श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद: Shri Krishna

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श्रीकृ ष्ण और अर्जुन के संवाद: ब्रह्म क्या है,अध्यात्म क्या है,क् रम क्या है,अधिभूत किसे कहते है अर्जुन ने पूछा :- हे पुरुषोत्तम , यह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? क् रम क्या है ? अधिभूत किसे कहते है | और अधिदेव कौन कहलाते है हे मधुसूदन यहाँ अधियज्ञ कौन है | और वह इस शरीर में किस प्रकार स्थित रहता है | और शरीर के अंत समय में आत्म-संयमी मनुष्यो द्वारा आपको किस प्रकार जाना जाता है | श्री कृ ष्ण ( Shri Krishna ) ने कहा :- जो अविनाशी है | वही ब्रह्मा है | और आत्मा में स्थिर भाव ही अध्यात्म कहलाता है | तथा जीवो के वह भाव जो कि अच्छे या बुरे संकल्प उत्पन्न करते है | उन भावो का मिट जाना ही कर्म कहलाता है | भगवान श्री कृ ष्ण ( Shri Krishna ) ने अर्जुन को गूढ़ रहस्य बताये | श्री कृ ष्ण ( Shri Krishna ) ने कहा :- हे शरीर धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन मेरी अपरा प्रकृ ति जो की निरंतर परिवर्तनशील है | अधिभूत कहलाती है | तथा मेरा वह विराट रूप जिसमे सूर्य चन्द्रमा आदि सभी देवता स्थित है | वह अधिदेव कहलाता है | और मैं ही प्रत्येक शरीर धारी के हृदय में अंतर्यामी रूप स्थित अधियज्ञ हूँ | भावार्थ :- जो मनुष्य जीवन के अंत समय में मेरा ही स्मरन करता हुआ शारीरिक बंधन से मुक्त होता है | वह मेरे ही भाव को अर्थात मुझको ही प्राप्त होता है | इसमें कु छ भी संदेह नहीं है | भगवान श्री कृ ष्ण ( Shri Krishna ) ने कहा :- हे कु न्ती पुत्र अर्जुन मनुष्य अंत समय में जिस -जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता हैं | वह उसी भाव को ही प्राप्त है | जिस भाव का जीवन में निरंतर स्मरण किया है | भावार्थ :- इसीलिए हे अर्जुन तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर मन बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा |

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भगवान श्री कृ ष्ण ( Shri Krishna ) ने कहा :- हे अर्जुन जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी आत्मा से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है | वह निरंतर चिंतन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को प्राप्त होता है | भावार्थ :- मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिए जो की सभी को जानने वाला है | पुरातन है | जगत का रचियेता है | सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है | सभी का पालन करता है | अकल्पनीय स्वरूप है | सूर्ये के सामान प्रकाशवान है और अंधकार से परे स्थित हैं | जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति में लगा हुआ योग शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भोहों के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है | वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परमधाम को प्राप्त होता है | श्री कृ ष्ण ( Shri Krishna ) महामंत्र :- हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे " हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

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