प्रीतम काव्य रसामत ृ - भाग १ '
'
ब्रजभाषा साहित्य - वन्दना सं ग्र ि
'प्रीतम काव्य रसामत ृ ' से उद्धृत कवव-शिरोमणि ज्यो. पं. श्री यमुना प्रसाद चतुवेदी "प्रीतम" - मथरु ा
कवि परिचय ११ मई १९३१ को मथुरा के एक प्रततष्ठित चतुवेदी पररवार में आपका जन्म िुआ। १४ माचच २००५ को गौलोक वास शसधारने तक आप पूिच रूपेि साहित्य को समवपचत रिे । कायचक्षेत्र'राठर हित ितक' एवम ् 'पंकज दत ू ' जैसे खण्ड काव्यों सहित ववशभन्न ववषयों पर आपकी दजचनों पुस्तकों का
प्रकािन िो चुका िै । आपने कई ग्रंथों का सफलता पूवक च संपादन ककया और श्री गोपाल पंचांग की िुरुआत भी आप से िी िुई थी। आप एक मँझे िुए भागवत कथाकार भी थे। बेबाक अशभव्यष्तत के शलए प्रख्यात श्री 'प्रीतम' जी ने अपने जीवन काल में अनेकों शिठयों को अपने अष्जचत ज्ञान से सँवारा। पुरस्कार सम्मान-
काव्य, यंत्र-मंत्र, कमच काण्ड, ज्योततष, पाष्ण्डत्य एवम ् िस्त्र ववद्या जैसे अनेकों क्षेत्रों में मिारत रखने वाले बिुमुखी प्रततभा के धनी प्रात:स्मरिीय गरु ु वर श्री यमन ु ा प्रसाद चतव ु ेदी 'प्रीतम' जी को उन के अववस्मरिीय योगदान के शलए अनेकानेक संस्थाओं ने पुरस्कृत सम्मातनत ककया। प्रीतम काव्य रसामत ृ
[1]
श्री गुरु पद नख िन्दना सोशभत सलौने सुभ्र सरस सुधा सों सने,
सील शसंधु रूप लसें ष्जन सम चन्द ना। कैधों रवव प्रभा पुंज कंु ज सेज लोभें मंज,ु
हिय लौ प्रकासें भासें राखें मतत मन्द ना। जप तप जोग जाग जरु र कें समाने ककधौं, ष्जन्िें िे र-िे र अघ करत िैं क्रन्दना।
'प्रीतम' अनन्द नाम श्री गरु ु श्री 'ववट्ठलेि', रटों तनशसयाम करौं पद नख वन्दना।।
कीनी जो कृपा िै ताहि कोववद बखानें कौन, िोत हिय द्रब सब भाँतत ते अनन्दों मैं। जनम सध ु ारौ उर भरम तनकारौ सभ ु ,
कमच तनरधारौ जाते भ्रमों नाँहि द्वंदों में । 'प्रीतम' सु शसच्छा पाइ परम प्रबीन बन्यौ,
सन्यों गुन गौरब तें गन्योंबबग्य बन्ृ दों में ।
छं दों में तनखार प्यार-सार ष्जय जातन त्यों, श्री वर गरु ु पाद पद्म बार-बार बन्दों मैं।।
श्री गणेश िन्दना बबघन बबदारबे कौ, सगन ु सध ु ारीबे कौ,
अघन उधाररबे कौ जाकौ तनत्य काम िै ।
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[2]
मोद के मनाइबे कौ, मोदक के खाइबे कौ, सोध के सुझाइबे कौ, गुन अशभराम िै ।
ववद्या-बवु द्ध, ऋवद्ध-शसवद्ध, भष्तत-मष्ु तत दै वे िी कौ, पररगौ सभ ु ाव सदा लशलत ललाम िै ।
'प्रीतम' वपयारे प्राि ग्यान गुन बारे ऐसे, दे व गनराज जू कों सतत प्रिाम िै ।। * बवु द्ध ते िी बबपतत बबदारबौ िी भायौ ष्जन, साररबौ स-ु काज सदा गायौ यि गान िै ।
बबस्व ककयौ नत, िट बबघन ककए िैं सब, सत गन ु पड ुं ध्वज सीस कौ तनसान िै ।
बशलन में बली, उग्र-उन्नतत में अग्रगन्य, बष्न्दत बबहदत जग महिमा मिान िै ।
'प्रीतम' स्वतंत्र मिामंत्र के प्रिेता, गि-
तंत्र, औ गनेस दोऊ एक िी समान िै ।। * दाता िैं स-ु बुवद्ध के, प्रदाता ऋवद्ध-शसवद्ध िी के, बबस्व के बबधाता जो राखत दख ु -द्वन्द ना। आये सन् ु ड-तुन्ड कों िलात दीन द्वारे न पै, दे खत िी पावपन कें भए िैं अनन्द ना।
बारौ री दीपकें, सँभारौ री ब्यंजन बिु, पूजौ री बबबबध भाँतत, करौ मन मन्द ना। प्रीतम काव्य रसामत ृ
[3]
'प्रीतम' कववन्द छन्द रचना सुरुचच रचच,
गाबै गौरर सत ु श्री गजानन की बन्दना।। श्री सिस्िती िन्दना बबपतत बबदारीबे की, कुमतत तनबारबे की, सरु तत सँभारबे की, जाकी परी बान िै ।
सुजस हदबाइबे की, स-ु रस वपबाइबे की, सरस बनाइबे की अदभुत आन िै ।
भाबना बढ़ाइबे की, भाउ बबकसाइबे की, सुख सरसाइबे की रुचच-सुचच सान िै ।
'प्रीतम' सज ु ान जान ऐसी बवु द्ध दायनी कों, बन्दों बार-बार जाकी महिमा मिान िै ।। * तो सों िी सरं गे मन मोद के मनोरथ औ, सल ु भ समवृ द्ध के जु सग ु म सुरुचच काज। बैभव बबपल ु भव भोग के सभ ु ावन सों, प्रचरु प्रभाबन सों पूररत रिं गे साज।
तेरे िी प्रसाद दख ु दाररद दिंगे अब,
सख ु द सजैगी तब 'प्रीतम' सु कवव लाज। चचत्त के अनन्द छन्द बन्दन करन िे त,ु ए री जगदम्ब मेरे रसना पै बैि आज।। *
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[4]
तेरे िी बबिररबे कों अष्जर बनायौ हिय,
भाबना के भौनन में सभ ु ग सजाये साज। कल्पना कुसम ु कमनीय बबकशसत भए,
भाग भौर भ्रमन िूँ करें जिाँ गंध काज। 'प्रीतम' सुकवव काव्य कौमुदी णखली िै बेशल, मेल की थली िै ष्जत तेरौ िी रिैगौ राज। साँच ष्जय जान, आन छन्दन प्रबन्ध िे त-ु ए री जगदम्ब मेरे रसना पै बैि आज।। * सरस बती िौ मात,ु सरस स्रुतीन गायौ,
सरस दै सुधी तनधी राखौ मतत मन्द ना। सरस सु ग्रन्थ बीना धार िार धौरौ सुभ्र, िँसन बसन सभ्र ु जा के सम चन्द ना।
फन्द ना रिें िैं कछू, ओपै जो ततिारी दया,
मो पै करौ त्यों िी, जो पै रिें दख ु द्वन्द ना। 'प्रीतम' कबबन्द बन्ृ द छन्दन सराहिबे कों,
बानी मम करै बीना पानी की सु बन्दना।। *
भारत की भब्यता कों, भावन की स्वच्छता कों, अच्छ रच्छ लच्छन प्रतच्छ ह्वै प्रसारती।
राठर हित एकता कों, बवु द्ध की बबबेकता कों, जग-जन जीवन में नेकता उभारती।
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[5]
तनत नव गिन में नेि की तनकंु ज रचच, बतन अशल मधुररम गन ु न गुंजारती।
'प्रीतम' तनचध आरती कों बानी ते उतारती, औ, गावत जस भारती, जै-जै रस भारती।। * तेरी िी कृपा ते मेरी बबपतत नसैगी मात,ु सम ु तत सजैगी एक सरु तत ततिारी पै। 'प्रीतम' सक ु वव रस रसना रसैगी जब,
आय तनबसैगी हिय-िं स की सबारी पै। भावना लसैगी बुवद्ध भाग्य की बबधाता बन, वर बबलसैगी बानी बोशलबे की बारी पै।
ए िो बीन बारी औ कमल कर धारी अब, दीजै वर आज िद्ध ु साधना िमारी पै।। * बानी के बोशलबे की, सु सब्द रस घोशलबे की, भाव अनमोल की जु हिय अनुरष्तत दै ।
बासना बबलाशसता ते करर कें बबलग मन, धन्य कर जन्म चरिारबबंद भष्तत दै ।
त्रास ना रिें ता सों सु तन में तनक किूँ, ऐसी दव्ु यचसना ते बेचग िी बबरष्तत दै । 'प्रीतम' सुकवव उष्तत साधना ससतत िे त,ु
ए री मातु मेरी, मो करन में स-ु सष्तत दै ।। *
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[6]
जय जयतत बीना बाहदनी सुर साचधनी माँ सारदे ।
मन मोहिनी जन मोद मतत गो दोहिनी अनस ु ार दे ।। रस राचगनी अनरु ाचगनी भव भाग के सख ु सार दे ।
वैभव बबमल जस िंस वाहितन बबपुल बबस्व प्रसार दे ।। कर कशलत कीरत कामना कर पूनच िे कमलासने। करमाल पस् ु तक धाररनी सभ ु साररनी मद ु ासने।। ृ भ
सुचच स्वेत बसना सरस रसना रुचचर रम्य सुिासने।
कवव कल्पना कृतत काव्य कशलका कंु ज पुंज बबकासने।। िे गुन चगरा गोतीत गम्या गान धुतन झंकारनी।
रतत गतत सग ु मना तरतन तुम भव शसन्धु की िौ ताररनी।। तनज जन मनोरथ पूरर पुतन-पुतन भाव भंग ृ बबिाररनी। माँ भारती िौ बबस्व के तम ु कोहट कठट तनबाररनी।।
जय जयतत जग अघ िाररनी, हित काररनी, चचत चातयनी। सदप ु ायनी िरसायनी, हिय सरस रस सर पातयनी।।
सुर शसवद्ध दातयतन, बुचध प्रदातयतन, जनतन जन अनप ु तयनी। 'प्रीतम' प्रवर ष्जव्िाग्र बशस वर दे िु िे वरदातयनी।। दे िी िन्दना कािे कों ककयो िै अम्बे तैनें ये बबलम्ब आज, कर दै इस्तम्भ सत्रु सस्त्र-अस्त्र बल कों। साधना ततिारी में जु बाधक बने िैं जेत,े
भौन ते तनकारर बेचग उन िीं के दल कों। 'प्रीतम' सरन रन टारर कें सु पन ू च प्रन,
दृन दया दृष्ठट ते दलन कर खल कों।
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[7]
कामना की काम धेनु तुम्िीं एक जग माँहि, पूरौ आज मेरी मातु कामना प्रबल कों।। श्री गोपाल िन्दना सौने कौ मुकुट मोर चष्न्द्रका ढरारी सीस, ततलक बबछौना खौर ककसररया भाल पै। कंु डल कपोल बबच कंु तल अलक ढ़री,
परी-परी डोलें मनों पन्नगी सु ताल पै। कंि लर िार भुजबंद भुज सोिें अतत,
कंकन कर ककंककनी कहट की उछाल पै। 'प्रीतम' वपताम्बर औ नप ू रु न छटा िे रर,
बारी मन िोत बेरर-बेरर या गप ु ाल पै।। श्री मुकुन्द गोपाल िन्दना मथुरा महिमा कहि िेष मिे ि थके औ थकी ववचध वेद ऋचा रे ।
ष्जत जाइ अजन्मा नें जन्म शलयौ करर कौन सकै तति की समता रे । जग पालक ह्वै कवव 'प्रीतम'जू बतन बालक खेलत तनत्य तिाँ रे । सुर लोक चतुदचस जाहि रटें सोइ इठट गुपाल मुकुन्द िमारे ।। श्री गरु ु -गोपाल िन्दना परम दयालु दीनबन्धु ह्वै कृपालु प्रभ,ु दीजै वर एक, रमों भततवर बद ं ृ ों में ।
'प्रीतम' प्रवीन चुतन भावना प्रसन ू अब,
तनत सुचच माल गि ु ों नव गुन छं दों में । प्रीतम काव्य रसामत ृ
[8]
फन्द भव काट, द्वन्द-िाट सों तनराट रिों, िाट-बाट िू सों रिों परू न अनन्दों में । सेवों श्री ववट्ठलेि गरु ु की चरि रज,
सरन प्रततपाल गोपाल पद बन्दों मैं।। * कब लों रिों मैं दीन, दीनबन्धु तेरौ बतन, बशसबौ न चािों यों फरे ब फर फन्दों में ।
बबलम न कीजै, भरर दीजै, भौन कौंन सबै, वैभव बबसद्ध ु कर बरस अनन्दों में ।
'प्रीतम' सुकवव छवव छटा त्यों तनिारें रिों, बारें रिों भाव-पुठप गुहि गुन छं दों में । सेवों श्री ववट्ठलेि गुरु की चरि रज,
सरन प्रततपाल गोपाल पद बन्दों मैं।। * धारै िै जो मोर पच्छ कोर िै कटाच्छ रच्छ, यै िी िै प्रतच्छ लच्छ बबचरों स्वच्छं दों में । दृन िै बबस्वास आस पूरौगे अबस अब,
िोंउ ना तनरास नाहिं फँसों त्रास द्वंदों में । 'प्रीतम' प्रवर वर वैभव बबपल ु पाइ,
सुजस प्रवाि बढ़ै रसमयी छं दों में । सेवों श्री ववट्ठलेि गुरु की चरि रज,
सरन प्रततपाल गोपाल पद बन्दों मैं।। प्रीतम काव्य रसामत ृ
[9]
श्री गगरििाज िन्दना जय-जय-जय चगररवर धरन, जय-जय-जय चगररराज। बंदों जग ु -जग ु जग ु -चरन, राखन साखन लाज।। राखन साखन लाज, तनत्य माखन रस भोगी।
लाखन सारन काज, बबमल मन करत सँयोगी।
कवव 'प्रीतम' जग बंधु वर, ब्रज रच्छक स्यामल बरन।
द:ु ख िरि असरन सरन, जय-जय-जय चगररवर धरन।। बलदे ि [दाऊजी] िन्दना चािें जो सु जीवन में जीवन कौ लाभ कछुतौ पै मन मेरे तज भावना दै छुद्र की।
जो पै चिें बैभव बबपल ु औ बबभूतत श्रेठि, तौ पै कर साधना आराधना तू रुद्र की।
िष्तत िे तु िष्तत ररवद्ध-शसवद्ध कौं गिेि की त्यों, मुष्तत कौं मुकुन्द भष्तत िे तु ब्रज अहद्र की। 'प्रीतम' प्रबुवद्ध िे तु सरसुती कौं ध्यावें ज्यों, सभी कामना कौं कर सेवा बलभद्र की।। * खात सदा शमसरी अरु माखन लाखन भकतान के प्रततपाल। 'प्रीतम' प्रान िैं रे वती के वप्रय भ्रात िैं जाके जसोमत लाल। हदव्य िै रूप अनूप अभस ू न ह्वै कें कृपाल करें िैं तनिाल। बारिु िौर पै राजत िैं ब्रज के नप ृ िाकुर दाऊ दयाल।। *
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[10]
श्री िाधा िन्दना श्री राधा आराध्य सुगम गतत आराधन की।
जो अतत अगम अपार न िै मतत जिँ तनगमन की। ज्ञान मान की खान ध्यान धारा भगतन की।
वप्रय 'प्रीतम' की प्रान प्रमान पततत पावन की।। * बाधा मेरी िरें चरन श्री राधा जी के।
आराधन कर रिों सतत सख ु साधन नीके।
मन क्रम बच ते सेव्य रिे जे ररशस मुतन िी के।
ष्जन पग नख दतु त तनरख लगत उडुगन बबधु फीके।। * श्री राधा सवेश्वरी, राधा सरबस ग्यान।
रशसकन तनचध राधा हिये, राधा रशसकन प्रान।। राधा रशसकन प्रान, तनत्य गतत आराधन की।
िरन सदा त्रय ताप, सकल रूष्ज भव बाधन की। साधन सुलभ सुगम्य रम्य रस रूप अगाधा। 'प्रीतम' पीवत रित सतत भज जै श्री राधा।। * राधा बैन रसाल, नवल राधा वपक-बैनी।
राधा मोहितन नवल, राचधका सिचरर श्रेनी। राधा सिचरर रं ग बबिाररतन राधा-राधा।
राधा 'प्रीतम' प्रान वपयारी जै श्री राधा।। *
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[11]
िीरा िेम पत्र में जड़े िैं कमनीय ककधौं
कैधौं चचत्र चचष्न्ित िैं बबद्युत बौरानी के। कैधौं सांत सीलता के संद ु र प्रतीक पंज ु
हदपै रिे हदव्य रूप सख ु की तनसानी के। 'प्रीतम' प्रवीन भतत िीय की सरसता के सिज समानी ग्यानी बपु बरदानी के।
बबचल पारी कै बबभा बबधु की बबलास िे तु सो िी पग-नख बन्दों राधा मिारानी के।। * अँणखयाँ चकोरन कौं सु सांत्वना दे न िे तु बबरमे िैं चंद मनों नेि की तनसानी के।
कैधों जपी तपीन के तप के सु तेज पुंज पगन समाने आन ब्रह्म रजधानी के।
'प्रीतम' सु कवव भतत भाव के ववराम थल कै सोभा के शसन्धु अवगािन िैं प्रानी के। तरनी के रूप, भव तारन तरन जो िैं
सो िी पग-नख बन्दों राधा ब्रजरानी के।। * जप तप तीथच ब्रत नेम धमच कमच पन् ु य
तीन लोक दान िूँ की पूरन प्रसाचधका। ररशस मुतन शसद्ध सुर साधन प्रवाहिका औ रास रस वद्धचनी रसेश्वरी उपाचधका।
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[12]
'प्रीतम' सु कवव आचध-ब्याचध की बबनाशसका ह्वै ब्रज बन बीच बतन तनत्य तनरबाचधका।
अगम तनगम जग सुगम अराचधता सी प्रगटी िीं ब्रज ब्रजराज वप्रया राचधका।।
श्री यमन ु ा िन्दना बन्दों श्री पद पद्म बंधु तनया, स्यामा वप्रया स्याम की। काशलन्दी कल कूल केशल सशलला, धारा धरा धाम की। पूिाचनन्द करी सदै व सभ ु गा, सारा सभी काम की।
प्यारी 'प्रीतम' प्रान पुन्य फलदा, सोभा सु ववश्राम की।। * जम फाँस की त्रास बबनास के बेग सदा तट बास कौ िी बर दै । कवव 'प्रीतम' पाप पिारन कों तनज कूल कछारन में छर दै ।
भव बैभव भाग के भौनहि में स्व सभ ु ाउ ते भामते िी भर दै । जमन ु े सुख बाररद की झर दै , अरु मो दख ु दाररद कों दर दै ।। * भाखें जमराज सुनों सेबक िमारे सब
कािू मानस ु कों लाइबे कौ धमच ना िै रे 'प्रीतम' कवव जेते या जग माँहि पापी जन जमना निाइ ततन्िें रिै भ्रम ना िै रे
या िी सों तम ु सों बात खोशल कें क़ित आज मेरी गम ना िै तौ ततिारी गम ना िै रे
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[13]
आस जमना िै जाके, पास जाम ना िै विाँ बास जमना िै तिाँ त्रास जम ना िै रे * तनकट बसाइ जनु गोद में बबिाइ मन
मोद में मढ़ाइ शलयौ दाररद तनकष्न्दनी ककयौ िै मुकुन्द पद सेबक स्व्छन्द पाइ मुकुन्द रतत ववद्धचनी अशमत अनष्न्दनी
चार फल दातयनी प्रदातयनी मनोरथ की
तुम सी तम् ु िीं िौ मातु सग जग बष्न्दनी 'प्रीतम' सुकवव अघ बद ं ृ न प्रभंजनी जु
बन्दों पद पद्म काशलन्द चगरर नष्न्दनी * रोग-िर, ताप-िर, द:ु ख-िर, दया-कर
दीन जान, आन मम गेि माँहि रहियै 'प्रीतम' सुकवव वाक-शसवद्ध, बुवद्ध-सुवद्ध िे तु बैहि रसना पै, दे वव! साँच-साँच कहियै
बैभव की बवृ द्ध िोइ, सख ु में समवृ द्ध िोइ दीजै बरदान मोहि जो जो जब चहियै
लाज कौ जिाज आज बूढ़ौ जात जातत मध्य तासों माँ उबाररबे कौं, बेचग बाँि गहियै
[कवव के जीवन में एक वविेष घटना पर उद्भत ू छन्द] * प्रीतम काव्य रसामत ृ
[14]
जमना जब नाम कढै मुख ते, सुनते तब पास रिै जम ना
जम नाम न राखत खातेन में , ष्जनके ष्जय आन बसी जमना जमना के प्रसाद भए कवव 'प्रीतम' गावत त्यों तब ते जु मना भज रे जमना, जप रे जमना, ष्जत िै जमना, ततत िै जम ना * अब जो जनमों तो बसौं जमना तट, औ तनु मानस ु कौ िी जु धारौं कवव 'प्रीतम' जू रसना सों सदा, रस नाम गप ु ालहि कौ सु उचारौं
तनरधारौं यिी मन में इक आस प्रभो, ह्वै तनरास न ताहि बबसारौं
ष्जतत केशल कला तम ु कीन्िीं, विी ब्रज के बन-बाग-तड़ाग तनिारौं * िौं तो िौं जु टे रौ चेरौ, तेरौ ह्वै बन्यौ िी रिौं या िी आन-बान कौं सु धाररयै श्री यमन ु े पातक अनेक एक आसरौ ततिारौ बड़ौ
अडौ खडौ द्वार पै तनबाररयै श्री यमुने 'प्रीतम' मनोरथन पूरन करन बेचग
ध्यान के धरत िी पधाररयै श्री यमन ु े राज औ समाज के सु काज हित आज मेरे लाज के जिाज कौं सँभाररयै श्री यमन ु े * जग ु न ववताने सब जतन शसराने तब
भागीरथ िाने ब्रत माने सख ु मन्द ना ब्रह्म जब लाने केस संकर सुिाने पुतन धरा पै चगराने िे तु राखे कछु फन्द ना
प्रीतम काव्य रसामत ृ
[15]
पूवज च तराने सुतन दे व िरसाने पुन्यपुंज सरसाने भए, अघ्घर अनन्द ना
'प्रीतम' वौ कववन्द ना सु छन्दना अमंद ना जो न नर गावत गौरर गंगा की वन्दना अघ-घर = अघ्घर गंगा िन्दना बुलायौ िै जैसें मो पै करर कें कृपा मिान त्यों िी लोक लाजन के काज अनस ु ररयो
श्याम लता तेरी ब्रज बबवपन बबलासी बनी ताके फल ऋवद्ध-शसवद्ध िी ते भौन भररयो शसंचन ततिारौ िै अककंचन तरै या मातु ऐसी दृग कोर द्रवव मेरी ओर िररयो
'प्रीतम' पिार जन्म-जन्म के जरु े िैं जेते तेते अरर अघन पछार, छार कररयो नममदा िन्दना आयौ िौं दौरर द्वार श्री नमचदा ततिारे पै जु तुम्िीं अब मेरे सब कारज सँभारौगी
भारी भार सीस पै अचानक िी पयौ आन ताकौं तनज कृपा कर, बर दै उतारौगी
'प्रीतम' सु कवव कामना की िौ जु कामधेनु प्याइ पय तष्ृ प्त कर जनम सध ु ारौगी
ए िो मातु मेखलजा, रववजा सपूत िेतु
सेतु बाँचध िीघ्र, भव शसन्धु सों उबारौगी प्रीतम काव्य रसामत ृ
[16]
शशि िन्दना चन्द्रमा ललाट जा के जटा जट ू सीस सोिें भस ं भरू र भावना िू भारी िै ू न भज ु ग
भस्म अंग धारी ह्वै अनंग संग जारी ष्जन बत्रपुरासुर मार जो बन्यौ बत्रपुरारी िै
'प्रीतम' वपयारी जा की हिमचगरर कुमारी, औ मग ृ चमच धारी, बरु नंदी की सवारी िै
भत ू सैन्य सारी, ष्जन सँभारी, भंग प्यालौ पी ऐसे बबसधारी जू कौं वन्दना िमारी िै *
महिमा कौं जा की वेद-वेदान्त बखान करें ऋवष मुतन ध्यान धर तत्व कों रटत िैं
जटा गंग सीस सोिें , भाल पै बत्रपड ंु मोिे सपचन की माल धार, कठट कों िरत िैं
भस्म कों रमाएँ सभ ु डमरू धराय िस्त 'प्रीतम' के काम संग नंदी लै कफरत िैं उतपतत ष्स्थतत संिार के करन िार
बाबा बबश्वनाथ जी की वन्दना करत िैं * जय जयतत जगदाधार जगपतत जय मिे ि नमाशमते वािन वष ृ भ वर शसवद्ध दायक ववश्वनाथ उमापते
शसर गंग भव्य भुजग ं भस ू न भस्म अंग सस ु ोशभते
सुर जपतत शिव, िशि धर कपाली, भूत पतत िरिागते प्रीतम काव्य रसामत ृ
[17]
जय जयतत गौरीनाथ जय कािीि जय कामेश्वरम कैलािपतत, जोगीि, जय भोगीि, वपु गोपेश्वरम
जय नील लोहित गरल-गर-िर-िर ववभो ववश्वंभरम
रस रास रतत रमिीय रं ष्जत नवल नत्ृ यतत नटवरम तत्तत्त ताता ता तताता थे ई तत्ता ताण्डवम
कर बजत डमरू डडमक-डडम-डडम गंज ू मद ृ ु गंष्ु जत भवम बम-बम बदत वेताल भूत वपिाच भध ू र भैरवम
जय जयतत खेचर यक्ष ककन्नर तनत्य नव गि ु गौरवम जय प्रितत जन पूरि मनोरथ करत मन महि रं जने अघ मूरर िारी धूरर जहट तम ु बत्रपुर अरर-दल गंजने जय िल ू पाणि वपनाक धर कंदपच दपच ववमोचने
'प्रीतम' परशस पद िोइ पावन िरिु कठट बत्रलोचने द्िारिकाधीश िन्दना द्वारकेि वंदन करों, िरों सकल तन-ताप
अब निीं जानों और कछु, जोग जाग तप जाप जोग जाग तप जाप, ककयें नहिं मन संतोसौ रोसौ, पोसौ भलें आप कौ मोइ भरोसौ
कवव 'प्रीतम' कर भें ट पत्र फल फूलरूचन्दन द्वारकेि तनशसयाम ततिारौ करौं सु वंदन * सोशभत सजीलौ सुचच स्वणिचम शसंिासन पै
साज सजी लक्ष्मी वाम बाम छबब छाजै िै अशमत अनप ू रूप उपमा न पाई किूँ दे णख कें अनंग अंग कोहट कोहट लाजे िै प्रीतम काव्य रसामत ृ
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दसचन कारि िे तु भतत भीर भारी िोत भावुकन भाव अठट भूरर भव्य भ्राजै िै 'प्रीतम' वपयारे सब दस ू न िरन वारौ
भस ू न िमारौ द्वारकेि जू बबराजै िै * मंगल मंगला कीने ते िोत, चश्रंगार ते राज पै राजत िै नर
ग्वाल ते गो प्रततपाल बनें अरु राजसी भोग ते भोग शमलें िर भोग उत्थापन दें य उत्थान औ आरती दे ख रिै तन सुन्दर
'प्रीतम' सैन की झाँकी अपार तनिार मनोष्च्छत पावत िै वर
बद्रीनाथ िन्दना जयत-ु जयतु बद्री वविाल - लघु स्वरुप अहद्र भआ ु ल
सीस स्वणिचम मक ु ु ट सोित, गंध अंककत ततलक भाल किच कंु डल पुिुप गुष्म्फत - कंि तल ु सी लसत माल पीट अम्बर कहट ववराजत - करत ववद्युत ् केशल वाल पद्म आसन तपशस मद्र ु ा - स्याम तन लणख कटत जाल परम पूष्जत नर नारायि - हदव्य दरसन दृग दयाल तनगम नारद गात उद्धव - गरुि काटत कोहट काल
अलक नंदा करत आनँद - सशलल िीतल मनु हिमाल तप्त तीरथ िरत पापन - वपत ृ तारत ववचध कपाल
'प्रीतम' सु कवव बद्रीि अघ िर - परम वप्रय प्रभु प्रिततपाल
प्रीतम काव्य रसामत ृ
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िल्लभाचायम रे वपयष ू आगार सशस, तयों न झरत इत ओरर ये चकोर मन कन त्रशसत, बस्यौ ततिारी पौरर * स्वष्स्त श्री मन्मदमन सम ु ोिन जयतत जयतत जय श्री वल्लभ आचायच चरन जग वष्न्दत जय जय श्री ववट्ठल गोस्वाशम वयच गोकुलपतत जय जय
जयतत पष्ु ठट जन सकल कृठि ष्जहिं नाम जपतत जय * श्री मद वल्लभ वंि बाल गुि गौरव िाली
अमर बेशल सी फशलत कल्प तरु वेष्ठटत डाली
जस पुिुपन के पुंज स-ु वाशसत हदशि हदशि फूले कवव 'प्रीतम' वप्रय मधप ु पुष्ठट सौरभ रस झल ू े * ए िो पुष्ठट प्रकाि शिठय उडुगन के स्वामी
कृठि भष्तत रस भाव व्योम के तम ु अनग ु ामी
भव रुष्ज औषचध ईि रजतन हिय अघ तम नािी सय ु ि िरद सौंदयच रूप गुि रष्श्म स्वरािी
पि च ला पीयष ू क ू मय, मन-वपु तनगमन श्रतु त कित
तयों चकोर 'प्रीतम' तबिु, किु िशि आपन तन दित * श्री मद वल्लभ बष्न्ि वंि प्रगटौ जब जग में जीव ब्रह्म सम्बन्ध पुष्ठट भौ तब ता मग में अधम अभागे अघी दया ततन पै िू कीन्िी
प्रीतम काव्य रसामत ृ
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शमश्री भोग धराय सुलभ सेवा िू दीन्िी कवव 'प्रीतम' पावन सदा, पायौ ष्जन गोस्वाशम पद पतततोद्धारक पथ पष्ु ठट रच्यौ जग बंहदत श्रीमद चैतन्य महाप्रभु ब्रज कौ बबकास ककयौ, वन्ृ दावन वास ककयौ रास मिारास ककयौ, वपयौ रस िु अनन्य
धाम धाम गौर स्याम छायौ िै अनूप रूप
ताहि दे ख कोहट काम िु कौ लाजौ लवन्य 'प्रीतम' मधूकरी औ तल ु सी कौं मान हदयौ
राधा कृठि गान िी तें जग कौं ककयौ सु धन्य िरी िरी बोल घोल अमररत वपवायौ श्री
मिाप्रभु तनत्यानन्द जू िरे कृठि चैतन्य * तीरथ अनेक ष्जन कीरत श्रुततन गाई
कीरत लाली बबना भली नांहि िौर अन्य दे खी कर गौर और लेणखन परे खी तबै
पाई मधुपरी धुरी तीन लोक तें जु धन्य पात पात बंसीवट कंु ड कंु ड कृठिा तट
कंु ज कंु ज नटखट लीलान लखी अनन्य 'प्रीतम' प्रगत घट सध ु ा सों भरौ िै ब्रज रट रट िरी नाम तनत्यानन्द चैतन्य * प्रीतम काव्य रसामत ृ
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प्यारी के भावन सुख शमलत हिये में किा रूप रं ग रीझ खीझ रतत रस का ललाम मान कर मनाइवौ दान शमस ररझाइवौ
आन दै बल ु ाइवौ सु केशल हित कंु ज धाम वा िी िे तु औतरे जु स्याम बाम बेस धार अशमत आवेस प्यार बगरायौ िाम िाम
'प्रीतम' सु नाम धन्य स्याम राधा राधा रटें राधा राधा रहट पतु न िेरत िै स्याम स्याम * नवद्वीप तें आइ अतीब समीप सुनीपन तयार परोस ककयौ िै
कल कंु जन पुंजन में अशल गुंजन कौ रस िु तनस द्यौस वपयौ िै रट नाम िरी िरे कृस्न चैतन्य जु 'प्रीतम' धामहि पोस शलयौ िै ब्रज बैभव गौरव सौठिव कौ पुतन ववस्वहि में उद्घोष ककयौ िै * नव्स्वीप तें आइ ककयौ ब्रजवास बबकास ककयौ पुतन यौं ब्रज िी कौ तरु बेशल औ कंु ड तनकंजरू कंु ज ककये सब तीथच प्रमाि दै जी कौ
रस शसतत तें भतत ककये जड़ चेतन चैतन्य नाम वपवाय अमी कौ कवव 'प्रीतम' प्राि िरी िरी बोल िरी जन पीर ककयौ जग नीकौ
प्रीतम काव्य रसामत ृ
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श्री हरिदास िन्दना श्री िररदासी रूप वर परगते श्री िररदास
बन्दिुं ततन के पद कमल, 'प्रीतम' वप्रय हिय आस * बन्दिुं वन्ृ दा वववपन कंु ज तनचधवन द्रम ु बेली रं ग मिल अतरं ग रँगे ष्जत क्रीडत केली
पौहढ़ कबिु पयंक अंक वपय प्यारी गहि गहि रहि रहि लहि लहि सिज कपोलन चब ंु त नहिं कहि 'प्रीतम' रस तनचध तनत्य नवल लीलान अनन्दों श्री स्वामी िररदास स्याम स्यामा पद बन्दों * श्री िररदास सुिाग, श्री िररदास िुलास हिय श्री िररदासनरु ाग, 'प्रीतम' श्री िररदास वप्रय *
श्री - स्यामा रस दान हदयौ पाई तब तनचध - श्री
स्िा - गत तब ततन ककयों तनरख छवव बीसौ बब - स्िा मी - िौ या ते और न कछु िै अन्तरया - मी
ह - र हदन पल तछन तनरत रित रस िी पै सुख ल - ह रि - स मुतन जाकौ पार न पायौ व्रत तप करर क - रि दा - मन लीनों थाम बसे हिय स्याम सवच - दा
स - रबस रस में रँगे पगे रस िी में सरब - स जी - वन धन सवचस्व प्राि बबिाररन िैं - जी *
प्रीतम काव्य रसामत ृ
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श्री - तनचध कौ प्रागट्य भयौ तनचधबन के मचध - जी स्िा - रत स्यामा स्याम ककये ततन नें अपने ब - स मी - न मेख ना रिी बसे हिय सदा सवच - दा
ह - र पल तछन रस वपयौ रूप माधय ु च सु ष्जय भ - रि
रि - चध शसचध बारत केशल कला पै कला सकल जँ - ह दा - न ककयौ रस बिी रशसक वर रस अनग ु ा - मी
स - ब ववचध रस बस रिे जगत में बीसौ बब - स्िा जी - वन प्राि बबिारर बबिाररतन 'प्रीतम' के - श्री * जय जय कंु ज बबिाररिे, जय वन्ृ दावन धाम
कोहट कोहट कंदपच िू, लाजत आिौ याम लाजत आिौ याम, रशसक लीला लख सरबस
बरबस रस बस िोत, सकल जग गावत गन ु जस
'प्रीतम' स्यामा स्याम वप्रय, वविरत ष्जत अनवरत मय
तनत नव वय रहि करत रतत, सो स्वामी िररदास जय * कर अनरु ाग राग भाग कौ जगायौ ष्जन राखौ िै सि ु ाग रागनीन के प्रमान कौ
सप्त सुर भेद िी ते मोिे सुर लोक सप्त तप्ृ त जग कीनों धरर रूप रस दान कौ
'प्रीतम' सु जान प्रान रशसकन कौ िै सदा
गायौ गान स्यामा स्याम जू के िी ररझान कौ ए ते गन ु गढ़यौ चढ़यौ त्यौं िी िररदास पातन ज्ञान कौ तमरू ा मढ़्यौ परू ा यै सु तान कौ * प्रीतम काव्य रसामत ृ
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कािू नें तौ मूल कौ अधार शलयौ सार जान साखन ते प्यार कािू कीन्िों िै बबचारर कें बसंती बिार सजे पातन की छांि कािू गातन सुिानी तिाँ बैिे ध्यार धारर कें फूलन सब ु ास कािू हिय में बसी िै जिाँ भतत मन भीर रमें हित तनरधारर कें 'प्रीतम' तनचोरर नेि फल कौ सु तत्व रस
वपयौ िररदास स्यामा स्याम कों तनिारर कें * सेवा भोग राग कौ सजायौ बाग बल्लभ औ तरु बेशल शलपटानी चैतन्य के रास नें
फूले िैं अनेक भाँतत-भाँतत के सुफूल पंथ गंध भरी ततन में सु वन्ृ दावन बास में
सदा िी बसन्त बने पल्लव प्रवीन भतत छांि तरें पायौ सुख जग जन त्रास नें
'प्रीतम' के प्रान प्रभू सबै फल दान हदयौ पै वपयौ रस एक िी स्वामी िररदास नें * दे खे िैं अनेक पंथ पढे िैं अनेक ग्रन्थ संत औ मिं तन की बात बड़ी सन ु ी िै
शसद्ध िै शसद्धान्त सद्ध ु साधना आराधना के साधुता में रत सभी ररसी और मन ु ी िैं
प्रीतम काव्य रसामत ृ
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धनी िै सभ ु ावना के भष्तत के प्रचारक िू ज्ञान उपदे स िी की राि कािू चुनी िै 'प्रीतम' िै सार रस सब िी कौ तब िी तौ स्वामी िररदास रसोपासना की मनी िै * करूआ मन ृ तें भयौ कंचन पात्र सजी तन स्वनच शस्रंगार ते धूरा गुदरी सध ु री शलपटी जब िी जु करे सब साल दस ु ाल अनूरा
कवव 'प्रीतम' स्यामा औ स्याम बबिार तनिार बनी कववता रस सरू ा ब्रज के बन बागन भाग जगे जब राग रं ग्यौ िररदास तमूरा * रस तनकंु ज मचध केशल रस, करत वप्रया वप्रय स्याम िे रत श्री िररदास ज,ू सो रस आिौ याम
सो रस आिौ याम, स्रववत हिय सरबर माँिी
आनंद पद्म पराग, गंध वविरत चिुं घािी 'प्रीतम' भावन भंग ु नव नव सरस ृ भ्रशम गावत गन
सन ु सन ु रशसक वविंग बन बेशल बबटप शमल द्रबहि रस * रस तनकंु ज रसना रशसक रस ब्रज बतन तन रास 'प्रीतम' रस बस प्रान धन, रस तनचध श्री िररदास *
ब्रज रस ब्रज बगरयौ सकल, ब्रज राज कन-कन मांहि 'प्रीतम' ब्रज सख ु कों सतत दे व मनज ु ललचांहि *
सववनय:मूल पुस्तक सम्पादक – अतनल चतुवेदी
ई-पुस्तक टं कि व साज-सज्जा – नवीन सी. चतुवेदी http://thalebaithe.blogspot.in प्रीतम काव्य रसामत ृ
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