Bilauti book

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बलौट (लघु-उप यास)

अनवर सुहैल


बलौट अनवर सुहैल लघु-उप यास

© अनवर सुहैल थम सं करण : २०१४

संपक अनवर सुहैल टाइप ४/३ आ फसर कालोनी पो. बजुर

जला अनुपपुर म.

४८४४४० मो. ९९०७९७८१०८ sanketpatrika@gmail.com

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बलौट

बलौट ठे केदा रन साइ कल से उतर । साइ कल टड पर लगा, सीधे परसाद पान गुमट पर आई। परसाद का गितशील हाथ ण भर का ठठका। गुमट के सामने खड़े अ य लोग का यान बंटा। रामभरोसे हं द ू होटल, धरम ढाबा, ममद ू नाई क गुमट और

बस- टड के आस-पास बखरे लोग सजग हए। ु परसाद ने पान का बीड़ा बलौट क तरफ बढ़ाया। बलौट पान लेकर बड़

नफ़ासत से उसे एक गाल के सुपुद कया और खुली हथेली

ु परसाद क तरफ बढ़ा द । परसाद ने अख़बार के टकड़े पर साद प ी, तीन सौ च सठ, चमन बहार और सुपार के चंद क़तरे

ू डं ड म रखकर बलौट क तरफ पेश कया। पान क एक टट चूना िचपका कर आगे बढ़ाया। बलौट ने बड़े इ मीनान से तंबाकू-ज़दा फांक कर चूना चाटते हए ु एक

पए का िस का

गुमट म बछे लाल कपड़े पर उछाला। फर सधे क़दम से साइ कल क तरफ़ बढ़ गई। बलौट के पैर म जूता-मोजा था। सलीके से बंधी लाल-गुलाबी साड़ म उसक गहआ ु रं गत खल रह थी। साड़ और लाउज़


के बीच से झांकता उसका पेट और पीठ का ह से पर लोग क आंख िचपक गई थीं। साइ कल के कै रयर म एक र ज टर और एक डायर फंसी थी। उसक भूर आंख के जाद ू और मदमार अदाओं से बस- टड का वातावरण ित दन इसी तरह मं - ब

होता है ।

महा बंधकर कायालय क तरफ जाने वाली मु य सड़क पर जब वह साइ कल का पैडल मारती सर से चली गई, तो तमाशबीन बलौट के स मोहनी भाव से आज़ाद हए। ु सहज

हए र, सहज हए ु लोग, सहज हए ु दकानदा ु ु खर ददार, सहज हए ु

या ीगण और सहज हए ु बलौट के भूत, भ व य और वतमान जानने का दावा ठ कने वाले जानकार! यहां तक क उसके य

व से अंजान लोग के दलो- दमाग

म काफ दे र तक सनसनाती रह बलौट ... कतना भी बखान कया जाए, बलौट के वल ण य का सम

वणन कसी एक क जु़बान से होना अस भव है । हर

बार कुछ नया जुड़ जाता, कुछ पुराना छूट जाता। नए लोग, पुरान से खोदा-खाद करते-’’कौन है रे ब पा, कौन है ई आफ़त!’’

ु पुराने टकड़ म बताते बलौट -पुराण....

ु कई टकड़ -चीथड़ को इक ठा कर गुदड़ बनाने का स इस दौर के

ोताओं म अब कहां दखता है ? वह भी ऐसे समय म,

जब ट वी, िसनेमा वाले क सा-कहािनय को नज़रअंदाज़ कर मनोरं जन परोस रहे ह। नतीजतन बलौट एक अबूझ पहे ली


बनी रहती। जब भी वह मद के संसार म वेश करती, अनिगनत

, ज ासाओं, दं तकथाओं के बीज छ ंट कर फुर

हो जाती। कौन जानता था क पगिलया ससुर क बउड़ह ब टया बलौट बड़ होकर इतनी तेज-तरार िनकल जाएगी। कोयले क झौड़ (टोकर ) िसर पर ढोते-ढोते इतनी तर क कर जाएगी क एक दन ‘लेबर-स लायर’ बन जाएगी। ‘ठ केदा रन कहते ह उसे मज़दरू-रे ज़ा, नेता-परे ता।

ठाठ तो दे खए....ठाड़े -ठाड़े ग रयाती है लेबर , अफसर और मउगे नेताओं को। नेता, अफसर, ठे केदार के बीच उठती-बैठती और या जाने दा -मुगा भी खींचती है । ओंठकटवा ितवार राज़दाराना अंदाज़ म बताता-’’रे ब पा, ख टया म खुद ‘मरद’ बन जावै है िछनाल! अ छे -अ छे पहलवान क हवा िनकाल दे वे है । एह कारन तुलसी बाबा आगाह कर दए ह क ढोर, गंवार, सू , पसु-नार , ई सब ताड़न के अिधकार । इन सबसे बच सकौ तो बच के रहौ। ले कन ओह मूड़ै मां चढ़ाए ह ससुरे ठ केदार, मुंशी और कोिलयर के अिधकार । तब काहे न छानी पे चढ़के मूते ई बलौ टया....जानत हौ भइया, एक गो ब टया है ओखर, का जाने ‘सुरस ती’ क का नाम र खस है । ‘सुरस ी’ ससुर अंगरे जी कूल म पढ़े जावै है ।’’


लोग तो बस याद करते ह पगिलया को। बलौट क मां पगिलया। पगिलया क बेशम ु ार गािलयां बस- टड पर अनवर गूंजा करतीं। वह हवा म गािलयां बका करती। टड के पास बने पो ट-आ फस के लाल-ड बे म लोग िच ठयां डालने आते तो उसक गािलय का िशकार बन जाते। पगिलया को भरम रहता क िच ◌्ठ डालने के बहाने लोग उसको और उसक ब टया बलौट को ताकते ह। इसीिलए वह अंधा-धुंध गािलया बकती। लोग हं सते। बलौट ठ केदा रन, श

नगर-वाराणसी हाईवे के

कनारे बस- टड के ‘ टन-शेड’ पर सािधकार क ज़ा जमाकर गुजर-बसर करने वाली पगिलया क कोख-जाई थी। गर बी, अभाव, बद क मती और ज़माने क बेरहम ठोकर खा-खाकर पगिलया का ज म जजर हो गया था। उसक रं गत झुलस चुक थी। कहते ह क पगिलया जब आई थी ठ क-ठाक दखाई दे ती थी। ओंठकटवा ितवार ठ कै कहता-’’अरे भइया, जवानी म तो गद हया भी सुंदर दखाई दे वै है ।’’ यह तो अ छा ह हआ क पगिलया को बलौट के बाद और ु

ब चे न हए। बलौट का ज म भी साधारण प र थितय म ु

नह ं हआ ु था। तब पगिलया का डे रा बस- टड का टन-शेड नह ं हआ ु करता था।

चौदह-पं ह बरस पहले यहां पर कहां कुछ था।


उ र- दे श के िमजर◌़ ् ◌ापुर ज़ले का आ खर कोना। जहां कोयले क खदान खुलने वाली थी। वारा सी से रे नूसागर

बजली कारखाने तक काम-चलाऊ सड़क बन रह थी। तब श

नगर आने के िलए िसंगरौली से रा ता था या फर औड

मोड़ से पहाड़ क क जड़ पकड़ कर पैदल चलने से परासी, बीना, ख ड़या, कोटा पहंु चा जाता था।

कहते ह वाराणसी से रे नूसागर तक पगिलया बस से आई थी। बस- टड पर बस खाली हो जाती। उस दन सब सवा रयां उतर ग और पगिलया न उतर तो कंड टर उसके पास गया। कंड टर को उस पर पहले से ह शक था।

कराया न अदा क

होती तो वह उसे लाता भी नह ं। पगिलया पछली सीट पर िसकुड़ -िसमट बैठ हई ु थी। गठर थी एक उसके पास, जसे बड़े जतन से गोद म रखे हए ु थी। कंड टर कई तरह क

नैितक-अनैितक स भावनाओं क क पना करता उसक बगल म जा बैठा। बस म और कोई न था। चालक अपना झोलासामान लेकर जा चुका था। रात के यारह बज रहे थे। सवा रयां अपने गंत य तक पहंु चने क हड़बड़ म थीं। बसटड के प

म म एक ढाबा था। ढाबे का मािलक जीवन इस

बस का इं तज़ार करके दकान बढ़ाता था। ठं ड अपना असर जमा ु चुक थी। जीवन भ ट क आग ताप रहा था। कंड टर और

जीवन का पुराना याराना था। कंड टर अ सर बनारस से अ ापउवा ले आया करता और गमागम पराठे , आमलेट और बैगन-


आलू के भरते के साथ दोन साथ-साथ खाना खाते। जीवन सोच रहा था क कंड टर शायद दसा-मैदान गया होगा। ले कन कंड टर के सामने तो एक दसर थाली परोसी हई ू ु थी। माले-मु त, दले-बेरहम... वह अकेले ह उस भोजन का वाद चखना चाहता था। पगिलया क दे ह से अजीब दगध फूट रह थी। ु

बस क नौकर , अधजले धन क गंध, िसगरे ट-बीड़ -अगरब ी क िमली-जुली गंध और दन भर क थकान से वह परे शान था क तु पगिलया क बीस-बाईस साल क युवा दे ह क दगध म ु

एक और आ दम गंध शािमल थी।

कंड टर तड़प उठा। पूछा तो पगली मु कुराई। कुछ न बोली। नाम-गांव, रे नूसागर म कसी सगे-स बंधी या अ य कोई भी जानकार न दे कर वह बस इ ी सी मु कुरा दे ती। कंड टर उसका हाथ पकड़कर उतारने का उप म करने लगा। दगधयु ु

दे ह क मादक गमाहट से वह बौखला सा गया। उसक बगल म बैठ चुपचाप उसे बांह म घेर लेना चाहा। पगिलया आंख झपका कर कुनमुनाई। उसम इं कार क आहट थी न इकरार क ।

ु , खड़क के रा ते बस के अंदर चांदनी रात के चांद नुमा टकड़े

ु बखरे पड़े थे। ऐसा ह एक म म-दमकता सा टकड़ा पगली के

चेहरे पर कुदरती गहने के प म आ सजा था। पगली क दे हगंध या तो गायब हो गई थी, या फर कंड टर के कोिशश को वह सहजता वीकार कर रह थी। कंड टर इस अ त ु यथाथ को ई र का दया वरदान समझकर साद व प

हण करना


चाह रहा था। कंड टर अधीर होकर उसक दे ह का रसपान करने लगा। अचानक उसे लगा क पगिलया कुछ बोली है । कंड टर चैत य हआ। वह भूखी थी। कंड टर ने सोचा भगवान ु का साद है , बांट कर खाया जाए तो और अ छा।

कंड टर अलग हटा तो पगली खुश दखाई द । कंड टर क जांघ म िचकोट काट कर हं सी। कंड टर पगली के इस खुशी ज़ा हर करने के तर के पर सौ जान कु़रबान हआ। उसक ु छाितयां नापता वह नीचे उतर गया।

जीवन, ढाबे का मािलक, बहार के िसवान जले का िनवासी था और इस बयाबान म बना प रवार के रहता था। उसने जब कंड टर क बात सुनी तो वह काफ खुश हआ। तय हआ क ु ु पगिलया के संग बस के अंदर ह ‘जुगाड- फट’ कया जाए।

उधर पता नह ं पगली को या सूझी क दबे पांव, पोटली कांख म दबाए बस से उतर और बस के पीछे अंिधयारे का लाभ उठाकर उस सड़क पर चल द , जसके बारे म वह िनतांत अनिभ

थी। उसे नह ं मालूम था क सड़क कहां जाती है ?

सड़क वैसे भी कह ं आती-जाती नह ं, जाते तो मुसा फर ह ह, क तु उसे यह भी तो मालूम न था क वयं उसे कहां जाना है । आधी रात! वह भी जाड़े के शु आती दौर क रात! औड़ मोड़ का यह इलाका अ य जगह से कुछ यादा ह ठं डाता है ।


पगली अकबकाई सी रे नूसागर क रोशिनय के वपर त दशा

ु म चल द । सामने भी रोशिनय के टकड़े िछतराए थे। महआ ु , पलाश और आम के वृ

के बीच से छन कर आने वाली

चांदनी क फुहार रा ता दखातीं। पगली के िलए उजाला भी तो उतना ह िनरथक था जतना क अंधेरा। चांद अपना सफर तय करता रहा और रे नूसागर से द

दखा क तरफ पगिलया का सफ़र भी ज़ार रहा। कोयला खदान अभी नई-नई खुली थीं उनके कामगार के िलए थाईअ थाई िनवास बने हए ु थे। वह एक ऐसी ब ती म जा पहंु ची

जसे खदानी लोग ‘कालोनी’ कहते थे। महआ ु का एक बड़ा सा

पेड़ दे ख वह उसके तने से टक कर बैठ गई।

महआ ु के पेड़ के ठ क सामने िस हा बाबू का वाटर हआ ु

करता था। नई कालोनी अभी य थत नह ं हई ु थी। ‘ले-आउट’ के अनुसार ठे केदार धड़ाधड़ ‘ फिनिशंग-टच’ दे ने का यास कर रहे थे। मािचस क ड बयानुमा वाटर म कमचार अपना संसार गढ़ने म य त थे। पगली महआ ु के पेड़ क पु त पर

टक थी। वह भूख के एहसास को थकावट से परा जत करने

का य

करती सोने का उप म करने लगी। ठं ड अब बढ़ गई

थी।

रात- बरात बेचैन आ माओं क तरह मंडराने वाला जीव रमाकांत, नशे म धुत उधर से गुज़रा। चांदनी के धुंधलके-


उ जयारे म महआ ु के तले, एक गठर नुमा आकृ ित दे ख कर वह ठठका। दबे पांव पगली तक पहंु चा।

पगली शराब क भभक और रमाकांत के पैर क आहट सुन सचेत हई। ु रमाकांत पैर से गठर नुमा चीज़ को टोहने लगा।

पगिलया हड़बड़ा कर उठ बैठ । रमाकांत का नशा भाग गया। उसने अपने ह ठ पर ऊंगली रख उसे चुप रहने का इशारा कया और जेब टटोलने लगा। जेब से तुड़ा-मुड़ा दो पए का नोट िनकला। द।

पया पगिलया क तरफ बढ़ाया उसने। पगिलया हं स

पया लेकर चांदनी म उसे दे खने लगी। रमाकांत ने उसका

चेहरा गौर से दे खा। वैसे भी वह औरत का नाम और चेहरा जानने वाला जीव न था। जस तरह शराब क कए बगैर उसे पूर तरह

ा से वह

ा ड पर बहस

हण कया करता था, उसी

ी-दे ह क उपल धता ह उसके िलए मुख हआ ु करती।

नाम, काम-धाम, जात-पात के झमेले सब बेमानी थे।

पगिलया जाड़े से ठठु र रह थी। रमाकांत कुछ सोचकर पगिलया को िस हा बाबू के वाटर म दत ु ला म चढ़ने के िलए बनी सीढ़ के नीचे क खाली जगह पर ले गया। यहां पगिलया

को कुछ राहत िमली। ठं ड से बची तो भूख के एहसास ने हमला कर दया। उसने रमाकांत से कुछ खाने को मांगा। रमाकांत उसे ग रयाने लगा। जब इस समय कहां कुछ िमलता। ग रयाने के बाद शांत हआ ु तो पगिलया के संग मौज करने का इरादा छोड़ना पड़ गया। वह भूखी- यासी है । कैसे हो उसक भूख बुझाने का इं तज़ाम?


रमाकांत को अपने वाटर म रखी दाल-भात क पतीली याद हो आई, जसे रात म खाकर वह सोता। कुछ सोचकर उसने पगिलया के कंधे थपथपाए और पीछे लाईन के वाटर म गुम हो गया। पगिलया भूख- यास से बेहाल थी। गठर म दो-तीन डबलरोट थी। याद आया तो गठर खोल कर बैठ गई। डबलरोट म इतनी गंध थी क उसके दे ह से उठती दगध फ क पड़ गई। ु

ु डबलरोट भुसभुसा भी गई थी। एक-दो टकड़ा मुंह म डालकर चुभला रह थी क रमाकांत एक पोलीथीन म दाल-भात िलए आ गया। एक दा क बोतल म पानी का जुगाड़ भी साथ था।

ू पड़ । दा क बोतल का पानी एक पगिलया दाल-भात पर टट सांस म गटक ग । रमाकांत उस

य को दे ख कर त ध रह

गया। पगिलया के सवाग दशन का अवसर िमला। सफर क गद और थकान के बावजूद उसके जवान चेहरे पर चमक बरकरार थी। ले कन ये या...जैसे ह पगिलया के पेट म भोजन गया, वह रमाकांत को ध यवाद दे ने के थान पर उसे आन-तान गािलयां बकने लगी। रमाकांत का नशा हरन हो गया। नेक का उसे ये या बदला िमला। वह गािलय क परवाह कए बगैर उस पर चढ़ाई कर बैठा। उसके गाली उ चारते मुंह को अपने मुंह से बंद कर दया। उसके हाथ को अपने दोन पंज से स ती से दबोचे रखा। उसक टांग को अपने भार पैर तले दबा िलया।


आ...ऊं....ई... करती पगिलया ज द ह िशिथल पड़ गई। रमाकांत को इस नए चैलज म अनोखा रस िमला।

िस हा बाबू क धमपरायण प ी आदतन ात:- मण के िलए िनकलीं। सी ढ़य के पास से आती खराटे क आवाज़ सुनकर च क । िनगाह गई तो अवाक् रह ग । अ त- य त कपड़े म अपनी दे ह खोले-िछतराए पड़ युवती इधर कहां से आ गई? उ ह उस युवती पर दया आ गई। उ ह उसक दशा पर दया हो आई। पास पहंु ची तो दगध से उनका माथा फटने लगा। नाक ु बंद कर उस युवती तक पहंु चीं। ठं ड से ठठु र काया, आहट

पाकर भी न जागी। उसक गहर नींद भंग न हई ु तो वे अपने

वाटर चली ग । लौट तो उनके हाथ म एक पुरानी दर थी।

दर से पगिलया क दे ह ढांक कर वह पैदजल घूमने-टहलने चली ग । रा ते भर उस युवती क

थित पर वह वचार

करती रह ं। बेशक, युवती के ज म से रात म ज़ र खलवाड़ कया गया था। उ ह ने ठ क ह कया क उसके बेपदा ज म को ढांक दया। टहलने के बाद जब वह लौट ं तो रह द जल-सागर पर छाए पूरबी आसमान के भाती सूरज का लाल-मोहक ब ब आंख म बसा हआ ु था। वे बेहद उदार हो गई थीं। रह द के अंतह न


जल- व तार क तरह उदार या क भाती सूय क िसंदरू

आभा को धरती पर परावितत करने वाले आकाश सी उदार... कोहरोल क पहाड़ से रह द बांध का पानी समंदर का

पैदा करता। एक समंदर सोती हई ु लहर वाला। वार-भाटा क अिनवायताओं से मु , जसका एक िसरा पूरबी आसमान क

ढलान से सट सा जाता। जहां से दो सूरज एक साथ उगते। एक आसमान क गोद पर और दजा रह द के कटोरे पर... ू इस

य को दे ख एक नई फूित सी वह महसूस कया करतीं।

घर के सामने कु

के लड़ने क आवाज़ से उनक तं ा भंग

हई। ु उ ह युवती याद हो आई। सीढ़ क तरफ िनगाह गई तो दे खा क युवती को कूली ब चे घेर कर खड़े ह और दो कु े ु डबलरोट के टकड़े के िलए लड़ रहे ह। पगिलया कच ड़याई िनंदासी आंख से कुतूहलवश ये नया

य आ मसात कर रह

थी। उसे अपनी या ा का ये नया पड़ाव सुखद लगा रहा था। वह ू आईना अपने म मगन थी। उसने गठर खोल कर एक टटा िनकाला और अपना चेहरा दे खने लगी। िस हा बाबू क प ी ने पहले ब च को डांट कर भगाया, फर कु

को और उसके बाद पगिलया से पूछना चाहा क वह कौन

है ? कहां से आई है ? कहां जाना है ? या यहां उसका कोई प रिचत है ? तमाम

, तरह-तरह के

, हर

उस

पगिलया क बौराई-िनंदासी आंख म गुम जाता। तब भ नाकर उ ह ने कहा--’’चल भाग यहां से!’’ पगिलया को बुरा लगा।


वह अचानक गािलयां बकने लगी। फर उसने अपनी गठर म बखर चीज़ को समेटा। दर को छोड़ वह उठ । चलने लगी तो िस हा बाबू क प ी ने उससे दर साथ ले जाने को भी कहा। पगली पहले तो दर को भावह न िनगाह से ताका और फर दर को कंधे पर डाल कर चल द । सी ढ़य के बाहर आकर उसने दाएं-बाएं दे खा। ऊपर-नीचे ताका। कुछ समझ न आया। हो सकता है वह कालोनी क एक ह डज़ाइन और एक ह रं ग से रं गी इमारत को दे ख व मत हई ु हो। हो सकता है िनमाणाधीन सड़क के ऊबड़-खाबड़ व प, य -त

बखर हई ु भवन-िनमाण साम ी आ द दे ख कर उसे

असु वधा महसूस हई ु हो। बहरहाल, उसने जो भी सोचा-समझा हो, उसके क़दम उठे । महआ ु के पेड़ क छाया तले वह

क।

कंधे क डाली दर को ज़मीन पर पटका और वह ं ज़मीन पर पसर गई। पल भर बाद उसके खराटे गूंज उठे । िस हा बाबू क प ी ने माथा पीट िलया। जाने कौन बला उनके वाटर के आगे आ पड़ थी। तब तक शेख़ बाबू क प ी आ िनकलीं। िस हा बाबू क प ी ने सुबह क घटना बताई, शेखाईन

वत हु ।

पगिलया सोई तो उठ दन के बारह बजे। जागती नह ,ं ले कन कु

ू । पोटली उधेड़कर कु े क लड़ाई से उसक नींद टट

ु ु डबलरोट के टकड़े हज़म कर चुके थे। दसरे टकड़े के िलए कु ू

ने जब पोटली पर धावा बोला तो पगिलया जाग गई। लेटे-लेटे


ह चुिनंदा मदाना गािलयां वह बकने लगी। उसके िलए आसान था क प थर से या हाथ-पैर से कु

को द ु कारती-

भगाती, ले कन इतना ववेक होता तो भला वह पागल कहां से कहलाती। कहा जाता है क इस

े म उसके होठ से पहले-पहल

उ चा रत यह गािलयां थीं। ये उसक गािलय का पहला सावजिनक दशन था। गािलय के अलावा उसे और कसी तरह के वा य बनाना नह ं आता था। शेखाईन ने पगिलया के िलए अपनी उतारन साड़ , लाउज़ और पेट कोट ला दया। आस-पास के अ य लोग ने उसे घर का बचा-खुचा खाना दया। पगली के चेहरे पर िन

ंतता के भाव

दखने लगे। वह इ मीनान से खाना खाने लगी। कहते ह क य द िस हा बाबू क प ी और शेखाईन ने उसे आ य न दया होता तो उन ठं ड के दन म, एक अप रिचतअ जान जगह म उसका या ह

होता। उसक

ी-दे ह को

भे ड़ए झटक लेते या बाघ खा जाता। वह बचती भी या नह ं। क तु या वह वाकई बच पाई? यह तो कई मह ने बाद पता चला क पगिलया गभवती है । िस हा बाबू क प ी को शक तो पहले से हो गया था, जब उसक उबकाई और उ टय ने रात का स नाटा तोड़ा था। पगिलया गभवती य न होती? पगिलया कोई ‘प व कुंआर म रयम’ तो थी नह ,ं न ह वह कोई राजक या कु ती ह थी। न दिनया के योित षय , ु


खगोल-शा

य ने इधर कसी नए न

के उदय होने का

संकेत ह दया था। यह तो एक सामा य सी घटना थी। जस तरह धरती क कोख फाड़कर, चुपचाप पौधा आ िनकलता है , जस तरह आसमान को चीरकर अल सुबह सूरज क करण फूटती ह... पगिलया पेट से थी। यह एक

ुव स य था। वह कौन था

जसका बीज उसक कोख क धरती पर रो पत था, हर कोई जानता था, क तु सभी खामोश थे। रमाकात भी चुप मारे रहता। वह रमाकांत, पय कड़, द आ रमाकांत, जो एक बार सरे आम महआ ु तले, पगिलया क झ पड़ से बरामद हआ ु था। रमाकां पकड़ा नह ं जाता, क तु उसक घरवाली को उस पर

संदेह था। पीता था तो ठ क था। दा पीना कोई ऐसी बुर बात नह ं। कोिलयर -खदान वाले इलाके म वैसे भी दा क खपत यादा रहती है । ‘‘गौरिमंट खुदै बेचती है तो फर जनता काहे नह ं पए!’’ इसी तक को वह मानती थी। रमाकांत का पीकर इधर-उधर मुंह मारना उसे बदा त न हआ। ु

पूर कालोनी जानती थी क रमाकांत और पगिलया के बीच रागा मक स बंध है । उसके िम ‘आंख मारकर’ रमाकांत से उसक ‘फेिमिल’ का समाचार िलया करते थे। रमाकांत भी ढ ठ क म और मज़बूत चेिसस का खचड़ा था, ठ क अपनी सन ्

पचह र मॉडल गोल टं क वाली काली राजदत ू मोटरसाइ कल क तरह। अपनी आवाज़ के कारण सह मायन म ‘फटफट ’


थी वह! राजदत ू फटफ टया क कान फाड़ू आवाज़ से पगिलया जान जाती और रमाकांत क घरवाली भी क ‘भयल चु ड़यन के भाग, बलम िसंगलौली से लउटे !’’ एक रात क बात है , तबर बन यारह बजे, अंिधयार पाख म, रमाकांत क घरवाली ने कालोनी के कुछ लोग को इक ठा कया। फर पगिलया के महआ ु तले बनी झ पड़ के बाहर सब

को ले आई। झ पड़ के पीछे तरफ राजदत ू मोटर-साइ कल क झलक िमल रह थी। हो-ह ला सुनकर झ पड़ के अंदर जल

रह ढबर बुझा द गई। पगिलया टाट का परदा हटा कर, मांब हन क गाली बकती बाहर िनकल आई। बड़बड़ाती तो वह हमशा थी, ले कन इतना ग़लाज़त भरा होगा उसम, कोई न जानता था। वह कालोनी क तमाम

य को कु टा और च र ह न सा बत

कर रह थी और उस प रमाण म अपने कृ य को

य बता

रह थी। उसक गािलय क परवाह कए बगै़र दो-तीन लोग आगे बढ़े । पुिलस बुलाने क धमक असरदायक सा बत हई। ु एक गोल-

मटोल मदाना साया झ पड़ से िनकला और बड़ रफ◌़ ् तार से

पीछे नाले क तरफ भाग गया। अंधेरा काफ़ था, फर भी टाच क रोशनी म दे खा सभी ने, वह रमाकांत ह था....


बलौट ये क सा जान न पाती, ले कन इधर-उधर से ज म पूव का क सा भी उसे पता चल ह गया। बलौट के ज म के बाद पगिलया ने ने बस- टड के ‘ टन-शेड’ पर क़ ज़ा जमा िलया। इधर कालोनी वाल ने वरोध कया। पगिलया क उप थित को भला स य समाज कैसे बदा त कर पाता। बात कॉलर - शासन तक गई। िस यू रट वाले उसे भगाने आए। दे खा, कोयले क आंच म पगिलया अपनी दोन टांगे फैलाकर उसम नवजात ब चे को िलटाए उसक िसंकाई कर रह है । बेखयाली म उसका आंचल ढलका हआ ु है । उसक दध ू भर

छाितयां कोयले क लाल-लाल आंच म दमक रह ह। कसी चच के बाहर लगी ‘प व मां म रयम’ क िनद ष छाितय क तरह ममता से भरपूर! िस यू रट वाल ने उस समय उसे छे ड़ना उिचत नह ं समझा। पगिलया, इन सबसे अनिभ , अपनी बोली-भाषा म कोई लोर गुनगुना रह थी। तब से, एक तरह से बस- टड का वह टन-शेड पगिलया का थाई िनवास बन गया। टन-शेड के बगल म पो ट-ऑ फस है । पो ट-ऑ फस और पुिलस-चौक के बीच एक सड़क है , जो अंदर कालोनी क तरफ जाती है । इस नविनिमत कालोनी म मानव-समुदाय क स यता, सं कृ ित और जीवन क

ाथिमक आव यकताओं क पूित

करने वाली यव थाएं वत: बन गई ह। जैसे बीस ब तर वाला अ पताल, ह द -अं ेजी मा यम के कई कूल, बक, थाना, रे व- टे शन, शा पंग-सटर, कट न, मनोरं जनालय, खेल


का मैदान, दमकल वभाग के अलावा छोट -छोट गुम टय म बसे दज , नाई, पनवाड़ , धुिनया, भड़भूंज,े झटका और हलाल

दोन तरह के कसाई, फोटो- टू डयो, सुनार, मोची, धोबी, झोला छाप डॉ टर, मं दर, म जद, गु क

ारा, मशान-घाट,

तान आ द तमाम सु वघाओं से लैस नगर- यस◌ाि◌◌ा। ्

कहते ह पुिलस-चौक के पास आ बसने से पगिलया और

यादा बबाद होने से बच गई। पहले तो जसका सुर समाता, दो-चार

पए दखाकर पगिलया से सट जाता था। अब तो

रमाकांत भी इधर का

ख न करता। हां, पगिलया वयं

दलजले पुिलसवाल के िलए ज़ र ‘माले-मु त’ थी। बलौट के आ जाने से पगिलया अब उतना भटकती-घूमती न थी। कालोनी के लोग यथास भव उसक मदद करते। ब ली जैसी भूर आंख वाली बलौट हर दन एक बरस क गित से बढ़ने लगी। टन-शेड के पीछे बड़ नाली थी, जस पर टाट-बोरा, पोलीथीन और ग ा-कागज आ द से चौतरफा आड़ बनाकर िन तारनुमा जगह बना ली गई थी। पगली इसी घेर गई जगह म नहाती धोती और संडास का काम भी लेती। दन क रोशनी म पद वाले काम करने म झझक होती थी, इस िलए जब बलौट कुछ समझदार हुई तो बड़ नाली पर आकर िगरती छोट नाली पर, जसके दोन तरफ वाटर के पछले दरवाजे और

चारद वार से सटाकर बनाई गई कचरा-पेट बनाई गई थी।


उसी कचरा पेट क आड़ म बलौट अपनी हाजत से फा रग हआ ु करती।

छह-सात साल क उ

म ह उसे काफ अ ल आ गई थी।

पगिलया मां को वह उ टा-सीधा पढ़ाने लगी थी। सामने चौराहे पर अंडा बेचने वाली बु ढ़या क पोती सनीचर से उसक अ छ दो ती हो गई थी। ऐसे ह एक दन, कचरा पेट के पीछे

ाक उठाए मगन वह

बैठ िनपट रह थी क खटका हआ। उसक िनगाह आवाज़ क ु तरफ गई। उसने दे खा क एक आदमी जसके खुले बदन पर

िसफ एक तौिलया िलपटा था, उसक तरफ दे ख रहा है । बलौट लजा कर उठ खड़ हई। ु

ाक का घेरा घुटन तक ढांक िलया।

उसने सोचा क आदमी ज द ह हट जाएगा क तु वह आदमी बड़ा बेशम िनकला। उसने खड़े -खड़े तौिलया सामने क तरफ से पूरा खोल दया। अंदर वह कुछ भी पहने न था। बलौट घबरा गई। उसने भागना चाहा। उसके कदम थरथराने लगे। तालू सूखने लगा। आदमी वह ं खड़ा, इ मीनान से मूतने लगा। बलौट आधा मल- याग कर पाई थी क सरपट भाग गई और अपनी अिनयं त सांस पर काबू पाया। कुछ दे र बाद जब वह

थर हई ु तो सोचा क सनीचर को बता

आए। उसके बाल-म त क म उस घटना ने अजीबो-गर ब प रवतन कर दए थे। सनीचर ने जब वह घटना सुनी तो बेतहाशा हं सने लगी।


बलौट के िलए आदमी क न न दे ह कोई नई चीज़ न थी। पगली मां के पास रात- बरात आने वाले मद को वह जानवर बनते दे ख चुक थी। इस तरह दन के उजाले म, कसी समझदार आदमी क हरकत उसम कुतूहल जगा गई। बलौट ने उस घटना पर कई कोण से वचार कया। ये तो तय था क वह आदमी अपने काय से अनजान न था। वह भली-भांित जानता था क बलौट उसे दे ख रह है । उसने भी बलौट को अ छ तरह दे खकर वह हरकत क थी। फर उसने ऐसा य कया? अगली सुबह बलौट कुछ दे र से उठ । पगली मां ने उसका झ टा पकड़कर खींचा। दन काफ िनकल आया था। पगली मां बासी डबलरोट को पानी के साथ अपने मुंह म ठू ं स रह थी। बलौट को भी भूख लग आई। पहले दशा-मैदान से फा रग होना आव यक था। इसिलए वह रद-बद कचरा पेट के पीछे भागी। अभी वह

ाक उठाकर बैठ ह थी क तौिलया कमर

पर बांधने का यास करता वह आदमी पुन: कट हो गया। आज भी वह बलौट को दे ख रहा था। बलौट उसी तरह बैठ रह ।

ाक का घेरा खींच कर उसने सामना ढं क िलया। सामने

खड़ा आदमी बीस-प चीस हाथ क दरू पर खड़े बाएं-दांए दे ख

रहा था। सुनसान पाकर उसने तौिलया सामने क तरफ से उठा िलया और पेशाब करने क मु ा म उसके सामने खड़ा हो गया। वह पेशाब नह ं कर रहा था। उसका चेहरा, जसम घनी मूंछ और घुंघराले बाल थे, बेहद उ े जत और घृणा पद दख रहा


था। उसक रोमह न छाती खुली थी। बलौट जाने या सोच कर उठ नह ,ं बैठ -बैठ उस य

क ववेकह न दशा का

अवलोकन करने लगी। उसका दमाग सांय-सांय कर रहा था। तभी एक दसरे ू

वाटर का पछला दरवाज़ा खटका। एक मोट

म हला कचरा फकने बाहर आई। वह आदमी तीर क तरह अपने वाटर म भाग गया। बलौट को इस खेल म मज़ा आया। यह

म कई दन चला।

गिमय क उमस भर दपहर थी। पो ट-आ फस के लेटर बॉ स ु के समीप वह आदमी खड़ा था। बलौट ने दे खा, पगली मां सो रह है । आदमी उसे मुसलसल घूरे जा रहा था। फर वह अपने वाटर क तरफ चला गया। सड़क कनारे लगे गुलमोहर और पीपल के प े झड़े रहे थे। बेहद गम दपहर , बलौट का कंठ ु

ू था, पानी सूखने लगा था। िम ट का घड़ा, जसका मुंह टटा ठं डा कर पाने म असमथ था। शायद उसके असं य िछ बंद हो चुके थे। पानी पी कर उसे कुछ सुकून िमला। उस आदमी का कट होना और फर ग़ायब हो जाना, रह या मक था। पगली मां भीख मांग कर आज कुछ दे र से आई थी और खापीकर बेसुध पड़ थी। बलौट उठकर पीछे नाली क तरफ चल द । कचरा पेट के पास पहंु ची ह थी क वह आदमी पट-शट

पहने पछला दरवाजा खोल, अचानक नमूदार हआ। वह इशारे ु से उसे बुला रहा था। बलौअ◌ी के होशो-हवास गुम हए। ु

वाभा वक चाल चलता वह उसके पास आ पहंु चा। बलौट

उसके साथ पछले दरवाजे से उसके घर चली गई। अब वह


उसके आंगन म थी। आंगन म अम द का पेड़ था, जसके पीले, सूखे प े झड़े हए ु थे।

वह आदमी अब बरामदे म खड़ा उसे घर के अंदर दा खल होने का इशारा कर रहा था। उसके पीछे -पीछे बरामदे से होते हए ु वह उस कमरे म आ गई, जहां ला टक क चार कुिसयां, एक

चाय क टे बल, एक चौक और कोने म एक रं गीन ट वी रखा था। रं गीन ट वी पर गाने आ रहे थे। बलौट को ‘घरनुमा’ माहौल क पहली अनुभूित सुखद लगी। कमरा ठं डा था। बाहर क खड़क पर लगा ‘कूलर’ ठं ड हवा फक रहा था। कूलर क तेज़ आवाज़ के कारण गाने क आवाज़ कम सुनाई दे रह थी। वह ज़मीन पर बैठने लगी। आदमी उसे चौक पर बैठने को कह अंदर दसरे कमरे म चला गया। चौक पर नरम-मुलायम ग ा ू

बछा था, जस पर बड़े -बड़े पीले फूल के छाप वाली चादर डली

थी। ग े पर वह झझकते हए ु बैठ । िसकुड़ -िसमट सी ता क चादर मैली न हो जाए। उसे अपनी फट -पुरानी

ाक पर शम

आने लगी। जाने कसक उतरन पगली मां ले आती है , फर िथगड़ -िसलाई के बाद बलौट को पहनाती। इसके पहले अपने कपड़ से इस तरह नफ़रत उसे और कभी न हई ु थी। आदमी लौट आया। उसके एक हाथ म

म वानी ब कट थी।

आदमी भी चौक पर उसक बगल म बैठ गया और बलौट क तरफ ब कट बढ़ाया। संकोच के साथ बलौट ने ब कट िलया और कोने से कुतरने लगी। ये या....इतना कुरकुरा, मुंह के अंदर इतना घुलनशील, इतना सुगंिधत मीठा ब कट।


पहली बार िमले इस वाद से उसका बाल मन तृ हआ। उसने ु आदमी को कृ त

नज़र से दे खा। आदमी फर से अंदर चला

गया। अब जो लौटा तो उसके हाथ म ला टक क बोतल थी। बोतल का पानी िगलास म उड़ल कर उसे दया। बलौट िगलास छूते ह चकरा गई। एकदम ठं डा पानी। िगलास के बाहर क सतह पर ओस सी जम गई थी। गटगटा कर वह पानी एक सांस म पी गई। उसने महसूस कया क ठं डा पानी कस तरह, कन- कन रा त से उसके पेट म पहंु च रहा है । उसे

बहत ु मज़ा आया। एक िगलास पानी और मांग कर पी गई वह। आदमी उसक बगल म इ मीनान से बैठ गया और उसका नाम पूछा। उसने दबारा नाम पूछे जाने पर अपना नाम ु बताया-’’ बलौट ..’’

आदमी नाम सुनकर, उसके चेहरे पर ब ली सी भूर आंख को गहरे से दे खते हए ु कहा-’’आते रहना, मौका दे खकर।’’ वह चुप रह ।

आदमी ने उसके खे बाल को सहलाते हए ु उसे अपने ऊपर

खींचा। आदमी का ने हल पश उसे सुखद लगा। वह खंची चली गई। अब वह उसक गोद म थी। पगली मां का उसे र ी भर भी यान न था। सामने ट वी पर गाने के दौरान ह रोईन ठ क उसी तरह ह रो क गोद म बैठ थी। ह रो उसे दलार रहा ु था। आदमी ने उसे बाह म भर िलया। बलौट का दम घुटने लगा। उस आदमी के चेहरे पर तनाव के ल ण नज़र आए। गाल तनतना कर लाल हए ु जा रहे थे। उसक सांस ऊबड़-खाबड़


रा त पर अिनयं त भागने लगीं। बलौट क हालत भी कोई अ छ न थी। अनजानी आशंकाओं से वह भयभीत हो उठ और रोने लगी। आदमी उसे चुप कराने लगा। इसी दरिमयान उसने बलौट का मुंह चूम िलया। बलौट को अ छा लगा। अचानक आदमी कांपने लगा। बड़ ज़ोर से उसने बलौट को भींचा। लगा क उसका दम अब िनकला क तब। फर वह ग े पर लुढ़क गया। उसक सांस ऐसी भाग रह थी य कोस दरू से

दौड़ता चला आया हो। फर उसक बांह म भींचे-भींचे वह शांत हो गया। उसक पकड़ ढ ली हई ु तो बलौट िछटक कर अलग हो गई। आदमी लेटे-लेटे ह जेब से पांच

पए को एक नोट िनकालकर

उसक तरफ बढ़ा दया। वह च कत थी। कस बात के पांच पए वह दे रहा था, वह समझ न पाई। फर भी पए लेकर वह भाग गई। पांच

पए उसके िलए काफ माईने रखते थे। उसे चुपचाप

खपाना उस अकेले के बस क बात नह ं थी। उसके सामने यह एक नई सम या आ गई थी। पगली मां जान जाएगी तो बलौट उससे या बहाना बताएगी? ऐसे क ठन समय मे अंडे वाली बु ढ़या क पोती सनीचर ह बलौट का एकमा सहारा थी। सनीचर थी एक न बर क चटोर -खच ली। उसने बलौट से यादा जरह न क , बस दोन चुपचाप अनपरा बाजार तक दौड़ती-कूदती पहंु च ग ।


वहां दोन ने चाट-पकौड़ खाई, क़ पती ब कट खर दा। वह ब कट इतना लजीज़, मीठा, घुलनशील और कुरकुरा तो न था, ले कन फर भी बलौट उस वाद से इस वाद क तुलना कर बैठ । एक टे ली वज़न क दकान के सामने घंटा भर दोन खड़ रह ं। ु वहां आठ-दस रं गीन ट वी पर कसी वदे शी चैनल का एक ह य दखलाया जा रहा था। समु के कनारे वदे शी औरत बकनी पहने धूप क सक का आनंद उठा रह ह। कह ं औरत और मद बंदास आिलंगनब

ह। समु क आती-जाती लहर

पर कई मद-औरत अठखेिलयां खेल रहे ह। सनीचर ने जब दे खा क ट वी दकान का छोकरा उ ह बड़ दे र से घूर रहा है तब ु उसने बलौट का हाथ दबाया और दोन ने सोचा क अब घर लौटा जाए वरना बड़ कुटाई होगी। नीचर , बलौट से दो-तीन साल बड़ थी। नाटे क़द क दबली ु

पतली लड़क । झबरे -ल टयाए बाल। सनीचर क

ाक के सीने

के ह से पर मैल जमा होकर उभार का आकार लेने लगा था। लौटते समय दोन नाले के कनारे आमने-सामने बैठ कर फा रग होने लगीं। सूरज डू बने वाला था। उ ह लौटना भी था। नाले के पानी से शौचते समय सनीचर का पैर फसला और वह िगर पड़ । उसक सनीचर

ाक गीली हो गई।

ाक उतारकर िनचोड़ने लगी।


बलौट उसक छाती के न हे उभार को दे ख हं सने लगी। तब सनीचर ने बताया क उसके भी तो उगगे। फर हाथ से कटोरे नुमा आकार बनाकर बताया-’’ये इ े ब डे ब डे ह गे साली!’’ लौटकर दोन िच ड़या जब अपने घ सल म पहंु ची, तब रात िघर आई थी। लोग दया-ब ी जला चुके थे। पगली मां

बलौट को दे ख सनक गई और मोट -मोट गािलय से उसका वागत कया फर वह बलौट को पीटने लगी। बलौट का अनपरा बाजार का सारा खाया- पया बराबर हो गया। सार म ती िनकल गई। हां, मार खाकर बलौट ने सोचा क चलो हसाब- कताब बराबर हआ। अब पगली मां बैठकर ु

घ ट रोएगी। मां मारती ज़ र है , ले कन कमज़ोर जगह पर कतई नह ं क बलौट मारे दद के बल बला जाए। बस, झ टा पकड़कर खींचते हए ु पीठ पर दनादन मु के बरसाती है मां।

कभी बहत यादा नाराज़ होने पर छड़ उठाकर पीठ पर मारती ु है मां। इतने से बलौट पर या असर पड़ता। मार का असर कम हआ ु तो बलौट उठ ।

अंगीठ पर कोयला बीन कर डाला और फर पगली मां क बगल म आकर लेट गई। थक -मांद तो थी ह , झट गहर नींद क आगोश म चली गई।


बलौट के दन मज़े म बीत रहे थे। उसे इस नए खेल म मज़ा आ रहा था। हर दजे ू -तीजे दन, सुनसान का फ़ायदा उठाकर पछले दरवाज़े से बलौट उस आदमी के वाटर म चली जाती और पांच-दस पए का जुगाड़ बना लेती। पछला दरवाज़ा तभी खुला िमलता जब आदमी घर म अकेला होता, अ यथा दरवाज़ा बंद ह रहता। मज़े क बात यह थी क बलौट के साथ ऊपर छे ड़छाड़ के अलावा वह अ य कोई बलात ् हरक़त नह ं करता था। ब कट खलाता, िमठाई, ि◌ ऱज़ का ठं डा पानी या शरबत पलाता,

गोद म बठाता, यार-दलार करता। कभी सीने से लगाकर ज़ोर ु से भींचता, कभी गाल को थूक से भर दे ता। ऐसे समय बलौट को उस आदमी के खूंट उगे गाल और दाढ़ क चुभन सुखद लगती। कभी-कभी वह बहत ु हड़बड़ाया हआ ु होता और बलौट को अपनी टांग के बीच कस लेता। ऐऐ समय वह इस तरह

हांफता जैसे मील दौड़कर आया हो। वह हांफते-हांफते िनढाल हो जाता। उसक सांस िनयं ण से बाहर हो जातीं। आंख मुंद जातीं। फर वह थक जाता और बलौट उसके चेहरे पर थकान क इबारत साफ़-साफ़ पढ़ िलया करती। बलौट जानती थी क अब जब उसक चेतना लौटे गी तब वह बहत ु बेचैन होकर उसे घर से बाहर िनकालने क जुगत करे गा।


पता नह ं य थकान के बाद उस आदमी के मन पैदा हई ु वर

से बलौट को िचढ़ हआ ु करती।

ऐसे हालात म बलौट को जवान होने के िलए साल या माह क ज़ रत न थी। वह दन- ित दन उ

का एक-एक बरस

लांघ-कूद रह थी। उसके चेहरे पर नमक दखने लगा था। कू हे आकार लेना चाहते थे। सपाट सीने पर नुक ले उभार कशमकश कर बाहर आना चाहने लगे तो पगली मां का दमाग ठनका। पगली मां ने दे खा क सनीचर और बलौट के बीच फुसफुसाहट बढ़ती जा रह ह। वे गुप-चुप बात कर अनायास हं सने लगती ह। फर पगली मां को दे ख हठात चुप भी हो जाती ह। बलौट क सयानी होती दे ह के कारण पगली मां गु साकर उसे खूब ग रयाती-लितयाती, ले कन या इससे बलौट क दे ह क बढ़त पर लगाम लगता? पगली मां न चाहती क बलौट उसक नज़र के सामने से तिनक दे र भी ग़ायब रहे । ले कन बलौट मां क आंख म धूल झ ककर उस आदमी के वाटर चली ह जाती। वह जो भी चाहता, बलौट आंख मूंदकर मान जाती। वह आदमी उसका एक दो त सा बन गया था। उसने ह चचा के दौरान बलौट को बताया था क पगली मां के पास कभी-कभी आने वाले रमाकांत क भूर - ब ली आंख और बलौट क ब ली जैसी भूर आंख म समानता य है ?


उसे पगली मां से घृणा होती। जब क उसका अपना जीवन खुद पथर ली राह का मुसा फ़र था! वह दे खती क कालोनी क उसक हमउ

लड़ कयां कतनी

चहकती रहती ह। कूल बस म वे गाती-गुनगुनाती कूल जाती ह। टड छोड़ने आए अपने म मी-पापा से कतना ज़द करती ह, इठलाती ह ऐसे क जैसे उनक नाक से दध ू जा रहा हो! जब क उन लड़ कय क उ

सनीचर से भी यादा होगी।

तीज- योहार पर ये लड़ कयां व न-लोक क प रय सी उड़ती, फुदकती रहती ह। एक सुबह जब बलौट सोकर उठ तो उसका सारा ज म दद से ऐंठ रहा था। उसने अपना माथा छूकर दे खा तो लगा बुखार हो उसे। पेट के िनचले ह से म भी मीठा-मीठा सा दद क चे जा रहा था। उसने

ाक उठाकर अपना पेट सहलाया और जब उसक

अंगुिलयां चढ़ आई च ड ठ क करने लगीं तो उसे कुछ गीलापन महसूस हआ। हाथ बाहर कया तो वह अवाक रह ु

गई। अंगुिलयां खून से सन गई थीं। वह डर कर रोने लगी। उस आदमी के संसग से वह इतना तो जान गई थी क औरत क दे ह म एक माग ऐसा भी होता है , जस पर चलने के लायक अभी वह हई ु नह ं है । क तु या रात अनजाने म उसने ऐसा कोई ऐसा सफ़र तय तो नह ं कर िलया, जस पर अभी उसे नह ं चलना था। बलौट िससक-िससक कर रोने लगी।


उसे अपनी मां के पागलपन के कारण भी रोना आ रहा था। पगली मां सुबह-सुबह उसका रोना सुनकर घबरा गई और एक मोट सी गाली दे कर बलौट से रोने का कारण पूछा। बलौट को पहली बार अपने ज म से नफ़रत हई ु और अपनी

दशा पर शम भी आई।

उसने पगली मां के सामने अपनी

ाक उठाई।

पगली मां ने जब खून से भीगी उसके अंतव

दे खे तो वह

हं सने लगी। उसने बलौट को राज़ क कुछ बात बता । सनीचर आई तो बलौट उससे लजाने लगी। पगली मां ने बलौट क नादानी का क सा उसे बताया। सनीचर भी खूब हं सी फर उसने बलौट को बताया क इस उ

से ‘अइसई’ होना शु

हो जाता है , इससे ‘काएको’ घबराना

रे ! बलौट तो समझ गई उसक बात और एक बात अ छ तरह जान गई क अब बचपन अचानक उसके पास से जुदा हो गया है । अब वह सयानी हो गई है । अब य द नादानी हई ु तो उसके ग भीर प रणाम उसे भुगतने पड़ सकते ह।

पगली मां ने बलौट के उठने-बैठने पर अघो षत ितबंध लगाने लगी। उसे समाज और संसार क ऊंच-नीच के बारे म अपने अ जत

ान से द

त करने का यास करने लगी।


उिचत श दावली के अभाव म पगली मां जब कोई बात को समझा न पाती तब फर गािलयां और लात-जूते क भाषा का सहारा लेती। सनीचर ने बलौट को पुराने कपड़े क ‘पेड’ बनाकर उपयोग करना िसखा दया, ता क मह ने के उन चंद दन म उसे परे शानी न हो। हां, पगली मां ने एक फट -पुरानी राज थानी साड़ का आंचल फाड़कर बलौट को दया क अब इस दप ु टे से वह अपना सीना ढांककर रखा करे । बलौट उ

के जस पड़ाव पर थी वहां ऊंच-नीच, पाप-पु य

लाभ-हािन, जात- बरादर , आ द श द िनरथक और बेकार थे। कशोराव था तो सपने दे खने क उ

होती है ।

यह उ

र ित- रवाज़ क धारा बदल दे ने क

इस उ

म इं सान के अंदर अ त ु उजा होती है ।

इस उ

मता रखती है ।

म इं सान खुद रा ता तलाशना और फर उस पर िनडर

चलना चाहता है । वह नह ं चाहता क कोई उसे ब चा समझे और क़दम-क़दम पर उसे ‘गाईड’ करे । वह खुद अपना भा यवधाता बनना चाहता है । एक दन सनीचर ने बलौट से उसक जाित जाननी चाह । तब बलौट मौन रह गई। उसने आज तक इतने सवाल का सामना कया था, ले कन जाित वाली बात तो आज तक कसी ने न क और न ह उसे इसक ज़ रत पड़ थी।


तब सनीचर ने वयं बताया क बलौट ‘चमार’ है । बलौट ने हं स कर मान िलया। उसे या फ़क पड़ता य द वह राजपूत होती या फर ‘बामन’ होती। और फर ‘चमार’ होना या बन जाने के िलए कसी माण क आव यकता नह ं पड़ती और न कसी गौरवशाली वंश-वृ

ह । चमार कहलाए जाने पर ऐसा भी नह ं है क चमार लोग वरोध कर। हां, य द उसे खुद को बाभन, राजपूत, कुम , भुिमहार, अह र आ द बड़ जाितय से जोड़े ने क ज़ रत पड़ जाए तो बेशक स बंिधत जाितय के लोग उसका वरोध कर सकते ह। बलौट ने पगली मां से अपनी जाित के बारे म जानना चाहा तो वह मौन बैठ रह । दबारा -ितबारा पूछे जाने पर तमाम ु

ात-अ ात जाितय को

मां-ब हन क गािलयां बकने लगी। बलौट क वह अ यापक थी, वह

कूल, वह कोस क कताब, वह पर

क भी। वैसे भी

बड़े -बड़े कूल से पढ़े आिलम-फा जल बना नौकर बेकार घूमते ह, पगली मां क पाठशाला से गािलय का पाठ सीखकर य द बलौट भी बेकार थी तो इसम या आ य... बलौट का जीवन पुन: पुराने ढर पर चलने लगा। पगली मां उसके िलए कह ं से मांग कर साड़ -लहं गा और लाउज़ ले आई।


जब वह साड़ - लाउज़ पहनी तो मारे हं सी के सनीचर लोटपोट हो गई। लाउज़ बहत ु बड़ा झोलंगा सा था। ऐसा लग रहा था क कसी

ठू ं ठ पर कपड़ा डाल दया गया हो। जैसे क बजूका!

सनीचर के पास लाउज़ क साईज़ कम करने का आई डया था। वह घर से सुई-धागा ले आई। आ तीन और साईड को मोड़कर सुई-धागे से सी दया क लाउज़ क ‘ फ़ टं ग-टाईट’ हो गई। अब लाउज़ बलौट के बदन पर फट बैठा। इसी तरह लहं गे को भी नीचे से मोड़कर छोटा कर दया गया था। साड़ - लाउज़ पहनकर बलौट ऐसी दखने लगी, जैसे वह कोई लड़क न हो ब क औरत हो। पगली मां को बलौट के इस

प से यार हआ। पगली मां, ु

ु आंगन म फक गई टटह कंघी लेकर बलौट के बाल बड़े यार से संवारने बैठ गई। बलौट अपनी मां के इस आदत म बदलाव से बड़ अचरज म थी।

यह उसी दन क बात है । जब शाम के ढलने पर आदतन घूम- फर कर पगली मां लौट तो काफ खुश थी।


बलौट ने मां का चेहरा इतना स न कभी न दे खा था। सूखे छुहारे से िन तेज चेहरे पर मु कुराहट क लक र उसके चेहरे को अजनबी सा बना दे रह थीं। उसने मां क खुशी का कारण जानना चाहा। पगली मां ने बताया क यादव पुिलसवाले के छोटे भाई भूनेसर यादव को कॉलोनी मे कचरा-सफाई का ठे का िमला है । रमाकांत और भूनेसर प के दो त ह। संग दा पीते ह और िछनरई भी साथ ह करते ह। रमाकांत क िसफ़ा रश पर भूनेसर यादव ने पगिलया और उसक बेट बलौट पचास वाटर के

े क

सफाई क ज मेदार स पी है । पगली मां को अपने दम काम न िमल रहा था, इसिलए रमाकांत के कहने पर पगली मां बलौट को भी साथ लाने को तैयार हई। ु

बलौट रमाकांत को जानती थी क वह उसका बाप है , ले कन भूनेसर यादव उसे फूट आंख यन भाता था। रमाकांत के साथ कभी-कभी भूनस े र यादव जब पगली मां के पास आता तो वह उसे घूर-घूर कर दे खा करता था। बलौट ने सोचा क कह ं उसे अपने चंगुल म फांसने के िलए तो भूनेसर यादव ने पगली मां को काम पर रखा है ? खै़र, वजह चाहे जो हो, हां, खाली पड़े -पड़े जीवन गुजारते बलौट ऊब रह थी। इसिलए उसने मां को हामी भर द । फर वह सनीचर के साथ दोपहर के समय कॉलोनी भी चली गई, ता क काम का जायज़ा ले ले। सनीचर ने उससे भी काम दलवाने क िसफ़ा रश क , ले कन बलौट ये कहकर टाल गई


क पहले दे खते ह क काम कस तरह का है और ‘‘ई ठ केदार ससुरा पईसा-वईसा मारता तो नह ं।’’ कोयले क खुली-खदान के कमचा रय को अ छा वेतन िमलता था और पदानुसार उ ह सरकार आवास भी आबं टत होता था। पचास वाटर का जो

बलौट और पगली मां क ट म को

सफाई के िलए िमला था, उस कॉलोनी का नाम से टर-सी था। तीन-त ला मकान का एक लाक, जसम छ: वाटर थे। हर लाक के चार तरफ बाउ डर थी। बलौट लोग का दािय व था क हर लाक क साझा सीढ़ के कचरे और बाउ डर -वाल के बाहर फके गए कचरे क सफारई् ित दन क जाए।

स ाह म एक बार े टर आएगा, जसक

ॉली पर कचड़ा

भरने का ज मा भी उ ह ं लोग क ट म का होगा। अगली सुबह जब पगली मां और बलौट भूनेसर यादव के ठ हे पर गए तो दे खा क वहां उनके जैसे कई मज़दरू और रे जाएं काम बंटने क

ती ा म ह।

अभी ठ केदार भूनेसर यादव अपने डे रे से बाहर नह ं िनकले ह। सुबह क धूप अब तीखी हआ ु चाहती है । कह ं छांह का नामोिनशान नह ं।

सभी मज़दरू इधर-उधर गुट बनाए बैठे या फर खड़े ग पया रहे ह

पगली मां और बलौट जब वहां पहंु ची तो दे खा क वहां मज़दरू लोग उ ह दे खते ह चुपा गए। एक स नाटा सा छा गया।


सभी बलौट और पगली मां क इस कामगार जोड़ को दे ख अचंिभत थे। वैसे भी पगली का इस

े म आना, फर उसका गभवती होना

और बलौट का उ प न होना एक बतकह का मसाला तो था ह । सब जानते थे क पगली अपने जवानी के दन म कई ‘समरथ’ लोग का एक खलौना थी। मनबहलाव का साधन। इसी से उसक रोजी-रोट चल रह थी। रमाकांत और पगली संग कोई यादा पुरानी घटना तो थी नह ं। कशोरवय बलौट उन मज़दरू के आकषण का क बन गई।

वाकई वह साड़ - लाउज़ म खूब जंच रह थी।

मज़दरू औरत सोच रह थीं क अब ठ केदार जब तक इस

लड़क को खराब न कर लगे तब तक चैन से न बैठगे। हां, तब तक उन लोग क जान बची रहे गी। बलौट ने उनक तरफ यान न दया और भूनेसर यादव क ती ा करने लगी। नौ बजे के कर ब भूनेसर यादव अपने मुंशी के साथ डे रे से बाहर आया और मुंशी लोग को काम और जुगाड़ बांटने लगा। पगली मां भूनेसर यादव के पास गई और ठे केदार ने मुंशी को उ ह एक बेलचा, झाड़ू और एक तसला दे ने का आदे श दया। बेलचा, झाड़ू और तसला पाकर बलौट खुश हई। ु बीस

पए डे ली क हा जर और स ाह म एक दन छु ट ।

यानी चालीस

पए रोज़ क आमदनी होगी।


इस तरह प चीस दन के एक हज़ार

पए...

बलौट क आंख फैल ग । एक ह

ज◌ा◌ार ्

पया....मह ना....

मां-बेट ने िमलकर अपने लाक क अ छे से सफाई क । हां, सफाई के दौरान एक पतली-दबली छोकर सी औरत ने ु

वाटर से िनकल कर उ ह खाने के िलए डबल-रोट द और

मु कुराई भी। ऐसी ह एक और दयालु म हला थी वहां, जो क इसाई नस थी। दपहर म वह काम से लौट तो पगली मां और बलौट को ु बाउ डर -वाल के साए म सु ताए हए ु पाया।

सफेद-झक कपड़े पहने उस नस ने बलौट से पूछा-’’ या रे , इदर या करता तुम लोग?’’ तब बलौट ने बताया क उन लोग को आज से इस लाक क सफाई का काम िमला है । नस सुनते हए ु तीन-त ला म जा समाई।

फर दसरे माले क बालकोनी पर नस नज़र आई। ू

उसके हाथ म एक पोलीथीन का पैकट था।

उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई-’’एई...लड़क !’’ बलौट दौड़कर बालकोनी के नीचे जा खड़ हई। ु

तब नस ने ऊपर से वह पोलीथीन का पैकट नीचे िगरा दया जसे बलौट ने लपक िलया।

ु उस पोलीथीन म केक के टकड़े थे।


सच, बलौट पछवाड़े वाले उस आदमी क संगत म खा पदाथ क कई वेराइट से प रिचत हो चुक थी। केक उसे वाकई बहत ु पसंद था।

ू ट पड़ ं। मां-बेट भुखमर क तरह केक पर ट◌ू खा-पीकर एक बार पुन: दोन सफाई के काम म जुट ग । तीन-त ला क सीि◌ढ़◌़य क सफाई तो आधा घ टा का काम था। बाउ डर -वाल के पीछे पड़े कचरे को बीन कर कचरा-पेट म भरने म ज़ र समय लगा, ले कन शाम चार बजे तक दोन फुसत पा ग ।

उस रात बलौट और पगली मां को बहत ु गहर नींद आई। बलौट क नींद मदाना खुसुर-पुसुर क आवाज़ से खुली।

पता नह ं रात के कतने बजे ह गे। हां, लगा क रमाकांत और ठ केदार भूनेसर यादव आए हए ु ह। दोन पए हए ु ह।

बलौट का कलेजा धुकधुकाने लगा।

उसने अधखुली आंख से माहौल का जाएज़ा लेना चाहा। ऐसा लग रहा था क वे दोन पगली मां को कसी बात पर राज़ी करना चाह रहे ह।


पगली मां बड़ त मयता से उनक बात सुन रह थी। मेन रोड पर बनारस जाने वाली रा -सेवा बस का हान गूंजा। भूनेसर यादव और रमाकांत उठ खड़े हए। ु

उनक फटफ टया टाट हई ु और उनके जाते-जाते पगली मां

क गािलयां उन पर बरसने लगीं-’’द हजरवा के नाती, हरामी आपन ब टया के संग सोवे का चाहत है ...!’’ इन गािलय के आगे फटफट कहां

कती।

बलौट को माज़रा समझ म आ गया। रात भर पगली मां नींद म बड़बड़ाती रह ।

पगली मां और बलौट को कचरा-सफाई के काम पर लगा दे ख लोग को है रत हई। ु

चौराहे क पान गुमट पर शितया भ व यव ाओं के मुंह लटक गए। ‘ई पगिलया क ब टया, कसी डराईबर या खलासी के संग भग जाएगी!’’ लोग का क़यास ग़लत सा बत हआ। ु

उनक अटकल-बा जय से बेपरवाह पगली मां बड़ त मयता से झाड़ू बुहारती और फर बेलचा क मदद से कचरा तसले पर


डाल दे ती। उस तसले को िसर पर उठाकर बलौट बाउ डर के बाहर बने कचरा-पेट म पलट आती। इस नव-जीवन का आनंद मां-बेट ने खूब िलया। पहली बार उन दोन ने

म क मह ा को जाना।

दन-भर क हाड़-तोड़ मेहनत के बाद रात म उ ह ज़बरद त नींद आती। कचरा कभी ख म न होता और न उ ह इधर-उधर सोचने क फुसत िमलती। पगली मां भी मेहनत के कारण थक -थक रहती और अब वह लोग को अकारण गािलयां भी न बकती थी। इधर एक बात बलौट ग़ौर कर रह थी क ठ केदार भूनेसर यादव उस पर अित र

िच ले रहा है । बलौट जस

पाठशाला क छा ा थी, उसका कोई

ंसीपल, हे डमा टर या

फर ट चर नह ं हआ ु करता। वहां का पा य म कसी रा य-

सरकार या क सरकार ारा संचािलत नह ं होता। बलौट क पाठशाला के पा य म म यवहा रक- ान के अ याय हआ ु

करते थे। ऐसा ह एक वषय दसर क िनगाह क भाषा पढ़नेू समझने का था। बलौट उसम पारं गत थी।

बलौट ने भूनेसर यादव ठे केदार क िनगाह क भाषा का अनुवाद भी कर िलया था। भूनेसर यादव अब अ सर से टर-सी क साईट पर काम के िनर

ण के बहाने से आता तो पगली मां के पास आठ-दस


िमनट समय दे ता और घूरे पर जहां बलौट कचरा डालने जाती कुछ यादा समया दया करता। वह बड़े मनोयोग से बलौट को कचरा का तसला उठाए आतेजाते दे खा करता। बलौट जब घूरे के अंदर कचरा फकने के िलए जब तसले को दोन हाथ से ऊपर उठाती, तो लाउज़ के अंदर आकार

हण

करते उभार क झलक िमलती। भूनेसर यादव ऐसे कोण से उसे िनहारता, जससे कचरा उलटती बलौट के ज म को साईड से और पा व-भाग का वह सू म िनर

ण कर सके।

बलौट भूनस े र यादव क िनगाह क मार से अ जान न थी। उसे अपने ज म के तमाम ढं के-िछपे ह स पर भूनेसर यादव क िनगाह क चुभन बहत ु दे र तक महसूस हआ ु करती थी। उसे ये सब अटपटा भी लगता था और अ छा भी।

भूनेसर यादव यूपी का अह र था। खाया- पया प ठा जवान। आिथक आधार मज़बूत था, सो उसके य

वम

आ म व ास के कारण दबंगई क झलक भी िमल जाती थी। वह सुदशन था, पतीस-छ ीस साल का खेला-खाया युवक, तराशी हई ु मूंछ, संकरे माथे पर ढे र सारे बाल, कुता-पैजामा


और काली जैकेट उसक विश ता थी। संभवत: रात ब तर पर भी वह ‘ऐसई’ सोता होगा। उसके पास एक मोटर-साई कल थी, जस पर सवार होकर वह दौड़-धूप कया करता। जब से पगली मां और बलौट को काम िमला था, उन लोग ने भीख मांगना बंद कर दया था। घर म पैसे आने से खान-पान और कपड़े -ल े क

यव था ठ क हो गई थी।

भूनेसर यादव माह भर बाद पगली मां के पास एक

ताव

लेकर आया। वह चाहता था क पगली अपनी कशोर बेट के साथ आजादनगर

थत उसके आवास के आसपास बस जाए।

जीट रोड और रे लवे लाईन के बीच क सरकार जगह पर मजदरू और ठे केदार ने क़ ज़ा कर िलया था। वे वहां झोप ड़यां और मकान बनाकर गुजर-बसर करते। कोयला-खदान का अिधकतर काम ठे केदार

िमक पर िनभर था, ले कन उनके

िलए थाई-िनवास का कोई ावधान न था। इसिलए ऐसे ठे केदार और

िमक इस नई ब ती म जीवन-यापन करते।

कोयले क खुली खदान म कोयले के साथ प थर-िम ट भी बाहर याड म आ जाया करता था। बेचने से पूव उस कोयले से िम ट -प थर क अशु

को छांट-बीन कर िनकाल फकने का

काम ठे केदार - िमक के ज़ रए कया जाता था। इस काम म सैकड़ मज़दरू लगते। साथ ह कॉलोनी, सड़क, पुल, टं कयां


और रे लवे-लाईन आ द िनमाण काय म हज़ार क तादाद म इस इलाके म मज़दरू क खपत है ।

ये मज़दरू दे श के लगभग सभी ांत से यहां आते ह।

उन लोग ने अपनी ब ती को एक नया नाम भी दे दया था’’आज़ाद नगर’’ आजाद-नगर यानी भारतीय सं वधान क तमाम धाराओं, उपधाराओं, अनु छे द , िनयम-कानून से आजाद नगर । यहां अिधकार क भावना का बोध तो था ले कन कत य के ित उदासीनता दे खी जाती थी। हां, शासन, यव था और सरकार के िलए यहां िसफ आरोपयारोप और धर-पकड़ क गुजाईश थी। भूख, बीमार , बेकार , गर बी, मृ यु क भरपूर आजाद का नाम था ब ती आजादनगर। आजाद नगर म दा भ ट थी, कसाई-घर था, चांदसी दवाखाना था, गांजा-अफ़ म के अ डे थे, स टा-मटका के दलाल थे, रं डयां थीं और इर◌ं ् धन के िलए पया मा ा म कोयला था। आजाद नगर म पेयजल क

यव था न थी।

नहाने-धोने के िलए नकटा-नाला का पानी उनक ज◌़् ◌ा रत पूर कया करता।

पीने के पानी के िलए कोयला-खदान क कालोिनय के िलए आजाद नगर से गुज़र पाईप-लाईन के लीकेज वाले पानी का इ तेमाल तमाम आजाद नगर-वासी करते। चूं क आजाद नगर ब ती कोयला खदान से सट हई ु थी,

इसिलए कोयले म व फोट से या फर ड पर के आवागमन से


उड़ती धूल हवा के बहाव के साथ आजाद नगर के वायुम डल पर हमेशा छाई रहती। शाम के समय, काम से लौटे मज़दरू अपनी-अपनी झ प ड़य ◌ं

म कोयले के चू हे या भ टयां सुलगाया करते। इससे आजादनगर सुलगते-कोयले के सफेद धुंए से ढं क जाया करता। आजाद नगर के प

मी कोने मे कोयला-मा फया सु र दर बाबू

क दया से एक भ य ‘िशव-मं दर’ बना है । कहते ह क सु र दर बाबू जब इस इलाके म आए थे तो एकद मे गर ब थे। जस जगह िशव-मं दर बना है , वह ं उनक झ पड़ हआ ु करती

थी। वह कोयला के ढे र से िम ट -प थर छांटने वाले मज़दरू से तर क करते-करते, मेट-मुंशी हए ु , फर धीरे -धीरे वयं ठ का लेने लगे। जोड़-तोड़ का भा य चमका, य क तभी जो

ोजे ट-ऑफ सर आया वह सु र दर बाबू क बरादर का िनकल गया और जला-जवार भी था। वैसे सु र दर बाबू इस समीकरण को नह ं मानते, वह अपनी तर क का दारोमदार पूर तरह भोलेनाथ भ डार पर डाल दे ते और बोल-बम का नारा बुलंद कया करते। िशव-मं दर तक कोयला खदान वाल ने पेयजल क पाईपलाईन बछवा द थी। िशव-मं दर के आस-पास यादातर ठे केदार और मुंिशय के आवास थे। इसिलए ये लोग पेयजल क पूित िशव-मं दर से कया करते।


महािशवरा

के अवसर पर सु र दर बाबू इस िशव-मं दर पर

जल वयं चढ़ाया करते, इस मौके पर बनारस से उनका प रवार भी आया करता। वैसे सु र दर बाबू अपने बंगले म अकेले ह रहा करते थे। आजाद-नगर म भूनेसर यादव ने भी लगभग दो एकड़ के

म क़ ज◌़् ◌ा◌ा कया हआ ु था। सीमट ट क बाउ डर िधरा था भूनेसर यादव का आवास।

पगली मां का घूमा- फरा इलाका था आजाद-नगर का। रमाकांत क ऐयािशय का पुराना इितहास आजाद-नगर के च पे-च पे म दज था। कभी-कभी तो पी-खाकर यार -दो ती मे वह कई रात आजादनगर म पड़ा रह जाता था। पगली मां ने भूनेसर यादव के उस

ताव को वीकार कर

िलया जसमे उसने कहा था क वे लोग बस- टड के इस खुले माहौल से हट कर आजाद-नगर चले आएं। वहां भूनेसर यादव अपने आवास के आसपास उनके रहने क

यव था कर दे गा।

सयानी होती बेट बलौट क सुर ा के िलए ये

ताव मान

लेना ह हतकर था। वैसे एक तरफ कुंआ, दसर तरफ खाई वाली बात थी। ू

कचरा फकने वाले े टर म मां-बेट ने सारा सामान लादा। सामान या था, कचरे का एक और ढे र ह तो था, जसे स यसमाज अमूमन फक दया करता है । यह कचरा उन मां-बेट क पूंजी थी, यह उनका सरमाया...


आजाद नगर पगली मां के सेहत का द ु मन सा बत हआ। ु

बस- टड के टन-शेड म वह पं ह-सोलह साल बता चुक थी। टन-शेड मे ◌ंजहां द वार क ज़ रत न थी। पोलीथीन-बो रय से िघरे उसके उस आवास म एक दरवाज़ा भी था, जसक िसटकनी लगने पर भी आधा फुट का फांक बचा रह जाता था। वह एक खुला-खुला जातां क दे श क तरह अहसास कराती यव था थी। भूनेसर यादव ने उन लोग को अपने आवास के पछवाड़े क एक झ पड़ ह दे द थी। बलौट और पगली मां के िलए कसी बंद कमरे सांस लेने का ये पहला अवसर था। उ ह ऐसा लगा क उनका दम घुट जाएगा। भूनेसर यादव क इस मेहरबानी से पगली मां बहत ु वन

हो

गई थी। अव वह गािलयां कम बकती। बलौट को पहले दन तो वहां अटपटा लगा क तु सुख-सु वधाएं दे ख कर उसे लगा क जैसे अभी तक वे लोग नरक-वास कर रहे थे। िम ट क द वार जगह-जगह कबड़ गई थीं, ले कन उ ह थोड़ा यार से सहला दे ने मा से वे द वार अव य िचकना जाएंगी। छ पर खपरै ल क थी। हां,मकान म पानी चूने के ल ण दखलाई नह ं पड़ रहे थे। इसका मतलब है क ठ केदार भूनेसर यादव झ पड़ क छानी


के खपरै ल हर सीजन म ‘ फरवा’ दे ता है । हो सकता है क भूनेसर यादव क वह ऐशगाह हो! झ पड़ के बाहर अम द का एक पेड़ है । उसके आसपास क िम ट अ छ िचकनी है । पगली मां ने फावड़ा लेकर िम ट खोद डाली और उस िम ट को पानी से गीला करके उसने झोपड़ क द वार को िचकनाने लगी। बलौट कोिलयर के बाज़ार जाकर छूह िम ट ले आई। छूह िम ट से उसने झोपड़ क द वार को लीप दया। पास के गांव से काली-िम ट ले आई बलौट और उससे झोपड़ के फश को लीप दया। बाडर के तौर पर छूह िम ट क सफेद कर द गई। अब उनक झोपड़ सज गई थी। झोपड़ के अंदर दो कमरे थे। पहले कमरे के कोने म एक चू हा बना हआ ु था।

इस कमरे को उन लोग ने रसोई घर बना िलया। अंदर कमरे म गुदड़ -कथर बछाकर सोने क

यव था कर ली

गई। द वार पर एक र सी बांध द गई, जो कपड़ा टांगने के काम आई। झोपड़ के बाहर एक कोने म प थर क एक िसल लाकर रखा गया और उसे तीन तरफ से बोरा-टाट से घेर कर नान-घर का प दे दया गया। अ य िन तार के िलए उ ह नकटा-नाला जाना पड़ता।


वहां हमेशा मज़दरू औरत-मद क भीड़ हआ ु करती। हं सी-मज़ाक का अ छा माहौल बना रहता।

एक कपड़े म नहाना और फर कपड़े बदलने क कला तो पगली और उसक ब टया बलौट को आती ह थी। यह एक ‘ए सरसाईज़’ क तरह होता है । मां-बेट दोन इस कला म अ य त थीं। मद का या, चौबीस घ टे औरत क दे ह पर िग -

गड़ाए रखना उनका धम होता है ।

मज़दरू औरत जानती थीं क ‘इस दे खा-दाखी से उनक दे ह खयाती थोड़े ह है ।’

बड़ा उ मु

वातावरण था नकटे -नाले का।

बलौट को ये सब नह ं भाता था, खासकर नाले का काला पानी। कोयला-खदान से बहकर आया नकटे नाले का पानी काला हो चुका है । उसे लगता क इस काले पानी से िनयिमत उपयोग से कह ं उसका बदन काला न हो जाए। इसीिलए िशव-मं दर से बलौट पानी ले आती थी। वह झोपड़ के बाहर बने अपने नान-गृह म ह उस पानी से नहाया करती।

इस अफरा-तफर म पगली मां बीमार पड़ गई। उसे जाड़ा दे कर बुखार आया था।


बुखार था क उतरने का नाम ह न लेता था। पगली मां क कमज़ोर दे ह बुखार से लड़ नह ं पा रह थी। हां, पहले वह जो गािलयां बका करती थी, अब बुखार क हालत म वह गाली न बकती ब क समझदार क बात कया करती। बलौट , अंदर कमरे म पगली मां के ब तर के पास एक पुराने तसले म लकड़ जला दया करती। उसक आंच ताप कर पगली को कुछ राहत िमलती।

ु र पता नह ं कहां से आसमान पर बादल आए और ट पर-टपु बा रश क ऐसी झड़ लगी क लगा क जाने कब मौसम क मनहिसयत दरू होगी। ू

मां क बीमार के कारण बलौट काम पर जा नह ं पा रह थी। तीसरे दन भी जब बुखार कम न हआ ु तो बलौट ने सोचा क अब ठ केदार भूनेसर यादव से मदद लेना चा हए। भागी-भागी वह भूनेसर यादव के पास गई। भूनेसर ने अपने मुंशी-मेट को भेज आजाद-नगर के बाहर डे रा जमाए बंगाली-डॅ ◌ा टर को बुलवा िलया। बंगाली-डॉ टर ने पगली म का मुआयना कया और फर उसे कई इं जे शन लगाए। वह अपनी ड पसर म ह दवाएं भी रखा करता था। उसने बलौट से कहा क वह उसके साथ ड पसर चली चले। बलौट बंगाली-डॉ टर से दवाएं लेती आई। इलाज का सारा खच भूनस े र यादव ने उठाया था।


पगली मां क हालत म कुछ सुधार आया, तो बलौट ने सोचा क अब ठ केदार का यादा अहसान लेना ठ क नह ं। वह काम पर ग । पगली मां क जगह उसके साथ एक नई मज़दरू भेजी गई। वह बलसपुर हन थी। ल बी-छरहर अधेड़

ी।

बहत ु मज़ा कया थी बलसपुर हन। बात-बेबात खूब हं सा करती। उसके दांत बाहर को िनकले हए ु थे।

बलसपुर हन ने व ास न कया क ठ केदार म काम करने

के बावजूद बलौट अभी कुंवार है । इस रा ते म कुंवार लड़क िमलना संसार का आठवां आ य होता है । भूनेसर यादव क पुरानी मुंहलगी थी बलसपुर हन। उसने बलौट को बताया भी था क ‘‘ठ केदार भूखा सेर है भूखा सेर, जस दन मौका पा जाएगा, खरबोट डालेगा, समझे!’’ ये भी कहती बलसपुर हन-’’अइसई नह ं अपनी झोपड़ म बसाया है ठ केदार ने। हां, एक बात है क जबरई कुछ नह ं करे गा बो। उसके पास धीरज बहत ु है । लहा-प टया लेगा तुझे ू ।’’ टर

बलौट कहां ऐसी बात से डरने वाली थी। अब तक तो वह चार-द वार और एक छत का मू य सोच ह चुक थी।


भूनेसर यादव क िनगाह म ीत- यार क परछा डोलती वह दे ख चुक थी। ल◌े् कन इतनी कम क मत पर वह अपने कौमाय का सौदा

नह ं करना चाहती थी। उसे कुछ यादा भी िमल सकता था य द उसने चतुराई से काम िलया तौ! दे ह का दाम जब तय ह होना है तो वह खर ददार क मज के मुता बक न होकर माल बेचने वाले क इ छानुसार होना चा हए। बलसपुर हन के संग-साथ म वह काफ चतुर हो गई थी। पतरे बाजी क कला वह सीख रह थी। हां, भूनस े र यादव का सामना होने पर वह लजाने का ज़ोरदार अिभनय करती। वह जानती थी क भूनेसर यादव के अंदर आग सुलग रह है । पगली मां अब को ये नया आिशयाना रास न आया। दवा-दा के बाद भी मां क तबीयत ठ क न हई। ु

ठ केदार भूनेसर बलौट को उसक रोजी के अित र

भी

पया दया करता। बलौट सब जानती-समझती, ले कन उसके िलए वह उसका शु

या अदा न करती।

बस, भूनेसर को अपनी बड़ -बड़ भूर आंख ितरछ करके िनहार दे ती क भूनेसर िनहाल हो जाता। बलौट क भूर आंख का िशकार हो चुका था भूनस े र यादव।


बलौट क हरक़त से भूनेसर को ये तो पता चलता था क वह उसम िच लेती है , ले कन उसके जीवन म आई अ य मज़द ू रन क तरह नह ं है बलौट , ये भूनेसर ने अ छ तरह तजवीज कर िलया था।

आज तक जाने कतनी

यां सरलता से उसक आगोश म

भागी-दौड़ चली आई है । बलौट कसी दसर िम ट क बनी ू लगती है ।

भूनेसर गरमागम खाना खाने का शौक न न था। वह फूंक-फूंक कर क़दम रख रहा था।

एक दन मौका पाकर भूनेसर बलौट का हाथ थाम बैठा। वह दोपहर का समय था। पगली मां क सेवा करके, खाना-दाना खाकर, बलौट बाजार जाने के िलए झोपड़ से िनकली थी। उसने सोचा था क आज सनीचर से मुलाकात करे गी और बन पड़ा तो अनपरा के िसनेमा हाल म जाकर प चर भी दे ख लेगी। सुना है क वहां ‘हम आपके ह कौन’ लगी है । बड़ अ छ प चर है । पैसे तो उसके पास थे ह । और कोई सम या सामने न थी। पगली मां खाना खाकर दवा खा चुक है । अब वह सोएगी तो शाम छह-


सात बजे तक उसक नींद खुलेगी। रात भर तो खांस-खांस कर परे शान हो गई थी पगली मां। ह के गुलाबी रं ग क साड़ पहने थी बलौट , जसपर उसका कुंवारा

प दमक रहा था।

भूनेसर यादव के हाथ को उसने झटकना चाहा। उसक पकड़ बड़ सख◌़् त थी।

ू अपनी कलाई उसे टटती सी लगी। बलौट ने तब सवािलया िनगाह से भूनेसर यादव को दे खा, जैसे पूछ रह हो-’’का कर रहे हो आप?’’ भूनेसर यादव क नशे म धु आंख म उसके सवाल का िसफ एक ह जवाब दखलाई दे रहा था-’’ये तो होना ह था।’’ बलौट ने आस-पास का जायज़ा िलया। वहां कोई न था, िसफ अम द का पेड़ उ ह इस हालत म दे ख रहा था। भूनेसर यादव अपने डे रे के पीछे पेशाब करने आया था, क बलौट उसी समय जलवागर हई ु थी।

भूनेसर ने उसे अपने डे रे क तरफ चलने का इशारा कया। बलौट ने अब अपनी कलाई उसके हाथ से छुड़ाने का यास करना बंद कर दया और सोचने लगी क शायद भूनेसर यादव ने अब तक जो भी मदद क है , उसका दाम वसूलना चाहता है । ले कन बस- टड के पछवाड़े

वाटर वाला आदमी ऐसा न था।

वह तो बड़ा मासूम सा खलाड़ था, जो बलौट के प का पुजार हआ ु करता था। वह अगर चाहता तो अब तक जोर-


जबरद ती कर चुका होता। बलौट तब नादान थी, आसानी से उसक हवस का िशकार हो चुक होती। ले कन वह एक कोमल वभाव का इं सान था और बलौट से इस तरह यवहार करता जैसे वह कोई कांच क गु ड़या हो, जो ज़रा सी असावधानी से ू -फूटकर चकनाचूर हो जाएगी। टट

बलौट का हाथ भूनेसर यादव छोड़ना नह ं चाहता था। उसका हाथ थामे-थामे भूनेसर उसे अपने डे रे के अंदर ले गया। अंदर कोठर म पलंग बछ थी। भूनेसर ने बड़े एहतराम के साथ उसे पलंग पर बठाया और वयं उसके सामने खड़ा हो गया। जैसे वह कोई दे वी हो और भूनेसर अदना सा भ । बलौट तड़प उठ । अपने स दय क पूजा करवाने का उसका कोई इरादा न था। भूनेसर यादव उसका मािलक था। वह एक साधारण नौकर ह तो थी। उसक

या कोई सामा जक है िसयत थी, जो भूनेसर

यादव के सामने ठाट से वराज सके। वह गड़बड़ा गई, ले कन ज द ह उसे अपने पास उपल ध दौलत क ताकत का आभाष हआ। भूनेसर यादव ठ केदार एक ु मामूली लड़क के पैर चूमने को बेताब है ।

वह उसके सामने हाथ बांधे खड़ा उसक िनगाहे -करम का तलबगार है । अनुनय- वनय कर रहा है । बलौट का अिभमान मोम सा गलना चाहता था।


वह असमंजस म थी। पगली मां के यौन-शोषण क दा तान और पगली मां का असहाय जीवन उसक आंख के सामने िसनेमा क र ल क तरह गुज़र रहा था। एक बार अपना सव व योछावर करने के बाद औरत के पास एक मद को दे ने के िलए फर कुछ नया नह ं बचता। वह बासी हो जाती है , सेक ड-है ड सामान क तरह। बलौट को तय करना था अपना मू य, उसे जाननी थीं अपनी सीमाएं। उसे दखलाई पड़ रह थी अपने असुर

तभव यक

काली भयावह परछाईयां। बलौट जानती थी क कोई प थर क

लेट नह ं क उस पर

कोई कुछ भी िलख कर िमटाता रहे । हां, कोई घाटे का सौदा भी बुरा नह ं होता, य द उसम मन क शांित शािमल हो। मन ह मन वह कई मोच से लड़ रह थी। भूनेसर यादव के कांपते-गम हाथ के पश से डग सकता था उसका धैय। भूनेसर यादव के अंतह न अहसान का बोझ, उसक दे ह क क़ मत से कह ं यादा था। ले कन वह फर भी उसम उ साह का संचार नह ं हो रहा था। बलसपुर हन रे जा क बात बलौट को याद हो आई-’’भूखा सेर है भूनेसरवा भूखा सेर...!’’ उसे हं सी हो आई।


कहां गया शेर....उसके सामने तो दम ु दबाए बैठा है एक पालतू ु कु ा, एक टकड़ा रोट क आस म जीभ लपलपाता, तलुए चाटता कु ा। वह प थर क मूित क तरह बैठ रह । भूनेसर यादव से रहा न गया। इतने नखरे , इतना इं तेजार क उसे आदत न थी। झट उसने तु प का प ा फका-’’तुझे रानी बना कर रखूंगा।’’ या बलौट वाक़ई रानी बनना चाहती थी? नह ं, वह फर भी न पघली। भूनेसर यादव और झुका-’’तू खुद बता, तुझे या चा हए?’’ बलौट नह ं जानती थी क उसे या चा हए? इतनी ल बी योजना उसने कभी बनाई होती तब न कुछ बोल पाती। और आज तक उसे अपनी चाहत कट करने का अवसर ह कहां िमला था। अब जब भूनेसर यादव ने सवाल कया था तो उसे कुछ न कुछ कहना ह था, ले कन उसके पास भाषा का औज़ार कहां था? बलौट चाहती थी क भूनेसर खुद तय करे क उसके मन म या है ? कोठर क छ पर के न हे -न हे छे द से आती सूरज क करण से कमरे म रोशनी थी। चव नी-अठ नी और

पए के िस के

क मािनंद सैकड़ गोल-गोल काश-वृ कमरे म जगमगा रहे थे। ऐसा ह एक रोशनी का गोल िस का, बलौट क नाक मे डली फु ली पर पड़ रहा था। फु ली का नग जगमग-जगमग


करके बलौट के स दय को अलौ कक आभा दान कर रहा था। भूनेसर यादव उसके प के जाद ू म फंस चुका था। बलौट उसके िलए एक चैलज क तरह थी।

इतनी औरत आई जीवन म ले कन अपना इतना भाव तो कसी ने न लगाया था। जाने ये ससुर बलौट

या सोचे बैठ

है ? बलौट पलंग से उठने को हई। ु

कहा-’’सनीचर के संग अनपरा जाकर िसनेमा दे खने का मन था।’’ भूनेसर यादव तड़प उठा-’’अर बलौट , छोड़ ई िसनेमा- वनेमा, का र खा है उसम। तू यह ं बैठ रह। तुझे रानी बना कर रखूंगा। तेरे आस-पास कसी फितंगे क तरह मंडराता रहंू गा। य द म ठ केदार बना रहा तो तू भी ठ केदा रन कहलाएगी।’’ बलौट ने इस

ताव पर भी जब उ साह न दखलाया तो

भूनेसर ने और दाम बढ़ाया-’’तेरे िसवा अब और कसी औरत के पास न जाऊंगा। गांव म जैसे मेर घरवाली है , वैसे तू इस कम े म मेर पटरानी बन कर रहे गी।’’ बलौट क आंख भर आ -’’स ची!’’ भूनेसर दल से बोला-’’हां रानी, हां...!’’ भूनेसर को थाह िमल गई। बलौट को राह िमल गई। बलौट के पास ऐसे-ऐसे जाद ू थे क भूनेसर फर उसी का

होकर रह गया।


गांव क अपनी याहता अ हराईन को भुला ह बैठा, ले कन बलौट ने अपनी सौतन के साथ अ याय न कया। वह हमेशा भूनेसर को याद दलाती रहती क उसक एक और बीवी है ।

पगली मां मर गई। भूनेसर का मोटर-साइ कल से ए सीडट या हआ ु , क वह

चलने- फरने के लायक न रहा। बलौट ने उसका पूरा-पूरा साथ दया। वह वयं भूनेसर यादव के नाम से ठे का लेने लगी। बलौट मदाना लटके-झटके सीख गई। भूनेसर उसका दास बना रहा। बलौट क एक बेट है । बलौट ने उसका नाम रखा है ‘सुरस ी’। सुरस ी कूल जाती है । भूनेसर सुरस ी को खूब यार करता है । ब टया सुरस ी बलौट को कभी-कभी यार से समझाया करती-’’मां, मुझे सुरस ी न कहा कर, मेरा असल नाम ‘सर वती’ है ।’’ बलौट ‘सर वती’ बोल न पाती तो मदानी हं सी के साथ बोलती-’’ साली सुरस ी, दल लगा कर पढ़ाकर, महतार क ग़लती न िनकाला कर...!’’


अनवर सुहैल (०९ अ टू बर १९६४ जांजगीर छ.ग.) उप यास

पहचान (२००९)

सलीमा (प रं दे म धारावा हक

प से

कािशत)

कथा-सं ह

कुंजड-कसाई, गहर जड़ क वता

और थोड़ -सी शम दे मौला संत काहे क बेचैनी

क वता-के

स पादन

त लघुप का 'संकेत' संपक

टाइप ४/३ ऑ फसर कॉलोनी

पो बजुर

ज. अनुपपुर म. . ४८४४४०

९९०७९७८१०८ sanketpatrika@gmail.com


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