साहित्यम् - वर्ष 1 अङ्क 4

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हि​िंदस्ु तानी साहित्य सेवार्ष एक शैशव-प्रयास

साहित्यम् वर्ष – 1, अङ्क – 4

अन्तर्जालीय पत्रिकज / सङ्कलक

सम्पजदक – नवीन सी. चतुवेदी


सम्पादकीय

प्रणाम। अप्रे ल का महीना, चिलचिलाती धपू और िुनावों की सरगचमि या​ाँ। अप्रे ल महीने का एक भी चिन ऐसा नहीं गया जब चिल-चिमाग़ को ठण्डक महसस ू हु ई हो। खुला हु आ रहस्य यह है चक आज चहन्िुस्तान की हालत "ग़रीब की जोरू सारे गा​ाँव की भौजाई" जैसी है। घर के अन्िर रोज़-रोज़ की पञ्िायतें हैं, पास-पड़ौस वाले जब-तब आाँखें तरे रते रहते हैं, मयाि िा जैसे शब्ि को तो भल ू ही गये हों जैसे। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी जब-तब चमट्टी पलीि होती रहती है। ऐसे में एक िमिार नेतत्ृ व की सख़्त ज़ुरूरत है। इन पंचियों के चलखे जाने तक मोिी से बेहतर चवकल्प चिखाई पड़ नहीं रहा, अगर कोई और चवकल्प होता तो हम अवश्य ही उस चकरिार के बारे में बात करते। लेचकन हमें हरचगज़ इस मुगालते में नहीं रहना िाचहये चक चिरङ्चगयों के यहा​ाँ चगरवी रखे हु ये िे श का प्रधानमन्री बनना मोिी के चलये कोई बहु त बड़ी ख़ुशी का सबब होगा। बहरहाल, लोकतन्र के उज्जज्जवल भचवष्ट्य की मङ्गल-कामनाएाँ । हम िाहते हैं चक हमारे नौजवान खबू चिल लगा कर पढ़ें , अच्छे नम्बरों से पास हों और अच्छे काम-धन्धे से लगें। मगर हम करते क्या हैं? [1] खबू चिल लगा कर पढ़ें - िौबीस घण्टे उन के इि​ि -चगि​ि हम ने इतने सारे ढ़ोल बजवा रखे हैं चक चिल लगा कर तो ल्हें िी [खड्डे ] में गया, सामान्य रूप से पढ़ना भी िूभर है। [2] अच्छे नम्बरों से पास हों - इस चवपरीत वातावरण में भी कुछ बच्िे अप्रत्याचशत पररणाम ले आते हैं। मगर अिसोस CET में 99% परसेण्टाइल लाने के बावजिू उन्हें टॉप में पा​ाँिवी रे ङ्क वाला कॉलेज चमलता है। हाला​ाँचक उसी कॉलेज में उन के साथ 50 परसेण्टाइल वाले बच्िे भी पढ़ते हु ये चमल जाएाँ तो आश्चयि नहीं। क्या सोिते होंगे ये बच्िे - ऐसी चस्थचत में ? क्या हम उन्हें अराजक नहीं बना रहे ? [3] अच्छे काम-धन्धे से लगें - अच्छा काम-धन्धा!!!!!! कौन सा काम-धन्धा अच्छा रह गया है भाई??????????????????? इनडायरे क्टली हम अपने यथ ू को चनयाि त होने िे रहे हैं। क्या आप ने कभी अन्िाज़ा लगाया है चक हमारे नौजवानों की गाढ़ी मे हनत की कमाई का एक बड़ा चहस्सा गेजेट्स खाये जा रहे हैं। औसत नौजवान साल में कम से कम एक बार सेलफोन बिल लेता है। इस बिलाव पर आने वाला खि​ि अमम ू न 10000 होता है। टेब्स या उस जैसी नयी तकनीक को खरीिने पर भी अमम ू न िस हज़ार का ख़िाि पक्का समझें। इन टोटकों को पाले रखने के चलये िुकाया जाने वाला चकराया-भाड़ा भी अमम ू न िस हज़ार से कम क्या? इस नये शौक़ के साथ एक पर एक फ्री की तरह आने वाले लुभावने ख़िीले ओिसि भी महीने में 2-3 हज़ार याचन साल में 30-40 हज़ार उड़ा ही लेते हैं नौजवानों की पोकेट्स से। कुल चमला कर बहु त चज़यािा नहीं तो भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 50 हज़ार तो होम हो ही जाते होंगे। औसत नौजवान की एक साल की औसत कमाई [जी हा​ाँ कमाई - लोन, िम्पी या उठाईचगरी नहीं] शायि तीन लाख नहीं है। यचि यह आाँकड़े सही हैं तो बन्िा अपनी िो महीने की कमाई उड़ाये जा रहा है। बिायेगा क्या? नहीं बिायेगा तो आने वाले बुरे वक़्त से ख़ुि को कैसे बिायेगा? कभी-कभी लगता है चक एक सोिी-समझी रणनीचत के तहत इस पीढ़ी को खोखला चकया जा रहा है। ईश्वर करे चक मे रा यह सोिना ग़लत हो।

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चवद्वत्जन! अच्छे साचहत्य को अचधकतम लोगों तक पहु ाँ िाने के प्रयास के अन्तगि त साचहत्यम का अगला अङ्क आप के समक्ष है। उम्मीि है यह शैशव-प्रयास आप को पसन्ि आयेगा। चहन्िुस्तानी साचहत्य के गौरव - पचण्डत नरे न्र शमाि जी के गीत, सङ्गीतकार-शायर नौशाि अली, ब्रजभाषा के मध ू ि न्य कचव श्री गोचवंि कचव, कुछ ही साल पहले के चसद्ध-हस्त रिनाधमी गोपाल नेपाली जी, गोपाल प्रसाि व्यास जी के साथ तमाम नये-पुराने रिनाधचमि यों की रिनाएाँ इस अङ्क की शोभा बढ़ा रही हैं। इस अङ्क में आप को एक डबल रोल भी चमलेगा। भाई साचलम शुजा अन्सारी जी अब्बा-जान के नाम से भी शायरी करते हैं। अब्बा-जान एक बड़ा ही अनोखा चकरिार है। आप को इस चकरिार में अपने गली-मुहल्ले के बड़े -बुजुगों के िशि न होंगे। सब से सब की खरी-खरी कहने वाला चकरिार। ऐसा चकरिार चजस के मुाँह से सि सुन कर भी चकसी को बुरा न लगे, बचल्क अधरों पर हल्की मुस्कुराहट आ जाये। और भी बहु त कुछ है। पचढ़येगा, अन्य पररचित साचहत्य-रचसकों को भी जोचड़एगा और आप के बहु मल्ू य चविारों से अवश्य ही अवगत कराइयेगा। आप की राय चबना सङ्कोि के पोस्ट के नीि के कमे ण्ट बॉक्स में ही चलखने की कृपा करें । आपका अपना नवीन सी. ितुवेिी

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अनुक्रमाहिका किानी

फोन का चबल - मधु अरोड़ा

व्यिंगय

माइक्रो सटायर - आलोक पुराचणक अथ श्री गनेशाय नमः - शरि जोशी मैं िे श िलाना जानाँ ू रे - अचवनाश वािस्पचत रिना वही जो फॉलोवर मन भाये - कमलेश पाण्डे य

कहवता / नज़्म

चगररराज चहमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है - गोपाल प्रसाि नेपाली खन ू ी हस्ताक्षर - गोपाल प्रसाि व्यास वक्ष ृ की चनयचत - तारित्त चनचवि रोध तीन कचवताएाँ - आलम खुशीि अजीब मञ्ज़रे -चिलकश है मुल्क़ के अन्िर - अब्बा जान सारे चसकन्िर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं - गीत ितुवेिी आमन्रण - चजतेन्र जौहर िढ़ता-उतरता प्यार - मुकेश कुमार चसन्हा हम भले और हमारी पञ्िायतें भलीं - नवीन

िाइकु

हाइकु - सुशीला श्योराण

लघ-ु कर्ा

प्रसाि - प्राण शमाि

छन्द

अाँगुरीन लों पोर झुकें उझकें मनु खञ्जन मीन के जाले परे - गोचवन्ि कचव तेरा जलना और है मे रा जलना और - अन्सर क़म्बरी जहा​ाँ न सोिा था कभी, वहीं चिया चिल खोय - धमेन्र कुमार सज्जजन 3 छप्पय छन्ि - कुमार गौरव अजीतेन्िु हवा चिरचिरावै है ब्योम आग बरसावै - नवीन

गीत-नवगीत

ज्जयोचत कलश छलके - पचण्डत नरे न्र शमाि गङ्गा बहती हो क्याँ ू - पचण्डत नरे न्र शमाि आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेंगे - पचण्डत नरे न्र शमाि जय-जयचत भारत-भारती - पचण्डत नरे न्र शमाि हर चलया क्यों शैशव नािान - पचण्डत नरे न्र शमाि भरे जङ्गल के बीिोंबीि - पचण्डत नरे न्र शमाि मधु के चिन मे रे गये बीत - पचण्डत नरे न्र शमाि

ग़ज़ल

न मचन्िर में सनम होते न मचस्जि में ख़ुिा होता - नौशाि अली उस का ख़याल आते ही मञ्ज़र बिल गया - रऊि रज़ा

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िन्ि अशआर - िरहत अहसास तज िे ज़मीन, पङ्ख हटा, बािबान छोड़ - तुिैल ितुवेिी चसतारा एक भी बाकी बिा क्या - मयङ्क अवस्थी िोट पर उस ने चफर लगाई िोट - साचलम शुजा अन्सारी उिास करते हैं सब रङ्ग इस नगर के मुझे - िौज़ान अहमि जब सरू ज िद्दू नचिया​ाँ पी जाते हैं - नवीन मे रे मौला की इबाित के सबब पहु ाँिा है - नवीन आञ्चाहलक गजलें िो पञ्जाबी गजलें - चशव कुमार बटालवी गुजराती गजलें - सञ्जू वाला अन्य

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साचहत्यकार चरलोक चसंह ठकुरे ला को सम्मान समीक्षा - शाकुन्तलम - एक कालजयी कृचत का अन्श – पचण्डत सागर चरपाठी

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किानी फोन का हिल - मधु अरोड़ा शानू को आज तक समझ में नहीं आया चक फोन का चबल िे खकर कमल की पेशानी पर बल क्यों पड़ जाते हैं? सुबह-शाम कुछ नहीं िे खते। शानू के मड ू की परवाह नहीं। उन्हें बस अपनी बात कहने से मतलब है। शानू का मड ू खराब होता है तो होता रहे ।

एकतरफा तो नहीं होती न! चसि​ि अपनी बात कहकर तो फोन बन्ि नहीं चकया जा सकता। सामनेवाले की भी बात उतने ही ध्यान से सुनना होता है चजतने ध्यान से उस बन्िे ने सुनी है।‘ कमल ने कहा, ‘तुम्हारे कुल चमलाकर वही चगनेिुने वही िार िोस्त और सहे चलया​ाँ है। रोज़ उन्हीं लोगों से बात करके चिल नहीं भरता तुम्हारा?’

आज भी तो सुबह की ही बात है। शानू िाय ही बना रही थी चक कमल ने टेलीफोन का चबल शानू को चिखाते हु ए पछ ू ा, ‘शान!ू यह सब क्या है?’

शानू ने नाराज़गी ज़ाचहर करते हु ए कहा, ‘क्या मतलब? क्या रोज़ िोस्त बिले जाते हैं? अरे कमल भाई, िोस्त/ससहे ली तो िो-िार ही होते हैं।‘ कमल ने कहा, ‘तुम्हारी तो हर बात न्यारी है लेचकन मैं एक बात कह िे ता हाँ चक अगले महीने इतना चबल नहीं आना िाचहये।‘ कहकर कमल तेज़ ते ज किमों से अपने कमरे में िले गये।

शानू ने बालों में चक्लप लगाते हु ए कहा, ‘शायि टेलीफोन का चबल है। क्या हु आ?’ कमल ने झुाँझलाते हु ए कहा, ‘यह तो मुझे पता है और चिख भी रहा है, पर चकतने हज़ार रुपयों का है, सुनोगी तो चिन में तारे नज़र आने लगेंगे।‘

शानू सधी हु ई िाल से धीरे -धीरे कमल के कमरे में गई। कमल अपने ऑचफस के मोबाईल से चकसीसे बात कर रहे थे। शानू इन्तज़ार करती रही चक कब कमल मोबाईल पर बात करना बन्ि करें और वह अपनी बात कहे ।

शानू ने माहौल को हल्का बनाते हु ए कहा, ‘वाह! कमल, चकतना अजबू ा होगा न चक तारे तो रात को चिखाई िे ते हैं, चिन में चिखाई िें गे तो अपन तो चटकट लगा िें गे अपने घर में चिन में तारे चिखाने के।‘

शानू कभी खाली नहीं बैठ सकती और इन्तज़ार.... उसे चकसी सज़ा से कम नहीं लगता। सो वह वॉचशंग मशीन में कपड़े डालने का काम करने लगी।

कमल बोले, ‘मज़ाक छोड़ो, परू े पा​ाँि हज़ार का चबल आया है। फोन का इतना चबल हर महीने भरें गे तो िाके करने पड़ें गे एक चिन।‘ शानू ने कहा, ‘बात तो सही है तुम्हारी कमल, पर जब फोन करते हैं न तो समय हवा की तरह उड़ता िला जाता है। पता ही नहीं िलता चक चकतने चमनट बात की।‘ कमल ने कहा, ‘बात संचक्षप्त तो की जा सकती है।‘ उसने कहा, ‘कमल, फोन पर संचक्षप्त बात तक तो तुम ठीक हो, पर एक बात बताओ, बात

िस चमनट बाि कमल फोन से फाररग़ हु ए और शानू से बोले, ‘ कुछ काम है मुझसे? या खड़ीखड़ी मे री बातें सुन रही थीं।‘ शानू ने कहा, ‘यार, तुम्हारी बातें सुनने लायक होती हैं क्या? वही लेन-िे न की बातें या कहानी की बातें। िला​ाँ कहानी अच्छी है तो क्यों और अच्छी नहीं है तो क्यों।‘ इस पर कमल ने कहा, ‘बन्िर क्या जाने अिरख़ का स्वाि।‘ इस पर शानू ने कहा, ‘मैं तो यह कहने आई थी चक टेलीफोन का चबल तो मैं िे ती हाँ । तुम परे शान


क्यों हो रहे हो। चजतने का भी चबल आयेगा वह िे ना मे री चजम्मे िारी है और अभी तक तो मैं ही िे रही हाँ।‘ कमल ने कहा, ‘िे खो, मैं चजस पोजीशन का ऑचफसर हाँ , उसमें मे रे घर के फोन का चबल मे रा ऑचफस भरे गा, पर उसकी सीमा है। तो तुम उस सीमा तक ही बात करो फोन पर ताचक जेब से कुछ खि​ि न करना पड़े ।‘ शानू ने कहा, ‘यह तो कोई लॉचजक की बात नहीं हु ई। हर जगह पैसा क्यों आ जाता है बीि में ? कभी चिल के सुकून की भी बात चकया करो। चजन्िगी में पैसा ही सबकुछ नहीं है।‘ इस पर कमल बोले, ‘पैसे की कर करना सीखो। रे त की माचनन्ि कब हाथ से चफसल जायेगा, पता भी नहीं िलेगा।‘ रोज़-रोज़ फोन करके प्रेम और स्नेह ज्ज ािा नहीं हो जाता।‘ इस पर शानू ने कन्धे उिकाते हु ए कहा, ‘भई िे खो, मैं तो जब फोन करूाँगी जी भरकर बात करूाँगी। तुम्हारा ऑचफस चबल भरे या न भरे ।‘

कमल होठों ही होठों में कुछ बोलते हु ए आाँखें बन्ि कर लेते हैं। शानू हाँ सते हु ए कहती है, यार, हम िोनों कमाते हैं, अग़र आधा-आधा भी अमाउण्ट िें तो पा​ाँि हज़ार का चबल भर सकते हैं। तुम भी अपने िोस्तों से बात करो और मैं भी। क्यों मन को मारते हो?’ शानू ने बात को आगे बढ़ाते हु ए कहा, ‘िे खो, तुम तो चफर भी ऑचफचशयल टूर में अपने लोगों से, भाई बहनों से चमल आते हो। मे रा तो ऐसा भी कोई िक्कर नहीं है।’ कमल ने एक आाँख खोलते हु ए कहा, ‘तुम मुझे िाहे चकतना ही पटाने की कोचशश करो, मैं न तो पटनेवाला हाँ इस फोन के मामले में और न ही एक भी पैसा िे नेवाला हाँ। ये तुम्हारे फोन का चबल है, तुम जानो और तुम्हारा काम। मे रा काम ऑचफस के मोबाईल से हो जाता है।‘ शानू ने कहा, ‘मे रा ऑचफस तो चसि​ि एक हज़ार िे ता है, उससे क्या होगा? मैं तो इस पिड़े में पड़ती ही नहीं। चकसीकी मे हरबानी नहीं िाचहये। चफर फोन जैसी तुच्छ िीज़ के चलये तुमको क्यों पटाऊाँगी भला?’

कमल ने चिढ़कर कहा, ‘याने तुम्हारे सुधरने का कोई िान्स नही है?’ शानू ने कहा, ‘मैं चबगड़ी ही कब हाँ जो सुधरने का िान्स ढूाँढा जाये।मैंने कभी रोका है तुमको चकसीसे बात करने के चलये?

इस पर कमल ने पलटवार करते हु ए कहा, ‘तुम बहस बहु त करती हो। अपनी ग़लती मान लो तो कुछ चबगड़ जायेगा क्या?’

‘िे खो शान,ू मे रे ऑचफचशयल फोन होते हैं। उनमें ही मैं अपने चनजी फोन भी कर लेता हाँ। तुम्हारी तरह हमे शा फोन से चिपका नहीं रहता।‘ कमल ने उलाहनेभरे स्वर में कहा।

अब शानू भी चिढ़ गई और बोली, ‘फोन का वह चबल तुम्हारा ऑचफस िे गा, तुम नहीं। लेचकन चिन्ता नको, चिक-चिक भी नहीं। मैं अपने फोन का चबल, अपने नोटों से िे सकती हाँ ।‘

शानू ने अाँगड़ाई लेते हु ए कहा, ‘मुझे अपने िोस्तों से, भाई-बहनों से फोन पर बात करना अच्छा लगता है। िूर से भी चकतनी साि आवाज़ आती है। लगता है चक पास से ही फोन कर रहे हों। आई लव इट।‘

यह बात सुनते ही कमल ने अपनी खुली आाँख चफर से बन्ि कर ली। शानू तसल्ली से सेब काटने िली गई। अपनी बात कहकर वह हल्की हो गई थी। क्यों उन बातों को ढोया जाये जो ब्लडप्रेशर हाई करें ।

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शानू के ऑचफस के डॉक्टर भी शानू के इस नॉमि ल ब्लडप्रेशर पर आश्ियि करते हैं। एक चिन डॉक्टर ने कहा भी, ‘शानज ू ी, आप इतनी खुश कैसे रह लेती हैं। यहा​ाँ तो जो भी आता है उसे या तो हाईपर टेंशन होता है, शुगर, बढा हु आ वज़न।‘ शानू ने प्रश्नवािक आाँखों से डॉक्टर को िे खा तो डॉक्टर ने कहा, ‘मे रा मतलब है चक आप अभी तक चफट कैसे हैं? यहा​ाँ तक चक मैं डॉक्टर हाँ , मुझे हाई ब्लड प्रेशर है। रोज़ िवा लेता हाँ।‘ शानू ने हाँ सते हु ए कहा, ‘मे रा काम है टेन्शन िे ना। िे चखये, सीधी सी बात है, चजस बात पर मे रा वश नहीं होता, मैं सोिती ही नहीं। जो होना है वह तो होना ही है।‘ शानू ने अपने पहलू को बिलते हु ए कहा, ‘अब यचि मैं िाहाँ चक मे रे पचत फला​ाँ से बात न करें , पर यचि उनको करना है तो वे करें गे ही। िाहे चछपकर करें या सामने करें । तो क्यों अपना चिमाग़ खराब करना?’ डॉक्टर ने कहा, ‘कमाल है, आप चजन्िगी को इतने हल्के रूप में लेती हैं? यू आर ग्रेट।‘ शानू ने कहा, ‘और नहीं तो क्या? मैं क्यों चिल जलाऊाँ? मे रे चिल के जलने से सामने वाले को फक़ि पड़ना िाचहये।‘ डॉक्टर ने हाँसते हु ए कहा, काश, सब आप जैसा सोि पाते।‘ शानू ने भी हाँसते हु ए कहा, ‘सब स्वतन्र िे श के स्वतन्र लोग हैं। मैंने चकसीका कोई ठे का तो ले नहीं रखा।‘ डॉक्टर भी मे री बात सुनकर हाँसे और बोले, ‘एक हि तक आप ठीक कहती हैं। पचत पत्नी भी एकिूसरे के िौकीिार तो नहीं हैं न। यह ररश्ता तो आपसी समझिारी और चवश्वास का ररश्ता है।‘ इस पर शानू ने कहा, ‘यचि चकसी काम के चलये चिल गवाही िे ता है तो ज़रूर करना िाचहये साहित्यम

लेचकन एक िूसरे को भुलावे में नहीं रखना िाचहये।‘ डॉक्टर ने कहा, ‘आज आपसे बात करके बहु त अच्छा लगा। मुझे लगा ही नहीं चक मैं मरीज़ से बात कर रहा हाँ।‘ अरे शानू भी चकन बातों में खो गई। बड़ी ज़ल्िी अपने में खो जाती है। आज कमल बड़े अच्छे मड ू में हैं। ितरतर से आये हैं। शानू ने िाय बनाई और िोनों ने अपने-अपने प्याले हाथ में ले चलये। यह शानू का शािी के बाि से चनयम है चक वह और कमल सुबह और शाम की िाय घर में साथसाथ पीते हैं िाहे िोनों में झगड़ा हो, अनबोलािाली हो पर िाय साथ में चपयेंगे। कमल ने कहा, ‘ िे खो शान,ू एक काम करते हैं। मे रे ऑचफस के चलये मोबाईलवालों ने एक स्कीम चनकाली है उसके तहत पत्नी के चलये मोबाईल फ्री है।‘ यह सुनकर शानू के कान खड़े हो गये। वह बोली, यह मोबाईल कम्पनी का क्या नया फण्डा है?’ ‘पहले परू ी बात सुन लो। हा​ाँ, तो मैं कह रहा था चक मे रा तो पोस्टपेड है। तुम यह नया नम्बर ले लो, इसका जो भी चबल आयेगा, मैं िुका िाँूगा‘, कमल ने शानू का हाथ अपने हाथ में लेते हु ए कहा। अपनी बात पर प्रचतचक्रया न होते िे खकर आगे बोले, ‘लैण्डलाईन नम्बर कटवा िें गे। हम िोनों के पास मोबाईल है ही। बच्िों के साथ कॉन्फरे चन्संग सुचवधा ले लेंगे, चकफायत में सब काम हो जाया करे गा। फोन का चबल भी नहीं भरना पड़े गा।‘ पता नहीं, शानू भी चकस मड ू में थी, उसने हामी भर िी। कमल ने भी शानू को सेकेण्ड थॉट का मौका चिये चबना िूसरे ही चिन नया नम्बर लाकर िे चिया। अब कमल आश्वस्त हो गये थे चक शानू

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के फोनों का उनके पास चहसाब रहे गा, चबल जो उनके नाम आयेगा।

शानू के मोबाईल पर लगा रहता चक कब बजता है और शानू चकतनी िे र बात करती है।

शानू को सपने में भी ग़ुमान नहीं था चक उसके फोनों का चहसाब रखा जायेगा। वह मज़े से फोन करती रही। जब एक महीने बाि चबल आया तो अब कमल की बारी थी।

अब हालत यह हो गई थी चक मोबाईल के बजने पर शानू आक्रान्त हो जाती थी और कमल के कान सतकि। यचि वह कान में बाचलया​ाँ भी पहन रही होती तो चकसी न चकसी बहाने से कमल कमरे में आते और इधर-उधर कुछ ढूाँढ़ते और ऐसे िले जाते चक मानो उन्होंने कुछ िे खा ही नहीं।

कमल ने चफर एक बार फोन का चबल शानू के सामने रखते हु ए कहा, ‘िे खो शान,ू तुम्हारा चबल रुपये 2000/- का आया है। क्या तुम फोन कम नहीं कर सकतीं? मे रा ऑचफस मुझे मे रे फोन का चबल िे गा। तुम्हारा चबल तो मुझे िे ना है।‘ शानू को अिम्भा हु आ और उसने कहा, ‘लेचकन कमल, यह तुम्हारा ही प्रस्ताव था। उस समय फोन करने के पैसों की सीमा तुमने तय नहीं की थी। ऐसा नहीं िलेगा। पहले बता िे ते तो मैं नया नम्बर लेती ही नहीं।‘ शानू ने कमल को एक रास्ता सुझाते हु ए कहा, ‘मे रा पुराना नम्बर तो सबके पास है। एक काम करती हाँ , अपने पुराने नम्बर पर मैं फोन ररसीव करूाँगी और तुम्हारे चिये नम्बर से फोन कर चलया करूाँगी।‘ कमल ने अपनी खीझ को चछपाते हु ए कहा, िो नम्बरों की क्या ज़रूरत है? बात तो वही ढाक के तीन पातवाली रही न!’ शानू ने इस बात को आगे न बढ़ाते हु ए िुप रहना ही बेहतर समझा। अब शानू इस बात का ध्यान रखने लगी थी चक कमल के सामने फोन न चकया जाये। इस तरह अनजाने में शानू में चछपकर फोन करने की आित घर करती जा रही थी। अब वह फोन करते समय घड़ी िे खने लगी थी। वह समझ नहीं पा रही थी चक इस फोन के मुद्दे को कैसे हल चकया जाये। कमल का ध्यान अक्सर साहित्यम

शानू को आश्ियि होता चक कमल को यह क्या होता जा रहा है? उनकी आाँखों में वह शक के डोरे िे खने लगी थी। शानू सोिती चक जो ख़ुि को शानू का िोस्त होने का िावा करता था लेचकन अब वह धीरे -धीरे चटचपकल पचत के रूप में तब्िील होता जा रहा था। मोबाईल जी का जञ्जाल बनता जा रहा था। शानू को इस िहू े -चबल्ली के खेल में न तो मज़ा आ रहा था और न ही उसकी इस तरह के व्यथि के कामों में कोई चिलिस्पी थी। शानू शुरू से ही मस्त तचबयत की लड़की रही है। अपने जोक पर वह ख़ुि ही हाँ स लेती है। सामनेवाला हैरान होता है चक चजसे जोक सुनाया गया वह तो हाँसा ही नहीं। अब इसमें शानू को क्या िोष? अग़र सामनेवाले को जोक समझ ही नहीं आया। उसकी ट्यबू लाइट नहीं िमकी तो वह क्या करे । तो इस मस्त तचबयत की शानू इस मोबाईल को लेकर क्यों मुसीबत मोल ले? कोई उसकी हाँ सी क्योंकर छीने जो उसे अपने मायके से चवरासत में चमली है। वह अपने मायके में बड़ी है। वह हमे शा चडसीज़न मे कर रही है, क्या वह अपने मोबाईल के चवषय में चडसीज़न नहीं ले सकती? िूसरे महीने कमल ने चफर शानू को मोबाईल का चबल चिखाया। यह चबल रुपये 1500/- का था। कमल ने कहा, ‘िे खो शान,ू इस महीने 500 रुपये

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तो कम हु ए। ऐसे ही धीरे -धीरे और कम करो। ज्ज ािा से ज्ज ािा रुपये 600/- का चबल आना िाचहये।‘ अब शानू की बारी थी। वह बोली, ‘िे खो कमल, हम िोनों वचकिंग हैं। हमारी ज़रूरतें अलगअलग हैं और होनी भी िाचहये। मे री हर ज़रूरत तुम्हारी ज़रूरत से बाँधे, यह कोई ज़रूरी नहीं है। हम लाईफ पाटि नर हैं, माचलक-सेवक नहीं।‘ कमल ने िश्मा लगाते हु ए कहा, ‘मैंने ऐसा कब कहा? मैं तो चकफायत की बात कर रहा हाँ।‘ शानू ने कहा, ‘यार, चकतनी चकिायत करोगे? चकसीके बोलने-िालने पर बचन्िश लगाने का क्या तुक है?’ ...और चफर मैं तो फोन का चबल िे रही थी। कभी चकसीको रोका नहीं फोन करने से। पढ़नेवाले बच्िे हैं, वे भी फोन करते हैं। मुझे तो तुम्हारे ऑचफस से चमलनेवाले मोबाईल की तमन्ना भी नहीं थी। तुम्हारा प्रस्ताव था।‘ कमल ने चबना चकसी प्रचतचक्रया के अपने चिरपररचित ठण्डे स्वर में कहा, ‘तुम इतनी उत्तेचजत क्यों हो जाती हो? ठण्डे चिल से मे री बात पर सोिो, चबना वज़ह फोन करना छोड़ िो।‘ यह सुनकर शानू को अच्छा नहीं लगा और बोल पड़ी, ‘हमे शा वजह से ही फोन चकये जायें, यह ज़रूरी तो नहीं।‘ कमल ने कहा, ‘यही तो चिक्कत है। सब अपने में मस्त हैं। उल्टे तुम उनको चडस्टबि करती हो।‘ शानू ने कुछ कहना िाहा तो कमल ने हाथ के इशारे से रोकते हु ए कहा, ‘कई बार लोग नहीं िाहते चक उन्हें बेवज़ह फोन चकया जाये। उनकी नज़रों में तुम्हारी इज्जज़त कम हो सकती है।‘ शानू ने गुस्से से कहा, ‘ बात को ग़लत चिशा में मत मोड़ो, बात मोबाईल के चबल के भुगतान की हो रही है। मे रे िोस्तों में मुझ जैसा साहस है। यचि साहित्यम

वे चडस्टबि होते हैं तो यह बात वे मुझसे बेखटके कह सकते हैं। उनके मुाँह में पानी नहीं भरा है।‘ कमल ने पलटवार करते हु ए कहा, ‘चकसकी कज़ा आई है जो तुमसे यह बात कहे गा। तुम्हें चकसी तरह झेल लेते हैं। तुम्हें चवश्वास न हो तो आजमाकर िे खो, एक हतरते चकसीको फोन मत करो, कोई तुम्हारा हाल नहीं पछ ू े गा। तुम तो मान न मान मैं तेरा मे हमान वाली बात करती हो।‘ शानू ने कहा, ‘कमल, तुम मुझे मे रे िोस्तों के चखलाि नहीं कर सकते। मुझ पर इन बातों का कोई असर नहीं होता। मे रे िोस्तों से बात करने की समय सीमा तुम क्योंकर तय करो?’ कमल ने चिढ़ते हु ए कहा, ’कभी मे रे ररश्तेिारों से भी बात की है?’ इस पर शानू ने तपाक से कहा, ‘कब नहीं करती, ज़रा बताओगे? वहा​ाँ भी तुमको एतराज़ होता है चक फला​ाँ से बात क्यों नहीं की।‘ इस पर कमल हाँह करके िुप हो गये। शानू अपनी रौ में बोलती गई, ‘कमल, मुझे अपने िोस्त और सहे चलया​ाँ बहु त चप्रय हैं। वे मे रे आड़े वक्त मे रे साथ खड़े होते रहे हैं। मे री िुचनया में नाते ररश्तेिारी के अलावा भी लोग शाचमल हैं और वे मे रे चिल के करीब हैं। उनके और मे रे बीि िूरी लाने की कोचशश मत करो।‘ शानू ने कमल के कान के पास जाकर सरग़ोशी की, ‘तुम्हीं बताओ, क्या तुम मे रे कहने से अपने िोस्तों को फोन करना छोड़ सकते हो? नहीं न? चफर सारे ग़लत सही प्रयोग मुझ पर ही क्यों?’ कमल ने कहा, ‘तुमने कभी सोिा है चक तुम्हारी चमरता को लोग ग़लत रूप में भी ले सकते हैं? कम से कम कुछ तो ख़याल करो।‘ अब तो शानू का पारा सातवें आसमान पर था, बोली, ‘मैंने कभी चकसीकी चमरता पर कमे ण्ट चकया है? कुछ िोस्त तो खुलेआम िूसरे की बीचवयों के साथ चफल्म िे खते हैं, घम ू ते हैं, उन्हें

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कोई कुछ नहीं कहता? मे रे फोन करने मार पर इतना बखेड़ा?’ कमल हैरान थे शानू की इस मुखरता पर। वह बोलती रही, ‘मैं अपने चमरों के साथ न तो घम ू ती हाँ और न उनसे चकसी तरह का फायिा उठाती हाँ, इस बात को कान खोलकर सुन लो। मे रे जो भी चमर हैं, वे पाररवाररक हैं।‘ कमल ने कुछ कहने की कोचशश की तो शानू ने उसे अनसुना करते हु ए कहा,’और तुम उनसे बेखटके बात करते हो जबचक अपने िोस्तों के साथ तुम िाहो तभी बात कर सकती हाँ। कैसे मे री बात बीि में काटकर बात की चिशा बिल िेते हो, कभी ग़ौर चकया है इस बात पर? कमल ने मानो हचथयार डालते हु ए कहा, ‘मे री एक बात तो सुनो।‘ शानू ने कहा, ‘नहीं, आज तुम मे री बात सुनो। तो हा​ाँ, मैं कह रही थी चक मे रे चिल पर क्या गुजरती होगी जब सबके सामने तुम ऐसा करते हो। मैंने कभी कुछ कहा तुमसे?’ ....िूसरी बात, मुझे पररवार की मयाि िा का परू ा खयाल है। मुझे क्या करना है, चकतना करना है, कब करना है, मुझे पता है और मैं अपने चमरों का ररप्लेसमें ट नहीं ढूाँढती और चफर कई चमर तो मे रे और तुम्हारे कॉमन चमर हैं। ‘ कमल को इस बात का अहसास नहीं था चक बात इतनी बढ़ जायेगी। उन्होंने शानू का यह रौर रूप कभी नहीं िे खा था। वह अपने चमरों के प्रचत इतनी सम्वेिनशील है, उन्होंने सोिा भी नहीं था। कमल का मानना है चक चजन्िगी में चमर बिलते रहते हैं। इससे नई सोि चमलती है। उन्होंने बात साँभालते हु ए कहा, ‘िे खो शानू चडयर, यह मे रा मतलब कतई नहीं था। चमरों का िायरा बढ़ाना िाचहये। मैं फोन करने के चलये इन्कार नहीं करता पर हर िीज़ चलचमट में अच्छी लगती है।‘ साहित्यम

शानू ख़ुि को बहु त अपमाचनत महसस ू कर रही थी। उसने तुनककर कहा, ‘चमरों का िायरा बढ़ाना िाचहये, यह मुझे पता है पर पुराने िोस्तों की िोस्ती की जड़ों में छाछ नहीं डालना िाचहये। मैं अपनी िोस्ती में िाणक्य की राजनीचत नहीं खेल सकती। जो ऐसा करते हैं, वे चजन्िगी में अकेले रह जाते हैं।‘ कमल ने कहा, ‘बात फोन के चबल के पेमेण्ट की हो रही थी। तुम भी बात को कहा​ाँ से कहा​ाँ ले गईं। तुम इतना गुस्सा हो सकती हो, मुझे पता नहीं था। समय पर मैं ही काम आऊाँगा।‘ शानू को लगा चक मानो उसे िेतावनी िी जा रही है। वह कमल के इस व्यवहार पर हैरान थी। कोई इन्सान इतना कक्यि ल ू ेचटव कैसे हो सकता है? क्या पैसा इतना महत्वपण ू ि है चक उसके सामने सबकुछ नगण्य है? आज शानू की सोि जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। क्या िोस्ती जैसे पाक़-साफ ररश्ते में बचनयों जैसा गुणा-भाग करना उचित है? पुरुष मचहला से िोस्ती चनभा सकता है, पर मचहला को पुरुष चमरों से चमरता चनभाने के चलये चकतने पापड़ बे लने पड़ते हैं? कमल की तो इतनी मचहला चमर हैं, शानू ने हमे शा सबका आिर चकया है, घर बुलाया है। जो शामें शानू घम ू ने के चलये रखती है वे शामें उसने कमल के चमरों के चलये चडनर बनाने में चबता िी हैं। क्या कभी कमल ने इसे महसस ू करने की ज़रूरत महसस ू की है चक शानू की अपनी भी चजन्िगी है, उसे भी अपनी चजन्िगी जीने का परू ा अचधकार है। अगर कमल अपने िोस्तों के साथ खुश रहते हैं, शानू से उनके चलये मे हनत से चडनर बनवाते हैं तो चफर शानू के चमरों को कमल सहज रूप से

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क्यों नहीं ले पाते ? क्या हर पुरुष पत्नी के मामले में ऐसा ही होता है? शानू बड़ी असहज हो रही थी। उसका वश िलता तो उस चनगोड़े मोबाईल को चखड़की से बाहर फेंककर िरू -िरू कर डालती, पर इसमें कमल का चिया नम्बर है। शानू ने ख़ुि को संयत चकया। उसे कोई तो चनणि य लेना था। वह ग़लत बात के सामने हार माननेवाली स्री नहीं थी। उसे याि है चक इसी सि बोलने की आित के िलते उसे अपने कॉलेज का िेस्ट-स्टूडेणटे ट के पिक से हाथ धोना पड़ा था। यह िीगर बात थी चक उस पिक को पानेवाली लड़की एक सप्ताह बाि अपने प्रेमी के साथ भाग गई थी और कॉलेज की प्रािायाि पछताने के अलावा कुछ नहीं कर पाई थीं। अगले चिन शाम को कमल ऑचफस से आये और बोले, ‘शान,ू मैंने तुम्हारे मोबाईल का चबल भर चिया है पर प्लीज़, इस महीने ज़रा ध्यान रखना।‘ शानू ने कुछ नहीं कहा। उसने तय कर चलया था चक उसे मोबाईल प्रकरण में चनणि य लेना है, कोई बहस नहीं करना है और इस चवषय में बात करने के चलये रचववार सवोत्तम चिन है1

पोस्टपेड की आित नहीं है और चफर इसमें अन्िाज़ा नहीं रहता और चबल ज्ज ािा हो जाता है। मुझे प्रीपेड ज्ज ािा सटू करता है। उसमें मुझे पता रहता है चक चकतना खि​ि हो गया है और मैं अपनी जेब के अनुसार खि​ि कर पाती हाँ।‘ शानू ने अप्रत्यक्ष रूप से अपने फोन का चहसाब रखने का अचधकार कमल को िे ने से इन्कार कर चिया था। शानू ने मोबाईल से चसम काडि चनकाला और कमल को थमा चिया। उसने अपना पुरानावाला चसम काडि मोबाईल में डाला। बहु त चिनों बाि शानू ने ख़ुि को शीशे में िे खा। इस मोबाईल ने उसके िेहरे को चनस्तेज कर चिया था। आाँखों के नीिे काले घेरे बन गये थे। कपड़े भी कैसे पहनने लगी थी वह। उसने ख़ुि को चफर से मस्त तचबयत की और हरिनमौला बनाने का चनणि य चलया और इसके साथ ही उसके होठों पर जो बाल-सुलभ मुस्कान आई वह स्वयं ही उस पर बचलहारी हो रही थी। मधु अरोड़ा , मुम्बई 9833959216

रचववार को सुबह के नाश्ते के बाि शानू ने कहा, ‘कमल, एक काम करो। तुम अपना यह नम्बर वाचपस ले लो। मैं इस नम्बर के साथ ख़ुि को सहज महसस ू नहीं कर रही।‘ कमल ने कहा, ‘क्या प्रॉब्लम है? मैंने चबल भर चिया है।‘ कमल को शानू की यह आित पता है चक सामान्य तौर पर वह चकसी भी बात को चिल से नहीं लगाती है। वह ‘रात गई, बात गई’ वाली कहावत में चवश्वास रखती है। तो अब अिानक क्या हो गया? शानू ने कहा, ‘बात चबल भरने की नहीं है। मुझे साहित्यम

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व्यिंग्य माइक्रो सटायर पीएम मनमोहन चसंह ने िावा चकया है चक एक हजार बार से ज्जयािा वह चपछले िस सालों में बोले हैं। उनके बोलने की ररकाचडिं ग्स िेक की गयी हैं- 1100 बार वह कुल बोले। 1000 बार तो वह यह बोल पाये-ओये कोई तो मे री गल्ल सुण लो , ओय। बाकी 100 बार वह बोले-ओय मे री बात समझ नीं आयी, कोई गल्ल नी, राहु लजी से पुछ्छ लेणा। *** गङ्गा साफ करने की पररयोजनाओं में खरबों खाये गये। जमुना साफ करने की पररयोजनाओं में अरबों खाये गये। कुछ-कुछ समझ में आता है चक गङ्गा-जमुनी कल्िर तमाम पाचलचटकल पाचटि यों को बहु त ै चप्रय क्यों है। *** प्रधानमन्री पि के उम्मीिवार नरें र मोिी का चवरोध करनेवालों को लोकसभा िुनाव के बाि पाचकस्तान जाना पड़े गा, इस बयान से राबटि वाड्रा भी िहशत में आये, क्योचक वाड्रा के पवू ि ज पाचकस्तान स्यालकोट से आये थे। राहु ल गा​ाँधी ने समझाया -जीजाजी ऐसा नहीं, चजसकी पास थोड़ी सी जमीन भी है इचण्डया में उसे इचण्डयन माना जायेगा। राबटि वाड्रा के िेहरे पर मुस्कान लौट आयी हैजमीन तो जहा​ाँ कहोगे, वहा​ाँ चिखा िाँूगाकन्याकुमारी के समन्िर से लेकर एवरे स्ट तक की रचजस्री अपने नाम है, द्वाररका गुजरात समन्िर की रचजस्री से लेकर परू े अरुणािल की जमीन अपने कब्जे में चिखा सकता हाँ ।

साहित्यम

राहु ल ने समझाया-ना थोड़ी जमीन ही बताना। अरुणािल की जमीन तुम्हारे पास है, यह बात िीन को अगर पता लग गयी, तो वह भारत सरकार से नहीं तुमसे ही बात करने लगेगा, जमीन चववाि सुलझाने को। *** एक िुटकी चसन्िूर की कीमत तुम क्या जानो, रमे श बाब।ू जानता हाँ , बहु त सही तरह से जानता हाँ , कोई एक िुटकी चसन्िूर भरकर अब तक 350 करोड़ रुपये कमा िुका है। और चपक्िर अभी बाकी है िोस्त। राजेश खन्ना का जमाना गया, अब राबटि वाड्रा का आ गया। *** राबटि वाड्रा के घर में धन की िे वी लक्ष्मीजी को मा​ाँ के तौर पर नहीं पज ू ा जाता। लक्ष्मीजी को सास-ू मा​ाँ के तौर पर पज ू ा जाता है। *** चिचग्वजय चसंह ने पछ ू ा - बताओ, बताओ, राबटि वाड्रा ने कौन सा कानन ू तोड़ा। राबटि वाड्रा सुनकर हाँस रहे हैंनानसेन्स, मैं खुि कानन ू हाँ , मुझे कौन तोड़े गा। *** कचपल चसब्बल ने आरोप लगाया चक सीबीआई ने गुजरात फजी एनकाउण्टर में मोिी को ढ़ं ग से घेरे में नहीं चलया। लो, िस साल सरकार काङ्ग्रेस की रही, सीबीआई से जरा सा काम ना करवा पाये।

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राहु ल गा​ाँधी ने चसब्बल को डा​ाँटा- ऐसी ही बातों से तो यह आरोप पक्का होता है चक काङ्ग्रेस सरकार िस सालों में कतई चनकम्मी रही।

पर कल सात बार कही। िालीस बार मोिी का नाम उधर से, सात बार मोिी का नाम इधर से। मोिी की हवा असल में बना कौन रहा है बे।

*** अचखलेश यािव ने कहा चक िालू हैं भाजपा के लोग, समाजवािी पाटी के लोग िालू नहीं हैं। यह सुनकर अमर चसंह ने कहा है- मे री याि, मे री कमी इतने चिनों बाि महसस ू की। िलो ठीक है, पर अब मैं समाजवािी पाटी के चलए कुछ ना करूाँगा, हारूाँगा भी नही। इस स्वाथी िुचनया में चकसी के चलए हारने से बेहतर है चक मैं खुि अपने चलए हारूाँ। *** लालू यािव के इस बयान पर चक चनतीश कुमार को उन्होने ही पैिा चकया है, नारायण ित्त चतवारी ने जोरिार बधाई िी है, लालज ू ी को यह कहते हु ए चक अकेले हम ही नहीं हैं, जो बुढ़ापे में बाप बन रहे हैं।

*** िुनाव के आगे बढ़ने पर काङ्ग्रेस ने नरें र मोिी के चखलाफ मनमोहन चसंह को उतारने की सोिी है। नरे न्र मोिी के नमो फोन के मुकाबले ममो फोन उतारने का प्लान हु आ। इञ्जीचनयरों ने फोन चडजाइन भी कर चलया है, बस एक प्राबलम नहीं चनपट पा रही है। ममो फोन नामि ल तरीके से काम नहीं करता, इसमें साइलेण्ट मोड एचक्टव करो, तब ही फोन पर बात सम्भव हो पाती है। साइलेण्ट मोड पर ही एचक्टव, ये बात हर कस्टमर को समझाने में तो कई साल लग जायेंगे। क्या चकया जाये, इस सवाल के जवाब में मनमोहन चसंह साइलेण्ट मोड में िले गये हैं।

*** लालू यािव के इस बयान पर चक चनतीश कुमार को उन्होने पैिा चकया, सबसे ज्जयािा चवरोध उनके आठ बच्िों ने जताया है, यह कहते हु ए चक पापा आठ बच्िों का ताना झेल-झेलकर ही पक गये, अब एक और जोड़ चलये हैं। राबड़ी िे वी ने अलग डा​ाँटा है-लालज ू ी कईसा बात करते हैं ऊ चनतीशवा हमको मम्मी कहे गा, तो हमको कईसा फील होगा।

आलोक पुराचणक 9810018799

*** मोिी की हवा नहीं िल रही है, यह बात तमाम न्यज ू िैनलों पर तरह-तरह के चवद्वानों ने चिन भर में करीब 40 बार कही। मोिी की हवा िल रही है, यह बात बीजेपी के प्रविाओं ने न्यज ू िैनलों साहित्यम

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अर् श्री गिेशाय नमः – शरद जोशी

हैं, चलखते हैं, अब चनरन्तर बैठे चलखते रहने से शरीर में भरीपन तो आ ही जाता है।

अथ श्री गणेशाय नम:, बात गणेश जी से शुरू की जाए, वह धीरे -धीरे िहू े तक पहु ाँ ि जाएगी। या िहू े से आरम्भ करें और वह श्री गणेश तक पहु ाँिे। या पढ़ने-चलखने की ि​िाि की जाए। श्री गणेश ज्ञान और बुचद्ध के िे वता हैं। इस कारण सिैव अल्पमत में रहते होंगे, पर हैं तो िे वता। सबसे पहले वे ही पज ू े जाते हैं। आचख़र में वे ही पानी में उतारे जाते हैं। पढ़ने-चलखने की ि​िाि को छोड़ आप श्री गणेश की कथा पर आ सकते हैं।

िहू े को साचहत्य से क्या करना। उसे िाचहए अनाज के िाने। कुतरे , खुश रहे । सामान्य जन की आवश्यकता उसकी आवश्यकता है। खाने, पेट भरने को हर गणेश-भि को िाचहए। भख ू े भजन न होई गणेशा। या जो भी हो। साचहत्य से पैसा कमाने का घनघोर चवरोध वे ही करते हैं, चजनकी लेक्िररचशप पक्की हो गई और वेतन नए बढ़े हु ए ग्रेड़ में चमल रहा है। जो अिसर हैं, चजन्हें पेंशन की सुचवधा है, वे साचहत्य में क्राचन्त-क्राचन्त की उछाल भरते रहते हैं। िहू ा असल गणेश-भि है।

चवषय क्या है, िहू ा या श्री गणेश? भई, इस िे श में कुल चमलाकर चवषय एक ही होता है - ग़रीबी। सारे चवषय उसी से जन्म लेते हैं। कचवता कर लो या उपन्यास, बात वही होगी। ग़रीबी हटाने की बात करने वाले बातें कहते रहे , पर यह न सोिा चक ग़रीबी हट गई, तो लेखक चलखेंगे चकस चवषय पर? उन्हें लगा, ये साचहत्य वाले लोग 'ग़रीबी हटाओ' के चख़लाि हैं। तो इस पर उतर आए चक िलो साचहत्य हटाओ। वह नहीं हट सकता। श्री गणेश से िालू हु आ है। वे ही उसके आचि िे वता हैं। 'ऋचद्ध-चसचद्ध' आसपास रहती हैं, बीि में लेखन का काम िलता है। िहू ा पैरों के पास बैठा रहता है। रिना ख़राब हु ई चक गणेश जी महाराज उसे िहू े को िे िे ते हैं। ले भई, कुतर खा। पर ऐसा प्राय: नहीं होता। 'चनज कचवत्त' के फीका न लगने का चनयम गणेश जी पर भी उतना ही लाग ू होता है। िहू ा परे शान रहता है। महाराज, कुछ खाने को िीचजए। गणेश जी साँड ू पर हाथ फेर गंभीरता से कहते हैं, लेखक के पररवार के सिस्य हो,खाने-पीने की बात मत चकया करो। भख ू े रहना सीखो। बड़ा ऊाँिा मज़ाकबोध है श्री गणेश जी का (अच्छे लेखकों में रहता है) िहू ा सुन मुस्कुराता है। जानता है, गणेश जी डायचटंग पर भरोसा नहीं करते , तबीयत से खाते साहित्यम

राष्ट्रीय दृचिकोण से सोचिए। पता है आपको, िहू ों के कारण िे श का चकतना अनाज बरबाि होता है। िहू ा शरु है। िे श के गोिामों में घुसा िोर है। हमारे उत्पािन का एक बड़ा प्रचतशत िहू ों के पेट में िला जाता है। िहू े से अनाज की रक्षा हमारी राष्ट्रीय समस्या है। कभी चविार चकया अपने इस पर? बड़े गणेश-भि बनते हैं। चविार चकया। यों ही गणेश-भि नहीं बन गए। समस्या पर चविार करना हमारा पुराना मज़ि है। हा-हा-हा, ज़रा सुचनए। आपको पता है, िाने-िाने पर खाने वाले का नाम चलखा रहता है। यह बात चसि​ि अनार और पपीते को लेकर ही सही नहीं है, अनाज के छोटे-छोटे िाने को लेकर भी सही है। हर िाने पर नाम चलखा रहता है खाने वाले का। कुछ िे र पहले जो परा​ाँठा मैंने अिार से लगाकर खाया था, उस पर जगहजगह शरि जोशी चलखा हु आ था। छोटा-मोटा काम नहीं है, इतने िानों पर नाम चलखना। यह काम कौन कर सकता है?गणेश जी, और कौन? वे ही चलख सकते हैं। और चकसी के बस का नहीं है यह काम। पररश्रम, लगन और न्याय की ज़रूरत होती है। साचहत्य वालों को यह काम

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सौंप िो,िाने-िाने पर नाम चलखने का। बस, अपने यार-िोस्तों के नाम चलखेंगे, बाकी को छोड़ िें गे भख ू ा मरने को। उनके नाम ही नहीं चलखेंगे िानों पर। जैसे िानों पर नाम नहीं, साचहत्य का इचतहास चलखना हो, या चपछले िशक के लेखन का आकलन करना हो चक चजससे असहमत थे, उसका नाम भल ू गए। दृश्य यों होता है। गणेश जी बैठे हैं ऊपर। तेज़ी से िानों पर नाम चलखने में लगे हैं। अचधष्ठाता होने के कारण उन्हें पता है, कहा​ाँ क्या उत्पन्न होगा। उनका काम है, िानों पर नाम चलखना ताचक चजसका जो िाना हो, वह उस शख़्स को चमल जाए। काम जारी है। िहू ा नीिे बैठा है। बीि-बीि में गुहार लगाता है, हमारा भी ध्यान रखना प्रभु,ऐसा न हो चक िहू ों को भल ू जाओ। इस पर गणेश जी मन ही मन मुस्कराते हैं। उनके िा​ाँत चिखाने के और हैं, मुस्कराने के और। चफर कुछ िानों पर नाम चलखना छोड़ िे ते हैं, भल ू जाते हैं। वे िाने चजन पर चकसी का नाम नहीं चलखा, सब िहू े के। िहू ा गोिामों में घुसता है। चजन िानों पर नाम नहीं होते , उन्हें कुतर कर खाता रहता है। गणेशमचहमा।

न्याय स्थाचपत कीचजए, िोनों का ठीक-ठाक पेट भर बाँटवारा कीचजए। नाम चलखने की भी ज़रूरत नहीं। गणेश जी कब तक बैठे-बैठे चलखते रहें गे? प्रश्न यह है, तब िहू ों का क्या होगा? वे जो हर व्यवसाय में अपने प्रचतशत कुतरते रहते हैं, उनका क्या होगा? वही हु आ ना! बात श्री गणेश से शुरू कीचजए तो धीरे -धीरे िहू े तक पहु ाँ ि जाती है। क्या कीचजएगा?

एक चिन िहू ा कहने लगा, गणेश जी महाराज! िाने-िाने पर मानव का नाम चलखने का कि तो आप कर ही रहे हैं। थोड़ी कृपा और करो। नेक घर का पता और डाल िो नाम के साथ, तो बेिारों को इतनी परे शानी नहीं उठानी पड़े गी। मारे -मारे चफरते हैं,अपना नाम चलखा िाना तलाशते। भोपाल से बंबई और चिल्ली तलक। घर का पता चलखा होगा, तो िाना घर पहु ाँि जाएगा, ऐसे जगह-जगह तो नहीं भटकेंगे। अपने जाने िहू ा बड़ी समाजवािी बात कह रहा था, पर घुड़क चिया गणेशजी ने। िुप रहो, ज़्यािा िाँ-ू िाँ ू मत करो। नाम चलख-चलख श्री गणेश यों ही थके रहते हैं, ऊपर से पता भी चलखने बैठो। िहू े का क्या, लगाई जुबान ताल से और कह चिया। साहित्यम

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मैं देश चलना जानू​ूँ रे – अहवनाश वाचस्पहत अगर िे श का प्रधानमन्री चकसी िाय बनाने वाले को बनाने के चलए िुनोगे तो इतना गड़बड़झाला तो वह करे गा चक िाय मा​ाँगने पर वह बकाया राचश की जगह टाफी थमाने की जुरित कर बैठेगा। िाय के ढाबे पर जो टाइम पास करने के चलए आया है चक जब तक िे श के मुचखया का पि न हचथया ले, तब तक िाय का धन्धा करना नहीं छोड़े गा। िाय बे िने के धन्धे का बखान तो याँ ू कर रहा है, मानो एक लम्बा वाला तीर मार चलया हो जो सीधा पड़ोसी िे श को पीड़ा िे रहा हो। चजसे राफी िाचहए उसे िाय वाला टाफी थमा िे ता है। िाहे वह िाय बना बनाकर िूध में खबू सारा पानी चमला कर बेिना िाय धचन्धयों का पसन्िीिा शगल रहा है,उसी के बल पर उनका चबजनेस परवान िढ़ा है। वोटरों को सपने गाय या भैंस और उससे चमलने वाले शुद्ध िूध के चिखला रहा है। नजर उसकी वोटर पर चटकी है। वह जानता है चक सावधानी हटते ही िुघिटना घटती है इसचलए वह पीएम पि पर से अपनी मासम ू चनगाहें नहीं हटा रहा है। चजस राजनैचतक िल में घुसकर उसने पीएम बनने के सपने िे खे हैं उस िल ने उसके चिरों को लोकचप्रयता की ऐसी िरमसीमा पर पहु ाँ िा चिया चक रम का नशा भी उसके सामने फीका है। लगभग सभी अखबारों के उन पन्नों पर भी उसके बड़े बड़े फोटू छाप चिए हैं चक वह अब हकीकत पर ठहर नहीं सकता। लगता है चक वह जानता है चक चजस पीएम पि पर आने का उसने जुगाड़ चकया है, वहा​ाँ पर पीएम बनने के बाि भी थोक में फोटू छपने के इतने मौके नहीं हैं। चफर तो उसके चिर कहीं उद्घाटन करते हु ए, अध्यक्षता करते हु ए ही न्यज ू के साथ ही अन्िरूनी पन्नों पर बामुचश्कल जगह पाते हैं। भैंस अभी पानी से बाहर है और उसका रायता फै लाने की कोचशशें नाकाम हो रही हैं। साहित्यम

उसकी अन्िरुनी चमलीभगत िे श के बड़े बड़े पाँज ू ीपचतयों के साथ है, पीएम चिखाई वही िे ता है पर इसे गाइड पाँज ू ीपचत करते हैं। उनके हाथों में खेलकर भी पीएम वही कहलाएगा, जबचक मनमानी पाँज ू ीपचतयों की िल रही होगी। चवकास पाँज ू ीपचतयों का और चवनाश वोटरों का। िौधररयों से सब पररचित हैं। सरकार ऐसे ही िालेगी, जैसे वह िाहें गे। चजस प्रकार िाय की िुकान के चलए चठए का जुगाड़ लगाने के बाि उसे इधर उधर नहीं चकया जा सकता उसी प्रकार पीएम बनने के बाि वह तुरन्त अगर प्रेसीडें ट बनना िाहे गा तो नहीं बन पाएगा। पीएम के पि पर जीत के साथ इस प्रकार के हार साथ में चमलते हैं। यह जीत की हार होती है। हार की जीत शीषि क बनने के चलए फूलों अथवा नोटों के सुगचन्धत हार िाचहए चजनमें से जय-चवजय पाने की तरङ्गें उठती चिखाई िे रही हों। अब तरङ्गें तो उठ रही हों िाय बनाने की और िाय बनने के बाि भी टाफी िी जा रही हो, चिल को बच्िा बतलाकर िाय, टाफी िे िी जाए और वह राफी लेने आया हो। तब ऐसे सपनों का भी कोई अथि नहीं रह जाता। इस िे श में िाय बेिकर पेट पालने वाले ऐसी गलचतया​ाँ करते हैं और ऐसी गलचतयों पर इनसान का नहीं, िाय का धन्धा करने वालों का हक बनता है। वह िाय की िुकान को या तो जस ू की िुकान में बिलकर िारू बेिने का व्यवसाय शुरू कर लेते हैं और अचधक िुस्साहसी हु ए तो िाय की िुकान पर ही िारू बेिना शुरू कर िे ते हैं। क्या अब भी आप िाहें गे चक चकसी िाय बेिने वाले को िे श के पीएम पि की कुसी सौंप िी जाए। जहा​ाँ तक मे रा मानना है इस िे श में पीएम पि के चलए काचबल आज के लेखक या व्यंग्यकार तो हैं पर िाय वाले नहीं। जबचक व्यंग्यकार कार पाकर खुश और लेखक चकताब छपने पर खुश। उस पर

वर्ष 1 अङ् क 4

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भी पाररश्रचमक चमले तो ठीक और न चमले तो तब भी कोई चगला नहीं। पर वे काले धन पर कलम नहीं िलाते हैं। इसचलए सुचखि या​ाँ लेखक को आसानी से चमलती नहीं है और चजन्हें चमलती हैं वह अङ्ग्रेज़ी के चकस्सागो होते हैं। अब फै सला पाठकों पर है चक उनकी इच्छा क्या है ? अचवनाश वािस्पचत 9213501292 8750321868

लघु कर्ा प्रसाद - प्राि शमाष पहले की तरह इस बार भी धनराज जी ने अपने बे टे का जन्म चिवस राम मचन्िर में खबू धम ू धाम से मनाया । वे मचन्िर के प्रेचसडे ण्ट हैं। उन के नाम से लोग चखंिे िले आये। केक काटा गया। खबू ताचलया​ाँ बजीं। हैपी बथि डे से हाल गाँज ू उठा। उपहारों से स्टेज भर गयी। इतने उपहार भगवान् राम को नहीं चमलते हैं चजतने उपहार बेटे को चमले। सभी अचतचथ खबू नािे - झम ू े । शायि ही कोई मधुर गीत गाने से पीछे रहा था। आरती के बाि प्रसाि के रूप में काजू , अखरोट , चकशचमश और चमशरी का चमला - जुला चडब्बा अचतचथयों को चिया जाने लगा। हर चडब्बा पाञ्ि सौ ग्राम का था। प्रसाि िे ने वाले धनराज खुि ही थे। कुछ अचतचथयों के बाि नगर के मुख्य न्यायधीश उत्तम कुमार जी की प्रसाि लेने की बारी आयी। उन्हें िे ख कर धनराज जी चखल उठे । उन्होंने झट मुख्य न्यायधीश जी को िो चडब्बे थमा चिए। अपने हाथों में िो चडब्बे िे ख कर वे हैरान हो गये। पछ ू बैठे - " धनराज जी , औरों को तो आप प्रसाि का एक ही चडब्बा िे रहे हैं , मुझे िो चडब्बे क्यों ? " हज़रू ,आप नगर के चवशेष व्यचि हैं। " धनराज जी ने उनके कान में कहा। मुख्यधीश जी उन्हें एक तरफ ले गये। बड़ी नम्रता से बोले - " िे चखये , धनराज जी, ये राम का मचन्िर है। उनके मचन्िर में सभी अचतचथ चवशेष हैं।

साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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रचना विी जो फोलोवर मन भाये वो अब एक बड़े लेखक हैं। हाला​ाँचक अब तक तय नहीं कर पाये या तय करने के पिड़े में नहीं पड़े चक उन्होंने अब तक जो चलखा है वो है क्या। उनके शब्ि जैसे व्योम से उतर कर चकसी भी क्रम में जगह बनाते एक रिना का आकार ले लेते हैं। वे शब्िों को आचतशबाज़ी की चिङ्गाररयों की तरह चछटकने िे ते हैं, गद्यनुमा पद्य या पद्यनुमा गद्य के सा​ाँिे में पानी की िाल से उतरने िे ते हैं। उनकी रिनाओं का वज़न िो ग्राम(अथाि त िो शब्ि) से लेकर िो टन (याचन महाकाव्यात्मक) तक हो सकता है पर उनके ‘फै न’ और ‘िालोवर’ उन्हें अपने चिल पर लपक लेते हैं। वे आज के िौर में फेसबुक के साचहत्यकार हैं। ये चसलचसला कहा​ाँ से शुरू हु आ, मुझे नहीं पता। अब तो वो फेसबुक तक सीचमत भी नहीं। अपने फेस्बुचकया अवतार में वे बाहर भी पहिाने जाते हैं। बाहर वाले अक्सर अन्िर झा​ाँक कर ये जायज़ा लेते हैं चक कौन चकतने पानी में तैर रहा है। ज़ाचहर है वो अब समन्िर की हैचसयत रखते हैं। उनके पा​ाँि हज़ार से ज्जयािा िाहने वाले, न केवल एकएक लफ़्ज़ ‘वाह-वा’ का घन-नाि करते हैं बचल्क उनकी एक आह पर िीत्कार भी कर उठते हैं। इस अनोखी िुचनया के बाहर िम-तोड़ती लघु-मझोली पचरकाएाँ ,अपनी हैचसयत पर शचमि न्िा होती हु ई उन्हें अपनी पचरकाओं को पचवर करने का न्योता भेजती रहती हैं। फेसबुक के इतर भी वे चवचभन्न ब्लॉग के गचलयारों में टहलते पाये जाते हैं। प्रयोगधमी तो खैर वे हैं ही, अब तो साचहचत्यक वािों से भी बहु त आगे चनकाल आए हैं। चकसी वाि में शाचमल करने की चजि हो ही तो उन्हें ‘खुल्लमखुल्ला-वाि’, ‘चनबाि ध-वाि’ या सबसे सटीक ‘िालोवर-वाि’ का प्रणेता कहा जाना िाचहए। ऐसा कहने के पीछे इतना सा तकि है चक साहित्यम

उनके एक-एक शब्ि के पीछे उन्हें ‘फॉलो’ करते पाठक होते हैं जो न चसफि उन्हें जज़्ब कर लेते हैं बचल्क तुरन्त उनका असर भी बताते हैं। कई बार वो याँ ू ही पाठकों का मड ू जानने के चलए िारे की तरह कुछ शब्ि तैरा िे ते है और उसमें फाँसी प्रचतचक्रया की मछचलयों को टटोल कर अगली रिना की रे चसपी तय कर लेते हैं। एक चिन उन्होने फेसबुक की िीवार पे चलखा “ऊाँ... ऊाँ...”।´िो सौ लोगो ने तत्क्षण इसे पसन्ि चकया। कुछ क्षण और प्रतीक्षा के बाि एक प्रचतचक्रया आई – ‘उफ़्ि! अकेलेपन की उिासी का चकतना माचमि क बयान..” उन्हें प्रेरणा चमल गई। िो िार सौ शब्िों, कुछ चवरामों- अधि चवरामों और िन्ि ररि स्थानों की मि​ि से उन्होने अमत ू िचिराङ्कन जैसा एक महान शाहकार रि डाला। बताना जरूरी नहीं चक पाठकों ने चकस तरह उसे सराहा। जैसा चक पहले से स्पि है चक वे शैली, वाि, कथ्य, सरोकार आचि के बन्धनों से परे हैं। सीधे हृिय से चलखते हैं। ये हृिय जो है उससे हजारों तार चनकल कर पाठकों के हृियों में घुसे हु ये हैं। फेसबुक तन्र का जाल रोज़-ब-रोज़ उनके प्रशन्सकों की तािाि में इजािा करता जा रहा है। इन प्रशन्सकों को उन पर इस हि तक भरोसा है चक वे अपनी िीवार पर िो ‘डॉट’ भी भेज िें तो उनकी अथि वत्ता चसद्ध करने की होड़ लग जाती है। इस मुकाम को हाचसल करने के चलए शुरू में उन्होने एक ही रिनात्मक काम चकया था चक फेसबुक पर अपनी तस्वीर की जगह एक सुन्िर कन्या का िेहरा डाला और आगे समय-समय पर उसी कन्या की चवचभन्न मुराओं को अपनी साचहत्येतर गचतचवचधयों के रूप में पाठकों के आगे रखते गए। कमलेश पाण्डे य 9868380502

वर्ष 1 अङ् क 4

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कहवता / नज़्म गोपाल प्रसाद नेपाली

चगररराज चहमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है इतनी ऊाँिी इसकी िोटी चक सकल धरती का ताज यही पवि त-पहाड़ से भरी धरा पर केवल पवि तराज यही अम्बर में चसर, पाताल िरण मन इसका गङ्गा का बिपन तन वरण-वरण मुख चनरावरण इसकी छाया में जो भी है, वह मस्तक नहीं झुकाता है चगररराज चहमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है अरुणोिय की पहली लाली इसको ही िम ू चनखर जाती चफर सन्ध्या की अचन्तम लाली इस पर ही झम ू चबखर जाती इन चशखरों की माया ऐसी जैसे प्रभात, सन्ध्या वैसी अमरों को चफर चिन्ता कैसी? इस धरती का हर लाल ख़ुशी से उिय-अस्त अपनाता है चगररराज चहमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है हर सन्ध्या को इसकी छाया सागर-सी लम्बी होती है हर सुबह वही चफर गङ्गा की िािर-सी लम्बी होती है इसकी छाया में राँ ग गहरा है िे श हरा व प्रिे श हरा हर मौसम है, सन्िे श भरा इसका पितल छूने वाला वेिों की गाथा गाता है चगररराज चहमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है जैसा यह अटल, अचडग, अचविल, वैसे ही हैं भारतवासी है अमर चहमालय धरती पर, तो भारतवासी अचवनाशी कोई क्या हमको ललकारे हम कभी न चहन्सा से हारे िु:ख िे कर हमको क्या मारे गङ्गा का जल जो भी पी ले, वह िु:ख में भी मुस्काता है चगररराज चहमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है टकराते हैं इससे बािल, तो ख़ुि पानी हो जाते हैं ति ू ान िले आते हैं, तो ठोकर खाकर सो जाते हैं जब-जब जनता को चवपिा िी तब-तब चनकले लाखों गा​ाँधी तलवारों-सी टूटी आाँधी रे ! इसकी छाया में ति ू ान, चिराग़ों से शरमाता है चगररराज चहमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है


गोपाल प्रसाद व्यास आज़ािी का इचतहास, नहीं काली स्याही चलख पाती है इसको चलखने के चलए, ख़न ू – की निी बहाई जाती है वह ख़न ू कहो चकस मतलब का, चजसमें उबाल का नाम नहीं वह ख़न ू कहो चकस मतलब का, आ सके िे श के काम नहीं वह ख़न ू कहो चकस मतलब का, चजसमें जीवन न रवानी है जो परवश होकर बहता है, वह ख़न ू नहीं है, पानी है उस चिन लोगों ने सही-सही, ख़ाँ ू की क़ीमत पहिानी थी चजस चिन सुभाष ने बमाि में , मांगी उनसे क़ुबाि नी थी बोले स्वतन्रता की ख़ाचतर, बचलिान तुम्हें करना होगा तुम बहु त जी िुके हो जग में , लेचकन आगे मरना होगा आज़ािी के िरणों में , जो जयमाल िढ़ाई जाएगी वह सुनो! तुम्हारे शीषों के फूलों से गाँथ ू ी जाएगी आज़ािी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है यह शीश कटाने का सौिा, नंगे सर झेला जाता है

याँ ू कहते-कहते विा की, आाँखों में ख़न ू उतर आया मुख रिवणि हो गया, िमकउठी उनकी स्वचणि म काया आजानु बा​ाँहु ऊाँिी करके, वे बोले रि मुझे िे ना उसके बिले में , भारत की आज़ािी तुम मुझसे लेना हो गई सभा में उथल-पुथल, सीने में चिल न समाते थे स्वर इंक़लाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे ‘हम िें गे-िें गे ख़न ू ’- शब्ि – बस यही सुनाई िे ते थे रण में जाने को युवक खड़े तैयार चिखाई िे ते थे बोले सुभाष- इस तरह नहीं बातों से मतलब सरता है लो यह काग़ज़, है कौन यहा​ाँ आकर हस्ताक्षर करता है इसको भरने वाले जन को, सवि स्व समपि ण करना है अपना तन-मन-धन-जन-जीवन,

माता को अपि ण करना है

पर यह साधारण पर नहीं, आज़ािी का परवाना है इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्जज्जवल रि चगराना है वह आगे आए, चजसके तन में ख़न ू भारतीय बहता हो वह आगे आए, जो अपने को चहन्िुस्तानी कहता हो वह आगे आए, जो इस पर ख़न ू ी हस्ताक्षर िे ता हो मैं क़िन बढ़ाता हाँ ; आए जो इसको हाँ सकर लेता हो सारी जनता हु ंकार उठी‘हम आते हैं, हम आते हैं’ माता के िरणों में यह लो, हम अपना रि िढ़ाते हैं साहस से बढ़े युवक उस चिन, िे खा बढ़ते ही आते थे और िाकू, छुरी, कटारों से, वे अपना रि चगराते थे चफर उसी रि की स्याही में , वे अपनी क़लम डुबोते थे आज़ािी के परवाने पर, हस्ताक्षर करते जाते थे उस चिन तारों ने िे खा था, चहन्िुस्तानी चवश्वास नया जब चलखा था रणवीरों ने खाँ ू से अपना इचतहास नया


तारदत्त हनहवषरोध चफर उसने मानसन ू की गीली आाँखों में चहलती हु ई जडों फरफराते पत्तों और लिी लरजती शाखों के फलों को चिखा कर कहा, मौसम िाहे चकतने ही रूप बिले यह वक्ष ृ नहीं चगरना िाचहए और यह भी नहीं चक कोई इसे समल ू काट िे , संबंधों की गंध के नाम पर बा​ाँट िे , तुम्हें वक्ष ृ को खडा ही रखना है, प्रचतकूल हवाओं में भी बडा ही रखना है। एक अन्तराल के बाि वक्ष ृ प्रेम पाकर चजया और उसने बाि की पीढयों को भी पनपने चिया। वक्ष ृ और भी लगाए गए, वक्ष ृ ारोपण के चलए सभी के मन जगाए गए। उसने सन ू े-जङ्गलाती क्षेर में एक पौधा रोपा और हवाओं से कहा, इसे पनपने िे ना, जब चवश्वास का मौसम आएगा यह चववेक के साथ चवकचसत होकर अपने पा​ाँवों पर खडा होगा, एक चिन यह जरूर बडा होगा।

चफर एक चिन ऐसा आया वक्ष ृ की शाखों को काट ले गए लोग, पत्तों से जुड गए अभाव-अचभयोग, एक बढ ू ा वक्ष ृ चगर-चखर गया, युगों-युगों का सपना आाँखों में पला, चतरा और पारे की तरह चबखर गया


आलम खुशीद

कचवता (२) नया खेल चपंकी ! बबलू ! डब्लू ! राजू ! आओ खेलें ! खेल नया .

कचवता (१) बिलता हु आ मञ्ज़र मे रे सामने झील की गहरी खमोशी फै ली हु ई है बहु त िूर तक ........ नीले पानी में कोई भी हलिल नहीं है हवा जाने चकस िश्त में खो गई है हर शजर सर झुकाए हु ए िुप खड़ा है पररं िा चकसी शाखे-गुल पर न नग़मासरा है न पत्ते चकसी शाख पर झम ू ते हैं हर इक सम्त खामोचशयों का अजब सा समा​ाँ है मे रे शहर में ऐसा मंज़र कहा​ाँ है!!! िलाँ ू ! ऐसे ख़ामोश मंज़र की तस्वीर ही कैनवस पर उभारूाँ ........................ ............................. अभी तो िक़त ज़ेह्न में एक खाका बना था चक मंज़र अिानक बिल सा गया है चकसी पेड़ की शाख से कोई फल टूट कर झील में चगर पड़ा है बहु त िूर तक पाचनओं में अजब खलबली सी मिी है हर इक मौज चबफरी हु ई है ............. साहित्यम

चपंकी ! तुम मम्मी बन जाओ ! इधर ज़मीं पर चित पड़ जाओ ! अपने कपड़ों, अपने बालों को चबखरा लो ! आाँखें बंि तो कर ले पगली ! डब्लू ! तुम पापा बन जाओ ! रं ग लगा लो गि​ि न पर ! इस टीले से चटक कर बैठो ! अपना सर पीछे लटका लो ! लेचकन आाँखें खोल के रखना ! बब्ली ! तुम गुचड़या बन जाओ ! अपने हाथ में गुड्डा पकड़ो ! इस पत्थर पर आकर बैठो ! अपने पेट में काग़ज़ का ये खंजर घोंपो ! राजू आओ ! हम तुम चमल कर गड्ढा खोिें ! मम्मी , पापा , गुचड़या तीनों कई रात के जागे हैं इस गड्ढे में सो जाएाँ गे ! भागो ! भागो ! जान बिाओ ! आग उगलने वाली गाड़ी चफर आती है ... इस झाड़ी में हम छुप जाएाँ ! जान बिी तो कल खे लेंगे बाक़ी खेल ....................!!

वर्ष 1 अङ् क 4

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कचवता (३) नया ख़्वाब

मक ु े श कुमार हसन्िा

मैं यकीं से कह नहीं सकता ये कोई ख़्वाब है या वाचकआ जो अक्सर िे खता हाँ मैं मैं अक्सर िे खता हाँ अपने कमरे में हाँ मैं चबखरा हु आ इक तरि कोने में िोनों हाथ हैं फेंके हु ए िुसरे कोने में टांगें हैं पड़ीं बीि कमरे में चगरा है धड़ चमरा इक चतपाई पर सलीके से सजा है सर चमरा मे री आाँखें झांकती हैं मे ज़ के शो केस से ... ये मंज़र िे खना मे रा मुक़द्दर बन िक ू ा है मगर अब इन् मनाचज़र से मुझे िहशत ही होती है न वहशत का कोई आलम चमरे चिल पर गुज़रता है बड़े आराम से यक्जा चकया करता हाँ मैं अपने चजस्म के टुकड़े सलीके से इन्हें ततीब िे कर केचमकल से जोड़ िे ता हाँ .... न जाने क्यं ू मगर ततीब में इक िक ू होती है हमे शा मे री आाँखें जड़ी होती हैं मे री पीठ पर ..... आलम खुशीि 9835871919

िढ़ता उतरता प्यार वो चमली िढ़ती सीचढयों पर चमल ही गयी पहले थोड़ी नाखन ू भर चफर परू ी की परू ी.. मन-भर और चफर प्यार की सीचढयों पर िढ़ती िले गयी.... वो चफर चमली उन्ही सीचढयों पर, मगर, इस बार नीिे की ओर जाती सीचढ़यों पर आाँखे नम थीं नीिे िरवाजे तक एक-िूसरे से आाँखे टकराई चफर िूररया​ाँ चसफि िूररया​ाँ ............!! :- मुकेश कुमार चसन्हा 9971379996


अब्िा जान तरह तरह के हैं झंडे सभी उठाये हु ए सिेिपोश िररं िे ... हैं भनभनाये हु ए डरा रहे हैं ये इक िूसरे से वोटर को लुभा रहे हैं ये पैसे रुपए से वोटर को चकसी के हाथ में "चहंिुत्व" का है एजेंडा चकसी ने थाम चलया चफर से "धाचमि क झंडा" अजीब मंज़र ए चिलकश है मुल्क के अंिर उछल रहे हैं हर इक शाख पर कई "बन्िर" है शहर शहर "िुनावों " की आज सरगमी बलंचियों प है नेताओं की भी "बेशमी" हया का नाम नहीं है "खबीस" िेहरों पर चिपक रही है चगलाज़त "ग़लीस" िेहरों पर गली गली में नज़र आ रहे हैं "आवारा" ये पा​ाँि सालों में हाचज़र हु ए हैं िोबारा भरे हु ए हैं ये वािों के फूल झोली में चमठास घोल के लाये हैं अपनी बोली में खड़े हु ए हैं चभखारी ये हाथ जोड़े हु ए हैं अपना िामन ए गैरत भी ये चनिोड़े हु ए चकसी के हाथ में "झाड़ू" , कोई "कमल" के साथ चकसी का "हाथी" तो कोई है "साइकल" के साथ चहला रहा है कोई ज़ोर ज़ोर से "पंखा" चिखा रहा है कोई नेता "हाथ का पंजा" है कोई "राजकंु वर" और कोई है "शहजािा" चकसी का िाय का होटल चकसी का है ढाबा कोई है "सुखि" , कोई "सब्ज़" और कोई "नीला" कोई "सिेि" , कोई "केसरी" कोई "पीला"

चकसी ने काली "खिानों" का कोयला खाया मवेचशयों का चकसी ने िबा चलया "िारा" नहीं है इनको ग़रज़ चहंि के "मसायल" से ये ख़ाक धोयेंगे हालात को "चफनायल" से -------------------------------------------हमारे हल्के में आये बड़े बड़े नेता उन्हीं के बीि खड़े थे ये कानपुर के हु मा लहक लहक के ये खड़का रहे थे भाषन को बला का कोस रहे थे पुराने शासन को िलाना ऐसा ... िला​ाँ वेसा .. और िला​ाँ वेसा नहीं है कोई भी नेता कहीं चमरे जैसा अब आप लोग मुझे िुन के िे ख लो इक बार तमाम उम्र न भल ू ाँग ू ा आपका उपकार बस एक बार चजता िो मुझे इलेक्शन में न आने िाँूगा मुसीबत में कोई जीवन में पलक झपकते ही बस्ती संवार िाँूगा मैं खराब नाचलया​ाँ, सड़कें सुधार िाँूगा मैं खुला रहे गा सभी के चलए चमरा िरबार जहा​ाँ पे होगा खुले मन से आपका सत्कार फक़त अवाम की खाचतर चजयं ू मरूंगा मैं जो आप लोगों ने िाहा वही करूाँगा मैं ---------------------------------------


अभी उरूज प भाषन ज़रा सा आया था सभा के बीि से इक बुड्ढा बडबडाया था

ज़मीर अपना चकसी हाल में न बेिंग ू ा तुम्हें चजताएगा कौन आज मैं भी िे खंग ू ा

सवाल करता हाँ नेताजी ... कुछ जवाब तो िो गुचज़श्ता पा​ाँि बरस का ज़रा चहसाब तो िो

रखे उम्मीि क्या िहू ा चकसी भी चबल्ली से ये पंजे मारा करे गी सभी को चिल्ली से

चघसट रहे हैं सभी सुबह ओ शाम गड्ढों में सड़क को ढूढ रहे हैं अवाम गड्ढों में

िुनाव जीत कर तुम काम कुछ न आओगे हमें ये शक्ल तुम अपनी न चफर चिखाओगे

झलक चिखाती है हतरते में एक चिन चबजली कभी गुज़ारा है इक चिन भी तुमने चबन चबजली

करोगे िे खना पहिानने से भी इंकार चमलेगी वोट के बिले में लात और िुत्कार

नलों के खुश्क गले कैसे तर करोगे तुम बगैर पानी के कैसे गुज़र करोगे तुम

ज़लील ओ ख्वार समझ कर भगाए जायेंगे तुम्हारे हाथों ये मुफचलस सताए जायेंगे

ये औरतों की चहफाज़त भी कर सकोगे क्या गरीब भख ू ों का तुम पेट भर सकोगे क्या

इज़ाला कर न सकोगे कभी मुसीबत का तुम अपने पांव से कुिलोगे सर अखुव्वत का

हमारे बच्िों को क्या रोज़गार िे िोगे तुम अपने चहस्से की हमको पगार िे िोगे

करोगे मुल्क की अस्मत का बार हा सौिा पिास बरसों से िे ते रहे हो तुम धोखा

नज़ारा िे ख के कुछ सटपटा गए थे "हु मा " इस एहचतजाज से सकते में आ गए थे "हु मा "

चकसी चगरोह चकसी पाटी के पट्ठे हो चक तुम भी इक ही थैली के िट्टे बट्टे हो

पकड़ के हाथ वो इक सम्त ले गए इसको चिए हज़ार रुपए और कहा .चक .. अब चखसको

तुम अपनी तान पर हमको निाना िाहते हो हर एक हाल में इज्जज़त बिाना िाहते हो

क़सम है तुमको ज़रा मुझ को जीत जाने िो मज़े तुम्हें भी कराउं गा ... वि आने िो

बुरे बुरों में भले को िुना नहीं जाता ये ख्वाब हम से तो "अब्बा " बुना नहीं जाता

परी .. को बगल में लेकर िमन में लेटेंगे िुनाव जीत कर संसि भवन में लेटेंगे

नज़र में चजतने हैं नेता सभी तो हैं बेकार बताओ कौन िलाएगा मुल्क की सरकार

बहु त मज़े से कटेंगे ये पा​ाँि साल चमया​ाँ करूाँगा तुमको भी इक रोज मालामाल चमया​ाँ

अब्बा जान 420 840 1680

कहा बुज़ुगि ने मुझको ये घास मत डालो चमरे बिन पे ये मैला चलबास मत डालो

शुरू में [?] माकि लगाना न भल ू ें

साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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गीत चतव ु ेदी

जाते हु ए का ररटनि -चटकट िे ख लेने के बाि भी मन में हक मिती है कम से कम एक बार तो ज़रूर ही चक जाने के बाि लौट के आने का पल आएगा भी या नहीं मैंने रेनों से कभी नहीं पछ ू ा चक तुम अपने सारे मुसाचफरों को जानती हो क्या पेड़ों से यह नहीं जाना चक वे सारी पचत्तयों को उनके िस्टि -नेम से पुकारते हैं क्या मैं जीवन में आए हर एक को ज्ञानना िाहता था मैं हवा में पंचछयों के परचिह्न खोजता अपने पिचिह्नों को अपने से आगे िलता िे खता तुममें डूबाँग ू ा तो पानी से गीला होऊंगा ना डूबंग ू ा तो बाररश से गीला होऊाँगा तुम एक गीले बहाने से अचधक कुछ नहीं मैं आसमान चजतना प्रे म करता था तुमसे तुम िुटकी-भर तुम्हारी िुटकी में परू ा आसमान समा जाता िुचनया िो थी तुम्हारे वक्षों जैसी िुचनया तीन भी थी तुम्हारीआंखों जैसी िुचनया अनचगनत थी तुम्हारे ख़्यालों जैसी मैं अकेला था तुम्हारे आाँसू के स्वाि जैसा मैं अकेला था तुम्हारे माथे पर चतल जैसा मैं अकेला ही था

सारे चसकंिर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं िुचनया का एक चहस्सा हमे शा अनजीता छूट जाता है िाहे चकतने भी होश में हों, मन का एक चहस्सा अनचित्ता रहता है चकतना भी प्रेम कर लें, एक शंका उसके समांतर िलती रहती है साहित्यम

िुचनया भले अनचगनत थी चजसमें चजया मैं हर वह िीज़ निी थी मे रे चलए चजसमें तुम्हारे होने का नाि था चफर भी स्वप्न की घोड़ी मुझसे कभी सधी नहीं तुम जो सुख िे ती हो, उनसे चजंिा रहता हाँ तुम जो िुख िे ती हो, उनसे कचवता करता हाँ इतना चजया जीवन, कचवता चकतनी कमकर पाया

वर्ष 1 अङ् क 4

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हजतेन्र जौिर आ... चक शब्ि का 'बैज'ू बाबरा हु आ जाता हैअपनी मुहब्बत के चनमि म हश्र से उपजे आाँसुओ ं की सौग़ात पर! आ... चक इस बेरहम मौसम के कहर से अनुभचू तया​ाँ कराह उठी हैं...! आ... चक धुाँधुाँआकर सुलगता अन्तमि न अिम्य चवकलता को 'शब्ि-ब्रह्म' की शरण िे ने को आतुर है!

ऐ रात की स्याही, आ... चक तुझे अपनी लेखनी की रौशनाई बनाकर उकेर िाँू कुछ शब्ि-चिर मुहब्बत के कैनवस पर! आ... चक प्रेम की िा​ाँिनी रात वैधव्य का श्वेताम्बर ओढ़कर 'स्याह सुिशि न' जीवन का श्रंग ृ ार करना िाहती है! आ... चक हठधमी पीड़ा घुटने मोड़कर बैठ गयी है एक अचलचखत प्रे मपर की इबारत बनने को! साहित्यम

आ चक प्रेम-िे वी की आराधना में थके आरती के आति स्वर काग़ज़ पर उतरकर कुछ पल को चवश्राम करना िाहते हैं! आ... ऐ रात की स्याही, आ, तरल होकर... चक तुझे अमरत्व का िान िे ना है असह्य वेिना को अमरता का वरिान िे ना है! - चजतेन्र 'जौहर' मोबाइल: +91 9450320472

वर्ष 1 अङ् क 4

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या चकसी पररचित के घर से चनकलने वाली रद्दी में से उठाकर धल ू झाड़ते हु ये

नवीन सी. चतव ु ेदी

आज भी हम जब भी जी िाहे 100-200-500 रुपये के चपज्जजा खा लेते हैं 100-200-500-1000 रुपये की चपक्िर िे ख आते हैं 2-5-10-20 हज़ार वाली चपकचनक्स पर भी जाते रहते हैं मौक़ा चमलने पर FTV – MTV वग़ैरह भी िे ख ही लेते हैं सत्य-कथाएाँ सावधान इचण्डया जैसे सीररयल्स बन कर धड़ल्ले से आने लगी हैं हमारे बैठकाओं में चफल्मी कचलया​ाँ तो न जाने चकतने सारे सीररयल्स में मौजिू हैं चजन्हें िे खते हैं घर पररवार के सब के सब हा​ाँ सब के सब उसी तरह

धमि युग नहीं आता था हमारे घर में प्रचतबचन्धत भी नहीं था बस नहीं आता था

मा​ाँ-बेटे एक संग नज़ारे िे ख रहे हर घर की बैठक में एक जलसा-घर है

अब ये बात िीगर है चक धमि युग की एक प्रचत की क़ीमत चजतनी थी उतने पैसों की किौड़ी-जलेबी तो हर रोज़ ही खा जाता था हमारा पररवार बस धमि युग नहीं आता था हम जैसे बहु तों के घरों में

मगर धमि युग आज भी नहीं आता हमारे घरों में कारण आये भी कैसे? बन्ि जो हो गया है और अगर बन्ि न भी हु आ होता - तो भी हम उन में से थोड़े ही हैं जो साचहत्य की क़र करें उस के चलए हर महीने एक बजट रखें

अलबत्ता िोरी चछपे चफल्मी कचलया​ाँ और सत्य-कथाएाँ ज़रूर आ जाती थीं कभी-कभी उपन्यास भी मगर धमि युग नहीं आता था

हम भले और हमारी पञ्िायतें भलीं आओ अब इस कचवता का चतया-पा​ाँिा करें

उसे पढ़ते थे हम चकसी िूकानिार के तख़्ते पर बैठ कर साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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िाइकु सश ु ीला श्योराि

जेठ की गमी गौरै या तके मे ह रे त नहाये

साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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छन्द

कुमार गौरव अजीतेन्दु

गोहवन्द कहव [आप ब्रजभाषा के मध ू ि न्य कचव थे] अाँगुरीन लों पोर झुकें उझकें मनु खञ्जन मीन के जाले परे चिन औचध के कैसें चगनों सजनी अाँगुरीन की पोरन छाले परे कचव गोचवन्ि का कचहयै चकचहं सों हमें प्रीत करे के कसाले परे चजन लालन िा​ाँह करी इतनी उनें िे खन के अब लाले परे औचध - अवचध

नवीन सी. चतव ु ेदी हवा चिरचिरावै है, ब्योम आग बरसावै, जल ह जरावै - जान - इन साँ ू बिाय िै केवड़ा, गुलाब और िन्िन की लाग िै कें चखरकी झरोखन में खस लगवाय िै आगरे कौ पेठौ लाय ल्होरे टुकड़ा कराय बफि सङ्ग ताचह कोरे कुल्ला में धराय िै एक उपकार और कर िै हो प्राण-प्यारे अपनी बगल नेङ्क परें सरकाय िै

3 छप्पय छन्ि मीठे -मीठे बोल, सभी के मन को भाते , कड़वी सच्िी बात, लोग सुनकर चिढ़ जाते। अपनी गलती भल ू , सभी पर िोष लगाना, है िुचनया की रीत, िुि को साधु बताना॥ अब चजसको अपना जाचनए, िल िे ता मुाँह फेर के। धनवालों के होने लगे, नाटक सौ-सौ सेर के॥ आहत, खाकर बाण, मत्ृ यु शय्या पर लेटे, पछ ू रहा है िे श, कहा​ाँ हैं मे रे बेटे। बिा रहे हैं प्राण, कहीं छुप के वारों से? या वो नीि कपत ू , चमल गये गद्दारों से॥ मुझको िे ते उपहार ये, मे रे चनश्छल प्यार का। क्या बचढ़या कजि िुका रहे , माटी के उपकार का॥ चकतने-चकतने ख्वाब, अभी से मन में पाले, रहे गुलाटी मार, सेक्युलर टोपीवाले। अपने मन से रोज, बिलते पररभाषाएाँ कल तक कहते िोर, आज खुि गले लगाएाँ ॥ लेचकन बेिारे क्या करें , आित से लािार हैं। वो बरसाती मे ढक सभी, मतलब के ही यार हैं॥


अन्सर क़म्िरी

धमेन्र कुमार सज्जन

मन से जो भी भेंट िे , उसको करो कबल ू | का​ाँटा चमले बबल ू का, या गल ू र का फूल || सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस | एक स्वाचत की बाँिू से, बुझ जाती है प्यास || चगरा हु आ आकाश से, सम्भव है उठ जाय | नजरों से चगर जाये जो, उसको कौन उठाय ||

जहा​ाँ न सोिा था कभी, वहीं चिया चिल खोय ज्जयों मंचिर के द्वार से, जत ू ा िोरी होय

सरू ज बोला िा​ाँि से, कभी चकया है ग़ौर | तेरा जलना और है, मे रा जलना और ||

चसक्के याँ ू मत फेंचकए, प्रभु पर हे जजमान सौ का नोट िढ़ाइए, तब होगा कल्यान

प्यासे के जब आ गयी, अधरों पर मुस्कान | पानी-पानी हो गया, सारा रे चगस्तान ||

फल, गुड़, मे वा, िूध, घी, गए गटक भगवान फौरन पत्थर हो गए, मा​ाँगा जब वरिान

रातों को चिन कह रहा, चिन को कहता रात | चजतना ऊाँिा आिमी, उतनी नीिी बात ||

ताजी रोटी सी लगी, हलवाहे को नार मक्खन जैसी छोकरी, बोला राजकुमार

जब तक अच्छा भाग्य है, ढके हु ये हैं पाप | भेि खुला - हो जायेंगे, पल में नङ्गे आप ||

संचवधान चशव सा हु आ, िे िे कर वरिान राह मोचहनी की तकें, हम चकस्से सि मान

बहु िा छोटी वस्तु भी, सण्कट का हल होय | डूबन हारे के चलये, चतनका सम्बल होय ||

जो समाज को श्राप है, गोरी को वरिान ज्जयािा अंग गरीब हैं, थोड़े से धनवान

ढाई आखर छोड़ जब, पढ़ते रहे चकताब | मन में उठे सवाल का, कैसे चमले जवाब ||

बेटा बोला बाप से, फजि करो चनज पण ू ि सब धन मे रे नाम कर, खाओ कायम िण ू ि

तुम्हें मुबारक हो महल, तुम्हें मुबारक ताज | हम िक़ीर हैं ‘क़म्बरी’, करें चिलों पर राज ||

ठं ढा चबल्कुल व्यथि है, जैसे ठं ढा सपू जुबा​ाँ जले उबला चपए, ऐसा तेरा रूप

:- अन्सर क़म्बरी 9450938629

:- धमेन्र कुमार सज्जजन 9418004272


गीत / नवगीत पहटडेणत नरे न्र शमाष

ज्जयोचत कलश छलके हु ए गुलाबी, लाल सुनहरे राँ ग िल बािल के ज्जयोचत कलश छलके घर आाँगन वन उपवन-उपवन करती ज्जयोचत अमत ृ के चसञ्िन मङ्गल घट ढल के ज्जयोचत कलश छलके पात-पात चबरवा हररयाला धरती का मुख हु आ उजाला सि सपने कल के ज्जयोचत कलश छलके ऊषा ने आाँिल फै लाया फै ली सुख की शीतल छाया नीिे आाँिल के ज्जयोचत कलश छलके ज्जयोचत यशोिा धरती मैय्या नील गगन गोपाल कन्हैय्या श्यामल छचव झलके ज्जयोचत कलश छलके अम्बर कुमकुम कण बरसाये फूल पाँखुचड़यों पर मुस्काये चबन्िु तुचहन जल के ज्जयोचत कलश छलके साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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चवस्तार है अपार.. प्रजा िोनो पार.. करे हाहाकार... चनशब्ि सिा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्याँ ू ? नैचतकता नि हु ई, मानवता भ्रि हु ई, चनलि ज्जज भाव से , बहती हो क्याँ ू ? इचतहास की पुकार, करे हु ङ्कार, ओ गङ्गा की धार, चनबि ल जन को, सबल सङ्ग्रामी, गमग्रोग्रामी, बनाती नही ाँ हो क्याँ ू ? चवस्तार है अपार ..प्रजा िोनो पार..करे हाहाकार ... चनशब्ि सिा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्याँ ू ? नैचतकता नि हु ई, मानवता भ्रि हु ई, चनल्लि ज्जज भाव से , बहती हो क्याँ ू ? अनपढ जन, अक्षरहीन, अनचगन जन, अज्ञ चवचहन नेर चवचहन चिक` मौन हो क्याँ ू ? व्यचि रहे , व्यचि केचन्रत, सकल समाज, व्यचित्व रचहत, चनष्ट्प्राण समाज को तोड़ती नहीं हो क्याँ ू ? ओ गङ्गा की धार, चनबि ल जन को, सबल सङ्ग्रामी, गमग्रोग्रामी,बनाती नहीं हो क्याँ ू ? चवस्तार है अपार ..प्रजा िोनो पार..करे हाहाकार ... चनशब्ि सिा ,ओ गङ्गा तुम, बहती हो क्याँ ू ? साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

जय जयचत भारत भारती! अकलङ्क श्वेत सरोज पर वह ज्जयोचत िे ह चवराजती! नभ नील वीणा स्वरमयी रचविन्र िो ज्जयोचतकिलश है गाँज ू गङ्गा ज्ञान की अनुगाँज ू में शाश्वत सुयश हर बार हर झङ्कार में आलोक नत्ृ य चनखारती जय जयचत भारत भारती! हो िे श की भू उवि रा हर शब्ि ज्जयोचतकिण बने वरिान िो मा​ाँ भारती जो अचग्न भी िन्िन बने शत नयन िीपक बाल भारत भचू म करती आरती जय जयचत भारत भारती! www.saahityam.org


शुद्ध सचलल सा मे रा जीवन, िुग्ध फेन-सा था अमल्ू य मन, तष्ट्ृ णा का सन्सार नहीं था, उर रहस्य का भार नहीं था, स्नेह-सखा था, नन्िन कानन था क्रीडास्थल मे रा पावन; भोलापन भषू ण आनन का इन्िु वही जीवन-प्राङ्गण का हाय! कहा​ाँ वह लीन हो गया चवधु मे रा छचवमान? हर चलया क्यों शैशव नािान?

चनझि र-सा स्वछन्ि चवहग-सा, शुभ्र शरि के स्वच्छ चिवस-सा, अधरों पर स्वचप्नल-सचस्मत-सा, चहम पर क्रीचड़त स्वणि -रचश्म-सा, मे रा शैशव! मधुर बालपन! बािल-सा मिृ ु -मन कोमल-तन। हा अप्राप्य-धन! स्वगि -स्वणि -कन कौन ले गया नल-पट खग बन? कहा​ाँ अलचक्षत लोक बसाया? चकस नभ में अनजान! हर चलया क्यों शैशव नािान?

जग में जब अचस्तत्व नहीं था, जीवन जब था मलयाचनल-सा अचत लघु पुष्ट्प, वायु पर, पर-सा, स्वाथि -रचहत के अरमानों-सा, चिन्ता-द्वे ष-रचहत-वन-पशु-सा ज्ञान-शन्ू य क्रीड़ामय मन था, स्वचगि क, स्वचप्नल जीवन-क्रीड़ा छीन ले गया िे उर-पीड़ा कपटी कनक-काम-मग ृ बन कर चकस मग हा! अनजान? हर चलया क्यों शैशव नािान? साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

भरे जङ्गल के बीिों-बीि, न कोई आया गया जहा​ाँ, िलो हम िोनों िलें वहा​ाँ। जहा​ाँ चिन भर महु आ पर झल ू , रात को िू पड़ते हैं फूल, बा​ाँस के झुरमुट में िुपिाप, जहा​ाँ सोये नचियों के कूल; हरे जङ्गल के बीिों-बीि, न कोई आया गया जहा​ाँ, िलो हम िोनों िलें वहा​ाँ। चवहग-मग ृ का ही जहा​ाँ चनवास, जहा​ाँ अपने धरती आकाश, प्रकृचत का हो हर कोई िास, न हो पर इसका कुछ आभास, खरे जङ्गल के के बीिो बीि, न कोई आया गया जहा​ाँ, िलो हम िोनों िलें वहा​ाँ। www.saahityam.org


आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? आज से िो प्रेम योगी, अब चवयोगी ही रहे ङ्गे! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? सत्य हो यचि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधाँ,ू चकन्तु कैसे व्यथि की आशा चलये, यह योग साधाँ!ू जानता हाँ, अब न हम तुम चमल सकेङ्गे! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? आयेगा मधुमास चफर भी, आयेगी श्यामल घटा चघर आाँख भर कर िे ख लो अब, मैं न आऊाँगा कभी चफर प्राण तन से चबछुड़ कर कैसे रहे ङ्गे! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? अब न रोना, व्यथि होगा, हर घड़ी आाँसू बहाना, आज से अपने चवयोगी, हृिय को हाँ सना-चसखाना, अब न हाँसने के चलये, हम तुम चमलेङ्गे ! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? आज से हम तुम चगनेङ्गे एक ही नभ के चसतारे िूर होङ्गे पर सिा को, ज्जयों निी के िो चकनारे चसन्धुतट पर भी न िो जो चमल सकेङ्गे! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? तट निी के, भग्न उर के, िो चवभागों के सदृश हैं, िीर चजनको, चवश्व की गचत बह रही है, वे चववश है! आज अथ-इचत पर न पथ में , चमल सकेङ्गे! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? यचि मुझे उस पार का भी चमलन का चवश्वास होता, सि कहाँगा, मैं नहीं असहाय या चनरुपाय होता, चकन्तु क्या अब स्वप्न में भी चमल सकेङ्गे? आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? आज तक चकसका हु आ सि स्वप्न चजसने स्वप्न िे खा कल्पना के मिृ ु ल कर से चमटी चकसकी भाग्यरे खा? अब कहा​ाँ सम्भव चक हम चफर चमल सकेङ्गे! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

आह! अचन्तम रात वह, बैठी रहीं तुम पास मे रे, शीश का​ाँधे पर धरे , घन कुन्तलों से गात घेरे, क्षीण स्वर में था कहा, "अब कब चमलेङ्गे ?" आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? "कब चमलेङ्गे ", पछ् ू ता मैं, चवश्व से जब चवरह कातर, "कब चमलेङ्गे ", गाँज ू ते प्रचतध्वचन-चननाचित व्योम सागर, "कब चमलेङ्गे " - प्रश्न ; उत्तर - "कब चमलेङ्गे "! आज के चबछुड़े न जाने कब चमलेङ्गे ? * मधु के चिन मे रे गए बीत! मै ाँने भी मधु के गीत रिे, मे रे मन की मधुशाला मे ाँ यचि हो ाँ मे रे कुछ गीत बिे, तो उन गीतो ाँ के कारण ही, कुछ और चनभा ले प्रीत-रीत! मधु के चिन मे रे गए बीत! मधु कहा​ाँ, यहा​ाँ गङ्गा-जल है! प्रभु के िरणो ाँ मे रखने को, जीवन का पका हु आ फल है! मन हार िुका मधुसिन को, मै ाँभल ू िुका मधु-भरे गीत! मधु के चिन मे रे गए बीत! वह गुपिुप प्रेम-भरी ाँ बाते ाँ, यह मुरझाया मन भल ू िुका वन-कुञ्जो ाँ की गुचञ्जत राते ाँ मधु-कलषो ाँ के छलकाने की हो गई , मधुर-बेला व्यतीत! मधु के चिन मे रे गए बीत! www.saahityam.org


ग़ज़लें नौशाद अली

रऊफ़ रज़ा

न मचन्िर में सनम होते न मचस्जि में ख़ुिा होता हमीं से ये तमाशा है न हम होते तो क्या होता न ऐसी मचञ्ज़लें होतीं, न ऐसा रासता होता साँभल कर हम ज़रा िलते तो आलम ज़ेर-ए-पा होता आलम - िुचनया, ज़ेर-ए-पा - क़िमों के नीिे

घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तचज़्करा होता चफर उस के बाि गुल चखलते चक ज़ख़्मे चिल हरा होता तचज़्करा - यािें

ज़माने को तो बस मश्क़ेचसतम से लुत्ि लेना है चनशाने पर न हम होते तो कोई िूसरा होता मश्क़ेचसतम - चसतम का अभ्यास [चकसी पर चसतम ढा कर मज़े लेना या चकसी पर चसतम होता िेख कर मज़े लेना]

चतरे शानेकरम की लाज रख ली ग़म के मारों ने न होता ग़म जो इस िुचनया में , हर बन्िा ख़ि ु ा होता मुसीबत बन गये हैं अब तो ये सा​ाँसों के िो चतनके जला था जब तो परू ा आचशयाना जल गया होता हमें तो डूबना ही था ये हसरत रह गयी चिल में चकनारे आप होते और सिीना डूबता होता अरे ओ! जीते-जी ि​िेिुहाई िेने वाले सुन तुझे हम सब्र कर लेते अगर मर के जुिा होता बुला कर तुम ने महचिल में हमें ग़ैरों से उठवाया हमीं ख़ुि उठ गये होते, इशारा कर चिया होता तेरे अहबाब तुझ से चमल के चफर मायस ू लौट आये तुझे 'नौशाि' कैसी िुप लगी, कुछ तो कहा होता

उस का ख़याल आते ही मञ्ज़र बिल गया मतला सुना रहा था चक मक़्ता चफसल गया मञ्ज़र - दृश्य

बाजी लगी हु यी थी उरूजो-ज़वाल की मैं आसमा​ाँ-चमज़ाज ज़मीं पर मिल गया उरूजो-ज़वाल = िढ़ाव-उतार

िारों तरि उिास सिेिी चबखर गयी वो आिमी तो शह्र का मञ्ज़र बिल गया तुम ने जमाचलयात बहु त िे र से पढ़ी पत्थर से चिल लगाने का मौक़ा चनकल गया जमाचलयात - सौियि सम्बचन्धत

सारा चमज़ाज नरू था सारा ख़याल नरू और इस के बावजिू शरारे उगल गया


तफ़ ु ै ल चतव ु ेदी

चन्द अशआर – फ़रित एिसास

मैं जब कभी उस से पछ ू ता हाँ चक यार मरहम कहा​ाँ है मे रा तो वक़्त कहता है मुस्कुरा कर - जनाब तैयार हो रहा है

िरार हो गयी होती कभी की रूह मे री बस एक चजस्म का एहसान रोक लेता है सुन ली मे री ख़ामोशी शह्र शुचक्रया तेरा अपने शोर में वरना कौन चकस की सुनता है कहानी ख़त्म हु ई तब मुझे ख़याल आया तेरे चसवा भी तो चकरिार थे कहानी में बस एक ये चजस्म िे के रुख़्सत चकया था उस ने और ये कहा था चक बाकी असबाब आ रहा है चजस के पास आता हाँ उस को जाना होता है बाकी मैं होता हाँ और ज़माना होता है इश्क़ में पहला बोसा होता है आगाज़ेहयात िूसरे बोसे के पहले मर जाना होता है

तज िे ज़मीन, पङ्ख हटा, बािबान छोड़ गर तू बग़ावती है, ज़मीं-आसमान छोड़ ये क्या चक पा​ाँव-पा​ाँव सिर मोचतयों के सम्त चहम्मत के साथ चबफरे समन्िर में जान छोड़

फूल सा चफर महक रहा हाँ मैं चफर हथेली में वो कलाई है

ख़ुशबू के चसलचसले िे या आहट की राह बख़्श तू िाहता है तुझसे चमलें, तो चनशान छोड़

उस का वािा है चक हम कल तुमसे चमलने आयेंगे

बुझते ही प्यास तुझको भुला िें गे अहले-िश्त थोड़ी-सी तश्नगी का सिर िरचमयान छोड़

चज़न्िगी में आज इतना है चक कल होता नहीं मैं शह्र में चकस शख़्स को जीने की िुआ िाँू जीना भी तो सब के चलये अच्छा नहीं होता मैं न िाहाँ तो न चखल पाये कहीं एक भी फूल बाग़ तेरा है मगर बाि-ए-सबा मे री है बे-ख़बर हाल से हाँ , ख़ौि है आइन्िा का और आाँखें हैं मे री गुजरे हु ये कल की तरि उधर मरहम लगा कर आ रहा हाँ इधर मरहम लगाने जा रहा हाँ साहित्यम

अहले-िश्त – जङ्गल के लोग

मैं िाहता हाँ अपना सिर अपनी खोज-बीन इस बार मे रे सर पे खुला आसमान छोड़ क्यों रोकता है मुझको इशारों से बार-बार सि सुनना िाहता है तो मे री ज़बान छोड़ मुझको पता िले तो यहा​ाँ कौन है मे रा आ सामने तो मे री तरफ, खुल के बान छोड़ वर्ष 1 अङ् क 4

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मयङ्क अवस्र्ी

अजल – मौत, अज़ल – आचिकाल

मक़ीं हो कर मुहाचज़र बन रहे हो चमया​ाँ, यकलख़्त भेजा चफर गया क्या मक़ीं – गृहस्वामी, मुहाचज़र – शरणाथी, यकलख़्त – अिानक

चसतारा एक भी बाकी बिा क्या चनगोड़ी धपू खा जाती है क्या-क्या िलक कङ्गाल है अब, पछ ू लीजै सहर ने मुाँह चिखाई में चलया क्या िलक – आसमान, सहर – सुबह

ख़ुिा भी िे खता है, ध्यान रखना ख़ुिा के नाम पर तुमने चकया क्या उठा कर सर बहु त अब बोलता हाँ मे रा चक़रिार बौना हो गया क्या

सब इक बहरे -िना के बुलबुले हैं चकसी की इचब्तिा क्या इचन्तहा क्या बहरे -िना – नश्वर समुर, इचब्तिा – आरम्भ, इचन्तहा – अन्त

फ़ौज़ान अिमद जज़ीरे सर उठा कर हाँस रहे हैं ज़रा सोिो समन्िर कर सका क्या जज़ीरा – टापू

चख़रि इक नरू में ज़म हो रही है झरोखा आगही का खुल गया क्या चख़रि – बुचद्ध, नूर – उजाला /स ज्ञान, ज़म होना – चमल जाना, आगही – ज्ञान /स अगमिेती

तअल्लुक आन पहु ाँ िा खामुशी तक “ यहा​ाँ से बन्ि है हर रास्ता क्या” बहु त शमाि ओगे यह जान कर तुम तुम्हारे साथ ख्वाबों में चकया क्या उसे ख़ुिकुश नहीं मज़बरू कचहये बिल िे ता वो चिल का िै सला क्या बरहना था मैं इक शीशे के घर में मे रा चक़रिार कोई खोलता क्या बरहना – चनवि स्त्र के सन्िभि में

अजल का खौि तारी है अज़ल से चकसी ने एक लम्हा भी चजया क्या साहित्यम

उिास करते हैं सब रङ्ग इस नगर के मुझे ये क्या चनगाह चमली उम्र से गुजर के मुझे जो जह्न-ओ-चिल की सभी वुसअतों से बाहर है तलाशना है उसे रूह में उतर के मुझे वुसअत - चवस्तार, फै लाव

कहा​ाँ ठहरना, कहा​ाँ तेज़-गाम िलना है थकन चसखायेगी आिाब अब सिर के मुझे तेज़-गाम - तेज़-क़िम

मैं अन्धकार के सीने को िीर सकती हाँ ये एक चकरन ने बताया चबखर-चबखर के मुझे जो खींि कर के मुझे ले गया रसातल में वही तो ख़्वाब चिखाता रहा चशखर के मुझे वर्ष 1 अङ् क 4

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साहलम शुजा अन्सारी

नवीन सी. चतव ु ेदी

जब सरू ज िद्द,ू नचिया​ाँ पी जाते हैं तटबन्धों के चमलने के चिन आते हैं िोट पर उसने चफर लगाई िोट हो गई और भी चसवाई िोट

रातें ही राहों को चसयाह नहीं करतीं चिन भी कैसे-कैसे चिन चिखलाते हैं

उम्र भर ज़ख्म बोए थे उस ने उम्र भर हम ने भी उगाई िोट

बिी-खुिी ख़ुशबू ही िमन को चमलती है कली िटखते ही भाँवरे आ जाते हैं

मरहम ए एतबार की खाचतर मुद्दतों खन ू में नहाई िोट

नाज़ुक चिल वाले अक्सर होते हैं शापि आहट चमलते ही पञ्छी उड़ जाते हैं

चिल का हर ज़ख्म मुस्करा उठा िे ख कर उसको याि आई िोट

चिल चजि पर आमािा हो तो बह्स न कर बच्िों को बच्िों की तरह समझाते हैं

होंठ जुचम्बश न कर सके लेचकन कर गई चफर भी लब क़ुशाई िोट

हम तो गहरी नींि में होते हैं अक्सर पापा हौले-हौले सर सहलाते हैं

आज बे साख्ता वो याि आया आज मौसम ने चफर लगाई िोट

और चकसी िुचनया के वचशन्िे हैं हम या​ाँ तो सैर-सपाटा करने आते हैं

चमट गए सब चनशान ज़ख्मों के कर गई आज बे विाई िोट

िम-घोंटू माहौल में ही जीता है सि सब को सब थोड़े ही झुठला पाते हैं

ज़बि याँ ू तो बिन पे थी “साचलम ” रूह तक कर गयी रसाई िोट

चिन में ख़्वाब सजाना बन्ि करो साहब आाँखों के नीिे धब्बे पड़ जाते हैं

साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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आहञ्ललक गजलें पञ्जािी गजलें - हशव कुमार िटालवी

मे रे मौला की इनायत के सबब पहु ाँिा है ज़राि -ज़राि यहा​ाँ रहमत के सबब पहु ाँिा है मौला - स्वामी /स माचलक /स प्रभु, इनायत - कृपा, के सबब के कारण से

कोई सञ्जोग नहीं है ये अनाचसर का सिर या​ाँ हररक शख़्स इबाित के सबब पहु ाँ िा है अनाचसर का सिर - पञ्ि-भत ू की यारा, याचन पथ्ृ वी पर मनुष्ट्य योचन में जन्म

िोस्त-अहबाब हक़ीमों को िुआ िे ते हैं जबचक आराम अक़ीित के सबब पहु ाँ िा है

मैनाँ ू मे रा शबाब लै बैठा रङ्ग गोरा गुलाब लै बैठा चिल िा1 डर सी चकते 2 न लै बैठे लै ही बैठा जनाब लै बैठा

अक़ीित - श्रद्धा /स चवश्वास

चवहल [चवह्ल]3 जि4 वी चमली है फजाि तों5 तेरे मुख िी चकताब लै बैठा

न मुहब्बत न अिावत न िरागत न चवसाल चिल जुनाँ ू तक तेरी िाहत के सबब पहु ाँ िा है

चकन्नी6 बीती है चकन्नी बाकी है मैनाँ ू एहो7 चहसाब लै बैठा

िरागत - अलग होना /स चनवचृ त्त, चवसाल - चमलन, जुनन ू उन्माि /स पागलपन

एक तो ज़ख्म चिया उस पे याँ ू िरमाया 'नवीन' "तीर तुझ तक, तेरी शुहरत के सबब पहु ाँ िा है" साहित्यम

`चशव ` नाँ ू 8 गम ते 9 ही इक भरोसा सी10 गम तो कोरा जवाब लै बैठा 1 का,2 कहीं 3 फुसि त 4 जब 5 से 6 चकतनी 7 यही 8 को 9 पर 10 था वर्ष 1 अङ् क 4

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गज ु राती गजलें – सञ्जू वाला

નથી પામવાની રહી રઢ યથાવત અપેક્ષા થતી જાય છે દ્રઢ યથાવત

नथी पामवानी रही रढ यथावत अपेक्षा थती जाय छे दृढ़ यथावत पहले जैसी पाने’ की चजज्ञासा नहीं रही अपेक्षा यथावत दृढ़ होती जा रही है હશે અંત ઊંચાઈનો ક્ા​ાંક ચોક્કસ કળણ સાથ રાખી ઉપર ચઢ યથાવત

जाि1 मैनाँ ू आ गयी गम खाण िी हौली-हौली रो के जी परिाण2 िी िङ्गा होया तू पराया हो गया मुक3 गयी चिन्ता तैनाँ3ू अपनाण िी मर ते जा​ाँ पर डर है िम्मा वाचलयो धरत [धति ]वी चवकिी है मुल शमशाण िी4 ना चिओ [द्यो] मैनाँ ू साह5 उधारे िोस्तों लै के मुड़ चहम्मत नहीं परताण6 िी ना करो `चशव`िी उिासी िा इलाज रोण िी6 मजी है अज8 बइमाण िी 1 जानना 2 बहलाना 3 तुझको 4 चहम्मत वालो याचन पैसे वालो , मैं मर तो जाऊाँ लेचकन शमशान का मल्ू य भी पड़ता है याचन वह भी चबकती है 5 सांस , जीवन 6 लौटाना 7 रोने की 8 आज

[आ. प्राण शमाि जी के सौजन्य से] साहित्यम

हशे अन्त ऊाँिाई नो क्या​ाँक िोक्कस कणण साथ राखी उपर िढ़ यथावत चनचश्चत ही कहीं न कहीं ऊाँिाई का अन्त होगा पहिानने की कला और हौसले के साथ यथावत ऊपर िढ़ता रह પવનની ઉદાસી જ દરરયો બની ગઈ , પડ્યો છે સમેટાઈ ને સઢ યથાવત

पवन नी उिासी ज िररयो बनी गई पडयौ छे समे टाई ने सढ़ यथावत पवन की जो उिासी थी वह खुि इक समंिर बन गयी, उसकी वजह से यथावत चसमटा हु आ सढ़ भी पड़ा हु आ है જરા આવ-જા આથમી તો થય ાં શ ાં ? જઓ ઝળહળે તેજ-નો ગઢ યથાવત

जरा आव-जा आथमी तो थयाँ ू शं ू जुओ झणहणे तेज – नो गढ़ यथावत आना-जाना थम गया तो क्या हु आ ? वह तेज का पुञ्ज तो अबभी यथावत है ! ----वर्ष 1 अङ् क 4

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વાત વચ્ચે વાત બીજી શીદ કરવી ? પ્રેમમા​ાં પાંચાત બીજી શીદ કરવી ?

वात वच्िे वात बीजी शीि करवी प्रेम मा​ाँ पञ्िात बीजी शीि करवी एक बात के बीि में िूसरी बात क्याँ ू करना प्रेम में कोई अन्य पञ्िायत क्याँ ू करना કરવી હો, પણ રાત બીજી શીદ કરવી ? એક મ ૂકી જાત બીજી શીદ કરવી ?

करवी हो पण रात बीजी शीि करवी एक मक ू ी जात बीजी शीि करवी करनी हो, लेचकन िूसरी रात क्या करना एक ज़ात छोड़ कर िूसरी ज़ात क्या करना સૌ અરીસા જેમ સ્વીકાયું યથાતથ તથ્યની ઓકત બીજી શીદ કરવી ?

सौ अरीसा जेम स्वीकायि ू यथायथ तथ्य नी औकात बीजी शीि करवी िपि ण की मानी सब कुछ जैसे थे, वैसे ही हैं तथ्य को िूसरा अथि िे कर क्या करना है ? છે પડ્ી તો જાળવી લઈએ જતનથી માહ્યલે મન ભાત બીજી શીદ કરવી ?

छे पडी तो जाळवी लइए जतन थी माह्यले मन भात बीजी शीि करवी जो छाप मन पर लगी है उसको साँभाल ले यह जी है ! उस पर िूजी छाप चकस चलए ?

વાંશ જો વારસાઈ જાણી જો ! આપણી શ ાં સગાઈ જાણી જો !

वन्श जो वारसाई जाणी जो आपणी शं ू सगाई जाणी जो हम सब आिम की नस्ल है हमारे बीि वही ररश्ता है એક એની ઇકાઈ જાણી જો થઈ ફરે છે ફટાઈ જાણી જો !

एक एनी इकाई जाणी जो थई फरे छे फटाई जाणी जो उनकी इखाथ्थ सत्ता तो िे खो कोई बे-लगाम लड़की हो जाने !! તપ,તીરથ ને અઠાઈ જાણી જો પ્રીત પોતે પીરાઈ જાણી જો !

तप-चतरथ एनबीई अठाई जाणी जो प्रीत पोते चपराई जाणी जो तप, तीथि और अठाईतप िे ख ले उन सब में प्रीत ही सब से ऊाँिी है !! શાહીટીપે સરસ્વતી રાજેકેવી છે આ કમાઈ જાણી જો !

शाहीटीपे सरस्वती राजे केवी छे आ कमाई जाणी जो शाही की बाँिू ही सरस्वती है और वही तो हमारी कमाईहै !!

----साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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अन्य हिलोक हसिंि ठकुरे ला को सम्मान खगचड़या ( 8 - 9 माि​ि 2014 ) सुपररचित साचहत्यकार और कुण्डचलयाकार श्री चरलोक चसंह ठकुरे ला को उनके कुण्डचलया संग्रह 'काव्यगन्धा' के चलए चहन्िी भाषा साचहत्य पररषि ,खगचड़या (चबहार ) द्वारा स्वणि सम्मान से सम्माचनत चकया गया है। चहन्िी भाषा साचहत्य पररषि का िो चिवसीय 13 वां महाचधवेशन ( फणीश्वर नाथ रे णु स्मचृ त पवि ) का शुभारम्भ खगचड़या के कृष्ट्णानगर चस्थत पररषि कायाि लय पररसर में झंडोतोलन और िीप जलाकर हु आ। मुख्य अचतचथ श्यामल जी , अंग -माधुरी के सम्पािक डा​ाँ. नरे श पांडे िकोर ,डॉ चसद्धेश्वर काश्यप ने िीप जलाकर उिघाटन सर का आगाज चकया। स्वागताध्यक्ष कचवता परवाना ने स्वागत भाषण पढ़ा। इस अवसर पर कौचशकी (रैमाचसकी ) के रे णु अंक का चवमोिन डा​ाँ. नरे श पांडे िकोर ने चकया। चद्वतीय सर में कचव सम्मलेन का आयोजन चकया गया ,चजसमे कई कचवयों और गजलकारों ने अपनी प्रस्तुचतयों से श्रोताओं का मन मोहा। 9 माि​ि को ततृ ीय सर में एकांकी प्रिशि न और काव्यपाठ चकया गया। ितुथि सर में सम्मान समारोह के मध्य श्री चरलोक चसंह ठकुरे ला को डॉ.रामवली परवाना स्वणि स्मचृ त सम्मान तथा सवि श्री िचन्रका ठाकुर िे शिीप , कृपा शंकर शमाि 'अिक ू ' ,अवधेश कुमार चमश्र ,अचमत कुमार लाडी , डॉ. जी. पी. शमाि , हाचतम जावेि,अवधेश्वर प्रसाि चसंह , संजीव सौरभ हीरा प्रसाि हरे न्र , रमण सीही , डॉ. राजेन्र प्रसाि , रामिे व पंचडत राजा , कचवता परवाना , कैलाश झा चकंकर को रजत स्मचृ त सम्मान से सम्माचनत चकया गया। अंत में पररषि सचिव श्री नन्िे श चनमि ल ने सभी का धन्यवाि ज्ञापन चकया। नन्िे श चनमि ल सचिव चहन्िी भाषा साचहत्य पररषि ,खगचड़या (चबहार ) चरलोक चसंह ठकुरे ला - सम्पकि - 09460714267

साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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समीक्षा - शाकुन्तलम - ’एक कालजयी कृहत का अिंश’ ....पिं० सागर हिपाठी

डा० भल्ला की कृचत"शाकुन्तलम्" छ्न्िात्मक लयबद्धता की काव्य श्रङ्खला से परे , पौराचणक मल ू कथा से चभन्न, मल ू लेखकों से अलग थलग अपने आप में नए आयाम में चपरोए व्यकचतगत प्रयास का सान्स्कृचतक मनका है. मल ू ग्रन्थ से परे रहकर भी शकुन्तला की व्यथा स्पि है, नारी पारों के ियन में सहजता में लेखक का प्रयास झलकता है. नवीन पररवेश में नए स्वयंभू कथानक का समावेश नत ू न प्रयास है, पाठक अिचम्भत हो कर भी रसात्म होंगे यह पयि वेक्षण का चवषय होगा. कुछ प्रश्न चिन्ह लेखक की खोजी प्रवचृ त के द्योतक हैं. प्रगचतशील चविारों को आकचषि त करने की क्षमता लेखक की लेखनी में है. मार पयि वेक्षक हो कर भी मैंने इसे आत्मसात चकया है. सकारात्मक अनुभचू त से भर गया हाँ. ऐसी कालजयी कृचतयों पर आलोिना, आकलन, समालोिना फबती नहीं है.

मल ू ग्रन्थ अचभज्ञान ’शाकुन्तलम्’ पौराचणक धरोहर और नाट्य कृचत का अनुपम संयोग है. डा० भल्ला की रिना धचमि ता, काव्य भचि और लेखन उत्साह प्रचतम अिभुत और चकसी सीमा तक अचवश्वसनीय सा है. उनकी व्यचिगत तेजचस्वता स्पि रूप से ’शाकुन्तलम् एक अमर प्रेम गाथा’ के कण कण में झलकती है. काचलिास की कालजयी कृचत का अन्श मार होना भी एक गौरव का चवषय है. पाठकगण, शोधकताि , समालोिक, चनचश्चत ही नए आयाम इस ग्रन्थ में ढूाँढेंगे यह मे रा मन्तव्य है.

साहित्यम

वर्ष 1 अङ् क 4

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