हं पाखानं के पास खड़ी रहतं । असपास की चाल के कॉलेज जाते लडके -लड़ककयाँ पाखानं की कतार मं खड़े हं या हाथ मं लोटा लेकर अते-जाते हं, तब बस मं बैठे ऄपने सवणष सहाद्यािययं से कै से अँख चुराते – ये आन अँखं से देखा है । रिखयाल-गोमतीपुर गाँव के सवणष लडके लड़ककयाँ हमारे आस पाखाने वाले स्टंड को 'होलीवुड' कहते । कॉलेज मं जाते दिलत लडके -लड़ककयाँ आस बस स्टंड पर ईतरने से कतराते, सो एक स्टंड पहले या एक स्टंड बाद मं ईतरकर पैदल घर जाते । जब भी पाखाने ईफनते तब तो देखते ही बनता । मल और बदबूदार पानी रास्ते पर दूर-दूर तक फ़ै ल जाता । उपर से पाखाने साफ़ करनेवाली कामगार ऄिधकतर दुबली पतली कोइ िवधवा या त्यक्ता स्त्री ही रहती। ठे केदार ईसी को यह काम संपता । मंने ककतनी ही सफाइ कामगार औरतं को हीरालाल की चाली के पाखाने साफ़ करतेकरते कच्चोी ईमर मं ही दम तोड़ते देखा है । ऄहवल तो पाखाने मं दरवाज़ा ही नहं होता, या होता तो टू टा हुअ या ईसके फट्टे िनकल गये होते । कोइ मरद ऄंदर बैठा हो कफर भी ईसे सफाइ के िलए जाना पड़ता । ISSN –2347-8764

उपर से कोइ दबंग या बड़ी उँची पहुँचवाला होता तो डाँट-डपटकर ईस स्त्री को दो डधबे पानी ज्यादा डालकर धोने का अदेश देता । दीपावली की रात मं पूरी बस्ती के लोग भगवान राम के स्वागत मं जलायी हुइ मशाल और गुजराती नये साल की भोर मं फं कने के िलए कबाड़ की चीजं भी पाखाने के पास छोड़ जाते । कु छ लोग तो ये चीजं सीधे पाखाने मं या पाखाने की गटर मं डालते । सो नये साल की सुबह मं ये पाखाने िबना नागा ईफनते । मेरा घर, चाल के नुक्कड़ पर था । म्युिनिसपािलटी का हमारा गिलयारा । आसिलए हमारे िहस्से मं सबसे ज्यादा बू सहना होता था । नये साल के कदन या भाइदूज के कदन मेरे कमषशील िप्रय िमि आन्द्दभ ु ाइ जानी और हषषद देसाइ मुझसे िमलने घर अते । सुबह से माँ को और हम सब को पाखाने ईफनने का टेन्द्शन रहता । माँ ईठते ही लोहे का पतरा या झाडू लेकर गू-मूत साफ़ करने मं लग जाती। साफ़ करते-करते बोलती रहती, गािलयाँ देती रहती । ककतना ही पानी डाले पर गंध ऐसे थोड़े जाती । नये साल के कदन ऄपने िमिं का स्वागत हमं आसी बू से करना होता था । पूरे घर मं ऄगरबत्ती जलाते, पर आस बू के अगे ईस बेचारी की क्या औकात। अमीरखान की ऑस्कर नोिमनेटेड 'लगान' के बारे मं तो ऄभी-ऄभी सुना । पर मुझे तो पाखाने के लगान का पररचय था । हीरालाल की चाल के ही कु छ उँची पहुँचवाले या दबंग लोग हर महीने हमारे घर पाखाने का टैक्स ईगाहने अते । अनेवाला व्यिक्त शराब चढ़ाकर अता । गािलयाँ बकते-बकते पैसे माँगता । ऄगर कोइ कहं कक ऄभी तनख्वाह नहं िमली तो ईसकी शामत अयी समझो । कइ औरतं अँचल पसारतं, िगड़िगड़ाती और पाखाना का लगान देती जाती । जब मं कु छ सयाना हुअ तब मंने मन ही मन तय कर िलया था कक पाखाने का कु छ करना होगा । ऄपनी चाल के िलये ऄलग पाखाने बनाने का मेरा ऄल्प प्रयास मेरी सावषजिनक प्रवृित्तयं का प्रारं भ था । राजपुर मं अबादी बढ़ने के साथ-साथ रास्ते चौड़े करने का मुद्दा ईठा । हीरालाल िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

की चाल मं पाखाने रास्ते के प्लान मं अये सो मरदं के पाखानं की दो कतारं तोड़ दी गइ । ईस समय मेरे जैसे कआयं को ऄपना घर टू टने जैसी पीड़ा हुइ थी । आन सभी चालं मं पेशाबघर की भी ऐसी ही तकलीफ थी । हमारे आलाके के एक सवणष डॉक्टर दूर गोमतीपुर गाँव के पेशाबघर तक जाते । क्यंकक चाल के पेशाबघर तक पहुँचना असान नहं था और आन पेशाबघरं की दीवारं पर कु छ ऐसी तो िचकनाहट िचपकी रहती और ऐसी तो बदबू अती कक क्या बतायं ? एक ऄन्द्य डॉक्टर िमि आं जेक्शन रूम का परदा डालकर ऄस्पताल के भीतर ही पेशाब कर लेते । म्युिनिसपािलटी ने ऄहमदाबाद की चालं और झुिग्गयं के घर-घर मं शौचालय बनाने की योजना बनायी । आसमं ऄस्सी प्रितशत खचष कोपोरे शन का और बीस प्रितशत खचष मािलक का । आस योजना के तहत हमारे घर भी पाखाना बना । पाखाना बन रहा था ईन कदनं एक चुटकु ला ही हो गया । रोज साग-सधजी लेकर अती कुं जिड़न एक ही पाखाना बनता देखकर माँ से पूछ बैठी कक क्यं एक ही पखाना बना रही हो ? लुगाआयं के िलए ऄलग से नहं बनेगा ? बेचारी औरत यही समझती थी कक घर मं भी मदष और औरत के िलए ऄलग-ऄलग पाखाने बनंगे । जब बकढ़या-सा सफ़े द टब, चमकती टाइल्स और ईसकी बाडषर पर बनी िडजाइन के साथ पाखाना तैयार हुअ तब हम लोग चककत हो गये । मेरे घर की छत लोहे की चादर से बनी कच्चोी है पर पाखाना और बाथरूम पक्की छत वालं है । घर मं फशष सीमेन्द्ट का था पर पाखाने मं बकढ़या टाइल्स थी । सच बताउँ तो ईस समय घर मं एक माि साफ़-सुथरी जगह वही थी, जहाँ बैठकर भोजन करने का मन हो ! धीरे -धीरे घर-घर मं पाखाने बनने लगे, परं तु हीरालाल की चाल मं पाखाने ऄपनी तमाम गंदग़ी के साथ बदस्तूर कायम रहे । कइ कमषशीलं और युवकं ने आन पाखानं को तोड़कर ईसी जगह कम्युिनटी हॉल, दूकान या बालमंकदर बनाने की कोिशश की (पेज नं. 40 पर)

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चररि िनबंध

रहीम चाचा ऄिनरुद्ध ब्रह्मभट्ट

दोपहर के बारह बजने को थे । ट्रेन थोड़ी देर से थी । मुंबइ से अते और ऄमदावाद जाते 'सौराष्ट्र एक्सप्रेस'मं से सुरत स्टेशन पर मं ईतरा । प्रत्येक शिनवार को मं आसी ट्रेन मं िबिलमोरा से सुरत एम.ए. की क्लास लेने अता । ट्रेन मं से ईतरकर प्लेटफ़ॉमष पर हहीलर के बुक स्टॉल पर कोइ नइ पुस्तकं अयी हो तो देखने के िलए खड़ा रह जाता । ईतने मं स्टेशन के बाहर िनकलने वाले मुसाकफ़रं की भीड़ भी कम हो जाती । स्टेशन से बाहर िनकलकर सामने ही 'रूपा' मं चायनाश्ता लेकर कॉलेज जाता कक वाहन पास मं ही मरासी कॉफे मं चाय-नाश्ता करने का िवचार करता था कक वहाँ से एक टाँगे वाले चाचाने अकर कहा; 'चिलये सा'ब, कॉलेज पर छोड़ दूँ ।' मं चंक गया । आसे कै से मालूम पड़ा कक मुझे कॉलेज जाना है? 'ककसने कहा कक मं कॉलेज जा रहा हूँ ?' 'पहले दो दफ़े अप मेरी गाड़ी मं बैठ के कॉलेज गए थे । अप आसी ट्रेन से अते हं और शाम को बलसार-पैसंजर लौटते हं ।' गाड़ीवाले ने भी कमाल कर कदया ! मुझे सपने मं भी ख्याल नहं था कक मेरे अनेजाने की कोइ जानकारी रखते हंगे ! चाचा मं मेरी रूिच बढ़ी । 'चिलये ।' टाँगे के िपछले सीट पर मं थोडा तेडा सा बैठ गया । ताँगा नरसिसह मेहता की वे'ल (बारात की गाड़ी) जैसा । छप्पर मं से धिज्जयाँ ईड़े । सीट का रे क्जीन कवर के इ जगहं से फटा हुअ । पैर रखने की चौकी भी टेड़ी सी हो गइ थी । ताँगा गित मं हो तो पिहये ककचूड ककचूड अवाज़ करते । ताँगे मं कहं कोइ रठकाना नहं । मगर टर्टटू (घोड़ा) ऄच्छा । देखते ही पता चलं कक ईनकी संभाल ली जाती होगी । चाचा की ईम्र पचपन के असपास होगी । चेहरे पर झुर्टरयाँ थं । दाढ़ी के बाल सफ़े द । शरीर सूखलकड़ी । अँखं मं नमं-ऄमी कदखं । लाआसिनग वाला पजामा और सफ़े द कमीज़ पहना था। कमीज़ पर था टाँगे वाले का ख़ाकी कोट । ताँगा चलते ISSN –2347-8764

ही चाचा की 'डच डच' अवाज़ शुरू हो गइ थी। ऐसे िनरं तर अवाज़ करने की अदत से शायद चाचा का मुंह दाइ तरफ टेड़ा हो गया था। 'क्या नाम तुमारा, चाचा ?' 'रहीम ।' 'सभी पैसंजरं का ख्याल रखते हो क्या?' 'नहं सा'ब ।' – कहकर वो हँस कदया । 'कभी कोइ ईतारू नज़र मं बैठ जाता है ।' कफर से डच डच अवाज़ । मार कदया आसने तो ! मं क्या कहूँ? आं सान भेदी होगा या िबलकु ल सरल होगा ? ऄठवा लाआं स तक की हमारी खेप लगभग ऄशधद ही रही । कॉलेज थोडा दूर था और मंने गाड़ी रुकवा दी । दाइ तरफ सामने ही था मैसरू कॉफे । जहाँ मंने गाड़ी रुकवाइ थी वहं था टाँगे वालं का स्टंड । नीचे ईतरते मंने कहा; 'चिलये चाचा, चाय पीकर जाआये ।' मेरे मन मं था कक चाय पीते पीते कोइ बात होगी, ईसमं से रहीम चाचा के बारे मं ज्यादा जान पाउंगा । 'नहं सा'ब, अप जाआये । कफर िमलंगे ।' 'तुम मेरे साथ चाय िपओगे तो मुझे खुशी होगी !' कहकर मं खड़ा रहा । थोड़ी हाँ-ना के बाद रहीम चाचा नीचे ईतारे , घोड़े को घास डाला और हमने सड़क पार करके कॉफे मं प्रवेश ककया । दरवाजे के पास वाली सीट मं चाचा बैठे, जहाँ से टाँगे को ठीक से देखा जाएं । मं ईनके सामने बैठा । मं देख सका कक ऐसे कॉफे मं आस तरह चाय-नाश्ता लेने मं ईन्द्हं संकोच हो रहा था । 'बोिलये रहीम चाचा, मं तुम्हारी नज़र मं क्यं बैठ गया ? 'बोिलये रहीम चाचा, मं तुम्हारी नज़र मं क्यं बैठ गया ?' 'कोइ ऐसी बात नहं सा'ब । मं समझ सकता हूँ कक अप कॉलेज मं पढ़ाते हं और आसी कॉलेज मं मेरी लड़की भी पढ़ती थी । हो सकता है ईसकी पढ़ाइ अपके पास हुइ हो ।'

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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ऄंतत:पढ़ाइ सन की 1997 'क्या ईसनेके?'साल मं बम्बइ की रमाबाइककया 'बी.ए. कॉलोनी ईसने ।'मं डॉ. अम्बेडकर की प्रितमा ?' 'िवषय को खिण्डत करने के मामले मं जब देशभर 'मं नहंकेजानता दिलत ।भड़क पढ़ाइईठेके, ईसी बाद िसलिसले ऄमरीका मं ऄहमदाबाद गइ । ऄब घर पर औरहैगु।जकहं रात ऄच्छी मं भी 'बं नौकरी द' के एलानजाय..' िमल कदए कफर गये कहा; । ईस'क्या रातज़माना दिलतं अया के गुस्।साएं है सा'ब, गुटऄब रास्तं तो पर मुसलमान ईतर अये की ।बेटयुीवभी कं को ऄपना नौकरी करतीअक्रोश है !' िनकालना था, पर िनकले ककस 'ऄमरीका पढ़ाइतरह? के िलएअिखर गइ थी ?' ककसी को कदल्लगीके सूिलए 'पढ़ाइ झी तो कहाँईसने ... शादी हीरालाल की थाकी ।' चाल के पाखाने 'कफर ?' तोड़ने का प्रस्ताव रखा और कफर तो समूचहो 'तलाक ी वानर गइ ।'सेनबोलकर ा टू ट पडी ईन्द्।हंपलभर ने बड़ी मं तो सपाखाने साँ ली । ईनकी नेस्तोनाबू अँखदं मंहोअँगये सू डबडबा । ईनकी ने मल ।सेमेसनी लगे रे मनईंटं मं एक भी तरफ लोग बात ईठाकर जानने घर का ले गये ।हल था और दूसरी ओर ऐसा भी था कौतू कईं आस कक कदनं बाततक को मु चचाष झे खंचनी चली कक नहंयहाँ चािहए। क्या बनवायाके जाये 'िवषय िबना ? सर्षवस पाखानेके चाल बारे की मं मंऄपनी क्या िमिल्कयत कहूँ ?' मंनेथी पूछ।ासो और चाल हमकेखड़े बासिशदे हुए ।जो ऄलग तय करं वही हुए – कफर सहीिमलं । एक गे मत ऐसे था भावं कक ऄब के साथ तो घर। -घर ईन्द् हंनेपाखाने गाड़ी बनघुमगए ाकरहै हाथ इसनलएईठाकर वहाँ दुबारा पाखाने िहलाया और मंन बनाने े कॉलेका ज का क्यारास्ता मतलब? िलया। तो कु छ लोग ईसके बाद केईसी शिनवार जगहकोदुस्टे बारा शन केपाखाना बाहर बनानाचाचा रहीम चाहतेमेथेरा। ऄं आं तज़ार त: वहाँ करके 'पे एन्द् खड़े ड यू थेज।' शौचालय गाड़ी मं बैयोजना ठते ही केमंनतहत े कहा,पाखाने 'कोइ बनाने दूसरा कासंजिनणष पै र...'य िलया गया । सालभर मं तो बकढ़यासा'ब 'नहं शौचालय । सामनेतैय बस ार खड़ी हो गये है और । दीवारं ररक्शे और फशष वालं ने हमारा पर चमकते धंधा टाइल्स, ख़त्म करप्रवे कदया शद्वार । मुपर झे सुंदर फूहैलं लगता कककेमं गमले भी सर्षवस , नये रंकरू ग-रूप ँ । लेकेककन साथ मं नया काम कोइ सिसगार का नहं...' करके खडा है अज ये शौचालय 'ऐसा नहं है। चाचा, ईसके खुरंद गा-रुप ने सब देखकेकर िलयेवहाँ ...' शौचकक्रया केसे बदले 'आमानदारी काम सोच-िवचार करता हूँ, लेककरने कन मेकी री प्रेरणा िमलाबेऐसा पढी-िलखी टी नेहंकौन । ईसमं सा जाने गुनाहके ककया िलए नकद था ?' एक रूपया चुकाना पड़ता है । िमल बंद हैहुअ 'क्या , कारखानं था ?' मं मंदी है । पूरा आलाका गरीबी 'कु छ समझ औरमं नहं बेरोजगारी अता । चपे लड़की ट मं गृप हैऔर। आसिलए से क्स कहा'पेकरती एन्द्डहै ।यूऔर ज' कु शौचालय छ कहती का ही ईपयोग नहं है । शायद एक दफ़ेहीिमिलये होता है, शायद । अप की जब-जब समझ मं अ राजपु जाय...' र जाता हूँ, तब हीरालाल की ककसी चालके केिनजी पाखाने जीवन की जगह मं रूिच खड़ा लेनयेा नूठीक तन शौचालय नहं ऐसा मेमानकर री अत्मा मंने बात को कचोटता बदली । है । हमारे 'चाचा, आलाके ताँगमं ा गाडी आतने सु चलने ंदर-स्वच्छ का मुझरंेगबहुत -रूप वाले शौक मकान है । ककसीबहुत कदन...' कम है । आसिलए सु'ऄरे शोिभत , सा'ब,शौचालय अप क्यं को चलाएं हमने गे ? चलाने 'मेयसष बंवाला गला' नाम मं बैठकदया ा हूँ ।है घू। मऄहमदाबाद ने का शौक मंहै ऄब तो तोडु म्एक मस जायं नहं गऄने े ।' क जगहं पर ऐसे 'मेयसष बं'कब गलो'?'देखता हूँ । हीरालाल की चाल के पाखाने के सपने रात-बेरात मुझे नंद से ISSN –2347-8764

जगाते 'जब जी हं और चाहे ऄपने ।' बारे मं कु छ िलखने के िलए ये बातचीत मजबूर करते चल रही हं । थी ऐसे मं चाचा ने एक िचिी मेरे हाथ * * *मं रख दी । ईसमं िलखा था; 'बी.ए. सेकण्ड क्लास । िवषय ऄनुवाद : िबन्द्द ु भट्ट िहन्द्दी और मनोिवज्ञान ।' और कु छ नहं िलखा था। ऄक्षर ऄच्छे थे । कफर कॉफे मं चाय-नाश्ता और पहले जैसी ही िवदाय । ईसके बाद चार सप्ताह तक चाचा कदखे ही नहं । दूसरे पैसंजरो को लेन-े छोड़ने मं शायद समय पे नहं अ पाए हंगे। एक शाम को बस मं बैठकर मं कॉलेज से स्टेशन की तरफ जा रहा था तब एक चौराहे के पास चाचा की गाडी पर मेरी नज़र पड़ी । ईतरकर मं वहाँ गया । मुझे देखकर ईनका चेहरा िखल ईठा । 'घूमने चलंगे ?' 'चलं ।' डु म्मस जाने का िवचार था मगर देर हो गइ थी । रांदरे का रास्ता िलया । हॉप पुल ईतरने के बाद चाचा ने लगाम मेरे हाथ मं दे दी । टर्टटू खचकाते खड़ा रह गया ! 'देखा, ईसकी समझ मं अ गया ।' कफर चाचा की लाक्षिणक 'डच डच' अवाज़ शुरू हुइ आसिलए टर्टटू चला । हररओम अश्रम तक हमने चक्कर लगाया होगा । कफर लौटते चौराहे से ऄशक्ताश्रम की ओर का रास्ता िलया । बीच मं एक जगह टर्टटू ने चाल बदली और खचकाते खड़ा रह गया । 'क्या हुअ ईसको ?' 'मेरा घर अया...' कहाँ ?' 'ये रास्ते पर...' 'चलंगे ?' 'अप मेरे गरीबखाने मं...' 'ऐसा मत कहो, चाचा । खुदा की नज़र मं कोइ गरीब नहं कोइ ऄमीर नहं...' संकोच के साथ चाचा ने गाडी घर की ओर ली । मेरे ईतरने से पहले ईन्द्हं ने घर मं जैसे दोट लगाईं । कफर तुरंत लौटकर कहा; 'अआये, बैरठये ।' घर मं गरीबी कदखती मगर स्वच्छता ईसे ढांक देती थी । कु छ देर मं ईनकी बेटी अइ । ऄत्तर का िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

गाला ही देख लो । नमस्ते करके वो सामने बैठी । धीरे से कहा; 'पप्पा ने सर, अपके बारे मं बात कही है और नाम से तो मं अपको जानती हूँ ।' लड़की शुद्ध गुजराती बोलती थी ये देखकर मेरे अनंद-अश्चयष का पार न रहा । वाणी मं िववेक था । परदेश की धरती पर पैर रखकर अइ थी आसिलए ईनमं थोड़ी सी प्रगल्भता भी अइ थी। 'हाल मं क्या करती है ?' 'ककसी स्कू ल मं सर्षवस िमल जाएं...' कु छ देर मं ईनकी माँ अकर बैठी । 'सर्षवस की क्या जरुरत है ?' 'कु छ तो करना पड़ेगा न ?' 'शादी ?' 'एक ककताब पूरी हो गइ ।' यकायक ईसने भाषा बदली । 'ऐसा क्या हो गया ?' 'धोखा...' क्या बोलूँ वो मेरी समझ मं न अया । कफर ईनकी माँ से बात करते हुए मं आतना जान पाया कक ऄमरीका मं ग्रीन काडष वाले एक युवक से ईनकी शादी हुइ थी और दोनं के बीच मनमेल न होने से छः महीने मं लड़की लौट अइ थी । 'शादी के वक्त लड़का यहाँ अया था ?' 'नहं । मं ईसको पहचानती थी । मेरी सहादत और ऄधबाजान की वकालत ले के दो संजीदा के साथ मं न्द्यूयॉकष गइ । सब बंदोबस्त ईसने ककया था । एक भाइसा'ब ने मेरे पप्पा के रोल मं वहाँ िनकाह पढ़ा और शादी हुइ ।' लड़की अवेश मं बोल गइ। फारसी गुजराती ऄंग्रेजी शधदं का ऄदभुत िमश्रण ईनकी वाणी मं था । 'कफर ?' 'वहाँ तो सा'ब मेडनेस है । क्लब म्युिज़क से तो मेरा सर कफर गया । मंने वहाँ क्लब मं डान्द्स भी ककया । यहाँ पढ़ती तब गरबा बहुत ककया था आसिलए डान्द्स मं ज्यादा तकलीफ़ न हुइ, मगर....' 'मगर....' 'अपको क्या बताउँ सर, वहाँ तो गृप सेक्स है । जुली के िलए मुझे एक्सचंज मं... ईसने फ़ोसष ककया...' कहकर वह चुप हो गइ । ईनकी अँखं मं पानी अ गया । कफर बोली; (पेज नं. 40 पर)

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कहानी

व्यथा के बीज िहमांशी शेलत

अज की तरह ईस रोज भी खूब बाररश हो रही थी । पानी से लबालब भरे बादल सुबह से ही अ जुटे थे । और उपर से अँधी-तूफ़ान के साथ ऐसी बाररश हो रही थी कक सारे के सारे घर ही बह जाए । मूसल धार बाररश की मार से बचने के िलए धरती काँप रही थी । वह दोनं भाआयं के साथ स्कू ल गइ थी, लेककन छु ट्टी हो जाने के कारण वे तीनं पाने मं छप-छप खेलते हुए घर वापस अ गए थे । 'मंने कहा कक अज बच्चों को मत भेजो, एक कदन मं ऐसी क्या पढ़ाइ कर लेने वाले थे । आतनी बाररश मं बेचारे एकदम भीग गए...' माँ ने िपताजी को क्रोध मं डांट कदया था । कफर तुलसीपोदीने की चाय बनी थी और साथ मं गमष-गमष मुरमुरे । 'िसर मं पानी जाने से सदी लग जाएगी' कहते हुए माँ ने सूखे तौिलये से िसर ऄच्छी तरह पंछ कदया था । 'बाररश तो शाम तक होती रही थी, पर घर मं बहुत ऄच्छा लग रहा था, हल्का सा उष्मा भरा । दीवारं तो पानीभरी नरम-नरम बदिलयंसी बन गयी थं । कफर भी कहं से उष्मा पहुँच रही थी । वह भरत और नयन के साथ बाहर जाती कफर वापस भीतर अ जाती थी । छत से पानी के परनाले बह रहे थे और ईसके छंटे गाल, अँखं को िभगो रहे थे । भरत, नयन की कागज की नावं पानी मं ईलट जाती थं । िपताजी शांित से पढ़ रहे थे । रात के खाने मं माँ प्याज के छंकवाली िखचड़ी बना रही थी । ऄभी-ऄभी ताजी ऄधिखली मोगरे की किलयं मं से एक फू ल ईसने हाथ मं िलया था, ईस कदन का सुख भी ईस मोगरे के फू लं की तरह महक रहा था...' माँ भरत, नयन के साथ ही रहती थी; ईनके घर नहं अती थी । लड़की के घर भी कहं रहा जा सकता है- माँ की हमेशा की दलील । 'पर मंने शादी नहं की है, लडके की ही तरह नौकरी कर रही हूँ । मेरा ऄपना घर है, सुिवधाएँ हं, कफर मेरे यहाँ क्यं नहं? वह िजद करती । माँ के पास सौ बहाने थे । भरत की संतानं को कौन देखेगा, नयन की तिबयत ठीक नहं रहती, िपताजी को भी यहाँ की हवा ऄनुकूल ISSN –2347-8764

अ गइ है, ऐसा कहने के िलए बहुत कु छ ईनके पास था । माँ कभी भी ईसकी अँखं मं अँखं डालकर बात नहं करती थी । भरत और नयन की बात और थी । वे दोनं ऄपने ही संसार की छोटी-मोटी सिचताओं से बंधे हुए, ऄपने-ऄपने पररवारं की परे शािनयं मं डू बे रहते । माँ के िलए ईनके पास समय ही नहं था, आसिलए माँ ईनके साथ सुख से जी रही थी । छोटी टीनू या वासव को पररयं और राक्षसं की कहािनयाँ सुना कर के , कथा-श्रवण मं जाकर ऄपने अप बड़े सुख और शािन्द्त से जीवन िबता रही हो ऐसा कदखा सके । 'वैसे भी ऄब मुझे और क्या काम है? भगवान का नाम और आन संतानं की सेवा, समय भी ककतना ऄच्छी तरह कट जाता है, तुझे क्या? तेरे नौकरी पर जाने के बाद मं ऄके ली भूतनी-सी सारा कदन क्या करूंगी? भरत, नयन के साथ रहना ईसे ऄच्छा लगे भी कै से ? दोनं मररयलसे, माँ के साथ घडीभर बैठ भी ले ऐसे नहं है, और कफर गमष कदमाग के हं, ईसके बावजूद माँ । ईस कदन भी दोपहर मं बाररश का ऄंदेशा था । सुबह से ऄच्छी धूप, िपघलते हुए सोने की तरह थी । ऄचानक अकाशा मं पहाड़ जैसे काले काले बादल ईमड़ अए । 'वृन्द्दा, बाहर से कपडे समेत ले, ये बादल तो ऄभी बरसने वाले ही हं..' माँ की अवाज सुनकर वह बाहर गइ और हवा मं झूलते कपडे मुिश्कल से समेटे । माँ पुरानी ऄलमारी खोलकर बैठी थी । पीली पडी तसवीरं , सालं पुरानी गंध समेटे हुए कपड़ं की थािप्पयाँ, जंग लगे िडधबे, ककसी शादी-धयाह मं िमली भेटं की सूची, पुराने िहसाब की डायररयाँ, शुभ-ऄशुभ ऄवसर मं बाजार से मंगायी गयी चीजं की सूची, फीके पड़ गए स्याहीदार ऄक्षरवाले कागज़... ईसकी रूिच जागी और वहं बैठ गइ । दो-चार पुस्तकं भी िनकलं । संभवत: िपताजी की पढ़ाइ के समय की रही हंगी, शेक्सिपयर के नाटक भी िनकले, रोिमयो-जुिलयेट, हेमलेट.. ईसने यं ही लापरवाही से पन्ने पलते और एक छोटी-सी तस्वीर

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सरककर नीचे िगर पडी । एक िबलकु ल ऄपररिचत पर ऄत्यंत ख़ूबसूरत मुखाकृ ित ईसके सामने मुस्कु रा रही थी । आतना ऄिधक रूप लेकर आस पररवार मं कौन अया होगा? शायद माँ पहचानती हो यह सोचकर ईसने माँ से पूछा : 'यह कौन है? पहचानती हो?' 'िववाह के समय का तेरे िपताजी का यह पीताम्बर ऄभी भी ककतना सुन्द्दर... ।' कहते-कहते माँ तस्वीर के सामने देखते ही चुप हो गइ । 'नहं पहचानती तू? माँ को एकदम मौन देखकर ईसे लगा की यह शायद ककसी ऄपररिचत व्यिक्त की तस्वीर होगी । माँ को एकदम मौन देखकर ईसे लगा कक यह शायद ककसी ऄपररिचत व्यिक्त की तसवीर होगी । ईस क्षण पूरी बाजी माँ के हाथं मं थी । ऄगर ईसने कह कदया होता कक नहं मं आस तसवीर को इ पहचानती तो बात वहं ख़त्म हो जाती । लेककन माँ ऐसा न कर सकी । सालं से कदल के ककसी कोने मं दबाए राखी वह छोटी-सी बात कहने की जैसे ईसे आच्छा हो अयी । हालांकक तब भी ईसकी अवाज़ मं जरा सा भी कं पन नहं था । 'यह पुष्पा की तस्वीर है । तेरे िपताजी पुष्प से िववाह करना चाहते थे । ईस समय ईन पर पागलपन सवार था और बड़ा ही बखेड़ा हुअ था । मगर दादाजी ने यह होने नहं कदया । रहा होगा कोइ कारण, पर ईसके साथ िववाह नहं हुअ तो नहं ही हुअ...' वह माँ के सामने चुपचाप देखने लगी थी । 'मुझे पता था मंने साफ़-साफ़ कह कदया था कक िजस व्यिक्त को मुझ मं रूिच नहं है ईससे मुझे संतान नहं चािहए, ऐसा बोज मुझे नहं ईठाना... ईस बात को लेकर खूब कहासुनी हुइ थी । ईन कदनं ऐसा लग रहा था कक सन्द्यािसनी हो जाउं । पर कफर तो भरत का जन्द्म हुअ और कफर...' माँ के शधद टू टते जा रहे थे । 'ितस पर तेरे जन्द्म के समय तो जी को आतना क्लेश हुअ था कक-' कहते-कहते माँ की बात ऄधूरी रह गइ थी । ईसने भी कु छ नहं पूछा । ऄनायास ही ईसके पैर दहकती रे त मं जा िगरे थे । 'ईस िखड़की को बंद ISSN –2347-8764

कर दे नहं तो सब कु छ भीग जाएगा ।' और वह ईस िखड़की को बंद करने के िलए गयी थी तब बाहर कु छ भी कदखाइ नहं दे रहा था। लगातार होती बरसात ने असपास की सारी दुिनया को पूरी तरह से ढ़क कदया था । ईस भी हुइ दोपहर के बाद जीवन थोडासा बदल गया था । ईसके बाद माँ कभी भी ईसके चेहरे के सामने देखकर, अँखं मं अँखं डालकर बात नहं कर पाती थी । ककसी बात से डर रही थी, कु छ कहना टाल रही थी । माँ को जो भी डर रहा हो वह ईसे तो खबर ही थी कक ऐसी बात ककस के सामने कहं नहं जा सकती । िपताजी पुष्पा से िववाह नहं कर पाए यह तो ठीक है, ऐसा तो होता ही रहता है, लेककन भरत, नयन और वह स्वयं – सब िबन चाहं यं ही पृ्वी पर अ गए । भगवान के कदए हुए और िमन्नतं से माँगे गए ऐसा कु छ भी नहं था। क्या बीज घोर व्यथा और भयंकर नफ़रत से बोए गए थे? और ऄगर माँ का बस चला होता तो वह फू टे ऄंकुरं को भी खंचकर बाहर फं क देती । िनरी लाचारी ने ईसे रोक रखा होगा ताकक भरत-नयन और िवषलता के समान वह स्वयं यहाँ पर पल सके । नयन और भरत आस बात को समझ ही नहं सकते । नयन तो के तकी के प्रेम मं डू बा था और आर प्रेम के नए-नए होने के कारण के तकी के ऄलावा ऄन्द्य कु छ भी क्यं सूझता ! भरत पैसे के प्रेम मं और ईसमं भी नया-नया प्रेम; यानी होश खो बैठा था । दोनं मं से ककसी को कु छ भी बताने जैसा नहं था । माँ ने लाचारी मं बोझ ढोया होगा । सबसे ऄिधक ईसका, क्यंकक वह थी तीसरी, माँ की तीव्र ऄिनच्छा के बावजूद जन्द्मी हो मानो । िबलकु ल ऄनचाही । वह ऄनचाहत का िवष स्वयं के खून मं घुलाकर जन्द्मी थी। पैदा होते ही रोयी होगी तब माँ ने ककतनी घृणा से ऄपनी नज़र फे र ली होगी... ऄब तक जो समझ मं नहं अया, वह सब कु छ ऄब समझ मं अ रहा था । िपताजी की ईपिस्थित मं माँ की गहरी चुप्पी, घर का ईदासीन वातावरण, ितरस्कार और बोररयत सी बासी लगती हुइ दवा, कभी िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

िबखरे शधदं मं बंधता हुअ क्रोध ! आसिलए वह बरसाती शाम ईसकी स्मृितयं मं िलपटी बैठी है । सुख के ऐसे पल ईसके पास ऄब कहाँ थे । ईसे लगा था कक दुिनया चाहे प्रलय मं डू ब जाये, परन्द्तु ईसका घर आस प्रकार सुरिक्षत, स्नेहपूणष सुख मं ईसे सहलाकर ऄिडग खडा रहेगा । और िसर को सहलाती माँ की ईं गिलयाँ, हथेली मं महकता हुअ मोगरे का छोटा सा फू ल, अँख और गाल पर ठं डे पानी की िगरती बूंदे... सुख का यह पररपूणष पल ईससे ऐसा तो िचपककर रह गया था कक अकाश मं बादलं के साथ ईमड़ते ही वह िखल ईठती। अज भी ऐसी ही बरसात । फोन डेड । ककसी पररिचत की दूकान से नयन ने फोन करके ईसका ऐड्रेस और संदेश कदया । डोर बेल बज ईठी तब आस बरसात मं कौन अ धमका होगा वह दुिवधा मं थी । टपकती बूंदं वाली छतरी को एक तरफ करके ईस ऄनजान अदमी ने वह संदश े कदया । संदेश मं कु छ भी छु पाया नहं था । नयन ऐसी बातं मं िबलकु ल स्पष्ट और व्यावहाररक है । सीधी सी बात थी कक अज सुबह माँ का देहांत हो गया । और दोपहर को ऄंत्येिष्ट । तुम्हारी राह देखी जा रही है । माँ वैसे भी कभी ईसकी राह देखती थी? तुरंत ही िनकलना हुअ । रे ल का कोइ रठकाना नहं था । देरी से ही पहुँची । पर ईसकी राह देखते सभी बैठे थे। वहाँ भी हलकी-हलकी बरसात तो थी ही । जमीन पर माँ लेती हुए थी । िपताजी, भरत, नयन, सभी िबलकु ल सामान्द्य थे । बड़ी ईम्र मं गइ थी न, पका हुअ पणष कहा जा सकता है । ककसी को सांत्वना देने जैसा कु छ नहं था । वह धीरे धीरे माँ के पास बैठ गइ । चेहरे पर, अँख और गाल पर हाथ फे र िलया । माँ की ईं गिलयाँ पूरी तरह से सख्त हो गइ हं ऐसा लग रहा था। 'बाररश बढ़ गइ है । थोड़ी सी तकलीफ तो होगी ही हम सब को, िपताजी की घराषती

अवाज़ अइ । 'एकाध घंटे मं रुक जाये तब तो ऄच्छा है । वरना ईस तरफ के रास्ते बहुत ख़राब है । ऄत: गािड़याँ ले जाना मुिश्कल है ।' नयन की अवाज़ अइ ।

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'एकाध घंटे मं रुक जाये तब तो ऄच्छा है । वरना ईस तरफ के रास्ते बहुत ख़राब है । ऄत: गािड़याँ ले जाना मुिश्कल है ।' नयन की अवाज़ अइ । 'रास्ते मं काफी पानी भर जाता है । मेरा यह हाल ही का ऄनुभव है । ऄभी चार कदन पहले ही... गढ्ढे आतने ज्यादा है कक गािड़याँ फँ स ही जायं'... कोइ ऄनजाना । कफर बात रुक गइ । माँ को लेने जाने के िलए वे सब राह देख रहे थे । 'संदेशा ठीक से िमल गया था न? नयन ने कनिखयं से पूछा । ईसने िसर िहलाया । क्या हुअ था ऐसा पूछने की भी ईसे अवश्यकता महसूस नहं हुइ । कफर भी बताना ही चािहए कक फजष से िवस्तृत रूप से सब कु छ बतलाया. 'माँ कब जागी, कफर कै सी िशकायत की, ककतनी जल्दी से डाक्टर अए और कफर –' 'कौन सी गाड़ी िमली तुझे?' िपताजी ने एकदम व्यावहाररक प्रश्न ककया । यहाँ ककसी भी बात से ईसे मतलब नहं था। माँ के चेहरे को वह मग्न होकर िनहारती रही । भले ही माँ के िलए ईसका जन्द्मोत्सव नहं था । वह िबलकु ल ही ऄनचाही अन पडी थी आस घर मं, कफर भी बरसात का वह कदन, ईस कदन के वे मुठ्ठीभर पल शुद्ध सच्चोे सुख से भरे हुए थे । पानी भरे ठोस बादल मानो घूम कफर कर ईन पलं को सूँघने की आच्छा जगा रहे थे, ईन मं से मोगरे के फू ल की वही महक अ रही थी । वह धूमधड़ाक और नज़रं की सीमा रे खा की पकड़ से बाहर ऐसी िबजली की दौड़ – धूप । पेड़ं पर बरसती और िगरती पानी की ऄखंड जलधारा, रसोइघर की मनभावन उष्मा मं बैठी माँ । 'करीब अ तेरे बाल सुखा दूँ, वरना ज़ुकाम हो जायेगा...' वे पल एकदम भरे -भरे । ईस मं कोइ भी िमलावट नहं, ऄगर झूठ होता तो माँ की ईँ गिलयं मं ईतनी उष्मा होती ही नहं । आतना सारा सुख देने के िलए माँ के ऊण को स्वीकार करना होगा । ऄन्द्य कौन बचा रहा है ईसे िनतांत अनंद भरे पल दे सके ऐसा । िबलकु ल छोटी बच्चोी की तरह वह माँ से िलपट गइ । ऄब वरासत के कदनं मं िजन्द्हं वह ऄपना कह सके ऐसा कोइ नहं रह गया था... ♦ ISSN –2347-8764

किवता

गज़लं सािहल ♦ एक बफीला लम्हा िपघलाना ऄंगारं का काम नहं है दीवानं की बात समझना हुिशयारं का काम नहं है जंग लड़ी जाती हं ऄब तो कमरे मं बैठे बैठे भी हाथ कलम अ जाये तो कफर हिथयारं का काम नहं है माना कै द रखे जाते हं आस जीवन मं िजस्मं को जज्बं को बांधे रखना तो दीवारं का काम नहं है घर का भेदी लंका ढाये शत प्रितशत है बात सही ऐसी करारी चोटं करना ऄिगयारं का काम नहं है नाव जहाँ पर डू बी है ये देख के कहता है हर कोइ मक्कारी है ये माझी की मझधारं का काम नहं है आन्द्सां बन कर अओगे तो 'सािहल' कु छ कु छ समझ सकोगे आंसानं की सोच समझना ऄवतारं का काम नहं है ♦ दो खामुशी मं गतष होते ही पुकार हो गया हौले हौले मं मेरे ही अर पार हो गया पल वो िमल गया मुझे मेरी रगं मं दौड़ता जो यकीन की दीवार मं दरार हो गया कु छ न कु छ मुझे जो बनने को कहा गया तो मं जो पूरा न हो सके वो आंतज़ार हो गया असमान को ईतारता रहा िनगाह मं अपने छु अ मुझे मं बेशुमार हो गया अज भी मेरी दीवानगी को तो पता नहं वक्त कब हमारे दरिमयाँ दीवार हो गया

♦ 'नीसा', 3/15, दयानंदनगर, (वािनयावाडी),राजकोट- 360 002 (गुजरात)

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कहानी

मंगल सूि सिबदु भट्ट

पुष्पा ने बस की अिखरी सीढ़ी पर पैर रखा ही था कक पीछे से ज़ोरदार धक्का लगा । सीढ़ी पर पैर रखते हुए वो लगभग िगरते-िगरते बची । सीधे खड़े होने की कोिशश करते हुए बायं ओर बगल मं ऄचानक ऐसा ददष ईठा कक वह झुक कर दोहरी हो गयी । “साला दाढ़ी ज़ार.....” पीछे देखा और ददष के साथ गाली दी । जो ईसके हंठं मं दब गइ । ईसने साड़ी के पल्लू से हंठ पंछे और चल पड़ी । अज तो चाय भी अधी छोड़कर िनकली है । ऄब झगड़ने की फु सषत ककसे है ? सूरज िबलकु ल उपर अ गया था और ऄभी अधा कोस चलकर हथकरघा सोसाआटी पहुंचना है । जब से ये ठण्ड का मौसम शुरू हुअ है, कहं भी समय पर नहं पहुँच पाती । पहले ऐसा न था । पुष्पा को लगा, पहले सचमुच ऐसा कहाँ था ? शादी के पहले पंरह वषं तक सूरज कहाँ से ईगता है, कहाँ डू बता है, आसका ही पता न था । शादी के बाद ससुराल मं चूल्हे-चौके के िसवाय कहाँ कु छ देखना पड़ता ? गंगाजी का पुल पार कर जब वह साबरमती तट पर अयी, तब ईसे पता चला कक दुिनया मं ऐसी नदी भी है जो साल मं ग्यारह माह सूखी पड़ी रहती है । कदन के ईजाले मं ईसने पहली बार ठीक से हरपाल को देखा, तब समझ मं अया कक ईसकी अवाज़ की तरह ईसकी अँखं भी ईतनी ही तीखी हं । कमरे से बाहर पैर रखते ही वह घबरा जाती । न जाने ककतनी ही घूरती हुइ अँखं को ऄनदेखा कर वह स्वयं मं िसमटने का प्रयास करती । यहाँ की औरतं को वह अश्चयष से देखती । चूल्हा चौका, कपड़ा-बतषन, झाड़ू – पंछा, हाट-बाज़ार, व्याह-मातम सब िजम्मेदाररयाँ िबजली की गित से सम्हालने वाली ये औरतं न जाने ककस िमट्टी की बनं हं ? और तो और यकद मोहल्ले मं दंगा-फसाद हो जाए तो पित को घर भेज, खुद ऄके ली ही सबसे िनपट लेतं । पुष्पा के िवस्फाररत नेिं को देखकर हरपाल कहता, “ ऄरे आनका बस चले तो ये ऄके ली ही बच्चोे पैदा कर लं, तुम से तो.......” पित के ऄधूरे छोड़े वाक्य को समझ ISSN –2347-8764

िवरोध करना चाहती पर ईसकी अँखं के लाल कोने देख वह तलवार ध्यान कर लेती । जब नयी–नयी अयी थी तब एक बार ईसने दो कदनं तक िसफष रोटी ही बनायी थी । पड़ोसन रज्जो ने पूछा तो कहा, “मुन्नी के बापू नहं हं, मं कै से बाज़ार जाउं? हम लोगं मं तो ....” रज्जो ने लगभग धमकाते हुए कहा था, “ऄरे लाजो रानी, आस तरा ऄपने ईधर के ररवाज से चलोगी तो सिजदगी भर एक न एक चीज़ को तरसती रहोगी । िजस तरह ऄपने ईधर के घूंघट और चद्दर छोड़ कदए हं । वैसेइ ये नखरे भी छोडो और हाथ-पैर िहलाओ, एक बात गांठ बाँध लो, जैसा देश वैसा भेष । तुम भी सीखो और छोकररयन को भी िसखाओ“ .... क्या कु छ नहं सीखा “पुष्पा ने िनःश्वास छोड़ते हुए कहा । सुबह चार बजे से चरखा चालू हो जाता । ईसके ईठते ही साथ मं सोयी छु टकी भी जाग जाती । वैसे तो वो अठ साल की है पर पतली सी गुदड़ी मं ईसे माँ के कारण ही गमी िमलती । पुष्पा ईसे हरपाल के पास सुलाती कफर ऄपनी गुदड़ी भी ईसे ओढ़ा देती । फटी पुरानी पतली सी गुदड़ी मं पैरं को िसकोड़े सोते हुए हरपाल को देखकर ईसका िसन्द्दरू िपघलने लगता । पैरं की ईँ गिलयं की िबिछया चुभने लगती । एक काम करते हुए ईसकी अँखं बाद के दूसरे कामं पर लगी रहतं और मन कपास की तरह अज और कल के सूतं को सुलझाने मं । िजस ठकु राआन का पैर ईसका पित तक कदन के ईजाले मं भी न देख सका था, वह म्युिनिसपल संडास की लाआन मं खड़े खड़े पैर बदलती रहती । वह लाआन ख़तम होती तो नल की लाआन शुरू हो जाती । वैसे तो पानी भरने का काम ईसने ऄपनी लड़ककयं को संप कदया था, पर जब से ठण्ड शुरू हुइ है ईसका माँ का कदल मानता नहं । खुद ही पानी भरती, कपड़े धोती । बड़ी रटकफन तैयार करती । बीच की सरोज शैलू दोनं िबस्तर ईठातं, तैयार होतं, कॉलेज जातं । झाड़ू-पंछा और शाम की रसोइ भी मँझली करती । बड़ी मुन्नी दोपहर को रे डीमेड कपड़ं

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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की दजषन के भाव से िसलाइ करती । सपने देखने की ईम्र मं ईसकी अँखं पर चश्मा लग गया । कदन भर लगे रहं तब शाम को बड़ी मुिश्कल से रोटी भाजी का जुगाड़ हो पाता । रज्जो कइ बार कहती “ बडकी को िबठा दे करघे पर, दोनं कमाओगी तो कल को चार पैसे जमा भी हो सकं गे . ...." ईदासी की गहराइ मं िछपी दहशत पुष्पा की अँखं मं तैरने लगती । लड़ककयं को बाहर काम पर भेजने की बात पर हरपाल पागल हाथी की तरह घर को चौराहा बना डाले तो ? पुष्पा रास्ता पार कर रही थी कक पास से गुज़रती बस से ईसे ऄपने नाम की पुकार सुनाइ दी । ईसने देखा रज्जो बस के दरवाज़े पर खड़ी, हाथ मं पकडे रटकफ़न को िहला रही थी । पुष्पा को लगा ईसे अज भी देर हो जाएगी । आस सक्युषलर बस की ऄपेक्षा वो भी डबल बस से अती तो ? लेककन रोज़ के अने जाने मं दस रूपए का खचष कै से पुसाता ? रज्जो से समानता नहं की जा सकती, ईसका तो पित भी कमाता है । और कफर एक ही बच्चोे, हमीद को पालना है । मेरे िसर पर तो चार चार जवान लड़ककयां। क्या होगा ? कौन थामेगा ईनका हाथ ईसने ऄपने मन को दूसरी ओर लगाया । अज हािजरी मास्टर छु ट्टी पर होतो? पुष्पा कफर िगरते िगरते बची, देखा तो सेफ्टी िपन से जोड़े चप्पल के पट्टे टू ट गए । ईसे मालूम था कक ये कभी भी टू टंगे ही । स्लीपर िनकाल कर हाथ मं ले ली और एक हाथ से ईसने साड़ी की चुन्नटं को उपर खंचा । जल्दी कपड़े धोने के चक्कर मं वो अधी गीली हो जाती । बस मं ईसके गीले कपड़ं को देख लोग सरक जाते, यह लाभ ही था । वह मुस्कु रा ईठती । आन सबको गंगा जी मं डु बकी लगवाएं तो ? ठण्ड के मौसम मं सुबह ग्यारह बजे तक गंगा ककनारे कोइ युवा तेलमािलश करवाते, कोइ दंड बैठक लगाते , नहाकर छोटा देवर महेन्द्रपाल घर अता तो पांचसौ ग्राम चावल पटक जाता । और वह खुद ? एक ओर चूल्हे पर पानी ईबलता रहता, नाआन अकर तेल ISSN –2347-8764

ईबटन करती और नहलाती । नहाकर ऄंदर के अँगन मं बाल सुखाती, बैठती तथा नाआन पैर मं महावर लगाती । महावर तो अज भी है पर ईसका रं ग फीका पड़ गया है । एक तो नंगे पैर कफर गीला पेटीकोट, चलना मुिश्कल हो गया । आस तरह वो कब तक पहुँच पाएगी ? दूर से मानव मंकदर पर फहराती ध्वजा देखकर ईसने िसर झुकाया, मंकदर के टावर मं देखने की ईसकी िहम्मत न हुइ । तभी घड़ी ने नौ डंके बजा कदए । अज तो हािजरी मास्टर वापस ही भेज देगा । सोसाआटी के गेट पर पहुंच कर ईसने सामने कं पाईं ड की ओर देखा । कमरे की देहरी के पास टेबल पर हािजरी मास्टर दयाल जी गदषन झुकाए कु छ िलख रहे थे । पुष्पा के मन मं अया कक लौट जाउं पर वह गेट खोल कर ऄंदर अ गयी । गेट खुलने की अवाज़ के साथ ही दयाल जी की नज़रं उपर ईठं और बाआफोकल चश्मे से सीधी चुभ गयं । चार सीकढयां चढ़ते हुए पुष्पा को लगा िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

जैसे वह ऄभी कफसल जाएगी । जैसे ही वो करीब पहुंची कक ताक मं बैठे दयाल जी ने रिजस्टर पटकते हुए कठोर अवाज़ मं कहा - “अज भी देरी, कहाँ घूमने रुक गयी थी? यह क्या तुम्हारे बाप का बगीचा है कक जैसी मजी हो करो? है कोइ सिचता ? अडषर की आस साड़ी के िलए चार कदन बचे हं । अधी साड़ी तो ऄभी बोिबन मं ही है I आस तरह हो चुकी पूरी “ । दस्तखत करती पुष्पा को कोइ सफाइ देने की आच्छा न हुइ I क्या कहं ? ठण्ड मं स्कू लं का समय देर से होने के कारण, दो दो बसं खचाखच भरने के बाद बड़ी मुिश्कल से तीसरी बस िमल पायी है, वह भी लटकते खटकते । पर आस सप्ताह मं वह चौथी बार देर से अइ, रोज़ रोज़ वही कारण । “एक तो जरी बॉडषर, बूटी का काम िलया ..... आन कामचोरं पर कै सी दया.. आन भुक्कड़ं को तो....। दयाल जी के बाकी शधद पुष्पा के करघे की खटखट मं िबखर गए । दयाल जी का गुस्सा पुष्पा समझ सकती थी । ऄभी तक वह सूत और रे शम का ही काम करती थी । ऄबकी बार दयाल जी की दया से ईसे जरी रे शम और बॉडषर बूटी का काम िमला है । साड़ी पूरी होने पर साढ़े चार सौ नगद िमलंगे । ककतने हाथ पैर जोड़े तब दयाल जी ने सोसाआटी के आं चाजष से कहा था । दो साल से काम कर रही है, ठीक है । कभी एक अध गाँठ अ जाती है, बाकी कम्पलीट, बेचारी गरीब है । पित कमाता नहं । पहले िमल मं था । िमल बंद हो गयी तो मजदूरी नहं करता , और कफर सब लक्षणं से पूरा है । चार चार लड़ककयां हं । आस बेचारी से ही घर चलता है । वैसे तो ये धमष का काम है । दयाल जी के खैनी भरे टेढ़े मेढे होते मोटे हंठ और मुंह से िनकलते िसगरे ट के धुंएँ के ऄलग ऄलग अकार बनाने मं मशगूल सोसाआटी आं चाजष को देखकर पुष्पा का मन घृणा से भर ईठता मानो, एक ईसकी गरीबी को एक एक िबकाउ माल की तरह कदखाता और दूसरा खरीद कर ईपकार करता । पुष्पा खून का घूँट पी कर रह जाती । आस बुनकर मण्डली मं पुष्पा दो वषष से

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काम कर रही थी । शुरू मं तो थोड़ी बहुत मदद हो जाए ईतना ही, पर बाद मं सारी िज़म्मेदारी ईसके िसर पर अ गयी । हरपाल नुक्कड़ पर बैठता । ऄनाड़ी को माल बनाने और बोझ ईठाने के िसवाय काम ही क्या िमलता ? उपर से ऄकडू । बात बात पर “मं ठाकु र जात“ की छड़ी पुकारती । ईसे िमल मं भी रं गं की समझ अते अते दस साल लग गए थे । पुष्पा ने करघा रांध बुनी हुइ साड़ी को कसने के िलए लकड़ी की परट्टयं को उपर नीचे कफर ककया । “ऄरे छोड़, ऄब बस भी कर... रोटी नहं खानी है ?”... कहते हुए रज्जो पुष्पा के पास अकर बैठ गयी । तू खा ले .... मुझे भूख नहं .....। तू मेरी एक भी बात नहं मानती । मंने पैले बोला के आस बार टेस्ट करा ले । िपछली बार तो बच गयी, पर नहं मानी “ पुष्पा के चेहरे पर नाराजी देख वो कफर बोली -- ... “ हाँ ठीक है, सुऄर का बच्चोा ही पैदा करना पर कु छ ऄपना भी ख़याल कर । देख ककतनी फीकी पड़ गयी है तू । ये हाथ पैर मं सूजन ऄच्छी नहं । आस धलड प्रेशर के मारे कभी कभी बच्चोा पेट मं ही मर जाता है । और साथ मं माँ को भी ले जाता है । ऄपने िलए न सही पर लड़ककयं के िलए तो तुझे जीना पड़ेगा । वनाष तेरा ये खसम तो......... बस बस... बहुत हुअ, तू जा । दयाल जी देखंगे तो तेरा पेट भी गािलयं से भर जायेगा । पुष्पा ने रज्जो को वहाँ से चलता ककया । वह सोचने लगी, रज्जो की बात सच थी । लड़ककयं के िलए तो जीना ही पड़ेगा । जन्द्म कदया है, पर पालूँ कै से ? न तो भर पेट रोटी दे सकती हूँ न तन ढकने पूरे कपड़े । कौन पकड़ेगा आन लड़ककयं का हाथ? वतन मं तो वर ढू ँढने की हैिसयत ही कहाँ है ? मान लो हो तो भी मेरी लड़ककयां वहाँ घुट कर मर जाएँगी । वहाँ के रीितररवाज और रहन सहन तो ठीक, पर घर के बाहर सब ऄनजाने । छु टकी के जन्द्म के समय देवरानी अयी थी तो घर जाकर ईसने कै सी कै सी बातं फै लाइ थं। ऄरे वहां तो माँ बेरटयं ने शमष बेच खाइ है । जेठानी जी तो कदन दहाड़े जेठ जी से ISSN –2347-8764

बितयाती हं । और लड़ककयां? दुपट्टा डालं तो कसम ले लो हमसे । ऄरे रात िबरात सौदा लेने चली जाती हं और न जाने क्या पकाती हं । हम तो भूखी ही मर गईं । दाल मं मीठा, और सधजी मं भी। एक घडी चैन नहं, सारा काम खुद करो। न कहार, न धोबन । हमारी तो कमर ही टू ट गयी । पुष्पा के हाथ थम गए । नहं वो लड़ककयं को मरने नहं देगी । कभी कभी लगता है, ये लड़ककयां ही ईसके िलए खुली हवा और कदन का ईजाला लेकर अइ हं । यकद सरोज शैल जुड़वां न हुइ होतं तो हरपाल गाँव छोड़ता क्या? वह पांच भाआयं के बीच छः बीघा ज़मीन और अम के भरोसे वही ँ पडा रहता । वह खुद कदन भर चौके से, सामने बैठक मं हुक्का भरकर िभजवाती रहती या कभी दस पंरह कदनं मं, ऄँधरे े कमरे मं रटमरटमाती िडबरी के ईजाले मं नशाखोर पित के पैर दबाती रहती । राजसी ठाठ की िवलायती छत के नीचे दीमक लगे काठ स्तम्भ कब तक रटकते? इश्वर का ककया मज़ाक ऄच्छा ही रहा, बेटे की राह देखती पुष्पाकी गोद मं जुड़वां बेरटयां धर दं । जब ऄपने वतन मं थी तब वह कहती, ये तीन तीन बेरटयां िसर पर पड़ं हं, कु छ करो । आस तरह कब तक ठकु राइ के गुरूर और खानदानी आज्ज़त के मोह मं आस गाँव मं पड़े रहोगे ? हरपाल का प्रश्न सामने होता..” तो क्या करूं?“..... परदेश जाओ"... गाँव के ककतने ही लोग मुंबइ, कलकत्ता, कदल्ली, ऄहमदाबाद जाते, जो काम िमलता, करते ...कोइ नया हुनर सीखते । कु छ तो सीज़न भर के िलए कमा कर वापस अते और खेती सम्हाल लेते । लेककन हरपाल का एक ही जवाब होता, “ वो सब छोटी जात के काम हं । हमसे नहं होते “। ऄंत मं पुष्पा के िपता ने दस हज़ार रूपए देकर, धंधा करने के िलए हरपाल को ऄहमदाबाद भेजा, धंधा तो क्या करता? पुष्पा के मायके की एक पहचान से एक िमल मं काम िमल गया । अज आस बात को पूरे सिह वषष हो गए । जोड़-तोड़ करते करते बाहू नगर की िनरािश्रत चाल मं िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

एक कमरे का भी जुगाड़ हो गया । पूवष जन्द्म का कु छ लेन-देन बाकी होगा, आसीिलए पड़ोसन रज्जो ने ककसी तरह पुष्पा को आस हथकरघा सोसाआटी मं लगवा कदया । सोसाआटी आं चाजष को पहले कु छ भंट तो देनी ही पड़ती है, पर हरपाल से ककस तरह बताया जाये ? और कफर पैसे की व्यवस्था कहाँ से होगी? उपर से िमल बंद हो गयी । बड़ी को आस कदसंबर मं बीस पूरे हुए । काम और कमाने के चक्कर मं ईसे मुिश्कल से बारहवं तक पढ़ाया। मंझली सरोज-शैलू िजद कर कॉलेज जाती हं । फीस माफ़ है । क्या पता कोइ िशक्षा की कर करने वाला िमल जाए । पुष्पा सोच रही थी क्या सिजदगी भर आसी तरह छोटे बड़े सहारे ढू ंढते रहना पड़ेगा? एक गहरी सांस लेकर ईसने दीवान से पीठ रटका दी । ऄन्द्दर की अग भरट्टयं की तरह धधक रही थी । धलाईस का नीचे का बटन खोलकर ईसने छाती को मसल ददष कम करने का प्रयास ककया । तभी दािहनी ओर कु छ चुभा । ईसे याद अया की बस मं कोइ खंच न ले आस डर से मंगलसूि ईतार ईसने धलाईस मं रख िलया था । िनकाल कर कफर गले मं डाल िलया । मंगल सूि के लोके ट को हाथ मं पकड़ पुष्पा ईसे एक टक देखती रही । मायके की एकमाि िनशानी । क्या नहं कदया था ईसके माँ बाप ने। ितलक मं पूरे आक्यावन हज़ार नगद । शादी मं चेन, ऄंगूठी और ट्रक भर पूरी गृहस्थी का सामान । ये भी कम लगा तो फे रे होते समय हरपाल ने िजद कर स्कू टर भी िलया । पुष्पा के दस तोले सोने सिहत सब कु छ ख़तम । ऄब बचा है के वल यह मंगल सूि । पुष्पा की नज़र पेट पर पड़ी, छु टकी के वक़्त ककतनी मन्नतं मानी थं । दशाश्वमेघ घाट से िवश्वनाथ मंकदर तक लेटते लेटते हुए जाकर दशषन करने के बाद चावल न खाने की मन्नत छोड़ना पड़ी । पर वक़्त? लगा कलेजा बाहर अ जाएगा। ईसने पल्ले से चहरे पर अये पसीने को पंछा । कफर पेट की ओर देखा । पुष्पा को लगा की हाथ मं पकड़ी हुइ पोटली की तरह ईसका पेट कदन पर कदन नीचे की ओर सरकता जा रहा है । पेटीकोट का नाड़ा उपर करना

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चाहा तो एक धक्का कफर और । करघे की खडखडाहट मं ईसकी तड़पती अवाज़ ओझल हो गयी । कोइ दौड़ कर पूरी ताक़त के साथ ऄन्द्दर से जैसे दरवाज़े खोलने की कोिशश कर रहा हो । कभी बायं ओर तो कभी दािहनी ओर से । कौन होगा? पुष्पा ने कसक से दांत भंच िलए । आस बार भले ही पैदा हो जाए सूऄर का बच्चोा, लेककन मर जाउँगी तो भी ........ ईस कदन जन्द्माष्टमी थी । लड़ककयं को मेले जाना था । ककन्द्तु बाप तो हमेशा की तरह हाथ झटक कर खड़ा हो गया था । बड़ी ने ईस कदन पहली बार बाप के सामने मुंह खोला .... “बापू मं भी ऄम्मा के साथ करघे पर बैठती तो....“? खबरदार ! ज़बान खीच लंगे हम, तुम्हारी ऄम्मा जाती है वही काफी है । पुष्पा को गुस्सा अया, क्या वो कोइ नीच काम कर रही है? लेककन पित को समझाते हुए ईसने बात को सम्हाला, ”अप मानो घर मं तीन तीन जवान बेरटयां बैठी रहं, आससे ऄच्छा कोइ छोटा मोटा काम करं ईसमं क्या गलत है?” सुइ से दांत कु रे दते हुए हरपाल को चुप देखकर पुष्पा की िहम्मत बढी—“ सुबह बड़ी घर सम्हाले और दूसरे पढ़ं, ककसी ऄच्छे घर मं एक समय खाना बनाएगी तो कु छ सीखेगी भी, कल को ससुराल जाएगी तो क्याकरं गे? यहाँ तो खाली िडधबो के िसवाय क्या देखा है ईसने? न चाहने के बाद भी ईसकी अवाज़ मं कडवाहट अ गयी । “ये नहं होगा“..... कभी नहं “ । लोगं की जूठन हमारी लड़ककयां नहं ईठाएंगी ।ऄगर देहरी के बाहर क़दम रखा तो तुम्हारी भी टांग तोड़ के रख दंगे हम । तुमको क्या? जात िबरादरी मं मुंह तो हमको ही कदखाना है “। हरपाल चीखा । हाँ हाँ ले जायंगे हमारी लड़ककयं को तुम्हारी जाित वाले, और दहेज़ मं क्या दोगे? खाक? याद रखना तुम्हारे ही कारण ये लड़ककयां बूढी होकर आसी घर मं दफ़न न हो जाएँ, तो मेरा भी नाम बदल देना । रोती कलपती पुष्पा सो जाती और हरपाल जूते चटकाता घर के बाहर । ईस जन्द्माष्टमी की रात भी ऐसा ही झगड़ा और तमाशा । दारू की गंध से लथपथ ISSN –2347-8764

गािलओं की बौछार तथा दरवाज़े पर लातं। ईस कदन तो हरपाल ने हद कर दी । अधी रात को चारं लड़ककयं को अँगन मं धके ल कर पुष्पा पर बलात्कार ही ककया । एक एक चोट के साथ अदेश—लड़का दे साली, कमजात, छोकरा ला हरामज़ादी.. ... “ हरे क चोट के साथ पुष्पा का िनश्चय फौलाद बनता जाता......नहं दूँगी..मर जाउँगी तो भी ... पुष्पा यहाँ भी हार गयी । ककतनी ही देशी िवदेशी औषिधयां और गोिलयां लं । पर कफर भी छटवां मिहना पूरा होने अ गया । ईसे लगता लड़की ही होगी, तभी तो रटकी है । कभी लगता की मर जाना बेहतर । ककन्द्तु बेरटयं के िलए कदल मं प्यार ईमड़ने लगता । करघा खट खट चल रहा था । साथ ही पुष्पा के िवचार भी । ईसकी ईँ गिलयाँ कभी कफसलते तार को सम्हालतं तो कभी टू टे तारं को जोड़तं । एक गुलाबी रे शम का तार और दूसरा जरी का । बॉडषर मं कै री अकार की हलकी जमुनी बूटी और वैसी ही बूटी पूरी साड़ी मं । ऐसी साड़ी पहनी हो तो गहनं की ज़रुरत भी नहं । क्यं पुष्पा बहन सो गयं क्या? हाथ चलाओ हाथ । ऄनाज नहं खातं क्या? दयाल जी ने ऄपनी हािजरी का एहसास कराया । आस बार शुरू से ही तकलीफ रही है । पहले तीन चार महीने पेट मं ऄनाज का दाना न रटका । हाथ पैर चेहरे पर हमेशा सूजन रहती है । डाक्टर कहते हं नमक बंद करो, पर चटनी के सहारे ही तो रोटी मुिश्कल से गले के नीचे ईतरती है । सरकारी ऄस्पताल से ताक़त की गोिलयां िमली हं । लेककन दूध के साथ खाना पड़ती हं। सातवां शुरू होने पर करघे का काम नहं कर सकूं गी । ऄभी ही तो मुिश्कल से हाथ पहुँचता है । छोटे क़द की यही तकलीफ है । कै से हंगे पूरे सब काम? पुष्पा ने सोचा मेरे बदले यकद मुन्नी को करघे का काम िमल जाए तो? वह िबचारी तो कब से कह रही है । बोलूं क्या दयाल जी को? पर ईसे क्या भंट चढ़ाउँगी? पुष्पा का हाथ मंगलसूि तक जाते जाते रुक गया । ईसे ईबकाइ अइ । ईठकर बाथरूम की ओर िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

जाते हुए रज्जो की अवाज़ ईसके कान मं पड़ी .. “ऄरे मं भी तो पेले से ईसके लच्छन समझ गयी थी, मेरे हमीद के गले बाँध रहा था मेरा देवर .......ऄच्छा हुअ पेले ही भाग गइ “ । पुष्पा सोचने लगी । मेरी बेटी ऐसा करे गी तो? बेचारी छू टेगी या कफर..... ईसका कलेजा धक् धक् करने लगा । हरपाल तो पूरे घर को अग लगा देगा । और खुद भी मर जायेगा । पुष्पा को लगा की न जाने ककतने ही नश्तर ईसके पेट को खोद रहे हं । वह बैठना चाह रही थी पर लगा िगर ही पड़ेगी । जैसे कोइ छाती पर चढ़ कर बैठा हो । हवा मं हाथ िहलाते हुए ईसे धके लने की कोिशश करने लगी । ईसके पैरं से सरष महावर बहने लगा । बाथरूम से लटकती सांकल ईसके हाथं से सिखच गयी । खड़डड और एक चीख .., “ऄम्मां रे .....“ .. पुष्पा की अँख खुली तो सामने सफ़े द सपाट छत, कानो मं पड़ती ककसी की बड़बड़ाहट । ईसने धीरे से बाजू की ओर नज़र घुमाइ तो मुन्नी ईसका हाथ पकडे स्टू ल पर बैठी थी । नज़र सरक कर अगे पड़े स्टंड पर गयी—टप टप टपकती लाल और सफ़े द बूँदं ईसकी नसं मं समा रही थं । वह थक गयी । नज़रं तो न जाने ककतने दूर के दृश्यं को पास खंच रही थं। पुष्पा ने अँखं बंद कर लं । माँ को होश अया देखकर मुन्नी ने पूछा “ऄम्मा.... प्यास लगी है ?”.. पुष्पा ने अँखं से आनकार ककया । पलंग के करीब खड़ी छु टकी पास अइ । ईसके िसर पर हाथ फे रने का मन हुअ । पर हाथ िनजीव सा लटक गया। छु टकी जोर से रोने लगी । “ऄम्मां... हमारा “ ..... ईसका रोना रटकफन लेकर अती हुइ रज्जो ने सुन िलया। “ऄरे छोड़ िबरटया एक नहं हज़ार िमलंगे । जा नीचे जाकर तेरे चाचा को ये थैली दे और बोलना हरा नाररयल ले अयं ।” रज्जो ने छु टकी के हाथ मं थैली पकड़ा दी । मुन्नी ने देखा की दोनं बोतलं खाली होने अयी हं । वो नसष को बुलाने चली गयी । पुष्पा ने अँखं खोल रज्जो को बुलाना चाहा, पर अवाज़ ठीक से नहं िनकल पा रही थी । रज्जो नज़र बचाती (पेज-40 पर)

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(पेज नं. 39 से)

(पेज नं. 30 से)

(पेज नं. 32 से ...)

मंगल सूि

मेयर बंगला पर ईस गंध को वहाँ से हटाना मुिश्कल था । ऄंतत: सन 1997 के साल मं बम्बइ की रमाबाइ कॉलोनी मं डॉ. अम्बेडकर की प्रितमा को खिण्डत करने के मामले मं जब देशभर के दिलत भड़क ईठे , ईसी िसलिसले मं ऄहमदाबाद और गुजरात मं भी 'बंद' के एलान कदए गये । ईस रात दिलतं के गुस्साएं गुट रास्तं पर ईतर अये थे । युवकं को ऄपना अक्रोश िनकालना था, पर िनकले ककस तरह? अिखर ककसी को कदल्लगी सूझी तो ईसने हीरालाल की चाल के पाखाने तोड़ने का प्रस्ताव रखा और कफर तो समूची वानर सेना टू ट पडी । पलभर मं तो पाखाने नेस्तोनाबूद हो गये । ईनकी मल से सनी ईंटं भी लोग ईठाकर घर ले गये । कइ कदनं तक चचाष चली कक वहाँ क्या बनवाया जाये ? पाखाने चाल की ऄपनी िमिल्कयत थी । सो चाल के बासिशदे जो तय करं वही सही । एक मत था कक ऄब तो घर-घर पाखाने बन गए है आसिलए वहाँ दुबारा पाखाने बनाने का क्या मतलब ? तो कु छ लोग ईसी जगह दुबारा पाखाना बनाना चाहते थे । ऄंतत: वहाँ 'पे एन्द्ड यूज' शौचालय योजना के तहत पाखाने बनाने का िनणषय िलया गया । सालभर मं तो बकढ़या शौचालय तैयार हो गये । दीवारं और फशष पर चमकते टाइल्स, प्रवेशद्वार पर सुंदर फू लं के गमले, नये रं ग-रूप के साथ नया सिसगार करके खडा है अज ये शौचालय । ईसके रं ग-रुप देखकर वहाँ शौचकक्रया के बदले सोच-िवचार करने की प्रेरणा िमला ऐसे हं । ईसमं जाने के िलए नकद एक रूपया चुकाना पड़ता है । िमल बंद है, कारखानं मं मंदी है । पूरा आलाका गरीबी और बेरोजगारी चपेट मं है । आसिलए 'पे एन्द्ड यूज' शौचालय का ईपयोग शायद ही होता है । जब-जब राजपुर जाता हूँ, तब-तब हीरालाल की चाल के पाखाने की जगह खड़ा ये नूतन शौचालय मेरी अत्मा को कचोटता है । हमारे आलाके मं आतने सुंदर-स्वच्छ रं ग-रूप वाले मकान बहुत कम है । आसिलए सुशोिभत शौचालय को हमने 'मेयसष बंगला' नाम कदया है । ऄहमदाबाद मं ऄब तो एक नहं ऄनेक जगहं पर ऐसे 'मेयसष बंगलो' देखता हूँ । हीरालाल की चाल के पाखाने के सपने रात-बेरात मुझे नंद से जगाते हं और ऄपने बारे मं कु छ िलखने के िलए मजबूर करते हं । ♦ ऄनुवाद : सिबदु भट्ट

रहीम चाचा 'अपको क्या बताउँ सर, वहाँ तो गृप सेक्स है । जुली के िलए मुझे एक्सचंज मं... ईसने फ़ोसष ककया...' कहकर वह चुप हो गइ। ईनकी अँखं मं पानी अ गया । कफर बोली; 'मं मर जाईं गी लेककन...' 'ऄब सबकु छ भूल जाओ ।' 'कोिशश तो करती हूँ सा'ब । मं ईसे ऄब भी प्यार करती हूँ । रमझान के पाक कदनं मं मेरी पहली दुअ ईसके िलए होती है । लेककन वह मुझे समझ न सका । ऐसी मेडनेस मंने कभी सपने मं भी नहं देखी थी ।' 'ऄब... ?' 'शादी पाक औरत के िलए एक ही दफ़े होती है सा'ब ।' कहकर खड़ी होकर वो मुँह धोने चली गइ । रहीम चाचा ने लम्बी साँस छोडी। ईसे बी.एड. कर लेने का सूचन करके ईस कदन मंने भारी ह्रदय से िवदा ली। ईसके बाद लगभग डेढ़ साल के बाद ईसे सुरत के नज़दीक के एक गाँव की स्कू ल मं िशिक्षका की नौकरी िमली । रहीम चाचा को यह एक ही संतान । ईनकी यह हालत देखकर ईनके वषष यकायक बढ़ गये । कभी सुरत जाने का हुअ तो ईन्द्हं िमलूँ और खबर पूछूं। 'बहन कै सी है ?' मेरा प्रश्न सुनकर रहीम चाचा मानो मुझे देखते न हं ऐसे ताकते रहते और कफर ककसी ऄदृश्य व्यिक्त को कहते हं ऐसे धीरे से बोले; 'मेरी बेटी ने क्या गुनाह ककया था...? ' ♦ (लेखक के संग्रह : 'नामरूप' से) ♦ ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी

हुइ दवा, रटकफ़न, चम्मच प्याला आधर से ईधर करती रही। नसष अकर दोनं बोतलं िनकालकर चली गयी । पुष्पा ने सोचा पूछूं... पर क्या? मुझे कु छ कु छ समझ मं अ रहा है ..... मं हवा मं ईड़ते कागज़ की तरह हलकी हो गयी हूँ ..मेरे ऄंदर से ककसी ने जैसे सारा बोझ िनकाल कदया है । चलो, वह भी चली गयी। पर वह लड़की थी या .....या कफर? पुष्पा काँप ईठी। रज्जो दौड़ कर नसष को बुला लाइ, "ये काँप क्यं रही है ?“ होता है ऐसा कभी कभी । कहते हुए नसष ने आस प्रकार आं जेक्शन लगा कदया जैसे दीवाल मं कील ठंक दी हो । जाते जाते बोली —— "आसके मरद को साब ने बुलाया है “ । मुन्नी के बापू ......पुष्पा बुदबुदा रही थी । “ ऄरे नाम मत ले ईस हैवान का", ईसे तो ऄभी भी कागज पर दस्तखत नहं करना है । ईस नासपीटे को क्या पड़ी है औरत और बच्चों की? मुंहजले के मुंह मं बस एक ही बात, लड़का दे लड़का दे, कहाँ से दे? ऄरे तेरे बस मं हो तो तू कर पैदा? तू ही तो हर बार डाल देता है लड़की और ...... पर आस बार ....बाकक के दो शधद रज्जो के गले मं ही दब कर रह गए । पुष्पा एकदम ईठ कर बैठ गयी। ईसने मंगल सूि िनकाल कर रज्जो के हाथ पर रख कदया । ईसकी मुिी बंद कर सहमी हुइ मुन्नी को पास बुलाया । ईसके िसर पर हाथ रखते हुए कहा, “ऄब तू भी मेरे साथ करघे पर काम करना “ । ♦ ऄनुवाद : मीनाक्षी जोशी ♦♦♦

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िनबंध

घर भोलाभाइ पटेल

गाँव से शहर मं स्थायी होने के बाद लगभग बंद रहनेवाले ऄपने छोटे-से गाँव के पुश्तैनी घर के बेच देने का िवचार अया । िजस मूहल्ले मं हमारा घर है वहाँ के पुराने पड़ोसी तो ऄब शहर मं रहने लगे थे । ऄिधकतर लोगं ने तो ऄपने पुराने घर बेच भी कदए थे । आसिलए शादी-मृत्यु जैसे ऄवसर पर ककसी सामािजक ररवाज के िलए या लम्बी छु रट्टयं मं गाँव के आस घर मं रहने जाते तो बड़ा बेढंगा लगता । नए पड़ोसी अ गए हं और ईनसे ऄभी नाता ही नहं बंध पाया है । वे हमं भी अगन्द्तुक ही मानते थे । आसिलए ईस घर को रखने का कोइ अकषषण नहं था । बंद रहने के कारण पुराना घर और जजषररत होता जा रहा था । चौमासे मं ऄिधक बरसात पड़ने पर तीन के छप्पर से भी पानी ऄंदर अता था िजससे घर की एक मुख्य दीवार मं दरार पड़ गइ थी । खुले दालान एवं अँगन मं कू ड़े के ढेर लग जाते । आसिलए बूढ़ी माँ की ऄनुमित लेकर घर बेच देने का िवचार पक्का कर िलया । योग्य ग्राहक िमले तो एक गाँव मं रहनेवाले व्यवहारकु शल िमि से बेचने की िसफाररश करके हम शहर चले अए । कफर एक कदन ‘ऑफर’ अया भी सही । ऑफर ठीक था और करनेवाला व्यिक्त ऄच्छा और भरोसेमंद था, आसिलए ऄब देर करने या अना-कानी करने का प्रश्न ही नहं था । परन्द्तु ईसी क्षण से मन मं टीस सी ईठी । बार-बार मन को व्यग्र बनाता, िवचार अने लगा कक पुश्तैनी घर क्यं बेचा जाए? तीन-चार पीकढ़यं से चले अटे िमट्टी के कमरे के स्थान पर मेरे िपता ने यह ईंट का पक्का घर बनवाया था । कहना चािहए कक घर के सभी सदस्यं ने स्वयं मजूरी करके घर बनवाया था । कहना चािहए कक घर के सभी सदस्यं ने स्वयं मजूरी करके घर बनाया था। िपताजी आसके िलए ऄपनी बैलगाड़ी मं ईंटं लाए थे। िचनाइ के िलए गारा बनाने के िलए गाँव के ‘अँबा तालाब’ की िचकनी िमट्टी स्वयं खोदकर लाए थे । मेरी माँ ने बँढेर तक गारे के तसले चढ़ाए थे । कफर शहर मं ISSN –2347-8764

ऄपने लड़कं के जब नए मकान बनने लगे तब ईनके मकान, वेतनभोगी सुपरवाआजरं की देखरे ख मं मज़दूरं द्वारा बनते देखकर, मन मं थोडा खुश होते हुए माँिपताजी ऄनेक बार, गाँव के घर को कै से स्वयं मेहनत करके बनाया था, ईसकी बात करते हुए भावुक हो जाते थे । आसी घर मं ही हम सभी भाइ-बांधवं का जन्द्म हुअ था । आतना ही नहं आसी कमरे मं हमारे दाम्पत्यजीवन का अरं भ हुअ और ईसी कमरे मं हमारी संतानं का जन्द्म भी हुअ । जीवन मं जो ऄनेक ऄच्छे -बुरे प्रसंग अए, यह घर ईनका साक्षी है । घर के अँगन मं कै से खेलते थे ! एक कदन ईस अँगन को पार कर कँ धे पर थैला लटकाकर गाँव की पाठशाला मं पढ़ने गए थे । एक कदन ईसी अँगन को पार कर दूर परगाँव पढ़ने गए । एक कदन ईसी अँगन को पारकर शहर मं अकर बसे । आसी घर के अँगन मं हमारी बहनं और भाआयं के िववाह-मंडप बँधे थे । यहं िबरादरी वालं के साथ झगड़े और स्नेह-िमलन भी हुए थे । यहं पडौिसयं के साथ उँची अवाज़ मं बोला-चाली और जाड़ं मं ऄलाव के पास बैठकर मधुर िवश्रंभ कथाएँ हुइ थं । आसी अँगन मं हमारे पररवार के कु छ सदस्य – भंस, पिड़या, बैल, बछड़े बाँध जाते थे । आसी घर के दालान मं, मेरी दादी और कफर दादा की मृत्यु के समय, गोबर से लीपकर ईस पर ईन्द्हं सुलाकर, पूजाएँ हुइ थं, और कु छ वषष पहले मेरे िपता को भी आसी दालान मं सुलाया गया था । हमारे घर के दोनं ओर दूसरे घर हं । एक घर हमारे एकदम िनकट के साथी का है । वह भी बंद है । मेरा िमि रोटी-रोजी कमाने देश के ऄनेक स्थलं मं घूमने के बाद, पत्नी की मृत्यु होने पर ऄब, ऄहमदाबाद मं रहता है । ईनके बाद के मकान मं काशी बुअ रहती थं । ईनकी मृत्यु को वषं हो गए । वषं तक जहाँ रे त घड़ी लेकर रोज सामियक करतं, ईस दालान मं ऄब एक तंदवाला बारोट सोता कदखाइ देता है । सामने वाले

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मकान का मािलक प्रौढ़ ऄवस्था मं परन्द्तु कुँ वारा ही चल बसा । ईसके बाद िजसने वह मकान खरीदा ईसने, अँगन के िलए झगड़ा करके पडौसी-हक़ स्थािपत ककया । एक कदन वह घर भी िगर पड़ा । ऄब नइ कदशा मं नये दरवाजे के साथ बना है । आस तरह सब बदल चूका है । कफर भी लगता है कक हम ऄपना घर क्यं बेचं । पुराना है तो भी, है तो पुश्तैनी घर । वह घर है । चार दीवारं और छप्पर वाला कोइ मकान नहं है । मकान पैसं से खरीदा जा सकता है, बनवाया जा सकता है, पैसे लेकर बेचा जा सकता है, परन्द्तु घर? घर तो एक भावना है । घर न होने पर, घर की भावना भी ऄच्छी है । वह घर िसफष पैसे से खरीदा या बनवाया नहं जा सकता । आसिलए लगने लगा कक भले ही घर पुराना होता जाए, जीणष होता जाए, भले ही िगर पड़े, परन्द्तु वह बना रहे । दूसरी ओर, मन दूसरा तकष करता है कक यह सब भावुकता है । यकद गाँव मं जाना ही न हो तो वहाँ घर रखने का क्या ऄथष है ? ऄच्छे पैसे िमल रहे हं । आतने पैसे ‘कफक्स्ड िडपोिजट’ मं रखं, तो भी... ऄन्द्त मं िनकाल देने का ही िनणषय िलया । परन्द्तु हम सब भाआयं ने, एक बार सपररवार, ऄपने ईस घर मं कु छ कदन एक साथ रहने के िलए सोचा । हमेशा के िलए िनकाल देना है तो एक बार ईस घर मं सब एक साथ रह लं । और कफर लम्बे समय के बाद बंद घर खुला। देखते-देखते छोटे-बड़े पररवार जनं से वह सूना घर गूँजने लगा । आस ऄवसर पर एक नगरवासी िमि को गाँव के आस घर को देखने के िलए साथ ले गया था । पुराने कदन वापस लौट अए थे । िपताजी की मृत्यु के बाद मेरी माँ करीब-करीब ईदास रहतं । घर के सामािजक प्रसंगं मं भी िवशेष रूिच नहं लेती थी । वह भी यहाँ अकर सब के बीच प्रसन्न लगं । परन्द्तु ऄब घर की प्रत्येक दीवार मुझे ईलाहना देने लगी । दालान मं जहाँ मं हमेशा बैठता; जहाँ बैठकर पहली बार ककहरा िलखा; और जहाँ बैठकर छु रट्टयं मं ईच्चो िशक्षा के ग्रंथ पढ़ता था, वहाँ जाकर बैठा । वहाँ भीत से टेक लेते ही वह ऄन्द्दर ISSN –2347-8764

से मुझे िहला गइ । मंने पीछे मुड़कर ईस पर हाथ फे रा । वह कह रही थी – ‘एक तो आतने कदन बाद अए और ऄब बस हमेशा के िलए...’ मं व्यग्र हो गया । अँगन मं खाट िबछाकर बैठ गया । ऄब वहाँ खाली नाँद थी । खूँटे थे । परन्द्तु ढोर-डंगर नहं थे । परन्द्त,ु ईस ओर देखते ही मानो वे सब एक साथ रं भाने लगे । मं एकदम खड़ा हो गया । शून्द्य अँखं मं भरा हुअ अँगन देखता रहा... घर की यह खपरै ल । ककतने सारे चौमासं मं आसका संगीत सूना है ! यहाँ तोरण के बीच नीचे मेरी बहनं िववाह-मंडप मं बैठी थं, और यहं दादी, दादा और िपताजी की ऄर्षथयाँ बँधी थं । ऐसा लगा जैसे मेरा गला रूँध गया हो । घर के ऄन्द्दर के कमरे मं गया । बंद जजषररत कमरा, ऄिधक मुखर लगा । िपछली कदवार की एक जाली से थोडा प्रकाश अ रहा था । एक समय यह कमरा ऄनाज भरने की िमट्टी की कोरठयं और िपटारं से भरा रहता था । वह सब तो कब का िनकाल कदया है । परन्द्तु ऄभी भी कोने मं दही िबलोने का बड़ा मटका और खूँटी पर बड़ी रइ लटकी है । मं यहाँ जन्द्मा था; मेरी संताने भी... ऄब? बीच के खंड मं, जहाँ हम खाना खाते थे, वहाँ से होकर कफर दालान मं अता हूँ । माँ ऄके ली बैठी हं । सब आस समय आधर-ईधर हं । देखता हूँ कक बूढ़ी माँ रो रही हं । माँ को कम कदखाइ देता है, कम सुनाइ देता है। ऄब ऄिधक कदन िनकाल सकं , ऐसा भी नहं लगता । मंने पास जाकर पूछा – ‘यह क्या, तू रो रही है माँ?’ और वह जोर से रो पड़ी – ‘यह घर...’ बस आतना ही वह अँसू और िहचककयं के बीच बोल पाईं । िपताजी के ऄवसान के समय नहं रोइ थं, ईतना माँ आस समय रो रही थं । धीरे -धीरे िहचककयं के बीच ईसने कहा – ‘यह घर, मं जी रही हूँ तब तक मत िनकालो । मं ऄब कु छ कदनं की ही मेहमान हूँ । कफर तुम लोग जो चाहो...’ ‘परन्द्तु, माँ, तूने ही तो कहा था !’ ‘कहा होगा, परन्द्तु वापस यहाँ अने के बाद... नहं, आसे तुम मत बेचो ।‘ ईसका रोना बंद नहं हो रहा था । िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

माँ को रोता देखकर मुझे दुःख तो हुअ परन्द्तु अनंद िवशेष हुअ । लगा कक ईसका ह्रदय ऄभी जीवन्द्त है । ईसे ऄभी जगत मं, जीवन मं रूिच है । हम तो मान बैठे थे कक ऄब तो माँ बस कदन िगन रही हं । परन्द्त,ु घर के प्रित ईसका यह गहरा राग... घर िनकाल देने की बात को लेकर मेरे मन मं भी ऄन्द्दर-ही-ऄन्द्दर ऄपराध-बोध तो था। परन्द्तु ऄब तो एक प्रकार की तीव्र कसक ईठी । घर को सभी की सहमित से बेचने का िनणषय िलया था । आकरारनामा भी हो चूका था । लेककन ईस कदन से प्रत्येक सदस्य घर की बात िनकलते ही मौन हो जाता था । आतने मं छोटा भाइ मकान खरीदने वाले के साथ अया । घर के ऄन्द्य सदस्य भी एकि होकर माँ के अस-पास बैठ गए थे । माँ को समझाने का प्रयत्न करने लगे । ‘हम ऄिधक सुिवधावाला नया मकान आस गाँव मं ही बनाएँगे । आसी घर के पैसं से, तुम कहोगी वैसा ही...’ माँ ने कहा – ‘मंने आस घर की शहतीर तक, ईंटं चढ़ाइ हं । तुम्हारे िपता ने ककतनी ईमंगं से बाँधा है । आसिलए, मेरे जाने के बाद भगवान करे कक तुम लोग महल बनवाओ... परन्द्तु यह घर तो...’ । छोटा भाइ समय की नज़ाकत समझ गया । ईसने मकान खरीदनेवाले से कहा – ‘भाइ, कु छ समय रुक जाओ । यह घर दंगे तब, तुमको ही दंगे ।‘ मंने देखा कक हम सबकी छाती पर से एक पत्थर-सा हट गया था । बरसात के बाद खुले अकाश जैसा माँ का मुँह देखकर मानो जजषररत घर हँस रहा था । ऄदृष्ट गृहदेवता की प्रसन्नता का स्पशष सभी को हुअ था । *** ऄनुवाद : डॉ. अलोक गुप्त

सौजन्द्य : गुजराती लिलत िनबंध (संपादक : डॉ. भगवतशरण ऄग्रवाल और डॉ. रघुवीर चौधरी)

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िनबंध

मोढेरा और राणकपुर रघुवीर चौधरी

“चमकते चेहरं से देखो स्थापत्य की नयी शैिलयं की ओर” आन पंिक्तयं को ईमाशंकर जोशी ने किव डधल्यू. एच. ओडन के काव्य ‘िपरटशन’ –‘ऄरजी’ के ऄनुवाद से ईद्धधृत ककया है । वषं पूवष किव ईमाशंकर के मुँह से आन पंिक्तयं को सुना था । ‘स्थापत्य की नयी शैिलयं’ के साथ ईन्द्हं ने देश की संस्कृ ित की पहचान का िनदेश ककया था । मं भी देखता हूँ, कभी रुक कर, कभी िनिश्चन्द्तता से । सोचता हूँ स्थापत्य की नयी शैिलयं के संबंध मं । ऄन्द्य शहरं से अये िविभन्न भाषा-भाषी लेखकं से मं जब नये स्थापत्य के संबंध मं, स्थापितयं के संबंध मं, स्थल तथा समय के पररमाणं के संबंध मं बातं करता हूँ, तब ओडन की ये पंिक्तयाँ मुझे याद अती हं, मानं मेरा ईनसे वास्ता हो ! परन्द्तु किव िनरं जन भगत की संपादकीय रटप्पणी ने पूरा संदभष ही बदल कदया है: 1866 इ. मं ओडन ने ‘कलेक्टेड शोटषर पोयम्स’ – लघुकाव्य संकलन – प्रकािशत ककया । ईसमं ईन्द्हं ने आस काव्य को स्थान नहं कदया और तब से ईन्द्हंने आस किवता को रद कर कदया और प्रस्तावना मं आससे सम्बंिधत कारण कदया, “मंने एक बार ‘स्थापत्य की नयी शैिलयं’ को लेकर ऄपेक्षा प्रकट की थी, परन्द्तु मुझे अधुिनक स्थापत्य कभी पसंद नहं । मुझे पुरानी शैिलयाँ ऄिधक पसंद हं, और व्यिक्त को ऄपने पूवाषग्रहं के संबंध मं भी प्रामािणक रहना चािहए ।“ (पृ.60, ओडन के काव्य) नये स्थापत्य की ओर मेरा प्रितभाव ऐसा नहं है । पुराने स्थापत्य को देख मं स्वयं को जल्दी भूल जाता हूँ और िविभन्न कालं मं पहुँच जाता हूँ । वहाँ से वत्तषमान िस्थित के बीच की दूरी को पाने के िलए प्रयत्न करता हूँ। कभी स्थापत्य के संबंध मं, तो कभी समय के दो पहलुओं पर दृिष्टपात करते समय मोढेरा और राणकपुर याद अ जाते हं । ऄहमदाबाद से अबू के बीच िशल्प-स्थापत्य के ऄनेक रिक्षत रूप देखने को िमलते हं । ईनमं से कु छे क तो ऄनेक बार देखे हं । लेककन मोढेरा और राणकपुर के ISSN –2347-8764

साथ मानं मेरा जैसे कोइ पुराना वास्ता है । मोढेरा के सूयषमंकदर के सामने खड़े होने पर भूतकाल मं ईतरते जाने का भाव पैदा होता है । जो है वह पहले कै सा था ? ईससे पहले क्या था? और ईससे भी पहले जो कु छ था, वह क्या था? ऐसे ऄनेक प्रश्न अ घेरते हं । राणकपुर के मुख्य मंकदर का कु छ भाग ऄभी बाकी है । यूँ लगता कक ईसका भिवष्य है, वहाँ व्यवस्था है, स्थानीय व्यिक्तयं मं गरीबी और प्रेम है । राणकपुर की सृिष्ट भिवष्य के साथ जुड़ी हुयी है । अयोजन की गुंजाआश है । जब से मंकदर का िनमाषण कायष शुरू हुअ है तब से यािा अरं भ करनेवालं को के वल अगे ही बढ़ते जाना है । मोढेरा ऄतीतलक्षी है, राणकपुर वतषमानगामी । मोढेरा को देखने पर गहरी पीड़ा होती है, जबकक राणकपुर का आलाका दूर से याि​ियं को तत्काल संतोष प्रदान करता है । दोनं मं समानता के वल एक है । िवदा की बेला मं यह खयाल अता है कक जो कु छ ऄनुभव ककया वह था भव्यता का भाव । भव्य मं भी जो वरुण हो, वह पहले याद अता है । मोढेरा की बात कर रहा हूँ । रामकुं ड, कीर्षत-तोरण, सभामंडप, गूढ़ मंडप, गभषगृह – आन सबकी परस्पर स्पधाष कर रही िशल्पसमृिद्ध को चीरकर अनेवाली सूयष की ककरण िजस मूर्षत को छू ती होगी, कहते हं कक वह बहुत सुंदर थी । लेककन ईसे कौन कब ले गया, यह कोइ नहं कह सकता । आस मंकदर का िनमाषण 11वं शताधदी मं हुअ । देश का सबसे प्रिसद्ध सूयषमंकदर कोणाकष का है । मुलतान का मंकदर 7वं शताधदी का था । कन्नौज, िभन्नमाल, श्रीमाल, भेलसा, खजुराहो, मंदसौर अकद के सूयषमंकदरं के धयौरे की गहराइ मं ईतरने पर कश्मीर से तिमलनाडु और ईड़ीसा से गुजरात तक के प्रदेशं मं तथा इशु की प्रथम शताधदी की दहलीज़ तक पहुँच जाते हं । और यकद ईस दहलीज़ को पार करके ऊग्वेद की सृिष्ट मं पहुँचे तो कल्याण, प्रकाश, प्रेरणा, पोषण तथा गित को िनर्ददष्ट करनेवाले सूयष के िविभन्न नाम ऊिषयं के मंिोच्चोारं मं

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सुनाइ देते है : िमि, सूयष, सिवता, पूषन, िवष्णु... यहाँ शायद पुष्पावती के ककनारे भी मंिोच्चोार होता था । अज तो मंकदर की पिश्चमी कदशा मं नदी का के वल अभास होता है । पूवष कदशा का रामकुं ड अज भी यथािस्थित मं है । वह 52.5 मीटर लंबा तथा 26 मीटर चौड़ा है ईसकी सीकढ़यं से नीचे ईतरने पर बीच मं अनेवाली देहररयं मं वैष्णव मूर्षतयाँ हं । चारं कोनं मं थोड़े बड़े मंकदर हं । ये ऄपने मूल स्वरूप मं सुरिक्षत नहं हं । यहाँ देखभाल बहुत कम है । कीर्षततोरण का तोरण ऄदृश्य है और जीणष-शीणष होकर भी ईसके स्तंभ मूल स्थापत्य की कीर्षत का संकेत कर रह हं । सभामंडप ऄन्द्य की तुलना मं ऄिधक सुरिक्षत है । ईसमं चारं ओर से प्रवेश की दुिवधा है । ईसकी शृंगार-चौककयं की स्तंभाविलयाँ भी सुंदर हं । रे तीले और खुरदुरे लगनेवाले आस पत्थर पर जहाँ देखो सिसगार ककया गया है । कोइ भी पत्थर ऄनावृत या जड़ नहं लगता । समय का सामना करते-करते िधस जाने पर भी हरे क मं रूप की चेतना झलकती है । गभषगृह की प्रदिक्षणा करते-करते पीठ तथा मंडोवर के िशल्प गित को रोकते रहते हं । यहाँ देवताओं के साथ गंधवष तथा ऄप्सराएँ भी हं । यहाँ के पल्लवपुष्प ककसी को याद रहं या न रहं लेककन नैऊत्य कोने के द्वारपाल तथा मंडोवर के आन्द्र तो भूलकर भी भुलाए नहं जा सकते । यहाँ की चार सौ के करीब मूर्षतयं के बीच छोटे-बड़े का भेद ककया जा सकता है, लेककन ककसी एक छोटी खंिडत मूर्षत मं भी कला की सजीवता देखने को िमलती है । ऄथाषत ये िशल्प हमारी नज़रं को के वल रूप का नहं, गित का भी ऄनुभव कराते हं । मंकदर के बाहर अँखं को शांित दे ऐसा कु छ नहं है । आस समय बरसते पानी मं थोडा-सा फकष पड़े लेककन पहले तो यहाँ पानी की कमी नहं थी । ककसी काल मं पुष्पावती का प्रवाह तीव्र रहा होगा । िजतनी भी दंतकथाएँ प्रचिलत हं, ईनमं से, एक तो, सभी को स्वीकायष लगती है कक यहाँ पहले धमषरण्यथा । आस नाम से पुराण है । ईसका ऄध्ययन करनेवाले कहते हं कक ISSN –2347-8764

यहाँ हरा-भरा वन था । ईसकी घनी छाया मं धमष की ईपासना होती थी । खंभात तथा कच्छ के बीच अयी हुइ समुर की लहरं आस मंकदर की छाया मं शरण ढू ँढती थं परं तु आस मंकदर को हाथं मं सहेजकर धरतीमाता ने करवट बदली और ईस स्थान का जल सरक गया । जल और स्थल के ऄभेद की बातं तो वषं मं ऄंककत हुए िबना प्रवाह का स्मरण कराती हं । यहाँ के सभी संदभष प्रत्येक मुलाक़ात मं ऄतीतलक्षी बनते जा रहे हं । मुझे लगा कक प्राचीन काल मं भी खंडहर तो होते ही हंगे, ईन्द्हं देखनेवालं के ईद्गारं को टंककत ककया गया होगा । धुध ँ ले संदभष याद अने लगे । भायाणी साहब से पूछा । ईन्द्हंने ‘संस्कृ ित’ मं प्राकृ त भाषा के वाक्पित द्वारा ईद्धृत की गयी एक ईज्जड़ नगरी’ नामक लेख िलखा था, िजसमं ‘गईडवहो’ की 23 गाथाओं का ऄनुवाद कदया गया है । ईनमं से कु छेक िचि तो भुलाए नहं भूलते । भवन के तोरण के शीषष पर – दुगषम स्थान होने के कारण रटका रहा घंटा, लंबे समय तक न िखसकनेवाला रात का घना ऄंधकार, एक समान बन चुके तालाब और देवालय, वीरान बावड़ी का अभास देनेवाला छतिवहीन बरामदा, खेतो मं घूमता काल का हल – यहाँ के वल दृश्य ही नहं हं, दशषन भी है । ऄभी एक और गाथा ऄधूरे रह गए स्थापत्य की बात करनी है : 'पूण्यशािलयं ने िजन देवालयं तथा मठं का िनमाषण अरं भ करवाया था वे िवशाल पीठाबंध से ही ऄटके पड़े हं – असपास गढ़ी हुइ िशलाओं के ढेर पड़े हुए हं । िनमाषण कायष पूरा होने से पहले ही वे पुराने खंडहर बन गए।' (672) सौभाग्यसे राणकपुर का ऄधूरा िनमाषणकायष अगे बढ़ रहा है । यहाँ स्थापत्य को पीछे धके लकर समय अगे नहं िनकल पाया । ईस धमषक्षेि मं प्रवेश करते ही िवरल ऄनुभूित हुयी । नदी सूख चुकी थी । असपास की पहािड़यं के वृक्षं के पत्ते झड़ चुके थे । यािी भी हमारे समेत बीस से ऄिधक नहं थे, थोड़ी-सी स्थानीय बस्ती अगंतुक-सी लगती थी और सूयाषस्त का िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

समय था कफर भी कदम रखते ही वहाँ सबकु छ हरा-भरा लगा । मंकदरं के बीच खड़े होकर, सांस लेकर, नज़र घुमाएँ तो चारं तरफ की पहािड़याँ जैसे चौकीदार बनकर ऄिडग खड़ी हं, ऐसा अभास होता है । यूँ तो प्रवेश मागष ईत्तर-दिक्षण दोनं ओर से हं लेककन यकद बाहर से खड़े होकर देखं तो पहाड़ं की अड़ से मंकदर-संपुट कदखाइ नहं देता । स्वयं मगइ नदी भी यहाँ प्रवेश करने के बाद ही दशषन कर पाती है । ईसके ककनारे ककनारे मनुष्य द्वारा बनाइ हुइ सड़क पर संकेत बने हं । ईदयपुर तथा सादड़ीफालना दोनं तरफ से वाहनं का अनाजाना रहता है । अज तो राणकपुर का भूगोल काफी जाना-पहचाना हो चूका है । लेककन छ:-सात शताधदी पूवष दूर से ऄदृश्य तथा नज़दीक से ऄभेद रह सके , ऐसे स्थल के रूप मं ही आस भूिम को पसंद ककया गया होगा । सब तरफ की पहािड़यं की हथेिलयाँ जैसे साथ अ िमली हं और ईनके उपर यह मगइ नदी रे खांककत हो । बाहर से सुरक्षा तथा भीतर से सुंदरता । ईस िैलोक्य दीपक महािवहार रचाने की कल्पना की स्फु रणा िजसे हुइ ईस प्रथम भािवक की िजतनी कदर की जाए, ईतनी कम है । कुं भा राणा के प्रधान धारणाशा ने आस मुख्य मंकदर की नंव रखवाइ । प्रारं भ मं यह कायष ठीक-ठीक अगे बढ़ा ।दूसरं ने आस धार्षमक कलाकमष को अगे बढ़ाया । ऄभी भी थोड़ा काम बाकी है, और ईसे पूरा करने के िलए लाखं रुपये चािहए । भािवक लोग कमाएँगे और दान करं गे । यह प्रकक्रया चलती रहेगी । जैसा कक पहले बताया राणकपुर से संबंिधत बातचीत हमं समय के साथ अगे ले जाती है और ईसका भूतकाल जैसे ऄभी हाल ही मं थम गया हो, ऐसा लगता है । 'वृक्षाणषव' नामक वास्तुिवद्या के ग्रंथ मं आस प्रासाद का वणषन एक सौ दस श्लोकं मं है । िशल्प-स्थापत्य की भारतीय शैिलयं के ममषज्ञ श्री मधुसूदन ढांकी ने आस ग्रंथ को पढ़ा है । कहते हं कक आस मंकदर के सूिधार ने आसकी रचना की होगी । हमारे साथ भायाणी साहब तथा दलसुखभाइ भी थे ।

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वे चचाष करते-करते यहाँ के मंकदर, चौगान और पणषशाला मं धयौरं का ढेर लगा कदये, जो मंकदर के बुलंद घंटारव के बाद अंदोलन बनकर वातावरण मं फै ल जाता । आसमं ज़रा सी भी ऄितशयोिक्त नहं है । वह पूरा स्थल लौककक स्तर से थोड़ा-सा उँचा लगता है । हमारे भौितक बोझ को हलका कर देता है । तब मंकदर से संबंिधत धयौरे भी हलकी लहर या रमणीय ध्विन जैसी प्रतीत हं तो ईसमं कोइ अश्चयष नहं । तिनक बानग़ी देखं जो चतुमुषखी हो, िजसके चार सिसहद्वार हं, िजसमं चार कणषप्रासाद हं, चारं कदशा मं चार रं गमंड़प और तीन मंिजलं वाले चार मेघनाद-मंडप हं और चौरासी देवकु िलकाएँ ऄथाषत् देहररयाँ हं ! तो यह हुइ िैलोक्यदीपक िजनप्रासाद की व्याख्या। और ईसका ईदाहरण यह राणकपुर का मुख्य मंकदर ! भारत मं ऐसा चतुमुषखी मंकदर और कोइ नहं । मेघनाद-मंडप सामान्द्य रूप से दो मंिज़ल के होते हं । यहाँ पर तीन मंिजल के हं । आस महािवहार का मुख्य प्रवेशद्वार पिश्चम की ओर है । यहाँ कफर से मोढेरा का पूवषमुखी मंकदर याद हो अता है । ईसके प्रवेशद्वार और ज़मीन की सतह के बीच बहुत ऄंतर नहं है । आस महाप्रासाद मं पिश्चम की ओर से प्रवेश करने से पूवष एक सीमा तक नज़र उँची ईठाकर दो घड़ी रुकना होता है । अँखं मं कफर भी सब कु छ समा जाता है । यहाँ लगता है कक दृश्य बड़ा है । प्रवेशद्वार की उँचाइ के संबंध मं असानी से कहा जा सकता है कक छ: शताधदी पूवष के स्थापित-िशिल्पयं ने ऄपनी कलासूझ के द्वारा मनुष्य का मस्तक उँचा ककया है । आसी प्रकार, उँची जगती-प्लेटफॉमष पर चौरासी देहररयं की स्थापना हुइ है । चौरासी देवकु िलकाओं का िहसाब आस प्रकार िमलता है : प्रत्येक किल की चौबीस िगनने पर बहत्तर तथा ऄन्द्य देवं की और बारह । नंव का तलछट-लेअईट समतल नहं है । बीच मं होने से, अड़ी रे खाओं मं लय बनती है । मुखमंडप की छत के नीचे का एक िशल्प ध्यान खंचता है । िजसका नाम है पञ्चाङ्गवीर । ईसके पाँच शरीर ISSN –2347-8764

तथा एक मुख है । ऐसे िशल्प 14वं तथा 15वं शताधदी मं होते थे । िजन्द्हंने कल्पवल्ली का नाम सुना होगा वे भी पिश्चम के मुख्य मेघनाद-मंडप की सीकढ़याँ चढ़ते हुए यकद उपर नज़र करं गे तो स्तधध रह जाएँगे । पाँच फीट के व्यासवाले लंबगोल िशल्प ककसी भरावदार गहने जैसे हं । ऄन्द्य मंकदर के संगमरमर की ऄपेक्षा आस कल्पवल्ली का पत्थरं से समानता रखता है । बादामी रं ग का या वह रे तीला पत्थर, मोढेरा के पत्थरं से समानता रखता है या नहं यह तो नहं पता ।लेककन ईसकी कारीगरी की सूक्ष्मता खूब ऄच्छी तरह ईभरी है, दृिष्टगम्य बनी है । एक से ऄिधक मंिजल होने के कारण प्रितध्विन होती है । आसी कारण मेघनादमंडप नाम प्रिसद्ध हुअ होगा । ईसकी भव्यता का अस्वाद करने के बाद रं गमंड़प मं पहुँचते हं । संगीत-नृत्य को प्रस्तुत करने के िलए आस मंडप का ईपयोग होता । मुख्य रं गमंडप के बंदनवारं का पत्थर, कल्पवल्ली के पत्थर से िमलता-जुलता है । और ईसकी कलागत सूक्ष्मता की स्पधाष करती है । आस मंडप तथा गभषगृह के मध्य का बंदनवार ऄकबर के जमाने का होगा । स्तंभं पर देवमूर्षतयं के स्थान सुशोिभत हं। मुिस्लम िशल्प-स्थापत्य का प्रभाव भी है । आस देश की कलाएँ सांस्कृ ितक देन को स्वीकारने मं ईदासीन नहं रहं कभी, ईसीका एक पररणाम है िशल्प-स्थापत्य के समिन्द्वत रूप का िवकास । ईत्तर, पूवष तथा दिक्षण के मेघनाद मंडप की पद्मिशलाएँ पिश्चम की तुलना मं ऄिधक ऄलंकृत हं । लुंबन के रूप मं भी जानी जानेवाली आन पद्मिशलाओं को मंडप का गुम्बद पूरा करने के िलए उपर से िबठाया गया है । ईसकी संरचना तथा वजन सारे गुम्बद को ऄखंड तथा दृढ़ बनाती है । पद्मिशलाएँ उपर से नीचे की तरफ िखलते कमल का अभास कराती हं । साथ-साथ मुखभाग मं ईध्वष गितवाली मूर्षतयाँ हं । उपर से नीचे तथा नीचे से उपर स्फु ररत होनेवाला सजषन आसका प्रतीकाथष है । यही कु छ श्री ढांकी साहब ने कहा था - मुझे याद है । चार कोनं के चार कणषप्रासाद स्वतंि होने िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

के साथ समग्र मंकदर का ऄंग भी हं । ईन्द्हं रं गमंडपं तथा मेघनाद मंडपं के साथ शािमल ककया गया है । मंकदर मं प्रवेश कर जहाँ कहं भी खड़े हं, चाहे िजतनी दूरी से देख,ं गभषगृह की चौमुखी प्रितमा को ककसी एक मुख के सम्मुख पाते हं । बीच मं खंभे तो ऄनेक हं लेककन ऄंतराल एक भी नहं बनता । प्रकाश तथा हवा के अने-जाने के िलए भी स्थापितयं ने सावधानी बरती है । सुबह के अठ से शाम पाँच बजे के दौरान फ्लेश का ईपयोग ककए िबना ही फोटोग्राफ िलए जा सकते हं । यहाँ पर िबजली की सुिवधा है लेककन आस महाप्रासाद मं घी के दीये जलते हं Ι अत्मीयता का ऄनुभव होता है, शांित भी रहती है Ι संध्या की अरती हो रही हो तब िपछले कदन यहाँ अ चुका कोइ भािवक के वल आस घंटारव के द्वारा ही समग्र ऄिस्तत्व से यहाँ के वातावरण का ऄनुभव कर सकता है । ईसी प्रकार रात को सो जाने के पश्चात् बंद अँखं से यह मंकदर एक वातावरण के रूप मं साथ होने की प्रतीित कराता है Ι ऄके लेपन से िस्त नािस्तकं को भी यहाँ अना चािहए Ι ईनके मस्तक यहाँ के िशल्प-स्थापत्य के सामने झुक जाएँगे Ι और हृदय तृिप्त पाएगा Ι चालीस हज़ार चौरसी फीट का क्षेिफल तथा एक हज़ार चार सौ चौवालीस स्तंभ-संख्या कोइ छोटी -मोटी बात नहं है Ι यह नोट ककया जा सकता है कक ऊषभदेव के आस िैलोक्यदीपक महािवहार का मुख्य भाग इ.स.1443 का बना है तथा ईत्तर मंडप 1510 मं Ι ऄन्द्य तीन मंकदरं मं एक सूयषमंकदर है Ι ईसकी मरम्मत हुइ है Ι ईसके तथा नेिमनाथ के मंकदर के बीच िखड़कीवाली दीवार है Ι पीछे है मगइ नदी Ι वषाषऊतू मं जब वह बड़ी-बड़ी जलतरं गं के साथ बहती होगी, आस िवशाल दृश्य की सौन्द्दयषवािहनी बनती होगी Ι पतझड़ मं अनेवाले को वािपस लौटने से पहले यह िनणषय करना पड़ेगा कक एक बार यहाँ वषाष के मौसम मं अया जाय Ι

*** सौजन्द्य : गुजराती लिलत िनबंध

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वह जब बड़ी-बड़ी जलतरं गं के साथ बहती होगी, तब आस िवशाल दृश्य की सौन्द्दयषवािहनी बनती होगी Ι पतझड़ मं अनेवाले को वािपस लौटने से पहले यह िनणषय करना पड़ेगा कक एक बार यहाँ वषाष के मौसम मं अने जैसा है Ι

किवता िवदेश से

अँसू भर अये... रे खा शुक्ला

Chicago, USA

ऄनुवाद : डॉ. शिश ऄरोरा सौजन्द्य : गुजराती लिलत िनबंध (संपादक : डॉ. भगवतशरण ऄग्रवाल और डॉ. रघुवीर चौधरी)

िशल्पस्थापत्य

दो किवतायं

चलती-बोलती तस्वीर पूछे मक़सद तेज़कदम राहं की गुलमहोर की गिलयाँ सफर तन्द्हा चौबारे पे चूड़ी की दूकान खडकी से झाँकते सवालात िबखरी पड़ी हुइ गुफ्तग़ू पत्थर की हवेली से कहं दूर मेरे ऄपने मुझे पहचान कर अज भी देहाती मोड़ तलाशं नज़र बचा कर

जयदेव शुक्ल

ુ રાતી) (ગજ

किवता ♦ सागर ऄभी-ऄभी िहनिहनाया चट्टान से टकराकर नीला कांच चूर-चूर दूर खड़े जहाज आं र धनुषी बौछार से छलके खुल गइ िखड़की खारी हवा और सागर के लगे थपेड़े दूज रे खा िबन पतवार के तैरती रही भरपूर । ♦

अँसू मं बहते िलखूँ कक वो पहुँचे कहं ईस कदल तक ऄपने वतन की तलाश मं कदन गुजरे , जैसे ऄजनबी हूँ ऄब यहाँ जैसे एहसान ईतारा जाये ऄपने ही घर मं देखो कहं मेरे संग तेरे अँसू न ईभर अयं ऄब ना सोचना ! ♦♦♦

ગઝલ - સોલલડ મહેતા ચા઱ળાનો અથથ કેળલ ચાકડાને પ ૂછ તુ,ં

मल्हार ढु लकता रहो

કોણ આવ્યુ ં કે ગયુ ં તે આંગણાને પ ૂછ તુ.ં

♦ रातभर मुझ पर मल्हार बरसा... ढु लका... सवेरे ईठकर अआने मं देखा : अँख कान नाक बेला बेला बेला के वल ! ♦ ऄनुवाद : इश्वर सिसह चौहान

કેમ ભાંગ્યાં ભંતડાંને કેમ ઊગ્યુ ં ઘાસ ઩ણ, કોઈ ઘરનાં બંધ બારી-બારણાંને પ ૂછ તુ ં ! બબંબ સાથે અન્ય શુ ં છે ફૂટળાની ઴ક્યતા, જાત સાથે ળાત કરતા આયનાને પ ૂછ તુ ં પ ૂણમ થ ાંથી પ ૂણરૂથ ઩ે ઩ોત ઴ેન ુ ં

ઊઘડે?

ઊમટી છે ભીતરે એ ધારણાને પ ૂછ તુ ં ! મુક્ત થાળામાં કયું છે કેમ મોડું આ઩ણે, ળાયરાને કે ઩છી આ છાંયડાને પ ૂછ તુ ં ! જીળ સાતે ઩ામળાનુ ં હોય છે શુ ં પ્રેમમાં? ળાત દદ઱ની આજ 'સોબ઱ડ' ળા઱માને પ ૂછ તુ ં !

♦♦♦ ISSN –2347-8764

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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िनबंध

वषाषकाले जलािधजल रमेश र. दवे

िप्रय भानू, ऄशेष स्नेह, ऄच्छा, कल्पना तो करो कक मं कहाँ पर बैठकर तुम्हं यह पि िलख रहा होउँगा ? खेत या तालाब के ककनारे ? नहं । ऄपने गाँव की कल-कल बहती नदी के जल-प्रवाह के बीच पत्थर पर बैठे, पैरं को पानी मं झकोलते हुए? नहं, वहाँ पर भी नहं । तो ईस घने यदुम्बर वृक्ष की छाया मं सांढ़ी के महादेव के नीचे की और बने हुए पुल के उपर? ना, वहाँ भी नहं । चलो ऄच्छा, मं ही बताए देता हूँ । जब मं यहां पढ़ता था तब टीले की तलहटी मं लम्बी पड़ी हुइ जो िवशाल िशला थी – िजसका नाम हमने राम, लक्ष्मण और सीता रखा था – ईस पर बैठकर यह पि िलख रहा हूँ । और हाँ समय ! समय है नदी के ककनारे से वािपस लौटते पिक्षयं की कलरव ध्विन के शोर का । लगता है अज ईसे अषाढी प्रमाद ने घेर िलया है । मेरे चारं ओर ऄनेक रूपं मं लहराता हुअ ईतरता अषाढ़ फै ला हुअ है । सुदरू िक्षितज के ईस छोर तक फै लती पवषत-श्रेिणयं पर नज़र वैसे ही अड़ी-ितरछी घूम रही है । कल तक तो के वल एक रहस्य भर था वही अज ऄपने मृदु डोलन से मुझ पर ऄपना स्नेह लुटा रहा है । आसका हल्का हररत पीला रं ग मुझे िनरं तर ऄपने पास अने के िलए अकर्षषत करता रहा है । हवा शांत है । बादलं से िघरी मंडराती हुइ ईस चंचल ग्राम-कन्द्या का वैशाखी रूप तो न जाने कहाँ खो गया है। ऄब यह ककसी राजकन्द्या की भाँती धीर-गंभीर सी बह रही है । यही हवा मुझे बड़े प्यार से पुकार कर पहाड़ी के पीछे ऄदृश्य हो जाती थी । िबलकु ल मेरे मन के समान, सामनेवाला िमट्टी भरा रास्ता भी ऄब हरा हो गया है । आस रास्ते पर कु छ दूर एक पुराना-सा आक्का जा रहा है । मेरे मानस-पटल पर एक िचि ऄंककत होता है यह आक्का तथा ऄधेड़ गाड़ीवान द्वारा धोये गए िगट्टं के समान सफ़े द बैल, सब दोपहर होते ही बड़ के वृक्ष के नीचे िवश्राम कर रहे हं । प्रौढ़तापूणष सफे द अँखं वाले ISSN –2347-8764

गाड़ीवान की िचलम के धूंल से हवा के साथ बहती हुइ खट्टी-मीठी गंध मुझे बहुत ऄच्छी लगते है । बस, ऄब तो एक-दो सुट्टे की ही बाकी हं । बाद मं ऄधजली तम्बाकू को फं ककर, िचलम को जेब मं खंसकर, यह सो जाएगा। बीच-बीच मं बैल ऄपने माथे पर बैठे हुए कौए को ईड़ाने के िलए ककए गए प्रयत्नं से गरदन मं बँधे हुए घुँघरुओं की अवाज़ के द्वारा, गाड़ीवान की कौए-सी कच्चोी नंद मं, मीठी खलल पहुँचायंगे... परन्द्तु मेरे मन मं किल्पत मनोरम दृश्य के पूरे होने के पूवष ही एस.टी. की बस के ककष श हॉनष की अवाज़ गूँज जाती है । यह अषाढ़ का महीना मुझे बहुत ऄच्छा लगता है । आसका कारण है कक बस आन्द्हं कदनं मं तो मदमस्त होकर पड़े रहने ऄथवा समय-ऄसमय दूर-दूर तक घूमने का सौभाग्य प्राप्त होता है । ररमिझम पड़ती हुइ बरसात मं मेधं के बरसने न बरसने की दुिबधा का ऄनुभव करती हुइ बेला मं, ककसी तालाब के ककनारे ऄथवा ककसी एकान्द्त िशवालय के अँगन की दीवार से सटकर अड़े-ितरछे पड़े रहने का सुख ही तो सच्चोा एवं ऄतुल्य है। मंकदर के गभष-गृह मं से अती हुइ कनेर के फू ल, धूपचंदन तथा बुझे हुए दीपक की िमिश्रत गंध की सुगंध लेते समय, नज़र के सामने यकद अकाश लगातार बरसता रहे तथा आसकी ठं डक धीरे से अकर अँख की पलक पर बैठ जाये... और आसी क्षण नंद का झंका अ जाये । वाह ! ऐसा ऄलभ्य सुख ऄन्द्यि कहाँ संभव है? मेरी पढाइ और अषाढ़ मं तो ज़बरजस्त दुश्मनी थी । अज भी श्रावणअषाढ़ के महीनं मं तो मेरी चार-पाँच छु रट्टयाँ हो ही जाती हं । ईस कदन की बात ही ले लो । अकाश मानो दुश्मनं से िघरी हुइ युद्धभूिम के समान प्रतीत हो रहा था । मन मं प्रथम मेघ का स्वागत करती वषाषमंगल की पंिक्तयाँ गूँज रही थं । भीनी िमट्टी की महक से पोिषत गंध-संस्कार मानो िसहर ईठे थे । 'ईत्तम खेती और किनष्क नौकरी' – आस कहावत की व्यथा को सहन करता हुअ मं, ऄपने नगरपािलका के दफ्तर मं बैठा चेयरमैन के अने की

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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प्रतीक्षा कर रहा था । फोन की घंटी बजी । मन ने कहा – 'लो अ गया' – वैसे मन मं सोच रहा था कक काश ! यह ऄफसर न ही अता तो मं ऄचानक िघर अये मेधं का अनंद लेता हुअ िवक्टोररया पाकष तक लम्बी मटरगश्ती करता । ऐसा भाग्य अिखर लाता कहाँ से ? पर लगता है ईस कदन मेरा भाग्य ज़ोरं पर था । एक साथ ही दो-दो अश्चयष ! फोन पर तो तुम थं और थं मेरी िप्रय पंिक्तयाँ : ककतने अकाश से वषाष की धार से धरती के ह्रदय तक एक बार बाँध कदया, ककसने यह फे र दी िबजली की उंगली शुष्कता को दे िबदा, राग कोइ छे ड़ कदया ! * सच, सच कहूँ भानू ! आन पलं मं यकद कोइ मेरी पूरी अयु भी माँग लेता तो भी मं कणष से ऄिधक दानवीर ही सािबत होता । वैसे आस कदन के पश्चात् ही तो मंने ककसी समर्षपत अधीन राजा के समान ऄपने पर तुम्हारा सम्राज्ञी-पद स्वीकार करने का शुभ कायष ककया था न ! मुझे बहुत ऄच्छी तरह याद है कक आससे पहले ककसी को भी न संबोिधत ककये जानेवाले कोरे -क्वाँरे शधद से तुम्हं संबोिधत ककया था । 'मानसी िप्रय !' कल्पना ही कहाँ थी कक मन मं िचि​ित प्रितमा कभी आस प्रकार साक्षात् प्राप्त हो जाएगी कक ईसे हाथ बढ़ाकर छू ने का सुख पा सकूँ गा ? मेरी कल्पना थी कक कोइ तो ऐसा हो िजसके साथ िमल बैठकर मं स्नेह और िमिता बाँट सकूँ । ऐसा ही हुअ है न? भला मेरे अँगन मं आससे ऄिधक सुख का सूरज और कौन-सा ईग सकता था? यह अषाढ़ का महीना मुझे बहुत ऄच्छा लगता है । कारण, यह छा जाता है । आसके मेघाडंबर के पश्चात् शरदकालीन ईत्तर मेघं की िबदा के बाद ही तो मुझे िबन माँगे वरदान सा यह शालीन अकाश प्राप्त होता है त् जल भरा अषाढ़ तथा जल िनथरा शरद, एक िनरे रं गं से भरपूर अवेगपूण,ष तो दूसरा स्वस्थ, शांत तथा िशष्ट । पर एक बात है कक आस अषाढी अकाश मं गरजते मेघाडंबर से व्याकु ल होने का अनंद तो कोइ िवरला ही जान सकता है । किवयं ने भी तो आसे िवरहीजनं की ऄमूल्य संपित्त माना है । ISSN –2347-8764

मेघाच्छाकदत काला अकाश तथा यौवन की मस्ती मं भरपूर लबालब ईफनती ऄल्हड़ पागल नकदयाँ, छलकते तालाब तथा ढेरं ढेर पानी पी-कर जमे हुए बबूल के काँटं की बाड़ और बीहड़ वनं मं, मेरे बड़े भाइ ने मुझे बहुत बार भटकाया है । मं तो था एक दीन-हीन डरपोक लड़का । मेरे आस डर से भैया को बहुत ही िचढ़ थी । ईनके भाइ का ऐसा डरपोक होना ईनके िलए तो एक लाँछन ही था । वह मुझे खूब मना-पटाकर ऄपने साथ नहाने ले जाते । घर के सामने ही नदी थी और वहां से कु छ ही दूरी पर तालाब भी था । वह मुझे ऄपने कं धं पर बैठाकर जहाँ तक चल सकते थे चलते कफर तैरकर तालाब की दीवार पकड़ाकर ऄपनी थकावट ईतारने का ढंग करते ऄचानक ही 'जल-सपष' िचल्लाने लगते । मेरी अँखं के सामने से पत्थर, तालाब की दीवार, पानी सब गायब हो जाता और नज़र बड़े भाइ की चमकती, गंभीर, बेधक अँखं पर चुपक जाती । अड़े-ितरछे होते हुए, हवा मं हाथपैर मारकर मं जैस-े तैसे भैया के गले से िलपट जाने का प्रयास करता । पर जैसेजैसे मं ईनके पास जाता वह मुझसे दूर सरकते रहते । आस प्रयत्न मं मं थोड़ा पानी भी पी जाता था । आस प्रकार बहुत छोटी ईम्र मं ही ईन्द्हंने मुझे एक-दो युिक्तयं द्वारा तैरना िसखला कदया था । पर, यह सुख का समय तो भादं मं ही सरक गया । चौदह वषष की अयु मं ही एक िनष्ठु र सुबह ने मेरी यह सुख-संपित्त लूट ली । लोकशाला – लोकभारती मं प्रथम वषष यानी मंगल-ईतसव ! कक्षा चल रही हो ऄचानक ऄंधाधुध ं बरसात बरसने लगी तो कक्षा की िपछली कतार से कोइ छाि हमारे सहृदय िशक्षक बचुकाका से लाड़ भरी मनुहार कर, गीत गाने का ऄनुरोध करता । बचुकाका तथा प्रहलाद पारे ख 'दिक्षणामूर्षत काल' से ही सहकमी रहे हं । काका ऄपने गीत बड़ी ही मधुरता से गाते थे । ये गीत हमं भी बड़े प्यारे लगते – 'देखो तो ईन खेतं मं कोइ पावा (बाँसुरी जैसे वाद्य) बजाता जा रहा है ।' या कफर 'ओ री बदरी ! तू कहाँ जा िछपी...' और 'पुकारता है, कदल पुकारता है, मुझे कदल पुकारता है... ।' ये सभी गीत हमने ईनसे खूब िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

गवाए व गाए हं । एक बार शुरू होने पर तो गीतं की शृंखला ही बन जाती थी । नाथालाल दवे का गीत – 'ऐसी अये धरती की पुकार रे , भीनी माटी की गंध अये याद रे ...' – गीत के पूरे होने से पहले मनुभाइ के पास नहाने का प्रस्ताव लेकर गया हुअ हमारा मुिखया, लम्बी ररसेस की घंटी बजा देता और हम सब बिनयान-कच्छे लेकर िनकल भागते । ईस समय माटी की माया, ममता बहुत अकर्षषत करती थी । भीगने की अनाकानी करते हुए दोस्तं को, दोस्ती की कसम दे-देकर पानी से भरी ज़मीन मं झकोरते और मुँह पर िमट्टी का चंदन लेप करते । हमारा यह ईत्साह तो मनुभाइ को भी नहं छोड़ता था । ईनकी तंद पर िमट्टी का लेप करने की अत्मीयता का अनंद तो कु छ और ही होता था । आन क्षणं मं एक ऄन्द्य कोमल-सी मोहक घटना का स्मरण हो रहा है । िमट्टी-पानी के खेल मं लपेट देने के ऄपने िमिं के प्रयत्नं को जब मं ऄपनी नुकर से ऄसफल करने का प्रयास कर रहा था, तभी ईसी वषष अइ हुइ एक ऄनजानी लड़की दौड़कर अइ थी और ईसने मेरे मुख पर सुगिन्द्धत िमट्टी का लेप कर कदया था । आसके बाद ईस संस्था मं लगभग डेढ़-दो वषष ईसके साथ रहा पर कभी भी शधदं का सहारा नहं लेना पड़ा । नाम तक भी तो नहं जाना । हाँ, सामने पड़ने पर अँखं ऄपने धमष से कभी नहं चूकती थं । एक ही रं ग मं रं ग जाने के िलए हम सबके पैर मानं ऄपने अप ही साँढ़ी के महादेव के रास्ते पर चल पड़ते । बीच मं दो-एक बार नदी भी पार करनी पड़ती थी । एक बार टेिलया बड़ (बरगद) के मोड़ पर तो दूसरी बार पुल के उपर से । िजनको तैरना अता था वे सब एक-दूसरे के हाथं को जोड़कर सांकल-सी बनाकर, ईसकी एक ऄचल दीवार बना लेते । िजस ककसी को तैरना न अता ऄथवा जो कोइ तैरना सीख रहा होता, वह ईस बाढ़ पे अइ नदी को सभी को जोड़कर बनायी गयी सांकल की दीवार के सहारे पार करता । जो डर के मारे एक कदम भी न अगे बढ़ा पाता, ईसके सामने मनुभाइ हाथ बढ़ाते और ईसका भय रफू चक्कर हो जाता। ईन कदनं मं सूरत िजले की अकदवासी कन्द्याओं का तरणकौशल

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तो देखते ही बनता था । महादेव के मंकदर के प्रांगण मं पहुँचने के बाद सबकी िगनती होती थी । कदया हुअ नंबर सबको याद रखना पड़ता था और ईसके बाद तो जलकु ण्ड मं छपाछप, छपाछप बस के वल छपाछप । मनुभाइ भी ककनारे पर रुककर अकोली के पेड़ की नयी ईगी हुइ टहनी तक पहुँचने और वहाँ से पलौठी मारकर छलाँग लगाते थे । ईनकी छलाँग से ईड़े हुए पानी के छंटे ईनके पीछे छ्लांग लगाने की पंिक्त मं खड़े हुए, ऄपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए िवद्याथी को सर से पाँव तक िभगो देते । वािपस लौटते समय भी बरसात िगरती ही रहती थी । शुरू से ही मनुभाइ को कफ़ की तकलीफ थी । आसिलए चार लोग, चार तरफ से नहाने का तौिलया ईनके िसर पर तान कर चलते । ईनकी बातं मं पंचािशया तथा बीकानेर मं बीता हुअ ईनका शैशवकाल सजीव हो ईठता था । कै म्पस पर वािपस पहुँचते ही िविलभाइ कोठारी की बनाइ हुए गरमागरम संठ खाने को िमलती । ईसमं संठ आतनी ऄिधक होती थी कक पूरा शरीर गरमाहट से भर ईठाता था । लो, सूयषदेव ने ऄपना प्रकाश फै ला कदया । तृणांकुरं के पीले रं ग ऄब स्वणष रं ग मं रं ग गए हं । ऄपनी आस स्वणष-यािा को पूरा करके जब मं वािपस लौटता हूँ तो लगता है कक मं भी ककतना मूखष हूँ । ऄपने सामने की सजीव किवता को जीने की जगह िवप्रलंभशृंगारयुक्त काव्यं का शोधकायष कर रहा हूँ । आन कदनं दूर बसे हुए रामिगरी, ईज्जियनी, यक्ष व मेघ तथा 'तन्द्वी श्यामा िशखररदशना पक्विबम्बाधरोष्ठी' – श्लोक का स्मरण हो अता है । ऄपने घर की दिक्षण की ओर बनी हुइ िखड़की मं खड़ी तुम्हं भी कोइ पूवषमेघ आस पाि के साथ अ िमलेगा । हे पृथक् विनता ! धैयष रख ! कल सिहवं शताधदी के जैन किव जयवंत सूरर की 'स्थूिलभराकोशा प्रेमिवलास फाग' नामक रचना पढी । स्थूिलभर की िवरह व्यथा को सहन करती कोषा कहती है – मं क्यं नहं एक ऐसा पक्षी जो मंडराता िप्रय के पास, क्यं नहं मं हूँ ऐसा चंदन जो िप्रय के तन का वास । ISSN –2347-8764

भानू, तुम आस िवरह-बेला मं क्या बनना पसंद करोगी? िलखना । और... हाँ ! मुझे लगता है कक जब तुम्हं मेरा यह पि प्राप्त होगा, तब तुम 'कान्द्त' की आन प्रिसद्द पंिक्तयं को जरूर याद करोगी : मटमैले हुए भूरे पवषत पर एक से एक शृंग हं, वषाषकाल मं जलिधजल के बजते मानो तरं ग है । तुम स्फू र्षतदायक मातनाथ के टीले के स्मरण मं लीन होगी । ऄच्छा, मेरी वात यकद झूठ हो तो िलखना । िलखना कक आन पलं मं तुम कहाँ खोइ हुयी थी? बस ऄब हमारे िवरह को समाप्त होने मं ऄिधक समय नहं है । श्रावनी पूर्षणमा को िमलते हं । तो बस... । - तुम्हारा और हाँ, आषाढ़ का र्ी िनके त ♦ ऄनुवाद : डॉ. प्रणव भारती ♦ सौजन्द्य : गुजराती लिलत िनबंध (संपादक : डॉ. भगवतशरण ऄग्रवाल और डॉ. रघुवीर चौधरी)

प्रेरक प्रसंग

शधद गलत मगर मोहन सच्चोा ! स्कू ल मं पहले ही वषष का प्रसंग । िशक्षा िवभाग से आं स्पेक्शन के िलए ऄिधकारी अए थे । ईन्द्हं ने पहली कक्षा मं पढ़ते छािं को पांच ऄंग्रेजी शधद िलखवाये । वह शधद था – 'Kettle'. मोहन ने वतषनी गलत िलखी । मास्टर जी ने ईन्द्हं बूट की नंक धीरे से लगते हुए चेताया । मगर मोहन की समझ मं नहं अया । मास्टर तो आसिलए होता है न कक छाि अपस मं चोरी न करं ! मोहन के कदमाग मं यही तो छाप थी । पररणाम यह अया कक सभी छािं ने पाँचं शधद सही िलखे और ऄके ला मोहन ही गलत हुअ । ईनकी 'मूखषता' के बारे मं मास्टर जी ने बाद मं समझाया । मगर मोहन को कभी दूसरे मं से चोरी करना अया ही नहं । आसीिलए मोहन जब बड़ा हुअ तो सत्य का महान ईपासक बना और महात्मा का सम्मान भी िमला । वो मोहन था, हमारे महात्मा गांधी !

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िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

लघुकथा

कन्नी

ऄतुल कु मार व्यास

वह सीढ़ी चढ़कर उपर अया । ईसका सात साल का बेटा पंतग ईड़ा रहा था । पतंग अकाश मं बहुत उँची ईड़ान पर थी । वह छत पर बने छोटे से कमरे मं अया । वहाँ रखे हुए अआने मं ईसने ऄपना चेहरा देखा, कं घी से बाल सँवारे । ईसकी ईम्र छत्तीस साल की थी मगर छधबीस का लगता था । सामने वाली छत पर श्वेता प्रितकदन आसी समय कपड़े सुखाने अती और दोनं की नज़रं िमलतं । परस्पर हंठ मुस्कु राते और अँखं ही अँखं मं बात होती । अज भी ऐसा ही हुअ । छत्तीसवं वषष मं भी ईसमं िनिहत “युवक” जी रहा था । ऄचानक ईसके बेटे ने अवाज़ दी; 'पापा, जल्दी अआये प्लीज़...' 'क्या हुअ?' वह कमरे से दौड़ा अया । 'पापा, मुझे लगता है कक पतंग के उपर पहुँचते ही ईसकी कन्नी िछटक गइ है... देिखये...' 'हं.. ?' ईसकी नज़रं श्वेता की ओर थं और ईसके बेटे की नज़र उपर हवा मं गुलाटी मारती पतंग की ओर ... ! ♦♦♦ ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी

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िनबंध

दूर के वे सुर कदगीश मेहता

बचपन के कदनं की याद जैसे तपी हुइ धरती मं से, बाररश की पहली झड़ी से, ईसमं से संधी महक ईफनती है । मुझे याद अती है वे रातं ! पूरे कदन घूल और गमी मं िलथड़ने के बाद, छत पर खूब पानी छाँटकर िबछाये गये िबछौनं पर पड़ने का ऐसा तो मज़ा अता ! चाँदनी जैसी स्वच्छ ईन चादरं पर ठं डक के तो डबरे छलकते होते । ईसमं छ्प-छप करते ऄपने ईस बड़े पररवार के हम बच्चोे सो रहते । हममं से कोइ-कोइ तो िबछौने पर न जाने कब तक जागते हुए पड़ा रहता । कभी हम उपर रटमरटमाते तारं भरे अकाश की ओर फटी अँखं से देखते रहते । तो कभी अँख मूँदे, बगल मं लेटे बुजुगं की बातं की ओर कान लगाते । मं ईनमं से एक था । शादी के न्द्यौते मं खाकर अया होउँ । मुँह के पान की गमक ऄभी गयी न हो, माथे पर चंदन का टीका सूखा न हो, कलाइ से आि की गमगमाहट ईठती हो, तुरंत का चुन्नट ककया हुअ पीताम्बर तार पर फहरता हो... ...और िबछौने मं पड़े-पड़े सुनूँ तो दूर-दूर, बंडबाजे के सुर ईठते हो । अज भी वे सुर मुझे कइ बार घेर लेते हं, जबकक ऄपने ईत्तर गुजरात के ईस गाँव को छोड़ने के बाद, वास्तव मं तो वे कभी भी सुनाइ नहं कदए । मन के जागते रहते, सबसे ऄंितम पट तक वे दूर के बंड के सुर मेरे संग अते । कफर शुरू होते ईस तंरा के सान्द्ध्य प्रदेश - Twilight । धीरे -धीरे नंद का गहरा, गाढ़ा, मखमली परदा सिखचता अता; तरह-तरह के स्वरं और प्रबल आच्छाओं मं वे सुर गुथ ँ जाते; समा जाते और आस प्रकार थम जाते... कफर जागरण का झंका अता; हवा की लहर पर वे बंड के सुर कफर से सुगबुगाते; कफर थमते; कफर ईभरते.... थोड़ी देर ठहरकर अँख खोलता तो सवेरा हो चूका होता। उपर के चौखटे मं से झुके हुए अकाश का नाजुक सुनहला परदा, धीरे -धीरे खुलता हुअ रुपहला बनता, कफर चटक सफे द, और कफर गाढ़ा नीला... ISSN –2347-8764

कदन के ईजाले मं रातवाली बारात के वे सुर कहाँ खो जाते हंगे । ईस रं च किव ने पूछा है न कक Where the Snows of yester years? - िपछले साल का वह िहम कहाँ? वलेआन पलभर को तो हमं ऐसे श्रम मं डाल देता है कक – आस साल िगरता यह नया िहम 'नया' होगा ही नहं? वही का वही होगा? कक कफर ऐसा तो नहं होगा कक यह नया साल खुद ही नया न हो, वही का वही हो, साल बदलता ही न हो ! किवता की उष्मा मं समय िपघल जाता है, ईस िहम की तरह । सवेरा होते ऐसा ही लगता है की सच्चोा क्या? और कल्पना क्या? रातवाली ईस बारात के सुर सच्चोे कक सवेरे का यह चूँिधया देनेवाला ईजाला? बारात के बंड के सुरं के साथ ही तैर अते हं बारात के रूप । सजन और महाजन के बीच ठु मकता, नाचता, नजाकतभरा, चाँदी की वस्तुओं से चमचमाता, काला, कसा हुअ वह लीम्बूिमयाँ का घोड़ा । काकासाहब कालेलकर को िहमालय देखकर ऐसा लगा कक 'आस िहमालय ने क्याक्या नहं देखा होगा?' शादी के घोड़े को देखकर भी शायद हमं ऐसा ही लगे । आस घोड़े से क्या ऄनजान होगा? आसकी पीठ पर कै से-कै से ऄरमान, ककतनीककतनी अशाएँ सवार हो चुकी हंगी ! और ककतनी ही िनराशा और अत्मवंचना के बोझ की ईसने ईसी ठु मकती चाल से ढोया होगा । धन्द्य है ईसकी तटस्थता ! ईसकी पीठ पर चाहे कोइ भी आितहास लादा गया हो, पर ईसकी तो वही की वही गित रहती.... वही तालबद्ध चपलता । और साथ मं खेलती अतं वे पेट्रोमेक्स की प्रितमाएँ । ईनके कं ठ गाढ़े हरे रं ज होते और ईनमं से िससकारी भरता, अँखं को चूँिधया देता, लाल-िपला-नीला प्रकाश फै लता । दूल्हे राजा के एक ओर तीन बत्तीयाँ, दूसरी ओर तीन । आन तीन-तीन की लिड़यं की रचना मं हमेशा कोइ न कोइ सुन्द्दर ऄिनयम रचा ही होता । क्या पता क्यं? परन्द्तु कभी भी एक समान देखा हो याद

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नहं – मोहक ढंग से, परन्द्तु टेढ़ी-मेढ़ी । ईन बित्तयं को ढोने की कला हमारे गाँव की तेली कौम की वे औरतं ही जानतं । वह ईन्द्हं के खून मं होता है । यहाँ तक कक गाँव की उँची से उँची जाित की औरतं ईसे ढोयं तो भी, मुझे लगता है कक बारात की ईतनी वाहवाही न होती, कदन दहाड़े दूल्हे राजा आन पेट्रोमेक्स ढोनेवाली औरतं को पहचानं भी नहं, परन्द्तु बारात की रात को ये औरतं जहाँ तक प्रकाश फै लायं नहं वहाँ तक दूल्हे राजा को रास्ता भी नहं सूझता... और ईनकी िवनम्रता कै सी? दूल्हे राजा को मंडप मं पहुँचाकर वे ऐसी तो ऄपने एकांत मं खो जाएं कक खोजने पर भी न िमलं... ऄब तो वह कौम कम होती जा रही है, और ऐसी बारात भी । शुरूअत मं अता बंड और ईसके भी अगे झूमता-डोलता अता वह बालसाजन । बंडवालं की भड़कीली पोशाकं के बीच रं ग-िबरं गी कमीज-चड्डी चमकती ही होगी। बंडमास्टर के फू ले हुए, बुलबुले जैसे, दोनं गालं पर एक-दो काली अँखं तो जडी ही होतं । बंडमास्टर बच्चों की नज़र मं बारात का सबसे ज्यादा महत्त्वपूणष व्यिक्त िगना जाता । यह तो सही है न? ईसकी अँखं के आशारे पर पूरी बारात चलती, ईसके स्वरं की तान पर पूरा गाँव गूँजने लगता । वह बंडमास्टर तो ऄनेक लड़कं का िछपा अदशष ! ईसकी ितरछी टोपी, ईसका पान की पीक चुअता मुँह, ईसकी ज्यादा जगने से लाल हुइ अँखं, ईसका काला कोट.... ईसके अगे, ईसकी आस शान-शौकत के अगे राजा का मुकुट ऄथवा डॉक्टरे ट का चोगा भी तुच्छ लगे । ...और दूसरे कदन ईसी महोदय को गाँव के ककसी िनजषन स्थान पर बैठे बीड़ी बनाते देख लड़कं को भ्रांित-भंग होने का ऐसा धक्का लगता ! कल रात के आस सावषभौम सत्ताधीश की कदन मं, यह दशा ! आस तरह हम लड़के ईस गाँव की गिलयं मं से ही िज़न्द्दगी की और बड़ी-बड़ी भ्रांितयं भंग के िलए, बहुत कु छ सीखते अते, ऄनुभवी होते जाते... शहर का यह सब सुख है कक वहाँ भ्रांित सुरिक्षत रहती हं। शायद आसी कारन से गाँव िबखरते जा रहे हं । और साजन... वह तो जैसी जाित । ISSN –2347-8764

चमचमाते सफे द लम्बे कोट मं सुसिज्जत, भरावदार, भर, जन्द्म से धनवान, गम्भीर, स्वस्थ – कु छ-कु छ मोटे-तगड़े – जैसे बिनये... या कफर कु छ िबनबाँह का कु ताषकमीज-कोट जैसे िचतकबरे पोशाकं वाले, गोल चेहरा, गोल टीका, गोल पेट – ऐसा ही पूरे व्यिक्तत्व मं, ऄरे ! पूरे जीवन-दशषन मं, गोल लड्डू के गोल-गोल िवचारं को लेकर चले अते ब्राह्मण... या तो कफर कु छ कान मं बाली, गाढ़ी लाल-हरी कमीज के उपर चाँदी के बटन, बड़ी का धुअ,ँ काश्मीरी टोपी, नया साफा और कहं ईस पर भी सुनहली टोपी – आस प्रकार के वैभव से सुशोिभत असपास के ककसी गाँव वाले की बारात... िडजरायली की जीवन-कथा मं अंरे मोवां एक सुन्द्दर प्रसंग का िज़क्र करता है । एक मेजबानी मं िडजरायली ऄपनी बैठक मं गहरी चचाष मं ईतर पड़ा था, हवा बंधी थी, और जीवन का अदशष कै सा होना चािहए, आसकी चचाष चल रही थी । चचाष का िबन्द्द ु घूम-कफरकर िडजरायली के पास अया । अदशष जीवन कै सा होना चािहए? "पालने से शुरू होकर कब्र तक... धनवान की बारात जैसा !" सिज़दगी के ऐसे चाहकं को शुरू से लेकर ऄंत तक ऐसी ही धूम-धाम चािहए, यही दबदबा । िस्पनोजा जैसे ज्ञािनयं के द्वारा बनाया गया सिज़दगी का ढाँचा, ईनको नीरस लगेगा, ईनको यह नहं जमेगा – कफर भले ही यह ढाँचा शुरूअत ही से इश्वरमंिडत हो । ऄपने दूल्हे राजाओं को भी ईनके सफ़र के एकाध पड़ाव मं तो ऐसा ही लगता होगा कक यह बारात कभी रुके ही नहं, ऐसे-हीऐसे चलती रहे, तो ककतना ऄच्छा ! ईनका दोष नहं । क्षणभर के गुलाब को चुनने मं वह दूसरे छोर पर राह ताकती रातरानी को भूल जाये तो माफ़ नहं ककया जा सकता? ईसको कहा जाना चािहए कक 'फू ल चुन, सखे !' ... बाद मं पूरी की पूरी जयमाला तो है ही । मनोिवज्ञान का कहना है कक हर एक व्यिक्त ऄपने व्यिक्तगत भूतकाल के ऄलावा ऄपनी समूची संस्कृ ित के भूतकाल को भी ऄपने सुषुप्त मन मं संग्रहीत करके चलता होता है। बारात देखकर ऐसी पुस्तैनी स्मृितयं मं से िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

एक-दो प्रसंग ताजे हो जाते हं । एक तो पुराणं द्वारा पररिचत कराया हुअ और तुलसी द्वारा िचि​ित ककया गया िशव िववाह – भूत-प्रेतं, साधु-सन्द्यािसयं की बनी हुइ वह िशवजी की बारात । िवराट िहमालय के ईत्तुंग सौन्द्दयष से सजी ईस िवराट की बारात । ग्रीस के पुरातन ऄवशेष पर ऄंककत युगल को देखकर कीर्टस के मुख से िनकल पड़ा; For ever wilt thou love, and she be fair. आस िशवस्मृित के साथ हमारे मन मं भी ऐसा ही अशीवषचन अये... दूसरा प्रसंग है नेिमनाथ का । हेम्लेट िबना का 'हेम्लेट' जैसा िनजीव लगेगा, वैसी ही दूल्हे िबना की बारात । नेिमकु मार ने ऐसी ही पररिस्थित का िनमाषण ककया । राजुल की वरमाला कुँ अरी रही । िववाह मंडप के तोरण सूख गये । स्वजनं के चेहरे मुरझा गये । नेिमनाथ ने महािभिनष्क्रमण ककया । कफर से एक बार िवचार ने, व्यवहार को झकझोर कदया । िशव और नेिम – मानव-मन की दो िविशष्ट गितयं के ऄमर प्रतीक । तीव्र वैराग्य से संसार का त्याग करते िशव, शिक्त की मोिहनी के शरण मं अकर धरती की उष्मासभर गोद मं ईतर अते हं – स्थूल का सहज स्वीकार करते हं... यह है एक गित । दूसरी गित का प्रतीक है – नमी । भोगिवलास और जड़ ईपभोग से ईफनते जगत के बीच रहते नमी को एक ही दृश्य का तीखा चाकू हमेशा के िलए आस जगत से, संसार से, िवरक्त कर देता है, साथ मं राजुल को भी... नेिम और राजुल स्थूल पर सूक्ष्म की, क्षिणक पर शाश्वत की िवजय दशाषता है । सती और राजुल – एक ही शककत के दो चेहरे । सती का चेहरा संसार के तरफ है – ईस पर की मुरा है मृद,ु सिहष्णु, करुणामय । जबकक राजुल ने संसार की थाल पर से अँख ईठाकर उँचे लक्ष्य की ओर नज़र की है । ईसके चेहरे पर हं छटाएँ कठोर तपस्या की, ऄनन्द्त श्रम की, तीव्र साधना की... और ऄंत मं तो दोनं मुराएँ एक-दूसरे की पूरक हं, एक ही स्त्री के , दो रूप हं । ऄपने पुराणं के ग्लाआडर मं बैठ उँचाइ पर

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पहुँचा मं नीचे ईतरता हूँ तो अस-पास कै सेकै से िविचि दृश्य कदखाइ देते हं? ख़ास करके पिश्चम की ओर से चढ़ती वह िवलक्षण बारात ! टी.एस.आिलयट ने साथ की ईम्र मं िनकाली ! बट्राषण्ड रसेल ने ऄस्सी मं । और आसमं कु छ नया नहं है । सिहवं-ऄठारहवं सदी के ईस मनमौजी नाटककार ने िवशरली कहते हं कक ठीक मृत्यु के िबछौने पर, पकी ईम्र मं, बारात िनकालना िनिश्चत ककया था । ऄपनी 'कॉिमक' जीवन शैली पर वह िबना ककसी कलश के कै से चढ़ता? और शधदं के ऄथं की कोइ सीमा होती है? हमेशा कुं अरे रहते एक िमि से हम रोज पूछते हं, "यह बारात कहाँ तक जारी रखनी है?" आसिलए सच्चोी बारात तो शादी न करनेवाले की ही... ईस बंड के दूर से सुनाइ देते सुर न जाने कहाँ से कहाँ ले जाते हं !... ♦ ऄनुवाद : प्रो. श्रीराम ि​िपाठी ♦ सौजन्द्य : गुजराती लिलत िनबंध (संपादक : डॉ. भगवतशरण ऄग्रवाल और डॉ. रघुवीर चौधरी) (पेज नं. 52 से)

लालटेन के ईजास मं

और रोग से खाँसते बापा- सिचितत बा लालटेन के ईजास मं जागते रहते । आसी लालटेन के ईजास मं बा के पास िबस्तर पर बैठकर मंने एक का ऄंक रटा था । किवता रटता, गिणत के प्रश्न-जवाब ककया है । लेसन ककया है । बाहर का पढ़ना ISSN –2347-8764

(पेज नं. 57 से)

हँसना यानी

खोजने को कहते हं, - मृदु कु सुमसम ह्रदय और प्रखर और मौत को कौन सा ऄवसर खोजने को कहते हं, - मृदु कु सुमसम ह्रदय और प्रखर मुझे बल्लूकाका – स्व. बलवंतराय ठाकोर की यह पंिक्तयाँ बहुत ऄच्छी लगती हं, - 'मृत्यु ले ईपाड़ी तू मने' (मौत, ईठा ले तू मुझे) सुन्द्दर गुलबंकी छन्द्द मं हं, हाँ ! ऄिग्नझरं त बुिद्ध के बीच जीवनभर झूलने का अनन्द्द ईठा चुकनेवाला किव? कहते हं, - मं ककसी दोपहर कु टु म्ब के बीच फु रसत से कु छ पढ़ता हुअ सिहडोला झूलता होउँ तो ऄचानक... 'काय खोखुं धधब हेठे जाय' (काय रूपी खोखा धड़ाम से नीचे िगर ।) कहते हं कक बल्लूकाका भव्य हँसते थे। ♦♦♦ ऄनुवाद : डॉ. मदनमोहन शमाष

शुरू ककया तब आसी लालटेन के ईजास मं 'सरस्वतीचंर' ईपन्द्यास का प्रथम भाग पढ़ा था । 'पाटण नी प्रभुता' आसी ईजास मं पढी है । और 'कान्द्त' का 'पूवाषलाप' मं से खंडकाव्यं का लयात्मक पाठ आसी लालटेन के ईजास मं ककया है । कलापी की गज़लं भी आसी ईजास मं पढी है और हाँ, सखी का सुहावना स्मरण भी आसी ईजास मं ककया है ! आसी लालटेन के ईजास मं कपास के डंडे के समय देर रात तक डंडे के िछलके से रुइ िनकाली है । तजषनी िछल जाती तो भी वजन करना पड़ता । ईसी ईजास मं ऄन्द्ताक्षरी ! 'तारी अँख नो ऄकफ़णी, तारा बोल नो बंधाणी' पूरा गीत गाया है । कइ बार रोया हूँ । कइ बार हँसा हूँ । िसफष एक रुपया कमाने के िलए आसी लालटेन के ईजास मं दौना बनाया है । लालटेन ने दोस्त जैसा साथ कदया है । यही लालटेन भी कभी हमारा रकीब बन जाता । न सुलगता, न भभकता, ज्वाला बन जाती । कांच का गोला काला हो जाता । बा बारं बार प्रयत्न करती । कफर भी ईजास नहं पा सकते । कभी साफ़ गोला ज्यादा चमकता । बरसात मं कभी छत चूने लगती और टपकता पानी गोले को छू ता । गरम हुए गोले मं दरार पड़ जाती । बा से लम्बी साँस नीकल जाती । बाप गोले पर गंद पट्टी लगाते, गंद पट्टी हो ईस िहस्से मं ईजास थोडा कट जाता । कटते हुए ईजास मं पूरा घर दो िहस्सं मं बंट जाता । एक तरफ प्रकाश, दूसरी तरफ अधा प्रकाश— अधा ऄँधेरा.... िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

लालटेन हमेशा बापा ही जलाते । बापा की मृत्यु हुइ ईस रात लालटेन नहं जला था । दो-चार कदनं बाद रात को बा ने लालटेन जलाया और ईन्द्हं बापा की याद अइ तो सुलगती कदयासलाइ से जली तबतक लालटेन की कल पकड़कर बैठी रही । चहरे पर दुःख की छाया की सवारी थी । ऄभी लालटेन के सामने देखता हूँ तो बा का चेहरा पा लेता हूँ । मगर कहाँ है बा ? कहाँ है बापा? लालटेन के सामने टु कुर टु कुर देखा करता हूँ । तभी कमरे मं यकायक िबजली का प्रकाश फ़ै ल जाता है । लाइट अइ... लाइट अइ... का शोर होता है । मं तो लालटेन का ईजास पाने को मथता हूँ । मगर बीजली के प्रकाश से वो िनस्तेज लगता है । मं कल उपर करके फूँ क मारकर बुझा देता हूँ । और ईसी के साथ मेरा पूरा ऄतीत ऄलोप हो जाता है । मगर ऄब मुझे िनरं तर होता रहता है कक बीजली चली जाय, हमेशा के िलए और मं लालटेन का ईजास करूँ और........ ! ♦ ऄनुवाद : पंकज ि​िवेदी

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ऄिग्नझरं त बुिद्ध के बीच जीवनभर झूलने का लिलत िनबंध अनन्द्द ईठा चुकनेवाला किव? कहते हं, - मं ककसी दोपहर कु टु म्ब के बीच फु रसत से कु छ पढ़ता हुअ सिहडोला झूलता होउँ तो ऄचानक...'काय खोखुं धधब हेठे जाय' (काय रूपी खोखा धड़ाम से नीचे िगर ।) कहते हं कक बल्लूकाका भव्य हँसते थे । ♦ ऄनुवाद : डॉ. मदनमोहन शमाष ♦ सौजन्द्य : गुजराती लिलत िनबंध (संपादक : डॉ. भगवतशरण ऄग्रवाल और डॉ. रघुवीर चौधरी) ♦ हाल ही मं भारी बरसात के कारण िनरं तर दो रातं िबजली के बगैर िबतानी पडी । साढ़े तीन दशकं के िबजली के संगमं बगैर िबजली की दो रातं बहुल लम्बी लगी । ऄँधेरा ऄँधेरा लगता था । ऄंधं हं तो कै सा लगं, ईसीकी थोड़ी ऄनुभूित हुइ । खुद के साथ संवाद होता होता रहा । मन की कइ बातं हंठ तक अ गइ । यूँही मेरे हंठ थराषते रहे । ऄँधेरे मं यादं का सफ़र चला। यकायक याद अ गया लालटेन—ईजास पाने का साधन । ईसे कहाँ ढू ँढूं? बरसं से लालटेन को देखा नहं । कहाँ होगा ! साथ ही स्मरण मं चमक गया पुराना सामन रखने टाँड। टाँड ने ऄभी भी सबकु छ सँभाल रखा था । पुरानी लकड़ी की सीढ़ी पर िडगमगाते िडगमगाते टाँड पर चढ़ा । फं फोसकर लालटेन ख़ोज िनकाला । नीचे ईतार लाया । ईसके उपर धूल जम गइ थी। संभलकर ईड़ाइ । धीरे धीरे ईसका रूप िनखरने लगा । ईसकी अकृ ित स्वच्छ हो गइ । ईसका कांच का गोला यूँही संभाला हुअ था । ईसे साफ़ ककया । पहले बाहर से, कफर कल चढ़ाइ और उपर की ऄँकुडी पकड़कर कांच के गोले को बाहर िनकाला । ऄंदर से साफ़ ककया । बाती ठीक की । ईसके उपर का िहस्सा ग्यासतेल से िभगोया । कफर ऐसे ही गोला चढ़ा कदया । कल के पास का छोटा सा ढक्कन संड़सी से खोल दी । जंग लग गया था । ग्यासतेल डाला । बारीक नज़र से ऄंदर देखा । कफर कल उँची करके कदयासलाइ जलाकर बाती ISSN –2347-8764

लालटेन के ईजास मं प्रफु ल्ल रावल

को सुगलाइ । ईजास फै ला। जलती हुइ लालटेन मं देखता रहा । ईसके साथ ही मेरा ककशोरावस्था और मग्धावस्था के कालखंड खुलने लगे । बहुत खुला । िचिपट जैसे सबकु छ सरकने लगा। आस लालटेन के हलके ईजास मं जीवन के कइ दृश्य देखं है । पसंद-नापसंद का बहुत देखा है । बहुत पाया है । बहुत गँवाया है । कफर भी नहं जमा ककया न बाद । लालटेन के हलके ईजास मं सखी की स्मृित नहं ऐसा भी नहं । मगर अज सखी के स्मरण के बगैर लालटेन की बात करनी है। के वल लालटेन की और ईस िनिमत्त पर ऄतीत को याद करना है । खोये हुअ ऄतीत को, भूले हुए ऄतीत को । लालटेन...! लालटेन तो सुखी होने का सबूत था । मगर वो तो िपता के बचपन की

सुख की िनशानी थी । हमारे नसीब मं तो था दीया । खुल्ला दीया, िजसकी ज्योत उपर जाती और व्यापक हो जाती । मेश... मेश... मगर लालटेन था हमारे घर मं िसफष एक । ईसका गवष भी था । वो लालटेन रहता बरामदे मं, जहाँ बापा (िपताजी) बैठते । दो दरवाजं के बीच लालटेन लटकता रहता । लालटेन का िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

ऄजवास स्वच्छ होकर फै लता । ज्वाला ऄदृश्य हो जाती । आसी लालटेन के ईजास मं बा-बापा (माँ-िपताजी) की कइ गोष्ठी देखी है । ऄथष की सिचता मं पीस जाती बा की मुखमुरा की भाषा पढ़ने का व्यथष प्रयत्न ककया है । कल की सिचता मं खोकर धूम्रपान करते बापा का वृद्ध चेहरा देखा है । पाट बैठे बैठे बापा धूम्रपान करते और लालटेन का ऄजवास बापा की परछाइ को बड़ी बनाता । परछाइ मं धूम्रपान का धुअँ दीखता । सबकु छ ही धुंधला ! हमारे भािव जैसा । पूरा दृश्य आस वक्त महसूस करता हूँ । कै सा लगता था वो दृश्य ! िनधषनता प्रितघोष करती थी घर मं । पूरी रात लालटेन जलता । धयालू के बाद लालटेन का स्थानांतर होता । हमारा शयन स्थान था ईपरी मंिझल । लालटेन मंिझल को ऄजवास देता । िबस्तर िबछाते । कफर सभी ईपरी मंिझल पर चढ़ जातं । लालटेन के ऄजवास मं बा रामायण-महाभारत की कहािनयाँ कहती । कहानी के बाद प्राथषना होती । माँ लालटेन को धीमा करती । ईजास कम हो जाता-िबलकु ल कम । मानो ऄँधेरे का दोस्त ! कइ बार मं देर रात को जाग जाता तो लटकते लालटेन को देखता । मुझे ककसी पुरानी कफल्म का दृश्य याद अ जाता । ककसी कहानी मं पढ़ा था कक रात को लक्ष्मी जी घुमने िनकलते हं । गर हम जाग रहे हं तो वरदान भी देते हं । कफर तो पैसे ही पैसे । वरदान पाने को मं कइ बार रात को जागता रहता । लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा मं कब अँखं बंद हो जाती वो ख्याल नहं रहता । सुबह जागता तो लालटेन का ईजास िमलता नहं । बा बुझा देती होगी । घर कर गया साँस का रोग ठण्ड-बाररश मं बापा को देर रात तक सोने नहं देता । खाँसते बापा की अवाज़ बा को जगा देती। (पेज नं. 51 पर. ..)

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िनबंध

बरसात ऄपनी ऄपनी वीनेश ऄंताणी

बरसात के िवषय मं मेरी प्रथम प्रितकक्रया मुग्धता की है और कफर तुरन्द्त िवषाद की । ऄसीम अनंद के चुभनेवाले िवषाद का भी ऄनुभव ककया जा सकता है । बचपन से ही बरसात के साथ-साथ आं तजार करने का ऄनुभव जुड़ा हुअ है । बरसात एक ऐसी िप्रयजन है जो आं तजार तो काफी करा लेती है, पर अती नहं । चौमासे की समािप्त तक मंने सूखी नज़रं से बरसात की राह देखी है । बरसात के कदनं मं स्कू ल जाते समय मन ही मन शतष लगाइ है कक शाम के वक्त छु ट्टी होने पर मूसलाधार बरसात होगी और भीगता हुअ घर पहुँचग ूँ ा, पर बरसती तो धुप ही रही । यह सब कच्छ मं हुअ । आसिलए तो मुझे लगता है कक मुंबइ की बरसात मेरी बरसात नहं है । मेरी बरसात तो सुदरू कच्छ के अकाश मं संभावनाओं के समान िघरी हुइ है पर बरसती नहं । मुंबइ मं तो िबन माँगे ही अकाश िपघलने लगता है । बहुत अरष मन है यहाँ के अकाश का । पर अकाश को खोजना पड़ता है; रात को भी अकाश कदखाइ नहं देता । ऄभाव तो मुंबइ मं भी है । पर वह ऄभाव बरसात का नहं है, अकाश का है । जब कक कच्छ मं तो चारं ओर अकाश ही अकाश है । ऄनेक कदनं तक बालू के साथ-साथ गमष लू जलाये, चमड़ी झुलस जाए, कफर बरसात के महीनं की शुरुअत हो और अँखं चराष जायं । शाम ढले, कदशाओं मं संध्या के रं ग ईभर जायं । क्विचत् मेघ-बदली की स्वर्षणम ककनारी प्रकािशत हो ईठे , परन्द्तु समूचे कोरे कदन वैसे ही गुजर जाएँ । बरसात अए नहं, के वल खाली अकाश रहे Ι कफर एकाधबार ऄचानक हवा का रुख बदलने; अकाश कफर िघर जाए, तबतक तो पक्षी भी चहचहाना शुरू कर दं, आस वृक्ष से ईस पर ईड़ते रहं । मोर की रटहूँक सुनाइ दे । वातावरण मं ऄपेक्षाओं की िन:स्तधधता छा जाये, दूर के ककसी प्रदेश मं बरसनेवाली बरसात की संधी गंध अ जाए; िचड़ा-िचिड़या धूल मं नहाएँ, रटटहरी खाली तालाब मं ऄंण्डे रखे; बादल भी बँधे, हम दहलीज़ पर ISSN –2347-8764

खड़े हं; खपरे दुरस्त हो गए हं; ओलती राह देखती हो। हमारे बबूल, पीलू और थूहर साँस रोके खड़े हं पर वह न अए Ι थोड़ी बहुत िधरकर, लौट जाए । कफर धूप । हमारे घर की ओलती प्यासी ही बनी रहे । पास-पड़ोस की भूिम पर बरसात होने का समाचार अए पर हम ईसका आं तजार करते रहं । सावन महीने के मेले सर पर अ जायं, पर मेले जहाँ हं ऐसे स्थलं के तालाब ऄब भी खाली ही हं; ज़मीन मं दरारं पड़ गइ हं । न अए ! कच्छ मं िजसे धरती का दूल्हा कहते हं वह ‘मी’ न अए । हमारी अँखं मं खून ईभर अए। कफर लोग यह कहना शुरू कर दं कक ‘मी’ को ककसी ने बाँध रखा है और सचमुच ही ऐसा लगने लगे कक ककसी मंि-तंि ज्ञाता ने बरसात को वश मं कर िलया है । कफर यकायक बरसात मुक्त हो जाए, मरू के अकाश को पार करती हुइ । वह बहुत देर बाद कदखाइ दे । पहली बूँद पर मेरा ऄिधकार । तप्त रे त मं छप-सी बूँद िगरे । थोड़ी-सी धूल ईड़े और पहली बूँद सुख जाए, कफर तो एक के बाद एक बूँदं िगरती रहे और आच्छा हो तो खुलकर बरसने लगे । सारा गाँव अकाश तले । सबकु छ छोड़कर लोग बरसात मं भीगने बाहर अ जाएँ । ईसके हर क्षण को भरपूर पा लेने के िलए ऄँजली बाँधे खड़े रहं । खुली अँखं से, खुले ओठं मं, शरीर के रोम-रोम मं, ईसे पा लेने की अकांक्षा सुलगते रहे । ओलती से सरकती जलधारा नीचे रखे बतषनं मं तालबद्ध रोप से िगरती रहे । घर की खपरै ल के रं ग बदलने लगे । हमारी ज़मीन का िमजाज़ पलट जाय । छज्जे के नीचे बैठे पंडक और कबूतर, पंख फड़फाड़ा ईठं और महँगे िप्रयतम जैसा कच्छा का मेघ, बाहर से और भीतर से िभगो दे । रात मं बरसता हो, तब भी जागते रहं । घर के िपछवाड़े पड़े टीन पर ओलती की धार सुनाइ देती रहे । दीवारं मं नमी बैठ जाए । सब कु छ नरम-नरम लगे । दृश्य पहले धुँधले हं और कफर धुलकर ईभरने लगं और मन मं िवषाद जगे । हमारे ऄधूरेपन को अकर प्रदान करने वाली, मानो घड़ी दो घड़ी के मेहमान की-सी बरसात

िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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लौट जाए और मरूभूिमयं मं को जाए, पर िनशािनयाँ छोड़ती जाए; स्मरणं के समान मेरे मन मं चुपचाप ईतर जाए, धरती मं से फू ट िनकले । थोड़े बहुत भरे तालाबं मं फ़ै ली रहे । अवाजं बदल अए । वृक्ष हररयाली का अभास पहनं । हम मस्त, संतोषी की संपूणष चौमासा प्राप्त होने का भाव हो । भले थोडा अया लेककन अया तो न । भले ही बरसात कम हुइ हो, पर हुइ तो है न ! ऄकाल के भयानक कदनं से गुज़र कर ऄहीर लोग जब ऄपने मवेिशयं के साथ लौट रहे हं तब ईनकी खुली छाितयं मं, घर पहुँचाने की जल्दी हो । कफर से गाँव मं रहने के कदन अ जाएं । 'जोिड़या पावा' बजाने के कदन अ जाएँ । अकाश को भर देनेवाली 'काकफयाँ गाने की, रातं वापस अ जाएँ । सब कु छ बदल जाय कफर भी भीतर कु छ तो खटकता रहै । िजसे पूरी तरह पा नहं सके , परन्द्तु िजतना िमला वही ऄपना हुअ, - आस प्रकार के िवषादी स्वरं मं घुटता अनंद, ऄंत मं तो पीड़ा को ही जन्द्म देता है । दीवारं पर अइ कइ मं नाखून से बरसात का नाम िलखने जाउँ, तभी याद अए की ईसने तो मुझसे कु छ कहा भी नहं है । एकाध शधद भी नहं बोली मुझसे बरसात । कफर भी, कु छ पा लेने का भाव जीवन का संबल बने । ईत्साहपूणष मेले लगं । िछछले तालाबं मं प्रितसिबब स्पष्ट होने लगं । अनेवाली ग्रीष्म की जलती गमष हवा से ईड़ती रे त, सारे वातावरण को धूिमल कर दे तब तक मन मं सुरिक्षत बरसात की एकएक बूँद प्रितपल भीतर बरसती रहे । पर यह तो मेरे कच्छ की बरसात है, जो छि​ियं पर नहं बरसती; बंद िखड़ककयं, दरवाज़ं के बाहर नहं बरसती; वह तो ऄंदर तक जाती है । बरसने के बाद भी बरसती ही रहती है – स्मृितयं मं, चटकती चमड़ी के िछरं मं, हमारी अँखं मं और ग्रीष्म की सख्त धूप मं । िवषाद के झाँके अएँ, दूर चले गए या अकाश मं खो गए चेहरे ओलती की भाँित टपकते रहं । मेरी बरसात सब कु छ एकाकार कर दे । ईससे कु छ ऄलग न रहे, सब कु छ समीप अ जाए । स्पशं और अवाजं मं भी नइ सुगध ं ISSN –2347-8764

जुड़ जाये, मेरी बरसात देशी खपरै ल पर िवदेश से गझल बरसती है । वह ऄनेक मंिजलंवाले मकानं पर नहं बरसती, ईपनगरं के रे लवे स्टेशनं की छतं पर सर नहं पटकती । सुधीर पटेल िवशाल सड़कं पर लुढ़क नहं पड़ती । वह ऄंदर ईतरती है... ऄंदर । जो ऄंदर है, वह मेरी बरसात है । मेरी बरसात अपकी नहं है और अपकी बरसात मेरी बरसात नहं, क्यंकी बरसती बरसात मं हमं जो याद अनेवाले चेहरे हं, वे चेहरे ऄलग हं और वे अँखं ऄलग हं । मेरी और अपकी दीवारं पर जो काइ ईगती है, वह भी ऄलग-ऄलग है । मुंबइ मं बरसने वाली ईस मूसलाधार बरसात मं मं ऄपनी बरसात को खोजने की कोिशश करूँगा, पर मुंबइ की बरसात मं से तो पवषतीय घाटं की खुशबू अएगी । मेरी बरसात तो रे िगस्तान की गंध लाती है । नंद अ गइ कब, पता ना चला; पवषतीय घाटं से ईतरी बरसात रे िगस्तान सामने वो थे जब, पता ना चला ! को पार करके अइ बरसात नहं होती । ♦ ऄनुवाद : प्रो. ऄिनलभाइ दवे कदल तो ढू ँढता ही रहा लफ़्ज़ज़ं को, सौजन्द्य : गुजराती लिलत िनबंध गुनगुना िलए लब, पता ना चला ! (संपादक : डॉ. भगवतशरण ऄग्रवाल और डॉ. रघुवीर चौधरी)

पता ना चला

सत्य घटना

पि

कार चलाने वाला एक युवक कभी भी ट्रैकफक पुिलस के बारे मं न सोचं । पुिलस ऄगर रोक भी ले तो चालान कटवा लं । एक कदन ईसे टैकफक पुिलस ने ईसे रोका ही नहं । ईस युवक को अश्चयष हुअ कक मं हमेशा िनयमं का ईल्लंघन करता हूँ, चालान कटता है मगर अज मुझे रोका न गया ! लगातार तीन कदन तक पुिलस ने ईस युवक को रोका नहं । ईस युवक ने ऄपनी कार ररवसष ली और पुिलस से कहा; चालान काट दीिजए । पुिलस ने नोटबुक मं कु छ िलखा और ईसे देकर चला गया । पुिलस ने चालान के बदले एक पि िलखा था – 'मेरी लाडली बेटी ऐसे ही बेकाबू ड्राआसिवग के कारण... ! ईस कार के मािलक को सजा भी हुइ मगर मुझे पूरी सिज़दगी के िलए बेटी की िबदाइ का दुःख िमला...!' पि पढ़कर युवक ऄंदर से कं प गया । घर गया और बेटी को गले लगाईं । तब से ईनकी कार की रफ़्ज़तार कम हो गइ । िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

हमसफ़र वो क्या िमले, रूठे हुए, साथ हो िलए सब, पता ना चला ! सिज़दगी गझल हुइ और लफ़्ज़ज़ं ने – पाये ईसके मतलब, पता ना चला ! प्यास थी दररया की पर 'सुधीर', हो गये लबालब, पता ना चला !

USA sudhir12@gmail.com

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हास्य िनबंध

हँसना यानी झूला झूलना बकु ल ि​िपाठी

सिज़दगी का ऄथष है झूलना । सद् और ऄसद् के बीच, स्व और पर के बीच, प्रकाश और ऄन्द्धकार के बीच, चेतन और ऄचेतन के बीच । कइ बार लगता है कक यह ऄिनिश्चतता न होती और िद्वधा न होती तो ककतना ऄच्छा होता । बस आधर या ईधर । यं तो बने रहं पूणष ऄज्ञानी – सहज़ता से जीता हुअ जीव, या कफर प्रज्ञापुरुष । यह भी क्या कक आधर से ईधर और ईधर से आधर होते रहं? परं तु यही तो झूला झूलने का अनंद है । झूले का सबसे बड़ा गुण है – ऄिस्थरता । न तो सही ऄथो मं गित, न कहं जाना; न ही वास्तिवक िस्थरता; बस आस तरफ झूले और ईस तरफ झूले । यकद आसका अनंद ईतना अ गया तो समझो मजा ही मजा है ! और यकद झूला झूलते समय अपको चक्कर अते हं, जैसा कक कइ लोगं को अते हं, तो समझो कक अप कु छ ऄच्छा गँवा रहे हं; लेककन यकद झूले का अनंद ईठाना सीख िलया तो कफर चक्कर अना भी बंद ! भगवान शंकर समािध मं डू बते हं । श्रीकृ ष्ण िहडोले मं झूलते हं । भतृषहरर ने कहा है 'वैराग्य मेवाऽभयम्' । परं तु यकद सब संन्द्यास ले लं तो कफर जीवन कै से चलेगा ? और सच बात कहूँ? सृिष्ट कु ल िमलाकर सुन्द्दर है । भले ही वह हमारी आच्छाओं के ऄनुरूप न बनी हो और हमारे कहे ऄनुसार न चलाती हो पर वह औरं की आच्छा और कहे ऄनुसार भी कहाँ चलती हं? वह ककसी के कहे मं चलने के िलए बनी नहं है । भले ही िसकं दर लाख हाथपैर मारे । मं यह मानने के िलए तैयार नहं कक सृिष्ट ककसी के कहे ऄनुसार बनी है । ईसे ककसी सजषक ने नहं बनाइ । लेककन चूँकक वह बनी है आसिलए यह मानना पड़ता है कक ईसका कोइ सजषक होगा । सृिष्ट शायद स्वयंभू है या कफर ककसी ने ईसकी अकृ ित बनाकर ईसे सुव्यविस्थत रूप से रचा है, - आन दो मान्द्यताओं के बीच झूलते रहना मुझे ऄच्छा लगता है । मुझे बड़ा शौक है झूले का । झूले की वजह से मंने सिज़दगी मं काफी कु छ गँवाया है । (पता नहं, गँवाया कहूँ या न ISSN –2347-8764

कहूँ) परं तु समाज की वास्तिवकता को सुव्यवस्था की अवश्यकता है । जैसे – कु छ ख़ास पि िलखना; पि प्राप्त करना; 'फाआसिलग' करना; ररकॉडष रखना; िपयानो की कीज़ के साथ फोन पर नंबर िमलाकर 'हेलो' करना; िमलना-जुलना; समय से काम िनपटाना और तरह-तरह के फॉमष भरना तथा हस्ताक्षर करना (जो नमूने के हस्ताक्षर से मेल खाते हं); समाज के और लोगं के व्यवहार के साथ ऄपने व्यावहाररक कामं का तालमेल िबठाना... । झूला झूलते हुए आनमं से कु छ नहं हो सकता । हाँ, हमारे कु छ बुजुगष झूले के शौक़ीन थे । पर वे तो शाम को, रात को गपशप करने के िलए झूलते थे या जातिबरादरी और दुिनयाभर की ईठा-पटक की मनोशतरं ज खेलने के िलए । ईसके बाद झूले पर जो कु छ तय ककया जाता, ऄगले कदन (पूजा-पाठ से िनबट कर) ईसे कक्रयािन्द्वत करने की गरज से मसनदं के सहारे ईन्द्हं रटकना पड़ता या कफर ईस ज़माने मं गाड़ी, पालकी या घोड़े पर िवचरण करना पड़ता था । हममं से क्यं कोइ एयरकं डीशन्द्ड ऑकफस मं झूला नहं डलवाता? मेरी कल्पना का अदशष कायाषलय तो वह िवशाल कक्ष होगा िजसके बीचोबीच सिहडोला हो । सिहडोले के दोनं तरफ मसनदं । िजसे गोदी मं लेकर िलखा जा सके (पर कफर टाइपराआटर कहाँ रखा जाएगा? ईसकी तो जरूरत पड़ेगी ही न?) और कम्प्यूटर ? कम्प्यूटर को झूले पर रखना मुिश्कल होगा ! पर टेलीफोन तो रखा जा सकता है । ककताबं का ढेर तो झूले पर शोभायमान लगता है । (मुझे आसका थोडा ऄनुभव है) । और ढेरी यदी बड़ी हो तो ककताबं नीचे िगर पड़ती हं । या तो िशखर नीचे खाइ मं ढह जाता है या कफर कु छ ककताबं अिहस्ता से नीचे िखसक पड़ती हं ! परं तु फाआलं, बिहयं को झूले पर संभाले रखना मुिश्कल है । जहाँ झूले को ज़रा-सी ठे स लगी कक दो-चार कागज़ ईड़ जाते हं और कफर अपको झूले पर दजषनं पेपरवेर्टस भी रखने पड़ते हं । मेरे िवचार से छोटे से

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गोकु ल मं कु छ ज्यादा ही भीड़भाड़ हो जाती है । झूले की यही तकलीफ है कक वैरागी ईसे ज़रूरत से ज्यादा सुखसुिवधा मानते हं । ईसे पतन का कारण भी मानते हं, और सांसाररक जीव हर समय झूले का सेवन कर नहं सकते । ईन्द्हं झूला और कु सी-मेज या गद्दी-तककयं के बीच जीवन मं झूलते रहना पड़ता है । िजसने झूलते रहने का ही मागष ऄपना िलया हो ईसके िलए झूला सवांगसंपूणष सुव्यवस्था है । मसलन धुिनयं, सपने सँजानेवालं, अलिसयं और िनराप्रेिमयं के िलए... । परं तु नहं । झूलने का अनंद यह है कक वह समग्र रूप से एक नहं है क्यंकक झूले मं पंग लगाने के िलए अपको ऄधषजाग्रत तो रहना ही पड़ता है ! ऄन्द्यथा झूला भी पलंग ही हो जाएगा । ईसका कोइ मतलब नहं है न ? जो पूणष स्वप्नरष्टा हं ईनको तो पालथी मारकर, समािधस्थ होकर यथाथष का दयां रखना पड़ता हं । साथ ही आसका भी कक कहं बड़ी पंग न लग जाय । मंने तीनेक बार झूले से िगरा हूँ । कारन कक ज्यादा जोर से झूलो तो कभी रस्सी टू टती है तो कभी कडा भी टू ट जाता है ।ऄसल मं तो मंने भूकम्प का ऄनुभव नहं ककया हं । ईत्तर प्रदेश मं हुए भूकम्प के समय मं गुजषर प्रदेश मं िवचर रहा था और सैनरानिसस्को मं हुअ तब बोस्टन मं... टी.वी. पर ऄचानक कदखाइ कदया (मं नहं, भूकम्प) । पर मेरी ककस्मत मं पूणष रोमांच का सुख नहं हं कफर भी दो-तीन बार कु छ बार ऄनुभव जरूर हुअ है । धड़धड़ाकर झूला टू टकर िगरा है । तब ! या तो दाएँ या बाएँ लुढ़क सकते हं; ईछल पड़ सकते हं; िगर सकते हं । घुटने पर चोट लग सकती हं; सिपडली पर लग सकती है या जोर से िगराने को दहशत बैठ सकती है... उपर से छड़ं और सांकल हम पर िगर सकते हं, यकद हम भाग्यशाली हं तो ! भाग्यशाली आस ऄथष मं कक िसर से छड़ टकराने का मूल्यवान और ईनसे प्रस्फु रटत होने वाली िविवध ऄनुभूितयाँ ही तो जीवन का अनंद है। तीन-चार बार झूला टू टा है, पर वास्तव मं ईड्डयन तो हािसल हुअ है । कभी-कभार ISSN –2347-8764

जब पेड़ की डाली पर झूलते हं तब । और रस्सी टू टती है तब । लगता है कक तोप के गोले की तरह किफक गए हं । कहं के जाकर, कहं िगरते हं और क्या से क्या हो जाता है। हाँ, एक सुख जरूर है कक शायद ही कभी िसर पर चोट लगती हो । हाँ, शूरवीर का धड़ जरूर पटकाता है । कभी-भी यह नहं सुना कक झूला टू टने से ककसी की मौत हुइ हो । हालाँकक मरम्मत तो बहुतं की हुइ है । परं तु शरीर से भी कहं ज्यादा झटका कदमाग को लगता है । ऄदभूत ! मं तो कहता हूँ कक अपके असपास यकद कोइ पेड़ हो तो ईस पर रस्सी बाँधीए और कफर झूिलए झूला । रस्सी को िघसने मं कु छ कदन लगंगे । यकद धीरज न हो तो एक दूसरा रास्ता है कक टहनी ज़रा कमजोर चुिनए । मानव-जीवन का यह एक सुख है । अपके पास आसके कइ िवकल्प हं कक अप कै से िगरना चाहते हं । अप ककसी के साथ झूला झूले हं? एक ईपाय – ऄपनी सखी को झूले पर िबठाकर ईसके सामने की ओर से झूले पर अप खड़े होकर पंग बाधाएँ । क्यंकक पेड़ की डाली का झूला ठे स से नहं झूलता । रस्सी के साथ अपको भी नाचना पड़ेगा । आस िक्षितज से ईस िक्षितज तक झूले को ले जाने के िलए । यह ऄदभूत सख्य होगा । हाँ, यकद सयानेपन से धीरे -धीरे झूलकर संतोष कर लो तो, कृ ष्ण-रुिक्मणी के झूले जैसा कलात्मक नक्काशीदार, फू ल-फु न्द्दं से भरा, सजा-सँवरा झूला भी पयाषप्त है... अिहस्ता-अिहस्ता पंग िलए जा रहे हं और पान के बीड़े तैयार हो रहे हं... । श्रीकृ ष्ण शुरू से ही भाग्यशाली रहे । बचपन मं बड़े मज़े से पालने मं झूले । माँ यशोदाजी पूरा कदन बालकृ ष्ण को झुलाती ही रहती थं । क्यंकक समूचा गोकु ल ईनके पालने की डोरी खंचकर ऄपने को धन्द्य मानता है और लाड़ले पैर का ऄँगूठा चूसते हुए अराम से सोये हुए हं ! पालने के दृश्य के कारण मुझे जन्द्माष्टमी का ईत्सव सभी ईत्सवं से ऄिधक पसन्द्द है । जो आस तरह झूलवार पला-बढ़ा हो वह भला जीवन मं कभी ऄप्रसन्न हो सकता है? श्रीकृ ष्ण सदा हँसते रहे । कभी आसिलए कक ईन्द्हं साथषक सृिष्ट रचने का संतोष रहा तथा कभी िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

व्यथषता की वेदना से परे होकर, समग्र के िवचार से स्वस्थ हास्य मं डू बने के कारण । हँसना यानी कक झूला झूलना ! जो हँसता है वह दो ऄिन्द्तमं को एक साथ देखता है । ईनको परखता है; स्वीकार करता है; पर ईनमं से ककसी एक को नहं, दोनं को एक साथ ग्रहण करता है । ककसी भी ऄिन्द्तम को वह अिखरी नहं मानता और ककसी ऄिन्द्तम के कारण, वह दूसरे ऄिन्द्तम को भूलता भी नहं है । हँसने वाला व्यिक्त संवेदनशील होता है । पर भावुकता के कारण गदगद होने का सुख ईसकी ककस्मत मं नहं होता । ईसकी बुिद्ध सजग होती है और बहुत कु छ देखती है; परखती है; ग्रहण करती है पर वह प्रचण्ड शुष्क बुिद्धवादी नहं हो सकता । भव्य रुक्षता ईसके भाग्य मं नहं है । मानव बुिद्ध की ऄिन्द्तम शिक्त को लेकर वह शंकाशील होता है । वह बुिद्ध की मयाषदा को जानता है और, जानता है कक भावुकता कभी-भी बुिद्ध को प्लािवत कर सकती है ! वह आस मानवीय सीमा पर हँस लेता है । हम भी पूरी तरह यह नहं हं और वह भी नहं हं । हम ऄधूरे हं; टकराते रहते हं और आधर से ईधर झूलते रहते हं । वह हँसता है ऄपनी आस िस्थित पर । सम्पूणष िनराशावादी हँस नहं सकता; सम्पूणष अशावादी स्विप्नल तन्द्रा की एक सुख सररता मं बहता रहता है । हँसना क्या है? ईसे यह भी पता नहं होता क्यंकक ईसे कभी हँसना सीखने की ज़रूरत नहं होती ! परन्द्तु सम्पूणष अशावादी होने की संभावना को लेकर जो िनराशावादी है, और यह माननेवाला, कक सिज़दगी सम्पूणष िनराशावादी होने लायक तो नहं है, ऐसा अशावादी हँस सकता है, हँस लेता है । शेली शायद न हँसे, कालाषआल न हँसे तो ऄलग बात है पर लेम्ब और िडके न्द्स तो हँसे िबना जीिवत ही नहं रह सकते । किव ईमाशंकर (जोशी) ने ऄभीप्सा व्यक्त की है – 'झूलशुं िज़न्द्दगी रे लोल !' सवष ऄिनत्य के बीच िस्थरता मानकर । और यह मान्द्यता भी शायद भ्रम है; यह भी मानते हुए, जीवन भर हँसा जा सकता है? देखं संभव हो तो ! और मौत को कौन सा ऄवसर खोजने को कहते हं,-और मौत को (पेज नं. 52 पर)

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समीक्षा

अँसू सम्बन्द्धी िविभन्न अयामं का प्रस्तुतीकरण कवियिी की जागरुक दृिष्ट का पररचायक हं सौरभ पाण्डेय काव्य-संग्रह : अँसू लावनी, रचनाकार – डॉ. (श्रीमती) नीरज शमाष मूल्य – 300/ (तीन सौ रुपये माि) / बाआण्ड – हाडष बाआण्ड / प्रकाशक – विनका पिधलके शन्द्श पता – एम ए–168, गली नं-6, िवष्णु गाडषन, नयी कदल्ली-100018 संपकष – 09412713640, 01342-262186 / vanika.paublications@gmail.com पद्य-सािहत्य के आितहास मं एक समय वह भी था कक रचनाओं के क्य िलजिलजी भावनाओं और दैिहक ऄनुभूितयं की जुगुप्साकारी ऄिभव्यिक्त भर रह गये थे । रचनाओं से त्यात्मक ’क्यं कहा गया’ गायब होने लगा और िवन्द्यासपूणष ’कै से कहा गया’ की शािधदक शैिल्पकता महत्त्वपूणष होने लगी थी । ऄिभव्यिक्तयाँ वािग्वलास या शधद-कौतुक या ऄथष-चमत्कार की अग्रही भर रह गयं थं । पद्य-रचनाएँ सामान्द्य जन की भावनाओं, भाव-दशाओं या अवश्यकताओं से परे िविशष्ट वगष के मनस-िवकारं को पोिषत करने का लचर माध्यम भर गयी थं । ईन काल-खण्डं का सािहत्य ऄपने ईद्येश्य से पूरी तरह नहं भी, तो एक हद तक भटका हुअ ऄवश्य प्रतीत होता है । चूँकक ’छन्द्द’ पद्यरचनाकमष की ऄिनवायषता हुअ करते थे, ऄतः ऐसे ऄन्द्यथा कमं का सारा ठीकरा फू टा छन्द्दं पर ही । और, छन्द्दं को ही त्याज्य समझा जाने लगा । छन्द्द अधररत गेय रचनाओं और गीतं को ’मरणासन्न’ और, बादमं तो, ’मृत’ ही घोिषत कर कदया गया । आसके बाद तो किवता के नाम पर िजस तरह की बोिझल और िक्लष्ट प्रस्तुितयं का दौर चला कक पहेिलयाँ एवं कू ट-िवन्द्यास तक पानी भरं ! या कफर आसके ठीक ईलट, कइ बार तो शुद्ध राजनीितक नारं तक को किवता की तरह प्रस्तुत ककया गया. यथाथषऄिभव्यिक्त के नाम पर गद्यात्मक पंिक्तयं का दौर यह कह कर चलाया गया, कक,’यही नये दौर की किवता है’! आस त्य पर ककसी का ध्यान नहं गया कक िजस भूिम के जन की सोच तक गीतात्मक अरोह-ऄवरोह मं हो, जहाँ प्रत्येक ऄवसर और सामािजक पररपारटयो के िलए सरस गीत ईपलधध हं, ईस जन-समाज से गीत छीन लेना जघन्द्य ऄपराध नहं था तो और क्या था ? मनुष्य के जीवन या आसके अस-पास का सारा व्यवहार, प्रकृ ित का

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अचरण तक एक िनयत प्रवाह मं, िवशेष अवृितयं मं हुअ करता है । यही कारण है कक छान्द्दिसक रचनाएँ सामान्द्य जन-मानस को आतनी गहराइ से छू पाती हं । तभी, छन्द्दं के हािशये पर ठे ले जाते ही पद्य-सािहत्य, जो जन-समाज की भावनाओं का न के वल प्रितिबम्ब हुअ करता है, बिल्क जन-समाज की भावनाओं को संतुष्ट भी करता है, रसहीन शािधदक ऄिभव्यिक्त भर हो कर रह गया । परन्द्त,ु ऐसी ऄतुकान्द्त पररिस्थितयं मं भी भावारष रचनाकमी दाियत्वबोध से प्रेररत हो कर, तो कइ बार ऄपनी नैसर्षगक प्रवृित के कारण, िबना ककसी ऄपेक्षा के लगातार संयत ढंग से गीतकमष करते रहे । ईपयुषक्त क्य के अलोक मं नैसर्षगक भावं की कवियिी डॉ. (श्रीमती) नीरज शमाष का पद्य-सािहत्य को लेकर सतत कक्रयाशील रहना कइ ऄथं मं महत्त्वपूणष है । गुजरात प्रदेश का सरस वातावरण कवियिी के मनोभाव-संप्रेषण की कला को ककतने ही प्रकार से प्रभािवत ककया है यह अपकी रचनाओं से गुजरते सहज ही भान होता है ! डॉ. नीरज शमाष के ऄभ्यासी काल-खण्ड की साक्षी रही है, ऄहमदाबाद की भूिम ! गुजरात प्रदेश मं भी महाराष्ट्र का ऄत्यंत प्रिसद्ध लोक-नृत्य ’लावनी’ पूरी अत्मीयता से स्वीकारा गया है । आस लोक-नृत्य मं गाया जाने वाला गीत वस्तुतः आसी नाम के छन्द्द मं अबद्ध हुअ करता है । लावनी छन्द्द मं िनबद्ध ’अँसू लावनी’ की रचनाएँ यथा नाम अँसू के िविभन्न अयामं को प्रस्तुत करती हं । कवियिी का काव्य-संग्रह ’अँसू लावनी’ छान्द्दिसक प्रवृित का सक्षम ईदाहरण बन कर हाथं मं है । पेशे से िचककत्सक आस संवेदनशील कवियिी की यह सचेत ऄभ्यासी प्रवृित ही है, कक ईनकी रचनाओं के क्य मं जहाँ अमजन के दैिनक - व्यवहार को स्थान

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िमला है, वहं प्रयुक्त लावनी छन्द्द के िवधान से छान्द्दिसक रचनाओं की पंिक्तयं को सप्रवाह रखा गया है । कवियिी नीरज शमाष की रचनाओं की िवशेषता है त्य, भाव, रस के साथ-साथ रचनाओं मं ईपयुक्त शधदं तथा भावदशाओं का साथषक िनवषहन होना । रचनाओं मं अँसू सम्बन्द्धी िविभन्न अयामं का प्रस्तुतीकरण वस्तुतः कवियिी की जागरुकता और पैनी दृिष्ट के साथ-साथ ईसकी संवेदनशीलता के भी पररचायक हं । रचनाओं मं ’अँसू’ तुकान्द्त टेक की तरह प्रयुक्त हुअ है. सूनी िवरिहन सदष िनशा के /

बरसं बन शबनम अँसू / नभ से टू टे हीरे मोती / जैसे िबखरं नम अँसू / सारी जगती जब सो जाती / रात ऄके ली रह जाती / तनहा शब का साथ िनभाने / अ जाते हमदम अँसू । कहना न होगा, व्यथा की गहन ऄनुभूित एकाकी क्षणं मं प्रभावी हुअ करती है । राि​ि के तीसरे प्रहर मं व्यथा का मौन कु छ ऄिधक वाचाल हुअ करता है । लेककन, सुखद अश्चयष है कक अँसू पीड़ा, व्यथा का भौितक संप्रष े ण होने के बावज़ूद कवियिी गलदश्रु भावनाओं मं ही नहं ईलझी रहती । ईन्द्हंने सामािजक राजनैितक िवसंगितयं को भी आसी प्रवाह मं स्वर कदया है – जनता के संग दुख मं

आनके / राजनीित करते अँसू / नेता सुख सब छीन नयन मं / ऄजना के भरते अँसू / कोइ िवपदा अन पड़े जब / बाढ़ हो कक भूकम्प कहं / आनकी चाँदी ही चाँदी है / जनता के जरते अँसू ।

अज की सबसे बड़ी िवडम्बना समाज मं सिलगानुपात मं भारी ऄंतर का है । समाज के आस घृिणत रूप को भ आसी संदभष मं समझने का प्रयास ककया गया है - रहे गभष

मं भ्रूण, सुना है / ईसके भी रोते अँसू / सुख दुख की गितिविधयं से, ईस - / के पररिचत होते अँसू / कन्द्या भ्रूण ऄगर सािबत हो / हत्या कर दी जाती है / माँ क पीड़ा से ईसकी भी / अँखं मं होते अँसू । अध्यात्म की सवषसमाही ईच्चो दशा मानवीय मनोदशा को ककतना ऄिधक प्रभािवत करती है यह जानना कम रोचक नहं है - पंचभूत िनर्षमत काया से / होते हं

मृण्मय अँसू / कान्द्हा की पूजा मं डू बं / मीरा के तन्द्मय अँसू / जान गया जो, ISSN –2347-8764

परमतत्व को / जगती की नश्वरता को / श्री चरणं मं ऄर्षपत हो कर / हो जाते चन्द्मय अँसू । छन्द्द िशल्प की दृिष्ट से एक त्य ऄवश्य साझा करना श्रेयस्कर होगा, कक लावनी, कु कु भ तथा ताटंक छन्द्द लगभग एक जैसे िवन्द्यास और माि​िकता के छन्द्द हं । तीनं ही छन्द्दो मं प्रत्येक पंिक्त 16-14 की यित पर िनबद्ध होती है. ऄंतर के वल पदान्द्त को लेकर है. जहाँ कु कु भ के पदान्द्त दो गुरुओं (2 2, ऽऽ, गुरु-गुरु) से हुअ करता है, ताटंक छन्द्द का पदान्द्त तीन गुरुओं (2 2 2, ऽऽऽ, गुरु-गुरु-गुरु) से होता है । वहं लावनी छन्द्द का पदान्द्त समकल या सम माि​िक शधदं से ही मान्द्य है । आस अलोक मं यह कहा जा सकता है, कक कु कु भ और ताटंक छन्द्द भी लावनी छन्द्द ही हं । और, ताटंक छन्द्द भी कु कु भ छन्द्द की ही िवशेष दशा हुअ करते हं । छन्द्द की पंिक्तयं के िवचार से तीनं छन्द्द चार-चार पंिक्तयं के छन्द्द हं, जहाँ दो-दो पंिक्तयं की तुकान्द्तता होती है। लेककन, आस पुस्तक की प्रस्तावना या फ्लैप ईिक्तयं मं आस त्य को स्पष्टता से ईजागर नहं ककया गया है. ताटंक छन्द्द और लावनी को एक जैसा समझ िलया गया है । दूसरे , छान्द्दिसक रचनाओं तथा छन्द्द अधाररत रचनाओं मं ऄन्द्तर हुअ करता है। छान्द्दिसक रचनएँ ककसी छन्द्द िवशेष मं िनबद्ध रचनाएँ हुअ करती हं, जहाँ ईस छन्द्द के सभी िनयम अवश्यक रूप से मान्द्य होते हं । जबकक ’छन्द्द-अधाररत’ रचनाएँ छन्द्द की माि​िकता या िवन्द्यास से प्रभािवत रचनाएँ ऄवश्य होती हं, परन्द्त,ु प्रयुक्त छन्द्द के सभी िनयम संतुष्ट हं, यह ऄिनवायष नहं हं । आस अधार पर कहा जा सकता है, तो ’अँसू लावनी’ के बन्द्द लावनी छन्द्द मं न िनबद्ध न हो कर आस छन्द्द की माि​िकता से प्रभािवत बन्द्द हं, जहाँ पंिक्तयं मं 16-14 की यित का िनवषहन हुअ है । तथा, हर बन्द्द की तीसरी पंिक्त आस छन्द्द की तुकान्द्तता के िनयम के ऄनुसार न हो कर, ’मुक्तक’ की तरह स्वतंि रखी गयी है । ऄथाषत, संग्रह की रचनाएँ लावनी छन्द्द से प्रभािवत या ईस छन्द्द पर अधाररत मुक्तक हं । संग्रह की भाषा मं खड़ी िहन्द्दी ही है । िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

परन्द्त,ु अज के दौर की शधदाविलयं के साथ-साथ अंचिलक शधदं की छंक वाचन मं िविशष्ट सरसता का कारण बनी हं । यह ऄवश्य है कक कु छ रचनाओं को शधदं के िवचार से तिनक और संयत रखना था । पुस्तक के प्रत्येक पन्ने पर डॉ. राम कु मार तोमर के रे खािचि हं । ये कइ जगह बहुत लाईड हो गये हं । भाव-रे खांकन मं कम लकीरं प्रयुक्त हं; रे खािचि रचना की भावािभव्यिक्त का िचिात्मक प्रारूप हं, तो अकृ ित की अकारगत चीख से पाठक का मन नहं भटकता । आसका ऄवश्य खयाल रखा जाना चािहये था । अजके समय मं जब किवताओं की पंिक्तयं मं गेयता साधने मं नव हस्ताक्षरं के पसीने छू ट रहे हं, लावनी छन्द्द मं हुअ रचनाकमष कवियिी को एक ऄलग ही पंिक्त का रचनाकार घोिषत करता है । यह भी एक कटु सत्य है, कक पद्य-प्रयासकताषओं की हाल की करीब तीन पीकढ़याँ आसी िवभ्रम और ईलझन मं खप गयं कक गीित-तत्त्व या गेयता रचनाकमष की अवश्यकता भी या नहं । अज जब पुनः गेयता को ऄिनवायष ही नहं संप्रेषण का मूल िहस्सा मानने के प्रित अश्विस्त बन रही हो, तो छन्द्दं के प्रित समझ तथा आनके िवधानं का ज्ञान महत्त्वपूणष ही नहं अवश्यक हो जाता है । भावनाओं एवं ऄनुभूितयं का शािधदक होना एक बात है और ईनका सुगढ़ ढंग से संप्रेिषत होना एकदम से दूसरी बात । यह सुगढ़ता यकद शािधदकता के सापेक्ष हो तो माध्यम की भूिमका ऄपररहायष हो जाती है। किवता संप्रेषण का एक सशक्त ढंग है । किवताएँ रचनाकार के दीघषकालीन सतत प्रयासं तथा किव के सुहृद व्यिक्तत्व एवं लिलत-भाव का पररचायक हुअ करती है । किवता है, तो ईसमं किवता-तत्त्व का होना अवश्यक है । ऄन्द्यथा हर पद्य-संप्रेषण किवता नहं होता । ऄनुभूित-संप्रेषणं मं गीित-तत्त्व का िवद्यमान होना भारतीय पररवेश के संप्रेषणं का प्राकृ ितक गुण है । वैसे, यह स्पष्ट है कक तिनक और कदया गया समय संग्रह की प्रस्तुितयं की गठन मं समुिचत सहायक ही होता । आस संग्रह को गीित-काव्य के परम साधक पद्मभूषण गोपालदास ’नीरज’का अशीवाषद िमला है ।

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लघु िनबंध

िवश्वगाथा

(िैमािसक मुकरत पि​िका)

वार्षषक सदस्यता

घर : ऄँजिु ल भर प्यार कर सको तो...

वार्षषक सदस्यता : 200/- रुपये 5-वषष : 1000/- रुपये

पुिनत रावल

(डाक खचष सिहत)

जहाँ खुद को खुद से िनहाल कर सको तो... घर अँखं खोलता है और खोलता है मेरे भीतर के द्वार । दीवारं , िखड़ककयाँ-दरवाजे और छोटे से अँगन मं कू दते रहते मेरे िवचार, सुबह सूयष को ऄर्घयष देते समय बहती जलधारा मं घर खुद भी सप्तरं गं मं रं गता हुअ मेघधनुषी स्नान करने लगता है । अँसू, अनंद, मौज और मस्ती का घंसला बन जाता है तब घर पूणष ऄथष मं व्यक्त करने लगता है हमं – हमारा ही पयाषय बनकर । घर के बाहर भी एक घर हो सकता है मगर वो घर न बन सके गा । अराम, शांित और संतोष के डकार चौबीस घंटे यह घर ले रहा होता है और ररचाजष होता रहता है । समय को बाहं मं लेकर... घर के हम पंख... ईड़ते रहं और ईत्सव मनाएं एक दूसरे के ऄिस्तत्व का । स्वागत का अकार और िबदाइ के क्षेि के प्रितघोष स्मृित बनकर िभगोते रहं हमं, हर ककसी को... ! आस घर मं प्रवेश करते समय शरीर स्वयं ऄपनी ऄवस्था को व्यविस्थत कर हल्का फू ल सा बना दे... यहाँ ऄतीत नहं – नहं भिवष्य का बोझ... वत्तषमान का प्यार बनकर... प्यार से रहने का एक दूसरे से ककया है प्रोिमस ... और करते है जीने के हर पल को ककस ... हम घर का श्रृग ं ार नहं करते, साँस का श्रृग ं ार करते हं – हम स्वयं बन गए हं घर ! हम ही पता और हम ही डाककया... ! घर – हमने ऄँजुिलयाँ भर-भर के प्यार ककया है तुम्हं... खुद को खुद से िनहाल ककया है हमने ! ♦ (पंटिटग : जयेन्द्र शेखडीवाला) ♦

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िवश्व गाथा: ऄक्तू बर-नवंबर-कदसंबर-2015

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