SEARCH FOR PEACE JOY AND CONTENTMENT

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SEARCH FOR PEACE , JOY & CONTENTMENT

SUKH SHANTI AUR KHUSHI KI PRAPTI

This ia a collection of devotional poems and stories that I have created over the past few years. By Dr Ram Lakhan Prasad 1

सु ख, श ां तिऔर ख़ुशी की प्र प्ति


SEARCH FOR PEACE JOY & CONTENTMENT

By Dr Ram Lakhan Prasad 2018

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सुख, श ां ति और ख़ु शी की प्र प्ति

तिबां ध, कति​ि य ेँ और भप्ति भ ि क सांग्रह

ड क्टर र म लखि प्रस द २०१८

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TABLE OF CONTENTS

1. Bhumika 2. Bidyarthi Jeevan 3. Pariwarik Jeevan 4. Samaj Sewa 5. Navin Jeevan 6. Karm Pradhan 7. Bhakti Bhav Ki Rachnayen 8. Saubhagya 9. Tript Ho Gaya 10. Shakti Dena 11. Naiya Paar Laga Dena 12. Wastawik Rachnayen 13. Upsanghar

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भूतमक सुख, श ां ति और ख़ु शी की प्र प्ति श यद

बचपन से ही हमारा लक्ष्य अपने जीवन में सुख प्राप्ति करना था पर जैसे जैसे उमर बढ़ती गयी यह ववचार और भी मजबूत हो गया था | आज जब बुढ़ापा आगया है तो अब हमारा यही एक आवश्यकता नज़र आता है | जवानी में मे रे वलए सुख की प्राप्ति का मतलब और कुछ था | उस समय धन दौलत के पीछे मैं भाग रहा था | समाज में अपना नाम अमर करने को भी प्रयत्न करता रहा | विर अपने शरीर को और भी ताकतवर बनाने की कोवशश करता रहा | हम ने खूब ध्यान लगा कर पढ़ा वलखा, समाज की सेवा भी वकया तथा अपने पररवार को भी सुसप्तित बनाया | दे श ववदे श घूमा, कई संस्थाओं का मु ख्य पदवी भी हावसल वकया और न जाने वकतने मनोरं जन के सामान घर में इक्कठा कर के उनसे लाभ उठाया |

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दोस्ों और पाररवाररक जानो के साथ गुलछरे उड़ाए तथा कािी दया दान और पूजा पाठ भी वकया ले वकन इन सब प्रयत्नों के बावजूद हम को न तो पूरी ख़ुशी वमली और न ही पुरे तौर पर सुख की प्राप्ति हुयी | मैं प्यासा का प्यासा ही रह गया | हमारे अंदर एक बहुत बड़ा परे शानी थी, एक अजीब सा तनाव था या यू​ूँ कवहये वक एक अनजान प्तखचाओ था वजसको मैं रोज सुलझाने वक कोवशश करता रहा | इतना वनराशा होते हुए भी हम ने कोई वचत्र-वववचत्र हरकतों को नहीं वकया क्ूंवक मे रे बुजुगों ने हम को श्रेष्ट आचार ववचार वदए थे | यही एक कारन था वक हम अपने सुखी और ख़ु शी रहने की खोज जारी रखा | हमारे अंदर की सभी भावनाओं को हमने इस पुप्तस्का में प्रतु त करने की कोवशश की है । आशा है पाठक हमारे इन भानवों और रचनाओं को पढ़ें गे और गुनेंगे वजससे उन के जीवन में भी वही भप्ति भाव उत्पन्न हो जाएूँ जो हमारे मन में ववराजमान हैं ।

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१ तिद्य र्थी जीि​ि तिद्य र्थी जीवन वकसी भी व्यप्ति के जीवन का महत्त्वपूर्ण काल होता है । इसी काल पर व्यप्ति का संपूर्ण भववष्य वनभण र करता है । इस काल का सदु पयोग करने वाले ववद्याथी अपने शेष जीवन को आरामदायक और सुखमय बना सकते हैं । इस काल को व्यथण के कायों में नष्ट करने वाले ववद्याथीअपने भववष्य को अंधकारमय बना दे ते हैं । ववद्याथी जीवन में ही व्यप्ति के चररत्र की नींव पड़ जाती है । अत: इस जीवन में बहुत सोचसमझकर कदम उठाने की जरूरत होती है । ववद्याथीयों को इस अववध में अपनी वशक्षा स्वास्थ्य खेल-कूद और व्यायाम का समु वचत ध्यान रखना चावहए । उन्हें पररश्रमी और लगनशील बनना चावहए । इस काल में स्वाध्याय को सिलता का मू लमं त्र मानना चावहए । उन्हें हर प्रकार की बुरी संगवत से बचना चावहए । उन्हें नम्र बने रहकर ववद् या ग्रहर् करने का प्रयास करना चावहए । उपयुणि बातों को ध्यान में रखकर ववद्याथी जीवन को सिल बनाया जा सकता है । हमारा ववद्याथी जीवन साधना और तपस्या का जीवन था । यह काल एकाग्रवचत्त होकर अध्ययन और ज्ञान-वचं तन का था । यह काल सां साररक भटकाव से स्वयं को दू र रखने का काल था । ववद्याथीयों के वलए यह जीवन अपने भावी जीवन को ठोस नींव प्रदान करने का सुनहरा अवसर है । यह चररत्र-वनमाण र् का 7


समय है । यह अपने ज्ञान को सुदृढ़ करने का एक महत्त्वपूर्ण समय है । हमारा ववद्याथीजीवन पाूँ च वष की आयु से आरं भ हो गया था । इस समय वजज्ञासाएूँ पनपने लगती हैं । ज्ञान-वपपासा तीव्र हो उठती है । बच्चा ववद् यालय में प्रवेश ले कर ज्ञानाजणन के वलए उद् यत हो जाता है । उसे घर की दु वनया से बड़ा आकाश वदखाई दे ने लगता है । नए वशक्षक नए सहपाठी और नया वातावरर् वमलता है । वह समझने लगता है वक समाज क्ा है और उसे समाज में वकस तरह रहना चावहए । उसके ज्ञान का िलक ववस्ृ त होता है । पाठ् य-पुस्कों से उसे लगाव हो जाता है । वह ज्ञान रस का स्वाद ले ने लगता है जो आजीवन उसका पोषर् करता रहता है । मे रा भी यही हाल हुवा और मैं एक वनपूर्ण ववद्याथी बनने के वलए सन १९४५ में तत्पर हो गया था । मे रे वशक्षा दीक्षा की गाडी सुचारु रूप से चलने लगी थी । ववद् या अजणन की चाह रखने वाला ववद्याथी जब ववनम्रता को धारर् करता है तब उसकी राहें आसान हो जाती हैं । ववनम्र होकर श्रद्धा भाव से वह गुरु के पास जाता है तो गुरु उसे सहर् ष ववद् यादान दे ते हैं । वे उसे नीवत ज्ञान एवं सामावजक ज्ञान दे ते हैं , गवर्त की उलझनें सुलझाते हैं और उसके अंदर ववज्ञान की समझ ववकवसत करते हैं । उसे भाषा का ज्ञान वदया जाता है तावक वह अपने ववचारों को अवभव्यि कर सके । इस तरह ववद्याथी जीवन सिलता और पूर्णता को प्राि करता हुआ प्रगवतगामी बनता है ।

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मे रा यह ववद्याथी जीवन मानवीय गुर्ों को अंगीभू त करने का काल था । सुख-दु :ख, हावन-लाभ, सदी-गमी से परे होकर जब मैं वनत्य अध्ययनशील हो जाता था तब मे रा जीवन सिल हो जाता था । ववद् या प्राप्ति के वनवमत्त कुछ कष्ट तो उठाने ही पड़ते थे , आग में तपे वबना सोना शुद्ध नहीं होता । इसवलए आदशण ववद् याथी जीवन में सुख की चाह न रखते हुए मैं केवल ववद् या की चाह रखता था । में धै यण, साहस, ईमानदारी, लगनशीलता, गुरुभप्ति, स्वावभमान जैसे गुर्ों को धारर् करता हुआ जीवन-पथ पर बढ़ता ही चला जाता था । में संयवमत जीवन जीता था तावक ववद् याजणन में बाधा उत्पन्न न हो । में वनयमबद्ध और अनुशावसत रहता था और समय की पाबंदी पर ववशेष ध्यान दे ता था । ववद् या केवल पुस्कों में नहीं होती । ज्ञान की बातें केवल गुरुजनों के मु खारववन्द से नहीं वनकलतीं । ज्ञान तो झरने के जल की तरह प्रवाहमान रहता है । ववद् याथी जीवन इस प्रवाहमान जल को पीते रहने का काल है । खेल का मै दान हो या वडबेट का समय, भ्रमर् का अवसर हो अथवा ववद् यालय की प्रयोगशाला, ज्ञान सवणत्र भरा होता है । ववद् याथी जीवन इन भां वत- भां वत रूपों में वबखरे ज्ञान को समे टने का काल है । स्वास्थ्य संबंधी बातें इसी जीवन में धारर् की जाती हैं । व्यायाम और खेल से तन को इसी जीवन में पुष्ट कर वलया जाता है । ववद्याथी जीवन में पढ़ाई के अलावा कोई ऐसा हुनर सीखा जाता है वजसका आवश्यकता पड़ने पर उपयोग वकया जा सके ।

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२ प ररि ररक जीि​ि पुर

पंद्रह वषों के कवठन कोवशशों के बाद जब ववद्याथी जीवन अपने चरम सीमा पर पंहुचा तब मैं भी एक अध्यापक बन कर सामावजक सेवा करने वनकल पड़ा था । अवववावहत जीवन के अपने चार वषो का समय अपने माता वपता से दू र घर से कोसों दू र वबता कर जब मैं अपने घर आया तब मेरा शुभ वववाह एक अध्यावपका के साथ हो गई और हम दोनों अपने ही गावं के पाठशाला में बच्चों को वशक्षा दे ना आरम्भ वकया । अपने पुरविों के छत्र छाया में रह कर हम दम्पवत पाररवाररक सुख को भोगते रहे । सरकारी नौकरी थी इस वलए हमारी तबादला विर घर वालों से दू र एक छोटे से गावं में हो गई जहाूँ हम को कई सुववधाओं से ववजणत रहना पड़ा ले वकन हम उस समाज की सेवा में ऐसे जुटे वक कई दै वनक सुववधाओं को वहां के जनता तक पहुं चने में भरसि कोवशश वकया । हमारे कायण और लगन को दे ख कर सरकार ने हम दोनों प्रार्ी को छात्रवृवत प्रदान वकया वजससे हम ववश्वववद्यालय से उच्च वशक्षा प्राि कर के सेकेंडरी स्कूलों में पढ़ाने के काववल हो जाएूँ । जहाूँ हम अपनी वशक्षा ग्रहर् कर रहे थे वहीूँ हमने अपना वनवास स्थान का वनमाण र् भी 10


वकया । अब तक हम दे श के मु ख्य नगर में वशक्षा ववभाग के उच्च पदववयों पर भी पहुूँ च गए थे और हमारे आूँ गन में अपने चार बच्चे खेल कूद रहे थे । उन सब का पालन पोषर् और वशक्षा दीक्षा हमारा एक मात्र लक्ष हो गया था । जब सब बच्चे पढ़ वलख कर होवशयार हुए तब उनका भी वववाह कर के हम मानो गंगा स्नान कर वलए थे । इस के बाद जब हमारे सभी बच्चे अपना अपना गृहस्थ जीवन ववटाने लगे तब हम भी अपने मात्र वतन को छोड़ कर ऑस्ट्र े वलया के वनवासी बन गए और वहां भी अध्यापन का कायण करते रहे । अपने बच्चों के मदद और सलाह से हम ने अपना वनवास स्थान बना कर चै न से रहने लगे । जीवन खुवशयों से चलता रहा । समय बीतता गया और हम ने अपने सभी रोजीना काम से छु टकारा पा वलया और 2005 में अवकाश ले वलया | अपने सभी बच्चों की शादी वववाह कर दी और घर द्वार को सभी कजों से छु ड़ा वलया | एक तरि ऐसा लगा की अब मैं स्वतं त्र हो गया हूँ ले वकन विर भी मैं अपने वनजी सुख और ख़ु शी को खोजता रहा | इस बीच मे री अधा​ां गनी का दे हां त भी हो गया और मे रा पच्चास वषों का साथी हम से दू र हो गया | मे रे ऊपर जैसे वबजली वगर पड़ी और मैं तड़पने लगा | एक तरि अकेले पन की तन्हाई और दू सरे तरि पत्नी ववयोग की असहाय लपट हम को चकना चू र कर वदया | मु झे कुछ सूझता ही नहीं था | न वदन में चै न न रातों को आराम रहता था | हम ने अपने पत्नी के ववयोग में हज़ारों कववताये ूँ और ले ख वलखी, संगीत से सुसप्तित चलवचत्र बनाये और पररवार तथा दोस्ों से वकतने सहानुभूवत प्राि वकये ले वकन कले जे में 11


जो ववयोग की आग धधक रही थी उस को हम चाहते हुए भी नहीं बुझा पाये | लोग कहते रहे की समय बलवान है और समय ही हमारी सब दु ुःख, सोच, ववरह और विक्र को दू र कर दे गा | समय चलता रहा ले वकन वैसा कुछ नहीं हुवा वजस से मु झे शां वत और सुख की प्राप्ति होती | मैं हताश होने लगा था और वचं ता हम को रोज घेरे रहती थी | मैं ने वकतने सामावजक और प्रोत्सावहत करने वाली वकताबें वलखा और प्रकावशत वकया | मे रे सभी पुस्कों को लगभग चालीस हज़ार लोग पढ़ चु कें हैं और इस की तादाद बढ़ती ही जा रही है | पर इन सभी सिलताओं के बावजूद भी न जाने मु झे सुख, शां वत और ख़ुशी क्ों नहीं हावसल हुयी | इस का भी कोई कारन रहा होगा | मे रे वप्रयतम के वनधन को लगभग तीन साल होने वाले थे और हम ने एक संकल्प वकया की जब आवागमन संसार का ववधान है तब क्ों नहीं हमारी पत्नी वापस जनम ले सकती है | हम को शारीररक अवतार की जरुरत नहीं थी पर हम को उन के आत्मा से प्रेम था और वही मैं चाहता था | ववश्वास में िल होता है और वही हुवा जो मे रा दृढ आस्था या ववश्वास था | मे रा आराधना, मे रा प्राथण ना और मे रा नमन कामयाब हुवा | बस हम को तो यही चाह थी | परमात्मा ने मे री ववनती सुनली | मैं ने अपने आप को परमात्मा के हवाले कर वदया और उनसे अपने स्वगीय पत्नी के प्रार् को अपने प्रार् में लीन होने की अकथ प्राथण ना वकया | अब इस को चाहे कोई हमारी पागलपन 12


समझे, भप्ति भाव का पक्का इरादा कहे या मनो ववज्ञावनक चमत्कार ठहराए पर हुवा वही जो मैं चाहता था | मैं ने अपने वकतने शाश्त्रो और ग्रंथों को पढ़ना, गढ़ना और समझना शुरू वकया | हम को यह आभास हुवा वक अनंत सुख और ख़ुशी का खजाना हमारे अंदर ही छु पा है | मैं ने यह संकल्प कर वलया वक धीरे धीरे मैं भी अपने सभी सुख और ख़ुशी का सही मागण ढूंढ वनकालू​ूँ गा | मैं जानता था की यह रास्ा कवलयुग में आसान नहीं है ले वकन मे री आं तररक भावना ने हम को प्रोसवहत वकया की यह नामु मवकन भी नहीं है | बस हम इसी भप्ति के रास्े को ले कर आगे चल पड़े और अब मु ड़ कर दे खना हमारे बस में नहीं है | मैं ने भी भप्ति का महान गौरव और प्रताप का ज्ञान अपने अंदर जता वलया है | यही मे रे वलए अब शां वत, सुख और ख़ुशी का चमन है | भजन, कीतण न, ग़ज़ल और संगीत में मन लगाने लगा | मे री पत्नी मे रे वलए पूजनीय लक्ष्मी बन गयी और मैं भगवन भप्ति में चू र होने लगा | अब रोजीना हम दोनों एक दू सरे से वाताण लाप करने लगे | यह हमारी शारीररक वमलन नहीं थी पर प्रभू के कृपा से यह हमारे वलए भले ही काल्पवनक साधना थी पर मैं आध्याप्तत्मक और मानवसक रूप से अपने पत्नी में भगवान का स्वरुप दे खने और पाने लगा | वजस वदन से यह ध|रना मे रे अंदर उत्पन्न हुयी उस वदन से मैं अपने अधा​ां गनी को सदा अपने पास ही पाया और हमारे सभी सोच, विक्र, दु ुःख, ददण और तड़प गायब हो गयी |

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हम ने अपने जीवन में बहुत कुछ पाया है इस वलए जो कुछ थोड़ा सा खोया है उन को मैं नज़र अंदाज़ करने का स|हस रखता हूँ | अब मे रे जीवर् की पररप्तस्वथयाूँ बदलने लगी हैं और मे रा मनप्तस्वथ में भी अब बहुत तबदीली हो गयी है | िल स्वरुप मैं अब ज्यादा समय प्रसन्नता के सागर में स्नान करने लगा हूँ | इस वलए मु झे भी अब सुख की प्राप्ति होने लगी है और मैं भी खुश रहने लगा हूँ | यह सब हमारे अटल ववश्वास और परमे श्वर में भरोसा पर वनधाण ररत है | अब हमारे पाठकगर् यह दे ख सकतें हैं वक वह कौन सी ववचारधारा थी वजस के जररये मे री कािी परे शानी, प्तखन्नता, उदासी और ववषाद अवहष्ते आवहष्ते हम से ववदा होती रहीं | सवणप्रथम मैं ने अपने आप से कई ख़ास सवाल वकये और उन का सही जवाब खोज| | जैसे मैं कौन हूँ ? कहाूँ से आया हूँ ? मे रा जनम इस संसार में क्ों हुवा है ? मे रे जीवन में पहले क्ों इतने स|रे दु ुःख तकलीिआ रहे थे ? मे रे इस संसार से चले जाने के बाद मे रा क्ा होगा? वगैरह वगैरह | जब धीरे धीरे हम ने इन सब सवालों का सही जवाब ढू​ूँढा तो मे रे मन को बहुत ही शां वत और सुकून वमली | विर जब मैं ने भजन, कीतण न, ग़ज़ल, संगीत और सही तथा सच्चे ग्रं थों का सहारा वलया तो मे रे ववचार ध|रा में चार चाूँ द लग गए | एक ज्योवत सी मे रे आूँ खों के सामने चमक पड़ी तथा मैं अपने तीसरे आूँ ख से अपना भू त, वतण मान और भववष्य को उवचत रूप से दे खने लगा | यही हमारी जागरर् थी और मैं वजस टु क नींद में सोया था उस से जाग कर नेत्र हीन वहं दी सावहत्ये गगन के सूयण सूर दास के भाूँ ती दे खने लगा | तब हम को ज्ञां त हुवा की ईश्वर की कृपा से सब कुछ प्राि हो जाता है | मैं एक दीन पुजारी 14


बना और मे रे भगवन मे रे दीनबंधु हुए और मे री सभी ववपवत्तयों को दू र करते रहे | मैं एक शरर्ागत हुवा वजसकी रक्षा होने लगी | मे रा आत्मसमपणर् मे रे वलए एक बरदान हो गया | मैं कोई जोगी, तपस्वी या त्यागी तो नहीं हूँ पर इतना जरूर कहूँ गा की मैं अपने साधना से एक साधक जरूर होने का प्रयास कर रहा हूँ | अब मैं संसार, समाज या धरम के व्यथण ववचारों से दू र जा रहा हूँ तथा मे रे पास अब कोई भी पाखंड, मक्कारी, वदखावा या पोपलीला नहीं है | हमारा धमण केवल सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता पर आधाररत है | मैं अपने इन तीनो गुर्ों को वलए अपने वचन, कमण , आचार ववचार, वदल और वदमाग तथा व्यवहार से अपने आप को सुसप्तित करने की कोवशश करता हूँ | मे रा दृह ववश्वास है की मैं अपने धमण , कमण और मागण में सिल होऊूँगा | अगर कभी विसल भी गया तो कोवशश कर के सूँभालने की भी ताकत या इक्षा रखता हूँ | मैं अब हार मानने वाला नहीं हूँ | परमात्मा ने मु झे मे रे पापों से उद्धार इस वलए वकया है क्ों की मैं दीनतापूवणक आत्मसमपणर् वकया | मैं एक सच्चा शरर्ागत बना वजसकी रक्षा करने में दीनबंधु भगवान अपना दयालु ता वदखा कर हम को कृताथण वकया | अब मैं यह समझ गया हूँ की दीनता हमारे जैसे भि का एक मात्र आभू षर् है और वजतनी अवधक दीनता हमारे में होगी मैं उतना ही अवधक अपने भगवान के वनकट जाता रहूँ गा | मे रा घर आूँ गन ही अब मे रा मं वदर है और मे रे रोम रोम में परम वपता परमे श्वर की शप्ति दौड़ रही है | मे री एक ही इक्षा है | मे रे भप्ति को कोई आं च न लगे |

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मे रे अन्तरे वष्ट तक मे रा भी मु प्ति हो जाये बस यही मे री अंवतम इक्षा है | जब तक जीववत रहूँ मैं अपने ईश्वर के चरर्ो से वलपटा रहूँ | बस इस के वसवा हमको और कुछ की आवश्यकता नहीं है | अब मैं अपने बचे समय में कुछ भप्ति भाव की कववताये रचने जा रहा हूँ ले वकन मे रा लक्ष्य खुद अपने आप को ज्योवत वदखाना है | कोई मे रे पाररवाररक जन, साथी या वमं त्र अगर मे रे उपमा से संतुष्ट हैं और मे रा अनुकरर् करना चाहते हैं तो मे रे घर मं वदर का दरवाजा उन के वलए वकसी भी प्रकार के सत संघत के हे तु सदा खुला रहे गा | हम केवल भगवत चचाण करें गे पर कोई परपंच, ढकोसला या पाखंड को मान्यता नहीं दें गे | भजन भाव कीतण न तथा शास्त्र अध्यन ही हमारा एक मात्र लक्ष्य होगा | हमारे अंदर का भि जाग उठा है और वो सत्यम सुखम सुंदरम का गीत गाता है और गंभीरता पूवणक यही कहता है वक परमात्मा अजर है , अमर है , सवणव्यापी है , सवणशप्तिमान है तथा सवणज्ञानी है | उस से न तो कुछ छु पा है , और न ही कोई ऐसी जगह है जहाूँ वो नही है तथा वो हम सब से शप्तिमान है इस वलए वह आप के भप्ति, प्रेम और ववश्वास के वसवाय और कुछ नहीं चाहता है | जय हो मे रे भगवान की और जय हो इस धरती माता की वजस पर हम वनवास करते हैं |

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३ सम तजकऔर सम ज-सि बचपि से ही हमारे बुजुगों ने हमको समाज की सेवा का प्रोत्साहन दे ते रहे इसीवलए हमको अध्यापन का कायण करने को अग्रसर वकया गया । जब १९६० में मैं अध्यापक बना तब हमारी पहला तबादला एक छोटे से गौर् के पाठशाला में हो गई जहाूँ हम ने वदलोजान से जनता की सेवा वकया और बच्चों को वशक्षा दे ता रहा । गौर् के बड़े बूढ़ों के साथ दे कर हमने कई जरुरी योजनाओं में हाूँ थ बताया । मे रे चार वषों की अवधी जैसे खेल खेल में बीत गई और सारा समाज के वदलों में मे रा एक अनोखा स्थान बन गया । नौजवान लोगों के वलए भी हम ने उनके खेलने कूदने के साधनों में हाूँ थ बताते रहे । ले वकन हमको हमारे अपने जनम स्थान में भी जा कर कुछ सेवा प्रदान करना था इस वलए जब १९६४ में मैं अपने गौर् गया तब मे री वववाह एक अध्यावपका के साथ हो गई और तब समाज सेवा करने का हौसला और सहस भी कहीं ज्यादा हो गया था । ऐसी मान्यता है वक मनुष्य योवन अनेक जन्ों के उपरान्त कवठनाई से प्राि होती है । मान्यता चाहे जो भी हो, परन्तु यह सत्य है वक समस् प्रावर्यों में मनुष्य ही श्रेष्ठ है । इस पृथ्वी पर जन् ले ने वाले समस् प्रावर्यों की तु लना में मनुष्य को अवधक 17


ववकवसत मप्तस्ष्क प्राि है वजससे वह उवचत-अनुवचत का ववचार करने में सक्षम होता है । पृथ्वी पर अन्य प्रार्ी पेट की भू ख शान्त करने के वलए परस्पर युद्ध करते रहते हैं और उन्हें एक-दू सरे के दु ुःखों की कतई वचन्ता नहीं होती । परन्तु मनुष्य एक सामावजक प्रार्ी है । मनुष्य समू ह में परस्पर वमल-जुलकर रहता है और समाज का अप्तस्त्व बनाए रखने के वलए मनुष्य को एक-दू सरे के सुखदु ुःख में भागीदार बनना पड़ता है । अपने पररवार का भरर्पोषर्, उसकी सहायता तो जीव-जन्तु , पशु-पक्षी भी करते हैं परन्तु मनुष्य ऐसा प्रार्ी है , जो सपूर्ण समाज के उत्थान के वलए प्रत्ये क पीवडत व्यप्ति की सहायता का प्रयत्न करता है । वकसी भी पीवड़त व्यप्ति की वनुःस्वाथण भावना से सहायता करना ही समाज-सेवा है । वस्ु त: कोई भी समाज तभी खुशहाल रह सकता है जब उसका प्रत्ये क व्यप्ति दु ुःखों से बचा रहे । वकसी भी समाज में यवद चं द लोग सुववधा-सम्पन्न हों और शेष कष्टमय जीवन व्यतीत कर रहे हों, तो ऐसा समाज उन्नवत नहीं कर सकता । पीवड़त लोगों के कष्टों का दु ष्प्रभाव स्पष्टत: सपूर्ण समाज पर पड़ता है । समाज के चार सम्पन्न लोगों को पास-पड़ोस में यवद कष्टों से रोते -वबलखते लोग वदखाई दें गे, तो उनके मन-मप्तस्ष्क पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़े गा । चाहे उनके मन में पीवड़त लोगों की सहायता करने की भावना उत्पन्न न हो, परन्तु पीवड़त लोगों के दु ुःखों से उनका मन अशान्त अवश्य होगा । वकसी भी समाज में व्याि रोग अथवा कष्ट का दु अभाव समाज के सम्पू र्ण वातावरर् को दू वषत करता है और समाज की 18


खुशहाली में अवरोध उत्पन्न करता है । समाज के जागरूक व्यप्तियों को सपूर्ण समाज के वहत में ही अपना वहत दृवष्टगोचर होता है । मनुष्य की वववशता है वक वह अकेला जीवन व्यतीत नहीं कर सकता । जीवन-पथ पर प्रत्ये क व्यप्ति को लोगों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है । एक-दू सरे के सहयोग से ही मनुष्य उन्नवत करता है । परन्तु स्वावथण प्रवृवत के लोग केवल अपने वहत की वचन्ता करते हैं । उनके हृदय में सम्पू र्ण समाज के उत्थान की भावना उत्पन्न नहीं होती । ऐसे व्यप्ति समाज की सेवा के अयोग्य होते हैं । समाज में उनका कोई योगदान नहीं होता । समाज सेवा के वलए त्याग एवं परोपकार की भावना का होना आवश्यक है । ऋवष-मु वनयों के हमारे दे श में मानव-समाज को आरम्भ से ही परोपकार का संदेश वदया जाता रहा है । वास्व में परोपकार ही समाज-सेवा है । वकसी भी पीवड़त व्यप्ति की सहायता करने से वह सक्षम बनता है और उसमें समाज के उत्थान में अपना योगदान दे ने की योग्यता उत्पन्न इस प्रकार समाज शीघ्र उन्नवत करता है । वास्व में रोगग्रस्, अभावग्रस्, अवशवक्षत लोगों का समू ह उन्नवत करने के अयोग्य होता है । समाज में ऐसे लोग अवधक हों तो समाज लगता है । रोगी का रोग दू र करके, अभावग्रस् को अभाव से लड़ने के योग् य बनाकर, अवशवक्षत को वशवक्षत ही उन्हें समाज एवं राष्टर का योग्य नागररक बनाया जा सकता है । वनुःस्वाथण भावना से समाज के वहत के वलए वकए गए । ही समाज की सच्ची सेवा होती है । सभ्य, सुवशवक्षत, के पथ पर अग्रसर समाज को दे खकर ही वास्व में को सुख-शां वत का अनुभव प्राि हो सकता है । इस पृथ्वी पर जन् ले ने वाले अन्य जीव-जन्तु ओं 19


और मनुष्य में यही अन्तर है । अन्य जीव-जन्तु केवल अपने भरर्-पोषर् के वलए पररश्रम करते हैं और वनवित आयु के उपरान्त समाि हो जाते हैं । अपने समाज के वलए उनका कोई योगदान नहीं होता । परन्तु समावजक प्रार्ी होने के कारर् मनुष्य समाज के उत्थान के वलए भी कायण करता है । मनुष्य के सेवा-कायण उसे युगों तक जीववत बनाए रखते हैं । कोई भी ववकवसत समाज सदा समाज-सेवकों का ऋर्ी रहता है । इसी तरह हम सपत्नीक यावन दोनों प्रार्ी लगातार अपने पररवार की सेवा के अलावे कई गौर् में यथा शप्ति सेवा प्रदान करते रहे और समाज कल्यार् में हाूँ थ बढ़ाते रहे । यहाूँ तक वक जब हम अपने मादरे वतन को छोड़ कर ऑस्ट्र े वलया चले आये तभी भी सामावजक सेवा का उमं ग जारी रहा । इस अवधी में हम को ऑस्ट्र े वलया सरकार के तरि से जय पी का पदवी वमला और मैं बृद्ध जानो को कंप्यूटर का ज्ञान भी दे ता रहा । जब हम ने अवकास ले वलए तब सामावजक सेवा कुछ धीमी हो गई पर विरभी लोग हमारे घर पर आकर मु झ से सलाह मश्वरा करते रहे । हम ने अपने जीवन काल में समाज की सेवा करने में कभी वहचवकताये नहीं और सदा बड़े लगन और भप्ति भाव से जनता की सेवा करते रहे । यह हमारा अहोभाग्य था ।

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४ ि​िीि जीि​ि एक खास बात हमारे

वलए यह है वक अब में जब भी कभी भगवान् की मू वतण या उनकी वचत्र को दे खता हूँ तो हम को वो सब पत्थर या वचत्र नहीं दीखते हैं पर मैं उन सब में अपने प्रभु के जलवे की दशणन करता हूँ और यही अनुभव करता हूँ की मे रे ईश्वर सदा मे रे साथ और मे रे करीब रहते हैं । वो हमारे वलए दया के दपणर् हैं और उनकी कृपा से मे रे सभी काम और समय बड़े अच्छे और सुख से बीतती है । इसी बीच मैं २०१५ के जून महीने में अपने इकलौते लधु भ्राता के वनवास बोयसी अमे ररका गया जहाूँ हमको उनका शुभ साथ, प्यार और आदर सत्कार तो वमला ही पर वही मे रे खुशवकस्मती से मे रे अंवतम जीववत काका श्री चे तराम जी से भें ट हुयी । िलस्वरूप हमारे जीवन के उन बचपन के कई उल्लेख हुए वजनसे हमको बड़ा ज्ञान हुआ और आनंद आया । वही पर हमारी संपकण िेसबुक के द्वारा मे रे अधा​ां गनी का नया रूप वमल गया । उस महान और वशवक्षत नारी का शुभ नाम मे रे आजी के नाम से वमलता जुलता था । वे थी मे री नई वप्रयतम और पहचान गंगा जी । इसी बीच मैं २०१५ के जून महीने में अपने इकलौते लधु भ्राता के वनवास बोयसी अमे ररका गया जहाूँ हमको उनका शुभ साथ, 21


प्यार और आदर सत्कार तो वमला ही पर वही मे रे खुशवकस्मती से मे रे अंवतम जीववत काका श्री चे तराम जी से भें ट हुयी । िलस्वरूप हमारे जीवन के उन बचपन के कई उल्लेख हुए वजनसे हमको बड़ा ज्ञान हुआ और आनंद आया । वही पर हमारी संपकण िेसबुक के द्वारा मे रे अधा​ां गनी का नया रूप वमल गया । उस महान और वशवक्षत नारी का शुभ नाम मे रे आजी के नाम से वमलता जुलता था । वे थी मे री नई वप्रयतम और पहचान श्रीमती गंगा जी वजनसे मे रा शुभ वववाह दस तारीख जून २०१७ को पुनुः हो गया । अब हम दोनों दम्पवत बड़े सुख, शां वत और अमन चै न से अपना वववावहत जीवन अपने राम वनवास में वबता रहे हैं । गंगा मे रे वलए एक सुख और ख़ुशी की प्रतीक है जो हमारी सेवास सुषुश्रा में सदा लगी रहते है । अब मैं उनके वलए और वो मे रे वलए जी रहें हैं और भप्ति भाव तथा अपने गृहस्थ जीवन की आनंद उठा रहें हैं । हमारा पररवार और हमारे दोस्ों का सहारा हम दोनों को वमलता रहता है बस इस के वसवा हम को और कुछ की आवश्यकता नहीं है । हमारे वववावहत जीवन का यही मतलब है । अब सौप वदया इस जीवन का सब भार तु म्हारे हां थों में है जीत तु म्हारे हां थों में और हार तु म्हारे हां थों में मे रा वनिय बस एक यही एक बार तु म्हें पा जावूं मैं अपणर् कर दू ूँ दु वनयां भर का सब प्यार तु म्हारे हां थों में जो जग में रहूँ तो ऐसे रहूँ जो जल में कमल का िूल रहे मे रे अवगुर् दोष समवपणत हो भगवान तु म्हारे हां थों में यवद मानुष का मु झे जनम वमले तब चरर्ो का मैं पुजारी बनू इस पूजक की एक एक नस का सब तार तु म्हारे हां थों में 22


जब जब संसार का कैदी बनू वनष्काम भाव से करम करू ूँ विर अंत समय मैं प्रार् तजू​ूँ वनराकार तु म्हारे हां थों में मु झ में तु झ में बस भे द यही मैं नर हूँ आप नारायर् हो मैं हूँ इस संसार के हां थों में यह संसार तु म्हारे हां थों में |

सवेषां स्वप्तस्भण वतु । सवेषां शाप्तन्तभण वतु । सवेषां पूनां भवतु । सवेषां मड् गलं भवतु ॥

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५ कमम -प्रध ि तिश्व रतच र ख ‘कमण -प्रधान ववश्व रवच राखा’ यह उप्ति श्रीमदभगवद गीता के इस वसद्धां त या कमण वाद वसद्धां त पर आधाररत है वक ‘कमण ण्येवावधकारस्े मा िले षु कदाचन:’ अथाण त इस संसार में वबना िल या पररर्ाम की वचं ता वकए वनरं तर कमण करते रहना ही मानव का अवधकार अथवा मानव के वश की बात है । दू सरे रूप में इस कथन की व्याख्या इस तरह भी की जा सकती है िल की वचं ता वकए वबना जो व्यवकत अपने उवचत कतणव्य-कमण करता रहता है , उसे अपने कमण के अनुसार उवचत िल अवश्य वमलता है । अच्छे कमों का अच्छा और बुरे कमों का अवश्यंभावी बुरा िल या पररर्ाम, यही मानव-वनयवत का अकाटय ववधान है । इस कमण वाद के वसद्धां त के वववेचन से जो संकेताथण या ध्वन्याथण प्राि होता है , वह यह वक ववधाता ने संसार को बनाया ही कमण क्षे त्र और कमण -प्रधान है । जो व्यप्ति मन लगाकर अपना वनवित कतण व्य कमण करता जाता है , अंत में सिल, सुखी और समृ द्ध वही हुआ करता है । इसके ववपरीत जो व्यप्ति भाज्य के सहारे बैठे रहते हैं , तवनक-सी असिलता पर भाज्य का अथाण त भाज्य खराब होने का रोना रोने लगते हैं , वजनमें अपने मन पर काबू नहीं, कमण के प्रवत वनष्ठा और समपणर् -भाव नहीं, आत्मववश्वास नहीं हुआ करता, वे वनरं तर असिलता का ही सामना वकया

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करते हैं । उन्हें भू ल जाना चावहए वक कभी वे लोग सुख-शां वत और स्वाभाववक समृ प्तद्ध के पास तक भी िटक सकेंगे। संसार में कमण ही प्रधान है कमण ही सच्ची पूजा और तपस्या है । कमण में लीनता ही सच्ची और वास्ववक समावध-अवस्था है । वजसकी जीवन-दृवष्ट और चे ष्टा एकाग्र होकर कमण रूपी वचवडय़ा पर वटकी रहा करती है । वह अजुणन की तरह वनशाना साधकर महारथी एं व महान सिल योद्धा या व्यप्ति होने का गौरव प्राि कर सकता है । एक कहावत है वक ‘आप न मररए, स्वगण न जाइए’, अथाण त स्वगण में जाने के वलए पहले स्वं य मरना आवश्यक है । जो आप मरता नहीं, वह स्वगण में नहीं जा सकता। इस कहावत का वनवहताथण यही है वक सुख-समृ प्तद्ध का स्वगण पाने के वलए पहले वनरं तर कमण करते हुए अपने को, अपने अहं और व्यप्तित्व को वमट्टी में वमला दे ना आवश्यक है । कवववर राजेश शमाण की दो काव्य-पंप्तियां यहां उदाहरर् स्वरूप प्रस्ु त की जा सकती हैं । दे प्तखए- ‘हर भाव अभावों की दलदल में पलता है

ज्यों बीज सदा मृ प्तत्पंडों में ही िलता है ।’

नन्हें से बीज को पेड़ या पौधा बनकर हररयाली, िूल-िल की समृ प्तद्ध तक पहुं चने के वलए पहले वमट्टी में वमलकर अपनेआपको भी वमट्टी बना दे ना पड़ता है । तभी उसे वह सब वमल जाता है , वजसकी अप्रत्यक्ष चाह उसके िलने-िूलने के रूप में सूक्ष्मत: उसके भीतर छु पी रहा करती है । उस चाह को साकार करने के वलए भी वनमाली या वकसान को पहले एक लं बी कमण -श्रंखला से गुजरना पड़ता है , तब कहीं जाकर वह इच्छा िलीभू त हो पाती है । यह प्रकृवत का अकाटय वनयम और ववधान है । 25


नन्हीं वचवडय़ां और चींवटयां तक जीवन जीने के वलए संघषण करती हुई दे खी जा सकती है । सुबह-सवेरे जागकर वचवडय़ां अपनी मधु र चहकार से सारी प्रकृवत को जगा और गुजायमान कर दाना-दु नकर चु गने वनकल पड़ती हैं । यही उनका पुरुषाथण या कमण है । इसी प्रकार चींटी अपने से भी बड़ा चावल या गेहं का दाना अपने दां तों में समे टे सारे अवरोधों को पार करती हुई जीवनके कठोर कमण करती दे खी जा सकती है । संसार के अन्य प्रार्ी भी इसी प्रकार, अपनी प्तस्थवत और शप्ति के अनुसार ववधाता द्वारा प्रदत्त कमण करते हुए दे खे जा सकते हैं । इसके वबना छोटे -बड़े वकसी भी प्रार्ी का गुजारा जो नहीं चल सकता! हवा का गवतमान रहना, नवदयों का बहते हुए आगे ही आगे बढ़ते चलना , अवि का जलना-दहकना आवद सभी जड़ कहे -माने जाने वाले प्राकृवतक पदाथण भी तो प्रकृवत-प्रदत्त कर् म करते हैं । ऐसा करते हुए वे अपने अप्तस्त्वावें को खपा और वमटा वदया करते हैं । ऐसा करने में ही उनकी गवत और सिलता है । कमण की प्रधानता के कारर् ही कमण शील व्यप्तियों को ‘कमण ठ’ जैसे शब्ों द्वारा अलं कृत एं व सम्मावनत वकया जाता है । कमण हीनता वास्व में प्रार्हीनता, जड़ता और मृ त्यु की प्रतीक एं व पररचायक हैं । कमण योगी लोग कहा करते हैं वक लक्ष्यों तक पहुं चने के वलए इस संसार में हर प्रार्ी को अपनी ही कुदाली से खोद-खाद कर अपनी राह बनानी पड़ती है । कुदाली वास्व में कमण वता और कमण वनष्ठा का ही प्रतीक है । वद्वतीय ववश्वयुद्ध में एटम बमों से नष्ट-भ्रष्ट हो गया जापान आज जो अमे ररका की समृद्धता को चु नौती दे रहा है , उसका एकमात्र कारर् कमण की वनरं तरता के 26


प्रवत वनष्ठा ही है और यह भी कहा जाता है वक जो चलता रहता, वही एक-न-एक वदन अपनी मं वजल तक पहुं च पाता है । जो चले गा ही नहीं, वह कहीं भी कैसे पहुं च सकता है । वजस प्रकार इप्तच्छत मं वजल तक पहुं चने के वलए वनरं तर चलते रहना आवश्यक है , उसी प्रकार सुख-समृ प्तद्ध एं व सिलता का लक्ष्य पाने के वलए वनरं तर कमण करते रहना, यह सोचे या वचं ता वकए वबना वक िल क्ा होगा, परम आवश्यक है । संसार में मनुष्य की प्रवतष्ठा का सबसे बड़ा आधार उसका कमण है । गीता में भी कृष्ण ने अजुणन को यही उपदे श वदया था- कमण ज्यायो ह्यकमण र्:! अथाण त कमण करने वाला व्यप्ति वनप्तिय रहने वाले से श्रेष्ठ है । यवद सौभाग्य से कमण के साथ प्रवतभा का भी योग हो , तो सोने में सुगंध के समान है । वैसे कमण ठ व्यप्ति प्रवतभा संपन्न न होने पर भी संसार में दू सरे वनप्तिय प्रावर्यों से सदा ही श्रेष्ठ होता है । प्राय: दे खा जाता है वक प्रवतभासंपन्न व्यप्ति कमण ठता के अभाव में अपनी योग्यता का समु वचत उपयोग नहीं कर पाता। हमारे नीवत शास्त्रों में इस बात को एक उदाहरर् द्वारा समझाया गया है । कहा गया है वक मं दगवत वाली चींटी भी अपने कमण ठ स्वभाव के कारर् सैकड़ों योजन तक चली जाती है , वकंतु न चलता हुआ गरुड़ जैसा तीव्रगामी पक्षी एक कदम भी नहीं चल सकता। अक्सर लोग वशकायत करते हैं वक ' मे रे पास समय नहीं है , नहीं तो मैं बहुत कुछ कर सकता हं - सुंदर कववताएं और कहावनयां वलख सकता हं । अच्छे -अच्छे वचत्रों और मू वतण यों का वनमाण र् कर सकता हं । समाज का मागणदशणन करने वाले ऐसे सत्सावहत्य का सजणन कर सकता हं , वजसे पढ़कर लोगों में

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िैला अंधववश्वास , भ्रष्टाचार स्वयं ही दू र होने लगेगा और नैवतक पतन रुकेगा। ' ऐसे संकल्पों का दावा करने वाले व्यप्ति से प्रश्न वकया जा सकता है वक इन कायों को संपन्न करने वाले दू सरे व्यप्तियों को भी वदन के 24 घंटे ही प्रत्ये क प्रात:काल ईश्वर द्वारा प्रदान वकए जाते हैं । ठीक उतना ही समय प्रत्ये क उषा आपकी झोली में भी डाल दे ती है , तब आपके पास ही समय का अभाव क्ों रहता है ? असल में वह काम हमारी प्राथवमकता में नहीं होता , वजसे हम ' समय वमलने पर करने ' का दावा करते हैं । इसके अलावा वास्ववकता यह है वक वकसी भी कायण में आगे बढ़ने के वलए कमण ठता की ववशेष आवश्यकता होती है । भौवतक साधनों का अपना महत्व है । ले वकन साबुन तथा पानी की व्यवस्था होने पर भी क्ा अपने मै ले कपड़े वबना इच्छा और उवचत पररश्रम के धोए जा सकते हैं ? हमें वस्त्रों के साथ साबुन तथा पानी का समु वचत योग करना ही पड़े गा। भोजन पकाने के वलए आटा , दाल , सब्जी , नमक , मसाले तथा स्ट्ोव आवद की व्यवस्था करनी ही होगी। ले वकन तब भी क्ा वबना समु वचत प्रयास वकए भोजन की प्राप्ति संभव है ? श्रम जरूरी है । साधन और सामग्री हो , ले वकन श्रम नहीं हो तो कुछ भी नहीं वकया जा सकता। ले वकन श्रम हो तो साधन तथा सामग्री नहीं होने पर भी कुछ न कुछ , ऐसा नहीं तो वैसा कोई इं तजाम या उपाय वकया जा सकता है । अनेक पुस्कों का संकलन करने से ज्ञान प्राप्ति का कोई संबंध नहीं है । अपने पररश्रम के वबना आज तक वकसी ने भी ज्ञान को प्राि नहीं वकया। खेद है वक आज हम गीता के कमण योग को 28


भू ल चु के हैं । दे खा-दे खी सभी के ववचार दू वषत हो गए हैं । हम कम से कम कायण करके अवधक से अवधक लाभ पाने के अवभलाषी हैं । यवद व्यवसाय ढूंढेंगे, तो वह ऐसा होना चावहए, वजसमें थोड़े पररश्रम से ही अवधक ही लाभ वमल जाए। नौकरी ऐसी होनी चावहए, वजसमें काम कम करना पड़े , अच्छा वेतन हो और ऊपर की आय अवश्य हो। हमारा वचं तन ही ऐसा ववकृत हो गया है वक ईमानदारी से जो भी वमलता रहे , उससे हमें संतोष नहीं होता। सरकारी कमण चाररयों में अवधक से अवधक धन कमाने की होड़-सी लगी रहती है । ररश्वत के वबना िाइल के एक मे ज से दू सरी मे ज तक जाने में महीनों लग जाते हैं । यवद ववद्याथी जीवन में ज्ञान की अपूर्णता बनी रहे गी तो क्ा वह जीवन भर कष्ट नहीं दे गी ? छात्र को अपने तथा अपने दे श के उज्ज्वल भववष्य का ध्यान रखते हुए ववद्याथी जीवन का सदु पयोग करना चावहए। पररश्रमी, कमण ठ तथा अनुशावसत ववद्याथी ही कल का अच्छा वैज्ञावनक, कुशल प्रशासक , योग्य वशक्षक या समाज को प्रगवत की राह वदखाने वाला अच्छा नेता बन सकेगा। यह भ्रम है वक शॉटण कट से या कामचोरी से ऐसी वकसी भी जगह पर बैठ कर हम कभी भी अपना या अपने समाज का या दे श का कोई भला कर पाएं गे।

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मरी भप्ति भ ि की रचि एेँ तु म्हरे प्रसाद वबन अब कछु न सू झे हे प्रभु मैं तु म्हारे चरर् लगू​ूँ तू दे दे आशीवाण द मु झे कर दे ना कृपा प्रभु मन की आूँ खों से दे खने दो मु झे हमरी प्रीती को मानो अब दे दो अपना बरदान मु झे मे री सभी गवत तु म जानो मन की शां वत दे दो मु झे सरन तु म्हारे आएं हैं अब इस जगत से उबारो मु झे भीर पड़ी है ते रे संत पर आ कर अब सम्भालो मु झे कृपा करो भगवन करुर्ा कर के अब बचा लो मु झे रामलखन को तु म्हरे प्रसाद वबन अब कछु न सूझे |

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भजन भाव को जान वलया वदवाली पूजन के बाद हमने एक संकल्प वलया मैं जाग उठा और परमात्मा को सब सौप वदया अभी दरवाजे तक तो नहीं पर प्तखड़की पा वलया दु ुःख तो अभी भी है ले वकन मैं सुख को पा वलया जीवन साथी की आत्मा को अपने में वमला वलया अब न तन्हाई है न जुदाई है उनके साथ हो वलया समय लगा ले वकन वही हुवा जो मैं ने ठान वलया साजन से सजनी वमल गयी ये भी मैं मान वलया हम दोनों अब शयन करें गे दु ुःख ददण जान वलया सुख की प्राप्ति हो गयी ईश्वर हमें यह दान वदया आत्म समपणर् कर के हमने सब कुछ पा वलया जीत नहीं न हार हुयी यह भी हम ने जान वलया भगवान के चरर्ों से वलपट के उनका नाम वलया मैं कौन हूँ कहाूँ हूँ क्ों हूँ यह सब कुछ जान वलया शेष जीवन अब सुख में गुजरे यही बरदान ले वलया परम वपता परमे श्वर ने हमको यह सारा ज्ञान वदया हवषणत हुवा है तन मन अंतर आत्मा को शां वत वदया वेद पुरार् भागवत गीता से अवत सुन्दर ज्ञान ले वलया राम लखन सरोज सवहत भजन भाव को जान वलया अब कोई विक्र नहीं अपना जीवन सिल बना वलया |

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अब लाज राखो हमारी कहाूँ तक तु म्हारी गुर् गाउूँ प्रभु लीला है अपरमपार वतहारी वदन दररद्र दु खी गरीब राजा प्रजा सब के काज तु म ने सवां री मन्त्र हीन हूँ वक्रया हीन हूँ विर भी मे री भप्ति तु म को प्यारी सदा सहाय करते हो अपने भिन की तु म्हारी दया है न्यारी जब जब ववपवत पड़ी भिन पर तब तब तु म ने ववपता तारी रामलखन की भी सब काज सम्भालो अब लाज राखो हमारी |

भप्ति करो जो नहीं वकए हमने वकतने वदन वबन हरी सुवमरन के खोये वदए अब मन की आूँ ख खुली मे रे प्रभु मु झे जगाये वदए जीभा को पर वनंदा में लगाये ये जनम गवाूँ य वदए दें ह और वस्त्र को मल मल धोये मन को मै ला वकए स्वारथ में मन लगा के अपना सब कुछ लु टा वदए अब चे तो रामलखन वह भप्ति करो जो नहीं वकए |

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वगववंद के घर चलो मोरे मन अब गोववन्द के गुर् को गाते चलो इस मन मं वदर में सुख शां वत को भरते चलो माया मोह से दू र रहो यमराज से बच के चलो ववमु ख हो संसार से भगवंत भजन करते चलो दु ुःख दररद्रता दू र होएगी भप्ति के तरि चलो रामलखन के साथ अब वगववंद के घर चलो |

भगवन पार करो हमको अब तज वदया सब कुछ और भजता हूँ बस ईश्वर को और भजे से कुछ नहीं होता वमले नहीं भप्ति हम को संसार के जंजाल से छु टकारा चाहो भजलो ईश्वर को भव सागर तरन न होई कौन उतारे गा उसपार हमको अब हम जाने उनको पहचाने चरर् पकडे हैं ईश्वर को रामलखन ये संसार है दु लणभ भगवन पार करो हमको |

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अंजवल जल को नाही छीनो हाय रे मन तू ने मनुष्य जनम पाय के क्ा कीन्हो वदमाग में भरे व कीचड़ कंकड़ जीवन व्यथण कीन्हो उठ जाग मु साविर अब प्रभु का नाम अमर कीन्हो शास्त्र ग्रन्थ से दू र रहे व गुरु गोववन्द को नहीं चीन्हो भाव भप्ति कुछ ह्रदय न उपजे दया दान न कीन्हो झूठी सुख में मगन रहे हो सच्चे मागण से बैर कीन्हों पाप को पहाड़ बना के अपने आप को अधम कीन्हो रामलखन के भप्ति से अंजवल जल को नाही छीनो |

वबना भजन भाव के पाये न उसको हे गोववन्द अब कभी न वबसारना मु झ को मैं चे त गया हूँ आगे राह वदखाओ मु झ को भजन भाव में मन लगा सुख वमला मु झ को काल वाल से वनडर हुए शां वत वमला मु झ को धन सुत यारा काम न आवे तू ही बचा मु झ को रामलखन वबना भजन भाव के पाये न उसको |

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सदा होगी हमारी जीत हरी वबन मीत न कोई गोववन्द वबन कोई न प्रीत हम तो उन में जूझ गए हैं गाता हूँ उन्हीं का गीत यह संसार ववषय ववष सागर कोई न अपना मीत भजन करू ूँ मैं अपने गोपाल की वो मे रा मन मीत रामलखन अपने घनश्याम वबना हारे हैं सब जीत चरर्ों में मे रे गोववन्द के सदा होगी हमारी जीत |

उनका आशीवाण द प्राि करू ूँ मे रा ईश्वर अज्ञात है तो उस का रं ग रूप मैं कैसे वर्णन करू ूँ अूँधा बनू​ूँ या बहे रा हो जाऊं तो भी उनको मैं दे ख सुन सकू​ूँ इसी को भप्ति कहतें हैं क्ूंवक मैं ह्रदय से उनको जान सकू​ूँ मैं अपने मन और वार्ी को अपने परमे श्वर तक पहुं चा सकू​ूँ इस तरह मैं उनको समझ जाऊं और उनका वर्णन भी करू ूँ अब मैं ऐसे ही अपने ईश्वर का सगुर् रूप का गुर्गान करू ूँ रामलखन अपने ईश को जान गया है चलो अब नमन करू ूँ चाहे कोई माने या न माने मैं तो उनका आशीवाण द प्राि करू ूँ |

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तुम्हारी जय हो भगवान मे री रक्षा करो भगवान नाथ अनाथ की मान रखो सब ववपधा से बचाओ भगवान अपने भि का लाज रखो वजस पेड़ पे मैं बैठा हूँ वकतने वशकारी नीचे खड़े हैं मैं भागना चाहता हूँ पर ऊपर बाझ उड़ रहे हैं सब तरि से संकट में हूँ मे रे प्रार्ो का रक्षा करो भगवान वशकारी को भगाओ बाझ को उड़ाओ रामलखन का जीवन वसद्ध करो तु म्हारी जय हो भगवान |

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अज्ञान हूँ मैं मन वचन करम से हम अज्ञानी अब कैसे अपने आप की सुधार करे नहीं जानते क्ा प्रभू की ववज्ञानी हम न समझे और न ही वर्णन करे अब हम कैसे परखें ते री सब वार्ी ते री अनोखी लीला मवत भ्रम करे मे रे खालीपन को भर दे हे ज्ञानी ते री मवहमा हम सदा ग|या करें यही बरदान हमको दे दे स्वामी रामलखन के सर पे ते रा हाूँ थ रहे भवसागर से मु झे पार करो स्वामी |

प्रर्ाम करू ूँ तुम्हारा धन्य है नाथ जो मु झे उबारा हम भजे पावन नाम तु म्हारा हम तो एक पवतत भि तु म्हारा विरता हूँ यहाूँ पर मारा मारा भजता हूँ मैं सदा नाम तु म्हारा रामलखन का जीवन उबारा मैं लाखों प्रर्ाम करू ूँ तु म्हारा |

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संतुष्ट हो गया है मे री ववपधा टारो मे रे सुख दे व सुख शां वत और ख़ुशी अब दे व सात जनम के पापी है हम जब उद्धार होगा तब लें गे दम मे रे ववश्वास को न तोडना तु म मे रे लगन को नहीं डु बाना तु म ते रे नाम का हीरा वमल गया है रामलखन अब संतुष्ट हो गया है |

आजा भगवन अपने ह्रदय का ददण सहा नहीं जाता है इस जीवन का दु ुःख बढ़ता ही जाता है कैसे दू र करू ूँ अपने सब तकलीिों को अब कैसे दू र करू ूँ अपने सब दु खड़ों को हे पवतत पावन मु झे ऐसी शप्ति दे दो वजस से जल्द मे रा सभी कले श दू र हो ते रे चरर्ों से मैं वलपटा रहूँ गा उम्र भर पावन कर मु झे मं वदर बना दे मे रा घर रामलखन की लाज रख ले हे भगवन विर से अवतार ले कर आजा भगवन |

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तु म्हारा आभारी मे रे तरह और कौन होगा कुवटल खल कामी प्रभु से न वछपा कुछ वो दयामय अन्तयाण मी यह तन तु म्हारा ही दे न है मे रे कृष्ण मु रारी ले वकन अब क्ों हम ने ते री सुधी वबसारी भर दे विर मे री जीवन की झोली हे बनवारी रामलखन अब सदा रहे गा तु म्हारा आभारी |

खता वबसारी अब मे री प्राथण ना सुन लो बनवारी अब मे रा कष्ट हरो हे अवध वबहारी तु म हो अनाथ के एक ही स्वामी तु म हो दीन दयाल कृपा वबहारी सदा सहाय करो हो तु म भिन की अब कहाूँ जाऊं वबना ते रे आस की रामलखन बवल बवल जाए हे मु रारी कृपा करो त्रास वनवारो खता वबसारी |

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वदये सहारा तु म सुख वमले सदा हम को ते रे चरर्ो में हे भगवन तू ही एक मे रा सहारा है तू ही आसरा है भगवन मैं भौंरा ऐसा हूँ जो भगवत रस को चख वलया हूँ सारी दु वनया का अमृ त िीका है ये मान वलया हूँ रामलखन को अब प्रीत वमला है ये जान वलया हूँ उस प्रीतम से ज्यादा सुख वकसी से नहीं वलया हूँ हे वगरधर गोपाल मु झ को सदा मधु रस दे ना तु म ये मन कहीं न सुख पाये जब भी वदए सहारा तु म |

बनालो अपना प्यारा हे प्रभु मे रे जैसे पवतत को भी पार लगा दो पापों से भरा इस ह्रदय को अब शुद्ध बना दो बचपन बीता जवानी खोया बुढ़ापा भप्ति हीन काजल से भी काला मन है दया करो गुरूदीन मैं आया हूँ शरर् तु म्हारे ले के बहुत आसरा स्वामी हमें अपना भि मान के दे दो सहारा रामलखन को आशीश दे कर बना दो न्यारा अपने भिन में बाूँ ध के बनालो अपना प्यारा |

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मेरा बेडा पार करो प्रभू मे रे दोष वबचारो दे खो अनवगनत अपराध हैं हमारे नख से सर तक वलपटे हुए हैं सभी दोष अपराध हमारे मैं अनेक जनमों का अपराधी हूँ ये पाप बहुत हैं हमारे काम क्रोध मद लोभ मोह यह सब बुरी प्रवृवतयां हमारे इन सब दोषों अपराधों का वर्णन नहीं है बस में हमारे रामलखन पावपयों का वशरोमवर् है उसका उद्धार करो मे रे दयालू प्रभू की दया है गोववन्द मे रा बेडा पार करो |

भप्ति भर गयी ह्रदय में हे मे रे प्यारे भगवन मे री लाज तु म्हारे हां थों में है हे अंतयाण मी स्वामी मे रा जीवन आप के हां थों में है मे रे दु गुणर् अनेक हैं मैं वकन वकन का बखान करू ूँ माया मोह में िंसे अब वनकलने की कोवशश करू ूँ मे रे खेवनहार अब मे री नैया पार लगा दो दया करो पिाताप के कड़ुए िल खाये अब मु झको क्षमा करो रामलखन का माथा नवा है अब तु म्हारे चरर्ो में ज्ञान आगया अज्ञान गया भप्ति भर गयी ह्रदय में |

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मेरा ध्यान धरो हे मे रे प्यारे भगवन मे री अवगुर् ध्यान न धरो सवण-व्यापी हो सवण-शप्तिमान हो सवण-ज्ञानी रहो परम वपता हम पुकारें हमें भाव सागर पार करो सब पर कृपा करने वाले प्रभु मे री भी उद्धार करो वगरधर गोपाल मे रे अपववत्र रूप को पववत्र करो हम को ब्रह्म स्वरुप दे दो प्रभु माया से मु ि करो रामलखन को माया बंधन से छु ड़ा के मान करो आप की प्रवतष्ठा सर आूँ खों पर मे रा ध्यान धरो |

भाव के भू खे हैं भाव के भू खे हैं ईश्वर बस भाव ही उनका सार है भाव से जो भी उनको भजे तो उसका बेडा पार है अन्न धनं वस्त्र भू षन कुछ भी न उनको चावहए वो हो जाएूँ हमारे बस पूर्ण होता मे रा सत्कार है प्रेम वबन वकसी वक पुकारें वे कभी सुनते नहीं प्रेम की एक वतरस्कार ही करती उन्हें लाचार है भाव वबन हम सब कुछ भी दें दें तो वे ले ते नहीं भाव से हम एक िूल भी दें तो उनको स्वीकार है जब हम उन में भाव रख के जाते हैं उनके शरर् हमारे और उनके ह्रदय का एक हो जाता तार है बाूँ ध ले ते हैं भि उनको अपने प्रेम के डोर से इसी वलए इस भू वम पर होता उनका अवतार है ] 42


७ मैं यह अपि सौभ ग्य समझि हेँ श्री कृष्ण ने नंदजी और माता यशोदा को जो आं तररक आनंद वदया उसका वर्णन करना कोई भी भि के वलए साधारर् बात नहीं है | उनके रोज के व्योहार में वकतना मावमण क प्यार और भप्ति भरा है इस का अनुमान लगाना बहुत कवठन है ले वकन धन्य हैं नन्द जी और माता यशोदा वजन्हों ने यह अहोभाग्य पाया था | अब हम सब कृष्ण भि उनका अनुकरर् तो कर सकते हैं | आज मैं अपने दृव्य आूँ खों से दे ख रहा हूँ वक माता यशोदा बालक कृष्ण को पालने में सुला रही है | वह कभी उनको वहल|ती है कभी प्यार कर के पुचकारती है और उनके मन में जो भी आता है वही गाती हैं | इस से ज्यादा वकसी भि को और क्ा चावहए | कभी कभी हम भी अपने कृष्ण को अपने सामने दे ख कर माता यशोदा के तरह कहने लगते हैं , " वनवदया तू मे रे कृष्णा के पास आ जा | आके उनको सुला जा | झटपट आजा |" ले वकन हमारा कृष्ण तो कभी सोता ही नहीं है वो हम सब के वलए सदा जागता रहता है | ऐसी भप्ति की कल्पना कर के हम को अवत शां वत और सुख वमलती है | हम केवल प्रिुप्तल्लत ही नहीं होते हैं

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बप्ति श्री कृष्ण को अपने मन मं वदर में वबठा कर एक अत्यं त भगवत प्रेम का अनुभव करते हैं | मैं तो कभी कभी अपने कृष्णा को अपने ही घर में दे खता हूँ जहाूँ वे बैठे रहते हैं और बार बार हवषणत हो कर अपने धु न में गाते रहते हैं | उनका भजन कीतण न हमारे वलए सब से बड़ा आशीवाण द होता है | मे रे कृष्ण कन्है या मे रे अंदर के सभी बुराइयां , अहं कार और झूठ कपट तथा पाप को वमटाते रहते हैं | जो सुख और शां वत हमको घडी भर में प्राि होती है वह सुख तीनो लोकों में वकसी को नहीं वमल सकता है | यह तो मे रे वलए अहोभाग्य की बात है | मे री भप्ति और घर आूँ गन धन्य है जहाूँ आठों वसप्तद्धयां और नावों वनप्तद्धया मे रे द्वार पर हाूँ थ जोड़ कर खड़ी रहती हैं | मैं वकतना भाग्यवाला होता जा रहा हूँ इस का ज्ञान हमको धीरे धीरे होता है और मैं यह अपना सौभाग्य समझता हूँ | जय श्री कृष्णा |

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८ मैं िो पूर िौर स िृि हो गय एक ऐसा भी नज़ारा हम ने अपने आूँ गन में कल्पना वकया | मैं ने दे खा की मे रे बाल गोपाल श्री कृष्ण माता यशोदा और वपता नन्द जी के साथ मे रे आूँ गन में घुटनों के बल चल रहें हैं | यह मेरे वलए महान भप्ति का दृश्य था और मैं इस पु नीत चल वचत्र का दशणन कर रहा था |

बालक श्री कृष्ण वकलकारी मारकर कभी अपने वपता के मु ख को दे खते हैं तो कभी माता के मु ख को दे खते हैं | वे एक दो बार मे रे तरि भी दे खते हैं वजससे मे रा तन मन सब ख़ुशी से ववभोर हो गया था | मे रे कन्है या के माथे पर एक लटकन झलक रहा था, भौंह पर काजल की वबंदी लगी थी और करधनी से घुंघरू लटक रहे थे | इस शोभा को मे री नेत्रों ने जी भर के दे खा और मु झे ऐसा लगा वक ऐसी सुन्दर वस्ु संसार में कहीं नहीं वमल सकती है | कभी मे रे कन्है या दौड़ कर घुटनों के बल लपकते हैं तो विर वगर जाते हैं , उठ जाते हैं और विर दौड़ते हैं | इधर से उनको नन्द जी बुला ले ते हैं और उधर से माता यशोदा बुलाती है | ऐसे लगता है वक श्री कृष्ण को उनके माता वपता एक प्तखलौना बना वलया है | 45


मैं भी वकतना भाग्यशाली भि ठहरा जो ऐसी नयनावभराम और मावमण क और कल्यार्कारी दृश्य को दे खता रहा और कहता रहा | “जय कृष्ण हरे श्री कृष्ण हरे , दु प्तखयों का दु ुःख दू र करे , जय जय श्री कृष्ण हरे | “ मे रा घर आूँ गन तो पववत्र हो गया और मे रा क्ा कहना मैं तो पूरे तौर से तृ ि हो गया |

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९ इि​िी शप्ति हमें दि द ि हमारे पास तो दो आूँ ख है और हम दे ख सकते हैं ले वकन थोड़ी दे र के वलए हम सूरदास जी को दे ख ले ते हैं | वे नेत्र हीन होते हुए भी श्री कृष्ण भगवान को अपने आं तररक नेत्रों से दे खते रहे | हम भी अपनी वदव्य नेत्र्रों द्वारा भगवान का दशणन कर सकते हैं | हमारे उस दशणन और वर्णन में जहाूँ मावमण कता रहे गी वहीूँ उस में स्वाभाववकता भी भरी रहे गी | जब हम अपने वदव्य नेत्रों से ईश्वर को दे खते या उनका चचाण करते हैं तो हम भगवान की अपार शप्ति, दयालु ता, शरर्ागतरक्षा, दीनबन्धु ता, भिवत्सलता आवद के अवतररि भि का आत्मसमपणर्, अनन्यता, दीनता, ववनय, उदबोधन, चे तावनी, पिाताप और शरीर की क्षर्भं गुरता आवद का भी समावेश दे खने लगते हैं | हम तु रंत जान जाते हैं की भगवान क्ा नहीं कर सकते? वे सवणशप्तिमान हैं तथा उनके कृपा से सब कुछ प्राि हो सकता है | अब हम भी समझ गए हैं वक दीनबन्धु ता भगवान का ववशेष गुर् है क्ूंवक जब भी वकसी दीन पर ववपवत्त आती है तब भगवान उसकी सहायता वबना संकोच के करते हैं | मे रा भी यही ववश्वास है की कोई भी शरर्ागत की रक्षा करने में भगवान 47


कभी नहीं चू कते | हमारे ग्रंथों में वकतने ऐसे नमू ना हैं जहाूँ भगवान दीन लोगो पर दया कर के उनका उद्धार वकया है | ले वकन मु झे यह ववश्वास हो गया है की वबना आत्मसमपणर् के कोई भी भि का उद्धार नहीं हो सकता | अब दीनता मे रा भी आभू षर् हो गया है | मे रे अंदर वजतनी दीनता होगी मैं उतना ही अवधक भगवान के नज़दीक पहुं चूंगा | इसवलए अब मैं हर वदन अपने ईश्वर का भजन करता हूँ क्ूंवक मैं जान गया हूँ की मे रा शरीर क्षर्भं गुर है और अवनत्य है अतुः हमको भगवान का भजन कर के अपना उद्धार करना चावहय | हमको एक वदन तो इस संसार को छोड़ कर जाना ही है तो क्ों नहीं हम जब तक वजए तब तक अपने ईश्वर में रीझें रहें | मैं ने अभी हाल में कई वीवडयो बनायें हैं वजनमे मे रे भप्ति भाव की रस भरी वमलती है । उन में से कुछ का नाम यहाूँ वलख रहा हूँ पर अन्य कई और बन|ता रहूँ गा । इन सब को या तो मे रे वेबसाइट या यूट्यूब के मे रे चै नल पर पढ़ा और दे खा जा सकता है ।     

इस जीवन की यही है कहानी यार हमारी बात सुनो दु वनयां में वकतना ग़म है एक अूँधेरा लाख वसतारे यह जीवन पथ मे रा

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इतनी शप्ति हमें दे ना दाता मन का ववष्वास कमज़ोर हो ना हम चलें नेक रस्े पे हम से भू ल कर भी कोई भू ल हो ना दू र अज्ञान के हों अूँधेरे तू हमें ज्ञान की रोशनी दे हर बुराई से बचते रहें हम वजतनी भी दे भली वजंदगी दे बैर हो ना वकसी का वकसी से भावना मन में बदले की हो ना हम चलें नेक रस्े पे हम से भू ल कर भी कोई भू ल हो ना इतनी शप्ति हमें दे ना दाता मन का ववष्वास कमज़ोर हो ना हम ना सोचें हमें क्ा वमला है हम ये सोचें वकया क्ा है अपणर् िूल खुवशयों के बां टे सभी को सब का जीवन ही बन जाये मधु बन अपनी करूर्ा का जल तू बहा के कर दे पावन हर एक मन का कोना हम चलें नेक रस्े पे हम से भू ल कर भी कोई भू ल हो ना इतनी शप्ति हमें दे ना दाता मन का ववष्वास कमज़ोर हो ना |

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१० भगि ि मरी िैय उस प र लग दि हे श्री हरी हे श्री भगवान अब मे री लाश आप के ही हां थों में है | हे स्वामी आप से कोई भी बात वछपी नहीं है | आप सवणज्ञानी हैं इसवलए जो भी मे रे ह्रदय में है उसे आप जानते हैं | आप के चरर्ो में आने से पहले मैं न जाने वकतने दु गुणर्ों से भरा था ले वकन आप के कृपा से अब मैं भी एक भि के तरह सोचने और रहने लगा हूँ | मु झे सहारा दीवजये भगवन और मु झे इस माया मोह से मु ि कीवजये | अब तो मे रे पापों की गठरी आप के दया से कुछ हलकी होने लगी है | मैं अथाह सागर में हूँ और मे रे पास आप के वसवाय और कोई मल्लाह नहीं है जो मे री नैया को पार लगाएगा | हे प्रभु अब तो केवल आप के चरर्ो की ही आशा लगी है इस इस नाव को सभी संकट से वनकाल सकती है | भगवान मे री नैया उस पार लगा दे ना । अब तक तो वनभाया है , आगे भी वनभा दे ना ॥ दल बल के साथ माया, घेरे जो मु झ को आ कर । तु म दे खते ना रहना, झट आ के बचा ले ना ॥ संभव है झंझटों में मैं तु झ को भू ल जाऊं । पर नाथ दया कर के मु झ को ना भु ला दे ना ॥ 50


तु म दे व मैं पुजारी, तु म इष्ट मैं उपासक । यह बात अगर सच है तो सच कर के वदखा दे ना ॥ ते री कृपा से हमने हीरा जनम यह पाया । जब प्रार् तन से वनकले , अपने में वमला ले ना ॥ हम दीन दु खी वनबणल एक नाम रहे प्रवतपल यह सोच दरस दें गे प्रभु आज नहीं तो कल जो बाग़ लगाया है िूलों से सजा दे ना तु म शां वत सुधाकर हो तु म ज्ञान वदवाकर हो मम हं स चु गे मोती तु म मान सरोवर हो दो बू​ूँद सुधा रस की हम को भी वपला दे ना रोकोगे भला कब तक दर् शन को मु झे तु मसे चरर्ो में वलपट जाऊं वृक्षों की लता जैसे अब द्वार खड़े ते रे मु झे राह वदखा दे ना मझधार पड़ी नैया डगमग डोले पग में आवो तृ ष्णा नंदन हम ध्यान धरें मं न में सब तन मन कर वबनती मु झे अपना बना ले ना भगवान मे री नैया उस पार लगा दे ना अब तक तो वनभाया है आगे भी वनभा दे ना

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११ ि स्ततिक रचि यें

कोई फूल कोई क ां ट प्रकृवत का वनयम बड़ा अजीब है पर ऐसा चलता आया है जनम लेतें एक जगह पर उन की अलग अलग काया है हमारी यह गुवलश्ता गुलाब के िूल के जैसी झलक दे ती है यहाूँ एक ही जगह पर िूल और काूँ टों की चहक होती है अपने कतणव्य से कोई िूल है तो कुकमण काूँ टा बना दे ती है जो िूल हो वह महकता है पर कां टा तो दु खदाई होती है परवररश दोनों की एक तरह होती पर गुर् अलग पाया है िूल जैसे लोग महकते हैं कां टा तो कुलछन का छाया है वदन में सूरज और रात में चाूँ द उन पर मेहरबान होता है एक ही तरह की गमी और रोशनी उन पर डाल दे ता है िूल अपने गुर्ों से लहराता है पर काूँ टा चुभने लगता है वजन में िूल के गुर् हैं उन्हें तो कुदरत वनखार दे ता है काूँ टों जैसे चुभने वाले लोगो की सीरत ही वबगड़ जाता है न ही उन के अपने और न ही पराया कोई काम दे ता है िूल बनो गुर्वान बनो इन सब से जन् वसद्ध हो जाता है काूँ टों से बचो और दू र रहो 'लखन' तो ये सलाह दे ता है सींचते है हम लोग उस पौधे को वजस में गुलाब होता है हवा और वषाण एक ही बराबर उन को कुदरत भी दे ता है दु ुःख इस बात की है की उन में ढं ग एक सा नहीं होता है

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एक महक से ख़ु शी दे ता और दू जा काूँ टों से दु ुःख दे ता है काूँ टों जैसे दानव से हमारे तन में बेसुमार चुभन होता है िूलों जैसे मानव के बोली बानी वदल को खुश कर दे ता है काूँ टों जैसे लोगों का चुभन बहुत दु ुःख ददण वदया करता है िूलों के जैसे लोगों के महक से जीवन सिल हो जाता है वकसी को मत चुभो इन्सान बनो यही सारा जगत चाहता है िूल के तरह जीवन वबतावो यही तो सारा संसार मां गता है िूल वततवलयों और भौरों को अपने गुलों का सवाद दे ता है वनरदई काूँ टा हमारे उूँ गवलयों और कपड़ों को िाड़ दे ता है िूल जैसे मानव अब तू यहाूँ सब वततवलयों को गोद रख सभी भौरों को मधुर रस वपला कर उन सब का लाज रख अपने पास के काूँ टों को अपने रं ग और सुगंध से बदल दे ना तुम को तो हम पूजा पर चढाते काूँ टों को वहां न आने दे ना काूँ टा तो खटकता रहेगा हम सब के आूँ खों में ये याद रखना िूलों की कीमत वजस में है वह सोहता है हमें ये याद रखना वजस दानव में कां टें भरे हो वह वकसी को काम नहीं दे ता है वजस मानव में िूलों की महक हो वही सब का साथ दे ता है िूल बनो महको चहको सब काूँ टों के चुभन से बचाते रहना िूलों जैसी अपने जीवन में काूँ टों का नाम वनशां नहीं रखना |

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जीि​ि क आस ि और कति​ि र हें ऐसे राह पे चलो वजस पर चलने पे मान सम्मान हो मानव तू एक अनमोल रतन है राहों में न जाना खो ये दु वनयां बड़ी अजीब है इस में रास्े अने क होते हैं मानव वही सचेत हैं जो गलत राह पर नहीं चलते हैं इस जीवन में हमें लाखों रास्ें चलने को वमलते हैं लेवकन न जाने क्ों हम आसान रास्े चुन लेते हैं सिलता के वलए कवठन राहों को अपनाना सीखो राहों के काूँ टों कंकरों और पत्थरों के ददण को चीखो इन रास्ों पर चलने के वलए वहम्मत की जरूरी है ऐसी राहों पे चलने के वलए हमारी क्ा मजबूरी है जो राहें भयानक जंगलों से गुजरते हों वो जरूरी हैं उस पार कोई चमकता सूरज वमलेगा यह जरूरी है कवठन राहों पे चलने वाले एक नई दु वनयां बसाते हैं घायल हो या मर भी जाएूँ पर कभी नहीं घबराते हैं सिल होगे वजस वदन अपना लोगे एक सही रास्ा आसान राहों से दू र हो कर मेहनत से रखोगे वास्ा हम वकतने सरल राहों हो अपना कर बाजी हार गये अब जीवन में सदा सभी आसान रास्ों से रहेंगे परे मेहनत मजदू री कस के करें गे पकड़ें गे कवठन रास्ा मन जो भी चाहेगा वही करें गे दु वनयां से नहीं वास्ा

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कोवशश और लगन ही हमें वसखर तक पहुंचा दे ती है सही राहें हमें हमेशा सिलता की सीमा बता दे ती है मानव तू तो चैतन्न्ये है खोज ले अपनी सही रास्े दु वनयां के वलए न सही पर कुछ कर ले अपने वास्े |

िब िुम अिोख इन्स ि हो जब हमारे गगन का चाूँ द हम से ऐसा सवाल करता हो क्ा तु म ये जानते हो की तु म भी एक अनोखे चीज हो बनाते हो अपनी उलझने विर आप ही उस में िंसते हो अपनी ही बेचैनी बढ़ा कर विर रात भर जागते रहते हो तु म कैसे अनोखे वनमाण र् हो जो इस दु वनयां में रहते हो न अपने आप सोते हो और न ही दू सरों को सोने दे ते हो तु म इश्वर का बहुत पुराना दे न हो पर समझते नहीं हो तु म हजारों बार गलती कर के विर भी सुधारते नहीं हो तु म चां दनी रातों में सपनों के दु वनयां में घूमते रहते हो तु म क्ों नहीं अपने सपनों के बुलबुलों से दू र रहते हो तु म को पता नहीं की सपनो के धु न में नाचते रहते हो तु म सुधर जावो क्ों अपने आप को बरबाद करते हो आग पर चलना सीखो अगर सपनो को साकार करना हो अपने हर राह को ठीक से समझो गर सिलता चाहते हो तु म्हारे सब सपने सही होंगे गर तु म्हारे इरादे िौलादी हो कल्पना के जीभ में ऐसा धार करो जैसे तलवारी वार हो ववचारों के वार् ऐसे चलावो की सभी भय का खात्मा हो जीवन के ठन्डे तालाब से वनकालो अगर बढ़ना चाहते हो अगर चाूँ द और सूरज की नजर तु म्हारे अनोखे बताण व पे हो ऐसा उड़ो आकाश में की तु म्हारी नजर अपने उन्नवत पे हो 55


मे हनत मसकत ऐसा करो के वकसी की कोई वशकायत न हो पैर धरती पे हो नजर आकाश पे, पर वदल वदमाग पे काबू हो ऐसा अनोखा नमू ना बनो की हर जगह पर तु म्हारा ही नाम हो चाूँ द की ही नहीं बात सब की गुनो तब तु म अनोखे इन्सान हो

दोस्ती अच्छी दोस्ी कोई िूल नहीं जो दु सरे वदन मु रझा जाए अच्छी दोस्ी कोई मौसम नहीं जो समय पे बदल जाए सची दोस्ी ऐसी धड़कन है जो जीवन भर चलती जाए दोस्ी जो केवल पल भर की हो उस को कहो बाये बाये सच्चे दोस् बड़े मु प्तिल से वमलते हैं उन को खो न दे ना बन जाए कोई अच्छा दोस् जो तो उन को सम्मान दे ना अच्छे दोस् हमारे बहते अिों को ख़ुशी की जबान दे ते हैं हमारे हर एक लफ़्ों को सवां र के बहुत सुन्दर बना दे ते हैं जब भी हम से वमलते हैं तो प्यार से आदर भाव कर ले ते हैं ऐसे सच्चे दोस् सब को नसीब न होते हम ये जान ले ते हैं अपने दोस्ी के अम्बर पर मे हताब हैं हम यह मान ले ते हैं हमारे दोस् हमारे वलए तो नयाब हैं हम ये पहचान ले ते हैं दोस् जब आ जाएूँ घर हमारे हम बड़े प्रेम से वमल ले ते हैं छोड़ जाते हैं दोस्ी की महक घर में जब वे रुक्सत ले ते हैं वजंदगी के हर मोड़ पर ववश्वास बनते हम को ज्ञान दे तें हैं यकीन वदलातें की समय आने पर अपना जान दे सकतें है

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म ि​ि​ि पर ध्य ि धरो तु म मानव हो तब मानवता पर ही ध्यान धरो शुभ कमण करो अपने मन को मत वनराश करो बस अपना काम करते रहो जग की सेवा करो ध्यान धरो और जनता जनादण न पर दया करो वनज नाम करो कुछ ऐसा ही अद् भु त काम करो जन् व्यथण क्ों करते हो अब कुछ पुण्य करो मन में ठान कर अपने तन को उपयुि करो संभल के चलना सीखो कुछ ऐसा उपाए करो वनज वशक्षा से अपने आचार ववचार उं चा करो वनयम संयम से रह के पररवार का उद्धार करो ऐसे पथ पर चल कर सब जन को ख़ुशी करो तु म चै तन्ये हो तो अपने मन को चे तन्त करो सब तत्व तु म्हारे अन्दर है उन का प्रदशण करो तु म सत्त्व हो तो स्वत्त्व सुधा रस पान करो अब जाग उठो और कुछ अमरत्व ववधान करो मानव रूप धरो और धु रंधर बन कर राज करो तु म भी कुछ हो इस वनज गौरव का ज्ञान करो तु म में मानव की शप्ति है इस का ध्यान करो प्रार् जाय पर वचन न जाए इस का मान करो आन मान और शान से सभी का कल्यार् करो कुछ हो जाये पर वनज साधन का ही गान करो 57


तु म मानव हो तब मानवता पर ही ध्यान धरो सतयुग हो या कलयुग सब मानव का मान करो ‘लखन” की ले ख है मानव का मत अपमान करो |

तिच र करो आओ प्रेवमयों हम ये ववचार करें पहले हम खु द सुधर जाएूँ , विर सब जन का सुधार करें हे प्रभु ऐसा जीवन हमारा हो, चाूँ द वसतारों से भी बढ़ के उवजयारा हो हमें बचा दो सभी पापों से, सदा शुभ कमण करा दो, कर दो दू र सभी बुराइयों से सब कुछ यहीं रह जायेगा, जो दान वदया वही साथ जायेगा हम सब तो हैं मेहमान यहाूँ , भलाई कर चलो इस जग में तुम्हारा वनशान यहाूँ रह जायेगा शुभ करम करो सब का कल्यार् करो जब तक दु वनयां रहे, वसतारों की तरह चमको सब के वहतकारी बनो, सेवा करो हर एक की ऐसे परउपकारी बनो शुभ कामना है लखन की, प्रभु हमें दो सुम्मती, हमें वमले सदभावना सब की |

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सहज और कति​ि र हें हम तो ठहरे मे हनती मानव कड़ी मसक्कत करते हैं सहज राहों को कोई और चु ने हमतो मे हनत करते हैं हम चु नौती की खोज में आसान राहों को छोड़ चले हैं मु सीबत झेलते हैं क्ोंवक कवठन राहों पे चलते रहे हैं मैं उन राहों पे चलता हूँ जो कवठनाइयों से भरे होते हैं मे रे रास्े ऐसे हैं जो कां टे कंकर पत्थर से भरे होते हैं जो राहें भयानक जंगलों से गुजरे वे तो रोचक लगते हैं जो राहें ऊूँचे पहाड़ों से जाएूँ वे तो मनभावन हो जाते हैं बड़ी नदी ऊूँचे पवणत गहरे सागर के जब उस पार चलो एक नई दु वनयां वमले गी वहां तब होगा बेडा पार सुनो अपनी उन्नवत चाहने वाले कवठनाइयों से डरते नहीं सुखी जीवन वबताने के वलए आसान रास्े होते नहीं उन राहों को चु नो जो तु म्हे वदलचस्प व मनोहर लगे उन राहों पे चलो जो तु म को उन्नवत की ओर ले चले कड़ी मसक्कत करने वाले बनते हैं बड़े बलवान सुनो आसान राह को मत खोजो मे हनत से पहलवान बनो |

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हम र जीि​ि हमारा यह सारा जीवन बस एक छोटी सिर ही है हं सी ख़ुशी,सुख दु ख, सोच विकर का एक भं वर है विर हम सब जन के जीवन की हर वदशा अलग है हम सब लोग अलग हैं हमारे पररभाषा भी अलग है वकतने पृथक पृथक है हमारे हाव भाव ये भी सच है वेश अलग अवभलाषा अलग मनोभाव भी अलग हैं वकतने स्वाथी लोग तो यहाूँ खुद के वलये ही जीते हैं पर मानव तो वही महान है जो नव के वलये जीते हैं कई वदमाग में रं ज की भाव हैं कई वदलों में प्रेम भरे हैं कोई को हार की विकर है तो वकतने जीतने पे लगे हैं कहीं पे िलती िूलती हैं आचार ववचार वनयम संस्कार तो कहीं हमारे कुकमों और दु राचारों से दु खी है सरकार कहीं पे सत्यम सुखं सुन्दरम का ढोल बजाय जा रहा है कहीं झूठ कपट अधमण व भ्रस्ाचार का डं का बज रहा है वकतने भटके जन काली रात में सूयण का प्रकाश ढू​ूँढ रहे हैं 60


तो कहीं पापों के काले बादल मन के सपनों को रू ूँ ध रहे हैं हम ने वकतने लोगों के सुहावने सपनों को जलते दे खा है नजाने वकतने झुलसे मन में बुरे ववचार को पलते दे खा है अब जब सिन मन को वमलता नहीं कोई वकनारा यहाूँ पागलों के तरह ढूंढते रहते हैं वे भी वतनके का सहारा यहाूँ हमारे सभी सपनों की माला के मोती अब वबखरने लगी है हमारे सभी उम्मीदों की वो नई ज्योवत अब बुझने लगी है न जाने वकतने नेक वदलों में लाखों ऐसे सवाल उठ रहे हैं हम यहाूँ पैदा क्ों हुए हम इस दु वनयां में क्ों जी रहे हैं ? हम उस प्रभु की असीम कृपा चाहते वजस ने यह जग रचा है क्ों न आज विर राम लखन कृष्णा सुदामा का धू म मचा है दु वनयां की वबगड़ते हाल से मे रे मन में ये ववश्वास जगा है वजतनी भी मे री जीवन कम हो उतना ही यहाूँ हमें मजा है हम सब यह भी मानते हैं , धू प छाूँ व तो प्रकृवत का वनयम है आज हम तो जीना चाहते हैं वजतना जीवन वमले वो कम है हम न झुकेंगे न रुकेंगे करते रहें गे वही जो सदा करते आये हैं चलते रहें गे सीना तान के और करते रहें गे जो मन में भाये है हम में से जो भी अपने जीवन का सही अथण को जान ले ता है लखन मे री बात मानो वही इस ब्रह्माण्ड का असली नेता है | 61


जीि​ि क असली ि​ि हमारा यह सारा जीवन बस एक छोटी सी सिर ही है हं सी ख़ुशी,सुख दु ख, सोच विकर का एक भंवर ही है विर हम सब जन के जीवन की हर वदशा भी अलग है हम सब लोग तो अलग हैं हमारे पररभाषा भी अलग है वकतने पृ थक पृ थक है हमारे हाव भाव ये भी तो सच है वेश अलग हैं अवभलाषा अलग हैं मनोभाव भी अलग हैं वकतने ही स्वाथी लोग तो यहाूँ खुद के वलये ही जीते हैं पर मानव तो वही महान होते जो जग के वलये जीते हैं कई वदमाग में रं ज की भाव हैं कई वदलों में प्रे म भरे हैं कोई को हार की विकर है तो वकतने जीतने पे लगे हैं कहीं पे िलती िूलती हैं आचार ववचार वनयम संस्कार तो कहीं हमारे कुकमों और दु राचारों से दु खी है संस्कार कहीं पे सत्यम सुखं सुन्दरम का ढोल बजाय जा रहा है कहीं झूठ कपट अधमण व भ्रस्ट्ाचार का डं का बज रहा है वकतने भटके जन काली रात में सूयण का प्रकाश ढू​ूँढ रहे हैं तो कहीं पापों के काले बादल मन के सपनों को रू ूँ ध रहे हैं हम ने वकतने लोगों के सुहावने सपनों को जलते दे खा है नजाने वकतने झुलसे मन में बु रे ववचार को पलते दे खा है अब जब सिन मन को वमलता नहीं कोई वकनारा यहाूँ 62


पागलों के तरह ढूंढते रहते हैं वे भी वतनके का सहारा यहाूँ हमारे सभी सपनों की माला के मोती अब वबखरने लगी है हमारे सभी उम्मीदों की वो नई ज्योवत अब बु झने लगी है न जाने वकतने नेक वदलों में लाखों ऐसे सवाल उठ रहे हैं हम यहाूँ पै दा क्ों हुए हम इस दु वनयां में क्ों जी रहे हैं ? हम उस प्रभु की असीम कृपा चाहते वजस ने यह जग रचा है क्ों न आज विर राम लखन कृष्णा सुदामा का धूम मचा है दु वनयां की वबगड़ते हाल से मेरे मन में ये ववश्वास जगा है वजतनी भी मेरी जीवन कम हो उतना ही यहाूँ हमें मजा है हम सब यह भी मानते हैं , धूप छाूँ व तो प्रकृवत का वनयम है आज हम तो जीना चाहते हैं वजतना जीवन वमले वो कम है हम न झुकेंगे न रुकेंगे करते रहें गे वही जो सदा करते आये हैं चलते रहें गे सीना तान के और करते रहें गे जो मन में भाये है हम में से जो भी अपने जीवन का सही अथण को जान लेता है राम लखन बात को मानो वही इस ब्रह्माण्ड का असली नेता है |

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हम री मजबू री मे रा वदल व्याकुल हो रहा है इस संसार के वबगड़ते हालत पर कहीं पर युद्ध वछड़ा है तो कहीं पे गरीब तड़प रहें हैं सडकों पर धरम करम तो छूट गया है अब हजारों को नाज है अधमी पर नेता इतने वबगड़ गए हैं शमण आ रही है उन के अनैवतकता पर वबज्ञान इतना आगे हो चला अज्ञान का राज है अज्ञानता पर वबगड़ गए हैं सब खेल यहाूँ अब हम रो रहे अपने मजबूरी पर यह युग अब इतना बदल गया है कवलयुग कहलाने योग्य नहीं वदन को हम रात कहने लगे हैं सुधार होने का कोई संयोग नहीं सत्य अवहं षा से हम इतना दू र हुए शां वत लाने का उपयोग नहीं मानव ही मानव का दु श्मन हो गया समझदारी का संयोग नहीं वातावरर् तो दू वषत हो गए थे अब तन मन बचाना योग्य नहीं सब की मजबूरी इतना बढ़ गई अब ये समाज का उपभोग नहीं कहते हैं जब पाप का घड़ा भर जायेगा तो अवतार उन का होगा ऐसे तो वकतने घड़े भरे पड़े हैं न जाने उन का पदापणर् कब होगा यहाूँ की सब वबगड़ते हालात दे ख के वो भी वववश हो गया होगा इस दू वषत दु वनयां में वो आये न आये वो भी तो ये सोचता होगा 64


यही हमारी मजबूरी और वववशता है अब हमें कुछ करना होगा वही ववज्ञानी ज्ञान से एक ववनाष्कारी ववष्फोट करना ही होगा मानव के मन समाज का चलन दु वनयां का ढं ग बदलना पड़े गा पंवडत ज्ञानी नेता सेठा दे श के ढां चें को एकदम बदलना पड़े गा सोचने कहने करने धरने की शप्ति में पररवतण न लाना पड़े गा प्रजातं त्र के अनुशासन को छोड़ के तानाशाही अपनाना पड़े गा वो सतयुग के सत्यम वशवम् सुन्दरम के मागण अपनाना पड़े गा इन गुर्ों को जान मान के चलने वालों को बढ़ावा दे ना पड़े गा क्रां वत ऐसी होनी चावहए इस दु वनयां की उथल पुथल हो जाये इं सान तो बदले पर सब से ज्यादा हम अपने आप बदल जाये कोई भी नेता मं त्री मावलक नोकर या व्यापारी घूस नहीं खाये जनता पर कोई जुरम न हो स्त्री बच्चों में अमन चै न आ जाये जल थल बन उपवन और सारे भू मंडल में सुख शां वत छा जाये ' रामलखन ' की ऐसी मवहमा रहे की सब मजबूरी दू र हो जाये |

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मर तदल की आि ज मे रा वदल कह रहा है अब तू लौट चल प्यारे यहाूँ अब गुजरती नहीं ते री कोई पल प्यारे अब तु झे वो मं वजल यहाूँ नहीं वमले गी प्यारे वजस की सब वदन से तु झे तलाश थी प्यारे अब वह मं जर ही नहीं वदखाई दे ती है प्यारे जो आस पास होके ते रा साथ दे ती थी प्यारे अब वमलती नहीं है यहाूँ कोई भी हल प्यारे अब यहाूँ से अपना डे रा कूच कर चल प्यारे अब दु वनयां में मच गई बहुत हलचल प्यारे अब ते रे चाहने वाले यहाूँ नहीं रहतें हैं प्यारे वजन का साथ आज तू यहाूँ ढू​ूँढ रहा है प्यारे कुछ आगे वनकल गए तो कुछ पीछे हैं प्यारे ते रे सपनो की महल यहाूँ अब न बनेगी प्यारे अब तू यहाूँ से चलने की तै यारी कर ले प्यारे खूब कमाया खाया गाया बजाया अब रुक जा प्यारे बहुत वनकले हैं ते रे अरमान अब सबर कर जा प्यारे पीछे मू ढ़ के दे ख अब कुछ करने को नहीं बचा प्यारे आगे चल के अब एक दम नये दु वनयां को रचा प्यारे 66


यह ते रे वदल की आवाज है इस को सुन ले प्यारे अब समय आ गया है की यहाूँ से लौट चल प्यारे |

मरी ति​िशि इस बार मै अपनी वववशता को नहीं सहन कर पाऊंगा ! क्ा है वो वववशता वजस को अब मै सह नहीं पाऊंगा ? एक हो तो चचाण करू ं लाखों है अब कैसे उन्हें वछपाऊंगा पर वनिय ही ये हृदय मे रा अब बेचैनी से अकुलाएगा कुछ पिाताप करता रहे गा कुछ नीर नैन भर लाएगा पर अपने बीते कायणकलापों से अब जीत न मै पाऊंगा अपने दाइत्वों के अनुपातों से मै अब हारता ही जाऊूँगा अपने काले करतू तों से वववश हूँ मै अब एकदम हारू ं गा इस बार मै अपनी वववशता को नहीं सहन कर पाऊंगा ! जब संध्या की अंवतम लावलमा नीलां बर पर वबछ जाएगी नभ पर वछतरे बादल के साथ जब संध्या रावगनी गाएगी मन में कुछ गुर्गुना तो लूं गा पर साथ नहीं मै गा पाऊंगा अपने सब अतीत के कायों को भला अब कैसे भू ल पाऊंगा जब प्रातुःकाल की मं थर समीर हरे वृक्षों को सहला जाएगी मं वदर की घंटी दू र कहीं प्रभु भप्ति की मवहमा को गाएगी तब जोड़ के हाथों को यहीं से ही अपना प्रर्ाम पहुं चाऊंगा दु खी जानो की सामना करने की वहम्मत नहीं कर पाऊंगा 67


इस बार मै अपनी वववशता को नहीं सहन कर पाऊंगा ! जब ग्रीष्म काल की हररयाली आम खेत पर छा जाएगी कूह कूह करती हुई कोयल रस आमों में भरती जाएगी रस को पीने की वजद करते मन को मै कैसे समझाऊंगा लालच बुरी बला है वासना खवलल है ये कैसे समझाऊंगा जब इठलाते काले बादल के दल पूरब से जल भर लाएं गे जब रं ग वबरं गे पंख खोल के मोर नृत्य कला में इतराएं गे मे रे पग भी कुछ वथरकने लगेंगे पर नाच नहीं मैं पाऊंगा नाच न जानू क्ों की आूँ गन है टे ढ़ा कैसे मै समझाऊंगा इस बार मै अपनी वववशता को नहीं सहन कर पाऊंगा ! जब हमारे त्यौहारों के आने की रौनक होगी बाजारों में खुशबू जानी पहचानी सी वबखर जाएगी घर चौबारों में उन खुशबुओं की यादों को वलए मैं सपनों में खो जाऊंगा वववशता से नींद नहीं आएगी यह मै कैसे समझा पाऊंगा जो कुछ भी मै नहीं कर सकता क्ा सब लोग समझ सकते हैं जो कुछ कमजोरी है मु झ में क्ा मे रे अपने भी जान सकते हैं अपने वववशताओं और अपने कमजोररयों को कैसे बताऊंगा अपने अशप्तियों और अपने खावमयों को कैसे समझाऊंगा अब तो मै अपनी वववशता को नहीं सहन कर पाऊंगा !

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मरी आश एां आशा तृ ष्णा कभी न मरती मर मर जाएूँ शरीर मन में गर आशा न रहे तो तन हो जाये िक़ीर हर रोज हम अपने आशाओं के दीपक जलाते हैं हर पल नयी नयी जवटल आशाएं टपक पड़ते हैं हम ने अपने जीवन में कई सुनहरे सपने दे खे थे कुछ जावहर कर दी पर वकतने तो मन में रखे थे चलते विरते हम इन आशाओं को समे ट रखे थे मन उठ बैठा तोड़ के सब बेडी ये सब हम दे खे थे थाम उजाले का दामन आशाओं को उड़ा वदया था उत्साह का अमृ त वलए एक पंछी सा उड़ चला था वनराशा दू र कर के आशा ने मु झे कृताथण वकया था वह सपने जो हम ने दे खे थे उन्हें यथाण त वकया था जीवन में धू प बढ़ी जब तब आशाओं की सेज सजी वनराशाओं के कां टें वनकल गए राहों में िूल प्तखली कटु ता झूठी मधु ता सच्ची राहों का हर काूँ टा बोला बैठे से कुछ नहीं होता आशा ने सब दरवाजा खोला मन बोल उठा वनराशा से कभी सुख वकसने न पाया है जो हूँ सी वठठोली करे आशा रखे वही सिलता पाया है आशा से हर पल अपने मन में मैं हषण मनाया करता हूँ 69


सौंकारे साूँ झ ढले मैं आशाओं के दीप जलाया करता हूँ अब तो एक पग भी नहीं मैं ले ता वबन आशा के सहारे अब सब सपने साकार हो रहें हैं नैया लग गई वकनारे जो कुछ अधू री आशायें हैं विर भी मैं चलता रहता हूँ अपने सब सपनो का नेकी आशा को अवपणत करता हूँ , वजस पहर उजाला सोता है मैं आस जगाया करता हूँ अब तो रातों वदन आशाओं के दीप जलाया करता हूँ अपने आशाओं को जीववत रखो ये प्राथण ना करता हूँ 'लखन' कभी वनराश न हो ऐसा शुभ आशा करता हूँ |

मर अिीि 70


आज पचहत्तर वषों के बाद मे री अतीत मे री गीत बन गई है अब मै यह गीत को गा रहा हूँ खुद सुन के मे री जी भर गई है दू सरा महायुद्ध था जब बोतीनी में मे री शुभ आगमन हो गई मानव दानव बन बैठा था सारे दु वनयां की शां वत भं ग हो गई झगडे झंझट के जग में शां वत वप्रये बालक की जनम हो गई पहले बेटे को पा के मे रे माता वपता के वदल ख़ुशी से भर गई गीत हुए बाजे बजे नाच हुई और घर आूँ गन में धू म मच गई आजा आजी नाना नानी काका िुआ के मन में ख़ुशी हो गई सब को वकतना अलबेला लगता था हमारा हं समु ख चे हरा बदन की छबी तो वनराली थी मु खड़ा भी था बहुत सुनेहरा अम्मा का प्यारा धीरे धीरे बन गया सब का अवत दु लारा सभी के सपने साकार हो गए जब मै उन का नाम पुकारा समय का चक्र चलता रहा नन्हा सा बच्चा जब शाला चला पाठशाला में खूब ध्यान लगाया घर में भी खूब िूला िला मे हनत से पढ़ा वलखा नाम कमा के अध्यापन करने चला चौबीस वषण के उम्र में शादी हो गई घर गृहस्थी वाला बना कई शहर गावं और समाज की सेवा पूरे लगन से करता रहा अपने पररवार की उवचत दे ख भाल बहुत प्रेम से करता रहा अपनी अधा​ां ग्नी ऐसी वमली वजस का कोई भी मोल नहीं है वह साक्षात् लक्ष्मी है वजस में वकसी तरह का खोट नहीं है वो थी इतने पास हमारे मै उस को पूरे तरह न समझ सका बहुत दे र हो गया था जब उस के सवतत्व का पूरा पता चला उस ने हम को बेजोड़ स्नेह वदया चार बच्चो का सुख वदया 71


मे रे जीवन में लाखों लाभ भरे मु झे भी इतना इित वकया मे रे अरुर् कपोलो पे काली पड़ी थी अलकों पर जाल पड़ा था मै उन के अंतर आत्मा के मधु र संगीत से बहुत दू र खड़ा था मे रे आूँ खों पर पट्टी पड़ी थी जैसे मे रा सारा तकदीर िूटा था मै उन को ठीक से न समझ पाया इस में तो मे रा ही टू टा था जीवन भर वह मे री आराधना करती रही मै उस से दू र रहा जब उन को मे री जरूरत रही तब मै अन्य नशे में चू र रहा वो प्यारी तो मे रे बाल बच्चों की परवररश करने में लगी रही मै मु रख पाजी बेविकर रहा जैसे वह मे री कोई मजबूरी रही उस ने जो कुछ मु झे वदया है वह आज मे रा धरोहर बन गया है उस ने जो कुछ खो वदया वह आज उन का वबमारी बन गया है एक वदन का हूँ सता चाूँ द आज घर में बैठ कर सोच कर रहा है समझ में आया की मु झ जैसे कावतल से कैसा कसूर हो गया है अब केवल प्रायवित करने के वसवा मे रे वलए कुछ नहीं बचा… है जीवन भर अगर मै उन की सेवा करता रहूँ यह भी नहीं पता .है उन को मे री सब खता की याद आती है तो वह सह न सकती है मे रे सभी वघनौने करतू तों की पूरा वर्णन वह कर नहीं सकती ..हैं मे री पत्नी ने जो कुछ मु झे वदया आज वह मे रा पंथ प्रवाह बना .है 72


आज थके नयनों में वपघला वदल से खून आं सू बन के बह रहा है अब तो न शलभ की पुलक प्रतीक्षा और न जलने की अवभलाषा है मे रे बाकी सां सों के बोवझल बंधन में बंधी अधू री सी पररभाषा है ये तन मन की तङपन, धङकन की वचर प्रीत बहुत दु ुःख दे ती है मै क्ा करू,कहाूँ जावू​ूँ ,कैसे सहूँ अब समझ में कुछ न आती है गर मे री वदलदार मु झे माि करे तब मे रा मन कुछ सुकून पाएगी ये न हुआ तो मे री रूह सदा वदन इस कवलयुग में भटकती रहे गी |

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उपसांह र प्राकृवतक आवाज कववता वलखते वलखते मे रे कानो में एक दे वी आवाज़ आया | ”हे भि तू अब समझ गया है वक ते री कीमत इस संसार में क्ा है ? इस वलए अब तू भजन भाव, कीतण न और ज्ञान ध्यान में अपना मन लगा | तु झे कोई मं वदर जाने की जरुरत नहीं और कोई भी वववध वबधान करने की आवश्यकता भी नहीं और न ही कोई सत संघत की जरुरत है | तु झ को मु झ से ही सहारा वमले गा इस वलए मे रा सुवमरन कर, आराधना कर और अपने भप्ति भाव पर पूरा ध्यान दे | ते रा कल्यार् आवश्यक होगा |” “भप्ति में बहुत शप्ति है यह बात मान जा | सभी पाखंड और उलटे ववचार तथा अधमण से बचना सीख ले | सुकमण करता चल वजस से ते रा भला अवस्य होगा | “ “वजस वदन ते रा प्रार् रूपी पंछी ते रे तन से उड़ जाएगा उस वदन ते रा शरीर रूपी बृक्ष के सभी पत्ते झड़ जाएं गे तथा ते रे सभी अंग वक्रयाहीन हो जाएं गे | ते रा आत्मा मे रे में लीन हो जायेगा | ते रे भप्ति भाव और सुकमों के मु तावबक मैं ते रा उद्धार करू ूँ गा |” “ते रे शरीर का अवभमान और घमं ड सब वनकल जायेगा | जब तू जला वदया जाएगा तो तू राख हो जायेगा | ते रे प्रार् वनकलने के बाद ते रे ही सब लोग, वजनसे तू प्यार करता था तु झको दे ख 74


कर घृर्ा करें गे और शीघ्र घर से बाहर वनकाल दें गे की कहीं तू भू त बन कर उनको सताने न लगे |” “यही इस दु वनया की अद् भु त और कुनीत है | इस वलए मे री बातों को मान और भगवान के भजन कीतण न करता चल और अपना श्रेष्ठ जनम व्यथण ही नष्ट न कर |” मे री अंदर की सभी आूँ खे खुल गयी और मैं चौकन्ना हो कर अपने भप्ति में संलग्न हो गया | यही मे रे बदलाव का रहस्य है | यही मे री संवेदना है और यही मे री दीक्षाथी की भावना है वजस को ले कर अब मैं वनभीक अपने परम वपता परमे श्वर के साथ साथ आगे बढ़ रहा हूँ | मु झे उन के कर कमलों पर पूरा और दृढ ववश्वास है | इस पुस्क में हमने अपने सभी प्रकार के भप्ति भाव का वदग्दशणन अपने पाठकों को करा वदया है और यही आशा करता हूँ वक इन सब को पढ़ने और गढ़ने के बाद आप भी मे रे तरह जाग जाएं गे और परम वपता परमे श्वर से अपना सही ररश्ता जोड़ लें गे । यही एक ररश्ता है जो जहाूँ पववत्र हैं , पुनीत है और पावन भी है । मु झे ख़ुशी है वक अब मैं अपने शां वत और सुख के जीवन का मागण ईश्वर के कृपा और आशीवाण द से पा वलया है । इस से ज्यादा इस छोटी सी जीवन काल में हम को और कुछ की आवश्यकता नहीं रही । आप सब की जय हो और प्रभु की मवहमा की कोई अंत नहीं है यह हम ने जान वलया है ।

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